Initiative for Primary Education

प्राथमिक शिक्षा का अर्थ

प्राथमिक शिक्षा, जिसे प्रारम्भिक शिक्षा भी कहा जाता है, यह बालवाड़ी से छठी कक्षा तक के बच्चों के लिए है। प्राथमिक शिक्षा छात्रों को विभिन्न विषयों की एक बुनियादी समझ के साथ-साथ, कौशल भी प्रदान करती है, जिसे वह अपने जीवन भर उपयोग करेंगे।

प्राथमिक शिक्षा आम तौर पर औपचारिक शिक्षा का पहला चरण है, जो पूर्व-विद्यालय के बाद और माध्यमिक शिक्षा से पहले आता है। प्राथमिक शिक्षा आमतौर पर एक प्राथमिक विद्यालय में होती है।

शिक्षा का प्राथमिक उद्देश्य क्या है?

1. नैतिक मूल्यों का विकास: शिक्षा का प्राथमिक उद्देश्य हमें नैतिक मूल्यों का विकास करने में मदद करता है। शिक्षा के माध्यम से हम संस्कार और नैतिकता का विकास कर सकते हैं। यह हमारे जीवन में आदर्शों को स्थापित करने में मदद करता है और हमें अच्छे नागरिक बनने के लिए प्रेरित करता है।

2. ज्ञान का विकास: शिक्षा का अन्य उद्देश्य हमारे ज्ञान का विकास करना होता है। शिक्षा के माध्यम से हम समझ, ज्ञान और विज्ञान का विकास कर सकते हैं। इससे हमें अधिक ज्ञान मिलता है जो हमें अपने जीवन के लिए उपयोगी साबित होता है।

3. स्वास्थ्य एवं जीवन शैली का विकास: शिक्षा हमें स्वस्थ और सुखी जीवन जीने के लिए आवश्यक ज्ञान प्रदान करती है। शिक्षा के माध्यम से हम अपनी जीवन शैली में सुधार कर सकते हैं और स्वस्थ जीवन जीने के लिए आवश्यक ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।

4. समाज के लिए उपयोगी नागरिक बनना: शिक्षा के माध्यम से हम अपने समाज के लिए उपयोगी नागरिक बन सकते हैं। शिक्षा हमें समाज के नियमों, कानूनों और अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों के बारे में समझने में मदद करती है। इससे हम अपने समाज के लिए सक्रिय भूमिका निभा सकते हैं और उसमें अपना योगदान दे सकते हैं।

5. नौकरी या व्यवसाय के लिए तैयारी: शिक्षा हमें नौकरी या व्यवसाय के लिए तैयार करती है। शिक्षित लोगों को अधिक नौकरी और उच्चतर पाय स्केल मिलता है। शिक्षा के माध्यम से हम कौशल विकसित कर सकते हैं जो हमें नौकरी या व्यवसाय में सफल होने में मदद करते हैं।

6. समाज में संघर्ष को समाप्त करना: शिक्षा के माध्यम से हम समाज में संघर्ष को समाप्त करने में मदद कर सकते हैं। अनपढ़ और अशिक्षित लोगों में से अधिकतर लोग संघर्ष की शिकार होते हैं। शिक्षा से हम उन्हें ज्ञान प्रदान करते हैं और उन्हें समाज में सफल होने के लिए जरूरी कौशल सिखाते हैं। इससे संघर्ष कम होता है और समाज का विकास होता है।

7. संस्कृति और अनुभव का विस्तार: शिक्षा हमें संस्कृति और अनुभव का विस्तार करने में मदद करती है। शिक्षा हमें विभिन्न विषयों की जानकारी प्रदान करती है जो हमारी संस्कृति और अनुभव का विस्तार करते हैं। इससे हम अपने जीवन में नई बातें सीखते हैं और अपने अनुभव का विस्तार करते हैं।

8. समझदार नागरिक बनना: शिक्षा हमें समझदार नागरिक बनने के लिए आवश्यक ज्ञान प्रदान करती है। शिक्षा से हम अपने समाज के लिए सफलता के लिए आवश्यक ज्ञान प्राप्त करते हैं जो हमें समझदार नागरिक बनने में मदद करता है।

9. नए अवसरों का खुलना: शिक्षा से हमारे लिए नए अवसरों का खुलना होता है। शिक्षा हमें विभिन्न क्षेत्रों में अधिक से अधिक ज्ञान प्रदान करती है जो हमें नए अवसरों के लिए तैयार करती हैं। शिक्षा के द्वारा हम अपने अधिक से अधिक क्षेत्रों में सक्षम होते हैं और उन्हें अपने अधिक से अधिक क्षेत्रों में सफलता प्राप्त करने के लिए आवश्यक कौशल सिखाते हैं।

10. सामाजिक और आर्थिक उन्नति: शिक्षा सामाजिक और आर्थिक उन्नति के लिए एक महत्वपूर्ण कारक है। शिक्षा से हम न केवल अपने जीवन में सफल होते हैं बल्कि समाज की उन्नति में भी मदद करते हैं। शिक्षित लोग समाज में सफलता प्राप्त करते हैं और इससे समाज की आर्थिक विकास में मदद होती है।

प्राथमिक शिक्षा का सकारात्मक प्रभाव

संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) के अनुसार, इस शिक्षा के साथ बच्चों को प्रदान करने के कई सकारात्मक प्रभाव हैं, जिनमें शामिल हैं:

  • गरीबी में कमी
  • बाल मृत्यु दर में कमी
  • लैंगिक समानता को प्रोत्साहित करना
  • पर्यावरण की बढ़ती चिंता
  • समय प्रबंधन
  • मल्टी-टास्किंग और संगठन
  • लघु और दीर्घकालिक योजना
  • परीक्षा की तैयारी
  • प्राथमिक शिक्षा उपकरण

प्राथमिक शिक्षा के सामान्य विषय

छात्रों को पढ़ना, लिखना, वर्तनी, पारस्परिक संचार और एकाग्रता जैसे बुनियादी जीवनकाल कौशल सिखाए जाते हैं। प्राथमिक शिक्षा छात्रों को मौलिक कौशल प्रदान करती है जो उनके शेष शैक्षणिक करियर की नींव होगी। प्रशिक्षक छात्रों को विषय पढ़ाते हैं जैसे:

  • गणित
  • विज्ञान
  • भाषा कला
  • इतिहास
  • भूगोल
  • कला
  • संगीत

प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक बच्चों को पढ़ाने के लिए विभिन्न उपकरणों का उपयोग करते हैं, जैसे:

  • खेल
  • पुस्तकें
  • चलचित्र
  • कंप्यूटर
  • कलाकृति

गुणवत्ता प्राथमिक शिक्षा का मूल लक्ष्य:

  • गुणवत्ता प्राथमिक शिक्षा का मूल लक्ष्य विभिन्न आयु वर्ग के बच्चों को शिक्षा प्रणाली में प्रवेश करने के अवसर प्रदान करना है।
  • एक संतुलित पाठ्यक्रम के माध्यम से भावनात्मक और संज्ञानात्मक निर्देश प्रदान करना।
  • बच्चों के सामाजिक विकास में सहायता करना है।
  • प्राथमिक शिक्षा छात्रों को मुख्य पाठ्यक्रम की मूल बातों का अध्ययन करने और उसमे भाग लेने का तरीका सीखाता है।

प्राथमिक शिक्षा के लाभ

नीचे हम प्राथमिक स्कूल शिक्षा के लाभों पर एक करीब से नज़र डालते हैं।

भावनात्मक और सामाजिक विकास का समर्थन करता है – प्राथमिक विद्यालय, विशेषकर विभिन्न पृष्ठभूमि और संस्कृतियों के बच्चों को शुरू करने से पहले छोटे बच्चों के लिए अन्य बच्चों के साथ समय बिताना महत्वपूर्ण है।

कोई भी समूह गतिविधियों के महत्व को कम नहीं कर सकता है, न केवल समूह बातचीत से छोटे बच्चों को दूसरों के प्रति सम्मान की भावना विकसित करने में मदद मिलती है, बल्कि वे सही और गलत के बीच अंतर भी सीखते हैं, सहकारी कैसे खेलें, साथ ही साथ कैसे साझा करें , समझौता करें, निर्देशों का पालन करें, संघर्षों को हल करें और अपनी राय दें।

आत्मविश्वास और स्वतंत्रता सिखाता है – जबकि यह एक अच्छी तरह से प्रलेखित तथ्य है कि छोटे बच्चे जो एक पूर्वस्कूली में शामिल होते हैं जो पोषण और सकारात्मक वातावरण प्रदान करते हैं वे उन लोगों की तुलना में अधिक स्थिर होते हैं, जो आत्मविश्वास और स्वतंत्र युवा उपलब्धि हासिल करते हैं।

प्रीस्कूल बस एक सुरक्षित, स्वस्थ और खुशहाल जगह प्रदान करता है, जहां छोटे बच्चे स्वयं की भावना प्राप्त कर सकते हैं और अन्य व्यक्तित्वों का पता लगा सकते हैं, जो उन्हें अपने बारे में जानने में बेहतर मदद करता है। इसके अलावा, वे अपने माँ से दूर होने के लिए सहज होना सीखेंगे, जिससे प्राथमिक विद्यालय के लिए बहुत आसान संक्रमण हो सकता है।

समृद्ध शब्दावली और पठन कौशल को बढ़ावा देता है – क्या आप जानते हैं कि एक बच्चे की शब्दावली और सामाजिक कौशल का आकार सीधे उनकी प्रारंभिक शिक्षा से जुड़ा हुआ है? वास्तव में, 3 और 5 वर्ष की आयु के बीच, एक बच्चे की शब्दावली 900 से 2 500 शब्दों तक बढ़ जाती है, यही कारण है कि एक बच्चे के समग्र विकास के लिए एक भाषा समृद्ध वातावरण आवश्यक से अधिक है।

वास्तव में, शिक्षकों को यह कहना पड़ेगा कि जो युवा बच्चे पूर्वस्कूली में भाग लेते हैं, वे प्री-रीडिंग कौशल के साथ प्राथमिक विद्यालय में प्रवेश करते हैं और जो नहीं करते हैं उनकी तुलना में अधिक समृद्ध शब्दावली है।

प्राथमिक शिक्षा के औपचारिक लक्ष्य

प्राथमिक शिक्षा का उद्देश्य कई स्तरों पर एक बच्चे की सहायता करना है। उनकी प्राथमिक शिक्षा के दौरान, छात्रों को गंभीर रूप से सोचने, उच्च मानकों को प्राप्त करने का प्रयास करने, तकनीकी प्रगति द्वारा उत्पन्न चुनौतियों का सामना करने और नागरिकता और बुनियादी मूल्यों को विकसित करने के लिए सिखाया जाता है।

इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए, स्कूलों को व्यवस्थित और सुरक्षित वातावरण प्रदान करना चाहिए, जहां पर्यवेक्षित शिक्षण हो सकता है। प्राथमिक शिक्षा का महत्व बच्चे की व्यस्तता पर बहुत निर्भर करता है, जिसे घर और स्कूल दोनों जगह काम किया जा सकता है। प्राथमिक विद्यालयों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा छात्र के स्कूल करियर की सफलता के लिए महत्वपूर्ण है।

प्राथमिक शिक्षा का महत्व

यह केवल ग्रेड के बारे में नहीं है। प्राथमिक विद्यालयों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से बड़ी और बेहतर चीजें होती हैं। फिर भी प्राथमिक शिक्षा द्वारा प्रदान की जाने वाली एक अन्य महत्वपूर्ण योग्यता – एक जो पाठ्यक्रम द्वारा स्पष्ट रूप से लक्षित नहीं हो सकती है – वह है समाजीकरण।

जैसा कि डैनियल तस्माजियन ने अपने पेपर में लिखा है, “एलिमेंट्री स्कूल चिल्ड्रन द्वारा प्राप्त समाजीकरण कौशल,” जब बच्चे स्कूल शुरू करते हैं, तो यह आमतौर पर पहली बार होता है कि उनके रिश्तेदारों के अलावा अन्य वयस्क उनके व्यवहार की निगरानी करते हैं। स्कूल वह एजेंसी बन जाती है जो पहले सामाजिक रिश्तों को व्यवस्थित करती है, और कक्षा वह स्थान बन जाती है जहाँ बच्चे अपने माता-पिता की उपस्थिति के बिना अपने साथियों के साथ सामाजिक व्यवहार करना सीखते हैं। प्राथमिक शिक्षा का उद्देश्य यह है कि यह जीवन के कई क्षेत्रों में एक बच्चे की सहायता करता है।

भारत में प्रारंभिक शिक्षा

भारत में प्राथमिक स्कूल कक्षा 1 से कक्षा 8 तक शिक्षा प्रदान करते हैं। इन वर्गों के बच्चे आम तौर पर 6 से 15 वर्ष की आयु के होते हैं। यह बालवाड़ी (प्री-नर्सरी, नर्सरी और ऊपरी बालवाड़ी) के बाद अगला चरण है। प्राथमिक शिक्षा के बाद अगला चरण मध्य विद्यालय (कक्षा 7 वीं से 10 वीं) है।

उत्तर भारत के अधिकांश स्कूलों में कक्षा पहली से तीसरी तक के बच्चों को अंग्रेजी, हिंदी, गणित, पर्यावरण विज्ञान और सामान्य ज्ञान पढ़ाया जाता है। कक्षा 4 वीं और 5 वीं में पर्यावरण विज्ञान विषय को सामान्य विज्ञान और सामाजिक अध्ययन द्वारा बदल दिया जाता है। हालाँकि कुछ स्कूल कक्षा 3 में ही इस अवधारणा को लागू कर सकते हैं।

कुछ स्कूल कक्षा 4 या कक्षा 5 में तीसरी भाषा भी पेश कर सकते हैं। संस्कृत, उर्दू और स्थानीय राज्य भाषा भारतीय स्कूलों में सिखाई जाने वाली तीसरी सबसे आम भाषा है।

राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) भारत में स्कूली शिक्षा के लिए शीर्ष निकाय है। NCERT भारत के कई स्कूलों को सहायता और तकनीकी सहायता प्रदान करता है और शिक्षा नीतियों के प्रवर्तन के कई पहलुओं की देखरेख करता है।

भारत में प्राथमिक शिक्षा की स्थिति

भारत में प्राथमिक शिक्षा की स्थिति अभी भी कुछ चुनौतियों का सामना कर रही है। भारत में बच्चों की अनाधिकृत शिक्षा उनकी शिक्षा के गुणवत्ता को अधिक प्रभावित कर सकती है।

भारत में शिक्षकों की कमी भी एक मुख्य समस्या है। अधिकांश स्कूलों में शिक्षकों की कमी होती है और कुछ जगहों पर शिक्षकों के चयन में भ्रष्टाचार की समस्या भी होती है। विभिन्न राज्यों में शिक्षा व्यवस्था भी अलग-अलग होती है, जिससे बच्चों को अलग-अलग शिक्षा के अवसर मिलते हैं।

हालांकि, भारत सरकार द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में बहुत से कार्य किए जा रहे हैं, जैसे कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के लागू होने से बच्चों को अधिक अवसर मिल रहे हैं। इसके अलावा, सरकार द्वारा स्कूलों में शिक्षकों की भर्ती भी की जा रही है जो बच्चों को अधिक शिक्षा के अवसर प्रदान कर सकती है।

साथ ही, विभिन्न संगठन भी भारत में शिक्षा के क्षेत्र में अपना योगदान दे रहे हैं। उनमें से कुछ संगठन अनुसंधान और शिक्षण के क्षेत्र में काम करते हैं, जबकि अन्य संगठन बच्चों को शिक्षा देने के लिए स्कूल बनाते हैं।

प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में भी कुछ उन्नतियां देखने को मिल रही हैं। भारत में बच्चों को स्कूल भेजने और उन्हें शिक्षा देने के लिए सरकार द्वारा विभिन्न योजनाएं चलाई जा रही हैं। उदाहरण के लिए, सरकार द्वारा स्कूलों में मुफ्त शिक्षा प्रदान की जा रही है, जिससे कि गरीब बच्चों को भी शिक्षा के अवसर मिल सकें।

साथ ही, डिजिटल शिक्षा के क्षेत्र में भी भारत में उन्नति देखने को मिल रही है। सरकार द्वारा लॉन्च की गई डिजिटल शिक्षा योजनाओं के माध्यम से बच्चों को दूरस्थ इलाकों से भी शिक्षा मिलती है।

इसके अलावा, भारत में निजी स्कूलों और संगठनों ने भी शिक्षा के क्षेत्र में अपना योगदान दिया है। ये संगठन बच्चों को अधिक शिक्षा के अवसर प्रदान करने के साथ-साथ उन्हें विभिन स्तर की शिक्षा भी प्रदान करते हैं। इस तरह के संगठनों की मदद से भी भारत में प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में उन्नति देखने को मिल रही है।

समाज को भी इसमें अपना योगदान देना होगा। लोगों को जागरूकता देनी होगी कि बच्चों को शिक्षा देना क्यों जरूरी है और उन्हें स्कूल भेजने के लिए क्यों उत्साहित किय जाना चाहिए। साथ ही, समाज को भी बच्चों के शिक्षा को महत्व देना चाहिए।

भारत में स्कूली शिक्षा प्रणाली को संचालित करने वाले विभिन्न निकाय इस प्रकार हैं: –

1. राज्य सरकार के बोर्ड, जिनमें अधिकांश भारतीय बच्चे नामांकित हैं।

2. केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (CBSE)।

3. काउंसिल फॉर द इंडियन स्कूल सर्टिफिकेट एग्जामिनेशन (CISCE) बोर्ड।

4. राष्ट्रीय मुक्त विद्यालयी शिक्षा संस्थान (NIOS)।

5. अंतर्राष्ट्रीय स्तर के अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम या कैम्ब्रिज अंतर्राष्ट्रीय परीक्षाएँ।

6. इस्लामिक मदरसा, जिसके बोर्ड स्थानीय राज्य सरकारों या स्वायत्त या दारुल उलूम देवबंद से संबद्ध हैं।

7. ऑटोनॉमस स्कूल जैसे वुडस्टॉक स्कूल, ऑरोविले, पाठ भवन और आनंद मार्ग गुरुकुला।

भारत में प्राथमिक / माध्यमिक शिक्षा को प्राथमिक (पहली से 5 वीं कक्षा), उच्च प्राथमिक (छठी से आठवीं कक्षा), निम्न माध्यमिक (9 वीं से 10 वीं कक्षा), और उच्चतर माध्यमिक (11 वीं और 12 वीं कक्षा) के रूप में अलग किया जाता है।

बालवाड़ी: नर्सरी – 3 वर्ष, निचला बालवाड़ी (LKG) – 4 वर्ष, ऊपरी बालवाड़ी (UKG) – 5 वर्ष।

ये सरकारी नियमों के अनुसार अनिवार्य नहीं हैं, लेकिन 1 मानक में शामिल होने से पहले अनुशंसित हैं।
पहली कक्षा: 5 साल या 6
दूसरी कक्षा: 7 साल
तीसरी कक्षा: 8 साल
चौथी कक्षा: 9 वर्ष
पांचवी कक्षा: 10 साल
छठी कक्षा: 11 वर्ष
सातवीं कक्षा: 12 साल
आठवीं कक्षा: 13 वर्ष
नवीं कक्षा: 14 साल
दसवीं कक्षा: 15 साल
ग्यारवीं कक्षा: 16 साल
बारहवीं कक्षा: 17 साल

निष्कर्ष

प्राथमिक शिक्षा शैक्षिक यात्रा का एक अनिवार्य हिस्सा है। यह आगे की शिक्षा के लिए एक मजबूत नींव रखने में मदद करता है और बच्चों को बुनियादी ज्ञान और कौशल से लैस करता है जो बाद में उन्हें जीवन में लाभान्वित करेगा। प्राथमिक शिक्षा सम्मान, अनुशासन और जिम्मेदारी जैसे मूल्यों को भी स्थापित करती है – एक सफल भविष्य के लिए महत्वपूर्ण लक्षण।

प्राथमिक शिक्षा के अंतर्निहित अर्थ को पहचानना महत्वपूर्ण है, जो पारंपरिक शैक्षणिक उद्देश्यों से परे है। यह छात्रों को जीवन के बहुमूल्य सबक प्रदान करता है और उन्हें समाज में बेहतर योगदान देने वालों के रूप में आकार देता है।

Individual Differences

व्यक्तिगत विभिन्नताओं की इस परिभाषा से स्पष्ट है कि उसमें मनुष्य व्यक्तिगत के वे सभी पहलू आते हैं, जिनको किसी न किसी प्रकार से मापा जा सकता है। इस प्रकार के पहलू अनेक हो सकते हैं; जैसे- परिवर्तनशीलता, सामान्यता, बाल विकास और सीखने की गति में अन्तर, व्यक्तित्व के विभिन्न लक्षणों में परस्पर सम्बन्ध, अनुवांशिकता और परिवेश का प्रभाव इत्यादि।

इस प्रकार भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में शारीरिक और मानसिक विकास, स्वभाव, सीखने की गति और योग्यता, विशिष्ट योग्यताएँ, रुचि तथा व्यक्तित्व आदि में अन्तर देखा जा सकता है।

