Teaching Skills Notes

शिक्षण कौशल(Teaching Skills)

शिक्षण कौशल क्या है ?

शिक्षण कौशल – प्रत्यक्ष रूप से अध्यापक अधिगम को सरल एवं सहज बनाने के उद्देश्य से किये जाने वाले शिक्षण कार्यों का व्यवहारों का समूह शिक्षण कौशल या अध्यापन कौशल कहलाता है।

शिक्षण एक विज्ञान है। इस आधार पर प्रशिक्षण द्वारा अच्छे शिक्षक तैयार किये जा सकते हैं। उनमें शिक्षण के लिए आवश्यक कौशलों को विकसित किया जा सकता है। इन्हीं कौशलों का उपयोग कर कक्षा में प्रभावी शिक्षण कर अच्छे शिक्षक बन सकते है। अतः शिक्षक प्रशिक्षण में इन कौशलों का विकास महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।

शिक्षण कौशल की परिभाषाएं (Teaching Skills Definition)

डॉक्टर बी के पासी के अनुसार- “शिक्षण कौशल, छात्रों के सीखने के लिए सुगमता प्रदान करने के विचार से संपन्न की गई संबंधित शिक्षण क्रियाओं या व्यवहारिक का समूह है।”

मेकइंटेयर एवं व्हाइट के अनुसार- “शिक्षण कौशल, शिक्षण व्यवहार से संबंधित वह स्वरूप है ,जो कक्षा की अंतः प्रक्रिया द्वारा उन विशिष्ट परिस्थितियों को जन्म देता है। जो शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक होती है और सीखने में सुगमता प्रदान करती है।”

डॉ कुलश्रेष्ठ के अनुसार- ” शिक्षण कौशल शिक्षक की हाथ में वह शस्त्र है। जिसका प्रयोग करके शिक्षक अपनी कक्षा शिक्षण को प्रभावी तथा सक्रिय बनाता है एवं कक्षा की अंतर प्रक्रिया में सुधार लाने का प्रयास करता है।”

भारत देश में अध्यापन-कुशलताओं पर कार्य 1972 में आरंभ हुआ और कुछ प्रशिक्षण-महाविद्यालयों ने इस पर अनुसंधान और प्रयोग किए। 1975 तक यहाँ के अनुकूल कुछ कुशलताओं की सूची तैयार की गई।
वह इस प्रकार हैं –

⇒ अध्यापन के उद्देश्य लिखने की कुशलता।
⇔ किसी पाठ की प्रस्तावना करने की कुशलता।
⇒ प्रश्नों में प्रवाह लाने की कुशलता।
⇔ उत्खन्न करने की कुशलता या खोजी प्रश्न करने की कुशलता।
⇒ व्याख्या करने की कुशलता या उदाहरणों द्वारा समझाने की कुशलता।
⇔ उद्दीपनों में विविधता लाने की कुशलता।
⇒ मौन सम्प्रेषण की कुशलता।
⇔ पुनर्बलन की कुशलता।
⇒ छात्रों का प्रतिभागित्व बढ़ाने की कुशलता।
⇔ श्यामपट्ट के उपयोग की कुशलता।
⇒ पाठ के समापन की कुशलता।

शिक्षण कौशल के प्रकार (Types of teaching skills)

प्रमुख शिक्षण कौशल –

  • प्रस्तावना कौशल
  • प्रश्न सहजता कौशल
  • खोजपूर्ण प्रश्न कौशल
  • प्रदर्शन कौशल
  • व्याख्या कौशल
  • प्रबलन कौशल
  • श्यामपट्ट कौशल।

1. प्रस्तावना कौशल

प्रस्तावना कौशल का सम्बन्ध पाठ को प्रारम्भ करने से पूर्व किया जाता है।
इस कौशल से सम्बन्धित सूक्ष्म पाठ तैयार करने के लिये हमें पूर्वज्ञान, सम्बन्ध-शृंखलाबद्धता सहायक सामग्री का ध्यान रखना चाहिए।
प्रस्तावना कौशल में प्रस्तावना अधिक लम्बी या अधिक छोटी नहीं होनी चाहिए। इस कौशल में 5 से 7 मिनट का समय लगता है। प्रस्तावना से बालक पाठ के अध्ययन में रुचि लेगा।
इस कौशल में अध्यापक छात्रों से प्रश्न, कहानी कह कर या किसी का उदाहरण देकर या निदर्शेन से या पाठ का सार या मन्तव्य बताकर इसमें से किसी भी तकनीक या कथन का सहारा ले सकता है।
इसके लिए तीन प्रकार के प्रश्नों का उपयोग भी करता है –

1. प्रत्यास्मरण प्रश्न – ऐसे प्रश्न जिनका जवाब बालक पूर्व ज्ञान पर आधारित एवं आसानी से दे सकें।
2. निबंधात्मक प्रश्न – शिक्षक ही पूछता है एवं स्वयं ही जवाब देता है।
3. आज्ञापालन प्रश्न – जिनका जवाब ’हाँ’ या ’ना’ में दे सके।

