Teacher’s role in inclusive education notes by India’s top learners

*⚜️समावेशी शिक्षा में शिक्षक की भूमिका⚜️*

🌸किसी शिक्षण अधिगम व्यवस्था को प्रभावकारी बनाने के लिए शिक्षक की भूमिका सर्वोपरी होती हैं। समावेशी शिक्षा में भी शिक्षकों तथा अन्य विशेषज्ञों की भूमिका अहम मानी जाती हैं।
चूंकि समावेशन की प्रक्रिया में सामान्य कक्षा अध्यापक तथा विशेष आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु विशेष अध्यापकों की व्यवस्था होती हैं।🌸
*समावेशी शिक्षा में अध्यापक की महत्वपूर्ण भूमिका इस प्रकार हैं:-*

✍🏻शिक्षक कक्षा में सहयोग की भावना बढ़ाने के लिए कुछ तरीको का उपयोग करते हैं:-

🌈 बालको में समुदाय की भावना बढ़ाने के लिए कार्यक्रम आयोजित करवाना।

🌈 संबंधित विचारों का कक्षा में आदान-प्रदान करवाना।

🌈 समुदाय की भावना को बढ़ाने के लिए खेलो का आयोजन करवाना।

🌈 गीतों और पुस्तकों का आदान-प्रदान करवाना।

🌈 छात्रों को समस्या के समाधान में शामिल करना।

🌈 छात्रों को शिक्षक की भूमिका निभाने का अवसर देना।

🌈 विभिन्न क्रियाकलापों के लिए छात्रों का दल समुदाय बनाना।

🌈छात्रों के लिए लक्ष्य- निर्धारण करना।

🌈अभिभावकों का सहयोग लेना।

🌈उचित वातावरण का निर्माण करना।

🌈 विशेष प्रशिक्षित शिक्षकों की सेवा लेना।

*⚜️दल शिक्षण पद्धति⚜️*
दल शिक्षण पद्धति द्वारा सामान्यतः व्यवहार में आने वाली समावेशी प्रथाएं:-

*🌈एक शिक्षा, एक सहयोग_* इस में एक शिक्षक शिक्षा देता हैं और दूसरा प्रशिक्षित।
शिक्षक विशेष छात्र की आवश्यकताओं को और कक्षा को सुव्यवस्थित रखने में सहयोग करता है।

*🌈एक शिक्षा एक निरीक्षण_* एक शिक्षक शिक्षा देता हैं तो दूसरा छात्रों का निरीक्षण करता है।

*🌈स्थिर और घूर्णन शिक्षा_* इसमें कक्षा को अनेक भागों में बांटा जाता हैं। मुख्य शिक्षक शिक्षण कार्य करता है,दूसरा विशेष शिक्षक दूसरे दलो पर इसी की जांच करता हैं।

*🌈समांतर शिक्षा_* इसमें आधी कक्षा को मुख्य शिक्षक तथा आधी को विशिष्ट शिक्षा प्राप्त शिक्षक शिक्षा देता हैं।
दोनों समूहों को एक जैसा पाठ पढ़ाया जाता हैं।

*🌈वैकल्पिक शिक्षा_* मुख्य शिक्षक अधिक छात्रों को पाठ पढ़ाता है,जबकि विशिष्ट शिक्षक छोटें समूह को दूसरा पाठ पढ़ाता है।

*🌈समूह शिक्षा_* यह पारंपरिक शिक्षा पद्धति है। दोनों शिक्षक योजना बनाकर शिक्षा देते हैं। यह काफी सफल शिक्षण पद्धति है।

*🙏🏻🙏🏻धन्यवाद् 🙏🏻🙏🏻*
📚✍🏻
*Notes by~*
*Mनिषा Sky Yadav*

🌺🦚🌺 समावेशी शिक्षा में शिक्षक की भूमिका🌺🦚🌺

🦚 किसी भी शिक्षण अधिगम को प्रभावी रूप से चलाने के लिए एक शिक्षक की भूमिका सर्वोपरि होती है जिस तरह एक अच्छे घड़ी को तैयार करने के लिए कुम्हार की आवश्यकता होती है उसी तरह एक बालक संपूर्ण विकास के लिए शिक्षक की आवश्यकता होती है

समावेशी की प्रक्रिया में सामान्य कक्षा अध्यापक तथा विशेषताओं की पूर्ति हेतु विशेष अध्यापकों की व्यवस्था की जाती है

🦚 समावेशी शिक्षा में अध्यापक के महत्वपूर्ण भूमिका निम्नलिखित प्रकार से है।

🌺 बालकों मेंसामुदायिक भावना को विकसित करने के लिए एक साथ सामूहिक रूप से खेल का आयोजन करवाना चाहिए

🌺 संबंधित नोट्स का आदान-प्रदान करवाना।
🌺 संबंधित विचारों को कक्षा में आदान-प्रदान करवाना।
🌺 सामुदायिक भावना बढ़ाने के लिए अलग-अलग कार्यक्रम तैयार करना।
🌺 छात्रों को शिक्षक की भूमिका निभाने का अवसर देना।
🌺 छात्रों का अलग-अलग क्रियाकलापों के लिए ग्रुप बनवाना।
🌺 स्वतंत्र एवं प्रिय वातावरण का निर्माण करवाना ताकि छात्र आसानी से अधिगम कर सकें।
🌺 हर बच्चे के लिए लक्ष्य निर्धारण उचित तरीके से करवाना ताकि एक छात्र अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सके।
🌺 विशेष प्रशिक्षित शिक्षकों की सेवा लेना।

🌺🦚दल शिक्षण पद्धति🌺🦚🌺

दल शिक्षण पद्धति द्वारा सामान्य व्यवहार में आने वाली समावेशी प्रथाएं-

🌈 एक शिक्षा, एक सहयोग-इसमें एक शिक्षक शिक्षा देता है और दूसरा प्रशिक्षित शिक्षक विशेष छात्र के वक्ताओं को और कक्षा को सुरक्षित रखने में सहयोग करता है।

🌺 स्थिर और घूर्णन शिक्षा-इसमें कक्षा को अनेक भागों में बांटा जाता है प्रमुख शिक्षक शिक्षण कार्य करता है दूसरा विशेष शिक्षक दूसरे दल पर किसी की जांच करता है।

🌺 समांतर शिक्षा-इसमें आधी कक्षा को मुख्य शिक्षक तथा अधिक कक्षा को विशिष्ट शिक्षा प्राप्त शिक्षक शिक्षा देता है

🌺 वैकल्पिक शिक्षा-मुख्य शिक्षक अधिक छात्रों को पाठ पढ़ाता है जबकि विशिष्ट शिक्षक छोटे समूह को दूसरा पाठ पढ़ाता है

🌺 सामूहिक शिक्षा-यह पारंपरिक शिक्षा पद्धति है दोनों शिक्षक योजना बनाकर शिक्षा देते हैं यह काफी सफल शिक्षण पद्धति है।

🖊️🖊️📚📚 Notes by……. Sakshi Sharma📚📚🖊️🖊️

💠💠 समावेशी शिक्षा में शिक्षक की भूमिका 💠💠

💫 किसी भी शिक्षण प्रक्रिया को अधिक प्रभावी बनाने के लिए शिक्षक की भूमिका सबसे पहले योगदान देती है। समावेशी शिक्षा में शिक्षक और विशिष्ट शिक्षक दोनों की भूमिका महत्वपूर्ण मानी गई है।
समावेशन की प्रक्रिया में कक्षा की सामान्य और विशेष आवश्यकताओं की पूर्ति की व्यवस्था अध्यापकों के द्वारा की जाती है।
☣️ समावेशी शिक्षा में शिक्षक की भूमिका इस प्रकार से होती है :-
✍️ शिक्षक कक्षा में सहयोग की भावना और आपसी सम्बन्धों को अच्छा बनाने के लिए कुछ तरीकों का उपयोग करते हैं।
🔷 सामुदायिक भावना को विकसित करने के लिए एक साथ खेलो का आयोजन करना।
🔷 विद्यार्थियों को समस्या के समाधान में शामिल करना।
🔷 बच्चों में नोट्स और पुस्तकों का आदान-प्रदान करवाना।
🔷सम्बन्धित विचारों का आदान-प्रदान करवाना।
🔷 बच्चों में सामुदायिक भावना बढ़ाने के लिए अलग-अलग कार्यक्रम तैयार करना।
🔷 छात्रों को शिक्षक की भूमिका निभाने का अवसर प्रदान करना।
🔷 छात्रों का अलग-अलग क्रियाकलापों के लिए समूह बनाना।
🔷स्वस्थ्य और प्रिय वातावरण का निर्माण करना।
🔷हर बच्चे के लिए लक्षण निर्धारण उचित तरीके से करना।
🔷 अभिभावकों का सहयोग लेना।
🔷 विशेष प्रशिक्षित शिक्षकों की सेवा लेना।

💠 दल शिक्षण पद्धति( Group teaching mathed)💠
💫 एक शिक्षक, एक सहयोग:-
इसमें एक शिक्षक शिक्षा देता है और दूसरा प्रशिक्षित शिक्षक विशेष छात्रों की आवश्यकताओं को और कक्षा को सुव्यवस्थित रखने में सहयोग करता है।
💫 एक शिक्षक, एक निरीक्षण:-
इसमें एक शिक्षक शिक्षा देता है और दूसरा शिक्षक निरीक्षण करता है।
💫 स्थिर और घुर्णन शिक्षा :-
इसमें कक्षा को अनेक भागों में बांटा जाता है। मुख्य शिक्षक शिक्षा देता है और दूसरा विशेष शिक्षक दूसरे दलों पर उसी की जांच करता है।
💫 समान्तर शिक्षा:-
इसमें कक्षा को दो दलों में बांटा जाता है। आधी कक्षा को मुख्य शिक्षक और आधी कक्षा को विशेष शिक्षक शिक्षा प्रदान करते हैं।
💫 वैकल्पिक शिक्षा:-
इसमें मुख्य शिक्षक अधिक छात्रों को या बड़े समूह को शिक्षा प्रदान करते हैं और विशेष शिक्षक कम छात्रों या छोटे समूह को शिक्षा प्रदान करते हैं।
💫 समूह शिक्षा :-
यह पारम्परिक शिक्षा पद्धति है। इसमें दोनों शिक्षक शिक्षण के लिए बेहतर योजना बनाकर के एक साथ शिक्षा प्रदान करते हैं। यह काफी सफल शिक्षा पद्धति है।
📝📝 Notes by ➖
✍️ Gudiya Chaudhary 🖋️🖋️

⚖️⚖️समावेशी शिक्षा में शिक्षक की भूमिका⚖️⚖️

📝समावेशी शिक्षा में शिक्षण को अधिक सुदृढ़ ,सरल, एवं रोचक बनाने के लिए शिक्षक की भूमिका महत्वपूर्ण है,

📝समावेशी शिक्षा में भी शिक्षक, विशिष्ट शिक्षक वा मनोवैज्ञानिक की भूमिका महत्वपूर्ण है एवं आवश्यक मानी जाती है।

🤼‍♀️सामुदायिक भावना को विकसित करने के लिए एक साथ खेल खिलवाना चाहिए🎳

📒विद्यार्थियों को समस्या के समाधान में शामिल करना चाहिए।

📚बच्चों में नोट्स व किताबों का आपस मेंआदान-प्रदान कराएंगे जिससे उनमें आपस में मद्द की समझ विकसित होगी,और इससे सहयोग की भावना का विकास होगा।

🧠🔗संबंधित विचारों का कक्षा में 📥आदान-📤प्रदान करना जरूरी है। (Sharing thoughts, expression by each other)

📝✨छात्रो में सामुदायिक भावना को बढ़ाने के लिए अलग-अलग कार्यक्रम तैयार करना चाहिए ।

👨🏻‍🏫छात्रों को शिक्षक भूमिका निभाने का अवसर प्रदान करना चाहिए, जिससे उनमें शिक्षको के प्रति आदर,सत्कार की भावना का विकास एवं डर को दूर किया जा सके।

📒छात्रों के अलग-अलग क्रियाकलापों के लिए ग्रुप बनाकर कार्य करवाना ।

📝🧠स्वस्थ /प्रिय वातावरण का निर्माण करना चाहिए जिससे बच्चों को सामान्य, मुक्त आत्मचिंतन का अवसर मिले जिससे अधिगम अधिक सुगम हो एवं बच्चे सरललता से सीख सके ।
अभिभावकों का भी सहयोग अवश्य लेना चाहिए क्योंकि अभिभावक स्वंय के बच्चे की रुचि,आदते, आदि बेहतर ढ़ंग से जानते है इसलिए उनके कमजोर एवं मजबूत पक्ष को सरललता से समझ पाएंगे कि किस बात को कैसे एवं किस प्रकार समझाएंगे ,
बच्चा किस प्रकार का व्यवहार करता है, अच्छा व्यवहार ना करने में आ रही बाधा को ढूंढ कर उसका निदान करेंगे।

👀विशेष प्रशिक्षित 🧠शिक्षकों की मदद् लेना जिससे कमियों को बेहतर तरीके से समझकर उचित तरीकों से निवारण किया जा सके।

✍️✍️दल शिक्षण पद्धति✍️✍️
1-💫एक शिक्षक -एक सहयोगी💫
पहला शिक्षक शिक्षण का कार्य करता है,
दूसरा शिक्षक-विशिष्ट छात्रों की जरूरत , व कक्षा को सुव्यवस्थित,सुढृंढ़ बनाने का कार्य करता है।

2-💫💫एक शिक्षक-एक निरीक्षक💫💫
पहला शिक्षक शिक्षा का कार्य करता है ,
दूसरा शिक्षक-कक्षा का निरीक्षण करता है शांतिपूर्ण ढंग से,एवं हो रही गतिविधियों एवं क्रियाकलापों का भी निरीक्षण करता है।

3-💫💫स्थिर और घूर्णन शिक्षा 💫💫
पहला शिक्षक शिक्षण कार्य करता है,
दूसरा शिक्षक बच्चों के अलग-अलग संघ के पास जाकर जांच परख करता हैं।

4-💫💫समांतर शिक्षा 💫💫
🔗 इस प्रकार की शिक्षा व्यवस्था में कक्षा को दो समान भागों में बांट दिया जाता है,
पहला शिक्षक प्राप्त अपनी कक्षा का सुदृढ़, रुचि पूर्ण वा निर्धारित पाठ्यक्रम को सरलतम से पढ़ाता है वा निर्धारित समय में पूर्ण भी करता है,
दूसरा शिक्षक भी अपनी कक्षा का उचित एवं उत्तम प्रकार से पाठ्यक्रम को सरलतम रुचि पूर्ण बनाकर पढ़ाता है,वा उचित समय ट
पर ही प्रशिक्षण पूर्ण करता है।

5-💫💫वैकल्पिक शिक्षा💫💫
पहला शिक्षक-मुख्य शिक्षक के रूप में अधिक छात्रो को पढ़ाएगा सामान्य स्तर पर,
दूसरा शिक्षक-कम ह
समूह या छोटे दल को पढ़ाएगा सामान्य से उच्च स्तर पर।

6-💫💫समूह शिक्षा💫💫

दोनों शिक्षक साथ में योजना बनाकर शिक्षा प्रदान करेंगे l👀👀

Notes by-$hikhar pandey👍👍

🌀💠🌀 *समावेशी शिक्षा में शिक्षक की भूमिका* 🌀💠🌀

समावेशी शिक्षा में शिक्षक की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। एक शिक्षक ही समावेशी शिक्षा में केंद्र बिंदु की भूमिका अदा करता है। प्रत्येक बालकों के सर्वांगीण विकास के लिए शिक्षक की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

📚 शिक्षक कक्षा में सहयोग की भावना बढ़ाने के लिए कुछ तरीकों का उपयोग करते हैं जो इस प्रकार से हैं➖

👉🏻 सामुदायिक भावना विकसित करने के लिए एक साथ खेल का आयोजन करना चाहिए।

(अर्थात शिक्षक के द्वारा एक साथ खेल का आयोजन करने से बच्चों में आपस में सहयोग की भावना विकसित होती है।)

👉🏻 विद्यार्थियों को समस्या के समाधान में शामिल करना चाहिए।

(अर्थात विद्यार्थियों को स्वयं समस्या का समाधान खोजने के लिए अवसर प्रदान करना चाहिए जिससे समस्त विद्यार्थी स्वयं समस्या का समाधान खोज सके।)

👉🏻 बच्चों में नोट्स और किताबों का आदान प्रदान करना।

(अर्थात विद्यार्थियों में नोट्स और किताबों के आदान-प्रदान करने से किसी प्रकरण के बारे में संदर्भ अनुसार वर्णन कर सकें।)

👉🏻 संबंधित विचारों का कक्षा में आदान-प्रदान करवाना।

👉🏻 सामुदायिक भावना बढ़ाने के लिए अलग-अलग कार्यक्रम तैयार करवाना।

👉🏻 छात्रों को शिक्षक की भूमिका निभाने का अवसर देना चाहिए।

(अर्थात छात्रों को शिक्षक की भूमिका निभाने का अवसर देने से छात्र भी शिक्षक के दायित्व को समझ पाएंगे)

👉🏻 छात्रों का अलग-अलग क्रियाकलापों के लिए ग्रुप बनाना।

👉🏻 स्वस्थ एवं प्रिय वातावरण का निर्माण करवाना। जिससे बच्चे को अधिगम करने में सुविधा हो और रुचि पूर्ण अधिगम कर सके।

👉🏻 प्रत्येक बच्चों के लिए लक्ष्य निर्धारण उचित तरीके से करें।

👉🏻 अभिभावकों का भी सहयोग लेना चाहिए।

👉🏻 विशेष प्रशिक्षित शिक्षकों की सेवा लेना।

🍃🍂 *दल शिक्षण पद्धति*🍂🍃

1️⃣ *एक शिक्षक एक सहयोग*➖इस मॉडल में एक शिक्षक शिक्षा देता है और दूसरा प्रशिक्षित शिक्षक विशेष छात्र की आवश्यकताओं को और कक्षा को सुव्यवस्थित रखने में सहयोग करता है या बालकों की आवश्यकताओं को पूरा करेंगे।

2️⃣ *एक शिक्षक एक निरीक्षण*➖

इस मॉडल में एक शिक्षक शिक्षा देता है तथा दूसरा प्रशिक्षित शिक्षक छात्रों का निरीक्षण करता है।

3️⃣ *स्थिर और घूर्णन शिक्षा*➖ इसमें कक्षा को अनेक भागों में बांटा जाता है मुख्य शिक्षक शिक्षण कार्य करता है तथा दूसरा विशेष शिक्षक दूसरे दलों पर इसी की जांच करता है।

4️⃣ *समांतर या समानांतर शिक्षा*➖ इसमें कक्षा को दो समूहों में बांटा जाता है अर्थात आधी कक्षा को मुख्य शिक्षक तथा आधी कक्षा को विशिष्ट शिक्षा प्राप्त शिक्षक शिक्षा देता है दोनों समूहों को एक जैसा पाठ पढ़ाया जाता है।

5️⃣ *वैकल्पिक शिक्षा*➖

इस मॉडल में मुख्य शिक्षक अधिक छात्रों को पाठ पढ़ाता है जबकि विशिष्ट शिक्षक छोटे समूह को दूसरा पाठ पढ़ाता है।

6️⃣ *समूह शिक्षा*➖

यह पारंपरिक शिक्षा पद्धति है इस मॉडल में दोनों शिक्षक साथ में योजना बनाकर शिक्षा देते हैं यह काफी सफल शिक्षण पद्धति है।

✍🏻✍🏻notes by manisha gupta✍🏻✍🏻

🌈समावेशी शिक्षा में शिक्षक कि भूमिका 🌈

किसी शिक्षण अधिगम व्यवस्था को प्रभावकारी बनाने के लिए शिक्षक कि भूमिका अहम होती है समावेशी शिक्षा में भी शिक्षकों तथा अन्य विशेषज्ञों कि भूमिका अहम मानी जाती है क्योंकी समावेशन कि प्रक्रिया में सामान्य कक्षा अध्यापक तथा विशेष आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु विशेष अध्यापक कि व्यवस्था की जाती है |

🌺समावेशी शिक्षा में अध्यापक की भूमिका इस प्रकार से है-

शिक्षक कक्षा में सहयोग कि भावना बढ़ाने के लिए कुछ तरीको का उपयोग करते हैं

🌹बालकों में समुदाय की भावना विकसित करने के लिए एक साथ सामूहिक खेल का आयोजन करवाना चाहिए |

🌹बच्चों को समस्या के समाधान में शामिल करना चाहिए |

🌹छात्रों को शिक्षक की भूमिका निभाने का अवसर देना चाहिए |

🌹छात्रों में समुदाय की भावना बढ़ाने के लिए कार्यक्रम तैयार करना चाहिए |

🌹हर बच्चे के लिए लक्ष्य निर्धारण उचित तरीके से करना चाहिए |

🌹अभिभावकों कि सहयोग लेना चाहिए |

🌹विशेष प्रशिक्षित शिक्षकों कि सेवा लेनी चाहिए |

🌹संबंधित विचारों को कक्षा में आदान – प्रदान करवाना चाहिए |

🌹विभिन्न क्रियाकलापों के लिए छात्रों का दल बनाना चाहिए |

🌹अच्छे वातावरण का निर्माण करना चाहिए |

🌼 दल शिक्षण पद्धति 🌼

🌷एक सहयोग , एक शिक्षक –

इसमें एक शिक्षक शिक्षा देता है और दूसरा प्रशिक्षित शिक्षक विशेष छात्र कि आवश्यकताओं को और कक्षा को सुव्यवस्थित रखने में सहयोग करता है |

🌷एक शिक्षक , एक निरीक्षण –

इसमें एक शिक्षक शिक्षा देते हैं और दूसरा छात्रों का निरीक्षण करते हैं |

🌷स्थिर और घुर्णन शिक्षा –

इसमें कक्षा को अनेक भागों में बांटा जाता है मुख्य शिक्षक शिक्षण कार्य करता है दूसरा विशेष शिक्षक दूसरे दलो पर इसी कि जांच करता है|

🌷समान्तर शिक्षा –

इसमें आधी कक्षा कि मुख्य शिक्षक तथा आधी विशिष्ट शिक्षा प्राप्त शिक्षक शिक्षा देता है दोनों समूहों को एक जैसा पाठ पढ़ाया जाता है|

🌷वैकल्पिक शिक्षा –

मुख्य शिक्षक अधिक छात्रों को पाठ पढ़ाता है जबकि विशिष्ट शिक्षक छोटे समूह को दूसरा पाठ पढ़ाता है |

🌷समूह शिक्षा –

इसमें दोनों शिक्षक योजना बनाकर शिक्षा देते हैं |

🌼🌼Thank you 🌼🌼

Notes by –

🌹Meenu Chaudhary🌹

समावेशी शिक्षा में शिक्षक की भूमिका

1.बालको में सामुदायिक भावना को विकसित करने के लिए एक साथ खेल का आयोजन
2. विद्यार्थियों को समस्या के समाधान में शामिल करना
3. नोट्स और किताबों का आदान प्रदान करना
4. संबंधित विचारों का कक्षा में आदान-प्रदान करना
5. सामुदायिक भावना बढ़ाने के लिए अलग-अलग कार्यक्रम तैयार करना
6. छात्र को शिक्षक की भूमिका निभाने का अवसर देना
7. छात्रों का अलग-अलग क्रियाकलापों के लिए ग्रुप बनाना
8. स्वस्थ और प्रिय वातावरण का निर्माण करना
9. हर बच्चे के लिए लक्ष्य निर्धारण उचित तरीके से करें
10. अभिभावकों का भी सहयोग लेना
11. विशेष प्रशिक्षित शिक्षकों की सेवा लेना।

दल शिक्षण पद्धति

दल शिक्षण छ प्रकार होता है

1.एक शिक्षक ,एक सहयोग -इस प्रकार के शिक्षण में मुख्य शिक्षक कक्षा में शिक्षण कार्य करता है और दूसरा शिक्षक विशेष छात्रों की आवश्यकताओं को पूरा करता है

2.एक शिक्षक ,एक निरीक्षण- इस प्रकार के शिक्षण में मुख्य शिक्षक कक्षा में शिक्षण का कार्य करता है और दूसरा शिक्षक बालकों का निरीक्षण करता रहता है

3.स्थिर और घुर्णन शिक्षा-इस प्रकार की शिक्षा में कक्षा को विभिन्न भागों में बांटा जाता है फिर मुख्य शिक्षक कक्षा में शिक्षण कार्य करता रहता है और दूसरे शिक्षक बच्चों के अलग-अलग दलों की जांच करते रहते हैं

4.समांतर शिक्षा -इस प्रकार की शिक्षण पद्धति में कक्षा को दो भागों में बांटा जाता है आधे भाग में मुख्य शिक्षक शिक्षण कार्य करता है और आधे भाग में विशिष्ट शिक्षक कक्षा में शिक्षण कार्य करता है दोनों एक ही विषय को पढ़ाते हैं

5.वैकल्पिक शिक्षा- इस प्रकार के शिक्षण में मुख्य शिक्षक ज्यादा से ज्यादा छात्रों को पढ़ाता है और दूसरा शिक्षक विकल्प के तौर पर पीछे छूटे हुए छात्रों ,कम छात्रों या छोटे ग्रुप के छात्रों को या जो किसी कारण वंश पीछे रह गए या जो छात्र मंद गति से सीखते हैं उनको पढ़ाता है

6.समूह शिक्षा- इस प्रकार के शिक्षण में दोनों शिक्षक एक साथ सामूहिक योजना बनाकर कक्षा में शिक्षण करते हैं

Notes by Ravi kushwah

🌺🌺 समावेशी शिक्षा में शिक्षक की भूमिका🌺🌺

एक शिक्षक को शिक्षण को प्रभावी बनाने के लिए सबसे बड़ा योगदान होता है जो बच्चे के भविष्य के लिए उत्तरदाई होता है इसे सुदृढ़ तरीके से बनाने के लिए शिक्षक की बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है।

🍁 शिक्षक की भूमिका में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य हैं जो इस प्रकार हैं:-

☘️ सामुदायिक भावना को विकसित करने के लिए एक साथ खेल का आयोजन करना।

☘️ विद्यार्थियों को समस्या के समाधान में शामिल करना।

☘️ पाठ्यक्रम से संबंधित नोट्स या किताबों का आदान प्रदान करना।

☘️ सामुदायिक भावना को बढ़ाने के लिए अलग-अलग कार्यक्रम को तैयार करना।

☘️ संबंधित विचारों का कक्षा में आदान-प्रदान करना।

☘️ छात्रों को शिक्षा की भूमिका निभाने का अवसर देना।

☘️ छात्रों का अलग-अलग क्रियाकलापों के लिए समूह बनाना।

☘️ स्वतंत्र एवं प्रिय वातावरण का निर्माण करना ताकि बच्चे का मानसिक विकास हो।

☘️ हर बच्चे के लिए लक्ष्य निर्धारण उचित तरीके से करना।

☘️ अभिभावकों का भी सहयोग लेना चाहिए जिससे कि बच्चों के मनोबल में वृद्धि हो।

☘️ विशेष प्रशिक्षित शिक्षकों की सेवा लेना।

🌺🌺दल शिक्षण पद्धति🌺🌺

🍁 इसमें सभी प्रकार के बच्चों का ध्यान रखा जाता है जिन्हें विशेष आवश्यकता की जरूरत है उनके लिए भी से शिक्षक होते हैं जैसे कि अलग प्रकार से शिक्षण देना शिक्षकों द्वारा निरीक्षण करना।

☘️ एक शिक्षक ,एक सहयोग
▪️ इसमें एक शिक्षक शिक्षा देता है और दूसरे शिक्षक छात्रों का निरीक्षण करता है। और विशेष आवश्यकता वाले बच्चों का सहयोग करता है।

☘️ एक शिक्षा एक निरीक्षण
▪️ एक शिक्षक शिक्षा देता है तो दूसरा छात्रों का निरीक्षण करता है।

☘️ स्थिर और घूर्णन शिक्षा
▪️ इसमें कक्षा के अनेक भागों में बांटा जाता है मुख्य शिक्षक कार्य करता है दूसरा शिक्षक छात्रों में आसपास घूम कर उसका निरीक्षण करते हैं।

☘️ समानांतर शिक्षा
▪️ इस कक्षा को दो भागों में बांटा जाता है और 2 शिक्षक होते हैं दोनों आधे आधे समूह को पढ़ाते हैं इस समूह में एक ही पाठ का आयोजन दोनों समूह में किया जाता है।

☘️ वैकल्पिक शिक्षा
▪️ इसमें एक शिक्षक अधिक छात्रों को पढ़ाते हैं जबकि विशिष्ट शिक्षक छोटे समूह को दूसरा पाठ पढ़ाते हैं।

☘️ समूह शिक्षा
▪️ यह पारंपरिक शिक्षण पद्धति है इसमें दोनों शिक्षक योजना बनाकर शिक्षा देते हैं यह शिक्षण सफल मानी जाती है ।

🙏🙏Notes by —Abha kumari 🙏🙏

✍️ समावेशी शिक्षा में शिक्षक की भूमिका

💐समावेशी शिक्षा में शिक्षक को अधिक सरल और रुचिकर बनाने के लिए शिक्षक की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण होती है।

💐 समावेशी शिक्षा में एक ही भूमिका में दो बच्चों में अंतर नहीं करना चाहिए क्योंकि सभी बच्चे का व्यक्तित्व अलग अलग होता है कोई बच्चा जल्दी सीखता है कोई बच्चा देर से सीखता है मगर वह सीखता है जरूरी इसलिए शिक्षा को बालक में अंतर नहीं करना चाहिए।

🏵 समावेशी शिक्षा में शिक्षा की भूमिका निम्नलिखित है।

💎 बच्चों में सामुदायिक भावना को विकसित करने के लिए एक साथ खेल का आयोजन करना चाहिए बच्चे खेलते हैं तो उन्हें अपनेपन की भावना आती है।

💎 विद्यार्थी को समस्या के समाधान में शामिल करना चाहिए बच्चे को समस्या का समाधान करना चाहिए शिक्षक को बच्चे को एक साथ मिलकर उनका समस्या का समाधान करना चाहिए बच्चों को कभी भी यह नहीं लगना चाहिए कि शिक्षकों ने अलग करके शिक्षा देते हैं सभी बच्चों को एक साथ मिलकर समस्या का समाधान करना चाहिए शिक्षक को रोल मॉडल बनना चाहिए।

बच्चों की जरूरत को पूरा करना मगर सभी बच्चों के भाव को समझते हुए उन्हें शिक्षा देंगे।

💎 नोट्स और किताबों का आदान प्रदान करना चाहिए संबंधित विचारों का कक्षा में आदान-प्रदान जैसे क्लास में विचारों का आदान प्रदान करते हैं समावेशी शिक्षा में शिक्षक की विचारों का आदान प्रदान करना बहुत ही महत्वपूर्ण है।

💎 सामुदायिक भावना बढ़ाने के लिए अलग-अलग कार्यक्रम तैयार करना जैसे बच्चों को कभी बाहर के भ्रमण के माध्यम से पढ़ाना कभी बच्चों को खेल विधि के माध्यम से पढ़ाना।

💎 छात्रों को शिक्षा की भूमिका निभाने का अवसर देना चाहिए बच्चों को जिम्मेदारी देंगे मौका देंगे तो बच्चे को ऐसा सोचते हैं कि शिक्षा का में ऐसा क्यों बोलते हैं यह रियल रियलिस्टिक होगा।

💎 छात्रों का अलग-अलग ग्रुप बनाना रोल नंबर वाइज उन्हें ग्रुप बनाना है इससे ऐसे प्रत्येक बच्चे को अलग-अलग कार्य करने का मौका भी मिल जाता है जैसे कोई बच्चे अंताक्षरी के माध्यम से खेलते हैं कोई बच्चे को बैडमिंटन खेल पसंद होता है इसी के माध्यम से बच्चे पढ़ते भी हैं ग्रुप एक्टिविटी करने से बचे में एक्टिव रहते है इसलिए बच्चे को अलग अलग क्लास के लिए ग्रुप बनाना चाहिए।

💎 स्वास्थ्य के लिए वातावरण का निर्माण जिससे वह सहनशील बने कई बालक इसलिए स्कूल नहीं जाना चाहते क्योंकि उन्हें कुछ बचे चिढ़ाते हैं जिससे वह स्कूल नहीं जाना चाहते हैं।

💎 अभिभावकों का भी सहयोग लेना चाहिए माता-पिता बच्चों को बेहतर जानते हैं इसलिए बच्चे के कमजोरियों के बारे में जानेंगे कहा उन्हें दिक्कत होती है उनका समाधान निकाल सकते हैं उनके माता-पिता से चर्चा करके क्योंकि बच्चे अक्सर समय अपने माता पिता के साथ ही गुजारते हैं और बच्चे को माता पिता से बेहतर कोई नहीं जान सकता है।

💎 विशेष प्रशिक्षित शिक्षकों की सेवा लेना और ज्यादा से ज्यादा बेहतर बच्चे को बता सकते हैं क्योंकि वह एक्सप्लेन सोते हैं उनसे बहुत कुछ ज्ञान सीख सकते हैं बहुत ही अनुभवी होते हैं।

💐 दल शिक्षण पद्धति 💐
को 6 भागों में बांटा गया है।

1. *एक शिक्षक एक सहयोग है:-* इसमें मुख्य शिक्षा के क्लास करवाइए और एक शिक्षक स्पेशल नीड करवाते हैं विशेष आवश्यकता को जो बच्चे को कम दिखाई देता है या सुनाई देता है उन्हें विशेष आवश्यकता के माध्यम से उन्हें शिक्षा देते हैं।

2. *एक शिक्षक एक निरीक्षण:-* इसमें मुख्य शिक्षक पढ़ाते हैं और दूसरे शिक्षा के बच्चों का अवलोकन करके पढ़ाते हैं।

3. *स्थिर और घूर्णन शिक्षा:-* इसमें मुख्य शिक्षक शिक्षण कराते हैं और दूसरे शिक्षा किए चेक करते हैं कि बच्चे अलग-अलग दलों पर जांच करते हैं या इससे हमारा पढ़ाई पर इंपैक्ट भी करता है।

4. *समांतर शिक्षा:-* मुख्य शिक्षक अघी कक्षा को पढ़ाते हैं और दूसरे शिक्षक आदि कक्षा को पढ़ाते हैं शिक्षा मगर समानता चलते रहता है।

5. *वैकल्पिक शिक्षा:*- मुख्य शिक्षक अघिक छात्रों को शिक्षा देते हैं और दूसरे शिक्षक छोटे ग्रुप में शिक्षा देते हैं जो छुटे बच्चे को शिक्षा देते हैं।

6. *समूह शिक्षा:-* इसमें दोनों साथ में योजना बनाकर शिक्षा देते हैं पारंपरिक शिक्षण पद्धति के अनुसार बच्चे को शिक्षा देते हैं।

Notes By :-Neha Roy 🙏🙏🙏🙏🙏🙏

⭐🍁⭐ समावेशी शिक्षा⭐🍁⭐

🌈 समावेशी शिक्षा में शिक्षक की भूमिका

🌺 समावेशी शिक्षा में शिक्षक को अधिक सरल और रुचिकर बनाने के लिए शिक्षक की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण होती है

🌾🍀 समावेशी शिक्षा में सामुदायिक भावना को विकसित करने के लिए एक साथ खेल का आयोजन करना चाहिए

🌾🍀 समावेशी शिक्षा में विद्यार्थियों को समस्या समाधान में सम्मिलित करना

🌾🍀 समावेशी शिक्षा में विद्यार्थियों के बीच नोट्स और किताबों का आदान प्रदान करने के लिए कहना इससे सहयोग की भावना विकसित होती है

🌾🍀 समावेशी शिक्षा में बच्चों के विचारों का कक्षा में आदान प्रदान करना

🌾🍀 समावेशी कक्षा में सामुदायिक भावना को बढ़ाने के लिए अलग-अलग कार्यक्रम तैयार कराना

🌾🍀 छात्रों को शिक्षकों की भूमिका निभाने के अवसर देना

🌾🍀 छात्रों का अलग-अलग क्रियाकलाप के लिए ग्रुप बनाना

🌾🍀 स्वतंत्र व प्रिय वातावरण का निर्माण करना ताकि बच्चे का मानसिक विकास हो सके

🌾🍀 हर बच्चे के लिए लक्ष्य निर्धारण उचित तरीके से करें

🌾🍀 अभिभावक की सहयोग लेना जिससे कि बच्चे के मनोबल में वृद्धि हो

🌾🍀 विशेष प्रशिक्षण शिक्षकों की सेवा लेना

⭐🍁⭐ दल शिक्षण पद्धति ⭐🍁⭐

🌺 एक शिक्षक, एक सहयोग:-
इसमें एक शिक्षक शिक्षा देता है और दूसरा शिक्षक छात्रों का निरीक्षण करता है और विशेष आवश्यकता वाले बच्चों का सहयोग करता है

🌺 एक शिक्षक, एक निरीक्षण:-
एक शिक्षक शिक्षा देता है तो दूसरा छात्र निरीक्षण करता है

🌺 स्तर और घूर्णन शिक्षा:-
इसमें कक्षा के अनेक भागों में बांटा जाता है मुख्य शिक्षक कार्य करता है और दूसरा शिक्षक छात्रों के आसपास घूम कर उनका निरीक्षण करता है

🌺 समानांतर शिक्षा:– इसमें एक एक कक्षा को दो भागों में बांटा जाता है और 2 शिक्षक होते हैं दोनों आधे आधे समूह को पढ़ाते हैं इसमें एक समूह में एक ही पाठ का आयोजन दोनों समूह के लिए किया जाता है

🌺 वैकल्पिक शिक्षा:-
इसमें एक शिक्षक अधिक छात्रों को पढ़ाते हैं और दूसरा शिक्षक बड़े छात्रों को पढ़ाते हैं

🌺 समूह शिक्षा:-
इसमें दोनों शिक्षक योजना बनाकर शिक्षा देते हैं

✍🏻✍🏻✍🏻Menka patel ✍🏻✍🏻✍🏻

🌺⭐🍁🌺⭐🍁🌺⭐🍁🌺⭐🍁🌺⭐🍁🌺⭐🍁🌺⭐🍁🌺⭐🍁

🔆 समावेशी शिक्षा में शिक्षक की भूमिका ➖

शिक्षण को प्रभावी, रुचिकर, सरल ,एवं सुचारू रूप से चलाने के लिए शिक्षक की एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है जो बच्चे के भविष्य के लिए उत्तरदायी होते है इसलिए एक शिक्षक की समावेशी शिक्षा में किस प्रकार की भूमिका होनी चाहिए निम्न बिंदुओं के आधार पर देख सकते हैं ➖

🎯 सामुदायिक भावना को विकसित करने के लिए एक साथ खेल का आयोजन |

समावेशी शिक्षा के लिए बच्चों में एक दूसरे के प्रति सामुदायिक भावना विकसित करने के लिए शिक्षकों को समय समय पर शिक्षण के साथ-साथ खेल का आयोजन भी करना चाहिए |
क्योंकि खेल के द्वारा सामुदायिक भावना का विकास होता है और बच्चों में एक दूसरे के प्रति सहयोग की भावना भी विकसित होती है |

🎯 विद्यार्थियों को समस्या के समाधान में शामिल करना चाहिए |

समावेशी शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए शिक्षक द्वारा विद्यार्थी को हर गतिविधि पर शामिल करना चाहिए उनको शिक्षण से जुड़ी, विद्यालय से जुड़ी या उनके दैनिक जीवन से जुड़ी हर समस्या या प्रत्येक गतिविधियों के समाधान में शामिल करना चाहिए इससे उनमें अपने पद का विकास होगा और हीन भावना नहीं आएगी |

🎯 बच्चों में नोट्स और किताबों का आदान-प्रदान करवा कर |

बच्चों की समावेशी शिक्षा के लिए उनमें एक दूसरे के प्रति सहयोग के लिए और उनमें बेहतर तालमेल के लिए शिक्षक को छात्रों में एक दूसरे के नोट्स और किताबों का आदान प्रदान करवाना चाहिए | इससे बच्चों में एक दूसरे के प्रति सहयोग की भावना विकसित होगी और इससे समावेशी शिक्षा को बढ़ावा मिलेगा |

🎯 संबंधित विचारों का कक्षा में आदान-प्रदान |

कक्षा में आपस में विचारों का आदान प्रदान करना अति आवश्यक है | इससे उनमें एक दूसरे के प्रति भेदभाव खत्म होगा और समावेशी शिक्षा अधिक सुचारू रूप से चलेगी |

🎯 छात्रों में समुदाय की भावनाओं को बढ़ाने के लिए अलग-अलग प्रकार की कार्यक्रम तैयार करना |

बच्चों की समावेशी शिक्षा में शिक्षक को विद्यालय में अलग-अलग प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रम जैसे शनिवार कार्यक्रम, सरस्वती पूजा, बाल दिवस, बाल सभा ,राष्ट्रीय पर्व रंगोली प्रतियोगिता, निबंध प्रतियोगिता आदि के आयोजन करना चाहिए |
इससे बच्चों में अलग-अलग प्रकार की ऊर्जा का विकास होगा और सहयोग की भावना विकसित होगी |

🎯 छात्रों को शिक्षक की भूमिका निभाने का अवसर देना |

क्योंकि इससे छात्रों को प्रोत्साहन मिलेगा और वे इस जिम्मेदारी को समझेंगे की कक्षा में एक शिक्षक की क्या जिम्मेदारी होती है समाज में शिक्षक की क्या भूमिका होती है या अच्छे नागरिक के क्या गुण होने चाहिए | यह बच्चों को शिक्षक की भूमिका निभाने के अवसर में समूह शामिल होगा | इसलिए समय-समय पर छात्रों को शिक्षक की भूमिका निभाने का अवसर प्रदान करना चाहिए |

🎯 छात्रों का अलग-अलग क्रियाकलापों के लिए समूह बनाना |

समावेशी शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए हर बच्चे को कार्य करने का मौका मिलना चाहिए जिससे उनमें आत्मविश्वास बढ़ेगा तथा आपस में एक सकारात्मक प्रतिस्पर्धा भी बढ़ेगी जिससे उनमें अलग-अलग प्रकार से सहयोग की भावना विकसित होगी |

🎯 स्वास्थ्य या प्रिय वातावरण का निर्माण करना |

अर्थात एक ऐसा वातावरण जिसमें आप सहज,सहायक, सामान्य, या आरामदायक एहसास करते हो ठीक ऐसे ही बच्चों के लिए ऐसे वातावरण का निर्माण करना जिस में बच्चे अपने विचारों को सहज रूप से प्रस्तुत कर सकें |

🎯 हर बच्चों के लिए लक्ष्य का निर्धारण उचित तरीके से करें |

क्योंकि यदि लक्ष्य उचित तरीके से निर्धारित नहीं होगा तो उससे बच्चे में प्रतिस्पर्धा नहीं होगी और वे अपने लक्ष्य से भटक सकते हैं इसलिए शिक्षक को उचित लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए |

🎯 समावेशी शिक्षा में अभिभावक से सहयोग लेना चाहिए |

समावेशी शिक्षा में अभिभावक का सहयोग लेना अति आवश्यक है क्योंकि वे बच्चे को बेहतर जानते हैं इसलिए उनकी रुचियों, कमियों का पता लगाया जा सकता है और इससे उनके शिक्षण में मदद मिल सकती है |

🎯 विशेष प्रशिक्षण शिक्षकों की सेवा लेना |
क्योंकि ऐसे शिक्षक जो विशेष प्रशिक्षण प्राप्त कर चुके हैं वे बच्चों को समझते हैं उनको बेहतर तरीके से जानते इसलिए वह बेहतर रूप से बता सकते हैं बच्चों के बारे में , क्योंकि उनको उसका अनुभव है |

🎯 दल शिक्षण पद्धति ➖

समावेशी शिक्षा के शिक्षण पद्धति को 6 भागों में बांटा गया है जो कि निम्न है ➖

∆ एक शिक्षक एक सहयोग|

∆ एक शिक्षण एक निरीक्षण |

∆ स्थिर और घूर्णन शिक्षा |

∆ समांतर शिक्षा |

∆ वैकल्पिक शिक्षा |

∆ समूह शिक्षा |

1) एक शिक्षण एक सहयोग ➖

इस प्रकार की शिक्षा में एक शिक्षक प्रशिक्षण देता है और दूसरा विशेष शिक्षक छात्र की आवश्यकता को पूरा या व्यवस्थित करता है |

2) एक शिक्षण एक निरीक्षण ➖
इसमें एक शिक्षक शिक्षा देता है और दूसरा उसका निरीक्षण करता है |

3) स्थिर और घूर्णन शिक्षा ➖

इस प्रकार की शिक्षा में कक्षा को अनेक भागों में बांटा जाता है एक शिक्षक शिक्षण का कार्य करता है और दूसरा अलग-अलग दलों की जांच करता है |

4) समांतर शिक्षा➖

इस प्रकार की शिक्षा में दो शिक्षक एक ही कक्षा को आधा आधा कर एक साथ पढ़ाते हैं |

5) वैकल्पिक शिक्षा ➖

इस प्रकार की शिक्षा में जो मुख्य शिक्षक होता है वह बड़े स्तर पर पढ़ाता है और जो विशिष्ट शिक्षक होता है वह कम छात्रों को छोटे समूह में पढ़ाता है |

6) समूह शिक्षा ➖

यह पारंपरिक शिक्षण पद्धति है जिसमें दो शिक्षक एक साथ शिक्षण करवाते हैं |

𝙉𝙤𝙩𝙚𝙨 𝙗𝙮➖ 𝙍𝙖𝙨𝙝𝙢𝙞 𝙎𝙖𝙫𝙡𝙚

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🌷समावेशी शिक्षा में शिक्षक की भूमिका🌷

1. सामुदायिक भावना को विकसित करने के लिए एक साथ खेल का आयोजन।

2. विद्यार्थियों को समस्या के समाधान में शामिल करना।

3. बच्चों में नोट्स और किताबों का आदान-प्रदान।

4. संबंधित विचारों का कक्षा कक्ष में आनंद प्रदान।

5. छात्रों में सामुदायिक भावना को बढ़ाने के लिए अलग-अलग कार्यक्रम तैयार करना।

6. छात्रों को शिक्षक की भूमिका निभाने का अवसर देना।

7. छात्रों का अलग-अलग क्रियाकलापों के लिए ग्रुप बनाना।

8. स्वस्थ प्रिय वातावरण का निर्माण।

9. हर बच्चों के लिए लक्ष्य निर्धारित उचित तरीके से करें।

10. अभिभावकों का भी सहयोग लेना।

11. विशेष प्रशिक्षित शिक्षकों की सेवा लेना।

13. बच्चों को अपनी अभिव्यक्तियों का आदान प्रदान करने का उचित अवसर पर वातावरण देना तथा बच्चों के विचारों को महत्व देना।

14. कक्षा कक्ष में बच्चों को हर समय सक्रिय रखना ।

15. हर बच्चे को उसकी योग्यता के हिसाब से शिक्षा देना।

16. बच्चों की सीखने आगे बढ़ने मनोरंजन के साथ सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन करना।

🌷 दल शिक्षण पद्धति 🌷

1. 🌺 एक शिक्षक – एक सहयोग :-

इस पद्धति में मुख्य शिक्षक कक्षा में शिक्षण कार्य करता है।
दूसरा शिक्षक बच्चों की आवश्यकताओं को पूर्ति करने के साथ – साथ कक्षा को सुव्यवस्थित रखता है।

2. 🌺 एक शिक्षक – एक निरीक्षण :-

इस पद्धति में मुख्य शिक्षक कक्षा कक्ष में शिक्षण कार्य करते रहते हैं।
दूसरे शिक्षक बच्चों का निरीक्षण या (Observation) करते रहते हैं।

3. 🌺 स्थिर और घूर्णन शिक्षा :-

इस पद्धति में कक्षा को विभिन्न भागों (दलों) में बांटकर फिर मुख्य शिक्षक शिक्षण कार्य करते रहते हैं।
दूसरे शिक्षक कक्षा में बच्चों के आस-पास घूम-घूम कर अन्य दलों की जाँच करते रहते हैं।

4. 🌺 समांतर / समानांतर शिक्षा :-

इस शिक्षण पद्धति में आधी कक्षा को मुख्य शिक्षक पढ़ाता है।
बाकी आधी कक्षा जिसमें कुछ बच्चों को समझ नहीं आया आदि ऐसे बच्चों को दूसरा एक विशेष शिक्षक पढ़ाता है तथा दोनों शिक्षकों का पाठ्यक्रम एक ही होता है।

5. 🌺 वैकल्पिक शिक्षा :-

मुख्य शिक्षक कक्षा के अधिकतम छात्रों को पढ़ाता है।
दूसरा शिक्षक शेष कम छात्रों को समूह बना कर वैकल्पिक शिक्षा देता है।

6. 🌺 समूह शिक्षा :-

यह पारंपरिक शिक्षण विधि मानी जाती है अतः इस पद्धति में दोनों शिक्षक सामूहिक रूप से एक ही पाठ्यक्रम को एक साथ योजना बनाकर पढ़ाते हैं।

NOTES BY
🌺 जूही श्रीवास्तव 🌺

🌲💐 समावेशी शिक्षा में शिक्षक की भूमिका💐🌲

🥀🌟 एक शिक्षक को शिक्षण को लिए सरल और रुचिकर बनाने के लिए शिक्षक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

🌲🌟 समावेशी शिक्षा में सामुदायिक भावना को विकसित करने के लिए सभी बच्चों को एक साथ खिलाने के लिए खेल का आयोजन करना चाहिए।

🌲🌟 विद्यार्थियों को समस्या समाधान में सम्मिलित करना चाहिए।

🌲🌟 समावेशी शिक्षा में शिक्षक को विद्यार्थियों के बीच नोट्स और किताबों का आदान प्रदान करने के लिए कहना चाहिए जिससे सहयोग की भावना विकसित होती है।

🌲☀️ समावेशी शिक्षा में बच्चों के विचारों को कक्षा में आदान-प्रदान करना।
🌲🌟 हमारी सी कक्षा में सामुदायिक भावना बढ़ाने के लिए अलग-अलग कार्यक्रम तैयार करना।

🌲☀️ छात्रों को शिक्षक की भूमिका निभाने का अवसर देना।

🌲🌟 छात्रों को अलग-अलग क्रियाकलापों के लिए समूह बनवाना।

🌲🌟 समावेशी कक्षा में प्रिय व स्वस्थ वातावरण का निर्माण करना। जिससे बच्चे को किसी भी प्रकार की असुविधा ना हो।

🌲🌟 हर बच्चों के लिए लक्ष्य निर्धारण उचित तरीके से करें।

🌲🌟 अभिभावकों का भी सहयोग लेना क्योंकि सबसे पहले और सबसे ज्यादा वह अपने बच्चों को जानते है।

🌲🌟विशेष प्रशिक्षित की सेवा लेना।

🌟☀️दल शिक्षण पद्धति☀️🌟

🌸एक शिक्षक, एक सहयोग:-
इसमें एक शिक्षक शिक्षा देता है और दूसरा शिक्षक छात्रों का निरीक्षण करते हुए उसकी विशेष आवश्यकता को पूरा करता है।

🌸 एक शिक्षक ,एक निरीक्षक:-
इसमें एक शिक्षक को कक्षा में छात्रों को पढ़ाता है तथा दूसरा अध्यापक छात्रों का निरीक्षण करता है।

🌸स्थिर और घुर्णन शिक्षा:-
इसमें कक्षा को अनेक भागों में बांटा जाता है मुख्य कार्य शिक्षक द्वारा किया जाता है तथा दूसरा शिक्षक छात्रों के अलग-अलग दलों में जाकर जांच करता है।

🌸 समान्तर शिक्षा:- इसमें कक्षा को दो भागों में बांट देते हैं, जिसमें 2 अध्यापक होते हैं एक अध्यापक अपनी आधी कक्षा को पढ़ाता है दूसरा अपनी आधी कक्षा को पढ़ाता है।

🌸 वैकल्पिक शिक्षा:- इसमें एक शिक्षक कक्षा की अधिकतम छात्राओं को पढ़ाता है,, वही दूसरे शिक्षक कम छोटे समूह को वैकल्पिक शिक्षा देता है।
🌸समूह शिक्षा :- इसमें में शिक्षक सामूहिक रूप से दोनो एक साथ ही पाठ्यक्रम का आयोजन बनाकर शिक्षा देते हैं।

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✍🏻NOTES BY :-
SHASHI CHOUDHARY

🙏🙏🙏🙏🙏

🌈💥समावेशी शिक्षा में शिक्षक की भूमिका।🌿🌻

🌈🌸यूं तो समावेशी शिक्षा की बात करें या किसी अन्य। एक बच्चे के संपूर्ण विकास के लिए शिक्षक का महत्वपूर्ण योगदान होता है ।कहा जा सकता है कि शिक्षक एक मार्गदर्शक के रुप में होता है ,समावेशी शिक्षा में शिक्षक की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जो कि नीचे दिया गया है—

🌈🌻सामुदायिक भावना को विकसित करने के लिए एक साथ खेल का आयोजन करना । ताकि सभी बच्चों को समान महत्व मिल सके।

🔥विद्यार्थियों को समस्या के समाधान में सामिल करना। ताकि बच्चे क्रियाशील हो।

🌺बच्चों को नोट्स और किताबों का आदान-प्रदान करवाना चाहिए। ताकि बच्चे एक दूसरे से बातचीत करने के लिए कंफर्टेबल हो सकें।

🌻संबंधित विचारों का कक्षा में आदान-प्रदान करवाएं। ताकि बच्चे एक – दूसरे के भाव को समझ सके।

💥सामुदायिक भावना बढ़ाने के लिए अलग-अलग कार्यक्रम तैयार करना है । ताकि एक ग्रुप अन्य ग्रुपों के प्रति साकारात्मक भाव जागृत हो सकें।

🌈छात्रों को शिक्षक की भूमिका निभाने का अवसर देना । ताकि बच्चा उन particular चीजों के प्रति अलग-अलग Angel से विचार-विमर्श करके प्रस्तुत कर सके।

🌻छात्रों का अलग-अलग क्रियाकलापों के ग्रुप बनाना ताकि बच्चे में अलग-अलग सृजनात्मकता के गुण विकसित हो सके।

🔥स्वास्थ्य / प्रिय वातावरण का निर्माण।

🌿हर बच्चों के लिए शिक्षक का कर्त्तव्य होगा कि लक्ष्य निर्धारण उचित तरीके से करें।

🌸अभिभावकों का भी सहयोग लेना क्योंकि बच्चा का अधिकतर समय उनके माता-पिता के साथ व्यतीत होता है अतः माता-पिता से बेहतर अपने बच्चों को कोई नहीं जान सकता है।

🌺विशेष प्रशिक्षित शिक्षकों की सेवा लेना इसलिए क्योंकि विशेष प्रशिक्षित शिक्षक किसी विशेष क्षेत्र में specialist होते हैं अतः वह हर एक एंगल से उन चीजों को जान सकता है।

🌈🌻दल शिक्षण पद्धति🌻🌈

🌺यह 6 प्रकार के होते हैं।

🌈एक शिक्षक एक सहयोग🌻
➡️इनमें एक शिक्षक क्लास में पढ़ाते हैं तथा दूसरा शिक्षक बच्चों की आवश्यकता को पूरा करते हैं।

🌻एक शिक्षक एक निरीक्षण-💥
➡️एक शिक्षक पढ़ाते हैं तथा दूसरा शिक्षक बच्चों का अवलोकन या निरीक्षण करता हैं।

🌈स्थिर और घूर्णन शिक्षा💥
➡️इसमें एक शिक्षक बच्चों को पढ़ाते हैं तथा दूसरा शिक्षक अलग-अलग दलों पर जाँच करता हैं।

🌈समान्तर शिक्षा🌻
➡️इसमें आधी कक्षा को एक शिक्षक तथा दूसरा शिक्षक दूसरी आधी कक्षा को पढ़ाते हैं।

🌈🌻वैकल्पिक शिक्षा🌻🌈
➡️इसमें मुख्य शिक्षक अधिक छात्रों को पढ़ाते हैं तथा विशिष्ट शिक्षक कम छात्राओं को या छोटे ग्रुप को सिखाते हैं।

💥समूह शिक्षा🌺
➡️यह एक पारंपरिक शिक्षा पद्धति है इसमें 2 शिक्षक एक साथ योजना बनाकर बच्चों को शिक्षा देते हैं।🌿🌈💥🌻🌸
Notes by-SRIRAM PANJIYARA🌈🌸💥🌺🙏

Need of Inclusive Education Notes by India’s Top Learners

🌺🌺 समावेशी शिक्षा की आवश्यकता🌺🌺

वैसे बच्चे जो किसी न किसी कारणवश शिक्षा से पिछड़े हैं, जैसे मानसिक क्षमता, शारीरिक अक्षमता, विकलांगता , अत्याधिक ग्रामीण क्षेत्र से हैं ,इन बच्चों के लिए समावेशी शिक्षा की आवश्यकता पड़ती है।

☘️ इन बच्चों के लिए कुछ ऐसे तथ्य हैं, जिन्हें शामिल करने से बच्चे सामान बच्चों के साथ पढ़ाई कर सकते हैं।

🍁 अधिक से अधिक विशेष आवश्यकता वाले बच्चे ग्रामीण क्षेत्र से होते हैं ,जो कि ग्रामीण क्षेत्र में विशेष विद्यालय ना होने के कारण समान विद्यालय में पढ़ते हैं।

🍁 विशेष विद्यालय के शहरी क्षेत्र में होने के कारण ग्रामीण क्षेत्र के लोग अपने विशेष आवश्यकता वाले बच्चे को वहां पढ़ने के लिए नहीं भेज पाते हैं।

🍁 ग्रामीण क्षेत्र में विशेष और सामान आवश्यकता वाले बच्चे साथ-साथ पढ़ते हैं ,इसलिए विद्यालय में इनका समावेशन बहुत ही जरूरी है, ताकि सामान्य बच्चों के साथ विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की जरूरत की पूर्ति की जा सके।

🍁 समावेशी शिक्षा सभी बच्चों को समान अवसर प्रदान करने के लिए उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने का कार्य करती है, इससे सभी बच्चे को लाभ दिया जा सकता है।

🍁 प्रत्येक बालक के लिए उच्च और उचित उम्मीदों के साथ व्यक्तिगत शक्तियों का विकास करती है, इससे बच्चों का मनोबल और बढ़ता है ,और उच्च कार्य करने के लिए बच्चे प्रेरित होते हैं।

🍁 प्रत्येक बालक स्वाभाविक रूप से सीखने के लिए अभी प्रेरित होता है उनमें ऐसी क्षमता होती है, कि वह किसी काम को सीखने के लिए तत्पर रहते हैं, जिसमें ज्यादा रुचि होता है, बच्चे उसे कार्य को करना ज्यादा पसंद करते हैं।

🍁 समावेशी शिक्षा अन्य बालक और खुद के बीच की व्यक्तिगत आवश्यकता या क्षमता में सामंजस्य स्थापित करने में मदद करती है।

🍁 विद्यालय की संस्कृति के साथ साथ है व्यक्तिगत विभिन्नता को भी स्वीकार करने के लिए अवसर प्रदान करती है। ताकि बच्चे अपने संस्कृति से जो कुछ भी सीख के आते हैं ,विद्यालय में शिक्षक द्वारा उन्हें सम्मान करना चाहिए।

🍁 समावेशी शिक्षा विशिष्ट बालकों को अन्य बालोंको के समान कक्षा गतिविधि में भाग लेने और व्यक्तिगत लक्ष्य पर कार्य करने के लिए प्रेरित करती है।

🍁 समावेशी शिक्षा विशिष्ट बालकों की शैक्षिक उपलब्धि में उनके माता-पिता को भी सम्मिलित करने की वकालत करती है ,ताकि उनके बच्चों के साथ-साथ उनके माता-पिता को भी सम्मान करना चाहिए और बच्चे को आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित करना चाहिए ताकि वह अपने बच्चे को लक्ष्य तक पहुंचने में हर संभव मदद कर सके।

🙏🙏Notes by — Abha kumari🙏🙏

🌈🌼 समावेशी शिक्षा की आवश्यकताएं 🌼🌈

समावेशी शिक्षा हमारे सामान्य विद्यालय में दी जाए जिससे सभी बालकों को शिक्षा के समान अवसर मिले इन बच्चों के लिए समावेशी शिक्षा की आवश्यकता पड़ती है

🦚 90% विशेष आवश्यकता वाले बच्चे ग्रामीण क्षेत्रों से हैं जो कि ग्रामीण क्षेत्र में विशेष विद्यालय न होने के कारण सामान्य विद्यालय में पढ़ते हैं

🦚विशेष विद्यालय के शहरी क्षेत्रों में होने के कारण ग्रामीण क्षेत्र में लोग अपने विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को वह पढ़ने नहीं भेज पाते हैं।

🦚ग्रामीण क्षेत्र में विशेष और सामान आवश्यकता वाले बच्चे साथ-साथ पढ़ते हैं इसलिए विद्यालय में इनका समावेशन बहुत जरूरी है जब वे सामान बालकों के साथ शिक्षा बातें हैं तब एक ही कारण के कारण वह सामाजिक गुणों को अन्य बालकों के साथ ग्रहण करते हैं जिसमें सामाजिक ,नैतिक ,प्रेम, सहानुभूति आपसी सहयोग आदि गुणों का विकास होता है

🦚 सभी बच्चों को समान अवसर प्रदान करके उन्हें प्रमुख धारा से जोड़ना है।

🦚प्रत्येक बालक के लिए उच्च और उचित उम्मीदों के साथ व्यक्तिगत शक्तियों का विकास करती है।

🦚 प्रत्येक बालक स्वाभाविक रूप से सीखने के लिए अभी प्रेरित होता है।

🦚समावेशी शिक्षा अन्य बालक और खुद के बीच की व्यक्तिगत आवश्यकता क्षमता में सामंजस्य स्थापित करने में मदद करती है।

🦚 विद्यालय की संस्कृति के साथ साथ व्यक्तिगत विभिन्नता ओं को स्वीकार करने के लिए अवसर प्रदान करती है।

🦚समावेशी शिक्षा विशिष्ट बालकों को अन्य बालकों के समान कक्षा गतिविधि में भाग लेने और व्यक्तिगत लक्ष्यों पर कार्य करने के लिए प्रेरित करती है।

🦚 समावेशी शिक्षा विशिष्ट बालकों के शैक्षणिक गतिविधियों में उनके माता-पिता को भी सम्मिलित करने की वकालत करती है।

🦚 विशेष शिक्षा अधिक महंगी तथा खर्चीली होती है जबकि समावेशी शिक्षा कम खर्चीली तथा लाभदायक है उचित शिक्षा संस्थाओं को बनाने तथा शिक्षण कार्य आरंभ करने के लिए अन्य विभिन्न स्रोतों से भी सहायता लेनी पड़ती है जैसे प्रशिक्षित ,अध्यापक ,विशेषज्ञ, चिकित्सक आदि।

🖊️🖊️📚📚 Notes by…
Sakshi Sharma📚📚🖊️🖊️

🍀 समावेशी शिक्षा की आवश्यकता 🍀 समावेशी शिक्षा की आवश्यकता इसलिए है क्योंकि जो बच्चे सामान्य बच्चे से किसी ना किसी दृष्टिकोण में पीछे हैं चाहे वह शारीरिक अक्षमता हो या मानसिक अक्षमता उनके मन में किसी भी प्रकार की हीन भावना ना आए और वह अपने आगे आने वाले समय में आत्मनिर्भर बन सकें । इसके लिए हमें निम्नलिखित पहल करने की आवश्यकता है जो कि निम्नानुसार है :- 🌀 ➖ 90% विशेष आवश्यकता वाले बच्चे ग्रामीण क्षेत्र में हैं जो कि ग्रामीण क्षेत्र में विशेष विद्यालय ना होने के कारण सामान्य विद्यालय में पढ़ते हैं। 🌀 ➖ विशेष विद्यालय के शहरी क्षेत्र में होने के कारण ग्रामीण क्षेत्र में लोग विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को वहां पढ़ने नहीं भेज पाते हैं। 🌀 ➖ ग्रामीण क्षेत्र में विशेष और सामान्य आवश्यकता वाले बच्चे साथ-साथ पढ़ते हैं। इसलिए विद्यालय में इनका समावेशन बहुत जरूरी हैं। ( अर्थात कहने का तात्पर्य यह है कि गांव में यदि विशेष बालकों के पढ़ने के लिए विशेष विद्यालय नहीं हैं तो सामान्य बच्चों के साथ पढ़ते हैं उनका आपस में समावेशन होना चाहिए अर्थात एक दूसरे के प्रति परस्पर सहयोग की भावना होनी चाहिए ) 🌀 ➖ समावेशी शिक्षा बच्चों को समान अवसर प्रदान करके उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने का कार्य करती हैं। ( अर्थात कहने का तात्पर्य है कि सामान्य बच्चे और विशिष्ट बच्चे दोनों को हमें शिक्षित करना है और उन्हें निश्चित लक्ष्य तक पहुंचाना है ) 🌀 ➖ प्रत्येक बालक के लिए उच्च और उचित उम्मीदों के साथ व्यक्तिगत शक्तियों का विकास करती है 🌀 ➖ प्रत्येक बालक स्वाभाविक रूप से सीखने के लिए अभिप्रेरित होता है। 🌀 ➖ समावेशी शिक्षा अन्य बालक और खुद के बीच की आवश्यकता / क्षमता में सामंजस्य स्थापित करने में मदद करती हैं। 🌀 ➖ विद्यालय की संस्कृति के साथ साथ व्यक्तिगत विभिन्नता को स्वीकार करने के लिए अवसर प्रदान करती हैं। 🌀 ➖ समावेशी शिक्षा विशिष्ट बालक को अन्य बालक के समान कक्षा गतिविधि में भाग लेने और व्यक्तिगत लक्ष्यों पर कार्य करने के लिए प्रेरित करती हैं। 🌀 ➖ समावेशी शिक्षा विशिष्ट बालकों की शैक्षिक गतिविधि में उनके माता-पिता को भी सम्मिलित करने की वकालत करती है। ♻️ सारांश ♻️ इन सभी बिंदुओं के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है अगर कोई बालक किसी भी रूप में अक्षम है तो उसे सामान्य बालक की तरह शिक्षा देने के लिए समावेशी शिक्षा की आवश्यकता होती है इन सभी गतिविधियों को अपनाकर हम बालक को इस काबिल बना दे और जो भी कार्य उसके लिए उचित हो या अपनी इच्छा से वह जो भी करना चाहता है उसे उसके लक्ष्य तक पहुंचाने का मार्गदर्शन हमें करना चाहिए। ताकि कोई भी शारीरिक या मानसिक रूप से अक्षम बालक सामान्य बालक से अपने आप को कम ना समझे और भलीभांति अपने जीवन को सदृढ़ बना सके। धन्यवाद ✍️ notes by प्रज्ञा शुक्ला

*♻️{समावेशी शिक्षा}♻️*
*🎯समावेशी शिक्षा का अर्थ🎯~* शिक्षा के क्षेत्र में समावेशी शिक्षा का अर्थ विद्यालय के पुनर्निर्माण की वह प्रक्रिया है, जिसका लक्ष्य सभी बच्चों को शैक्षणिक और सामाजिक अवसरों की उपलब्धता से है।
अपने परिवेश में रहते हुए दिव्यांग बच्चों को प्राथमिक विद्यालय में शिक्षा की मुख्य धारा से जोड़ना *समावेशी शिक्षा* कहलाता हैं।

*⚜️ समावेशी शिक्षा की आवश्यकता⚜️*
समावेशी शिक्षा की आवश्यकता इसलिए हैं, कि मनुष्य शिक्षा के साथ-साथ अन्य कुशलता को भी साथ में सीख लेता है। उसे व्यावहारिक ज्ञान की प्राप्ति भी होती हैं और उसका स्किल डेवलपमेंट भी हो जाता हैं।

🌈 90% विशेष आवश्यकता वाले बच्चे ग्रामीण क्षेत्र से है,जो कि ग्रामीण क्षेत्र में विशेष विद्यालय ना होने के कारण सामान्य विद्यालय में पढ़ते हैं।

🌈 विशेष विद्यालय के शहरी क्षेत्रों में होने के कारण ग्रामीण क्षेत्र के लोग अपने विशेष आवश्यकता वाले बच्चे को वहां पढ़ने नहीं भेज पाते हैं।

🌈 ग्रामीण क्षेत्र में विशेष और सामान्य आश्यकता वाले बच्चे साथ-साथ पढ़ते थे, इसलिए विद्यालय में उनका समावेशन बहुत ज़रूरी है।

🌈समावेशी शिक्षा सभी बच्चों को समान अवसर प्रदान करके उन्हें मुख्य धारा में जोड़ने का कार्य करती हैं।

🌈 प्रत्येक बालक के लिए उच्च और उचित उम्मीदों के साथ व्यक्तिगत शक्तियों का विकास करती हैं।

🌈 प्रत्येक बालक स्वाभाविक रूप से सिखने के लिए अभिप्रेरित होता हैं।

🌈 समावेशी शिक्षा, अन्य बालकों और ख़ुद के बीच की व्यक्तिगत आश्यकता/क्षमता में सामंजस्य स्थापित करने में मदद करती हैं।

🌈 विद्यालय की संस्कृति के साथ-साथ व्यक्तिगत विभिन्नता को स्वीकार करने के लिए अवसर प्रदान करती हैं।

🌈 समावेशी शिक्षा विशिष्ट बालकों को अन्य बालकों के समान कक्षा गतिविधि में भाग लेने और व्यक्तिगत लक्ष्यों पर कार्य करने के लिए प्रेरित करती हैं।

🌈 समावेशी शिक्षा विशिष्ट बालकों की शैक्षिक गतिविधियों में उनके माता-पिता को भी सम्मिलित की वकालत करती हैं।

🌈समावेशी शिक्षा द्वारा बालकों में सामाजिक तथा नैतिक गुण, प्रेम, सहानुभूति,आपसी सहयोग, आदि गुणों का समावेश होता हैं।

🌈समावेशी शिक्षा_ केवल विकलांग बच्चों तक नहीं है, बल्कि इसका अर्थ है किसी भी बच्चे का बहिष्कार ना हों।

*⚜️{समावेशित शिक्षा सही मायनों में शिक्षा का अधिकार जैसे शब्दों का रूपान्तरित रूप है जिसके कई उद्द्श्यों में से एक उद्देश्य है,”विशिष्ट शैक्षिक आवश्यकताओं वाले बालकों को एक समतामूलक शिक्षा” व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षा प्राप्त करने के अवसर प्रदान करना। समावेशित शिक्षा समाज के सभी बालकों को शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ने का समर्थन करती है।}⚜️*

🙏🏻🙏🏻 *धन्यवाद्*🙏🏻🙏🏻

📚✍🏻
*Notes by~*
*Mनिषा Sky Yadav*

समावेशी शिक्षा की आवश्यकता

1.90% विशेष आवश्यकता वाले बच्चे ग्रामीण क्षेत्र से हैं जो कि ग्रामीण क्षेत्र में विशेष विद्यालय ना होने के कारण सामान्य विद्यालय में पढ़ते हैं

2. विशेष विद्यालय के शहरी क्षेत्र में होने के कारण ग्रामीण क्षेत्र के लोग अपने विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को वहां पढ़ने नहीं भेज पाते हैं

3.ग्रामीण क्षेत्र में विशेष और सामान्य आवश्यकता वाले बच्चे साथ-साथ पढ़ते हैं इसलिए विद्यालय में इनका समावेशन बहुत जरूरी है

4.समावेशी शिक्षा सभी बच्चों को समान अवसर प्रदान करके उन्हें मुख्यधारा में जोड़ने का कार्य करती है

5.प्रत्येक बालक के लिए उच्च और उचित उम्मीदों के साथ उसकी व्यक्तिगत शक्तियों का विकास करती हैं

6. प्रत्येक बालक स्वाभाविक रूप से सीखने के लिए अभिप्रेरित होता है

7. समावेशी शिक्षा अन्य बालक और खुद के बीच की व्यक्तिगत आवश्यकता या क्षमता में सामंजस्य स्थापित करने में मदद करती है

8. विद्यालय की संस्कृति के साथ व्यक्तिगत विभिन्नता को स्वीकार करने के लिए अवसर प्रदान करती है

9. समावेशी शिक्षा विशिष्ट बालकों को अन्य बालकों के समान कक्षा गतिविधि में भाग लेने और व्यक्तिगत लक्ष्य पर कार्य करने के लिए प्रेरित करती है
जैसे रितु एक दृष्टिबाधित बालिका है तो उसे किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम में वाचक के रूप में कार्य करने का अवसर प्रदान करें।
इसी प्रकार बहुत से ऐसे बच्चे जो शारीरिक रूप से विकलांग हो ,जो खेलने में सक्षम नहीं हो उन्हें खेल के नियम बता कर जज करने का कार्य सौंपा जाए

10. समावेशी शिक्षा विशिष्ट बालकों के शैक्षिक गतिविधि में उनके माता-पिता को भी शामिल करने की वकालत करती है।
इससे बालकों में और भी ज्यादा रुचि का विकास होगा

Notes by Ravi kushwah

✍️ *समावेशी शिक्षा की आवशयकता*
🏵 समावेशी शिक्षा की आवश्यकता इसलिए है क्योंकि जो बच्चे सामान्य बच्चे से किसी न किसी कारण वश में पीछे रह जाते हैं चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक अक्षमता उनके मन में हीन भावना ना आए और वह अपने आने वाले समय में आत्मनिर्भर बन सकें इसके लिए हमें पहल करने की आवश्यकता है जो कि निम्नलिखित है।

💎 90% विशेष आवश्यकता वाले बच्चे ग्रामीण क्षेत्र में हैं जो कि ग्रामीण क्षेत्र में विशेष विद्यालय ना होने के कारण सामान्य विद्यालय में पढ़ते हैं।

💎 विशेष विद्यालय के शहरी क्षेत्रों में होने के कारण ग्रामीण क्षेत्र में लोग अपनी विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को वहां पढ़ने नहीं भेज पाते हैं।

💎 ग्रामीण क्षेत्र में विशेष से और सामान्य आवश्यकता वाले बच्चे साथ साथ पढ़ते हैं इसलिए विद्यालय में इनका समावेशन होना बहुत जरूरी है जब यह सामान बालको के साथ शिक्षा देते हैं तब बालकों में सामाजिक गुणों के साथ-साथ बच्चे में सामाजिक ,नैतिक, प्रेम,सहानुभूति ,आपसी सहयोग आदि गुणों का विकास होता है।

💎 समावेशी शिक्षा सभी बच्चों को समान अवसर प्रदान करके उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने का कार्य करती है समावेशी शिक्षा सभी को अलग अलग व्यक्तित्व होती है बच्चे के खुद कार्य करने की कैपेसिटी को मरने भी नहीं देना चाहिए उन्हें यह नहीं लगना चाहिए कि हम विशेष विद्यालय के बालक हैं।

💎 प्रत्येक बालक के लिए उच्च और उचित उम्मीदो के साथ व्यक्तिगत शक्तियों का विकास करती है किसी न किसी में उच्च गुण होते हैं सभी कार्य उचित नहीं हो सकते इसलिए सबसे पहले उस चुने और उचित कार्य करें हर बच्चे की व्यक्तिगत शक्ति होती है उन्हें दयनीय नहीं समझना चाहिए जो बच्चे कमजोर है उन पर ध्यान देना चाहिए वह कहां कमजोर हैं कहां गलती करते हैं यह ध्यान देकर उन्हें शिक्षा देनी चाहिए।
कोई बच्चे कभी गलत रास्ते पर आगे बढ़ने के लिए जाते हैं तो उन्हें ऐसा नही करना चाहिए यह सभी चीजों का समावेशी शिक्षा में बताना चाहिए।

💎 प्रत्येक बालक स्वाभाविक रूप से सीखने के लिए भी प्रेरित होता है कोई भी बच्चा जन्म लेता है तो भी प्रेरित होता है अगर नहीं होता है तो उसकी सही दिशा नहीं हो पाती है जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है बच्चा भी प्रेरित होते रहते हैं प्रत्येक बच्चे सीखने के लिए भी प्रेरित होते हैं मगर उन्हें बच्चे को कैसे प्रेरित करना एक शिक्षक को ध्यान देना चाहिए।

💎 समावेशी शिक्षा में बालक और खुद के बीच की व्यक्तिगत आवश्यकता है अक्षमता में सामंजस्य स्थापित करने में मदद करती है।

💎 विद्यालय की संस्कृति या तोर तरीका के साथ साथ व्यक्तिगत विभिन्नता को स्वीकार करने के लिए अवसर प्रदान करती हैं अलग-अलग क्लास में अलग-अलग विभिनता होती है उसी के अनुसार बच्चे समायोजन कर पाते हैं।

💎 समावेशी शिक्षा विशिष्ट बालक को अन्य बालक के समस्त कक्षा गतिविधि में भाग लेने और व्यक्तिगत लक्ष्य पर कार्य करने के लिए प्रेरित करती है।

💎 समावेशी शिक्षा विशिष्ट बालकों की शैक्षिक गतिविधि में उनके माता-पिता को भी सम्मिलित करने की वकालत करती है।

इससे हम यही निष्कर्ष निकालते हैं कि समावेशी बच्चे को अगर कोई बालक किसी भी रुप में अच्छा है तो उन्हें सामान्य बालको के साथ शिक्षा देनी चाहिए जिससे उनमें हीन भावना ना आए सभी बच्चों को सामान रखकर ही शिक्षा देनी चाहिए।

*Notes By:-Neha Roy*

🔆 समावेशी शिक्षा की आवश्यकता ➖

🎯 (1) 90% विशेष आवश्यकता वाले बच्चे ग्रामीण क्षेत्र में है जो कि ग्रामीण क्षेत्र में विशेष विद्यालय ना होने के कारण सामान्य विद्यालय में पढ़ते हैं |

क्योंकि उन्हें इसकी आवश्यकता है जो वहां पूरी नहीं हो सकती क्योंकि वहां विशेष विद्यालय नहीं है इसलिए उनको आवश्यकता है विशेष विद्यालय की |
जैसे किसी को कम दिखाई देता है तो उसको मोटे अक्षरों वाली किताब से पढ़ाया जाए जिससे उनकी शिक्षा प्रभावित न हो और यदि कोई पैर से विकलांग है तो उनको व्हीलचेयर की व्यवस्था की जाए जो बच्चे ग्रामीण क्षेत्र से है इसलिए वहां समावेशी शिक्षा की आवश्यकता है |

🎯 (2) विशेष विद्यालय शहरी क्षेत्र में होने के कारण ग्रामीण क्षेत्र के लोग अपने विशेष आवश्यकता वाले बच्चे को वहां पढ़ने नहीं भेज पाते हैं |

🎯 (3) ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष और सामान्य आवश्यकता वाले बच्चे साथ-साथ पढ़ते हैं इसलिए विद्यालय में इनका समावेशन बहुत जरूरी है |
क्योंकि यदि समावेशन नहीं हो पायेगा तो उनकी शिक्षा नहीं हो पाएगी इसलिए समावेशन जरूरी है विद्यालय में जो व्यवस्था है उसी के अनुसार समावेशित किया जाए |

🎯 (4) समावेशी शिक्षा सभी बच्चों को समान अवसर प्रदान करके उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने का कार्य करती है |

🎯 (5) समावेशी शिक्षा प्रत्येक बच्चे के लिए उच्च और उचित उम्मीदों के साथ व्यक्तिगत शक्तियों का विकास करती है |

क्योंकि उन्हें सही डायरेक्शन में ले जाकर उच्च स्तर तक पहुचाना है और तो उनकी आवश्यकता के अनुसार, रूचि के अनुसार शिक्षा दी जाए जो उनकी शक्ति को निखारने का कार्य करे ना कि उनको अपनी कमजोरी का एहसास दिलाए |

🎯 (6) प्रत्येक बालक स्वाभाविक रूप से सीखने के लिए अभिप्रेरित होता है |

आवश्यक है कि उनको उनकी रूचि के अनुसार शिक्षा मिले जिससे वह अभिप्रेरित हो सकें लेकिन उन्हें सही डायरेक्शन नहीं मिल पाती है इसलिए उन्हें सही तरीके से सही विधि का प्रयोग करके समावेशी शिक्षा दी जाए |

🎯(7) समावेशी शिक्षा अन्य बालक और खुद के बीच की जो आवश्यकता / क्षमता है इसमें सामंजस्य स्थापित करने में मदद करती है |

इसके लिए आवश्यक है कि प्रत्येक बच्चे अपनी क्षमता को पहचान सकें, जो कि एक शिक्षक की जिम्मेदारी है उनकी क्षमता को पता लगाने में उनकी मदद करें और क्षमता के साथ सामान्य से स्थापित हो जो कि बहुत जरूरी है |

🎯(8) समावेशी शिक्षा विद्यालय की संस्कृति के साथ साथ जो व्यक्तिगत विभिन्नता है उन को स्वीकार करने के अवसर प्रदान करती है |

जैसे प्रत्येक विद्यालय की अपनी एक संस्कृति होती है उसकी अपनी व्यक्तिगत विभिन्नताएं होती है जिनके साथ एक शिक्षक और छात्र के बीच का सामंजस्य स्थापित होना चाहिए जो कि उनकी व्यक्तिगत विभिन्नता को स्वीकार करने में मदद करें जो समावेशी शिक्षा के माध्यम से किया जा सकता है |

🎯(9) समावेशी शिक्षा विशिष्ट बालक को अन्य बालक के समान अन्य गतिविधि में भाग लेने और व्यक्तिगत लक्ष्यों पर कार्य करने के लिए प्रेरित करती है |

🎯 (10) समावेशी शिक्षा विशिष्ट बालकों की शैक्षिक गतिविधियों में उनके माता-पिता को भी सम्मिलित करने की वकालत करती है |

समावेशी शिक्षा की आवश्यकता के आधार पर हम निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि कोई भी बच्चा कमजोर नहीं होता है यदि कोई बालक किसी भी प्रकार से विकलांग है चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक हो तो उसको सामान्य बालक के साथ शिक्षा देनी चाहिए जिससे उनमें हीन भावना का विकास ना हो और वह समस्यात्मक बालक ना बने इसलिए सभी बच्चों को समान रूप से एक साथ शिक्षा देनी चाहिए यही समावेशी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है |

𝙉𝙤𝙩𝙚𝙨 𝙗𝙮➖ 𝙍𝙖𝙨𝙝𝙢𝙞 𝙎𝙖𝙫𝙡𝙚

🌻🌸🍀🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🍀🌸🌻

🌈💥🔥समावेशी शिक्षा की आवश्यकता🌈🌻🔥
🌿🌸समावेशी शिक्षा की आवश्यकता इसलिए पड़ती है क्योंकि कुछ बच्चे शारीरिक, मानसिक, आर्थिक इत्यादि कारणों से अक्षम है इन्हें भी विशेष आवश्यकता की जरूरत है इनको ध्यान में रखते हुए समावेशी शिक्षा से जोड़ना अत्यंत आवश्यक है इसको नीचे दिए गए निम्न उपाय से समावेशी शिक्षा में जोड़ेंगे।

1️⃣90% विशेष आवश्यकता वाले बच्चे ग्रामीण क्षेत्र से हैं जो कि ग्रामीण क्षेत्र में विशेष विद्यालय ना होने के कारण सामान्य विद्यालय में पढ़ते है।

2️⃣विशेष विद्यालय के शहरी क्षेत्र में होने के कारण ग्रामीण क्षेत्र में लोग अपने विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को वहां पढ़ने नहीं भेज पाते हैं।

3️⃣ग्रामीण क्षेत्र में विशेष और सामान्य आवश्यकता वाले बच्चे साथ-साथ पढ़ते हैं इसलिए विद्यालय में समावेशन बहुत जरूरी है चाहे बच्चे जिस भी लेवल पर हों,हो सके तो उसे,उसी विद्यालय में comfortable बनाएं।

4️⃣समावेशी शिक्षा सभी बच्चों को समान अवसर प्रदान करके उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने का कार्य करती हैं।

5️⃣प्रत्येक बालक के लिए उच्च और उचित उम्मीदों के साथ व्यक्तिगत शक्तियों का विकास करती हैं।
मतलब कोई एक चीज में कमजोर है तो वह उस कार्य को नहीं कर सकता है ऐसा नहीं है।

6️⃣प्रत्येक बालक सीखने के लिए स्वभाविक रूप से अभिप्रेत होता हैं।

7️⃣समावेशी शिक्षा अन्य बालक और खुद के बीच व्यक्तिगत आवश्यकता या क्षमता में सामंजस्य स्थापित करने में मदद करती हैं।

8️⃣विद्यालय की संस्कृति के साथ-साथ व्यक्तिगत विभिन्नता को स्वीकार करने के लिए अवसर प्रदान करते हैं।

9️⃣समावेशी शिक्षा विशिष्ट बालक को अन्य बालक के समान कक्षा गतिविधि में भाग लेने और व्यक्तिगत लक्ष्यों पर कार्य करने के लिए भी प्रेरित करती हैं।

🔟समावेशी शिक्षा विशिष्ट बालकों की शैक्षिक गतिविधि में उनके माता-पिता को भी सम्मिलित करने की वकालत करती हैं।
🌈🌸💥🙏Notes by-SRIRAM PANJIYARA 🌈🌸💥🌺🙏

💠💠 *समावेशी शिक्षा की आवश्यकता* 💠💠

समावेशी शिक्षा परिवारिक ,सामाजिक एवं राष्ट्रीय विकास की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है यह विविध प्रकार के बच्चों के विभाजन एवं समानताओं के कारण हुई रिक्तियों को भरने में सहायक होता है।

विकलांग बालक अपने आप को दूसरे बालकों की अपेक्षा कमजोर तथा हीन समझते हैं जिसके कारण उनके साथ पृथकता से व्यवहार किया जाता है समावेशी शिक्षा व्यवस्था में अपंग बालको या विशेष आवश्यकता वाले बालकों को सामान्य बालकों के साथ मानसिक रूप से प्रगति करने का अवसर प्राप्त होता है इसलिए समावेशी शिक्षा की आवश्यकता है।

समावेशी शिक्षा की आवश्यकता को निम्न बिंदुओं के द्वारा समझाया जा सकता है➖

1️⃣ 90% विशेष आवश्यकता वाले बच्चे ग्रामीण क्षेत्र से हैं जो कि ग्रामीण क्षेत्र में विशेष विद्यालय ना होने के कारण सामान्य विद्यालय में पढ़ते हैं।

अर्थात ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष आवश्यकता वाले बालकों के लिए विशेष विद्यालय की सुविधा ना होने के कारण सामान्यतः अधिकांश बालक सामान्य विद्यालयों में पढ़ते हैं।

2️⃣विशेष विद्यालय के शहरी क्षेत्र में होने के कारण ग्रामीण क्षेत्र के लोग अपने विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को शहरी क्षेत्रों में पढ़ने नहीं भेज पाते हैं।

3️⃣ ग्रामीण क्षेत्र के विद्यालय में विशेष और सामान्य आवश्यकता वाले बच्चे साथ-साथ पढ़ते हैं इसलिए विद्यालय में इनका समावेशन बहुत जरूरी है।

अर्थात सामान्य बालक और विशेष आवश्यकता वाले बालकों का विद्यालय में समावेशन अत्यंत आवश्यक है इससे बालको में सामाजिक तथा नैतिक गुण ,प्रेम, सहानुभूति, आपसी सहयोग आदि गुणों का समावेश होता है।

4️⃣समावेशी शिक्षा, सभी बच्चों को समान अवसर प्रदान करके उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने का कार्य करती है।

अर्थात इससे बच्चों में शिक्षण तथा सामाजिक स्पर्धा की भावना विकसित होती है।

5️⃣समावेशी शिक्षा प्रत्येक बालको के लिए उच्च और उचित उम्मीदों के साथ उनकी व्यक्तिगत शक्तियों का विकास करती है बच्चे को उनकी कमजोरी को ना जताते हुए उनकी शक्तियों को निखारना चाहिए।

6️⃣ प्रत्येक बालक स्वाभाविक रूप से सीखने के लिए प्रेरित होते हैं।

अर्थात प्रत्येक बालकों को उनकी रूचि के अनुसार ही शिक्षा मिलना चाहिए जिससे वे अभिप्रेरित हो सके। और समावेशी शिक्षा के माध्यम से प्रत्येक बालकों को सीखने के लिए प्रेरित करना आवश्यक है।

7️⃣समावेशी शिक्षा अन्य बालक और खुद के बीच की जो आवश्यकता या क्षमता है इसमें सामंजस्य स्थापित करने में मदद करती है।

अर्थात समावेशी शिक्षा के माध्यम से सामान्य बालक और विशेष आवश्यकता वाले बालक के मध्य सामंजस्यता स्थापित होती है।

8️⃣ समावेशी शिक्षा विद्यालय की संस्कृति के साथ साथ जो व्यक्तिगत विभिन्नता है उनको स्वीकार करने के अवसर प्रदान करती है ‌

जैसा कि हम जानते हैं कि प्रत्येक बच्चे में व्यक्तिगत विभिन्नता होती हैं शिक्षा के माध्यम से प्रत्येक बच्चे के व्यक्तिगत विभिन्नता को ध्यान रखते हुए उनके भिन्नता को स्वीकार करने के अवसर प्रदान करती है।

9️⃣समावेशी शिक्षा विशिष्ट बालक को अन्य बालक के समान अन्य गतिविधि में भाग लेने और व्यक्तिगत लक्ष्यों पर कार्य करने के लिए प्रेरित करती
है।

अर्थात समावेशी शिक्षा सामान्य बालकों के साथ-साथ विशेष आवश्यकता वाले बालकों को उनकी जरूरत के अनुसार उन्हें गतिविधियों में भाग लेने या उनके स्वरूप ही लक्ष्यों पर कार्य करने के लिए प्रेरित करती है‌।

🔟समावेशी शिक्षा विशिष्ट बालकों की शैक्षिक गतिविधियों में उनके माता-पिता को भी सम्मिलित करने की वकालत करती है।

उपरोक्त तथ्यों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि समावेशी शिक्षा की आवश्यकता इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसकी मदद से कोई भी बालक चाहे वह शारीरिक या मानसिक रूप से विकलांग हो उन्हें सबको सामान्य बालकों के साथ ही शिक्षा देने पर बल देता है । समावेशी शिक्षा प्रत्येक बालको की जरूरत पर विशेष ध्यान देता है। समावेशी शिक्षा के माध्यम से विशेष आवश्यकता वाले बालक को भी उच्च स्तर तक ले जाने के लिए बल दिया जाता है।

💠🌀,Notes by manisha gupta 🌀💠

🌷समावेशी शिक्षा की आवश्यकता🌷

जो बच्चे ग्रामीण क्षेत्रों से हैं , शारीरिक अक्षम हैं, आर्थिक, वातावरण , भौगोलिक, सामाजिक, आदि रूप से निम्न स्तर से हैं उन बच्चों के लिए समावेशी शिक्षा की आवश्यकता होती है।

1. 90% विशेष आवश्यकता वाले बच्चे ग्रामीण क्षेत्रों से हैं , जो कि ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष विद्यालय न होने के कारण सामान्य विद्यालय में ही पढ़ते हैं।

2. विशेष विद्यालय के शहरी क्षेत्रों में होने के कारण ग्रामीण क्षेत्र के लोग अपने विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को वहां पढ़ने नहीं भेज पाते हैं।

अर्थात अधिकतर विशेष विद्यालय गांवों में न होकर बल्कि शहरी क्षेत्रों में हैं जिस कारण गांवों के लोग अपनी आर्थिक परेशानी, आवश्यक सुविधायें न होने से, अशिक्षित माता-पिता जैसे अनेक कारणों से अपने विशेष आवश्यकता बाले बच्चों को शहर के विशेष विद्यालय भेजने में अक्षम रहते हैं।

3. ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष और सामान्य आवश्यकता वाले बच्चे साथ-साथ पढ़ते हैं , इसलिए विद्यालय में इनका समावेशन बहुत जरूरी है।

अतः विशेष आवश्यकता बाले बच्चों को विशेष रूप से उनके अनुकूल शिक्षा व्यवस्था मिलनी आवश्यक है ताकि उनका शैक्षिक रूप से कुछ तो विकास हो सके और बो खुद को सामान्य कक्षा में समायोजित कर सकें।

4. समावेशी शिक्षा सभी बच्चों को समान अवसर प्रदान करके उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने का कार्य करती है।

सभी को एक बेहतर शिक्षा व्यवस्था देने का एक मुख्य प्रयोजन ये भी है कि सभी बच्चों को एक समान श्रेणी में लाया जाए ताकि किसी भी बच्चे में पिछड़ेपन या हीनता की भावना न आ सके।

5. प्रत्येक बालक के लिए उच्च और उचित उम्मीदों के साथ उनकी व्यक्तिगत शक्तियों का विकास करती है।

6. प्रत्येक बालक स्वाभाविक रूप से सीखने के लिए अभिप्रेरित होता है।

हर बच्चे में सीखने के प्रति रुचि और क्षमता होती है बस आवश्यकता होती है कि शिक्षक बच्चे को प्रेरित करें, बच्चे को समझें और आवश्यकतानुसार शिक्षा प्रदान करें।

7. समावेशी शिक्षा , अन्य बालक और खुद के बीच की व्यक्तिगत आवश्यकता / क्षमता में सामंजस्य स्थापित करती है।

8. विद्यालय की संस्कृति के साथ साथ व्यक्तिगत विभिन्नता को स्वीकार करने के लिए अवसर प्रदान करते हैं।

9. समावेशी शिक्षा विशिष्ट बालक को अन्य बालक के समान कक्षा गतिविधि में भाग लेने व व्यक्तिगत लक्ष्यों पर कार्य करने के लिए प्रेरित करती है।

10. समावेशी शिक्षा विशिष्ट बालकों की शैक्षिक गतिविधि में उनके माता-पिता को भी सम्मिलित करने की वकालत करती है।

अतः बच्चों के साथ- साथ माता – पिता भी गतिविधियों में अपनी भागीदारी देंगे तो बच्चे अपने माता पिता से प्रेरित होकर सीखने में रुचि लेंगें और अधिकतम सीखेंगे भी, अर्थात प्रत्येक बच्चे को समझ के शिक्षा देने की विशेष आवश्यकता है।

Notes by
🌺जूही श्रीवास्तव🌺

🔰समावेशी शिक्षा की आवश्यकता🔰

1 90% विशेष आवश्यकता वाले बच्चे ग्रामीण क्षेत्र से ही है जो कि विशेष विद्यालय ना होने से सामान विद्यालय में पढ़ते हैं

2 विशेष विद्यालय का शहरी क्षेत्र में होने के कारण ग्रामीण क्षेत्र के लोग अपने विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को पढ़ने नहीं भेज पाते

3 ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष और सामान्य आवश्यकता वाले बच्चे साथ साथ पढ़ते हैं इसलिए विद्यालय में समायोजन बहुत जरूरी है

4 समावेशी शिक्षा सभी बच्चों को समान अवसर प्रदान करके उन्हें मुख्यधारा में जोड़ने का कार्य करती है

5 प्रत्येक बालक के लिए उच्च और उचित उम्मीदों के साथ व्यक्तिगत शक्तियों का विकास करती है

6 प्रत्येक बालक स्वाभाविक रूप से सीखने के लिए अभी प्रेरित होता है

7 समावेशी शिक्षा में बालक और खुद के बीच की व्यक्तिगत आवश्यकता सामंजस्य स्थापित करने में मदद करती है

8 विद्यालय की संस्कृति के साथ साथ व्यक्तिगत विभिन्नता को स्वीकार करने के लिए अवसर प्रदान करती है

9 समावेशी शिक्षा विशिष्ट बालक को अन्य बालक के समान कक्षा गतिविधि में भाग लेने और व्यक्तिगत लक्ष्यों पर कार्य करने के लिए प्रेरित करती है

10 समावेशी शिक्षा विशिष्ट बालकों की शैक्षिक गतिविधि में उनके माता-पिता को भी सम्मिलित करने की वकालत करती है

🙏🙏🙏 sapna sahu 🙏🙏🙏

Basic concept of stages of child development notes by India’s top learners

विकास की अवस्थाऐ

विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने अपने मत के अनुसार बाल विकास की विभिन्न अवस्थाएं बताएं है

सैले की अवस्थाएं-
सैले ने बाल विकास की तीन अवस्थाएं बतायी हैं

1. शैशवावस्था -जन्म से 5 वर्ष तक
2. बाल्याकाल- 5-12 वर्ष तक
3. किशोरावस्था- 12-18 वर्ष तक

कॉलसेनिक की अवस्थाऐ-
कॉल सेनिक ने बाल विकास की 8 अवस्थाएं बतायी है

1. गर्भाधान से जन्म तक -पूर्व जन्मकाल /गर्भाधान अवस्था/गर्भावस्था
2. शैशव-जन्म से 3 या‌ 4 सप्ताह तक अर्थात एक माह तक
3. आरंभिक शैशव-1 या 2 माह से 15 माह तक
4. उत्तर शैशवकाल- 15 माह से 30 माह तक अर्थात 2.5 वर्ष तक
5. पूर्व बाल्यकाल- 2+1/2 या 2.5 वर्ष से 5 वर्ष तक
6. मध्य बाल्यकाल- 5-9 वर्ष तक
7. उत्तर बाल्यकाल- 9-12 वर्ष तक
8. किशोरावस्था- 12-21 वर्ष तक

बालक का शारीरिक विकास-

बालक के शारीरिक विकास को बालक का मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक, नैतिक या चारित्रिक विकास भी किसी न किसी प्रकार से प्रभावित करता है

जैसे कोई बालक 18 साल का है तो उसके 25 साल का होने पर उसके चेहरे पर मानसिक विकास के कारण बहुत ज्यादा परिवर्तन होता है जबकि इस बीच उसका कोई शारीरिक विकास नहीं होता है यहां उसके भाव को प्रकट करने का, किसी से बात करने का ,कैसे व्यवहार करने का तरीका बदल जाता है। किसी के सामने अपने आप को शारीरिक रूप से प्रकट करने के तरीके में भी परिवर्तन आ जाता है जो उसके मानसिक विकास के कारण आता है।

शारीरिक विकास को हम दो प्रकार से देख सकते हैं-
शारीरिक विकास को हम वृद्धि भी बोल सकते हैं

1. बाहरी विकास- ऐसा शारीरिक विकास जिसे हम बाह्य रूप या ‌ आमतौर पर देख सकते हैं
जैसे ऊंचाई में वृद्धि होना ,वजन, शारीरिक अनुपात आदि।

2. आंतरिक अंगों में होने वाले परिवर्तन के आधार पर शारीरिक विकास- पाचन तंत्र, रक्त परिसंचरण तंत्र, उत्सर्जन तंत्र, तंत्रिका तंत्र आदि में होने वाला विकास ।

Notes by Ravi kushwah

💫 *विकास की अवस्थाऐ*💫

विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने अपने मत के अनुसार बाल विकास की विभिन्न अवस्थाएं बताएं है

*सैले* की अवस्थाएं-
सैले ने बाल विकास की तीन अवस्थाएं बतायी हैं

1. शैशवावस्था -जन्म से 5 वर्ष तक
2. बाल्याकाल- 5-12 वर्ष तक
3. किशोरावस्था- 12-18 वर्ष तक

💫 *कॉलसेनिक की अवस्थाऐ*-
कॉल सेनिक ने बाल विकास की 8 अवस्थाएं बतायी है

1. गर्भाधान से जन्म तक -पूर्व जन्मकाल /गर्भाधान अवस्था/गर्भावस्था
2. शैशव-जन्म से 3 या‌ 4 सप्ताह तक अर्थात एक माह तक
3. आरंभिक शैशव-1 या 2 माह से 15 माह तक
4. उत्तर शैशवकाल- 15 माह से 30 माह तक अर्थात 2.5 वर्ष तक
5. पूर्व बाल्यकाल- 2+1/2 या 2.5 वर्ष से 5 वर्ष तक
6. मध्य बाल्यकाल- 5-9 वर्ष तक
7. उत्तर बाल्यकाल- 9-12 वर्ष तक
8. किशोरावस्था- 12-21 वर्ष तक

🌟बालक का शारीरिक विकास-

बालक के शारीरिक विकास को बालक का मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक, नैतिक या चारित्रिक विकास भी किसी न किसी प्रकार से प्रभावित करता है

🌟शारीरिक विकास को हम दो प्रकार से जानते हैं-

1️⃣बाहरी विकास- ऐसा शारीरिक विकास जिसे हम बाह्य रूप या ‌ आमतौर पर देख सकते हैं
जैसे ऊंचाई में वृद्धि होना ,वजन, शारीरिक अनुपात आदि।

2️⃣ आंतरिक अंगों में होने वाले परिवर्तन के आधार पर शारीरिक विकास- पाचन तंत्र, रक्त परिसंचरण तंत्र, उत्सर्जन तंत्र आदि।

👉🏻Notes by Raziya khan

🔆 *विकास की अवस्थाएं*

विभिन्न मनोवैज्ञानिकों के अनुसार विकास की अलग अलग अवस्थाओं का वर्णन किया गया है जो कि निम्न प्रकार से है➖