शिक्षण में अनेक प्रकार की समस्याएँ बालकों के व्यक्तिगत भेद उत्पन्न कर देते हैं; जैसे- अध्यापक किस कक्षा में किस प्रणाली से पढ़ाये कि सभी बालक समान रूप से लाभ उठा सके।

वैयक्तिक दृष्टि से वैयक्तिक भेदों का अध्ययन सबसे पहले गाल्टन ने प्रारम्भ किया था तब से इस विषय पर अनेक अनुसन्धान हो चुके हैं, जिनके आधार पर मनोवैज्ञानिकों और शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा की कई नयी प्रणालियों का विकास किया है। यद्यपि अध्यापक के लिये व्यक्तिगत तरीके से कई प्रकार की समस्याओं को उत्पन्न करते हैं। किन्तु समाज की और व्यक्ति की दृष्टि से वे बहुत महत्त्वपूर्ण है।

एक समय था जब व्यक्ति की आवश्यकताएँ सीमित थी, जिनको वह सरलता से पूरा कर लेता था। आधुनिक युग में हमें विभिन्न प्रकार की विशेष योग्यताओं वाले व्यक्तियों को आवश्यकता है जो समाज के विकास में विभिन्न योग दे सकें।

व्यक्तिगत भेद व्यक्ति विशेष के लिये भी महत्त्वपूर्ण होते हैं क्योंकि उसका उनके विकास में सन्तोष तथा आनन्द मिलता है और वह अपनी योग्यताओं के अनुकूल विकास कर सकता है। व्यक्तिगत भेदों के अध्ययन से बालकों की व्यक्तिगत योग्यताओं का पता लगाकर उनका उचित विकास कर सकते हैं।

वैयक्तिक भिन्नता के अन्तर्गत शारीरिकमानसिकसामाजिकसांस्कृतिक आदि भिन्नताओं का अध्ययन किया जाता है।

स्किनर (Skinner) के शब्दों में, “बालक के प्रत्येक सम्भावित विकास का एक विशिष्ट काल होता है। यह विशिष्ट काल प्रत्येक व्यक्ति में वैयक्तिक भिन्नता के अनुसार पृथक्-पृथक् होता है। उचित समय पर इस सम्भावना का विकास न करने से नष्ट हो सकता है।

व्यक्तिगत विभिन्नता की निम्न परिभाषाएँ हैं-

स्किनर (Skinner) के अनुसार व्यक्तिगत विभिन्नता की परिभाषा

“मापन किया जाने वाला व्यक्तित्व का प्रत्येक पहलू वैयक्तिक भिन्नता का अंश है।”

टायलर (Tayler) के शब्दों में व्यक्तिगत विभिन्नता की परिभाषा

“शरीर के आकार और रूप, शारीरिक कार्य गति की क्षमताओं, बुद्धि, उपलब्धि, ज्ञान, रुचियों, अभिवृत्तियों और व्यक्तित्व के लक्षणों में मापी जाने वाली भिन्नताओं का अस्तित्व सिद्ध हो चुका है।”

जेम्स ड्रेवर (James Drever) के अनुसार व्यक्तिगत विभिन्नता की परिभाषा

“औसत समूह से मानसिक, शारीरिक विशेषताओं के सन्दर्भ में समूह के सदस्य के रूप भिन्नता या अन्तर को वैयक्तिक भेद या व्यक्तिगत विभिन्नता कहते है।”

वैयक्तिक विभिन्नताओं के प्रकार

Types of Individual Differences

बुद्धिहीन प्राणियों की क्रियाओं में बहुत कुछ समानता पायी जाती है क्योंकि उनकी समस्त क्रियाएँ अनुकरण तथा उनकी मूल प्रवृत्तियों से प्रभावित होती हैं परन्तु मनुष्य की समस्त क्रियाओं में जितनी विभिन्नता पायी जाती है, उतनी अन्य प्राणियों में नहीं क्योंकि मानव-व्यवहार केवल मूल-प्रवृत्तियों से ही नहीं, अपितु चार अमूर्त तत्त्वों– मनबुद्धिचित्त तथा अहंकार से भी प्रभावित होता है।

इस दृष्टि से व्यक्तियों या बालकों में निम्न वैयक्तिक विभिन्नताएँ पायी जाती हैं- (1) शारीरिक (Physical), (2) बौद्धिक (Intellectual), (3) सामाजिक (Social), (4) भावात्मक या सांवेगिक (Emotional), (5) नैतिक (Ethical), (6) सांस्कृतिक (Cultural) तथा (7) प्रजातीय (Racial)।

पुनः इन विभिन्नताओं में भी कई उप-विभिन्नताएँ हो सकती हैं, जैसे – शारीरिक विभिन्नताओं में रूपरंगआयुयोनिशक्ति आदि से सम्बन्धित विभिन्नताएँ। साथ ही इन विभिन्नताओं को प्रभावित करने वाले भी कई तत्त्व हो सकते हैं। इन सभी तथ्यों का उल्लेख आगे किया गया है।

1. शारीरिक विभिन्नताएँ (Physical differences)

लिंगीय पद को हम अलग न लेकर शारीरिक भेदों के अन्तर्गत ही ले रहे हैं। इस दृष्टि से कोई स्त्री है तो कोई पुरुष। इसी आधार पर बालक–बालिका, स्त्री-पुरुष, वृद्ध-वृद्धा आदि भेद होते हैं। इनमें अर्थात् बालक या बालिकाओं आदि में उनकी आयु, वजन, कद, शारीरिक गठन आदि की दृष्टि से भी भेद होते हैं। यहाँ तक कि जुड़वाँ बच्चे (Twins) भी समान नहीं होते।

पुनः शारीरिक अंगों की दृष्टि से भी किसी अंग की कमी हो सकती है और किसी में किसी अंग का विशेष उभार इस दृष्टि से भी बड़े भेद होते हैं। रंग की दृष्टि से भी कोई काला होता है और कोई गोरा।

अतः शारीरिक दृष्टि से वैयक्तिक विभिन्नताओं के आधार हैं (1) आयु (Age), (2) वजन (Weight), (3) योनि (Sex), (4) कद (Size of the body), (5) रंग (Colour)। (6) किसी अंग-विशेष की कमी या उभार आदि।

2. बौद्धिक विभिन्नताएँ (Intellectual differences)

बौद्धिक दृष्टि से भी सभी व्यक्ति समान नहीं होते। एक ही माता–पिता के सभी बच्चे और यहाँ तक की जुड़वाँ बच्चे भी बौद्धिक दृष्टि से समान नहीं होते। कोई मन्द बुद्धि होता है तो कोई सामान्य बुद्धि और कोई बौद्धिक दृष्टि से अति प्रखर।

3. सामाजिक विभिन्नताएँ (Social differences)

सामाजिक दृष्टि से भी बालकों में अनेकों विभिन्नताएँ पायी जाती हैं –

  • कुछ व्यक्ति बड़े जल्दी मित्र बना लेते हैं तो कुछ प्रयत्न करने पर भी मित्र नहीं बना पाते क्योंकि उन्हें मित्र बनाने की कला आती ही नहीं।
  • कुछ को अधिकतर लोग पसन्द करते हैं और कुछ को कोई नहीं, अर्थात् कुछ बड़े लोकप्रिय (Popular) होते हैं तो कुछ एकांकी (Isolated)।
  • कुछ सभी के साथ उठना-बैठना पसन्द करते हैं तो कुछ को अकेलापन और एकान्तप्रियता अधिक पसन्द है।
  • कुछ बड़ी विनोदी प्रकृति वाले और सामाजिक होते हैं तो कुछ शर्मीले और अपने ही हाल में मस्त रहने वाले।

सामाजिकता की यह भावना छोटे-बड़े, बाल-वृद्ध, स्त्री-पुरुष तथा धनी-निर्धन सभी में अलग-अलग रूपों में पायी जाती है। नियम तो नहीं, फिर भी सामान्यतया –

  • जितना छोटा वर्ग या समूह होगा, उसमें सामाजिकता की भावना उतनी ही अधिक होगी।
  • स्वयं को ज्ञान, धन, जाति, वर्ग आदि की दृष्टि से दूसरों की अपेक्षा ऊँचा समझने वाले लोग, सामाजिक कम और विचारों की सात्विकता वश स्वयं को समान या दूसरों की अपेक्षा कम समझने वाले लोग अधिक सामाजिक होते हैं।
  • इन दोनों ही कारणों से शहर की अपेक्षा गाँव वालों में सामाजिकता की भावना प्रायः अधिक पायी जाती है।
  • अहं एवं सामाजिकता की भावना का विरोधी सम्बन्ध है, अर्थात् जहाँ ‘अहं’ होगा वहाँ ‘सामाजिकता की भावना’ कम और जहाँ ‘अहं’ नहीं होगा, वहाँ ‘सामाजिकता की भावना’ अधिक पायी जायेगी।

इन दृष्टियों से सभी बालक और व्यक्तियों में भी भिन्नता पायी जाती है। भारतीय मनोवैज्ञानिक के अनुसार संवेगों की संख्या 10 और मनोवैज्ञानिक मैक्डूगल के अनुसार यह संख्या 14 है। इनमें से प्रत्येक व्यक्ति में किसी संवेग का उभार अधिक और किसी का कम होता है। किसी को क्रोध अधिक आता है तो किसी को दया। कोई अति भीरू है तो कोई बहुत साहसी।

4. नैतिक विभिन्नताएँ (Ethical differences)

नैतिकता का मूल आधार अच्छाई और बुराई है। परन्तु अच्छाई और बुराई दोनों ही परिस्थिति सापेक्ष्य शब्द है। जो बात किसी भी व्यक्ति या बालक को अच्छी लगती है, वही बात दूसरे व्यक्ति को बुरी भी लग सकती है। नैतिकता की मोटी पहचान यही हो सकती है कि जो कार्य हम दूसरों के हित की परवाह न करके अपने स्वार्थ-सिद्धि के लिये करते हैं, सामान्यतया वही अनैतिकता है, जबकि जो कार्य परहित की दृष्टि से किये जाते हैं, वे नैतिकता में आते हैं।

इस दृष्टि से भी व्यक्तियों और बालकों में पर्याप्त अन्तर पाया जाता है। कुछ बालक चोरी को भी बुरा नहीं समझते, झूठ बोलना उन्हें अच्छा लगता है, जबकि कुछ लोग या बालक ऐसा करना नैतिकता के विरुद्ध समझते हैं। यह अन्तर एक परिवार के दो सदस्यों में भी पाया जा सकता है।

ये भेद भी आज से नहीं, अपितु आदिकाल से चले आ रहे हैं। रावण और विभीषण दोनों भाई होते हुए भी एक राम द्रोही था तो दूसरा राम-भक्त। अग्रसेन और कंस में देखिये, पिता कृष्ण-भक्त था तो बेटा कृष्ण-द्रोही। ये भेद
आज भी समाज में पाये जाते हैं। इस दृष्टि से भाई-भाई, बाप-बेटे, भाई-बहन, स्त्री-पुरुष आदि सभी में असमानताएँ हो सकती हैं।

5. सांस्कृतिक विभिन्नताएँ (Cultural differences)

प्रत्येक देश की एक विशेष संस्कृति होती है। जो व्यक्ति जिस देश में पला है, वहाँ की संस्कृति का उस पर प्रभाव पड़ता ही है। कुछ देशों में लोग प्रेम विवाह को सर्वोत्तम बन्धन मान सकते हैं, जबकि हमारी भारतीय
संस्कृति में पले हुए लोग इसे निकृष्टतम बन्धन मानते हैं। भारतीय संस्कृति में पले हुए लोग माता-पिता और बच्चों के प्रति अपने कर्त्तव्य के लिये जितने सजग हैं, उतने अन्य संस्कृति वाले सभी लोग नहीं। यह हमारी संस्कृति का प्रभाव है। इस दृष्टि से भी व्यक्तियों की मान्यताओं एवं मूल्यों में अन्तर होता है।

6. प्रजातीय विभिन्नताएँ (Racial differences)

प्रजाति से हमारा तात्पर्य यहाँ वर्णागत- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्रों से नहीं, अपितु उन प्रजातियों से हैं जो आदिकाल में थी और उनकी सन्ताने अभी तक चली आ रही हैं, उदाहरणार्थ- आर्यों की सन्तानें, हूण और शकों की सन्तानों आदि से भिन्न है। आज भी अफ्रीका के हब्शी अति काले होते हैं और शीत प्रधान देशों के लोग अति गोरे।

प्रजातीय आधार पर काले-गोरे रंग का भेद नहीं, अपितु उनकी मान्यताओं में भी भेद है। यही नहीं, एक ही देश में भी इस प्रकार की कई प्रजातियाँ हो सकती हैं।

7. धार्मिक विभिन्नताएँ (Religious differences)

धर्म से यहाँ हमारा आशय सम्प्रदाय से है। प्रचलित अर्थ में जिसे हम धर्म कहते हैं, वह वास्तव में धर्म न होकर सम्प्रदाय है। आप कुछ भी नाम दे, लेकिन इस दृष्टि से भी लोगों में भेद होते हैं। जैन लोग चीटी तक को मारना पाप समझते हैं, कन्द मूलों को खाना उचित नहीं समझते, जबकि कुछ सम्प्रदायों में ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है।

वैयक्तिक विभिन्नताओं के इन रूपों के अतिरिक्त रुचियाँ (Interests), अभिवृत्तियाँ (Attitudes), अभिक्षमताएँ (Aptitudes) आदि भी वैयक्तिक विभिन्नताओं को जन्म देती हैं।

वैयक्तिक विभिन्नताओं के कारण

Causes of Individual Differences

हमने जितने भी प्रकार की वैयक्तिक विभिन्नताएँ पढ़ी, उनमें से पहली दो, अर्थात शारीरिक एवं बौद्धिक विभिन्नताओं पर आनुवांशिकता का प्रभाव अधिक पड़ता है और वातावरण का कम, जबकि अन्य विभिन्नताओं पर वातावरण का प्रभाव अधिक और आनुवांशिकता का कम पड़ता है। प्रजातीय विभिन्नताओं को भी ये दोनों ही कारक प्रभावित करते हैं। इन सभी पर आयु (Age) और परिपक्वता (Maturity) का भी प्रभाव पड़ता है।
इस प्रकार वैयक्तिक विभिन्नताओं को मूलत: दो बातें प्रभावित करती हैं –

  1. आनुवांशिकता (Heredity)
  2. वातावरण (Environment)

इनके अतिरिक्त वैयक्तिक विभिन्नताओं को प्रभावित करने वाले अन्य कारक नीचे दिए हुए हैं। ये कारक वैयक्तिक विभिन्नताओं को किस प्रकार प्रभावित करते हैं इसका विवेचन इस प्रकार है-

1. आनुवंशिकता एवं वैयक्तिक विभिन्नताएँ (Heredity and individual differences)

उपरोक्त जितने प्रकार से वैयक्तिक भेद दिये गये हैं- उनमें रूप, रंग और बुद्धि (Intelligence), वंशानुक्रमण से अधिक प्रभावित होते हैं। माता-पिता का जो रूप-रंग होता है, वहीं बच्चों में भी आ जाता है। किन्तु यहाँ एक स्वाभाविक प्रश्न मन में उठता है कि यदि यह सत्य है तो एक ही माता-पिता के सभी बच्चे समान होने चाहिये, उनमें भेद की बिल्कुल सम्भावना नहीं, परन्तु ऐसा होता नहीं। एक ही माता-पिता के सभी बच्चे यहाँ तक की जुड़वाँ बच्चे भी समान नहीं होते।

फिर, यह अन्तर क्यों? इस अन्तर को स्पष्ट करने के लिये मनोवैज्ञानिक खोजों ने यह सिद्ध कर दिया है कि बच्चे पर केवल माता-पिता का ही प्रभाव नहीं पड़ता, अपितु दादा-दादी (Grand Father and Grand Mother) एवं नाना-नानी का भी प्रभाव पड़ सकता है। यही नहीं एक ही माता-पिता के जो अलग-अलग गुण होते हैं, उनमें भी सभी बच्चे उन्हीं गुणों से और समान रूप से प्रभावित हो यह भी आवश्यक नहीं।

किसी में माँ के गुण अधिक आते हैं तो किसी में पिता के। इन सभी दृष्टियों से दो बच्चे कभी भी समान नहीं हो सकते। लम्बी बीमारियों का अनुक्रमण भी वंश से ही होता है। माता या पिता को जी बीमारी होती है, वही बच्चों में भी आ सकती है। हाँ, एक बात अवश्य है कि अंगों की विकृति का विशेष प्रभाव बच्चों पर नहीं पड़ता, उदाहरण के लिये- लंगड़े माता-पिता का बच्चा भी लंगड़ा हो, ऐसा नहीं होता।

शरीर एवं बुद्धि पर आनुवंशिकता के प्रभाव को वैसे भी यदि देखा जाय तो सामान्यतया किसी भी परिवार का सबसे बड़ा बालक स्वास्थ्य की दृष्टि से हष्ट-पुष्ट मिलेगा और बौद्धिक दृष्टि से कमजोर, जबकि सबसे छोटा बालक अपने सभी भाई-बहनों में शारीरिक दृष्टि से दुर्बल और बौद्धिक दृष्टि से प्रखर होगा। यह क्यों? यह इसलिये है कि प्रारम्भ में माता-पिता शारीरिक दृष्टि से जितने हष्ट-पुष्ट होते हैं, बौद्धिक दृष्टि से उतने परिपक्व नहीं।

धीरे-धीरे वे शारीरिक दृष्टि से दुर्बल तथा बौद्धिक दृष्टि से परिपक्व होते जाते हैं और यही प्रभाव उनकी सन्तानों पर पड़ता जाता है। यह कोई शाश्वत नियम नहीं है इसके अपवाद और उसके कारण भी हो सकते हैं।

2. वातावरण एवं वैयक्तिक विाभन्नताए (Environment and individual differences)

शारीरिक एवं बौद्धिक विभिन्नताओं के अतिरिक्त जो सामाजिक, संवेगात्मक, नैतिक, धार्मिक प्रकार की विभिन्नताएँ होती हैं उन पर वातावरण का प्रभाव अधिक पड़ता है। भाषा आदि सभी पर्यावरण से ही सीखी जाती है। इसी प्रकार रीति-नीतियों आदि का सम्बन्ध भी वातावरण से ही अधिक है। गुजरात में पैदा होने वाले बच्चे गुजराती सीख जाते हैं तो मेवाड़ में रहने वाले मेवाड़ी। क्यों ? क्योंकि वहाँ प्राय: वही भाषाएँ बोली जाती हैं।

इसी प्रकार यदि आप नैतिक दृष्टि से लें तो भी किसी क्षेत्र तथा सम्प्रदाय विशेष में जो बात अच्छी समझी जाती है, वही बात दूसरे क्षेत्र तथा सम्प्रदाय में बुरी भी समझी जा सकती है। कहीं पर एक से अधिक शादियाँ करना अच्छा समझा जाता है कहीं पर बुरा। इन सभी मान्यताओं पर वातावरणीय प्रभाव है।

रूप-रंग, बुद्धि आदि पर वंशानुक्रमण का प्रभाव अधिक होता है परन्तु इसका यह आशय कदापि नहीं कि उन पर वातावरण का प्रभाव पड़ता ही नहीं है। वातावरण के प्रभाव से भी उनमें थोड़ा बहुत परिवर्तन सम्भव है। यदि किसी बच्चे को प्रारम्भ से ही ऐसे वातावरण में रखा जाय जहाँ वह बौद्धिक दृष्टि से किसी बात पर विचार करे तो उसकी बुद्धि में थोड़ा बहुत परिवर्तन अवश्य आता है।

इसी प्रकार ठण्डी जलवायु में रंग कुछ गोरा और गर्म जलवायु में काला हो जाता है। यहाँ यह भी स्पष्ट होना चाहिये कि वातावरण के प्रभाव से रूप, रंग, बुद्धि, शारीरिक गठन आदि में थोड़ा ही परिवर्तन सम्भव है, बहुत अधिक नहीं।

काले को गोरा और गोरे को काला या बुद्धू को बुद्धिमान और बुद्धिमान को नितान्त बुद्धू केवल वातावरण के प्रभाव से नहीं बनाया जा सकता। संक्षेप में वंशानुक्रमण और वातावरण के प्रभाव से जो वैयक्तिक भेद होते हैं, उस सम्बन्ध में यही कहा जा सकता है किबालक में जन्म के समय से जो भी बातें पायी जाती हैं, उन पर वंशानुक्रमण का प्रभाव अधिक होता है, जबकि जिन्हें वह बाद में सीखता है, वे वातावरण के प्रभाव से अधिक सीखी जाती हैं।

पिछड़े हुए क्षेत्रों में रहने वाली पिछड़ी जातियाँ अभी भी ईश्वर से डरती हैं, चोरी करना पाप समझती हैं, जबकि बड़े-बड़े शहरों में रहने वाले लोगों में से बहुत से इसे बिल्कुल बुरा नहीं समझते। यह सभी वातावरण का ही प्रभाव है।

 Inclusive Education

समावेशी शिक्षा की अवधारणा क्या है (Inclusive Education concept)