2. प्रश्न सहजता कौशल

कक्षा-शिक्षण में प्रश्न पूछने की प्रक्रिया का बङा महत्व है प्रश्न के माध्यम से अध्यापक बालक को अधिक चिन्तनशील बनाता है तथा विद्यार्थियों के ज्ञान, बोध, रुचि, अभिवृत्ति आदि का पता लगाता रहता है। सहज प्रश्न कौशल से अभिप्राय है – प्रश्न एवं शिक्षक की भाषा सहज हो।
शिक्षण प्रक्रिया के आधार पर तीन प्रकार के प्रश्न होते हैं –
(।) प्रस्तावना प्रश्न, (।। ) शिक्षणात्मक प्रश्न (।।। ) परीक्षणात्मक प्रश्न।

अध्यापक को प्रश्न पूछते समय धैर्य तथा सहानूभूतिपूर्ण व्यवहार रखना चाहिए।
विषय-वस्तु व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध प्रश्न बालकों से पूछना चाहिए। इसमें गति और विराम का भी ध्यान रखना चाहिए।

इसमें उचित संख्या में प्रश्न होने चाहिए। अध्यापक को सरल एवं स्पष्ट तथा संक्षिप्त प्रश्न पूछना चाहिए।

3. खोजपूर्ण प्रश्न कौशल

शिक्षक अपने विद्यार्थियों से विषय-वस्तु के गहन अध्ययन एवं गहराई तक पहुँचने के लिए विद्यार्थियों से खोजपूर्ण प्रश्न पूछता है।
यह एक ऐसा कौशल है जो विद्यार्थियों की नई खोज, नवीन जानकारी कल्पना करने आदि के लिए प्रेरित करता है।
खोजपूर्ण प्रश्न पूछने से विद्यार्थियों के ज्ञान को काम में लिया जा सकता है।

शिक्षक द्वारा पूछे गये प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थता प्रकट करे तो शिक्षक को विषय-वस्तु से सम्बन्धित आलोचनात्मक सजगता के लिए खोजपूर्ण प्रश्न पूछता है।

ध्यान रखने योग्य –

  • छात्रों का ध्यान केन्द्रित करने वाले प्रश्न होना।
  • आगे की सूचना खोजने वाला प्रश्न होगा।
  • अर्थ संकेतकता होना – इसमें छात्र को किस दशा में उत्तर की खोज करनी है।
  • बातों को अन्य की ओर मोङना
  • गलत उत्तर देने पर प्रश्नों के माध्यम से धीरे-धीरे सही उत्तरों की ओर ले जाना।

4. प्रदर्शन कौशल

शिक्षण की सम्पूर्ण प्रक्रिया केवल मौखिक रूप से नहीं चल सकती इसीलिए इस कौशल में किसी विषय-वस्तु को स्पष्ट करने के लिए तथा रोचक बनाने के उद्देश्य से सहायक सामग्री जैसे चित्र, आर्ट आदि से प्रदर्शन किया जाता है।
किसी पदार्थ या उत्पादन के बारे में एक सार्वजनिक प्रदर्शन और उसके मुख्य-मुख्य गुणों, उपयोगिता, कार्य-कुशलता आदि पर जोर देना ही प्रदर्शन है। प्रदर्शन कौशल से पूर्व अध्यापक को प्रशिक्षण की आवश्यकता रहती है।

ध्यान रखने योग्य –

  • बालकों की सहभागिता
  • विषय-वस्तु से सम्बद्धता
  • प्रदर्शन का स्पष्ट उद्देश्य
  • प्रदर्शन की उपयुक्त गति, रोचकता।
  •  छात्रों के स्तर के अनुकूल
  • ध्यान के क्रम, प्रदर्शन, योजनाबद्ध एवं पूर्व अभ्यास किया हुआ हो।

5. व्याख्या कौशल

उच्च कक्षाओं में से गद्य, पद्य कविता आदि का भाव प्रकट करने, अर्थ बताने या अपने विचारों और सिद्धातों को शाब्दिक रूप में पहुँचाना ही व्याख्या कौशल कहलाती है –
थाॅमस एम. रिस्क – ने अपनी पुस्तक ’’Principle and Practices of Teaching in Secondary School’’ ने कहा है कि –
व्याख्यान उन तथ्यों, सिद्धान्तों या अन्य सम्बन्धों का स्पष्टीकरण है, जिनको शिक्षक चाहता है कि उसके सुनने वाले समझे।
व्याख्या – वर्णनात्मक, व्याख्यात्मक, तर्कात्मक
सहायक सामग्री से भी चार्ट, चित्र, टेप रिकाॅर्डर आदि के प्रयोग से या माध्यम से भी व्याख्या की जाती है।

ध्यान रखने योग्य –

  • व्याख्यान की भाषा सरल होनी चाहिए।
  • पाठ की गति प्रारम्भ में मंद फिर सतत् हो।
  •  दृश्य-श्रव्य सामग्री का प्रयोग होना चाहिए।
  •  आवाज का स्पष्ट होना आवश्यक है।
  • निष्कर्षात्मक कथन आवश्यक है।
  • छात्र से जाँच प्रश्न पूछे जाने चाहिए।
  •  उपयुक्त मुहावरों, शब्दों एवं उदाहरणों का प्रयोग
  • कथनों की तारत्मयता, कथन में सहजता होनी चाहिए।