*सैले के अनुसार*

इन्होंने विकास को की तीन अवस्थाएं बताई हैं जो कि निम्न है—

1) शैशवावस्था -जन्म से 5 वर्ष तक |

2) बाल्यकाल – 5 से 12 वर्ष तक |

3) किशोरावस्था -12 से 18 वर्ष तक |

*कॉलसेनिक केअनुसार*

इन्होंने विकास की अवस्थाओं को 8 भागों में बांटा है जो कि निम्न प्रकार से हैं —

1) गर्भाधान से जन्म तक- पूर्व जन्म काल या गर्भाधान अवस्था |

2) शैशव काल – 3 या 4 सप्ताह तक |

3) आरंभिक शैशव काल – 1माह से 15 माह तक |

4) उत्तर शैशव काल। – 15 माह से 30 माह तक |

5) पूर्व वाल्य काल – ढाई वर्ष से 5 वर्ष तक |

6) मध्य बाल्यकाल – 5 से 9 वर्ष तक |

7) उत्तर बाल्यकाल – 9 से 12 वर्ष तक |

8) किशोरावस्था – 12 से 21 वर्ष तक |

🔆 *बालक का शारीरिक विकास*➖

बालक के शारीरिक विकास में मानसिक विकास, सामाजिक विकास ,संवेगात्मक विकास, और नैतिक / चारित्रिक विकास इन सभी की महत्वपूर्ण भूमिका होती है | जो यह तय करते हैं कि व्यक्ति का शारीरिक विकास कैसा होगा, हम जिस समाज में रहते हैं उसके अनुसार हमारा मष्तिक कार्य करता है संवेगात्मक विकास हमारे संवेग को प्रदर्शित करता है जो अलग-अलग प्रकार से शारीरिक विकास को प्रभावित करते हैं लेकिन शारीरिक विकास कुछ समय के बाद रुक जाता है लेकिन ये अलग-अलग प्रकार से होता रहता है |

जैसे यदि कोई बच्चा बाल्यावस्था में है तब उसका शारीरिक विकास कुछ और होता है लेकिन जब वह किशोरावस्था में पहुंच जाता है तो उसका शारीरिक विकास कुछऔर होता है लेकिन शारीरिक विकास किशोरावस्था तक पूर्ण हो जाता है जो प्रौढ़ावस्था में मानसिक विकास के अनुसार परिपक्व होता है |
अर्थात जैसे हम 18 वर्ष में दिखते है वैसे 25 वर्ष में नहीं देखते हैं क्योंकि यहां पर मानसिक विकास होता है जो हमारे शरीर को मेंटेन करता है क्योंकि शरीर तो वही रहता है बस उसका अंदाज बदल जाता है जो मानसिक विकास को दर्शाता है |

🔅 शारीरिक विकास को दो प्रकार से देखा जा सकता है➖

*1* *बाहरी ढांचा या बाहरी विकास* ➖
ऐसा विकास जैसे हम प्रत्यक्ष या बाहरी रूप में देख सकते हैं जैसे ऊंचाई, वजन ,शारीरिक अनुपात आदि |
यदि शारीरिक अनुपात और वजन का अनुपात सही नहीं है तो उससे शारीरिक विकास प्रभावित हो सकता है |

*2* *आंतरिक अंगों में होने वाला परिवर्तन* ➖

इसके अंतर्गत श्वसन संस्थान आता है जैसे कान,,नाक, श्वसन नली , मुह (खाने की प्रक्रिया) आदि|

*स्नायु तंत्र* ➖इसके अंतर्गत अलग-अलग प्रकार की नालियों का विकास होता है |

*पाचन तंत्र* ➖इससे भी शारीरिक विकास प्रभावित होता है जैसे बचपन में हम एक रोटी खाते थे और धीरे-धीरे हम चार रोटी तक खाने लगते हैं वह रुक जाता है अर्थात कुछ समय पर हम चार ही रोटी ही खाते हैं लेकिन वह धीरे-धीरे कम होने लगता है अर्थात शरीर का क्षय होने लगता है |

*रक्त उत्सर्जन*➖
यह बढ़ते बढ़ते 18 वर्ष तक स्थाई हो जाता है और उसके बाद वह वैसा ही चलते रहता है अर्थात् रुकता नहीं है |

*नोट्स बाय ➖रश्मि सावले*

🌻🍀🌺🌺🌺🌺🌺🌺🍀🌻

✍️ *विकास की अवस्थाएं*

विभिन्न मनोविज्ञान ने अपने मत के अनुसार बाल विकास की विभिन्न अवस्थाएं बतलाई है जो कि निम्नलिखित हैं।

💎 *सैले की अवस्थाएं*
शैलज ने बाल विकास की अवस्थाओं को तीन भागों में बताया हैं।

1. शैशावस्था(Infancy) :- 0-5 वर्ष तक

2. बाल्यावस्था(childhood) :- 6-12 वर्ष तक

3. किशोरावस्था(Infancy) :- 12-18 वर्ष तक

✍️ *कॉलसेनिक की अवस्थाएं*

काँलसेनिक ने बाल विकास की अवस्थाएं को 8 भागों में बताया है।

1. गर्भधारण से जन्म तक/ पूर्व जन्म काल/ गर्भाधान अवस्था/ गर्भावस्था :-9महीना या 280दिन।

2.शैशव- जन्म से 3 या 4 सप्ताह तक अर्थात एक माह तक।

3. आरंभिक शैशव- एक या दो माह से 15 माह तक।

4. उत्तर शैशव- 15 माह से 30 माह तक या 2.5 वर्ष तक।

5. पूर्व बाल्यकाल-2 1/2 वर्ष से 5 वर्ष तक।

6. मध्यबाल्य काल-5-9 वर्ष तक।

7. उत्तर बाल्यकाल- 9-12 वर्ष तक ।

8. किशोरावस्था-12-21 वर्षा तक।

🏵 *बालक का शारीरिक विकास*
बालक के शारीरिक विकास में बालक का मानसिक, सामाजिक,सावेगात्मिक, नैतिक या चारित्रिक विकास किसी न किसी प्रकार से प्रभावित होते हैं। शारीरिक विकास के अनुसार ही हमारा मस्तिष्क भी कार्य करता है क्रियात्मक विकास हमारे समय के विकास को दर्शाता है सुख हो या दुख यह सब हमें सकारात्मक के अंदर ही आते हैं इन सभी के अनुसार शारीरिक विकास से होते हैं यह सब अलग-अलग कार्य को करने के लिए प्रभावित करता है जो कि हमारा सहयोग होगा जैसे परिवर्तन होता है एक समय में शारीरिक विकास होने लगता है मैचूर होते रहता है उम्र के अनुसार होता है।

शारीरिक विकास हमारा कुछ समय के बाद रुक जाता है लेकिन यह अलग-अलग प्रकार से होते रहता है। जैसे किसी बालक का शारीरिक विकास बाल्यावस्था में नहीं हो पाता है तो किशोरावस्था में होता है किशोरावस्था में नहीं होता है तो प्रौढ़ावस्था में होता है।

🏵 शारीरिक विकास को दो प्रकार से देखा जा सकता है।

1. *बाहरी विकास* ऐसा भी जिसे हम बाहरी रूप में देख सकते हैं जैसे उचाई वजन शारीरिक अनुपात वृद्धि।

2. *आंतरिक अंगों में होने वाला परिवर्तन*
इसके अंतर्गत श्वसन संस्थान,स्नायु तंत्र ,पाचन तंत्र ,उत्सर्जन बचपन में कम रहता है और समय के साथ परिवर्तन होती है।

*स्नायु तंत्र—* इसके अंतर्गत अलग-अलग प्रकार की नलियों का विकास होता है।

*पाचन तंत्र*— इसके अंतर्गत भी शारीरिक विकास को प्रभावित होता है जैसे बचपन में हम में दो रोटी खाते हैं और धीरे-धीरे चार पांच रोटी खाने लग जाते हैं उस समय पर हम चार रोटी खाते लेकिन वह धीरे-धीरे कम होने लगता था शरीर का विकास धीरे धीरे कम होते जाता है।

*रक्त उत्सर्जन*— यह विकास किशोरावस्था तक अस्थाई हो जाता है और उसके बाद वैसा ही चलते रहता है अर्थात रुकता नहीं है।

*Notes By:-Neha Roy*🙏
🙏🙏🙏

🌈💥विकास की अवस्था💥🌈
विभिन्न मनोवैज्ञानिक ने विकास की अवस्था को भिन्न-भिन्न रूपों में बताए।जोकि नीचे इस प्रकार से दिए हुए हैं—-
🌈है ले के अनुसार विकास की अवस्था को तीन भागों में बांटा गया है
1️⃣➡️शैशवावस्था (infancy)- इसमें बच्चे की आयु 1-5 year तक होती हैं।

2️⃣➡️बाल्याकाल (childhood ) -बच्चे की आयु 5-12 year तक होती हैं।

3️⃣➡️किशोरावस्था (Adolesence) -इसमे बच्चे की आयु 12-18 year तक होती हैं।

💥🌸कॉलसेनिक -इसके अनुसार विकास की अवस्था को 8 भागों में बांटा गया है।

1️⃣गर्भाधान से जन्म तक-(Pregnancy to birth)
पूर्व जन्म काल।

2️⃣शैशव-जन्म से 3 या 4 सप्ताह तक होती हैं।

3️⃣आरंभिक शैशव-1या 2 माह से 15माह तक ।

4️⃣उत्तर शैशव -15 माह से 30 माह तक।

5️⃣पूर्व बाल्याकाल- ढ़ाई साल से 5 साल तक ।

6️⃣मध्य बाल्याकाल- 5 से 9 साल तक।

7️⃣उत्तर बाल्याकाल – (9-12) साल तक।

8️⃣किशोरावस्था – (12-21) साल तक।

🌈💥शारीरिक विकास🌈🌿 🌸(Physical devlopment)🌸

बालक का शारीरिक विकास में बालक का मानसिक, सामाजिक,सावेगात्मक, नैतिक या चारित्रिक विकास किसी ना किसी रूप से प्रभावित करते हैं शारीरिक विकास के अनुसार ही हमारे मस्तिष्क भी कार्य करता हैं क्रियात्मक विकास हमारे समय के विकास को दर्शाता हैं। सुख हो या दूख ये सभी सकारात्मक के अंदर ही आते हैं।ये सब अलग- अलग-अलग कार्य को करने के लिए प्रभावित करता हैं जो कि हमारा सहयोग होगा । जैसे- परिवर्तन होता है एक समय में शारीरिक विकास होने लगता है मैच्योर होते रहता है उम्र के हिसाब से होता हैं।

शारीरिक विकास एक समय में रूक जाती है लेकिन यह अलग-अलग प्रकार से होते रहता है जैसे किसी बालक का शारीरिक विकास बाल्याकाल में नहीं हो पाता है तो किशोरावस्था में होता हैं। किशोरावस्था में नहीं होता है तो प्रौढ़ावस्था में होता हैं।

🌈🌺शारीरिक विकास को दो भागों में विभाजित किया गया है
1️⃣बहारी अंगों में होने वाले परिवर्तन।

2️⃣आंतरिक अंगों में होने वाले परिवर्तन।

🌈बहारी अंगों में होने वाले परिवर्तन दिखाई देते हैं जैसे- ऊंचाई,वजन इत्यादि। शारीरिक अनुपात जैसे- ऊंचाई के अनुसार वजन होना चाहिए।

💥🌈आंतरिक अंगों में होने वाले परिवर्तन जैसे – स्नायु तंत्र, पाचन तंत्र,रक्त परिसंचरण तंत्र आदि।

💥🌈🌸🌿Notes by-SRIRAM PANJIYARA 🌈🌸💥🌺🙏

🌷विकास की अवस्था🌷

विकास की अवस्था को बिभिन्न मनोवैज्ञानिकों के आधार पर समझा जाता है जिसमें मनोवैज्ञानिकों ने एक निश्चित उम्र और उस उम्र में आने बाले बच्चों के अनुसार अवस्थाओं के नाम बताये हैं :-

1. 🌹 सैले

मनोवैज्ञानिक सैले ने विकास की अवस्था को निम्नलिखित तीन भागों में बांटा है :-

1. शैशवावस्था (Infancy) – ( जन्म – 5) वर्ष तक

2. बाल्यकाल (Childhood) – ( 5 – 12 ) वर्ष तक

3. किशोरावस्था(Adolescence) – (12 – 18) वर्ष तक

2. 🌹 कॉलसेनिक

मनोवैज्ञानिक कॉलसेनिक ने विकास की अवस्थाओं को निम्नलिखित आठ भागों में बांटा है :-

1. गर्भाधान से जन्म तक ( Pregnancy TO Birth ) -( पूर्व जन्मकाल Prenatal )

2.शैशव (Infancy) – (जन्म से 3 या 4 सप्ताह) लगभग 1 माह तक

3. आरंभिक शैशवकाल ( Infancy) –
( 1 या 2 माह से 15 माह तक ) लगभग 1 वर्ष 3 माह तक

4. उत्तर शैशवकाल ( Post Infancy ) – ( 15 माह से 30 माह ) लगभग ( 2.5 ) वर्ष तक

5. पूर्व बाल्यकाल ( Pre-Childhood ) –
( 2+1/2 या (2.5) वर्ष – 5 ) वर्ष तक

6. मध्य बाल्यकाल – ( 5 – 9 ) वर्ष तक

7. उत्तर बाल्यकाल( Post Infancy ) – ( 9 – 12 ) वर्ष तक

8. किशोरावस्था ( Adolescence ) –
(12 – 21 ) वर्ष तक

🌷 बालक का शारीरिक विकास

👉 मानसिक विकास
👉 सामाजिक विकास
👉 संवेगात्मक विकास
👉 नैतिक , चारित्रिक विकास

अतः ये सभी विकास बच्चे के शारीरिक विकास को प्रभावित करते हैं।

जैसे बच्चे किशोरावस्था में आने के बाद उनके मानसिक विकास में परिवर्तन होने के कारण बच्चे बहुत ज्यादा परिपक्व हो जाते हैं। उनके व्यवहार, भाव , बात करने का तरीका, एवं लोगों के सामने खुद को शारीरिक रूप से प्रकट करने का तरीका बदल जाता है अर्थात विकास हो जाता है परन्तु इस बीच उनके शारीरिक विकास में कोई ज्यादा परिवर्तन नहीं देखा जाता है।

🌷 शारीरिक विकास को निम्नलिखित दो भागों में बांटा
गया है :-

1. बाहरी ढांचा
बच्चे का ऐसा विकास जिसको कि बाहरी तौर पर प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है जैसे :-

👉 ऊँचाई में वृध्दि होना
👉 शारीरिक अनुपात
👉 वजन

2. आंतरिक ढांचा
बच्चे का ऐसा विकास जो अप्रत्यक्ष होता है अर्थात जो शरीर के आंतरिक अंगों में होता है जैसे :-

👉 श्वसन स्थान
👉 स्नायु तंत्र
👉 पाचन तंत्र
👉 रक्त उत्सर्जन
आदि

Notes by
🌹जूही श्रीवास्तव🌹

🌈🌼 विकास की अवस्था🌀🌼
विभिन्न मनोवैज्ञानिक ने विकास की अवस्थाओं को अलग-अलग प्रकार से वर्गीकृत किया है
गे अवस्था में निम्नलिखित हैं—–

सैले के अनुसार विकास की अवस्थाएं

1-शैशवावस्था (1-5) वर्ष
2-बाल्यावस्था (5-12) वर्ष
3-किशोरावस्था (12-18) वर्ष

कॉल सोनिक के अनुसार विकास की अवस्थाओं को 8 भागों में बांटा गया है

1️⃣ गर्भाधान से जन्म तक- (पूर्व जन्म काल)
2️⃣शैशवावस्था-जन्म से 3 से 4 सप्ताह तक
3️⃣ आरंभिक शेष अवस्था-1 या 2 माह से 15 माह तक
4️⃣ उत्तर शैशवावस्था-15 माह से 30 माह तक
5️⃣ पूर्व बाल्यकाल-ढा़ई साल से 5 साल तक
6️⃣ मध्य बाल्यकाल- 3 से 9 साल तक
7️⃣ उत्तर बाल्यकाल-9 से 12 साल तक
8️⃣ किशोरावस्था-12 से 21 साल तक

🌈🌺 शारीरिक विकास🌺🌈( physical development)🌼🌼

बालक के सारे विकास के अंतर्गत शरीर के समस्त आंतरिक और बाह्य अंगों का विकास आता है सारे के विकास के अनुसार ही हमारे मस्तिष्क में कार्य करता है क्रियात्मक विकास हमारे समय के विकास को दर्शाता हैसॉरी विकास के अंतर्गत यह भी देखा जाता है कि वह कौन से तत्व है जो शारीरिक विकास को प्रभावित करते हैं

शारीरिक विकास एक समय में रुक जाती है लेकिन यह अलग-अलग प्रकार से होते रहते हैं जैसे किसी बालक का शारीरिक विकास बाल्यकाल में नहीं हो पाता तो किशोरावस्था में होता है किशोरावस्था में नहीं होता है तो प्रौढ़ावस्था में होता है
🌺🌺 सारी विकास को दो भागों में बांटा गया है
1️⃣ बाहरी अंगों में होने वाले परिवर्तन।
2️⃣ आंतरिक अंगों में होने वाले परिवर्तन।
🌼🌺 बाहरी अंगों में होने वाले परिवर्तन दिखाई देते हैं जैसे भार लंबाई वजन इत्यादि।

🌼🌺 आंतरिक अंगों में होने वाले परिवर्तन जैसे स्नायु तंत्र, पाचन तंत्र, मांसपेशियां इत्यादि

🖊️🖊️📚📚Notes by-Sakshi Sharma📚📚🖊️🖊️

Education of physically handicapped child notes by India’s top learners

💥विकलांग बालकों की शिक्षा

1️⃣ अपंग बालकों की शिक्षा➖
🔹 इस प्रकार के बच्चे सामान्य बालक से अलग होते हैं और हर कार्य को आसानी से नहीं कर पाते हैं जिसके कारण इनके मन में उदासीनता की भावना होती है इसको दूर करने के लिए कुछ ऐसे उपाय हैं जिनको सक्षम बनाने में प्रयोग किया जा सकता है।

🔹 बच्चों की बैठने की व्यवस्था आरामदायक हो।
🔹 ऐसे बच्चों के लिए चिकित्सक सलाह लेकर संसाधनों का प्रयोग किया जा सकता है जो इनके लिए काफी हद तक सही साबित हो सकती है।
🔹 इन बच्चों के साथ सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करेंगे।
🔹 विशेष विद्यालय की व्यवस्था करेंगे।
🔹 सामान्य पाठ्यक्रम को साधारण और कम रखेंगे व्यवसायिक शिक्षा पर ज्यादा जोर देंगे।
🔹 शिक्षण को रोचक और क्रियात्मक ढंग से और सरल तथा धीमी गति का प्रयोग करेंगे।

2️⃣ नेत्रहीन /अर्ध नेत्रहीन बालकों की शिक्षा➖

1) पूर्ण नेत्रहीन:-
▪️ ब्रेल लिपि का प्रयोग
▪️ बोलकर पढ़ाना
▪️ Audio CD ka prayog
▪️ सामाजिक जीवन में समायोजन के लिए हस्तशिल्प संगीत की शिक्षा दी जानी चाहिए।

2) अर्ध नेत्रहीन:-
▪️ कक्षा में आगे बैठाना
▪️ मोटे और बड़े अक्षरों वाले किताब बोर्ड पर बड़ा और साफ़ लिखना।
▪️ कक्षा में रोशनी का उचित व्यवस्था।
▪️ ऐसे बच्चे को ज्यादा से ज्यादा भूलकर बढ़ाना।
▪️ चश्मे या लेंस का प्रयोग करना
▪️ ऑडियो सीडी का प्रयोग करना।

3️⃣ अर्ध बहरे➖
🔹 इनको सामान्य बच्चों के साथ पढ़ाया जा सकता है।
🔹 कक्षा में सबसे आगे बैठा ना
🔹 जरूरत पड़ने पर कर्ण यंत्रों का प्रयोग करना।
🔹 इस प्रकार के बच्चों पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

4️⃣ दोषयुक्त वाणी वाले बालकों को शिक्षा➖
🔹 शारीरिक और मनोवैज्ञानिक कारण
1) चिकित्सा (सल्य /मनोविज्ञान) द्वारा भी इसका इलाज संभव है।
2) घर का वातावरण दोष युक्त ना हो।
3) पौष्टिक भोजन देना चाहिए।
4) अभिभावक और शिक्षक को विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है इन बच्चों के ऊपर।
5) ऐसे बच्चों की बातों का मजाक ना उड़ाए और चेहरा नहीं ऐसा अगर होता है तो बच्चों के अंदर हीन भावना का विकास होता है।

5️⃣ कोमल या निर्मल बालकों की शिक्षा➖
🔹 ऐसे बच्चे किसी भी रोग से ग्रस्त नहीं होते हैं।
1) परिवार को विशेष ध्यान रखना चाहिए।
2) पौष्टिक भोजन ओ का आहार देना चाहिए।
3) समय-समय पर शारीरिक जांच करानी चाहिए जिससे कि कमजोरियों का पता चलता रहे।
4) शक्ति के अनुसार पाठ्यक्रम या खेलकूद कराएं।
5) पढ़ाई में विधि या दृश्य श्रव्य सामग्री को शामिल करना चाहिए।
6) इन बच्चों के साथ सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करना चाहिए।

🌸🌸🌸Notes by—-Abha kumari 🌸🌸🌸

🌈🌺🌿 विकलांग बालक(Physically handicapped)🌿🌺🌈
💥जन्म से कुछ बालकों में दोष होता है या किसी बीमारी ,आघात ,दुर्घटना या चोट लग जाने पर शरीर के किसी अंगों में दोष होता है उसे विकलांगता कहते हैं।
🌸💥क्रो एंड क्रो- एक व्यक्ति जिसमें कोई प्रकार का शारीरिक दोष होता है जिससे वह किसी भी रुप में सामान्य क्रिया में भाग लेने से रोकता है या सीमित रखता है तो हम उसे विकलांग व्यक्ति कहते हैं।
💥🌿शारीरिक विकलांग बालक के प्रकार———-
1️⃣अपंग-इसमें वह बालक आता है जो लंगड़े, लुले, गूंगे ,बहरे अंधे इत्यादि आते हैं।
2️⃣दृष्टि दोष- इसमें बच्चे अंधे ,अर्ध- अंधे ,यानी देखने या दृश्य संबंधी विकार से पीड़ित होते हैं
3️⃣श्रवण संबंधी दोष- बहरे ,अर्ध बहरे यानी सुनने संबंधी विकार होते हैं।
4️⃣वाक संबंधी विकार (दोष युक्त वाणी)- हकलाना ,गूंगापन तुतलाना, नहीं बोल पाना इत्यादि इसके अंदर होता है।
5️⃣अत्यधिक कोमल और दुर्बल – इसमें रक्त की कमी ,हिमोग्लोबिन की कमी, शक्तिहीन,पाचन क्रिया में गड़बड़ी इत्यादि आते हैं।
🌈💥विकलांग बच्चे की शिक्षा💥🌈➡️
विकलांग बालक को शिक्षा देना हमारा परम कर्तव्य है, और उनको उनके हिसाब से शिक्षा देना जरूरी है।
🌺💥अपंग बालकों की शिक्षा- जो बच्चा अपंग है उनको शारीरिक दोष होगा, लेकिन आवश्यक नहीं है की मंदबुद्धि हो।
शारीरिक कमी के कारण हीन भावना जागृत हो सकती है।🌸🌿
इनको दूर करने के लिए हम निम्नलिखित उपाय कर सकते हैं🌸🌿
➡️(A)विशिष्ट प्रकार के विद्यालय का संगठन करें।
➡️(B)उनकी विशिष्ठता के हिसाब से कमरे भी उपयुक्त हो।
➡️(C)उचित प्रकार के बैठने की व्यवस्था हो।
➡️(D)नुकीले वास्तु कमरे में ना हो।
➡️(E)फर्नीचर इत्यादि इधर उधर ना हो ताकि बच्चे को परेशानी का सामना करना पड़े।
➡️(F)डॉक्टर या विशेषज्ञ की राय लेते रहें।
➡️(G)उनकी यथासंभव चिकित्सा हेतु साधनों का इंतजाम करते हैं।
➡️(H)विकलांग बच्चों से सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करेंगे।
समान्य पाठ्यक्रम को साधारण और कम रखेंगे। लेकिन, व्यवसायिक पाठ्यक्रम पर जोर देंगे। क्योंकि विकलांगता के हिसाब से जो बच्चा उस काम को कर सकता है या उस काम के लायक है उन पर ज्यादा जोर देंगे। ताकि, बच्चे भविष्य में अपना जीविकोपार्जन कर सके।
➡️(I)मानसिक विकास का पूर्ण अवसर देंगे ताकि मानसिक विकास विस्तृत कर सके।
➡️(J)शिक्षण विधि सरल रोचक क्रियात्मक ढंग से धीमी गति से हो।
🙏🌺💥🌸🌈Notes by-SRIRAM PANJIYARA 🌈🌸💥🌺🙏💥🌈 ➡️PART 2⬅️
🔥विकलांग बालक के शिक्षा🔥🌈💥
🌺🌸नेत्रहीन /अर्ध नेत्रहीन बालकों की शिक्षा- ऐसे बालक जो नेत्रहीन या अर्ध नेत्रहीन है, उनको हम एक साथ शिक्षा नहीं दे सकते हैं ।इसलिए नेत्रहीन और अर्ध नेत्रहीन बालक को अलग-अलग शिक्षा की व्यवस्था करते हैं।
🔥पूर्ण नेत्रहीन -ऐसे बालक जो पूरी तरह से नेत्रहीन हो ,उनको हम निम्नलिखित विधि से पढ़ाएंगे। जैसे- ब्रेल लिपि से पड़ेंगे,
बोलकर पढ़ाना ,ऑडियो सीडी के माध्यम से पढ़ाना इत्यादि आते हैं।
🌿🌺अर्ध नेत्रहीन – इसमें ऐसे बालक आते हैं जो पूरी तरह से नेत्रहीन ना हो। इनको हम निम्नलिखित विधि से शिक्षा देते हैं। जैसे-
➡️*क्लास में आगे बैठाना।
➡️*बड़े / मोटे अक्षर वाले किताब का प्रयोग करवाएंगे।
➡️*बोड पर बड़ा और साफ लिखेंगे।
➡️*उचित रोशनी का व्यवस्था करेंगे।
➡️*बोलकर पढ़ाएंगे।
➡️*चश्मे या लेंस का प्रयोग कराएंगे।
➡️*ऑडियो सीडी का प्रयोग करवाएंगे।
🌈💥All over बात करें तो पूर्ण नेत्रहीन या अर्ध नेत्रहीन बच्चों को सामाज जीवन में समायोजन के लिए हस्तशिल्प या संगीत की शिक्षा दी जानी चाहिए। ताकि बच्चे आगे चलकर अपना जीविकोपार्जन कर सके।

🌸💥बहारें या अर्ध बहरे बालक की शिक्षा-
कुछ बच्चे जन्मजात बहरे और गूंगे होते हैं इसके लिए ऐसे विद्यालय की स्थापना की जाए, जहां वह उचित शिक्षा प्राप्त कर सकें।
➡️विद्यालय में उन्हें संकेतिक भाषा में शिक्षा दी जाए।
➡️Exprission/हाव -भाव समझने की शिक्षा दी जाए।
➡️होठों की गतिविधियों को समझना।
🌺ऐसे बच्चों को ज्यादातर लिखकर या दिखाकर पढ़ाएंगे।
🔥🌈अर्थ बहरे-
इनको समान बच्चों के साथ पढ़ाया जा सकता है।
🔥बच्चों को कर्ण यंत्रों का प्रयोग करना।
🌸कक्षा में बच्चों को विशेष ध्यान देकर।

🌈💥दोष-युक्त वाणी वाले बालकों को शिक्षा-
🔥💥बच्चों में शारीरिक और मानसिक दोनों ही कारण से होता है
🔥🌈चिकित्सा (शल्या या मनोवैज्ञान) द्वारा भी इनका इलाज संभव है।
🌸🔥घर का वातावरण भी दोष युक्त ना हो।
🌸💥ऐसे बच्चों को पौष्टिक भोजन देना चाहिए।
🌺🌈बच्चों पर अभिभावक / शिक्षक को विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
💥अभिभावक बच्चे के अशुद्ध उच्चारण को प्यार से ठीक करें।, 🌸उनको चिढ़ाऐ नहीं,हसे नहीं ।
🌈💥🔥कोमल या निर्बल बालकों की शिक्षा🌈💥🔥
ऐसे बालक रोगों से ग्रस्त नहीं होते
ऐसे बालक पर परिवार को विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
💥ऐसे बच्चों को पौष्टिक भोजन देना चाहिए।
🌈बच्चों को समय-समय पर शारीरिक जांच करवायें।
🌸➡️उनकी क्षमता के अनुसार पाठ्यक्रम या खेलकूद रखें।
🌸🌈इनकी शिक्षण में खेल विधि या दृश्य श्रव्य सामग्री रखें।
💥🔥ऐसे बालकों से सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करना चाहिए।
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🔥🌈💥Notes by-SRIRAM PANJIYARA💥🌈🔥🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
💫 *विकलांग बालकों की शिक्षा* ➖

विकलांग बालकों को शिक्षा देना समाज ,शिक्षक सभी का परम कर्तव्य है विकलांग बालकों की शिक्षा में सभी को अपना निश्चित रूप से अनिवार्य योगदान करना चाहिए —–

*(A)* *अपंग बालकों की शिक्षा*➖

शारीरिक दोष से संबंधित बालक को भी शिक्षा दी जा सकती है आवश्यक नहीं है कि यह मंदबुद्धि ही हों, अपंग बालक प्रतिभाशाली या रचनात्मक भी हो सकते हैं लेकिन शारीरिक कमी के कारण उनमें हीन भावना जागृत हो सकती है जो कि बहुत ही खतरनाक है किसी भी प्रकार से ठीक नहीं है इसके लिए विशिष्ट प्रकार के उपाय करना चाहिए जो कि निम्न है —-

*1)* *विशिष्ट प्रकार के विद्यालय का संगठन करें*
जिसे उनकी शिक्षा के में कोई बाधा उत्पन्न ना हो और वह सामान्य बालकों की तरह शिक्षा ग्रहण कर सकें |

*2)* *उनकी विशिष्टता या विकलांगता के हिसाब से कमरे उपयुक्त हो*
जिससे उनका ध्यान पढ़ाई की ओर आकर्षित हो और इस प्रकार के कमरों की व्यवस्था की जानी चाहिए जहां उन्हें उचित प्रकार का वातावरण मिल सके तथा उन्हें आने जाने में किसी प्रकार की समस्या का सामना नहीं करना पड़े |

*3)* *उचित प्रकार के बैठने की व्यवस्था हो ताकि वे आराम से बैठ सकें*
बैठने के लिए उचित प्रकार की व्यवस्था होनी चाहिए जिससे बच्चे को कोई असुविधा ना हो कक्षा में उचित प्रकार के फर्नीचर से व्यवस्था की जानी चाहिए जिसमें बच्चे आसानी से बैठकर शिक्षा ग्रहण कर सकें |

*4)* *डॉक्टर या विशेषज्ञों की राय लेते रहें हर संभव चिकित्सा हेतु संसाधनों का इंतजाम करें*
जिससे उनकी विकलांगता की समय-समय पर जांच हो सके और अच्छे तरीके से देख रहे हो सके |

*5)* *विकलांग बच्चों से सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करें*
ताकि उनमें हीन भावना ना सके और उनको सहानुभूति देना अति आवश्यक है वरना बच्चा एक अलग रास्ता पकड़ लेता है और उससे उसका भविष्य बिगड़ सकता है |

*6)* *सामान्य पाठ्यक्रम को साधारण और कम रखना लेकिन व्यवसायिक पाठ्यक्रम पर अधिक जोर देना*
उनकी विकलांगता को ध्यान में रखते हुए उन्हें शिक्षा देना जो उनके भविष्य के लिए आवश्यक हो जिससे उनमें आत्मविश्वास भी बढ़ेगा और लाभदायक भी होगा |

*7)* *मानसिक विकास का पूर्ण अवसर देना*
जिस -जिस क्षेत्र में मानसिक विकास हो सकता है उन्हें उस क्षेत्र में पूरा अवसर देना जिससे वह अपने मस्तिष्क का विकास कर सकें और इस प्रकार वे अपने भविष्य को बेहतर बना सकते हैं |

*8)* *शिक्षण विधि सरल, रोचक, और क्रियात्मक ढंग से हो एवं धीमी गति से होने चाहिए*
जिससे उनके मन में हीन भावना का विकास ना हो और वे अपने मन में शिक्षा के प्रति रुचि उत्पन्न कर सकें, और इस प्रकार उनके भविष्य को बेहतर बनाया जा सकता है |

🔆 *विकलांग बालक के प्रकार*➖

*1)* अपंग बालक |

*2)* दृष्टि दोष |

*3)* श्रवण संबंधी दोष |

*4)* वाक् संबंधी दोष या दोष युक्त पानी |

*5)* अत्याधिक कोमल और दुर्बल |

💫 *विकलांग बालकों की शिक्षा* ➖
विकलांग बालकों को शिक्षा देना हमारा परम कर्तव्य है जिससे कि वह अपने आने वाले जीवन के लिए कुछ कर सकें | उनमें हीन भावना का विकास ना हो इसलिए विकलांग बालकों की शिक्षा अति आवश्यक है विकलांग बालकों को निम्न प्रकार से शिक्षा दी जा सकती है —

🍀 *अपंग बालकों की शिक्षा* ➖
शारीरिक दोष से संबंधित बालक को भी शिक्षा दी जा सकती है यह आवश्यक नहीं है कि मंदबुद्धि बालक ही अपंग हो, अपंग बालक प्रतिभाशाली या सृजनात्मक भी हो सकते हैं लेकिन उनमें शारीरिक कमी के कारण हीन भावना जागृत हो सकती है इसलिए उन बालकों की शिक्षा अति आवश्यक है ताकि उनमें हीन भावना का विकास न हो | अतः अपंग बालकों को निम्न प्रकार से शिक्षा दी जा सकती है—

*1)* विशिष्ट प्रकार के विद्यालय का संगठन करके |

*2)* उनकी विशेषता के हिसाब से कमरे की व्यवस्था करके|

*3)* उचित प्रकार के बैठने की व्यवस्था हो ताकि वे आराम से बैठ सकें |

*4)* डॉक्टर या विशेषज्ञों की राॅय लेते रहे हर संभव चिकित्सा हेतु संसाधन का इंतजाम करना |

*5)* विकलांग बच्चों से सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करना |

*6)* सामान्य पाठ्यक्रम को साधारण और कम रखेंगे लेकिन व्यवसायिक पाठ्यक्रम पर जोर देंगे |

*7)* मानसिक विकास का पूर्ण अवसर |

*8)* शिक्षण विधि सरल ,रोचक, और क्रियात्मक ढंग से हो एवं धीमी गति से होना चाहिए |

🍀 *नेत्रहीन या अर्ध नेत्र हीन बालकों की शिक्षा* ➖

*नेत्रहीन बालक* ➖

ऐसे बच्चे जो पूर्ण रूप से नेत्रहीन है उनको ब्रेल लिपि से पढ़ाया जाए एवं इनको सामाजिक जीवन में समायोजन के लिए हस्तशिल्प या संगीत आदि की शिक्षा दी जानी चाहिए ताकि वह अपने आने वाले जीवन के प्रति सजग हो सकें और उसके लिए कर सकें ताकि उनमें हीन भावना का विकास न हो सके |

*अर्ध नेत्रहीन बालक*➖

ऐसे बालक जो अर्धनेत्रहीन है उनकी शिक्षा के लिए उनको

🔅कक्षा में आगे बैठाएंगे ताकि उनको आंखों पर ज्यादा जोर न देना पड़े |

🔅मोटे अक्षर वाले किताब का प्रयोग करना ताकि वे उसे छूकर महसूस कर सकें |

🔅बोर्ड पर बड़ा और साफ़ लिखना ताकि स्पष्ट दिखाई दे सके |

🔅उचित रोशनी की व्यवस्था की जाए |

🔅जोर से बोलकर बढ़ाना ताकि वो स्पष्ट सुन सकें |

🔅जरूरत पड़ने पर चश्मे के लेंस का प्रयोग करना |

🔅अर्ध नेत्रहीन बालकों के लिए ऑडियो सीडी या श्रव्य साधनों का प्रयोग करना |

🔅 इनको समाज या जीवन में समायोजन करने के लिए हस्तशिल्प या संगीत की शिक्षा दी जानी चाहिए |

ताकि वे समायोजन करके अपने जीवन को बेहतर बना पाए |

🍀 *बहरे या अर्ध बहरे बालकों की शिक्षा*➖

कुछ बालकों में जन्म से बहरापन होता है कुछ बालक जन्मजात बहरे होते हैं इस कारण से वे गूंगे भी होते हैं इसके लिए ऐसे विद्यालय की स्थापना की जाए जहाँ वे उचित शिक्षा प्राप्त कर सकें और विशेष विद्यालय में उन्हें —

*1)* सांकेतिक भाषा भाषा में शिक्षा दी जाए |

*1)* हाव-भाव के द्वारा शिक्षा दी जाए जिससे वे शब्दों को समझ सकें |

*3)* होठों की गतिविधि को समझ सके ऐसे वातावरण की व्यवस्था करना जिससे बच्चे को समझने में आसानी होगी और समझने में सक्षम होगा कि सामने वाला क्या कहना चाहता है यदि वह इशारों को समझने में एक्सपर्ट हो गया तो वह चेहरे के हावभाव और होठों की गतिविधि को भी समझ सकेंगे |

*4)* ज्यादातर दिखाकर या लिखकर पढ़ाएंगे जिससे वह अपने शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ा सकें |

🍀 *दोष युक्त वाणी वाले बालकों की शिक्षा* ➖

बच्चों की दोष युक्त वाणी शारीरिक और मनोवैज्ञानिक दोनों कारणों से होती है अत: ऐसे बालकों की शिक्षा के लिए निम्न उपाय अपनाने चाहिए —

*1)* ऐसे बच्चे जो दोष युक्त वाणी वाले हैं उनका चिकित्सा ( शल्य/ मनोवैज्ञानिक) द्वारा भी इलाज संभव है क्योंकि मनोवैज्ञानिक ही एक ऐसी विधि है जिसमें बच्चे को समझा जा सकता है |

*2)* घर का वातावरण भी दोष युक्त ना हो क्योंकि इससे भी बच्चे के मनोवैज्ञानिक विकास में प्रभाव पड़ता है |

*3)* पौष्टिक भोजन भी मिलना आवश्यक है क्योंकि ये शरीर से जुड़ा हुआ है |

*4)* अभिभावक और शिक्षक को विशेष ध्यान की आवश्यकता होती है क्योंकि शुद्ध उच्चारण को प्यार से ठीक करें उनको चिड़ाएं नहीं ,हंसे नहीं, मजाक ना करें, इससे उनके मन में हीन भावना आती है |

🍀 *कोमल या निर्बल बालकों की शिक्षा* ➖

ऐसे बच्चे रोग से ग्रस्त नहीं होते हैं बल्कि सामान्य बच्चे ही कोमल या दुर्बल हो जाते हैं उनको फोबिया हो सकता है उन्हें किसी भी चीज़ से डर लगने लगता है किसी भी चीज से इसके लिए–

*1)* ऐसे बच्चों के प्रति परिवार का विशेष ध्यान होना चाहिए |

*2)* उनके लिए पौष्टिक भोजन की व्यवस्था की जानी चाहिए |

*3)* समय समय पर शारीरिक जांच करवाना चाहिए |

*4)* एवं उनकी शक्ति के अनुसार पाठ्यक्रम खेलकूद की व्यवस्था करनी चाहिए क्योंकि यह कमजोर होते हैं इसलिए इनकी शिक्षा में खेल विधि का प्रयोग करना चाहिए |

*5)* उनके साथ सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करें अन्यथा वो हीन भावना का शिकार हो सकते हैं |

𝙉𝙤𝙩𝙚𝙨 𝙗𝙮➖ 𝙍𝙖𝙨𝙝𝙢𝙄 𝙨𝙖𝙫𝙡𝙚

🍀🌻🌺🌸🌸🌸🌸🌸🌻🍀

⭐विकलांग बच्चों की शिक्षा⭐

▪️ अपंग बालकों की शिक्षा:-
शारीरिक दोष में यह आवश्यक नहीं है कि बच्चे मंदबुद्धि हो शारीरिक कमी के कारण हीन भावना जागृत हो सकती है इससे मंदबुद्धि का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

▪️ विशिष्ट प्रकार के विद्यालय का संगठन करना:-
विद्यालय का गठन इस प्रकार होना चाहिए कि इन बच्चों के लिए सुविधाजनक हो और उनके लिए शिक्षा का साधन प्रदान की जा सके।

▪️ उनकी विशेषता के हिसाब से कमरे भी उपयुक्त हो :-
विकलांगता के प्रकार को देखते हुए कमरे का चयन करना चाहिए जिससे कि बच्चों की कोई प्रॉब्लम ना हो और आसानी पूर्व को वह अपनी कक्षा तक पहुंच सके।

▪️उचित प्रकार के बैठने की व्यवस्था हो ताकि वे आराम से बैठ सके:-
इस प्रकार के बच्चों के लिए बैठने के लिए अच्छी व्यवस्था करनी चाहिए ताकि वो आराम महसुस कर सके।

▪️ डॉक्टर विशेषज्ञ की राय लेते रहें संभव हो तो चिकित्सा हेतु संसाधनों का इंतजाम करें:-
इन बच्चों को समझने के लिए एवं सही शिक्षा देने के लिए डॉक्टरों की राय जरूरी है जिससे उचित निदान किया जा सके।

▪️ विकलांग बच्चों में सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करेंगे:-
बच्चों में किसी प्रकार के हीन भावना नहीं आने देंगे जिससे कि वह अपने आपको अलग समझे और किसी भी कार्य करने से पीछे हट जाए हमें उनका हमेशा सहयोग पूर्ण मदद करनी चाहिए जिससे कि वह आगे कार्य करने में समर्थ हो सके।

▪️ सामान्य पाठ्यक्रम को साधारण और कम रखेंगे लेकिन व्यवसायिक पाठ्यक्रम पर जोड़ देंगे:-
जिस प्रकार सभी बच्चों के लिए पाठ्यक्रम बनाई जाती है उसी प्रकार पाठ्यक्रम को रखेंगे हो सके तो कम करेंगे लेकिन व्यवसायिक शिक्षा पर जोर देंगे ताकि वह अपने भविष्य में इसका उपयोग करें एवं इनके लिए लाभकारी साबित हो।

▪️ मानसिक विकास का पूर्ण अवसर देंगे:-
बच्चों को खुद से कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करेंगे जिससे उनकी मानसिकता का विकास हो और और अपने आप को सक्रिय रख पाएंगे बच्चे इस अवसर के द्वारा।

▪️ शिक्षण विधि सरल रोचक एवं क्रियात्मक ढंग से प्रस्तुत करेंगे:-
शिक्षण विधियों को सरल गति से प्रस्तुत करना चाहिए ताकि बच्चे के मानसिक स्तर के अनुसार हो और उन्हें रुचिकर लगे ताकि वह अपने रूचि के अनुसार पढ़ाई को समझ पाए और अपने से जोड़ पाए।

🙏🙏🙏Notes by—-Abha kumari 🙏🙏🙏

🌸🌸💥💥Part2💥💥🌸🌸

2️⃣ नेत्रहीन /अर्ध नेत्रहीन बालकों की शिक्षा➖

1) पूर्ण नेत्रहीन:-
▪️ ब्रेल लिपि का प्रयोग
▪️ बोलकर पढ़ाना
▪️ Audio CD ka prayog
▪️ सामाजिक जीवन में समायोजन के लिए हस्तशिल्प संगीत की शिक्षा दी जानी चाहिए।

2) अर्ध नेत्रहीन:-
▪️ कक्षा में आगे बैठाना
▪️ मोटे और बड़े अक्षरों वाले किताब बोर्ड पर बड़ा और साफ़ लिखना।
▪️ कक्षा में रोशनी का उचित व्यवस्था।
▪️ ऐसे बच्चे को ज्यादा से ज्यादा भूलकर बढ़ाना।
▪️ चश्मे या लेंस का प्रयोग करना
▪️ ऑडियो सीडी का प्रयोग करना।

3️⃣ अर्ध बहरे➖
🔹 इनको सामान्य बच्चों के साथ पढ़ाया जा सकता है।
🔹 कक्षा में सबसे आगे बैठा ना
🔹 जरूरत पड़ने पर कर्ण यंत्रों का प्रयोग करना।
🔹 इस प्रकार के बच्चों पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

4️⃣ दोषयुक्त वाणी वाले बालकों को शिक्षा➖
🔹 शारीरिक और मनोवैज्ञानिक कारण
1) चिकित्सा (सल्य /मनोविज्ञान) द्वारा भी इसका इलाज संभव है।
2) घर का वातावरण दोष युक्त ना हो।
3) पौष्टिक भोजन देना चाहिए।
4) अभिभावक और शिक्षक को विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है इन बच्चों के ऊपर।
5) ऐसे बच्चों की बातों का मजाक ना उड़ाए और चेहरा नहीं ऐसा अगर होता है तो बच्चों के अंदर हीन भावना का विकास होता है।

5️⃣ कोमल या निर्मल बालकों की शिक्षा➖
🔹 ऐसे बच्चे किसी भी रोग से ग्रस्त नहीं होते हैं।
1) परिवार को विशेष ध्यान रखना चाहिए।
2) पौष्टिक भोजन ओ का आहार देना चाहिए।
3) समय-समय पर शारीरिक जांच करानी चाहिए जिससे कि कमजोरियों का पता चलता रहे।
4) शक्ति के अनुसार पाठ्यक्रम या खेलकूद कराएं।
5) पढ़ाई में विधि या दृश्य श्रव्य सामग्री को शामिल करना चाहिए।
6) इन बच्चों के साथ सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करना चाहिए।

🌸🌸🌸Notes by—-Abha kumari 🌸🌸🌸

🌀
🌀🦚 विकलांग बच्चों की शिक्षा🦚🌀

1️⃣ अपंग बालकों की शिक्षा➡️
अपंग छात्रों में शारीरिक दोष होने के कारण वह अपने शरीर के विभिन्न अंगों का सामान प्रयोग नहीं कर सकते हैं और यही दोष उनके कार्य में बाधा डालते हैं जिसके कारण उनमें हीन भावना जागृत हो सकती है

🌀 ऐसे बालकों की शिक्षा के लिए विशेष प्रबंध किए जाने चाहिएं🌀

1️⃣ उनके लिए विशेष प्रकार के विद्यालयों का संगठन करना चाहिए
2️⃣ उनकी विशेषता के हिसाब से कमरे भी उपयुक्त होने चाहिए
3️⃣ उचित प्रकार के बैठने की व्यवस्था होनी चाहिए
4️⃣डॉक्टर या विशेषज्ञ की राय लेती रहना चाहिए हर संभव चिकित्सक हेतु साधनों का इंतजाम करना चाहिए
5️⃣ विकलांग बच्चों से सहानुभूति पूर्वक व्यवहार करना चाहिए
6️⃣सामान्य पाठ्यक्रम को साधारण और कम रखना चाहिए लेकिन व्यवसायिक पाठ्यक्रम पर जोर देना चाहिए
7️⃣ मानसिक विकास का पूर्ण अवसर देना चाहिए
8️⃣ शिक्षण विधि सरल, रोचक, क्रियात्मक ढंग से और धीमी गति से चलना चाहिए

🌀🦚 नेत्रहीन/अर्द्ध नेत्रहीन बालकों की शिक्षा🦚🌀

🌺 अर्द्ध नेत्रहीन बालक ➡️

1-ऐसे बच्चों को क्लास में आगे बैठने की व्यवस्था करनी चाहिए
2-मोटे अक्षर वाले किताबों की व्यवस्था करनी चाहिए
3-श्यामपट्ट पर बड़ा और साफ सुथरा लिखना चाहिए
4-उचित रोशनी की व्यवस्था करनी चाहिए

🌺नेत्रहीन बालक➡️

ऐसे बच्चे जो पूर्ण रूप से नेत्रहीन है उनको ब्रेल लिपि से पढ़ाया जाए बोलकर पढ़ाया जाए, ऑडियो सीडी के माध्यम से पढ़ाया जाए ।
🌈💥 All over बातें करें तो पूर्ण नेत्रहीन या अर्थ नेत्रहीन बच्चों को सामाजिक जीवन में समायोजन के लिए हस्तशिल्प यह संगीत की शिक्षा देनी चाहिए ताकि बच्चे आगे चलकर अपना जीवन यापन कर सके

🌀🦚 बहेर या अर्ध बहरे बालकों की शिक्षा🦚🌀

कुछ बच्चे जो जन्मजात बहरे और गूंगे होते हैं उनके लिए ऐसे विद्यालय की स्थापना की जाए जहां वह उचित शिक्षा प्राप्त कर सकें
🌈🌺 पूर्ण बहरे बालक🌺
➡️ संकेतिक भाषा में शिक्षा दी जानी चाहिए
➡️ छात्रों के हाव भाव समझने की शिक्षा दी जानी चाहिए
➡️ कम बहरी छात्रों के लिए अलग स्कूल की व्यवस्था नहीं होनी चाहिए क्योंकि ऐसे छात्र अध्यापकों के होठों से बहुत कुछ जान सकते हैं तथा सीख सकते हैं
➡️ ज्यादातर सिखा कर या दिखाकर पढ़ाना चाहिए

🌈🌺अर्ध बहरे🌺

➡️ इनको सामान्य बच्चों के साथ पढ़ाया जाना जाना चाहिए
➡️ कक्षा में आगे बैठाना चाहिए
➡️ कर्ण यंत्रों का प्रयोग करना चाहिए
➡️ इन बच्चों पर विशेष ध्यान देना चाहिए

🌀🦚🌀 दोष युक्त वाणी वाले बालकों की शिक्षा🌀🦚🌀

ऐसे बालकों में शारीरिक और मनोवैज्ञानिक कारण आते हैं

➡️ चिकित्सा /मनोवैज्ञानिक द्वारा भी इलाज संभव है
➡️ घर का वातावरण भी दोष ना हो
➡️ पोषक भोजन मिलना चाहिए
➡️ अभिभावक/शिक्षक को विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है
➡️ अशुद्ध उच्चारण को प्यार से ठीक करना चाहिए उनका मजाक नहीं उड़ाना चाहिए

🌈🌺 कोमल या निर्बल बालकों की शिक्षा🌺

यह रोग से ग्रस्त नहीं होते हैं

➡️ परिवार का विशेष ध्यान होने की आवश्यकता होती है
➡️ इन्हीं पौष्टिक भोजन देना चाहिए
➡️ की छमता के अनुसार खेलकूद/ पाठ्यक्रम रखना चाहिए
➡️इनकी पढ़ाई में विशेष ध्यान देना चाहिए तथा खेल विधि ,दृश्य/ श्रव्य सामग्री का प्रयोग करना चाहिए
➡️ और इनके साथ सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करना चाहिए

📚📚🖊️🖊️ Notes by….. Sakshi Sharma📚📚🖊️🖊️

♦️🌺

♦️ नेत्रहीन या ardh नेत्रहीन की शिक्षा-/ ऐसे बच्चों की शिक्षा विशिष्ट प्रकार की दी जाएगी जो निम्न लिखित बिंदुओं के आधार पर दे सकते हैं
पूर्ण नेत्रहीन -/बालकों को ब्रेल लिपि के अनुसार शिक्षा दी जानी चाहिए
उन्हें बोलकर पढ़ाना चाहिए
ऑडियो cdद्वारा पढ़ाना चाहिए
ऐसे बालकों को समाज जीवन में समायोजन के लिए हस्तशिल्प या संगीत की शिक्षा दी जानी चाहिए
जिससे वह क्षेत्र में अपना उच्च स्थान प्राप्त कर सकें
अर्ध नेत्रहीन बालक-/
अर्ध नेत्रहीन बालकों को सामान्य बच्चों के साथ ही पढ़ाया जा सकता है
उन्हें कक्षा कक्ष में आगे बैठा कर शिक्षा देना चाहिए
Karn यंत्रों का प्रयोग करना चाहिए जिससे उन्हें उचित रूप से सुना सके
उनके ऊपर विशेष रुप से व्यक्तिगत रूप से ध्यान देना चाहिए
♦️ दोष युक्त वाणी वाले बालकों की शिक्षा
दोष युक्त बानी वाले बालकों की शिक्षा के शारीरिक और मनोवैज्ञानिक कारण हैं
# दोष युक्त बालकों को चिकित्सा शल्य मनोविज्ञान द्वारा भी इलाज करवाना चाहिए
# अभिभावक तथा शिक्षक को विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है
उन्हें ऐसे बच्चों के अशुद्ध उच्चारण को प्यार से ठीक करना चाहिए
उनको चिढ़ाना व उनके ऊपर हंसना नहीं चाहिए ऐसा करने से बच्चों में हीन भावना पनपती है
♦️ कोमल व निर्मल बालकों की शिक्षा-/
# ऐसे बच्चे रोग से ग्रस्त नहीं होते हैं
# परिवार का विशेष ध्यान इन बच्चों पर होना चाहिए तथा पौष्टिक भोजन करवाना चाहिए जिससे कि इनकी कमजोरी दूर हो और इनके शरीर को प्रचुर मात्रा में विटामिंस व प्रोटीन मिल सके
# समय-समय पर शारीरिक जांच करवाना चाहिए
# उनकी शक्ति तथा क्षमता के अनुसार पाठ्यक्रम होना चाहिए अधिक से अधिक खेलकूद अन्य गतिविधि वाले कार्यक्रम रखें
# पढ़ाई में खेल विधि का उपयोग करना चाहिए जिससे कि वह खेल खेल में बेहतर और स्थाई सीख सकें तथा दृश्य और श्रव्य सामग्री का उपयोग करना चाहिए
# ऐसे बच्चों के साथ सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करना चाहिए उन्हें प्यार से समझाना चाहिए जिससे कि उनमें हीन भावना ना आए
✍🏻ritu yogi✍🏻

🙏🏻

🌻 *विकलांग* *बालक*🌻
*(physically* *Handicaped *child*)

🏵
✍️ *विकलांग* *बालक* *की* *शिक्षा*— विकलांग बालक की शिक्षा में किसी कारणवश उन्हें परेशानी होती है जैसे उनके किसी शरीर का अंग का काम नहीं करना और असामान्य होना जिसके कारण उन्हें शिक्षा प्राप्त करने में उन्हें विशेष कठिनाइयां होती है जैसे दृष्टिबाधित बच्चों को श्रवण बाधित मूर्ख बनाने वाले बालक के बालक को शारीरिक विकलांगता के अनुरूप शिक्षा की व्यवस्था दी जानी चाहिए।

✍️ *अपंग* *बालको* *की* *शिक्षा*— यदि किसी कारणवश बच्चों में शारीरिक दोष होता है तो यह नहीं आवश्यक है कि बच्चे मन बुद्धि हो शारीरिक कमी के कारण हीन भावना जागृत हो सकती है इसलिए बालकों को इन के स्वरूप ही शिक्षा देकर इनके हीन भावना को समाप्त किया जाना चाहिए।

💎 विशेष प्रकार के विद्यालय का संगठन करें— विकलांग बच्चों के लिए विशेष प्रकार के विद्यालय का संगठन करना चाहिए जिससे उनके शिक्षा में कोई दिक्कत ना हो और वह नि:संकोच होकर पढ़ सके।

💎 उनकी विशेषता के हिसाब से उनके कच्छा कमरे का भी व्यवस्था करें— विकलांगता बच्चे के लिए ऐसी उनकी विशेषता के हिसाब से उनका कक्षा का कमरा व्यवस्था करना चाहिए जिससे जैसे वह नुकीली चीज ना हो उनके लिए।

💎 उचित प्रकार के बैठने की व्यवस्था हो:- उनके बैठने की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जो वह उचित प्रकार से बैठ सकें।

💎 डॉक्टर या विशेषज्ञ की राय लेते रहेंगे उनके हर संभव चिकित्सा हेतु साधनों का इंतजाम करेंगे।

💎 विकलांग बच्चे से सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करेंगे— विकलांग बच्चे से सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करेंगे ताकि उन्हें ऐसा न लगे कि वह सामान्य बच्चे से कमजोर हैं।

💎 सामान्य पाठ्यक्रम को साधारण और क्रम में रखेंगे लेकिन व्यवसायिक पाठ्यक्रम पर जोर देंगे— बच्चे का पाठ्यक्रम ऐसा रखेंगे ताकि वह उनके आगे जाकर उनका काम आ सके वह अपने व्यवसायिक में उसका उपयोग कर सकें।

💎 मानसिक विकास का पूर्ण अवसर देंगे —बच्चे के मानसिक विकास का पूर्ण अवसर देंगे ताकि
वह अपना विकास कर सके हमें कोशिश करना चाहिए कि हमें उनको भरपूर मौका देता कि वह स्वयं से सीख सके।

💎 विकलांगता बच्चों का शारीरिक रूप से उनका सही समय पर उनका उपचार किया जाना चाहिए जिससे वह अपना आगे सामान्य जीवन व्यतीत कर सकें।

💎 शिक्षण विधि सरल रोचक क्रियात्मक या धीमी गति से हो— विकलांग बच्चों के लिए हमें शिक्षण विधि ऐसी बनानी चाहिए जिससे उन्हें रोचक क्रियात्मक के लगे जैसे उनके कार्य में उनको रुचि बने।

*part2*

✍️ *नेत्र हीन/ अद्ध नेत्र हीन की शिक्षा:-*
💎नेत्र हीन व अर्ध नेत्रहीन बालको को समान रूप से शिक्षा नहीं दे सकते है ऐसे बच्चे को निम्न प्रकार से शिक्षा दे सकते हैं :-

🌷नेत्र हीन बालक को ब्रेल लिपि के माघ्यम से पढायेगे, श्रव्य द्वारा बोलकर पढायेगे।

🌷नेत्र हीन बालक को *Audio cd* के माध्यम से शिक्षा देगे।

🌷नेत्र हीन बालक को समाज /जीवन मे समायोजन के लिए हस्त शिल्प संगीत की शिक्षा दी जानी चाहिए।

🌷 अर्द्ध नेत्रहीन ने बालक को कक्षा में आगे के बेंच पर बैठायेगे।

🌷अर्ध नेत्रहीन ने वाले बालों को बड़े और मोटे अक्षर वाले किताब उपलब्ध करवाएंगे ।
🌷अर्ध नेत्रहीन बालक को बोर्ड पर बड़ा और साफ लिखेंगे।
🌷 अर्ध नेत्रहीन बालको को उचित रोशनी की व्यवस्था करवाएंगे।

🌷 अर्ध नेत्रहीनता बालक को बोलकर पढायेगें।

🌷अर्ध नेत्रहीन बालक को चशमें/लेंस का प्रयोग करवायेगें।

🌷अर्ध नेत्रहीन बालक को श्रव्य सामाग्री का प्रयोग करवायेगें।

✍️ *बहरे या अर्ध बारे की शिक्षा:-*
🌷 जो बच्चे जन्मजात बहरे और गूंगे होते हैं इनके लिए ऐसे विद्यालय की स्थापना की जाए जहां वह उचित शिक्षा प्राप्त कर सकें।

🌷बहरे बच्चे को सांकेतिक भाषा में शिक्षा दी जानी चाहिए।

🌷 बहरे बालक को हाव-भाव के माघ्यम से शिक्षा देंगे।

🌷 बहरे बालको को होठों की गतिविधि से समझा कर पढ़ाएंगे।

🌷 बहरे बालक को ज्यादातर लिखा कर या दिखाकर पढ़ाएंगे।

🌷अर्ध बहरे बालक को सामान्य बच्चे के साथ पढ़ाया जा सकता है।

🌷अर्ध बहरे बालक को कर्णयंत्रो का प्रयोग करके पढायेगे।

🌷अर्ध बहरे बालक को विशेष घ्यान देने ताकि बच्चे को कोई भी परेशानी ना हो।
🌷अर्ध बहरे बालक को कक्षा में आगे बठायेगें।

✍️ *वाक् संबंधी विकार (दोषयुक्त वाणी):-*
🌷 शारीरिक और मनोवैज्ञानिक के दोनों कारण से होता है।

🌷 इनका चिकित्सा मनोवैज्ञानिक शल्य द्वारा भी इलाज संभव है।

🌷 घर का वातावरण भी सही होना चाहिए ना कि दोष युक्त हो क्योंकि यह बच्चे पर बहुत प्रभाव पड़ता है।

🌷 ऐसे बच्चों को पौष्टिक भोजन मिलना महत्वपूर्ण है।

🌷 इसमें शिक्षक और अभिभावक का भी विशेष ध्यान देंगे जो आवश्यक होंगे अशुद्ध उच्चारण को प्यार से ठीक करेंगे उनको चिढ़ाएंगे नहीं ऐसे नहीं करना चाहिए जिससे उनमें हीन भावना आए।

✍️ *कोमल या निर्बल बालकों की शिक्षा:-*

🌷 ऐसे बच्चे रोग से ग्रस्त नहीं होते हैं यह बच्चे ठीक हो सकते हैं इसमें कुछ जिम्मेदारियां होती हैं।

🌷 परिवार का विशेष ध्यान रखना चाहिए।

🌷 ऐसे बच्चों को पौष्टिक भोजन का विशेष ध्यान रखना चाहिए।

🌷 ऐसे बच्चों को समय-समय पर शारीरिक जांच करवानी चाहिए।

🌷 ऐसे बच्चों को उनके शक्ति के अनुसार पाठ्यक्रम या खेलकूद करवाना चाहिए।

🌷 ऐसे बच्चों की पढ़ाई में खेल विधि रखे दृष्य सामग्री रखे जिससे इनका रुचि बढ़े।

🌷 ऐसे बच्चों के साथ सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करना चाहिए।

🌸🌸🌸🌷 *Notes by: Neha Roy*🌸🌸🌸🌸

Basis of inclusive education notes by India’s top learners

🔳 *समावेशी शिक्षा के आधार* ◼️1 समावेशी शिक्षा समुदाय के रूप में होती है। पूरा समुदाय एक साथ सीखता है और विशेष आवश्यकता वाला बच्चा भी उस समुदाय का सदस्य होता है। [ विद्यालय की जितने भी बच्चे हैं वह एक समुदाय ही है और इसी समुदाय के आधार पर बच्चे सीखते हैं] ◼️2 प्रत्येक बालक स्वाभाविक रूप से सीखने के लिए अभिप्रेरित रहता है। [ हर बच्चा चाहे वह सामान्य हो या विशिष्ट हर तरह का बच्चा सीखने की प्रति स्वाभाविक रूप से तभी प्रेरित रहता है जब उसको वैसा वातावरण या वैसा माहौल मिलता है जिसमें वह सीखना चाहता है या सीख सकता है। यदि वातावरण उपलब्ध करवा दिया जाए लेकिन उनमें सीखने के दौरान किसी प्रकार की कमी या उनमें अपनी कमी के प्रति हीन भावना होंगी तो वह सीखने के लिए कभी भी सहज रूप से प्रेरित नहीं रह पाएंगे और ना ही सीख पाएंगे। अगर बच्चा सीखने के लिए प्रेरित नहीं है तो इसका मतलब यह है कि उसे समावेशी शिक्षा के आधार पर शिक्षा नहीं मिल रही है।] ◼️3 कक्षा के सभी बच्चों की शैक्षिक गुणवत्ता में बिना किसी भेदभाव के सुधार लाना है। [जैसे यदि किसी बच्चे को कम दिखाई देता है तो हम यह नहीं बोल सकते कि उसकी कमी के कारण वह पढ़ नहीं सकता यह सीख नहीं सकता बल्कि हमें उसकी इस परेशानी पर सुधार करना है और बिना किसी भेदभाव के उसे आगे बढ़ाना है। बच्चे की हर कमी को पूरा कर व उसमें सुधार कर आगे बढ़ाना है।] ◼️4 बच्चे के सीखने के तौर तरीके में विविधता होती है जैसे ✓अनुभवों के द्वारा ✓अनुकरण के द्वारा ✓चर्चा के द्वारा ✓खेल क्रियाकलाप के द्वारा ✓खुद गतिविधि करके ✓प्रश्न पूछ कर ✓सुनकर सीखते हैं। ✓कुछ बच्चे चिंतन मनन से सीखते हैं। सभी बालक को हर तरह के अवसर प्रदान करने चाहिए। [ सभी में विविधता होती हैं कोई किसी तरीके से ज्यादा अच्छे से सीख सकता है तो कोई अन्य तरीके से ज्यादा अच्छे से सीख सकता है सभी का सीखने का तरीका अलग अलग होता है। उपरोक्त सभी विविधता जिसमें होती हैं वह उतना जल्दी और बेहतर व प्रभावी रूप से सीखता है। जिसमें कम विविधताएं होती हैं उसे सीखने में ज्यादा समय लगता है । सभी बालक को हर तरह के या लोकतांत्रिक तरीके से या आसान व प्रभावी रूप से सीख पाने के अवसर प्रदान करने चाहिए। जब यह सभी विविधता होती हैं तो सीखने की प्रायिकता भी ज्यादा बढ़ जाती है।] ◼️5 बालक को सीखने से पूर्व सिखाने के लिए तैयार करना आवश्यक है उसके लिए सकारात्मक वातावरण का निर्माण करने की आवश्यकता है। [जब तक बच्चा सकारात्मक वातावरण में नहीं रहेगा तब तक वह नहीं सीख पाएगा चाहे बच्चा कितना भी होशियार या समझदार हो। हर कक्षा में शिक्षक द्वारा सकारात्मक वातावरण बनाना अत्यंत आवश्यक है तथा सीखने से पूर्व कुछ तैयारी कर लेनी चाहिए जिससे सकारात्मक वातावरण रुके नहीं बल्कि वह पूरी तरह व निरन्तर रूप से बना रहे।] ◼️6 बालक उन्हीं सीखी हुई बातों के साथ अपना संबंध स्थापित कर पाता है जिनके बारे में समझ उसके अपने परिवेश के कारण भली-भांति समय में विकसित हुई हो । [हम किसी भी बात को अपने मन में तभी जगह दे पाते हैं जब वह चीज हमारी जीवन से या परिवेश से जुड़ी होती है या वह हमें पसंद होती है और यह हमारी पसंद हमारी परिवेश या हमारे जीवन से विकसित होती है। जैसे ही हम जन्म लेते हैं तो अनुवांशिक गुण हमारे अंदर आते हैं लेकिन आगे जाकर इन गुणों का पोषण हमारे परिवेश या वातावरण से ही होता है। हम किसी भी कार्य की समझ अपने परिवेश के कारण ही विकसित कर पाते हैं । जैसे हमें कोई चीज पसंद नहीं होती लेकिन जब वही चीज हमारे वातावरण या परिवेश में ज्यादा चलन में होती है तो हम उस परिवेश के चलन के हिसाब से उस चीज को पसंद करने लेने लगते हैं।] ◼️7 सीखने की प्रक्रिया विद्यालय के साथ साथ विद्यालय के बाहर भी चलती है इसीलिए इसको ऐसे व्यवस्थित करें कि बच्चे पूर्ण रूप से उसमे सम्मिलित हो जाए और उसके बारे में अपने आधार पर अपनी समझ विकसित कर सकें। [जब हमें कोई चीज मालूम चलती है या हम सीखते हैं तो उसे हम किसी भी तरह से किसी भी रूप में कहीं पर भी या बाहरी वातावरण से जोड़कर सीखते हैं इससे हम यह भी जान जाते हैं कि कोई चीज किस आधार पर कार्य करती है। इसीलिए सीखने की प्रक्रिया का आयोजन इस प्रकार होना चाहिए जिससे बच्चे कक्षा के बाहर भी उसे जोड़ कर उस चीज के प्रति अपने आधार पर अपनी समझ विकसित कर पाए। यदि ऐसा नहीं होता है तो बच्चों को पढ़ाई बहुत लगती है तथा जो भी कुछ सीखा हुआ है वह कक्षा तक ही सीमित रह जाएगा।] ◼️8 सीखने सिखाने की प्रक्रिया में आरंभ करने से पूर्व बच्चे के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, भौगोलिक और राजनीतिक परिपेक्ष्य को जानना जरूरी है। [ जब इन सभी परिप्रेक्ष्य के बारे में शिक्षक को पता है तो वहां यह जान सकता है कि बच्चे का प्लस पॉइंट क्या है और माइनस पॉइंट क्या मतलब उसे कहां जरूरत है और कहा नहीं या जिसको जो जरूरत है उसकी वो जरूरत की पूर्ति करके ही सीखने सिखाने की प्रक्रिया आरंभ करनी चाहिए।] ◼️9 प्रत्येक बालक की विविधता का आदर करना चाहिए। ⚜️ *समावेशी शिक्षा का क्रियान्वयन*➖ 🔸1 विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की कमर उम्र में ही *जन स्वास्थ्य केंद्र व एकीकृत बाल विकास केंद्र* के माध्यम से पहचान की जाए। 🔸2 जहां तक संभव हो सके विशेष आवश्यकता वाले बच्चो को सामान्य बच्चों के साथ शिक्षा दी जाए। 🔸3 विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को आवश्यक सहायक सामग्री और उपकरण के द्वारा सिखाया जाए। 🔸4 विभिन्न सहायक सेवाएं दी जाए जैसे ✓स्वस्थ आधारित वातावरण ✓संसाधन कक्ष ✓विशेष पाठ्य सामग्री ✓विशेष शिक्षण तकनीक ✓उपचारात्मक (शिक्षण सामग्री) 🔸5 शिक्षण प्रशिक्षण कार्यक्रम करवाए जाए। ✍🏻 *Notes By-Vaishali Mishra* ❄ समावेशी शिक्षा के आधार ❄ 🌀 समावेशी शिक्षा *समुदाय* के रूप में होती है पूरा समुदाय एक साथ सीखता है और विशेष आवश्यकता वाला बच्चा भी उस समुदाय का सदस्य होता है ( जो भी बच्चे हैं वह किसी ना किसी समूह के सदस्य होते हैं और वह उसी समूह या समुदाय में रहकर ही सीखते हैं इसलिए कहा जा सकता है कि समावेशी शिक्षा समुदाय के रूप में होती है ) 🌀 प्रत्येक बालक *स्वाभाविक* रूप से सीखने के लिए अभिप्रेरित रहता है अर्थात कहने का तात्पर्य यह है की बच्चों की सीखने की प्रवृत्ति स्वाभाविक होती है वह स्वतः ही कुछ ना कुछ सीखने के लिए प्रेरित रहते हैं उत्सुक होते हैं तभी हम उनको सिखा पाते हैं जब वह किसी कार्य को करने के लिए उत्साहित या प्रेरित रहते होते हैं । 🌀 कक्षा के सभी बच्चों की *शैक्षणिक* *गुणवत्ता* में बिना किसी भेदभाव के सुधार लाना है ( अर्थात हमें सभी बच्चों को एक समान यह बिना किसी भेदभाव के सभी को शैक्षणिक गुणों में सुधार लाना है जैसे कोई यदि किसी को कम दिखता है तो उसे हम सबसे आगे बठायेंगे या जो भी परेशानी है हम उसकी बात को समझेंगे और उसमें सुधार करने की कोशिश करेंगे ) 🌀 बच्चे के सीखने के तौर-तरीकों में विविधता होती है 👉 अनुभवों के द्वारा सीखना 👉 अनुकरण के द्वारा सीखना 👉 चर्चा या बातचीत के द्वारा सीखना 👉 प्रश्न पूछना 👉 सुनकर सीखना 👉 चिंतन मनन करना 👉 खेल क्रिया कलाप द्वारा सीखना 👉 गतिविधि करके सीखना 🌀 सीखने के पूर्व सीखने सिखाने के लिए तैयार करना आवश्यक है इसके लिए सकारात्मक वातावरण निर्माण करने की आवश्यकता है 🌀 बालक उन्हीं बातों के साथ अपना संबंध स्थापित कर पाता है जिनके बारे में उसके अपने परिवेश के कारण भलीभांति समझ विकसित हुई हो। 🌀 सीखने की प्रक्रिया विद्यालय के साथ साथ विद्यालय के बाहर भी चलती रहती है इसलिए इसको ऐसे व्यवस्थित करें कि बच्चा पूर्ण रूप से सम्मिलित हो जाए और उसके बारे में अपने आधार पर समझ विकसित करें 🌀 सीखने सिखाने की प्रक्रिया आरंभ करने से पूर्व बच्चे के सामाजिक सांस्कृतिक आर्थिक भौगोलिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को जानना जरूरी है 🌀 प्रत्येक बालक की विविधता का आदर करना चाहिए 🔅 समावेशी शिक्षा का क्रियान्वयन 🔅 👉 विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की कम उम्र में ही जन स्वास्थ्य केंद्र ,एकीकृत बाल विकास केंद्र के माध्यम से पहचान की जानी चाहिए 👉 जहां तक हो सके विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को सामान्य बच्चों के साथ शिक्षा दी जाए 👉 विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को आवश्यक सामग्री और उपकरण उपलब्ध कराया जाए 👉 सहायक सेवा दी जाए जैसे कि स्वस्थ बाधा रहित वातावरण , विशेष शिक्षण तकनीक हो , विशेष पाठ्य सामग्री उपलब्ध कराई जाए , उपचारात्मक शिक्षण सामग्री 👉 शिक्षण प्रशिक्षण कार्यक्रम करवाया जाए। धन्यवाद नोट्स बाय प्रज्ञा शुक्ला 🙏🙏 👀*समावेशी शिक्षा का आधार*👀 (Basics of Inclusive education) ✨समावेशी शिक्षा मे ऐसी व्यवस्था की जाती है जिससे शिक्षा समुदाय के रुप में होती है,और पूरा समुदाय एक साथ सीखता है,💫 विशिष्ट आवश्यकताओं वाला बच्चा भी उस समुदाय का हिस्सा होता है। ✨ समावेशी शिक्षा दूसरा आधार यह रहता है कि प्रत्येक बालक स्वभाविक रुप से सीखने के लिए अभिप्रेरित रहता है, यदि वह अभिप्रेरित नहीं है तो अभिप्रेरित करना आवश्यक है, 👀 यह तभी संभव है जब उनके आवश्यकताओं की पूर्ति , 👀 उनकी आवश्यकता अनुसार वातावरण हो, 👀 उचित आधार भी आवश्यक है क्योंकि तभी बच्चा सीख सकेगा (क्योकि अनुकूल वातावरण किसी दृष्टिबाधित बच्चे को कक्षा में पीछे बैठाकर शिक्षण देने पर बच्चा नहीं सीख सकेगा, अतः उचित वातावरण के बावजूद सीखना असफल रहा)और कक्षा में अपना स्थायित्व बना सकेगा। 💫कक्षा में सभी बच्चों के शैक्षिक गुणवत्ता मे बिना किसी भेदभाव के सुधार लाना । ✨✨👀We don’t loose their quality due to basis of their disability.👀👀 💫 बच्चों की विशेष आवश्यकताओं के अनुसार बच्चे के सीखने के तरीके में विविधता होती है, जो निम्नलिखित हैं÷ 🧠अनुभवो के द्वारा सीखना 🧠अनुकरण के द्वारा सीखना 🧠 चर्चा परिचर्चा के द्वारा सीखना(Learning by debate/communication) 🧠 विचार-विमर्श के द्वारा सीखना 🧠प्रश्नो के माध्यम से सीखना(Learning by questions-answer mode) 🧠 कुछ बालक शब्दो, वाक्यो को सुनकर भी सीख सकते है। 🧠आत्म चिंतन,मनन के द्वारा सीखना(Learning by self thinking,) 🧠 खेल-कूद क्रियाकलाप के द्वारा सीखना 🧠स्वंय की गतिविधियों के द्वारा सीखना ✨सभी बालको को प्रत्येक प्रकार के अवसर प्रदान करना चाहिए क्योंकि सभी बच्चों में सभी गुण विद्यमान होते हैं, किंतु किसी में कोई गुण ज्यादा होता हैं तो किसी में कोई दूसरा गुण (जिन गुणों का प्रयोग निरंतर नहीं किया जाता वे गुण क्षीण हो जाते हैं) ✨बालको को सिखाने से पूर्व सीखने सिखाने के लिए तत्पर करना आवश्यक होता है, जिसके लिए सीखने के अनुकूल, शुद्ध सकारात्मक युक्त वातावरण करने की आवश्यकता है। ✨ बालक उन्ही सीखी हुई बातों के साथ समन्वय स्थापित कर पाता है,जिनके बारे में उसने अपने परिवेश के कारण भलिभाँति प्रकार से समझ विकसित की हुई है। ✨ सीखने की प्रक्रिया विघालय के साथ – साथ विद्यालय के बाहर भी चलती रहती है, इसलिए सीखने की प्रक्रिया इस प्रकार व्यवस्थित करे की बच्चा पूर्ण रूप से सम्मिलित हो जाएं और उसके बारे में उसके आधार पर समझ विकसित करे। ✨सीखने सिखाने की प्रक्रिया आरंभ करने से पहले बालक के “सांस्कृतिक”; “सामाजिक”; “भौगोलिक”;”राजनीतिक”; परिप्रेक्ष्य को जानना समझना जरूरी है।। ✨प्रत्येक बालक की विविधता के प्रति आदर का भाव रखना चाहिए।। 💫💫💫 समावेशी शिक्षा का क्रियान्वयन 💫💫💫 👀 इस क्रियान्वयन के निर्णय को 5 प्रकार से लिया गया है,जो निम्नलिखित हैं÷ 🧠1 ÷ विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चों को कम उम्र में ही ,(जन स्वास्थ्य केंद्र) एवं (एकीकृत बाल विकास केन्द्र) में पहचान कर सम्मिलित कराना। 🧠2÷ जहां तक संभव हो सके विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों को सामान्य बच्चों के साथ शिक्षा प्रदान की जाए‌। 🧠 3÷ विशेष आवश्यकताओं वाले बच्चों को आवश्यक सहायक सामग्री उपलब्ध कराई जाए । 🧠4÷ सहायक सेवाएं दी जाएं, जो निम्नलिखित है÷ 👀 स्वस्थ बाधारहित वातावरण, 👀 संसाधन पूर्ण कक्षाएं दी जाएं, 👀 विशेष पाठ्यसामाग्री उपलब्ध कराई जाए, 👀 विशेष कक्षा तकनीकी का प्रयोग किया जाए, 👀 उपचारात्मक शिक्षण सामग्री उपलब्ध कराई जाए, 🧠5÷समय -समय पर शिक्षण -प्रशिक्षण कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते रहें जिससे विशिष्ट शिक्षण के लिए विशिष्ट शिक्षक तैयार किये जा सके।। 👀🙏🙏Thank you so much 🙏🙏👀 🌷समावेशी शिक्षा के 🌷 आधार समावेशी शिक्षा को निम्नलिखित आधारों पर समझा जा सकता है :- 1. समावेशी शिक्षा समुदाय के रूप में होती है , पूरा समुदाय एक साथ सीखता है और विशेष आवश्यकता वाला बच्चा भी उस समुदाय का सदस्य होता है। [सभी बच्चे एक समुदाय (Group) में रहते हुये सीखते हैं, तथा बो उस समुदाय के सदस्य भी होते हैं।] 2. प्रत्येक बालक स्वाभाविक रूप से सीखने के लिए अभिप्रेत रहता है। प्रत्येक बच्चे में स्वाभाविक रूप से अभिप्रेरित होकर सीखने का गुण होता है । अतः शिक्षक को यही समझकर बच्चे को शैक्षिक वातावरण उपलब्ध करना चाहिये ताकि बच्चे उस वातावरण से अभिप्रेरित होकर सीख सकें। 3. कक्षा के सभी बच्चों के शैक्षणिक गुणवत्ता में बिना किसी भेदभाव के सुधार लाना है। जैसे यदि कोई बच्चा शारिरिक रूप से विकलांग है तो शिक्षक ये नहीं कह सकते कि इसकी विकलांगता के कारण ये नहीं सीख सकता या इसकी अक्षमता के कारण इसका बेहतर शैक्षिक परिणाम नहीं आ सका, बल्कि एक शिक्षक की जिम्मेदारी और कर्त्तव्य भी होता है कि वह बच्चों की कमी को सुधार कर उन्हें सामान्य की श्रेणी लायें। 4. बच्चों के सीखने के तौर तरीकों में विविधता (भिन्नता) होती है। जैसे :- 👉अनुभवों के द्वारा 👉अनुकरण के द्वारा 👉चर्चा (बातचीत) के द्वारा 👉प्रश्न पूछ कर 👉सुनकर सीखना 👉चिंतन , मनन के द्वारा 👉क्रीड़ा, खेल क्रियाकलाप के द्वारा 👉खुद गतिविधि करके अर्थात हर बच्चे के सीखने में भिन्नता होती है, अतः एक शिक्षक , बच्चों को इस प्रकार के विभिन्न तरीकों से सीखने, सिखाने का अवसर दें तो हर बच्चा बेहतर तरीके से सीख सकता है। 5. बालकों के सीखने से पूर्व उन्हें सीखने – सिखाने के लिए तैयार करना आवश्यक है , उसके लिए सकारात्मक वातावरण निर्माण करने की भी आवश्यकता होती है। शिक्षक को बच्चों को शिक्षा देने से पूर्व ऐसा वातावरण व्यवस्थित करना जरूरी है जिसमें बच्चे रुचि लें , जिज्ञासु बने रहें और मनोरंजक ढंग से सीख सकें। 6. बालक उन्हीं सीखी हुई बातों के साथ अपना संबंध स्थापित कर पाता है जिनके बारे में उसके अपने परिवेश के कारण उसमें भली-भांति संबंध विकसित हुआ हो। जैसे बालक को उनके वास्तविक जीवन के पुराने अनुभव, स्मृतियों से जोड़कर पढ़ायेंगे तो प्रत्येक बच्चा जल्दी और बेहतर ढंग से सीख सकेगा। 7. सीखने की प्रक्रिया विद्यालय के साथ साथ विद्यालय के बाहर भी चलती रहती है इसलिए इसे ऐसे व्यवस्थित करें कि बच्चा पूर्ण रूप से सम्मिलित हो जाए और उसके बारे में अपने आधार पर अपनी समझ विकसित कर सके। अतः बच्चा सिर्फ विद्यालयी परिवेश में ही न सीखकर बल्कि अपने वातावरण के चहुँओर परिवेश से सीखता है इसीलिए बच्चे के सीखने के लिए सकारात्मक परिवेश विकसित करना चाहिये जिसमें वो सरलतापूर्वक समायोजित होकर सीख सके। 8. सीखने – सिखाने की प्रक्रिया आरंभ करने से पूर्व बालक के सांस्कृतिक , सामाजिक , आर्थिक ,भौगोलिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को जानना जरूरी है। अतः शिक्षक को बच्चे के इन सभी पहलुओं के बारे जानना जरूरी है ताकि वो बच्चों को बेहतर तरीके से समझकर सरलता से शिक्षा दे सकें। 9. प्रत्येक बालक की विविधता का आदर करना चाहिए। अर्थात हर बच्चे में कोई न कोई भिन्नताएं जरूर पायीं जातीं हैं अतः शिक्षक को उनकी भिन्नताओं के आधार पर भेदभाव न करके बल्कि उनकी भिन्नताओं का आदर करना चाहिये। 🌷समावेशी शिक्षा का🌷 क्रियान्वयन 1. विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की कम उम्र में ही “जन स्वास्थ्य केंद्र” एवं “एकीकृत बाल विकास केंद्र” के माध्यम से पहचान की जाए। 2. जहां तक हो सके विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को सामान्य बच्चों के साथ शिक्षा दी जाए। 3. विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को आवश्यक सहायक सामग्री और उपकरण उपलब्ध कराए जाएं। 4. सहायक सेवाएं दी जाएं जैसे :- 👉स्वस्थ बाधा रहित वातावरण उपलब्ध कराया जाए 👉संसाधन कक्ष उपलब्ध कराए जाएं 👉विशेष पाठ सामग्री उपलब्ध कराई जाए 👉विशेष शिक्षण तकनीकी उपलब्ध कराई जाए 👉उपचारात्मक शिक्षण सामग्री उपलब्ध कराई जाए। 5. विशेष शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जाएं। Notes by 🌹जूही श्रीवास्तव🌹 समावेशी शिक्षा के आधार 1.समावेशी शिक्षा समुदाय में होती है पूरा समुदाय एक साथ सीखता है और विशेष आवश्यकता वाला बच्चा भी उस समुदाय का सदस्य होता है 2.प्रत्येक बालक स्वभाविक रूप से सीखने के लिए अभिप्रेरित रहता है 3.कक्षा के सभी बच्चों की शैक्षणिक गुणवत्ता में बिना किसी भेदभाव के सुधार लाना है (यहां शिक्षक को बच्चे की पृष्ठभूमि से कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए कि वह उच्च आर्थिक पृष्ठभूमि का है या कि वह निम्न आर्थिक पृष्ठभूमि का है, कि वह अनुसूचित जनजाति का है या अनुसूचित जाति का है इससे उसका कोई संबंध नहीं होना चाहिए उसे तो केवल शिक्षा देने से मतलब होना चाहिए ।उसका बालकों को शिक्षा देने में कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए। हां लेकिन शिक्षक को बालक की सामाजिक ,आर्थिक ,भौगोलिक पृष्ठभूमि सभी बातों का ज्ञान होना आवश्यक है ।इससे वह बालको बेहतर रूप से शिक्षा दे सकता है।) 4.बच्चे के सीखने के तौर तरीके में विविधता होती है 👉अनुभव के द्वारा 👉अनुकरण के द्वारा 👉चर्चा करके या बातचीत या विचार विमर्श करके सीखता है 👉प्रश्न पूछने के द्वारा 👉सुनकर 👉चिंतन मनन के द्वारा 👉खेल क्रियाकलाप से 👉खुद गतिविधि करके सिखते है। सभी बालक को हर तरह के अवसर प्रदान करना चाहिए। 5. बच्चों को सिखने से पूर्व सिखने -सिखाने के लिए तैयार करना आवश्यक है इसके लिए सकारात्मक वातावरण का निर्माण करने की आवश्यकता है 6. बालक उन्ही बातों के साथ अपना संबंध स्थापित कर पाता है जिसके बारे में उसको अपने परिवेश के कारण भली-भांति समझ विकसित हुई है (बालक अपने प्रत्यक्ष देखी हुई चीजों से जल्दी सीखता है उससे अपने मस्तिष्क में समझ बनाता है) 7. सिखने की प्रक्रिया विद्यालय के साथ -साथ विद्यालय के बाहर भी चलती रहती है इसलिए इसे ऐसे व्यवस्थित करें कि बच्चा पूर्ण रूप से इसमें सम्मिलित हो जाए और उसके बारे में अपने आधार पर अपनी समझ विकसित करें 8. सिखने -सिखाने की प्रक्रिया आरंभ करने से पूर्व किसी बच्चे की सामाजिक ,आर्थिक ,भौगोलिक ,राजनीतिक, सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य को जानना जरूरी या आवश्यक है (एक शिक्षक को बालक की कमजोरी और उसकी ताकत का पता होना चाहिए) 9. प्रत्येक बालक की विविधता का आदर करना चाहिए (शिक्षक व्यक्तिगत विभिन्नता का सम्मान करना चाहिए) समावेशी शिक्षा का क्रियान्वयन 1. विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को कम उम्र में ही जन स्वास्थ्य केंद्र और एकीकृत बाल विकास केंद्र के माध्यम से पहचान की जानी चाहिए 2. जहां तक हो सके विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को सामान्य बच्चों की शिक्षा दी जाए 3. विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को आवश्यक सामग्री और उपकरण उपलब्ध करवाए जाए 4. सहायक सेवा दी जाए 👉स्वास्थ्य बाधा रहित वातावरण का निर्माण किया जाए 👉 संसाधन कक्ष दिया जाए 👉 विशेष पाठ्य सामग्री उपलब्ध कराई जाए 👉विशेष शिक्षण तकनीक का उपयोग किया जाए 👉उपचारात्मक शिक्षण सामग्री का प्रयोग किया जाए 5.शिक्षण प्रशिक्षण कार्यक्रम का उपयोग किया जाना चाहिए। Notes by Ravi kushwah 💫समावेशी शिक्षा के आधार💫 1️⃣ समावेशी शिक्षा समुदाय के रूप में होती है पूरा समुदायपूरा समुदाय एक साथ सीखता है और विशेष आवश्यकता वाला बच्चा भी उसी समुदाय का सदस्य होता है। 2️⃣ प्रत्येक बालक स्वाभाविक रूप से सीखने के लिए अभिप्रेरित रहता है। 3️⃣ कक्षा की सभी बच्चों की शैक्षणिक गुणवत्ता में बिना भेदभाव के सुधार लाना है। 4️⃣ बच्चे की सीखने के तौर तरीके में विविधता होती हैं। बालक अनुभवों के द्वारा अनुकरण के द्वारा, चर्चा के द्वारा ,प्रश्न पूछ कर, सुनकर, चिंतन मनन से, खेल क्रियाकलाप से तथा खुद गतिविधि करके सीखता है शिक्षक को बालक को सिखाने के लिए सभी बालक को हर तरह के अवसर उपलब्ध कराने चाहिए। 5️⃣ बालक व शिक्षक को सीखने से पूर्व सीखने सिखाने के लिए तैयार रहना आवश्यक है इसके लिए हमें सकारात्मक वातावरण निर्माण करने की आवश्यकता है। 6️⃣बालक उन्हीं सीखी हुई बातों के साथ अपना संबंध स्थापित कर पाता है जिसके बारे में उसके अपने परिवेश के कारण भली-भांति समझ विकसित हुई है। 7️⃣ सीखने की प्रक्रिया विद्यालय के साथ साथ विद्यालय के बाहर भी चलती रहती है इसीलिए इसे ऐसी व्यवस्थित करें कि बच्चा पूर्ण रुप से सम्मिलित हो जाए और उसके बारे में अपने आधार पर अपनी समझ विकसित करें। 8️⃣सीखने सिखाने की प्रक्रिया प्रारंभ करने से पूर्व बच्चे के सामाजिक सांस्कृतिक आर्थिक भौगोलिक और राजनीतिक परिपेक्ष को जानना जरूरी है। 9️⃣ प्रत्येक बालक की विविधता का आदर करना चाहिए। ♦️ समावेशी शिक्षा का क्रियान्वयन♦️ 1️⃣विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की कम उम्र में ही जन स्वास्थ्य केंद्र या एकीकृत बाल विकास केंद्र के माध्यम से पहचान की जाए। इससे बालक का सही उपचार हो सकेगा तथा कम उम्र में ही हमें उसकी कमियों के बारे में पता चल जाएगा जिसे सुधारना आसान होगा यदि उम्र बढ़ जाएगी तो उसे सुधारना उतना आसान नहीं होगा जितना कम उम्र में। 2️⃣ जहां तक हो सके विशेष आवश्यकता वाले बालकों को सामान्य बच्चों के साथ शिक्षा दी जाए।विशेष बालक सामान्य बालकों के साथ सामंजस्य स्थापित करने की कोशिश करेगा 3️⃣विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को आवश्यक सहायक सामग्री और उपकरणों की सहायता से शिक्षा दी जाए। 4️⃣ सहायक सेवा की जाए जैसे स्वस्थ वातावरण, संसाधन कक्ष, विशेष पाठ्य सामग्री, विशेष शिक्षण तकनीक, उपचारात्मक शिक्षण सामग्री आदि के माध्यम से बालक को शिक्षा दी जाए। 5️⃣ विशेष आवश्यकता वाले बालकों के लिए शिक्षण प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जाएं ताकि बालक इन प्रशिक्षण को प्राप्त करके सामान्य बालक की श्रेणी में आ सके। 👉🏻Notes by-Raziya khan *समावेशी शिक्षा के आधार* 1️⃣ समावेशी शिक्षा समुदाय के रूप में होती है पूरा समुदाय एक साथ सीखता है और विशेष आवश्यकता वाला बच्चा भी उस समुदाय का सदस्य होता है। 2️⃣ प्रत्येक बालक स्वाभाविक रूप से सीखने के लिए अभिप्रेरित रहता है। 3️⃣ कक्षा के सभी बच्चों की शैक्षणिक गुणवत्ता में बिना किसी भेदभाव के सुधार लाना है। 4️⃣ बच्चे के सीखने के तौर तरीके में विविधता होता है। और यह विविधता इस प्रकार से है➖ 👉🏻 अनुभवों के द्वारा 👉🏻 अनुकरण के द्वारा 👉🏻 चर्चा के द्वारा (बातचीत) 👉🏻 प्रश्न पूछना 👉🏻 सुनकर सीखना 👉🏻 चिंतन मनन से सीखते हैं। 👉🏻 खेल क्रियाकलाप से सीखता है। 👉🏻 खुद गतिविधि करके (करके सीखना) 👉🏻 सभी बालक को हर तरह के समुचित अवसर प्रदान करना चाहिए। 5️⃣ बालक को सीखने के पूर्व सीखने-सिखाने के लिए तैयार करना आवश्यक है, उसके लिए सकारात्मक वातावरण निर्माण करने की आवश्यकता है। 6️⃣बालक उन्हीं सीखी हुई बातों के साथ संबंध स्थापित कर पाता है जिनके बारे में उसके अपने परिवेश के कारण भली-भांति समझ विकसित हुई हो। 7️⃣सीखने की प्रक्रिया विद्यालय के साथ-साथ विद्यालय के बाहर भी चलते रहती है इसलिए इसे ऐसे व्यवस्थित करें कि बच्चा पूर्ण रूप से सम्मिलित हो जाए और उसके बारे में अपने आधार पर अपनी समझ विकसित करें। 8️⃣ सीखने-सिखाने की प्रक्रिया आरंभ करने से पूर्व बच्चे के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक ,भौगोलिक और राजनैतिक ,परिप्रेक्ष्य को जानना जरूरी है। 9️⃣ प्रत्येक बालक की विविधता का आदर करना। (जैसा कि हम जानते हैं कि प्रत्येक बालक में विभिन्न प्रकार की विविधताएं होती हैं कोई बच्चा जल्दी सीख जाता है तो कोई बच्चा धीरे सीखता है) *समावेशी शिक्षा का क्रियान्वयन*➖ 🍃विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की कम उम्र में ही जन स्वास्थ्य केंद्र, एकीकृत बाल विकास केंद्र के माध्यम से पहचान की जाए। 🍃🍂 जहां तक हो सके विशेष आवश्यकता वाले बच्चे को ,सामान्य बच्चों के साथ शिक्षा दी जाए। 🍃🍂विशेष आवश्यकता वाले बच्चे को आवश्यक सहायक सामग्री और उपकरण उपलब्ध कराई जानी चाहिए। 🍃🍂 सहायक सेवा दी जाए विभिन्न प्रकार से बच्चों को सहायक सेवा दी जा सकती है जो इस प्रकार से है➖ 👉🏻 स्वस्थ बाधा रहित वातावरण 👉🏻 संसाधन कक्ष की उपलब्धता 👉🏻 विशेष पाठ्य सामग्री उपलब्ध कराई जाए। 👉🏻 विशेष शिक्षण तकनीक अपनाई जाए। 👉🏻 उपचारात्मक शिक्षण सामग्री 👉🏻 शिक्षण प्रशिक्षण कार्यक्रम चलानी चाहिए। 🍃🍂 *Notes by manisha gupta* 🍂🍃 🌈🔥समावेशी शिक्षा के आधार– 1️⃣🌺समावेशी शिक्षा समुदाय के रूप में होती है। पूरा समुदाय एक साथ सीखता है और विशेष आवश्यकता वाले बालक भी उस समुदाय का सदस्य होता है। (यानी हम कह सकते हैं कि समावेशी शिक्षा के अंतर्गत बालक एक ग्रुप में सीखते हैं चाहे बच्चा विशेष आवश्यकता वाले हो या समान्य बच्चा हो।) 2️⃣🌸प्रत्येक बालक स्वाभाविक रूप से सीखने के लिए अभी प्रेरित रहता है (बालक में जन्म से मृत्युपरांत तक सिखने की प्रवृत्ति होती हैं बच्चे हमेशा कुछ न कुछ सिखते रहते हैं।) 3️⃣🌺कक्षा के सभी बच्चों की शैक्षिक गुणवत्ता में बिना किसी भेद-भाव के सुधार लाना है। 4️⃣🌺बच्चे के सीखने के तौर तरीके मैं विविधता होती है जो नीचे दिए गए हैं- 💥बच्चा अनुभव के द्वारा सीखता है। 💥कोई बच्चा अनुकरण करके ज्यादा सीखते हैं। 🔥कुछ बच्चे प्रश्न पूछना और दूसरे प्रश्न के उत्तर देना ऐसा करने से बच्चा जल्दी सीखते हैं। 🔥कुछ बच्चे सिर्फ सुनकर सीख लेते हैं 🔥बहुत बच्चे चिंतन मनन से सीखते हैं। 💥बहुत बच्चे खेल -खेल से सीखते हैं। चाहे कोई भी खेल जैसे -क्रिकेट वॉलीबॉल फुटबॉल इत्यादि। अनेक प्रकार के खेल के माध्यम से सीखते हैं। 🌿💥 कुछ बच्चे खुद गतिविधि करके सीखते हैं अतः प्रत्येक बच्चे के सीखने सिखाने के हर तरह के अवसर प्रदान करना चाहिए। 5️⃣सीखने से पूर्व सीखने सिखाने के लिए तैयार करना आवश्यक है, उसके लिए सकारात्मक वातावरण निर्माण करने की आवश्यकता है ताकि बच्चे उपयुक्त वातावरण से जल्दी सीख जाए। 6️⃣🌿बालक उन्हीं सीखी बातों के साथ अपना संबंध स्थापित कर पाता है जिनके बारे में उसके अपने परिवेश के कारण भली- भांति संबंध विकसीत हुई हों। 7️⃣💥सीखने की प्रक्रिया विद्यालय के साथ साथ विद्यालय के बाहर भी चलते रहती है। इसलिए इसे ऐसा व्यवस्थित करें कि बच्चा पूर्ण रूप से सम्मानित हो जाए और अपने आधार पर अपनी समझ विकसित करते हैं। 8️⃣🔥सीखने सिखाने की प्रक्रिया आरंभ करने से पूर्व बच्चे के सामाजिक, सांस्कृतिक आर्थिक ,भौगोलिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को जानना जरूरी है। शिक्षक को बच्चे का हर एक पहलू को ध्यान में रखना चाहिए । 9️⃣💥प्रत्येक बालक की विविधता का आदर करना चाहिए। (चाहे बच्चा किसी भी धर्म या जाति अथवा लिंग से संबंध रखता हो।) 🌈🌺🌿समावेशी शिक्षा का क्रियान्वन🌿🌺🌈 💥🌺विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के कम उम्र में ही- ➡️ जन स्वास्थ्य केंद्र। ➡️ एकीकृत बाल विकास केंद्र। के माध्यम से पहचान की जाए। 🌻जहां तक संभव हो सके विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को समान्य बच्चों के साथ शिक्षा दी जाए। ➡️🌻विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को आवश्यक सामग्री और उपकरण उपलब्ध कराई जाए। 🌿🌸सहायक सेवा दी जाए-स्वस्थ्य वाधा रहित वातावरण उपलब्ध कराई जाए। 🌿🌸उपयुक्त संसाधन एवं कक्षा दी जाए। 💥🌺विशेष पाठ्यक्रम, सामग्री उपलब्ध की जाए। 🌻🌿विशेष शिक्षण तकनीक उपलब्ध कराई जाए। 🔥💥उपचारात्मक शिक्षण सामग्री का पूर्ण व्यवस्था की जाए। 🌸🌺शिक्षण प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाया जाए। ताकि बच्चों को भलीभांति समझ सकें, जान सकें। 🌈🌸💥🌺🙏Notes by-SRIRAM PANJIYARA 🌈🌸💥🌺🙏 🔆 *समावेशी शिक्षा के आधार* ➖ 🎯 समावेशी शिक्षा समुदाय के रूप में होती है पूरा समुदाय एक साथ सीखता है और विशेष आवश्यकता वाले बच्चा भी उस समुदाय का सदस्य होता है | अर्थात जिस विद्यालय में बच्चा पढ़ता है वह भी एक समुदाय ही है या जिस संगठन में हम रहते हैं वह भी समुदाय है जिसके हम सदस्य होते हैं | 🎯 समावेशी शिक्षा में प्रत्येक बालक स्वभाविक रूप से सीखने के लिए अभिप्रेरित रहता है | और समावेशी शिक्षा का यह आधार होना चाहिए और यदि नहीं है तो एक शिक्षक को अभिप्रेरित करना चाहिए और विशेष आवश्यकता वाले बच्चे को अभिप्रेरित करके सीखने के लिए तत्पर करना चाहिए, क्योंकि वह सीख सकता है यदि उनके लिए उचित आधार हो उनकी आवश्यकता के अनुसार हो तभी समावेश शिक्षा सफल होगी | 🎯 कक्षा में सभी बच्चों की शैक्षणिक गुणवत्ता में बिना किसी भेदभाव के सुधार लाना है और यही समावेशी शिक्षा का मूल आधार है | यदि किसी को समस्या है तो निदान करके शिक्षा देना है ना कि उसको अलग करके पढ़ाना है सब को साथ में ही शिक्षा देना है | 🎯 बच्चे के सीखने के तौर तरीके में विभिन्नता होती है वह ➖ *1* अनुभवों के द्वारा सीखते हैं | *2* अनुकरण करके भी सीखता है | *3* चर्चा करके या बातचीत करके भी सीख सकता है | *4* प्रश्न पूछने से भी सीख सकते हैं | *5* सुनकर भी सीख सकते हैं | *6* कई बच्चे चिंतन करके भी सीखते हैं ऐसे बच्चों को अकेले में समय चाहिए | *7* कई बच्चे खेल क्रियाकलापों से भी सीख सकते हैं जब तक कि वे खेलेंगे नहीं सीखेंगे नहीं ऐसे बच्चों के लिए खेल बहुत आवश्यक हैं | *8* कई बच्चे खुद गतिविधि करके भी सीखते हैं | इसलिए सभी बच्चों को हर प्रकार से शिक्षा देनी चाहिए जो की प्रजातांत्रिक शिक्षा होगी | 🎯 बालकों को सीखने से पूर्व सीखने सिखाने के लिए तैयार करना आवश्यक होता है जो कि एक बेहतर वातावरण देकर या सकारात्मक वातावरण प्रदान करके किया जा सकता है | अर्थात् इसके लिए सकारात्मक वातावरण निर्माण करने की आवश्यकता है | 🎯 बालक उन्हीं सीखी हुई बातों के साथ समन्वय स्थापित कर पाता है जो उसने अपने वातावरण से प्राप्त किया है | अर्थात बालक उन्हीं सीखी हुई बातों के साथ अपना संबंध स्थापित कर पाता है जिसके बारे में उसके अपने परिवेश के कारण भली-भांति समझ विकसित हुई हो | लेकिन जब बच्चा धीरे-धीरे परिपक्व होता है तो वह उसकी अपनी समझ बन जाती है | 🎯 सीखने की प्रक्रिया विद्यालय के साथ साथ विद्यालय के बाहर भी चलती रहती है इसलिए इसे ऐसे व्यवस्थित करें कि बच्चा पूर्ण रूप से सम्मिलित हो जाए और उसके बारे में अपने द्वारा अपने आधार पर अपनी समझ विकसित कर सकें | 🎯 सीखने सिखाने की प्रक्रिया आरंभ करने से पूर्व किसी बच्चे का सामाजिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक, आर्थिक या राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को जानना बहुत आवश्यक है | यदि ऐसा नहीं हुआ तो बच्चे के मन में हीन भावना का विकास होने लगेगा | 🎯 प्रत्येक बालक की विविधता का आदर करना चाहिए | सबकी अलग-अलग व्यक्तिगत विभिन्नता होती है उस को ध्यान में रखना चाहिए और उसके अनुसार शिक्षा प्रदान करना चाहिए | अर्थात् जो जिस परिवेश में है उसके अनुसार शिक्षा दें और उनका सम्मान करना चाहिए | 🔆 *समावेशी शिक्षा का क्रियान्वयन* ➖ समावेशी शिक्षा की मुख्यधारा से कोई भी विशेष बच्चा छूट ना जाए इसके लिए कुछ विशेष निर्णय लिए गए जो कि निम्न है ➖ 🎯 विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की कम उम्र में ही जन स्वास्थ्य केंद्र या एकीकृत बाल विकास केंद्र के माध्यम से पहचान की जाए | यह केंद्र व्यवस्थित करता है कि यह सामान्य नहीं है या नहीं इसलिए उनकी पहचान की जा सकती है | 🎯 जहां तक हो सके विशेष आवश्यकता वाले बच्चे को सामान्य बच्चों के साथ शिक्षा दी जाए | 🎯 विशेष आवश्यकता वाले बच्चे कको आवश्यक सहायक सामग्री तथा उपकरण प्रदान कराए जाए | 🎯 सहायक सेवा दी जाएं जैसे ➖ *1* स्वास्थ्य बाधा रहित वातावरण | *2* संसाधन कक्ष दिए जाएं | *3* विशेष पाठ्य सामग्री उपलब्ध कराई जाए जो सहायक हो जैसे गेंद और इसलिए आदि | *4* विशेष शिक्षा तकनीकी बनाई जाए | 🎯 हर शिक्षक इसके लिए सक्षम नहीं है इसलिए विशेष शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम की व्यवस्था की जाना चाहिए ताकि वह उनकी आवश्यकता की अनुसार शिक्षा दे सकें | *नोट्स बाय➖ रश्मि सावले* 🌻🌺🌸🍀🍀🍀🍀🍀🍀🍀🌸🌺🌻 🌟❄️🌟समावेशी शिक्षा के आधार❄️🌟❄️ 1- समावेशी शिक्षा समुदाय में होती है पूरा सामुदाय एक साथ सीखता है और विशेष आवश्यकता वाला बच्चा भी उस समुदाय का सदस्य होता है 2- प्रत्येक बालक स्वभाविक रूप से सीखने के लिए प्रेरित रहता है 3- कक्षा के सभी बच्चों की शैक्षणिक गुणवत्ता में बिना किसी भेदभाव के सुधार लाना है शिक्षक को बच्चे की पृष्ठभूमि से कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए किसी भी जाति वर्ग से संबंध नहीं होना चाहिए केवल शिक्षा देने से मतलब होना चाहिए यही एक अच्छे शिक्षक का कर्तव्य है बालक के सामाजिक आर्थिक भौगोलिक पृष्ठभूमि इन सभी बातों की जानकारी होना चाहिए और सभी बच्चों को सम्मान और बेहतर शिक्षा देना चाहिए 4- बच्चे के सीखने के तौर तरीके में विभिन्नता पाई जाती है ✍🏻 अनुभव के द्वारा/ बच्चा अपने अनुभव के द्वारा भी सीख सकता है जैसे-जैसे अनुभव होता जाता है वैसे वैसे जीता जाता है ✍🏻 अनुकरण के द्वार/ बच्चा दूसरों को देख कर सीखता है ✍🏻 चर्चा करके या बातचीत या विचार-विमर्श करके सीखना ✍🏻 प्रश्न द्वारा ✍🏻 सुनकर ✍🏻 चिंतन मनन के द्वारा ✍🏻 खेल क्रियाकलाप से ✍🏻 खुद गतिविधि करके सीखते हैं 5- बच्चों को सीखने से पूर्व सीखने सिखाने के लिए तैयार करना आवश्यक है इसके लिए सकारात्मक वातावरण का निर्माण करने की आवश्यकता है 6- बालक उन बातों के साथ अपना संबंध स्थापित कर पाता है जिसके बारे में उसको अपने परिवेश के कारण भली-भांति समझ विकसित हुई है 7- सीखने की प्रक्रिया विद्यालय के साथ साथ विद्यालय के बाहर भी चलती रहती है इसलिए इसे इस तरह से व्यवस्थित करें कि बच्चा पूर्ण रूप से इस में सम्मिलित हो जाए और उसके बारे में अपने आधार पर अपनी समझ विकसित करें 8 – सीखने सिखाने की प्रक्रिया आरंभ करने से पूर्व किसी बच्चे की सामाजिक आर्थिक भौगोलिक राजनीतिक सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य को जानना आवश्यक होता है Shikshak के लिए बच्चे की शिक्षा के क्षेत्र में आ रही कठिनाई की जानकारी होना चाहिए 9- प्रत्येक बालक की विविधता का आदर करना चाहिए एक शिक्षक को बालकों में जो विभिन्न ताएं पाई जाती हैं उनका सम्मान करना चाहिए 𓭄️समावेशी शिक्षा का क्रियान्वयन❄️ 1- विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को कम उम्र में ही जन स्वास्थ्य केंद्र और एकीकृत बाल विकास केंद्र के माध्यम से पहचान की जानी चाहिए 2- जहां तक हो सके विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को सामान्य बच्चों की शिक्षा दी जाए 3- विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को आवश्यक सामग्री और उपकरण उपलब्ध करवाए जाए 4- सहायक सेवा दी जानी चाहिए ✍🏻 स्वास्थ्य बाधा रहित वातावरण का निर्माण किया जाए ✍🏻 संसाधन कक्ष से दिया जाए ✍🏻 विशेष पाठ्य सामग्री उपलब्ध कराई ✍🏻 विशेष शिक्षण तकनीकी का उपयोग किया जाए ✍🏻 उपचारात्मक शिक्षण सामग्री का प्रयोग किया जाए 5- शिक्षण प्रशिक्षण कार्यक्रम का उपयोग किया जाए ✍🏻रितु योगी✍🏻 ✍️ *समावेशी शिक्षा के आधार* समावेशी शिक्षा के आधार निम्नलिखित हैं:- 1. समावेशी शिक्षा समुदाय के रूप में होती है पूरा समुदाय एक साथ सीखता है और विशेष आवश्यकता वाला बच्चा भी उस समुदाय का सदस्य होता है। 2. प्रत्येक बालक स्वाभाविक रूप से सीखने के लिए भी प्रेरित होता है। 3. कक्षा के सभी बच्चों की शैक्षणिक गुणवत्ता में बिना किसी भेदभाव के सुधार लाना चाहिए यहां पर शिक्षक को बच्चे की पृष्ठभूमि से कोई मतलब नहीं होना चाहिए वह उच्च आर्थिक पृष्ठभूमि का है या निम्न पृष्ठभूमि से है या अनुचित या अनुसूचित जनजाति का है या सूचित जनजाति का है इससे उनका कोई संबंध नहीं होना चाहिए शिक्षा को बालक की सामाजिक आर्थिक भौगोलिक सभी बातों का ज्ञान होना आवश्यक है इससे बालों को बेहतर रूप में शिक्षा मिल सकती है। 4. बच्चे के सीखने के तौर तरीके में विविधता होती है 🌷 बच्चे अनुभव के द्वारा सीखते हैं। 🌷 बच्चे अनुकरण के द्वारा सीखते हैं। 🌷 बच्चे चर्चा से भी सीखते हैं उनसे बातचीत करने से वह सीखते हैं। 🌷 बच्चे को प्रश्न पूछने का भी मौका देना चाहिए जिससे वह सीखते हैं। 🌷 बच्चे सुनकर भी सीखते हैं। 🌷 बच्चे चिंतन और मनन के द्वारा भी सीखते हैं। 🌷 बच्चे खेल क्रियाकलाप के द्वारा भी सीखते हैं। 🌷 बच्चे खुद गतिविधि करके सीखते हैं। 💎 सभी बालको हर तरह के अवसर प्रदान करने चाहिए जिससे वह सीख सके कुछ ज्ञान प्राप्त कर सके। 5 सीखने से पूर्व सीखने के लिए तैयार करना आवश्यक है इसके लिए सकारात्मक वातावरण निर्माण करने की आवश्यकता है बच्चों पर वातावरण का प्रभाव बहुत होता है जिससे वह सकारात्मक और नकारात्मक के चीजों को वह अनुकरण करते हैं और सीखते हैं। 6. बालक उन्हीं सीखी बातों के साथ अपना संबंध स्थापित कर पाता है जिनके बारे में उसके अपने परिवेश के कारण भली-भांति समझ विकसित हुई है बालक का सही गलत वातावरण के कारण विकसित होती है। बालक के जो सामने होता है जिन्हें वह चीज को देख सकता है उससे वह जल्दी सीखता उस चीज को वह जल्दी ग्रहण करता है। 7. सीखने की प्रक्रिया विद्यालय के साथ साथ विद्यालय के बाहर भी चलते रहते इसलिए ऐसे व्यवस्थित व्यवस्था करें कि बच्चा पूर्ण रूप से संबंधित होना चाहिए और उसके बारे में अपने आधार पर अपनी समझ विकसित हो। 8. सीखने सिखाने की प्रक्रिया आरंभ करने से पूर्व बच्चे के अलग अलग पहलू होते है। सामाजिक सांस्कृतिक आर्थिक भौगोलिक और राजनीतिक परिपेक्षय को जानना जरूरी है तभी उनको हम समझ पाएंगे। 9. प्रत्येक बालक की विविधता का आदर करना चाहिए उनका सम्मान करना चाहिए। ✍️ *समावेशी शिक्षा का क्रियान्वयन* 1. विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की कम उम्र में ही जन स्वास्थ्य केंद्र बाल विकास केंद्र के माध्यम से पहचान की जानी चाहिए। 2. जहां तक हो सके विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को सामान्य बच्चों के साथ शिक्षा दी जाए जिससे उन्हें कठिनाई का सामना ना करना पड़े। 3. विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को आवश्यक सहायक सामग्री और उपकरण कराई जाए। 4. सहायक सेवा दी जाए:- 🌷 स्वस्थ बाधा रहित वातावरण। 🌷 संसाधन कक्षा पढ़ने के लिए जैसे वेंच ब्लैक बोर्ड। 🌷 विशेष पाठ्य सामग्री पढ़ने के लिए खिलौने। 🌷 शिक्षा तकनीक के माध्यम से उन्हें शिक्षा देनी चाहिए। 🌷 उपचारात्मक शिक्षण सामग्री का उपयोग करना चाहिए। 🌷 शिक्षण प्रशिक्षण कार्यक्रम करवाना चाहिए। Notes By :-Neha Roy 🌸समावेशी शिक्षा के आधार 🌸 ◾ समावेशी शिक्षा समुदाय के रूप में होती है पूरा समुदाय एक साथ सीखता है और विशेष आवश्यकता वाला बच्चा भी उस समुदाय का हिस्सा या सदस्य होता है। ◾ प्रत्येक बालक स्वाभाविक रूप से सीखने के लिए प्रेरित होता है। ◾ कक्षा के सभी बच्चों की शैक्षिक गुणवत्ता में बिना किसी भेदभाव के सुधार लाना है। ◾बच्चे के सीखने के तौर-तरीकों में विविधता होती है जैसे– ▪️अनुभव के द्वारा ▪️अनुकरण के द्वारा ▪️चर्चा (बातचीत) ▪️प्रश्न पूछना ▪️सुनकर ▪️चिंतन मनन ▪️खेल क्रियाकलाप से ▪️खुद गतिविधि करके ▪️सभी बालकों को हर तरह के अवसर प्रदान करने चाहिए ◾सिखने से पूर्व सीखने सिखाने के लिए तैयार करना आवश्यक है इसके लिए सकारात्मक वातावरण निर्माण करने की आवश्यकता है। ◾बालक उन्हीं सीखी बातों के साथ संबंध स्थापित कर पाता है जिनके बारे में उसने अपने परिवेश के कारण भली भांति समझ विकसित हुई है। ◾सीखने की प्रक्रिया विद्यालय के साथ-साथ बाहर भी चलती रहती है इसलिए इसे ऐसे व्यवस्थित करें कि बच्चा पूर्ण रूप से सम्मानित हो जाए और उसके बारे में अपने आधार पर अपनी समझ विकसित कर सके। ◾ सीखने सिखाने की प्रक्रिया आरंभ करने से पूर्व बच्चे के सामाजिक , सांस्कृतिक , आर्थिक , भौगोलिक और राजनीतिक परिपेक्ष्य को जानना जरूरी है। ◾ प्रत्येक बालक की विविधता का आदर करना चाहिए। 🌸 समावेशी शिक्षा का क्रियान्वयन🌸 ◾जितने भी विशेष आवश्यकता वाले बच्चे हैं उनकी कम उम्र में ही जन स्वास्थ्य केंद्र, एकीकृत बाल विकास केंद्र के माध्यम से पहचान की जाए। ◾जहां तक हो सके विशेष आवश्यकता वाले बच्चे को सामान्य बच्चों के साथ शिक्षा दी जाए। ◾ विशेष आवश्यकता वाले बच्चे को सहायक सामग्री और उपकरण उपलब्ध कराई जानी चाहिए। ◾ सहायक सेवा दी जाए जो निम्न हैं — ▪️स्वस्थ बाधा रहित वातावरण ▪️संसाधन कक्ष दिए जाएं। ▪️विशेष पाठ्य सामग्री उपलब्ध कराई जाए जो सहायक हो । ▪️विशेष शिक्षा तकनीकी अपनाई जाए। ▪️उपचारात्मक शिक्षण प्रणाली ◾ शिक्षण प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाने चाहिए जिससे बालक इन प्रशिक्षण के माध्यम से सामान्य बालक की श्रेणी में आ सके। धन्यवाद द्वारा वंदना शुक्ला ⭐🍁⭐🍁 समावेशी शिक्षा⭐🍁⭐🍁⭐🍁 🎯 समावेशी शिक्षा समुदाय में होती है पूरा समुदाय एक साथ सीखता है और विशेष आवश्यकता वाले बच्चे भी उस समुदाय के सदस्य होते हैं 🎯 प्रत्येक बालक स्वाभाविक रूप से सीखने के लिए प्रेरित रहता है 🎯 कक्षा के सभी बच्चों की शैक्षणिक गुणवत्ता में बिना किसी भेदभाव के सुधार लाना है शिक्षक को बच्चों की पृष्ठभूमि से कोई लेना देना नहीं होना चाहिए वह वह आर्थिक पृष्ठभूमि का है या निम्न आर्थिक अनिष्ट भूमिका या अनुचित या अनुसूचित जनजाति का उससे कोई संबंध नहीं होना चाहिए शिक्षा को बालक की आर्थिक भौगोलिक सभी बातों का ज्ञान होना आवश्यक है इससे बालक को बेहतर रूप से शिक्षा मिल सकते हैं 🎯 बच्चे के सीखने के तौर तरीके में विविधता होती है 🌺 बच्चे अनुभव के द्वारा सीखते हैं 🌺बच्चे अनुकरण के द्वारा सीखते हैं 🌺बच्चे चर्चा में भी सीखते हैं और उनकी से बातचीत करने से भी वह सीखते हैं 🌺 बच्चे को प्रश्न पूछने का मौका देना चाहिए जिससे वह सीखते हैं 🌺बच्चे सुनकर भी सीखते हैं बच्चे चिंतन और मनन के द्वारा भी सीखते हैं 🌺बच्चे खेल प्रक्रिया के द्वारा भी सीखते हैं 🌺बच्चे खुद गतिविधि करके सीखते हैं 🎯 सभी बच्चों को हर तरह के अवसर प्रदान करनी चाहिए जिससे कि वह सिर्फ सके और कुछ ज्ञान प्राप्त कर सकें 🎯 सीखने से फोटो सिखाने के लिए तैयार करना आवश्यक है इसके लिए सकारात्मक वातावरण निर्माण करने की आवश्यकता है बच्चों पर वातावरण का प्रभाव पड़ता है जिससे कि वह सकारात्मक और नकारात्मक चीजों को बाय अनुकरण करते हैं 🎯 बालक उन्हीं की हुई बातों के साथ अपने स्वयं संबंध स्थापित कर पाता है जिनके बारे में उसने अपने परिवेश के कारण भली-भांति समझ विकसित हुई है बालक के जो सामने होता है जिस चीज को वह देखता है उसे आए जल्दी सीख जाता है 🎯 सीखने की प्रक्रिया विद्यालय के साथ साथ विद्यालय के बाहर भी चलते रहना चाहिए इसीलिए ऐसी व्यवस्था करें कि बच्चे पूर्ण रूप से संबंधित सभी जगह से सीख सकें और उसके बारे में अपने आधार पर अपने समाज विकसित हो 🎯 सीखने सिखाने की प्रक्रिया आरंभ करने से पूर्व बच्चे में अलग-अलग पहलू होते हैं सामाजिक पहलू सांस्कृतिक भौतिक आर्थिक राजनैतिक परिपेक्ष्य को जानना जरूरी है तभी हम बच्चे समझ पाएंगे 🎯प्रत्येक बालक के विविधता का आदर करना चाहिए उसका सम्मान करना चाहिए 🍀🌾 समावेशी शिक्षा का क्रियान्वयन🍀🌾 🌈 विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की कम उम्र में ही जन स्वास्थ्य केंद्र बाल विकास केंद्र के माध्यम से पहचान की जानी चाहिए 🌈 जहां तक हो सके विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को सामान बच्चों के साथ शिक्षा दी जाए जिससे कि उन्हें कठिनाई का सामना ना करना पड़े 🌈 विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को आवश्यक सामग्री और उपकरण उपलब्ध करानी चाहिए 🌈 सहायक सेवाएं दी जाएं ⭐ स्वास्थ्य बाधारहित बाता वातावरण ⭐संसाधन कक्षा पढ़ने के लिए जैसी चेंज और ब्लैक बोर्ड ⭐ विशेष पाठ्यक्रम सामग्री देनी चाहिए ⭐ शिक्षा तकनीकी के माध्यम से उन्हें शिक्षा देनी चाहिए ⭐ उपचारात्मक शिक्षण सामग्री का उपयोग करना चाहिए ⭐ शिक्षण प्रशिक्षण कार्यक्रम करवाना चाहिए ✍🏻✍🏻✍🏻✍🏻Menka patel ✍🏻✍🏻✍🏻✍🏻 🌺🍁🌺🍁🌺🍁🌺🍁🌺🍁🌺🍁🌺🍁🌺🍁🌺🍁🌺🍁🌺🍁🌺🍁 ☘️ ☘️समावेशी शिक्षा के आधार☘️☘️ 🔹 समावेशी शिक्षा समुदाय के रूप में होती है पूरा समुदाय एक साथ सीखता है और विशेष आवश्यकता वाले बच्चे भी उसी समुदाय का सदस्य होता है 🔹 प्रत्येक बालक स्वाभाविक रूप से सीखने के लिए अभिप्रेरित रहता है 🔹 कक्षा के सभी बच्चों की शैक्षणिक गुणवत्ता में बिना किसी भेदभाव के सुधार लाना ही उचित है 🔹 बच्चे के सीखने के तौर तरीके में विभिनता होती है इसलिए सभी बालकों को हर तरह का अवसर प्रदान करना चाहिए ➖ अनुभवों के द्वारा ➖ अनुकरण के द्वारा ➖ चर्चा या बातचीत के द्वारा ➖ प्रश्न पूछ कर ➖ सुनकर ➖ चिंतन मनन द्वारा ➖ खेल क्रियाकलाप द्वारा ➖ खुद गतिविधि करके 🔹 सीखने से पूर्व सीखने सिखाने के लिए तैयार करना आवश्यक है इसके लिए सकारात्मक वातावरण निर्माण करने की आवश्यकता है। 🔹 बालक उन्हीं सीखी हुई बातों के साथ अपना संबंध स्थापित कर पाता है जिनके बारे में उसने अपने परिवेश के कारण भली-भांति समय विकसित की हुई हो। 🔹 सीखने की प्रक्रिया विद्यालय के साथ साथ विद्यालय के बाहर भी चलते रहती है इसलिए इसे ऐसे व्यवस्थित करें कि बच्चा पूर्ण रूप से सम्मानित हो जाए और उसके बारे में अपने आधार पर अपनी समझ विकसित कर सके। 🔹 सीखने सिखाने की प्रक्रिया आरंभ करने से पूर्व बच्चे के सामाजिक ,सांस्कृतिक, आर्थिक, भौगोलिक, और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को जाना बहुत जरूरी होता है। 🔹 प्रत्येक बालक की विविधता का आदर करना चाहिए। ☘️☘️ समावेशी शिक्षा का क्रियान्वयन☘️☘️ 🔹 विशेष आवश्यकता वाले बच्चों की कम उम्र में ही जन्म स्वास्थ्य केंद्र एवं एकीकृत बाल विकास के केंद्र के माध्यम से पहचान की जाए। 🔹 जहां तक हो सके विशेष आवश्यकता वाले बच्चे को सामान्य बच्चों के साथ शिक्षा दी जाए। 🔹 विशेष आवश्यकता वाले बच्चों का आवश्यक सहायक सामग्री और उपकरण की व्यवस्था की जानी चाहिए। 🔹 सहायक सेवा दी जानी चाहिए:- ➖ स्वास्थ्य बाधा रहित वातावरण ➖ संसाधन कक्ष ➖ विशेष पाठ्य सामग्री की व्यवस्था की जाए। ➖ विशेष शिक्षा तकनीकी का उपयोग हो। ➖ उपचारात्मक शिक्षण सामग्री दी जानी चाहिए। 🔹 शिक्षण प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन किया जाना चाहिए ताकि बच्चों में रुचि बरकरार रहे। 🌸🌸🌸Notes By— Abha kumari🌸🌸🌸