समावेशी शिक्षा एक ऐसी शिक्षा होती है जिसमें सामान्य बालक-बालिकाएं और मानसिक तथा शारीरिक रूप से बाधित बालक एवं बालिकाओं सभी एक साथ बैठकर एक ही विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करते हैं। समावेशी शिक्षा सभी नागरिकों समानता के अधिकार की बात करता है और इसीलिए इसके सभी शैक्षिक कार्यक्रम इसी प्रकार के तय किए जाते हैं ऐसे संस्थानों में विशिष्ट बालकों के अनुरूप प्रभावशाली वातावरण तैयार किया जाता है और नियमों में कुछ छूट भी दी जाती है जिससे कि विशिष्ट बालकों को समावेशी शिक्षा के द्वारा सामान्य विद्यालयों में सामान्य बालकों के साथ कुछ अधिक सहायता प्रदान करने की कोशिश की जाती है।

समावेशी शिक्षा का अर्थ (Inclusive Education meaning)

समावेशी शिक्षा को अंग्रेजी में Inclusive Education कहा जाता है जिसका अर्थ होता है सामान्य तथा विशिष्ट बालक बिना किसी भेदभाव के एक ही विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करना।

समावेशी शिक्षा की परिभाषा (inclusive education definition)

स्टीफन एवं ब्लैकहर्ट के अनुसार :- “शिक्षा के मुख्य धारा का अर्थ बालकों की सामान्य कक्षाओं में शिक्षण व्यवस्था करना है या समान अवसर मनोवैज्ञानिक सोच पर आधारित है जो व्यक्तिगत योजना के द्वारा उपयुक्त सामाजिक मानवीकरण और अधिगम को बढ़ावा देती है।”

यरशेल के अनुसार :- “समावेशी शिक्षा के कुछ कारण योग्यता लिंग, प्रजाति, जाति, भाषा, चिंता का स्तर, सामाजिक और आर्थिक स्तर विकलांगता व्यवहार या धर्म से संबंधित होते हैं।

शिक्षा शास्त्रियों के अनुसार :- ” समावेशी शिक्षा अधिगम के ही नहीं बल्कि विशिष्ट अधिगम के नए आयाम खुलती है।”

अन्य शिक्षा शास्त्रियों के अनुसार : – “समावेशी शिक्षा वह शिक्षा होती हैं जिसमें सामान्य बालक बालिकाएं तथा विशिष्ट बालक बालिकाएं एक ही विद्यालय में बिना किसी भेदभाव के एक साथ शिक्षा ग्रहण करते हैं।” 

समावेशी शिक्षा की विशेषताएं(characteristics of inclusive education in hindi, features of inclusive education )

१. समावेशी शिक्षा व्यवस्था में शारीरिक रूप से बाधित बालक विशिष्ट बालक तथा सामान्य बालक साथ साथ सामान्य कक्षा में शिक्षा ग्रहण करते हैं इसमें बाधित बालकों को कुछ अधिक सहायता प्रदान करने की कोशिश की जाती है।

२. समावेशी शिक्षा विशेष शिक्षा का विकास नहीं बल्कि पूरक है। बहुत कम बाधित बच्चों को समावेशी शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश कराया जा सकता है किंतु गंभीर रूप से बाधित बालकों को विशेष शिक्षण संस्थानों में संप्रेषण गुण एवं अन्य आवश्यक प्रतिभा ग्रहण करने के पश्चात ही समावेशी विद्यालयों में इनका प्रवेश कराया जाता है।

३. समावेशी शिक्षण व्यवस्था में शिक्षा का ऐसा प्रारूप तैयार किया गया है जिसमें बालकों को समान शिक्षा का अवसर प्राप्त हो और वह समाज में सामान्य लोगों के तरह ही अपना जीवनयापन कर सके। इसीलिए ऐसे शिक्षण संस्थानों में नियमों में छूट दी जाती हैं और प्रभावशाली वातावरण भी उपलब्ध कराया जाता है जिससे कि विशेषता लिए हुए बालक बहुत कम समय में ही अपने आपको सामान्य बालकों के साथ समायोजित कर लेते हैं।

४. समावेशी शिक्षा समाज में विशिष्ट तथा सामान्य बालकों के मध्य स्वास्थ्य सामाजिक वातावरण तथा संबंध बनाने में जीवन के प्रत्येक स्तर पर सहायक सिद्ध होती हैं। इससे समाज के लोगों में सद्भावना तथा आपसी सहयोग की भावना बढ़ती है।

५. या एक ऐसी व्यवस्था है जिसके अंतर्गत विशिष्ट बालक भी सामान्य बालकों की तरह ही महत्वपूर्ण समझे जाते हैं।

६. समावेशी शिक्षा विशिष्ट बालकों को भी उनके व्यक्तिगत अधिकारों के साथ उसी रूप में स्वीकार करती हैं।

७. समावेशी शिक्षा विशिष्ट बालकों की जीवन स्तर को ऊंचा उठाने एवं उनके नागरिक अधिकारों को सुरक्षित रखने का काम करती है।

८. समावेशी शिक्षा विभिन्न शिक्षाविदों, अध्यापकों, शिक्षण संस्थानों तथा माता-पिताओं के सामूहिक अभ्यास पर आधारित है।

९. समावेशी शिक्षा शिक्षण की समानता तथा अवसर जो विशिष्ट बालकों को अब तक नहीं दिए गए उनके मूल स्वरूप से शिक्षा के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए एक महत्वपूर्ण शैक्षणिक व्यवस्था है।

समावेशी शिक्षा का क्षेत्र (scope of inclusive education in hindi)

समावेशी शिक्षा शारीरिक एवं मानसिक रूप से बाधित सभी बच्चों के लिए है। यह ऐसे प्रत्येक बालक के लिए शिक्षा एवं सामान्य शिक्षक की बात करता है। जो इससे लाभ प्राप्त करने के योग्य है अतः समावेशी शिक्षा का कार्य क्षेत्र ऐसे सभी बालकों के बीच अपनी पहुंच बनाना है एवं उन्हें अधिगम प्रदान कर सामान्य जीवन यापन हेतु अग्रसर करना है।

१. शारीरिक रूप से बाधित बालक

२. मानसिक रूप से बाद बालक

३. सामाजिक रुप से बाधित/विचलित बालक

४. शैक्षिक रूप से बाधित बालक

समावेशी शिक्षा के लाभ (inclusive education benefits)

    १.समावेशी शिक्षा के कारण अक्षम बालक सामान्य बालक के साथ एक ही कक्षा में बैठकर शिक्षा ग्रहण करता है।

    २.समावेशी शिक्षा के कारण वैयक्तिक विभिन्नताओं को दूर करने में मदद मिलती है साथ ही बच्चों के बीच एक लघु समाज का निर्माण किया जाता है ।

    ३.समावेशी शिक्षा की मदद से भेदभाव,छूआ छूत जैसे भाव को दूर किया जा सकता है, क्योंकि कि इसमें सामान्य बालक, अक्षम बालक तथा विशिष्ट बालक सभी को एक समान लाभ मिलता है।

    ४.समावेशी शिक्षा समायोजन का एक विशिष्ट उदाहरण है।

    ५. विशिष्ट बालक, अपंग बालक, या अक्षम बालक की विभिन्न समस्या को जानकर उनके उन समस्याओं की समाधान में समावेशी शिक्षा सहायक होती है।

    ६ समावेशी शिक्षा उन बालकों के लिए भी लाभप्रद है जो समस्यात्मक बालक होते हैं समावेशी शिक्षा उनके उन कमजोरी को जानकर उनके समस्या को दूर करने का प्रयास करता है तथा उन्हें  समस्यात्मक बालक बनने से रोकता है।

समावेशी शिक्षा की आवश्यकता(need of inclusive education in hindi, inclusive education needs)

समावेशी शिक्षा की आवश्यकता हर देश में आवश्यक है क्योंकि बालक समावेशी शिक्षा की सहायता से सामान्य रूप से शिक्षा ग्रहण करता है तथा अपने आप को सामान्य बालक के समान बनाने का प्रयास करता है भले ही समावेशी शिक्षा में प्रतिभाशाली बालक, विशिष्ट बालक, अपंग बालक और बहुत सारे ऐसे बालक होते हैं जो सामान्य बालक से अलग होते हैं उन्हें एक साथ इसलिए शिक्षा दी जाती है क्योंकि उन बालकों में अधिगम की क्षमता को बढ़ाया जा सके।

नीचे हम समावेशी शिक्षा की आवश्यकताओं के बारे में बिंदु बद रूप से पढ़ेंगे –

१. समावेशी शिक्षा व्यवस्था के माध्यम से समावेशी शिक्षा बालकों के लिए एक ऐसा अवसर प्रदान करता है जिसमें अपंग बालकों को सामान्य बालकों के साथ मानसिक रूप से प्रगति प्राप्त करने का अवसर मिलता है।

२. समावेशी शिक्षा एक ऐसा शिक्षा है जिसमें शिक्षा के समानता के सिद्धांत का अनुपालन किया जाता है साथ ही इस शिक्षा के माध्यम से शैक्षिक एकीकरण भी संभव होता है।

३. जैसे कि ऊपर बताया गया है कि इसमें सामान्य तथा अपंग बालक दोनों ही एक साथ सामान्य रूप से शिक्षा ग्रहण करते हैं जिससे उन दोनों के बीच प्राकृतिक वातावरण का निर्माण होता है जिससे बालकों में एकता, भाईचारा और समानता का भावना उत्पन्न होता है।

४. जहां सामान्य बालक और विशिष्ट बालक एक साथ शिक्षा ग्रहण करते हैं वहां शिक्षा में भी कम खर्च होता है क्योंकि जहां अलग-अलग शिक्षा के लिए  जितना खर्च किया जाता है वह केवल समावेशी शिक्षा कम खर्च या लागत में कर लेता है।

५.समावेशी शिक्षा वह शिक्षा होती है जहां लघु समाज का निर्माण होता है क्योंकि यहां हर तरह के बालक एक ही साथ शिक्षा ग्रहण करते हैं जिसके कारण उनमें नैतिकता की भावना, प्रेम, सहानुभूति, आपसी सहयोग जैसे गुण आसानी से बढ़ाया जा सकता है।

६. समावेशी शिक्षा के द्वारा बच्चों में शिक्षण तथा सामाजिक स्पर्धा जैसे भावनाओं का भी विकास किया जाता है।

७. आज के युग में समावेशी शिक्षा का विशेष महत्व है क्योंकि यह शिक्षा ही आज के समाज में बदलाव ला सकता है इसलिए समावेशी शिक्षा को ज्यादा से ज्यादा प्रोत्साहन देना चाहिए।

समावेशी शिक्षा का महत्व (importance of inclusive education in hindi)

समावेशी शिक्षा का महत्व निम्नलिखित हैं-

१. समावेशी शिक्षा के द्वारा बालकों में एकता या समानता का विकास होता है

२. जैसे कि ऊपर बताया गया है कि इसमें सामान्य तथा विशिष्ट दोनों ही बालक एक साथ पढ़ते हैं इसलिए या शिक्षा कम खर्चीली भी होती है।

३. समावेशी शिक्षा के द्वारा बालकों का मानसिक विकास उनके अंदर नैतिक विकास सामाजिक विकास और आत्मसम्मान की भावना का विकास सही रूप से किया जाता है।

४. जहां सभी बालक एक साथ शिक्षा ग्रहण करता हो वहां प्राकृतिक वातावरण का विकास होना निश्चित है।

५. यह शिक्षा समायोजन की समस्याओं को दूर करने के लिए महत्वपूर्ण है।

समावेशी शिक्षा के सिद्धांत (Theory of inclusive education, theory of inclusive special education)

समावेशी शिक्षा के निम्नलिखित सिद्धांत है-

१. वातावरण नियंत्रण पूर्ण होना

समावेशी शिक्षा में हर तरह के बालक एक ही कक्षा में शिक्षा ग्रहण करते हैं जिसके कारण उन में विभिन्न तरह के वातावरण उत्पन्न होता है वातावरण को एक ही वातावरण में डालने का काम समावेशी शिक्षा करता है।

२. विशिष्ट कार्यक्रमों द्वारा शिक्षा

समावेशी शिक्षा विशिष्ट कार्यक्रमों द्वारा बालकों को शिक्षा प्रदान करने का सबसे अच्छा तरीका है बालक विशिष्ट कार्यक्रमों में भाग लेकर या उन्हें देखकर उनके अंदर अधिगम की शक्ति को बढ़ाया जाता है। इसलिए समावेशी शिक्षा में विशिष्ट कार्यक्रमों द्वारा शिक्षा प्रदान की जाती है।

३. भेदभाव रहित शिक्षा

समावेशी शिक्षा जहां बिना किसी भेदभाव के सामान्य तथा विशिष्ट बालकों को एक साथ शिक्षा दी जाती हैं जिससे उनके अंदर भेदभाव की भावना को मिटाया जाता है समावेशी शिक्षा भेदभाव को दूर करने छुआछूत ओं को दूर करने का एक सबसे अच्छा उदाहरण है।

४. माता-पिता द्वारा सहयोग प्रदान करना

समावेशी शिक्षा में ना केवल बच्चों की शिक्षा में शिक्षक ही सहायक होते हैं बल्कि उन बच्चों के माता-पिता भी उनके शिक्षा में सहयोग प्रदान करते हैं उनकी सहायता करते हैं। जिससे उनके अंदर अधिगम की शक्ति को और भी ज्यादा बढ़ाया जाता है बच्चे अपने माता-पिता के सहयोग पाकर और अच्छी तरह से अधिगम कर पाते हैं।

५. व्यक्तिगत रूप से विभिन्नता

जो बालक समावेशी शिक्षा ग्रहण करते समय उन्हें किसी भी प्रकार की परेशानी या दिक्कत होती है तो उन्हें व्यक्तिगत रूप से वे शिक्षा दी जाती है ताकि उन्हें सामान्य बालकों के सामान बनाया जा सके।

६. लघु समाज का निर्माण

समावेशी शिक्षा में हर प्रकार के बालक जैसे सामान्य बालक प्रतिभाशाली बालक विशिष्ट बालक अपंग बालक एक ही विद्यालय में एक ही साथ शिक्षा ग्रहण करते हैं जिससे उनमें एक लघु समाज का निर्माण होता है।

समावेशी शिक्षा में शिक्षक में किन शिक्षण दक्षताओं का होना आवश्यक है (What are the teaching competencies a teacher should have in inclusive education)

समावेशी शिक्षा में शिक्षक में इन शिक्षण दक्षताओं का होना आवश्यक है:-

1.अभिप्रेरणा सीखने का महत्वपूर्ण आधार होती है। यह व्यक्ति के व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों से संबंध होती है। अतः शिक्षक को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह छात्रों को नकारात्मक प्रेरणा प्रदान ना करें, जिससे कि वे डर जाए। जैसे कक्षा में अपमान निंदा करना, दंड देना क्योंकि कभी-कभी नकारात्मक अभिप्रेरणा से बालक की हानि भी हो जाती है। समावेशी शिक्षा में विभिन्न तरह के विद्यार्थी होते हैं अतः इस बात का ध्यान शिक्षक को हमेशा होना चाहिए और समावेशी शिक्षा में हमेशा सकारात्मक अभिप्रेरणा ही देना चाहिए। एक शिक्षक को बच्चों को अभिप्रेरित करने की पूरी दक्षता होनी चाहिए।

2. समावेशी शिक्षा में एक अध्यापक में यह दक्षता भी होना चाहिए कि किसी कार्य को प्रारंभ करने से पहले छात्रों को यह बता देना चाहिए कि वह कार्य उनकी किन-किन आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकेगी क्योंकि उनकी आवश्यकताएं उन्हीं के अधिगम में उद्दीपन के रूप में कार्य करती है और समावेशी शिक्षा में यह बहुत अहम भूमिका निभाती है।

3. समावेशी शिक्षा में शिक्षकों का कार्यभार सबसे अधिक होता है जिससे उन्हें कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है और वह अत्यंत तनावग्रस्त और निराश हो जाते हैं इसका प्रभाव कक्षा में भी दिखाई देता है अतः शिक्षक में समायोजन करने की दक्षता भी होना चाहिए। प्रत्येक शिक्षक के लिए आवश्यक है कि वह मानसिक रूप से स्वस्थ हो जिससे वह प्रसन्नचित रहकर शिक्षण का कार्य पूर्ण रुचि के साथ कर सकें।

4. शिक्षक का व्यक्तित्व विद्यार्थियों के लिए आदर्श व्यक्तित्व होता है। अतः उसे उच्च चरित्र एवं नैतिक मूल्यों से परिपूर्ण होना चाहिए। शिक्षक को ऐसे कार्य करने चाहिए जिनमें ईमानदारी, नियमबध्दता, जैसे गुणों का परिचय मिलता हो। एक अध्यापक का यह कर्तव्य होना चाहिए कि वह अपने विद्यार्थियों के व्यक्तित्व को नैतिक एवं चारित्रिक रूप से उत्कृष्ट करने का प्रयास करें जिसके लिए उसे स्वयं में इन गुणों का विकास करना पड़ेगा। शिक्षक के निपुणता का प्रभाव विद्यार्थियों पर भी दिखाई पड़ता है।

5. एक दीपक तब तक दूसरे दीपक को प्रज्वलित नहीं कर सकता जब तक वह स्वयं प्रज्वलित नहीं होगा इसलिए शिक्षक में अपने विषय में निपुणता या ज्ञाता या विद्वान होना अत्यंत आवश्यक है। विषय का पूर्ण ज्ञान होने पर शिक्षक कक्षा में पूर्ण आत्मविश्वास के साथ शिक्षण का कार्य कर पाता है।

6. एक शिक्षक में इतनी दक्षता होनी चाहिए कि समावेशी शिक्षा के दौरान वे किस कक्षा में किस प्रकार के सहायक शिक्षण सामग्री(TLM) का उपयोग करें। समावेशी शिक्षा में TLM का विशेष प्रभाव होता है क्योंकि समावेशी शिक्षा ऐसी शिक्षा होती हैं जिसमें हर प्रकार के विद्यार्थी मौजूद होते हैं तो शिक्षक उनके जरूरतों एवं आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए सहायक शिक्षण सामग्री का उपयोग करें।

7. शिक्षक में अपने विचारों को अभिव्यक्त करने की क्षमता होना अनिवार्य है। शिक्षक को अपने ज्ञान को विद्यार्थियों तक पहुंचाना होता है अतः उसमें अपने भावों को प्रकट करने की ऐसी क्षमता होनी चाहिए जो विद्यार्थियों तक पहुंच सके। इसके अतिरिक्त अच्छी भावाभिव्यक्ति के लिए यह भी आवश्यक है कि शिक्षक का उच्चारण स्पष्ट, प्रभावपूर्ण आवाज, भाषा सरल एवं प्रासंगिक उदाहरण युक्त तथा धारा प्रवाह कथन के रूप में हो।

8. समावेशी शिक्षा में हर प्रकार के विद्यार्थी मौजूद होते हैं जिससे एक लघु समाज का निर्माण होता है अत: शिक्षक में इतनी दक्षता होनी चाहिए कि वह इस लघु समाज को व्यापक समाज में कैसे बदल सकता है। इसके लिए वे विभिन्न प्रकार की उदाहरणों का प्रयोग कर सकते हैं।

9. कोई भी विद्यार्थी शिक्षा क्यों ग्रहण करता है ताकि उनके जो लक्ष्य हैं उसे वे पा सके। समावेशी शिक्षा में भी बच्चों के लक्ष्यों को ध्यान में रखकर उन्हें उनके भावी जीवन के लिए तैयार करना चाहिए। एक शिक्षक में इन दक्षताओं का होना भी आवश्यक है।

समावेशी शिक्षा की प्रमुख समस्याओं का वर्णन कीजिए या समावेशी शिक्षा में आने वाली बाधाएं 

समावेशी शिक्षा के दौरान अनेक समस्याओं या बाधाओं का सामना करना पड़ता है जिसमें से कुछ प्रमुख समस्या या बाधा इस प्रकार हैं-

१. शिक्षक में शिक्षण कौशलों की कमी:

समावेशी शिक्षा में विशिष्ट एवं सामान्य बालक अक्षम बालक सभी एक साथ एक ही कक्षा में शिक्षा ग्रहण करते हैं और यही कारण है कि एक शिक्षक को उन सभी बालकों को समान रूप से शिक्षा प्रदान करने की क्षमता होनी चाहिए उन्हें कक्षा के अनुरूप विभिन्न शिक्षण विधियों का उपयोग करना आना चाहिए साथ ही एक शिक्षक में इतनी शिक्षण कौशलों का विकास होना चाहिए कि वह विशिष्ट एवं सामान्य बालकों की समस्या को समझ कर उनकी समस्या का समाधान कर सके पर ये क्षमता सभी शिक्षक पर नहीं पाया जाता है। इसलिए समावेशी शिक्षा की सबसे बड़ी समस्या शिक्षक में शिक्षण कौशलों का विकास में कमी होना है।

२. सामाजिक मनोवृत्ति: 

हम जिस देश या समाज में रहते हैं यहां के लोगों की सामाजिक मनोवृत्ति ही ऐसी है कि अक्षम बालक या विशिष्ट बालको को नकारात्मक भाव से देखते हैं उनके मन में उस बालक के प्रति पहले से ही नकारात्मक भावना बैठ चुका है कि यह बालक आगे अपने जीवन में कुछ नहीं कर पाएगा साथ ही उनके परिवार या माता-पिता उन्हें यूं ही छोड़ देते हैं। उन्हें समाज से दूर रखते हैं। उन्हें शिक्षा देना भी नहीं चाहते और जो बालक आगे भी बढ़ना चाहते हैं उनके मन में यह बातें बैठा दी जाती हैं कि तुमसे ये नहीं हो पाएगा, तुम नहीं कर पाओगे। ये सामाजिक मनोवृत्ति समावेशी शिक्षा की समस्याओं का एक अहम हिस्सा ही है जो हर एक सामान्य व्यक्ति के दिमाग में घर कर बैठा है।