6. प्रबलन कौशल

इसे प्रतिपुष्टि या सुदृढ़ीकरण कौशल भी कहते हैं। प्रबलन का पुनःबल देना है।
सकारात्मक शब्दों, व्यवहार एवं माध्यम से अधिगम की प्रक्रिया से जोङना व रुचि उत्पन्न करने का कार्य करना है। इससे सीखने की प्रक्रिया में गति आती है।

सकारात्मक पुनर्बलन – वह घटना जो किसी उद्दीपन को वैसी ही परिस्थितियों में पैदा करने पर दोबारा अनुक्रिया की सम्भावना बढ़ती है।

नकारात्मक पुनर्बलन – यदि घटना के समाप्त होने पर अनुक्रिया के नहीं होने की सम्भावना बढ़ती है तो इसे नकारात्मक पुनर्बलन कहते हैं।

शाब्दिक सकारात्मक – बालक के सही एवं संतोषजनक उत्तर देने पर अध्यापक द्वारा उसी समय प्रोत्साहन एवं उत्साहवर्द्धक शब्दों का प्रयोग करता है। जैसे- अच्छा, बहुत अच्छा, शाबाश, उत्तम इन सभी क्रियाओं को शाब्दिक सकारात्मक प्रबलन कहते हैं।

सांकेतिक सकारात्मक प्रबलन – शिक्षक छात्र को प्रोत्साहित करने के लिये अशाब्दिक संकेतों का प्रयोग करता है। जैसे- सिर हिलाना, मुस्कुराना, बालक की पीठ थपथपाना आदि।

शाब्दिक नकारात्मक प्रबलन -बालकों के अशुद्ध या असन्तोषजनक उत्तर या कार्य के लिए शिक्षक द्वारा नकारात्मक शब्दों का प्रयोग किया जाता है। जैसे – गलत, ठीक नहीं, रुको, ऐसे नहीं, गोबर गणेश, मूर्ख, बेवकूफ, पागल कहीं का आदि। लेकिन इनके प्रयोग से विद्यार्थियों को यह लगेगा कि अध्यापक कक्षा में उनकी आलोचना कर रहा है अतः इस प्रकार के प्रबलन नहीं देना चाहिए।

सांकेतिक नकारात्मक – बालक के गलत या असंतोषजनक कार्य पर शिक्षक सांकेतिक नकारात्मक पुनर्बलन का प्रयोग करता है, जैस – गुस्से से देखना, आंखें दिखाना आदि।

7. श्यामपट्ट कौशल

शिक्षण प्रक्रिया में श्यामपट्ट का विशेष महत्व है। कक्षा में श्यामपट्ट अध्यापक का मित्र होता है।
शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को सही, प्रभावपूर्ण एवं समुन्नत बनाने के लिये अध्यापक अनेक प्रकार से स्वकौशल का प्रदर्शन श्यामपट्ट के माध्यम से करता है। उदाहरण के लिये कार्टून, चित्र ग्राफ, समय-सारणी आदि का श्यामपट्ट के माध्यम से विद्यार्थियों को अवगत कराना। एक कुशल शिक्षक बिन्दु का नाम लिखना नहीं भूलता तथा प्रमुख बिन्दुओं को भी अंकित करता है।

घटक –

  • स्पष्ट लेखन, स्वच्छ एवं सुन्दर लेखन होना चाहिए।
  • अक्षरों का आकार और लिखने का क्रम सही होना चाहिए।
  • मुख्य बिन्दुओं को रेखांकित करना।
  • शब्दों के बीच में उचित अंतराल होना।
  • श्यामपट्ट का उचित प्रयोग आवश्यक है।
  • चमकदार स्याही से लिखना चाहिए।
  • श्याम के सामने खङा नहीं होना चाहिए।
  • कक्षा की समाप्ति पर श्यामपट्ट को स्वच्छ करना चाहिए।

शिक्षण कौशल से संबंधित महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर (Important questions related to teaching skills)