Environment on child development notes by India’s top learners

🌀🌀 वंशानुक्रम 🌀🌀 🌺🌺डगलस व हाॅलेड ➡️ एक व्यक्ति के वंशानुक्रम में वह सभी शारीरिक बनावट ,शारीरिक विशेषताएं ,क्रियाएं या क्षमताएं सम्मिलित रहती हैं जिसको वह अपने माता-पिता पूर्वजों या प्रजाति से प्राप्त करते हैं 🌀🌀 वंशानुक्रम का प्रभाव🌀 ➡️ वंश परंपरागत ➡️ अनुवांशिकता ➡️ वंशानुक्रम ➡️ पैतृक ता वंशानुक्रम का प्रभाव शरीर और मन दोनों पर पड़ता है विकास की प्रक्रिया का महत्वपूर्ण आधार वंशानुक्रम है 🌀 वंशानुक्रम🌀 ( heredity) वंशानुक्रम से माता-पिता या बच्चों में गुण आते हैं लेकिन जरूरी नहीं है कि दोष या विकार माता-पिता से ही वह बच्चों में आ जाए इसका कारण बेहतर प्रशिक्षण और पर्यावरण भी हो सकता है 🌀🌀 वातावरण 🌀🌀 (environment) वातावरण एक व्यापक शब्द है जिसके अंतर्गत सभी भौतिक और अभौतिक वस्तुएं शामिल है जिनका प्रभाव व्यक्ति विकास पर पड़ता है 🌀🌀 वुडवर्थ 🌀🌀 वातावरण में वह सभी बाहरी तत्व आ जाते हैं जिन्होंने व्यक्ति को जीवन आरंभ करने के समय से ही प्रभावित किया है 🌀🌀 एनास्टैसी 🌀🌀 वातावरण में हर वस्तु है जो व्यक्ति के जीवन के अलावा उसे प्रभावित करता है 🌺 वातावरण संबंधी कारक🌺 ➡️ भौगोलिक ➡️ सामाजिक ➡️ सांस्कृतिक वातावरण या पर्यावरण में वह सभी बाहरी तत्व या शामिल नहीं है जो मां के गर्भ द्वारा गर्भाधान के तुरंत बाद से ही व्यक्ति विशेष की वृद्धि विकास को प्रभावित करते हैं 🌀🌀 भौतिक सुविधाएं➡️ इसके अंतर्गत प्राकृतिक एवं भौगोलिक परिस्थितियां आती है इसके अंतर्गत भोजन, जल, वातावरण ,घर ,विद्यालय, गांव/ शहर का वातावरण आता है 🌀 सामाजिक सांस्कृतिक 🌀 व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है इसलिए उस पर समाज का प्रभाव अधिक दिखाई देता है सामाजिक व्यवस्था रहन-सहन, परंपराएं, धार्मिक कृत्य, रीति रिवाज, पारस्परिक अंत: क्रिया और संबंध आदि बहुत से तत्व हैं जो मनुष्य के शारीरिक मानसिक तथा भावनात्मक तथा बौद्धिक विकास को किसी न किसी ढंग से अवश्य प्रभावित करते हैं यह जो वातावरण संबंधी शक्तियां व्यक्ति की वृद्धि और विकास के सभी पहलुओं शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक, सामाजिक, नैतिक, सौंदर्य, उन सब पर पूरा प्रभाव डालती है 📚📚🖊️ Notes by…. Sakshi Sharma 📚📚🖊️ 📖 📖 वंशानुक्रम और वातावरण 📖 📖 👉🏻 वंशानुक्रम~ वंशानुक्रम का अर्थ है, कि ऐसे गुण जो हमें अपने परिवार माता-पिता एवं पूर्वजों से मिलते हैं, उन्हें वंशानुक्रम कहते हैं। 🌻 डगलस व हालैंड के अनुसार वंशानुक्रम की परिभाषा ~ एक व्यक्ति के वंशानुक्रम में देश तभी शारीरिक बनावट, शारीरिक विशेषताएं, क्रियाएं या क्षमताएं सम्मिलित होती हैं। जिनको वह अपने माता-पिता, पूर्वजों एवं प्रजाति से प्राप्त करता है। 📝 वंशानुक्रम के अन्य नाम या उन्हें इन नामों से भी जाना जा सकता है, जो कि निम्नलिखित है~ 👉🏻 वंश परंपरा, 👉🏻अनुवांशिकता, 👉🏻वंशानुक्रम, 👉🏻पैतृकता। 🌷🌿🌷 वंशानुक्रम का प्रभाव:- वंशानुक्रम बालक के एवं व्यक्ति के शरीर के साथ-साथ मन को भी प्रभावित करता है, शरीर व मन दोनों पर ही इसका प्रभाव पड़ता है। विकास की प्रक्रिया का महत्वपूर्ण आधार वंशानुक्रम होता है। बालक के विकास में प्रारंभिक महत्वपूर्ण योगदान उसके वंशानुक्रम का ही होता है। बालक को जन्म के समय जो भी गुण मिलते हैं, उसे उसके वंशानुक्रम से ही प्राप्त होते हैं। एवं बालक को वंशानुक्रम अत्यधिक प्रभावित करता है। 🌲🌷🌲 वंशानुक्रम से माता-पिता के बच्चे में गुण आते हैं। लेकिन जरूरी नहीं है, कि दोष एवं बेकार माता-पिता में है तो वही बच्चों में भी स्थानांतरित होते हैं, यह आवश्यक नहीं है। इसका कारण है, कि बालक को बेहतर एवं अच्छा प्रशिक्षण और पर्यावरण भी हो सकता है। अतः अच्छे प्रशिक्षण एवं शिक्षण के माध्यम से हम बालक को उसके माता-पिता से विपरीत बना भी सकते हैं। अतः यह आवश्यक नहीं है, कि माता-पिता में जो दोष एवं बेकार हो गए बालक में भी आए बालक अच्छे गुण भी सीख सकता है। जो कि उसे उसके बाहरी वातावरण के रूप में हम दे सकते हैं। 👉🏻 वातावरण~ वातावरण का अर्थ है, कि बालक के ऐसे गुण जो उसे उसके आसपास की चीजों या आसपास के पर्यावरण से प्राप्त होते हैं, वातावरण कहलाता है। 🌻 वुडवर्थ के अनुसार वातावरण की परिभाषा~ वातावरण में बस अभी तत्व आते हैं, जो बालक को अपना जीवन प्रारंभ करने के समय से ही प्रभावित करते हैं। 🌻एनास्टसी के अनुसार वातावरण की परिभाषा~ वातावरण वह वस्तु है, जो पैत्र्येको के अतिरिक्त प्रत्येक वस्तु को प्रभावित करती है। 🌺🌿🌺 बालक के बाहरी वातावरण अर्थात पर्यावरण को भौगोलिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक आदि कारक प्रभावित करते हैं। वातावरण या पर्यावरण में वह सभी बाहरी तत्व या शक्तियां निहित होती हैं, जो मां के द्वारा गर्भाधान के तुरंत बाद से ही व्यक्ति विशेष की वृद्धि व विकास को प्रभावित करते हैं। बालक के जन्म के बाद तो उसका वातावरण प्रभावित करता ही है, लेकिन बालक हो मां के गर्भ में भी उसका वातावरण प्रभावित करता है। मां के गर्भ के समय जब बालक गर्भ में रहता है। तो उसका वही वातावरण होता है, और वह वातावरण उसे प्रभावित भी करता है। 🍃🍂बालक के जन्म के पहले का वातावरण~ बालक के जन्म से पूर्व भी मां के गर्भ का वातावरण बालक को प्रभावित करता है। मां जो खाती है, मां जो सोचती है, मां जो करती है, एवं मां जो अनुभव करती है। वह सभी बालक को प्रभावित करता है, गर्भावस्था में ही। 🍂🍃 जन्म के पश्चात का बालक का वातावरण~ बालक के चारों ओर का वातावरण बालक को प्रभावित करता है। जब बालक जन्म लेता है। तो उसका वातावरण बदल जाता है। क्योंकि गर्भ में बालक का वातावरण अलग रहता है, और जन्म के पश्चात उसका वातावरण अलग रहता है। 🍁🌿🍁 भौतिक कारक जो बालक को प्रभावित करता है~ बालक के विकास को भौतिक कारक महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करता है, उसके अंतर्गत उसके बाहरी वातावरण के अंतर्गत भोजन, जल, जलवायु, घर, स्कूल, गांव/शहर इत्यादि सभी उसे प्रभावित करते हैं। 🍁🌿🍁 सामाजिक एवं सांस्कृतिक कारक भी बालक को प्रभावित करते हैं~ बालक के सांस्कृतिक एवं सामाजिक वातावरण के अंतर्गत बालक के माता-पिता, परिवार, पड़ोसी, मित्र, सहपाठी, अध्यापक, यातायात एवं धार्मिक सभी प्रभावित करते हैं। यह जो वातावरण संबंधी शक्तियां व्यक्ति की वृद्धि एवं विकास के सभी पहलुओं जैसे कि शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक, नैतिक एवं सौंदर्य इन सभी को प्रभावित करते हैं। 📚📚 📘 समाप्त 📘📚📚 ✍🏻 PRIYANKA AHIRWAR ✍🏻 🌷🌸🌷 *वृद्धि और विकास पर वंशानुक्रम और वातावरण का प्रभाव*🌷🌸🌷 शिशु के वृद्धि और विकास में वंशानुक्रम और वातावरण का बहुत प्रभाव पड़ता है तथा वंशानुक्रम और वातावरण का संबंध योगात्मक न होकर बल्कि गुणात्मक होता है अतः हम यह भी कर सकते हैं कि किसी एक के बिना इनका अस्तित्व संभव नहीं है। 🍃🌸🍃 *वंशानुक्रम/अनुवांशिकता (Heredity):-* किसी भी व्यक्ति में उसके माता–पिता या पूर्वजों से जो गुण उनमें हस्तांतरित होते हैं, उसे वंशानुक्रम/अनुवांशिकता कहते है। 🌷🌸🌷 *डगलस व हालेंड के अनुसार:-* “एक व्यक्ति के वंशानुक्रम में वे सभी शारीरिक बनावट ,शारीरिक विशेषताएं, क्रियाएं या क्षमताएं सम्मिलित रहती है जिसको वह अपने माता– पिता , पूर्वजों या प्रजाति से प्राप्त करता है।” 🌷🌸🌷 *वंशानुक्रम का प्रभाव:-* विकास की प्रक्रिया का महत्वपूर्ण आधार वंशानुक्रम है, जिसका प्रभाव व्यक्ति के शरीर और मन पर पड़ता है ,क्योंकि उसका आधार वंशानुक्रम ही है। 🌸 *पैतृकता* 🌸 *वंशानुक्रम* 🌸 *वंशपरम्परा* 🌸 *अनुवांशिकता* वंशानुक्रम से माता–पिता से बच्चों में जो गुण आते हैं ,लेकिन जरूरी नहीं है कि , जो कोई गुण, दोष या विकार उनमें है वह बच्चों में स्थानांतरित हो ही जाए, इसका कारण बेहतर प्रशिक्षण और पर्यावरण भी हो सकता है जिससे बच्चे में सुधार किया जा सकता है। 🍃🌸🍃 *वातावरण/पर्यावरण( Environment):-* वातावरण व्यक्ति के जीवन और व्यवहार (स्वभाव ,आदत ,) दोनों को ही प्रभावित करता है। तथा कई विद्वानों ने वातावरण के विषय में कई परिभाषाएं दी है– 🌷🌸🌷 *वुडवर्थ के अनुसार:-* “वातावरण में वे सभी बाहरी तत्व आ जाते हैं, जिन्होंने व्यक्ति के जीवन आरंभ करने के समय से प्रभावित करते हैं।” 🌷🌸🌷 *एनास्टकी के अनुसार:-* “वातावरण वह हर वस्तु है जो व्यक्ति के जींस के अतिरिक्त प्रत्येक वस्तु से प्रभावित करती है।” 🌷🌸🌷 *श्री दीपक हिमांशु सर जी के अनुसार:-* “वातावरण या पर्यावरण में वह सभी बाहरी तत्व या शक्ति निहित है, जो मां के द्वारा गर्भधान के तुरंत बाद से ही व्यक्ति विशेष की वृद्धि विकास को प्रभावित करती है”। 🌷🌷🌷 वातावरण को दो भागों में बांट गया है– 🌸 *१.जन्म के पहले वातावरण* 🌸 *२. जन्म के बाद वातावरण* 🍃🌸🍃 *जन्म के पहले वातावरण:-* जन्म से पहल शिशु का वातावरण मां के गर्भ में होता है।जैसे :-मां जो खाती है, सोचती है, करती है तथा जो अनुभव करती है उन सभी चीजों का प्रभाव शिशु पर पड़ता है। 🍃🌸🍃 *जन्म के बाद वातावरण:-* जब शिशु का जन्म होता है, तो चारों ओर से वातावरण की शक्तियां शिशु को प्रभावित करती है । इस को दो भागों में बांटा गया है– 🌸 *भौतिक सुविधाएं* 🌸 *सामाजिक सुविधाएं* 🌷🌸🌷 *भौतिक सुविधाएं:-* भौतिक सुविधाओं के अंतर्गत ऐसी आवश्यकताएं जो चीजें से पूरी होती है , भौतिक सुविधाओं के वातावरण के अंतर्गत आती है। जैसे:-भोजन, पानी, जलवायु, घर, गांव, विद्यालय, शहर का वातावरण तथा रोटी, कपड़ा और मकान इत्यादि चीजें। 🌷🌸🌷 *सामाजिक/ सांस्कृतिक सुविधाएं:-* सामाजिक सुविधाओं के अंतर्गत माता–पिता ,परिवार, पास–पड़ोस, मित्र–सहपाठी, रिश्तेदार, अध्यापक, मनोरंजन, धार्मिक तथा यातायात यह सभी सामाजिक सांस्कृतिक सुविधाओं में शामिल है। अतः यह कहा जा सकता है कि, यह जो वातावरण संबंधित सभी शक्तियां है, यह किसी बालक या व्यक्ति की वृद्धि और विकास में सभी पहलुओं शारीरिक, मानसिक , संवेगात्मक, नैतिक तथा सौंदर्य इन सब पर पूर्ण प्रभाव डालती है। ✍🏻 *Notes by–Pooja* 🙏🌻🌷🌿🌺🙏🌻🌷🌿🌺🙏🌻🌷 🌿🌺🙏🌻🌷🌿 📚 *वंशानुक्रम और वातावरण* 📚 📚 *Heredity & environment 📚* 🌳 *वंशानुक्रम :-* 🌸 यो गुण हमें हमारे माता-पिता अभिभावक तथा पूर्वजों से स्थानांतरित होते हैं उन्हें वंशानुक्रम कहा जाता है। 🦚 *डग्लस व हालैंड के अनुसार :-* 🌸 एक व्यक्ति की वंशानुक्रम में वह सभी शारीरिक बनावट,शारीरिक विशेषताएं,क्रियाएं या क्षमताएं सम्मिलित होती है जिन्हें वह अपने माता-पिता व पूर्वजों से प्राप्त करता है। 🍁 वंशानुक्रम को अन्य नामों से भी जाना जाता है जो कि निम्नलिखित हैं :- 🌿 वंश – परंपरा 🌿अनुवांशिकता 🌿वंशानुक्रम 🌿पैतृकता 🌳 *वंशानुक्रम का प्रभाव :-* 🌟 वंशानुक्रम व्यक्ति के शारीरिक,सामाजिक एवं मानसिक प्रक्रियाओं को भी प्रभावित करता है। वंशानुक्रम का व्यक्ति के हर एक पक्ष पर असर पड़ता है। 🌟 वंशानुक्रम किसी भी व्यक्ति के विकास में एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटक है। बालक के विकास में सर्वप्रथम योगदान वंशानुक्रम का ही होता है। जन्म के समय जो भी गुण बालक को प्राप्त होते हैं वे वंशानुक्रम से ही होते हैं।अतः किसी भी प्राणी विशेष के लिए वंशानुक्रम अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। 🌟 जैसा कि हम जानते हैं वंशानुक्रम किसी भी व्यक्ति को बहुत ही अधिक प्रभावित करता है जो कि उनके माता-पिता और पूर्वजों से प्राप्त होता है लेकिन ऐसा नहीं होता कि जो गुण या दोष माता-पिता या पूर्वजों में है वह उनके वंशानुक्रम के कारण उनके आगे की वंश में होना ही चाहिए तथा इसके विपरीत गुण भी पाए जा सकते हैं। 🌟अतः हम बच्चे को अच्छी शिक्षा प्रशिक्षण माहौल द्वारा हम उन्हें उनके माता-पिता से विपरीत बना सकते हैं। जो कामयाबी उनके माता-पिता हासिल नहीं कर हम अपने बाहरी परिवेश द्वारा वह बच्चों में ला सकते हैं। 🌳 *वातावरण :-* 🌸 वातावरण वह बाहरी शक्ति है जो हमें शारीरिक,मानसिक,सामाजिक एवं अन्य प्रकार से प्रभावित करती है। वातावरण से तात्पर्य हमारी आस-पड़ोस, पेड़ – पौधे तथा जीवन के वास्तविक परिस्थितियों से है। 🦚 *वुडवर्थ के अनुसार :-* 🌸 वातावरण में वह सभी तत्व आते हैं जो बालक को अपना जीवन प्रारंभ करने के समय से ही प्रभावित करते हैं। 🦚 *एनास्टास्की के अनुसार :-* 🌸 वातावरण वह हर वस्तु है जो व्यक्ति के जींस के अतिरिक्त प्रत्येक वस्तु को प्रभावित करती है। 🌳 वातावरण को दो भागों में विभाजित किया गया है :- 🌿जन्म से पहले वातावरण 🌿जन्म से बाद वातावरण 🌿 *जन्म से पहले वातावरण :-* 🌸जन्म से पहले का वातावरण शिशु के लिए माँ के गर्भ में होता है। जिसे जन्म से पहले का वातावरण कहा जाता है। 🍁 जैसे कि :- 🌷 माँ कुछ भी सोचती है। 🌷 खाती है। 🌷 देखती है। 🌷 अनुभव करती है। 👌इन सब का प्रभाव शिशु पर पड़ता है। 🌷🌷 इसीलिए कहा जाता है कि शिशु के जन्म से पहले माता को एक सकारात्मक और शुद्ध वातावरण में रखना तथा उनकी सक्रिय रूप से सामाजिक सांस्कृतिक व्यवस्थाओं की सुदृढ़ता का उचित रूप से ध्यान रखना चाहिए🌷🌷 🌿 *जन्म के बाद वातावरण :-* 🌸 जब बालक जन्म लेता है उसके बाद उसके बाहर की आस पड़ोस की वातावरण तथा शक्तियां उसे प्रभावित करती है। जिसे जन्म के बाद का वातावरण कहा जाता है। 🍁 इसे भी दो भागों में विभाजित किया गया है : 🌿 भौतिक सुविधाएं 🌿 सामाजिक सुविधाएं 🌿 *भौतिक सुविधाएं :-* 🌸 भौतिक सुविधाओं के अंतर्गत प्राकृतिक व भौगोलिक चीजें आती हैं। जिससे हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। 🍁 जैसे कि :- 🌷 भोजन, पानी,जलवायु,गांव,घर,विद्यालय और शहर का वातावरण इत्यादि । 🌿 *सामाजिक सुविधाएं :-* 🌸 जैसा कि हम जानते हैं मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। इसलिए उस पर समाज का प्रभाव बहुत अधिक पड़ता है। 🍁जैसे कि :- 🌿 सामाजिक व्यवस्था, विद्यालय,सहपाठी,शिक्षक गण,रहन – सहन,धार्मिक – परंपराएं,धार्मिक – चेतना,धार्मिक – कृत्य,रीति – रिवाज,पारस्परिक – अंत:क्रिया और संबंध आदि अन्य प्रकार की चीजें भी बालक को सामाजिक – सांस्कृतिक रूप से प्रभावित करती है। 🌟🌸🌸🌟 अतः यह कहा जा सकता है कि, यह जो वातावरण संबंधित सारी शक्तियां हैं, यह किसी बालक के वृद्धि और विकास में शारीरिक मानसिक सामाजिक सांस्कृतिक बौद्धिक एवं अन्य सभी प्रकार से महत्वपूर्ण और प्रत्यक्ष प्रभाव डालता है🌟🌸🌸🌟 🌸📚समाप्त📚🌸 🌷🌷Notes by :- Neha Kumari ☺️ 🌷🌷🙏🙏धन्यवाद् 🙏🙏🌷🌷 ❄ अनुवांशिक और वातावरण ❄ 🌠 बाल विकास का अध्ययन करने के लिए मुख्यत: दो शाखाएं निर्भर करती हैं । अ) अनुवांशिकता (heredity ) ब) वातावरण ( environment ) 🌀 *वंशानुक्रम* ( *heredity* )वंशानुक्रम से तात्पर्य है हमारे पूर्वजों से मिले हुए वंश या पहचान अर्थात वंशानुक्रम कारक वे जन्मजात विशेषताएं हैं जो बालक के जन्म के समय से ही पाई जाती हैं इसमें हमारे पूर्वजों से मिलती हुई कुछ ना कुछ निशानियां पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती जाती है जैसे प्राणी का रंग रूप लंबाई अन्य शारीरिक विशेषताएं तथा अन्य मानसिक योग्यता का निर्धारण वंशानुक्रम द्वारा ही होता है 🌀 वंशानुक्रम के संदर्भ में *डगलस* *व* *हालेंड* के कथन ➖ एक व्यक्ति के वंशानुक्रम में वे सभी शारीरिक बनावटें ,शारीरिक विशेषताएं क्रियाएं या क्षमताएं सम्मिलित रहती है जिसको वह अपने माता-पिता पूर्वजों या प्रजाति से प्राप्त करता है । 🌀 *वंशानुक्रम का प्रभाव* ➖ वंशानुक्रम के अन्य नाम अ) वंश परंपरा ब) अनुवांशिकता स) वंशानुक्रम द) पैतृकता 🌀 वंशानुक्रम का प्रभाव शरीर और मन दोनों पर पड़ता है ★ विकास की प्रक्रिया का महत्वपूर्ण आधार वंशानुक्रम है 🌀 *सारांश* ➖ वशांनुक्रम में माता-पिता से बच्चों में गुण आते हैं लेकिन यह जरूरी नहीं है कि जो दोष या विकार माता-पिता में है वह बच्चों में स्थानांतरित हो ही जाए । इसका कारण बेहतर प्रशिक्षण और पर्यावरण भी हो सकता है। 🌀 *वातावरण*( *environment*) वातावरण भी व्यक्ति के जीवन और व्यवहार दोनों को प्रभावित करता है । वातावरण में सभी बाहृ शक्तियां, प्रभाव परिस्थितियां आदि सम्मिलित हैं जो प्राणी के व्यवहार शारीरिक और मानसिक विकास को प्रभावित करती हैं 🌀अ) *वुडवर्थ* ➖ वातावरण में वह सभी बाहरी तत्व आ जाते हैं जिन्होंने व्यक्ति को जीवन आरंभ करने के समय से प्रभावित किया है । ब) *एनास्टास्की* ➖ वातावरण वह वस्तु है जो व्यक्ति के जीन्स के अतिरिक्त प्रत्येक वस्तु को प्रभावित करता है। 👉वातावरण या पर्यावरण में वह सभी बाहरी तत्व या शक्ति निहित है जो मां के द्वारा गर्भधान के तुरंत बाद से ही व्यक्ति विशेष की वृद्धि विकास को प्रभावित करते हैं ◾ जन्म से पहले का वातावरण ➖ मां की हर प्रतिक्रिया का बच्चे पर असर पड़ता है । जो मां खाती है जो मां सोचती है जो मां अनुभव करती है । ◾ जन्म के बाद का वातावरण ➖ जन्म के बाद चारों ओर से वातावरण की शक्ति उनको प्रभावित करती है। 🌀 *भौतिक सुविधाएं ➖ जैसे भोजन जल ,जलवायु, घर, विद्यालय गांव ,शहर का वातावरण इत्यादि सब का पर प्रभाव पड़ता है । भौतिक सुविधाओं के अंतर्गत प्राकृतिक व भौगोलिक चीजें आती हैं जिनसे हम अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं 🌀 *सामाजिक सांस्कृतिक वातावरण*➖ मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है इसलिए समाज पर उसका असर पड़ता है जैसे – मां-बाप ,परिवार ,पड़ोसी मित्र ,सहपाठी ,अध्यापक यातायात का साधन, धार्मिक परंपरा इत्यादि जिनका जिनका प्रभाव पड़ता है। 👉 यह जो वातावरण संबंधी शक्तियां हैं व्यक्ति की वृद्धि और विकास के सभी पहलुओं जैसे- शारीरिक, मानसिक, सामाजिक संवेगात्मक ,नैतिक सौंदर्य इन सब पर पूरा प्रभाव पड़ता है। धन्यवाद ✍️ notes by Pragya shukla ✍️ **वृद्धि* *और* *विकास* *पर* *वंशानुक्रम* *और* *वातावरण* *का* *प्रभाव** 💎वृद्धि और विकास में वंशानुक्रम और वातावरण का बहुत प्रभाव पड़ता है वंशानुक्रम और वातावरण का संबंध गुणात्मक होता है ना कि योगात्मक होता है। 🏵 *वंशानुक्रम*/ *अनुवांशिकता*🏵 💎बच्चे के व्यक्तित्व में उसके माता-पिता यह पूर्वजों के जो गुण होते हैं उसे वंशानुक्रम या अनुवांशिकता कहते है। 🌸 *डगलस* *व* *हालेंड* *के* *अनुसार*:— “ एक व्यक्ति के वंशानुक्रम में वे सभी शारीरिक बनावट ए शारीरिक विशेषताएं क्रियाएं या क्षमताएं सम्मिलित रहती है जिनको वह अपने माता-पिता पूर्वजो या प्रजाति से प्राप्त करते हैं। 💐💐 *वंशानुक्रम* *का* *प्रभाव*:— 💎बच्चे की विकास की प्रक्रिया का महत्वपूर्ण आधार वंशानुक्रम है जिसका प्रभाव व्यक्ति के शरीर और मन पर पड़ता है क्योंकि उसका आधार वंशानुक्रम ही है। 🌻 *पैतृकता* 🌻 *वंशपरंपरा* 🌻 *अनुवांशिकता* 🌻 *वंशानुक्रम* 💎वंशानुक्रम से माता-पिता से बच्चों में गुन आते हैं जरूरी नहीं है कि दोष या विकार माता-पिता में है वह बच्चों में ट्रांसफर हो ही जाए ऐसा होता है तो पर्यावरण के कारण हुआ हो और प्रशिक्षण के कारण हुआ है। ऐसा जरूरी नहीं है कि माता-पिता अपाहिज हो तो बच्चे भी अपाहिज हो बच्चे में वंशानुक्रम से गुण आते हैं मगर जरूरी नहीं है कि गुण एक ही जैसे हो अगर माता पिता डॉक्टर है तो जरूरी नहीं है कि बच्चे भी डॉक्टर होसकते है पर्यावरण के कारण ऐसा माहौल हो जो बचपन से देखते हैं वही करते हैं। 🏵 *वातावरण*/ *पर्यावरण* *(Environment)*:— 💎वातावरण भी व्यक्ति के जीवन और व्यवहार दोनों को प्रभावित करता है। 🌸 *Woodwarth* *के* *अनुसार*:— 💎वातावरण में वे सभी बाहरी तत्व आ जाते हैं जिन्होंने व्यक्ति को जीवन आरंभ करने के समय से ही प्रभावित किया। 🌸 *एनास्ताकी* *के* *अनुसार*:— 💎वातावरण वह हर वस्तु है जो व्यक्ति के जींस को अतिरिक्त प्रत्येक वस्तु को प्रभावित करता है। ✍️ वातावरण या पर्यावरण में वह सभी बाहरी तत्व या शक्ति निहित है जो मां के द्वारा गर्भधान के तुरंत बाद से ही व्यक्ति विशेष की वृद्धि विकास को प्रभावित करते हैं बच्चे के जन्म के बाद का पर्यावरण अलग रहता है जो मां के व्यवहार से सीखता है। 🏵 वातावरण को दो भागों में बांटा गया है:- 1. *जन्म के पहले का वातावरण* 2. *जन्म के बाद का वातावरण* 1. *जन्म के पहले का वातावरण*:— 💎जन्म के पहले का वातावरण मां के गर्भ में होता है मां जो खाती है, सोचती है, करती है, तथा जो अनुभव करती है वह उन सभी चीजों का प्रभाव बच्चों पर होता है। 2. *जन्म के बाद का वातावरण:-* 💎जब बच्चे का जन्म होता है तो बालक के जो चारों ओर जो वातावरण होते हैं उससे प्रभावित होता है इस को दो भागों में बांटा गया है। *1. भौतिक सुविधाएं* *2. सामाजिक सुविधाएं* 🌸 *भौतिक सुविधाएं:-* 💎भौतिक सुविधाएं में वह सब जो आती है जो वातावरण से मिलती है जैसे भोजन, जल, जल वायु, घर, विद्यालय, गांव, शहर जो वातावरण से जन्म के बाद प्रभावित होती है। 🌸 *सामाजिक / सांस्कृतिक*:- 💎सामाजिक सुविधाएं में वह आते हैं जैसे मां-बाप, परिवार,पड़ोसी, मित्र सहपाठी, अध्यापक, यातायात ,मनोरंजन धार्मिक तथा यातायात यह सभी सामाजिक संस्कृत सुविधाओं में शामिल है। 💎यह जो वातावरण संबंधी शक्तियां व्यक्ति की वृद्धि और विकास के सभी पल्लू शारीरिक सामाजिक मानसिक संघात्मक नैतिक सुंदर इन सब पर पूर्ण प्रभाव डालती है। ✍️ *Notes By :-Neha Roy*✍️✍️🙏🙏🙏🙏 ⭐🌺⭐🌺 वंशानुक्रम और वातावरण⭐🌺⭐🌺 🍀🌾🍀 वंशानुक्रम:- वंशानुक्रम से आशय है वह गुण जो हमें अपने माता पिता और पूर्वजों से मिलते हैं उसे हम वंशानुक्रम कहते हैं 🍁डगलस व हालैंड के अनुसार:- एक व्यक्ति के वंशानुक्रम में वे सभी शारीरिक बनावट शारीरिक विशेषताएं क्रियाएं या क्षमता सम्मिलित रहती है जिनको वह अपने माता पिता पूर्वजों या प्रजाति से प्राप्त करते हैं 🌈वंशानुक्रम को हम अन्य नामों से भी जानते हैं ⭐वंश परंपरा ⭐अनुवांशिकता ⭐वंशानुक्रम ⭐पैतृकता 🍁⭐🍁 वंशानुक्रम का प्रभाव:- 🌺 विकास की प्रक्रिया का महत्वपूर्ण आधार वंशानुक्रम है 🌺 इसका प्रभाव शरीर और मन दोनों पर दिखाई देता है 🌺 इससे माता-पिता से बच्चों में गुण आते हैं लेकिन जरूरी नहीं है कि जो कोई दोष या विकार हो माता-पिता में है बे बच्चों में चले जाएं यह आवश्यक नहीं है 🍁⭐🍁 वातावरण:- वातावरण भी व्यक्ति के जीवन और व्यवहार दोनों को प्रभावित करता है 🎯वुडवर्थ के अनुसार:- वातावरण में सभी बाहरी तथा जाते हैं जिन्होंने व्यक्ति के जीवन आरंभ करने के समय से प्रभावित किया है 🎯एनास्टास्की के अनुसार:- वातावरण वह हर पहलू है जो व्यक्ति के जींस के अतिरिक्त प्रत्येक वस्तु को प्रभावित करता है 🍁 वातावरणीय पर्यावरण में वह सभी बाहरी तत्व शक्ति निहित है जो मां के द्वारा गर्भधान के तुरंत बाद से ही व्यक्ति विशेष की वृद्धि और विकास को प्रभावित करते हैं 🌈🌺🌈 वातावरण को दो भागों में बांटा गया है 🍁 जन्म के पहले का वातावरण:- जब बच्चा मां घरों में होता है तो जन्म से पहले का वातावरण मां जो खाती है मां जो करती है या जो सोचती है और मां जो अनुभव करती है या सभी बच्चे का प्रभाव पड़ता है यह बच्चे के जन्म के पहले का वातावरण होता है 🌺🍁🌺 जन्म के बाद का वातावरण:- जन्म के बाद चारों ओर से वातावरण शक्ति प्रभावित करती है इसके अंतर्गत पानी ,भोजन, जलवायु घर , विद्यालय वातावरण प्रभावित करते हैं के जन्म के बाद का वातावरण होता है 🎯 भौतिक सुविधाएं:- भौतिक सुविधाएं वो सब आता है जो वातावरण से मिलता है जैसे भोजन पानी जलवायु घर विद्यालय गांव शहर का वातावरण 🎯 सांस्कृतिक सामाजिक:- माता-पिता परिवार पड़ोसी मित्र सहपाठी अध्यापक यातायात धार्मिक यह सभी सामाजिक सांस्कृतिक सुविधाएं में शामिल है ⭐ यह जो वातावरण संबंधित शक्तियां हैं व्यक्ति की वृद्धि और विकास के सभी पहलू शारीरिक मानसिक संवेगात्मक सामाजिक नैतिक सौंदर्य कैंसर पर पूरा प्रभाव डालती है ✍🏻✍🏻✍🏻Menka patel ✍🏻✍🏻✍🏻 ⭐🌺🍁⭐🌺🍁⭐🌺🍁⭐🌺🍁⭐🌺🍁⭐🌺🍁 *♨️🌸 वृद्धि और विकास पर वंशानुक्रम और वातावरण का प्रभाव🌸♨️* *♨️🎯वंशानुक्रम (Heredity)🎯♨️* माता-पिता जैसे होते हैं वैसे ही उनकी संतान होती है।इसका अभिप्राय यह है कि बालक रंग रूप आकृति ज्ञान आदि में माता-पिता से मिलता जुलता है। अर्थात उसे अपने माता-पिता के शारीरिक और मानसिक गुण प्राप्त होते हैं। जैसे यदि माता-पिता विद्वान है तो बालक भी विद्वान होते हैं। पर यहां यह भी देखा गया है कि विद्वान माता-पिता का पुत्र विद्वान नहीं होता है और अविद्वान माता पिता का पुत्र विद्वान होता है। इसका यह कारण है कि बालक को न केवल अपने माता-पिता वरन उनसे पहले के पूर्वजों से भी अनेक शारीरिक और मानसिक गुण प्राप्त होते हैं। इसी को हम *वंशानुक्रम/वंश_ परंपरा/आनुवंशिकता/ पैतृकता* आदि नामों से पुकारते हैं। *🌸✍🏻डगलस एवं हॉलैंड के अनुसार_🌸* ” एक व्यक्ति के वंश क्रम में शारीरिक बनावट,शारीरिक विशेषताएं, शारीरिक क्रियाएं या क्षमताएं सम्मिलित रहती हैं, जिनको वह अपने माता-पिता या अन्य पूर्वजों या अन्य प्रजाति से प्राप्त करता है।” *♨️🌸वंशानुक्रम का प्रभाव🌸♨️* वंशानुक्रम का प्रभाव व्यक्ति के मन व शरीर पर दिखाई देता हैं। विकास की प्रक्रिया का महत्त्वपूर्ण आधार वंशानुक्रम हैं । *🌸🎯Heredity (वंशानुक्रम)🎯🌸* से माता-पिता से बच्चो में जो भी गुण आते हैं, लेकिन ये ज़रूरी नहीं है कि जो दोष विकार माता-पिता में हो वे बच्चो के अन्दर भी आये । इसका कारण बेहतर प्रशिक्षण और पर्यावरण भी हो सकता हैं। *♨️🎯वातावरण (Environment)🎯♨️* वातावरण के लिए पर्यावरण शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। पर्यावरण दो शब्दों से बना है― परि + आवरण। परि का अर्थ है ― चारों ओर तथा आवरण का अर्थ― ढका हुआ। इस प्रकार पर्यावरण या वातावरण वह वस्तु है जो हमें चारों से ढके हुए है। अतः हम कह सकते है कि व्यक्ति के चारो ओर जो कुछ भी है वह वातावरण है। वातावरण मानव जीवन के विकास पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है। मानव विकास में जितना योगदान आनुवंशिकता वंशानुक्रम का है उतना ही वातावरण का भी। *🌸✍🏻वुडवर्थ के अनुसार_🌸* “वातावरण में वे सब बाह्य तत्व आ जाते हैं जिन्होंने व्यक्ति को जीवन आरंभ करने के समय से प्रभावित किया है।” *🌸✍🏻एनास्टासी के अनुसार_🌸* ‘‘वातावरण वह प्रत्येक वस्तु है, जो व्यक्ति के जीन्स के अतिरिक्त प्रत्येक वस्तु को प्रभावित करती है।‘‘ ♨️ *🎯वातावरण सम्बंधी कारक🎯*♨️ वातावरण से संबंधित कारकों का निम्न प्रकार के होते हैं- 🌈 *👉🏻सामाजिक कारक_* सामाजिक व्यवस्था, रहन-सहन,परंपराए, धार्मिक कृत्य, रीति-रिवाज, पारस्परिक अंतः क्रिया और संबंध आदि बहुत से तत्व हैं जो व्यक्ति के शारीरिक,मानसिक, एवं बौद्धिक विकास को किसी न किसी रूप से अवश्य प्रभावित करते है। 🌈 *👉🏻 सांस्कृतिक कारक_* धर्म और संस्कृति व्यक्ति के विकास को गहरे स्तर पर प्रभावित करती हैं। हमारा खान – पान, रहन सहन, पूजा पाठ,संस्कार तथा आचार विचार इत्यादि हमारी संस्कृति के अभिन्न अंग हैं।जिन संस्कृतियों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण समाहित हैं उनका विकास ठीक ढंग से होता है,लेकिन जहां अंधविश्वास और रूढ़िवाद का समावेश है उस समाज का विकास अत्यन्त मन्द गति से होता है। 🌈 *👉🏻भौगोलिक कारक_* व्यक्ति के विकास पर जलवायु का प्रभाव पड़ता हैं। जहां अधिक सर्दी पड़ती है या जहां अधिक गर्मी पड़ती हैं वहां व्यक्ति का विकास एक जैसा नहीं होता है। ठंडे प्रदेशों के व्यक्ति सुन्दर, गोरे, सुडौल,स्वस्थ एवं बुद्धिमान होते हैं। धेर्य भी उनमें अधिक होता हैं।,जबकि गर्म प्रदेश के व्यक्ति काले, चिड़चिड़े तथा आक्रामक स्वभाव के होते हैं। वातावरण या पर्यावरण में वह सभी बाहरी तत्व या शक्ति निहित हैं,जो मां के द्वारा गर्भधान के तुरन्त बाद से ही व्यक्ति विशेष की वृद्धि व विकास को प्रभावित करती हैं। *🌸 वातावरण को दो भागों में बांटा गया है_🌸* 🌈 *१)_जन्म के पहले का वातावरण_* मां जो भी खाती हैं,जो भी सोचती हैं, जो भी अनुभव करती हैं।उन सभी चीजों का प्रभाव गर्भ में पल रहे बच्चे पर पड़ता हैं। 🌈 *२)_जन्म के बाद का वातावरण_* व्यक्ति के विकास को चारों ओर से वातावरण शक्ति प्रभावित करती हैं। जैसे- भोजन, जल, जलवायु,घर, विद्यालय, गांव, शहर, वातावरण ये सभी चीज़े प्रभावित करती हैं। 🌈 *भौतिक सुविधाएं_* जितने भी बाहरी वातावरण है, जैसे भोजन,जल, जलवायु , घर ,विद्यालय, गांव या शहर का वातावरण इत्यादि व्यक्ति के विकास को प्रभावित करती हैं। 🌈 *सामाजिक व सांस्कृतिक सुविधाएं_* माता पिता, परिवार, पड़ोसी, मित्र, सहपाठी, अध्यापक, यातायात, मनोरंजन व धार्मिक इत्यादि । ये जो वातावरण सम्बंधी शक्तियां हैं, ये किसी व्यक्ति को वृद्धि और विकास के सभी पहलु जैसे- शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक, नैतिक, सौंदर्य इन सभी पर पुरा प्रभाव डालती हैं। *📚✍🏻Notes_by* *Manisha sky yadav* *🙏🏻🙏🏻धन्यवाद् 🙏🏻🙏🏻* 🌈💥🔥Heridity and environment🌈💥🔥 🌿🌸बच्चे का विकास केवल अनुवांशिक या केवल वातावरण से संभव नहीं हो सकता है बच्चे का संपूर्ण विकास तभी संभव है जब वातावरण तथा अनुवांशिकता का संपूर्ण योगदान हो।अर्थात बालक का विकास आनुवंशिक और इन्वायरमेंट के साथ अंतः क्रिया करता है 🔥🌿वंशानुक्रम- बच्चे में जो गुण अपने माता-पिता या अपने पूर्वजों से मिलता है उसे वंशानुक्रम कहते हैं। 🌈वंशानुक्रम के संबंध में डगलस व हॉलैंड का स्टेटमेंट आता है। 🌸💥 डगलस व हॉलैंड- इनके अनुसार एक व्यक्ति के वंशानुक्रम में सभी शारीरिक बनावटे, विशेषताएँ, क्रियाएँ ,या क्षमताऐं सम्मिलित रहती है जिनको वह अपने माता- पिता पूर्वजों या प्रजाति से प्राप्त करता है। 🌺🌿वंशानुक्रम का प्रभाव— ➡️ वंश परंपरा ➡️ अनुवांशिकता ➡️ वंशानुक्रम ➡️ पैतृकता 💥🌸वंशानुक्रम का प्रभाव शरीर और मन पर भी पड़ता है विकास की प्रक्रिया का महत्वपूर्ण आधार वंशानुक्रम है 🌈🌸अपंग माता-पिता का बच्चा अपंग होता है यह जरूरी नहीं है 🌈 बहरे मां बाप का बच्चा बहरा हो जरूरी नहीं है 🌺🌈वंशानुक्रम से माता -पिता के बच्चे में गुण आते हैं ,लेकिन जरूरी नहीं है कि किसी प्रकार का दोष या विकार माता -पिता में हो वो बच्चों में ट्रांसफर हो ही जाए। इनका कारण बेहतर प्रशिक्षण और पर्यावरण भी हो सकता है। 💥🌈वातावरण( environment)–वातावरण भी व्यक्ति के जीवन और व्यवहार दोनों को प्रभावित करता है। 🌸🌺वुडवर्थ -इसके अनुसार वातावरण में वे सभी बाहरी तत्व आ जाते हैं जिन्होंने व्यक्ति को जीवन आरंभ करने के समय से प्रभावित किया है 🌈💥एनास्टसी या एनास्तस्की- – इसके अनुसार वातावरण वह हर वस्तु है जो व्यक्ति के जींन्स के अतिरिक्त प्रत्येक वस्तु को प्रभावित करता है। ➡️ भौगोलिक ➡️ सामाजिक ➡️ सांस्कृतिक 🌈💥वातावरण या पर्यावरण में वह सभी बाहरी तत्व या शक्ति निहित है जो मां के द्वारा गर्भधान के तुरंत बाद से ही व्यक्ति विशेष की वृद्धि विकास को प्रभावित करते हैं। 🔥🌈जन्म के पहले का वातावरण– ➡️ माँ जो खाती है, ➡️ माँ जो करती है, ➡️माँ जो सोचती है, ➡️माँ जो अनुभव करती है, इन सभी का प्रभाव बच्चे पर पड़ता है। 🌈🔥भौतिक सुविधा –जन्म के बाद चारों ओर से वातावरण शक्ति प्रभावित करते हैं यानी, जितने भी जन्म के बाद बाहरी चीजें थी। जैसे- भोजन, जल, जलवायु ,घर, विद्यालय ,गांव/शहर या वातावरण यह सभी बच्चों को प्रभावित करते हैं यह सब चीजें आती है। 💥🌈सामाजिक संस्कृतिक– माँ -बाप, परिवार, पड़ोसी, मित्र, सहपाठी, अध्यापक ,यातायात, मनोरंजन ,धार्मिक इत्यादि इनके अंदर आती है। 💥ये जो वातावरण संबंधी शक्तियाँ है यह किसी व्यक्ति या बच्चे की वृद्धि और विकास के सभी पहलू जैसे -शारीरिक, मानसिक ,समाजिक ,संवेगात्मक, नैतिक, सौंदर्य इन सब पर पूरा प्रभाव डालती है। 🌈🔥🌸🙏Notes by -SRIRAM PANJIYARA🌈🔥🌺🌸🙏 “आनुवंशिकता/वंशानुक्रम ” और “वातावरण/पर्यावरण” 🌷🌲 Heredity & Environement 🌷🌲 🌺 अनुवांशिकता या वंशानुक्रम :- जो गुण बच्चों में अपने माता-पिता, पूर्वजों, वंश, परिवार से, जन्म से ही आ जाते हैं , उसे ही वंशानुक्रम या आनुवंशिकता ( Heredity ) कहते हैं। 🌺 डगलस व हॉलैंड के अनुसार :- ” एक व्यक्ति के वंशानुक्रम में वे सभी शारीरिक बनावटें , शारीरिक विशेषताएं , क्रियाएं या क्षमताएं सम्मिलित रहती हैं जिनको वह अपने माता-पिता , पूर्वजों या प्रजाति से प्राप्त करते हैं। ” 🌺 वंशानुक्रम का प्रभाव :- ” वंशानुक्रम का प्रभाव बच्चों के शरीर के साथ साथ मन पर भी दिखता है। ” वंशानुक्रम का प्रभाव निम्नलिखित चार बिंदुओ पर भी दिखता है :- 👉 वंशपरम्परा 👉 आनुवंशिकता 👉 वंशानुक्रम 👉 पैतृकता “विकास की प्रक्रिया का महत्वपूर्ण आधार वंशानुक्रम है।” जैसे बच्चों का विकास वंशानुक्रम पर भी निर्भर करता है। वंशानुक्रम से माता-पिता से बच्चों में गुण आते हैं लेकिन जरूरी नहीं है कि दोष या विकार माता-पिता में है तो दोष या विकार बच्चों में भी स्थानांतरित हो ही जाएं। और ऐसा इसीलिये भी होता है कि इसका कारण बेहतर प्रशिक्षण और पर्यावरण भी हो सकता है। अर्थात यदि बच्चे को बेहतर पर्यावरण और प्रशिक्षण दिया जाये तो उसमें अपने वंशानुक्रम से भिन्न गुण भी आ जाते हैं। 🌺 पर्यावरण या वातावरण ( Environment ) :- जो गुण बच्चों में अपने आस-पास के वातावरण, रहन-सहन आदि से आते हैं उसे ही वातावरणीय गुण (प्रभाव) कहते हैं। अतः वातावरण भी बच्चों (व्यक्ति) के जीवन और व्यवहार दोनों को प्रभावित करता है। 🌺 वुडवर्थ के अनुसार :- ” वातावरण में वे सभी ” बाहरी तत्व ” आ जाते हैं जिन्होंने बच्चे को जीवन आरंभ करने के समय से ही प्रभावित किया है। ” 🌺 एनास्टसी ( अनास्ताक्सि ) के अनुसार :- ” वातावरण वह सब कुछ है जो , व्यक्ति के ” ( जीन Gene ) ” के अतिरिक्त प्रत्येक वस्तु को प्रभावित करता है। ” वातावरण को निम्नलिखित तीन कारक प्रभावित करते हैं :- 👉भौगोलिक 👉सामाजिक 👉सांस्कृतिक ” वातावरण या पर्यावरण में वह सभी बाहरी तत्व या शक्ति निहित हैं जो , मां के द्वारा गर्भाधान से तुरंत बाद से ही बच्चे (व्यक्ति) विशेष की वृद्धि / विकास को प्रभावित करते हैं। ” 🌺 जन्म के पहले का वातावरण :- अर्थात बच्चे के गर्भकाल का वातावरण, अतः बच्चे के जन्म के पहले (गर्भ) का वातावरण भी बच्चे को प्रभावित करता है जैसे :- 👉माँ जो खाती है 👉माँ जो करती है 👉माँ जो सोचती है 👉और माँ जो अनुभव करती है , आदि से माँ के द्वारा भी बच्चा गर्भ में सीखता , प्रभावित होता है। जिसका सर्वमान्य उदाहरण है :- ” अभिमन्यु ” ” अर्थात धनुर्धर अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु ने अपनी माँ के गर्भ में रहते हुए ही चक्रव्यूह भेदन का गुण सीख लिया था। ” ” अर्थात ये सच है कि गर्भाधान के समय एक माँ का बच्चे को जन्म देने के लिए बहुत ही सम्मानीय , सर्वश्रेष्ठ , महत्वपूर्ण और भावनात्मक योगदान होता है। ” 🌺 जन्म के बाद का वातावरण :- जन्म के बाद हमारे चारों ओर का वातावरण , शक्ति एक बच्चे को प्रभावित करती है। जैसे :- 👉भौतिक सुविधायें :- भौतिक सुविधायें मतलब हमारी व्यक्तिगत सुविधायें जो कि बच्चे को प्रभावित करतीं हैं जैसे:- भोजन , पानी , जलवायु , घर, विद्यालय , गांव / शहर, वातावरण आदि । 👉सामाजिक एवं सांस्कृतिक सुविधायें :- एक बच्चे को सामाजिक एवं सांस्कृतिक सुविधायें भी प्रभावित करतीं हैं जैसे :- माता-पिता , परिवार, पड़ोसी , मित्र , सहपाठी, अध्यापक , यातायात, मनोरंजन ,धार्मिकता, रीति रिवाज आदि। ये जो वातावरण संबंधी शक्तियां हैं ये बच्चे की वृद्धि और विकास के सभी पहलुओं जैसे :- शारीरिक, मानसिक , सामाजिक , संवेगात्मक, नैतिक और सौंदर्य इन सब पर भी अपना प्रभाव डालतीं हैं। 🌹✍️🏼जूही श्रीवास्तव 🌹 🔸वंशानुक्रम और वातावरण🔸 ▪️ वंशानुक्रम- वंशानुक्रम का अर्थ वैसे गुण से है जो हमें अपने माता-पिता या पूर्वजों से मिलता है उसे वंशानुक्रम कहते हैं। ✳️ डगलस वा हालैंड के अनुसार वंशानुक्रम की परिभाषा:- एक व्यक्ति के वंशानुक्रम .में सभी शारीरिक बनावट ,शारीरिक विशेषताएं ,क्रियाएं, क्षमताएं सम्मिलित होती हैं जिनको वह अपने माता-पिता पूर्वजों एवं प्रजाति से प्राप्त करते है। ◼️ वंशानुक्रम को अन्य नाम से भी जाना जाता है जो इस प्रकार है:- 1️⃣ वंश परंपरा 2️⃣ अनुवांशिकता 3️⃣ वंशानुक्रम 4️⃣ पैतृकता ✳️ वंशानुक्रम का प्रभाव:- वंशानुक्रम व्यक्ति के शारीरिक सामाजिक एवं मानसिक प्रक्रियाओं को भी प्रभावित करता है वंशानुक्रम का व्यक्ति के हर एक पक्ष का असर पड़ता है। ➖ वंशानुक्रम का प्रभाव बच्चों पर पड़ता है लेकिन ऐसा जरूरी नहीं है कि बच्चे में वही गुण है जो माता-पिता में है बच्चों में उससे कुछ अलग गुण का समावेशन भी हो सकता है। ✳️ वातावरण:- वातावरण में वे सभी वस्तुएं मौजूद हैं जो हमें किसी न किसी रूप में प्रभावित करती है बच्चों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है जिससे भौतिक और अभौतिक वस्तुएं भी शामिल है इसका प्रभाव हर एक व्यक्ति पर पड़ता है। 🔸 वुडवर्थ के अनुसार:- वातावरण में वह सभी बाहरी तत्व आ जाते हैं जिन्होंने व्यक्ति के जीवन आरंभ करने के समय से ही प्रभावित करता है। 🔸एनास्टैसी के अनुसार:- वातावरण में हर वस्तु है जो व्यक्ति के जीवन के अलावा उसे प्रभावित करता है। ⭐ वातावरण संबंधी कारक⭐ ▪️ भौगोलिक ▪️ सामाजिक ▪️ सांस्कृतिक ⭐ भौतिक सुविधाएं⭐ इसके अंतर्गत या प्राकृतिक एवं भौगोलिक परिस्थितियां आती हैं इसके अंतर्गत भोजन जल ,घर, वातावरण, विद्यालय ,गांव, शहर इत्यादि आता है। ⭐ सामाजिक सांस्कृतिक⭐ व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है इसलिए उस पर समाज का प्रभाव अधिक दिखाई देता है समाज में रहने की अलग-अलग परंपराएं होती हैं धार्मिक रीति रिवाज रहन-सहन इसके अंतर्गत अंतः क्रिया और मानव संबंधित ऐसे बहुत से तत्व है जो मनुष्य को शारीरिक मानसिक बौद्धिक विकास में किसी न किसी रूप से प्रभावित करती है। समाज में रहने वाले हर मनुष्य को समाज की जरूरत पड़ती है जहां से उन्हें नैतिक सौंदर्य संवेगात्मक मानसिक शारीरिक जरूरतों को पूरा करना होता है, और इन सभी का प्रभाव उनके पूरे जीवन में पढ़ता रहता है। 🌸🌸Notes by— Abha kumari🌸🌸 🔆 *वृद्धि और विकास के संदर्भ में वंशानुक्रम और वातावरण का प्रभाव* 💫 *वंशानुक्रम*➖ वंशानुक्रम की प्रक्रिया के द्वारा ही माता-पिता एंव पूर्वजों के गुण उनके बच्चों में आते हैं और पीढ़ी हस्तांतरित होते रहते हैं अर्थात वंशानुक्रम की प्रक्रिया पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रहती है इसका अभिप्राय यह है कि बालक का रंग ,रूप ,आकृति, ज्ञान और समझ आदि माता-पिता से मिलती -जुलती रहती है अर्थात बच्चे को उसके शारीरिक गुण माता-पिता से प्राप्त होते हैं या उनके पूर्वजों की जातियों से प्राप्त होते हैं | जैसे यदि माता-पिता शिक्षक है तो बच्चे भी शिक्षक हो यह जरूरी नहीं है या माता-पिता मंदबुद्धि है तो यह आवश्यक नहीं है कि बच्चे भी मंद बुद्धि ही होंगे लेकिन अधिकांश केस में देखा जाता है कि मंदबुद्धि मां-बाप होने पर बच्चे भी मंदबुद्धि ही होते हैं ये सब वंशानुक्रम का प्रभाव है | अर्थात वंशानुक्रम वह प्रक्रिया है जो बच्चे के विकास का एक महत्वपूर्ण आधार है इसके द्वारा ही बच्चे में जो शारीरिक गुण आते हैं वह उसके माता-पिता या पूर्वजों के द्वारा प्राप्त होते हैं | वंशानुक्रम को *वंश, परंपरा, अनुवांशिकता ,वंशानुक्रम, या पैतृकता,* आदि नामों के द्वारा जाना जाता है | वंशानुक्रम के संबंध में *डगलस वा हाॅलेड* ने कहा है कि ” *एक व्यक्ति के वंशानुक्रम में वे सभी शारीरिक बनावट, शारीरिक विशेषताएं, क्रियाएं ,या क्षमताएं, सम्मिलित रहती हैं जिनको वह अपने माता पिता , पूर्वजों या प्रजाति से प्राप्त करता है* |” “विकास की प्रक्रिया का महत्वपूर्ण आधार वंशानुक्रम ही है इसका प्रभाव शरीर और मन पर भी निर्भर करता है विकास का आधार वंशानुक्रम ही है ” | वंशानुक्रम से माता-पिता के अधिकांश गुण बच्चों में आते हैं लेकिन यह जरूरी नहीं है कि वह बच्चों में स्थानांतरित ही हो जाए उसका कारण बेहतर प्रशिक्षण और पर्यावरण भी हो सकता है जैसे अंधे मां बाप हैं तो यह आवश्यक नहीं है कि बच्चे भी अंधे हो या माता-पिता काले हैं तो बच्चे भी काले हो आवश्यक नहीं है बच्चा गोरा और सुडौल भी हो सकता है | 💫 *वातावरण* ➖ बच्चे के विकास में वातावरण भी एक मेजर फैक्टर है जो बच्चे के जीवन और व्यवहार दोनों को प्रभावित करता है बच्चे को जो भी गुण वंशानुक्रम से मिले होते हैं उनका पोषण वातावरण के द्वारा ही होता है | वातावरण के संबंध में *वुडवर्थ* का कथन है कि ” *वातावरण में वे सभी बाहरी तत्व आ जाते हैं जिन्होंने व्यक्ति को जीवन आरंभ करने के समय से प्रभावित किया है*” | *एनास्टसी* के अनुसार *वातावरण वह हर वस्तु है जो व्यक्ति के जीन्स के अतिरिक्त प्रत्येक वस्तु को प्रभावित करता है*”। व्यक्ति को बाहरी चीज भौगोलिक, सामाजिक ,सांस्कृतिक, तीनों चीजें प्रभावित करती है और करती रहती हैं इसमें बच्चा बाहरी दुनिया को अपने नजरिए से देखता है जिससे उसकी रूचि आवश्यकता अलग होती है जो उसके नजरिए पर निर्भर करती है | अर्थात हम कह सकते हैं कि *वातावरण या पर्यावरण में वह सभी बाहरी तत्व या शक्ति निहित है जो मां के द्वारा गर्भधान के तुरंत बाद से ही व्यक्ति विशेष की वृद्धि विकास को प्रभावित करता है* | बच्चे का विकास जन्म के पहले के वातावरण एवं जन्म के बाद के बाद के वातावरण पर पूरे तरीके से निर्भर करता है | *∆ जन्म के पहले का वातावरण* जन्म के पहले का वातावरण मां जो खाती है, मां जो करती है , माँ जो सोचती है ,और मां जो अनुभव करती है आदि इन सभी चीजों पर निर्भर करता है बच्चे के विकास में मां का पूरा योगदान रहता है | *∆जन्म के बाद का वातावरण* जन्म के बाद के वातावरण में बच्चे का विकास दो प्रकार के कारकों पर निर्भर करता हैं * पहला भौतिक कारक *दूसरा सामाजिक कारक 🌸 *भौतिक कारक* ➖ बच्चे के विकास के भौतिक कारक भोजन ,जल पानी , जलवायु ,घर ,विद्यालय, गांव शहर आदि का वातावरण जो बच्चे के विकास को भौतिक रूप में प्रभावित करते हैं | 🌸 *सामाजिक कारक* ➖ बच्चे के सामाजिक कारक जैसे मां-बाप ,परिवार ,पड़ोसी, रिश्तेदार, मित्र ,सहपाठी, अध्यापक, यातायात ,मनोरंजन, धार्मिक ,पुस्तकालय ,क्लब आदि सब बच्चे के विकास को प्रभावित करते हैं | “बच्चे का विकास मां के गर्भ से शुरू होकर जीवन के अंत तक चलता रहता है जिसमें वातावरण और दोनों की बराबर भागीदारी रहती है | इससे कहा जा सकता है कि वंशानुक्रम और वातावरण का गुणनफल ही बच्चे का विकास है | अर्थात यह जो वातावरण संबंधी शक्तियां है व्यक्ति के वृद्धि के जितने भी अलग-अलग या सभी पहलुओं जैसे की पारिवारिक, मानसिक ,सामाजिक ,संवेगात्मक, भौतिक ,सौंदर्य ,इन सब पर पूरा प्रभावित करती है | 𝙉𝙤𝙩𝙚𝙨 𝙗𝙮➖ 𝙍𝙖𝙨𝙝𝙢𝙞 𝙨𝙖𝙫𝙡𝙚 🌻🍀🌺🌸🌸🌸🌸🌸🌺🍀🌻 🍄🌿🍄 *वंशानुक्रम/अनुवांशिकता और वातावरण Heredity & Environment*🍄🌿🍄 🍒 *वंशानुक्रम*➖ जो भी गुण हमें प्राप्त होती वो हमें हमारे माता-पिता/पूर्वजों से मिलती हैं। और ये जन्म के समय से ही पाई जाती है। विकास की प्रक्रिया का महत्वपूर्ण आधार वंशानुक्रम ही है। 🦚According to *डगलस और हालेंड*:- एक व्यक्ति के वंशानुक्रम में वे सभी शारीरिक बनावटे, शारीरिक विशेषताएं, क्रियाएं/क्षमताएं सम्मिलित रहती है, जिनको वह अपने माता-पिता और पूर्वजों/प्रजाति से प्राप्त करते है। 🍓 *Heredity को अन्य नामों से भी जाना जाता है, जो निम्नलिखित है*:- 📍 वंशपरंपरा 📍 अनुवांशिकता 📍 पैतृकता 📍वंशानुक्रम 🌻🍃 *वंशानुक्रम का प्रभावः*-🍃🌻 👉 वंशानुक्रम का प्रभाव दो तरफ़ पड़ता है – 🅰️ शरीर पर 🅱️ मन पर 🌀 वंशानुक्रम हर व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक प्रक्रियाओं को भी प्रभावित करती हैं। बालक शारीरिक रूप से अपने पूर्वजों या माता पिता से लिया होता है। जैसे: रंग – रूप, बोल – चाल, face cut, आँखों का बनावट, ऊँचाई, इत्यादि। 🌀 वंशानुक्रम में बच्चे का मन यानी मानसिक रूप भी कही न कही जुड़े होता है। लेकिन हम बच्चे को अच्छी शिक्षा का माहौल दे कर भी हम उनके माता पिता या पूर्वजों से विपरीत बना सकते हैं। 🌀 वंशानुक्रम से माता- पिता के गुण बच्चों में आते है, लेकिन जरूरी नहीं है कि दोष या विकार माता- पिता में है वो बच्चों में स्थानान्तरण हो ही जाए। इसका कारण बेहतर प्रशिक्षण और पर्यावरण भी हो सकता है। 🌳🍁🌳 *वातावरण/ Environment* 🌳🍁🌳 वातावरण वह बाहरी शक्ति है जो व्यक्ति के जीवन और व्यवहार दोनों को प्रभावित करता है। जो हमारे आस पड़ोस, पेड़ पौधे तथा हमारे जीवन के वास्तविक परिस्थितियों से भी है। वातावरण में वह सभी बाहरी तत्व/शक्ति निहित है, जो माँ के द्वारा गर्भधान के तुरंत बाद से ही व्यक्ति विशेष की वृद्धि /विकास को प्रभावित करता है। 🦕 *According to woodworth*:- “वातावरण में वे सभी बाहरी तत्व आ जाते है, जिन्होने व्यक्ति को जीवन आरंभ करनें के समय से प्रभावित किया है।” 🍀 *According to एनास्तस्की* :- ” वातावरण वह हर वस्तु है जो व्यक्ति के जीन्स के अतिरिक्त प्रत्येक वस्तु को प्रभावित करता है।” 🐋 *वातावरण को दो भागों में बांटा गया है:* 🅰️ *जन्म से पहले का वातावरण* 🎊 जन्म से पहले का वातावरण मतलब, जब शिशु माँ के गर्भ में होता है। अपने माँ के गर्भ में शिशु वो सारे अनुभव करता है, और उसका प्रभाव शिशु पर भी पड़ता है जो माँ करती हैं। जैसे : ▪️माँ जो सोचती है। ▪️माँ जो अनुभव करती हैं। ▪️माँ जो खाती हैं। ▪️माँ जो देखती है। इत्यादि 🅱️ *जन्म के बाद का वातावरण* 🎊 जन्म के बाद का वातावरण मतलब जब शिशु माँ के गर्भ से बाहर आ जाता है/ जन्म ले लिया होता है। जन्म के बाद आस पड़ोस के वातावरण उसे प्रभावित करता है, जैसे :- ▪️भोजन ▪️जल ▪️गाँव ▪️घर ▪️विधालय ▪️जलवायु। इत्यादि 🎀वातावरण से प्रभावित होने वाले सुविधाएं जिससे दो भागों में बांटा गया है:- 🅰️भौतिक सुविधाएं:- 👉 इसमें हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। जैसे : ⚜ भोजन ⚜ जल ⚜ घर ⚜ जलवायु ⚜ विधालय। इत्यादि 🅱️ सामाजिक सुविधाएं:- 👉 समाज का प्रभाव बहुत अधिक पड़ता है, क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। जैसे:- ⚜ माँ -बाप ⚜ परिवार ⚜ पड़ोसी ⚜ मित्र ⚜ अध्यापक ⚜ यातायात ⚜ मनोरंजन। इत्यादि 🌹🍃🌹अंतः हम यह कह सकते हैं कि, “ये जो वातावरण संबंधी शक्तियाँ हैं” व्यक्ति की वृद्धि और विकास के सभी पहलु, शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक, नैतिक, सौंदर्य इन सब पर पूरा प्रभाव पड़ता है।🌹🍃🌹 📚Noted by🪔 Soni Nikku ✍ 🦚🌿🌻🌿🌻Thanku🌿🌻🌿 🦚 🔆 *वंशानुक्रम एवं वातावरण*🔆 विकास का आधार ही वंशानुक्रम व वातावरण ही है अर्थात विकास से जुड़ने वाली कड़ी ही वातावरण व वंशानुक्रम है। 🔅 *वंशानुक्रम/वंश परम्परा/अनुवांशिकता/पैतृकता*➖ ⚜️ डग्लस व हॉलैंड के अनुसार – “एक व्यक्ति के वंशानुक्रम में वे सभी शारीरिक बनावट ,शारीरिक विशेषताएं, क्रियाएं, क्षमताएं सम्मिलित रहते हैं जिनको वह अपने माता-पिता ,पूर्वजों या प्रजाति से प्राप्त करते हैं।” *वंशानुक्रम का प्रभाव*➖ विकास की प्रक्रिया का महत्व पूर्ण आधार ही वंशानुक्रम है और इस को आगे बढ़ाने का कार्य वातावरण पर निर्भर करता है। *वंशानुक्रम का प्रभाव शरीर व मन दोनों पर दिखाई पड़ता है। *शरीर की शारीरिक संरचना में कोई दोष या विकार अनुवांशिकता से आता भी है और कभी नहीं भी। अर्थात यह जरूरी नहीं है कि यदि माता-पिता विकलांग है तो बच्चे भी विकलांग होंगे हो सकता है कि परिवर्तन हो जाए इसके साथ ही माता-पिता की सोच ,विचार या जो समझ या जिस कार्य में रुचि है जरूरी नहीं है कि बच्चे की रूचि, सोच, विचार या समझ भी वैसी ही होगी। *अनुवांशिकता से माता-पिता के गुण बच्चों में स्थानांतरित होते हैं लेकिन यह जरूरी नहीं है कि जो भी कोई दोष या विकार माता-पिता में हो वह बच्चों में भी स्थानांतरित ही हो जाए। यदि स्थानांतरित हो भी गया हो तो ऐसा हो सकता है कि वह पर्यावरण या बेहतर प्रशिक्षण के कारण ऐसा हुआ हो 🔅 *वातावरण*➖ *जब हम किसी भी कार्य को करते हैं तो यह जरूरी नहीं कि वह कार्य हम अनुवांशिकता से ही करें बल्कि यह कार्य उचित प्रशिक्षण या वातावरण से सीखकर भी कर सकते हैं। *वातावरण का प्रभाव* ➖ *वातावरण व्यक्ति के जीवन और व्यवहार दोनों को ही प्रभावित करता है। व्यक्ति का जीवन और व्यवहार वंशानुक्रम से आता है तब वह आगे जाकर उस पर वातावरण का ही प्रकोप या प्रभाव का ही असर होता है। हो सकता है वंशानुक्रम में व्यक्ति का जीवन में व्यवहार कुछ और हो लेकिन वातावरण के संपर्क में आने पर वह कुछ और हो जाए। ⚜️ वुडवर्थ के अनुसार – “वातावरण में भी सभी बाहरी तत्व आ जाते हैं जिन्होंने व्यक्ति को जीवन आरंभ करने के समय से प्रभावित किया है।” ⚜️ एनास्टसी के अनुसार – “वातावरण वह हर वस्तु है जो व्यक्ति की जींस के अतिरिक्त प्रत्येक वस्तु को प्रभावित करता है”। *भौगोलिक ,सामाजिक और सांस्कृतिक तीनों ही व्यक्ति को प्रभावित करती हैं । *हर व्यक्ति का अपना एक अलग अलग नजरिया होता है या सब अपने अपने तरीकों से किसी भी चीज को देखते या किसी भी कार्य को करते हैं। “वातावरणीय पर्यावरण व सभी बाहरी तत्व शक्ति निहित है जो मां के द्वारा गर्भाधान के तुरंत बाद से ही व्यक्ति विशेष की वृद्धि एवं विकास को प्रभावित करते हैं। 🌀 बच्चे का जन्म के पहले का वातावरण – मां के खाने पीने,सोचने,किसी कार्य को करने , अनुभव करती है। वैसा ही वातावरण मां के गर्भ में पल रहे शिशु के विकास व वृद्धि उपर्युक्त सभी बातो पर निर्भर करती हैं या इन सभी वातावरण के द्वारा शिशु का विकास प्रभावित होता है। 🌀बच्चे के जन्म के बाद का वातावरण – *बच्चे का जन्म का पहले का वातावरण पर ही यह निर्भर करता है कि बच्चे का आगे का वातावरण कैसा होगा । जब बच्चे का जन्म हो जाता है तो उसके बाद चारों ओर की वातावरण शक्ति बच्चे को प्रभावित करती है। *बच्चे के विकास को वातावरण के दो कारक प्रभावित करते हैं। *1 भौतिक सुविधाएं* जैसे भोजन, जल, जल वायु ,घर, विद्यालय, गांव, शहर का वातावरण आदि। *2 सामाजिक व सांस्कृतिक* जैसे मां-बाप ,परिवार ,पड़ोसी ,मित्र या सहपाठी, अध्यापक, यातायात, मनोरंजन, रीति रिवाज, धार्मिक कार्य आदि। *यह जो वातावरण संबंधी शक्तियां है वह किसी व्यक्ति के वृद्धि व विकास के सभी पहलुओं जैसे शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक, सामाजिक नैतिक, सौंदर्य इन सभी पर पूरा प्रभाव डालती है। ✍🏻 *Notes By-Vaishali Mishra*

PHYSICALLY HANDICAPPED CHILD notes by India’s top learners

📖 📖 विकलांग बालक 📖 📖 🌻🌿🌻विकलांग बालक ( PHYSICALLY HANDICAPPED CHILD)🌻🌿🌻 🌺 🌺 कुछ बालकों में जन्म से ही शरीर में दोष होता है। या किसी बीमारी, आघात, दुर्घटना या चोट लग जाने के कारण शरीर के किसी अंग में दोष होता है, उसे विकलांगता कहते हैं। 🌿🌺🌿 वह बालक जो कि शारीरिक रूप से सामान्य बालक से भिन्न होते हैं, एवं सामान्य बालक को की तुलना में उनके शरीर में किसी ना किसी प्रकार की अक्षमता पाई जाती है। एवं उनका शरीर हर काम को करने के लिए तत्पर नहीं हो पाता है। उनके शरीर में दोष होता है। उन बालको को विकलांग बालक किस श्रेणी में रखा जाता है।🌿🌺🌿 🌷🌷🌷क्रो व क्रो के अनुसार विकलांग बालक की परिभाषा~ एक व्यक्ति उसमें कोई इस प्रकार का शारीरिक दोष होता है। जो किसी भी रुप में सामान्य क्रियाओं में भाग लेने से रोकता है, या सीमित रखता है। उस विकलांग बालक कहते हैं। 🌻🌷🌻 विकलांग बालक के प्रकार~ विकलांग वाला सामान्तः पांच प्रकार के होते हैं:- 🍂🍃 अपंग~ ऐसे बालक जो शारीरिक रूप से अपंग होते हैं। उन्हें श्रेणी में रखा जाता है। जिसके अंतर्गत लंगड़े, लूले, गूंगे, बहरे एवं अंधे बालक आते हैं। 🍃🍂 दृष्टि दोष~ ऐसे शारीरिक विकार जिससे कि बालक देख नहीं सकता है, उसे देखने में समस्या होती है वह दृष्टि बाधित होता है। इसके अंतर्गत अंधे एवं अर्ध अंधे बालक आते हैं। इन बालकों में दृष्टि एवं देखने संबंधी विकार होते हैं। 🍂🍃 श्रवण संबंधी दोष~ ऐसा विकार जिसमें बालक सुन नहीं सकता है, उसे सुनने संबंधित परेशानियों का सामना करना पड़ता है। उदाहरण के लिए बहरे बालक या अर्धबहरे बालक आते हैं। 🍃🍂 वाक् संबंधी दोष~ ऐसा विकार जिसमें बालक बोल नहीं सकता है, उसे बोलने संबंधी समस्या का सामना करना पड़ता है। इस दोष के कारण बालक में कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। जिसके अंतर्गत हकलाना, तुतलाना, नहीं बोल पाना जिससे कि गूंगापन होता है। 🍂🍃 अत्यधिक कोमल और दुर्बल शरीर~ यह एक ऐसा विकार है, जिसमें बालक बालक में रक्त की कमी एवं शक्ति हीनता और पाचन क्रिया में गड़बड़ी हो जाती है, जिससे कि बालक अधिक ही कमजोर हो जाता है, उसमें दुर्बलता आने लगती है। 🌷🌿🌷 विकलांग बच्चे की शिक्षा🌷🌿🌷 विकलांग बच्चे की शिक्षा सामान्य बालक की शिक्षा शुद्ध होती है। उनकी शिक्षा व्यवस्था के लिए अलग से कुछ प्रयास किए जाते हैं, एवं उनकी शिक्षा व्यवस्था भी अलग होती है। शिक्षा व्यवस्था के अंतर्गत सभी प्रकार के विकलांग बालक की शिक्षा के लिए निम्नलिखित व्यवस्थाएं एवं उन्हें किस प्रकार शिक्षा दी जाए। इसका वर्णन किया गया है~ 🍁🌲🍁 अपंग बालकों की शिक्षा व्यवस्था~ ऐसे बालक जिनमें शारीरिक दोष हो, लेकिन यह आवश्यक नहीं है, कि वह मंदबुद्धि भी हो। अर्थात हम कह सकते हैं, कि जो बालक शारीरिक दोष से पीड़ित होते हैं। वह बालक सीख नहीं सकते या शिक्षित नहीं हो सकते हैं। वह भी शिक्षित हो सकते हैं। और सामान्य बालकों से अधिक शिक्षित होने की क्षमता भी उनमें पाई जाती है। लेकिन इसके लिए उन्हें उचित शिक्षा व्यवस्था की आवश्यकता होती है। यह उचित शिक्षा उन्हें उनके माता-पिता एवं शिक्षक के द्वारा प्रदान की जाती है। उनके शिक्षा में शिक्षक का महत्व पूर्ण योगदान रहता है। अतः प्रयास करने के लिए माता-पिता एवं शिक्षक को महत्वपूर्ण कार्य एवं प्रयास करने होंगे। परंतु इन बालकों में इनकी शारीरिक कमी के कारण हीन भावना जागृत होने लगती है। अपंग बालको की शिक्षा के लिए किस प्रकार की व्यवस्था की जानी चाहिए इसका वर्णन निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से स्पष्ट किया गया है~ 👉🏻 विशिष्ट प्रकार के विद्यालयों को संगठित करें~ इसके अंतर्गत बालकों के लिए विशेष प्रकार के स्कूलों एवं विद्यालयों की व्यवस्था की जानी चाहिए। इसमें बालक अपनी क्षमता एवं अपनी आवश्यकता के अनुसार शिक्षा ग्रहण कर सकता है। यहां बालक को शिक्षित होने के लिए किसी भी प्रकार की समस्या का सामना नहीं करना पड़ता है। यहां सभी बालक समान होते हैं। इससे बालक में हीन भावना भी जागृत नहीं होती है। 👉🏻 उनकी विशेषताओं के हिसाब से कमरे भी उपयुक्त हो~ अगर विशिष्ट विद्यालयों के उपयुक्त नहीं हो सकता है। तो उनके लिए सामान्य विद्यालय में ही उपयुक्त कक्षा या एक उपयुक्त कमरे की व्यवस्था की जानी चाहिए। जिसमें विकलांग अपनी क्षमता के अनुसार शिक्षा ग्रहण कर सके, और उसे कठिनाई का सामना ना करना पड़े। 👉🏻 इन बालकों के लिए उचित प्रकार से बैठने की व्यवस्था होनी चाहिए। ताकि वह परेशानियों का सामना ना करना पड़े, और वह बिना किसी परेशानी के अपनी शिक्षा को प्राप्त कर सके। क्योंकि अगर इन बालक के लिए उचित बैठने की व्यवस्था नहीं होगी। तो वह उनकी शिक्षा में बाधा उत्पन्न करेगा। और वह ठीक प्रकार से शिक्षित नहीं हो पाएगा। 👉🏻 बालक के शारीरिक स्वास्थ्य के लिए हमें यह ध्यान रखना होगा। कि बालक को डॉक्टर या विशेषज्ञ की राय लेने की आवश्यकता तो नहीं है। और अगर संभव हो सके, तो हमें चिकित्सा हेतु साधनों या संसाधनों के इंतजाम भी किए जाने चाहिए। जिससे कि बालक की शारीरिक जांच की जा सके। 👉🏻 विकलांग बच्चों के साथ हमारा व्यवहार उचित होना चाहिए। अगर विकलांग बालक को उचित व्यवहार नहीं मिलेगा, या उसके प्रति किसी भी प्रकार का अलगाव हमारे द्वारा नहीं किया जाना चाहिए।अगर ऐसा बालक को प्रतीत हुआ, तो उस बालक में हीनता की भावना उत्पन्न हो जाएगी। अतः हमें विकलांग बच्चों से सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करना चाहिए। 👉🏻 विकलांग बालक का पाठ्यक्रम~ विकलांग बालक का पाठ्यक्रम सामान्य बालक के पाठ्यक्रम सिद्ध होना चाहिए। सामान्य पाठ्यक्रम को साधारण और कम रखेंगे, लेकिन इन बालक के पाठ्यक्रम में व्यवसायिक पाठ्यक्रम को अवश्य ही जोड़ा जाया जाना चाहिए। जिससे कि बालक अपना स्वयं का कुछ व्यवसाय स्थापित कर सके। उन्हें किसी भी प्रकार की बेरोजगारी का सामना ना करना पड़े। 👉🏻 मानसिक विकास का पूर्ण अवसर देंगे~ हमें विकलांग बालको शिक्षा प्रदान करवानी है, तो हमें उस बालक को मानसिक विकास का पूर्ण अवसर दिया जाना चाहिए। जिससे कि बालक को ऐसा प्रतीत ना हो कि वह आगे नहीं बढ़ सकता है। वह भी आगे बढ़ सकता है। इसके लिए शिक्षक को उसे उचित मानसिक विकास के लिए अवसर प्रदान किए जाने चाहिए। 👉🏻 विकलांग बालक के लिए शिक्षण विधियां~ विकलांग बालक की शिक्षा के लिए शिक्षण विधियां का उचित प्रयोग किया जाना चाहिए। इन बालक की शिक्षण विधियों में सरलता, रोचकता एवं क्रियात्मक ढंग से होना चाहिए। लेकिन इनके लिए शिक्षण विधि की गति धीमी ही होनी चाहिए। अधिक तेज गति से इन्हें नहीं सिखाया जाना चाहिए। अतः इनके लिए शिक्षण विधियो का उचित प्रयोग किया जाना चाहिए। 🍃🍁🍃 उपयुक्त सभी तथ्यों के माध्यम से हम अपंग बालक को उचित शिक्षा प्रदान कर सकते हैं। उसके लिए सरलता एवं सुगमता के साधन उपलब्ध किए जा सकते हैं। इन के माध्यम से वह अपनी शिक्षा की प्राप्ति बिना किसी रूकावट के कर सकता है। 📚 📚 📘 समाप्त 📘 📚 📚 ✍🏻 PRIYANKA AHIRWAR ✍🏻 🙏🌺🌿🌻🌷🙏🌺🌿🌻🌷🙏🌺🌿🌻🌷🙏🌺🌿🌻 ❄