३. शारीरिक बाधाएं:

समावेशी शिक्षा की और एक बड़ी समस्या यह भी है कि जो बालक शारीरिक रूप से अक्षम है बाधिर है ऐसे बालकों को अधिगम में समस्या होती ही है और वह किसी भी चीज को धीरे धीरे सीखते हैं उन्हें सीखने में बहुत ज्यादा मेहनत की आवश्यकता होती है पर उनके इन समस्याओं को नजरअंदाज कर उनके साथ सामान्य बालक जैसे ही व्यवहार, शिक्षण विधियां, प्रवृत्तियों आदि का प्रयोग किया जाता है। जिससे उनमें समस्या उत्पन्न होने लगती हैं।

४. पाठ्यक्रम :

पाठ्यक्रम निर्माण करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि पाठ्यक्रम लाचीला, उपयोगी एवं सामान्य एवं विशिष्ट बालक या अक्षम बालक सभी के अनुरूप हो।

५. भाषा और संवाद में समस्या:

जैसे की हम सब जानते हैं कि समावेशी शिक्षा में हर तरह के बालक शिक्षा ग्रहण करने आते हैं जिसमें कुछ बालक ऐसे होते हैं जो श्रावण वाचन लेखन पठन में बहुत ही पीछे होते हैं। जिसके कारण भाषा को समझने और संवाद करने जैसी समस्याएं उत्पन्न हो जाती है। इससे यह पता चलता है कि समावेशी शिक्षा इतनी आसान नहीं है। इन समस्याओं का सामना सभी शिक्षक नहीं कर पाते है।

६. भारतीय शिक्षा नीतियां से बाधाएं:

भारत में बहुत से ऐसे शिक्षा नीतियां हैं जो समावेशी शिक्षा के बीच रुकावट या बाधा उत्पन्न करती है शिक्षक या स्कूल उन नीतियों के दायरे में रहते हैं जो समावेशी शिक्षा में समस्या उत्पन्न करती है।

आज के इस लेख में हम समावेशी शिक्षा की अवधारणा । समावेशी शिक्षा का अर्थ। समावेशी शिक्षा की परिभाषा । समावेशी शिक्षा की विशेषताएं। समावेशी शिक्षा का क्षेत्र । समावेशी शिक्षा की आवश्यकता। समावेशी शिक्षा के सिद्धांत ।समावेशी शिक्षा का महत्व । समावेशी शिक्षा में शिक्षक में किन शिक्षण दक्षताओं का होना आवश्यक है के बारे में पढ़ा उम्मीद है आप सभी को इस लेख की मदद से काफी कुछ सीखने को मिला होगा। 

समावेश शिक्षा के मुख्य उद्देश्य

समावेशी शिक्षा तथा सामान्य शिक्षा के उद्देश्य लगभग समान होते हैं। जैसे देश का विकास बालको को उपयुक्त शिक्षा के द्वारा मानवीय संस्थानो का विकास, नागरिक विकास, समाज का पुनर्गठन तथा व्यवसायिक कार्यकुशलता आदि प्रदान किया जाना। इन उदेश्यों के अतिरिक्त समावेशी शिक्षा के अन्य उद्देश्यों का वर्णन निम्नलिखित है-

1. शारिरिक अक्षमता वाले बालकों के माता-पिता को निपुणता तथा कार्य कुशलताओं के बारे में समझाना तथा बालकों के समक्ष आने वाली समस्याओं एवं कमियों का समाधान करना।

2. शारीरिक विकृत बालकों की विशेष आवश्यकताओं की सर्वप्रथम पहचान करना तथा उनका निर्धारण करना।

3. शारीरिक दोष की स्थिति के बढ़ने से पूर्व ही उसे रोकने के उपाय करना तथा बालको के सीखने की समस्याओं को ध्यान में रखते हुए कार्य करने की नवीन विधियों द्वारा प्रशिक्षण देना।

4. शारीरिक रूप से अक्षमता वाले बालकों का पुनर्वासन किया जाना चाहिए ।

समावेशी शिक्षा आज के युग में कितनी जरूरी है और क्यों?

अगर हम इस प्रश्न का उत्तर सोचे तो यही कहेंगे कि आज के बदलते परिवेश में कुछ लोगों को ज्यादा महत्व देना तथा कुछ लोगों को बिल्कुल अलग रखना अनैतिक कार्य है। अर्थात कुछ बच्चों को घर के पास ही अच्छे स्कूल में पढ़ाना तथा कुछ बच्चें जिनकी आवश्यकताएं थोड़ी भिन्न हैं उनको दूर किसी विशेष स्कूल में पढ़ाना एक अनैतिक कार्य है। इसके अलावा हम यह कह सकते हैं कि समावेशी शिक्षा इसमें जरूरी है-

१. क्योंकि सभी बच्चे चाहे वह कैसे भी आवश्यकता वाले हो, एक ही समाज में रहना है अतः शुरू से ही एक साथ रखने में उनको समाज में रहने में आसानी होगी।

२. क्योंकि सामान्य विद्यालय सभी जगह है जबकि विशेष विद्यालय दूर शहरों में होते हैं अतः एक ऐसे विशेष आवश्यकता वाले बच्चे को विद्यालय जाने के लिए दूर तक सफर करना पड़े तो या उस बच्चे के मूल अधिकार का हनन है।

     प्रत्येक राष्ट्र अपने यहां के सभी लोगों को साक्षर बनाने का प्रयास करता है ताकि राष्ट्रीय की उन्नति हो सके। यह बात तो सिध्द है कि जिस राष्ट्रीय के ज्यादातर लोग शिक्षित है वह राष्ट्र ज्यादा उन्नति कर रहा है तथा जिस राष्ट्र के कम लोग पढ़े लिखे हैं वह राष्ट्र गरीब हैं।

       अतः समावेशी शिक्षा होने से सभी प्रकार के बच्चे अपने पास के स्कूल में जाकर पढ़ सकते हैं। जो विशेष आवश्यकता वाले बच्चे पहले विशेष स्कूल दूर होने के कारण शिक्षा से वंचित रह जाते थे वे अब समावेशी शिक्षा के आने से पास के स्कूल में ही दूसरे बच्चों के साथ अपनी शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं सभी प्रकार के बच्चों के शिक्षा ग्रहण करने पर राष्ट्र की साक्षरता दर बढ़ेगी तथा भविष्य में वह राष्ट्र अवश्य ही विकसित राष्ट्र बनेगा।

        समावेशी शिक्षा इसलिए भी जरूरी है कि जब एक ही स्कूल में विकलांग बच्चे एवं सामान्य बच्चे पढ़ेंगे तो उन्हें बचपन से ही एक दूसरे की कमियां एवं क्षमताएं जानने का मौका मिलेगा तथा सामान्य बच्चों में विकलांग बच्चों के प्रति रूढ़िवादी विचारधारा दूर होगी वही विकलांग बच्चे सामान्य बच्चों के अच्छे व्यवहारों को सीख सकते हैं।

Child Centered And Progressive Education

बाल केंद्रित शिक्षा(child Centered Education)

बालकेन्द्रित शिक्षा शिक्षा बालक की मूल प्रवृत्तियों, प्रेरणाओं और संवेगों पर आधारित होनी चाहिए ताकि उनकी शिक्षा को नयी दिशा दी जा सके यदि उसमे कोई गलती है तो उसे ठीक किया जा सके इसके अंतर्गत बच्चों का शारीरिक व् मानसिक योग्यताओं का अध्ययन करके उनके आधार पर बच्चों की विकास में मदद करते हैं। जैसे यदि कोई बच्चा मानसिक रूप से या शारीरिक से कमजोर है या आपराधिक गतिविधियों से जुड़ा है तो पहले उसकी उस कमी को दूर किया जाता है। कुछ शिक्षक मनोवैज्ञानिक ज्ञान के आभाव में मार पीट कर ठीक करने की कोशिश करते हैं परन्तु यह स्थिति को और खराब कर देगा। भारतीय शिक्षाविद गिजु भाई ने बाल केंद्रित शिक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है उन्होंने इसके लिए कई प्रसिद्द पुस्तकों की रचना की है जो बाल मनोविज्ञान शिक्षा शास्त्र एवं किशोर साहित्य से सम्बंधित हैं।

  • प्राचीन काल में शिक्षा का उद्देश्य केवल बालकों को ज्ञान याद कराना होता था। लेकिन आधुनिक शिक्षा में बालक को केंद्र मानकर योजना बनाई जाती है।  वर्तमान में बालक के संपूर्ण विकास पर बल दिया जाता है।
  • संपूर्ण विकास में बच्चे का शारीरिक, सामाजिक तथा मानसिक विकास आदि सभी पक्ष आते हैं। अतः शिक्षक को शिक्षा मनोविज्ञान का ज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है।
  • इस व्यवस्था में प्रत्येक बालक की और अलग से ध्यान दिया जाता है पिछड़े और मंद बुद्धि वाले  बालकों के लिए अलग-अलग पाठ्यक्रम की व्यवस्था की गई है ।
  • बाल केंद्रित शिक्षा में शिक्षा का केंद्र बिंदु बालक होता है ।
  • बाल केंद्रित शिक्षा में बालक की मनोविज्ञान के अनुरूप शिक्षण व्यवस्था की जाती है।
  • इसका उद्देश्य अधिगम संबंधी कठिनाइयों को दूर करना है।
  • इसमें सीखने की प्रक्रिया के केंद्र में बालक होता है।
  • बाल केंद्रित शिक्षा में बालक की शारीरिक और मानसिक योग्यता के विकास पर अध्ययन किया जाता है।
  • इसमें बच्चों की समस्या को दूर करने के लिए निदानात्मक और उपचारात्मक शिक्षण किया जाता है।
  • वैयक्तिक भिन्नता पर बल दिया जाता है।

NCF-2005 Child-centered Education

1  बालक को या शिक्षार्थियों को लक्ष्य पर बनाई गई शिक्षा नीति को बाल केंद्रित शिक्षा कहते हैं।

2  शिक्षार्थियों के सीखने का चरण, शिक्षण कार्य में आने वाली बाधाएं, सीखने का वक्र तथा प्रशिक्षण आदि कारकों को शामिल किया जाता है।

3  यह प्रयोग वादी विचारधारा पर आधारित है।

बाल केंद्रित शिक्षण के सिद्धांत(Principles of Child-Centered Learning)

1  क्रियाशीलता का सिद्धांत

2  प्रेरणा का सिद्धांत

3  उद्देश्य पूर्ण शिक्षा का सिद्धांत

4  रुचि का सिद्धांत

5  विभाजन का सिद्धांत

बाल केंद्रित शिक्षा की विशेषताएं(Characteristics of Child-Centered Education)

1  बालको  का ज्ञान (knowledge of children)

अध्यापकों को सफल होने के लिए बाल मनोविज्ञान का ज्ञान आवश्यक होना चाहिए। इसके अभाव में भी बालकों की विशेषताओं को नहीं समझ पाएंगे शिक्षक को बालक को के व्यवहार आवाज, मान, रूप योगिता ओं तथा व्यक्तित्व का ज्ञान होना चाहिए।

2  शिक्षण विधि (Teaching method)

बाल मनोविज्ञान से अध्यापक को उपयोगी शिक्षण विधि आ सकती है ।उसे पता चलता है कि किस प्रकार के बालक को कैसे किस विधि से पढ़ाया जाए बालकों को नैतिक कहानियों, नाटकों के द्वारा शिक्षा दी जानी चाहिए, उनके जीवन से जुड़े उदाहरण देनी चाहिए। पाठ्यक्रम को  हिस्से में पढ़ाना चाहिए।

3  पाठ्यक्रम(Curriculum)

पाठ्यक्रम को बनाते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि विद्यार्थी व समाज कि क्या आवश्यकताएं होती है ।पाठ्यक्रम और विज्ञान पर आधारित है लचीला होना चाहिए बालकों की रूचि के हिसाब से होना चाहिए ,तथा व्यक्तिगत विभिन्नता ओं के आधार पर होना चाहिए। इसके साथ ही शैक्षणिक उद्देश्यों को पूरा करने वाला भी होना चाहिए।

4 मूल्यांकन और परीक्षण(Evaluation and testing)

मूल्यांकन से बालक की उन्नति का पता चलता है शिक्षक और शिक्षार्थी बार-बार जानना चाहते हैं, कि उन्होंने कितनी प्रगति की है उन्हें सफलता या सफलता मिली है ।तो क्यों और उसमें क्या परिवर्तन किए जा सकते हैं।सभी प्रकार की मूल्यांकन विधियां मनोवैज्ञानिक तथ्य पर आधारित होती है।

बाल केंद्रित शिक्षा के अंतर्गत कक्षा में अनुशासन एवं व्यवस्था बनाए रखने के लिए बाल मनोविज्ञान का सहारा लिया जाता है । उदाहरण के लिए शरारती बालक ओं के अच्छे गुणों को पता लगाकर उन्हें प्रोत्साहित करना चाहिए।

बाल केंद्रित शिक्षा के अंतर्गत पाठ्यक्रम का स्वरूप 

(1) पाठ्यक्रम पूर्व ज्ञान पर आधारित होना चाहिए

(2)  रुचि के अनुसार

(3) जीवन से संबंधित

(4) राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न करने वाला

(5)  सामाजिक आवश्यकता के अनुसार

(6)  मानसिक स्तर का

(7) व्यक्तिगत विभिन्नता के अनुसार

प्रगतिशील शिक्षा(Progressive Education)

प्रगतिशील शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य बालक की योग्यताओं का विकास करना है।प्रगतिशील शिक्षा के विकास में जॉन डीवी का विशेष योगदान है। प्रगतिशील शिक्षा यह बताती है कि शिक्षा से बालक के लिए है बालक शिक्षा के लिए नहीं इसीलिए शिक्षा का उद्देश्य ऐसा वातावरण तैयार करना होना चाहिए। जिसमें प्रत्येक बालक की प्रगति तथा विकास हो सके।

इस क्षेत्र में अमेरिकी वैज्ञानिक जॉन डीवी का विशेष योगदान रहा है।जॉन डीवी के अनुसार प्रगतिशील शिक्षा के संबंध में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य इस प्रकार है।

  • ऐसी शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य बालक की शक्तियों का विकास करना होता है।
  • शिक्षा बालक के लिए ना कि बालक शिक्षा के लिए होता है।
  • शिक्षण विधि को अधिक व्यवहारिक करने पर बल देना।
  • शिक्षा” रुचि” और” प्रयास” पर आधारित हो।
  •  शिक्षक समाज का सेवक है।
  • शिक्षा को अनिवार्य और सार्वभौमिक बनाने पर जोर।
  • बालक की शिक्षा के लिए ऐसा परिवेश तैयार करना जिसमें बालक का सामाजिक विकास हो सके।
  • बालक को विकास करने के लिए सामाजिक परिवेश उपलब्ध कराना ।

प्रगतिशील शिक्षा की विशेषताएं (Features of progressive education)

(1) बालक को स्वयं करके सीखने पर बल देना चाहिए।

(2) बालक को स्वयं कार्यक्रम बनाने का मौका देना चाहिए।

(3)  समस्या समाधान और महत्वपूर्ण सोच पर जोर देना चाहिए।

(4)  रटन विद्या का विरोध।

(5) सहयोगी और सहकारी शिक्षण परियोजनाओं पर बल देना।

(6)  व्यक्तिगत विभिन्नता ओं के आधार पर शिक्षा का निर्माण।

(7)  स्कूलों में पाठ्यक्रम प्रतिबिंबित होना चाहिए।

(8)  शिक्षण विधि बच्चों की शक्तियों पर केंद्रित होनी चाहिए।

(9) प्रगतिशील शिक्षा एग्जाम तथा मार्क्स पर जोर नहीं देती है।

(10) प्रगतिशील शिक्षा कहती है कि शिक्षा ऐसी है जो बच्चों को उसके भविष्य में काम आए।

(11)  समूह में कार्य करके एक्टिविटीज के द्वारा सीखना।

शिक्षार्थियों का सहयोग

  • मार्गदर्शक
  • निर्देशक
  • परामर्श
  • सुविधा प्रदाता
  • सर्वांगीण विकास करना

विगत वर्षो में पूछे गए प्रश्न उत्तर

प्रश्न1  प्रगतिशील शिक्षा के संदर्भ में” सामान शैक्षणिक अवसर” से अभिप्राय है कि सभी छात्र-

  1. समान शिक्षा पाने के बाद अपनी क्षमताओं को सिद्ध कर सके।
  2. किसी भी जाति, पंथ, रंग, क्षेत्रवाद धर्म के होते हुए भी समान शिक्षा प्राप्त करें।
  3. बिना किसी भेद के समान पद्धति व सामग्रियों से शिक्षा प्राप्त करें।
  4. ऐसी शिक्षा पाए जो उनके लिए अनुकूलता हो तथा उनके भविष्य के कार्यों में सहायक हो।

Ans- d

             प्रश्न2   प्रगतिशील शिक्षा निम्नलिखित में से किस कथन से संबंधित है।

  1. शिक्षक सूचना और  प्राधिकार के प्रवर्तक होते हैं।
  2. ज्ञान प्रत्यक्ष अनुभव और सहयोग से उत्पन्न होता है।
  3. अधिगम तथ्यों के एकत्रीकरण और कौशल में प्रवीणता के साथ सीधे मार्ग पर चलता है।
  4. परीक्षा मानदंड संदर्भित और  वाहय है।

Ans – b

प्रश्न3 एक शिक्षार्थी केंद्रित कक्षा कक्ष में अध्यापिका करेगी।

(a) अधिगम को सुगम बनाने के लिए बच्चों को एक दूसरे के साथ अंकों के लिए मुकाबला करने हेतु प्रोत्साहित करना।

(b)वह अपने विद्यार्थियों से जिस प्रकार की अपेक्षा करती है उसे प्रदर्शित करना और तब बच्चों को वैसा करने के लिए दिशा निर्देशन देना।

(c)इस प्रकार की पद्धतियों को नियोजित करना जिसमें शिक्षार्थी अपने स्वयं के अधिगम के लिए पहल करने में प्रोत्साहित है

(d)मुख्य तत्वों की व्याख्या करने के लिए व्याख्यान पद्धति का प्रयोग करना और बाद में शिक्षार्थियों का उनकी सजगता के लिए आकलन करना

Ans- c

प्रश्न4  प्रगतिशील शिक्षा में अपरिहाथ है कि कक्षा कक्षा।

(a) शिक्षक की पूर्ण नियंत्रण में होता है जिसमें वह अधिनायकतावादी होता है।

(b) लोकतांत्रिक होता है और समझने के लिए बच्चों को पर्याप्त स्थान दिया गया होता है।

(c) सत्तावादी होता है जहां शिक्षक आदेश देता है और शिक्षार्थी चुपचाप अनुसरण करते हैं।

(d) सबके लिए मुक्त होता है जिसमें शिक्षक अनुपस्थित होता है।

          Ans – b

    प्रश्न5  एक प्रगतिशील व्यवस्था में विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को।

         (a) अन्य बच्चों में पृथक किया जाता है तथा केवल भोजन के समय मिलने दिया जाता है।

          (b) केवल व्यवसायिक प्रशिक्षण दिया जाता है।

           © उन्हें एक शर्त पर दूसरे बच्चों में घुलने मिलने की आज्ञा होती है कि वह सभ्य व्यवहार संतुलित रखें।

           (d) अन्य बच्चों के साथ पढ़ाया जाता है तथा उनकी आवश्यकता हेतु विशेष व्यवस्था की जाती है।

  Ans- d

प्रश्न6  प्रगतिवादी शिक्षा –

  1. इस मत पर विश्वास करती है कि शिक्षक को अपने उपागम में दृढ़ रहना है और वर्तमान समय में बिना दंड का प्रयोग किए बच्चों को पढ़ाया नहीं जा सकता है।
  2. समस्या समाधान और आलोचनात्मक चिंतन पर अधिक बल देती है।
  3. अनुबंधन और पुनर्बलन के सिद्धांतों पर आधारित।
  4. पाठ्य पुस्तक को पर आधारित है क्योंकि विज्ञान की एकमात्र राज्य स्त्रोत है।

Ans – b

प्रश्न7 “ बाल केंद्रित”  शिक्षा शास्त्र का अर्थ है?