  • सूक्ष्म- शिक्षण का विकास किसने किया।  – डी.डब्लू.एलेन
  • डॉ.वी.के. पासी ने अपने अध्ययन के आधार पर कितने शिक्षण कौशल की सूची तैयार की थी।– 13
  • शिक्षण कौशल के विकास एवं सुधार की प्रविधि किसे कहा जाता है। –  सूक्ष्म शिक्षण
  • चित्र तथा पोस्टर कौन से साधन/ सामग्री है। –  दृश्य
  • अभिक्रमित अनुदेशन का विकास किसने किया था। –  बी. एफ. स्किनर ने
  • रेखीय विक्रम का प्रतिपादक किसे माना जाता है। –  बी.एफ स्किनर को
  • रेखीय अभिक्रमित अन्य किस नाम से जाना जाता है।  -बाहय अभिक्रम
  • चलचित्र कैसा साधन है। –  दृश्य- श्रव्य
  • ” एजुकेशन टेक्नोलॉजी” शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम किसने किया था। –  ब्रायनमोर जोंस(1967)
  • शैक्षिक तकनीकी  केंद्र किसने प्रारंभ किया था ।–  NCERT नई दिल्ली
  • आधारभूत शिक्षण प्रतिमान किसके द्वारा दिया गया था। –  रॉबर्ट  ग्लेजर
  • शिक्षण मशीन का निर्माण किसके द्वारा किया गया। –  सिडनी एल  प्रेसी(अमेरिका में 1926)
  • “Technology”शब्द की उत्पत्ति किस किस भाषा से हुई है। – Technikos(कला)
  • शिक्षण प्रतिमान के कितने तत्व होते हैं। –  4(उद्देश्य, संरचना, सामाजिक प्रणाली,मूल्यांकन)
  • साखी अभिक्रम का विकास किसके द्वारा किया गया। -नार्मन ए. क्राउडर
  • एलेन  एवं रेयान  ने सूक्ष्म शिक्षण के कितने कौशल बताए हैं। – 14
  • अभिक्रमित अनुदेशन कितने प्रकार के होते हैं। –  3(रेखीय, शाखीय,मैथेटिक्स)
  • OHP  का पूरा नाम है।-Over Head Projector  (ओवरहेड प्रोजेक्टर)
  • सूक्ष्म शिक्षण में एक समय में कितने शिक्षण कौशल का विकास किया जाता है। – एक
  • भारत में दूरदर्शन सेवा का औपचारिक रूप से उद्घाटन कब हुआ। –  15 सितंबर 1959 ई
  • टेलीकॉन्फ्रेसिंग कितने प्रकार की होती है। –  3( टेलीकॉन्फ्रेसिंग, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, कंप्यूटर कॉन्फ्रेंसिंग)
  • श्रव्य दृश्य सामग्री के उपागम के अंतर्गत आती है। –  हार्डवेयर
  • कठोर शिल्प उपागम का संबंध अनुदेशन के किस पक्ष से होता है। – ज्ञानात्मक
  • खोजपूर्ण प्रश्न पूछने से छात्रों में किस का विकास होता है। –  ज्ञानात्मक
  • किस शिक्षण कौशल के अंतर्गत शिक्षक द्वारा हावभाव एवं अपनी स्थिति को बदला जाता है। -उद्दीपन भिन्नता
  • बोध स्तर के शिक्षण प्रतिमान का प्रतिपादन किसके द्वारा किया गया।  –  बी एस ब्लूम
  • एजर डेल के अनुसार किस प्रकार का अनुभव सबसे स्थाई होता है। –  प्रत्यक्ष अवलोकन
  • शिक्षक की योग्यता एवं आचरण का मूल्यांकन सबसे भली प्रकार कौन करता है। –  छात्र/ शिष्य
  • शिक्षण की समस्याओं को हल करने का दायित्व किस का होता है। –  शिक्षक का
  • विद्यालय परिसर के बाहर एक शिक्षक को अपने छात्र से किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए। –  मैत्रीपूर्ण
  • निगमनात्मक शिक्षण प्रविधि किसके अंतर्गत आती है। –  सामान्य से विशिष्ट की ओर
  • अध्यापक के लिए सबसे मूल्यवान वस्तु क्या होती है। –  छात्रों का विश्वास
  • ग्रामीण क्षेत्र के बच्चों के स्कूल से भागने तथा पढ़ाई छोड़ने का क्या कारण होता है। –  नीरज वातावरण
  • भारत में शिक्षित बेरोजगारी का प्रमुख कारण होता है। –  उद्देश्यहीन शिक्षा
  • किस प्रकार का कक्षा नेतृत्व सबसे उत्तम माना गया है। –  लोकतांत्रिक
  • किसी भी विषय वस्तु को छात्रों को सरलता से सिखाने के लिए आवश्यक गुण अध्यापक के लिए कौन सा है। –  प्रभावी अभिव्यक्ति
  • वर्तमान समय में प्राइमरी शिक्षा की दुर्दशा का मुख्य कारण बतलाइए। –  शिक्षक- छात्र विषम अनुपात
  • छोटे बच्चों की शिक्षा देना जरूरी है, लेकिन बच्चों पर कौन सा बोझ नहीं डालना चाहिए। –  गृह
  • जब छात्र उन्नति करते हैं तो उनका अध्यापक कैसा महसूस करता है। –  आत्म संतोष
  • शिक्षा से किस का कल्याण होता है। –  समाज के सभी वर्गों का
  • यह किसने कहा है कि“ शिशु का मस्तिष्क कोरी स्लेट होता है”।–  प्लेटो ने
  • किस विद्वान के द्वारा सीखने के पांच चरण बतलाए गए हैं। –  हरबर्ट स्पेंसर
  • “  किंडरगाटेर्न ” स्कूल सबसे पहले किस देश में खोले गए थे। –  जर्मनी
  • भाषा सीखने का सबसे प्रभावी उपाय है। – वार्तालाप करना
  • नर्सरी स्कूलों की शुरुआत किसने की थी। –  फ्रोबेल
  • कौन सी शिक्षण विधि वास्तविक अनुभवों को प्रदान करने के लिए उत्तम मानी जाती है। –  भ्रमण विधि
  • किस विद्वान के अनुसार शिक्षा के क्षेत्र में” अभिरुचि” को सबसे महत्वपूर्ण तत्व बताया गया है। –  टी पी नन
  • आज के आवासीय स्कूल किस भारतीय पद्धति के समान है। –  गुरुकुल
  • भारत में स्त्री शिक्षा के महान समर्थक कौन थे। –  कार्वे
  • ज्ञान इंद्रियों का प्रशिक्षण किस प्रकार का होता है। –  अभ्यास द्वारा
  • प्रयोजनवादी विचारधारा के प्रवर्तक थे। –  विलियम जेम्स
  • यह किसने कहा है कि”बच्चों के लिए सबसे उत्तम शिक्षक वह होता है जो स्वयं बालक जैसा हो”। –  मैकेन
  • गणित शिक्षण की कौन सी संप्रेषण रणनीति सर्वाधिक उत्तम उपयुक्त मानी गई है। –  एल्गोरिथ्म
  • एक शिक्षक के घर में किस वस्तु का होना ज्यादा जरूरी है। –  पुस्तकालय
  • किस सिद्धांत द्वारा बालक में रूचि का विकास होता है। –  प्रेरणा का सिद्धांत
  • अधिगम का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत बतलाइए। –  क्रिया का सिद्धांत
  • वैदिक काल में परिवार में विद्या का प्रारंभ करते समय कौन सा संस्कार होता था। –  विद्यारंभ संस्कार( चूड़ाकर्म)
  • शिक्षा की अवधि क्या है। –  500 ईसा पूर्व से 1200 तक