विकलांग बालक ( handicapped child ) ❄ 🌀 विकलांग बालक ➖ कुछ बालकों में जन्म से शरीर में दोष होता है । या किसी बीमारी आघात, दुर्घटना ,या चोट लग जाने पर शरीर के किसी अंगों में दोष होता है उसे विकलांगता कहते हैं । 🌀 *क्रो* & *क्रो* ➖ एक व्यक्ति जिसमें कोई इस प्रकार का शारीरिक दोष होता है जो किसी भी रूप में उसे सामान्य क्रियाओं में भाग लेने से रोकता है या सीमित रखता है हम उसे ही विकलांग व्यक्ति कहते हैं । 🌀 शारीरिक विकलांग बालक( physically challenged child ) के प्रकार ➖ 1 🌀 *अपंग* ➖ इसमें ऐसे बालक आते हैं जो शारीरिक रूप से किसी ना किसी अंग से विकलांग या अक्षम होते हैं किसी किसी कार्य को करने के लिए जैसे कि लगड़े ,लूले, गूंगे बहरे अंधे आदि । 🌀 2 *दृष्टि दोष* ➖ अंधे ,आधा अंधे ( देखने दृश्य संबंधी विकार ) इसमें बालक की दृश्य से संबंधित अक्षमता होती है वह देख नहीं पाता है। 🌀 3 *श्रवण संबंधी दोष* ➖ इसमें बालक को सुनने संबंधी विकार होता है। जैसे- बहरे आधे बहरे। आदि 🌀 4 *वाक् संबंधी विकार*➖ ( दोष युक्त वाणी ) जैसे तुतलाना, हकलाना, गूंगापन या नहीं बोल पाना यह सब वाक् संबंधी विकार हैं । 🌀 5 *अत्यधिक कोमल और दुर्बल* ➖ ऐसा विकार है जिसमें बच्चे की रक्त में कमी हो जाती है। वह शक्तिहीन हो जाता है ।पाचन क्रिया में गड़बड़ी हो जाती हैं। 🔅 विकलांग बच्चे की शिक्षा 🔅 विकलांग बच्चों की शिक्षा निम्नलिखित चरणों में होती है 🌀 *अपंग बालकों की शिक्षा* ➖ शारीरिक दोष हो यह आवश्यक नहीं है , मंदबुद्धि हो सकता है, शारीरिक कमी के कारण भी हीन भावना जागृत हो सकती है । बालकों की बुद्धि लब्धि कम या अधिक हो सकती है इस प्रकार के दोष छात्रों की हड्डियों ग्रंथियों या जोड़ों में होती हैं जो दुर्घटना या बीमारी के कारण उत्पन्न हो जाते हैं । ▪️ विशिष्ट प्रकार के विद्यालय का संगठन करें । ▪️ उनकी विशिष्टता के हिसाब से कमरे भी उपयुक्त हो ताकि उनकी शिक्षा व्यवस्था में किसी भी प्रकार की बाधा उत्पन्न ना हो । ▪️ उचित प्रकार के बैठने की व्यवस्था हो ताकि वे आराम से बैठ सके। ▪️ डॉक्टर या विशेषज्ञ की राय लेते रहें हर संभव चिकित्सा हेतु साधनों का इंतजाम करें। ▪️ विकलांग बच्चों से सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करें ▪️ सामान्य पाठ्यक्रम को साधारण और कम रखेंगे लेकिन व्यवसायिक पाठ्यक्रम पर जोर देंगे । ▪️मानसिक विकास का पूर्ण अवसर देंगे। ▪️ शिक्षण विधि सरल, रोचक क्रियात्मक ढंग धीमी गति से हो। धन्यवाद 📒✍️ notes by Pragya shukla …….. 🌷🦚🌷

*विकलांग बालक🌷🦚* 🌷 🌸🌳🌸 *शारीरिक रूप से विकलांग बालक* 🌸🌳🌸 🌸🌳🌸 *Physically handicapped child 🌸* 🌳🌸 🌳 किसी भी प्रकार की विकलांगता मनुष्य की जन्मजात या जाने के बाद भी हो सकती है।जैसे :- कुछ लोगों में विकलांगता जन्म से ही होती है तथा कुछ लोगों में जन्म के बाद उत्पन्न होती है। 🍁 जैसे कि :- किसी भी दुर्घटना में चोट लग जाना या कारण से तथा किसी भी बीमारी से दुर्घटनाग्रस्त या किसी भी प्रकार आघात हो जाता है। इसे ही विकलांगता कहते हैं। 🌳 विकलांगता वह होता है जब बच्चे शारीरिक व मानसिक रूप से सामान्य बच्चों से भिन्न होते हैं। उन्हें शारीरिक या मानसिक किसी भी प्रकार की अक्षमता पाई जाती है। 🌳 ऐसे बच्चे दिन में शारीरिक रूप से किसी कार्य को करने की अक्षमता पाई जाती है उन्हें शारीरिक रूप से विकलांग बालक कहा जाता है। *🌟 क्रो एवं क्रो के अनुसार :-* 🌷🌷 एक व्यक्ति, उसमें कोई इस प्रकार का शारीरिक दोष होता है जो किसी भी रूप में सामान्य क्रियाओं में भाग लेने से रोकता है या सीमित रखता है उसे विकलांग बालक कहते हैं।🌷🌷 *🌳 शारीरिक विकलांग बालक के प्रकार🌳* 🌟सामान्यत: पांच प्रकार की शारीरिक विकलांग बालक पाए जाते हैं :- 1️⃣ अपंग 2️⃣दृष्टि दोष 3️⃣ श्रवण संबंधी दोष 4️⃣वाक् संबंधी दोष 5️⃣ अत्यधिक कोमल और दुर्बल शरीर 1️⃣ *अपंग :-* 🌸 ऐसे बालक जो शारीरिक रूप से अपंग होते हैं उन्हें इस श्रेणी में रखा जाता है। 🍁जैसे कि :- लंगड़े – लूले,अंधे और बहरे बालक इस श्रेणी में आते हैं। *2️⃣दृष्टि दोष :-* 🌸 ऐसी शारीरिक प्रक्रिया जिसके अंतर्गत बालक को किसी भी चीजों को देखने में समस्या उत्पन्न होती है। जो कि शारीरिक क्रिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है ।उसे भी एक शारीरिक अक्षमता के रूप में देखा जाता है। *3️⃣ श्रवण संबंधी दोष :-* 🌸 ऐसी अक्षमता जिसके अंतर्गत बालक सुन नहीं पाता है।जिससे कि वह अपनी अभिव्यक्ति भी नहीं कर पाता है।क्योंकि जब वह किसी और की प्रतिक्रिया सुनेगा तभी तो अभिव्यक्ति करेगा। इसलिए उसे अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है।इसे श्रवण संबंधी दोष कहते हैं। *4️⃣वाक् संबंधी दोष :-* 🌸 वाक्य संबंधी दोष के अंतर्गत बालकों में बोलने की संबंधी अक्षमता होती है।बालक बोल नहीं पाते हैं जिससे उन्हें अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इसके अंतर्गत अनेक प्रकार की अवधारणाएं पाई जाती हैं। 🍁जैसे कि :- हकलाना,तुतलाना,नहीं बोल पाना अर्थात गूंगापन इत्यादि। 5️⃣ *अत्यधिक कोमल और दुर्बल शरीर* :- 🌸 यह एक प्रकार की ऐसी भी कार है जिसमें पाचन शक्तियों का ठीक नहीं रहने के कारण बालक मैं रक्त की कमी तथा शक्तिहीनता आ जाती है। जिससे कि बालक अत्यधिक कमजोर हो जाता है और उनमें दुर्बलता भी आने लगती है। 🌸🌳🌸 *शारीरिक रूप से विकलांग बालकों की शिक्षा🌸🌳* 🌸 🌳 शारीरिक रूप से विकलांग बालकों को एक अत्यंत महत्वपूर्ण शिक्षण पद्धति द्वारा शिक्षण कार्यक्रम प्रस्तुत किया जाना चाहिए तथा उन्हें सामान्य बालकों को सामान्य बालकों से अलग रखकर उनके लिए एकीकृत शिक्षण का व्यवस्था करना चाहिए जिससे उन्हें शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में रुचि उत्पन्न होता था उनमें हीनता की भावना ना आ पाये। 🌸🌳🌸 *अपंग बालकों की शिक्षा व्यवस्था 🌸* 🌳🌸 🌿 *विशिष्ट प्रकार के विद्यालयों को संगठित करें :-* 🌸 इसके अनुसार विकलांग बालकों को विशिष्ट प्रकार के कार्यों द्वारा प्रोत्साहित किया जाना चाहिए जैसे कि उनके लिए विशेष शिक्षण पद्धति तथा कमरे और लाइटिंग की उचित व्यवस्था भी होनी चाहिए। 🍁 ऐसे बालकों के लिए :- 🌿 विशिष्ट कक्षा 🌿विशिष्ट पाठ्यक्रम 🌿विशिष्ट शिक्षक 🌿 विशिष्ट शिक्षण अधिगम प्रक्रिया तथा अन्य विशिष्ट प्रकार की प्रक्रियाओं की आवश्यकता होती है। 🌿 बालकों की विशेषताओं के अनुसार कमरों की भी उपयुक्त व्यवस्था होनी चाहिए :- 🌸 बालकों की विशेषताओं के अनुसार उनके लिए उपयुक्त व साफ-सुथरी कमरों की व्यवस्था भी होनी चाहिए ताकि विकलांग बच्चे भी सामान्यता पूर्वक अपने शिक्षण अधिगम प्रक्रिया सफल कर सके तथा उन्हें किसी भी प्रकार की कठिनाईयों का अनुभव ना हो। 🌿 बालकों के बैठने के लिए भी उचित व्यवस्था होनी चाहिए ताकि उन्हें किसी भी प्रकार की परेशानियों का सामना ना करना पड़े :- 🌸 विकलांग बालकों के बैठने के लिए भी उचित व्यवस्था होनी चाहिए ताकि उन्हें किसी प्रकार की परेशानियों का सामना ना करना पड़े तथा उन्हें अपने सम वयस्क साथियों के साथ बैठाना चाहिए तभी उनके साथ सहयोगात्मक अधिगम विकसित कर सकें। 🌿 बालकों का शारीरिक रूप से भी चिकित्सा या उपचार समय-समय पर करवाते रहना चाहिए :- 🌸 इस प्रकार के विकलांग बालकों की समय-समय पर शारीरिक रूप से या चिकित्सक उपचार कराते रहना चाहिए जिससे उनमें किसी भी प्रकार की बाधा उत्पन्न ना हो और वे सावधानी पूर्वक अपने कार्यों का निष्पादन कर सकें। 🌿 ऐसी बालकों के साथ उचित रूप से व्यवहार भी किया जाना चाहिए तथा उन्हें उचित माध्यम में उपलब्ध कराना चाहिए :- 🌸 ऐसे बालकों के साथ ही भी सहानुभूति पूर्ण तथा उचित रूप से व्यवहार किया जाना चाहिए जिससे इन्हें किसी भी प्रकार की परेशानियों का अनुभव ना हो और अपने शिक्षण अधिगम प्रक्रिया या हर एक कार्य में रुचि ले सके तथा अपने कार्यों में सफलता प्राप्त करें। 🦚🌟🦚 विकलांग बालकों का पाठ्यक्रम🦚🌟🦚 🌷🌷 विकलांग बालकों का पाठ्यक्रम भी सामान्य वालों को के पाठ्यक्रम के सामान हीं होना चाहिए। हमें इनके पाठ्यक्रम को सामान्य और साधारण तथा कम रखना चाहिए।इसमें किसी भी प्रकार का भेदभाव या ऊंच-नीच नहीं होनी चाहिए। जिससे कि यह भी अपने व्यवसाय की स्थापना कर सके तथा इन्हें बेरोजगारी की परेशानी का सामना ना करना पड़े। 🌿मानसिक विकास का पूर्ण अवसर देंगे :- 🌸 हमें विकलांग बच्चों को शिक्षा प्रदान करना है तो उन्हें मानसिक रूप से विकास करने का भी पूर्ण अवश्य देना चाहिए उन्हें कक्षा की हर एक प्रकार की गतिविधियों,प्रतियोगिता,वाद-विवाद या अन्य प्रक्रियाओंं में भाग लेने का समान रूप से अधिकार दिया जाना चाहिए। जिससे कि बालक को अपनी अभिव्यक्ति का अवसर मिले और उन्हें ऐसा प्रतीत ना हो कि हमारे शिक्षण में कुछ कमी रह गई है और वे आगे की तरफ अग्रसर हो सकें। 🌿 विकलांग बालकों के लिए विशिष्ट शिक्षण विधियां :- 🌸 जैसा कि हम जानते हैं कि बालकों को शिक्षण प्रक्रिया के लिए उनके लिए रोचक,क्रियात्मक तथा सरल शिक्षण विधियों का प्रयोग करना चाहिए जिससे भी पढ़ाई में रुचि और प्रेरणा ले सकें। हमें बच्चों को ऐसी शिक्षण देनी चाहिए जो कि बच्चों पर बोझ ना लगे। इन्हें एक धीमी शिक्षण गतिविधि द्वारा पढ़ाई जानी चाहिए तथा तीव्र गति से शिक्षण नहीं कराना चाहिए। अत: इनके लिए उचित शिक्षण विधियों का विशिष्ट रूप से प्रयोग किया जाना चाहिए। 🍁🦚🍁 उपर्युक्त सभी तथ्यों और अवधारणाओं के माध्यम से हमें यह ज्ञात हुआ कि रोचकता सरलता क्रियात्मक प्रायोगिक तथा सुगम शिक्षण प्रक्रियाओं द्वारा शिक्षण प्रदान की जानी चाहिए जिससे उन्हें अपने शिक्षण में कठिनाइयों का अनुभव ना हो और वे सरलता पूर्वक शिक्षण ग्रहण कर सकें🍁🦚🍁 🌟🌟समाप्त 🌟🌟 🌷🌷Notes by :- Neha Kumari 😊 🙏🙏धन्यवाद् 🙏🙏 🦚🌿🌷🌿🌷🌿🌷🌿🦚 📚🪔📚

*विकलांग बालक*📚🪔📚 *(Physically handicapped child )* 🌀कुछ बालकों में जन्म से ही शरीर में दोष होता है या किसी बीमारी, आघात, दुर्घटना या चोट लग जाने पर शरीर के किसी अंग में दोष होता है उसे विकलांगता कहते हैं🌀 💠 *विकलांग बालकों से तात्पर्य*➖ 🌺 विकलांग बालकों से तात्पर्य उन बालकों से है जो मानसिक, शारीरिक या संवेगात्मक दृष्टि से दोष युक्त होते हैं इस प्रकार के बालकों में सामान्य बालको की तुलना में शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक या सामाजिक विकास में कमी या दोष होता है जिसके कारण उन्हें अधिगम में कठिनाई होती है एवं इसका प्रतिकूल प्रभाव उनकी उपलब्धियों पर पड़ता है विकलांग बालक कहलाते हैं।🌺🌺🌺 *विकलांग बालक की परिभाषा* 💠🪔💠 *क्रो एंड क्रो के अनुसार* 💠🪔💠➖”एक व्यक्ति जिसमें कोई इस प्रकार का शारीरिक दोष होता है जो किसी भी रूप में उसे सामान्य क्रियाओं में भाग लेने से रोकता है या सीमित रखता है हम उसे विकलांग व्यक्ति कहते हैं।” 🍃🍂 *शारीरिक रूप से विकलांग बालक के प्रकार*🍃🍂 ‌ बालकों के अधिगम एवं शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ेपन के कारण शारीरिक विकलांगता भी हो सकती है शारीरिक रूप से विकलांग बालको को निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है➖ 🌀 *अपंग* 🌀 *दृष्टि दोष* 🌀 *श्रवण संबंधी दोष* 🌀 *वाक् संबंधी विकार* 🌀 *अत्यधिक कोमल और दुर्बल* 👉🏻 *अपंग* ➖ इसके अंतर्गत ऐसे बालक आते हैं जो शारीरिक रूप से किसी ना किसी अंग से विकलांगता या अक्षमता दर्शाते हैं। *(जैसे लंगड़े ,लूले, गूंगे ,बहरे ,अंधे इत्यादि)* 👉🏻 *दृष्टि दोष*➖ इसके अंतर्गत वे बालक आते हैं जो देख नहीं पाते हैं या जिनकी दृष्टि कमजोर होती है। *(जैसे अंधे , आधे अंधे)* इन बालकों में देखने या दृश्य संबंधी विकार होता है। 👉🏻 *श्रवण संबंधी दोष*➖ इसके अंतर्गत वे बालक आते हैं जो सुन नहीं सकते या कम सुनते हैं या सुनने में विकार या कठिनाई होती है । *( जैसे बहरे, आधे बहरे )* 👉🏻 *वाक संबंधी विकार*➖ इसके अंतर्गत वे बालक आते हैं जो बोल नहीं पाते हैं या जिनकी दोष युक्त वाणी होती है ऐसे बालको में बोलने से संबंधित समस्या होती है। *(जैसे हकलाना, तुतलाना, गूंगा , नहीं बोल पाना)* 👉🏻 *अत्यधिक कोमल और दुर्बल*➖ यह एक ऐसा विकार होता है जिसमें बालक में रक्त की कमी, शक्तिहीनता, पाचन क्रिया में गड़बड़ी होती है जिससे कि बालक अत्यधिक कमजोर हो जाता है और उसके शरीर में भी दुर्बलता आ जाती है। 💠🌀💠 *विकलांग बालकों की शिक्षा*💠🌀💠 शिक्षा की दृष्टि से शारीरिक विकलांग बालक वे बालक हैं जिनके शरीर को कोई अंग अथवा ज्ञानेंद्रियां इतनी असमान्य होती है कि उसके कारण उन्हें शिक्षा प्राप्त करने एवं समायोजन करने में विशेष कठिनाई होती है उदाहरणस्वरूप दृष्टिबाधित, श्रवण बाधित, मूक कहलाने वाले बालक। इसीलिए बालक की शारीरिक विकलांगता के अनुरूप ही शिक्षा की व्यवस्था की जाती है➖ 1️⃣ *अपंग बालकों की शिक्षा* ➖ यदि किसी बालक को शारीरिक दोष है तो यह आवश्यक नहीं है कि वह बालक की मंद बुद्धि हो। शारीरिक कमी के कारण हीन भावना जागृत हो सकती है इसीलिए इन बालको को इनके स्वरूप ही शिक्षा देकर इन के हीन भावना को समाप्त किया जाना चाहिए➖ 📚 विशिष्ट प्रकार के विद्यालय का संगठन करें। 📚 उसकी विशिष्टता के हिसाब से कमरे भी उपयुक्त हो। 📚 उचित प्रकार के बैठने की व्यवस्था हो ताकि वे आराम पूर्वक बैठ सकें 📚 कक्षा में फर्नीचर भी उनके उपयुक्त होनी चाहिए। 📚 डॉक्टर या विशेषज्ञ की राय लेते रहे, हर संभव चिकित्सा हेतु साधनों का इंतजाम करें। 📚 विकलांग बच्चों से सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करें। 📚 सामान्य पाठ्यक्रम को साधारण और कम रखेंगे लेकिन व्यवसायिक पाठ्यक्रम पर जोर देंगे जिससे वे अपना जीवन यापन कर सके। 📚 मानसिक विकास का पूर्ण अवसर देंगे 📚 शिक्षण विधि सरल ,रोचक क्रियात्मक होनी चाहिए और धीमी गति से हो। 📚 शारीरिक दोष के अनुसार उनके बैठने के लिए कुर्सी मेज की व्यवस्था होनी चाहिए। उपरोक्त तथ्यों से यह निष्कर्ष निकलता है कि हाल ही में शारीरिक रूप से विकलांग एवं विभिन्न प्रकार से अक्षम बच्चों के प्रति व्याप्त धारणाओं में कुछ परिवर्तन आया है इसलिए विकलांगों की बीमारी का सही समय पर पहचान कर लिया जाए और उनके बचाव के लिए मदद दी जाए एवं उपकरण की सुविधा और शिक्षा व्यवसायिक प्रशिक्षण ,रोजगार के अवसर की सुविधाएं उपलब्ध कराई जानी चाहिए जिससे वे सामान्य जीवन जी सकते हैं। 🍂🍃 समाप्त🍃🍂 ✍🏻✍🏻Notes by Manisha gupta✍🏻✍🏻 📚📚📚📚📚📚📚📚📚📚📚📚📚📚 ⛲

*विकलांग बालक ( Physically Handicapped)*⛲ 🌀 *विकलांग बालक:-* कुछ बालक में जन्म से उनके शरीर में दोष होता है या किसी बीमारी, आघात,दुर्घटना या चोट लग जाने पर शरीर के किसी अंगों में दोष होता है,तो उसे विकलांगता कहते हैं। ऐसे बालक जिनका शारीरिक रूप से उनकी मांसपेशियों में, अस्थियों में व जोड़ों में किसी प्रकार का विकार, दोष या किसी अंग से ग्रसित है ,तो उन्हें विकलांग बालक कहा जाता है । 🌀 *क्रो एवं क्रो के अनुसार:-* “एक व्यक्ति जिसमें कोई इस प्रकार का शारीरिक दोष होता है, जो किसी भी रूप में उसे सामान्य क्रियाओं में भाग लेने से रोकता है या सीमित करता है तो उससे हम विकलांग कहते हैं”। 🌀 *शारीरिक विकलांग बालक के प्रकार:-* शारीरिक रूप से विकलांग बालक को पांच श्रेणी में बांटा गया है, जो इस प्रकार है– *१. अपंग* *२. दृष्टि दोष* *३. श्रवण शक्ति विकार* *४. वाक् संबंधी विकार* *५. अत्यधिक कोमल और दुर्बल* 💠 *अपंग :-* इसके अंतर्गत ऐसे बालक आते हैं जो शारीरिक रूप से अंधे ,बहरे ,गूंगे ,लंगड़े, लूले, तथा पैर से अपंग या अपाहिज होते हैं। 💠 *दृष्टि दोष:-* ऐसे बालक जो आंख से अंधे, अर्ध–अंधे तथा जिनको देखने या दृश्य संबंधित विकार है ,तो वह दृष्टि दोष के अंतर्गत आएंगे । 💠 *श्रवण शक्ति विकार:-* ऐसे बालक जिनको कान से सुनाई नहीं पड़ता या पूर्ण रूप से बहरे होते हैं तो उनमें संबंधित विकार होता है। 💠 *वाक् संबंधी विकार:-*वाक् संबंधी विकार के अंतर्गत बालक में हकलाना, तुतलाना , गूंगापन या दोष युक्त वाणी का विकार पाया जाता है। 💠 *अत्यधिक कोमल और दुर्बल शरीर:-* इसमें बालक के शरीर में रक्त की कमी, शक्तिहीन, कम वजन , पाचन तंत्र की क्रिया में गड़बड़ी हो जाती है, जिसके कारण बालक का शरीर अत्यधिक कोमल और दुर्बल हो जाता है। 🌀 *विकलांग बालक की शिक्षा:-* विकलांग बालक की शिक्षा तथा उनकी व्यवस्थाओं को ध्यान में रखते हुए ऐसे बालक को निम्न प्रकार से शिक्षा दी जाती है– 💠 *१. अपंग बालकों की शिक्षा:-* अपंग बालकों में शारीरिक रूप से उनमें कुछ दोष होते हैं, लेकिन यह आवश्यक नहीं कि वह मंदबुद्धि हो तथा इनमें शारीरिक कमी के कारण हीन भावना जागृत हो सकती है इसीलिए ऐसे बालकों की शिक्षा का स्वरूप विशिष्ट प्रकार से तैयार किया जाना चाहिए, जो निम्नलिखित है– ⛲ विशिष्ट प्रकार के विद्यालय का संगठन करें। ⛲ उनकी विशिष्टता के हिसाब से कमरे भी उपर्युक्त हो। ⛲ उचित प्रकार से बैठने की व्यवस्था हो जिससे उन्हें कोई दिक्कत महसूस न हो। ⛲ समय-समय पर डॉक्टर या विशेषज्ञ की राय लेते रहे हर संभव चिकित्सा हेतु साधनों का इंतजाम करें । ⛲ कक्षा में फर्नीचरो की उपयुक्त व्यवस्था हो। ⛲ बच्चे से सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करेंगे, जिससे बच्चे में हीन भावना उत्पन्न न हो सके। ⛲ सामान्य पाठ्यक्रम को साधारण और कम रखेंगे लेकिन व्यवस्था एक पाठ्यक्रम पर जोर देंगे जिससे से अपने जीवन में आत्म निर्भर होकर तथा आगे बढ़ सके। ⛲ मानसिक विकास का और सर देंगे जिससे बच्चा अपने मानसिकता को बढ़ाकर जीवन में आगे बढ़ सकेगा। ⛲ शिक्षण विधि सरल ,रोचक, क्रियात्मक ढंग से हो तथा धीमी गति से हो। ⛲ प्रत्येक बच्चे को सामान शिक्षा देनी चाहिए तथा उनकी विकलांगता के कारण उन्हें पीछे नहीं छोड़ा जाना चाहिए। ✍🏻 *Notes by –Pooja* 🔅🔅

विकलांग बालक🔅🔅 🌟 कुछ बालकों में जन्म से ही शरीर में दोष होता है। या किसी बीमारी, आघात, दुर्घटना या चोट लग जाने के कारण शरीर के किसी अंग में दोष होता है, उसे विकलांगता कहते हैं। 🌟 वह बालक जो कि शारीरिक रूप से सामान्य बालक से भिन्न होते हैं, एवं सामान्य बालक की तुलना में उनके शरीर में किसी ना किसी प्रकार की अक्षमता पाई जाती है। एवं उनका शरीर हर काम को करने के लिए तत्पर नहीं रहता है। ऐसे बालक किसी कार्य को करने के लिए किसी दूसरे व्यक्ति पर निर्भर रहते हैं। ✨ *क्रो व क्रो के अनुसार* एक व्यक्ति उसमें कोई इस प्रकार का शारीरिक दोष होता है। जो किसी भी रुप में सामान्य क्रियाओं में भाग लेने से रोकता है, या सीमित रखता है। उसे विकलांग बालक कहते हैं। 🌟 विकलांग बालक के प्रकार:- विकलांग वाला सामान्यतः पांच प्रकार के होते हैं:- 💫अपंग:- ऐसे बालक जो शारीरिक रूप से अपंग होते हैं। उन्हें इस श्रेणी में रखा जाता है। जिसके अंतर्गत लंगड़े, लूले, गूंगे, बहरे एवं अंधे बालक आते हैं। 💫 दृष्टि दोष:- ऐसे शारीरिक विकार जिससे कि बालक देख नहीं सकता है, उसे देखने में समस्या होती है वह दृष्टि बाधित होता है। इसके अंतर्गत अंधे एवं अर्ध अंधे बालक आते हैं। इन बालकों में दृष्टि एवं देखने संबंधी विकार होते हैं। 💫 श्रवण संबंधी दोष:- ऐसा विकार जिसमें बालक सुन नहीं सकता है, उसे सुनने संबंधित परेशानियों का सामना करना पड़ता है। उदाहरण के लिए बहरे बालक या अर्धबहरे बालक आते हैं। 💫 वाक् संबंधी दोष:- ऐसा विकार जिसमें बालक बोल नहीं सकता है, उसे बोलने संबंधी समस्या का सामना करना पड़ता है। इस दोष के कारण बालक में कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। जिसके अंतर्गत हकलाना, तुतलाना, नहीं बोल पाना जिससे कि गूंगापन होता है। 💫अत्यधिक कोमल और दुर्बल शरीर:- यह एक ऐसा विकार है, जिसमें बालक बालक में रक्त की कमी एवं शक्ति हीनता और पाचन क्रिया में गड़बड़ी हो जाती है, जिससे कि बालक अधिक ही कमजोर हो जाता है, उसमें दुर्बलता आने लगती है। 🌟विकलांग बच्चे की शिक्षा 💫विकलांग बच्चे की शिक्षा सामान्य बालक की शिक्षा शुद्ध होती है। उनकीशिक्षा व्यवस्था के लिए अलग से कुछ प्रयास किए जाते हैं, एवं उनकी शिक्षा व्यवस्था भी अलग होती है। शिक्षा व्यवस्था के अंतर्गत सभी प्रकार के विकलांग बालक की शिक्षा के लिए निम्नलिखित व्यवस्थाएं एवं उन्हें किस प्रकार शिक्षा दी जाए। इसका वर्णन किया गया है~ 💫 अपंग बालकों की शिक्षा व्यवस्था:- ऐसे बालक जिनमें शारीरिक दोष हो, लेकिन यह आवश्यक नहीं है, कि वह मंदबुद्धि भी हो। हम ऐसा नहीं कह सकते हैं कि जो बालक शारीरिक दोष से पीड़ित होते हैं। वह बालक सीख नहीं सकते या शिक्षित नहीं हो सकते हैं। वह भी शिक्षित हो सकते हैं। और सामान्य बालकों से अधिक शिक्षित होने की क्षमता भी उनमें पाई जाती है। लेकिन इसके लिए उन्हें उचित शिक्षा व्यवस्था की आवश्यकता होती है। यह उचित शिक्षा उन्हें उनके माता-पिता एवं शिक्षक के द्वारा प्रदान की जाती है। उनके शिक्षा में शिक्षक का महत्व पूर्ण योगदान रहता है। अतः प्रयास करने के लिए माता-पिता एवं शिक्षक को महत्वपूर्ण कार्य एवं प्रयास करने होंगे। परंतु इन बालकों में इनकी शारीरिक कमी के कारण हीन भावना जागृत होने लगती है अपंग बालको की शिक्षा के लिए किस प्रकार की व्यवस्था की जानी चाहिए यह निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से स्पष्ट कि जा सकती है:- 💫विशिष्ट प्रकार के विद्यालयों को संगठित करें:- इसके अंतर्गत बालकों के लिए विशेष प्रकार के स्कूलों की व्यवस्था की जानी चाहिए। इसमें बालक अपनी क्षमता एवं अपनी आवश्यकता के अनुसार शिक्षा ग्रहण कर सकता है। यहां बालक को शिक्षित होने के लिए किसी भी प्रकार की समस्या का सामना नहीं करना पड़ता है। यहां सभी बालक समान होते हैं। इससे बालक में हीन भावना जागृत नहीं होती है। 💫 विशिष्ट कमरे की व्यवस्था हो:- अगर विशिष्ट विद्यालयों नहीं हो सकता है। तो उनके लिए सामान्य विद्यालय में ही विशिष्ट कक्षा या एक विशिष्ट कमरे की व्यवस्था की जानी चाहिए। जिसमें विकलांग बालक अपनी क्षमता के अनुसार शिक्षा ग्रहण कर सके और उसे समस्याओं का सामना ना करना पड़े। 💫 बैठने की उत्तम व्यवस्था:-इन बालकों के लिए उचित प्रकार से बैठने की व्यवस्था होनी चाहिए। ताकि वह परेशानियों का सामना ना करना पड़े, और वह बिना किसी परेशानी के अपनी शिक्षा को प्राप्त कर सके। क्योंकि अगर इन बालक के लिए उचित बैठने की व्यवस्था नहीं होगी। तो वह उनकी शिक्षा में बाधा उत्पन्न करेगा। और वह ठीक प्रकार से शिक्षित नहीं हो पाएगा। 💫 समय-समय पर चिकित्सक से परामर्श:-बालक के शारीरिक स्वास्थ्य के लिए हमें यह ध्यान रखना होगा। कि बालक को डॉक्टर या विशेषज्ञ की राय लेने की आवश्यकता है तो उसे डॉक्टर या चिकित्सक से परामर्श लें। 💫 बालों के साथ उचित व्यवहार:- विकलांग बच्चों के साथ हमारा व्यवहार उचित होना चाहिए। अगर विकलांग बालक को उचित व्यवहार नहीं मिलेगा, या उसके प्रति किसी भी प्रकार का अलग वव्याहर हमारे द्वारा नहीं किया जाना चाहिए अगर ऐसा बालक को लगने लगता है तो उस बालक में हीनता की भावना उत्पन्न हो जाएगी। अतः हमें विकलांग बच्चों से सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करना चाहिए। 💫 विकलांग बालक का पाठ्यक्रम:- विकलांग बालक का पाठ्यक्रम सामान्य बालक के पाठ्यक्रम से सरल सहज होना चाहिए। सामान्य पाठ्यक्रम को साधारण और कम रखेंगे, लेकिन इन बालक के पाठ्यक्रम में व्यवसायिक पाठ्यक्रम को अवश्य ही जोड़ा जाया जाना चाहिए। जिससे कि बालक अपना स्वयं का कुछ व्यवसाय स्थापित कर सके। उन्हें किसी भी प्रकार की बेरोजगारी का सामना ना करना पड़े। 💫 मानसिक विकास का पूर्ण अवसर देंगे:- हमें विकलांग बालको को शिक्षा देना है तो हमें उस बालक को मानसिक विकास का पूर्ण अवसर देना चाहिए। जिससे कि बालक को ऐसा ना लगे कि वह आगे नहीं बढ़ सकता है। वह भी आगे बढ़ सकता है। इसके लिए शिक्षक के द्वारा उसे उचित मानसिक विकास के लिए अवसर प्रदान किए जाने चाहिए। 💫 विकलांग बालक के लिए शिक्षण विधियां:- विकलांग बालक की शिक्षा के लिए शिक्षण विधियां का उचित प्रयोग किया जाना चाहिए। इन बालक की शिक्षण विधियों में सरलता, रोचकता एवं क्रियात्मक ढंग से होना चाहिए। लेकिन इनके लिए शिक्षण विधि की गति धीमी होनी चाहिए। तेज गति से इन्हें नहीं सिखाया जाना चाहिए। अतः इनके लिए शिक्षण विधियो का उचित प्रयोग किया जाना चाहिए। 💫 इन सभीके माध्यम से हम अपंग बालक को उचित शिक्षा प्रदान कर सकते हैं। उसके लिए सरलता एवं सुगमता से साधन उपलब्ध किए जा सकते हैं। इन के माध्यम से वह अपनी शिक्षा की प्राप्ति बिना किसी रूकावट के कर सकता है। 🥳🥳Notes by-Raziya khan🥳🥳 💠

विकलांग बालक💠 विकलांग बालक ➡️सरल रूप से विकलांग बालक होते हैं जिनमें कोई शारीरिक त्रुटि होती है और वह त्रुटि उनके कामकाज में किसी न किसी प्रकार की बाधा डालती है यह त्रुटि अधिक भी हो सकती है और कम भी 🌺🌺 क्रो व क्रो➡️। ऐसे बालक जिनमें ऐसे सारे दोष होते हैं जो किसी भी रूप में उसे साधारण क्रियाओं में भाग लेने से रोकते हैं यस उसे सीमित रखते हैं ऐसे बालकों को हम विकलांग बालक कहते हैं। 🌺 विकलांग बालक के 5 प्रकार है🌺। 1-अपंग। 2-दृष्टि दोष। 3-श्रवण शक्ति संबंधी विकार। 4-अत्यधिक कोमल और दुर्बल। 5-वाक् संबंधी विकार 🌺 अपंग➡️ इसमें ऐसे बालक आते हैं जो शारीरिक रूप से अंग से विकलांग होते हैं जैसे लंगड़े, लूले ,गूंगे ,बहरे ,अंधे 🌺 दृष्टि दोष ➡️इसमें ऐसे बाला कहते हैं जो सामान्य पुस्तक को नहीं पढ़ सकते उन्हें पढ़ने के लिए किसी सहायक सामग्री की आवश्यकता पड़ती है अनिल दृष्टिहीन छात्रों के लिए पढ़ने के लिए उभरी हुई अक्षरों की छपाई बहुत सहायक होती है। 🌺 श्रवण शक्ति संबंधी विकार➡️ इसमें ऐसे बच्चे आते हैं सुनने संबंधी समस्या पाई जाती है 🌺 अत्यधिक कोमल और दुर्बल➡️ ऐसा भी विकार है जिस में रक्त की कमी हो जाती है वह शक्ति हीन हो जाता है और पाचन क्रिया गड़बड़ रहती है। 🌺वाक् संबंधी विकार➡️ इसमें बच्चा हकलाने तुतलाने गूंगा पन जैसी समस्या सामने आती है वह स्पष्ट रूप से किसी भी शब्द को बोल नहीं पाता है। 🌺🌺 विकलांग बच्चों की शिक्षा🌺🌺। विकलांग बालक की शिक्षा तथा उनकी व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए ऐसे बालक कोडिंग प्रकार से शिक्षा दी जाती है-। 1-अपंग बालकों की शिक्षा ➡️अपन छात्रों में सर्प दोष होने के कारण वह अपने शरीर के विभिन्न अंगों का सामान प्रयोग नहीं कर सकते हैं और यही दोस्त उनके कार्य में बाधा डालते हैं ऐसे छात्रों की शिक्षा के लिए निम्नलिखित विशेष प्रबंध किए जाते हैं। 🌺 विशेष प्रकार के विद्यालय का संगठन किया जाता है। 🌺 उनकी विशेषताओं के हिसाब से कमरे भी उपयुक्त हो 🌺 उच्च प्रकार से बैठने की व्यवस्था की जाती है 🌺 डॉक्टर या विशेषज्ञ की सलाह लेते रहे हर संभव चिकित्सा हेतु साधनों का इंतजाम करें। 🌺उन्हें विशेष व्यवस्थाओं का प्रशिक्षण भी मिलना चाहिए ताकि वह दूसरों पर बोझ ना बन सके। 🌺 विकलांग बच्चों से सहानुभूति पूर्वक व्यवहार करना चाहिए ताकि उनमें हीन भावना ना आ सके। 🌺 मानसिक विकास का पूर्ण अवसर देंगे 🌺शिक्षण विधि सरल, रोचक, क्रियात्मक ढंग से धीमी गति से करेंगे notes by – Sakshi Sharma ⭐🍁⭐🍁 विकलांग बालक🍁⭐🍁⭐🍁 बच्चों में जन्म से ही शारीरिक दोष होता है या किसी बच्चे को जन्म के बाद बीमारी आघात या दुर्घटना से चोट लगने पर शारीरिक रूप से अंग में दोष होता है उसे हम विकलांगता कहते हैं वह बालक जो सामान्य बालक से भिन्न होते हैं एवं सामान्य बालक की तुलना में शरीर में किसी न किसी प्रकार की अक्षमता पाई जाती है एवं उनका शरीर किसी भी काम को करने में तत्पर नहीं होता है वह बालक विकलांग बालक की श्रेणी में आते हैं 🌈 क्रो एंड क्रो के अनुसार:- एक व्यक्ति में उसमें कोई एक प्रकार का शारीरिक दोष होता है जो किसी भी रूप में सामान्य क्रिया मैं भाग लेने में रुकता है या सीमित रखता है उसे विकलांग बालक कहते हैं 🌺⭐🌺 विकलांग बालक के प्रकार 🎯 अपंग:- ऐसी बालक जो शारीरिक रूप से अपंग होते हैं जिसके अंतर्गत लंगड़े लूले गूंगे बहरे एवं अंधे बालक आते हैहै 🎯 दृष्टि दोष :- ऐसी शारीरिक दोष जिसमें की बालक सही तरीका से देख नहीं सकता है उसे देखने में समस्या होती है वह दृष्टि बाधित बालक होते हैं इसके अंतर्गत अंधे एवं अर्ध अंधे बालक आते हैं जिन्हें कम दिखाई देता है अर्ध अंधी बालक होते हैं और जिन्हें बिल्कुल नहीं दिखाई देता है अंधे बालक होते हैं 🎯 श्रवण संबंधी दोष:- ऐसी बालक जिन्हें सुनने संबंधी समस्या होती है उन्हें श्रवण संबंधी दोष होता है इसके अंतर्गत बहरे बालक या अर्ध बहरी बालक आते हैं 🎯 वाक् संबंधी दोष:– ऐसा विकार जिसमें बालक बोल नहीं सकता है उसे बोलने में समस्या आती है इस दोष के कारण बालक में कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है जिसके अंतर्गत हकलाना तुतलाना गूंगा पन आदि आते हैं 🎯 अत्यधिक कोमल और दुर्बल शरीर:– इस विकार के अंतर्गत बालक में रक्त की कमी एवं शक्तिहीन और पाचन क्रिया में गड़बड़ी हो जाती है जिससे कि बालक अधिक कमजोर हो जाता है और उसका शरीर दुर्बलता आने लगती है 🍀🌾🍀 विकलांग बालक की शिक्षा🍀🌾🍀 विकलांग बच्चे की शिक्षा सामान बालक की शिक्षा विशेष होती है उनकी शिक्षा व्यवस्था के लिए अलग से ही कुछ प्रयास किए जाते हैं एवं उनकी शिक्षा व्यवस्था भी अलग होती है शिक्षा व्यवस्था के अंतर्गत सभी प्रकार के विकलांग बालक की शिक्षा के लिए कुछ व्यवस्था एवं उन किस प्रकार की शिक्षा दी जाए इसका वर्णन किया गया है ⭐🌺⭐ अपंग बालकों की शिक्षा व्यवस्था– ऐसी बातें जिन को शारीरिक दोस्त है लेकिन वह आवश्यक नहीं है कि वह मंदबुद्धि भी है हर साथ हम कह सकते हैं कि जो वाला शारीरिक दोष से पीड़ित होते हैं वह बालक सीख सकते हैं और शिक्षित हो सकते हैं सामान बालकों से अधिक शिक्षित होने की क्षमता भी उनमें पाई जाती है लेकिन इनके लिए कुछ उचित व्यवस्था की आवश्यकता होती है इन बालकों की शिक्षा उनके माता-पिता एवं शिक्षक द्वारा प्रदान की जाती है उनकी शिक्षा के लिए शिक्षक का महत्वपूर्ण योगदान रहता है अतः प्रयास करने के लिए माता-पिता एवं शिक्षक को महत्वपूर्ण कार्य एवं प्रयास करने होंगे 🍀🌺🍀अपंग बालक किस शिक्षा के लिए किस प्रकार की व्यवस्था की जानी चाहिए इसका वर्णन निम्नलिखित है 🍁 विशिष्ट प्रकार के विद्यालयों को संगठित करें:- विकलांग बच्चों के लिए विशेष प्रकार के विद्यालयों की व्यवस्था की जानी चाहिए जिसमें वह बालक अपनी क्षमता एवं अपनी आवश्यकता के अनुसार शिक्षा प्राप्त कर सके और यह बालक शिक्षा प्राप्त करने के लिए किसी भी प्रकार की समस्या का सामना ना करना पड़े इससे बालक में हीन भावना भी जागृत नहीं होती है 🍁 उनकी विशेषताओं के हिसाब से कमरे भी उपयुक्त हो:- इन बालकों के लिए विद्यालयों में कमली इस प्रकार होनी चाहिए कि विकलांग बच्चे को आने जाने में किसी भी प्रकार की समस्या ना हो कमरे की व्यवस्था बच्चे की अनुसार होनी चाहिए जिससे व शिक्षा ग्रहण कर सके और उन्हें किसी भी प्रकार की घटनाएं ना हो 🍁 इन बालकों के लिए उचित प्रकार से बैठने की व्यवस्था होनी चाहिए:- इन बालकों के लिए इस प्रकार की बैठने की व्यवस्था होनी चाहिए कि बच्चे आसानी से कक्षा में बैठे और अपनी शिक्षा को आसान पूर्वक ग्रहण कर सकें उन्हें किसी भी प्रकार की बैठने में असुविधा ना हो और बच्ची को उचित प्रकार की व्यवस्था होनी चाहिए 🍁 बालक के शारीरिक स्वास्थ्य के लिए हमें या ध्यान रखना होगा की बालक को डॉक्टर या विशेषज्ञ की राय लेने की आवश्यकता तो नहीं है और अगर यह संभव हो सके तो हमें चिकित्सा हेतु साधनों और संसाधनों की भी व्यवस्था की जानी चाहिए जिससे गीत बाला की शारीरिक जांच की जा सके 🍁 विकलांग बच्चों के साथ हमारा व्यवहार उचित होना चाहिए इन बालकों के साथ इस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए जिससे कि उनमें हीन भावना ना आए और और उन्हें अकेला महसूस ना हो हमें विकलांग बालक के साथ सहानुभूति पूर्ण व्यवहार रखना चाहिए 🍁 विकलांग बालक का पाठ्यक्रम:- इन बालकों का पाठ्यक्रम इस प्रकार हो कि वाला सरलता और रोचक क्रियात्मक होना चाहिए 🍁 शारीरिक दोष के अनुसार उनके बैठने के लिए कुर्सी और मेज की व्यवस्था होनी चाहिए 🍁 मानसिक विकास एवं पूर्ण अवसर दें हमें विकलांग बालको की शिक्षा के लिए उन बालकों को मानसिक विकास को पूरा वसा दिया जाना चाहिए जिससे कि बाला को ऐसा प्रतीत ना हो कि वह आगे बढ़े नहीं सकते हैं वह आगे बढ़ सकता है और उन्हें शिक्षा को उचित मानसिक विकास के लिए अवसर प्रदान करने चाहिए 🍀🌾🍀 उपयुक्त सभी कथाओं के अनुसार हम कह सकते हैं जी विकलांग बालक को उचित शिक्षा प्रदान कर सकते हैं इसके लिए उन्हें सरल एवं सुगम साधन उपलब्ध किए जा सकते हैं इनकी माध्यम से व्हाई अपनी शिक्षा की प्राप्ति बिना किसी रूकावट के प्राप्त कर सकता है ✍🏻✍🏻✍🏻Menka patel ✍🏻✍🏻✍🏻 🍀🌾🍀🌾🍀🌾🍀🌾🍀🌾🍀🌾🍀🌾🍀🌾🍀⭐🌺⭐🌺⭐🌺⭐⭐🌺⭐🌺⭐🌺

विकलांग बालक कुछ बालकों में जन्म से शरीर में दोष होता है या किसी बीमारी, आघात, दुर्घटना या चोट लग जाने पर शरीर के किसी अंगो में दोष होता है उसे विकलांगता कहते हैं। क्रो & क्रो -एक व्यक्ति जिसमें कोई इस प्रकार का शारीरिक दोष होता है जो किसी भी रूप में उसे सामान्य क्रियाओं में भाग लेने से रोकता है या सीमित रखता है ।हम उसे विकलांग व्यक्ति कहते हैं। विकलांग बालक के प्रकार- विकलांग बालक को पांच प्रकार से बांटा गया है 1.अपंग- अपंगता में ऐसे बालक आते हैं जो लंगड़े, लूले ,गूंगे, बहरे, अंधे होते हैं 2.दृष्टि दोष- इस विकलांगता में बच्चे को दिखने में या दृश्य संबंधी समस्या होती है या तो इन्हें पूर्ण रूप से नहीं दिख पाता है या थोड़ा बहुत देखने में प्रॉब्लम होती है इनमें निकट दृष्टि दोष ,दूर दृष्टि दोष, जरा दृष्टि दोष हो सकता है यह पूर्ण रूप से अंधे भी हो सकते और अर्द्ध अंधे भी हो सकतें हैं। 3.श्रवण संबंधी दोष -इस विकलांगता में बच्चे में सुनने से संबंधित विकार होता है ऐसे बच्चे या तो पूर्ण रूप से नहीं सुन पाते हैं या थोड़ा बहुत ही सुन पाते हैं इसमें पूर्ण रूप से बहरे , अर्द्ध बहरे आदि आते हैं 4.वाक् संबंधी विकार- इस विकलांगता में बच्चे दोषयुक्त वाणी का प्रयोग करते हैं वह बोलने में हकलाते हैं तुतलाते हैं या बोल ही नहीं पाते हैं यह गूंगे हो सकते हैं। 5.अत्यधिक कोमल और दुर्बल इसमें -इसमे ऐसे बच्चे आते हैं जिनमें रक्त की कमी, शक्तिहीन ,पाचन क्रिया में गड़बड़ी होती हैं। विकलांग बच्चे की शिक्षा- विकलांग बच्चों को शिक्षा देना परम आवश्यक हैं इन बच्चों को इनकी जरूरत के हिसाब से शिक्षा देकर सामान्य बच्चों के बराबर लाया जाना चाहिए। 1.अपंग बालकों की शिक्षा- ऐसे बच्चे शारीरिक दोष से पीड़ित होते हैं लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि वह मंदबुद्धि होंगे । शारीरिक कमी के कारण उनमें हीन भावना जागृत हो सकती है। ऐसे बालकों को शिक्षा निम्न प्रकार से देनी चाहिए – 1.विशिष्ट प्रकार के विद्यालय का संगठन करना चाहिए 2. उनकी विशिष्टता के हिसाब से उपयुक्त कमरे हो 3. उनके बैठने की व्यवस्था उचित प्रकार से हो ताकि वह आराम से बैठ सके ,घूम सके 4. समय -समय पर डॉक्टर या विशेषज्ञ की राय लेते रहे हर संभव चिकित्सा हेतु साधनों का इंतजाम करना चाहिए 5. विकलांग बच्चों से सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करना चाहिए । 6. सामान्य पाठ्यक्रम को साधारण और कम रखेंगे लेकिन व्यवसायिक पाठ्यक्रम पर जोर देंगे 7. मानसिक विकास का पूर्ण अवसर देंगे 8. शिक्षण विधि सरल रोचक ,क्रियात्मक ढंग से हो परंतु धीमी गति से हो। Notes by Ravi kushwah 🌈

विकलांग बालक
🦚शारीरिक रूप से विकलांग बालक ( Physically handicapped child ) :- वे बालक जो सामान्य बालकों कि भातिं शारीरिक क्रियाओं को करने में अक्षम होते हैं किसी बीमारी , दुर्घटना व आघात में चोट लगने पर शरीर के अंगों का दोष होता है और कुछ बालकों तो जन्म से शरीर में दोष होता है वह बालक जो शारीरिक दोष के कारण आसाधारण क्रियाओं में भाग नहीं ले पाते हैं विकलांग बालक कहते हैं लेकिन ऐसे बालकों कि बौद्धिक क्षमता किसी भी प्रकार से कम नहीं होती है परन्तु निराशा के कारण इनका अन्य विकास रुक जाता है विकलांगता के कारण निराशा , कुंठा , सीखने की गति धीमी हो जाती है | 🎄क्रो & क्रो के अनुसार विकलांग बालक की परिभाषा :- ऐसा व्यक्ति जिसमें किसी प्रकार का दोष होता है जो किसी भी रुप में उसे सामान्य क्रियाओं में भाग लेने से रोकता है या सीमित रखता है हम उसे विकलांग बालक कहते हैं | 🌺शारीरिक विकलांग बालक के प्रकार :- विकलांग बालक पांच प्रकार के होते हैं – 🌷अपंग 🌷दृष्टि दोष 🌷श्रवण संबंधी दोष 🌷वॉक् संबंधी विकार 🌷अत्यधिक कोमल और दुर्बल 🌷अपंग :- वे बालक जिनकी मांशपेशियां तथा हड्डीयां दोषपूर्ण ढ़ग से विकसित होती है जो लूले , बहरे , लंगड़े , गूंगे , अंधे अपंग बालक होते हैं | 🌷दृष्टि दोष :- ऐसे बालक जो अपनी आँखों से ठीक प्रकार देख नहीं पाते हैं तथा उन्हें देखने में समस्या होती है ऐसे बालक अंधे व अर्ध अंधे बालक होते हैं | 🌷श्रवण संबंधी दोष :- ऐसे बालक जिनको सूनने में कठिनाई होती है या सून नहीं सकते हैं इनमें श्रवण संबंधी विकार होता है | 🌷वॉक् संबंधी विकार :- ऐसे बालक जिनको बोलने में कठिनाई होती है जो बोल नहीं सकते हैं जैसे – हकलाना , तुतलाना , गुंगापन | 🌷अत्यधिक कोमल और दुर्बल :- ऐसे विकार जिसमें बालक में रक्त की कमी , पाचन क्रिया में गड़बड़ी , शक्तिहीन व अन्दर से एकदम कमजोर हो जाना | 🌺विकलांग बालक कि शिक्षा :- 🌹अपंग बालक कि शिक्षा :- इनमें शारीरिक दोष होता है लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि ये मंद बुद्धि हो | शारीरिक कमी के कारण इनमें हीनभावना जाग्रत हो जाती है इसलिए ऐसे बालकों की शिक्षा विशिष्ट तरीके से होनी चाहिए | 💦ऐसे बालकों के लिए विशिष्ट प्रकार के विद्यालयों व शिक्षण संस्थानों का गठन करना चाहिए | 💦इनकी विशिष्टता के हिसाब से बड़े व उचित कमरे उपलब्ध कराने चाहिए | 💦इनके लिए उचित प्रकार से बैठने की व्यवस्था हो कमरा साफ – सुथरा हो उन्हें बैठने में कोई कठिनाई न हो | 💦ऐसे बालकों के लिए समय – समय पर डाॅक्टर और विशेषज्ञों का परामर्श लेते रहे व चिकित्सा हेतु साधनों का इंतजाम करे | 💦विकलांग बच्चों के साथ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करे उन्हें ऐसा न लगे कि वे किसी काम के नहीं है या कुछ कर नहीं सकते हैं इनकी सीखने में सहायता करनी चाहिए | 💦इनका पाठ्यक्रम कम व साधारण होना चाहिए लेकिन व्यवसायिक पाठ्यक्रम पर जोर देना चाहिए जिससे की ये अपने पैरों पर खड़ा हो सके कोई व्यवसाय शुरू कर सके किसी पर बोझ न बने और इनमें हीनभावना जाग्रत न हो | 💦ऐसे बालकों को मानसिक विकास का पुर्ण अवसर देना चाहिए ताकि ये भी विकास कर सके प्रतियोगिता में भाग ले सके अन्य बच्चों की भातिं जीवन जी सके | 💦इनकी शिक्षण विधि रोचक , सरल, क्रियात्मक ढंग से होना चाहिए और धीमी गति से होनी चाहिए ताकि ये सिख सके आराम से और इन्हें अपनी विकलांगता का एहसास न हो कि ये कुछ कर नहीं सकते हैं | 🌼🌹Thank you 🌹🌼 Notes by – 🌹Meenu Chaudhary 🌹 *

👨‍🦯👩🏻‍🦽विकलांग बालक*👨‍🦯👩🏻‍🦽* *(Physically Handicap)* 🌼कुछ बालकों में जन्म से ही शरीर में दोष होता है या किसी बीमारी आघात दुर्घटना या चोट लग जाने पर शरीर के किसी अंगों में दोष होता हैं। 🌼ऐसे बालक जो शारीरिक रूप से सामान्य बालकों से भिन्न होते हैं जो मानसिक शारीरिक संवेगात्मक दृष्टि से दोष युक्त होते हैं। इन्हें बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है । *क्रो एंड क्रो के अनुसार:-➖* ” एक व्यक्ति जिसमें कोई इस प्रकार का शारीरिक दोष होता है जिससे वह किसी न किसी रूप में( आंख नाक कान पैर इत्यादि) उनको समान क्रियाओं में भाग लेने से रोकता है जिसे हम विकलांग व्यक्ति कहते हैं”! *शारीरिक विकलांग बालक के प्रकार*:➖ *1} अपंग*:- ऐसे बालक जो किसी ना किसी अंग जैसे:- लंगड़े, लूले ,गूंगे ,बहरे ,अंधे इत्यादि बालक आते हैं। *2} दृष्टि दोष*:- ऐसे बालकों को सामान्य पाठ्यवस्तु पढ़ने में परेशानी होती हैं अर्थात् वह दृष्टिबाधित होते हैं इसके अंतर्गत अंधे ,अर्द्धअंधे बालक आते हैं। जिसे देखने या दृश्य संबंधी विकार होते हैं। *3} श्रवण संबंधी दोष* :- ऐसे बालकों को सुनने संबंधी समस्या होती है श्रवण बाधित व बाधित सुनने में आंशिक श्रवण जैसी दिक्कत पाई जाती हैं इसके अंतर्गत बहरे ,अर्द्ध बहरे बालक आते हैं। *4} वाक्य संबंधी दोष*:- ऐसी बालकों में बोली संबंधी समस्या होती है। इसमें दोष युक्त वाणी, हकलाना ,तुतलाना या गूंगापन जैसी समस्या होती है। *5} अत्यधिक कोमल और दुर्बल*:- अत्यधिक कोमल और दुर्बल होना भी एक प्रकार की विकलांगता है इसके अंदर शरीर में खून की कमी तथा पाचन शक्ति भी मजबूत नहीं होता जिससे बालक अत्यंत कमजोर हो जाते हैं अर्थात उनमें रक्त की कमी ,शक्ति हीन, पाचन क्रिया में गड़बड़ी इत्यादि बीमारियों से ग्रसित रहते हैं। ☘️☘️ *विकलांग बच्चे की शिक्षा*☘️☘️ 🍃विकलांग बच्चों की शिक्षा सामान्य बच्चों की शिक्षा से अलग होती है इनके लिए हमें इनकी सारी समस्याओं को ध्यान में रखते हुए उसी हिसाब से शिक्षा व्यवस्था करनी चाहिए ताकि इस बच्चे को किसी प्रकार की असुविधा ना हो उनकी विकलांगता के हिसाब से उनको शिक्षा देना आवश्यक है। 🍃अपंग बालकों की शिक्षा:➖ अपंग बालकों में शारीरिक दोष होते हैं लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि वह मंदबुद्धि हो उनको साधारण शिक्षा दिशा दी जा सकती हैं लेकिन ऐसे बालकों के अंदर शारीरिक कमी के कारण उनमें हीन भावना जागृत होती है इसलिए हमें उनकी सभी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए हमें शिक्षित करना होगा। *अपंग बालकों की शिक्षा के लिए निम्न व्यवस्थाएं की जाती है*:➖ 💧 विशिष्ट प्रकार के विद्यालय का संगठन करें:- इसके अंतर्गत बालकों के लिए एक विशेष प्रकार की विद्यालय की स्थापना की जाती है जिसके अंतर्गत उनकी योग्यता अनुसार शिक्षाएं दी जाती है। 💧उनकी उपयुक्त चीजें होनी चाहिए:- ऐसे बालकों के लिए उनके उपयुक्तता के हिसाब से चीजें होती हैं जैसे:-कमरे ,ताकि उस बच्चे को कमरे में आने जाने में कोई बाधा उत्पन्न ना हो। 💧उचित प्रकार की बैठने की व्यवस्था हो:- इसके अंतर्गत बालकों को बैठने की उचित व्यवस्था की जाती है ताकि बालकों को बैठने में किसी प्रकार की समस्या ना हो तथा आसानी से शिक्षा ग्रहण कर सकें। 💧फर्नीचर भी बालकों के अनुरूप हो। 💧कक्षा में कोई नुकीली चीज ना हो। 💧 संभव चिकित्सा हेतु साधनों का इंतजाम करें:- ऐसे बालकों को समय-समय पर डॉक्टर या विशेषज्ञ से दिखाते रहना चाहिए तथा उनकी राय लेते रहना चाहिए। 💧विकलांग बच्चों से सहानुभूति पुणे व्यवहार करेंगे 💧सामान्य पाठ्यक्रम को साधारण और सामान्य रखेंगे लेकिन व्यवसायिक पाठ्यक्रम पर जोर देंगे। 💧मानसिक विकास का पूर्ण अवसर देंगे। 💧शिक्षण विधि सरल रोचक क्रियात्मक ढंग और धीमी गति से हो। अतः हम कह सकते हैं कि विकलांग बालकों को शिक्षित करने के लिए हमें उन्हीं के अनुरूप कक्षा कक्ष ,पाठ्यक्रम ,फर्नीचर ,आने जाने के लिए उपयुक्त साधन ,व्हीलचेयर तथा उसके मानसिक विकास को ध्यान में रखते हुए पूर्ण अवसर देंगे। हमें उन्हें ऐसी शिक्षा देनी होगी ताकि वह भविष्य में सामान्य बालकों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चले। खुद को समान बालकों की तुलना में कम ना समझें तथा उसके अंदर हीन भावना जैसी चीजें जागृत ना हो। हमें उन्हीं के अनुरूप पाठ्यक्रम को समान रुचिकर ,सरल ,सहज इत्यादि शिक्षा उन्हें प्रदान करनी चाहिए। 💧💧💧💧💧💧 *Notes by➖Mahima kumari* 🌻 *विकलांग* *बालक*🌻 *(physically* *Handicaped *child*) 🏵कुछ बच्चे में जन्म से शरीर में दोष होता है या किसी बीमारी आधात दुर्घटनाएं चोट लग जाने पर शरीर के किसी अंग में दोष होता है उसे विकलांगता कहते हैं। जैसे :-गाड़ी से जा रहे थे रोड एक्सीडेंट हो गए वह विकलांग हो गए ।ऐसा नहीं है कि वह किसी काम के नहीं है अपनी सोच को सकारात्मक रखनी चाहिए। विकलांग बालकों से तात्पर्य है कि उन बालकों से है जिनका मानसिक ऐसे बच्चों को सामान्य बालकों की तुलना में शारीरिक सामाजिक विकास से में दोष होता है जिसके कारण उन्हें अधिगम में कठिनाई होती है। *क्रो* *एंड* *क्रो* *के* *अनुसार* *—* 💎एक व्यक्ति जिसमें किसी प्रकार का शारीरिक दोष होता है जो किसी भी रूप में उसे सामान्य क्रियाओं में भाग लेने से रोकता है या सीमित रखता है हम उसे विकलांग व्यक्ति कहते हैं। ✍️ *शारीरिक* *रूप* *से* *विकलांग* *बालक* — 💎बालक के शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ेपन का कारण शारीरिक विकलांगता भी हो सकती है जो कि निम्नलिखित हैं 1. *अपंग* 2. *दृष्टिकोण* 3. *श्रवण* *संबंघी* *दोष* 4. *वाक्* *संबंधी* *विकार* 5. *अत्यघिक* *कोमल* *और* *दुबल्* ✍️ *अपंग*— इसमें बालक का शारीरिक रूप से किसी न किसी विकलांगता या क्षमता होती है जैसे लंगड़े, लूले, गूंगे, बहरे, अंधे ,अपाहिज इत्यादि। ✍️ *दृष्टि* *दोष*— इसके अंतर्गत में बालक के होते हैं जो देख नहीं सकते हैं अंधे होते हैं और धंधे होते हैं जिन्हें देखने संबंधी विकार होती है जो किसी को देखने में यह विकार उत्पन्न होती है और यह शारीरिक विकलांगता में आता है। ✍️ *श्रवण* *संबंधी* *दोष*— इसके अंतर्गत वह बालक आते हैं जो बहरे होते हैं जो सुन नही सकते या कम सुनते हैं जैसे —बहरे, आघे बहरे। ✍️ *वाक्* *संबंधी* *विकार*— इसके अंतर्गत वह बालक आते हैं जो बोल नहीं पाते हैं ऐसे बालकों में वाक् संबंधी विकार होती हैं जैसे हकलाना,तुतलाना ,गूंगा ,नहीं बोल पाना। ✍️ *अत्यघिक* *कोमल* *और* *दुर्बल*— इसके अंतर्गत बालक में रक्त की कमी, पाचन क्रिया में गरबरी, शक्तिहीन कमजोर हो जाते हैं और उनके शरीर में भी दुर्बलता आ जाती है। ✍️ *विकलांग* *बालक* *की* *शिक्षा*— विकलांग बालक की शिक्षा में किसी कारणवश उन्हें परेशानी होती है जैसे उनके किसी शरीर का अंग का काम नहीं करना और असामान्य होना जिसके कारण उन्हें शिक्षा प्राप्त करने में उन्हें विशेष कठिनाइयां होती है जैसे दृष्टिबाधित बच्चों को श्रवण बाधित मूर्ख बनाने वाले बालक के बालक को शारीरिक विकलांगता के अनुरूप शिक्षा की व्यवस्था दी जानी चाहिए। ✍️ *अपंग* *बालको* *की* *शिक्षा*— यदि किसी कारणवश बच्चों में शारीरिक दोष होता है तो यह नहीं आवश्यक है कि बच्चे मन बुद्धि हो शारीरिक कमी के कारण हीन भावना जागृत हो सकती है इसलिए बालकों को इन के स्वरूप ही शिक्षा देकर इनके हीन भावना को समाप्त किया जाना चाहिए। 💎 विशेष प्रकार के विद्यालय का संगठन करें— विकलांग बच्चों के लिए विशेष प्रकार के विद्यालय का संगठन करना चाहिए जिससे उनके शिक्षा में कोई दिक्कत ना हो और वह नि:संकोच होकर पढ़ सके। 💎 उनकी विशेषता के हिसाब से उनके कच्छा कमरे का भी व्यवस्था करें— विकलांगता बच्चे के लिए ऐसी उनकी विशेषता के हिसाब से उनका कक्षा का कमरा व्यवस्था करना चाहिए जिससे जैसे वह नुकीली चीज ना हो उनके लिए। 💎 उचित प्रकार के बैठने की व्यवस्था हो:- उनके बैठने की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जो वह उचित प्रकार से बैठ सकें। 💎 डॉक्टर या विशेषज्ञ की राय लेते रहेंगे उनके हर संभव चिकित्सा हेतु साधनों का इंतजाम करेंगे। 💎 विकलांग बच्चे से सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करेंगे— विकलांग बच्चे से सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करेंगे ताकि उन्हें ऐसा न लगे कि वह सामान्य बच्चे से कमजोर हैं। 💎 सामान्य पाठ्यक्रम को साधारण और क्रम में रखेंगे लेकिन व्यवसायिक पाठ्यक्रम पर जोर देंगे— बच्चे का पाठ्यक्रम ऐसा रखेंगे ताकि वह उनके आगे जाकर उनका काम आ सके वह अपने व्यवसायिक में उसका उपयोग कर सकें। 💎 मानसिक विकास का पूर्ण अवसर देंगे —बच्चे के मानसिक विकास का पूर्ण अवसर देंगे ताकि वह अपना विकास कर सके हमें कोशिश करना चाहिए कि हमें उनको भरपूर मौका देता कि वह स्वयं से सीख सके। 💎 विकलांगता बच्चों का शारीरिक रूप से उनका सही समय पर उनका उपचार किया जाना चाहिए जिससे वह अपना आगे सामान्य जीवन व्यतीत कर सकें। Notes By —Neha Roy 💎 शिक्षण विधि सरल रोचक क्रियात्मक या धीमी गति से हो— विकलांग बच्चों के लिए हमें शिक्षण विधि ऐसी बनानी चाहिए जिससे उन्हें रोचक क्रियात्मक के लगे जैसे उनके कार्य में उनको रुचि बने। 👤 विकलांग बालक Physically Handicapped child 🧖 शारीरिक रूप से विकलांग बालक Physically challenged child 🔹विकलांग बालक या दिव्यांग बालक उन्हें कहते हैं जो कुछ बालकों में जन्म से शरीर में दोष होता है या किसी बीमारी ,आघात, दुर्घटना, या चोट लग जाने पर शरीर के किसी अंगो में दोष होता है उसे विकलांगता कहते हैं 👤 क्रो एंड क्रो के अनुसार ➖ एक व्यक्ति जिसमें कोई उस प्रकार का शारीरिक दोष होता है जो किसी भी रूप में उसे सामान्य क्रियाओं में भाग लेने से रोकता है या सीमित रखता है हम उसे विकलांग व्याक्ति कहते हैं 🧖 शारीरिक रूप से विकलांग बालक के प्रकार Types of physically challenged children 🔹 शारीरिक रूप से विकलांग बालकों को 5 श्रेणी में बांटा गया है 1 अपंग 2 दृष्टि दोष 3 श्रवण संबंधी दोष 4 वाक् संबंधी विकार 5 अत्यधिक कोमल और दुर्बल 1️⃣ अपंग बालक ➖अपंग बालक उन्हें कहते हैं जिसे किसी भी प्रकार का शारीरिक दोष होता है उन्हें किसी भी क्रिया या गतिविधि को करने में कठिनाई होती है जैसे ➖ लंगड़े ,लूले ,गूंगे, बहरे ,अंधे ,आदि अपंग बालक कहृलाते है 2️⃣ दृष्टि दोष बालक ➖ ऐसे बालक जिनको देखने कठिनाई होती हैं जैसे अंधे ,अर्धअंधे बालक यह दृष्टि संबंधी विकार है 3️⃣ श्रवण संबंधी दोष बालक ➖ इनको सुनने में कठिनाई होती है यह किसी की बात को ना सुन सकते ना समझ सकते हैं जैसे बहरे ,अंधे बहरे, 4️⃣ वाक् संबंधी विकार ➖इस विकार में बालकों को बोलने में कठिनाई होती है यह किसी से बात नहीं कर पाते हैं या ऐसे बोलते हैं जो कुछ समझ में नहीं आता है जैसे ➖हकलाना ,तुतलाना ,या नहीं बोल पाना, या गूंगापन आदि 5️⃣ अत्यधिक कोमल और दुर्बल बालक➖ ऐसे बालक जो शरीर से बहुत ही नाजुक या कोमल होते हैं या बहुत ही कमजोर यह दुर्लभ शारीरि के होते हैं इनमें रक्त की कमी होती है यह शक्ति हीन होते हैं इनकी पाचन क्रिया में गड़बड़ी होती है 🧖 विकलांग बालकों की शिक्षा Education of children with disabilities 👤 अपंग बालकों की शिक्षा 🔹 अपंग बालक शारीरिक दोष के कारण अपने विभिन्न अंगो का प्रयोग नहीं कर सकते हैं लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि वह मंदबुद्धि होंगे शारीरिक कमी के कारण उनमें हीन भावना जागृत हो सकती है ऐसे बालकों की शिक्षा के लिए विभिन्न की व्यवस्था कर सकते हैं 🔹 विशिष्ट प्रकार के विद्यालय का संगठन करें 🔹 उनकी विशिष्टता को ध्यान में रखकर उनके हिसाब से कमरे भी उपयुक्त हो 🔹 उनके लिए उचित प्रकार की बैठने की व्यावस्था हो ताकि वे आराम से बैठ सके । 🔹ऐसे बच्चों के लिए डॉक्टर या विशेषज्ञ की राय लेते रहें हर संभव चिकित्सा हेतु संसाधनों का इंतजाम करें। 🔹 ऐसे बच्चों से सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करें 🔹 इनके लिए सामान सामान्य पाठ्यक्रम को साधारण और क्रम में रखेंगे, और व्यावसायिक पाठ्यक्रम पर ज्यादा जोर देने । 🔹 ऐसे बालकों के लिए उनके मानसिक विकास का पूर्ण अवसर देंगे। 🔹 इन बालकों की शिक्षण विधि ,सरल हो रोचक हो ,क्रियात्मक ढंग से हो, धीमी गति से हो । 📙 Nots by sanu sanwle 🌺 विकलांग बालक🌺 कुछ बालकों में जन्म से ही शारीरिक दोष होता है या किसी बीमारी या दुर्घटना चोट लग जाने से शरीर में किसी अंग में दोष होता है जिसे विकलांग बालक कहते हैं विकलांग बालक विकलांगता के कारण साधारण से क्रियाओं को करने में में भी सक्षम नहीं होते हैं शारीरिक विकलांगता के कारण इसका प्रभाव मानसिक रूप से पड़ता है मानसिक रूप से निराशा युक्त हो जाते हैं उनके मन में कुंठा विद्यमान हो जाती है कि हम बाकी सामान्य से लोगों के समान साधारण कार्य को भी नहीं कर पाते हैं इस कारण वह मानसिक द्वंद से ग्रसित हो जाते और कार्यों को सही तरीके से नहीं कर पाते। *क्रो एंड क्रो* -एक व्यक्ति जिसमें कोई इस प्रकार का शारीरिक दोष होता है जो किसी भी रूप में उसे सामान्य क्रियाओं में भाग लेने से रोकता या सीमित रखता है हम उसे विकलांग व्यक्ति कहते हैं! *विकलांग बालक के प्रकार*- शारीरिक रूप से विकलांग बालक के पांच प्रकार बताए गए हैं। 🍀 अपंग 🍀 दृष्टि दोष 🍀 श्रवण शक्ति संबंधी विकार 🍀 वाक् संबंधी विकार 🍀 अत्यधिक कोमल और दुर्बल *अपंग* – वे बालक जो शारीरिक क्रियाओं को सही तरीके से नहीं कर पाते हैं अर्थात जिनकी मांसपेशियां सही तरीके से पूर्ण विकसित नहीं हुई है वे अपंग बालक के अंतर्गत आएंगे जैसे लंगड़े लूले गूंगे बहरे अपाहिज आदि। *दृष्टि दोष*- ऐसे बालकों में दृश्य संबंधी विकार पाया जाता है यह लिखे हुए चीजों को सही सही तरीके से स्पष्ट रूप से नहीं देख पाते हैं जिससे इन्हें पढ़ने समझने लिखने संबंधी समस्याएं होती हैं दृष्टि दोष में अंधे और और अर्द्ध अंधे बालक आते हैं। *श्रवण शक्ति संबंधी विकार*-जिन बालकों को श्रवण संबंधी विकार होता है यह सही तरीके से नहीं सुन पाते हैं श्रवण विकार के कारण इनकी अभिव्यक्ति क्षमता वाधिर होती है क्योंकि यह लोगों के द्वारा बोले गए शब्दों को स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाते जिससे यह अपने विचारों को भी व्यक्त नहीं कर पाते। *वाक् संबंधी विकार*- ऐसे बालक जिनमें बोलने संबंधी विकार होता है यह सही तरीके से अपने विचारों को स्पष्ट नहीं कर पाते हैं अर्थात इन में बोलने संबंधी दोष पाया जाता है दोष युक्त वाणी हकलाना तुतलाना गूंगापनआदि समस्याएं इसके अंतर्गत आती हैं। *अत्यधिक कोमल और दुर्बल*- अत्यधिक कोमल और दुर्बल होना भी एक तरीके की विकलांगता है जिससे शरीर निरंतर कमजोर होता जाता है इस प्रकार की समस्या में रक्त की कमी शक्तिहीन होना पाचन क्रिया में गड़बड़ी संबंधी परेशानी होती है। *विकलांग बच्चे की शिक्षा* विकलांग बच्चों की शिक्षा के लिए उनकी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर निश्चित योजनाएं बनाकर सुचारू पूर्ण तरीके से इनकी शिक्षा इन्हें प्रदान की जानी चाहिए जिससे इन्हें सामान्य बालकों की भांति शिक्षा प्राप्त हो जिससे इनकी शिक्षा का स्तर बढ़ाया जा सके। *अपंग बालकों की शिक्षा* अपंग बालकों में शारीरिक दोष होता है पर यह आवश्यक नहीं है कि शारीरिक दोष से ग्रसित है तो मंदबुद्धि बालक होगा अपंग बालकों को ऐसा परिवेश दिया जाना चाहिए जिससे वह सामान्य बालकों की तरह साधारण पूर्ण तरीके से शिक्षा प्राप्त कर सकें जिससे उनमें शारीरिक कमी के कारण हीन भावना जागृत ना हो सके। *अपंग बालकों की शिक्षा हेतु निम्न व्यवस्थाएं की जाती है* ✍️ विशिष्ट प्रकार के विद्यालय का संगठन करें जिससे उन्हें उनके अनुसार सही तरीके से परिवेश प्राप्त हो सके। ✍️ उनकी विशिष्टता के आधार पर कमरे भी प्राप्त होने चाहिए जहां पर शुद्ध वातावरण और प्रकाश की उचित व्यवस्था हो जिससे उनके आवागमन में किसी भी प्रकार की समस्या उत्पन्न ना हो। ✍️ उचित प्रकार की बैठने की व्यवस्था हो जिससे उन्हें समस्या ना हो। ✍️ समय-समय पर डॉक्टर या विशेषज्ञ की राय लेते रहें हर संभव चिकित्सा हेतु साधनों का इंतजाम करें। ✍️ विकलांग बच्चों से सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करेंगे जिससे उनमें निराशा और हीन भावना ना उत्पन्न हो सके। ✍️सामान्य पाठ्यक्रम को साधारण और कम रखेंगे लेकिन व्यवसायिक पाठ्यक्रम पर जोर देंगे जिससे वह आगे चलकर अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उचित रोजगार प्राप्त कर सकें। ✍️ मानसिक विकास का पूरा अवसर देंगे उपयुक्त वातावरण देकर उन्हें अधिक से अधिक अनुभव प्रदान करेंगे जिससे वह अधिक से अधिक सीखे और उनका उचित मानसिक विकास हो सके। ✍️ शिक्षण विधि- विकलांग बालकों की शिक्षण विधि सरल रोचक क्रियान्वित हो और धीमी गति से की जाए जिससे वह आसानी पूर्वक विषय वस्तु को समझ सके और उसमें निपुण हो सके। अतः विकलांग बालकों की शिक्षा हेतु उनके अनुरूप ही उनकी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर शिक्षण व्यवस्था प्रदान करनी चाहिए जिससे वह सरलता पूर्वक सीख सकें और उन्हें किसी भी प्रकार की परेशानी ना हो उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप पाठ्यक्रम को सरल रुचिकर सहज लचीलापन अनुभव युक्त होना चाहिए जिससे उनका शिक्षा का स्तर बढे और शारीरिक मानसिक रूप से स्वस्थ हो और हीन भावना ना जागृत हो। 🍀 धन्यवाद🍀 Notes by – Abhilasha pandey ⭐विकलांग बालक⭐ इसमें हम उन बालकों को शामिल कर सकते हैं जो कि किसी न किसी प्रकार से शारीरिक दोष से संबंधित होते हैं उनमें किसी कारणवश से उनकी किसी शरीर का अंग सही प्रकार से कार्य न करना जैसे किसी दुर्घटना में चोट के या किसी बीमारी के कारण अंगों का संचालन ना होने के कारण कार्य करने में असमर्थ है होते हैं जिसे हम विकलांग बालक कह सकते हैं। ◾ क्रो एवं क्रो के अनुसार➖ ▪️ एक व्यक्ति जिसे में कोई इस प्रकार का शारीरिक दोष होता है जो किसी भी रूप में उसे सामान्य क्रियाओं में भाग लेने से रोकता है या सीमित रखता है उसे विकलांग व्यक्ति कहते हैं। ⚫ शारीरिक विकलांगता के प्रकार➖ 🔹 अपंग:- इसमें लंगड़े, लूले, गूंगे, बहरे ,जैसे बच्चों को शामिल किया जाता है ,जो किसी ना किसी प्रकार से अपंग होते हैं 🔹 दृष्टि दोष:- इस प्रकार के बालक में अंधे, अर्द्ध अंधे देखने दृश्य संबंधी विकार होता है जो पूरी तरह देख नहीं पाते हैं। 🔹 श्रवण संबंधी दोष:- इसमें बच्चे को सुनने संबंधी दोष होता है ,जैसे कि किसी भी चीज को स्पष्ट ना सुनना या बिल्कुल ना सुनाना जैसी समस्या हो सकती है। 🔹 वाक संबंधी दोष:- इसमें हकलाना ,तुतलाना, गूंगापन जैसे संबंधी विकार होती है इसे दोष युक्त वाणी भी कहते हैं स्पष्ट शब्दों का उच्चारण नहीं कर पाते हैं। 🔹 अत्याधिक कोमल और दुर्बल:- बच्चों में रक्त की कमी होना जैसी समस्या होती है इसके कारण शक्तिहीन की भावना भी आती है और शारीरिक गड़बड़ी होती है जैसे पाचन क्रिया में गड़बड़ी होती है इन सभी समस्याओं का सामना करना पड़ता है बच्चों को। ⭐विकलांग बच्चों की शिक्षा⭐ ▪️ अपंग बालकों की शिक्षा:- शारीरिक दोष में यह आवश्यक नहीं है कि बच्चे मंदबुद्धि हो शारीरिक कमी के कारण हीन भावना जागृत हो सकती है इससे मंदबुद्धि का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ▪️ विशिष्ट प्रकार के विद्यालय का संगठन करना:- विद्यालय का गठन इस प्रकार होना चाहिए कि इन बच्चों के लिए सुविधाजनक हो और उनके लिए शिक्षा का साधन प्रदान की जा सके। ▪️ उनकी विशेषता के हिसाब से कमरे भी उपयुक्त हो :- विकलांगता के प्रकार को देखते हुए कमरे का चयन करना चाहिए जिससे कि बच्चों की कोई प्रॉब्लम ना हो और आसानी पूर्व को वह अपनी कक्षा तक पहुंच सके। ▪️उचित प्रकार के बैठने की व्यवस्था हो ताकि वे आराम से बैठ सके:- इस प्रकार के बच्चों के लिए बैठने के लिए अच्छी व्यवस्था करनी चाहिए ताकि वो आराम महसुस कर सके। ▪️ डॉक्टर विशेषज्ञ की राय लेते रहें संभव हो तो चिकित्सा हेतु संसाधनों का इंतजाम करें:- इन बच्चों को समझने के लिए एवं सही शिक्षा देने के लिए डॉक्टरों की राय जरूरी है जिससे उचित निदान किया जा सके। ▪️ विकलांग बच्चों में सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करेंगे:- बच्चों में किसी प्रकार के हीन भावना नहीं आने देंगे जिससे कि वह अपने आपको अलग समझे और किसी भी कार्य करने से पीछे हट जाए हमें उनका हमेशा सहयोग पूर्ण मदद करनी चाहिए जिससे कि वह आगे कार्य करने में समर्थ हो सके। ▪️ सामान्य पाठ्यक्रम को साधारण और कम रखेंगे लेकिन व्यवसायिक पाठ्यक्रम पर जोड़ देंगे:- जिस प्रकार सभी बच्चों के लिए पाठ्यक्रम बनाई जाती है उसी प्रकार पाठ्यक्रम को रखेंगे हो सके तो कम करेंगे लेकिन व्यवसायिक शिक्षा पर जोर देंगे ताकि वह अपने भविष्य में इसका उपयोग करें एवं इनके लिए लाभकारी साबित हो। ▪️ मानसिक विकास का पूर्ण अवसर देंगे:- बच्चों को खुद से कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करेंगे जिससे उनकी मानसिकता का विकास हो और और अपने आप को सक्रिय रख पाएंगे बच्चे इस अवसर के द्वारा। ▪️ शिक्षण विधि सरल रोचक एवं क्रियात्मक ढंग से प्रस्तुत करेंगे:- शिक्षण विधियों को सरल गति से प्रस्तुत करना चाहिए ताकि बच्चे के मानसिक स्तर के अनुसार हो और उन्हें रुचिकर लगे ताकि वह अपने रूचि के अनुसार पढ़ाई को समझ पाए और अपने से जोड़ पाए। 🙏Notes by—-Abha kumari 🙏 शारीरिक विकलांग / दिव्यांग बालक 🌷 Physically 🌷 Handicapped Child विकलांग बालक :- कुछ बालकों में जन्म से शरीर में दोष होता है , या किसी बीमारी आघात , दुर्घटना , चोट या हादसा हो जाने पर शरीर के किसी अंगों में दोष हो जाता है तो ऐसे बालकों को ही विकलांग बालक कहते हैं। 🌺 क्रो एण्ड क्रो के अनुसार :- एक व्यक्ति जिसमें कोई इस प्रकार का शारीरिक दोष होता है , जो किसी भी रूप में सामान्य क्रियाओं में भाग लेने से रोकता है या सीमित रखता है । हम उसे विकलांग व्यक्ति कहते हैं। जब कोई बच्चा (व्यक्ति) जन्म जात या जन्म के बाद किसी शारीरिक दुर्घटनाओं आदि से शारीरिक रूप से विकलांगता का शिकार होता है, तो हम ऐसे बच्चे को ही शारीरिक विकलांगता की श्रेणी में रखते हैं। 🌷 शारीरिक विकलांग बालकों के प्रकार 🌷 विकलांग बालकों के निम्नलिखित पाँच प्रकार बताये गये हैं :- 1. 🌺 अपंग / अपाहिज :- कुछ बच्चे शारीरिक रूप से अपंग / अपाहिज होते हैं , जिन्हें लंगड़े , लूले , गूंगे , बहरे एवं अंधे आदि की श्रेणी में रखा जाता है। 2. 🌺 दृष्टि दोष :- कुछ बच्चे दृष्टि दोष से पीड़ित होते हैं , अर्थात ( देखने / दृश्य संबंधी अक्षमता ) जिन्हें ” अंधे और अर्ध अंधे ” की श्रेणी में रखा जाता है। अतः इसमें कुछ बच्चे पूरी तरह से अंधे होते हैं और कुछ बच्चे थोड़े कम अंधे होते हैं जिन्हें ( अर्ध अंधा ) कहते हैं। 3. 🌺 श्रवण संबंधी दोष :- कुछ बच्चों में श्रवण/सुनने संबंधी अक्षमता पायी जाती है, जिन्हें ” बहरे और अर्ध बहरे ” की श्रेणी में रखा जाता है। 4. 🌺 वाक् संबंधी विकार :- इस विकार से पीड़ित बच्चों में बोलने संबंधी अक्षमता पायी जाती है, अतः इनकी दोष युक्त वाणी होती है , जिन्हें हकलाने , तुतलाने , गूंगापन बोल न पाने की श्रेणी में रखा जाता है। 5. 🌺 अत्यधिक कोमल और दुर्बल :- इस विकार से पीड़ित बच्चों में रक्त की कमी ; शक्तिहीन ; और पाचन क्रिया में गड़बड़ी पायी जाती है। अतः इस विकार में बच्चे अत्यधिक दुर्बल हो जाते हैं। 🌷विकलांग बालकों की शिक्षा विकलांग बालकों को निम्नलिखित रूप से शिक्षा व्यवस्था दी जानी चाहिये :- 1. अपंग बालकों की शिक्षा :- ऐसे बालकों में शारीरिक दोष तो होता है पर जरूरी नहीं कि वह मंदबुद्धि भी हों। अर्थात हम जानते हैं कि शारीरिक अक्षमता होने पर भी कुछ बच्चों की बुद्धि तीव्र होती है। अतः यदि उनकी शारीरिक अक्षमता को उनकी कमजोरी बना दी जाये तो विकलांग बालकों में हीन भावना उत्तपन्न हो जाती है। अतः इसीलिये उन्हें अनुकूल शिक्षा व्यवस्था देकर उन्हें शिक्षित और जागृत किया जाता है ताकि विकलांग बालक भी आगे बढ़ सकें। अपंग बालकों की शिक्षा व्यवस्था निम्नलिखित प्रकार से की जानी चाहिए :- 👉 विशिष्ट प्रकार के विद्यालयों को संगठित करें :- अर्थात अपंग बालकों की शिक्षा व्यवस्था के लिये सामान्य की अपेक्षा विशिष्ट विद्यालयों की व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि उन्हें उनके अनुकूल शिक्षा व्यवस्था मिल सके । 👉उनकी विशिष्टता के हिसाब से कमरे भी उपयुक्त हों :- विकलांग बालकों के लिए उनके विद्यालयों में उनके हिसाब से कमरों की भी व्यवस्था की जानी चाहिये ताकि बो अपनी क्षमतानुसार शिक्षा ग्रहण कर सकें। 👉 उचित प्रकार के बैठने की व्यवस्था हो ताकि वे आराम से कक्षा- कक्ष में बैठ सकें , अर्थात कमरों में नुकीली वस्तुएं न हों एवं फर्नीचर आदि भी उनके अनुकूल हो। 👉 डॉक्टरों और विशेषज्ञों की राय लेते रहें एवं हर संभव चिकित्सा हेतु साधनों का इंतजाम करें :- अर्थात विकलांग बालकों का शिक्षा के साथ – साथ शारीरिक स्वास्थ्य का भी ध्यान रखने हेतु चिकित्सकीय व्यवस्था बनाये रखनी चाहिय 👉 विकलांग बच्चों से सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करें :- शिक्षक और समाज को विकलांग बालकों के प्रति सहजता और सहानुभूति पूर्ण व्यवहार रखना चाहिए, अतः ये भी उनकी शिक्षा हेतु महत्वपूर्ण है। 👉 सामान्य पाठ्यक्रम को साधारण और कम रखेंगे लेकिन व्यवसायिक पाठ्यक्रम पर जोर देंगे :- विकलांग बालकों का शैक्षिक पाठ्यक्रम साधारण , सरल, और कम रखेंगे लेकिन उन्हें उनके अनुकूल व्यावसायिक शिक्षा विशेष रूप से देंगे ताकि बो भविष्य में अपना जीविकोपार्जन सही ढंग से कर सकें। 👉 मानसिक विकास का पूर्ण अवसर देंगे :- विकलांग बालकों को उनके शारीरिक अक्षमता के कारण शिक्षक उनमें मानसिक रूप से अक्षमता न लाकर बल्कि उन्हें सरलता , सहजता से समझाएंगे और हर संभव उनका मानसिक विकास भी करेंगे। 👉 शिक्षण विधि सरल , रोचक, क्रियात्मक ढंग और धीमी गति से हो :- विकलांग बालकों के लिए शिक्षण विधि सरल हो ताकि बो आसानी से सीख सकें , रोचक हो ताकि उनकी जिज्ञासा जागृत बनी रहे , और स्वयं से करके सीखने (क्रियात्मक ढंग) से हो और उन्हें सामान्य से धीमी गति से भी पढ़ाया जाये । अतः इस प्रकार की शिक्षा व्यवस्था से विकलांग बालकों को भी शिक्षित किया जा सकता है। ✍️🏼 Notes by – जूही श्रीवास्तव