(a) शिक्षक द्वारा बच्चों को आदेश देना कि क्या किया जाना चाहिए।

(b)  बच्चों के अनुभवों और उनकी आवाज को प्रमुखता देना।

©  निर्धारित सूचना का अनुसरण करने में बच्चों को सक्षम बनाना।

(d)  कक्षा में सारी बातें सीखने के लिए शिक्षक का आगे आगे होना।

Ans- b

Elementary Education Notes

प्राथमिक शिक्षा ( Elementary Education) : मानव जन्म से लेकर मृत्यु तक निरन्तर शिक्षा प्राप्त करता रहता है। वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में  कुछ ना कुछ अवश्य सीखता है। परंतु औपचारिक शिक्षा की प्रक्रिया जन्म से आरंभ होती है और मृत्यु तक चलती रहती है। इसका आरम्भ प्राथमिक स्कूलों से होता है। प्राथमिक शिक्षा का अर्थ – पूर्व का अर्थ है पहले और प्राथमिक का अर्थ है आराम्भिक। शिक्षा से पहले दी जाने वाली शिक्षा को प्राथमिक शिक्षा कहते हैं अर्थात् प्राथमिक स्कूल में औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने से पहले बच्चा जो शिक्षा प्राप्त करता है उसे प्रारम्भिक व पूर्व प्राथमिक शिक्षा या र्नसरी शिक्षा कहते है।

प्राथमिक शिक्षा के उद्देश्य :

मानव का प्रत्येक कार्य सोद्देश्य होता है। बिना उद्देश्य के वह कोई भी कार्य नहीं करता। शिक्षा का भी कुछ-न-कुध निशिचत उद्देश्य होता है। मिस ग्रेस ओवन ने पूर्व प्राथमिक शिक्षा के उद्देश्य की चर्चा की है जिसमें इस प्रकार से स्कूलों की स्थापना पर बल दिया गया है जिनमें रोशनी, धूप, खुला स्थान, ताजी हवा आदि स्वास्थ्यवर्धक बाह्म सुविधाएं होनी चाहिएँ ताकि बच्चे स्वस्थ और प्रसन्न होकर नियमित जीवन जीना सीखें। परंतु कोठारी शिक्षा आयोग ने (1964-1966) प्राथमिक शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य निर्धारित किये हैं –

  1. बच्चों में स्वास्थ्य सम्बन्धी अच्छी आदतों का निर्माण करना तथा व्यक्तिगत समायोजन के लिए आवश्यक बुनियादी कुशलताओं को विकसित करना,जैसे वस्त्र पहनना, शौचादि जाना,नहाना, भोजन करना तथा सफाई करना आदि।
  2. वांछित सामाजिक अभिवृत्तियो एवं ढंगो का विकास करना, बच्यों को अपने अधिकारों तथा दूसरों के विशेषाधिकारों के प्रति जागरूक करना।
  3. बच्चों को अपने संवेगों पर नियंत्रण करने हेतु निर्देश देना जिससे संवेगात्मक परिपक्वता का विकास हो।
  4. सौन्दर्यामक प्रशंसा के प्रति प्रोत्साहित करना।
  5. बालक की उसके संसार जिसमें वह रहता है एक वातावरण सम्बन्धी बौद्धिक उत्सुकता पैदा करना तथा उसमें नवीन रूचियां विकसित करने के लिए अवसर प्रदान करना।
  6. अनुसंधान एवं प्रयोग के अवसर प्रदान करके बच्चों में नई रूचियों को निर्मित एवं विकसित करना।
  7. बच्चों को स्वतन्त्रता और सृजनात्मकता के प्रोत्साहन हेतु स्वय अभिव्यक्ति के लिए पर्याप्त अवसर प्रदान करना।
  8. बालकों में स्पष्ट तथा सही भाषा द्वारा अपने विचारों तथा भावनाओं को व्यक्त करने की
  9. सामाजिक विकास- प्राथमिक शिक्षा में बच्चों को मुक्त वातावरण में खेलने और पढ़ने के अवसर प्रदान किये जाते हैं जिससे उनका सामाजिक विकास होने लगता है। आगे चलकर बच्चे मिलजुल कर रहना सीख जाते हैं।
  10. भावात्मक विकास- प्राथमिक शिक्षा के फलस्वरूप बच्चें स्नेह, प्रेम, सहयोग, सहानुभूति, सहनशीलता आदि सद्भावनाओं को सिखाते हैं, जिससे उनका भावात्मक विकास होता है।

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि बच्चे के शैक्षिक जीवन में प्राथमिक शिक्षा का महत्वपूर्ण स्थान है।

प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र

प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्रों की तीन भागों में व्यक्त किया गया है – (क) व्यक्तिगत जीक्न में शिक्षा (ख) सामान्य जीवन में शिक्षा (ग) राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा।

(क) व्यक्तिगत जीवन में शिक्षा

  1. जीवन की आवश्यकतओं की पूर्ति – मानव के जीवन की आवश्यकताएँ हैं। मानव के जीवन में रोटी, कपड़ा और मकान के अतिरिक्त और भी अनेक आवश्यकताएँ होती हैं। शिक्षा द्वारा ही इन आवश्यकतओं की पूर्ति हो सकती है।
  2. आत्म निर्भर बनाने में समर्थ – शिक्षा व्यक्ति को आत्म निर्भर बनाती है। फलस्वरूप वह भावी जीवन मे प्रस्तुत होने वाली प्रत्येक समस्या का सामना करता है और उसका समाधान निकालता है।
  3. सुविधाओं की प्राप्ति – अच्छी शिक्षा प्राप्त करके व्यक्ति अपनी पसंद का अच्छा व्यवसाय चुन सकता है और जीवन में अधिक में अधिक से अधिक सुविधाएँ प्राप्त कर सकता है।
  4. व्यावसायिक कुशलताओं की प्राप्ति – शिक्षा मनुष्य को व्यावसायिक कुशलता प्रदान करती है। इससे व्यक्ति लोगों के व्यवहारों को समझ जाता है और सोच समझ कर उनके साथ सम्बन्ध स्थापित करता है।
  5. व्यक्तित्व का विकास – प्राथमिक शिक्षा बच्चों के व्यक्तित्व का विकास करती है। फलस्वरूप बच्चे बड़े होकर आर्थिक, सामाजिक धार्मिक तथा राजनीतिक दृष्टि से समुचित विकास करने में समर्थ होते हैं।
  6. भावी जीवन का निर्माण – प्राथमिक शिक्षा बच्चे के भावी जीवन का निर्माण करने में सहायक है। यह शिक्षा बच्चों को भावी जीवन के लिए तैयार करती है और उन्हें समर्थ बनाती है।
  7. अच्छे नागरिकों का निर्माण – आज के बच्चे काल के नागरीक बनते हैं। प्राथमिक शिक्षा द्वारा ही बच्चों में अच्छी नागरिकता के गुण उत्पन्न किए जाते हैं।

(ख) सामान्य जीवन में शिक्षा

प्राथमिक शिक्षा द्वारा बालक सामान्य जीवन सम्बन्धी कार्यो को कुशलतापूर्वक कर सकता है।

  1. बच्चों का सामाजिक विकास – बच्चा समाज का महत्वपूर्ण सदस्य है। उसे समाज में रहकर ही विकास करना होता है। प्राथमिक शिक्षा द्वारा उसमें सामाजिक गुणों का विकास किया जाता है और यही सामाजिक गुण उसे समाज के साथ जोड़ते हैं।
  2. सभ्यता और संस्कृति का विकास – प्राथमिक शिक्षा द्वारा बच्चों में अपनी संस्कृति का समुचित विकास किया जा सकता है। क्योंकि आने वाली पीढ़ी उनके अनुभवों से ही लाभ उठाकर अपने जीवन में आगें बढ़ सकती है।
  3. राष्ट्रीय भावना का विकास – प्रत्येक देश को स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए बहुत कुछ खोना पड़ा है। हमारा देश भी कोई अपवाद नहीं है। हमें इस स्वतन्त्रता को बनाए रखना है। यही कारण है कि प्राथमिक शिक्षा द्वारा हम बच्चों में राष्ट्रीय भावना उत्पन्न करते हैं।
  4. सामाजिक सुधार – प्राथमिक शिक्षा द्वारा बच्चों को यह शिक्षा दी जाती है कि वे समाज के महत्वपूर्ण अंग हैं। उन्हें केवल अपने बारे में ही नहीं समाज के बारे में भी सोचना है। अतः उन्हें समाज के नियमों का समुचित पालन करना चाहिए।

(ग) राष्ट्रीय जीवन में शिक्षा

राष्ट्रीय जीवन में भी प्राथमिक शिक्षा का अत्यधिक आयोग है। इसका विवरण इस प्रकार है-

  1. नेतृत्व का विकास – प्राथमिक शिक्षा से ही बच्चों में नेता बनने के गुणों का विकास किया जा सकता है। बड़े होकर बच्चे शिक्षा के कारण ही सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्र में उचित नेतृत्व कर सकते हैं तथा समाज को उचित दिशा दे सकते हैं।
  2. कर्तव्यों की पूर्ति – प्राथमिक शिक्षा बच्चों को उनके कर्त्तव्य से अवगत कराती है। जिससे बड़े होकर वे अपने कर्तव्यों का समुचित पालन करते है।
  3. कुशल श्रमिकों का विकास – प्राथमिक शिक्षा में बच्चों को इस प्रकार की शिक्षा दी जाती है ताकि वे आगे चलकर कुशल श्रमिक बन सकें तथा व्यापार, उद्योग को बढ़ाकर वे अपनी आय की वृद्धि कर सकते हैं।
  4. समाज कल्याण की भावना – प्राथमिक शिक्षा द्वारा बच्चों को यह भी शिक्षा दी जाती है कि वह निजी स्वार्थी को छोड़कर समाज के हित को समझें और अनुशासन में रहकर समाज कल्याण का प्रयास करें।

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र व्यापक हैं परन्तु प्राथमिक शिक्षा पाकर विद्यार्थी अपने भावी जीवन में समुचित विकास कर सकते हैं तथा देश के सफल नागरिक बन सकते हैं।

Current Indian Society

  1. अंग्रेजी शिक्षा का सूत्रपात-

ब्रिटिश सरकार के आने से पहले, यहाँ राजकाज चलाने के लिए फारसी, संस्कृत, उर्दू और स्थानीय बोलियाँ थी। पहली बार मेकाले ने अंग्रेजी शिक्षा और भाषा का बढ़ावा देने के लिए सन् 1835 में शिक्षा नीति को तय किया। इस नीति में यह प्रस्तावित किया गया कि अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाया जाये, शिक्षा के प्रसार में ईसाई मिशनों को एक निश्चित भूमिका दी जाये । सन् 1882 में प्रथम शिक्षा आयोग ब्रिटिश काल में बनाया गया। इस नीति के अन्तर्गत उच्च शिक्षा पर अधिक बल दिया गया। इधर दूसरी और प्राथमिक और माध्यमिक स्तरों पर शिक्षा की अवहेलना की गयी।

  1. संचार का जाल-

सतीश सबरवाल का कहना है कि ब्रिटिश सरकार ने सचार साधनीं का विस्तार कई तरह से किया। सूचना और विचारों का सम्प्रेषण करने के लिये छापाखाने स्थापित किये गये। तार और टेलीफोन की व्यवस्था की गयी और आवागमन के साधनों में रेलगाड़ी का सूत्रपात किया गया। परिणाम यह हुआ कि सम्पूर्ण ब्रिटिश राज में नये समाचार पत्र और पत्रिकाएं विशेषकर क्षेत्रीय भाषाओं में प्रारम्भ की गयीं ब्रिटिश शासन ने ही डाक सेवाएँ, चलचित्र और रेडियो आदि प्रारम्भ किये। इन नई युक्तियों ने जाति, पवित्र-अपवित्र की अवधारणाओं पर कुठाराघात किया। अब लोगों को लगने लगा कि जीवन में गतिशीलता भी कोई महत्व रखती है।

  1. विचारों में क्रान्ति-

सतीश सबरवाल जब ब्रिटिश काल में होने वाले प्रभावों का विश्लेषण करते हैं तो कहते हैं कि इस काल में बहुत बड़ा उथल-पुथल विचारों के क्षेत्र में आया। अब लोग फ्रांसीसी क्रान्ति के स्वतन्त्रता, समानता और बंधुत्व के मुहावरों की समझने लगे। अंग्रेजी भाषा ने भारतीय समाज को पश्चिमी देशों के रू-ब-रू कर दिया। अब शिक्षण संस्थाओं ने विचारों के क्षेत्र में बहुत बड़ा परिवर्तन खड़ा कर दिया।

  1. नई दण्ड संहिता-

अंग्रेजी शासन ने एक और परिवर्तन भारतीय दण्ड संहिता (Indian Panel Code) के माध्यम से किया। उपेन्द्र बक्षी ने भारत में कानून के समाज शास्त्र का विधिवत् विश्लेषण किया है। वे कहते हैं कि अंग्रेजी के आने से पहले यहाँ शास्त्रीय हिन्दू विधि (Classical Hindu Law) काम करती थी। अंग्रेजी ने इस विधि में परिवर्तन किया। देश की विभिन्न जातियों के जातिगत नियमों को उन्होंने शास्त्रियों और पण्डितों की सलाह पर कानूनी जामा पहनाया। रुडोल्फ और रुडोल्फ का कहना है कि अंग्रेजों ने बड़े व्यवस्थित रूप से हिन्दुओं और मुसलमानों के जातीय रिवाजों पर भारतीय दण्ड संहिता को बनाया। तब इसे ताजीरात हिन्द कहते थे। इस दण्ड संहिता ने कम से कम ब्रिटिश भारत को कानून की दृष्टि से एक सूत्र में बांध दिया। पहली बार कानून की दृष्टि में भारत के सभी लोग समान हो गये। इस नीति के अनुसार ब्रिटिश शासन ने एक पृथक न्यायपालिका, न्यायालय बनाये और पहली बार विवाह, परिवार, तलाक, दत्तक ग्रहण, सम्पत्ति हस्तान्तरण, अल्पसंख्यक, भूमि अधिकार, लेन-देन, व्यापार, उद्योग और श्रम आदि के बारे में नये कानून लागू किये। यह कानून सम्पूर्ण ब्रिटिश भारत पर समान रूप से लगता था।

  1. नगरीकरण और औद्योगीकरण-

यूरोप में औद्योगिक क्रान्ति लगभग 1 8वीं शताब्दी में आयी। भारत में औद्योगीकरण ब्रिटिश शासन के माध्यम से ही आया। औद्योगीकरण के साथ-साथ नगरीकरण भी आया। देखा जाये तो ये दोनों प्रक्रियाएँ -नगरीकरण और औद्योगीकरण एक-दूसरे की पूरक और पारस्परिक है। विकसित देशों की तुलना में भारत में नगरीकरण एक धीमी प्रक्रिया है। यह होते हुए भी नगरों की जनसंख्या में वृद्धि हुई है। आज स्थिति यह है कि अधिकांश सुख-सुविधाएँ नगरों में केन्द्रित हैं। परिणाम यह हुआ है कि नगरीकरण का फैलाव सम्पूर्ण देश में असमान रहा है।

औद्योगीकरण भी गैर बराबर रहा है। कुछ राज्य तो औद्योगिक दृष्टि से विकसित हैं- इन राज्यों में पंजाब, महाराष्ट्र, तमिलनाडु तथा कर्नाटक अग्रणी हैं। इधर दूसरी ओर कुछ राज्य जैसे कि बिहार, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और राजस्थान जिन्हें कभी-कभी बीमारू राज्य कहते है, औद्योगिक दृष्टि से बहुत पिछड़े हुए हैं। रिचार्ड लैम्बार्ट, मिल्टन सिंगर और एन० आरo सेठ के अध्ययनों से पता चलता है कि जाति, संयुक्त परिवार और अन्य परम्परागत मूल्य,कारखाना और औद्योगिक संगठनों में सामाजिक सम्बन्धों के स्वरूप प्रतिरूप में बाधित नहीं हुए हैं।

  1. राष्ट्रीयता के विकास में वृद्धि-

अंग्रेजी हुकूमत के समय में भारत में राष्ट्रीयता की एक नई लहर आयी। यह ठीक है कि अंग्रेज हमारे ऊपर उपनिवेशवादी शासन लादने में सफल हो गये। लेकिन उनके सम्पर्क ने हमें स्वतन्त्रता व समानता के विचार भी दिये। यद्यपि आजादी की लड़ाई हमने स्वयं लड़ी लेकिन इसमें अंग्रेजों का योगदान भी कोई कम नहीं था। उपनिवेशवादी हुकूमत की यह विशेषता थी कि वह हमारे जातीय मामलों में दखल नहीं देता था फिर भी उन्होंने कहीं-कहीं यह साहस दिखाया और हमारे रीति-रिवाजों पर अंकुश लगाया। उदाहरण के लिये हमारे यहाँ सती-प्रथा थी। राजा राममोहन, राय जैसे व्यक्तियों ने इस प्रथा की खण्डन किया और यह भी सही है कि सती प्रथा का रिवाज केवल उत्तरी भारत में था और वह भी ऊँचे परिवारों और राजकीय घरानों में दक्षिण में तो इस प्रथा का नामोनिशान नहीं था। फिर भी ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने इसमें हस्तक्षेप किया और इसके लिये कानून भी बनाया।

आजादी की लड़ाई एक अनोखी लड़ाई थी। इसमें विभिन्न जातियों-पुरुष स्त्रियों और विभिन्न सांस्कृतिक क्षेत्रों ने पूरी ताकत के साथ अंग्रेजी शासन का मुकाबला किया। महात्मा गाँधी ने ब्रिटिश परम्परा के अनेक मानवतावादी तत्वों को अपनाया और उनको राष्ट्रीय भावनाओं और राजनैतिक चेतना को उभारने के लिये उपयोग में लिया। हमारी इस लड़ाई में यूरोप की विचारधारा ने बड़ा सहयोग दिया।

उपसंहार (Conclusion)- समकालीन भारतीय समाज को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में समझना बहुत आवश्यक है। यह समाज कोई 5000 वर्ष पुराना है। आयों से लेकर यानी धार्मिक समाज की जड़ों पर विकसित होता हुआ यह समाज आज एक सार्वभौम, प्रजातान्त्रिक, समाजवादी और धर्म निरपेक्ष राष्ट्रीय समाज है। इसे बनामे में कई संस्कृतियों ने योगदान दिया है। इसकी बहुत बड़ी विशेषता इसकी निरन्तरता है। इसकी सभ्यता में इतिहास की चादर में कई सलवटे आयीं, उतार-चढ़ाव आये फिर भी यह आज बराबर बना हुआ है। जिसे हम परम्परा से हिन्दू समाज कहते हैं वह आज एक धर्म निरपेक्ष समाज है। मतलब हुआ राज्य का धर्म से कोई सरोकार नहीं है। उसके सामने सभी धर्म समान है। इस समाज की परम्परागत संरचना में एक और विशेषता इसके कर्मकाण्ड यानि रीति-रिवाज हैं। अब भी यह समझा जाता है कि कर्मकाण्डों की अध्यक्षता ब्राह्मण ही करेंगे।

समकालीन भारत, आज जैसा भी है एक बहुत बड़े इतिहास के दौर से गुजर कर आया है। इसकी व्याख्या हमें इन्हीं ऐतिहासिक कारकों और अव्वाचीन प्रक्रियाओं के संदर्भ में करनी चाहिये। ऐसा करने में हमें यह भी याद रखना है कि आज इस समाज को हमें राष्ट्रीय बनाना है। राष्ट्रीय समाज ऐसा, जिसमें विभिन्न संस्कृतियों का समावेश हो सके। यह एक सांझा समाज है।

Teaching Learning Material

शिक्षण सहायक सामग्री (teaching learning material -TLM) का प्रयोग शिक्षक क्यों करते हैं?