Teaching methods Notes

शिक्षण विधियां और प्रविधियां  {Teaching methods}

शिक्षण विधियां और प्रविधियां पठन-पाठन को आनन्दमय एवं रुचिकर बनाते हैं| शिक्षण का अर्थ होता है- अध्ययन करना। और विधि का अर्थ है- तरीका। अर्थात वह तरीके जिनका प्रयोग करते हुए शिक्षक छात्रों को ज्ञान प्रदान करता है उन्हें शिक्षण विधियां कहते हैं शिक्षण विधियों का संबंध विषय वस्तु के प्रस्तुतीकरण से है।

शिक्षण विधियों के निर्धारण एवं चयन का आधार पाठ्यवस्तु होती है। पाठ्यवस्तु की प्रकृति के आधार पर ही  शिक्षण विधियों का प्रयोग होता है। प्रस्तुतीकरण के ढ़ग को शिक्षण विधि कहते हैं । 

शिक्षण विधियों के उपयोग में शिक्षण प्रविधियों की सहायता ली जाती है जैसे कथन करना,  उदाहरण देना, व्याख्या करना आदि| एक शिक्षण विधि में  अन्य  कई शिक्षण प्रविधियों का उपयोग किया जाता है|

प्रमुख शिक्षण विधियां और उनके प्रतिपादक 

शिक्षण को छात्रों हेतु रुचिकर बनाने के लिए शिक्षकों द्वारा अनेक शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाता है। उनमें से कुछ प्रमुख शिक्षण विधियां और उनके प्रतिपादक  निम्नांकित है-

प्राचीन काल से वर्तमान तक शिक्षण विधियों और प्रविधियों का प्रयोग होता आ रहा है तथा नवीन-नवीन शिक्षण विधियों और प्रविधियों का अविष्कार होता आ रहा है।  इनमें प्रमुख शिक्षण विधियां निम्नांकित है-

पाठशाला विधि

यह सबसे प्राचीन शिक्षण विधि है। जिसमें शिष्य गुरु के समीप शिक्षण कार्य करता था। इसमें छात्रों को नियमित दिनचर्या का पालन करना होता था तथा यम-नियम, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य आदि नियमों का पालन करना होता था। पाठशाला विधि को व्यक्तिगत शिक्षण विधि भी कहा जाता है।पाठशाला विधि में संस्कारों की शिक्षा दी जाती है, पुरुषार्थ चतुष्टय की शिक्षा प्रदान की जाती है तथा  जीवन के महत्व को समझाया जाता है।

विश्लेषणात्मक विधि

विश्लेषणात्मक विधि में शिक्षक संपूर्ण पाठ को कुछ भागों में बांट लेता है तथा उसके पश्चात सभी भागों का वर्णन करता है यह विधि पूर्ण से अंत की ओर शिक्षण सूत्र पर आधारित है व्याकरण तथा कहानी शिक्षण करते समय इस विधि का प्रयोग सर्वाधिक किया जाता है। इस विधि के द्वारा बड़े तथा जटिल विषय भी आसानी से समझाया जा सकते है| विश्लेषणात्मक विधि के द्वारा  विषय को विस्तारपूर्वक समझाया जा सकता है।

संश्लेषणात्मक विधि

संश्लेषण विधि में छोटे-छोटे विषयों को जोड़कर पढ़ाया जाता है संश्लेषण तथा विश्लेषण दोनों विधियां आपस में संबंध रखती हैं। संश्लेषण विधि में हम विषय को खंडों में विभाजित करके उस विषय का अध्ययन करते हैं परंतु विश्लेषण विधि में विषय को खंडों में विभक्त करने के स्थान पर समन्वय किया जाता है। संश्लेषण विधि में ज्ञात से अज्ञात की ओर शिक्षण सूत्र का प्रयोग होता है संश्लेषण विधि को मनोवैज्ञानिक विधि भी कहा जाता है।