🦚🌈🪔शारीरिक विकलांग बालक🪔🌈🦚 (Physically handicapped child)* 🌹विकलांग बच्चे उसे कहते हैं, जो बच्चे शारीरिक और मानसिक रूप से सामान्य बच्चों से भिन्न होते है। 👉 उन्हे शारीरिक और मानसिक किसी भी प्रकार की अक्षमता पाई जाती है। 👉कुछ बालकों में जन्म से शरीर में दोष होता है, या किसी बीमारी, दुर्घटना/ चोट, आघात इत्यादि लग जाने पर शरीर के किसी अंगों में दोष होता है, ऐसे बालक शारीरिक रूप से विकलांग होते है।🌹 🏟 *According to क्रो & क्रो* “एक व्यक्ति जिसमें कोई इस प्रकार का शारीरिक दोष होता है, जो किसी भी रूप मे उसे सामान्य क्रियाओं में भाग लेने से रोकता है या सीमित रखता है, उसे हम विकलांग व्यक्ति कहते हैं। 🎉🪔🎉 *शारीरिक विकलांग बालक के प्रकार*🎉🪔🎉 🎧 *अपंग बालक*:- ऐसे बच्चे जो शारीरिक रूप से अंग से विकलांग होते हैं, जिनमें :- 🌿 गुंगे 🌿 बहरे 🌿 अंधे 🌿 लंगड़े – लूले। इत्यादि… 🎧 *दृष्टि दोष*:- ऐसे बच्चे जो सामान्य पुस्तक को नहीं पढ़ पाते, उसे पढ़ने के लिए किसी सहायक सामग्री की जरूरत पड़ती है। (देखने/ दृश्य संबंधी विकार) ऐसे बच्चे आते जो 🌿 अंधे 🌿 अर्धअंधे। इत्यादि ….. 🎧 *श्रवण संबंधी विकार*:- ऐसे बच्चे जो सामान्य बच्चे की तरह सुन ना सकता हो (सुनने में विकार)। जैसे: 🌿 बहरे 🌿 अर्ध बहरे। इत्यादि ….. 🎧 *वाक् संबंधी विकार*:- इसमें बालक को बोलने में कठिनाई आती हैं, ऐसे बच्चे को कई प्रकार के समस्या का सामना करना पड़ता है (दोष युक्त वाणी)। जैसे: 🌿 हकलाना 🌿 तुतलाना 🌿 गुंगापन। इत्यादि …. 🎧 *अत्यधिक कोमल और दुर्बल*:- इसमें बालक शरीर से कमजोर और दुर्बल आने लगते हैं, क्योंकि बच्चे में – 🌿रक्त की कमी 🌿 शक्तिहीन 🌿 पाचन क्रिया में गड़बड़ी।इत्यादि …. 🎊🪔 *शारीरिक विकलांग बालक की शिक्षा*🪔🎊 🌾 *अपंग बालकों की शिक्षा* शारीरिक दोष, यह आवश्यक नहीं है कि बालक मंद बुद्धि का ही हो। शिक्षा के लिए किस प्रकार की व्यवस्था की जानी चाहिए, वो निम्नलिखित है: ⚘ विशिष्ट प्रकार के विधालय का संगठन करना:- ऐसे विधालय/ संस्थान की व्यवस्था की जानी चाहिए जिसमें बालक अपनी क्षमता या आवश्यकता के अनुसार शिक्षा प्राप्त कर सके। ⚘ उनकी विशिष्टता के हिसाब से कमरे भी उपयुक्त हो:- कमरे की व्यवस्था बालक के अनुसार होना चाहिए जिससे विकलांग बालक को आने जाने में किसी प्रकार की समस्या ना हो या किसी भी प्रकार की घटना ना हो। ⚘ उचित प्रकार के बैठने की व्यवस्था हो ताकि वे आराम से बैठ सके:- बैठने की सुविधा ऐसी जिसमें बच्चे को किसी भी प्रकार की बैठने में असुविधा ना हो। जिससे बच्चे आसानी से कक्षा में बैठ कर अपनी शिक्षा को आसान पूर्वक ग्रहण कर सकें। ⚘डॉ / विशेषज्ञ की राय लेते रहे हर संभव चिकित्सा हेतु साधनों का इंतजाम करे:- हमे यह ध्यान देना होगा कि बच्चे को डॉ की राय लेने की जरूरत तो नहीं, अगर है तो हमे चिकित्सा हेतु संसाधनों की भी वयवस्था की जानी चाहिए। ⚘ विकलांग बच्चों से सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करना:- हमे ऐसे तो हर बच्चे के साथ सहानुभूति पूर्ण व्यवहार ही करना चाहिए, लेकिन हमें विकलांग बालक से भी करे ताकि उनमें हीन भावना या अकेलापन महसूस ना हो। ⚘ सामान्य पाठयक्रम को साधारण और कम रखेंगे, व्यवसायिक पाठयक्रम पर जोड़ देंगे:- शारीरिक विकलांग बालक की पाठयक्रम बहुत ही साधारण रखेंगे और कम रखेंगे, जिससे बालक को व्यवसायिक पाठयक्रम पर ध्यान दे सकेंगे। ⚘ मानसिक विकास का पूर्ण अवसर देंगे:- ऐसे बच्चे को हम ज्यादा से ज्यादा मैका देगे, जिससे बच्चे को ऐसा महसूस ना हो कि वह आगे बढ़ नहीं सकता। उन्हें भी शिक्षा के लिए उचित मानसिक विकास का अवसर मिले। ⚘ शिक्षण विधि सरल, रोचक, क्रियात्मक ढंग, धीमी गति से हो:- जो विकलांगता होगा उससे देखते हुए हम वैसा शिक्षण देगे और ऐसे बच्चों को सरल ढंग से या रोचक तरीकों से या धीमी गति से शिक्षण दे तो बच्चों में समझने में भी समस्या नहीं होगी। 🎪 🪔🪔END🪔🪔 🎪 📚Noted by 🦩 Soni Nikku✍ 🍒🌻🍒🌻🍒Thanku🍒🌻🍒🌻🍒 🔆 *विकलांग बालक* (𝙋𝙝𝙮𝙨𝙞𝙘𝙖𝙡 𝙃𝙚𝙣𝙙𝙞𝙘𝙖𝙥𝙩) ➖ 🔹ऐसे बालक जो सामान्य बालक से किसी ना किसी प्रकार में शारीरिक व मानसिक रूप से भिन्न है और जो किसी अंग के द्वारा उस कार्य को करने में सक्षम नहीं है उनको विकलांग बालक कहा जा सकता है | 🔹विकलांगता जन्मजात जन्म के बाद किसी बीमारी या दुर्घटना दोष के कारण भी हो सकती है विकलांगता कभी भी हो सकती है | 🔹 अर्थात ऐसे बालक जिनका जन्म से शरीर में दोष होता है या किसी बीमारी, आघात ,दुर्घटना या चोट लग जाने पर शरीर के किसी ना किसी अंग में दोष उत्पन्न होता है उसे विकलांगता कहते हैं | 🔹 विकलांग वालों के संदर्भ में ” *क्रो एंड क्रो* ” ने कहा है कि ” एक व्यक्ति जिसमें कोई इस प्रकार का शारीरिक दोष होता है जो उसे किसी भी रूप में सामान्य क्रियाओं में भाग लेने से रोकता है या सीमित रखता है उसे विकलांग व्यक्ति कहते हैं “| 💫 *विकलांग बालकों के प्रकार* ➖ विकलांग बालकों को मुख्यतः पांच प्रकार से बांटा गया है जो कि निम्न है ➖ 1) अपंग बालक | 2) दृष्टि दोष | 3)श्रवण संबंधी दोष | 4) वाक् संबंधी दोष(दोष युक्त वाली) | 5) अत्यधिक कोमल और दुर्बल | 🍀 *अपंग बालक*➖ इस प्रकार की विकलांगता शरीर के किसी भी अंग से हो सकती है | जैसे लंगड़े, लूंगें, गूंगे ,बहरे ,अंधे आदि | 🍀 *दृष्टिदोष* ➖ प्रकार की विकलांगता में आंख में समस्या होती है जो दृश्य संबंधी दोष या विकार है जो देखने या दृश्य से संबंधित होता है जैसे अर्द्ध अंधे ,अंधे या देखने मैं समस्या उत्पन्न होना | 🍀 *श्रवण संबंधी दोष* ➖ इस प्रकार की विकलांगता जिनको सुनने में समस्या होती है अतः जिनको सुनने संबंधित विकार है जैसे बहरे या बहरे अर्द्ध बहरे लोग | 🍀 *वाक् संबंधी दोष या दोष युक्त वाणी* ➖ इस प्रकार की विकलांगता बोलने में समस्या उत्पन्न करती है जैसे हकलाना, तुतलाना आदि | 🍀 *अत्याधिक कोमल और दुर्बल* ➖ इस प्रकार की विकलांगता में 1 )खून की कमी होती है, 2)शक्तिहीन व्यक्ति 3)व्यक्ति में ना के बराबर पाचन क्रिया कि ठीक नहीं होती है कि इससे पाचन क्रिया में गड़बड़ी होती है | यह तीनों कमी किसी भी व्यक्ति में हैं तो वह कमजोर है क्योंक क्योंकि यह व्यक्ति को विकलांग बनाते हैं जो कि ठीक नहीं है विकलांग बनाते हैं | 💫 *विकलांग बालकों की शिक्षा* ➖ विकलांग बालकों को शिक्षा देना समाज ,शिक्षक सभी का परम कर्तव्य है विकलांग बालकों की शिक्षा में सभी को अपना निश्चित रूप से अनिवार्य योगदान करना चाहिए —– *(A)* *अपंग बालकों की शिक्षा*➖ शारीरिक दोष से संबंधित बालक को भी शिक्षा दी जा सकती है आवश्यक नहीं है कि यह मंदबुद्धि ही हों, अपंग बालक प्रतिभाशाली या रचनात्मक भी हो सकते हैं लेकिन शारीरिक कमी के कारण उनमें हीन भावना जागृत हो सकती है जो कि बहुत ही खतरनाक है किसी भी प्रकार से ठीक नहीं है इसके लिए विशिष्ट प्रकार के उपाय करना चाहिए जो कि निम्न है —- *1)* *विशिष्ट प्रकार के विद्यालय का संगठन करें* जिसे उनकी शिक्षा के में कोई बाधा उत्पन्न ना हो और वह सामान्य बालकों की तरह शिक्षा ग्रहण कर सकें | *2)* *उनकी विशिष्टता या विकलांगता के हिसाब से कमरे उपयुक्त हो* जिससे उनका ध्यान पढ़ाई की ओर आकर्षित हो और इस प्रकार के कमरों की व्यवस्था की जानी चाहिए जहां उन्हें उचित प्रकार का वातावरण मिल सके तथा उन्हें आने जाने में किसी प्रकार की समस्या का सामना नहीं करना पड़े | *3)* *उचित प्रकार के बैठने की व्यवस्था हो ताकि वे आराम से बैठ सकें* बैठने के लिए उचित प्रकार की व्यवस्था होनी चाहिए जिससे बच्चे को कोई असुविधा ना हो कक्षा में उचित प्रकार के फर्नीचर से व्यवस्था की जानी चाहिए जिसमें बच्चे आसानी से बैठकर शिक्षा ग्रहण कर सकें | *4)* *डॉक्टर या विशेषज्ञों की राय लेते रहें हर संभव चिकित्सा हेतु संसाधनों का इंतजाम करें* जिससे उनकी विकलांगता की समय-समय पर जांच हो सके और अच्छे तरीके से देख रहे हो सके | *5)* *विकलांग बच्चों से सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करें* ताकि उनमें हीन भावना ना सके और उनको सहानुभूति देना अति आवश्यक है वरना बच्चा एक अलग रास्ता पकड़ लेता है और उससे उसका भविष्य बिगड़ सकता है | *6)* *सामान्य पाठ्यक्रम को साधारण और कम रखना लेकिन व्यवसायिक पाठ्यक्रम पर अधिक जोर देना* उनकी विकलांगता को ध्यान में रखते हुए उन्हें शिक्षा देना जो उनके भविष्य के लिए आवश्यक हो जिससे उनमें आत्मविश्वास भी बढ़ेगा और लाभदायक भी होगा | *7)* *मानसिक विकास का पूर्ण अवसर देना* जिस -जिस क्षेत्र में मानसिक विकास हो सकता है उन्हें उस क्षेत्र में पूरा अवसर देना जिससे वह अपने मस्तिष्क का विकास कर सकें और इस प्रकार वे अपने भविष्य को बेहतर बना सकते हैं | *8)* *शिक्षण विधि सरल, रोचक, और क्रियात्मक ढंग से हो एवं धीमी गति से होने चाहिए* जिससे उनके मन में हीन भावना का विकास ना हो और वे अपने मन में शिक्षा के प्रति रुचि उत्पन्न कर सकें, और इस प्रकार उनके भविष्य को बेहतर बनाया जा सकता है | 𝙉𝙤𝙩𝙚𝙨 𝘽𝙮➖ 𝙍𝙖𝙨𝙝𝙢𝙞 𝙎𝙖𝙫𝙡𝙚 🌈🌺🌿 विकलांग बालक(Physically handicapped)🌿🌺🌈 💥जन्म से कुछ बालकों में दोष होता है या किसी बीमारी ,आघात ,दुर्घटना या चोट लग जाने पर शरीर के किसी अंगों में दोष होता है उसे विकलांगता कहते हैं। 🌸💥क्रो एंड क्रो- एक व्यक्ति जिसमें कोई प्रकार का शारीरिक दोष होता है जिससे वह किसी भी रुप में सामान्य क्रिया में भाग लेने से रोकता है या सीमित रखता है तो हम उसे विकलांग व्यक्ति कहते हैं। 💥🌿शारीरिक विकलांग बालक के प्रकार———- 1️⃣अपंग-इसमें वह बालक आता है जो लंगड़े, लुले, गूंगे ,बहरे अंधे इत्यादि आते हैं। 2️⃣दृष्टि दोष- इसमें बच्चे अंधे ,अर्ध- अंधे ,यानी देखने या दृश्य संबंधी विकार से पीड़ित होते हैं 3️⃣श्रवण संबंधी दोष- बहरे ,अर्ध बहरे यानी सुनने संबंधी विकार होते हैं। 4️⃣वाक संबंधी विकार (दोष युक्त वाणी)- हकलाना ,गूंगापन तुतलाना, नहीं बोल पाना इत्यादि इसके अंदर होता है। 5️⃣अत्यधिक कोमल और दुर्बल – इसमें रक्त की कमी ,हिमोग्लोबिन की कमी, शक्तिहीन,पाचन क्रिया में गड़बड़ी इत्यादि आते हैं। 🌈💥विकलांग बच्चे की शिक्षा💥🌈➡️ विकलांग बालक को शिक्षा देना हमारा परम कर्तव्य है, और उनको उनके हिसाब से शिक्षा देना जरूरी है। 🌺💥अपंग बालकों की शिक्षा- जो बच्चा अपंग है उनको शारीरिक दोष होगा, लेकिन आवश्यक नहीं है की मंदबुद्धि हो। शारीरिक कमी के कारण हीन भावना जागृत हो सकती है।🌸🌿 इनको दूर करने के लिए हम निम्नलिखित उपाय कर सकते हैं🌸🌿 ➡️(A)विशिष्ट प्रकार के विद्यालय का संगठन करें। ➡️(B)उनकी विशिष्ठता के हिसाब से कमरे भी उपयुक्त हो। ➡️(C)उचित प्रकार के बैठने की व्यवस्था हो। ➡️(D)नुकीले वास्तु कमरे में ना हो। ➡️(E)फर्नीचर इत्यादि इधर उधर ना हो ताकि बच्चे को परेशानी का सामना करना पड़े। ➡️(F)डॉक्टर या विशेषज्ञ की राय लेते रहें। ➡️(G)उनकी यथासंभव चिकित्सा हेतु साधनों का इंतजाम करते हैं। ➡️(H)विकलांग बच्चों से सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करेंगे। समान्य पाठ्यक्रम को साधारण और कम रखेंगे। लेकिन, व्यवसायिक पाठ्यक्रम पर जोर देंगे। क्योंकि विकलांगता के हिसाब से जो बच्चा उस काम को कर सकता है या उस काम के लायक है उन पर ज्यादा जोर देंगे। ताकि, बच्चे भविष्य में अपना जीविकोपार्जन कर सके। ➡️(I)मानसिक विकास का पूर्ण अवसर देंगे ताकि मानसिक विकास विस्तृत कर सके। ➡️(J)शिक्षण विधि सरल रोचक क्रियात्मक ढंग से धीमी गति से हो। 🙏🌺💥🌸🌈Notes by-SRIRAM PANJIYARA 🌈🌸💥🌺🙏 🌻🍀🌺🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌺🍀🌻 🌼🌼👩🏻‍🦽👨🏻‍🦽👩‍🦯👨🏻‍🦯🌼🌼 👨🏻‍🦽👩‍🦯 विकलांग बालक👨🏻‍🦽👨🏻‍🦯 🍁 विकलांगता मैं शारीरिक रूप से अक्षम होना एक दोष होता है बालक इस दोष के कारण सही गति सीखने खेलने तथा पर्याप्त सामाजिकता की उपलब्धियों में कठिनाई अनुभव करते हैं। 👉 कुछ बालकों में जन्म से शरीर में दोष होता है या किसी बीमारी,आघात, दुर्घटना या चोट लग जाने पर शरीर के किसी अंग में दोष होता है उसे विकलांगता कहते हैं। 👉 विकलांगता जन्मजात भी हो सकती है और किसी दुर्घटना के कारण जन्म के बाद में भी हो सकती है। 🍁क्रो एण्ड क्रो :- एक व्यक्ति जिसमें कोई इस प्रकार का शारीरिक दोष होता है जो किसी भी रूप में उसे सामान्य क्रियाओं में भाग लेने से रोकता है या सीमित रखता है उसे हम विकलांग व्यक्ति कहते हैं 🍂🍃 विकलांग बालक के प्रकार 🌷 अपंग :- ऐसी बालक जो शारीरिक रूप से अपंग होते हैं जिसके अंतर्गत लैंग्वेज में गूंगे बहरे अंधे आदि दोष होते है। 🌷दृष्टिदोष:- ऐसी बालक जो आंखों से अंधे होते हैं जिनको आंखों से देखने में समस्या होती है वही दृष्टि बाधित बालक होते हैं ऐसी बालकों में दृश्य संबंधी या देखने संबंधी विकार पाया जाता है। 🌷श्रवण संबंधी दोष:- – ऐसे बालक सुनने सुनने संबंधी समस्या होती है उन्हें श्रवण संबंधी दोष होता है इसके अंतर्गत बहरे ,अर्ध बहरे आते हैं 🌷 वाक् संबंधी विकार:- ऐसी बालक जो सही से बोल नहीं पाते हैं अर्थात दोष युक्त वाणी का प्रयोग करते हैं जैसे हकलाना ,तुतलाना, गूंगा आदि वाक् संबंधी विकार में आते हैं। 🌷 अत्यधिक कोमल और दुर्बल:- इस बार के अंदर रक्त की कमी, हिमोग्लोबिन की कमी शक्तिहीन और पाचन क्रिया में गड़बड़ी हो जाती है जिससे बालकों में अधिक कमजोरी हो जाती है इसी कारण उनके शरीर कोमल और दुर्बल हो जाता है। 🌼विकलांग बालकों की शिक्षा🌼 👉 विकलांग बालकों की शिक्षा के लिए उनकी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर निश्चित योजनाएं बनाने चाहिए जिससे उनकी शिक्षा सुचारू रूप से चल सके और उनकी शिक्षा का स्तर को बढ़ाया जा सके। 🌷 अपंग बालकों की शिक्षा:- शारीरिक दोष है तो यह आवश्यक नहीं है कि मंदबुद्धि हो बालक में शारीरिक कमी के कारण हीन भावना जागृत हो सकती है। 🌷 विशिष्ट प्रकार के विद्यालय का संगठन करें:- इसके अंतर्गत विकलांग बालकों के लिए विशेष प्रकार की स्कूल वह विद्यालयों की व्यवस्था करानी चाहिए या फिर स्कूल में विशिष्ट कक्षा का प्रबंध कराना चाहिए। 🌷 उनकी विशेषता के हिसाब से कमरे भी उपयुक्त होनी चाहिए। 🌷 विकलांग बालकों के लिए उचित प्रकार की बैठने की व्यवस्था होनी चाहिए कक्षा में ऐसी कोई भी नुकीली वस्तु ना हो जिससे बच्चों को नुकसान पहुंचे। 🌷 विकलांग बालकों के लिए के अनुरूप कक्षा कक्ष में फर्नीचर का प्रबंध होना चाहिए। 🌷 विकलांग बालकों के लिए शारीरिक स्वास्थ्य के लिए हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि डॉक्टर या विशेषज्ञ की राय राय लेते रहना चाहिए तथा हर संभव चिकित्सा हेतु संसाधन का इंतजाम कराना चाहिए। 🌷 विकलांग बच्चों से सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करना चाहिए अगर हम विकलांग बालकों से उचित जवाब नहीं करेंगे तो उनको अपने प्रति हीन भावना उत्पन्न हो जाएगी इसीलिए हमें इन बालकों के प्रति सहानुभूति व्यवहार करना चाहिए। 🌷 विकलांग बालक का पाठ्यक्रम को साधारण और कम रखें लेकिन व्यवसाय पाठ्यक्रम और जोर देना चाहिए। हमें उन्हे ऐसा पाठ्यक्रम व शिक्षा देनी चाहिए जिससे वह भविष्य में व्यवसाय में मददगार हो। 🌷 विकलांग बालकों को मानसिक विकास का अवसर देना चाहिए जिससे वहां आगे बढ़ सके। 🌷 विकलांग बालकों के लिए शिक्षण विधि सरल रोजा की क्रियात्मक ढंग से धीमी गति द्वारा सिखाया जाना चाहिए अतः उनके लिए उचित उचित विधियों का प्रयोग करना चाहिए जिससे उनकी शिक्षण में रुचि बढ़ सके। 🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼 🌷📕NOTES BY📕🌷 ✍🏻SHASHI CHOUDHARY 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏 🌸 विकलांग बालक 🌸 🌸 Physically handicapped child 🌸 जन्म से ही कुछ बालकों में शारीरिक दोष होता है या किसी बीमारी, आघात, दुर्घटना या चोट लग जाने पर शरीर के किसी अंग में दोष होता है तो उसे विकलांगता कहते हैं । 🍁 क्रो एंड क्रो एक व्यक्ति जिसमें कोई इस प्रकार का शारीरिक दोष होता है जो किसी भी रूप में उसे सामान्य क्रियाओं में भाग लेने से रोकता हैं या सीमित रखता है हम उसे विकलांग व्यक्ति कहते हैं। ⭐ शारीरिक विकलांग बालक की प्रकार ⭐ शारीरिक विकलांग बालक को पांच भागों में बांटते हैं ➖ 1️⃣ अपंग बालक ➖ अप + अंग अंग में विकार इस श्रेणी में लंगड़े, लूले, गूंगे, बहरे और अंधे प्रकार के बालक शामिल होंगे। 2️⃣दृष्टि दोष➖ इस श्रेणी में अंधे, अर्ध अंधे, देखने दृश्य संबंधी विकार। 3️⃣ श्रवण संबंधी दोष ➖ इस श्रेणी में सुनने में विकार बहरे एवं अर्ध बहरे । 4️⃣ वाक् संबंधी विकार ➖ इस श्रेणी में दोषयुक्त वाणी जिसमें हकलाना, तुतलाना, गूंगापन नहीं बोलपाना आते हैं। 5️⃣ अत्यधिक कोमल एवं दुर्बल➖ ऐसे बालक जिनमें रक्त की कमी होती है व शक्तिहीन होते हैं और जिनके पाचन क्रिया में गड़बड़ी होती है आते हैं। 🌸 विकलांग बच्चे की शिक्षा ➖ ⭐ अपंग बालकों की शिक्षा ➖यह आवश्यक नहीं है कि अपंग बालक या विकलांग बालक मंदबुद्धि हो, उनमें बस किसी विशेष अंग में कोई विकार उत्पन्न हो गया है या विकलांगता आ गई। शारीरिक कमी के कारण हीन भावना जागृत हो सकती है इसलिए हमें कोशिश करनी चाहिए कि उनमें हीन भावना जागृत ना हो जिससे उनका विकास अवरूद्ध न हो सके। वह पूरी तरह से एक सामान्य बालक की तरह है सिर्फ एक उनके शरीर के किसी भाग में दोष आ गया है या विकार आ गया है। विकलांग बालकों की शिक्षा के लिए भी प्रयास करने चाहिए एवं उनके शिक्षा उनकी विकलांगता के को देखते हुए देनी चाहिए। 1 विशिष्ट प्रकार के विद्यालय का संगठन करें – विकलांग बालकों के लिए शहरों में अलग से विद्यालयों का निर्माण किया जाता है जिससे वह भी समान रूप से शिक्षा ग्रहण कर सकें उस विद्यालय में उन्हीं की तरह बहुत सारे बच्चे पढ़ते हैं जिसके कारण उनमें हीन भावना का जन्म भी नहीं होता। 2 उनके विशिष्टता के हिसाब से कमरे की उपयुक्त बनावट हो — बच्चे की शारीरिक दोष के आधार पर विद्यालयों की कक्षाओं का निर्माण किया जाता है। 3 उचित प्रकार के बैठने की व्यवस्था हो ताकि वे आराम से बैठे हैं उनको चोट न लगे— बच्चे की कक्षाओं का उचित बनावट होती है जिससे उनको चोट न लगे कुर्सी टेबल के साइड किनारे नूकीले ना हो नहीं तो दृष्टि बाधित बालकों को चोट लग सकती है, टेबल चेयर की ऊंचाई बहुत ना हो जिससे वह आसानी से बैठ सके। 4 डॉक्टर या विशेषज्ञ की राय लेते रहें हर संभव चिकित्सा हेतु साधनों का इंतजाम करें । 5 विकलांग बच्चे से सहानुभूति पूर्ण व्यवहार रखें — हमें विकलांग बालकों से और हर प्रकार के बालको से सहानुभूति पूर्ण, प्रेम पूर्वक बातें करनी चाहिए एवं उनके साथ ऐसा व्यवहार करना चाहिए जिससे वह अपने परेशानियों को आसानी से हमें बता सके और हम उनका निदान कर सकें। 6 सामान्य पाठ्यक्रम को साधारण और कम रखेंगे लेकिन व्यवसायिक पाठ्यक्रम पर जोर देंगे — हमें विकलांग बालकों को ऐसे शिक्षा देनी चाहिए जिससे आप बड़े होकर अपना व्यवसाय कर सके एवं अपनी जीविकोपार्जन कर सके।किसी पर आश्रित ना हो इसलिए विद्यालयों की शिक्षा बेसिक के साथ साथ ऐसा ही व्यवसायिक भी होनी चाहिए। 7 मानसिक विकास का पूर्ण अवसर देंगे — बालक को मानसिक विकास के पूर्ण अवसर देने चाहिए उनसे भी कक्षा कक्ष में प्रश्न पूछने चाहिए ताकि वेअपनी बात रख सके उनकी राय जानी चाहिए,जिससे उन्हें लगे कि उनके विचारों का भी महत्व है अध्यापक उन पर भी ध्यान दे रहा है वह अपने विचार प्रकट कर सकते हैं। 8 शिक्षण विधि सरल और रोचक, क्रियात्मक ढंग ,धीमी गति से हो—– विकलांग बालकों के लिए शिक्षण विधि ऐसी होनी जिससे वह सुगमता से अध्ययन कर सकें जैसे अगर कोई विद्यार्थी बहरा है सुन नहीं सकता है तो उसके लिए हमें शिक्षण विधि में ऐसे प्रयास करने चाहिए या अपनी शैली में ज्यादातर चित्र वाले दृश्य वाले सामग्रियों का इस्तेमाल करना चाहिए जिससे वह उसे देख सके उन्हें सुनने की आवश्यकता ही ना हो ।चित्र के द्वारा व समझ सके और जो बच्चे देख नहीं सकते उनके लिए ब्रेल लिपि का इस्तेमाल जो बोल नहीं सकते और लेकिन सुन सकते हैं देख सकते हैं उनके लिए दृश्य श्रव्य सामग्री का प्रयोग। धन्यवाद द्वारा वंदना शुक्ला 🔆 *विकलांग बालक*🔆 *(Physically handicapt child)*➖ *विकलांगता* – जन्म से कुछ बालकों के शरीर में कुछ दोष होता है या किसी बीमारी, आघात, दुर्घटना या चोट लग जाने पर शरीर के किसी अंग में दोष होता है तब उसे विकलांगता कहा जाता है। ⚜️ क्रो एंड क्रो के अनुसार- एक व्यक्ति जिसमें कोई इस प्रकार का शारीरिक दोष होता है (जो किसी भी रूप में हो) उसे सामान्य क्रियाओं में भाग लेने से रोकता है या सीमित रखता है उसे हम विकलांग कहते हैं। ◾ *विकलांग बालक के प्रकार* इसे पांच भागो में बांटा गया है। ▪️अपंग – किसी न किसी चीज में किसी भी अंग में यदि कोई विकार है जैसे – लंगड़े,लुले,गूंगे,बहरे,अंधे हैं। ▪️ दृष्टि दोष – अंधे या अर्द्ध अंधे (देखने या दृश्य सम्बन्धी विकार) ▪️श्रवण सम्बन्धी दोष – बहरे या अर्द्ध बहरे (सुनने में विकार) ▪️वाक् सम्बन्धी विकार – दोष युक्त वाणी ,हकलाना, तुतलाना, गूंगापन या बोल ना पाना। ▪️अत्यधिक कोमल या दुर्बल – रक्त की कमी,शक्तिहीन ,पाचन क्रिया में गड़बड़ी। ◾ *विकलांग बालकों की शिक्षा*➖ ▪️अपंग बालकों की शिक्षा – जो बच्चे अपंग है उनमें शारीरिक दोष होता है लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि वह मंदबुद्धि हो। उनको सामान्य बच्चो की तरह शिक्षा दी जा सकती हैं। उनमें शारीरिक कमी के कारण हीन भावना जाग्रत हो सकती हैं। 🔅 विशिष्ट प्रकार के विद्यालय बनाए जाएं। 🔅 उचित प्रकार के बैठने की व्यवस्था हो ताकि वे आराम से बैठ सकें। 🔅 डॉक्टर या विशेषज्ञ की राय लेते रहे हर संभव चिकित्सा हेतु साधनों का इंतजाम करें। 🔅 विकलांग बच्चों से सहानुभूति पूर्ण व्यवहार किया जाए। 🔅 सामान्य पाठ्यक्रम को साधारण और कम रखें जाए लेकिन व्यवसायिक पाठ्यक्रम पर जोर दिया जाए। 🔅 मानसिक विकास का पूर्ण अवसर दिया जाए। 🔅 शिक्षण विधि सरल ,रोचक, क्रियात्मक ढंग से हो व धीमी गति से की जाए। ▪️ नेत्रहीन ,अर्ध नेत्रहीन बालकों की शिक्षा – पूर्ण रूप से नेत्रहीन बालकों को ब्रेल लिपि के माध्यम से व बोलकर पढ़ाया जाए। जबकि अर्द्धनेत्रहीन बालकों के लिए 🔅मोटे अक्षर वाले किताब, 🔅 कक्षा में आगे बैठा कर 🔅बोर्ड पर बड़ा और साफ लिखा जाए 🔅उचित रोशनी की व्यवस्था की जाए 🔅बोलकर पढ़ाएं और 🔅चश्मे व लेंस की व्यवस्था की जाए। नेत्रहीन या अर्ध नेत्रहीन बालकों को विशेषकर *हस्तशिल्प या संगीत की शिक्षा* दी जानी चाहिए जिससे वह समाज में या अपने जीवन में बेहतर समायोजन करना सीख पाए। ▪️ बहरे या अर्ध बहरे बालकों की शिक्षा – कुछ बच्चे जो जन्मजात बहरे और गूंगे होते हैं सबसे पहले इन बालकों के लिए ऐसे विद्यालय की स्थापना की जाए जहां पर उचित शिक्षा को प्राप्त कर सकें। 🔅सांकेतिक भाषा में शिक्षा दी जाए। 🔅हाव भाव से समझने की शिक्षा दी जाए। 🔅होठों की गतिविधि से समझाना 🔅ज्यादातर लिखकर व दिखा कर पढ़ाया जाए अर्ध बहरे बच्चों को सामान्य बच्चों के साथ भी पढ़ाया जा सकता है इसके लिए निम्न बातों का ध्यान रखा जाए। *कक्षा में उन्हें आगे बैठाया जाए *उनके लिए कौन यंत्रों का प्रयोग किया जाए *विशेष रुप से ध्यान दिया जाए। ▪️ दोष युक्त वाणी वाले बालकों की शिक्षा- शारीरिक और मनोवैज्ञानिक कई कारणों से दो शब्द वाणी हो सकती है इनके लिए शिक्षा 🔅 चिकित्सा (शल्य मनोवैज्ञानिक) द्वारा भी इनका इलाज संभव है। 🔅 घर का वातावरण भी दोष युक्त हो। 🔅 पोष्टिक भोजन दिया जाए। 🔅 अभिभावक शिक्षक को विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। 🔅 अशुद्ध उच्चारण को प्यार से या प्रेम पूर्वक ठीक कराया जाए। 🔅 उनकी बातों यह विचारों को चिढ़ाया ना जाए और ना ही उन पर हंसा जाए। ▪️ कोमल या निर्बल बालकों की शिक्षा – यह रोग से ग्रस्त नहीं होते है इनके लिए 🔅 परिवार द्वारा विशेष ध्यान रखा जाए 🔅 पौष्टिक भोजन उपलब्ध करवाया जाए। 🔅 समय-समय पर शारीरिक जांच करवाई जाए। 🔅 शक्ति क्षमता के अनुसार पाठ्यक्रम व खेल कूद का आयोजन करवाया जाए। 🔅 पढ़ाई में खेल विधि दृश्य श्रव्य सामग्री का प्रयोग किया जाए। 🔅 बच्चों के साथ सहानुभूति पूर्ण व्यवहार किया जाए। ✍🏻 *Notes By-Vaishali Mishra*

Theories of Child Development notes by India’s Top Learners

📖 📖 बाल विकास 📖 📖

🌺🌿🌺 बाल विकास के सिद्धांत 🌺🌿🌺 बाल विकास के सिद्धांत गैरिसन व अन्य द्वारा दिए गए हैं:- जिनमे निश्चित सिद्धांत का अनुकरण करने की प्रवृत्ति होती है, इन्हें विकास के सिद्धांत कहते है । गैरिसन उनके द्वारा 8 प्रकार के सिद्धांत बताए गए हैं। इन्हीं 8 सिद्धांतों में बालक का संपूर्ण विकास किस तरह से होता है? किस प्रकार की प्रक्रियाएं होती है? इन सभी का वर्णन इन 8 सिद्धांतों में किया गया है।

इन सिद्धांतों का वर्णन निम्नलिखित है~
👉🏻 विकास की दिशा का सिद्धांत,,
👉🏻 निरंतर विकास का सिद्धांत,,
👉🏻 विकास के क्रम का सिद्धांत,,
👉🏻 व्यक्तिक विभिन्नता का सिद्धांत,,
👉🏻 पारस्परिक संबंध का सिद्धांत,,
👉🏻 समान प्रतिमान का सिद्धांत,,
👉🏻 सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत,,
👉🏻 अंतः क्रिया का सिद्धांत।।

1.🍂🍃 विकास की दिशा का सिद्धांत~
इस सिद्धांत के अंतर्गत बालक का विकास की दिशा के संबंध में चर्चा की गई है, बालक के विकास की दो दिशाएं बताई गई है,
🌷 सफेलो कॉडल मॉडल:-
इसमें बालक का विकास सिर से पैर की ओर होता है।
🌷प्रोक्सीमाॅडिस्टल:-
इसमें बालक का विकास केंद्र से परिधि की ओर होता है।

2.🍃🍂 निरंतर विकास का सिद्धांत~
इस सिद्धांत के अंतर्गत बालक का विकास निरंतर चलता रहता है। लेकिन एक समान गति से नहीं चलता है, कभी बालक के विकास की गति मंद हो जाती है। तो कभी गति तीव्र हो जाती है।

3.🍂🍃 विकास के क्रम का सिद्धांत~
विकास के क्रम के सिद्धांत के अंतर्गत विकास एक निश्चित एवं व्यवस्थित क्रम में होता है। हम बालक का गति संबंधी, भाषा संबंधी एवं बौद्धिक विकास यह एक क्रम एवं पैटर्न को अनुकरण करता है।
जैसे कि बालक पहले कुछ ही वर्णों को बोल पाता है, उसके पश्चात वर्णों से मिलकर शब्दों को बोलने लगता है, और शब्दो के पश्चात वह पूरे बच्चे को आसानी से बोल पाता है।

4.🍃🍂 व्यक्तिक विभिन्नता का सिद्धांत~
व्यक्तिक विभिन्नता के सिद्धांत के अंतर्गत बालक की विभिन्नता के बारे में वर्णन किया गया है, इसमें एक ही व्यक्ति में विभिन्न प्रकार की विभिन्नताए पाई जाती है। जैसे कि शारीरिक मानसिक सामाजिक एवं संवेगात्मक अन्य विभिन्नताएं होती है।

5.🍂🍃 पारस्परिक संबंध का सिद्धांत~
प्रत्येक बालक का विकास का संबंध अपने ही विभिन्न विशेषताओं में संबंधित रहता है, जैसे कि शारीरिक विकास का संबंध मानसिक विकास से होता है। मानसिक विकास का संबंध संवेगात्मक विकास से होता है। इत्यादि सभी एक दूसरे से संबंधित होते हैं।
उदाहरण के लिए बालक का जब विकास होता है, तो गर्भावस्था का संबंध शैशवावस्था से होता है। शैशवावस्था का संबंध बाल्यावस्था से होता है। इसी तरह से यह संबंध चलता रहता है।
इन्हीं के संबंध से बालक की रूचि, ध्यान, व्यवहार, प्रेरणा एवं आवश्यकताएं भी प्रभावित होती है, और यह भी एक दूसरे से संबंधित रहती हैं।

6.🍃🍂 समान प्रतिमान का सिद्धांत~
इस सिद्धांत के अंतर्गत सभी प्राणियों का विकास समान रूप से होता है।
मानव जाति के शिशु के विकास का प्रतिमान एक ही है उनके विकास में किसी प्रकार का अंतर नहीं होता है।
इसी के संबंध में हरलॉक ने अपना कथन प्रस्तुत किया है, कि प्रत्येक जाति पशु या मानव जाति अपनी जाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान का अनुसरण करता है।
अर्थात कहने का अर्थ यह है कि मानव के शिशु मानव ही होंगे, एवं पशुओं के शिशु पशु ही होंगे।

7.🍂🍃 सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत~
इस सिद्धांत के अनुसार बालक पहले सामान्य क्रियाएं करता है उसके पश्चात बाद में विशिष्ट क्रियाओं को करता है।
जैसे कि बालक पहले अपने पूरे शरीर को चलाने का प्रयास करता है, उसके बाद में शरीर के कुछ अंगों को चलाता है।
🌺🌺 इसके अंतर्गत एक और सिद्धांत दिया गया है~
🍃🍂 एकीकरण का सिद्धांत~
इस सिद्धांत में बालक अपने वंशानुक्रम एवं वातावरण के बीच अंतर क्रिया करता है।
इसमें भी बालक का विकास इसी प्रकार से होता है। बालक पहले अपने पूरे हाथ का प्रयोग करता है। उसके बाद हाथ की उंगलियों का प्रयोग करना सीखता है। यह सब कुछ वह अपने वातावरण एवं वंशानुक्रम से सीखता है।
🌺🌿🌺 उपरोक्त सभी बालक के विकास के सिद्धांत हैं, इसी सिद्धांतों के आधार पर बालक का संपूर्ण बाल विकास होता है। इन्हीं सिद्धांतों से बालक का जीवन संबंधित रहता है।🌺🌿🌺 📚📚📓 समाप्त 📓📚📚

✍🏻PRIYANKA AHIRWAR ✍🏻

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🦚🍁🦚 विकास के दिशा का सिद्धांत🦚🍁🦚

🦚🍁🦚Theories of development 🦚🍁🦚

🌳 बाल विकास का सिद्धांत गैरीसन व अन्य के द्वारा दिया गया है।
🍁इनके के द्वारा बाल विकास के सिद्धांत के आठ चरण दिए गए।
🍁 इन्हीं 8 सिद्धांतों के द्वारा मानव विकास की जीवन के अनेक अलग-अलग चरणों के अनेक प्रकार की विशेषताएं बताई गई है।

🌷सफेलोकाडल (Cephalocaudal)
🌷प्रोक्सोमाडिस्टल (Proximodistal)

🌷 सफेलोकाडल (Cephalocaudal) :-
🌿 इसमें विकास सिर से पैर की तरफ होता है।

🌷 प्रोक्सोमाडिस्टल (Proximodistal):-
🌿 इसमें विकास केंद्र से परिधि की ओर होता है।

🌟निरंतर विकास का सिद्धांत।
🌟विकास के क्रम का सिद्धांत।
🌟 वैयक्तिक विभिन्नता का सिद्धांत।
🌟 पारस्परिक विकास का सिद्धांत।
🌟 सामान्य प्रतिमान का सिद्धांत।
🌟 सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत।
🌟अंतः क्रिया का सिद्धांत।

🌟 निरंतर विकास का सिद्धांत :-
🌿 इसके अनुसार बालक का विकास निरंतर चलता रहता है।लेकिन एक समान गति से चलता है, कभी मंद गति से प्रकृति पर गति से चलता है।

🌟 विकास के क्रम का सिद्धांत :-
🌿 विकास के क्रम के सिद्धांत के अंतर्गत व्यक्ति का विकास एक निश्चित एवं क्रमबद्ध व्यवस्था के अनुसार चलता है।

🌟 व्यक्तिक विभिन्नता का सिद्धांत :-
🌿 इस सिद्धांत के अनुसार हमें अनेक व्यक्तियों के अलग-अलग पक्षों के बारे में पता चलता है जैसे कि हम दूसरे में अनेक प्रकार के विभिन्न बताएं पाई जाती है।
🍁शारीरिक,सामाजिक,सांस्कृतिक और संवेगात्मक इत्यादि अनेक प्रकार की विभिन्नताएं पाई जाती है ।

🌟 पारस्परिक विकास का सिद्धांत :-
🌿 जैसा कि हम जानते हैं कि विकास एक पारस्परिक चलने वाली प्रक्रिया है जो कि एक दूसरे से संबंधित होती है जैसे :- चाहे वह सामाजिक,सांस्कृतिक,संवेगात्मक,शारीरिक तथा किसी भी अन्य प्रकार की विकास हो, सभी एक दूसरे से जुड़े हुए होते हैं एक दूसरे के बिना इनकी कोई कार्यवाही पूरी नहीं हो सकती।
🍁 उदाहरणस्वरूप :- जैसे कोई बालक घर में रहता है तथा जन्म लेता है तो शेष अवस्था में आता है उसके बाद फिर बाल्यावस्था उसके बाद किशोरावस्था फिर व्यस्कावस्था इस प्रकार विकास का पारस्परिक संबंध होता है।

🌟 सामान प्रतिमान का सिद्धांत :-
🌿 इस सिद्धांत के अनुसार सभी प्राणी जाति का विकास एक समान प्रतिमान के अनुसार होता है।
जैसे कि मानव जाति में सीटों का भी का समान दर पर होता है। ऐसा नहीं है कि एक माता पिता के बच्चे में विकास सिर से पैर की तरफ हो रही हो तथा वहीं दूसरे में पैर से सिर की तरफ।

🍁 इस संबंध में हरलॉक जी ने भी अपना एक कथन प्रस्तुत किया है कि ” प्रत्येक जाति,पशु या मानव जाति अपनी जाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान का अनुसरण करती है।”

🌟 सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत :
🌿 इस सिद्धांत के अनुसार बालक पहले सामान्य क्रियाएं करता है उसके पश्चात विशिष्ट क्रियाएं करने लगता है।
🍁 जैसे कि :- सर्वप्रथम बालक पहले अपने कुछ अंगों को चलाने का प्रयास करता है फिर अपने पूरे शरीर को चलाने का प्रयास करता है।

🌸 इसके अंतर्गत एक और सिद्धांत दिया गया है :-

🌟 अंतः क्रिया का सिद्धांत :-
🌿 इस सिद्धांत के अंतर्गत बालक अपने वातावरण और वंशानुक्रम के प्रति अंतः क्रिया करता है। इसमें भी बालक उसी प्रकार के कार्य करते हैं। सबसे पहले अपनी उंगलियों को हिलाना फिर अपने संपूर्ण हाथ का प्रयोग करना रिश्ता है यह सब बालक अपने वातावरण और वंशानुक्रम के अंतः क्रिया से ही कर पाता है।

🌸🌸🌸🌸समाप्त 🌸🌸🌸🌸

🌷🌷Notes by :- Neha Kumari 😊

🙏🙏🙏🙏धन्यवाद् 🙏🙏🙏🙏

🌺🌺🌺 बाल विकास🌺🌺🌺

⭐🍁⭐ बाल विकास के सिद्धांत⭐🍁⭐

बाल विकास के सिद्धांत गैरी संधू व अन्य के द्वारा दिए गए हैं

गैरिसन ने आठ प्रकार के सिद्धांत बताए हैं इन सिद्धांतों का वर्णन निम्नलिखित है

🎇 विकास की दिशा का सिद्धांत:–
इस समय बालाजी विकास की दिशा से संबंधित चर्चा की जाती है बालक के विकास की 2 दिशाएं होते हैं

⭐ सफेलो काॅडल मॉडल:-(cephalocaudal)

इसमें बालक का विकास सिर से पैर की ओर होता है

⭐प्रोक्सीमाॅडिस्टल:-
(Proximodistal )

इसमें बालक का विकास केंद्र से परिधि की ओर होता है

🎇 निरंतर विकास का सिद्धांत :-
इस सिद्धांत के अंतर्गत बालक का विकास निरंतर चलता रहता है इसकी गति कभी समान होती है तो कभी मंद गति से प्रकृति पर गति से चलता है और कभी तेज होती है

🎇विकास के क्रम का सिद्धांत:- विकास के क्रम के सिद्धांत के अंतर्गत व्यक्ति का विकास एक निश्चित क्रम व्यवस्था क्रम में होता है बालक का विकास गति संबंधी भाषा संबंधी बौद्धिक संबंधी क्रम के अनुसार चलता है

🎇 व्यक्तिक विभिन्नता का सिद्धांत:-
इस सिद्धांत के अनुसार हम अनेक व्यक्तियों के अलग-अलग पक्षों के बारे में पता लगा सकते हैं जैसे की हम दूसरे के अनेक प्रकार की विभिन्नता बताए जाती है
शारीरिक मानसिक सांस्कृतिक और संवेगात्मक इत्यादि के अनेक प्रकार की भिन्नता पाई जाती हैं

🎇समान प्रतिमान का सिद्धांत :-
इस सिद्धांत के अंतर्गत है सभी व्यक्तियों का विकास समान रूप से होता है मानव जाति में शिशु के विकास का प्रतिमान एक ही ही है उनके विकास में किसी भी प्रकार का अंतर नहीं होता है अर्थात हम कह सकते हैं कि मानव के शिशु समान ही होते हैं एवं पशु के शिशु पशु होते हैं

🎇 पारस्परिक संबंध का सिद्धांत:-
प्रत्येक बाला का विकास का संबंध अपने ही विभिन्न विशेषताओं में सम्मानित रखता है जैसे कि शारीरिक विकास का संबंध मानसिक विकास से होता है और मानसिक विकास को संबंध संवेगात्मक विकास से होता है रुचि ध्यान और व्यवहार से हमारे शारीरिक विकास पर प्रभाव पड़ता है और शारीरिक विकास और मानसिक विकास से हमारी रुचि और व्यवहार में परिवर्तन होता है अर्थात हम कह सकते हैं कि विकास एक दूसरे से पारस्परिक संबंध है

🎇सामान्य से विशिष्ट प्रक्रियाओं का सिद्धांत :-
एक सिद्धांत के अनुसार बालक पहले सामान क्रिया करता है इसके बाद विशिष्ट क्रियाओं को करता है जैसे कि बालक पहले अपने पूरे शरीर को चलाने का प्रयास करता है फिर छोटे-छोटे अंगों को चलाता है
उदाहरण – पहले बालक अपने पूरे हाथ को चलाता है फिर हाथों की उंगलियों पर नियंत्रण करना सीखता है

🎇अंतः क्रिया का सिद्धांत:- इस सिद्धांत में बालक अपने वंशानुक्रम वातावरण के बीच अंतर क्रिया करता है इसमें बालक पहले अपनी उंगलियों को हिलाता है और फिर अपने संपूर्ण हाथ का प्रयोग करता है यह सब बालक अपने वातावरण वंशानुक्रम के अंतः क्रिया से ही कर पाता है

✍🏻✍🏻✍🏻Notes by– Menka patel ✍🏻✍🏻✍🏻

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बाल विकास के सिद्धांत

यह वह अध्ययन है जिसके द्वारा हम किसी भी बच्चे के विकास को महत्वपूर्ण रूप से वह पूरी तरह से समझ सकते हैं ।

गैरीसन व उनके साथियों ने कहा कि जब कोई भी बालक एक अवस्था से दूसरी अवस्था में प्रवेश करता है तो उस में कई परिवर्तन होते हैं जो हमें दिखाई देते हैं।
कई अध्ययनों से यह ज्ञात हुआ है कि विकास का यह सिद्धांत एक निश्चित सिद्धांत का अनुसरण करने की प्रवृत्ति को विकसित करता है और इन्हीं सिद्धांतों पर विकास की प्रक्रिया नियंत्रित होती है।

बालक का विकास कुल आठ प्रक्रियाओ पर निर्भर करता है।

1 विकास की दिशा का सिद्धांत।
2 निरंतर विकास का सिद्धांत।
3 विकास के क्रम का सिद्धांत।
4 व्यक्तिगत विभिन्नता का सिद्धांत।
5 पारस्परिक संबंध का सिद्धांत।
6 समान प्रतिमान का सिद्धांत।

◼️ 1 विकास की दिशा का सिद्धांत शिशु के शरीर का विकास सिर से पैर की ओर(मस्तोतमुखी) होता है जिसे *सिफेलो कॉडल मॉडल(Cephalocoddle)* कहा जाता है।

  • केंद्र से परिधि की ओर विकास धड़ से अन्य अंगों की ओर होता है जिसे प्रॉक्सिमोडिस्टल मॉडल(Proximodistal) कहा जाता है।

◼️ 2 निरन्तर विकास का सिद्धांत
विकास निरन्तर रूप से चलता है समान गति से नहीं होता अर्थात विकास की प्रक्रिया कभी तीव्र तो कभी मंद होती है अर्थात विकास वर्तुलाकार आकार होता है।

बच्चे की इच्छा, वातावरण,आवश्यकता भी विकास की क्रिया को प्रभावित करती है।

◼️ 3 विकास के क्रम का सिद्धांत
बालक का विकास एक निश्चित व्यवस्थित क्रम में होता है इसमें बच्चे की भाषा संबंधी, बौद्धिक संबंधी गति संवेदी या किसी भी रूप में बच्चे की गति कौशल का जो बढ़ना है वह एक क्रमानुसार या व्यवस्थित रूप से या एक पैटर्न का पालन करता है।

जैसे
तीसरे माह में बच्चे गले से एक विशेष तरह की आवाज निकालते हैं।
छठे माह में बच्चा खिलखिलाकर हंस ता है।
सातवें माह में बच्चा बा, दा जैसे आदि शब्दों को बोलने का प्रयास करता है।

◼️ 4 व्यक्तिगत विभिन्नता का सिद्धांत
किसी भी दो बच्चे में चाहे वह जुड़वा हो या भाई बहन हो या कोई अन्य भी हो सभी में किसी न किसी रूप में किसी न किसी मामले में जैसे सोच, विचार, संवेग ,आवश्यकता व्यवहार, शारीरिक , मानसिक, लिंग, आर्थिक ,ज्ञान किसी भी रूप में व्यक्तिगत भिन्नता पाई जाती है।

हर व्यक्ति में शारीरिक मानसिक व सामाजिक भिन्नता पाई जाती है।
पीजी इन अभिनेताओं को नकारा नहीं जा सकता यह हमें ज्ञात होती हैं। यही भिन्नता विकास के सिद्धांत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

◼️ 5 पारस्परिक संबंध का सिद्धांत
हर व्यक्ति में शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक सभी का आपस में परस्पर संबंध होता है ,और इसी के साथ ही बच्चे की रुचि, ध्यान ,व्यवहार ,प्रेरणा, व आवश्यकता में भी परिवर्तन होता है जिसके फलस्वरूप विकास में भी परिवर्तन होता है।

इसका विपरीत पक्ष भी देख सकते हैं जैसे हमारी मानसिक क्षमता, शारीरिक क्षमता और संवेगात्मक क्षमता जैसी होती है वैसा ही हम किसी कार्य में रुचि लेते हैं या उसके प्रति व्यवहार करते हैं।

◼️ 6 समान प्रतिमान का सिद्धांत
प्रत्येक जाति के शिशुओं के विकास का प्रतिमान एक ही है उनके विकास में किसी भी प्रकार का अंतर नहीं होता है।
हरलॉक के अनुसार “प्रत्येक जाति (पशु या मानव जाति)अपनी जाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान का या पैटर्न का अनुसरण करता है”।

◼️ 7 सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत
कोई भी बच्चा किसी भी कार्य को करने में पहले सामान्य प्रतिक्रिया देता है फिर धीरे-धीरे वह विशिष्ट प्रतिक्रिया देने लगता है।

जैसे कोई छोटा बच्चा यदि किसी चीज को उठाना चाहता है तो वह पहले अपने संपूर्ण सामान्य अंगों को हिलाता है लेकिन जब वह धीरे-धीरे बढ़ा या विकसित होने लगता है तो अपनी संपूर्ण विशिष्ट अंगों से उस चीज को उठा लेता है।
जैसे बच्चे बचपन में पेट के बल चलते हैं फिर धीरे-धीरे घुटनों के बल, फिर धीरे-धीरे खड़ा होना सीखते हैं, फिर चलना ,और फिर संपूर्ण रूप से दौड़ना सीख जाते हैं।

इसका एक भाग एकीकरण का सिद्धांत भी है।
जिसमें जो भी क्रियाएं होती हैं वह सामान्य रूप से होती हैं तथा धीरे-धीरे विशिष्ट हो जाती हैं और विशिष्ट रूप ही एकीकृत या संश्लेषित रूप में या एकसार रूप से हो जाती हैं।

◼️ 8 वातावरण व अनुवांशिकता की अंतः क्रिया का सिद्धांत
बच्चे का विकास पर्यावरण और अनुवांशिकता की अंतः क्रिया है। अर्थात बच्चे का विकास पर्यावरण व अनुवांशिकता का ही गुणनफल है।
परिस्थिति के अनुसार पर्यावरण अनुवांशिकता बच्चे के विकास को प्रभावित करते हैं। दुनिया का हर एक बच्चा इस दुनिया को अपने एक नजरिए से देखता है।

आवश्यकता की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है पर्यावरण व अनुवांशिकता की अंतः क्रिया में।
जैसे यदि माता-पिता की रूचि या व्यवहार किसी कार्य को करने का है तो जरूरी नहीं कि बच्चे की रुचि वह व्यवहार भी उसी प्रकार का होगा अतः वातावरण व अनुवांशिकता की अंतः क्रिया का प्रभाव बालक के विकास को प्रभावित करता है।

✍🏻
Notes By-Vaishali Mishra

बाल विकास की सिद्धांत
बाल विकास का सिद्धांत गैरीसन और अन्य मनोवैज्ञानिकों के द्वारा दिए गए इनके द्वारा दिए गए 8 सिद्धांत निम्न है
1️⃣ विकास की दिशा का सिद्धांत
विकास की दिशा सेफेलोंकोडल तथा प्रॉक्सिमोडिस्टल दिशा में होता है

💫सेफेलोकोडल:-इसमें बालक का विकास सिर से पैरों की ओर होता है
💫 प्रॉक्सिमोडिस्टल:-इसमें बालक का विकास केंद्र से परिधि की ओर होता है।
इस सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास पहले सर धड़ और उसके बाद टांगों का विकास होता है।

2️⃣ निरंतर विकास का सिद्धांत:-
निरंतर विकास का सिद्धांत का अर्थ है कि मानव जाति में विकास गर्भावस्था से जीवन पर्यंत चलता रहता है।

3️⃣ विकास के क्रम का सिद्धांत:-
विकास के क्रम की सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति का विकास एक निश्चित एवं क्रमबद्ध दिशा में होता है जैसा कि पहले बालक का सिर फिर धड़ और बाद में टांगों का विकास होता है

4️⃣ व्यक्तित्व भिन्नता का सिद्धांत:-
हर व्यक्ति अलग अलग होता है और उसका अलग अलग तरह से विकास होता है बालक में शारीरिक मानसिक सामाजिक संवेगात्मक आदि अनेक प्रकार की विशेषताएं होती हैं।हमें इससे पता चलता है की कौन सा बालक कैसे विकास कर सकता है।

5️⃣ पारस्परिक विकास का सिद्धांत:-
विकास एक पारस्परिक चलने वाली प्रक्रिया है।बालक के विभिन्न संबंधों के कारण वालों को में विभिन्न क्षेत्रों में विकास एक दूसरे पर निर्भर करता है वह हर रूप में एक दूसरे पर ही निर्भर होते हैं फिर वहां सामाजिक सांस्कृतिक संवेगात्मक शारीरिक किसी भी प्रकार का विकास क्यों ना हो।

6️⃣ समान प्रतिमान का सिद्धांत:-
इस सिद्धांत के अनुसार सभी प्राणी चाची का विकास एक समान प्रतिमान के अनुसार होता है कश मानव जाति के शिशु का विकास का प्रतिमान एक
ही हैं उनके विकास में कोई अंतर नहीं है।
हरलॉक के अनुसार:- “प्रत्येक जाति पशु या मानव जाति अपनी जाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान का अनुकरण करती है।”

7️⃣ अंतः क्रिया का सिद्धांत:-
इस सिद्धांत के अनुसार बालक अपने वातावरण वंशानुक्रम के प्रति अंतः क्रिया करता है।

8️⃣ सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत:-इस सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास सामान्य से विशिष्ट की ओर होता है जैसा कि बालक पहले अपने हाथों को उठाता है फिर कोहनी को उसके बाद वह उंगलियों को चलाता है।

✍🏻✍🏻Notes by Raziya khan✍🏻✍🏻

🌺🌺🌺 विकास का सिद्धांत🌺🌺🌺। 🌺बाल विकास के सिद्धांत को गैरिसन तथा अन्य के द्वारा दिया गया। 🌺 बाल विकास के सिद्धांत को आठ चरण में रखा गया। 🌺 हम निम्नलिखित पंक्तियों में उनका वर्णन कर रहे हैं। 👉🏼1-विकास की दिशा का सिद्धांत 👉🏼2-निरंतर विकास का सिद्धांत👉🏼3-विकास के क्रम का सिद्धांत👉🏼4- वैयक्तिक अंतर का सिद्धांत। 👉🏼5 पारस्परिक संबंध का सिद्धांत 👉🏼6-समान प्रतिमान का सिद्धांत👉🏼7-सामान्य व विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत। 👉🏼8-अंतः क्रिया का सिद्धांत। 🌺🌺 विकास की दिशा का सिद्धांत🌺। इस सिद्धांत के अनुसार, बालक का विकास सिर से पैर की दिशा में होता है इसमें बालक के विकास की दो दिशाएं बताई गई है। 1- सपेरों काॅडल माडॅल। इसमें बालक का विकास सिर से पैर की ओर होता है। 2-प्रोक्सीमाॅडिस्टल। इसमें बालक का विकास केंद्र से परिधि की ओर। 🌺 निरंतर विकास का सिद्धांत। इस सिद्धांत के अनुसार विकास की प्रक्रिया अविरल गति से निरंतर चलती रहती हैयह कभी समान गति से नहीं चलती कभी धीमी चलती है तो कभी तेज गति से चलती है। 🌺 विकास के क्रम का सिद्धांत। यह सिद्धांत बताता है कि विकास एक निश्चित या व्यवस्थित क्रम में होता है बालक का गति संबंधी भाषा संबंधी बौद्धिक विकास यह एक क्रम या पैटर्न को follow करता है 🌺 वैयक्तिक अंतर का सिद्धांत। किस सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक बालक और बालिका के विकास का अपना स्वयं स्वरूप होता है इस सिद्धांत में व्यक्तिक भिन्नता में पाई जाती हैं। 🌺 पारस्परिक संबंध का सिद्धांत। इस सिद्धांत के अनुसार बालक के शारीरिक मानसिक संवेदनात्मक आदि पहलुओं के विकास में परस्पर संबंध होता है अर्थात जब बालक के सारे विकास के साथ-साथ उसकी रुचियां ध्यान के केंद्रीकरण और व्यवहार में परिवर्तन होता है। 🌺 समान प्रतिमान का सिद्धांत।प्रत्येक जाती चाहे वह पशु जाती हो या मानव जाति अपनी जाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान का अनुसरण करती है। 🌺 सामान्य व विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत। विकास और वृद्धि की सभी दिशाओं में विशिष्ट क्रियाओं से पहले उनके समान रूप के दर्शन होते हैं। 🌺 अंतः क्रिया का सिद्धांत। इस सिद्धांत में बालक अपने वंशानुक्रम वातावरण के बीच अंतर क्या करता है इसमें बालक पहले अपनी उंगलियों को हिलाता है और फिर संपूर्ण हाथ का प्रयोग करता है यह सब बालक अपने वातावरण वंशानुक्रम के अंतः क्रिया से ही कर पाता है। 🖊️🖊️ Notes by-Sakshi Sharma🖊️🖊️

🌟 विकास का सिद्धांत (Theories of Development) 🌟

गैरिसन व अन्य द्वारा:- जब बालक विकास की एक अवस्था दूसरी अवस्था में प्रवेश करता है तो बालक के विकास में कुछ परिवर्तन देखे जाते हैं अतः उन्होंने अपने अध्ययन में यह पाया कि इस परिवर्तन में किसी निश्चित सिद्धांत का अनुसरण करने की प्रवृत्ति होती है, इसे “विकास का सिद्धांत”कहा जाता है।
विकास के सिद्धांत को कुल आँठ भागों में विभाजित किया गया है ,जो निम्नलिखित है–

१. विकास की दिशा का सिद्धांत
२. निरंतर विकास का सिद्धांत
३. विकास के क्रम का सिद्धांत
४. व्यक्तिक विभिन्नता का सिद्धांत
५. पारस्परिक संबंध का सिद्धांत
६. समान प्रतिमान का सिद्धांत
७. सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत
८. अंतः क्रिया का सिद्धांत

💫 विकास की दिशा का सिद्धांत:- इस सिद्धांत में शिशु का विकास सिर से पैर की ओर होता है अतः जब बच्चा मां के गर्भ में आता है तो पहले बच्चे के सिर का विकास , फिर धड़ का विकास और उसके बाद पैर का विकास होता है, जिसे Cephalocaudal/मस्तकाधोमुखी भी कहा जाता है। इसी के अंदर Proximodistal में बालक का विकास केंद्र से परिधि की ओर होता है।

💫 निरंतर विकास का सिद्धांत:- विकास निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है ,जो एक समान गति से कभी नहीं चलती है निरंतर चलती रहती है।तथा कभी तीव्र गति से या मंद गति से चलती है।

💫 विकास के क्रम का सिद्धांत:- बालक का विकास एक निश्चित या व्यवस्थित क्रम में होता है ,जैसे कोई बच्चा दो साल का है तो वह दो साल के बच्चे की तरह ही गतिविधियां करेगा न कि पांच साल के बच्चे की तरह।

💫 व्यक्तिक विभिन्नता का सिद्धांत:- प्रत्येक व्यक्ति में किसी न किसी रूप में विभिन्नता पाई जाती है। व्यक्ति की विभिन्नता के आधार पर व्यक्तिगत विभिन्नता को तीन भागों में बांटा गया है–
१. शारीरिक (Physically)
२. मानसिक (Mentally)
३. सामाजिक (Socially)
इन सब के आधार पर व्यक्ति में अलग-अलग प्रकार की विभिन्न विभिन्नए पाई जाती है जिसे, नकारा नहीं जा सकता तथा यह व्यक्तित्व के विकास में महत्वपूर्ण योगदान रखता है।

💫 पारस्परिक संबंध का सिद्धांत:- पारस्परिक संबंध का सिद्धांत बालक के शारीरिक, मानसिक, और संवेगात्मक इन सभी चीजों में पारस्परिक संबंध होता है जो बालक के रुचि, ध्यान, व्यवहार, प्रेरणा ,आवश्यकता इत्यादि इन सभी बातों का प्रभाव बच्चे के विकास पर डालता है और उसके साथ-साथ उनके व्यवहार के विकास में भी परिवर्तन होता है।

💫 समान प्रतिमान का सिद्धांत:- इस विकास के सिद्धांत में मानव जाति के शिशु के विकास का प्रतिमान एक ही होता है उनके विकास में किसी प्रकार का अंतर नहीं होता है।

हरलॉक के अनुसार:- “प्रत्येक जाति (पशु या मानव जाति)अपनी जाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान का अनुसरण करती है।”

💫 सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत:- कोई भी बच्चा किसी भी कार्य में सामान्य प्रतिक्रिया देता है उसके बाद धीरे-धीरे विशिष्ट प्रतिक्रिया करता है जैसे–बच्चा खाने के निवाले को अपने मुंह में पूरा ले लेता है उसके बाद वह धीरे धीरे खाना खाने सीख जाता है।

👉🏻 नोट–एकीकरण का सिद्धांत इसी का भाग है पहले सामान्य क्रिया में चलती है फिर धीरे-धीरे एकीकृत हो जाती है।

💫 वंशानुक्रम तथा वातावरण की अंतः क्रिया का सिद्धांत:– बच्चे का विकास उसके वंशानुक्रम और वातावरण की अंतः क्रिया का संबंध है। बच्चे पर उसके वंशानुक्रम और वातावरण दोनों का प्रभाव पड़ता जो वंशानुक्रम और वातावरण का गुणनफल होता है जिसका प्रभाव बच्चे पर सबसे ज्यादा होगा बच्चे का विकास उसी प्रकार से प्रभावित होगा।

✍🏻Notes by–pooja

🔆 बाल विकास 🔆

🌀🪔🌀 बाल विकास के सिद्धांत 🌀🪔🌀

बाल विकास का सिद्धांत गैरिसन व अन्य के द्वारा दी गई है➖

जब बालक एक अवस्था से दूसरी अवस्था में प्रवेश करता है तो प्रत्येक अवस्था में बच्चे का व्यवहार ,बोलचाल के तरीके और क्रियाकलाप में भी परिवर्तन दिखाई देता है । और विकास के अध्ययन में भी यह पाया गया है कि विकास का क्रम एक निश्चित सिद्धांत का अनुसरण करता है अर्थात विकास एक क्रम से ही आगे बढ़ता है निश्चित सिद्धांत की अनुसरण करने की प्रवृत्ति ही विकास का सिद्धांत कहलाती है।

गैरिसन व अन्य के द्वारा विकास के सिद्धांत को 8 भागों में बांटा गया है यह सिद्धांत इस प्रकार से हैं

🔮 विकास की दिशा का सिद्धांत,,
🔮 निरंतर विकास का सिद्धांत,,
🔮 विकास के क्रम का सिद्धांत,,
🔮 वैयक्तिक विभिन्नता का सिद्धांत,,
🔮 पारस्परिक संबंध का सिद्धांत,,
🔮 समान प्रतिमान का सिद्धांत,,
🔮 सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत,,
🔮 वंशानुक्रम और पर्यावरण के मध्य अंतः क्रिया का सिद्धांत,,

🌺 विकास की दिशा का सिद्धांत

विकास की दिशा का सिद्धांत से तात्पर्य यह है कि शिशु के शरीर का विकास सिर से पैर की ओर होता है इसे ही सफेलोकाॅडल (cephalocaudal) कहते हैं। अर्थात जब बच्चा गर्भ में होता है तो उसका विकास पहले सिर का, फिर धड़ का ,उसके बाद फिर पैर का विकास होता है।

केंद्र से परिधि की ओर➖ यह प्रॉक्सिमोडिस्टल (proximodistal ) कहा जाता है। अर्थात किसी बालक का विकास केंद्र से शरीर के चारों तरफ का विकास होता है।

🌺 निरंतर विकास का सिद्धांत

विकास कभी भी रुकता नहीं है क्योंकि विकास की प्रक्रिया निरंतर चलते रहती है विकास जीवन पर्यंत होता रहता है क्योंकि विकास एक समान गति से नहीं चलता कभी धीमा या कभी तीव्र गति से चलता है।
अर्थात बालक का विकास जन्म से पहले गर्भावस्था के समय से ही शुरू हो जाता है और आजीवन चलते रहता है।

🌺 विकास के क्रम का सिद्धांत

विकास के क्रम के सिद्धांत के अनुसार विकास एक निश्चित एवं व्यवस्थित क्रम में होता है प्रत्येक बालक का गति संबंधी ,भाषा संबंधित, बौद्धिक विकास एक क्रम या एक पैटर्न को अनुसरण करता है। अर्थात जन्म से पहले और जन्म के बाद बालक का विकास एक पैटर्न का पालन करता है शारीरिक विकास, भाषा का विकास, बौद्धिक विकास मानव शरीर में एक निश्चित क्रम में होता है।

जैसे बालक प्रारंभ में कुछ ही अक्षरों को बोल पाता है उसके पश्चात ही अक्षरों को जोड़कर बने शब्दों को बोल पाता है। इस प्रकार बालक मे एक क्रम के अनुसार ही विकास होता है है।

🌺 वैयक्तिक विभिन्नता का सिद्धांत

प्रत्येक व्यक्ति में व्यक्तिगत विभिन्नताएं पाई जाती हैं हर बच्चे में अलग-अलग भिन्नता होती है और यह भिन्नता शारीरिक रूप से, या मानसिक रूप से, या सामाजिक रूप से हो सकता है अलग -अलग व्यक्ति के विकास की गति में विभिन्नताएं होती हैं।

जैसे बालक और बालिकाओं के बीच विकास की दर में अंतर होता है ऐसा कहा जाता है कि लड़कियां, लड़कों की तुलना में पहले परिपक्व हो जाती हैं अर्थात लड़कियां अपनी उम्र के लड़कों की तुलना में मानसिक तौर पर ज्यादा विकसित होती हैं।

🌺 पारस्परिक संबंध का सिद्धांत

प्रत्येक बालक का विकास का संबंध आपस में एक दूसरे से संबंधित होते हैं जैसे शारीरिक विकास का संबंध मानसिक विकास से होता है मानसिक विकास का संबंध संवेगात्मक विकास से होता है अर्थात सभी एक दूसरे से जुड़े हुए होते हैं।

जैसे बालक के शारीरिक क्षमता मानसिकता या संवेग जैसे होता है वैसे ही बालक की रुचि, ध्यान, व्यवहार, प्रेरणा और आवश्यकता भी होती है अर्थात ये अलग-अलग क्षमता आपस में एक दूसरे से परस्पर संबंधित होते हैं शारीरिक क्षमता के कारण ही हमारी मानसिकता भी परिवर्तित होती है और इस मानसिकता के कारण हमारे संवेगात्मक क्रियाएं भी बदलती हैं।

ठीक इसके विपरीत यदि बालक की अलग-अलग क्षमता है जैसे रुचि, ध्यान ,व्यवहार प्रेरणा, आवश्यकताएं जैसी होती हैं वैसे ही बालक की शारीरिक ,मानसिक व संवेगात्मक क्षमता भी होती है अर्थात कहने का तात्पर्य है कि यह सब आपस में एक दूसरे से संबंधित होते हैं।

🌺 समान प्रतिमान का सिद्धांत

इस सिद्धांत के अनुसार सभी व्यक्तियों का विकास समान प्रतिमान से होता है।

इस सिद्धांत के अंतर्गत मानव जाति के शिशुओं के विकास का प्रतिमान एक ही है उनके विकास में किसी भी प्रकार का अंतर नहीं होता है।

इसी संबंध में हरलॉक ने अपना कथन दिए हैं इनके अनुसार

प्रत्येक जाति( पशु या मानव जाति) अपनी जाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान का अनुसरण करती है

🌺 सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत

प्रत्येक बालक सामान्य से विशिष्टता की ओर ही आगे बढ़ता है। कोई भी बालक पहले साधारण या सरल क्रियाएं करता है फिर विशिष्ट क्रियाएं करता है। अर्थात विकास के अलग-अलग पक्ष में कोई भी बच्चा पहले सामान्य रूप से किसी चीज को समझता है फिर विशिष्ट रूप से ही उसी चीज को समझता है।

जैसे बालक अपने पहले पूरे अंगों को चलाना सीखता है फिर उस अंग के प्रत्येक भागों को चलाना सीखता है यह प्रतिक्रिया सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत कहलाता है।

💠💠 इसके अंतर्गत एकीकरण का सिद्धांत है जो सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं के सिद्धांत का ही एक भाग है

🌺 एकीकरण का सिद्धांत➖इस सिद्धांत में बालक में पहले सामान्य प्रतिक्रियाओं का विकास होता है फिर वहां से बढ़कर विशिष्ट प्रतिक्रिया को पूरी तरह से एकीकृत किया जाता है इसका तात्पर्य यह हुआ कि बालक पहले संपूर्ण अंग को अर्थात सामान्य प्रतिक्रिया फिर बाद में विशिष्ट भागों का प्रयोग कर पाता है या अंगों को चलाना सीखता है फिर उन भागों का एकीकृत करना सीखता है।

🌺 वंशानुक्रम और पर्यावरण के मध्य अंतः क्रिया का सिद्धांत

बालक का विकास वंशानुक्रम और वातावरण के मध्य अंत:क्रिया है।

बालक के विकास में वंशानुक्रम और वातावरण दोनों का योगदान होता है अर्थात बालक का विकास आनुवंशिकता और वातावरण का गुणनफल होता है।

जैसे किसी बालक के पिता संगीत गाते हैं तो उस बालक को यह गुण विरासत में मिलता है लेकिन बालक की रुचि पर निर्भर करता है कि बालक की रुचि संगीत में है या नहीं।

🔮🌀🔮 उपरोक्त तथ्यों से यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रत्येक बालक के विकास का सिद्धांत आठ प्रकार के भागों में होकर संपन्न होता है अर्थात जैसे जैसे बच्चे बड़े होते हैं उनमें भावनात्मक, सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक परिवर्तन समय के साथ चलता रहता है।🔮🌀🔮

📚📚 समाप्त📚📚

✍🏻 Notes by manisha gupta✍🏻

🌈🌺 विकास का सिद्धांत (theories of development) 🌺💥
🌿 गैरिसन व अन्य-विकास का सिद्धांत-निश्चित सिद्धांत का अनुसरण करने की प्रवृत्ति होती है। इन सिद्धांत से विकास का बारे में नियंत्रण होता हैं एक अवस्था से दूसरे अवस्था में प्रवेश करते हैं।बच्चों में जो परिवर्तन दिखाई देते हैं वह निश्चित क्रम में होती है
💥 विकास की दिशा-“सिर से पैर की ओर”
शिशु के शरीर का विकास सिर से पैर की ओर होती है इसमें बच्चे के सिर का विकास पहले होता है और बाद में पैर का विकास होता है इसी को cephalocaudal मॉडल कहते हैं
🌸प्रॉक्सिमोडिस्टल (proximodistal)-इसमे बच्चे का विकास केंद्र से परिधि की ओर होती है

🌿🌺 निरंतर विकास का सिद्धांत-

विकास निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है समान गती से नहीं चलता है कभी कम होता है और कभी ज्यादा लेकिन निरंतर चलते रहता है
🌈🌺 विकास के क्रम का सिद्धांत-

विकास एक निश्चित या व्यवस्थित क्रम में होता है बालक का गति संबंधि, भाषा संबंधित , बौद्धिक विकास यह एक क्रम या पैटर्न को फॉलो करता हैं जैसे- बच्चा पहले अ् ब म इत्यादि बोलते हैं तब वह धीरे-धीरे शब्द बोलने की कोशिश करता है तथा उसके बाद सेंटेंस बोलता है
🌈🌸 व्यक्तिक विभिन्नता का सिद्धांत-
किसी भी मामले में दो बच्चे के बीच भिन्नता होती है चाहे शारीरिक रूप में मानसिक रूप में या सामाजिक रूप में, दो बच्चे के बीच शारीरिक रूप से भी भिन्नता जैसे एक बच्चा लंबा हो तथा दूसरा बच्चा नाट हो, मानसिक रूप से बच्चा तेज या मंदबुद्धि वाला हो सकता है सामाजिक रुप से बच्चा एक ही समाज में अलग-अलग तरह से व्यवहार करते हैं
🔥🌿 पारस्परिक संबंध का सिद्धांत

-एक ही बच्चे में शारीरिक, मानसिक तथा संवेगात्मक के कारण बच्चे के रुचि ,ध्यान ,व्यवहार, प्रेरणा, आवश्यकता इत्यादि अलग-अलग रूप से संबंध होते हैं या दूसरे शब्दों में – रुचि ,ध्यान, व्यवहार, प्रेरणा, आवश्यकता इत्यादि से बच्चों के शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक, के कारण संबंध होते हैं इन्हें पारस्परिक संबंध का सिद्धांत कहा जाता है अर्थात
जैसा शारीरिक ,मानसिक क्रिया होगी वैसा ही संवेग हो जाती है
🌈🌸 समान प्रतिमान का सिद्धांत-

हम सब मानव जाति के शिशुओं के विकास का प्रतिमान एक ही है उनके विकास में किसी प्रकार का अंतर नहीं होता है
इसी से संबंधित एक वैज्ञानिक है
🌈हरलॉक
-प्रत्येक जाति (पशु या मानव जाति) अपनी जाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान का अनुसरण करती हैं
🌈🌸 सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत
-कोई भी बच्चा किसी भी काम में पहले समान प्रतिक्रिया देता है उसके बाद वह विशिष्ट कार्य करता है
🌈🌿 अंतः क्रिया का सिद्धांत-
बच्चे के विकास में वंशानुक्रम तथा इन्वायरमेंट दोनों का इंपैक्ट पड़ता है बच्चे में विकास किसी एक कारण के द्वारा नहीं हो सकता है चाहे अनुवांशिक हो या इन्वायरमेंट इसमें दोनों का महत्वपूर्ण योगदान होता है अर्थात
बालक का विकास अनुवांशिक और इन्वायरमेंट के साथ अंतः क्रिया करता है
🌈🌸🙏Notes by-SRIRAM PANJIYARA 🙏🌺🌈

☘️विकास का सिद्धांत ☘️
( Theories Of Development)

बाल विकास का सिद्धांत गैरिसन व अन्य मनोवैज्ञानिकों द्वारा दी गई है:-

इसके अंदर यह देखा जाता है कि जब बालक विकास की एक अवस्था से दूसरे अवस्था में प्रवेश करते है तो उसमें परिवर्तन होता है जिसमें कुछ परिवर्तन दिखाई देते हैं और कुछ नहीं।

” निश्चित अनुसंधान सिद्धांत एक निश्चित सिद्धांत का अनुसरण करने की प्रवृत्ति होती है इसी सिद्धांत पर विकास की प्रक्रिया नियंत्रित होती हैं जिसे विकास का सिद्धांत बोला जाता है”!

इसी प्रवृत्ति के के आधार पर विकास के सिद्धांत को 8 भागों में बांटा गया हैं :➖

1} विकास की दिशा का सिद्धांत (Direction of Development) :-

शिशु के शरीर का विकास सिर से पैर की ओर होता है( पहले सर, धड़ और हाथ-पैर)। इसी को सफेलोकाॅडल मॉडल (Cephalocaudal) कहा जाता है

■ केंद्र से परिधि की ओर अर्थात् धड़ से अन्य अंगों तक विकास प्रॉक्सिमोडिस्टल (proximodistal) कहा जाता है।

2} निरंतर विकास का सिद्धांत :-

निरंतर समान गति से हमेशा एक जैसा नहीं होता कभी तेज तो कभी धीमा होता है एक लगातार चलने वाली प्रक्रिया है इसकी गति कभी तीव्र या कभी मंद होती है।

3} विकास के क्रम का सिद्धांत :-

विकास एक निश्चित या व्यवस्थित क्रम में होता है बालक का गति या भाषा संबंधी विकास ,बौद्धिक विकास यह एक क्रम या व्यवस्थित नमूना का अनुकरण करता है।

4} व्यक्तिक विभिन्नता का सिद्धांत :-

सभी व्यक्ति समान नहीं होते सभी के अंदर कुछ ना कुछ विभिनता पाए जाते हैं जैसे -शारीरिक, मानसिक ,सामाजिक ।
ठीक उसी प्रकार बच्चों के अंदर किसी भी आधार पर आर्थिक, लैंगिक ,शारीरिक ,मानसिक सामाजिक ,इत्यादि विभिन्नताएं होती हैं लेकिन शिक्षक होने के नाते हमें इन सारे विविधताओं का सम्मान करना चाहिए इन्हें हम नकार नहीं सकते।

5} पारस्परिक संबंध का सिद्धांत :-

हर बच्चे में शारीरिक, मानसिक ,संवेगात्मक तीनों ही पहलू जरूरी होती है इसमें रुचि, ध्यान ,व्यवहार, प्रेरणा में भी परिवर्तन होता है जिसके आधार पर बच्चों के विकास में परिवर्तन होता है।
जो हमारा संवेग वह हमारी शारीरिक, मानसिक विकास पर ही प्रभाव डालता है।

6} समान- प्रतिमान का सिद्धांत :-

प्रत्येक जाती अर्थात् मनुष्य हो या जानवर के शिशु दोनों के विकास में कोई अंतर नहीं होता।

हरलॉक के अनुसार :➖

प्रत्येक जाति( मनुष्य या मानव जाति) अपनी जाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान का अनुसरण करती हैं“!

7} सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत :- कोई भी बच्चा कोई भी काम में सामान्य प्रतिक्रिया देता है फिर वह धीरे-धीरे विशिष्ट प्रक्रिया की ओर देता है ।

जैसे कोई छोटा बच्चा बचपन में पेट के बल चलता है फिर धीरे-धीरे घुटनों के बल ,फिर वह किसी भी चीज के सहारे पकड़ कर खड़ा होना सीखता है, फिर चलना और अंततः वह एक उम्र के बाद संपूर्ण रुप से दौड़ना और चलना सीख जाते हैं।
इसी को एकीकरण का सिद्धांत भी कहते हैं!

8} अंतः क्रिया का सिद्धांत :-

किसी भी बच्चे का विकास अंतः क्रिया अर्थात् अनुवांशिकता और वातावरण दोनों से मिलकर होता है अर्थात् दोनों एक-दूसरे के गुणनफल है।

जैसे➖यह जरूरी नहीं है कि माता-पिता पिता के गुण बच्चों के अंदर भी हो बच्चे उसको अपनी रूचि के अनुसार अपना भी सकते हैं या नहीं भी। 🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃🍃

Notes by ➖Mahima kumari

💐 बाल विकास के सिद्धांत💐
बाल विकास से हमें बच्चे के विकास के अध्ययन का पता चलता है।
ःगैरिसन व अन्य साथियों ने कहा कि जब कोई भी बालक एक अवस्था से दूसरी अवस्था में जाते हैं और परिवर्तन होता है यह परिवर्तन दिखाई देते भी हैं नहीं भी दिखाई देते हैं यह परिवर्तन सिद्धांत के बेसिक पर होता है प्रत्येक बच्चे के विकास का क्रम है निश्चित समय के साथ होती है विकास एक पैटर्न पर होती है।
ः निश्चित सिद्धांत का अनुसरण करने की प्रवृत्ति होती है इसी को विकास का सिद्धांत कहा जाता है।
🌸 विकास के सिद्धांत को 8 में बताया गया है।

  1. विकास की दिशा का सिद्धांत
    ः शिशु के शरीर का विकास सिर से पैर की और होता है सबसे पहले सिर और उसके बाद पैर का विकास होता है जिसे सेफेलोकाडल(cephalocoddle )कहते हैं।
    ः प्रॉक्सिमोडिस्टल में बालक का विकास केंद्र से परिधि की ओर होता है। इस सिद्धांत के अनुसार बालक का धैर्य से अंगनार्य की तरफ विकास होता है।

2.निरंतर विकास का सिद्धांत
शिशु का विकास निरंतर रूप से चलती रहती है विकास कभी तेज होती है कभी धीमी होती है मगर विकास निरंतर होती रहती है विकास कभी भी एक गति सामान से नहीं चलती है बच्चे का वातावरण पर भी विकास का प्रभाव होता है।

  1. विकास के क्रम का सिद्धांत:-
    बच्चे का विकास एक निश्चित रूप में होता है विकास एक निश्चित या व्यवस्थित क्रम में होता है बालक का भाषा संबंधी,बोद्धिक संबंधी, गति संवेदी रूप में उसके किसी रूप में बच्चे की गति कौशल से होता है बच्चे का विकास क्रमानुसार या व्यवस्थित रूप से या एक पैटर्न का पालन करता है।
  2. व्यक्तित्व विभिन्नता का सिद्धांत:-
    सभी बच्चे का व्यक्तित्व अलग अलग होता है अगर सगे भाई बहन भी होते हैं उनका भी व्यक्तित्व अलग होता है वह किसी न किसी रूप में जैसे सोच में विचार में मानसिक शारीरिक सामाजिक की स्थिति में लीन आरती ज्ञान किसी भी रूप में व्यक्तित्व भिन्नता पाई जाती है हर व्यक्ति की अपनी एक अलग विभिन्नता होती हैं।
  3. पारस्परिक संबंध का सिद्धांत:-
    हर व्यक्ति में शारीरिक मानसिक संवेगात्मकपर सभी का आपस में परस्पर संबंधित होते हैं जैसे रूचि ध्यान व्यवहार प्रेरणा आवश्यकता में भी एक दूसरे से संबंधित होते हैं वैसे ही हमारी मानसिकता भी होती है।

इसके विपरीत भी देखते हैं कि जैसे हमारी मानसिकता क्षमता शारीरिक क्षमता और सकारात्मक क्षमता होती है वैसे हम किसी कार्य में रुचि लेते हैं उनके प्रति व्यवहार करते हैं ऐसी हमारी मानसिकता भी होती है।

  1. समान प्रतिमान का सिद्धांत:-
    मानव जाति के शिशु के विकास का प्रतिमान एक ही है उनके विकास में किसी भी प्रकार का अंतर नहीं होता है।
    🌸 हरलॉक के अनुसार ” प्रत्येक जाति (पशु या मानव जाति )अपनी जाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान का अनुसरण करते हैं।
  2. सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत:-
    कोई भी बच्चा पहले सामान्य तरीके से कार्य करता है फिर वह धीरे-धीरे विशिष्ट प्रतिक्रिया देने लगता है जैसे कोई छोटा बच्चा होता है कोई चीजों को उठाने के लिए पहले सोचता है या फिर उंगली से छूता है फिर बाद में वह पूरी तरीके से उठा लेता है।

इसे एक ही कारण काफी सिद्धांत कहते हैं जिसमें जो भी कार्य करते हैं वह सामान्य रूप से होती है फिर धीरे-धीरे विशिष्ट प्रकार से करते हैं जैसे कोई बच्चा पहले पेट के बल घुसुक ना सीखता है फिर वह धीरे-धीरे अपने पैर पर खड़ा होना सकते हैं फिर उंगलियों पकड़ के चलना सीखते थी वह पूरी तरीके से खुद से चलने लगते हैं।

  1. अंतः क्रिया का सिद्धांत:-
    बच्चे के विकास में वंशानुक्रम और वातावरण का अंतर क्या होता है बच्चे का विकास पर्यावरण और अनुवांशिकता का गुणनफल होता है बच्चे परिस्थिति के अनुसार पर्यावरण अनुवांशिकता दोनों का प्रभाव होता हैं।
    बच्चे की रूचि आवश्यकता अभिप्रेरणा का भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

Notes By :-Neha Roy

⬛विकास के सिद्धांत⬛

▪️गैरिसन व अन्य के अनुसार
➖बच्चों में देखा गया कि एक अवस्था से दूसरे अवस्था में प्रवेश करने पर कुछ बदलाव आते हैं जो परिवर्तन के रूप में होते हैं।
इसमें निश्चित सिद्धांत का अनुसरण करने की प्रवृत्ति पाई जाती है।

✳️ विकास की दिशा का सिद्धांत➖ इस सिद्धांत में बच्चों का विकास सिर से पैर की दिशा की ओर होती है जो सभी में एक ही प्रक्रिया से होती है जिसे हम सफेलो कॉडल मॉडल कहते हैं।
➖ विकास केंद्र से परिधि की ओर होती है जिसे प्रॉक्सीमोडिस्टल कहते हैं।

✳️ निरंतर विकास का सिद्धांत
➖ बच्चों की विकास हमेशा एक जैसी नहीं चलती है इसमें उतार-चढ़ाव होते रहता है जैसे कभी बहुत तेजी से होती है और कभी धीमी गति से भी होती है।

✳️ विकास के क्रम का सिद्धांत
➖ बच्चों का विकास एक निश्चित या व्यवस्थित क्रम में होता है बालक गति संबंधी भाषा संबंधी बौद्धिक संबंधी विकास में क्रम या पैटर्न को पूरा करता है।

✳️ व्यक्तित्व भिन्नता का सिद्धांत➖ व्यक्तित्व भिन्नता को हम इस प्रकार मान सकते हैं जैसे कि
➖ शारीरिक
➖मानसिक
➖सामाजिक
इन सभी प्रकार से व्यक्तियों में विभिन्नता पाई जाती है जो सभी में अलग प्रकार के होते हैं सब की मानसिक , शारीरिक और सामाजिक परिस्थितियां अलग अलग होती हैं।

✳️ पारस्परिक संबंध का सिद्धांत➖ इसमें भी बच्चों की अलग-अलग रुचि ,ज्ञान ,व्यवहार, प्रेरणा आवश्यकता जैसी चीजें होती है जो शारीरिक मानसिक और संवेगात्मक भावनाओं को प्रभावित करती है।

✳️ समान प्रतिमान का सिद्धांत
➖ सभी मनुष्य जाति में विकास एक ही प्रकार से होता है जो सभी में समान पाई जाती है। इसमें किसी भी प्रकार से अंतर नहीं पाया जाता है।
▪️ हरलॉक के अनुसार
➖ प्रत्येक जाति चाहे वह पशु हो या मनुष्य अपनी जाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान का अनुसरण करती है।

✳️ सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत
➖ बच्चों द्वारा किया गया कार्य पहले सामान्य क्रिया द्वारा की जाती है फिर उसे कुछ विशिष्ट रूप देने का बच्चे प्रयास करते हैं उसमें वह सफल भी होते हैं।

✳️ अन्तः क्रिया का सिद्धांत
➖ बच्चों के विकास में उसे माता-पिता से मिले अनुवांशिकता के गुण और वातावरण से मिले प्रभाव का मिश्रण होता है जो मिलकर बच्चे को और भी बेहतर बनाने की कोशिश करती है और आगे चलकर बच्चे को एक अच्छा इंसान बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है अतः इसे हम अन्तः क्रिया कह सकते हैं ।

🙏🙏Notes by — Abha kumari🙏🙏

🚼बाल विकास🚼 🚼विकास के सिद्धांत🚼

गैरिसन व अन्य के अनुसार

विकास एक अवस्था से दूसरे अवस्था में प्रवेश करता है परिवर्तन होता है कुछ परिवर्तन दिखते हैं कुछ नहीं दिखते
” निश्चित सिद्धांत का अनुसरण करने की प्रवृत्ति होती है इसे ही विकास का सिद्धांत कहते हैं “

विकास निम्न 8 चरणों से होकर गुजरता है
1 विकास की दिशा का सिद्धांत
2 निरंतर विकास का सिद्धांत
3 विकास के क्रम का सिद्धांत
4 व्यक्तिक विभिन्नता का सिद्धांत
5 पारस्परिक संबंध का सिद्धांत
6 समान प्रतिमान का सिद्धांत
7 सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत
8 अंतः क्रिया का सिद्धांत

1 विकास की दिशा का सिद्धांत:- विकास एक निश्चित दिशा में होता है शिशु के शरीर का विकास सिर से पैर की ओर होता है अर्थात पहले सिर धड़ इसके बाद पैर का विकास होता है इसे सफैलो कॉडल मॉडल ( cephalocandal )कहते हैं प्रॉक्सिमोडिस्टल केंद्र से परिधि की ओर होता है

2 निरंतर विकास का सिद्धांत:- विकास हमेशा एक समान गति से नहीं चलता कभी तेज कभी धीमी गति से होता है

3 विकास के क्रम का सिद्धांत /विकास का पैटर्न का सिद्धांत :- विकास एक निश्चित या व्यवस्थित क्रम में होता है बालक का गति संबंधी भाषा संबंधी बौद्धिक विकास यह क्रम या पैटर्न को फॉलो करता है

4 व्यक्तिक विभिन्नता का सिद्धांत:- विभिन्नता निम्न प्रकार से होती हैं
शारीरिक,मानसिक,सामाजिक सभी किसी न किसी रूप से भिन्न होते हैं कोई शारीरिक भिन्न होता है कि कोई मानसिक भिन्न होता है और किसी में सामाजिक भिन्नता पाई जाती है

5 पारस्परिक संबंध का सिद्धांत:- विकास के सभी पहलू आवश्यक शारीरिक मानसिक एवं संवेगात्मक इन्हीं से हमें रुचि ध्यान व्यवहार प्रेरणा आवश्यकता यह सब एक दूसरे से जुड़े हुए होते हैं

6 समान प्रतिमान का सिद्धांत:- मानव जाति के शिशुओं के विकास के प्रतिमान एक ही है उनके विकास में किसी प्रकार का अंतर नहीं होता

हरलॉक के अनुसार- प्रत्येक जाति (पशु या मानव जाति) अपनी जाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान का अनुसरण करती है

7 सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत:- विकास सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं की ओर अनुसरण करता है जैसे पहले बच्चा अपने पूरे अंगों को हिलाता है फिर वह अपने हाथ एवं उसके बाद वह अपनी उंगलियों को संतुलित करता है इसे हम एकीकरण का सिद्धांत भी कहते हैं या इसे हम संश्लेषित करना भी बोल सकते हैं

8 अंतः क्रिया का सिद्धांत:- इसमें हेरेडिटी तथा एनवायरमेंट का प्रभाव पड़ता है हेरेडिटी एवं एनवायरनमेंट एक दूसरे के गुणनफल होते है 🙏🙏🙏 सपना साहू🙏🙏🙏

✍🏻🍄 बाल विकास🍄

💫 गैरिसन व अन्य:- जब बालक किसी एक अवस्था से दूसरी अवस्था में प्रवेश करता है तो उसमें कई परिवर्तन होते हैं जो हमें दिखाई भी देते हैं और कुछ दिखाई नहीं देते हैं
विकास का यह सिद्धांत एक निश्चित सिद्धांत का अनुसरण करने की प्रवती को विकसित करता है।

✍🏻 गैरिसन व अन्य के अनुसार विकास के सिद्धांत के आठ चरण बताए हैं।

1- विकास की दिशा का सिद्धांत:-
🌼 शिशु के शरीर का विकास सिर से पैर की ओर होता है जिसे सिफेलोकॉडल ( Cephalocodle) कहां जाता है।

🌼 केंद्र से परिधि की ओर विकास होता है जिसे प्रॉक्सीमॉडिस्टल (Proximodistal)कहा जाता है।

2- निरंतर विकास का सिद्धांत:-
🌼विकास की प्रक्रिया अविराम गति से निरंतर चलती रहती है , विकास निरंतर तो चलता रहता है लेकिन एक समान गति से नहीं चलता है कभी तीव्र गति से तो कभी धीमी गति से विकास होता रहता है।

3- विकास के क्रम का सिद्धांत:-
🌼 बालक का विकास एक निश्चित या व्यवस्थित क्रम में होता है बालक की गति संबंधी भाषा संबंधी बौद्धिक विकास या एक क्रम या पैटर्न को फॉलो करता है।
जैसे:- जब बालक अपनी माता के गर्भ में होता है तो उसका विकास क्रम से होता है पहले उसका सिर, धड़ तत्पश्चात अन्य अंगों का विकास होता है।

4- विकास की व्यक्तिक भिन्नता का सिद्धांत:- 🌼 जैसा कि हम सभी जानते हैं कि सभी में व्यक्तिक विभिन्नता में पाई जाती हैं हर किसी में व्यक्तिक भिन्नता है किसी ना किसी चाहे शारीरिक, मानसिक, आर्थिक संवेगात्मक और सामाजिक रूप में दूसरे से भिन्नता रखते हैं।

5- पारस्परिक संबंध का सिद्धांत:-
🌼 हर व्यक्ति के शारीरिक मानसिक संवेगात्मक आपस में एक दूसरे से जुड़े या परस्पर संबंधित होते हैं जैसे जिसकी मानसिकता जैसी होगी वैसे ही उसके संवेग होगा और उसी प्रकार बच्चे की रुचि ,ध्यान ,व्यवहार ,प्रेरणा व आवश्यकता भी एक दूसरे से परस्पर संबंध रखते हैं ।

6- विकास का समान प्रतिमान का सिद्धांत:- 🌼 मानव जाति के शिशुओं के विकास का प्रतिमान एक ही है उनके विकास में किसी भी प्रकार का अंतर नहीं होता है।
हरलॉक के अनुसार:-” प्रत्येक जाति (पशु या मानव जाति )अपनी जाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान का अनुसरण करती है”।

7- सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत:- इसको “एकीकरण का सिद्धांत” भी कहते हैं।

इस सिद्धांत में बालक पहले सामान क्रियाएं करता है तत्पश्चात विशिष्ट प्रतिक्रिया का अनुसरण करता है जैसे पहले बच्चा पूरे हाथ को धारा सीखता है उसके बाद उंगलियों को चलाना सीखना है।
अर्थात :-बालक पहले संपूर्ण अंग को और फिर अंग के भागों को चलाना सीखना है।

8- अंतः क्रिया का सिद्धांत:-
🌼बालक के विकास पर अनुवांशिकता एवं वातावरण दोनों का ही प्रभाव पड़ता है इन दोनों के प्रभाव से ही बच्चे का विकास संभव है।
पता हम कह सकते हैं कि विकास विकास आनुवंशिकता और वातावरण का गुणनफल है।💫🌼🌼🌼🌼🌼🌼💫

✍🏻NOTES BY..
SHASHI CHOUDHARY🌼

🌷विकास के सिद्धांत🌷

विकास के सिद्धांत के आधार पर हम बच्चे के सम्पूर्ण विकास का अध्ययन मनोवैज्ञानिक रूप से और उसके व्यवहारिकता के आधार पर करते हैं।

🌺 ” गैरिसन और उनके साथियों “
के अनुसार :-

” निश्चित सिद्धांत का अनुसरण करने की प्रवृत्ति “
को ही विकास का सिद्धांत कहते हैं।

बालक के विकास के सिद्धांतों को निम्न आठ प्रक्रियाओं के आधार पर समझाया गया है :-

  1. 🌺 विकास की दिशा का सिद्धांत :-

इस सिद्धांत में बताया गया है कि-

👉 सबसे पहले शिशु के शरीर का विकास ” सिर से पैर ” की ओर (मस्तोतमुखी) होता है , जिसे ” (Cephalocaudal) सफेलोकॉडल मॉडल ” कहते हैं।

👉 केंद्र से परिधि की ओर , जिसमें विकास , “धड़ से अंगों” की ओर होता है , जिसे ” ( proximodistal ) प्रोक्सिमोडिस्टल मॉडल ” कहते हैं।

  1. निरन्तर विकास का सिद्धांत :-

विकास निरन्तर चलने बाली प्रक्रिया है, पर विकास की गति हमेशा बदलती रहती है अर्थात विकास कभी मंद गति से होता है तो कभी तीव्र गति से , अतः विकास वर्तुलाकार आकार में होता है।

  1. विकास के क्रम का सिद्धांत :-

बालक का विकास एक निश्चित या व्यवस्थित क्रम में होता है। जिसमें बच्चे का गति संबंधी , भाषा संबंधी एवं बौद्धिक विकास एक क्रमिक गति से होता है। जैसे –
बच्चा पहले कुछ विशेष प्रकार की ध्वनियां निकालता है , फिर स्पष्ट रूप से हँसने में सक्षम हो जाता है , फिर अ,ब,म आदि शब्द बोलने का प्रयास करता है और फिर पूरी तरह से एक शब्द फिर वाक्य बोलना सीख जाता है।यही क्रमिक विकास होता है

  1. वैयक्तिक विभिन्नता का सिद्धांत :-

प्रत्येक बच्चे में शारीरिक , मानसिक ,और सामाजिक रूप से प्रति व्यक्ति तौर पर विभिन्नतायें पायी जातीं हैं फिर चाहे वह जुड़वा या भाई-बहिन ही क्यों न हों।

  1. पारस्परिक संबंध का सिद्धांत :-

प्रत्येक बच्चे में शारीरिक , मानसिक , और संवेगात्मक रूप से संबंध पाया जाता है और इसी आधार पर बच्चों की रुचि , ध्यान , व्यवहार ,प्रेरणा और आवश्यकता आदि में भी कुछ पहलुओं पर परस्पर संबंध पाया जाता है।
अतः बच्चे की जैसी शारीरिक, मानसिक, एवं संवेगात्मक (भावनात्मक) सोच और क्षमता होती है बैसे ही बच्चे अपने कार्यों में रुचि और व्यवहार करते हैं।

  1. समान प्रतिमान का सिद्धांत :- मानव जाति के शिशुओं के विकास का प्रतिमान एक ही है। अर्थात उनके विकास में किसी भी प्रकार का अंतर नहीं होता है।

🌺 हरलॉक के अनुसार :-

प्रत्येक जाती ( पशु या मानव जाति ) अपनी जाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान का अनुसरण करती है।

  1. सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत :-

बच्चा शुरूआत में अपने किसी भी कार्य में पहले सामान्य प्रतिक्रिया करता है फिर कुछ सीखने के बाद वह उस कार्य में विशिष्ट प्रतिक्रिया करने लगता है।

बच्चे शुरुआत में कुछ भी करने के लिए अपने शरीर के सभी अंगों को हिलाते हैं फिर बाद में कुछ सिख जाने के बाद वह किसी एक विशेष अंग का इस्तेमाल करके अपना कार्य कर लेते हैं। जैसे-
बचपन में बच्चे पेट के बल रेंगते हुए चलते हैं फिर घुटनों के बल फिर धीरे – धीरे खड़े होना सीखते, फिर चलना सीखते हैं और फिर अंततः दौड़ना प्रारंभ कर देते है।

इस सिद्धांत के साथ ” एकीकरण का सिद्धांत ” भी समायोजित रहता है , जिसमें क्रियायें सामान्य से धीरे धीरे विशिष्ट की ओर आगे बढ़ने लगतीं हैं।

  1. अंतःक्रिया का सिद्धांत :-

एक बच्चे के अंतःक्रिया के सिद्धांत में आनुवंशिकता और वातावरण का बहुत महत्व होता है।

“अर्थात एक बच्चे का विकास आनुवंशिकता और वातावरण का ही गुणनफल होता है।”

बच्चे के विकास में आनुवंशिकता और वातावरण दोनों का विशेष प्रभाव पड़ता और बच्चे के विकास में वातावरण और आनुवंशिकता दोनों का ही बहुत महत्व होता है।

🌲🌹जूही श्रीवास्तव🌹🌲

🔆 बाल विकास के सिद्धांत

बाल विकास के अध्ययन द्वारा हम किसी बच्चे के संपूर्ण विकास को अच्छी तरह से समझ और जान सकते हैं कि विकास किन किन अवस्थाओं से होते हुए गुजरता है➖

गैरिसन व उनके साथियों ने अपने प्रयोग में पाया कि जब बच्चा विकास की एक अवस्था से दूसरी अवस्था में पहुंचता है तो उसमें बहुत से परिवर्तन होते हैं उनमें से कुछ परिवर्तन दिखाई देते हैं और कुछ दिखाई नहीं देते हैं |
कई अध्ययनों से यह ज्ञात हुआ कि विकास का सिद्धांत एक निश्चित सिद्धांत का अनुसरण करता हैं और इसी को विकास का सिद्धांत कहते हैं | और इन्हीं सिद्धांतों के द्वारा विकास की प्रक्रिया चलती रहती है |

बालक के विकास की आठ प्रक्रिया है या बालक का विकास 8 प्रक्रियाओं पर निर्भर करता है जो कि निम्न है ➖

1)विकास की दिशा का सिद्धांत |

2) निरंतर विकास का सिद्धांत |

3) विकास के क्रम का सिद्धांत |

4) वैयक्तिक विभिन्नता का सिद्धांत |

5) पारस्परिक संबंध का सिद्धांत |

6) समान प्रतिमान का सिद्धांत|

7) सामान्य से विशिष्ट प्रक्रियाओं का सिद्धांत या एकीकरण का सिद्धांत |

8) वंशानुक्रम और वातावरण के बीच अंतः क्रिया का सिद्धांत |

🎯 विकास की दिशा का सिद्धांत

शिशु के शरीर का विकास सिर से पैर की ओर होता है जिसे सफेलोकाॅडल मॉडल कहते हैं अर्थात पहले सिर फिर धड़ तथा फिर हाथ पैर का विकास होता है |

एवं केंद्र से परिधि की ओर विकास होता है जिसे प्रॉक्सिमाॅडिस्टल मॉडल कहा जाता है |

🎯 निरंतर विकास का सिद्धांत

बच्चे का विकास निरंतर चलते रहता है समान गति से नहीं होता है | कभी धीमा तो कभी तेज अर्थात एक समान गति से भी नहीं चलता है लेकिन कभी रुकता नहीं है यह निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है |

बच्चे की इच्छा ,रूचि, वातावरण, आवश्यकता आदि पर निर्भर करता है | और ये भी बच्चे के विकास को प्रभावित करने वाले कारक हैं |

🎯 विकास के क्रम का सिद्धांत

बच्चे का विकास एक निश्चित क्रम में होता है जैसे बच्चा पहले सिर उठाता है फिर बैठता है और फिर चलना सीखता है |
और बच्चा पहले सुनकर अक्षर सीखता है फिर शब्द फिर वाक्य को बोलना सीखता है और उसके बाद उसको लिखना सीखना है |

” अर्थात विकास एक निश्चित या व्यवस्थित क्रम में होता है बालक गति संबंधी ,भाषा संबंधी, बौद्धिक विकास के एक क्रम या पैटर्न को फॉलो करता है “|

🎯 व्यक्तिक विभिन्नता का सिद्धांत

प्रत्येक व्यक्ति में अलग-अलग व्यक्तिक विभिन्नता होती है चाहे वह उनकी रूचि , संवेग,आवश्यकता, लिंग ,आर्थिक स्थिति ,ज्ञान, शारीरिक भार ,वजन ,या उनके तौर-तरीके से हो |
अर्थात व्यक्ति की वैयक्तिक विभिन्नता शारीरिक ,मानसिक, सामाजिक ,प्रकार की होती है|

जैसे की किसी भी दो बच्चे चाहे वो जुड़वां भाई बहन ही क्यों न हो उनमें किसी न किसी रुप में वैयक्तिक विभिन्नता अवश्य पाई जाती है इसलिए सभी को उनकी वैयक्तिक विभिन्नता को ध्यान में रखते हुए ही शिक्षा प्रदान करना चाहिए |

🎯 पारस्परिक संबंध का सिद्धांत

व्यक्ति के विकास के पारस्परिक संबंध शारीरिक, मानसिक ,और संवेगात्मक सभी रूप में होते हैं इन सभी में संबंध होता है जो कि बालक के विकास को प्रभावित करता है |
और दूसरा परिवर्तन उनकी रुचि, ध्यान, व्यवहार, प्रेरणा ,और आवश्यकता के अनुसार भी परिवर्तित होता है |

🎯 समान प्रतिमान का सिद्धांत

विकास सब में होता है प्रत्येक जाति चाहे वह पशु जाती हो या मानव जाति प्रत्येक के शिशुओं के विकास का जो प्रतिमान है वह एक ही है वह उनकी जाति के अनुसार ही होता है और उनके विकास में किसी भी प्रकार का कोई अंतर नहीं होता है |

इसके संबंध में हरलॉक ने अपना विचार व्यक्त किया जिसके अनुसार” प्रत्येक जाति (पशु या मानव जाति) अपनी जाति के अनुसार विकास के प्रतिमान का अनुसरण करता है “|

🎯 सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत या एकीकरण का सिद्धांत

विकास की प्रतिक्रिया में कोई भी बच्चा किसी भी कार्य में पहले सामान्य प्रतिक्रिया देता है फिर विशिष्ट प्रतिक्रिया देने लगता है |

जैसे बच्चों के शारीरिक विकास में बच्चा पहले पूरे शरीर को हिलाता है और फिर वह विशिष्ट रूप से केवल हाथ या पैर हिलाने लगता है |

सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रिया के संबंध को एकीकृत या एकीकरण सिद्धांत भी कहा जाता है अर्थात अलग-अलग क्रियाओं को एक करके एकत्रित कर दिया जाता है |

🎯 वंशानुक्रम और वातावरण के बीच अंतः क्रिया का सिद्धांत

बालक का विकास अनुवांशिकता एवं वातावरण दोनों की अंतः क्रिया का परिणाम है दोनों परस्पर संबंधित होते हैं अर्थात बच्चे का विकास पर्यावरण व अनुवांशिकता दोनों का गुणनफल है दोनों परिस्थिति के अनुसार बच्चे के विकास को प्रभावित करते हैं प्रत्येक बच्चे का विकास एक निश्चित क्रम में होता है और हर बच्चा इस दुनिया को अपने अपने नजरिए से देखता है |

जैसे यदि माता-पिता की रूचि किसी कार्य को करने में है तो यह जरूरी नहीं है कि बच्चा भी उस कार्य को करने में अपनी रुचि व्यक्त करेगा | जैसे यदि बच्चे के माता-पिता अभिनेता या अभिनेत्री हैं तो यह आवश्यक नहीं है कि बच्चा भी अभिनेता या अभिनेत्री ही होगा |
इसका मतलब है कि बच्चे के विकास में वातावरण एवं अनुवांशिकता दोनों का बराबर योगदान होता है दोनों के बीच अंत: क्रिया होती है |

𝙉𝙤𝙩𝙚𝙨 𝙗𝙮➖ 𝙍𝙖𝙨𝙝𝙢𝙞 𝙨𝙖𝙫𝙡𝙚

🌻🍀🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🍀🌻

🍁बाल विकास के सिद्धांत🍁

🍀बाल विकास का सिद्धांत गैरिसन व अन्य के द्वारा दिया गया
🍀 इन्होंने बाल विकास के सिद्धांत 8 चरणों में प्रस्तुत किया।

🍁बाल विकास में प्रस्तुत किए गए 8 चरणों में सभी में अलग-अलग तरह की अपनी-अपनी विशेषताएं हैं जो निम्न है।

विकास की दिशा का सिद्धांत
संबंध-कुप्पूस्वामी
2 नाम दिया।

🍀सफेलोकाँडल मॉडल।
🍀 प्रक्सिमोडिस्टल (proximodistal)
🍀 सफेलोकॉडल मॉडल मे शिशु के शरीर का विकास सिर से पैर की ओर होता है जबकि प्रॉक्सिमोडिस्टल मे विकास शरीर के केंद्र से बाहर की ओर होता है।

निरंतर विकास का सिद्धांत
निरंतर विकास का सिद्धांत के तहत विकास निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है कभी तेज और कभी धीमी गति से चलता रहता है बालक का विकास एक समान गति से नहीं होता है अवस्था और समय अनुसार बदलता रहता है।

विकास के क्रम का सिद्धांत
इस सिद्धांत के तहत बालक का विकास एक निश्चित क्रम में अग्रसर होता है एक ही समुदाय के प्राणी के विकास एक क्रम में पाया जाता है यह सत्य है की दो बालक एक समान नहीं होते किंतु उनके सभी अवस्थाओ का विकास एक क्रम में होता है। जैसे
शैशवावस्था-बाल्यावस्था-किशोरावस्था

विकास की गति में व्यक्तिगत विभिन्नता का सिद्धांत
इस सिद्धांत के अनुसार सभी बालक शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, बौद्धिक, रूप से भिन्न हो सकते हैं सभी में कुछ ना कुछ विभिन्नता विद्यमान होती है विकास की अपनी विभिन्नता होती है दो बालक कभी भी एक समान नहीं हो सकते।

पारस्परिक संबंध का सिद्धांत
इस सिद्धांत के अनुसार विकास के अनेक पक्ष होते यदि किसी एक पक्ष में किसी प्रकार का परिवर्तन होता तो अन्य सभी पक्षों को भी प्रभावित करता है क्योंकि विकास के सभी पक्ष एक दूसरे से संबंधित है शारीरिक विकास मानसिक विकास को प्रभावित करता है अर्थात यह कह सकते हैं कि शारीरिक विकास अवरुद्ध होता तो उसका प्रभाव मानसिक विकास पर भी पड़ता है अगर मानसिक क्षति है तो वह शरीर के लिए भी नुकसानदायक होती है।

समान प्रतिमान का सिद्धांत
इस सिद्धांत के अनुसार हम यह कह सकते हैं कि प्रत्येक प्रजाति में अपने समान प्रतिमान का गुण होता है मानव जाति के शिशुओं के विकास का प्रतिमान एक ही है उनके विकास में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता है अर्थात मानव का शिशु मानव जैसा एवं पशु पक्षियों के शिशु पशु पक्षी के समान होंगे।
🍁 हरलॉक-प्रत्येक जाति (पशु या मानव जाति) अपनी जाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान का अनुसरण करती है!

सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत
इस सिद्धांत के तहत बालक पहले साधारण क्रियाओं को करता और फिर विशिष्ट क्रियाओं का संचालन करता है यह सिद्धांत एकीकरण के सिद्धांत से संबंधित है इस सिद्धांत में हम यह कह सकते हैं कि बालक पहले सामान्य क्रिया बाद में विशिष्ट क्रिया करता जैसे पहले संपूर्ण हाथ को चलाता है और फिर उसके भाग अर्थात उंगलियों को चलाना सीखना है ।

वंशानुक्रम एवं वातावरण का सिद्धांत
इस सिद्धांत के अनुसार बालक अपने वंशानुक्रम एवं वातावरण के मध्य अंतर क्रिया करता है मानव का संपूर्ण विकास वंशानुक्रम एवं वातावरण से मिलकर बना हुआ है उसमें कुछ गुण वंशानुक्रम एवं कुछ वातावरण के माध्यम से ग्रहण करता है। ✍️✍️✍️✍️Notes by -Abhilasha pandey

🌻📓🪔 बाल विकास का सिद्धांत (theories of development)🪔 📓🌻

🍅 According to गैरिसन व अन्य
जिसमें निश्चित सिद्धांत का अनुकरण करने की प्रवृति होती है, इन्हें विकास के सिद्धांत कहते हैं।

🐔 According to गैरिसन व अन्य: विकास के सिद्धांत को आठ भागों में बांटा गया है, यह विकास निम्न प्रकार से है:➖

🍒 विकास की दिशा का सिद्धांत(direction of development) : – 👉 सिर से पैर की ओर: इसमें शिशु के शरीर का विकास पहले सिर का फिर पैर का विकास होता है, जिसे (Cephalocaudal) *सफेलोकाॅडल* कहते है। 👉 केंद्र से परिधि की ओर/ गर्भ में धड़ से अन्य अंगों का : इसमें शिशु का विकास केन्द्र से शुरू हो कर शरीर के चारों तरफ का विकास होता है, जिसे (proximodistal) *प्रोक्सीमाॅडिस्टल* कहते हैं।

🍒 निरंतर विकास का सिद्धांत (continuos development):- 👉विकास एक ऐसी प्रक्रिया है, जो जीवन पर्यंत चलती रहती है। जो गर्भावस्था से शुरू हो कर आजीवन चलता रहता है। 👉यह एक समान गति से नहीं चलता, कभी तेज़ तो कभी धीमी गति से चलती है।

🍒 विकास के क्रम का सिद्धांत(sequence of development:- 👉विकास एक निश्चित/ व्यवस्थित क्रम में होता है। 👉बालक का गति या भाषा संबंधी विकास, बौद्धिक विकास यह एक क्रम/pattern का अनुकरण करता है।

🍒 व्यक्तिक विभिन्नता का सिद्धांत (individual diffrence of development:- 👉 हर व्यक्ति में व्यक्तिगत विभिन्नता पाई जाती है, यह भिन्नता शारीरिक, मानसिक, सामाजिक रूप से हो सकती है । 👉ठीक उसी प्रकार बच्चों के अंदर किसी भी आधार पर भिन्नता होती है, जैसे लैंगिक, आर्थिक, इत्यादि।

🍒 पारस्परिक संबंध का सिद्धांत (matual coordination):- 👉बालक का विकास के संबंध आपस में एक दूसरे से संबंधित रहता है। जैसे शारीरिक विकास का संबंध मानसिक विकास से होता है, वैसे ही मानसिक विकास का संवेगात्मक विकास से संबंधित होता है। 👉बच्चे की शारीरिक/मानसिक/संवेगात्मक जैसा होता है वैसा ही बच्चे का व्यवहार, रूचि, आवश्यकता इत्यादि भी होती है। 👉ठीक इसके विपरीत यदि बच्चे की अलग-अलग क्षमता है, जैसे व्यवहार, रूचि, आवश्यकता इत्यादि जैसी होती है, वैसे ही बच्चे की शारीरिक/ मानसिक/ संवेगात्मक क्षमता भी होती हैं। 👉हमारी शारीरिक क्षमता के कारण ही हमारी मानसिकता भी परिवर्तित होती है, और मानसिकता के कारण ही हमारे संवेगात्मक क्रियाएं भी परिवर्तित होती है।

🍒 समान प्रतिमान का सिद्धांत:- 👉मानव जाति के शिशुओं के विकास का प्रतिमान एक ही है, उनके विकास में किसी भी प्रकार का अंतर नहीं होता है। 👉 *According to हरलाॅक* " प्रत्येक जाति (पशु/ मानवजाति) अपनी जाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान/ pattern का अनुसरण करता हैं। "

🍒 सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत:- 👉 इसे हम एकीकरण का सिद्धांत (principle of integrative) भी कह सकते हैं। 👉 पहले बच्चे किसी कार्य को सामान्य प्रतिक्रिया देता हैं, फिर वह धीरे धीरे विशिष्ट प्रतिक्रिया की ओर जाता है। 👉हर छोटा बच्चा चलने की प्रक्रिया में पहले पेट के बल चलता, फिर घुटने के बल, फिर किसी चीज के सहारे पकड़ कर खड़ा होता, फिर धीरे धीरे चलने लगता है।

🍒 अंतः क्रिया का सिद्धांत:- 👉हर बच्चे का विकास heridity and environment दोनों से मिलकर होता है 👉तो हम यह भी कह सकते हैं कि दोनों एक दूसरे का गुणनफल हो है। 🦚 END 🦚

📚 Noted by 🦩 Soni nikku✍

👤 बाल विकास के सिद्धांत। 👤
Theories of development

👤 मानव विकास की गति कैसी है किस प्रकार की यह प्रक्रिया होती है इस संबंध में कुछ विद्वानों ने विकास के सिद्धांत को इस प्रकार दिए हैं

👤 गैरिसन व अन्य के अनुसार ➖ जब बच्चा एक अवस्था से दूसरी अवस्था में जाता हैं तो परिवर्तन होता है कुछ परिवर्तन दिखाई देते कुछ परिवर्तन नहीं दिखाई देते हैं यह उन्होंने अपने अध्ययन में पाया है यह परिवर्तन एक निश्चित क्रम में होते हैं
🔹 निश्चित सिद्धांत का अनुसरण करने के प्रवृत्ति को विकास का सिद्धांत कहते हैं

1️⃣ विकास की दिशा का सिद्धांत ➖ शिशु के शरीर का विकास ( सिर से पैर की ओर ) होता है
🔹 इसी को हम ➖ ( सफेलो काॅडल मॉडल )
Cephalocaudal कहते हैं या
🔹 ( केंद्र से परिधि की ओर )
Proximodistal भी कहते हैं

2️⃣ निरंतर विकास का सिद्धांत ➖ विकास बच्चों के अंदर निरंतर चलता रहता है यह समान गति से नहीं होता है कभी तेज कभी धीमी गति से होता है

3️⃣ विकास के क्रम का सिद्धांत ➖ विकास एक निश्चित या व्यवस्थित क्रम में होता है बालक की गति संबंधी ,भाषा संबंधी ,बौद्धिक विकास संबंधी, यह एक क्रम या पैटर्न को फॉलो करता है

4️⃣ व्यक्तिक भिन्नता का सिद्धांत ➖ बच्चे में शारीरिक ,मानसिक ,सामाजिक ,तीनों में ही भिन्नता पाए जाते हैं इसको हम नकार नहीं सकते । कोई पतला है तो कोई मोटा कोई काला है तो कोई गोरा ,कोई तेज बुद्धि वाला है तो कोई मानसिक रूप से कमजोर है हर बच्चा एक दूसरे से भिन्न में होता है
लेकिन एक शिक्षक होने के नाते सभी बच्चों का सम्मान करना चाहिए।

5️⃣ पारंपरिक संबंध का विकास ➖ शारीरिक, मानसिक ,संवेगात्मक , यह तीनों ही विकास से संबंधित है आपकी रूचि व्यवहार प्रेरणा , आवश्यकता ये सब में परिवर्तन होता है और विकास में भी परिवर्तन होता है
जैसे आपकी मानसिक सोच होगी वैसे आपकी रुचि होगी, यह सब आपस में जुड़े होते हैं

6️⃣ समान प्रतिमान का सिद्धांत ➖ विकास की गति समान होती है चाहे बच्चा कोई भी देश का हो या किसी भी जगह रहता हो ,हर बच्चा का विकास एक समान होता है

🔵 हरलाॅक के अनुसार ➖प्रत्येक जाति या पशु या मानव जाति अपनी जाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान का अनुसरण करते हैं

🔹 मानव जाति का विकास एक पैटर्न में होता है
🔹 पशु जाति का विकास है एक पैटर्न में होता है

7️⃣ सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत ➖ कोई भी बच्चा किसी काम को पहले सामान्य प्रतिक्रिया देता है फिर वह धीरे-धीरे विशिष्ट प्रतिक्रिया देता है
जैसे ➖पहले कोई बच्चा पूरे शरीर से फिसल कर चलता है फिर वह धीरे-धीरे अपने पैर उठाकर चलता है ।
🔹 इसी सिद्धांत को ( एकीकरण का सिद्धांत भी कहते हैं

8️⃣ अंत:क्रिया का सिद्धांत ➖ अनुवांशिकता एंव वातावरण के बीच अंत:क्रिया होती है दुनिया का हर एक बच्चा दुनिया को अपने नजर से देखता है अनुवांशिकता एवं वातावरण दोनों का गुणनफल
इन दोनों के बिना बच्चे का विकास संभव नहीं है

📙Notes by sanu sanwle

Theories of development
विकास के सिद्धांत

एक शिक्षक को बालकों का व्यवहार समझने के लिए उसकी वृद्धि एवं विकास को तो समझना जरूरी है ही सही उसके साथ-साथ विकास के सिद्धांतों को भी समझना बहुत जरूरी है इससे वह विशेष आयु के बालकों के व्यवहार को आसानी से समझ सकते हैं।

विकास के सिद्धांत में निश्चित सिद्धांत का अनुसरण करने की प्रवृत्ति होती है।

गैरिसन और अन्य ने विकास के सिद्धांत 8 बताए हैं-

1.विकास की दिशा का सिद्धांत-

यह सिद्धांत विकास की एक दिशा को निश्चित करता है।
शिशु के शरीर का विकास सिर से पैर की ओर होता है इस प्रक्रिया को सपेलो कॉडल मॉडल कहते हैं इस मस्तकोधोमुखी भी कहते है।इस प्रक्रिया में पहले शिशु के शरीर का विकास होता है उसके बाद धीरे-धीरे धड़ का विकास होता है फिर उसके बाद पैरों का विकास होता है। सिर 👉धड़ 👉पैर

शिशु के शरीर का विकास केंद्र अर्थात स्नायुमंडल से परिधि की ओर या धड़ से अंगनांग की ओर होता है इस प्रक्रिया को प्रॉक्सिमोडिस्टल कहते हैं। इस प्रक्रिया मे बालक के धड़ के साथ साथ बाहों का अर्थात कंधों का उसके बाद कोहनी का फिर उसके बाद कलाई का फिर उसके बाद धीरे-धीरे अंगुलियों का विकास होता है

कंधो या बाहें 👉कोहनी 👉कलाई👉 अंगुलियों

पैर के घुटनो 👉तलवों 👉अंगुलियों

विकास की दिशा के संदर्भ में जब शरीर का एक हिस्सा तीव्र गति से बढ़ रहा होता है तो उसके साथ-साथ अन्य हिस्से भी विकसित होते हैं परंतु उनके विकास की दर तीव्र गति से बढ़ रहे हिस्से की अपेक्षा धीमी होती है जैसे सिर का विकास तीव्र गति से होता है उसके बाद धड़ का विकास तीव्र गति से होता है उसके पश्चात बाहों और टांगों की वृद्धि की दर तीव्र होती है ।
जन्म से परिपक्व होने तक सिर का आकार केवल दुगना होता है वयस्क होने तक धड़का हिस्सा लंबाई में 3 गुना ,बाहे एवं हाथ लंबाई में 4 गुना और टांगे एवं पर लंबाई में 5 गुना बढ़ते हैं।

2.निरंतर विकास का सिद्धांत –

विकास की प्रक्रिया गर्भावस्था से शुरू होकर मृत्यु तक जीवन भर चलती रहती है लेकिन इसकी गति एक समान नहीं रहती हैं कभी धीमी होती है और कभी तेज होती है लेकिन कभी रुकती नहीं है
विकास की यह गति हमारी रुचि ,आवश्यकता आदि के अनुसार बदलती रहती हैं।

🔥दिशा और क्रम में अंतर🔥

दिशा हमें यह बताती है कि हमें कहां से कहां तक जाना है लेकिन क्रम हमें यह बताता है कि हमें जहां तक जाना है उसके लिए हम किस पैटर्न को फॉलो करते हैं या अनुकरण करते हैं।

3.विकास के क्रम का सिद्धांत-

विकास एक निश्चित या व्यवस्थित क्रम में होता है विकास की गति संबंधी ,भाषा संबंधी और बौद्धिक संबंधी विकास के अपने-अपने निश्चित क्रम या पैटर्न में होते हैं।
जैसे दो बालकों के विकास होने में समय अलग अलग हो सकता है लेकिन उनका क्रम सिर से पैर की ओर होता है कोई बालक जल्दी चलना सीखता है और कोई बालक थोड़ा देर से चलना सीखता है परंतु इनका क्रम तो निश्चित ही होता है सिर से पैर की ओर।

4.विकास की गति में वैयक्तिक विभिन्नता का सिद्धांत-

सभी बच्चे अपने आप में विशिष्ट होते हैं इसलिए सबका शारीरिक ,मानसिक ,सामाजिक विकास अलग-अलग गति से होता है
जैसे जुड़वा बच्चे भाई -भाई ,भाई- बहन और बहन- बहन दोनों एक ही मां के गर्भ से पैदा होते हैं लेकिन उनमें भी शारीरिक ,मानसिक, सामाजिक तथा संवेगात्मक आदि क्षेत्रों में विविधता पाई जाती है।

5.परस्पर संबंध का सिद्धांत-

बालक के विकास में परस्पर संबंध होता है बालक के सभी प्रकार के विकास साथ -साथ चलते रहते हैं जब बालक की शारीरिक क्रियाओं का विकास होता है तो उसके साथ- साथ उसकी बौद्धिक, संवेगात्मक, भाषा आदि का भी विकास होता रहता है

यदि बालक का शारीरिक विकास सही ढंग से नहीं हुआ है तो उसके मानसिक विकास, शारीरिक ,संवेगात्मक विकास भी सही ढंग से नहीं हो पाएंगे
यदि बालक का मानसिक व्यवहार उसकी रूचि, ध्यान, व्यवहार ,प्रेरणा ,आवश्यकता आदि के अनुसार प्रभावित होता है तो उसका शारीरिक और संवेगात्मक विकास भी उसकी रूचि, ध्यान ,व्यवहार, प्रेरणा, आवश्यकता आदि से प्रभावित होता है
बालक की रूचि ,ध्यान ,व्यवहार ,प्रेरणा ,आवश्यकता आदि भी बालक के शारीरिक ,मानसिक, संवेगात्मक, विकास से प्रभावित होते हैं।

6.समान प्रतिमान का सिद्धांत-

मानव जाति के शिशुओं के विकास का प्रतिमान एक ही है उनके विकास में किसी प्रकार का अंतर नहीं होता है

🔥हरलॉक के अनुसार –
प्रत्येक जाति (पशु या मानव जाति )अपनी जाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान का अनुसरण करती हैं।

समान प्रजातियों में विकास की गति समान प्रतिमान से प्रचलित होती है मनुष्य चाहे जापान में पैदा हो या भारत में उसका शारीरिक, मानसिक, भाषा एवं संवेगात्मक विकास समान रूप से होता है।

7.सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत या एकीकरण का सिद्धांत-

बालक की क्रिया और प्रतिक्रिया सामान्य से प्रारंभ होकर विशिष्ट की ओर जारी रहती है बालक पहले सामान्य व्यवहार करता रहता है और उसके बाद धीरे-धीरे विशिष्ट व्यवहार की ओर बढ़ता है
जैसे एक शिशु पहले अपने मुंह में जो भी वस्तु है उसे दिखती उसे मुंह में डाल लेता है लेकिन कुछ आयु के पश्चात वह अपने मुंह में केवल खाने योग्य वस्तु को ही डालने लगता है यह उसका व्यवहार सामान्य से विशिष्टता की ओर जाता है।

जैसे शिशु पहले किसी वस्तु को पकड़ने के लिए अपने सभी अंगों हाथ ,पैर से पकड़ता था लेकिन कुछ समय पश्चात वह वस्तुओं को पकड़ने के लिए केवल अपने हाथों और उंगलियों का प्रयोग करता है यह क्रिया उसकी सामान्य से विशिष्टता की ओर होती है

8.वंशानुक्रम तथा वातावरण की अंतः क्रिया का सिद्धांत-

बालक का विकास उसके वंशानुक्रम तथा वातावरण की अंतः क्रिया पर निर्भर करता है बालक का विकास उसके वंशानुक्रम तथा वातावरण का गुणनफल होता है बालक के विकास में वंशानुक्रम और वातावरण का बराबर योगदान होता है किसी के भी योगदान को हम कम नहीं आंक सकते हैं।
धन्यवाद

Notes by Ravi kushwah

🏵️ विकास का सिद्धांत🏵️
🏵️ Theories of development🏵️

विकास के परिणाम स्वरुप ही व्यक्ति में नई योग्यताएं और विशेषताएं आती हैं ।
बालक के विकास के संबंध में मनोवैज्ञानिकों ने अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन किया ।
बालकों का शारीरिक मानसिक संवेगात्मक एवं अन्य प्रकार के विकास कुछ विशेष सिद्धांतों पर आधारित होते हैं।

🌸 गैरिसन तथा अन्य के अनुसार ➖
जब बालक विकास की अवस्था से दूसरी अवस्था में प्रवेश करता है तब उसमें कुछ परिवर्तन दिखाई देने लगते हैं या दिखते हैं।

अध्ययनों ने यह सिद्ध कर दिया है कि परिवर्तन निश्चित सिद्धांतों के अनुसार होते हैं।इन सिद्धांतों को विकास का सिद्धांत कहा जाता है।

बाल विकास के 8 सिद्धांत है —

1️⃣ विकास की दिशा का सिद्धांत
इन को दो भागों में विभाजित किया जाता है —

1 Cephalocordal —इस सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास सिर से पैर की ओर होता है । इसमें बालक का सबसे पहले सर का विकास होता है फिर उसके बाद हाथ का और धड़ का फिर उसके बाद पैरों का।

2 Proximodistal —
इस सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास केंद्र से बाहर की ओर या केंद्र से परिधि की ओर होता है।

2️⃣ निरंतर विकास का सिद्धांत —
विकास निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है यह कभी नहीं रुकती लेकिन इसकी गति कभी तेज तो कभी मंद हो जाती है जैसे शैशवावस्था में या शिशु के प्रारंभिक वर्षों में विकास की गति तेज होती है उसके बाद में बाल्यावस्था में पहले की तुलना में विकास की गति मंद हो जाती है पर चलती निरंतर रहती है। रुकती नहीं है।

3️⃣ विकास के क्रम का सिद्धांत —-
इस सिद्धांत के अनुसार बालक का गामक और भाषा संबंधी विकास एक निश्चित क्रम में होता है ।
जैसे 3 माह का बालक गले से विशेष प्रकार की ध्वनि करने लगता है।
और 7 माह तक बालक ‘बा’ , ‘पा’ ‘दा’ बोलना शुरू कर देता है।

4️⃣ व्यक्तित्व विभिन्नता का सिद्धांत —-
एक बालक और बालिका के विकास का अपना स्वयं का स्वरूप होता है।
कोई भी दो लोग एक समान नहीं होते और उनमें कुछ ना कुछ विभिन्नता पाई जाती है।
एक ही आयु के दो बालक, जुड़वा भाई बहन, दो बालक और बालिकाओं के शारीरिक, मानसिक , सामाजिक, संवेगात्मक आदि रूपों के विकास में विभिन्नता पाई जाती है। यह विभिन्नता व्यक्तिक विभिन्नता कहलाती है।

Skinner के अनुसार —
विकास के स्वरूपों में व्यापक व्यक्तिक विभिन्नता होती है।

5️⃣ पारस्परिक संबंध का सिद्धांत —
इस सिद्धांत के अनुसार बालक के शारीरिक , मानसिक , संवेगात्मक आदि पहलुओं के विकास में परस्पर संबंध होता है।
जैसे – बालक के शारीरिक विकास के साथ-साथ उसकी रूचियों उसके ध्यान के केंद्रीकरण और व्यवहार में परिवर्तन होते हैं तब साथ-साथ में उसका गामक और भाषा संबंधी विकास भी होता है।

गैरिसन व अन्य के अनुसार —
शरीर संबंधी दृष्टिकोण व्यक्ति के विभिन्न अंगों के विकास में सामंजस्य और परस्पर संबंध पर बल देता है।

6️⃣ समान प्रतिमान का सिद्धांत —-
इस सिद्धांत का अर्थ स्पष्ट करते हुए हरलॉक ने लिखा
‘ प्रत्येक जाति चाहे वह पशु जाति हो या मानव जाति, अपनी जाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान का अनुसरण करती है।
जैसे – संसार के प्रत्येक भाग में मानव जाति के शिष्यों के विकास का प्रतिमान एक ही है और उनमें किसी प्रकार का अंतर होना संभव ही नहीं है।

7️⃣ सामान्य व विशिष्ट प्रतिक्रियाओं का सिद्धांत —
इस सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास सामान्य प्रतिक्रियाओं की ओर होता है ।
जैसे शैशवावस्था में बालक शरीर के अंग का संचालन करने से पूर्व अपने हाथों को सामान्य रूप से चलाता है।
हरलाॅक के अनुसार — विकास कि सब अवस्था में बालक की प्रतिक्रिया विशिष्ट बनने से पूर्व सामान्य प्रकार की होती है।
सबसे पहले बालक सामान्य प्रकार की क्रिया करेगा उसके बाद वशिष्ठ प्रकार की क्रिया करेगा।

एकीकरण का सिद्धांत —-
इस सिद्धांत के अनुसार बालक पहले संपूर्ण अंग को फिर अंगों के भागों को चलाना सीखता है, उसके बाद वह उन भागों में एकीकरण करना सीखता है।
जैसे — पहले बालक पूरे हाथ को हिलाता है फिर उसके बाद उंगलियों को और फिर उसके बाद हाथ एवं उंगलियों को एक साथ चलाना सीखता है।

8️⃣ अंतः क्रिया का सिद्धांत —
इस सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास केवल वंशानुक्रम या वातावरण के कारण नहीं होता बल्कि दोनों के अंतः क्रिया के कारण होता है।

धन्यवाद

द्वारा —
वंदना शुक्ला

Problematic children- Nature of education notes by India’s top learners

🌷 समस्यात्मक बालकों की🌷
शिक्षा का स्वरूप

1.🌺माता-पिता प्रेम और सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करें –

अर्थात हम जानते हैं , कि किसी भी बच्चे को सबसे पहले उनके माता- पिता ही सबसे ज्यादा समझते हैं तो , ऐसे बच्चों के माता पिता को गुस्सा और तेज तर्राट बाला स्वभाव न अपनाकर बल्कि सहानुभूति और स्नेह का स्वभाव अपनाना चाहिए ।

2.🌺 उनकी मूल प्रवृत्तियों का दमन ना करें :-

ऐसे बच्चों की जो मूल प्रवृत्तियां होती हैं तो हमें उनका दमन नहीं करना चाहिए नहीं तो बो कुंठा , हीन भावना का शिकार हो सकते है भले ही बो समस्यात्मक हों , पर दमन करने की अपेक्षा हमें उनको सही तरीके से सही और गलत को समझना चाहिए तभी बो बच्चा समझ सकेगा।

3.🌺 यदि कोई दोष पता चले तो संभव हो तो मानसिक चिकित्सा भी करवाएं :-

यदि आवश्यकता लगे तो ऐसे बच्चों की किसी विशेष मनोचिकित्सक से चिकित्सा भी करवायें।

4.🌺 बच्चे को उचित कार्य हेतु प्रेरित / प्रोत्साहित और पुरस्कृत भी करें :-

अर्थात शिक्षक , समस्यात्मक बालकों को शैक्षिक क्षेत्र में सुधारने के लिये उन्हें प्रेरित, प्रोत्साहित करें, और जरूरत हो तो उन्हें पुरस्कार भी दें । अतः इन सब कार्यों से ऐसे बालकों की समस्यात्मक मानसिकता में सुधार लाया जा सकता है।

5.🌺 उन्हें नैतिक शिक्षा दें :-

एक शिक्षक , समस्यात्मक बालकों में नैतिक शिक्षा का विकास कर उनमें सुधार सकते हैं, और शिक्षित भी कर सकते हैं।

6.🌺 बच्चों की संगति पर विशेष ध्यान :-

इसमें शिक्षक और माता -पिता दोनों की ही महत्वपूर्ण भूमिका होती है ,..
जिसमें कि वह ऐसे बच्चों की संगति पर विशेष ध्यान रखकर सही और गलत का निर्णय कर सुधार कर सकते हैं।

7.🌺 बच्चों को मनोरंजन का भी उचित अवसर दें :-

समस्यात्मक बालकों को भी उनके मनोरंजन का उचित अवसर दें ताकि हम उनकी समस्यात्मक मानसिकता पर कुछ सुधार कर पाएंगे।

8.🌺 आदर्श पूर्ण व्यवहार करें , जो बच्चों के लिए अनुकरणीय हो :-

अर्थात शिक्षकों को खुद से ही आदर्श पूर्ण व्यवहार करना चाहिये ताकि बच्चे भी उनको देखकर, सुनकर उनका अनुकरण कर सकें, उनसे सीख सकें।

9.🌺 बच्चों को संतुलित जेब खर्च दें :-

इसमें माता पिता का विशेष स्थान है कि वह बच्चों को सीमित जेब खर्च (पैसा) दें और उनके खर्च करने के बारे में भी समय – समय पर जानकारी लेते रहें ताकि बच्चे अनौपचारिक रूप से खर्च न कर सकें।

10.🌺 शिक्षण विधि मनोरंजक हो :-

एक शिक्षक को अपनी शिक्षण विधि को मनोरंजक बनाये रखना चाहिए , नये नये तरीके अपनाने चाहिए ताकि ऐसे बालकों में शिक्षा के प्रति जिज्ञासा बनी रहे।

11.🌺 संतुलित पाठ्यक्रम (कार्यक्रम) हो, अनावश्यक बोझ न हो :-

शिक्षक को ध्यान रखना चाहिए कि विशेषकर समस्यात्मक बालकों की शिक्षा का पाठ्यक्रम सरल,संतुलित होना चाहिए जिससे उनका पढ़ने में मन लगे , न कि अनावश्यक हो।

12.🌺 सहायक शिक्षण कार्यक्रम :-
भ्रमण , खेलकूद , नाटक , संगीत आदि के द्वारा समस्यात्मक व्यवहार को रोका जा सकता है।

अर्थात् विभिन्न सकारात्मक कार्यों के द्वारा ऐसे बालकों को व्यस्त रख कर हम उनके समस्यात्मक व्यवहार को रोक सकते हैं।

13.🌺 आत्मविश्वास जागृत करने के लिए उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य सौंपें :-

जैसा कि पहले ही बता चुके हैं कि सकारात्मक व्यस्तता जरूरी है , अर्थात समस्यात्मक बालकों को कुछ भी उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य (जिम्मेदारी बाले कार्य) देकर उनमें आत्मविश्वास की भावना विकसित कर सकते हैं।

अतः इस प्रकार का स्वरूप अपनाकर समस्यात्मक बालकों को शिक्षित कर सकते हैं। 🌹जूही श्रीवास्तव🌹

🔆 समस्यात्मक बालकों की शिक्षा का स्वरूप

▪️बालक का विकास स्वाभाविक क्रिया प्रतिक्रिया द्वारा होता है यदि स्वभाविक समस्याएं उत्पन्न होने लगती हैं तो सामान्य व्यवहारिक समस्याओं के कारण उसके व्यवहार में भी इन लक्षणों का विकास होता दिखाई देता है ।यदि समय रहते इन समस्याओं का संशोधन कर लिया जाए तो बालक का व्यक्तिगत रूप से संतुलित हो जाते है अन्यथा उसे अनेक समस्याओं विशेष रूप से समायोजनात्मक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

इन्हीं समस्याओं को ध्यान में रखते हुए हमें समस्यात्मक बालकों की शिक्षा के समय निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए अर्थात शिक्षा का स्वरूप निम्न प्रकार से होना चाहिए।

🌀 माता-पिता प्रेम और सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करें

▪️बच्चों की देखभाल में पारिवारिक संबंधों का अधिक महत्व होता है। इसलिए बच्चों के माता-पिता से मिलकर यह सुनिश्चित करें कि बच्चे के साथ माता-पिता का व्यवहार प्रेम और सहानुभूति पूर्ण वाला हो।
पारिवारिक संबंधों की मदद से
समस्यात्मक बालक की मानसिक सबलता को या क्षमता को या सोच को सकारात्मक दृष्टिकोण में लाने की जरूरत है।

  • क्योंकि जब घर का वातावरण अभिभावक द्वारा सकारात्मक पूर्ण रहेगा तो बच्चे भी घर के बाहर ठीक वैसा ही सकारात्मक पूर्ण व्यवहार करेंगे।
    यदि वातावरण नकारात्मक होगा तो बालकों में समस्यात्मक व्यवहारों का विकास होता रहेगा और उनका व्यक्तित्व कुंठित हो जाएगा।

🌀 समस्यात्मक बालक की मूल प्रवृत्ति का दमन ना करें

▪️मूल प्रवृत्ति एक प्रकृति दत्त शक्ति है यह शक्ति मानसिक रूप में प्राणी के मन में स्थित रहती है इसका अर्जन नहीं किया जा सकता मूल प्रवृत्तियां शरीर की आंतरिक क्रियाओं तथा आवश्यकता से प्रेरित होती हैं।

  • मूल प्रवृत्ति कर्म व्यवहार का जनमजात ढ़ंग है। अर्थात मूल प्रवृत्ति व्यक्ति की स्वभाविक क्रियाएं है।

*यदि हम किसी व्यक्ति के बेसिक नेचर या मूल प्रवृत्ति में कोई बाधा डालते है या उसका दमन या रोकते हैं तो व्यक्ति को परेशानी आती है और वह मानसिक रूप से भी परेशान हो जाता है।और वह कई असामाजिक रूप से व्यवहार करने लगता है।
जैसे चिड़चिड़े हो जाना,चीजे इधर उधर फेकना,गुस्सा करना,लड़ाई या झगड़े करना आदि।
जो समस्या के रूप में हमारे सामने आते हैं।

🌀 अगर कोई दोष या समस्या का पता चले और संभव हो तो मानसिक रूप से चिकित्सा करवाएं
▪️समस्यात्मक बालक की समस्या का या दोष का उचित और सही रूप से पता चलने पर या पहचान हो जाने पर मानसिक रूप से चिकित्सा करवा सकते है।जिससे बालक की इस समस्या को ठीक प्रकार से ठीक समय पर निदान व उपचार कर सकते है।

🌀 बच्चे को शिक्षक द्वारा प्रेरणा,प्रोत्साहन,पुरूस्कार दिया जाए।

▪️प्रोत्साहन/प्रेरणा/पुरूस्कार किसी भी व्यक्ति द्वारा किसी विशेष क्रिया के लिए अभिप्रेरित के रूप में दी जाने वाली चीज है जिससे वह प्रेरित होता है
और उनमें सकारात्मक मनोबल बढ़ता है। और प्रभावी ढ़ंग से काम करना,कार्य प्रदर्शन में काफी सुधार आता है इसीलिए बालक को शिक्षक के द्वारा प्रेरणा/ प्रोत्साहन और जरूरत पड़ने पर पुरस्कार दिया जाना चाहिए।

🌀 नैतिक शिक्षा दी जाए

▪️समाज में व्यक्ति दो चीजों से पहचाना जाता है। पहला है ज्ञान और दूसरा है उसका नैतिक व्यवहार।
इंसान के सर्वांगीण विकास के लिए यह दोनों ही अति आवश्यक है। अगर ज्ञान सफलता की चाबी है तो नैतिकता सफलता की सीढ़ी। एक के अभाव में दूसरे का पतन तय है। व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है। समाज में बने रहने के लिए सामाजिक नियमों का पालन करना जरूरी होता है।
*बच्चा जब जन्म लेता है तो उस वक्त उसे न तो नैतिकता की समझ होती है और न ही अनैतिकता की। ऐसे में उसे जैसी शिक्षा मिलेगी वह वैसा ही बन जाएगा। इसलिए नैतिकता का पाठ जरूरी है। और नैतिकता ही वह गुण है जो बच्चों को सामाजिक प्राणी बनने में मदद करती है। और किसी भी कार्य को करने के लिए सही गलत की पहचान करवाने में नैतिकता ही मदद करती है।

🌀 बच्चों की संगति पर विशेष ध्यान
▪️अच्छी संगति व्यक्ति को कुछ नया करते रहने की समय-समय पर प्रेरणा देती है, वहीं बुरी संगति से व्यक्ति गहरे अंधकूप में गिर जाता है।
इसीलिए बच्चे की समझ, सोच और तौर-तरीकों पर संगति का बहुत प्रभाव पड़ता है।
संगति के प्रभाव को हम इस उदाहरण के द्वारा भी समझ सकते है कि
छत्रपति शिवाजी बहादुर बने। ऐसा इसलिए, क्योंकि उनकी मां ने उन्हें वैसा वातावरण दिया। नेपोलियन जीवन भर बिल्ली से डरते रहे, क्योंकि बचपन में बिल्ली ने उन्हें डरा दिया था।

🌀 बच्चों को मनोरंजन का उचित अवसर दें
▪️बच्चो को समय समय पर मनोरंजन के अवसर दे जिससे वह शिक्षा को निरन्तर रूप से व रोचक या प्रभावी रूप से आनंद के साथ शिक्षा ग्रहण करे
और साथ ही साथ इस मनोरंजन वातावरण से इन बालकों कि जिस भी क्षेत्र में रचनात्मकता होगी उसके प्रदर्शन का भी अवसर उन्हें मिल पाएगा।

🌀 अध्यापक आदर्शपूर्ण व्यवहार करे
▪️शिक्षक की क्रिया और व्यवहार का प्रभाव उसके छात्र पर पड़ता है क्योंकि छात्र शिक्षक के व्यवहार को दोहराते हैं अर्थात शिक्षक का व्यवहार अनुकरणीय होता है ।
इसलिए जब शिक्षक द्वारा उचित और आदर्श पूर्वक व्यवहार किया जाएगा तो छात्र भी उसी तरह के व्यवहार का अनुकरण करेंगे।

🌀 बच्चे को संतुलित जेब खर्च दें
▪️माता-पिता द्वारा बच्चे को संतुलित जेब खर्च दिया जाए क्योंकि अत्यधिक जेब खर्चे से बच्चे उन पैसों का गलत उपयोग कर सकते हैं और यह समस्या या मुसीबत बच्चे व माता पिता दोनों के लिए बन सकती हैं।

🌀 शिक्षण विधि मनोरंजक हो
▪️मनोरंजक तरीके से सीखने में किसी भी कार्य को लंबे समय तक याद रखा जा सकता है। अधिकतर शिक्षक, शिक्षण की प्रक्रिया में अनुभवों की भूमिका को समझते हैं। सीखने का मनोरंजक माहौल, हंसी-मजाक और सीखने वाले की क्षमताओं के प्रति सम्मान का भाव आदि अनुभवात्मक शिक्षण के वातावरण को कामयाब बनाने का काम करते हैं।
इसीलिए शिक्षक मनोरंजक शिक्षण विधियों का प्रयोग कर आसानी से खेल खेल में प्रभावी रूप से समस्यात्मक बालकों को सीखा सकते हैं।

🌀 पाठ्यक्रम संतुलित हो अनावश्यक बोझ ना हो
▪️समस्यात्मक बालकों के लिए पाठ्यक्रम को संतुलित रखा जाए अर्थात जरूरत से ज्यादा ना हो और साथ ही साथ अनावश्यक ना हो यदि यह असंतुलित होगा तो यह छात्र व शिक्षक दोनों को बोझ लगेगा।

🌀 सहायक शिक्षण कार्यक्रम जैसे भ्रमण,खेलकूद,नाटक, संगीत आदि के माध्यम से शिक्षा
▪️समस्यात्मक बालकों को इस तरह के विभिन्न कार्यक्रम जैसे भ्रमण, खेलकूद, नाटक, संगीत व अन्य क्रियाकलापों के द्वारा समस्यात्मक व्यवहार को रोका जा सकता है। जिसके माध्यम से समस्यात्मक बालक इस कार्यक्रम में व्यस्त रहेंगे तो समस्या भी उत्पन्न नहीं कर पाएंगे

🌀 आत्मविश्वास जागृत करने के लिए उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य सौंपा जाए

▪️समस्यात्मक बालकों में जिम्मेदारी या जवाबदेही या उत्तर दायित्व पूर्ण कार्य को सौंप कर उनके अंदर आत्मविश्वास की भावना को जागृत किया जा सकता है।

✍🏻
Notes By-Vaishali Mishra

🌀 समस्यात्मक बालक के शिक्षा का स्वरूप 🌀 समस्यात्मक बालक के शिक्षा के स्वरूप में किसी भी बालक में सुधार करने के लिए हमें निम्नलिखित निदान एवं उपचार करना चाहिए जिससे कि बालक की अवस्था में सुधार हो सके और वह आगे बढ़ सके । जो कि निम्नलिखित है :– ▪माता – पिता प्रेम और सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करें ➖और उनको उचित वातावरण में रखें ताकि उन्हें समुचित वातावरण देकर हम उनके स्तर में सुधार कर सके क्योंकि एक बच्चे के करीब उसके माता-पिता सबसे ज्यादा होते हैं और इस साथ में अपने परिवार के लोगों को बच्चों से सहानुभूति पूर्ण व्यवहार रखने और उन्हें एक अच्छा वातावरण देने के लिए प्रेरित करें । ▪ उनकी मूल प्रवृत्ति का दमन ना करें ➖ अगर किसी बच्चे की रूचि किसी चीज में है और वह उस काम को करना चाहता है तो हमें उस काम को करने के लिए उसे प्रेरित करना चाहिए ।बजाय कि उस काम को करने पर डांट ने या फटकार लगाने की क्योंकि बच्चा जिस चीज में अपनी रुचि लेगा उस काम को बेहतर तरीके से और सबसे अच्छा करेगा। बस हमको जरूरत है तो उसको देखने की को सही दिशा में जा रहा है या नहीं । ▪ अगर कोई दोष पता चले तो संभव हो तो मानसिक चिकित्सा कराएं ➖ अगर किसी बच्चे में किसी भी प्रकार की समस्या है या कोई दोस है और यदि हम उसके दोस को दूर करने में सक्षम है तो उस दोष को दूर करने के लिए आवश्यक चिकित्सा अवश्य कराएं कोई ना कोई उपाय अवश्य करें ताकि उस बच्चे के स्तर में सुधार आ जाए। ▪ बच्चे को उचित कार्य हेतु प्रेरित करें/ प्रोत्साहित करें/ जरूरत लगे तो पुरस्कार भी दें ➖ यदि बच्चा कोई अच्छा कार्य करता है या उचित कार्य करता है तो हमें उसके काम की प्रशंसा अवश्य करनी चाहिए ताकि जब वह अगली बार काम करें तो उसे यह पता रहे कि मैंने यह काम अच्छा किया है और अगर गलत किया है तो उसमें भी हम उसको बताएं समझाएं कि यह गलत है ताकि उसे अच्छे और बुरे की समझ हो जाए और वह और वह उचित काम से प्रेरित होकर और भी अच्छे कार्य करें और आवश्यकतानुसार उसके कार्य के कार्य के अनुसार पुरस्कार देना भी आवश्यक है । ▪ उन्हें नैतिक शिक्षा दें ➖ नैतिक शिक्षा अर्थात उन्हें उचित आचरण दें जैसे – कि दूसरों की मदद करना ,बड़ों का सम्मान करना, ईमानदारी से काम करना , अपने कार्य को जिम्मेदारी से पूरा करना इस प्रकार इस प्रकार कई प्रकार से हम उन्हें समझा या बता सकते हैं और उन्हें नैतिक शिक्षा का ज्ञान दे सकते हैं। ▪ बच्चों की संगत पर विशेष ध्यान दें ➖ बच्चों की संगत पर विशेष ध्यान देने से तात्पर्य है – कि बच्चे कैसे और क्या किस समय कर रहे हैं किसके साथ कैसा व्यवहार कर रहे हैं किसके साथ उठते बैठते हैं उनके काम करने के तरीकों और बाकी सारे व्यवहारों को हमें समय-समय पर निरीक्षण करते रहना चाहिए यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो बच्चों की प्रतिक्रियाओं के बारे में जानेंगे नहीं और उन्हें हम उचित और अनुचित का ज्ञान नहीं दे पाएंगे इसलिए हमें उनकी संगत पर विशेष ध्यान देना है । ▪ बच्चों के मनोरंजन का भी उचित अवसर दें ➖ समय-समय पर और आवश्यकतानुसार बच्चों की रुचियों को ध्यान रखते हुए हमें उनके हमें उनका मनोरंजन करना भी आवश्यक है क्योंकि यदि वह किसी भी चीज में मनोरंजन या रूचि नहीं लेंगे तो वह चीज उनके लिए बोझ बन जाएगी और धीरे-धीरे किसी भी कार्य को करने को चीजें उन्हें बोझ लगती है करने की इच्छा समाप्त हो जाएगी इसलिए बच्चों का मनोरंजन करना अति आवश्यक है । ▪ अध्यापक आदर्श पूर्ण व्यवहार करें जो बच्चों के लिए अनुकरणीय हो ➖ अध्यापक को आदरपूर्वक करना आवश्यक है क्योंकि बच्चा अपने बड़ों से अपने शिक्षक से या किसी ना किसी को देखकर ही किसी चीज को सीखते हैं इसलिए शिक्षक को घर परिवार वालों को भी हमें ऐसा व्यवहार करना है कि बच्चे हम से जो भी सीखें वह आदर्श उचित एवं अनुकरणीय हो ▪ बच्चे को संतुलित जेब खर्च दें ➖ बच्चों को संतुलित जेब खर्च देने से तात्पर्य यह है कि हमें यह ध्यान देना है कि हम जो पैसा दे रहे हैं वह उसका कहां प्रयोग कर रहा है कहीं इसका अनुचित या किसी गलत जगह पर प्रयोग तो नहीं कर रहा है इसलिए हमें उन्हें उतना ही पैसा देना है जितने कि उन्हें आवश्यकता है । या जरूरत पड़ने पर ही देना है अनावश्यक जेब खर्च देने से बच्चा गलत आदत पकड़ सकता है इसलिए हमें इस बात का विशेष ध्यान देना है । ▪ शिक्षण विधि मनोरंजक हो ➖ हमें ऐसे तरीकों का या ऐसी शिक्षण विधि का उपयोग करना है जिससे बच्चे उस विधि या उस चीज को पढ़ते समय उत्साहित रहे उसको पढ़ने के लिए रुचि लें और जब वह किसी भी चीज को रुचि के साथ करेंगे तो यह जरूर आवश्यक है कि वह उनको अच्छे से समझ आएगा और मैं उसको उस कार्य को करने में सफल भी होंगे । ▪ संतुलित पाठ्यक्रम हो अनावश्यक बोझ ना हो ➖ संतुलित पाठ्यक्रम से तात्पर्य है कि उन्हें ऐसा पाठ्यक्रम देना है जो उनके जीवन से जुड़ा हुआ और आगे आने वाले समय में उपयोगी हो बच्चों के ऊपर अनावश्यक बोझ नहीं डालना है ▪ सहायक शिक्षण कार्यक्रम भ्रमण खेलकूद नाटक संगीत के द्वारा समस्यात्मक व्यवहार को रोका जा सकता है ➖ बच्चों में खेल प्रतियोगिता भ्रमण/ नाटक/ संगीत इत्यादि के द्वारा हम उनके व्यवहार को शायद बदल सकते हैं बच्चे अनुकरण से सीखते हैं और यदि हम उन्हें दूसरे बच्चों के साथ गतिविधि का हिस्सा बनाएंगे तो बच्चे उस कार्य को करेंगे उसमें कुछ न कुछ सीखेंगे और दूसरों के साथ सामूहिक प्रक्रिया करने के आचरण को भी जानेंगे इसमें इनका उनका खुद का ज्ञान बढ़ेगा दूसरों से वह अनुकरण करेंगे सीखेंगे प्रतियोगिता संगीत कला इत्यादि के माध्यम से वह सीखेंगे । ▪ आत्मविश्वास जागृत करने के लिए उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य सौंपे ➖ यदि बच्चा खाली रहता है तो कुछ ना कुछ उसके दिमाग में उल्टी बातें या विपरीत चीजें आती हैं और यदि वह किसी काम में व्यस्त रहता है तो वह उस काम के बारे में सोचता है उस चीज के बारे में सोचता है जो वह कर रहा है इसलिए उनको किसी काम की जिम्मेदारी देना आवश्यक है यदि वह किसी काम की जिम्मेदारी लेते हैं तो उस काम को निभाएंगे और उस कार्य के प्रति जागरूक रहेंगे और उस जिम्मेदारी उस कार्य को पूर्ण करने के लिए व आवश्यक प्रयास भी करेंगे। 👉 इस प्रकार कई महत्वपूर्ण प्रयास करके अनेक गतिविधियां करवाकर समस्यात्मक बालक की शिक्षा के स्वरूप में उनके व्यवहार में हम परिवर्तन ला सकते हैं और यथोचित सहयोग से उनके स्तर में सुधार कर सकते हैं ✍️ notes by Pragya shukla

🌳🍁🦚समस्यात्मक बालकों के शिक्षा का स्वरूप 🦚🍁🌳

🌟माता – पिता प्रेम व सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करें।
🌟उनकी मूल – प्रवृत्तियों का दमन ना करें।
🌟यदि कोई दोष पता चले तो संभव हो तो मानसिक चिकित्सा करें।
🌟बच्चों को उचित कार्य हेतु प्रेरित/प्रोत्साहित और पुरस्कृत करें।
🌟बच्चों को नैतिक शिक्षा दें।
🌟बच्चों की संगति पर विशेष ध्यान दें।
🌟बच्चों को मनोरंजन का भी उचित अवसर दें।
🌟आदर्शपूर्ण व्यवहार करें जो उनके लिए अनुकरणीय हो।
🌟बच्चों को संतुलित जेब खर्च दें।
🌟शिक्षण विधि मनोरंजक हो।
🌟पाठ्यक्रम संतुलित हो,अनावश्यक बोझ ना हो।
🌟सहायक शिक्षण कार्य,जैसे :- भ्रमण,खेलकूद, नाटक, संगीत आदि के माध्यम से शिक्षा।
🌟आत्मविश्वास जागृत करने हेतु उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य सौंपा जाता है।

🌟 माता – पिता प्रेम व सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करें :-
🌸 जैसा कि हम जानते हैं कि किसी भी बच्चे की सर्व प्रथम पाठशाला उनके माता-पिता अथवा उनका परिवार ही होता है। इसलिए हमें परिवार में भी बालकों के साथ अच्छे से प्रेम पूर्वक व्यवहार करना चाहिए। उन से तेज आवाज में बात करना,गुर्राना,डांटना,झपटना इत्यादि करने से उनमें नकारात्मकता आ जाती है।

🌟 उनकी मूल – प्रवृत्तियों का दमन ना करें :-
🌸 बच्चों में सर्वप्रथम मूल प्रवृत्तियों का विकास होता है मूल प्रवृत्ति बच्चों में पाई जाती है इसलिए उनके मूल प्रवृत्तियों का दमन ना करते हुए उन्हें किसी भी समस्या या चीजों का सही गलत में अर्थ बताना चाहिए।

🌟 यदि कोई दोष पता चले तो संभव हो तो मानसिक चिकित्सा करें :
🌸 ऐसी स्थिति हो कि बच्चे में कोई दोष पाई जाए तो यथाशीघ्र उसे मानसिक चिकित्सा दी जानी चाहिए।

🌟 बच्चों को उचित कार्य हेतु प्रेरित/प्रोत्साहित और पुरस्कृत करें :-
🌸 जब कभी भी बच्चे अच्छे कार्य करें या नहीं तो उन्हें बच्चों को उचित कार्य हेतु प्रेरित/प्रोत्साहित और पुरस्कृत भी करना चाहिए।जिससे उनका मनोबल बढ़े और और वह आगे और भी अपने कार्य करने में सक्षम हो पाएं। तथा दृढ़ता पूर्वक आगे बढ़ते रहें।

🌟 बच्चों को नैतिक शिक्षा दें :-
🌸 जैसा कि हम जानते हैं शिक्षा का क्षेत्र बहुत ही व्यापक है।हमें बच्चों को नैतिक शिक्षा भी दी जानी चाहिए ताकि बच्चे को केवल एक ही क्षेत्र में सक्षम ना बनाकर सभी क्षेत्रों में उनका अवलोकन कर विस्तृत रूप से शिक्षण अधिगम कराना चाहिए।

🌟 बच्चों की संगति पर विशेष ध्यान दें :-
🌸 बच्चों की संगति पर भी विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है इसमें भी माता-पिता शिक्षक और अभिभावकों का विशेष स्थान होता है जिनके द्वारा यह अवलोकन किया जाता है तथा उनके सही गलत का निर्णय कर उस पर प्रतिबंध लगाई जाती है।

🌟 बच्चों को मनोरंजन का भी उचित अवसर दें :
🌸 हमें बच्चों को समय-समय पर मनोरंजन का भी उचित अवसर देना चाहिए ताकि शिक्षण अधिगम कार्य में उनकी रुचि और प्रेरणा बनी रहे तथा उनकी मानसिकता में भी सुधार हो सके।

🌟 आदर्श पूर्ण व्यवहार करें तो उनके लिए अनुकरणीय हो :-
🌸 जैसा कि हम जानते हैं कि बालकों के ऊपर सबसे अधिक प्रभाव माता-पिता,अभिभावक,मित्रों और शिक्षकों का पड़ता है इसलिए हमें समस्यात्मक बालकों से आदर्शपूर्ण व्यवहार करना चाहिए जो कि उनके लिए अनुकरणीय हो तथा वह उन्हें अपने जीवन में उतार सके।

🌟 बच्चों को संतुलित जेब खर्च दें :-
🌸 समस्यात्मक बच्चों को संतुलित जेब खर्च भी दी जानी चाहिए ताकि बच्चे पैसों का महत्व समझ सके और व्यर्थ के कार्यों में खर्च नहीं करें। वरना कुछ ही दिनों में यह माता पिता और अभिभावकों के लिए भी मुसीबत बन सकता है।

🌟 शिक्षण विधि मनोरंजक हो :-
🌸 शिक्षकों का उत्तरदायित्व यह है कि समस्यात्मक बालकों के लिए शिक्षण विधि मनोरंजक और प्रभावशाली हो। ताकि बच्चे रुचि और प्रेरणा के साथ शिक्षा ग्रहण कर सकें और इस प्रकार से मनोरंजक पूर्ण शिक्षण के द्वारा ली गई शिक्षा बहुत ही लंबे समय तक याद भी रहती है।

शिक्षण विधि को मनोरंजक बनाने के लिए :-
खेल खेल में शिक्षा कराना चाहिए,कक्षा में बच्चों को सक्रिय रखना चाहिए तथा उनसे ज्यादा से ज्यादा प्रश्न पूछने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए,कक्षा में हंसी – मजाक का माहौल भी होना चाहिए इससे भी हमारे शिक्षण कार्य मनोरंजक बनते हैं।

🌟 पाठ्यक्रम संतुलित हो, अनावश्यक बोझ ना हो:-
🌸 समस्यात्मक बालकों के लिए किसी भी पाठ्यक्रम को संचालित करने से पूर्व हमें यह निर्णय कर लेना चाहिए,कि पाठ्यक्रम संतुलित हो, इसमें अनावश्यक बोझ भी नहीं होना चाहिए। ताकि बालकों को पाठ्यक्रम बोझ ना लगे और वे रूचिपूर्ण शिक्षा ले सकें।

🌟 सहायक शिक्षण कार्य,जैसे :- भ्रमण,खेलकूद,नाटक,संगीत आदि के माध्यम से शिक्षा :-
🌸 समस्यात्मक बालक को समस्या उत्पन्न करने जैसी कार्य से रोकने के लिए उन्हें शिक्षण सहायक कार्य जैसे :- भ्रमण,खेलकूद,नाटक और संगीत इत्यादि के माध्यम से शिक्षा देकर उन्हें उसी कार्यों में व्यस्त रखकर भी हम उन्हें समस्यात्मक कार्य करने से रोक सकते हैं।

🌟 आत्मविश्वास जागृत करने हेतु उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य सौंपा जाए :-
🌸 किस प्रकार के समस्यात्मक बालकों को उन्हें आत्मविश्वास जागृत करने हेतु उनके लिए उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य भी सौंपा जा सकता है।जिससे वे अपने मानसिक विशेषताओं को सटीक जगह प्रयोग कर अपनी प्रतिभा को उजागर कर सकें।

🌸🌸समाप्त 🌸🌸

🌟Notes by :- Neha Kumari 😊

🌷🌷🙏🙏धन्यवाद् 🙏🙏🌷🌷

📖 📖 समस्यात्मक बालक 📖 📖

🌻🌿🌻समस्यात्मक बालक के लिए शिक्षा का स्वरूप 🌻🌿🌻
समस्यात्मक बालक, वह बालक होता है, जो कि समस्या उत्पन्न करता है। अर्थात हम सभी जानते हैं, कि यह सामान से भिन्न होते हैं। तो इनके लिए शिक्षा की व्यवस्था भी भिन्न नहीं होगी। अतः इन बालकों की शिक्षा व्यवस्था हमें व्यवस्थित तरीके से इनके व्यवहार के अनुरूप करनी होगी।

🌺🌺समस्यात्मक बालक की शिक्षा का स्वरूप कि उनके लिए शिक्षा व्यवस्था कैसी होनी चाहिए? और हमें उन्हें किस तरह से इस समस्या से बाहर निकालने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए? 🌺🌺
इसी संदर्भ में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य निम्नलिखित हैं~

🍃🍂 माता पिता बालक के प्रति प्रेम और सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करें~
हम सभी यह जानते हैं, कि बालक के जीवन में माता-पिता अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। बालक का व्यवहार काफी हद तक माता-पिता के व्यवहार के कारण ही विकसित होता है। अगर माता-पिता बालक के प्रति सकारात्मक व्यवहार रखेंगे या सकारात्मक दृष्टिकोण में रखेंगे, तो बालक अभी सकारात्मक व्यवहार का ही अनुकरण करेंगे।
अतः शिक्षक को माता पिता के साथ मिलकर समस्यात्मक बालक की समस्या को दूर करने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए। माता-पिता को बालक के प्रति प्रेम और सहानुभूति व्यवहार रखना चाहिए। जिससे कि बालक हताश ना रहे वह यह ना समझे, कि मुझे मेरे माता-पिता के द्वारा सहानुभूति प्राप्त नहीं हुई है। जिससे कि उसमें समस्यात्मक प्रवृत्ति के होने के कम अवसर रहे।

🍂🍃 उनकी मूल प्रवृत्तियों का दमन न करें~
किसी भी इंसान की मूल प्रवृत्तियां उसके जन्म से ही होती है, एवं कुछ अर्जित भी की जाती हैं। इन्हीं मूल प्रवृत्तियों में अगर किसी भी प्रकार की खलल उत्पन्न हो या इन मूल प्रवृत्तियों में किसी भी प्रकार का परिवर्तन किया जाए। तो व्यक्ति को अत्यधिक परेशानियों का सामना करना पड़ता है।
अगर बालक की मूल प्रवृत्तियों का दमन नहीं होगा, वह अपने अनुसार कार्य कर पायेगा। जिससे कि उसमें किसी भी प्रकार की नकारात्मक भावनाओं की उत्पत्ति नहीं होगी अतः बालक की मूल प्रवृत्तियां उसके जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। अगर बालक की मूल प्रवृत्तियों की पूर्ति होगी, तो उसके समस्यात्मक ना होने में उसे काफी सहायता मिलेगी।

🍃🍂 बालक में किसी दोष का पता चले तो उसे मानसिक चिकित्सा करवाऐ~
अगर बालक में किसी दोस्त या समस्या मानसिक स्तर पर हो या अत्यधिक हो जाए। तो हमें उस बालक को मानसिक चिकित्सक के पास ले जाया जाना चाहिए। जिससे कि बालक की समस्या को दूर किया जा सके, क्योंकि मस्तिष्क संबंधी समस्या को मनोचिकित्सक भली-भांति प्रकार से जान सकता है। कि बालक को किस प्रकार की समस्या है, एवं समस्या का पता करने के बाद वह उचित रूप से उसका उपचार कर सकता है।

🍂🍃 बच्चों को उचित कार्य हेतु प्रोत्साहन/प्रेरित और पुरस्कार~
अगर बालक कोई कार्य अच्छा करता है, तो बालक की प्रशंसा की जानी चाहिए। एवं बालक को प्रेरित किया जाना चाहिए, कि वह और इस तरह के कार्य करें क्योंकि बालक को प्रोत्साहन मिलेगा। तो वह कार्य को करने के लिए और उत्सुक होगा, एवं कार्य की पूर्ति होने के बाद बालक को पुरस्कार भी दिए जाने चाहिए। क्योंकि बालक को पुरस्कार प्राप्ति होने पर वह कार्यों को ओर अच्छे ढंग से करने का अत्यधिक प्रयास करेगा।
अगर समस्यात्मक बालक को भी ठीक इसी प्रकार से पुरस्कार एवं प्रोत्साहन मिले तो वह भी अपनी इस प्रवृत्ति का दमन कर पाएगा।

🍃🍂 बालकों को नैतिक शिक्षा देना~
बालक को समाज में जीवन व्यतीत करने के लिए नैतिक शिक्षा की आवश्यकता अत्यधिक होती है, क्योंकि अगर बालक समाज में रहना चाहता है। तो उसे नैतिकता का ज्ञान होना अति आवश्यक है।बिना नैतिकता के बालक सामाजिक जीवन सुख पूर्ण व्यतीत नहीं कर सकता हैं।
बालक के जीवन में नैतिकता का अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान होता है। अगर बालक घर में भी रहेगा तो उसे नैतिकता अपनानी होगी। अपनों से बड़े व्यक्तियों से किस तरह बात करना है, इत्यादि सभी बातों का ध्यान उसे नैतिक शिक्षा के माध्यम से ही मिलता है।

🍂🍃 बच्चों की संगति पर विशेष ध्यान देना~
एक बालक के जीवन में या व्यक्ति के जीवन में संगति का विशेष महत्व होता है। अगर बालक अच्छी संगति में रहेगा तो उसका व्यवहार भी अच्छा ही होगा। लेकिन अगर बालक अच्छी संगति में ना रहकर बुरी संगति की तरफ आकर्षित होगा तो उसका व्यवहार भी बुरा ही होगा।
अतः माता-पिता को बालक की संगति पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए। माता-पिता को यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए, कि बालक जिन बालको या दोस्तों के साथ रह रहा है। वह कैसे हैं ? एवं उनका व्यवहार कैसा है? इन सभी बातों का ध्यान माता-पिता को भलीभांति प्रकार से होना चाहिए।

🍃🍂 बच्चों को मनोरंजन का भी उचित अवसर दें~
बच्चों को शिक्षण प्रक्रिया करवाते समय मनोरंजन का भी उचित अवसर दिया जाना चाहिए क्योंकि बालक को अगर मनोरंजन पूर्ण व्यवहार ना मिले तो वह कक्षा में शिक्षण प्रक्रिया में उतना रुचि पूर्ण नहीं हो पाएगा जितना कि वह मनोरंजक विधियों इत्यादि के माध्यम से पढ़ाई जाने पर होगा।
अतः बालक को शिक्षा के साथ-साथ मनोरंजन का भी उतना ही अवसर प्रदान किया जाना चाहिए। समय-समय पर उसे मनोरंजक उदाहरणों से संबंधित किया जाना चाहिए।

🍂🍃 अध्यापक का आदर्श पूर्वक व्यवहार करना~
शिक्षक का आदर्श पूर्ण व्यवहार करने का अर्थ यह है, कि बालक सदैव ही शिक्षक का अनुकरण करता है। शिक्षक द्वारा किए गए प्रत्येक कार्यों को वह अपने जीवन में करने का प्रयास करता है, इसलिए शिक्षक का व्यवहार बालक के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
अतः शिक्षक का व्यवहार आदर्श पूर्ण होना अति आवश्यक है अगर शिक्षक उचित व्यवहार नहीं करेगा तो बालक भी उसका अनुकरण कर उचित व्यवहार नहीं करेगा।

🍃🍂 बच्चे को संतुलित जेब खर्च देना~
बच्चे को उसके अनुसार से ही जेब खर्च दिया जाना चाहिए। अगर छोटा बालक है, तो उसे कम पैसे दिए जाए, या ना भी दिए जाए। लेकिन उसकी जरूरतों को पूरा किया जाना चाहिए। अत्यधिक जेब खर्च देने पर बालक उन पैसों का इस्तेमाल हमेशा जरूरी नहीं है, कि अच्छे कार्यों में ही करें उन पैसों से वह कई बार गलत कार्यों में भी लगा देता है। जो कि एक समस्यात्मक बालक का लक्षण है। इसे दूर करने के लिए माता-पिता को इन बातों का ध्यान रखना होगा, कि बालक को उसकी उम्र एवं जरूरतों के हिसाब से ही संतुलित जेब खर्च दें।

🍂🍃 मनोरंजक शिक्षण विधियों का प्रयोग~
बच्चों का ध्यान कक्षा में अत्यधिक लगाए रखने के लिए एक शिक्षक होने के नाते, हमें इस प्रकार की शिक्षण विधियों का उपयोग किया जाना चाहिए।जो की सफल तो हो, लेकिन मनोरंजक भी हो। जिससे कि बालक खेल-खेल में ही सीख जाए। उन्हें ऐसा ना लगे कि यह विधियां बहुत ही कठिन है। क्योंकि बालक कठिन विधियों में रुचि नहीं लगाते हैं। बालको में रुचि उत्पन्न करने के लिए हमें अपने विधियों में बदलाव करने होंगे, एवं मनोरंजन को भी विधियों में शामिल करना होगा।

🍃🍂 संतुलित पाठ्यक्रम या कार्यक्रम हो~
पाठ्यक्रम को ऐसा बनाना चाहिए जो कि लचीला हो, एवं पाठ्यक्रम में अनावश्यक चीजों को नहीं जोड़ना चाहिए।पाठ्यक्रम में ऐसी इकाइयों का समावेश किया जाना चाहिए। जो कि दैनिक जीवन से संबंधित हो, क्योंकि हमें शिक्षण कराते समय बालक में रूचि लाना अति आवश्यक है। और अगर पाठ्यक्रम दैनिक जीवन से संबंधित होगा। तो बालक भी पाठ्यक्रम में रुचि ले सकेगा। इसके माध्यम से हम समस्यात्मक बालक को भी कक्षा में उपस्थित रख पाएंगे एवं उसकी समस्या को भी दूर कर पाएंगे। अतः पाठ्यक्रम संतुलित होना अति आवश्यक है।

🍂🍃 उत्तरदायित्व पूर्ण कार्यों को देना~
समस्यात्मक बालक को ऐसे कार्यों का दिया जाना चाहिए, जो कि उत्तरदायित्व पूर्ण हो। क्योंकि बालक अपने उत्तरदायित्व को पूरा करने के लिए उस कार्य में अपना पूरा योगदान देगा। एवं उस कार्य को भलीभांति पूर्ण कर भी पाएगा। जिससे कि हम बालक को व्यस्त भी रख सकते हैं। अगर बालक व्यस्त रहेगा, तो वह समस्या उत्पन्न नहीं करेगा। अतः बालक को समस्यात्मक प्रवृत्ति से अलग करने के लिए उसे उत्तरदायित्व पूर्ण कर दिए जाने चाहिए।

🍃🍂 अतिरिक्त सहायक कार्यक्रम एवं प्रतियोगिताओं का आयोजन~
समस्यात्मक बालक को अन्य माध्यमों से भी शिक्षित किया जा सकता है, एवं उसकी इस प्रवृत्ति को भी दूर किया जा सकता है। जिस के संदर्भ में कुछ मुख्य बिंदु निम्नलिखित हैं~
👉🏻 शिक्षक को समस्यात्मक बालक की शिक्षा को उचित दिशा देने के लिए सहायक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाना चाहिए, जिससे कि समस्यात्मक बालक उन कार्यक्रमों में व्यस्त रहे।

👉🏻 समस्यात्मक बालक को अन्य भ्रमण के लिए ले जाया जाना चाहिए। उन्हें ऐसे प्रोजेक्ट या कार्य दिए जाने चाहिए, जिससे कि वह अन्य जगहों का भ्रमण करके पूर्ण कर सके। इससे भी हम बालक को व्यस्त रख सकते हैं, एवं उसकी समस्यात्मक प्रवृत्ति को दूर कर सकते हैं।

👉🏻 इन बालकों को खेलकूद में भाग लेने के लिए प्रोत्साहन किया जाना चाहिए बालक खेल में अपनी रुचि अधिक दिखाता है, अतः वह खेल के माध्यम से भी अपनी समस्या तो प्रवृत्ति को कम कर सकता है।

👉🏻 विद्यालय में ऐसी प्रतियोगिताओं एवं कार्यों का आयोजन किया जाना चाहिए जैसे कि नाटक जिसमें बालक अपने आप को एक किरदार के लिए तैयार करेगा।

👉🏻 विभिन्न प्रकार की संगीत प्रतियोगिताओं का भी आयोजन किया जाना चाहिए, जिससे कि बालक अपने इन कार्यों में अपना योगदान दें, ना कि समस्यात्मक प्रवृत्ति को बढ़ाने में।

🌷🌷 उपरोक्त दिए गए सभी तथ्यों के माध्यम से हम समस्यात्मक बालक की प्रवृत्ति को खत्म करने के प्रयास कर सकते हैं, एवं उसे शिक्षित भी किया जा सकता है। इस सब के लिए शिक्षक एवं माता-पिता को मिलकर प्रयास करने होंगे। इन सभी प्रयासों के फलस्वरूप बालक की इस प्रवृत्ति को हम पूर्ण रूप से हटा सकते हैं, एवं उसे भी सामान्य बालक के भांति ही कर सकते हैं। 🌷🌷 📚📚📗समाप्त 📗📚📚

✍🏻 PRIYANKA AHIRWAR ✍🏻
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💠 समस्यात्मक बालकों के शिक्षा का स्वरूप 💠

प्रायः समस्यात्मक बालकों की आवश्यकता पूरी ना होने ,अत्यधिक लाड प्यार ,कठोर अनुशासन आदि के कारण बालक समस्यात्मक व्यवहार करने लगते हैं ऐसे बालको को शारीरिक दंड ना देकर मनोवैज्ञानिक ढंग से शिक्षा प्रदान करना चाहिए ।

ऐसे बालकों के शिक्षा के स्वरूप में सुधार करने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जाते हैं जो इस प्रकार से है➖

🌀 माता पिता प्रेम और सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करें➖ जैसा कि हम जानते हैं कि बालक सबसे करीब अपने माता पिता से ही होता है इसलिए समस्यात्मक बालकों के लिए यह सुनिश्चित करना चाहिए कि माता-पिता प्रेम पूर्वक और सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करें । ऐसे बालकों को माता पिता के द्वारा या अपने परिवार के द्वारा समय-समय पर परामर्श दिया जाना चाहिए। उन्हें एक अच्छा वातावरण देना चाहिए। जिससे वे उस वातावरण में अच्छे से समायोजित कर ले।

🌀 उनकी मूल प्रवृत्ति का दामन ना हो

समस्यात्मक बालकों की मूल प्रवृत्ति जैसे सोना, खाना, पढ़ना आदि प्रवृत्तियों का दमन या अनदेखा नहीं करना चाहिए ऐसे समस्यात्मक बालकों के सोने या उठने का समय में परिवर्तन नहीं करना चाहिए जिसमें उनकी रूचि है अगर वह कार्य सही है तो उस काम को करने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।

🌀 अगर कोई दोष पता चले तो संभव हो तो मानसिक रूप से चिकित्सा कराएं➖ यदि समस्यात्मक बालकों में कोई दोष है तो उनके लिए मनोचिकित्सा की व्यवस्था करवाई जानी चाहिए जिससे समस्यात्मक बालकों के मन की परेशानी को चिकित्सक दूर करने का प्रयास कर सके। मानसिक रूप से चिकित्सा करा कर ऐसे बालकों की शिक्षा के स्तर में सुधार ला सकते हैं।

🌀 बच्चे को उचित कार्य हेतु प्रेरित करें, प्रोत्साहित करें ,पुरस्कार दे

समस्यात्मक बच्चे को उन्हें उनके उचित कार्य के लिए प्रेरित करना चाहिए एवं प्रोत्साहन भी मिलना चाहिए और जरूरत हो तो पुरस्कार भी देना चाहिए ताकि समस्यात्मक बालक प्रेरित होकर सही गलत को पहचान कर सके और अच्छे काम कर सके और आवश्यकता के अनुसार ही उन्हें उनके कार्यों के स्वरूप ही पुरस्कार दिया जाना चाहिए।

🌀 उन्हें नैतिक शिक्षा दें
समस्यात्मक बालकों को नैतिक शिक्षा अवश्य ही दिया जाना चाहिए नैतिक शिक्षा अर्थात सब का सम्मान करना ,सबसे उचित व्यवहार करना, मां पिता की बात मानना, सच बोलना ,ईमानदारी से काम करना, झूठ नहीं बोलना आदि जैसे कार्य उन्हें बताना और सिखाना चाहिए, कि बड़ों से किस प्रकार से बात करनी चाहिए।

🌀 बच्चों की संगति पर विशेष ध्यान देना
समस्यात्मक बालकों की संगति पर विशेष ध्यान अवश्य ही देना चाहिए की बच्चे किस प्रकार का आचरण या कैसे कार्य कर रहे हैं या उनके व्यवहार कैसे हैं और वे अपने कक्षा के अन्य बच्चों की साथ कैसा व्यवहार करते हैं समय-समय पर शिक्षक अभिभावक के द्वारा इनकी संगति पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए कि ऐसे बालक किस संगति में है और उन्हें की संगति पर रहना चाहिए और अगर ऐसे बच्चे किसी गलत संगति के साथ है तो उन्हें सही या गलत का ज्ञान देकर उन्हें समझाना चाहिए।

🌀 बच्चों को मनोरंजन का उचित अवसर दें

समस्यात्मक बच्चों को मनोरंजन का उचित अवसर प्रदान करना चाहिए उनकी रुचि के या आवश्यकता के अनुसार ही मनोरंजन करवाना अति आवश्यक हैं। ऐसे बच्चों को मनोरंजन में व्यस्त रखकर उन्हें उनकी समस्या से दूर किया जा सकता है।

🌀 अध्यापक आदर्श पूर्वक व्यवहार करें जो बच्चों के लिए अनुकरणीय हो

अध्यापक को प्रेम पूर्वक एवं आदर पूर्वक कि ऐसे बच्चों से व्यवहार करना चाहिए क्योंकि बालक माता-पिता के बाद विद्यालय में शिक्षक के व्यवहार को देखकर ही उचित व्यवहार
, बड़ों का सम्मान पढ़ाई पर मन लगाना , अच्छी बातें आदि सीखता है जो बच्चों के अनुकरणीय होता है ।

🌀 बच्चे को संतुलित जेब खर्च दें➖ समस्यात्मक बच्चे को उतना ही पैसा देना चाहिए जितना उन्हें जरूरत हो जरूरत से ज्यादा उन्हें पैसे देने से वे गलत चीज पर उसका उपयोग कर सकते हैं। तो हमें ऐसे बालकों के पैसे खर्च करने पर ध्यान देना चाहिए कि वे किस जगह पर इसका उपयोग कर रहे हैं। जरूरत से ज्यादा जेब खर्च देने से बालक की गलत आदत भी बन सकती है। इसलिए हमें बच्चे को संतुलित जेब खर्च ही देना चाहिए और इस बात का विशेष ध्यान देना चाहिए कि वह इस जेब खर्च का सही जगह , उचित उपयोग करें।

🌀 शिक्षण विधि मनोरंजक हो

अध्यापकों को सिखाने की शिक्षण विधि में मनोरंजक विधि को अपनाना चाहिए जिससे समस्यात्मक बालक कक्षा में पढ़ते समय रुचिपूर्ण उत्साहित होकर या मन लगाकर पढ़ें। और यदि बालक उत्साह पूर्वक पढ़ाई में रुचि लेंगे तो ऐसे बालकों को उनके कार्यों में सफलता अवश्य मिलेगी।

जैसे मनोरंजक विधि के अंतर्गत कहानी सुना कर या खेल विधि अपनाकर उन्हें शिक्षण देना चाहिए।

🌀 संतुलित कार्यक्रम (पाठ्यक्रम) हो अनावश्यक बोझ ना हो

संतुलित कार्यक्रम या पाठ्यक्रम से तात्पर्य है कि उन्हें उनकी आयु या उनके जरूरत के अनुसार ही पाठ्यक्रम प्रदान करना है जो उनके जीवन से जुड़ा हुआ हो और यह पाठ्यक्रम उन्हें बोझ ना लगे इस बात पर विशेष ध्यान देना चाहिए पाठ्यक्रम रुचिपूर्ण ,सरल एवं सहज होना चाहिए। समस्यात्मक बालकों के ऊपर किसी भी प्रकार से अनावश्यक बोझ नहीं डालना चाहिए।

🌀 सहायक शिक्षण कार्यक्रम की व्यवस्था

सहायक शिक्षण कार्यक्रम जैसे भ्रमण ,खेलकूद, नाटक, संगीत इत्यादि के द्वारा उनके समस्यात्मक व्यवहार को रोका जा सकता है। ऐसे बच्चों को समय-समय पर गतिविधियां कराने से वे व्यस्त रहेंगे और इन गतिविधियों को करते समय वे स्वयं भी परेशान नहीं होंगे और दूसरे से अंतः क्रिया करके सहयोग की भावना उनमें आएगी इसलिए समस्यात्मक बालकों के लिए समय-समय पर गतिविधियां कराना अत्यंत आवश्यक है।

🌀 आत्मविश्वास जागृत करने के लिए उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य सौंपे

समस्यात्मक बालकों में आत्मविश्वास जागृत करने के लिए उन्हें उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य दिए जाने चाहिए जिससे वह अपने जिम्मेदारी से उस कार्य को पूर्ण करें , यदि समस्यात्मक बालक खाली रहेंगे तो वे खुद भी परेशान रहते हैं और दूसरों को भी परेशान करते हैं और इसी बीच यदि उन्हें कुछ जिम्मेदारी का कार्य दे दिया जाए तो वे उस उत्तरदायित्व को ईमानदारी से करते हैं। और अपनी जिम्मेदारी से उस कार्य को पूर्ण करने के लिए आवश्यक रूप से प्रयत्न भी करते हैं।

🪔 उपरोक्त तथ्यों से यह निष्कर्ष निकलता है कि समस्यात्मक बालकों के शिक्षा का स्वरूप सुधारने के लिए शिक्षक, अभिभावक या परिवार के अन्य सदस्यों के द्वारा भी विभिन्न प्रकार के प्रयास किए जा सकते हैं जिसके द्वारा इनके शिक्षा में सुधार लाया जा सकता है।

🪔✍🏻 Notes by manisha gupta ✍🏻🪔

💫समस्यात्मक बालकों के शिक्षा का स्वरूप 💫

समस्यात्मक बालक समस्यात्मक इसलिए होता है क्योंकि कभी-कभी वह वंशानुक्रम का शिकार हो जाता है या कभी-कभी वह अपने आसपास के वातावरण के कारण भी समस्यात्मक हो सकता हैऐसे बालकों के शिक्षा के स्वरूप में सुधार करने के लिए निम्नलिखित उपाय किए जाते हैं जो इस प्रकार से है:-

माता पिता प्रेम और सहानुभूति पूर्ण व्यवहार कर
समस्यात्मक बालक की शिक्षा के लिए हमें सबसे पहले उसके माता-पिता से संपर्क करके उन्हें समझाइश देनी चाहिए कि आप अपने बालक के साथ प्रेम एवं सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करें ताकि बालक अपने परिवार में जैसा देखेगा जैसा सीखेगा वह भी दूसरी जगह पर वैसा ही व्यवहार अपने दोस्तों या अन्य लोगों के साथ करेगा।

उनकी मूल प्रवृत्ति का दमन ना हो
शिक्षक होने के नाते हमें समस्यात्मक बालक की मूल प्रवृत्तियों का दमन नहीं करना चाहिए। यदि हम बालक की मूल प्रवृत्तियों का दामन करते हैं तो उसमें चिड़चिड़ापन तथा हमारे प्रति क्रोध की भावना हमेशा बनी रहेगी जिससे बालक को शिक्षण अधिगम में समस्या का सामना करना पड़ सकता है।

अगर कोई दोष पता चले तो संभव हो तो मानसिक रूप से चिकित्सा कराएं
यदि समस्यात्मक बालकों में कोई दोष है तो उनके लिए मनोचिकित्सा की व्यवस्था करवाई जानी चाहिए जिससे समस्यात्मक बालकों के मन की परेशानी को चिकित्सक दूर करने का प्रयास कर सके। मानसिक रूप से चिकित्सा करा कर ऐसे बालकों की शिक्षा के स्तर में सुधार ला सकते हैं।

बच्चे को उचित कार्य हेतु प्रेरित करें, प्रोत्साहित करें ,पुरस्कार दे

समस्यात्मक बच्चे को उन्हें उनके उचित कार्य के लिए प्रेरित करना चाहिए एवं प्रोत्साहन भी देना चाहिए और पुरस्कार भी देना चाहिए ताकि समस्यात्मक बालक प्रेरित होकर सही गलत को पहचान कर सके और अच्छे काम कर सके।

उन्हें नैतिक शिक्षा दें
समस्यात्मक बालकों को नैतिक शिक्षा अवश्य ही देना चाहिए नैतिक शिक्षा का अर्थ है सब का सम्मान करना ,सबसे उचित व्यवहार करना, मां पिता की बात मानना, सच बोलना ,ईमानदारी से काम करना आदि कार्य उन्हें बताना और सिखाना चाहिए।

बच्चों की संगति पर विशेष ध्यान देना
समस्यात्मक बालकों की संगति पर विशेष ध्यान देना चाहिए की बच्चे किस प्रकार का आचरण या कैसे कार्य कर रहे हैं या उनके व्यवहार कैसे हैं और वे अपने कक्षा के अन्य बच्चों की साथ कैसा व्यवहार करते हैं समय-समय पर शिक्षक अभिभावक के द्वारा इनकी संगति पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए कि ऐसे बालक किसकी संगति में है और उन्हें किसकी संगति करना चाहिए और अगर ऐसे बच्चे किसी गलत संगति के साथ है तो उन्हें सही या गलत का ज्ञान देकर उन्हें समझाना चाहिए।

बच्चों को मनोरंजन का उचित अवसर दें

समस्यात्मक बच्चों को मनोरंजन का उचित अवसर प्रदान करना चाहिए बालक को उनकी रूचि के अनुसार मनोरंजन कराया जाएगा तो वह अपने काम में व्यस्त रहेगा तथा अपने साथी को या किसी अन्य व्यक्ति को अपने कामों से परेशान नहीं करेगा।

अध्यापक आदर्श पूर्वक व्यवहार करें जो बच्चों के लिए अनुकरणीय हो

समस्यात्मक बालक के साथ अध्यापक आदर्श पूर्वक व्यवहार करना चाहिए जो बच्चों के लिए अनुकरणीय होगा अध्यापक आदर्श पूर्वक व्यवहार करेगा तो बालक भी उसका अनुकरण करेगा और समस्यात्मक परिस्थिति उत्पन्न होने का खतरा कम हो जाएगा।

बच्चे को संतुलित जेब खर्च दें

माता-पिता को चाहिए कि वह अपने बालक को एक लिमिट में जेब खर्च दे क्योंकि आजकल देखा जाता है कि बालक समस्यात्मक होने के प्रमुख कारण यह हो सकते हैं कि वह अपने जेब खर्च का गलत उपयोग करता है तथा अपने साथ ही को भी उसके लिए उकसाता हैसमस्यात्मक बालक कुछ तो गलत काम करता ही है साथ ही वह अपने साथी को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करता है यदि बालक के पास पैसे नहीं होते हैं तो फिर वह बालक भी अपने घर में चोरी या किसी वस्तु को चुराकर उसे बेचकर पैसे प्राप्त करने की कोशिश करता है इस प्रकार उस बालक का प्रभाव दूसरे बालक पर भी पड़ता है
शिक्षण विधि मनोरंजक हो

अध्यापकों शिक्षण कराते समय शिक्षण विधि में मनोरंजक विधि को अपनाना चाहिए जिससे समस्यात्मक बालक कक्षा में पढ़ते समय रुचिपूर्ण वातावरण पाकर पढ़ने में मन लगाएगाऐसे बालक को पढ़ाते समय शिक्षक को t.l.m. का अधिक से अधिक प्रयोग करना चाहिए जैसे मनोरंजक विधि के अंतर्गत कहानी सुना कर या खेल विधि अपनाकर उन्हें शिक्षण देना चाहिए।

संतुलित कार्यक्रम (पाठ्यक्रम) हो अनावश्यक बोझ ना हो

संतुलित कार्यक्रम या पाठ्यक्रम से तात्पर्य है कि उन्हें उनकी आयु या उनके जरूरत के अनुसार ही पाठ्यक्रम प्रदान करना जो उनके जीवन से जुड़ा हुआ हो और यह पाठ्यक्रम उन्हें बोझ ना लगे इस बात पर विशेष ध्यान देना चाहिए पाठ्यक्रम रुचिपूर्ण ,सरल एवं सहज होना चाहिए। समस्यात्मक बालकों के ऊपर किसी भी प्रकार से अनावश्यक बोझ नहीं डालना चाहिए।

सहायक शिक्षण कार्यक्रम की व्यवस्था

सहायक शिक्षण कार्यक्रम जैसे भ्रमण ,खेलकूद, नाटक, संगीत इत्यादि के द्वारा उनके समस्यात्मक व्यवहार को रोका जा सकता है। ऐसे बच्चों को समय-समय पर गतिविधियां कराने से वे व्यस्त रहेंगे और इन गतिविधियों को करते समय वे स्वयं भी परेशान नहीं होंगे और दूसरे बालक उनको भी तंग नहीं करेंगे ऐसा शिक्षा प्राप्त करके वह समस्यात्मक बालक से धीरे धीरे सामान्य बालको की श्रेणी में आने लगेंगे

आत्मविश्वास जागृत करने के लिए उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य सौंपे

समस्यात्मक बालकों में आत्मविश्वास जागृत करने के लिए उन्हें उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य दिए जाने चाहिए। समस्यात्मक बालक अपने कार्यों को इमानदारी से करेगा और उसके मन में यह आएगा कि सामान्य बालक की तरह शिक्षक मुझे भी सराहे और वह शिक्षक द्वारा दिए गए कार्य को इमानदारी से पूर्ण करेगा।

✍🏻✍🏻Notes by-Raziya khan✍🏻✍🏻

💐💐 समस्यात्मक बालक की शिक्षा का स्वरूप💐💐
🌴समस्यात्मक बालक के शिक्षा का स्वरूप स्वभाविक होता है उन्हें समय रहते ही सुधार करना चाहिए अन्यथा उन्हें अनेक समस्याओं का समायोजन करने में समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
⛲ माता पिता प्रेम और सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करें:-
👁‍🗨 समस्यात्मक बालक के साथ उसके माता-पिता प्रेम और सहानुभूति से व्यवहार करना चाहिए और सुनिशचित करना चाहिए। बच्चे सबसे ज्यादा मां पापा के पास ही जाते हैं अगर उन्हें कोई दिक्कत होती है तो बच्चे की मानसिक स्थिति को बदलना है ताकि बच्चे सकारात्मक सोचे क्योंकि बच्चे घर पर सबसे ज्यादा रहते इसलिए घर का वातावरण ऐसा रखे जिससे बच्चे पर सकारात्मक प्रभाव पड़े नहीं तो घर का माहौल अगर नकारात्मक नहीं होता है तो बच्चे के मन में कहीं न कहीं वह बात सोचते रहते इसलिए माता-पिता को इस बात का ध्यान रखना चाहिए और माता-पिता प्रेम सहानुभूति का व्यवहार करें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए।
⛲ समस्यात्मक बालक की मूल प्रवृत्ति का दामन ना करें:-
प्रत्येक बच्चे का मूल प्रवृत्ति अलग होता है कोई बच्चे बहुतचिड़चिड़े होते हैं तोकोई भी परेशानी आती है तो मूल प्रवृत्ति पर असर करती है कोई बच्चा समस्यात्मक है तो मूल प्रवृत्ति दबेगी और समस्या उत्पन्न होगी और वह मानसिक रूप से परेशान हो जाते है और वह और भी गुस्से और चिड़चिड़े हो जाते है जो समस्या के रूप में हमारे सामने आते हैं।
⛲ अगर कोई दोष या समस्या का पता चले और संभव हो तो मानसिक रूप से चिकित्सा करवाएं:-
👁‍🗨 समस्यात्मक बालक का अगर कोई समस्या या दोष का पता चलता है तो उन्हें मानसिक रूप से चिकित्सा को दिखाना चाहिए और उनका ठीक करवाना चाहिए जिससे बालक की सही समय पर निदान व उपचार कर सकते हैं।
⛲ बच्चे को शिक्षक द्वारा प्रेरणा प्रोत्साहन पुरस्कार दिया जाए:-
👁‍🗨 बच्चे को शिक्षक द्वारा प्रेरणा प्रोत्साहन पुरस्कार दिया जाना चाहिए जिससे वह प्रेरित होते हैं उन्हें सकारात्मक का मनोबल बढ़ता है और वह कार्य करने में भी रुचि लेते हैं इसलिए बालको को शिक्षक के द्वारा प्रोत्साहन और प्रेरणा जरूरत पड़ने पर पुरस्कार भी दिया जाना चाहिए।
⛲ नैतिक शिक्षा दी जाए:-
👁‍🗨 व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है व्यक्ति समाज में ही रह कर सिखता है कि उन्हें क्या करना है नहीं करना है बच्चे समाज में रहकर सीखते हैं उन्हें किसके बारे में क्या बोलना है कैसे रहना है कैसे किसी के साथ व्यवहार करना है झूठ बोलना है या नहीं गलत काम नहीं करना चाहिए यह सभी बच्चे को नैतिकता से ही सिखाया जा सकता है और इससे नैतिकता का भाव क्या करना है।
⛲ बच्चों की संगति पर विशेष ध्यान दें:-
👁‍🗨 बच्चों की संगति पर भी विशेष ध्यान रखना चाहिए क्योंकि बच्चे संगति में ही बहुत कुछ सिखते हैअगर अच्छा संगति है तो अच्छे व्यवहार सीखते हैं अगर गलत संगति में है तो बच्चे गलत व्यवहार सीखते हैं इसलिए बच्चों पर संगति का विशेष ध्यान देना चाहिए।
⛲ बच्चों को मनोरंजन का भी उचित अवसर दें:-
👁‍🗨 बच्चों को मनोरंजन का भी अवसर देना चाहिए जो समस्यात्मक बच्चे होते हैं उन्हें कभी भी सिर्फ एक ही काम को करने के लिए नहीं कहना चाहिए क्योंकि उन्हें मनोरंजन का भी मौका देना चाहिए जिससे वह अपनी रचनात्मकता दिखा सके अगर बच्चे को सिर्फ एक ही काम देंगे जिससे उनका रुचि समाप्त हो जाता है और वह अपने काम करने में उन्हें खुशी भी नहीं मिलेगी ना वह अपने काम का आनंद उठा पाएंगे इसलिए उन्हें ऐसा वातावरण उपलब्ध कराना चाहिए जिससे उनका रचनात्मकता दिख सके।

⛲ अध्यापक आदर्श पूर्वक व्यवहार करें:-
👁‍🗨 बच्चे से अध्यापक को आदर्श पूर्वक व्यवहार करना चाहिए जिससे बच्चे आगे बढ़े ना की पीछे बढे़ अध्यापक को आदर्श पूर्वक व्यवहार करे जो बच्चे के लिए अनुकरणीय हो बच्चे क्योंकि शिक्षक को अपना मार्गदर्शक मानते हैं।
⛲ बच्चे को संतुलित जेब खर्च दें:-
👁‍🗨 बच्चे को संतुलित जेब खर्च देना चाहिए क्योंकि बच्चे को अगर ज्यादा जेब खर्च पैसे मिल जाते हैं तो उनका वह गलत उपयोग कर सकते हैं और यह समस्या मुसीबत करती है माता-पिता और बच्चो दोनो के लिए बन जाती हैं।
⛲ शिक्षण विधि मनोरंजन हो:-
👁‍🗨 बच्चे को शिक्षण मनोरंजन विधि से पढ़ाते हैं तो बच्चे को वह आसानी से बहुत दिन तक याद रहती है हंसी मजाक में बच्चे ज्यादा सीखते भी हैं अपने वातावरण के साथ जोड़कर पढ़ते हैं इसलिए शिक्षा को मनोरंजन शिक्षण विधियों से बच्चों को पढ़ाना चाहिए और खेल खेल के माध्यम से भी पढ़ाना चाहिए बच्चों को छोटे-छोटे भागों में बांटकर पढ़ाना चाहिए जिससे उन्हें अपने कार्य का भार ना लगे और रुचि के साथ पढ़े।
⛲ पाठ्यक्रम संतुलित हो अनावश्यक बोझ ना हो:-
👁‍🗨 समस्यात्मक बालकों को पाठ्यक्रम संतुलित ही पढाना चाहिए उन्हें आवश्यक से ज्यादा ना पढे़ हैं यदि वह असंतुलित होगा तो छात्र और शिक्षक दोनों को बोझ लगेगा।
⛲ सहायक शिक्षण कार्यक्रम जैसे भ्रमण खेलकूद नाटक संगीत आदि के माध्यम से शिक्षा:-
👁‍🗨 समस्यात्मक बालकों को विभिन्न कार्यक्रम से पढ़ाना चाहिए जैसे भ्रमण खेलकूद नाटक संगीत अन्य क्रियाकलापों के द्वारा समस्यात्मक व्यवहार को रोक सकते हैं बालक को ऐसा कार्यक्रम करवाएंगे जिससे वह व्यस्त रहेंगे जिससे उनको समस्या भी उत्पन्न नहीं होगी।
⛲ आत्मविश्वास जागृत करने के लिए उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य सौंपे :-
👁‍🗨 समस्यात्मक बालक को जिम्मेदारी या जवाबदेही का कार्य देगे जिससे उनके अंदर आत्मविश्वास की भावना का विकास किया जा सकता है।

Notes By :-Neha Roy

🌼🌼 समस्यात्मक बालक🌼🌼

✍🏻 समस्यात्मक बालक वह बालक है जो किसी ना किसी रूप में कोई ना कोई समस्या उत्पन्न करता है, ऐसे बालक स्कूल में किसी भी कार्यक्रम में सक्रिय नहीं होते हैं वह दूसरों को शारीरिक और मानसिक कष्ट देकर आनंद लेते हैं।

🌹 समस्यात्मक बालक की शिक्षा का स्वरूप🌹

🍁 माता पिता का बच्चे के प्रति प्रेम और सहानुभूति पूर्ण व्यवहार-

सभी बच्चे अपने माता पिता के सबसे अधिक नजदीक होते हैं उनका व्यवहार उनके माता-पिता के व्यवहार पर ही निर्भर करता है तथा वह सकारात्मक व्यवहार रखेंगे तो बच्चे का सकारात्मक दृष्टिकोण ही रहेगा और वह उसी के अनुसार अनुकरण करेगा।
अतः शिक्षक को बच्चे के माता-पिता से मिलकर उसकी समस्या पर बात करके उसको दूर करने के प्रयास करने चाहिए माता-पिता को बालक के प्रति प्रेम और सहानुभूति व्यवहार करना चाहिए जिससे उसकी समस्यात्मक प्रवृत्ति कम हो सके।

🍁 उनकी मूल प्रवृत्ति का दमन ना करें- सर्वप्रथम बच्चों में मूल प्रवृत्तियों का विकास होता है इसीलिए हमें उनकी मूल प्रवृत्तियां का दमन नहीं करना चाहिए उनकी मूल प्रवृत्ति का दमन होने से बच्चे का व्यवहार चिड़चिड़ा हो जाता है और वह गलत मार्ग पर चला जाता है इसीलिए हमें समस्यात्मक बालकों की मूल प्रवृत्ति का दमन नहीं करना चाहिए।

🍁 यदि कोई दोष पता चले तो संभव हो तो मानसिक चिकित्सा कराएं-
अगर हमें बच्चों में ऐसा दोस्त पता चले तो शीघ्र ही हमें उसे मनोचिकित्सक को दिखाकर चिकित्सा करानी चाहिए।

🍁 बच्चे को उचित कार्रवाई हेतु प्रेरित करना- समस्यात्मक बालक को अच्छा कार्य करने के लिए प्रेरित व प्रोत्साहित करें वहां पुरस्कृत करण जिससे उसके मन में सही कार्य करने की जिज्ञासा उत्पन्न होगी और सकारात्मक सोच बढ़ेगी। और उसका मनोबल भी बढ़ेगा।

🍁 उन्हें नैतिक शिक्षा दें- सभी बच्चों को शिक्षा के क्षेत्र में नैतिक शिक्षा देना अनिवार्य है जिससे बच्चे का ना केवल शिक्षा के क्षेत्र में अपितु सभी क्षेत्र में सक्षम हो जाता है और उसने उत्तरदायित्व की भावना का विकास होता है।

🍁बच्चे की संगति पर विशेष ध्यान देना– बच्चों की संगति पर माता पिता शिक्षक सभी को विशेष ध्यान देना अनिवार्य है क्योंकि बाहरी वातावरण हमारे जीवन में बहुत प्रभाव डालता है हमारी संगति अच्छी होगी तो बच्चे अच्छे मार्ग की तरफ जाएंगे अगर हमारी संगति गलत होगी तो बच्चे गलत मार्ग पर चले जाते हैं इसीलिए बच्चे की संगति पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।

🍁 बच्चों को मनोरंजन का उचित अवसर दें- शिक्षण अधिगम के बीच-बीच में हमें बच्चों के मनोरंजन को ध्यान में रखकर उनके लिए उचित अवसर देने चाहिए जिससे वह अपनी रचनात्मकता को दिखा सकें ।

🍁 अध्यापक मा आदर्श पूर्वक व्यवहार करें जो बच्चों के लिए अनुकरणीय हो:- जैसा कि हम जानते हैं कि बालक के ऊपर शिक्षक के आदर्श व्यवहार का भी प्रभाव पड़ता है क्योंकि बच्चा माता पिता के अलावा शिक्षक को भी अपना आदर्श मानता है इसीलिए समस्यात्मक बालकों के लिए एक शिक्षक को आदर्श पूर्ण व्यवहार करना चाहिए जिससे कि वह उसके व्यवहार का अनुकरण कर सके और उसके अनुरूप व्यवहार करें।

🍁 बच्चे को संतुलित जेब खर्च दें:-
समस्यात्मक बच्चों को संतुलित जेब खर्चा देना चाहिए ताकि बच्चा गलत कार्यों में पैसा ना लगाएं जो आगे जाकर अल्वा बकों के लिए मुसीबत बन सकता है उसको इतना ही पैसा दे जितना कि उसकी जरूरत हो। अतिरिक्त पैसा नहीं दे।

🍁 शिक्षण विधि मनोरंजक हो:- समस्यात्मक बालकों के लिए शिक्षक को ऐसी शिक्षण विधि अपनानी चाहिए जिसमें बच्चा रुचि और मनोरंजन से शिक्षा ग्रहण कर सके।
मनोरंजक पुर से शिक्षण के द्वारा ली गई शिक्षा बहुत ही लंबे समय तक याद रहती है।

🍁 संतुलित पाठ्यक्रम हो,अनावश्यक बोझ ना हो :- समस्यात्मक बालकों के लिए सीमित पाठ्यक्रम होना चाहिए उनके बस्ते का बोझ नहीं बढ़ाना चाहिए सी में पाठ्यक्रम होने से बच्चा पढ़ने में रुचि लेगा और वह सही ढंग से अध्ययन करेगा। अनावश्यक पाठ्यक्रम के बोझ में बच्चा अपने को दबा हुआ महसूस करता है।

🍁 सहायक शिक्षण कार्यक्रम:- समस्यात्मक बालकों को सहायक शिक्षण कार्यक्रम जैसे भ्रमण खेलकूद नाटक संगीत आदि के माध्यम से व्यस्त रखकर हम उनके समस्यात्मक कार्यो को करने से रोक सकते हैं।

🍁 आत्मविश्वास जागृत करने के लिए उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य सौंपे:-
समस्यात्मक बालकों को उन्हें आत्मविश्वास जागृत करने के लिए उन्हें उत्तरदायित्व पूर्ण कार्यों को सौंपना चाहिए जिससे कि वह उस कार्य में व्यस्त रहें और अपनी प्रतिभा को उजागर कर सकें जिससे कि वह कोई भी समस्या उत्पन्न करने के बारे में नहीं सोचते है। 🌼🌼🌼🌼🌼

🌹NOTE BY:-
SHASHI CHOUDHARY🌹

🌈समस्यात्मक बालक के शिक्षा का स्वरूप :-

🦚माता- पिता का प्रेमपूर्ण और सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार :-
माता – पिता को चाहिए की वह बालक के साथ प्रेमपूर्ण औउ सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करे क्योंकि बालक माता – पिता के करीब होता है अगर वह बालक से चिल्ला चिल्लाकर बखत करेंगे तो बालक भयभीत हो जायेगा |

🦚मूल प्रवृत्ति का दमन :-
बालक की मूल प्रवृत्ति का दमन करने से बालक हीन भावना का शिकार हो जाता है गलत संगति में पड़ जाता है उनकी भावनाओं को समझने की कोशिश करनी चाहिए उनकी बातें सूननी चाहिए कि वे क्या बोलना चाहते हैं |

🦚अगर कोई दोष पता चले तो संभव हो तो मनोचिकित्सा को दिखाएं :-
अगर कोई दोष पता चले तो उन्हें समझाये और अगर जरूरत हो तो मनोचिकित्सा से भी जांच कराएं |

🦚बच्चे को उचित कार्य हेतु प्रेरित, प्रोत्साहित और पुरस्कार दे:-
ऐसे बालक को अच्छे कार्यो के लिए प्रेरित ,प्रोत्साहित और जरूरत पड़े तो पुरस्कार देना चाहिए और उनकी कार्यो कि प्रशंसा करनी चाहिए जिससे की वह और अच्छा प्रदर्शन करे |

🦚उन्हें नैतिक शिक्षा दे :-
बालक को नैतिक देनी चाहिए कि वह सबसे अच्छा प्रेमपूर्ण व्यवहार करे और उनकी सहायता करे समाज के नियमों का पालन करे शिक्षक कि आज्ञा का पालन करे |
🦚बच्चों कि संगति पर विशेष ध्यान :-
बालक कि संगति पर माता – पिता को पूरा ध्यान देंना चाहिए कि बालक किसकी और कैसे संगति में अच्छी या गलत संगति में है अच्छी संगति में अच्छी आदतें सीखेंगा गलत संगति में गलत सीखेंगा |

🦚मनोरंजन का उचित अवसर देना :-
बालक को खेलने का पूरा अवसर देना चाहिए बालक को रोकना नहीं चाहिए उसे उचित अवसर देना चाहिए जिससे की वह खेल के माध्यम से अपने कला का निखार सके |

🦚अध्यापक आदर्शपूर्ण व्यवहार करे :-
शिक्षक को चाहिए कि वे बालक के साथ आदर्शपूर्ण व्यवहार करे क्योंकि जैसा शिक्षक को बालक देखेंगे वैसे ही सीखेंगे और करेंगे |

🦚बच्चे को संतुलित जेब खर्च :-
माता – पिता को बालक को कम से कम जेब खर्च देना चाहिए जिससे की बालक अनावश्यक चीजों पर पैसे ना खर्च करे और गलत चीजों पर भी न खर्च करे |

🦚शिक्षण विधि मनोरंजक हो :-
शिक्षक को चाहिए कि वह गंभीर होकर न पढ़ाए शिक्षण का वातावरण मनोरंजक होना चाहिए जिससे की बालक रुचि लेकर शिक्षण करे उनके उपर बोझ न हो |

🦚संतुलित पाठ्यक्रम हो, अनावश्यक बोझ न हो :-
पाठ्यक्रम बालक कि योग्यता अनुसार और रुचिकर होना चाहिए जिससे की बालक आसानी से पढ़ और समझ सके |

🦚सहायक शिक्षण कार्यक्रम जैसे भ्रमण , नाटक , खेलकूद , संगीत आदि माध्यम से:-
ऐसे बालकों को नाटक, खेलकूद संगीत , भ्रमण आदि में व्यस्त रखना चाहिए जिससे की इनमें विकास होगा और ये गलत आदतें नहीं सीखेंगे |
इनका व्यवहार भी सकारात्मक रहेगा |

🦚आत्मविश्वास जागृत करने के लिए उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य सौपें :-
ऐसे बालकों को जिम्मेदारी पूर्ण कार्य सौपें जिससे की वे जिम्मेदारी समझे और उस कार्य को अच्छी तरह से करे और आत्मविश्वास के साथ करे|

🌺🌺Thank you 🌺🌺

📝 Meenu Chaudhary 📝
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🌟 समस्यात्मक बालक के शिक्षा का स्वरूप 🌟

समस्यात्मक बालक की शिक्षा का स्वरूप महत्वपूर्ण बातों को ध्यान में रखते हुए प्रस्तुत किया गया है, जो निम्नलिखित है–

💫 १. माता–पिता प्रेम और सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करे– जैसा की बच्चे की पहली शिक्षा उनके माता-पिता के द्वारा या परिवार के द्वारा ही, दी जाती है अतः बच्चे का पहला विद्यालय भी इन्हीं को कहा जाता है ,तो अगर जब बच्चे के माता–पिता या परिवार के द्वारा उन्हें प्रेम और सहानुभूति पूर्ण व्यवहार नहीं किया जाएगा तो बच्चे को घर का जैसा वातावरण प्राप्त होगा बच्चा भी वैसे ही व्यवहार करेगा। इसलिए माता–पिता को अपने बच्चे को बहुत अच्छे से और प्रेम सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करना चाहिए,जिससे बच्चा सबके साथ सकारात्मक रूप से व्यवहार कर सके।