अध्यापन अधिगम की जो प्रक्रिया है उसे सरल एवं प्रभावकारी या रूचिकर बनाने के लिए शिक्षक विभिन्न प्रकार के उपकरणों का प्रयोग करते हैं जिससे शिक्षक को कठिन से कठिन विषय को अध्यापन या कहे पढ़ाने में आसानी होती है और छात्र-छात्राओं या कहें बच्चों को आसानी से समझ भी आ जाता है और समय की बचत होती हैं। क्योंकि बच्चे देखकर और करके बहुत जल्दी सीख  पाते हैं। इसलिए शिक्षक शिक्षण सहायक सामग्री का प्रयोग करते हैं।

शिक्षण सहायक सामग्री के प्रकार

जैसे कि हमने ऊपर पढ़ा कि शिक्षक को शिक्षण सहायक सामग्री का प्रयोग क्यों पड़ता है? इसे मद्देनजर रखते हुए शिक्षण सहायक सामग्री को तीन भागों में बांटा गया है –

१. दृश्य सहायक सामग्री (visual aids)

२. श्रव्य सहायक सामग्री (audio aids)

३. दृश्य श्रव्य सहायक सामग्री (visual audio aids)

1. दृश्य सहायक सामग्री (visual aids material) : –

दृश्य सहायक सामग्री जिसे अंग्रेजी में  visual aids भी कहते हैं जिसका अर्थ है प्रत्यक्ष रुप से देखना। यह ऐसे सामग्री है जिसे हम अपने आंखों से देख सकते हैं यह सबसे महत्वपूर्ण शिक्षक सहायक सामग्री है जिसका प्रयोग शिक्षक हमेशा करते हैं प्रतिदिन अपने अध्यापन-अधिगम की प्रक्रिया में करते ही हैं जैसे पुस्तकश्यामपट्टचोखडस्टरसंकेतक,  चित्रमानचित्रग्राफचार्टपोस्टरबुलेटिन बोर्डसंग्रहालयप्रोजेक्टर और भी महत्वपूर्ण दृश्य सहायक सामग्री।

i. वास्तविक पदार्थ (ground substance):-

वास्तविक पदार्थ वे पदार्थ होते हैं इससे बालक देखकर तथा छूकर सकता है। बालक पदार्थ छूकर तथा देखकर निरीक्षण एवं परीक्षण करता है जिससे बालक के ज्ञान इंद्रियों विकास होता है साथ ही उनके सोचने समझने या अवलोकन शक्ति का विकास होता है।

ii. नमूने (model) :-

जब वास्तविक पदार्थ को क्लास रूम में नहीं लाया जा सकता या उसके आकार इतनी बड़ी होती है या वह उपलब्ध ही नहीं होता कि उसे कक्षा में नहीं लाया जा सकता तब उसकी नमूने या model तैयार करें कक्षा में दिखाया जाता है जिससे बालक को आसानी से समझाया जा सके। जैसे जल-चक्र की प्रक्रियाज्वालामुखीहवाई जहाज, इत्यादि।

iii. चित्र (image) :-

चित्र बहुत ज्यादा बच्चों को प्रभावित करता है बच्चे चित्रों को देखकर वास्तविकता में खो जाते हैं इसलिए शिक्षक भी किसी भी कहानी या विज्ञान या अन्य किसी भी विषय संबंधित चित्र को बच्चों के सामने प्रस्तुत करते है ताकि उन्हें दिखा कर समझाया जा सके। चित्र के माध्यम से सिखाई गई बातें बच्चों को अधिक समय तक याद भी रहती है साथ में चित्रों को आसानी से कक्षा में दिखाया जा सकता है इसलिए शिक्षक कक्षा में किसी भी विषय को समझाने के लिए चित्र का प्रयोग करते हैं जैसे पौधे के विभिन्न भागह्रदयकहानी भी । चित्र को बच्चों के सामने प्रस्तुत करने से पहले शिक्षक को दो बातों का विशेष ध्यान रखना पड़ता है-

a) चित्र स्पष्ट होना चाहिए रंगीन तथा आकर्षक होना चाहिए जिससे बालक रुचि लगे जिससे उन्हें वास्तविकता का अनुभव हो पाठ से संबंधित मुख्य बातें दिखानी चाहिए या तो जरूरी है उन्हीं दर्शानी चाहिए।

b) चित्र का आकार इतना बड़ा हो कक्षा में पीछे बैठे विद्यार्थी को भी आसानी से दिखाई दे उनके अंदर अगर कुछ लिखा हो तो वे भी स्पष्ट या साफ-साफ दिखाई दे।

iv. मानचित्र (map):- 

मानचित्र का प्रयोग हम तभी करते हैं जब हमें बच्चों को ऐतिहासिक घटनाओं तथा भौगोलिक तत्व या स्थानों के बारे में बताना होता है मानचित्र का प्रयोग करते समय शिक्षकों को कुछ बातों का ध्यान रखना चाहिए जैसे कि उनके ऊपर नामशीर्षकदिशा तथा संकेत  आदि आवश्यक लिखा हो।

v. रेखा चित्र (sketch):-

रेखा चित्र की आवश्यकता हमें तभी पड़ती है जब हमें किसी भी वास्तविक पदार्थ या मॉडल या मानचित्र नहीं हो तो हम बच्चों को ब्लैक बोर्ड पर या वाइट बोर्ड पर रेखा चित्र या sketch बनाकर दिखाते हैं जैसे भारत के नक्शा बनाकर किसी भी राज्य को दिखाना, किसी भी महापुरुषों के या नेताओं के चित्र  बना कर दिखाना जैसे महात्मा गांधीनेताजी सुभाष चंद्र बोसभगत सिंहइंदिरा गांधी इत्यादि।

vi. ग्राफ (graph) :- 

एक शिक्षक ग्राफ का प्रयोग तभी करता है जब उन्हें किसी भी बढ़ती या घटती स्वरूप को दिखाना होता है ग्राफ का प्रयोग कई विषयों में किया जाता है जैसे भूगोलइतिहासगणितविज्ञान जैसे विषयों में भी या जाता है भूगोल विषय में जलवायुउपज तथा जनसंख्या आदि के विषय में जानकारी देने के लिए ग्राफ का प्रयोग या जाता है साथ ही गणित तथा विज्ञान शिक्षण में ग्राफ का प्रयोग सबसे ज्यादा किया जाता है।

vii. चार्ट (chart):- 

चार्ट का प्रयोग हिंदीअंग्रेजीभूगोलइतिहासअर्थशास्त्रनागरिकशास्त्रगणित तथा विज्ञान विषय में किया जाता है। जैसे :- हिंदी में या अंग्रेजी में व्याकरण में संज्ञा के विभिन्न रूपों को दर्शाना। भूगोल में गेहूं की उपज भारत में किन-किन राज्यों में उपज होती हैं उन्हें बताना। इत्यादि।

viii. बुलेटिन बोर्ड (bulletin board) :-

बुलेटिन बोर्ड वह बोर्ड होती है जहां बालक देश की राजनीतिआर्थिक एवं सामाजिक समस्याओं के संबंध में चित्रग्रामआकृतिलेख या आवश्यक सूचनाओं को प्रदर्शित करते हैं बुलेटिन बोर्ड से बालक के ज्ञान में निरंतर वृद्धि होती है बुलेटिन बोर्ड को इतनी ऊंचाई पर लगानी चाहिए ताकि बच्चे उन्हें देखकर आसानी से समझ सके और उससे ज्ञान हासिल कर सकें बुलेटिन बोर्ड शिक्षक एवं बालक दोनों ही उपयोग कर सकते हैं शिक्षक एवं बालक द्वारा प्राप्त सामग्री को  बुलेटिन बोर्ड में दिखाया जाता है यह बहुत ही आकर्षक एवं रोचक होता है या आधुनिक शिक्षा प्रणाली का एक अहम हिस्सा है।

ix. संग्रहालय (Museum) :-

बालक के ज्ञान को बढ़ाने के लिए  संग्रहालय भी शिक्षा का एक महत्वपूर्ण उपकरण है इसमें सभी वस्तुओं को एक जगह रखा जाता है इन वस्तुओं से पाठ को और भी रोचक एवं संजीव बनाया। संग्रहालय एकत्रित वस्तुएं जोकि भूगोलइतिहासगणितविज्ञान जैसे विषयों में बहुत ज्यादा सहायक होता है इसे हमें अपने इतिहास के बारे में भी पता चलता है।

x.  प्रोजेक्टर (projector):- 

आधुनिक शिक्षा प्रणाली में सबसे ज्यादा प्रयोग किए जाने वाले उपकरण में से प्रोजेक्टर सबसे अहम भूमिका निभाते हैं प्रोजेक्टर के माध्यम से अध्यापन-अधिगम को और भी सरल एवं रोचक बनाया जाता है रूचिकर एवं प्रभावशाली होते हैं प्रोजेक्ट एक ऐसा माध्यम है जिसके माध्यम से बालक को सजीव एवं वास्तविकता का अनुभव होता है क्योंकि इसके माध्यम से अध्यापन-अधिगम को आसान बनाया जाता है इतिहास के विभिन्न तस्वीरों को दिखाया जाता है दुनिया में इंटरनेट का प्रचलन इतना ज्यादा बढ़ गया है कि शिक्षा में इंटरनेट प्रयोग कर  प्रोजेक्टर के माध्यम से दिखाया जा सकता है इसका भरपूर फायदा शिक्षक उठा रहे हैं। प्रोजेक्टर के माध्यम से बालक को एक अलग प्रकार का आनंद एवं स्मरण शक्ति अवलोकन शक्तिजिज्ञासा आदि का विकास लगता है।

xi.स्लाइडेंफिल्म पट्टियां :- 

स्लाइडें एवं फिल्म पट्टियां का प्रयोग शिक्षण में सहायक सामग्री के तौर पर किया जाता है इसके लिए प्रोजेक्टर की सहायता ली जाती है प्रोजेक्टर द्वारा चित्रों की स्लाइडो अथवा फिल्म पट्टियों को एक क्रम में दिखाया जा सकता है।

xii. ग्लोब (glob) :- 

ग्लोब की मदद से बच्चों को महाद्वीप, महासागर, नदी, पर्वत की सीमाओं को दिखाया जाता है सबसे ज्यादा भूगोल विषय में ग्लोब  का प्रयोग किया जाता है जिसमें पृथ्वी की आकृति, उत्तरी दक्षिणी, गोलार्ध अक्षांश, देशांतर रेखाओं के बारे में बच्चों को बताने एवं समझाने में आसानी होता है।

xiii. पोस्टर एवं कार्टून पोस्टर (poster and Cartoon poster): –

आज शिक्षा जगत में पोस्टर एवं कार्टून पोस्टर की बहुत ज्यादा धूम मची है पोस्टर कार्टून पोस्टर की मदद से बच्चों को सही निर्देश एवं व्यंग्य तरीके से बच्चों को शिक्षा दी जाती है। आज इसका प्रयोग समाचार पत्र एवं पत्र-पत्रिकाओं में ज्यादा प्रयोग किया गया है। ऐसे बच्चों की अच्छी आदत तो परिवार नियोजन, जल संरक्षण, दहेज प्रथा ,धूम्रपान, वनों की कटाई नेताओं, अभिनेत्रियों, धूम्रपान, प्रदा प्रथा जैसे विषयों पर कार्टून पोस्टर की मदद से लोगों को जागरूक किया जा रहा है।

xiv. भित्ति चित्र (wall painting) :-

अक्सर हमने देखा है कि नर्सरी एलकेजी यूकेजी कक्षाओं में भित्ति चित्र बनाया हुआ रहता है जिसमें चित्रों के साथ वर्ण(alphabet), फलों के नामनंबर जानवरों के नाममहीनों के नामपहाड़ासप्ताह के नामवस्तुओं आदि का चित्र बनाया हुआ रहता है जिसे बच्चे देख देख कर उसे पढ़ते हैं तथा उन्हें याद भी रहता है इसलिए प्राथमिक कक्षा में भित्ति चित्र बना हुआ रहता है  शिक्षक चित्र के माध्यम से बच्चों को पढ़ाते भी हैं शिक्षक उन चित्रों का प्रयोग अपने सहायक सामग्री के रूप में भी करते हैं।

2.श्रव्य सहायक सामग्री (audio aids material)

श्रव्य सामग्री (Audio aids) वह साधन है जिस में केवल इंद्रिया (कान) का ही प्रयोग किया जाता है। श्रव्य सामग्री के अंतर्गत ग्रामोफोन रेडियो टेलीफोन टेली कॉन्फ्रेंसिंग टेप रिकॉर्डर जैसे ऑडियो ऐड आते हैं जिसमें बच्चों को कुछ सुना कर उनके मानसिक शक्तियों एवं सुनने की शक्तियों का विकास किया जाता है।

१. रेडियो (radio):-

 रेडियो(Radio) के माध्यम से बालकों को नवीनतम घटनाओं तथा सूचनाओं की जानकारी दी जाती है रेडियो पर विभिन्न कक्षाओं के विभिन्न विषयों के अध्यापन संबंधी प्रोग्राम सुनाए जाते हैं जिससे बालक के अधिगम की क्षमता का विकास होता है साथ ही सुनकर समझने तथा उसे याद रखने की शक्ति का विकास होता है।

२. टेप रिकॉर्डर (tape recorder) :-

शिक्षा जगत में टेप रिकॉर्डर ( Tape-recorder) एक प्रचलित उपकरण है इसकी सहायता से महापुरुषों के प्रवचन नेताओं के भाषण तथा प्रसिद्ध साहित्यकारों की कविताओं उनकी कहानियों तथा प्रसिद्ध कलाकारों के संगीत का आनंद उठाया जा सकता है इसे बालकों को बोलने की गति तथा प्रभाव संबंधी सभी त्रुटियों एवं विचारों को सुधारने में सहायता मिलती है साथ ही बालक टेप रिकॉर्डर की सहायता से शिक्षक के बातों को भी रिकॉर्ड कर रख सकते हैं ताकि उन्हें बाद में सुनकर अच्छे से समझा जा सकता है।

३. टेली कांफ्रेंसिंग (teli conferencing) : –

टेली कॉन्फ्रेंसिंग की सहायता से भी बच्चों को सूचना दी जाती हैं टेली कॉन्फ्रेंसिंग एक ऐसा माध्यम है जिससे कई स्कूलों को एक साथ जोड़ा जा सकता है अलग-अलग शिक्षक एवं अलग-अलग बालक टेली कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से बातें कर महत्वपूर्ण जानकारियां हासिल कर सकते हैं।

3.दृश्य-श्रव्य सहायक सामग्री (audio-visual aids meterial)

दृश्य-श्रव्य सामग्री से तात्पर्य उन साधनों से है जिनके माध्यम से बालक देखने और सुनने की शक्तियों को बढ़ाते हुए अपनी अधिगम क्षमता को बढ़ाता है दृश्य-श्रव्य सहायक सामग्री एक ऐसा साधन है जिसका आधुनिक शिक्षा प्रणाली में प्रयोग बढ़ता ही जा रहा है बच्चे पाठ के सूक्ष्म से सूक्ष्म कठिन से कठिन भावों को भी इसके माध्यम से सरलता से समझ जाता है इस सामग्री के माध्यम से लिखित तथा मौखिक पाठ्य सामग्री को समझने में सहायक होती है इनके अंतर्गत सिनेमादूरदर्शननाटकटेलीविजनचलचित्रवृत्तचित्रकम्प्यूटर आदि आते हैं।

१. चलचित्र (फिल्म) (films, cinema) :-

 चलचित्र अथवा सिनेमा के अनेक लाभ हैं इसके द्वारा प्राप्त किया गया ज्ञान अन्य उपकरणों की अपेक्षा अधिक उपयोगी होता है क्योंकि बालक देखकर तथा सुनकर अच्छी तरीका से सीख पाते हैं इसके द्वारा बालकों को विभिन्न देशों स्थानों तथा घटनाओं का ज्ञान बड़ी ही आसानी से कराया जा सकता है साथ ही बालक की कल्पना शक्ति यह सोचने की क्षमता का भी विकास होता है।

२. टेलीविजन (television):-

सिनेमा या चलचित्र से होने वाली सभी लाभ टेलीविजन से भी प्राप्त किया जा सकता है किंतु सिनेमा की अपेक्षा इसका दायरा अत्यंत विस्तृत होता है आज के आधुनिक युग में टेलीविजन के मनोरंजन कार्यक्रमों के अलावे कई प्रकार के शैक्षणिक कार्यक्रम प्रसारण करता है बच्चों के ज्ञान में वृद्धि होती है इग्नू एवं यूजीसी जैसे विश्वविद्यालयों द्वारा भी उपग्रहों की मदद से विभिन्न प्रकार के शैक्षिक कार्यक्रमों का प्रसारण करता है जिससे बालक को अधिगम का उचित अवसर मिलता है।

३. कंप्यूटर (computer):- 

कंप्यूटर का आधुनिक एवं आधुनिक शिक्षा प्रणाली में सबसे ज्यादा प्रयोग करने वाले साधन में से एक है या एक इलेक्ट्रॉनिक उपकरण है जिसकी सहायता से शिक्षा जगत को अधिगम का सुनहरा अवसर मिल चुका है कंप्यूटर का प्रयोग शिक्षा जगत में ही नहीं बल्कि अपने जीवन के विभिन्न क्षेत्र में किया जा सकता है शिक्षा के क्षेत्र में कंप्यूटर से निम्नलिखित लाभ है –

i. कंप्यूटर के माध्यम से पाठ के प्रति रुचि का विकास होता है कंप्यूटर में चित्र चल चित्रों के माध्यम से पाठ को अत्यंत जीवन एवं मनोरंजन बनाया जाता है

ii. कंप्यूटर छात्रों को उच्च कोटि का पुनर्बलन प्राप्त होता है बच्चे कंप्यूटर के जरिए इंटरनेट का प्रयोग विभिन्न प्रकार की जानकारी प्राप्त करने के लिए करते हैं।

iii. विभिन्न प्रकार के प्रोजेक्ट, पीपीटी, एमएस वर्ड, एक्स सेल जैसे प्रोग्रामओं का प्रयोग कर बालक का अधिगम बढ़ता ही जा रहा है साथ ही शिक्षा जगत को एक चुनौती और विकास का एक नया अवसर मिल चुका है।

iv. आज शिक्षा जगत में कंप्यूटर का प्रचलन इतना बढ़ चुका है कि हर स्कूलों एवं विश्वविद्यालयों में इसका प्रयोग किया जा रहा है ऐसा लगता है कि कंप्यूटर के बिना शिक्षा का महत्व एक अधूरा है क्योंकि आज देश दुनिया की हर जानकारियां इंटरनेट के माध्यम से मिल ही जाती है तथा बच्चों को उन जानकारियों को दिलाने में कंप्यूटर एक अच्छा माध्यम है।

४. मोबाइल(mobile):-

मोबाइल कंप्यूटर का एक छोटा रूप ही कहा जा सकता है क्योंकि आज के आधुनिक शिक्षा जगत में शिक्षक किया विद्यार्थी मोबाइल के माध्यम से हर प्रकार के जानकारी चुटकियों  में घर बैठे ही प्राप्त कर लेते हैं साथ ही अपने प्रोजेक्ट और गृह कार्य बड़ी ही आसानी से इंटरनेट के माध्यम से जानकारी हासिल कर बना लेते हैं आज कंप्यूटर से ज्यादा मोबाइल फोन की मांगे बढ़ती जा रही है और इसका प्रयोग शिक्षा जगत में भी किया जा रहा है।

५. नाटक (drama): –

अगर बच्चों को किसी भी लंबी-लंबी कहानी उपन्यास आदि को नाटक के माध्यम से दिखाया जाता है तो उन्हें पूरी घटनाएं अच्छी तरह से याद भी होती है और वे बड़ी आसानी से उन्हें समझ भी पाते हैं इसलिए शिक्षक लंबी-लंबी कहानियांप्रेरणादायक कहानीकिसी घटना उपन्यास जैसे विषयों को नाटक के माध्यम से बच्चों को पढ़ाया जाता है या उनसे ही नाटक कराया जाता है।

शिक्षण सहायक सामग्री की आवश्यकताएं (need of TLM)

=>  अध्यापन अधिगम को आसान बनाने के लिए।

=>  बच्चों की जिज्ञासा को पूरा करने के लिए।

=>  क्लास को प्रभावशाली एवं रुचिकार बनाने के लिए।

=>  कठिन से कठिन विषयों को सरलता से बतलाने के लिए।

=>  बच्चों को निरीक्षण एवं परीक्षण एवं उनकी अवलोकन शक्तियों को बढ़ाने के लिए।

शिक्षण सहायक सामग्री की विशेषताएं (features of teaching learning material -TLM)

शिक्षण सहायक सामग्री TLM की विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

१. शिक्षक इसकी सहायता से शिक्षण अधिगम को रोचक एवं आकर्षक बनाता है।

२. छात्र से मानसिक विकास में सहायक करता है।

३. इसकी सहायता से शिक्षक को किसी भी विषय को समझाने में समय के बचत कराता है।

४. जटिल से जटिल विषय को भी सरल बनाने में TLM सहायक होता है।

५. बच्चों की जिज्ञासाओं को बढ़ाने में सहायक होता है।

६. बालक के मानसिक सामाजिक एवं संवेगात्मक विकास भी करता है।

७. शिक्षण सहायक सामग्री की सहायता से बालक के व्यवहार में परिवर्तन लाता है।

८. बच्चों को ध्यान केंद्रित करने में सहायक करता है उनके इंद्रियों की क्षमता को भी बढ़ाता है।

९. अमृत विचारों को मूर्त रूप में प्रस्तुत करने में मदद करता है।

१०. बालक के अधिगम एवं उनकी रुचियां को बढ़ाने में मदद करता है।

ज्ञान के विस्तार व जटिलता ने अध्यापकों के लिए सहायक सामग्री का प्रयोग अनिवार्य बना दिया है।

शिक्षण सहायक सामग्री का महत्त्व (IMPORTANCE OF TEACHING  LEARNING AIDS)

शिक्षण सहायक सामग्री के महत्त्व को निम्न बिन्दुओं में व्याख्यायित किया जा सकता है:-

1. सहायक सामग्री से बालक की ज्ञानेन्द्रियों को क्रियाशील रखने में सहायता मिलती है। क्रियाशील ज्ञानेन्द्रियाँ बालक की सीखने की क्षमता में वृद्धि करती हैं।

2. सहायक सामग्रियों के प्रयोग से विद्यार्थी निष्क्रिय होने से बच जाता है। यदि इन्द्रियों को क्रियाशील रखा जाए तो बालक को अपना दृष्टिकोण विकसित करने में सहायता मिलती है और उसमें परिपक्वता का विकास होता है।

3. सहायक सामग्री बालकों का ध्यान आकर्षित करके ज्ञान को मूर्त रूप में प्रस्तुत करती है। इससे बालक सीखने के लिए प्रेरित होता है। सीखने के लिए उत्सुकता बढ़ती है। बालक पाठ को ध्यानपूर्वक सुनते हैं और आनन्द लेते हैं ।

4. सहायक सामग्री के प्रयोग से बालकों की बोधात्मकता और अवधान केन्द्रण में सकारात्मक वृद्धि होती है, जिससे अधिगम में सहायता मिलती है।