व्याख्यान विधि

व्याख्यान विधि में शिक्षक मौखिक एवं लिखित रूप से छात्रों को सूचनाएं प्रदान करता है। शिक्षक सक्रिय रूप से अपने विचारों को प्रकट करता है तथा छात्र शिक्षक की सभी बातों को ध्यानपूर्वक सुनते हैं और जरूरत पड़ने पर संपूर्ण जानकारी लिखते भी हैं।व्याख्यान  विधि में  कथन प्रविधि प्रवचन प्रविधि चॉक तथा वार्ता प्रविधि का  भी प्रयोग किया जाता है। व्याख्यान  विधि में छात्र एवं शिक्षक का संबंध भावात्मक रूप से जुड़ा होता है।  इस विधि विषय की विस्तार पूर्वक व्याख्या हो पाती है। शिक्षक अच्छे उदाहरण देकर विषय को रोचक तथा प्रेरणादायक बना सकते हैं । व्याख्यान विधि के द्वारा विषय को कम समय में पढ़ाया जा सकता है। 

प्रयोजना शिक्षण विधि या प्रोजेक्ट विधि

प्रयोजना शिक्षण विधि या प्रोजेक्ट विधि  आधुनिक विधि मानी जाती है।  शिक्षा में सामाजिक प्रवृत्ति के फल स्वरुप प्रयोजना शिक्षण विधि या प्रोजेक्ट विधि का विकास हुआ है। इसके प्रवर्तक डब्ल्यू एच किलपैट्रिक है, जो जॉन डीवी के शिष्य थे। किलपैट्रिक ने कहा है कि  शिक्षा इस प्रकार दी जानी चाहिए जो जीवन को समर्थ बना सके। प्रयोजना शिक्षण विधि या प्रोजेक्ट विधि अनुभव केंद्रित होती है।  छात्रों  के समाजिक करण पर प्रयोजना शिक्षण विधि या प्रोजेक्ट विधि  विशेष बल देती है। सामाजिक विषयों के शिक्षण में इसे भली प्रकार प्रयुक्त किया जा सकता है। इस विधि से छात्रों को मौलिक चिंतन, क्रियाओं तथा अनुभव द्वारा सीखने का अवसर मिलता है। प्रोजेक्ट विधि में  छात्र अधिक क्रियाशील रहता है और स्वयं अनुभव करके सीखता है।

बेसिक शिक्षा विधि

बेसिक शिक्षा विधि को वर्धा योजना भी कहते हैं। उत्तर प्रदेश में वर्धा शिक्षा या बेसिक शिक्षा तथा मध्य प्रदेश में विद्या मंदिर योजना सब इसी प्रकार के  ही नामांतर है। बेसिक शिक्षा विधि के प्रतिपादक महात्मा गांधी हैं। गांधी जी ने अनुभव किया कि प्रचलित शिक्षा प्रणाली हमारे देश की समस्याओं का निदान करने में असमर्थ है। उन्होंने एक ऐसी शिक्षा योजना का निर्माण किया जो देश के निर्धनता, निरक्षरता, परतंत्रता और शिक्षा प्रणाली की नीरसता को मिटा डाले इस पृष्ठभूमि में उन्होंने चार मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों का अवलंबन किया-

(१) आत्म शिक्षण

(२) क्रिया द्वारा सीखना

(३) अव्ययिक शिक्षा

(४) श्रम के प्रति आदर।

खेल विधि

खेल विधि का श्रेय श्री कार्डवेल कुक को है कुक ने अपनी पुस्तक प्ले-वे में इसकी उपयुक्तता अंग्रेजी पढ़ाने के संबंध में की है। खेल विधि में खेल के विषय में अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है।शीलर और हरबर्ट का  अतिरिक्त शिक्षा का सिद्धांत लॉर्ड क्रिम्स का  शक्ति वर्धन का सिद्धांत कार्लग्रूस का भावी जीवन की तैयारी का सिद्धांत तथा यूनान के प्राचीन दार्शनिक अरस्तु का रेचन का सिद्धांत आदि खेल के प्रसिद्ध सिद्धांत है। खेल को परिभाषित करते हुए ग्यूलिक ने अपनी पुस्तक फिलासफी आफ प्ले मे लिखा है- जो कार्यक्रम अपनी इच्छा से स्वतंत्रता पूर्वक करें वही खेल है।

आगमन विधि

आगमन विधि में अध्यापक विभिन्न उदाहरण देते हुए, सिद्धांत अथवा संप्रत्यय का स्पष्टीकरण करता है और इस आधार पर निश्चित परिणाम निष्कर्षों की व्याख्या करता है। इस विधि का प्रयोग व्याकरण शिक्षण में अधिक किया जाता है। आगमन विधि के जनक फ्रांसिस बेकन को माना जाता है। आगमन विधि में मूर्त से अमूर्त, विशेष से सामान्य, स्थूल से सूक्ष्म आदि शिक्षण सिद्धांतों का प्रयोग किया जाता है।

निगमन विधि

निगमन विधि का जनक अरस्तु को माना जाता है। निगमन विधि में अध्यापक पहले संप्रत्यय अथवा सिद्धांत बतलाता है, फिर संबंधित उदाहरणों और दृष्टांतों के सहारे उसकी व्याख्या करता है। निगमन विधि आगमन विधि के विपरीत है । निगमन विधि में शिक्षक और छात्र दोनों सक्रिय होते हैं।