💫 २. उनकी मूल प्रवृत्तियों का दमन न करें – बच्चों में उनकी मूल प्रवृत्तियों का दमन नहीं करना चाहिए अगर बच्चों की मूल प्रवृत्तियों का दमन करेंगे तो बच्चा चिड़चिड़ा और परेशान हो जाएगा जिससे वह समस्या उत्पन्न करने लगेगा।

💫 ३. अगर कोई दोष पता चले तो संभव हो, तो मानसिक चिकित्सा कराएं– अगर बच्चे के व्यवहार में कोई दोष का पता चलता है तो उन्हें मनोचिकित्सक की व्यवस्था कराई जाए जिससे बच्चे के दोषों का सही तरीके से उपचार किया जा सके और बच्चे के व्यवहार में सुधार किया जा सके।

💫 ४. उचित कार्य हेतु प्रेरित करें प्रोत्साहित करें तथा पुरस्कार भी दे– बच्चे को उनके द्वारा किए गए कार्य में उनको प्रेरित एवं प्रोत्साहित करना चाहिए अतः जरूरत पड़ने पर बच्चे को पुरस्कार भी देना चाहिए , जिससे बच्चे के अंदर उत्साह की भावना जागृत हो सके और बच्चे का सकारात्मक बल भी बढ़ता है।

💫 ५. उन्हें नैतिक शिक्षा दे– समस्यात्मक बालक को नैतिक शिक्षा का ज्ञान भी देनी चाहिए जिससे बच्चा समाज में सही तरीके से रहने का व्यवहार तथा उनके तौर तरीको को सीख पाए और सही –गलत का निर्णय भी ले सके । जैसे –चोरी नहीं करनी चाहिए , किसी को गाली नहीं देनी चाहिए , सबसे प्यार और आदर से बात करनी चहिए इत्यादि।

💫 ६. बच्चे की संगति पर विशेष ध्यान दे– समस्यात्मक बच्चो की संगति पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है , क्युकी बच्चा अपने मित्रो के साथ किस प्रकार से व्यवहार या उनके मित्रो का व्यवहार किस प्रकार का है इस सब बातो का विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है ,क्युकी बच्चा माता– पिता के बाद ,बाहर ज्यादा तर अपने मित्रो के साथ ही रहता है जिससे उनकी संगति का असर बच्चे पे पड़ता है । अगर बच्चा गलत संगति के लोगो के साथ रहता है तो दोनों बच्चो को अच्छे से समझाएंगे और उनका सही से मार्गदर्शन करेंगे ।

💫 ७. बच्चो को मनोरंजन का उचित अवसर दे– समस्यात्मक बालक को मनोरंजन का उचित अवसर देना चाहिए ,जिससे बच्चा अपनी अलग–अलग प्रकार की रचनात्मक को दिखा सके तथा उनकी रुचियों को भी महतवपूर्ण स्थान दिया जाना चाहिए ।

💫 ८. आदर्श पूर्वक व्यवहार करें– एक अध्यापक को चाहिए कि वह बच्चों के साथ एक आदर्श पूर्वक व्यवहार करे ताकि, बच्चे भी उनके व्यवहार से प्रभावित हो कर अध्यापक का अनुकरण कर सकें।

💫 ९. बच्चे को संतुलित जेब खर्च दे– माता–पिता की जिम्मेदारी होती है कि वह अपने बच्चों की आवश्यकताओं को पूरा करें लेकिन बच्चों की उन्हीं आवश्यकता को पूरा किया जाना चाहिए जो बच्चे के लिए सही हो तथा बच्चे को अनावश्यक चीजों के लिए जेब खर्च ना दे । माता-पिता का यह कर्तव्य है कि वह बच्चों पर ध्यान दें की जो पैसा हम बच्चों को देते हैं ,बच्चा उसका सही उपयोग करता है या नहीं । क्युकी अगर ऐसा नहीं करेंगे तो बच्चा अपने मन का करने लगता है और बाद में ज्यादा पैसा ना मिलने पर गलत कार्य करने लगता है।

💫 १०. संतुलित पाठ्यक्रम हो – अध्यापक की जिम्मेदारी है कि शिक्षण प्रक्रिया को ध्यान में रखते हुए, बच्चों का पाठ्यक्रम संतुलित होना चाहिए तथा उन पर अनावश्यक पाठ्यक्रम का बोझ नहीं डालना चाहिए । बच्चे के संपूर्ण पाठयक्रम में , लचीलापन और संतुलित वातावरण प्राप्त हो सके और बच्चे आंनद के साथ – साथ अध्यन कर सकें ।

💫 ११. सहायक शिक्षण विधि– अध्यापक को प्रभावी शिक्षण विधियों के माध्यम से पढ़ाना चाहिए जिससे बच्चे के अंदर रुचि , उनकी कल्पनाशक्ति तथा किसी चीज को जानने के प्रति इच्छा जागृत या उत्पन्न हो सके , जैसे –बच्चे को संगीत, नाटक , कविता–कहानी , खेल –कूद , चार्ट तथा वास्तविक जीवन से चीजों को जोड़ कर भ्रमण इत्यादि करवाए ।

💫 १२. आत्मविश्वास जागृत करने के लिए उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य – समस्यात्मक बालकों में आत्मविश्वास जागृत करने के लिए उनको उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य दिए जाने चाहिए ,जिससे समस्यात्मक बालक अपनी जिम्मेदारियों को समझेगा और उत्तरदायित्व को पूरी ईमानदारी से पूर्ण करने की कोशिश करेगा।तथा अपने कार्य में व्यस्त होने के कारण कोई समस्या भी उत्पन्न नहीं करेगा।

Notes by–Pooja

समस्यात्मक बालक के शिक्षा का स्वरूप :➖

☘️ समस्यात्मक बालक अर्थात् समस्या उत्पन्न करना।
यह बालक हमेशा किसी न किसी रूप में समस्या उत्पन्न करते रहता है लेकिन ऐसे बालकों को सुधारा भी जा सकता है लेकिन इसके लिए हमें पहले बालकों की विभिन्न पहलूओ को जानने की कोशिश करना होगा। समस्यात्मक बालक की समस्या का सबसे बड़ा कारण शिक्षा है इसके कारण ही उसे उचित परिवेश, दिशा- निर्देशन ,सहयोग ,नहीं मिल पाते हैं जिसके कारण वह रास्ता भटक जाते हैं। इसलिए हमें समस्यात्मक बालक के शिक्षा का विभिन्न स्वरूपों का अध्ययन करना होगा। जो निम्न प्रकार से है :➖

1] माता पिता प्रेम और सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करें:-

समस्यात्मक बालकों को शिक्षा देने से पहले हमें उनके परिवार में उनके माता-पिता का बच्चों के प्रति कैसा व्यवहार रहता है यह जानने का प्रयास करेंगे क्योंकि समस्यात्मक बालक मानसिक रूप से कमजोर होता है इसलिए हमें उनकी मानसिकता को दूर करना होगा उनमें आत्मविश्वास शक्ति क्षमता को सकारात्मक दृष्टिकोण में लाने की जरूरत है।
अगर घर में नकारात्मकता रहेगी तो वह बाहर भी झगड़ालू या नकारात्मक प्रवृत्ति के हो जाएंगे। इसलिए हमें सबसे पहले उनके घरेलू माहौल को जानना और परखना होगा इसलिए यह जरूरी है कि उनके माता-पिता उनके साथ प्रेम और सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करें।

2] उनकी मूल प्रवृत्ति का दमन ना हो:-

हम जानते हैं कि सभी बच्चे में एक मूलभूत प्रवृत्ति होती है जो बचपन से ही सभी बच्चों के अंदर पाई जाती हैं अगर हम उनकी मूल प्रवृत्ति में खलल डाले तो बच्चों के अंदर क्रोध और चिड़चिड़ापन जैसी भावना उत्पन्न होने लगती है। यह केवल सामान्य बालक मे ही नहीं बल्कि समस्यात्मक बालक में भी पाई जाती हैं अगर हम बच्चों के भावनाओं का दमन करेंगे ड तो वह मानसिक रूप से चिड़चिड़े हो जाएंगे और समस्यात्मक बालकों की समस्या और उत्पन्न हो जाएगी।

3] अगर कोई दोष पता चले तो संभव हो तो मानसिक चिकित्सा कराएं:-

समस्यात्मक बालकों की भावना का दमन होने के कारण यह मानसिक रूप से बहुत असक्रिय व्यवहार करने लगते हैं ऐसे बालकों को मानसिक चिकित्सा के पास ले जाने चाहिए ताकि उस बालक की भावनाओं को समझें और उनका सही इलाज करें।

4] उचित कार्य हेतु प्रेरित,प्रोत्साहित और पुरस्कार दें:-

अगर हम उस बालक को सामान्य बालकों की तरह प्रेरणा, प्रोत्साहित तथा जरूरत पड़ने पर पुरस्कार देंगे तो इससे उस बालक का मनोबल और बढ़ जाता है तथा वह ज्यादा से ज्यादा मात्रा में किसी भी काम के प्रति अपना भरपूर योगदान देते हैं और पूरी रुचि के साथ करते हैं।

5] उन्हें नैतिक शिक्षा दें:-

समस्यात्मक बालक का नैतिक शिक्षा मजबूत होना अत्यंत आवश्यक है अर्थात् (हम कह सकते हैं कि अगर जड़ मजबूत होगा तभी फल और फूल अच्छे से होंगे)।
हमें बच्चों को नैतिक या बुनियादी शिक्षा जैसे:- बचपन से ही हमें बच्चों को क्या करना है? कैसे करना है ?क्या नहीं करना है?क्या सही है ?और क्या गलत? अर्थात् जो हमारी नैतिकता हमें सिखाती हैं वैसा शिक्षा बच्चों को देना चाहिए जिससे बच्चों के अंदर बचपन से ही सही और गलत के बीच अंतर को समझने की क्षमता हो सके।

6] बच्चों की संगति पर विशेष ध्यान:-बाहरी वातावरण समस्यात्मक बालक हो या सामान्य दोनों पर काफी प्रभाव डालती है इसलिए माता-पिता और शिक्षक की यह जिम्मेदारी होती है की बच्चों की संगति पर भी ध्यान दें कई बार संगति के कारण बच्चे बिगड़ भी जाते हैं और कई बार सही मार्गदर्शन भी मिल जाता है इसलिए हमें बच्चों की संगति पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।

7] बच्चों को मनोरंजन का भी उचित अवसर:-

बच्चों को शिक्षित करना एक शिक्षक का कर्तव्य होता है लेकिन कई बार बच्चों के अंदर बहुत सारी प्रतिभा होती है इसलिए एक शिक्षक का यह दायित्व होता है कि बच्चों को मनोरंजन करने का भी एक उचित अवसर का मौका दें ताकि वह अपनी अलग-अलग प्रकार की रचनात्मक क्रियाओं को दिखा सकें।

8] अध्यापक आदर्श पूर्वक व्यवहार करें:-

अध्यापक को बालकों के प्रति आदर्श पूर्वक व्यवहार करना चाहिए जो कि बालकों के लिए अनुकरणीय हैं।

9] बच्चों को संतुलित जेब खर्च दें:-

बच्चों की जरूरत को माता-पिता ही पूरा करते हैं लेकिन बच्चों को जो जरूरी है बस वही चीज दे अगर बच्चों को जेब खर्च दे रहे हैं तो जितनी आवश्यकता है उतनी ही ।ज्यादा मिलने पर बच्चे उसका गलत उपयोग करते हैं जो कि एक बच्चों के लिए बिल्कुल सही नहीं है।

10] शिक्षण विधि मनोरंजक हो:-

एक शिक्षक होने के नाते हम बच्चों को शिक्षित करने के लिए अनेक – अनेक प्रकार के कौशलों का सहारा लेते हैं इसलिए हमें यह देखना चाहिए कि बच्चों को किस चीज में ज्यादा रुचि है उन्हीं के अनुसार कक्षा वर्ग में अलग-अलग तरीकों से बच्चों को शिक्षित करने के लिए शिक्षण विधि का प्रयोग करेंगे।

11] संतुलित कार्यक्रम हो अनावश्यक बोझ ना हो:-

ऐसे बच्चों की शिक्षण प्रक्रिया को ध्यान में रखते हुए शिक्षक को बच्चों के ऊपर पढ़ाई के प्रति ज्यादा भार देना नहीं चाहिए पढ़ाने का कर्म तथा पाठयक्रम संतुलित और लचीला पूर्ण रखना चाहिए ताकि बच्चे आसानी से समझ सके और सीख सकें।

12 ] सहायक शिक्षण कार्यक्रम:-

सहायक शिक्षण कार्यक्रम जैसे ➖ भ्रमण, खेलकूद नाटक ,संगीत इत्यादि द्वारा समस्यात्मक बालक के व्यवहार को रोका जा सकता है ऐसे बालक को समय-समय पर विभिन्न प्रकार की गतिविधियों में व्यस्त रखना चाहिए ताकि उसके अंदर दूसरे को परेशान करने की भावना उत्पन्न नहीं होगी।

13] आत्मविश्वास जागृत करने के लिए उत्तर दायित्व कार्य सौंपे:-

अगर कोई बच्चा ज्यादा समस्या उत्पन्न कर रहा है जैसे समाज परिवार या आस पड़ोस में तो हमें उस बच्चे को किसी ऐसे काम में व्यस्त रखना चाहिए जिसमें उसका रुचि हो वह बच्चे ऐसे काम को पूरी ईमानदारी और कर्म निष्ठा से करते हैं वह उस काम को अपना उत्तरदायित्व समझते हैं। ☘️🍃🌼🌼🍃☘️

Notes by➖Mahima kumari

🌺🌺🌺समस्यात्मक बालक🌺🌺🌺

🍁⭐🍁समस्यात्मक बालकों के शिक्षा का स्वरूप 🍁⭐🍁

🎯माता -पिता प्रेम व सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करे:–
बच्चे का परिवार ही सबसे पहला विद्यालय होता है इसीलिए बच्चे के साथ माता पिता को प्रेम पूर्वक और सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करना चाहिए उनके साथ तेज आवाज में बात करना डांटना आदि करने से उनमें नकारात्मकता आती है

🎯उनकी मूल- प्रवृत्तियों का दमन ना करे:-
अगर हम बच्चे की मूल प्रवृत्तियों का दमन करेंगे तो बाय अपने कार नहीं कर पाएंगे और उन में नकारात्मक भावना उत्पन्न होगी तथा बालक की मूल प्रतियां उनके जीवन के लिए महत्वपूर्ण होती है इसीलिए बालक की मूल पर बस्तियों का दमन नहीं करना चाहिए

🎯यदि कोई दोष पता चले तो संभव हो तो मानसिक चिकित्सा करवाएं:-
अगर किसी बालक को दोष समस्या मानसिक स्तर पर है तो उसका उपचार करने हेतु मानसिक चिकित्सक को दिखाना चाहिए जिससे बाला की समस्या को दूर किया जा सके बालक को किस प्रकार की समस्या है यह समस्या पता करने के बाद वह उचित रूप से उसका उपचार कर सकता है इसलिए इनके लिए मनोचिकित्सक भली प्रकार से जान सकते हैं

🎯बच्चों को उचित कार्य हेतु प्ररित/प्रोत्साहित और पुरस्कृत करे:–
समस्यात्मक बालक को किस प्रकार से प्रेरित किया जाए हमें उसी प्रकार की व्यवस्था करनी चाहिए अगर बच्चे को प्रोत्साहित और पुरस्कार के माध्यम से बच्चा उत्साह उत्सुक होता है तो वह कार्य को करने के लिए उत्सुक रहता है समस्यात्मक बालक को भी ठीक इसी प्रकार से प्रोत्साहन और पुरस्कार मिले तो वह अपनी इस प्रवृत्ति का दमन कर पाएंगे

🎯बच्चों को नैतिक शिक्षा दे:– समस्यात्मक बालक को समाज में जीवन व्यतीत करने के लिए उन्हें नैतिक शिक्षा की आवश्यकता होती है क्योंकि अगर पालक समाज में रहना चाहता है तो उसे समाज में कैसा व्यवहार करना है समाज सामंजस्य बनाने के लिए नैतिक शिक्षा की आवश्यकता होती है बालक की जीवन में नैतिक शिक्षा का अत्यधिक महत्व होता है

🎯बच्चों की संगति पर विशेष ध्यान दें:–
समस्यात्मक बालक के साथ अनेक व्यक्ति होते हैं जिनकी संगति का असर होता है इसीलिए बच्चे अच्छी संगति में रहना चाहिए जिससे उनका व्यवहार भी अच्छा हो और वह बुरी संगति की तरफ आकर्षित ना हो तो उनका व्यवहार भी अच्छा होगा अतः माता-पिता को बालक की संगति पर विशेष ध्यान देना चाहिए कि बालक किन बालकों या दोस्तों के साथ रहता है वह कैसे हैं इन सभी बातों का ध्यान रखना चाहिए

🎯बच्चों को मनोरंजन का भी उचित अवसर दे:-
समस्यात्मक बच्चों को शिक्षण प्रक्रिया कराते समय उन्हें समय-समय पर मनोरंजन का भी उचित अवसर दिया जाना चाहिए मनोरंजन द्वारा बच्चे अपने कार्य को करने में रुचि लेते हैं बाला को शिक्षा के साथ-साथ मनोरंजन का भी अवसर दिया जाना चाहिए

🎯अध्यापक को आदर्शपूर्ण व्यवहार करना:– एक शिक्षक को बच्चे के सामने आदर्श पूर्ण व्यवहार प्रस्तुत करना चाहिए जिससे कि वह बच्चा अनुकरण कर सके शिक्षक द्वारा किए गए प्रत्येक कार्य को आए अपने जीवन में करने का प्रयास करेगा इसीलिए शिक्षक को बच्चे के सामने हमेशा आदर्श पूर्व व्यवहार करना चाहिए

🎯बच्चों को संतुलित जेब खर्च दे:–
बच्चे को उनके अनुसार ही जेब खर्च दिया जाना चाहिए अगर छोटा बालक है तो उसे कम पैसे दिए जाएं और अगर बड़ा बालक है तो उसे उसके हिसाब से पैसे दिए जाने चाहिए लेकिन बालक को उसके हिसाब से अधिक पैसे नहीं दिए जाने चाहिए जिससे कि वह अनावश्यक कार्य कर सकें अपने पैसे का गलत उपयोग कर सके माता-पिता को इन बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि बालक को उसकी उम्र और जरूरतों के हिसाब से ही जेब खर्च पैसे दिए जाने चाहिए

🎯शिक्षण विधि मनोरंजक हो:–
बच्चों को ध्यान में रखकर उन्हें शिक्षण विधि को मनोरंजन के साथ करानी चाहिए जिससे कि बालक की शिक्षण ग्रहण करते समय रुचि उत्पन्न हो और उन्हें वह विषय अच्छा लगे किसी भी विषय को पढ़ते समय बच्चे में अरुचि नहीं आनी चाहिए इसीलिए शिक्षण विधि के उपयोग करते समय मनोरंजन लेकर आना चाहिए बालक को खेल-खेल में ही सिखाना उन्हें ऐसा ना लगे कि यह विधि बहुत कठिन है

🎯पाठ्यक्रम संतुलित हो अनावश्यक बोझ ना हो:–
पाठ्यक्रम लचीला होना चाहिए पाठ्यक्रम में अनावश्यक चीजों को नहीं जोड़ना चाहिए जिससे बालक को शिक्षण करते समय कठिनाई हो ऐसी इकाई का समावेश किया जाना चाहिए कि बच्चे की अपने दैनिक जीवन से संबंधित क्योंकि हमें शिक्षण कराते समय बालकों की रुचि लाना अति आवश्यक है अगर बालक की पाठ्यक्रम में रुचि नहीं होगी तो वह सही तरीके से नहीं सीख पाएगा और उसमें समस्या होगी समस्यात्मक बालक को कक्षा में उपस्थित रखने के लिए पाठ्यक्रम संतुलित होना अति आवश्यक है

🎯सहायक शिक्षण कार्य जैसे-भ्रमण, खेल कूद, नाटक, संगीत आदि के माध्यम से शिक्षा:–
समस्यात्मक बालक को शिक्षण विधि कराते समय उनको समाज समाचार खेल नाटक संगीत कराना चाहिए इससे बच्चों में शिक्षण विधि में रुचि उत्पन्न होगी

🎯 आत्मविश्वास जागृत करने हेतु उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य सौंपा जाए:-
समस्यात्मक बालकों को जिम्मेदारी पुकार सौंपी जिससे कि वे जिम्मेदारी समझे और उस कार को अच्छी तरीका से करें तथा उनमें आत्मविश्वास भी बढ़ेगा

✍🏻✍🏻notes by– Menka patel ✍🏻✍🏻

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◾ समस्यात्मक बालक के शिक्षा का स्वरूप◾
🔹 समस्यात्मक बालक में कुछ ऐसी प्रक्रिया होती है, जो स्वाभाविक होती हैं इनको लगातार प्रयास के द्वारा बच्चे में सुधार किया जा सकता है।

✳️माता पिता प्रेम और
सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करें।

माता-पिता द्वारा बच्चों की भावनाओं को समझना चाहिए। और उन्हें उनकी परेशानियों को समझने की कोशिश करें अपने बच्चों के प्रति हमेशा सहानुभूति का भाव रखना चाहिए, जिससे कि बच्चों में हीनता की भावना ना हो।

✳️ उनकी मूल प्रवृत्तियों का दामन ना करें।

बच्चे की कुछ मूल प्रवृत्तियां होती हैं, जैसे उनकी कुछ इच्छाएं होती है छोटी-छोटी जिससे दबाना नहीं चाहिए अगर ऐसा होता है तो बच्चे की मानसिकता पर भी प्रभाव पड़ता है और उनकी व्यवहार में भी परिवर्तन आ जाते हैं।

✳️ अगर कोई दोस्त पता चले तो संभव हो तो मानसिक चिकित्सा कराएं।

बच्चों में अगर मानसिक नेवले में ज्यादा गड़बड़ी है तो उसे चिकित्सा का सहायता लेना चाहिए ताकि बच्चों की परेशानियों का समाधान हो सके और वह साधारण बच्चों की तरह अपना कार्य करने में सक्षम हो सके।

✳️ बच्चों की उचित कार्य हेतु प्रेरित और प्रोत्साहन एवं पुरस्कार दे।

अगर बच्चे को किसी कार्य में रुचि है तो उसे वह बेहतर तरीके से करता है ,तो उसे करने देना चाहिए ताकि उसका मनोबल और बढ़ सके और बच्चों की हौसला और आगे कुछ करने के लिए प्रोत्साहित हो इसके लिए बच्चों को पुरस्कार या प्रोत्साहित किया जा सकता है।

✳️ उन्हें नैतिक शिक्षा दे।

बच्चों को हम नैतिक शिक्षा देकर बड़ों का आदर सम्मान जैसे सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने जैसी प्रक्रिया को जागृत कर सकते हैं ताकि वह सभी भावनाओं को समझ पाए

✳ बच्चों की संगति पर विशेष ध्यान।

बच्चों की संगति पर इसलिए विशेष ध्यान देना चाहिए ,क्योंकि संगति का प्रभाव सबसे ज्यादा बच्चों के जीवन में पड़ता है जिससे उसकी पूरी दिनचर्या चलती है उसी के अनुसार वह कार्य करता है अगर उन्हें सही समय पर संगति को ना आकर जाए तो बुरा प्रभाव भी पड़ सकता है।

✳️बच्चों को मनोरंजन का उचित अवसर।

बच्चों में सही विकास की दिशा देने के लिए मनोरंजन भी बहुत सहायक होता है जो कि मानसिक स्तर को संतुलित बनाए रखता है जिसके कारण कोई भी कार्य भाव नहीं लगता है।

✳️ बच्चों को संतुलित जेब खर्च देना।

बच्चों को जरूरत से ज्यादा खर्च नहीं देना चाहिए इसके कारण उनकी अनावश्यक कार्य बढ़ जाएंगे जिससे काफी बुरा प्रभाव पड़ सकता है और उनकी मानसिकता में भी बदलाव आ सकता है।

✳️ संतुलित पाठ्यक्रम हो अनावश्यक बोझ ना दें।

बच्चे की मानसिक स्तर के अनुसार ही उन्हें पाठ्यक्रम का चयन करना चाहिए अगर ऐसा नहीं होता है तो बच्चे कार्य को ज्यादा करने में सक्षम नहीं होंगे और मुन्नी की बोझ बढ़ जाएगी, ऐसा करना ठीक नहीं होगा।

🟡Notes by—-Abha kumari🟡

समस्यात्मक बालक की शिक्षा का स्वरूप

प्राय देखा जाता है कि विद्यालय में बहुत से बच्चे समस्यात्मक होते हैं ऐसे बालक दूसरों लिए समस्या पैदा करते हैं इन बालकों की शिक्षा के लिए विशेष प्रकार से शिक्षा देना आवश्यक है ताकि यह बच्चे अपनी समस्याओं से बाहर आकर एक अच्छा जीवन व्यतीत कर सकें

1 माता पिता प्रेम और सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करें:- समस्यात्मक बालक के माता पिता अपने बच्चों से प्रेम एवं सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करना चाहिए बच्चे को कब किस चीज की जरूरत है उन्हें वह समझना चाहिए और अपने बच्चे पर पूर्ण रूप से ध्यान देना चाहिए बच्चे सबसे ज्यादा अपने माता-पिता से ही आशा रखते हैं और सबसे ज्यादा वह अपने माता पिता के पास ही रहते हैं यदि माता-पिता उन्हें अच्छी तरह से समझेंगे तो हो सकता है वह अपनी समस्याओं से बाहर निकल सके

2 समस्यात्मक बालक की मूल प्रवृत्तियों का दमन ना करें:- प्रत्येक व्यक्ति कि अपनी मूल प्रवृतियां होती हैं बच्चों की मूल प्रवृत्तियां (आवश्यकताएं) का पूरा होना आवश्यक है यदि उनकी मूल प्रवृत्तियां पूरी नहीं होती है तो बच्चे समस्यात्मक व्यवहार अपनाने लगते हैं

3 समस्यात्मक बालकों में कोई दोष पता चले तो संभव हो तो मानसिक चिकित्सा करना चाहिए:- बच्चे के माता-पिता को चाहिए कि यदि उनके बच्चे में किसी प्रकार का दोष या कमी पाई जाती है तो वह उसका मानसिक चिकित्सा से उसका इलाज कराएं हो सकता है बच्चा थोड़ा सा ही चिकित्सा प्राप्त करके समस्यात्मक बालकों की श्रेणी से बाहर निकल आए

4 बच्चे को उचित कार्य हेतु प्रेरित प्रोत्साहित और पुरस्कार दें:- यदि बच्चा किसी कार्य को अच्छे तरीके से करता है तो बच्चे को कार्यों के लिए प्रेरित करना चाहिए एवं उसे प्रोत्साहित पुरस्कार देना चाहिए इससे बच्चे में कार्य के प्रति रुचि एवं प्रेरणा बनी रहती है जिससे वह आगे के कार्य भी बहुत आसानी से करता है

5 बच्चे को नैतिक शिक्षा देनी चाहिए:- हमें बच्चों को नैतिक शिक्षा देनी चाहिए उन्हें शुरू से ही यह ज्ञान कराना चाहिए कि क्या सही है और क्या गलत सही गलत की पहचान कराना बहुत आवश्यक है इससे बच्चे अपने जीवन में अच्छे निर्णय ले सकते हैं एवं बुराइयों को पीछे छोड़ सकते हैं
हमें अपनी नैतिकता कभी नहीं छोड़नी चाहिए बंद कमरे में भी हमें अपनी नैतिकता दिखानी चाहिए

6 बच्चे की संगति पर विशेष ध्यान दें:- हमें बच्चों की संगति पर ध्यान देने की आवश्यकता है कहते हैं कि संगति का असर बहुत गहरा होता है संगति से बच्चे सही रास्ते को अपना लेते हैं और गलत रास्ते को भी चुन सकते हैं यदि बच्चों की संगति अच्छी हो गई तो वह अच्छाई का मार्ग अपनाएंगे और अपने भ भविष्य एवं वर्तमान को अच्छा बना लेंगे बुरी संगति में बच्चे अपने पूरे कैरियर को बर्बाद कर सकते हैं

7 बच्चों को मनोरंजन का उचित अवसर देना चाहिए:- कहते हैं स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क वास करता है यदि बच्चों का स्वास्थ्य ठीक होगा तो उनका मन भी अच्छा होगा और मनोरंजन एवं खेल कौन से शरीर स्वस्थ बनता है यदि हम बच्चे को एक ही प्रकार के कार्य अधिक देर तक कर आते रहेंगे तो वह बोर हो जाएगा उसका मन नहीं लगेगा और वह उस कार्य को अच्छे से नहीं करेगा उस कार्य में अपनी रचनात्मकता नहीं दिखाएगा परंतु यदि हम बच्चे को अलग अलग कार्य एवं समय-समय पर उसे मनोरंजन का मौका दें तो वह अपनी रचनात्मकता को अच्छे से स्पष्ट कर सकता है

8 अध्यापक आदर्शपूर्वक व्यवहार करें जो बच्चे के लिए अनुकरणीय हो:- बच्चे टीचर को अपना आदर्श के रूप में चुनते हैं वह अपने टीचर को माता-पिता से भी बढ़कर समझते हैं अतः टीचर को ऐसे व्यवहार तथा चरित्र को उनके सामने प्रस्तुत करना चाहिए जिससे उनको एक सकारात्मक सोच मिले और वह उसका अनुसरण कर सके

9 शिक्षण विधि मनोरंजक हो:- बच्चों को खेल खेल में शिक्षा दी जानी चाहिए खेल खेल में वह बहुत आसानी से सीख जाते हैं और बोर भी नहीं होते खेल खेल में बच्चे अपने रचनात्मक एवं सृजनात्मक कार्य को भी दिखाते हैं

10 बच्चे को संतुलित जेब खर्च देना:- हमें बच्चे को उसकी आवश्यकता के अनुसार ही उसको जेब खर्च देना चाहिए उससे ज्यादा देने पर वह उसका गलत है फायदा उठाते हैं और यह आगे चलकर बच्चे तथा परिवार के लिए समस्या बन जाती है

11 संतुलित कार्यक्रम हो अनावश्यक बोझ ना करें:- बच्चों के लिए किसी भी प्रकार का कार्य उनकी क्षमता के अनुसार होना चाहिए बच्चों पर किसी भी प्रकार का बोझ नहीं डालना चाहिए

12 सहायक शिक्षण कार्यक्रम भ्रमण खेलकूद नाटक संगीत के द्वारा समस्यात्मक व्यवहार को रोका जा सकता है

13 आत्मविश्वास जागृत करना:- हम बच्चों में आत्मविश्वास जागृत करना चाहिए उनको कार्य करने के लिए प्रेरणा देनी चाहिए स्वमं से किसी कार्य को करते हैं और यदि वह उस कार्य में सफल हो जाते हैं तो उनका आत्मविश्वास जागृत हो जाता है अतः हमें बच्चों से शैक्षिक कार्य कराना चाहिए तथा उसको गाइड करते रहना चाहिए

🙏🙏🙏 सपना साहू 🙏🙏🙏

-: समस्यात्मक बालक की शिक्षा का स्वरूप :-
🔆माता पिता प्रेम और सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करें| समस्यात्मक बालक ऐसे बालक जो मानसिक रूप से कमजोर होता है और उसको मानसिक सबलता की जरूरत होती है है जो बालक समस्यात्मक बालक हो उसके माता-पिता से मिले और बच्चों के साथ प्रेम पूर्वक या सहानुभूति का व्यवहार यह सुनिश्चित होता है बच्चों का कोई भी कारण अपने माता पिता को ही बताता है और माता-पिता भी अपने बच्चों को जानते हैं बच्चे पर माता-पिता या परिवार का प्रभाव बहुत अधिक पड़ता है जिससे कि सकारात्मक सोच रखते हैं जिससे बच्चों का बाहर भी व्यवहार अच्छा होगा जिस घर में नकारात्मक होगी तो बच्चों पर भी प्रभाव गलत पडे़गा|
🔆 उनकी मूल प्रवृति का दामन ना करें अगर बच्चो की मूल प्रवृत्ति का दमन करते है तो बच्चे झगड़ालू चिड़चिडे़ मानसिक रूप से अच्छे नहीं लगते हैं मूल प्रवृत्तियां जैसे सोना भूख लगना अगर उनको दमन करते है तो ऐसा बालक समस्यात्मक बालक है उसे समस्या का समाधान करना पड़ता है|
🔆 अगर कोई दोष पता चले तो संभव हो तो मानसिक चिकित्सा कराएं| समस्यात्मक बालकों का मानसिक स्वास्थ्य ठीक नहीं है तो मानसिक चिकित्सा कराना चाहिए जिससे बालकों के शिक्षा के स्तर को सुधारा जा सके
🔆 बच्चों को उचित कार्य हेतु प्रेरित प्रोत्साहित और पुरस्कार देना अगर बच्चा कक्षा में उचित कार्य करता है तो उसकी प्रशंसा या उसे प्रेरित करना चाहिए जिससे बच्चे को प्रोत्साहन मिलता है और अगर जरूरत पड़े तो पुरस्कार भी देना चाहिए जिससे बच्चों की सकारात्मक मनोबल बढ़ता है|
🔆 उन्हें नैतिक शिक्षा दें| बच्चों का बेसिक व्यवहार है कि उसकी शिक्षा बच्चों को देनी चाहिए कब क्या कैसे करना है यह बच्चों को बताना चाहिए जैसे झूठ नहीं बोलना गंदी नहीं करना अपराध नही करना|वह बालक जो दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार करता है नैतिकता बच्चों में देनी चाहिए बच्चों को क्या करना है यह पता होना चाहिए उनमें नैतिकता का भाव होना चाहिए|
🔆 बच्चों की संगति पर विशेष ध्यान बच्चों को उनकी बाहरी वातावरण का प्रभाव बहुत अधिक पड़ता है बच्चों में संगति का असर जल्दी पढ़ता है कोई अच्छा है तो अच्छा प्रभाव पड़ेगा अगर कोई बच्चा गलत है तो दूसरे बच्चों पर धीरे-धीरे गलत प्रभाव पड़ता है इसलिए विशेष ध्यान देना आवश्यक है अगर उनकी संगति समस्यात्मक है या खराब है
🔆 बच्चों का मनोरंजन का उचित अवसर दें| बच्चों को मनोरंजन का मौका देना चाहिए कि बच्चा अलग-अलग तरह से क्रिएटिव दिखाना चाहिए|
🔆 अध्यापक का दृश्य पूर्वक व्यवहार करे अध्यापक का एक छात्र के प्रति ऐसा व्यवहार होना चाहिए जो आदर्श पूर्वक हो और बच्चों के लिए अनुकरणीय हो|
🔆 बच्चों को संतुलित जेब खर्च दें अगर बच्चों को जरूरत से ज्यादा जेबखर्च दे तो वह गलत काम में मैं प्रयोग करेगा इसलिए बच्चों को उनकी जरूरत के हिसाब से ही जेब खर्च देना चाहिए|
🔆 शिक्षण विधि मनोरंजक हो बच्चों को शिक्षण कार्य कराते समय बच्चों को कार्य के प्रति रुचि जागृत करनी चाहिए जिससे वह और आनंद का अनुभव करता है और शिक्षण विधि मनोरंजक होनी चाहिए अगर शिक्षण विधि मनोरंजक नहीं हुई तो बच्चा स्कूल से भाग जाएगा या बंक मार देगा|
🔆 संतुलित (पाठ्यक्रम) कार्यक्रम हो अनावश्यक बोझ ना हो शिक्षक कक्षा मे लगातार पढ़ाता है और लिखवाता है तो बच्चे पढ़ाई को बोझ समझने लगता है इसलिए शिक्षक को बढ़ाने का पाठ्यक्रम संतुलित या लचीला रखना चाहिए जिससे कि बच्चों पर अनावश्यक बोझ ना पड़े|
🔆 सहायक शिक्षण कार्यक्रम भ्रमण खेलकूद नाटक संगीत के द्वारा समस्यात्मक व्यवहार को रोका जा सकता है जिससे बालक के प्रकार के समय -समय पर गतिविधियों में शामिल होकर शिक्षण कार्य कराना चाहिये

🔆 आत्मविश्वास जागृत करने के लिए उत्तरदायित्व में पूर्ण कार्य सौंपे समस्यात्मक बालक ने आत्मविश्वास जाग्रत करने के लिए उनके उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य दिया जाना चाहिए जिससे मैं अपने कार्य को पूर्ण जिम्मेदारी से करे समस्यात्मक बालक किसी कार्य को करने के लिए जागृति उत्पन्न नहीं करता है वह दूसरे बच्चों को परेशान करता है
उपरोक्त तथ्थो के अनुसार समस्यात्मक बालकों उनकी क्षमता के अनुसार शिक्षण कार्य कराया जाए जिससे कि उनकी समस्याओं को समाप्त कर सकें|
Notes by – Ranjana Sen

समस्यात्मक बालक के शिक्षा का स्वरूप-

समस्यात्मक बालक की शिक्षा का स्वरूप देखने से पहले हमें उसकी कमियों के बारे में, कारणों के बारे में, समस्याओं के बारे में जानना पड़ता है फिर उसके बाद हम उसको उचित रूप से शिक्षा दे पाएंगे।

समस्यात्मक बालक के शिक्षा का स्वरूप-

1.ज्यादातर समय बालक अपने माता पिता के साथ बिताता है इसलिए माता-पिता को अपने बच्चे के साथ प्रेम और सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करना चाहिए जिससे कि वह समस्यात्मक बालक ना बने

2.यदि बालक की मूल प्रवृत्ति का दमन होता है तो वह असामाजिक व्यवहार की ओर बढ़ने लगता है इसलिए बालक को उसकी मूल प्रवृत्ति के अनुसार व्यवहार करने के लिए स्वतंत्र रखना चाहिए ।

3.अगर यदि बालक में कोई दोष का पता चले तो संभव हो तो उसे उसकी मानसिक चिकित्सा करवाएं।

4.बच्चों को उचित कार्य करने के लिए प्रोत्साहित ,प्रेरित करें और संभव हो तो पुरस्कार भी दे।

5.समस्यात्मक बालक में नैतिक शिक्षा का अभाव होता है इसलिए इनकी नैतिक शिक्षा पर ज्यादा से ज्यादा ध्यान दें

6.हम जैसी संगति करते हैं हमारा व्यवहार भी वैसा ही हो जाता है इसलिए ऐसे बालक की संगति पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

7.बच्चों को मनोरंजन का उचित अवसर देना, ऐसे बच्चे मानसिक द्वंद्व और हीन भावना से ग्रसित होने के कारण अपने आप तक सीमित रहते हैं इसलिए इन्हें ज्यादा से ज्यादा मनोरंजक पूर्ण तरीके से पढ़ाया जाए ताकि यह विषयवस्तु में रुचि ले सके।

8.ऐसे बालक के अध्यापक का व्यवहार आदर्श होना चाहिए जिससे कि बालक उसके व्यवहार का अनुकरण कर सके।

9.ऐसे बच्चों को संतुलित जेब खर्च देना चाहिए क्योंकि यदि ज्यादा जेब खर्च होगा तो उन्हें लगेगा कि अभी तो बहुत है और वह क्षमता से ज्यादा खर्च करेंगे।

10.ऐसे बालकों को पढ़ाने के लिए शिक्षण विधि मनोरंजक होनी चाहिए।

11.ऐसे बालकों के लिए पाठ्यक्रम संतुलित होना चाहिए और अनावश्यक बोझ नहीं होना चाहिए
इनका पाठ्यक्रम भी इनकी क्षमता के अनुसार होना चाहिए शिक्षक को भी बालकों की क्षमता को देखते हुए ही पढ़ाना चाहिए। 1 दिन में जितना बालकों को समझ में आए उतना ही पढ़ाना चाहिए उससे ज्यादा नहीं।

12.ऐसे बालकों के लिए सहायक शिक्षण कार्यक्रम जैसे भ्रमण, खेलकूद, नाटक, संगीत प्रतियोगिताओ का आयोजन किया जाना चाहिए जिससे कि इनके समस्यात्मक व्यवहार को रोका जा सके क्योंकि कार्यक्रम में भाग लेने पर यह अपने समस्यात्मक व्यवहार को नहीं कर पाएंगे क्योंकि उसकी तैयारी में जुटे रहेंगे या व्यवस्त रहेगे।

13.ऐसे बालकों में आत्मविश्वास जागृत करने के लिए इन्हें उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य सौंपना चाहिए।

Notes by Ravi kushwah

🌈 समस्यात्मक बालक के शिक्षा का स्वरूप🌿➖
ऐसे बालक जो हर हमेशा समस्या खड़ा करता हो उन बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रेरित करना अति आवश्यक है नहीं तो बच्चा समाज के लिए, विद्यालय के लिए और खुद के व्यक्तित्व के लिए बोझ बन जाएगा। इन्हीं सब कारणों को सुधारने के लिए समस्यात्मक बालक के शिक्षा का स्वरूप निम्नलिखित रुप से करना अति आवश्यक है।
🌿 माता -पिता प्रेम और सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करें➖ समस्यात्मक बालक के प्रति माता-पिता को चाहिए कि अपने बच्चों के साथ प्रेम और सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करें। क्योंकि बच्चे का अधिकतर समय माता- पिता के साथ बीतता होता है बच्चों की probability मां- बाप के पास जाता हैं। सहानुभूति पूर्वक व्यवहार करने से बालक के अंदर आत्मविश्वास जगता है
🌿 बच्चों की मूल प्रवृत्ति का दमन ना करें
हम किसी के बेसिक नेचर में खलन करते हैं। अभिभावक को चाहिए कि समस्यात्मक बालक के प्रति उसके बेसिक नेचर का खलन ना करें हैं जैसे- बच्चे को भूख लगा है तो उसको टाइम पर खाना मिलना चाहिए। नहीं तो बच्चे के मस्तिष्क में नेगेटिविटी उत्पन्न हो जाती है
🌿 अगर कोई दोष पता चले तो संभव हो तो मानसिक चिकित्सा कराएं
अगर कोई बच्चा मानसिक रूप से समस्यात्मक हो तो शिक्षक को चाहिए की यथाशीघ्र बच्चों को मानसिक चिकित्सक के पास ले जाएं और उपयुक्त उपचार कराएं ताकि बच्चों को इस दोष से मुक्ति मिल सके। बच्चों को बच्चों को अलग -अलग तरीके से co-operate करें।

🌿 उचित कार्य हेतु प्रेरित/ प्रोत्साहित करें और पुरस्कार दे➖ इसमें बच्चों को समय-समय पर खेल-कद, नाटक, इत्यादि मनोरंजन कार्य में शामिल करने के लिए बच्चों को प्रोत्साहित करें तथा बच्चों को पुरस्कार भी प्रदान करें।
🌿 उन्हें नैतिक शिक्षा दें ➖जो बेसिक beheviour या तौर -तरीके हैं वह उसको उसी के हिसाब से सुधारा जाए ताकि बच्चे में नैतिकता का गुण विकसित हो।
🌿 बच्चों की संगति पर विशेष ध्यान
अभिभावकों को चाहिए कि बच्चों को, तथा उनकी संगति का ध्यान रखना चाहिए, कि मेरा बच्चा किस संगत में पड़ा हुआ है कहीं गलत संगत में तो नहीं पड़ गया है
🌿 बच्चों के मनोरंजन का भी उचित अवसर दें➖समस्यात्मक बालक को मनोरंजन के प्रति प्रेरित करने के लिए उचित अवसर दें, ताकि बच्चे समस्या उत्पन्न करने वाले व्यवहार को भुल सके
🌿 अध्यापक आदर्श पूर्वक व्यवहार करें ➖अध्यापक को चाहिए कि बच्चों के सामने मधुर वाणी का प्रयोग करें ताकि बच्चे उनका अनुकरण कर सके और सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करें।
🌿 बच्चों को संतुलित जेब खर्च दें➖बच्चों को पैसा जरूरत से ज्यादा मिलने पर वह दुरुपयोग करने लगता है इसलिए बच्चों का जेब खर्च लिमिट देना चाहिए
🌿 शिक्षण विधि मनोरंजक हो➖ बच्चौ के हिसाब से शिक्षण सामग्री उपलब्ध कराने चाहिए ताकि बच्चे प्रेरित हो सकें
🌿 संतुलित कार्यक्रम हो अनावश्यक बोझ ना हो
बच्चो को होमवर्क ना दें या लिमिट में देना चाहिए ताकि बच्चे को बोझ ना लगे
🌿 सहायक शिक्षण कार्यक्रम ➖बच्चे को भ्रमण पर ले जाएं, खेल-कूद, सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए प्रेरित करें ताकि बच्चे की समस्यात्मक व्यवहार को रोका जा सके।
🌿 आत्मविश्वास जागृत करने के लिए उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य सौंपे➖ इसमें बच्चों को जिम्मेदारी सौंपे ताकि बच्चे उन कार्यों को करने के लिए प्रेरित हों ताकि बच्चों को अन्य समय ना मिले की समस्या उत्पन्न कर सकें। notes by–SRIRAM PANJIYARA

📒 समस्यात्मक बालक के शिक्षा का स्वरूप
Problem of child education

▪️ समस्यात्मक बालक की शिक्षा सरल एवं स्वभाविक हो ,ताकि उनमें परिवर्तन ला सके ,और वह समाज में अच्छा व्यवहार कर सकें। और किसी भी तरह की समस्या उत्पन्न ना करें सके ।

1️⃣ माता – पिता प्रेम और सहानुभूति पूर्व व्यवहार करें।
🔹समस्यात्मक बालक की नींव घर के वातावरण से ही पड़ चुकी होती है
सबसे ज्यादा बच्चा माता-पिता के व्यवहार से ही सीखता है और माता पिता की वह सुनता है
माता पिता ही बच्चे को मानसिक रूप से मजबूत कर सकते हैं अगर वह उनके साथ अच्छा व्यवहार करें ,प्रेम पूर्वक रहे हैं तो समस्यात्मक बालक को रोका जा सकता है

2️⃣ उनकी मूल प्रवृत्ति का दामन ना करें

🔹 हर बच्चे का व्यवहार स्वभाविक एवं एक जैसा होता है अगर हम उन्हें बार-बार परेशान करते हैं किसी काम को करने के लिये उन्हे डांटते , चिल्लाते तो वह चिड़चिड़े हो जाते हैं और वह समस्या उत्पन्न करते हैं इसलिए हमें उनकी मूल प्रवृत्ति, का ध्यान रखना चाहिए ।

3️⃣ अगर कोई दोष पता चले तो संभव हो तो मानसिक चिकित्सा कराए
🔹 अगर किसी बच्चे को मानसिक रूप से कोई दोष हो ,तो उसे मनोचिकित्सक को दिखाना चाहिए ताकि उसका सही समय पर इलाज हो सके।

4️⃣ बच्चों को उचित कार्य हेतु प्रेरित या प्रोत्साहित करें । और जरूरत पर उन्हें पुरस्कार भी दे।
🔹 इससे उनमें अच्छी आदतों का विकास होगा और वह कार्य करने में रुचि लेंगे

5️⃣ उन्हें नैतिक शिक्षा दे

🔹 बच्चों को बेसीक व्यवहार ,बेसिक तौर तरीके की शिक्षा दें ,कहां क्या करना है कहां क्या नहीं करना है किसी के बारे में क्या सोचना है क्या नहीं सोचना है कैसे समाज में अपना व्यवहार को बनाना है आदि बातो से शिक्षित करना चाहिए

6️⃣ बच्चों की संगति पर विशेष ध्यान देना चाहिए
🔹 वातावरण हर व्यक्ति को प्रभावित करता है जो कुछ भी हम सीखते है वातावरण से ही सीखते हैं जैसे लोग रहेंगे वैसे ही हम होंगे,अगर हम अच्छे लोगों के साथ रह रहे तो हमारा व्यवहार भी अच्छा ही होगा ,अगर हम खराब लोगों के साथ रह रहे तो हमारा व्यवहार भी खराब होगा ,संगति का सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ता है एक शिक्षक को इस पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

7️⃣ बच्चों को मनोरंजन का उचित अवसर दें

🔹 बच्चों को मनोरंजन का उचित अवसर देना चाहिए ताकि वह अपने कार्य को उत्साह पूर्वक कर सकें ।

8️⃣ आदर्श पूर्व व्यवहार करें जो बच्चों के लिए अनुकरणीय हो
🔹एक शिक्षक का व्यवहार आदर्श पूर्ण होना चाहिए ।बच्चा शिक्षक का अनुकरण करके ही आदर्श पूर्ण व्यवहार करना सिखता है

9️⃣ बच्चों को संतुलित जेब खर्च दे
🔹 बच्चों को कम से कम पैसे देना चाहिए

🔟 शिक्षण विधि मनोरंजक हो

🔹 बच्चों को ऐसे शिक्षण विधि से पढ़ाया जाना चाहिए है जिसमें उनको बहुत मजा आया , उनके दैनिक जीवन के कार्यों को जोड़कर शिक्षण पकरकया जाए

1️⃣1️⃣ संतुलित कार्यक्रम हो अनावश्यक बोझ ना
बच्चों को कम-से-कम पढ़ाया जाए, उतना ही पढ़ाया जाए जितना वह ग्रहण कर सके ,बच्चे की क्षमता के अनुसार ही पढ़ा जाए, ताकि बच्चे को पढ़ाई बोझ ना लगे ,

1️⃣2️⃣ सहायक शिक्षण कार्यक्रम
बच्चे को सहायक शिक्षण कार्यक्रम करवाते,
भ्रमण पर ले जाए ,खेल ,कूद ,नाटक, संगीत प्रतियोगिता करवाई , ताकि बच्चे का समस्यात्मक व्यवहार बदला जा सके।

1️⃣3️⃣ आत्मविश्वास जागृत करने के लिए उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य रूप से सौंपा
🔹समस्यात्मक बालक को उनके क्षमता के अनुसार उत्तरदायित्व का कार्य देना चाहिए ताकि वह व्यस्त रहें और उनको मजा भी आए , इससे बच्चों में आत्मविश्वास का विकास होगा,

📒 Notes Sanu sanwle

♦️ समस्यात्मक बालक की शिक्षा का स्वरूप♦️
समस्यात्मक बालक का शिक्षा का स्वरूप निम्न आधार पर होना चाहिए

1- माता-पिता का व्यवहार –/ माता-पिता को चाहिए कि वह बच्चे के साथ प्रेम और सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करें ना कि कठोर व्यवहार!
उनकी मानसिक स्थिति एवं उनके भावों को समझें, उनकी परेशानियों को जाने तथा उनसे प्रेम पूर्वक वार्तालाप करें!
2- मूल प्रवृत्ति -/
समस्यात्मक बालक की मूल प्रति का दमन नहीं करना चाहिए उनकी इच्छाओं का दमन ना करें
3- मानसिक चिकित्सा -/
अगर कोई दोस या परेशानी का पता चले तो संभव हो तो मानसिक चिकित्सा कराएं अगर वह मानसिक चिकित्सा से सही होने वाला रोग होगा तो चिकित्सा से ठीक हो जाएगा
4- बच्चे को उचित कार्य हेतु प्रेरित तथा प्रोत्साहित और पुरस्कार दे-/
बच्चा अगर अच्छा काम करता है तो उसका प्रोत्साहन करना चाहिए उसे अच्छे कार्य के लिए अग्रसर करना चाहिए प्रेरित करना चाहिए जरूरत पड़ने पर उसे पुरस्कार भी देना चाहिए जिससे उसका प्रोत्साहन बढ़ता है
5- नैतिक शिक्षा -/
समस्यात्मक बालकों को नैतिक शिक्षा देनी चाहिए जिससे उनमें अच्छे आचरण आ सके अपनों से बड़ों का सम्मान कर कर सके अपने से छोटों के साथ स्नेह पूर्ण व्यवहार कर सके सभी की भावनाओं को समझने की क्षमता प्राप्त हो सके
6- संगति पर ध्यान -/
ऐसे बच्चों की संगति पर ध्यान देना चाहिए कि वह कैसे बच्चों के साथ उठना बैठना कर रहा है ! ऐसे बच्चों के लिए अच्छे बच्चों के साथ अच्छी संगति करना चाहिए ताकि उनमें अच्छी संगति से अच्छे गुण विकसित हो सके अगर वह गलत बच्चों के साथ संगति कर रहा है तो उसमें वैसे ही गुण आएंगे
संगति के बारे में कहा गया है कि..
‘ संगत का असर पड़ता है किसी के साथ रहने से रूप नहीं तो गुन आ ही जाते हैं ‘
चाहे वह अच्छे हो या बुरे इसीलिए बच्चों को अच्छी संगति करना चाहिए ताकि अच्छे गुण आ सके!
7- बच्चों को मनोरंजन का उचित अवसर-/
ऐसे बच्चों को मनोरंजन के लिए समय दिया जाना चाहिए जिससे कि बच्चे बोर ना हो
8- अध्यापक का व्यवहार –/अध्यापक आदर्श पूर्ण व्यवहार करें जो बच्चों के लिए अनुकरणीय हो अध्यापक जैसा व्यवहार आचरण करेंगे बच्चे भी उनसे सीखेंगे
तो अध्यापक को चाहिए कि वह अपना उचित और आदर्श पूर्ण व्यवहार रखें
9 बच्चे का जेब खर्च-/ ऐसे बच्चों को जेब खर्च पर्याप्त मात्रा में ही दिया जाना चाहिए जिससे कि वह पैसों का सही उपयोग कर सके अधिक जेब खर्च देने से वह उन पैसों का गलत काम में भी उपयोग कर सकते हैं
10- शिक्षण विधि-/
ऐसे बच्चों के लिए शिक्षण विधि मनोरंजक होना चाहिए जिससे कि बच्चे बोर ना हो अगर शिक्षण विधि रुचिकर होगी तो बच्चे जल्दी और बेहतर सीखेंगे
11- संतुलित कार्यक्रम हो-/ बच्चों का कार्यक्रम व पाठ्यक्रम संतुलित होना चाहिए जिससे कि बच्चों पर अनावश्यक बोझ ना हो
12- सहायक शिक्षण कार्यक्रम-/ bhraman Vidhi, खेलकूद, नाटक, संगीत के द्वारा समस्यात्मक व्यवहार को नियंत्रित किया जा सकता है
13- आत्मविश्वास जागृत करना-/ ऐसे बच्चों में आत्मविश्वास जागृत करने के लिए उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य सोचें उन्हें उत्तरदायित्व पूरा करने के लिए कार्य दें जिससे कि वह उन कार्य में व्यस्त रहें और समस्या उत्पन्न ना करें!
🙏🏻 रितु योगी🙏🏻

💫 समस्यात्मक बालकों की शिक्षा का स्वरूप

ऐसे बालक जो किसी न किसी रूप से समस्या उत्पन्न करते हो चाहे वह सामाजिक रुप में हो या शिक्षा के क्षेत्र में हो, इसके साथ-साथ उनकी स्वाभाविक समस्या भी होती है जो उनके व्यवहार में दिखाई देती है यदि समय रहते इन समस्याओं का निराकरण नहीं किया गया तो बालक समस्यात्मक या अपराधी हो जाता है और उसे समायोजन करने में काफी समस्या का सामना करना पड़ता है |

इन्हीं समस्याओं को ध्यान में रखते हुए हमें समस्यात्मक बालकों की शिक्षा पर विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए | अतः उनकी शिक्षा का स्वरूप निम्न प्रकार का होना चाहिए —-

🎯 माता-पिता प्रेम पूर्वक और सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करें
ऐसे बच्चों की समस्या को दूर करने के लिए उनके माता-पिता से मिलकर उनको बताना कि वे अपने बच्चों से प्रेम पूर्वक व सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करें क्योंकि वह हर एक समय उनके साथ ही रहता है |
उन्हें अच्छी तरह से पता होता है कि उसका व्यवहार कैसा है क्या उसे पसंद है क्या नहीं है इसलिए माता-पिता की सहभागिता बहुत आवश्यक है |
क्योंकि बालक मानसिक रूप से समस्या ग्रस्त है उसका मानसिक स्तर कमजोर है इसलिए उसके लिए माता पिता और परिवार के वातावरण का स्वरूप अच्छा होना चाहिए |

🎯 समस्यात्मक बालकों की मूल प्रवृत्ति का दमन ना करें
यदि किसी के बेसिक नेचर या मूल प्रवृत्ति में हमेशा खलल या बाधा डालते हैं तो उससे उसका मानसिक स्तर कमजोर होने लगता है और इससे समस्या उत्पन्न होने लगती है जो कि मानसिक स्तर से उत्पन्न करती है |
अर्थात उनकी मूल प्रवृत्ति का दमन होने से भी समस्या उत्पन्न होती है अत: उनकी मूल प्रवृत्ति का दमन नहीं होना चाहिए| क्योंकि उससे समस्या उत्पन्न ही होगी ,कम नहीं होगी |
मूल प्रवृत्ति हमारी जन्मजात होती है उससे जो क्रियाएं होती है वे स्वाभाविक होती है यदि किसी की मूल प्रवृत्ति का दमन होता है तो वह चिड़चिड़ा ,झगड़ालू प्रवृत्ति, असामाजिक व्यवहार, गुस्सा करना या चीजों को इधर-उधर फेंकने लगता है जोकि दूसरों के लिए समस्या का कारण बनता है |

🎯 अगर कोई दोष या समस्या पता चले तो संभव हो तो मानसिक चिकित्सा करवाएं

समस्यात्मक बालक की समस्या या दोष का उचित एवं सही रूप से कारण पता चलने पर या उसकी पहचान हो जाने पर मानसिक रूप से चिकित्सक से उसका इलाज करवाया जा सकता है जिससे बालक की इस समस्या का निदान हो सके और उसका समय पर उपचार हो सके इसलिए उनका मानसिक स्तर पर इलाज करवाकर उनकी समस्या का निदान करेंगे ताकि वह सामान्य बच्चों की तरह हो सकें |

🎯 बच्चे को उचित कार्य हेतु प्रेरणा , प्रोत्साहन और पुरस्कार दे

प्रेरणा, प्रोत्साहन या पुरस्कार किसी भी व्यक्ति को प्रेरित करने के लिए एक पॉजिटिव संकेत है जिससे वह प्रेरित हो सकता है और उसमें सकारात्मक प्रवृत्ति का विकास होता है और सकारात्मक मनोबल भी बढ़ता है और वह प्रभावी रूप से काम करना या अपने कार्य में काफी अच्छे से प्रदर्शन करने की कोशिश करता है इसलिए शिक्षक को समय-समय पर आंशिक रूप से बच्चों को प्रोत्साहन देना चाहिए या या प्रेरणा देकर या पुरस्कार देकर बच्चों को प्रोत्साहित करना चाहिए|
ठीक इसी प्रकार यदि समस्यात्मक को साधारण बच्चे की तरह व्यवहार नहीं किया गया या उन्हें प्रेरित नहीं किया गया तो उनके मन में नकारात्मकता बढ़ेगी और यदि ऐसा होगा तो बच्चे का स्वभाव समस्यात्मक प्रवृत्ति का रहेगा |

🎯 नैतिक शिक्षा देना

समाज में कोई भी व्यक्ति दो चीजों से पहचाना जाता है एक उसका ज्ञान ,और दूसरा उसका नैतिक व्यवहार|
व्यक्ति के सर्वांगीण विकास या संपूर्ण विकास के लिए इन दोनों चीजों का होना अतिआवश्यक है यदि ज्ञान से सफलता मिलती है तो नैतिक शिक्षा उस सफलता को पाने में मदद करती है अर्थात कहा जा सकता है कि नैतिक शिक्षा एवं ज्ञान एक दूसरे के पूरक हैं दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू है|
बच्चे का नैतिक विकास उसके जन्म के पश्चात ही आरंभ हो जाता है और यह जीवन भर चलता रहता है यदि बच्चे की नैतिक शिक्षा ठीक नहीं है तो वह समस्यात्मक प्रवृत्ति का हो जाता है और बाल अपराधी भी बन सकता है |
यदि उसको उचित नैतिक शिक्षा नहीं दी जाए जो की अति आवश्यक है तो वह समस्यात्मक हो जाता है | क्योंकि यदि व्यक्ति को समाज में रहना है तो उसे नैतिक तो होना पड़ेगा, क्योंकि व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है और नैतिकता ही उसको सही या गलत की पहचान करवाने में मदद करती है |

🎯 बच्चों की संगति पर विशेष ध्यान

यदि बच्चों की अच्छी संगति है तो वह अच्छा करेगा और संगति यदि अच्छी नहीं है तो अच्छा करने की सोच भी नहीं सकता |
क्योंकि संगति एक ऐसी चीज है जो नया करने किया नया सोचने में मदद करती है या उसकी प्रेरणा देती है यदि किसी बच्चे की संगति चोरी करने वाले बच्चे के साथ है तो यह आवश्यक है कि वह चोरी करना सीख लेगा और यदि उसकी संगति एक अच्छे व्यक्ति से है तो वह अपनी चोरी की प्रवृत्ति को भी सुधार सकता है इसलिए यह आवश्यक है कि बच्चों की संगति पर अधिक या विशेष ध्यान दिया जाए ताकि उनके समस्यात्मक होने के कम अवसर हो |

🎯 बच्चों को मनोरंजन के उचित अवसर दें

बच्चों को समय-समय पर मनोरंजन के अवसर दें ताकि वह अपनी शिक्षा को निरंतर रूप से प्रभावी रूप से ग्रहण कर सकें और इसके साथ साथ ही उनका ऐसा वातावरण हो जिससे उनके मन में रचनात्मकता सृजनात्मकता का विकास हो जिससे उनको अपनी प्रतिभा को दिखाने का या उसका प्रदर्शन करने का अवसर मिल सके|
और यदि कोई बालक समस्यात्मक है तो उसके लिए यह अति आवश्यक है कि उसको मनोरंजन करने का अवसर भी दिया जाना चाहिए जिससे कि वह अपनी अलग अलग सृजनात्मकता दिखा सके और उसका प्रदर्शन कर सकें |

🎯 अध्यापक आदर्श पूर्ण व्यवहार करें

अध्यापक को चाहिए कि वह बच्चों के सामने आदर्श व्यवहार करें जो कि बच्चों के लिए अनुकरणीय हो |
शिक्षक की प्रत्येक क्रिया प्रतिक्रिया एक आदर्श रूप में होनी चाहिए क्योंकि शिक्षक की प्रत्येक प्रतिक्रिया का प्रभाव बच्चे पर मानसिक रूप से पड़ता है क्योंकि वह उसका अनुकरण करता है इसलिए शिक्षक द्वारा ऐसा व्यवहार प्रदर्शित किया जाना चाहिए जो बच्चे के लिए अनुकरणीय हो और उनके लिए एक आदर्श हो |

🎯 बच्चे को संतुलित जेब खर्च दें

बच्चे को संतुलित जेब खर्च देना चाहिए क्योंकि बच्चे जेब खर्च के पैसों का गलत इस्तेमाल भी कर सकते हैं जिसका दुष्प्रभाव माता पिता को समस्यात्मक बालक के रूप में झेलना पड़ सकता है उनके लिए समस्या उत्पन्न हो सकती है इसलिए आवश्यक है कि उनको उनकी आवश्यकता के अनुसार जेब खर्च दिया जाए आवश्यकता से अधिक ना दिया जाए |

🎯 शिक्षण विधि मनोरंजक हो ➖यदि हम किसी ज्ञान को अधिक रूचि या मनोरंजन के अनुसार करती हैं तो वह ज्ञान अधिक समय के लिए स्थाई हो जाता है इसलिए समस्यात्मक बालकों की शिक्षा में उनके कक्षा का वातावरण मनोरंजक होना चाहिए जो उनके दैनिक जीवन से जुड़ा इसलिए शिक्षक को ऐसी शिक्षण विधियां उपयोग करना चाहिए जो बच्चों के अनुसार प्रभावी हों |

🎯 पाठ्यक्रम संतुलित और अनावश्यक बोझ ना हो

समस्यात्मक बालकों का पाठ्यक्रम संतुलित या लचीला होना चाहिए न तो जरूरत से ज्यादा और न तो जरूरत से कम |
अर्थात संतुलित होना चाहिए यदि असंतुलित हुआ तो छात्रों को बोझ लगेगा |

🎯 सहायक शिक्षण कार्यक्रम भ्रमण ,खेलकूद, नाटक ,संगीत प्रतियोगिता के द्वारा भी समस्यात्मक व्यवहार को रोका जा सकता है

समस्यात्मक बालकों को विभिन्न प्रकार के कार्यक्रम जैसे भ्रमण , खेलकूद, नाटक ,संगीत प्रतियोगिता तथा अन्य क्रियाकलापों आदि के द्वारा उनके इस व्यवहार को रोका जा सकता है क्योंकि यदि उनका मन अधिक क्रियाकलापों में लगेगा तो वह व्यस्त हो जाएंगे तथा अपने कार्य को मन लगाकर करेंगे और जिस से दूसरों के लिए समस्या उत्पन्न नहीं कर पाएंगे |

🎯 बच्चे में आत्मविश्वास जागृत करने के लिए उत्तरदायित्व विभाग कार्य सौंपा जाए

यदि ऐसी बातें जो समस्यात्मक हैं उन बालकों में जिम्मेदारी किया कोई उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य को सौंपा जाए जिससे उनकी अंदर आत्मविश्वास की भावना विकसित हो सके और इस प्रकार उनके समस्यात्मक व्यवहार को रोका जा सकता है |

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🏵️ समस्यात्मक बालक की शिक्षा का स्वरूप 🏵️

✳️ माता-पिता से प्रेम और सहानुभूति

सबसे पहले समस्यात्मक बालक के माता-पिता से मिलेंगे और उसके माता पिता और परिवार के सदस्यों द्वारा यह सुनिश्चित करेंगे कि वह उस बालक के साथ प्रेम और सहानुभूति पूर्ण व्यवहार करें क्योंकि बच्चा अगर प्रेम और सहानुभूति पूर्ण वातावरण में रहता है तो उसका व्यवहार सकारात्मक होता है और वह यह महसूस करता है कि उससे भी कोई प्रेम करता है। क्योंकि बच्चा स्कूल से भी ज्यादा समय अपने परिवार में या घर में व्यतीत करता है।

✳️ उनकी मूल प्रवृत्ति का दमन ना करें ➖
सभी बच्चे एक दूसरे से भिन्न होते हैं और सभी बालकों की मूल प्रवृत्ति भिन्न होती है ।सभी बालकों का व्यवहार करने का तरीका कार्य करने का तरीका भी भिन्न होता है। अगर हम किसी बालक की मूल प्रवृत्ति को बदल देंगे तो हम उसको ही बदल देंगे इसलिए हमें समस्यात्मक बालकों की समस्याओं का निदान करना चाहिए ना कि उनकी मूल प्रवृत्तियों को ही बदल देना चाहिए। मूल प्रवृत्तियों को बदलने से बच्चा परेशानियों का अनुभव करेगा परेशान होगा और परेशान होने के बाद दूसरों के लिए भी समस्या उत्पन्न करेगा।

✳️अगर कोई दोष पता चले तो संभव हो तो मानसिक चिकित्सा कराये ➖
माता पिता को नियमित अपने बच्चों का अवलोकन करना चाहिए, अगर बच्चों में कोई असाधारण बात (अति सक्रियता पूछे गए प्रश्नों का जवाब नहीं दे पाना, Reflex action मे problem) हो तो या कोई मानसिक दोष हो तो उन्हें उसका पता चल जाने के बाद दोनों ही स्थितियों में माता-पिता को या अभिभावकों को मनोचिकित्सकों को दिखाना चाहिए।

✳️ बच्चे को उचित कार्य हेतु प्रेरित करें प्रोत्साहित करें और पुरस्कार दें ➖
बच्चों को कार्यों को करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए और कई बार प्रेरणा देने के लिए कार्यों पर पुरस्कार भी रखना चाहिए इससे उन्मे उत्साह आता है और वह उत्साहित होकर कार्य को करने करते।

✳️उन्हें नैतिक शिक्षा दें ➖

हमें बच्चों को विद्यालय में शिक्षा देने के साथ-साथ नैतिक शिक्षा भी देनी चाहिए उन्हें यह बताना चाहिए क्या सही है और क्या गलत।
उन्हें सही गलत के बीच का फर्क बताना चाहिए। कैसे सम्मान करना है बड़ों के साथ बोलना है बात करना है इन सब चीजों का ज्ञान देना चाहिए।

✳️बच्चों की संगति का विशेष ध्यान रखें ➖
हमें बच्चों की संगति का भी विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए क्योंकि अगर बच्चा सामान्य बालक है और उसकी संगति में कोई समस्यात्मक बालक है तो बच्चा उस संगति के कारण भी समस्या उत्पन्न करने लगता है और अपने साथी मित्रों के जैसा ही व्यवहार प्रकट करने लगता है।

✳️बच्चों को मनोरंजन का उचित अवसर दें➖
बच्चों को दिन-रात सिर्फ पढाई ही नहीं करानी चाहिए उन्हें उनके मनोरंजन के लिए भी समय प्रदान करें। कई बार बच्चे खेलकूद के द्वारा भी अपने अंदर की नकारात्मकता को निकाल देते हैं

✳️अध्यापक आदर्श पूर्वक व्यवहार करें जो बच्चे के लिए अनुकरणीय हो ➖
आध्यपक होने के नाते आपको चाहिए कि आप बच्चो के साथ आदर्श पूर्ण व्यवहार करे जिससे बच्चे भी आपको देखकर या आपकी कही गई बातों का अनुकरण कर अपने जीवन को यथोचित आदर्श बनाए।

✳️बच्चे को संतुलित जेब खर्च दें

बच्चे को संतुलित जेब खर्च देना चाहिए जिससे वह अपने खर्चों को नियंत्रित कर सके। अधिक जेब खर्च मिलने से अपने वह उन पैसों का गलत तरीके से इस्तेमाल कर सकते हैं।

✳️शिक्षण विधि मनोरंजक हो➖
समस्यात्मक बालकों के लिए शिक्षण विधि मनोरंजक होनी चाहिए । उदाहरण उनकी वास्तविक जिंदगी से भी मिले जुले होने चाहिए जिसमें वह अपने आपको relate कर सके और कनेक्ट कर सके। बच्चों की शिक्षा उनको वातावरण से जोड़ कर होनी चाहिए।

✳️संतुलित पाठ्यक्रम हो ,बच्चे के ऊपर अनावश्यक बोझ ना आए ➖बालकों की शिक्षा संतुलित होनी चाहिए उनकी उम्र एवं उनकी मानसिक क्षमता को देखते हुए उनका पाठ्यक्रम का निर्माण करना चाहिए व पाठ्यक्रम उनके ऊपर बोझ ना बन जाए इस बात का ध्यान रखना चाहिए।

✳️सहायक शिक्षण कार्यक्रम, भ्रमण , खेलकूद , नाटक , संगीत के द्वारा भीम समस्यात्मक व्यवहार को रोका जा सकता है➖
बच्चों को सहायक शिक्षण के द्वारा ,खेलकूद ,नाटक ,संगीत के द्वारा भी हम उनकी सोच को परिवर्तन कर सकते हैं बच्चे खेलकूद संगीत के समय अपने आप को स्वतंत्र महसूस करते हैं और उनका मन इन कार्यों में बहुत लगता है इसलिए समय-समय पर बच्चों को यह सारी सुविधा मुहैया करानी चाहिए जिससे वह अपने अंदर की नकारात्मकता को इन के माध्यम से या इन में लीन होकर निकाल सके। एवं यह उनके स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायक है।

✳️बच्चे में आत्मअनुशासन जागृत करने के लिए उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य सौंपे ➖
हमें बच्चों को कार्य सौंपने चाहिए जिसमें बच्चे अपने आपको व्यस्त रखे उस कार्य को यह सोच कर कि करें कि हमारा उत्तरदायित्व है इससे उनके अंदर आत्म अनुशासन की भावना जागृत होगी है और वह खाली नहीं रहेंगे तो दूसरे बच्चों के लिए या समाज के लिए किसी प्रकार की समस्या उत्पन्न नहीं करेगें, और उस कार्य में अपना 100% देने की कोशिश करेंगे।

धन्यवाद

द्वारा➖
वंदना शुक्ला

Nature and reason of problematic students notes by India’s top learners

⭐🍁⭐🍁 समस्यात्मक बालक⭐🍁⭐🍁

🌈 समस्यात्मक बालक के लक्षण🌈

🎆 निम्न मानसिक परेशानी

🌺 पैसे एवं वस्तु की चोरी करने:- समस्यात्मक बालक पर ऐसी वस्तु की चोरी जैसे कार्य करते हैं

🌺 स्कूल के कार्यों में सक्रिय न होना:– समस्यात्मक बालक की स्कूल के कार्यों में सक्रिय रूप से भाग नहीं लेते हैं

🌺 किसी दूसरे को शारीरिक व मानसिक कष्ट देकर आनंद लेना:– समस्यात्मक बालक को किसी व्यक्ति को कष्ट देने में आनंद की अनुभूति होती है चाहे वह शारीरिक कष्ट में या मानसिक कष्ट हो

🌺 अनुशासन का विरोध करना:- समस्यात्मक बालक अनुशासन का पालन नहीं करते हुए अनुशासन विरोधी होते हैं

🌺असहयोग की प्रवृत्ति करना:–
समस्यात्मक बालक किसी भी काम में सहयोग नहीं देते हैं बाल की समस्या उत्पन्न करते हैं

🌺 बुरा आचरण करना:-
समस्यात्मक बालक का व्यवहार ठीक नहीं होता है वह सभी के साथ बुरा आचरण करते हैं

🌺 संदेह करना:- समस्यात्मक बालक मैथ अंबे की भावना होती है

🌺 धोखा देना :– समस्यात्मक बालक धोखा देना जैसे कार्य करते हैं वह किसी को भी विश्वास नहीं दिला पाते हैं

🌺 अश्लील बातें करना

🌺बिस्तर गीला करना

🌈 अत्यधिक मानसिक परेशानी

⭐ मानसिक द्वंद से ग्रसित होना:–
जब बालक में अनेक प्रकार की उलझनें होती है इससे मानसिक ढंग से ग्रसित हो जाते हैं

⭐ हीन भावना का शिकार होना:-
बालक में जब हीन भावना आ जाती है तो वह समस्यात्मक बालक होती है

⭐ सीमा से अधिक कठोर व्यवहार करना;- समस्यात्मक बालक सीमा से अधिक कठोर व्यवहार करते हैं मैं किसी के बारे में नहीं सोचते हैं

⭐ अप्रसन्न और चिड़चिड़ी रहना;- समस्यात्मक बालक अप्रसन्न और चिड़चिड़ी होती हैं

⭐ भयभीत और आत्म केंद्रित होते हैं:-
इन बालकों को अगर किसी चीज से डर लगता है लेकिन दिखा नहीं रहे हैं इससे हीन भावना से ग्रसित होने लगते हैं और वह समस्यात्मक बालक कहलाते हैं

🎯 समस्यात्मक व्यवहार के कारण

🍁 वंशानुक्रम:- वंशानुक्रम के अंतर्गत की बच्ची में समस्यात्मक बालक होते हैं जैसे IQ शारीरिक दोस्त आदि

🍁 मूल प्रवृत्तियों का दमन:–
मूल प्रवृत्तियों का दमन होने से उनकी भावना की ग्रंथि दब जाती है और असामाजिक व्यवहार बढ़ने लगते हैं

🍁 शारीरिक दोष:- बच्चे में शारीरिक दोष के कारण उसमें हीन भावना आने लगती है और वह समस्यात्मक बालक कहलाते हैं

🍁 वातावरण:-
बच्चे को सही बात आवन उपलब्ध नहीं होता है शिवा समस्यात्मक बालक होते हैं

🍁 माता पिता शिक्षकों का व्यवहार:-
माता-पिता और शिक्षकों का व्यवहार बच्चे के प्रति अच्छा होना चाहिए नहीं तो बच्चे समस्यात्मक हो जाते हैं

🍁 नैतिक शिक्षा का अभाव:-
समस्यात्मक बालक में नैतिक शिक्षा का अभाव पाया जाता है

🍁 परिवार का वातावरण:-
परिवार में माता-पिता और अन्य सदस्यों का व्यवहार यह लड़ाई झगड़े से बच्चे समस्यात्मक बालक हो जाते हैं

🍁 सांवेगिक दोष

✍🏻✍🏻✍🏻Menka patel ✍🏻✍🏻✍🏻

🍁⭐🍁⭐🍁⭐🍁⭐🍁⭐🍁⭐🍁

🙎🏼‍♂️ समस्यात्मक बालक🙎🏼‍♂️

🔆 समस्यात्मक बालक के लक्षण🔆

1️⃣ निम्न मानसिक परेशानी:-समस्यात्मक बालक के विभिन्न लक्षण है जिसके कारण पालक मानसिक वा शारीरिक दोनों रूपों से परेशान रहता है या दूसरों को परेशान करता है:-

1.पैसे एवं वस्तु की चोरी करने:- समस्यात्मक बालक किसी वस्तु की जरूरत पड़ने पर या उससे ऐसा महसूस होता है कि यह वस्तु भी मेरे पास होनी चाहिए तो वह किसी दूसरे के या अपने ही घर के सदस्यों के पैसे चुराने या वस्तुओं को चुराने का गलत काम करने लगता है।

2.स्कूल के कार्यों में सक्रिय न होना:-समस्यात्मक बालक की स्कूल के कार्यों में सक्रिय रूप से भाग नहीं लेते हैं। और दूसरे किसी दोस्त जिसमें स्कूल के कामों में भाग लिया है उन्हें भी वह तंग करता रहता है। समस्यात्मक बालक को किसी कार्य के लिए बार-बार बोलना पड़ता है उसके बावजूद भी वह उन कार्यों को नहीं करता जिन्हें शिक्षकों ने बताया था।

3.किसी दूसरे को शारीरिक व मानसिक कष्ट देकर आनंद लेना:-समस्यात्मक बालक अपने सहपाठी को या किसी शारीरिक या मानसिक रूप से कष्ट पहुंचा कर आनंद का अनुभव करता है। जैसे किसी बुजुर्ग को यदि दिखाई नहीं देता है तो वह बालक उस व्यक्ति की लाठी को कहीं छिपा देता है और जब वह बुजुर्ग उस लाठी को ढूंढता है तो उस बालक को आनंद का अनुभव होता है।

4.अनुशासन का विरोध करना:- समस्यात्मक बालक अनुशासन का पालन नहीं करते हुए अनुशासन विरोधी होते हैं ऐसे बालक कक्षा में अनुशासन के नियमों को तोड़ते हैं तथा अपने अनुसार कक्षा में शिक्षण प्रक्रिया को पूरा करना चाहते हैं।

5.असहयोग की प्रवृत्ति करना:-
समस्यात्मक बालक किसी भी काम में सहयोग नहीं करते हैं ऐसी बालक किसी भी काम को किसी दूसरे बालक पर थोपने का प्रयास करते हैं।

6.बुरा आचरण करना:-
समस्यात्मक बालक का व्यवहार ठीक नहीं होता है वह सभी के साथ बुरा आचरण करते हैं।

7.संदेह करना:- समस्यात्मक बालक हर बात पर संदेश करता है उसे किसी दोस्त पर जल्दी यकीन नहीं होता है।

8.धोखा देना :– समस्यात्मक बालक धोखा देना जैसे कार्य करते हैं।

  1. अश्लील बातें करना:-समस्यात्मक बालक कक्षा में शिक्षण के समय अपने सहपाठियों के साथ शिक्षण ना करके अश्लील बातें करते हैं जोकि समस्यात्मक बालक की एक पहचान है। 10.बिस्तर गीला करना:-समस्यात्मक बालक नींद में बिस्तर गीला कर देते हैं।

🔆 अत्यधिक मानसिक परेशानी🔆

1️⃣ मानसिक द्वंद से ग्रसित होना:-
जब बालक में अनेक प्रकार की उलझनें होती हैं तो इससे बालक मानसिक रूप से ग्रसित हो जाते हैं।

2️⃣ हीन भावना का शिकार होना:-समस्याएं उत्पन्न करने के कारण सामान्य बालक उनके साथ रहना खेलना लंच करना तथा कक्षा में उनके साथ बैठना पसंद नहीं करते हैं जिससे उनमें हीन भावना आ जाती है इस प्रकार वहीं भावना का शिकार होते जाते हैं।

3️⃣सीमा से अधिक कठोर व्यवहार करना;- समस्यात्मक बालक सीमा से अधिक कठोर व्यवहार करते हैं ऐसे बालक सामान्य बालकों को मारपीट करना गाली गलौज करना या किसी के कुछ पूछने पर भी एक शब्द भी ना बोलना आदि।

4️⃣अप्रसन्न और चिड़चिड़े रहना;- समस्यात्मक बालक हमेशा अप्रसन्न और चिड़चिड़ा रहता है। सामान्य बालक ओं के साथ कठोर व्यवहार करने के कारण सामान्य बालक समस्यात्मक बालक के साथ रहना पसंद नहीं करते हैं जिससे वह कक्षा के वातावरण नहीं कर पाता है और धीरे-धीरे अपने सहपाठियों के साथ ऑपरेशन और चिड़चिड़ा होता जाता है।

5️⃣भयभीत और आत्म केंद्रित होते हैं:-
ऐसी बालक वातावरण में भयभीत और आत्म केंद्रित होते हैं।

💦 समस्यात्मक व्यवहार के कारण

✨वंशानुक्रम:- वंशानुक्रम के कारण भी कभी-कभी बालक समस्यात्मक हो सकता है क्योंकि यह गुण हो सकता है कि उसके माता या पिता में भी हो सकता है गर्भ में बालक के विकास के समय उसमें आ गया हो जिससे बालक समस्यात्मक हो जाता है।

✨ मूल प्रवृत्तियों का दमन:-
मूल प्रवृत्तियों का दमन होने से उनकी भावना की ग्रंथि दब जाती है और असामाजिक व्यवहार बढ़ने लगते हैं।

✨शारीरिक दोष:-जब बालक सामान्य बालक से अलग होता है या बच्चे में शारीरिक दोष पाए जाते हैं तो उसमें हीन भावना आने लगती है और वह समस्यात्मक बालक का रूप ले लेता है।

✨ वातावरण:-
बच्चे को सही वातावरण उपलब्ध नहीं होता है तब भी बालक समस्यात्मक का रूप ले लेता है।

✨ माता पिता शिक्षकों का व्यवहार:-
माता-पिता और शिक्षकों का व्यवहार बच्चे के प्रति अच्छा होना चाहिए यदि ऐसा नहीं हुआ तो बालक समस्यात्मक हो जाते हैं।

✨ नैतिक शिक्षा का अभाव:-
समस्यात्मक बालक में नैतिक शिक्षा का अभाव पाया जाता है।

✨ परिवार का वातावरण:-
परिवार में माता-पिता और अन्य सदस्यों के या लड़ाई झगड़े से बच्चे समस्यात्मक हो जाते हैं

✨ सांवेगिक दोष:- समस्यात्मक बालकों में संवेग दोष होते हैं।

✍🏻✍🏻Notes by Raziya khan✍🏻✍🏻

🌷🌷 समस्यात्मक बालक🌷🌷

🌲 🌸🌸🌲समस्यात्मक बालक के लक्षण🌲🌸🌸🌲

🌳 निम्न मानसिक परेशानी :-

🌟 पैसे एवं वस्तुओं की चोरी करना।
🌟 स्कूल के कार्यों में सक्रिय ना होना।
🌟 किसी दूसरे को शारीरिक व मानसिक कष्ट देकर आनंद लेना।
🌟 अनुशासन का विरोध करना।
🌟 असहयोग की प्रवृत्ति।
🌟 बुरा आचरण करना।
🌟संदेह करना।
🌟 धोखा देना।
🌟 अश्लील बातें करना।
🌟 बिस्तर गिला करना।

🌟 पैसे एवं वस्तुओं की चोरी करना :-
🌸 पैसे एवं वस्तुओं की चोरी करना,बात – बात पर लड़ना झगड़ना, तथा दूसरों के लिए समस्याएं उत्पन्न करना समस्यात्मक बालकों की पहचान है।

🌟 स्कूल के कार्यों में सक्रिय ना होना :-
🌸 समस्यात्मक बालक स्कूल के कार्यों में सक्रिय रूप से भाग नहीं लेते बल्कि उनकी प्रक्रिया है सभी के लिए समस्याएं उत्पन्न करने वाला हीं होता है।

🌟 किसी दूसरे को शारीरिक व मानसिक कष्ट देकर आनंद लेना :-
🌸 समस्यात्मक बालकों की मानसिक स्थिति ऐसे होती है कि वह किसी भी व्यक्ति को मानसिक शारीरिक व अन्य किसी भी प्रकार का कष्ट देकर खुद आनंद उठाते हैं।

🌟 अनुशासन का विरोध करना :-
🌸समस्यात्मक बालक किसी भी अनुशासन का पालन नहीं करते,किसी से भी नहीं डरते।बल्कि कठोरता से उनका विरोध करते हैं।

🌟 असहयोग प्रवृत्ति :-
🌸 इस प्रकार के समस्यात्मक बालक किसी को भी किसी कार्य में सहायता नहीं देते बल्कि विभिन्न प्रकार की समस्याएं उत्पन्न करते रहते हैं।

🌟 बुरा आचरण करना :-
🌸 इस प्रकार के समस्यात्मक बालक उनकी मानसिक संतुलन ठीक नहीं होने के कारण किसी से भी अच्छा व्यवहार नहीं करते बल्कि सबके साथ उनका आचरण विचारणीय होता है।

🌟 संदेह करना :-
🌸 इस प्रकार के समस्यात्मक बालकों की मानसिक प्रक्रियाएँ ठीक नहीं होने के कारण ऐसे लोगों को किसी पर भी भरोसा करने की क्षमता नहीं होती है। ऐसे लोगों को किसी पर भी विश्वास नहीं होता है।जिससे वे हर एक व्यक्ति पर हमेशा संदेहात्मक निगाह से देखते हैं।

🌟 धोखा देना :-
🌸 समस्यात्मक बालकों का मानसिक संतुलन तथा सामंजस्य की स्थिति ठीक ना होने के कारण ऐसे लोग किसी की मदद करने के बजाय अपनी मानसिक प्रक्रिया संदेह के आवेश में आकर लोगों को धोखा दे देते हैं।

🌟 अश्लील बातें करना :-
🌸 ऐसे बालक दिन में कम उम्र में ही परिपक्वता आ जाती है और अश्लील बातें करना तथा अपराधिक कार्य करना पाया जाता है।वैसे लोगों को भी समस्यात्मक बालक कहा जाता है।क्योंकि समाज के लिए बहुत ही बड़ी समस्या उत्पन्न कर सकते हैं ।

🌟 बिस्तर गिला करना :-
🌸 बिस्तर गिला करना भी समस्यात्मक कार्य में आता है। क्योंकि यह भी एक उम्र तक ही सही रहता है अगर बड़े होने पर भी बिस्तर गिला करने की आदत रहे या हो जाए तो यह भी समस्यात्मक होता है। इसलिए इसका उपचार करना चाहिए।

🌳 अत्यधिक मानसिक परेशानी :-

🌟 मानसिक द्वंद्व से ग्रसित होना।
🌟 हीन भावना का शिकार होना।
🌟सीमा से अधिक कठोर व्यवहार करना।
🌟 अप्रसन्न और चिड़चिड़ा होना।
🌟 भयभीत और आत्म केंद्रित होना

🌟 मानसिक द्वंद्व से ग्रसित होना :-
🌸 ऐसी बालकों का मानसिक संतुलन ठीक नहीं होने के कारण उनके मन में अनेक प्रकार की उलझने होती है।तथा वे मानसिकता से ग्रसित होते हैं।

🌟 हीन भावना का शिकार होना :-
🌸 ऐसे बालक जब उनमें मानसिक द्वंद्व आ जाती है तथा परेशान रहते हैं तो उन्हें खुद के प्रति हीनभावना आ जाती है ।

🌟 सीमा से अधिक कठोर व्यवहार करना :-
🌸 समस्यात्मक बालक किसी से भी सामान्य रूप से व्यवहार नहीं करते तथा ऐसे बालक हमेशा विचलित रहते हैं।तथा सबसे बहुत अधिक कठोरता पूर्वक व्यवहार करते हैं।

🌟 अप्रसन्न और चिड़चिड़ा होना :-
🌸 जैसा कि हम जानते हैं कि इस प्रकार की समस्यात्मक बालकों में अत्यधिक अप्रसन्नता और चिड़चिड़ापन पाई जाती है।

🌟 भयभीत और आत्म केंद्रित होना :-
🌸 ऐसे समस्यात्मक बालक भयभीत होने के साथ – साथ आत्म केंद्रित भी होते हैं।

🌳 समस्यात्मक व्यवहार के कारण :-

🌟 वंशानुक्रम
🌟मूल प्रवृत्तियों का दमन
🌟 शारीरिक दोष
🌟 वातावरण
🌟 माता-पिता शिक्षकों का व्यवहार
🌟 नैतिक शिक्षा का अभाव
🌷 परिवार का वातावरण
🌷सांवेगिक दोष

🌿🌟🍁 वंशानुक्रम🍁🌟🌿

🌷 मूल प्रवृत्तियों का दमन
🌷 शारीरिक दोष

🌟 वंशानुक्रम :-
🌸 जो गुण हमें अपने अनुवांशिकता से प्राप्त होती है उसे वंशानुक्रम कहते हैं। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो पीढ़ी दर पीढ़ी है स्थानांतरित होती रहती है। इसके कारण भी बच्चे EQ/IQ में दोष के कारण समस्यात्मक हो जाते हैं।

🌷 मूल प्रवृत्तियों का दमन :-
🌸 ऐसे बालकों में मूल प्रवृत्तियों का दमन हो जाने के कारण भावनाओं की ग्रंथि दब जाती है जिससे उनमें असामाजिकता की भावना उत्पन्न हो जाती है।

🌷 शारीरिक दोष :
🌸 बच्चों में शारीरिक दोष होने के कारण उनमें हीन भावना आने लगती है तथा वे असामाजिक कार्य करने लगते हैं। जिससे उन्हें समस्यात्मक बालक माना जाने लगता है।

🌿🌟🍁वातावरण🍁🌟🌿

🌷 माता-पिता शिक्षकों का व्यवहार।
🌷नैतिक शिक्षा का अभाव।
🌷 परिवार का वातावरण।
🌷 सांवेगिक दोष।

🌟 वातावरण :-
🌸 यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो हमें अपने आसपास की परिवेश या घर – परिवार से प्राप्त होते हैं। तथा अगर उन्हें अपने इस वातावरण में सुदृढ़ और समायोजित स्थान ना मिले तो भी बच्चे समस्यात्मक हो जाते हैं।

🌷 माता-पिता तथा शिक्षकों का व्यवहार :-
🌸 अगर माता-पिता तथा शिक्षकों का व्यवहार उनके प्रति सकारात्मक ना हो तो भी बच्चे समस्यात्मक होने लगते हैं तथा वहीं बच्चे आगे चलकर अपराधी बच्चे बन जाते हैं।

🌷 नैतिक शिक्षा का अभाव :-
🌸 नैतिक शिक्षा का अभाव होने के कारण भी बच्चे समस्यात्मक बन जाते हैं।

🌷 परिवार का वातावरण :-
🌸 जैसा कि हम जानते हैं एक बच्चे की वृद्धि और विकास में परिवार का बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान होता है अगर परिवार में बच्चे को उचित स्थान ना मिले तथा उनके परिवार में उन्हें हमेशा कलह – द्वेष तथा झगड़ा – झंझट देखने को मिले तो भी बच्चे अपराधिक प्रवृत्ति के हो जाते हैं।

🌷 सांवेगिक दोष :-
🌸 समस्यात्मक बालकों में अनेक प्रकार के दोषों पाए जाते हैं जिसमें से एक दोस्त संवेगात्मक दोष भी होता है। किसी भी व्यक्ति में संवेगात्मक दोष होने से उनमें किसी भी चीज या वस्तु के प्रति किसी भी प्रकार की रूचि या भावना नहीं होती है।

🌟🍁🌿समाप्त 🌿🍁🌟

🌷🦚🌷Notes by :- Neha Kumari 😊

🙏🙏🙏🙏🙏धन्यवाद् 🙏🙏🙏🙏🙏

🌺☘️🍂 समस्यात्मक बालक 🍂☘️🌺

🍃 समस्यात्मक बालक के लक्षण 🍃

1️⃣ निम्न मानसिक परेशानी

💎 पैसे या वस्तु की चोरी करना➖ समस्यात्मक बालक अपनी जरूरतों या आवश्यकता को पूरा करने के लिए पैसे या वस्तु की चोरी करना प्रारंभ कर देते हैं।

💎 स्कूल के कार्यों में सक्रिय ना होना➖ समस्यात्मक बालक स्कूल के किसी भी कार्यों में भाग नहीं लेते हैं एवं किसी भी कार्य के लिए सक्रिय या क्रियाशील नहीं होते हैं अर्थात समस्यात्मक बालक को विद्यालय के किसी भी कार्य में करने में रूचि नहीं लेते हैं।

💎 किसी दूसरे को शारीरिक और मानसिक कष्ट देकर आनंद लेना➖ समस्यात्मक बालक कक्षा के या अन्य जगहों में दूसरे बालकों को शारीरिक व मानसिक कष्ट देकर आनंद की अनुभूति लेते हैं।

(जैसे कक्षा में किसी लड़की का बाल खींचना या किसी बालक को depression Me lana)

💎 अनुशासन का विरोध करना➖ समस्यात्मक बालक विद्यालय के अनुशासन या नियम का पालन नहीं करते हैं यह बालक हमेशा नियमों का विरोध करते हैं और हमेशा अनुशासन हीनता प्रदर्शित करते हैं।
(जैसे स्कूल समय से नहीं आना, क्लास बंक करना)

💎 बुरा आचरण करना➖ समस्यात्मक बालकों का छात्रों से या शिक्षकों से आचरण बुरा होता है अर्थात वह सभी के साथ बुरा व्यवहार करता है किसी से भी अच्छे से बात नहीं करता है।

💎 असहयोग की प्रवृत्ति➖ समस्यात्मक बालक किसी भी कार्य में किसी का सहयोग या मदद नहीं करते हैं और दूसरों के कार्य में बाधा उत्पन्न करते हैं।

💎 संदेह करना➖ समस्यात्मक बालक में संदेह की भावना होती है । अर्थात यदि समस्यात्मक बालक की इच्छा का दमन किया जाता है तो उनमें संदेह की भावना आ जाती है।

💎 धोखा देना➖ समस्यात्मक बालक धोखा देना जैसा कार्य भी करते हैं इन्हें ना किसी पर विश्वास होता है और ना ही दूसरों को इन बालकों पर विश्वास होता है अर्थात समस्यात्मक बालक किसी को भी अपने ऊपर भरोसा नहीं दिला पाते हैं। ये अपना काम निकलवाने के लिए धोखा देने का काम करते हैं।

💎 अश्लील बातें करना➖ समस्यात्मक बालक अश्लील बातें भी करते हैं जो सही नहीं है।

💎 बिस्तर गीला करना➖ मुख्यतः यदि 0-2 आयु के बच्चे बिस्तर गीला करते हैं तो ठीक है लेकिन एक समय के बाद बिस्तर गीला करना समस्यात्मक बालक की श्रेणी में आते हैं।

2️⃣ अत्यधिक मानसिक समस्या से ग्रसित

💎 मानसिक द्वंद से ग्रसित होना➖ समस्यात्मक बालक मानसिक द्वंद से ग्रसित होते हैं ये अनेक प्रकार के उलझनों में उलझे हुए होते हैं और किसी भी कार्य के लिए सही निर्णय नहीं ले पाते हैं।

💎 हीन भावना का शिकार➖ जब बालक को ऐसा लगने लगता है कि वह अब कुछ नहीं कर पाएगा या कुछ नहीं कर सकता तो उस बालक में हीन भावना आ जाती है तब वह बालक समस्यात्मक बालक कहलाता है।

💎 सीमा से अधिक कठोर व्यवहार करना➖ ऐसे बालक पत्थर दिल के हो जाते हैं जो सीमा से अधिक कठोर या दूसरों को कष्ट देने वाले व्यवहार करने लगते हैं और कुछ भी बोलने से पहले सोचते नहीं हैं कि वे क्या बोल रहे हैं । अर्थात किसी को emotionally कष्ट पहुंचा कर इन्हें आनंद की प्राप्ति होती है तो ऐसे बालक समस्यात्मक बालक होते हैं।

💎 अप्रसन्न और चिड़चिड़े रहते हैं➖ समस्यात्मक बालक अप्रसन्न और चिड़चिड़े होते हैं यह बालक किसी के खुशी में भी प्रसन्न नहीं होते हैं और इनमे हर बात के लिए चिड़चिड़ापन होता है। ऐसे बालक किसी सही बात के लिए भी चिड़चिड़ाने लगते हैं।

💎 भयभीत मगर आत्मकेंद्रित होते हैं➖ समस्यात्मक बालक भयभीत तो होते हैं लेकिन आत्म केंद्रित होते हैं ऐसे बालकों को किसी चीज से डर तो लगता है लेकिन वे दिखाते नहीं है और इस डर को मन ही मन रखे होने के कारण ये समस्या उत्पन्न करने लगते हैं। तो ऐसे बालक समस्यात्मक बालक की श्रेणी में आते हैं।

🧿 समस्यात्मक बालक के कारण➖ ऐसे अनेक कारण हैं जिसके कारण बालक समस्या से ग्रसित हो जाते हैं और समस्यात्मक बालक की श्रेणी में आते हैं➖

🍃🍂 वंशानुक्रम➖ वंशानुक्रम या अनुवांशिकता एक बड़ा कारण है जिसके कारण बालक समस्यात्मक बालक की श्रेणी में आ जाते हैं जैसे IQ, कोशिकाओं का विकास, हीन भावना अर्थात जो भी माता-पिता या विरासत से मिले हैं उसके कारण बालक समस्यात्मक बालक बन जाते हैं ‌।

🍂🍃 मूल प्रवृत्ति का दामन➖ मूल प्रवृत्तियों का दामन होने से उनकी भावना ग्रंथि दब जाती है और वह असामाजिक व्यवहार की तरफ बढ़ने लगते हैं।

(असामाजिक व्यवहार जैसे समाज की नियमों का हमेशा विरोध करना, समाज के कार्यों में सहयोग नहीं करना इत्यादि)

🍃🍂 शारीरिक दोष➖ बच्चों में शारीरिक दोष जैसे रूप, रंग, आकार इत्यादि के कारण भी इन बालकों में हीन भावना आ जाती है और यह शारीरिक दोष ही बालकों के लिए कारण बन जाता है,
समस्यात्मक बालक कहलाते हैं।

🍂🍃 वातावरण➖ वातावरण एक प्रमुख कारण है जिससे बालक समस्यात्मक बालकों के लक्षण प्रदर्शित करते हैं यदि बालकों को सही माहौल या उचित वातावरण नहीं मिलता है तो वे समस्यात्मक बालकों की तरह व्यवहार करने लगते हैं।

🍃🍂 माता-पिता शिक्षकों का व्यवहार➖ यदि माता पिता और शिक्षकों का व्यवहार बच्चे के लिए अच्छा या भावपूर्ण नहीं होता है तो बच्चे समस्यात्मक हो जाते हैं माता पिता और शिक्षकों का व्यवहार भी एक मुख्य कारण है जिससे बच्चे समस्यात्मक बालक की श्रेणी में आ जाते हैं।

🍂🍃 नैतिक शिक्षा का अभाव➖ समस्यात्मक बालकों में नैतिक शिक्षा का अभाव होता है बालकों में नैतिकता जैसे संस्कृति, सकारात्मक दृष्टिकोण, सोच, संस्कार ,अच्छे आचरण आदि का अभाव होने से बालक समस्यात्मक बालक हो जाते हैं।

🍂🍃 पारिवारिक वातावरण➖ परिवार में माता पिता और अन्य लोगों में आपसी कलह या लड़ाई झगड़े होने से भी बच्चे समस्यात्मक हो जाते हैं।

🍃🍂 सांवेगिक दोष➖ समस्यात्मक बालकों में सांवेगिक दोष और मनोवैज्ञानिक दोष भी होते हैं। इनमें किसी भी प्रकार की रुचि या किसी के लिए भी भावना नहीं होती है।

✍🏻notes by manisha gupta ✍🏻

🌺समस्यातमक बालक🌺
समस्यातमक बालक के लक्षण निम्न है –
📖 निम्न स्तर की मानसिक परेशानियां
🩸 चोरी करना – किसी के घर में या खुद के घर में ही पैसों ओर वस्तुओं को चुराना ।
🩸 कार्यों में सक्रिय ना होना – घर या स्कूल के कार्यों में बराबर सक्रिय ना होना ।
🩸दूसरों को दुख देना – ऐसे बालक दूसरों को शारीरिक या मानसिक पीड़ा पहुंचा कर आनन्द लेते है।
🩸 अनुशासन का विरोध – समस्यातमक बालक किसी भी अनुशासन को नहीं मानता है और अनुशासन विरोधी हो जाता है।
🩸असहयोग की प्रवृति – यह बालक किसी भी प्रकार के कार्यों में सहयोग नहीं करते है असहयोग की भावना में रहते है।
🩸 बुरा व्यवहार – ऐसे बालक सब के साथ बुरा व्यवहार करते है और परिवार के लिए समस्या उत्पन्न करते है।
🩸संदेह करना – समस्यातमक बालक हर बात पर संदेह करते है । आत्मविश्वास की कमी आ जाती है ।
🩸 धोखा देना – ऐसे बालक किसी के साथ भी विश्वाश पूर्ण व्यवहार नहीं रख पाते है इसलिए धोखा देने में सहज होते है।
🩸अश्लील बातें – ये बालक समय से पूर्व मानसिक रूप से परिपक्व होने लगते है । अपनी उम्र से ज्यादा मानसिक वृद्धि हो जाती है । इसलिए ऐसा होता है ।
🩸 बिस्तर गीला करना – यह प्रक्रिया मानसिक या शारीरिक रूप से समस्या के कारण हो सकती है।