5. दुरूह प्रयोजनों को सहायक सामग्री के माध्यम से आसानी से समझाया जा सकता है, क्योंकि बालक जो सुनते हैं उसे अपनी आँखों से देखते भी हैं।

6. सहायक सामग्री के प्रयोग से बालकों की रटने की क्रिया को कम किया जा सकता है।

7. मानसमन्द बालकों के लिए सहायक सामग्री वरदान है। सामान्य बालक जिन प्रकरणों को आसानी से समझ लेते हैं, मानसमन्द बच्चे नहीं समझ पाते। परन्तु यदि सहायक सामग्री के प्रयोग से उन्हें समझाया जाता है तो उन्हें लाभ मिलता है।

8. अध्यापक प्रभावकारी ढंग से शिक्षण करने में सफलता प्राप्त करने के लिए सहायक सामग्री का प्रयोग करता है। सहायक सामग्री के प्रयोग से अध्यापक अपने शिक्षण कौशलों का परिचालन सफलतापूर्वक कर लेता है, जैसे-प्रश्न पूछना, पाठ्यवस्तु को प्रस्तुत करना, उत्तर देना, प्रतिकार करना, प्रतिपुष्टि और मूल्यांकन करना आदि।

9. अधिगम के स्थानान्तरण में सहायक सामग्री की विशेष भूमिका होती है। जिन प्रकरणों या तथ्यों को बालक इन्द्रिय अनुभव से ग्रहण करता है, उन्हें अन्य स्थानों पर उपयोग करने में सफल हो जाता है। केवल सुनी हुई बातों तथा तथ्यों को स्थानान्तरित करना कठिन होता है।

10. सहायक सामग्री पुनर्बलन और प्रतिपुष्टि प्रदान कर शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को अपने उद्देश्यों में सफल बनाते हैं।

11. विभिन्न प्रकार की सहायक सामग्री (रेडियो, टेलीफोन, कम्प्यूटर आदि) के प्रयोग से बालकों को नए-नए शब्दों का अनुभव होता है, उनके शब्द भंडार में वृद्धि होती है।

12. सहायक सामग्री बालकों की कल्पना-शक्ति का विकास करती है।

13. सहायक सामग्री के उपयोग से बालकों को जो सिखाया जाता है, वे तुरन्त अपने मस्तिष्क में धारण कर लेते हैं और आवश्यकतानुसार प्रत्यास्मरण भी कर लेते हैं।

Factors Affecting Learning

सीखने को प्रभावित करने वाले कारक या अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक(factors affecting learning in hindi)

अधिगम को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं-
A. विद्यार्थी से संबंधित कारक
B. शिक्षक से संबंधित कारक
C. विषय वस्तु से संबंधित कारक
D. वातावरण से संबंधित कारक

A. विद्यार्थी से संबंधित कारक (factors related to students):

विद्यार्थी से संबंधित कारक निम्नलिखित हैं:
१. शारीरिक स्वास्थ्य
२. मानसिक स्वास्थ्य
३. सीखने की इच्छा
४. सीखने की समय
५. सीखने में तत्पर्यता
६. विद्यार्थी या बालक की मूलभूत क्षमता
७. बुद्धि स्तर
८. रूचि
९.अभिप्रेरणा का स्तर

१. शारीरिक स्वास्थ्य(physical health)

किसी भी कार्य को सीखने में विद्यार्थी का शारीरिक स्वास्थ्य बहुत ही महत्वपूर्ण होता है यदि बालक शारीरिक रूप से स्वस्थ होगा तो वह अपने अधिगम में रुचि लेगा इसके विपरीत यदि बालक को कोई शारीरिक कष्ट होता है तो उसका पूरा ध्यान उसी में लगा रहता है और वह अपने कार्य में समंग रूप से ध्यान नहीं लगा पता अतः अधिगम(learning) के लिए बालक का शारीरिक रूप से स्वस्थ होना अति आवश्यक है।

२. मानसिक स्वास्थ्य(mental health)

किसी भी कार्य को सीखने के लिए शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य भी अति आवश्यक होता है यदि बालक मानसिक रूप से स्वस्थ है तो वह किसी भी कार्य या बात को जल्दी सीख लेता है नहीं तो वह कार्य को सीखने में ज्यादा समय लगाता है वह उसे ज्यादा समय तक याद नहीं रख पाता।

३. सीखने की इच्छा(willingness to learn)

शारीरिक स्वास्थ्य या मानसिक स्वास्थ्य के सही होने पर बालक में किसी कार्य को सीखने की इच्छा होनी चाहिए। यदि उसमें कार्य सीखने की इच्छा होती है तब वह कार्य को शीघ्रता से सीखने में सफल हो जाता है इसके लिए बालकों में कुछ पाने की चाह या इच्छा होनी चाहिए।

४. सीखने की समय(learning time)

यदि बालक को कोई कार्य ज्यादा देर तक सिखाई जाती हैं तो वह थकान महसूस करने लगता है इस स्थिति में बालक में क्रिया को सीखने के प्रति उदासीनता आ जाती हैं अतः बालक को कोई भी क्रिया सिखाते समय इस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि बालक को लगातार ज्यादा समय तक कोई कार्य न कराया जाए इसके बीच थोड़ा समय अंतराल होना चाहिए।

५. सीखने में तत्परता(readiness to learn)

जब बालक से सीखने(learning) के लिए तत्पर या तैयार होता है तो उस स्थिति में बालक किसी भी कार्य को जल्दी सीख लेता है एवं उसे ज्यादा समय तक अपने मास्तिष्क में धारण रखता है। लेकिन यदि बालक किसी कार्य को सीखने के लिए तत्पर नहीं होता तो वह या तो उस कार्य को सीख नहीं पाएगा और यदि सीख भी लेता है तो शीघ्रता से भूल जाएगा। अतः किसी कार्य को बालक को सिखाने के लिए उस कार्य के प्रति तत्परता या रुझान उत्पन्न करना चाहिए।

६. विद्यार्थी या बालक की मूलभूत क्षमता(basic ability of the student)

प्रत्येक पालक की अपनी कुछ ना कुछ मूलभूत क्षमताएं होती है जिसको आधार बनाकर के क्रियाओं को सिखाना चाहिए। इसके अंतर्गत बालक की अंतर्निहित शक्ति संवेगात्मक दृष्टि आते हैं। यदि बालकों को कोई कार्य उसकी मूलभूत क्षमता के अनुसार सिखाया जाता है तो वह कार्य में शीघ्र निपुणता प्राप्त कर लेता है। अतः कार्यों का प्रशिक्षण देने से पूर्व बालक की मूलभूत क्षमताओं की जानकारी ले लेनी चाहिए नहीं तो उपयुक्त परिणाम प्राप्त नहीं होगा।

७. बुद्धि स्तर(intelligence level)

सभी विद्यार्थी या बालक भिन्न-भिन्न बुद्धि वाले होते हैं सामान्य प्रतिभाशाली मूर्ख मंदबुद्धि आदि विद्यार्थी को कोई कार्य सिखाने से पहले उसके बुद्धि स्तर को जान लेना चाहिए। इसके उपरांत ही उसी की कारें सिखाना चाहिए। जब विद्यार्थी को उसके बुद्धि स्तरीय क्षमता के अनुसार कोई कार्य सिखाया जाता है तो उसे समझने में सरलता होती है या सहायता मिलती है एवं इस स्थिति में कार्यों को जल्दी सीख लेता है।

८. रूचि(interest)

जिस प्रकाinterestर विद्यार्थी या बालक को कोई कार्य सिखाने(Learning) में अभिप्रेरणा(motivation) आवश्यक होती है उसी प्रकार कार्य के प्रति विद्यार्थी की रूचि का होना आवश्यक है सुरुचिपूर्ण कार्यों को बालक जल्दी सीख लेता है वह इससे उसे आनंद की अनुभूति होती है।

९.अभिप्रेरणा का स्तर (motivation level)

प्रत्येक बालक को सीखने की प्रक्रिया(process of learning) के लिए अधिक से अधिक प्रेरणा का प्रयोग करना चाहिए। जिससे बालक को कार्य के प्रति प्रेरित किया जा सकता है इसके अनुपस्थिति में बालक कार्य तो करता है लेकिन लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाता।

B. शिक्षक से संबंधित कारक (factors related to teacher)

१. विषय का ज्ञान
२. शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य
३. समय सारणी का निर्माण
४. व्यक्तिगत विभिन्नता का ज्ञान
५. शिक्षण पद्धति
६. शिक्षक का व्यक्तित्व
७. अध्यापक का व्यवहार
८. पढ़ाने की इच्छा
९. व्यवसाय के प्रति निष्ठा
१०. अभ्यास कार्य को दोहराने की व्यवस्था
११. बाल केंद्रित शिक्षा पर बल
१२. मनोविज्ञान एवं बाल प्रकृति का ज्ञान

१. विषय का ज्ञान(subject knowledge): 

कोई भी अध्यापक अपने छात्रों को अपने विषय का पूर्ण ज्ञान होने पर ही प्रभावित कर सकता है। ज्ञान विहिन शिक्षक ना तो छात्रों से सम्मान या आदत प्राप्त कर सकता है और ना ही उनके मस्तिष्क का विकास कर सकता है। अपने विषय का पूर्ण ज्ञाता होने पर ही शिक्षक आत्मविश्वास पूर्वक बालकों को नवीन ज्ञान प्रदान करते है।

२. शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य(physical and mental health):

शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से स्वस्थ होने पर ही शिक्षक बालकों का ध्यान केंद्रित कर प्रभावशाली ढंग से शिक्षण प्रदान कर सकता है।

३. समय सारणी का निर्माण(timetable creation):

विद्यालयों में समय सारणी का निर्माण करते समय इस बात का ध्यान आवश्य रखना चाहिए कि एक साथ लगातार दो कठिन विषयों को ना लगाया जाये वह कठिन विषयों को समय सारणी में प्रथम चरण में रखना चाहिए क्योंकि प्रथम चरण बालक में तरोताजगी एवं फूर्ति होती है एवं व शारीरिक एवं मानसिक रूप से सीखने के लिए तैयार रहते हैं।

४. व्यक्तिगत विभिन्नता का ज्ञान(knowledge of individual differences)

अध्यापक को व्यक्तिगत विभिन्नताओं(individual differences) के संबंध में जानकारी होनी नितांत आवश्यक है। मनोविज्ञान के प्रदुर्भाव के क्षेत्र में व्यक्तिगत विभिन्नताओं को महत्व प्रदान किया जा रहा है। इसलिए आज बालक की रुचि अभिरुचि योग्यता क्षमता इत्यादि को ध्यान में रखकर ही उन्हें शिक्षा प्रदान की जाती है। व्यक्तिगत विभिन्नताओं का ज्ञान होने पर ही शिक्षक अपने शिक्षण को सफल बना सकता है।

५. शिक्षण पद्धति(teaching method):

अधिगम प्रक्रिया से शिक्षण पद्धति का प्रत्यक्ष संबंध होता है। समस्त बालकों को एक ही शिक्षण विधि से नहीं पढ़ाया जा सकता है क्योंकि प्रत्येक छात्र दूसरे छात्र से भिन्न होता है। अतः शिक्षक द्वारा प्रयुक्त की जाने वाली शिक्षण पद्धति अधिक प्रभावी वा मनोवैज्ञानिक होनी चाहिए तभी अधिगम की प्रक्रिया सफल हो सकती है।

६. शिक्षक का व्यक्तित्व(teacher’s personality):

शिक्षक का व्यक्तित्व सफल शिक्षण का आधार होता है। उत्तम शिक्षक का व्यक्तित्व प्रभावशाली होता है। प्रभावशाली व्यक्तित्व का अर्थ यह है कि उत्तम अध्यापक आत्म विश्वास एवं इच्छा शक्ति वाला चरित्रवान कर्तव्यनिष्ठ एवं निरोगी होता है उसके गुणों एवं आदतों का प्रभाव बालकों पर इतना अधिक पड़ता है की उसकी समग्र रुचियां एवं अभिरुचियां ही बालकों की अभिरुचियां बन जाती हैं।

७. अध्यापक का व्यवहार(teacher’s behavior):

यदि शिक्षक का व्यवहार समस्त छात्रों के साथ समान है प्रेम सहयोग सहानुभूति आदि गुणों से युक्त हैं तो छात्र भली प्रकार से पाठ सीख लेंगे। इसके विपरीत शिक्षक का व्यवहार होने पर छात्रों में शिक्षक के प्रति गलत अवधारणा बन जाएगी जो अधिगम में अत्यंत बाधक सिद्ध होगी।

८. पढ़ाने की इच्छा(desire to teaching):

पाठ को पढ़ाने की इच्छा होने पर ही शिक्षक किसी पाठ को रूचि पूर्वक पढ़ा सकता है और छात्रों में भी पढ़ने के प्रति रुचि विकसित कर सकता है।

९. व्यवसाय के प्रति निष्ठा(loyalty to business):

व्यवसाय के प्रति निष्ठा भी अधिगम की प्रक्रिया को प्रभावित करती हैं और विषय में रुचि पैदा करती हैं। अतः शिक्षक को अपना कार्य उत्साह व तत्परता पूर्वक करना चाहिए।

१०. अभ्यास कार्य को दोहराने की व्यवस्था:

शिक्षक को चाहिए कि वह जिन कार्यों को विद्यार्थियों को सिखा रहा है उसको बार-बार उनसे दोहराए। इससे विद्यार्थियों में कार्य के प्रति रुचि उत्पन्न होती हैं वह बार-बार उसी कार्य को करने से वह उसे अच्छी तरह से सीख लेते हैं। वह उसको ज्यादा लंबे समय तक अपने मस्तिष्क में धारण रखते हैं।

११. बाल केंद्रित शिक्षा पर बल:

आज बाल केंद्रित शिक्षा पर अत्याधिक बल दिया जा रहा है। अतः शिक्षक के के लिए या आवश्यक है कि वह छात्रों को जो भी ज्ञान प्रदान करें, वह उनकी रूचि स्तर के अनुकूल होना चाहिए।

१२. मनोविज्ञान एवं बाल प्रकृति का ज्ञान:

अध्यापक को शिक्षण से संबंधित मनोविज्ञान की विभिन्न शाखाओं का ज्ञान होना भी नितांत आवश्यक है। मनोविज्ञान का ज्ञान होने पर ही अध्यापक अपने शिक्षण को सफल बना सकते हैं। इसके अतिरिक्त शिक्षक को बालक की प्रकृति का भी ज्ञान होना चाहिए।

C. विषय वस्तु से संबंधित कारक (factors related to content)

१. विषय वस्तु की प्रकृति
२. विषय वस्तु का आकार
३. विषय वस्तु के उद्देश्यपूर्णता
४. भाषा शैली
५. श्रव्य दृश्य सहायक सामग्री
६. रुचिकर विषय वस्तु

१. विषय वस्तु की प्रकृति(nature of subject matter)

विषय वस्तु की प्रकृति सीखने की प्रक्रिया को पूर्ण रूप से प्रभावित करती हैं। सीखे जाने वाले विषय वस्तु यदि सरल है। तो माध्यम श्रेणी का छात्र भी उसे सरलता से सीख सकता है। और यदि विषय वस्तु कठिन है तो छात्रों को सीखने में कठिनाई का अनुभव होता है इसलिए विषय वस्तु की प्रकृति जितनी सरल होगी सीखने की प्रवृत्ति उतनी ही अच्छी होगी।

२. विषय वस्तु का आकार

विषय वस्तु का आकार एवं उसकी मात्रा छात्रों की अधिगम प्रक्रिया को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। देखने में आया है कि छात्र पहले उन पाठ्य का अध्ययन करता है जो छोटे होते हैं तथा जिसका विषय वस्तु कम होता है। वह लंबे पाठों से बचना चाहते हैं और यही कारण है कि विद्यार्थी को ऐसे पाठों को पढ़ने के लिए विवश किया जाता है। अतः विषय वस्तु का आकार छोटा होना चाहिए ताकि वह किसी भी चीज़ को अच्छे तरीके से सीख ले।

३. विषय वस्तु के उद्देश्यपूर्णता

यदि विषय वस्तु उद्देश्यपूर्ण है तथा छात्रों की आवश्यकताओं की संतुष्टि करता है तो छात्र उसे सरलता से सीख लेते हैं। अतः विषय वस्तु छात्रों के उद्देश्य के अनुरूप बनाए जाने चाहिए।

४. भाषा शैली

सीखने में भाषा शैली का महत्वपूर्ण स्थान होता है। विभिन्न लेखकों के द्वारा सरल भाषाओं का उपयोग किया जाता है। बच्चे उस किताब को पढ़ने में ज्यादा मन लगाते हैं अतः किसी भी विषय वस्तु को तैयार करने के लिए सरल भाषा शैली का होना अति आवश्यक है।

५. श्रव्य दृश्य सहायक सामग्री

अधिगम को रोचक बनाने के लिए श्रव्य दृश्य सामग्री का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। कठिन से कठिन पाठ्यवस्तु को ही श्रव्य दृश्य सहायक सामग्री के द्वारा आसान बनाया जा सकता है। लेकिन इसका अर्थ या नहीं है कि जबरदस्ती सहायक सामग्री का प्रयोग पाठ्यवस्तु में किया जाए। इसका प्रयोग विषय वस्तु की प्रकृति पर निर्भर करता है। अतः विषय वस्तु से संबंधित एक कारक में श्रव्य दृश्य सामग्री का होना अति आवश्यक है।

६. रुचिकर विषय वस्तु

यदि पाठ्यपुस्तक रुचिकर है तो छात्र उसे खूब मन लगाकर पढ़ते हैं और यदि विषय वस्तु रुचिकर नहीं है तो छात्र सीखने में ध्यान नहीं देते हैं और शीघ्र ही उब जाते हैं या थक जाते हैं। इस दृष्टि से पाठ्यवस्तु का रुचिकर होना अत्यंत आवश्यक है। शिक्षण ही एक कला है। अतः अध्यापक को कक्षा शिक्षण करने से पूर्ण छात्रों को विषय के प्रति गहन रूचि उत्पन्न करनी चाहिए तथा अपनी सूझबूझ से विषय को रूचि बनाने के घातक प्रयास करना चाहिए।

D. वातावरण से संबंधित कारक (environmental factors)

१. विद्यालय की स्थिति
२. कक्षा का पर्यावरण
३. परिवारिक वातावरण
४. भौतिक वातावरण
५. सामाजिक वातावरण
६. विशेष सामग्री की प्रकृति
७. मनोवैज्ञानिक वातावरण

१. विद्यालय की स्थिति(school status)

बहुत से विद्यालय ऐसी जगह है जहां वाहनों का शोर ज्यादा मात्रा में होता है या कुछ विद्यालय ऐसी जगह पर होते हैं जहां पर निरंतर दुर्गंध आती है इन दोनों स्थितियों में बालक या विद्यार्थी का ध्यान कार्यों को सीखने में भंग होता है अतः विद्यालय का निर्माण उपयुक्त जगह होनी चाहिए।

२. कक्षा का पर्यावरण(classroom environment)

किसी विद्यालय में कक्षा का अनुशासन इतना अधिक होता है कि वहां कार्यों के अध्ययन के अतिरिक्त अन्य कोई बातें नहीं की जाती तो कहीं इतनी अधिक अनुशासनहिनता पाई जाती है कि वहां कार्यों के अलावा सभी बातों को स्थान दिया जाता है तो या दोनों ही स्थितियां सही नहीं होती हैं। इन दोनों स्थितियों में तालमेल बैठाए जाने पर अपेक्षित परिणाम की प्राप्ति होती है।

३. परिवारिक वातावरण(family environment)

कक्षा का वातावरण भी बालक के लिए आवश्यक नहीं होता अपितु परिवार का वातावरण ही अहम होता है जिन परिवारों का वातावरण उत्तम होता है उन परिवारों के बालक पढ़ाई में रुचि लेते हैं और कठिन पाठ को भी सरलता से सीख लेते हैं इसके विपरीत जिन परिवारों का वातावरण अच्छा नहीं होता उन परिवारों के बालकों की अधिगम के गति अत्यंत मंद होती हैं। अर्थात अगर किसी परिवार के सदस्यों के बीच लड़ाई झगड़े रहते हैं तो वहां पर पढ़ रहे बच्चों पर इसका सीधा प्रभाव पड़ता है अतः बालकों को इस वातावरण से बचाने के लिए परिवार में स्नेह पूर्ण वातावरण होना चाहिए।

४. भौतिक वातावरण(physical environment)

भौतिक वातावरण के अंतर्गत तापमान वातावरण प्रकाश वायु कोलाहल इत्यादि का प्रमुख स्थान है अतः कक्षा का भौतिक वातावरण उपयुक्त ना होने पर छात्रा भी थकान अनुभव करने लगेंगे और सीखने में भी उनकी अरुचि उत्पन्न होने लगेगी।

५. सामाजिक वातावरण(social environment)

छात्रों के अधिगम पर सामाजिक एवं सांस्कृतिक वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है सामान्यतः सांस्कृतिक वातावरण का आशय व्यक्ति द्वारा निर्मित या प्रभावित उन समस्त नियमों विचारों विश्वासो एवं भौतिक वस्तुओं को पूर्णतः से है जो उनके जीवन को चारों तरफ से गिरे हुए हैं संस्कृतिक वातावरण मानवीय होते हुए भी मानवीय का एवं सामाजिक विकास एवं बालक के अधिगम को सबसे अधिक प्रभावित करता है।