हरबर्ट विधि

हरबर्ट विधि के सम्बन्ध में यह धारण है कि, समस्त ज्ञान बाहर से शिक्षार्थी को दिया जाता है और वह ज्ञान संचित  होता रहता है। यदि नवीन ज्ञान को पूर्व ज्ञान से सम्बंधित कर दिया जाये, तो शिक्षार्थी को सीखने में सुगमता होती है। सीखने की परिस्थितियों में इकाइयों को तर्कसंगत प्रस्तुत करना चाहिए। इकाई की क्रियाओं को एक क्रम में सम्पादित करना चाहिए। इसके लिए हरबर्ट ने पाँच सोपानों को दिया है इन सोपानों को पंचपदी भी कहा जाता है-  

हरबर्ट विधि में पंचपदी
  प्रस्तावना     प्रस्तुतिकरण
  व्यवस्था   तुलना
  मूल्यांकन 

मांटेसरी विधि

मांटेसरी विधि के जन्मदाता मारिया मांटेसरी है । इन्होंने अपने  विधि में इस बात पर अधिक बल दिया है, कि छात्रों को अपने अधिगम उद्देश्यों का स्पष्ट रूप से बोध होना चाहिए। शिक्षण में छात्रों की आवश्यकताओं को प्रधानता दी जानी चाहिए, जिससे वे अपने उद्देश्यों की प्राप्ति कर सकें। मांटेसरी विधि के शिक्षण के चक्रीय योजना के प्रारुप में पाँच सोपानो का अनुसरण किया जाता है-  (१) योजना    (२) प्रस्तुतिकरण    (३) परिपाक     (४) व्यवस्था    (५) वर्णन। 

मारीसन के इन सोपानों का उपयोग बोध स्तर के शिक्षण के लिए किया जाता है, जबकि हरबर्ट के पाँच पदो का उपयोग स्मृति स्तर पर ही किया जाता है। 

मूल्यांकन विधि

मूल्यांकन विधि का प्रतिपादन  बी.एस. ब्लूम ने दिया है। इसमें शिक्षण तथा परीक्षण उद्देश्य केन्द्रित होता है। शिक्षण के लिए आयोजित सभी शिक्षकों की क्रियायें उद्देश्य केन्द्रित होनी चाहिए।

मूल्यांकन विधि अर्थ विद्यालय द्वारा हुए बालकों के व्यवहार परिवर्तन के विषय में साक्षियों का संकलन करना  तथा उनकी व्याख्या करने की प्रक्रिया है।

Stages of Child Development

बाल विकास की विभिन्न अवस्थाएँ

डा0 अरनेस्ट जोन्स ने बाल विकास को मुख्यता  चार अवस्थाओं में  विभाजित किया है जो निम्न है-

  1. शैशवावस्था (जन्म से 5 वर्ष या 6 वर्ष तक)
  2. बाल्यावस्था (6 वर्ष से 11 वर्ष या 12 वर्ष तक)
  3. किशोरावस्था (12 वर्ष से 18 वर्ष तक)
  4. प्रौढ़ावस्था (18 वर्ष के बाद की अवस्था) 

लेकिन शिक्षा के दृष्टि से केवल तीन अवस्थाओं का ही विशेष महत्व दिया जाता है।

शैशवावस्था

शैशवावस्था को जीवन का सबसे महत्वपूर्ण काल भी कहा जाता है।यह बाल विकास की प्रथम अवस्था होती है यह जन्म से लेकर 6 वर्ष तक होती है शिशु को अंग्रेजी में (Infancy) कहते है यह लैटिन भाषा के Inferi शब्द से मिलकर बना है।जिसका शाब्दिक अर्थ होता है’बोलने के अयोग्य’।

न्यूमैन का कथन है कि “5-वर्ष तक की अवस्था शरीर और मस्तिष्क के लिए बड़ी ग्रहणशील रहती है”

अर्थात इस अवस्था में बालक को जो कुछ भी सिखाया जाता है उसका असर तत्काल बालक पर पड़ता है। मनोविश्लेषण वादियों ने भी शैशवावस्था पर विशेष ध्यान दिया है।

कुछ महत्वपूर्ण कथन ( परिभाषाएँ )

क्रो एण्ड क्रो– “बीसवीं शताब्दी को बालक की शाताब्दी माना जाता है।”

फ्रायड– “मनुष्य को जो कुछ भी बनना होता है वह प्रारम्भ के चार पाँच वर्षों में बन जाता है।” 

एडलर– “शैशवावस्था द्वारा जीवन का पूरा क्रम निश्चित हो जाता है।”

गुडएनफ के अनुसार, “व्यक्ति का जितना भी मानसिक विकास होता है,उसका आधा तीन वर्ष की आयु तक हो जाता है।”

शैशवावस्था की विकासात्मक विशेषताएँ

  1. मानसिक विकास में तीव्रता 
  2. शारीरिक विकास में तीव्रता 
  3. सीखने की प्रक्रियों में तीव्रता 
  4. दोहराने की प्रवृत्ति 
  5. परनिर्भरता 
  6. जिज्ञासा प्रवृत्ति 
  7. स्वप्रेम की भावना 
  8. काम प्रवृत्ति  