📖 गंभीर मानसिक परेशानी 📖
🩸मानसिक द्वंद से ग्रसित – जब बालक एक ही समस्या में कई प्रकार से उलझ जाता है या असमंजस की भावना होती है ।
,🩸हीन भावना – बालक में शारीरिक मानसिक या समाजिक रूप से कोई ना कोई कमी होने के कारण हीन भावना आ जाती है जो समस्या उत्पन्न करती है।
🩸 अधिक कठोर व्यवहार – ऐसे बालक भावना हीन होते है उनमें कठोरता आ जाती है जिससे वह सीमा से अधिक कठोर हो जाते है ।
🩸 अप्रसन्न और चिड़चिड़ा – समस्यातमक बालक हमेशा अप्रसन्न और चिड़चिड़े होते है ।
🩸 भयभीत व आत्मकेंद्रित – ऐसे बालक जल्दी भयभीत और आत्मकेंद्रित होते है और जल्दी में कुछ गलत कर बैठते है ।

🌺 समस्यातमक। बालक के व्यवहार के कारण
🩸वंशा नुक्रम – माता पिता के कारण से बालक में अक्सर मानसिक या शारीरिक क्षमता की कमी आ जाती है ।
🩸मुल प्रवृत्तियों का दमन – बालक की मनो भावना को दबाने से उनमें हीन भावना आ जाती है और व्यवहार म परिवर्तन हो जाता है।
🩸शारीरिक दोष – इसके कारण बालक दूसरों से अपने आप को कम पता है और कुंठित हो जाता है ।
🩸 वातावरण – बालक को सही वातावरण ना मिल पाने के कारण भी बालक समस्यातमक बालक बन जाता है
🩸 माता पिता व अध्यापक का व्यवहार – बालक के प्रति अभिभावक और शिक्षक का व्यवहार सहानुभूति पूर्ण होना चाहिए जिससे बालक अपने भावों को सहजता से व्यक्त कर सके
🩸 नैतिक शिक्षा का अभाव – बालक को सामान्य नैतिक व्यवहार नहीं सीखने पर वह समाज में अव्हेलना का पत्र हो जाता है जिससे उसका समजिक व्यवहार नहीं हो पाता है।
,🩸परिवार का वातावरण – बालक के सर्वांगीण विकास के लिए परिवार का माहौल सकारात्मक होना जरूरी है अगर ऐसा नहीं है तो बालक पर विपरीत प्रभाव पड़ता है और वह समस्या उत्पन्न करता है।
🩸संवेगिक दोष – इस दोष के कारण बालक में भावनात्मक विकास नहीं हो पाता और वह अधिक कठोर या भयभीत रहने लगते है जो समस्यातमक बालक में आ जाते है।
Notes by – shubha dwivedi
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📒 समस्यात्मक बालक 📒
problem child

🔵 समस्यात्मक बालक के लक्षण
Symptoms of problematic child

▪️ निम्न मानसिक परेशानी ➖ समस्यात्मक बालक मानसिक रूप से परेशान रहते हैं किसी भी कार्य को सही ढंग से नहीं कर पाते हैं
जैसे-
▪️स्कूल के कार्यों में सक्रिय रूप से भाग नहीं लेते हैं।

▪️किसी दूसरे को शारीरिक और मानसिक कष्ट देकर मजे लेना और उनकी हंसी उड़ाना।

▪️पैसे ,वस्तु की चोरी करना➖ ऐसे बालक हमेशा अपने स्वार्थ के लिए चोरी करते हैं

▪️अनुशासन का विरोध करना➖ ऐसे बालक खुद भी अनुशासन हीन होते हैं और दूसरों को भी अनुशासन नहीं करने के विरोध में उकसाना गलत रास्ता दिखाते हैं

▪️बुरा आचरण करते➖ घर, परिवार, या समाज में बच्चों को बुरा भला कहते हैं किसी की इज्जत नहीं करते हैं

▪️ संदेह करना➖ ऐसे बालक हमेशा अपने मन में संदेह रखते हैं वह किसी भी सत्य ,असत्य को स्वीकार नहीं पाते हैं उन्हें हमेशा संदेह रहता है

▪️ धोखा देना ➖ हमेशा धोखा देते हैं छल कपट करते हैं और लोगों को ठगते हैं ।

▪️ अश्लील बातें करना ➖ जो बातें समाज में स्वीकार नहीं है वह बातें करना, असामाजिक कार्य के लिए बच्चों को हतोत्साहित करना

▪️ बिस्तर गिला करना ➖कहीं बच्चे बड़े होने के बाद भी बिस्तर गिला करते हैं यह एक समस्यात्मक बालक की श्रेणी में आते हैं

🔵 अत्यधिक मानसिक समस्या से ग्रसित
Suffering from severe mental problems

▪️ मानसिक द्वंद से ग्रसित होना
ऐसे बालक के अंदर हमेशा प्रतिद्वंदी की भावना होती है यह संघर्ष करने के लिए लोगों से हमेशा टकराते रहते हैं

▪️ हीन भावना का शिकार होना
यह अपना आत्मविश्वास खो देते हैं यह निर्णय लेने से डरते हैं किसी नया काम करने से पहले ही असफलता की चिंता होती है

▪️ सीमा से अधिक कठोर व्यवहार करना
यह अत्यधिक कठोर व्यवहार करते हैं इनका व्यवहार सभी से अलग होता है

▪️ अप्रसन्न और चिड़चिड़ी रहते हैं
यह हमेशा चिड़चिड़ा स्वभाव के रहते हैं इन्हें कोई खुशी नहीं होती किसी कार्य को देखकर

▪️ भयभीत मगर आत्म केंद्रित होते हैं
यह हमेशा दु:खी और भयभीत रहते हैं लेकिन यह आत्म केंद्रित होते हैं इन्हे किसी से मतलब नहीं होता है यह स्वयं में ही खोये रहते हैं

🔵 समस्यात्मक व्यवहार के कारण

🔹 वंशानुक्रम ➖ इनकी IQ कमजोर होती कोशिका का विकास सहि ढंग से नहीं होता हैं ऐसे कारणों से व्यक्ति गलत रास्ते पर चले जाते हैं

🔹 मूल प्रवृत्ति का दामन ➖ ऐसे बालकों की भावनाओं की ग्रंथि दब जाती है जिससे यह असामाजिक व्यवहार की तरफ बढ़ते हैं

🔹 शारीरिक दोष ➖ शारीरिक दोष के कारण यह हीन भावाना से ग्रस्त रहते हैं

🔹 वातावरण ➖ वातावरण के कारण भी अधिक समस्यात्मक होते हैं

🔹 माता, पिता, शिक्षक का व्यवहार
अगर माता-पिता ,शिक्षक का व्यवहार ठीक तरीके से नहीं होता है तो यह चिड़चिड़ा हो जाते हैं

🔹 परिवार का व्यवहार
अगर परिवार में भाई-बहन माता-पिता के लड़ाई झगड़े होते रहते हैं तो यह उनके लिए समस्यात्मक बन जाते हैं

🔹 नैतिक शिक्षा का अभाव
इनमें सामाजिक नैतिकता का अभाव पाया जाता है सामाजिक मर्यादा को यह तोड़ देते हैं

🔹 संवेगी दोष
संवेगात्मक दोष के कारण यह किसी भी कार्य में रुचि नहीं लेते हैं संवेगात्मक व्यवहार के कारण यह हमेशा ही समस्या उत्पन्न करते हैं

📒Notes by Sanu sanwle

∆ समस्यात्मक बालक :-
✓ वे बालक जिनका व्यवहार अथवा व्यक्तित्व किसी बात में गंभीर रूप से असाधारण होता है समस्यात्मक बालक होते हैं ” ……………. वैलेन्टाइन

∆ समस्यात्मक बालक के प्रकार :-

  1. अति कुशाग्र बालक
  2. अकाल प्रौढ़ बालक
  3. पिछड़े बालक

∆ समस्यात्मक बालक के गुण :-

  1. चोरी करना
  2. झूठ बोलना
  3. झगड़ा करना
    4.विद्यालय से भाग जाना
  4. छोटे बालकों को तंग करना
  5. गृहकार्य न करना
  6. कक्षा में देर से आना
  7. भयभीत रहना

∆ समस्यात्मक बालक बनने के कारण :-

  1. वातावरण
  2. शारीरिक दोष
  3. मूल प्रवृत्तियो का दमन
  4. नैतिकता का अभाव

∆ समस्यात्मक बालकों के निदान :-

  1. नैतिक शिक्षा
    2.संगति पर नजर
  2. मनोरंजन का अवसर
  3. संतुलित पाठ्यक्रम
  4. अध्यापक का आदर्शपूर्ण व्यवहार
  5. उचित जेब खर्च
  6. पुरस्कार

✴️ अपराधी बालक :-
✓ ऐसे बालक जो सामाजिक नियमों के प्रतिकूल व्यवहार करते हैं । उन्हे अपराधी बालक कहते हैं ‘ ………. न्यूमेयर
✓ 18 वर्ष तक की आयु के बालकों को बाल अपराध की श्रेणी में रखा जाता है ।
✓ ऐसे बालकों के लिए बाल सुधार गृह या बाल संप्रेषण गृह का प्रबन्ध किया जाता है ।
✓ भारत में 1897 ई . में 15 वर्ष के बालकों के समाज विरोधी व्यवहार को बाल अपराध माना गया है ।
✓ ऐसे बालक जिनकी समाज विरोधी प्रवृत्तियाँ इतनी गंभीर हो जाती हैं कि उनके प्रति सरकारी कार्यवाही आवश्यक हो जाती है ।

✴️ बाल अपराध के कारण :-

  1. आनुवांशिकता
    2.वातावरण
  2. पारिवारिक कारण
  3. सामाजिक कारण
  4. मन्द बुद्धि
  5. विमाता

✴️ अपराधी बालकों को सुधारने के उपाय :-
✓ अमेरिका में 1899 ई . में किशोर न्यायालय की स्थापना हुई । इसमें 13 वर्ष तक के अपराधियों का न्याय होता था ।
✓ वर्तमान में आयु 13 वर्ष से बढ़ाकर 21 वर्ष कर दी गयी है । भारत में दिल्ली और मुम्बई में किशोर न्यायालय की स्थापना

🇧 🇾 – ᴊᵃʸ ᴘʳᵃᵏᵃˢʰ ᴍᵃᵘʳʸᵃ

📖 समास्यात्मक बालक 📖

🌺🌻🌿🌻🌺 समस्यात्मक बालक के लक्षण🌺🌻🌿🌻🌺 समस्यात्मक बालक को पहचानने के लिए हमें कुछ विशेष लक्षण उस बालक में दिखाई देते हैं। उन लक्षणों के आधार पर हम यह पहचान कर सकते हैं, कि कौन सा बालक समस्यात्मक बालक है? एवं कौन सा बालक समस्यात्मक बालक नहीं है? क्योंकि हम यह जानते हैं, कि पहले हमें बालक की समस्या की पहचान करना होता है। उसके बाद ही हम उस वाला की समस्या का उपचार कर पाएंगे।

🌷🌿🌷 निम्न मानसिक परेशानी 🌷🌿🌷 यह समस्याएं निम्न स्तर की होती है। यह छोटे बालक बालिकाओं के लिए कह सकते हैं। यह बालक की समस्याओं पर सबसे नीचे स्तर होता है, जिस के निम्नलिखित लक्षण है~

👉🏻 रूपए, पैसे एवं वस्तुओं की चोरी करना~
जब बालक किसी भी प्रकार के कारण से रुपए की चोरी करता है, एवं छोटी मोटी वस्तुओं की चोरी करता है। तो हम पहचान कर पाते हैं, कि यह बालक समस्यात्मक बालक की श्रेणी में आता है। क्योंकि चोरी करना नैतिक नियमों के विरुद्ध है, लेकिन बालक समस्यात्मक बालक है, तो वह इस कार्य को करता है।

👉🏻 स्कूल के कार्यों में सक्रिय न होना~
समस्यात्मक बालक की पहचान करने में हमें एक पहलू दिखाई देता है, कि वह स्कूल द्वारा दिए गए कार्यों को एवं शिक्षक द्वारा दिए गए कार्यों को पूर्ण नहीं करता है। उन कार्यों में अपनी सक्रिय भागीदारी नहीं होता है। इस आधार पर हम यह जान सकते हैं, कि बालक समस्यात्मक वर्ग में है।

👉🏻 अन्य व्यक्तियों को शारीरिक व मानसिक कष्ट देकर आनंद लेना~
समस्यात्मक बालकों में ऐसी प्रवृत्ति होती है, जिससे कि वह दूसरे व्यक्तियों को परेशान करते हैं। उन्हें शारीरिक रूप से हानि पहुंचाते हैं, उन्हें मानसिक पीड़ा देना इत्यादि अन्य प्रकार के कार्य समस्यात्मक बालक करते हैं। वह कई ऐसे व्यक्ति जो कि शारीरिक व मानसिक रूप से पहले से ही ग्रसित हैं। उन व्यक्तियों को वह समस्या देते हैं, कष्ट पहुंचाते हैं, इन सब प्रकार के कार्य करने में समस्यात्मक बालक को आनंद की अनुभूति होती है।

👉🏻 अनुशासन का विरोध करना~
समस्यात्मक बालक हमेशा अनुशासन का पालन नहीं करते हैं, वह किसी न किसी प्रकार से अनुशासन में भंग डालने का प्रयास करते हैं। अगर कोई उन्हें किसी भी प्रकार का कार्य है, जो कि अनुशासन से संबंधित हो या अनुशासन में रहकर किया जाए तो वह उस अनुशासन को जरूर तोड़ते हैं। अर्थात हम कह सकते हैं, कि वह अनुशासन का पालन नहीं करते, वे अनुशासन विरोधी होते हैं।

👉🏻 असहयोग की प्रवृत्ति~
समस्यात्मक बालक किसी भी असहाय या जरूरतमंद व्यक्तियों की कभी भी किसी भी प्रकार से मदद नहीं करते हैं। वह अन्य व्यक्तियों को सहयोग ना करने की प्रवृत्ति रखते हैं। अर्थात हम कह सकते हैं, कि समस्यात्मक बालक मे सहयोग की प्रवृत्ति नहीं होती है। बल्कि असहयोग की भावना निवासित रहती है।

👉🏻 संदेह करना एवं धोखा देना~
समस्यात्मक बालक की यह विशेषता होती है, कि वह हमेशा ही अन्य व्यक्तियों पर संदेह करते रहते हैं। अतः हम कह सकते हैं, कि समस्यात्मक बालक में संदेह की प्रवृत्ति होती है।
और समस्यात्मक बालकों में धोखा देने की प्रवृत्ति भी होती है, वह किसी भी अन्य व्यक्तियों को किसी भी प्रकार का धोखा देते रहते हैं। अतः वह एक पल में कुछ ओर एवं दूसरे ही पल में कुछ ओर दिखाते जाते हैं।

👉🏻 बुरा आचरण करना~
जैसा कि पिछले लक्षणों से यह स्पष्ट हो चुका है, कि समस्यात्मक बालक किसी भी प्रकार का मदद कार्य या सहयोग भरा कार्य नहीं करते हैं। इसी के साथ-साथ वह हमेशा ही अन्य व्यक्तियों से बुरा आचरण करते हैं। उन बालको में अच्छे आचरण करने की प्रवृत्ति नहीं पाई जाती है।

👉🏻 अश्लील बातें करना~
जब बालक कुछ इस प्रकार की बातें करने लगता है जिन बातों का या जिन बातों को समाज में एवं घर में मान्यता नहीं दी जाती है इस प्रकार की बातों को हम कह सकते हैं कि बालक अश्लील बातें करने लगता है।

👉🏻विस्तार गीला करना~
सामान्यता हम सभी जानते हैं कि यह छोटे बालकों के लक्षण है लेकिन यही लक्षण एक उम्र के पश्चात बड़े बच्चों में भी होने लगती है तो यह समस्या का स्वरूप धारण कर लेते हैं अर्थात जब बालक बाल अवस्था से निकलने लगता है उसके पश्चात अगर इस प्रकार के लक्षण दिखाई दे तो बालक समस्यात्मक होगा।

🌷🌿🌷 अत्याधिक मानसिक परेशानी 🌷🌿🌷 यह परेशानियां उच्च स्तर पर होती है। अर्थात जब बालक बड़ा हो जाता है। जब इस प्रकार के लक्षण उसमें दिखाई देते हैं। पूर्व में लिखित लक्षण निम्न स्तर के होते हैं। वह बालक के शुरुआती लक्षण होते हैं, लेकिन इन लक्षणों के पश्चात बालक कभी-कभी अपराधी एवं आतंकवादी स्वरूप धारण कर लेता है। वह लक्षण निम्नलिखित है~

👉🏻 मानसिक द्वंद से ग्रसित होना~
समस्यात्मक बालक जब अत्यधिक मानसिक द्वंद से ग्रसित हो जाता है। अर्थात जब बालक अन्य विभिन्न प्रकार की समस्याओं में से या विभिन्न प्रकार के कार्यों में से एक का चयन नहीं कर पाता है। तब हम कह सकते हैं, कि बालक मानसिक द्वंद्व से ग्रसित है।

👉🏻 हीन भावना का शिकार होना~
अगर बालक किसी व्यक्ति के साथ वार्तालाप करता है। लेकिन उसी बीच में बालक को उस व्यक्ति की कुछ बातें उसे पसंद नहीं आती है। या उन बातों का वह गलत अर्थ निकाल लेता है। तो उस व्यक्ति के प्रति बालक की हीन भावना होने लगती है।

👉🏻 सीमा से अधिक कठोर व्यवहार करना~
इन बालकों में ऐसी प्रवृत्ति पाई जाती है, जिससे कि यह अन्य व्यक्तियों के साथ कठोर व्यवहार करते हैं। सामान्यता कठोर व्यवहार कुछ हद तक ठीक है, लेकिन समस्यात्मक बालक का व्यवहार सीमा से अधिक कठोरता दर्शाता है। जो कि किसी भी प्रकार से ठीक नहीं है। अतः सीमा से अधिक व्यवहार या कठोर व्यवहार करना अनुचित है।

👉🏻 अप्रसन्न एवं चिड़चिड़े रहना~
समस्यात्मक बालक अधिकतर प्रसन्न नहीं रहते हैं। उनकी प्रसन्नता का कारण है, कि वह कठोर व्यवहार करते हैं। अन्य व्यक्तियों को परेशान करते हैं, जिससे कि वह व्यक्ति समस्यात्मक बालक से संबंध नहीं रखना चाहते हैं। जिस कारण से समस्यात्मक बालक अप्रसन्न एवं चिड़चिड़ा व्यवहार प्रारंभ कर देते हैं।

👉🏻 भयभीत एवं आत्म केंद्रित रहना~
समस्यात्मक बालक अपनी परेशानियों एवं अपनी भावनाओं को दूसरे के सामने प्रस्तुत नहीं कर पाते हैं। जिससे कि वह अंदर ही अंदर भयभीत होते रहते हैं, और उन में भय की प्रवृत्ति रहने लगती है। जिस कारण से बालक आत्म केंद्रित हो जाते हैं। अन्य व्यक्तियों के साथ वह अपने व्यवहार नहीं बाट पाते हैं।

🌷🌿🌷समस्यात्मक व्यवहार के कारण 🌷🌿🌷 समस्यात्मक बालकों में समस्यात्मक व्यवहार होने के कई कारण होते हैं जिन कारणों से बालक समस्यात्मक प्रगति का हो जाता है उन कारणों में से कुछ कारणों का वर्णन निम्नलिखित हैं~

👉🏻 वंशानुक्रम~
समस्यात्मक बालकों के समस्यात्मक व्यवहार का यह कारण हो सकता है, कि अगर के माता-पिता या उसके वंशानुक्रम में समस्यात्मक व्यवहार करने वाले व्यक्ति है, तो सामान्यतः बालक वही समस्यात्मक ही होगा। इन बालकों की बुद्धि लब्धि एवं इनकी बुद्धि पर भी वंशानुक्रम का प्रभाव पड़ता है।

👉🏻 मूल प्रवृत्तियों का दमन~
समस्यात्मक बालकों की समस्या अथवा प्रवृत्ति के होने का एक कारण यह भी हो सकता है, कि बालक की मूल प्रवृत्तियां पूर्ण नहीं हो पाती है, या उनका दमन किया जाता है। जिससे कि उनमें हीन भावना उत्पन्न होने लगती है। अतः वह समस्यात्मक बालक का स्वरूप धारण कर लेते हैं।

👉🏻 शारीरिक दोष~
कुछ बालक इस प्रकार के होते हैं, जो कि अपने शारीरिक दोषों के कारण से समस्यात्मक व्यवहार करने लगते हैं। जैसे कि एक बालक दिव्यांग है, उस बालक को कई बार शारीरिक एवं मानसिक रूप से परेशान किया जाता है। जिससे कि वह समस्यात्मक स्वरूप ले लेता है। अतः समस्यात्मक व्यवहार का कारण शारीरिक दोष भी हो सकते हैं।

👉🏻 वातावरण~
हम सभी यह भली-भांति प्रकार से जानते हैं, कि बालक का किसी भी प्रकार का विकास हो चाहे वह अच्छा हो या बुरा हो वातावरण सदैव ही संबंधित रहता है। अतः बालक का जिस प्रकार का वातावरण होगा बालक भी उसी प्रकार का आचरण करेगा। अतः हम कह सकते हैं, कि बालक के समस्यात्मक होने का एक कारण वातावरण भी है।

👉🏻 माता पिता एवं शिक्षक का व्यवहार~
बालक जन्म से ही अपने माता-पिता एवं परिवार के साथ रहता है। उनका व्यवहार बालक के लिए सबसे महत्वपूर्ण होता है। जिस प्रकार का व्यवहार माता पिता एवं परिवार वाले करेंगे बालक भी उसी प्रकार का व्यवहार करेगा, एवं माता पिता के पश्चात बालक शिक्षक के संपर्क में अधिक रहता है। माता पिता एवं शिक्षक के व्यवहार से ही बालक अत्यधिक प्रभावित होता है। अगर इनका व्यवहार बालक के प्रति अनुचित रहा तो बालक समस्यात्मक स्वरूप धारण कर लेगा।

👉🏻 नैतिक शिक्षा का अभाव~
जैसा कि हम जानते हैं, अगर समस्यात्मक बालक का वातावरण, माता पिता एवं अन्य संपर्क में रहने वाले व्यक्तियों का व्यवहार अनुचित होगा। तो बालक का व्यवहार भी अनुचित होगा। ठीक उसी प्रकार से अगर बालक को नैतिक शिक्षा की प्राप्ति नहीं होती है। तो बालक अनैतिक होने लगता है, एवं अनैतिक कार्यों को भी करने लगता है। अतः हम कह सकते हैं, कि समस्यात्मक व्यवहार का कारण बालक में नैतिक शिक्षा के अभाव से होता है।

👉🏻 परिवार का वातावरण~
परिवार का वातावरण बालक के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जैसा कि हम पूर्व में जान चुके हैं, कि माता-पिता एवं शिक्षक बालक के लिए महत्वपूर्ण होता है। एवं माता-पिता के अलावा अन्य परिवार के व्यक्ति भी बालक के लिए उतने ही महत्वपूर्ण होते हैं। अगर परिवार के अन्य सदस्यों का व्यवहार भी बालक के प्रति ठीक नहीं होगा, तो बालक समस्यात्मक हो जाता है। अतः आप परिवार का अनुच्छेद वातावरण भी बालक को प्रभावित करता है।

👉🏻 सांवेगिक दोष~
बालक कठोर व्यवहार करने लगता है। बालक में मानसिक दद्वंता होती है, जिससे कि वह अपने संबंधों को व्यवस्थित नहीं रख पाता है। एवं बालक में सांवेगिक रूप से दोष पाए जाते हैं। बालक भावात्मक रूप से भी स्थिर नहीं रहता है। 📚📚📗 समाप्त 📗📚📚

✍🏻 PRIYANKA AHIRWAR ✍🏻

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💐💐 समस्यात्मक बालक💐
🌸 समस्यात्मक बालक का व्यवहार समस्या उत्पन्न करना है और सामान्य नहीं होता है वो समस्यात्मक बालक कहलाते हैं।

💐💐 समस्यात्मक बालक के लक्षण💐💐
⛲ सभी बच्चे अलग-अलग तरह के समस्या उत्पन्न करते हैं।
🌻🌻 समस्यात्मक बालक दो तरह के होते हैं🌻🌻
👁‍🗨 निम्न मानसिक परेशानी
1.⛲पैसे या वस्तु की चोरी करना किसी के साथ झगड़ा करना बात बात पर यह सब समस्यात्मक बालक के लक्षण है।

2.⛲ स्कूल के कार्यों में सक्रिय ना होना क्या पढ़ रहा है वह ध्यान नहीं देते हैं वह दूसरे बच्चों को पढ़ने में परेशानी करते हैं और शिक्षक को भी पढ़ाने में समस्या उत्पन्न करते हैं यह समस्यात्मक बालक के लक्षण है।
3⛲ समस्यात्मक बालक के किसी दूसरे को शारीरिक और मानसिक कष्ट देकर उन्हें बहुत आनंद आता है।
4⛲ अनुशासन का विरोध करना:- अगर बच्चे कोई बात नहीं मानता और अनुशासन का पालन नहीं करते हैं जैसे-स्कूल में स्कूल ड्रेस नहीं पहन कर जाते हैं और वह अनुशासन तोड़ते हैं मगर नहीं मानते हैं वह अनुशासन का विरोध करते हैं विद्यार्थी को ऐसा नहीं करना चाहिए यह समस्यात्मक बालक के लक्षण है।

5⛲ बुरा आचरण करना:- गाली देना असाधारण व्यवहार करना किसी की बात नहीं मानना यह सब बुरा आचरण है जो कि समस्यात्मक बालक के लक्षण है।
6⛲ असहयोग की प्रवृत्ति:- किसी को सहयोग नहीं करना यह भी समस्यात्मक बालक की लक्षण है असहयोग की प्रवृत्ति नहीं रखनी चाहिए यह बालक किसी को भी सहायता नहीं करते हैं बल्कि यह विभिन्न प्रकार के समस्या उत्पन्न करते हैं।
7⛲ संदेह करना:- किसी काम के प्रति संदेह करना समस्यात्मक बालक किसी पर विश्वास नहीं करते हैं और और वह हमेशा सभी पर संदेह करते रहते हैं।
8⛲ धोखा देना:- धोखा देना भी समस्यात्मक श्रेणी में आता है इसे हमारा व्यवहार सोच पता चलता है।
9⛲ अश्लील बातें करना:- समस्यात्मक बालक के जो बहुत कम उम्र में ही इनमें परिपक्वता आ जाती है और यह अश्लील बातें करते हैं जो कि समाज के लिए सही नहीं है और ये बालक समस्यात्मक उत्पन्न करते हैं।

  1. बिस्तर गिला करना:- बिस्तर गिला करना भी यह भी समस्यात्मक बालक के लक्षण है क्योंकि एक समय तक ही सही है अगर उम्र के बाद भी अगर ऐसा काम करते हैं यह समस्यात्मक होता है और इसका उपचार करना चाहिए ।
    💐💐 अत्यधिक मानसिक समस्या से ग्रसित है💐💐
    1⛲ मानसिक मंद से ग्रसित होना:- ऐसे बालों को मानसिक रूप से बहुत ही उथल-पुथल होती रहती है जिसके कारण उनके मन में अनेक प्रकार की उलझनें होती है ये मानसिक रूप से ग्रसित होते हैं।
    2⛲ हीन भावना का शिकार होना:- जो मन में आए वह बोलना चाहिए मन में किसी बात को नहीं रखना चाहिए ऐसे में मानसिक परेशानी आती है जो खुद के प्रति हीन भावना आती है।

3⛲ सीमा से अधिक कठोर व्यवहार करना:- ऐसे बालक हमेशा सामान्य रूप से व्यवहार नहीं करते हैं और सीमा से अधिक कठोर व्यवहार करते हैं।
4⛲अप्रसन्न और चिड़चिडे होते हैं:- ऐसे बालक हमेशा प्रश्न और चित्र होते हैं किसी के भी खुशी में यह खुश नहीं होते हैं किसी भी बात पे चिढ़ने लगते हैं।
5⛲ भयभीत मगर आत्म केंद्रित होते हैं:- डर किसी भी चीज से लगती है आत्म केंद्रित हो जाते हैं तो हीन भावना का शिकार खुद नहीं हो पाते हैं इन सभी के कारण हीन भावना का द्ववनद होते है बोल रहे हैं तो डर लगता है और बोल नहीं रहे होते हैं तो डर नहीं लगता है।
💐💐 समस्यात्मक व्यवहार के कारण💐💐
1⛲ वंशानुक्रम:- कई बार अक्षमता से ग्रसित होते हैं उनमें हीनता की भावना आती है जैसे काला गोरा या कोई और अक्षमता होती है जो समाज में सही नहीं मानते हैं और बुद्धि लब्धि किसी का कम होता है तो हीन भावना आती है वह ठीक करने के बजाय गलत रास्ते में चले जाते हैं कुछ लोग गलत दिशा में चले जाते हैं कुछ लोग सही दिशा में रहते हैं अब उनमें यह निर्णय खुद का होता है।
2⛲ मूल प्रवृत्ति का दमन:- मूल प्रवृत्ति का दमन भावना गलती से दब जाती है और इससे असामाजिक व्यवहार की तरफ बढ़ने लगते हैं अनेक प्रकार के मूल प्रवृत्ति होते हैं। जैसे जैसे समाज के नियमों का नहीं मानना उनका विरोध करना यह सब असामाजिक व्यवहार में आएगा।
3⛲ शारीरिक दोष:- वंशानुक्रम या किसी कारण से हो जाता है और उनमें हीन भावना आ जाती है जैसे काला गोरा रंग यह सब हीन भावना बच्चों में उत्पन्न करती हैं।
4⛲ वातावरण:- वातावरण अगर सही है तो बच्चे अच्छा व्यवहार सीखते है बालक को अगर सही वातावरण नहीं मिलता है तो वह समस्यात्मक बालको की तरह व्यवहार करने लगते है क्योंकि बच्चे के विकास में वातावरण का बहुत बड़ा हाथ होता है।
5⛲ माता-पिता और शिक्षकों का व्यवहार:- माता पिता का भी बच्चों के व्यवहार पर निर्भर करता अगर शिक्षक अच्छे से पढ़ाते हैं तो बच्चे ध्यान देकर पढ़ते अगर कोई शिक्षक बच्चे को नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं तो वह बच्चों को समझते नहीं है इसलिए बच्चे भी समस्यात्मक बालक की तरह ही व्यवहार करते हैं क्योंकि माता पिता और शिक्षक का बहुत बड़ा हाथ होता है अगर सही दिशा नहीं मिलता है तो वह बच्चे समस्यात्मक बालक की श्रेणी में आ जाते है।
6⛲ परिवार का वातावरण:- परिवार का वातावरण भी बच्चों के लिए समस्यात्मक उत्पन्न करती है जैसे किसी के सिंगल पैरंट्स होते हैं जो उन्हें सही से ध्यान नहीं दे पाते हैं इससे बच्चे में समस्या उत्पन्न होती है।
7⛲ नैतिक शिक्षा का अभाव:- नैतिक शिक्षा का होना बहुत जरूरी है से सामाजिकता का साथ होता है समस्यात्मक बालकों में नैतिक शिक्षा का अभाव होता जैसे संस्कृति सोच अच्छे आचरण का भाव होता है ऐसे बालक समस्यात्मक हो जाते हैं।
8⛲ सांवेगिक दोष:- ऐसे बालक में सांवेगिक दोष और मनोवैज्ञानिक दोष दोनों होता है जिसे किसी भी प्रकार की रुचि का विकास नहीं हो पाता है।

💐💐Notes By :-Neha Roy

🔰 समस्यात्मक बालक के लक्षण🔰

समस्यात्मक बालक के निम्न लक्षण हैं

A निम्न मानसिक परेशानी

1 पैसे या वस्तु की चोरी करना:- समस्यात्मक बालक बाल होते हैं जो अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए किसी और के पैसे या किसी वस्तु की चोरी करते हैं जैसे पेंसिल चुराना बुक slate आदि चुराना

2 स्कूल के कार्य में सक्रिय ना होना:- समस्यात्मक बालक स्कूल के किसी कार्य में सक्रिय नहीं होते हैं स्कूल में क्या हो रहा है उन्हें उससे किसी भी प्रकार का मतलब नहीं होता

3 किसी दूसरे को शारीरिक या मानसिक कष्ट देकर उसका आनंद लेना:- समस्यात्मक बालक किसी भी व्यक्ति को शारीरिक या मानसिक कष्ट दे सकता है तथा उसने वह अपने आनंद की अनुभूति करता है जैसे खेलते हुए किसी को धक्का दे देना किसी भी बच्चे को उल्टा सीधा बोल देना आदि

4 अनुशासन का विरोध करना:- समस्यात्मक बालक से हम अनुशासन की कल्पना भी नहीं कर सकते क्योंकि यह बालक अनुशासन भंग करने में सबसे आगे होते हैं जैसे शिक्षक कोई कार्य को देता है तो वह कभी करके नहीं लाते स्कूल देर से आना स्कूल यूनिफॉर्म में स्कूल नहीं आना गृह कार्य करके नहीं लाना

5 बुरा आचरण करना:- समस्यात्मक बालक किसी के साथ भी अच्छा व्यवहार नहीं करते हमेशा दूसरों से ऐसे बात करते हैं जिससे लोगों को बुरा लगता है वह ऐसा करके अपने आप में खुशी का अनुभव करते हैं वह सोचते हैं कि स्कूल में हमारा राज चलता है स्कूल में अपनी दादागिरी दिखाते हैं गाली गलौच करते हैं

6 असहयोग की प्रवृत्ति करना :- समस्यात्मक बालक किसी भी बच्चे को सहयोग प्रदान नहीं करते वह हमेशा असहयोग की प्रवृत्ति को निभाते हैं

7 संदेह करना:- समस्यात्मक बालक किसी सामने वाले बच्चे से यदि किसी प्रकार की अपेक्षा रखता है और वह पूरी नहीं होती है तो उसे संदेह की दृष्टि से देखता है

8 धोखा देना:- समस्यात्मक बालक हमेशा दूसरों को धोखा देता रहता है वह कभी किसी के विश्वास का पात्र नहीं बन पाता

9 अश्लील बातें करना:- समस्यात्मक बालक अश्लील बातें करते हैं एवं वहां के माहौल को गंदा बनाते हैं यह बहुत ही बड़ी समस्या है इसका प्रभाव दूसरे लोगों पर भी पड़ता है

10 बिस्तर गीला करना:- बिस्तर गीला करने की आदत छोटे बच्चों में तो नॉर्मल होती है परंतु एक उम्र के बाद जब बच्चे स्कूल जाने लगता है उसके बाद यदि वह बिस्तर को गीला करता है तो वह समस्यात्मक बालक हो सकता है

B अत्यधिक मानसिक समस्या से ग्रसित

1 मानसिक द्वंद से ग्रसित:- कोई भी व्यक्ति यदि उसके मन में किसी भी प्रकार की शंका या कोई बात होती है तो वह साफ-साफ किसी और से कह देता है तो अच्छा होता है परंतु जो बच्चे अपने मन की बातों को अपने मन में ही रखते हैं और अंदर ही अंदर उसमें घुटते रहते है तो यह उनकी दिमाग को भारी क्षति पहुंचाता है

2 हीन भावना का शिकार होना:- मानसिक रूप से ग्रसित बच्चे दूसरों को देखकर अपने आप में हीन भावना का व्यवहार अपना लेते हैं

3 सीमा से अधिक कठोर व्यवहार करना:- समस्यात्मक बालक व्यवहार्यता की हद को पार कर देते हैं मैं अपने आप में इतना कठोर व्यवहार करते हैं कि उस से निकलना नामुमकिन सा लगता है

4 अप्रसन्न और चिड़चिड़े रहते हैं:- समस्यात्मक बालक हमेशा अप्रसन्न मिजाज मे रहते हैं वह छोटी छोटी सी बातों पर चिड़चिड़े हो जाते हैं उनमे उत्साह की कमी होती है

5 भयभीत मगर आत्म केंद्रित होते हैं:- समस्यात्मक बालक परेशानियों से तो घबराते हैं और वह किसी के साथ उन परेशानियों को शेयर नहीं करते हैं वह अपने आप में आत्म केंद्रित रहते हैं यह एक बहुत ही दुखद समस्या है

C समस्यात्मक व्यवहार के कारण

1 वंशानुक्रम:- वंशानुक्रम के कारण भी निम्न प्रकार की समस्याएं आ जाती हैं
आई क्यू लेवल कम होना कोशिकाओं का विकास सही तरीके से ना होना जिससे बच्चों में हीन भावना आ जाती है

2 मूल प्रवृति का दमन :- भावनात्मक ग्रंथियों का दमन हो जाता है बच्चे असामाजिक व्यवहार करने लगते हैं

3 शारीरिक दोष :- कई बार देखा जाता है कि बच्चों का शरीर ही उनकी समस्या का कारण बन जाता है शरीर की बनावट या शरीर अच्छा ना होना यह भी समस्या का एक कारण बन जाता है जिससे दूसरे बच्चे उनको चढ़ाने लगते हैं और वह समस्या गत व्यवहार करने लगता है

4 वातावरण:- वातावरण के कारण भी बच्चे समस्या की प्रवृत्ति को अपनाते हैं बच्चों को वैसा माहौल नहीं मिल पाता जिस प्रकार से उन्हें मिलना चाहिए बच्चा बचपन से जिस प्रकार से देखता है वह उसी प्रकार से सीखता है

5 माता-पिता और शिक्षकों का व्यवहार:- यदि बच्चे के माता-पिता और शिक्षकों का व्यवहार बच्चों के प्रति सही नहीं है तो बच्चा समस्यात्मक बालक बन जाता है

6 परिवार का वातावरण:- यदि बच्चे के परिवार का वातावरण सही नहीं है तो भी वह समस्यात्मक बालक बन जाता है

7 नैतिकता शिक्षा का अभाव:- समस्यात्मक बालक कहीं भी किसी भी प्रकार की नैतिकता नहीं दिखाते हैं उनमें नैतिक शिक्षा का अभाव होता है परंतु सभी में नैतिक शिक्षा होना जरूरी है हमें बंद कमरे में भी अपनी नैतिकता दिखानी चाहिए

8 सांवेगिक दोष :- संवेद मनोवैज्ञानिक रुप में समस्यात्मक व्यवहार है समस्यात्मक बालक अपने संबंधों पर नियंत्रण नहीं रख पाते जिससे वह समस्यात्मक बालक की श्रेणी में आते हैं।🙏🙏 सपना साहू 🙏🙏

◼️ समस्यात्मक बालक के लक्षण– जैसा कि समस्यात्मक बालक किसी न किसी रूप में समस्या उत्पन्न करते हैं, तथा प्रत्येक बच्चे अलग-अलग प्रकार से समस्याएं उत्पन्न करते है तो, जिसके कारण समस्यात्मक बालक के लक्षण को दो भागों में बांटा गया है–

A. निम्न मानसिक परेशानी
B. अत्यधिक मानसिक दक्षता

▪️ A. निम्न मानसिक परेशानी– इसमें बच्चे की समस्या को एक छोटे स्तर पर देखा जाता हैं, जैसे कि,जो बच्चे शुरुआती अवस्था के समय समस्या उत्पन्न करते है उनमें समस्या निम्न मानसिक परेशानी के कारण से उत्पन्न होती है , जो जो निम्न है–

▪️ १. पैसे/वस्तु की चोरी करना– चोरी करना भी समस्यात्मक बालक का एक लक्षण है । जैसे कि कुछ बच्चे अपने घर से ,पास–पड़ोस के घर से या विद्यालय में किसी के भी वस्तु , समान या पैसे को चुरा लेते हैं और ऐसे बच्चों को चोरी करने की आदत भी पड़ जाती है जिसके कारण यह दूसरों के लिए समस्या उत्पन्न कर देते हैं।

▪️ २. स्कूल के कार्यों में सक्रिय ना होना– समस्यात्मक बच्चे स्कूल के कार्यक्रम जैसे–गणतंत्र दिवस,स्वतंत्रता दिवस, बाल दिवस एवं स्कूल द्वारा कराए गए किसी भी प्रकार गतिविधियों में सक्रिय नहीं रहते हैं।तथा ऐसे बच्चो को इन सभी कार्यों से कोई मतलब भी नहीं रहता है।

▪️ ३. किसी दूसरे को शारीरिक व मानसिक कष्ट देकर आनंद लेना– समस्यात्मक बालक किसी दूसरे को शारीरिक व मानसिक रूप से कष्ट देकर आनंद प्राप्त करते हैं जैसे–हमेशा किसी न किसी का मजाक उड़ाना , मजाक– मजाक में किसीको पीट देना या चोट मार देना, बेवजह किसी बच्चे को परेशान करना, अपने पैर से फंसाकर गिरा या धक्का दे देना आदि तरीकों से ये शारीरिक व मानसिक रूप से कष्ट देकर सबके लिए समस्या उत्पन्न कर देते हैं और खुद आनंद लेते हैं।

▪️ ४. अनुशासन का विरोध करना– समस्यात्मक बच्चे विद्यालय के अनुशासन व नियमों का विरोध या उल्लंघन करते हैं जैसे– सभी बच्चे को स्कूल/कक्षा में एक लाइन से बैठने के लिए कहा जाता है तो, कुछ बच्चे उस लाइन में न बैठ कर अपनी अलग लाइन में बैठ जाते हैं। और वे शिक्षक कि बातों व नियमों को न मानकर उनका उल्लंघन करते हैं और कक्षा में समस्या उत्पन्न करते हैं।

▪️ ५. बुरा आचरण करना– समस्यात्मक बालक अपने से बड़े व छोटे के साथ बुरा आचरण करते हैं। जैसे– गाली देना, बड़ों की बात को दोहराना व न मानना, किसी के ऊपर थूक देना या काट लेना , आदि बुरे आचरण करते हैं।

▪️ ६. असहयोग की प्रवृत्ति रखना– समस्यात्मक बालक किसी के कार्यों में असहयोग की भावना रखते हैं तथा उनके कार्यों में बाधा उत्पन्न करते हैं जैसे– अगर कोई व्यक्ति कहता है कि बच्चे मेरे इस काम या वस्तु को यहां से वहां ले जाने में मेरी थोड़ी मदद कर दो ,तो वह उस कार्य को करने से मना कर देता है और उल्टा उस व्यक्ति को परेशान करता है।

▪️ ७. संदेह करना– समस्यात्मक बालक को हमेशा किसी ने किसी बात पर संदेह रहता है तथा सही और गलत में अंतर नहीं कर पाते हैं।

▪️ ८. धोखा देना– जैसा कि समस्यात्मक बालक किसी न किसी रूप में हमेशा समस्या उत्पन्न करते रहते हैं , जिसके कारण इनके ऊपर कोई भी जल्दी भरोसा नहीं करता है। जैसे– किसी बच्चे से उसकी कॉपी घर ले जाने के लिए मांगता है और कहता है कि मुझे दे दो में तुम्हें तुम्हारी कॉपी कल लाकर दे दूंगा किंतु वह कॉपी को सही समय पर लाकर नहीं देता है।

▪️ ९. अश्लील बातें करना– समस्यात्मक बालक ऐसी बातें करते हैं जो सामाजिक स्तर पर या सामाजिक तौर पर गलत हो वैसी बातें करते हैं या ऐसी बातें जो चार लोगो के सामने या बीच में नहीं कही जा सकती है, वैसी बातो वो समाज में खुलेआम या सबके सामने कर देते है ,जिससे ये समाज के लिए बहुत बड़ी समस्या उत्पन करते है।

▪️ १०. बिस्तर गिला कर देना– जैसे कि छोटे बच्चे रात में बिस्तर गिला या पेशाब कर देते है ,जिसे एक उम्र तक तो ठीक माना जाता है । मगर उसके बाद ( ज्यदा उम्र के बाद ) भी कोई बच्चा ऐसा करता है तो यह दूसरे के लिए समस्या कर रहा है ।

▪️ B. अत्यधिक मानसिक दक्षता– जब समस्यात्मक बालक अत्यधिक मानसिक दक्षता से दूसरे के लिए समस्या उत्पन्न करने लगता है तो वह बहुत बड़ा आतंकवादी का रूप ले सकता है , जो सभी के लिए एक बहुत ही बड़ी समस्या हो सकती है।

▪️ १.–मानसिक द्वंद से ग्रसित– ऐसे बालक अगर किसी मानसिक द्वंद प्रक्रिया से ग्रसित होते हैं तो यह उनके लिए बहुत ही खतरनाक साबित होता है ।जैसे इनके किसी कार्य को करने के लिए इनके दिमाग में एक बार बैठ जाए तो क्या गलत है क्या सही है बिना सोचे समझे उससे संघर्ष करने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं।

▪️ २. हीन भावना का शिकार होना– अगर यह किसी स्थिति में खुद को असफल मानने लगते हैं , तो इनके अंदर उस कार्य के प्रति हीन भावना उत्पन्न हो जाती है ।और यह उस हीन भावना का शिकार हो जाते है।

▪️ ३.सीमा से अधिक कठोर व्यवहार करना– समस्यात्मक बालक को कितना भी कुछ कह ले लेकिन इनके ऊपर या इनके व्यवहार में कोई प्रभाव नहीं पड़ता है जैसे– पत्थर दिल हो ना, चाहे आंधी–तूफान आ जाए या जैसे इनको कितना कुछ भी कर लो इनको कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला है।

▪️ ४. अप्रसन्न और चिड़चिडे रहना– स्मायात्मक बालक हमेशा अप्रसन्न और चिड़चिड़ा रहते हैं जैसे– अगर कोई कुछ बोलता है या कहता है तो उसकी बातों से चिड़ जाते है ।

▪️ ५. भयभीत मगर आत्म केंद्रित होते हैं– ऐसे बच्चे भयभीत मगर आत्म केंद्रित होते हैं ,जैसे ये किसी कार्य को करने से डरते है मगर उसमें वह आत्मकेंद्रित होते हैं ।

◼️ समस्यात्मक व्यवहार के कारण– समस्यात्मक व्यवहार के कारण निम्नलिखित है–

▪️ १. वंशानुक्रम– कई बार लोग अक्षमता से ग्रसित हो जाते हैं जिसके कारण उनके अंदर हीनता आ जाती है ,जैसे–किसी बच्चे से उनकी बुद्धि –लब्धि (IQ) का कम होना, कोशिका व शारीरिक विकास का सही ढंग से विकास न हो पाना आदि चीजें जिससे यह लोग गलत रास्ता पकड़ लेते हैं।

▪️ २. मूल प्रवृत्तियों का दामन– इसमें बालक की भावनाओं की ग्रंथियां दब जाती है और जिससे यह असामाजिक व्यवहार की तरफ बढ़ जाते हैं।

▪️ ३. शारीरिक दोष– शारीरिक दोष के कारण भी इनके अंदर हीन भावना आ जाती है, जिससे यह समस्या के रास्ते पर चले जाते हैं।

▪️ ४. वातावरण– अगर बच्चे को सही वातावरण प्रदान न किया जाए तो सही वातावरण न मिलने के कारण भी बच्चा समस्यात्मक बालक तथा तरह-तरह की समस्याएं उत्पन्न कर सकता है।इसलिए बच्चे के आस –पास का वातावरण उसके विकास के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

▪️ ५. माता–पिता और शिक्षकों का व्यवहार– अगर बच्चे को माता–पिता तथा शिक्षक के द्वारा बच्चे के साथ उचित व्यवहार नहीं किया जाता है ,तो उससे भी बच्चा समस्यात्मक हो सकता है तथा टीचर को बच्चे को पढ़ाने पर नहीं बच्चे के व्यवहार पर ध्यान देना चाहिए।

▪️ ६. परिवार का वातावरण– अगर बच्चे के परिवार में हमेशा किसी ना किसी से लड़ाई –झगड़े होते रहते हैं तो इससे भी बच्चा समस्यात्मक बन सकता है। अतः बच्चे का जैसा पारिवारिक वातावरण होगा, बच्चा वैसा ही करेगा।

▪️ ७. नैतिक शिक्षा का अभाव– बच्चे के विकास में नैतिक शिक्षा का हर जगह पर महत्व होता है , अगर बच्चे में नैतिक शिक्षा का अभाव पाया जाए ,जैसे सामाजिक नैतिकता का ज्ञान आदि बच्चे में नहीं है ,तो वह समाज के मर्यादा का पालन नहीं करता है , अतः नैतिकता व्यक्तित्व की छवि पर निर्भर करती है।

▪️ ८. संवेगिक दोष– अगर किसी बच्चे की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती है तो वह संवेग व मनोवैज्ञानिक रूप से समस्या उत्पन्न करता है।

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✍🏻Notes by–pooja

🌈समस्यात्मक बालक के लक्षण🌈

🏵निम्न मानसिक परेशानी :-

🌷पैसे / वस्तु की चोरी करना :-
समस्यात्मक बालक परिवार में किसी की जेब से तिजोरी से , विद्यालय में बच्चों की पुस्तके, पेन, पेन्सिल , किताबें , काॅपी व अन्य वस्तुएँ चुरा लेते हैं समस्यात्मक होते हैं |

🌷विद्यालय के कार्यो में सक्रिय न होना :-
ऐसे बालक विद्यालय के किसी भी कार्य में रुचि नहीं लेते हैं कक्षा में क्या पढ़ाया जा रहा है कौन – सी प्रतियोगिता हो रही है इन्हें कुछ लेना – देना नहीं होता है |
🌷किसी दूसरे को शारीरिक और मानसिक कष्ट देना :-
ऐसे बालकों को दूसरे लोगों को शारीरिक और मानसिक कष्ट देकर आनन्द मिलता है ये दूसरे के कामों को खराब करते हैं जानबुझकर तो इन्हें खुशी मिलती है |

🌷अनुशासन का विरोध करना :-
ऐसे बालक हमेशा अनुशासन का विरोध करते हैं ये किसी भी नियम का पालन नहीं करते हैं उल्टा उसका विरोध करते हैं |

🌷बुरा आचरण :- ऐसे बालकों का आचरण बहुत ही बुरा होता है ये लोगों के साथ गलत व्यवहार करते हैं सबका निरादर करते हैं |

🌷असहयोग कि प्रवृत्ति :-
ऐसे बालक असहयोग की प्रवृत्ति रखते हैं ये किसी की भी सहायता नहीं करते हैं इनके मन में दूसरो के घृणा होती है |

🌷संदेह करना :- ऐसे बालक किसी भी काम में हमेशा संदेह करने की आदत होती हैं चाहे इनका कोई अच्छा करे तब भी यह संदेह करते हैं |

🌷धोखा देना :-
ये किसी को भी धोखा दे देते हैं पैसे में , काम में हर चीज में इन्हें धोखा देने की आदत होती है |

🌷अश्लील बातें करना :-
ऐसे बालक अश्लील बातें करते हैं फोटो देखते हैं अश्लील विडियो देखते हैं गंदी गालियाँ देते हैं |

🌷विस्तर गीला करना:-
ऐसे बालक उम्र अधिक हो जाने पर भी विस्तर गीले कर देते हैं |

🦚अत्यधिक मानसिक समस्या से ग्रस्त :-

🌹मानसिक द्वंद्व से ग्रसित होना :-
ऐसे बालक अपने मन की बातें किसी से नहीं कहते हैं मन में ही रखते हैं और मानसिक द्वंद् से ग्रसित हो जाते हैं |

🌹हीन भावना का शिकार होना :-
ऐसे बालकों को किसी से बात करना किसी के पास बैठना बिल्कुल नहीं पसंद आता है ये दूसरे के प्रति हीन भावना रखते हैं |

🌹सीमा से अधिक कठोर व्यवहार करना :-
ये लोगों से अपनी सीमा से अधिक कठोर व्यवहार करते हैं |

🌹अप्रसन्न और चिड़चिड़ा :-
ऐसे बालक किसी भी बात पर चिढ़ जाते हैं इन्हें अच्छी बात बोलने पर भी गुस्सा आता है और ये चिड़चिड़ा व्यवहार करते हैं |

🌹भयभीत और आत्मकेंद्रित :-
ऐसे बालक अन्दर से भयभीत होते हैं ये अपनी बात किसी को बताने से डरते हैं ये आत्मकेंद्रित नहीं होते हैं इनके अन्दर डर होता है हर चीज को लेकर |

🌼समस्यात्मक व्यवहार के कारण :-

🌷वंशानुक्रम :-
वंशानुक्रम में समस्यात्मक बालक का IQ कमजोर होता है इनकी कोशिका कि विकास नहीं हो पाता है |

🌷मूल प्रवृत्ति का दमन:-
इसमें इनकी भावनायें दब जाती है ये अपनी बातें किसी से नहीं कह पाते हैं इनकी इच्छाओं को कोई नहीं समझता है और ये तब असमाजिक व्यवहार करने लगते हैं |

🌷शारीरिक दोष :- ये शारीरिक दोष के कारण खुद को हीन भावना से ग्रस्त महसूस करते हैं अगर इनकी लंबाई किसी से कम है या शरीर का आकार नहीं सही है तो अन्दर से ये खुद को दूसरो से कम समझते हैं |

🌷वातावरण दोष :-
वातावरण में खुद को न ढाल पाना और चिड़चिड़ा महसूस होना इसके कारण दूसरो से असामाजिक व्यवहार करने लगना |

🌷माता -पिता और शिक्षको का व्यवहार :-
ऐसे बालकों को परिवार में माता – पिता से शिक्षकों से तिरस्कार मिलता है उनके साथ अच्छा व्यवहार न करना ऐसे बालक समस्या से ग्रस्त हो जाते हैं और वे गलत काम करने लगते हैं |

🌷परिवार का वातावरण :-
परिवार में लड़ाई – झगड़ा होना , माता – पिता , का लड़ना आपस में बच्चे को तनाव होता है जिससे बालक को परेशानी होती है |

🌷नैतिक शिक्षा का अभाव :-
ऐसे बालकों में नैतिक शिक्षा का अभाव होता है इनमें सकारात्मक दृष्टिकोण, अच्छे संस्कार , का अभाव होता है |

🌷सांवेगिक दोष :-
जब इनकी इच्छाओं कि पुर्ति नहीं हो पाती है जो ये करना चाहते हैं जो इन्हें चाहिए होता है इन्हें नहीं मिलता है इसके कारण इनमें हीन भावना आ जाती है |

🦚🦚Thank you 🦚🦚

Notes by –

Meenu Chaudhary
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‌समस्यात्मक बालक के लक्षण-

समस्यात्मक बालक के लक्षणों को दो प्रकार से देखा जा सकता है –
निम्न मानसिक परेशानी वाले बालक और अत्यधिक मानसिक समस्या से ग्रसित बालक।

  1. निम्न मानसिक परेशानी से ग्रसित बालक –

1.ऐसे बालक पैसे, वस्तुओं की चोरी करते हैं
2.स्कूल के कार्य में सक्रिय नहीं होते हैं
3.किसी दूसरे को शारीरिक और मानसिक कष्ट देकर आनंद का अनुभव करते हैं
4.अनुशासन का विरोध करते हैं
5.बुरा आचरण करते हैं
6.असहयोग की प्रवृत्ति रखते हैं
7.संदेह करते हैं
8.धोखा देते हैं

  1. अश्लील बातें करते हैं
  2. बिस्तर गिला करते हैं

2.अत्यधिक मानसिक समस्या से ग्रसित बालक-

  1. मानसिक द्वंद्व से ग्रसित होना -ऐसे बालक अपने मन में दो मानसिक विचारों में से एक के चुनाव को लेकर बहुत ज्यादा असमंजस में पड़े रहते हैं जैसे कि किसी व्यक्ति से पूछा जाए कि तुम अपनी पत्नी और अपनी माता में से किसे चुने तो वह व्यक्ति द्वंद में पड़ जाएगा ।वह ना अपनी पत्नी की तरफ जाएगा ना अपनी माता की तरफ जाएगा।
  2. हीन भावना का शिकार होना -ऐसे बालक अपने आप को किसी से दूसरे से कमजोर पाते हैं तो उनमें नकारात्मक सोच विकसित होती जाती है जो बाद में बहुत बडी‌ हो जाती है जिससे यह हीन भावना का शिकार हो जाते हैं।
  3. सीमा से अधिक कठोर व्यवहार प्रदर्शित करना -ऐसे बालक अपने आप में ज्यादा खड़ूस होते हैं कठोर नियमों का अधिक पालन करने के लिए बोलते हैं

4.अप्रसन्न और चिड़चिड़ा रहना- ऐसे बालक अपने व्यवहार ,समस्या उत्पन्न करने के कारण चिड़चिड़ा और अप्रसन्न रहते हैं ।

5.भयभीत मगर आत्म केंद्रित होते हैं -ऐसे बालक किसी चीज से डरते हैं तो यह उस डर को किसी दूसरे को नहीं बताते हैं और अपने अंदर रखते हैं उसे छुपाते रहते हैं और अंत में जाकर यह डर उनके अंदर घर बना लेता है और यह बाद में तोप के गोले की तरह फूटता है

समस्यात्मक व्यवहार के कारण-

समस्यात्मक बालक ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं इसके कारण निम्नलिखित हैं

  1. वंशानुक्रम -ऐसे बालकों की बुद्धि लब्धि कम होती हैं कोशिकाओं का विकास बाधित होता है यदि यह शारीरिक रूप से कमजोर होते हैं दुबले पतले होते हैं काले होते हैं नाटा अर्थात कद से छोटे होते हैं जिसके कारण इनमें हीन भावना आ जाती है।

2.मूल प्रवृत्ति का दमन – ऐसे बालकों को यदि अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने का पर्याप्त अवसर नहीं मिलता या उनकी उपेक्षा की जाती हैं तो यह अपनी मूल प्रवृत्ति के अनुसार व्यवहार नहीं करते हैं इनकी मूल प्रवृत्ति दबी की दबी रह जाती है और यह असामाजिक व्यवहार करने की ओर बढ़ने लगते हैं

3.शारीरिक दोष -ऐसे बालक यदि शारीरिक रूप से दुबले पतले होते हैं नाटा होते हैं या लंबाई में छोटे होते हैं रंग में काले होते हैं तो अपने आप को हीन समझने लगते है

  1. वातावरण -यदि ऐसे बालकों को अपनी अभिव्यक्ति करने के लिए स्वस्थ वातावरण नहीं मिल पाता है तो यह असामाजिक व्यवहार करने लगते हैं
  2. माता-पिता शिक्षकों का व्यवहार- यदि बालकों के प्रति माता-पिता और शिक्षकों का व्यवहार अच्छा नहीं होता है तो यह समस्यात्मक हो जाते हैं
  3. परिवार का वातावरण -यदि बालकों के परिवार का वातावरण इनके अनुरूप नहीं होने के कारण यह समस्यात्मक हो जाते।
  4. नैतिक शिक्षा का अभाव -ऐसे बालकों में नैतिक शिक्षा का अभाव होता है ।
  5. सांवेगिक दोष -ऐसे बालक संवेगात्मक और मनोवैज्ञानिक रूप से समस्यात्मक व्यवहार करते हैं।

Notes by Ravi kushwah

🔆 समस्यात्मक बालकों के लक्षण
समस्यात्मक बालक किसी न किसी रूप में या अलग अलग तरीके से समस्या उत्पन्न करते हैं ।
जिन बालकों के व्यवहार में कोई असामान्य बात होती है जिसके कारण व समस्या बन जाती है।

“समस्या के स्तर के आधार पर इन लक्षणों को दो भागों में बांटा गया है।”

🌀 निम्न मानसिक समस्या से ग्रसित बालक

निम्न मानसिक समस्या निम्न रूपों में हो सकती हैं।
जैसे-
✓पैसे या किसी वस्तु की चोरी करना।
✓विद्यालय के कार्यों में सक्रिय ना होना।
✓किसी दूसरे को शारीरिक या मानसिक कष्ट देकर स्वयं आनंद लेना।
✓अनुशासन का विरोध करना।
✓बुरा आचरण करना।
✓असहयोग की प्रवृत्ति रखना।
✓संदेह करना।
✓धोखा देना।
✓अश्लील बातें करना।
✓बिस्तर गिला करना।

🌀 अत्यधिक मानसिक समस्या से ग्रसित बालक
यह कई रूपों में हो सकती है।
जैसे
✓मानसिक द्वंद्घ से ग्रस्त होना।
✓हीन भावना का शिकार होना।
✓सीमा से अधिक या जरूरत से ज्यादा कठोर व्यवहार करना।
✓अप्रसन्न और चिड़चिड़े रहते है।
✓ऐसे बच्चे भयभीत मगर आत्मकेंद्रित होते है।
(यदि बालक को किसी चीज से डर लगता है और यदि वह उस डर में आत्मकेंद्रित हो जाता है जिससे वह डर उस बच्चे के अंदर ग्रसित होने लगता है।)

🌀 समस्यात्मक व्यवहार के कारण
1 वंशानुक्रम
2 मूल प्रवृत्ति का दमन
3 शारीरिक दोष
4 वातावरण
5 माता-पिता ,शिक्षकों का व्यवहार
6 परिवार का वातावरण
7 नैतिक शिक्षा का अभाव
8 सांवेगिक दोष
उपर्युक्त व्यवहारों का वर्णन निम्न अनुसार है।

💠 1 वंशानुक्रम

▪️वंशानुक्रम के कारण कई बार कमजोर बुद्धि लब्धि(IQ) ,कोशिकाओं का विकास सही ढंग से नहीं हो पाया हो या ऐसी कई आदतें जो विरासत में मिलती हैं जिससे व्यक्ति गलत रास्ता पकड़ लेते हैं और उनके मन में हीन भावना आने लग जाती है । वह इन गलत रास्तों को सही करने में कुछ गलत कर जाते है, जो असामाजिक व्यवहार या समस्या के रूप में दिखाई देने लगता है।

💠 मूल प्रवृत्ति का दमन

▪️मूल प्रवृत्ति का दमन होने से भावना ग्रंथि दब जाती हैं और बालक असामाजिक व्यवहार करने लगते हैं।

▪️यदि किसी व्यक्ति की कार्य को अपने मूल प्रवृत्ति या बेसिक नेचर से करता है तो वह उस कार्य में बहुत ही बेहतर रूप से प्रदर्शन करता है या उसके परिणाम सफल रूप से प्राप्त होते है। तथा इसके साथ बालक की भावना की ग्रंथि उभर कर आती है और वह सामाजिक व्यवहार करने लगते हैं।

💠 शारीरिक दोष

▪️यदि किसी व्यक्ति में कोई शारीरिक दोष होता है तो उसके मन में ही हीन भावना आने लगती है कि वह अन्य लोगों से भिन्न या अलग है। और वहां और असामाजिक व्यवहार करने लगते हैं जो समस्या के रूप में दिखाई देता है।

💠 वातावरण

▪️वातावरण यदि सही है तो सकारात्मक प्रभाव पड़ता है लेकिन यदि घर, समाज का वातावरण दूषित है तो व्यक्ति बहुत ही अवांछनीय व्यवहार करने लगते हैं जो समस्यात्मक रूप में दिखाई देते हैं।

💠 माता-पिता शिक्षकों का व्यवहार

▪️बच्चे शिक्षक के व्यवहार का और माता पिता के व्यवहार का अनुकरण करते हैं,यदि माता-पिता और शिक्षक का व्यवहार समस्यात्मक या ठीक नहीं होगा तो इसका प्रभाव बच्चों पर भी दिखाई पड़ेगा।

▪️कई शिक्षक केवल पढ़ाने पर ध्यान देते हैं लेकिन व्यवहार पर नहीं ।जैसे कि बालक यदि कोई गलत कार्य करता है तो शिक्षक छात्र को बताते नहीं है कि वह कार्य गलत है तब इस स्थिति में यह कार्य समस्या के रूप में सामने आता है।
▪️शिक्षक को पढ़ाने के साथ-साथ व्यवहारिक ध्यान रखना भी जरूरी है जिसमें वह बच्चे को क्या सही है क्या गलत है यह बताते हैं तथा प्रोत्साहित करते हैं और बढ़ावा देते हैं जिससे छात्रा आगे बढ़ते हैं।

💠 परिवार का वातावरण

▪️यदि परिवार में आपसी कलह, झगड़ा या कोई अन्य अनुशासनहीनता होती है तो इसका प्रभाव बच्चों पर पड़ता है और बच्चे असामाजिक व्यवहार करने लगते हैं जो समस्या के रूप में दिखाई देते है।

💠 नैतिक शिक्षा का अभाव

▪️जब हम किसी भी कार्य को करते हैं तो उसमें नैतिकता का होना बहुत जरूरी है। नैतिकता हमारी सामाजिकता में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है और साथ ही अच्छे इंसान की छवि को बनाने में नैतिकता महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

💠 संवेगिक दोष

▪️यदि बच्चे की आवश्यकता की पूर्ति नहीं हो पाती है तो बच्चा अपने भावनात्मक ,संवेगात्मक या मनोवैज्ञानिक रूप से समस्या व्यवहार को जन्म देता है।

▪️उपयुक्त जितनी भी अलग-अलग प्रकार के कारण है उनमें सभी कारणों में से किसी न किसी रूप में कोई ना कोई समस्या होती है।
व्यक्ति की इन समस्या को सही व्यवहार से सुधारा जा सकता है ओर व्यवहार सोच पर निर्भर करता है क्योंकि व्यक्ति की सोच ही व्यक्ति को आगे लेकर जाती है और सोच से ही उसका व्यवहार प्रदर्शित होता है और वही व्यवहार से व्यक्ति आगे बढ़ता है।

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Notes By-Vaishali Mishra

🌳🌺🌳समस्यत्माक बालक के लक्षण (Symptoms of problematic child)🌳🌺🌳

🎯निम्न मानसिक परेशानी से ग्रसित 🎯

🌿पैसे/वस्तु की चोरी करना:
ऐसे बच्चे किसी तरह की वस्तु को देखते जो उन्हे पसंद हो अपने पास लेना चाहते और वह उस सामान की चोरी कर लेते चाहे वो विद्यालय, घर, अपने पड़ोसी आदि हो जबकि ये गलत आदत है।

🌿स्कूल के कार्यो में सक्रिय ना होना:
ऐसे बच्चे अपने स्कूल में होने वाले किसी भी तरह के कार्य में जिज्ञासू नहीं होते, उन्हे मतलब ही नहीं होता कि उनके स्कूल मे क्या चल रहा क्या नहीं।

🌿किसी दूसरे को शारीरिक/ मानसिक कष्ट दे कर आनंद लेना:
ऐसे बच्चे दूसरो को परेशान कर खुद आनंद लेते हैं, ये तक अनुभव नहीं करते की इस वजह से किसी को हम मानसिक या शारीरिक insult कष्ट पहुंचा रहे।

🌿अनुशासन का विरोध करना:
ऐसे बच्चे अनुशासन का विरोध करते चाहे वो समाज का हो/ विधालय का आदि, वो पालन नहीं करते।

🌿बुरा आचरण करना:
ऐसे बच्चे को कब क्या बोलना कैसे व्यवहार करना किसके साथ क्या बोलना ये नहीं आता, ऐसे में इनका सबके सामने बुरा आचरण/ छवि बन जाती।

🌿असहयोग की प्रवृति:
ऐसे बच्चे किसी की सहयोग नहीं करते, चाहे सामने वाले की कितनी भी जरूरत क्यो न हो।

🌿संदेह करना:
ऐसे बच्चे दूसरो पर हर वक्त संदेह की प्रवृति होती है।

🌿धोखा देना:
इन बालको में धोखा देने जैसी प्रवृति होती है,यह किसी को भी विश्वास जैसे कार्य ही नहीं करते।

🌿अश्लील बातें करना:
जो हमारे society में accepted नहीं है या अच्छे विचार/ discussion नहीं मानी जाती, ऐसी बातें करना अश्लील बातों में आती हैं।

🌿विस्तर गीला करना:
जब एक उम्र के बाद भी यह आदत बनी रहती हैं, तो यह समस्यत्माक बालक में आता है।

🌹अत्यधिक मानसिक समस्या से ग्रसित 🌹

🍃मानसिक द्वंद से ग्रसित होना:
ऐसे बच्चो में जब कभी किसी प्रकार का उलझन आती हैं तो सही निर्णय नहीं ले पाते हैं और यह अनेक प्रकार के उलझनों में ही उलझे हुए रहते हैं।

🍃हीन भावना का शिकार होना:
हीन भावना तब आती है जब बच्चे को ऐसा महसूस होने लगता है कि अब उससे कुछ नहीं हो पायेगा या कुछ नहीं कर सकता।

🍃सीमा से अधिक कठोर व्यवहार करना:
इनका व्यवहार कठोर होता, यह किसी के emotion के साथ खेल जाते।

🍃अप्रसन्न और चिड़चिड़े रहते है:
ऐसे बच्चे की मानसिक/ शारीरिक कुछ ठीक नहीं होते, जिस वजह से यह प्रसन्न नहीं होते, हर बात पर चिड़चिड़ापन होता है।

🍃भयभीतर मगर आत्म केंद्रित होते है:
ऐसे बच्चे को डर तो लगता है लेकिन वे दिखता नहीं है, और इस डर को मन ही मन रखने के कारण बच्चो में ये समस्या उत्पन्न होती हैं।

🌻समस्यात्मक व्यवहार के कारण 🌻
📍वंशानुक्रम:
वंशानुक्रम/Heriedity/अनुवांशिक यह भी एक बड़ा कारण है हमारे व्यवहार का, जिसके कारण बच्चे में समस्यत्माक बालक के श्रेणी में आते हैं। जैसे-
🔖IQ (intellency quotient)
🔖कोशिकाओं का विकास
🔖हीन भावना आदि।

📍मूल प्रवृति का दमन:
इसमें भावना ग्रंथि दब जाती हैं। और बच्चे असमाजिक व्यवहार करते। समाज के नियमों का पालन नहीं करते, समाज के कार्यो में सक्रिय नही होते।

📍शारीरिक दोष:
ऐसे बच्चे जिसमें शारीरिक दोष होने के कारण मन में ही हीन भावना आने लगती हैं, जैसे-
🎐 रंग
🎐रूप
🎐 आकार
🎐 कद
🎐 ऊँचाई आदि।

📍वातावरण:
जिस प्रकार का वातावरण मिलता, वैसा हम सीखते है। इसलिए बच्चे को सही माहौल या उचित वातावरण नहीं मिलता, तो वैसे बच्चे समस्यत्माक बालक में आता है।

📍माता-पिता/ शिक्षकों का व्यवहार:
माता पिता और शिक्षको का व्यवहार भी एक मुख्य कारण है, क्योकि इनका व्यवहार भी बच्चो के लिए अच्छा या भावपूर्ण नहीं होने से बच्चे समस्यत्माक बालक में आ जाते है।

📍परिवार का वातावरण:
अगर परिवार का वातावरण सही नहीं हो, आपसी कलह/ लड़ाई- झगड़ा हो तो भी समस्यात्माक बालक हो जाते है।

📍नैतिक शिक्षा का अभाव:
बच्चों में नैतिक शिक्षा का अभाव होने से बच्चे समस्यत्माक बालक हो जाते है, जैसे-
🔖 संस्कृति
🔖 संस्कार
🔖 अच्छे आचरण
🔖 सकारात्मक दृष्टिकोण आदि।

📍सांवेगिक दोष:
ऐसे बच्चो में किसी प्रकार की रूचि/ feeling/ भावना/ emotion नहीं होती हैं। 🦚🍒 END 🍒🦚

📚 Noted by 🦩Soni Nikku ✍

📚✍🏻Notes by
~Nisha sky yadav
🎯समस्यात्मक बालक🎯
समस्यात्मक बालक उस बालक को कहते है, जिसके व्यवहार में कोई ऐसी असामान्य बात होती हैं जिसके कारण वह समस्या बन जाती हैं।
जैसे- चोरी करना, झूठ बोलना आदि।

्यात्मक बालकों के प्रकार)🌸*

🌈 1)चोरी करने वाला बालक_
इसके अनेक कारण हो सकते हैं।जैसे – अज्ञानता,माता पिता के द्वारा अव्हेलना करने से, उच्च स्थिति की ईच्छा,आत्म – नियंत्रण का अभाव,चोरी की लत्त, आवश्यकताओं की पूर्ति ना होने आदि।

🌈 2) झूठ बोलने वाला बालक_
दुविधा, मनोविनोद ( मज़ाक), प्रतिशोध, स्वार्थ, वफादारी, मिथ्याभिमान या भय के कारण बालकों में झूठ बोलने की प्रवृति आ जाती हैं।

🌈 3)क्रोध करने वाला बालक_
ईर्ष्या, कार्य,खेल या ईच्छा पूरी न होने,किसी वस्तु को छीन लेने, अस्वस्थ कार्य में असमर्थता, व्यवहार व काम में दोष निकालना,माता या पिता के क्रोधी स्वभाव के प्रभाव इत्यादि के कारण बालक क्रोध करने लगते है।

✍🏻 💫 वैलेंटाइन के अनुसार
“समस्यात्मक बच्चे वे बच्चे है,जिनके व्यवहार तथा व्यक्तित्व इस सीमा तक असामान्य होते है कि वे घर, विद्यालय तथा समाज में
समस्याओं के जनक बन जाते हैं।”
🎯(समस्यात्मक बालकों की पहचान )🎯
समस्यात्मक बालकों की पहचान निम्न प्रकार से की जा सकती ह
💫निरीक्षण विधि का प्रयोग करके
💫 साक्षात्कार द्वारा।
💫 अभिभावकों,शिक्षकों तथा मित्रों से वार्तालाप करके।
💫 कथात्मक अभिलेख द्वारा।
💫 संचय अभिलेख द्वारा।
💫 मनोवैज्ञानिक परीक्षणों द्वारा।

🎯(समस्यात्मक बालक के लक्षण)🎯

🌸न्यून मानसिक दक्षता और समस्यात्मक लक्षण🌸
💫 पैसे या अन्य किसी वस्तु की चोरी करना ।
💫 स्कूल के कार्यों के साथ साथ अन्य किसी कार्य में अपनी सक्रिय भागीदारी न दिखाना ।
💫किसी दूसरे को शारीरिक एवं मानसिक कष्ट देकर आनन्द लेना।
💫 अनुशासन का विरोध करना।
💫किसी के साथ बुरा आचरण करना।
💫 असहयोग की प्रवृति रखना।
💫किसी पर बिना सोचे समझे संदेह करना।
💫किसी को धोखा देना।
💫अश्लील बातें करना।
💫बिस्तर गीला करना।

🌸अत्यधिक मानसिक समस्या से ग्रसित🌸
💫हीन भावना का शिकार होना।
💫सीमा से अधिक
व्यवहार का होना।
💫मानसिक द्वंद से ग्रसित होना।
💫अप्रसन्न और चिड़चिड़े होना।
💫भयभीत परन्तु आत्मकेंद्रित होना।
💫लोगों के विरोध का शिकार होना।
💫अनावश्यक तर्क आधारित आख्यान प्रस्तुत करना।

🎯समस्यात्मक व्यवहार के कारण🎯
💫आनुवांशिक कारण
जो चीज़े बालकों के अन्दर पहले से ही विद्यमान होती है।
💫 शारीरिक कारण
किसी शारीरिक अक्षमता के कारण जो समस्यात्मक व्यवहार बालक के अन्दर आ जाता हैं
💫 स्वभाव सम्बंधी तथा संवेगात्मक कारण
बहुत से बालकों का स्वभाव कहीं कहीं इस प्रकार का हो जाता है जिससे उनका इमोशनल development उसी कारण होता है उनके व्यवहार के कारण के अंतर्गत आता है।
💫 सामाजिक तथा परिवेशीय कारण

सामाजिक तथा परिवेशीय वातावरण में जैसे – घर में माता पिता का व्यवहार, शिक्षकों का व्यवहार , समाज व आस – पास का वातावरण भी बालक के समस्यात्मक व्यवहार के कारण के अंतर्गत आता है।

🙏🏻🙏🏻 धन्यवाद् 🙏🏻🙏🏻

💫 समस्यात्मक बालकों के लक्षण

समस्यात्मक बालक वह है जो हर समय किसी ने किसी प्रकार से समस्या उत्पन्न करता हो इसलिए
समस्यात्मक बालकों के लक्षण दो प्रकार के हो सकते हैं जो कि निम्न है➖

1) निम्न मानसिक परेशानी |
2) अत्याधिक मानसिक समस्या से ग्रसित |

🔅 निम्न मानसिक परेशानी
इसमें बच्चे की समस्या को एक छोटे स्तर पर देखा जा सकता है जैसे कि जो बच्चे शैशवावस्था और बाल्यावस्था में जो समस्या उत्पन्न करते हैं वह निम्न होती है लेकिन यदि वह समस्या किशोरावस्था तक भी रहती है तो वह अपराधी बालक की श्रेणी में होती है अतः हम कह सकते हैं कि बालक कि जो निम्न मानसिक स्तर की परेशानी होती है वह छोटे स्तर से उत्पन्न होती है लेकिन यदि उस समस्या को समय पर रोका नहीं गया तो वह अपराध की श्रेणी में हो जाती है अर्थात ऐसे बालक जो

(1) पैसे या वस्तु की चोरी करना
ऐसे बच्चे जो किसी न किसी रूप से चाहे वह किसी वस्तु की हो या पैसे की हो उसकी चोरी करते हो तो वह समस्यात्मक बालक की श्रेणी में आते हैं चोरी करना बच्चे का एक सामान्य लक्षण है लेकिन यदि उस लक्षण को रोका नहीं गया तो वह अपराध की श्रेणी में बन जाता है प्रारंभ में बच्चे जैसे माता-पिता की जेब से पैसे निकालना ,या विद्यालय में कक्षा के बच्चों का पहन, पेंसिल ,कॉपी आदि की चोरी करते हैं जिसके कारण दूसरों को समस्या होती है अर्थात वे समस्यात्मक बालको की श्रेणी में आते हैं |

(2) स्कूल के कार्यों में सक्रिय न होना

ऐसे बच्चे जो विद्यालय के कार्यों में अपनी सहभागिता देना आवश्यक नहीं समझते हैं या स्कूल की गतिविधियों में अपनी हिस्सेदारी नहीं करते हैं ऐसे बच्चों को जैसे गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस, या बाल दिवस या विद्यालय द्वारा कराए गए किसी भी सांस्कृतिक कार्यक्रम या सामूहिक कार्यक्रम में अपनी भागीदारी का वहन नहीं करते हैं उन्हें इन सभी कार्यों से कोई मतलब नहीं होता है तो ऐसे बच्चे भी समस्यात्मक बच्चे होते हैं |

(3) किसी दूसरे को शारीरिक या मानसिक कष्ट देकर आनंद लेना
ऐसे बच्चे किसी दूसरे बालक को शारीरिक या मानसिक कष्ट देकर आनंद प्राप्त करते हैं जैसे किसी का मजाक उड़ाना मजाक में मारना, या किसी को खुद ही परेशान करना आदि तो ऐसे बालक भी समस्यात्मक बालक होते हैं अर्थात किसी ना किसी प्रकार से दूसरों के लिए समस्या उत्पन्न करना |

(4) ऐसे बच्चे अनुशासन का विरोध करते हैं

ऐसे बच्चे अनुशासन का विरोध करते हैं जैसे स्कूल के नियमों का पालन ना करना, स्कूल से भाग जाना ,शिक्षक के प्रति अनुशासनहीनता का भाव व्यक्त करना ,उनका सम्मान ना करना, बच्चों को मारना ,या दूसरों को परेशान करना, प्रार्थना करते समय लाइन में ठीक से खड़े ना होना , सदैव देरी से विद्यालय आना आदि सब समस्यात्मक बालक के लक्षण हो सकते हैं |

(5) बुरा आचरण करना

समस्यात्मक बालक दूसरों के प्रति बुरा आचरण रखते हैं जैसे छोटो या बड़ों का सम्मान ना करना ,गाली देना ,बड़ों की बात ना मानना उनकी बात को दोहराना, किसी को भी मारना पीटना, या थूक देना आदि सब बुरे आचरण के लक्षण है|

(6) असहयोग की प्रवृत्ति रखना

समस्यात्मक बालक दूसरों के प्रति का सहयोग की भावना नहीं रखते हैं उनकी मदद करना आवश्यक नहीं समझते हैं उनकी मदद करने की वजह उनके लिए समस्या उत्पन्न करते हैं जैसे यदि शिक्षक ने कहा कि पेन उठा कर देना तो वह उनको पेन नहीं देते हैं बल्कि उस पर अपनी राय व्यक्त करते हैं |

(7) संदेह करना

समस्यात्मक बालक अपनी बात पर विश्वास नहीं करते हैं वह हमेशा सही और गलत के बीच संदेह करते हैं |

(8) धोखा देना

समस्यात्मक बालक हमेशा किसी न किसी रूप में समस्या उत्पन्न करते हैं जिसके कारण कोई भी उन पर विश्वास नहीं करता है जैसे कक्षा में किसी बच्चे की कॉपी लेकर कॉपी को वापस नहीं करना या ,किसी का पेन लेकर उसको वापस नहीं करना अर्थात इनकी की प्रवृत्ति धोखा देने वाली होती है |

(9) अश्लील बातें करना

अर्थात ऐसी बातें करना जो सामाजिक स्तर पर एक्सेप्टेड नहीं है जैसे पब्लिक प्लेस पर गाली देना या ऐसा कार्य करना जो समाज के मानदंड के अनुरूप है समस्यात्मक बालक ऐसे कार्य करते हैं जो कि समाज के लिए ठीक नहीं है जैसे गाली देना, मारपीट करना ,या दूसरों के प्रति असम्मान की भावना रखना |

(10) बिस्तर गीला करना

छोटे बच्चे अक्सर बिस्तर गीला कर देते हैं जो कि एक उम्र तक तो ठीक है लेकिन अगर वह किशोरावस्था तब भी चलता है तो यह अच्छा नहीं है माता पिता के लिए यह एक बड़ी समस्या है इसलिए ऐसे बच्चे भी समस्यात्मक बच्चे की श्रेणी में आते हैं |

🔅 अत्याधिक मानसिक समस्या से ग्रसित

ऐसे बच्चे जो मानसिक दक्षता के कारण दूसरों को के लिए समस्या उत्पन्न करते हैं जो कि बाद में एक अपराधी का रूप ले लेती हो इस प्रकार की समस्या उत्पन्न करना तो यह उनकी मानसिक समस्या से ग्रसित समस्या है जो कि बहुत भयानक है अतः अत्यधिक मानसिक समस्या से ग्रसित बालक की 6 विशेषताएं हैं जो कि निम्न है ➖

(1) मानसिक द्वंद से ग्रसित होना

यदि कोई बालक मानसिक द्वंद से पीड़ित है तो वह बहुत बड़ी समस्या है जो कि ठीक नहीं है यदि ऐसे बच्चों के दिमाग में कोई बात बैठ जाए तो उन्हें उसके सही गलत का पता नहीं होता है उसी से हमेशा संघर्ष करने के लिए तैयार रहते हैं जो कि किसी भी प्रकार से ठीक नहीं है |

(2) हीन भावना का शिकार होना

यदि कोई बालक हीन भावना का शिकार है तो वह डिप्रेशन में जा सकता है क्योंकि यदि कोई तुरंत लड़ाई कर लेता है तो ठीक है लेकिन यदि कोई मन में रखता है तो वह खतरनाक साबित हो सकता है क्योंकि वह खुद से हीन है|

(3) सीमा से अधिक कठोर व्यवहार करना

जो लोग हद से ज्यादा कठोर होते हैं तो उनका यह व्यवहार ठीक नहीं है यह समस्या है क्योंकि यदि जो मन में है वही सामने दिखता है जो कि समस्यात्मक की श्रेणी में हो सकता है जैसे अत्यधिक पत्थर दिल होना किसी भी समस्या में अपने अंदर कोई भी परिवर्तन नहीं लाना |

(4) अप्रसन्न और चिड़चिड़े होना
समस्यात्मक बालक अप्रसन्न और चिड़चिड़े रहते हैं जैसे कोई कुछ बोलता है तो उनकी बातों से चिड़ जाते हैं और उसके प्रति अपना व्यवहार व्यक्त करते हैं जो कि सही नहीं है |

(5) भयभीत मगर आत्म केंद्रित रहना

भयभीत होना अच्छी बात है लेकिन आत्म केंद्रित होना अच्छी बात नहीं है लेकिन यदि डर में आत्म केंद्रित हो जाते हैं तो इससे हीन भावना से ग्रसित होकर समस्यात्मक बालक की श्रेणी में हो जाते हैं |

उपयुक्त कारणों को देखते हुए एक शिक्षक होने के नाते यह अवश्य सोचना चाहिए कि उस समस्या को हर नजरिए से देखा जाए प्रत्येक के दो पहलू हो सकते हैं |

💫 समस्यात्मक व्यवहार के कारण

(1) वंशानुक्रम

कई बार बहुत सी अक्षमताओं से ग्रसित होते हैं जैसे काला, नाटा, पतला मोटा आदि जो कि वंशानुक्रम से मिलते हैं कई बार IQ भी कम होती है, कोशिकाओं का विकास सही ढंग से नहीं होता है जिसके कारण मन में हीन भावना आती है जैसे गलत रास्तो पर चले जाते हैं मस्तिष्क में सेन्सलैस हो जाता है ठीक से कार्य नहीं कर पाता हैं तो यह भी समस्यात्मक व्यवहार का कारण हो सकता है |

(2) मूल प्रवृत्ति का दमन
यदि मूल प्रवृत्ति का दमन होता है तो भावना की ग्रंथि दब जाती है जिससे असामाजिक व्यवहार की ओर बढ़ जाते हैं |

(3) शारीरिक दोष

यदि किसी बालक को को शारीरिक दोष की समस्या है तो वह भी समस्या का एक बहुत बड़ा कारण हो सकता है जिससे बालक समस्यात्मक व्यवहार प्रकट कर सकते हैं |

(5) वातावरण

बच्चे के समस्यात्मक व्यवहार का वातावरण भी एक जरूरी बिंदु है क्योंकि यदि जैसा वातावरण रहेगा बच्चे वैसा ही सीखेंगे और उसी के अनुसार अपना व्यवहार प्रदर्शित करेंगे वातावरण में मुखतःपरिवार का वातावरण आता है क्योंकि जैसा परिवार का वातावरण रहेगा बच्चे उसी के अनुसार अपना व्यवहार प्रदर्शित करेंगे इसका सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है कि माता-पिता का व्यवहार कैसा है यदि माता पिता के बीच झगड़े होते हैं, परिवार गरीब है तो उससे भी बच्चे समस्यात्मक व्यवहार प्रदर्शित कर सकते हैं |

(6) परिवार का वातावरण
यदि परिवार का स्वस्थ वातावरण नहीं है जैसे कि परिवार में कलह, या लड़ाई झगड़े होते हैं आर्थिक समस्या है तो भी यह बच्चे के समस्यात्मक व्यवहार प्रदर्शित करने एक मेजर बिन्दु है |

(7) नैतिक शिक्षा का अभाव

नैतिक शिक्षा का अभाव एक महत्वपूर्ण बिंदु क्योंकि उसे सही गलत का ज्ञान नहीं होता है बच्चे की नैतिक शिक्षा अति महत्वपूर्ण है यदि वह ठीक नहीं है तो वह समाज के नियमों को समझ नहीं पाएगा और अपनी छवि अपना व्यक्तित्व नहीं बना पाएगा | इसलिए नैतिक शिक्षा भी बच्चे के समस्यात्मक व्यवहार का एक कारण हो सकता है |

(8) सांवेगिक दोष

संवेग मनोवैज्ञानिक रूप से समस्यात्मक व्यवहार उत्पन्न करता है क्योंकि यदि संवेगसंवेगों की पूर्ति नहीं होती है तो वह भी एक समस्या है जिससे बच्चे समस्यात्मक व्यवहार प्रदर्शित करते हैं |

𝙉𝙤𝙩𝙚𝙨 𝙗𝙮➖ 𝙍𝙖𝙨𝙝𝙢𝙞 𝙨𝙖𝙫𝙡𝙚

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🔆समस्यात्मक बालक के लक्षण🔆
🔅. निम्न मानसिक परेशानी –

  1. पैसे वस्तु की चोरी करना – जब बालक को किसी चीज की आवश्यकता पड़ने पर वह पैसे की चोरी या वस्तु की चोरी करने लगता है अपनी आवश्यकता को पूरा करने के लिए ऐसा इसलिए करता है क्योंकि वह मानसिक रूप से ग्रस्त होता है ऐसा बालक समस्यात्मक बालक होता है |
  2. स्कूल के कार्यों में सक्रिय ना होना – समस्यात्मक बालक स्कूल के कार्यो में सक्रिय रूप से भाग नहीं देता है वह हमेशा समस्या उत्पन्न करने वाला होता है वह किसी कार्य करने में रुचि नहीं लेता है|
  3. किसी दूसरों को शारीरिक और मानसिक कष्ट देकर आनंद लेना –
    समस्यात्मक बालक कक्षा में या अन्य स्थानों पर दूसरे वालों को शारीरिक व मानसिक कष्ट देकर आनंद लेता है
  4. अनुशासन का विरोध करना – समस्यात्मक बालक अनुशासन में रहकर कार्य को नहीं करते नियमों का पालन नहीं करते अनुशासन के विरुद्ध कार्य करते हैं |
  5. बुरा आचरण करना – परिवार स्कूल में रह कर गलत व्यवहार करते हैं अपने छोटे बड़ों के साथ बुरा आचरण करते हैं ऐसे बालक समस्यात्मक बालक के अंतर्गत आते है |
  6. असहयोग की प्रवृत्ति – समस्यात्मक बालक किसी भी कारण हमें जरूरमंदो की सहायता नहीं करता समस्यात्मक बालक व सहयोग करने की सहयोग की प्रवृत्ति नहीं होती बल्कि उस में सहयोग की प्रवृत्ति पाई जाती है |
  7. संदेह करना – समस्यात्मक बालक बने व्यक्तियों पर संदेह करता है वही समस्यात्मक बालक में इच्छा का दमन किया जाता है उसे संदेह की प्रवृत्ति होती है|
  8. धोखा देना – समस्यात्मक बालक लोगों को सहयोग के प्रति धोखा देने का कार्य करते हैं |
  9. अश्लील बातें करना – अश्लील बातें जब बालक किसी अलग प्रकार की बात करने लगता है तो परिवार में समाज में मान्यता नहीं देते हैं ऐसी बातें करना उचित नहीं है |
  10. बिस्तर की गीला करना – छोटे बालक जो बिस्तर गीला देता है जो उम्र तक होता है परंतु बड़ा बच्चा है क्या करें तो समस्यात्मक बालक होता है |
    🔅अत्याधिक मानसिक समस्या से ग्रसित –
    ▪ मानसिक द्वंद से ग्रसित होना – समस्यात्मक बालक मानसिकता द्वंद होते हैं जो किसी कार्य को करने के लिए सही निर्णय नहीं ले पाते |
    ▪ हीन भावना का शिकार होना – जब बालक किसी कार्य को नहीं करता और दूसरा बालक उस कार्य करता है तो उसको देखकर हीन भावना आती है ऐसा पालक समस्यात्मक बालक कहलाता है|
    ▪ सीमा से अधिक कठोर व्यवहार करना – कैसे पालक पत्थर दिल वाले होते हैं और उनका व्यवहार सीमा से मिलने होता है |
    ▪ अप्रसन्न और चिड़चिड़ रहते हैं – समस्यात्मक बालक कैसी बातें करने पर ऑपरेशन में और सर्जरी साहब के होते हैं जो छोटी-छोटी बातों पर चिड़चिडाने लगते हैं समस्यात्मक बालक होते हैं |
    ▪भयभीत मगर आत्म केंद्रित – समस्यात्मक बालक भयभीत जो परेशानियों से डरते हैं या घबराते हैं अपनी समस्या किसी को नहीं बताते अपने आप आत्मकेंद्रित रहते हैं
    🔅समस्यात्मक व्यवहार के कारण –
  11. वंशानुक्रम – समस्यात्मक बालकों में ..
    Iq को कम और कोशिकाओ का विकास सही ढंग से नहीं होता है हीनभावना
    आती है जो गलत रास्ते पर चले जाते हैं |
  12. मूल प्रवृत्ति का दमन – इसमें बच्चों की भावना ग्रंथि दब जाती है और असामाजिक व्यवहार की तरफ बढ़ने लगता है |
  13. शारीरिक दोष – वंशानुक्रम या शारीरिक दोष के कारणअपने आप को हीनभावना से ग्रसित समझते हैं ऐसी बालक की लंबाई आकार और शरीर सही नहीं है और खुद को दूसरों से कम समझते हैं |
  14. वातावरण – बच्चों का वातावरण सही ना होने के कारण समस्यात्मक बालक भिन्न-भिन्न समस्याएं उत्पन्न करता है और आसपास का वातावरण उसके विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है |
  15. माता-पिता और शिक्षकों का व्यवहार – ऐसी बालक जो माता-पिता या शिक्षक से अच्छा व्यवहार नहीं करते भाई समस्यात्मक बालक होता है |
  16. परिवार का वातावरण – परिवार में माता-पिता भाई-बहन या अनेक लोगों से लड़ाई झगड़े करने वाले बालक समस्यात्मक बालक कहलाते है|
  17. नैतिक शिक्षा का अभाव – समस्यात्मक बालकों में नैतिक शिक्षा का अभाव होता है जो संस्कृति अच्छे आचरण संस्कार सोच आदि का अभाव होता है|
  18. सावेगिक दोष – ऐसे बालको की आवश्यकता की पूर्ति नहीं होती तो बालक समस्यात्मक बालकों में संवेग मनोवैज्ञानिक दोष होते हैं|

Notes by – Ranjana Sen

♦️ समस्यात्मक बालक♦️

ऐसे बालक जो विभिन्न प्रकार की समस्या उत्पन्न करते हैं जैसे माता-पिता को परेशान करना कक्षा में शिक्षक को परेशान करना चोरी करना झूठ बोलना इत्यादि इस प्रकार प्रत्येक बच्चे अलग-अलग प्रकार की समस्याएं उत्पन्न करते हैं समस्यात्मक बालक कहलाते हैं!

♦️ समस्यात्मक बालक के लक्षण♦️
समस्यात्मक बालक के लक्षणों को दो भागों में बांटा गया है
1️⃣ निम्न मानसिक परेशानी
2️⃣ अत्यधिक मानसिक दक्षता

A- निम्न मानसिक परेशानी-
इसमें छोटे स्तर की मानसिक समस्याएं होती हैं
इसके अंतर्गत निम्नलिखित बिंदु आते हैं
1- पैसे /वस्तु की चोरी-
ऐसे बच्चे चोरी करने की समस्या से ग्रसित हो जाते हैं अपने घर या बाहर स्कूल में हर जगह किसी ने किसी वस्तु की चोरी कर सकते हैं आगे चलकर यह उनकी आदत में आ जाती है जिससे दूसरों को समस्या उत्पन्न होती है
2- स्कूल के कार्यों में सक्रिय ना होना- ऐसे बच्चे स्कूल के कार्य तथा किसी भी कार्यक्रम स्कूल में की गई गतिविधियों में सक्रिय नहीं रहते हैं ऐसे बच्चे स्कूल के कार्य और कार्यक्रमों में शामिल होना जरूरी नहीं समझते
3- किसी दूसरे को शारीरिक व मानसिक कष्ट देकर आनंद उठाना- ऐसे बच्चे दूसरे व्यक्तियों को शारीरिक तथा मानसिक रूप से तकलीफ पहुंचा कर खुश होते हैं किसी भी प्रकार से उनका मजाक बनाना पीटना बिना किसी कारण के सताना इस तरह की कई समस्याएं उनमें रहती हैं
4- अनुशासन का विरोध करना-/
ऐसे बच्चे अनुशासन का पालन नहीं करते हैं विद्यालय के अनुशासन व नियमों के विरोधी होते हैं जैसे कि शिक्षकों का सम्मान ना करना शिक्षकों की बात ना मानना अपने घर पर भी अपने माता पिता की बात ना मानना अन्य किसी भी प्रकार के नियमों का पालन नहीं करते हैं
5- बुरा आचरण करना/
समस्यात्मक बालक बुरा आचरण करते हैं वह अपने से बड़ों का सम्मान नहीं करते अपने से छोटों के साथ भी बुरा बर्ताव करते हैं
6- असहयोग की प्रवृत्ति रखना-/
समस्यात्मक बालकों के हृदय में सहयोग की भावना नहीं रहती है बे दूसरों व्यक्तियों को कष्ट पहुंचाते हैं उनकी सहायता नहीं करते
7- संदेह करना-/
समस्यात्मक बालक बेवजह है किसी भी बात पर संदेह कर लेते हैं उनमें अपनी बुद्धि से सही और गलत का अंतर स्पष्ट करने की क्षमता नहीं रहती
8- धोखा देना-
ऐसे वाला किसी के भी भरोसे के काबिल नहीं रहते क्योंकि इनकी प्रवृत्ति धोखा देने की होती है कोई इन पर विश्वास करता है बदले में यह उन्हें धोखा देते हैं जैसे कि स्कूल में किसी बच्चे की कॉपी या अन्य कोई भी सामग्री ले लेते हैं और कल वापस देने का वादा करते हैं पर वह समय से वापस नहीं देते!
9- अश्लील बातें करना-/
समस्यात्मक बालकों में कौन सी बात किस जगह करनी हैं कौन सी नहीं इन सब का भान नहीं रहता ऐसे बालक अश्लील बातें करने में भी झिझक महसूस नहीं करते समाज का ग्रुप में इस प्रकार की अश्लील बातें कर देते हैं जिसके कारण बहुत बड़ी समस्या जन्म लेती है
10- बिस्तर गिला कर देना-/ समस्यात्मक बच्चों में बिस्तर गिला करने की आदत बन जाती है ,यह समस्या इसकी सही उम्र तक ही हो ,तब तक ठीक है ,बढ़ती उम्र के साथ यह समस्या खत्म हो जाना चाहिए, अगर किसी में यह समस्या खत्म नहीं होती है, तो वह समस्यात्मक बालक की श्रेणी में आता है !

2️⃣ अत्यधिक मानसिक दक्षता-/ समस्यात्मक बालक अत्यधिक मानसिक दक्षता के कारण विभिन्न प्रकार की समस्या उत्पन्न करता है और फिर यह समस्या एक बड़ा रूप ले लेती है जो उसे एक अपराधी बना देती हैं तो यह समस्या एक बहुत ही बड़ी समस्या बन जाती है
इसके अंतर्गत निम्न बिंदु है

1- मानसिक द्वंद्व से ग्रसित-/
मानसिक द्वंद्व से ग्रसित बालक बहुत ही खतरनाक साबित हो सकते हैं यह अगर किसी काम को ठान ले तो वह करते हैं चाहे वह गलत हो या सही इनमें इतनी अपनी समझ नहीं रहती कि यह
सही गलत अंतर कर सकें यह गलत काम में भी अपना संघर्ष करते हैं
2- हीन भावना का शिकार होना-/ ऐसे बालक को अगर किसी भी वजह से हीन भावना का शिकार हो जाते हैं तो उनके मन से निकालना बहुत ही मुश्किल हो जाता है ऐसे बालक अपने आपको दूसरों से बहुत ही निम्न श्रेणी का समझते हैं खुद को असफल समझते हैं
3- सीमा से अधिक कठोर व्यवहार-/
समस्यात्मक बालक का व्यवहार अत्यधिक कठोर व्यवहार होता है चाहे कोई कितना भी रोए गिर जाए उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता ऐसे बालक पत्थर दिल वाले होते हैं
4 चिड़चिड़ा रहना-/
समस्यात्मक बालक खुश नहीं रहते उनका स्वभाव चिड़चिड़ा होता है ऐसे बालकों को किसी का कहना या सुनाना बर्दाश्त नहीं होता जल्दी चिढ़ जाते हैं
5- भयभीत मगर आत्म केंद्रित होते हैं-/
समस्यात्मक बालक किसी भी काम को करने में डरते हैं लेकिनवह आत्म केंद्रित होते हैं
♦️ समस्यात्मक बालक के व्यवहार के कारण♦️
1- वंशानुक्रम- किसी कारण से हीन भावना आ जाती हैं जिससे बच्चों मे बुद्धि लब्धि कम हो जाता है उनकी कोशिका व शारीरिक विकास का सही ढंग से विकास नहीं हो पाता जिससे वह गलत रास्ता पकड़ लेते हैं
2- मूल प्रवृत्तियों का दमन- मूल प्रवृत्तियों के
दमन के अंतर्गत बालकों की भावनाओं की ग्रंथियां दब जाती हैं जिसके कारण वह असामाजिक व्यवहार करने लग जाते हैं
3- शारीरिक दोष- कोई कोई बच्चे शारीरिक रूप से बेडौल होने के कारण हीन भावना से ग्रसित हो जाते हैं और समस्यात्मक बालक बन जाते हैं
4- वातावरण-
उचित वातावरण ना मिलने के कारण भी बच्चों में समस्या उत्पन्न हो जाती हैं वह अपने आसपास के परिवेश में जैसा देखते हैं जैसा सुनते हैं वहीं से सीखते हैं अर्थात हम कह सकते हैं कि वातावरण समस्या उत्पन्न करने में सहायक है
5- माता-पिता और शिक्षकों का व्यवहार-
माता-पिता तथा शिक्षकों का व्यवहार उचित ना मिलने के कारण बच्चा समस्यात्मक हो जाता है
6- परिवार का वातावरण-
अगर परिवार का वातावरण उचित नहीं है झगड़ालू वातावरण है गलत आदतों वाला वातावरण है तो बच्चे भी वैसा ही सीखेगा और वह समस्यात्मक बालक बन जाएगा
7- नैतिक शिक्षा का अभाव-
बच्चे के विकास में नैतिक शिक्षा का होना बहुत ही महत्व रखता है अगर किसी बच्चे में नैतिक शिक्षा का अभाव पाया जाता है तो वह समाज व परिवार के अंदर अपनी मर्यादा का पालन नहीं करता और उसमें समस्या उत्पन्न हो जाती है
8- संवेग वाले दोष-/
जब किसी बालक की उसकी इच्छा अनुसार आवश्यकता की पूर्ति नहीं हो पाती है तो उसमें संवेग की उत्पत्ति होती है इस प्रकार बालक में संवेग व मनोवैज्ञानिक रूप से समस्या जन्म ले लेती हैं
🙏🏻 समाप्त🙏🏻
♦️🌺 रितु योगी🌺♦️