६. विशेष सामग्री की प्रकृति

बालकों को कोई भी कार्य सिखाने के लिए ऐसी विषय सामग्री प्रयुक्त करनी चाहिए जो वातावरण में सुगमता से प्राप्त हो जाए। ऐसे विषय सामग्री के साथ विद्यार्थियों को तालमेल या उसे समझने में सहायता मिलता है।

७. मनोवैज्ञानिक वातावरण(Psychological atmosphere)

अधिगम की प्रक्रिया पर मनोवैज्ञानिक वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है। यदि छात्रों में परस्पर सहयोग सद्भावना मधुर संबंध है तो अधिगम की प्रक्रिया सुचारू रूप से आगे बढ़ती हैं।

Principles of Learning

अधिगम (सीखने) के सिद्धांत – Theories (Principles) of Learning

अधिगम (सीखना) एक प्रक्रिया है। जब हम किसी कार्य को करना सीखते हैं, तो एक निश्चित क्रम से गुजरना होता है। विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने सीखना कैसे होता है, इस पर कुछ सिद्धांतों को निर्धारित किया है। अतः किसी भी उद्दीपक के प्रति क्रमबद्ध प्रतिक्रिया की खोज करना ही अधिगम सिद्धांत होता है।

  1. प्रयत्न और भूल का सिद्धान्त (Theory of Trial and Error)
    किसी कार्य को हम एकदम से नहीं सीख पाते हैं। सीखने की प्रक्रिया में हम प्रयत्न करते हैं और बाधाओं के कारण भूलें भी होती हैं। लगातार प्रयत्न करने से सीखने में प्रगति होती है और भूलें कम होती जाती हैं। अत: किसी क्रिया के प्रति बार-बार प्रयास करने से भूलों का ह्रास होता है, तो इसको प्रयत्न और भूल का सिद्धान्त कहते हैं, वुडवर्थ के अनुसार- “प्रयत्न और त्रुटि में किसी कार्य को करने के लिये अनेक प्रयत्न करने पड़ते हैं, जिनमें अधिकांश गलत होते हैं।“ एल. रेन (L. Rein) के अनुसार- “संयोजन सिद्धान्त वह सिद्धान्त है, जो यह मानता है कि प्रक्रियाएँ, परिस्थिति और प्रतिक्रिया में होने वाले मूल या अर्जित कार्य सम्मिलित हैं।”
  1. सम्बद्ध प्रतिक्रिया का सिद्धान्त (Conditioned Response Theory)
    साहचर्य के द्वारा सीखने में सम्बद्ध सहज क्रिया सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। जब हम अस्वाभाविक उद्दीपक के प्रति स्वाभाविक प्रतिचार करने लगते हैं, तो वहाँ पर सम्बद्ध प्रतिक्रिया के द्वारा सीखना उत्पन्न होता है। जब खाने को देखने पर कुत्ते के मुँह में लार आ जाती है या घण्टी बजने पर लार, आने लगे तो सम्बद्ध प्रतिक्रिया के द्वारा सीखना होता है। जैसा कि बरनार्ड ने लिखा है, “सम्बद्ध प्रतिक्रिया, उद्दीपक की पुनरावृत्ति द्वारा व्यवहार का स्वचालन है, जिसमें उद्दीपक पहले किसी प्रतिक्रिया के साथ होती है, किन्तु अन्त में वह स्वयं ही उद्दीपक बन जाती है।”
  1. ऑपरेन्ट कन्डीशनिंग या स्किनर का क्रिया प्रसूत अनुबन्धन (Skinner’s Operant Conditioning)
    उत्तेजक प्रतिक्रिया अधिगम सिद्धान्तों की कोटि में बी. एफ. स्किनर ने सन् 1938 में क्रिया प्रसूत अधिगम प्रतिक्रिया को विशेष आधार देकर महान योगदान दिया। स्किनर ने इस प्रक्रिया को प्रमाणित करने के लिये मंजूषा का निर्माण किया, जिसे स्किनर बॉक्स या स्किनर मंजूषा के नाम से जाना जाता है।
  1. अन्तर्दृष्टि या सूझ का सिद्धान्त (Theory of Insight)
    सीखने का सूझ का सिद्धान्त गैस्टाल्टवादियों की देन है। वे लोग समग्र में विश्वास करते हैं, अंश में नहीं। जैसा कॉलसनिक ने लिखा है- “अधिगम व्यक्ति के वातावरण के प्रति सूझ तथा आविष्कार के सम्बन्ध को स्पष्ट करने वाली प्रक्रिया है।“ प्रस्तुत सिद्धान्त के प्रणेता कोहलर और बर्दीमर थे। ये सीखने को सामग्री की सार्थकता और परिणाम पर आधारित मानते हैं। अपने सूझ को बुद्धि का परिणाम मानकर कार्य किया है।
  1. अनुकरण का सिद्धान्त (Theory of Imitation)
    अनुकरण एक सामान्य प्रवृत्ति है, जिसका प्रयोग मानव दैनिक जीवन की समस्याओं के सुलझाने में करता है। अनुकरण में हम दूसरों को क्रिया करते हुए देखते हैं और वैसा ही करना सीख लेते हैं। मनोवैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि अनुकरण के द्वारा भी सीखा जा सकता है। अनुकरण का सिद्धांतत मानव में अधिक सफल हुआ है। मैक्डूगल के अनुसार- “एक व्यक्ति द्वारा दूसरों की क्रियाओं या शारीरिक गतिविधियों की नकल करने की प्रक्रिया को अनुकरण कहते हैं।”

National Curriculum Framework

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा

2005  National Curriculum Framework (NCF-2005)

  • बालकों को क्या और कैसे पढ़ाया जाए राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 इन्हीं विषयों पर ध्यान केन्द्रित कराने हेतु एक अति महत्वपूर्ण दस्तावेज है।
  • राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 (NCF-2005) का उद्धरण रवीन्द्रनाथ टैगोरे के निबंध ‘‘सभ्यता और प्रगति‘‘ से हुआ है। जिसमें उन्होंने बताया हैकि सृजनात्मकता और उदार आनंद बचपन की कुंजी है।

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या के दस्तावेज ने पाठ्यचर्या के निर्माण के लिए पॉच निर्देशक सिद्धान्तों का प्रस्ताव रखा है।

  • ज्ञान को स्कूल के बाहर के जीवन से जोड़ना।
  • पढ़ाई रटंत प्रणाली से मुक्त हो यह सुनिश्चित करना।
  • पाठ्यचर्या का इस तरह संवर्द्धन कि वह बच्चों के चहुंमुखी विकास के अवसर मुहैया करवाए, बजाय इसके कि पाठ्य पुस्तक केन्द्रित बन कर रह जाए।
  • परीक्षा को अपेक्षकृत अधिक लचीला बनाना और कक्षा की गतिविधियों से जोड़ना।
  • एक ऐसी अधिभावी पहचान का विकास जिमें प्रजातांत्रिक राज्य व्यवस्था के अंतर्गत राष्ट्रीय चिंताएं समाहित हों।

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा को 5 भागों में बॉटकर वर्णित किया गया है

  1. परिप्रेक्ष्य
  2. सीखना और ज्ञान
  3. पाठ्यचर्या के क्षेत्र, स्कूल की अवस्थाएं और आंकलन
  4. विद्यालय तथा कक्षा का वातावरण
  5. व्यवस्थागत सुधार

परिप्रेक्ष्य-( Perspective)

  • शिक्षा बिना बोझ के सूझ आधार पर पाठ्यचर्या का बोझ कम करना।
  • पढाई को रंटत प्रणाली से मुक्त रखते हुए स्कूली ज्ञान को बाहरी जीवन से जोड़ा जाना।
  • पाठ्यक्रम का इस प्रकार संवर्द्धन किया जाना जिससे बच्चों का चहुमुंखी विकास हो।
  • ऐसे नागरिक का निर्माण करना, जौ लैंगिक न्याय, मूल्यों, लोकतांत्रिक व्यवहारों, अनुसूचित-जनजातियों, और विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के प्रति संवेदनशील हों।
  • ऐसे नागरिक वर्ग का निर्माण करना जिनमें राजनीतिक एवं आर्थिक प्रक्रियाओं में भाग लेने की क्षमता हो।

सीखना और ज्ञान-(Learning and Knowledge)

  • समाज में मिलने वाली अनौपचारिक शिक्षा, विद्यार्थीं में अपना ज्ञान सृजित करने की स्वाभाविक क्षमता को विकसित करती है।
  • बाल केन्द्रित शिक्षा का अर्थ है बच्चों के अनुभवों और उनकी सक्रिय सहभागिता को प्राथमिकता देना।
  • संज्ञान का अर्थ है कर्म है कर्म व भाषा के माध्यम से स्वंय और दुनिया को समझना।
  • विवेचनात्मक शिक्षाशास्त्र, विभिन्न मुद्दों पर उनके राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, तथा नैतिक पहुओं के संदर्भ में आलोचनात्मक चिंतन का अवसर प्रदान करना।
  • अवलोकन, अन्वेषण, विश्लेषणात्मक विमर्श तथा ज्ञान की विषय-वस्तु विद्यार्थियों की सहभागिता के प्रमुख क्षेत्र।

पाठ्यचर्या के क्षेत्र, स्कूल की अवस्थाएं और आंकलन-(Scope of curriculum, stages of school and assessment)

  • बहुभाषिता एक ऐसा संसाधन है जिसकी तुलना सामाजिक तथा राष्ट्रीय स्तर पर किसी अन्य राष्ट्रीय संसाधन से की जा सकती है।
  • प्रत्यक्षीकरण तथा तिरूपण जैसे कौशलों के विकास मे गणित बहुत सहायक सिद्ध हुई है।
  • सामाजिक विज्ञान शिक्षण अंतर्गत् एक ऐसी पाठ्यचर्या का होना आवश्यक है, जो शिक्षार्थियों में समाज के प्रति आलोचनात्मक समझ का विकास कर सके।
  • आकलन का मुख्य प्रयोजन सीखने सिखाने की  प्रक्रियाओं एवं सामग्री में सुधार लाना तथा उन लक्ष्यों पर पुनर्विचार करना है जो स्कूल के विभिन्न चरणें के लिए तैयार किए जाते हैं।
  • पूर्व प्राथमिक स्तर पर आकलन बच्चों की दैनिक गतिविधियों, स्वास्थ्य और शारीरिक विकास पर आधारित होना चाहिए।

विद्यालय तथा कक्षा का वातावरण-(Environment of school and class)

  • चेतन और अचेतन दोनों रूप से बच्चे हमेसा विद्यालय के भौतिक वातावरण से निरंतर अन्तःक्रिया करते रहते हैं।
  • कक्षा का आकार शिक्षण अधिगम क्रिया को प्रभावित करने वाला एक महत्वपूर्ण कारक है। किसी भी अवस्था में शिक्षक तथा शिक्षार्थियों का अनुपाता 1ः30 से अधिक नहीं होना चाहिए।
  • अनुशासन ऐसा होना चाहिए जो कार्य सम्पन्न होने में मदद करे साथ ही बच्चों की सक्षमता को बढ़ाए।

व्यवस्थागत सुधार-(Organised amendment)

  • बच्चों की शिक्षा व्यवस्था में विकासात्मक मानकों का प्रयोग किया जाना चाहिए, जो अभिप्रेरणा तथा क्षमता की समग्र वृद्धि की पूर्व मान्यता पर आधारित हो।
  • पाठ्यचर्या को इस प्रकार निर्मित करना  चाहिए जिसमें शिक्षक शिक्षार्थियों को खेलते तथा काम करे हुए प्रत्यक्ष रूप से अवलोकित कर सके।
  • काम केन्द्रित शिक्षा का अर्थ है बच्चों में उनके परिवेश, प्राकृतिक संसाधनों, तथा जीविका से संबंधित ज्ञान आधारों, सामाजिक अर्न्दृष्टियों तथा कौशलोें को विद्यालयी व्यवस्थामें उनकी गरिमा और मजबूती के स्त्रोतों में बदलना।

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या संरचना 2005 के उद्देश्य

NCF 2005 के उद्देश्यों का निर्धारण समाज की आवश्यकताओ के अनुरूप हुआ। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या संरचना 2005 National Curriculum Framework 2005 को देश की स्थिति के अनुरूप बनाए जाने एवं वर्तमान शिक्षा प्रणाली को देखते हुए इसके उद्देश्यों के निर्धारण इस प्रकार किया गया-

1. राष्ट्रीय एकता – NCF 2005 में राष्ट्रीय एकता, संप्रभुता, अखंडता को एक नया रूप प्रदान किया गया एवं राष्ट में व्याप्त भाषायी भिन्नता, धार्मिक भिन्नता जैसे मुख्य पहलुओं को ध्यान में रखते हुए इसका निर्माण किया गया। जिससे देश के सभी स्तर के छात्रों का विकास किया जा सकें।

2. शिक्षण विधियां – शिक्षण कार्य मे उपयोग लायी जा रहीं शिक्षण विधियां वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार नही थीं। NCF 2005 की संरचना के अनुसार नयी शिक्षण विधियां अपनायी जाने की जरूरत थी। जैसे- छोटे बालकों को खेल-खेल से शिक्षा प्रदान करने के लिए खेल विधि का प्रयोग पर बल देना।

3. सामाजिक महत्व – NCF 2005 के निर्माण सामाजिक महत्व को ध्यान में रखते हुए किया गया था। समाज की जरूरतों एवं आवश्यकताओं को देखते हुए राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना 2005 का ढांचा तैयार किया गया।

4. मानसिक और बौद्धिक विकास – छात्रों का बौद्धिक विकास करना इसका प्रमुख उद्देश्य था। छात्रो को भविष्य में आने वाली समस्याओं हेतु तैयार करना और उनके मानसिक स्तर को इतना मजबूत बनाना की वह हर परिस्थिति में सामान्य रहना सिख सकें।

5. शारीरिक विकास – छात्रों के शारीरिक विकास हेतु इसकी शिक्षण विधियों में भी उपयुक्त परिवर्तन किए गए थे। सह पाठ्यक्रम गतिविधियों में खेल को प्रमुखता प्रदान की गई जिससे बालकों के शारीरिक विकास किया जा सकें।

6. शिक्षण उद्देश्य – NCF 2005 की संरचना के अनुसार नवीन शिक्षण उद्देश्यों को शिक्षा में सम्मिलित किया गया। शिक्षण उद्देश्यों का चयन समाज की वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार किया जाना जरूरी था।

7. रुचि महत्ता – छात्रों की रुचि के अनुसार पाठ्यक्रम का निर्माण करना इसका प्रमुख उद्देश्य था। पाठ्यक्रम को छात्र केंद्रित बनाना और शिक्षा का क्रियान्वयन छात्रों की रुचि एवं उनके स्तर के अनुरूप करना ही इसका लक्ष्य एवं उद्देश्य था।

8. सर्वांगीण विकास – पाठ्यक्रम संरचना 2005 छात्रों के सर्वांगीण विकास (ज्ञानात्मक, बोधात्मक, क्रियात्मक) हेतु तैयार की गई थी। जिससे छात्रों का हर स्तर पर विकास हो सकें। शिक्षा के महत्वपूर्ण उद्देश्य के आधार पर इसको NCF 2005 के उद्देश्यों में सम्मिलित किया गया था।

9. संस्कृति का विकास – भारतीय संस्कृति का विकास करना और संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना इसका उद्देश्य था। जिससे छात्रों के नैतिक-मूल्यों का विकास किया जा सकें।

10. नैतिक मूल्यों का विकास – छात्रों में भारतीय सभ्यता एवं लोकतांत्रिक नैतिक मूल्यों का विकास करना जरूरी था। जिससे छात्र राष्ट की स्थिति से भली-भांति परिचित हो सकें।

Principles of NCF 2005

NCF 2005 में 8 सिद्धान्तों को अपनाया गया था। जिसके मार्ग पर चलकर राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना 2005 का निर्माण किया गया –

● मानवता सिद्धान्त – छात्रों में मानवीय गुणों के विकास हेतु एवं नागरिकों में सहयोग की भावना के विकास के लिए यह जरूरी था कि उनमें मानवता के गुणों का विकास किया जाए। इसलिए इसकी संरचना के निर्माण में इस सिद्धान्त का निर्वहन किया गया।

● बहुसंस्कृति सिद्धान्त – भारत देश में हर प्रकार के धर्म के लोग रहते हैं और सभी की अपनी एक संस्कृति हैं और विभिन्नता में एकता के स्वरूप को लेकर सभी धर्म के लोग एक दूसरे की संस्कृति का सम्मान करते हैं और इसी संस्कृति के प्रचार-प्रसार हेतु भारतीय संस्कृति को इसमें सम्मिलित किया गया।

● सामाजिक सिद्धान्त – सामाजिक मूल्यों एवं सामाजिक आवश्यकताओं को देखते हुए यह जरूरी था कि NCF 2005 (National Curriculum Framework 2005) का निर्माण सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार किया जाए। जिससे शिक्षा के वास्तिविक उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सकें।

● एकता सिद्धान्त – भारत देश की एकता, अखंडता एवं संप्रभुता को ध्यान में रखते हुए। इसका निर्माण किया जाना तय था। धर्मनिरपेक्षता के पालन एवं मौलिक अधिकारों की समानता के दृष्टिकोण को देखते हुए छह आवश्यक था कि इसके निर्माण के समय एकता सिद्धान्त का पालन हो।

● समायोजन सिद्धान्त – छात्रों में समाज के साथ समायोजन (परिस्थिति के अनुसार व्यवहार में परिवर्तन) करने की कला के विकास के लिए जरूरी हैं कि शिक्षण के द्वारा उनमें समायोजन के कौशल का विकास किया जाए। इसके लिए NCF 2005 में इस सिद्धांत को सम्मिलित किया गया।

● उपयोगिता सिद्धान्त – इस सिद्धान्त का अनुसरण करते हुए राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना 2005 का निर्माण वास्तविक परिस्थितयों के अनुसार किया गया। पाठ्यक्रम को छात्रों के वास्तविक जीवन से सम्बंध करके इसका निर्माण किया जाना उचित था। जिससे वह जीविकोपार्जन हेतु तैयार हो सकें।

● रुचि सिद्धान्त – पाठ्यक्रम को छात्रों की रुचि के अनुसार तैयार करना (NCF) का प्रमुख कार्य था। पाठ्यक्रम को छात्र केंद्रित बनाना ही इसका लक्ष्य था।

● नैतिकता सिद्धान्त – छात्रों में नैतिक मूल्यों एवं नैतिक भावनाओं का विकास करना और छात्रों में राष्ट व समाज के नैतिक मूल्यों का विकास करना इसका प्रमुख कार्य था। इसलिये इस सिद्धान्त को अपनाया जाना अनिवार्य था।

राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना 2005 (NCF 2005) की आवश्यकता

शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में पाठ्यक्रम के महत्व को स्वीकार करते हुए हम राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना 2005 National Curriculum Framework 2005 की आवश्यकताओं को निम्न आधार पर देख सकते हैं –

1. नवीन पाठ्यक्रम – इसके द्वारा शिक्षा जगत में नवीन विचारों को पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया गया। आधुनिक युग के तकनीकी विकास को देखते हुए छात्रों को उसके लिए तैयार करने के लिए यह आवश्यक था कि नवीन विचारों का समावेश पाठ्यक्रम में किया जाए।

2. भाषायी आधार – भारतीय शिक्षा प्रणाली में भाषायी समस्या के समाधान हेतु भाषायी समस्याओं का निवारण करने के लिए।

3. रुचि – भावी पीढ़ी की बदलती रुचियों एवं शिक्षा को प्रभावशाली बनाने हेतु यह जरूरी था कि पाठ्यक्रम की नवीन संरचना तैयार की जाए। जिसमें छात्रों की रुचियों की तरफ विशेष ध्यान केंद्रित किया जाए।

4. नैतिक एवं मानवीय मूल्य – छात्रों में नैतिक एवं मानवीय मूल्यों के विकास हेतु नवीन पाठ्यक्रम की आवश्यकताओं को स्वीकार किया गया। जिसके माध्यम से उनके उत्तम व्यक्तित्व का निर्माण किया जा सकें।

5. पाठ्यक्रम विकास – पाठ्यक्रम के विकास हेतु एक नवीन पाठ्यक्रम की आवश्यकता को महसूस किया गया क्योंकि उस समय की पाठ्यक्रम नीति वर्तमान स्तिथि के अनुरूप नही थीं। पाठ्यक्रम को नवीन उद्देश्यों की प्राप्ति करने के अनुरूप बनाने के लिए यह आवश्यक था कि उसमें उचित परिवर्तन लाये जाए। जो कार्य राष्टीय पाठ्यक्रम संरचना 2005 द्वारा पूर्ण किया गया।

6. शैक्षिक उद्देश्य – शिक्षा के उद्देश्य सदैव परिवर्तनशील होते हैं। समाज की आवश्यकता में निरंतर बदलाव आते रहता हैं। जिस कारण शैक्षिक उद्देश्यों में भी बदलाव होते रहता हैं और इन उद्देश्यो की प्राप्ति हेतु नवीन पाठ्यक्रम की संरचना वर्तमान शैक्षिक उद्देश्यों के अनुरूप बनाना अति आवश्यक था।