शैशवावस्था में शिक्षा का स्रोत

वैलेंटाइन के अनुसार, “शैशवावस्था सीखने का आदर्श काल है।”

शैशवावस्था में बालक के शारीरिक व मानसिक विकास  के आधार पर ही उसे शिक्षा प्रदान करनी चाहिए। अतः बालक को शिक्षा प्रदान करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए-

पालन पोषण

शारीरिक विकास की तीव्रता के कारण माता,पिता और अध्यापक को उसके स्वास्थ पर पूरा ध्यान रखना चाहिए। इसके लिए बालक को पौष्टिक और संतुलित भोजन के साथ- साथ चिकित्सक व्यवस्था का भी पूरा ध्यान रखना चाहिए।

अच्छी आदतों का निर्माण

बालक अपने आस-पास के वातावरण का अनुशरण करता है। यदि वह अच्छे वातावरण में रह रहा है तो वह अच्छी आदतों को सीख जायेगा।

करके सीखने पर अधिक महत्व देना

 बालक को स्वयं करके सीखने का अवसर प्रदान करना चाहिए। क्योकि करके सीखा हुआ ज्ञान अधिक समय तक स्थायी रहता है। बालक किसी काम को करके सीखने में अधिक आनंद का अनुभव भी प्राप्त करता है।

  • वार्तालाप का अवसर 
  • जिज्ञासा की संतुष्टि 
  • स्नेह गुण का व्यवहार 

बाल्यावस्था

बालविकास की अवस्थाओं में  शैशवावस्था के बाद बाल्यावस्था का आरम्भ होता है। इसे जीवन का अनोखा काल भी कहा जाता है। यह बालविकास की दूसरी अवस्था है। यह अवस्था छः वर्ष से लेकर बारह वर्ष  तक होती है। मनोवैज्ञानिकों ने इस अवस्था को निम्नलिखित नाम दिया है-

  • प्राथमिक विद्यालय की आयु (क्योंकि बालक इसी अवस्था में ही अपनी प्रारम्भिक  विद्यालय की शिक्षा शुरू करता है।)
  • स्फूर्ति आयु (क्योंकि इस समय में बालक के अंदर स्फूर्ति अधिक होती है।)
  • गन्दी आयु (क्योकि इस अवस्था में बालक खेलकूद,भागदौड़,उछल-कूद में अधिक लगे होने के कारण यह प्रायः गन्दा और लापरवाह रहता है।)
  • समूह आयु (क्योंकि इस काल  में बालक-बालिकाओं में सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने की क्षमता अधिक होती है। और वे अपना-अपना समूह बनाते है।)

जीवन में बाल्यावस्था के महत्व पर प्रकाश डालते हुए ब्लेयर जोन्स सिम्पसन ने कहा है कि-

“शैक्षिक दृष्टिकोण से जीवन चक्र में बाल्यावस्था से अधिक महत्वपूर्ण और कोई अवस्था नहीं है।”

जो अध्यापक इस अवस्था में बालकों को शिक्षा देता है, उन्हें बालक के आधारभूत आवश्यकताएँ एवं  उनकी समस्याओं का और उन परिस्थितियों का पूर्व जानकारी होना चाहिए जो उनके व्यवहार को रूपान्तरित और परिवर्तित करती है। इस अवस्था में बालक के जीवन में स्थायित्व आने लगता है और वे आगे आने वाले जीवन की तैयारी करने लगते है। 

कुछ महत्वपूर्ण कथन(परिभाषाएँ)

कोल व ब्रूस– “बाल्यावस्था जीवन का अनोखा काल है।”

किलपैट्रिक– “बाल्यावस्था को प्रतिद्वन्दता की अवस्था कहा है।”

जे0 एस0 रॉस– “बाल्यावस्था को मिथ्या परिपक्वता का काल कहा है।”

बाल्यावस्था की विकासात्मक विशेषताएँ

बाल्यावस्था की कुछ महत्वपूर्ण विकासात्मक विशेषताएँ निम्नलिखित है –

शारीरिक तथा मानसिक विकास में स्थिरता

बाल्यावस्था में विकास की गति में कुछ धीमापन आ जाता है और शारीरिक तथा मानसिक में विकास में स्थिरता आ जाती है। बालकों की चंचलता भी काम होने लगती है। इस काल मे शारीरिक व मानसिक स्थिरता बाल्यावस्था की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है ।

इस अवस्था को दो भागो में बाँटा गया  है – 

  1. संचय काल (6 से 9 वर्ष तक )
  2. परिपाक काल (9 से 12 वर्ष तक )

आत्मनिर्भरता की भावना  

शैशवावस्था की तरह इस अवस्था में बालक अपने शारीरिक एवं मानसिक कार्यों के लिए किसी दूसरे पर आश्रित नहीं रहता है। बाल्यावस्था में वह अपना व्यक्तिगत कार्य जैसे- नहाना,कपड़ा धोना,स्कूल जाने की तैयारी आदि स्वयं कर लेता है।

प्रतिस्पर्धा की भावना

बाल्यावस्था में बालकों में प्रतिस्पर्धा की भावना आ जाती है। बालक अपने भाई-बहन से झगड़ा करने लगता है।

सामूहिक प्रवृत्तियों की भावना :- बाल्यावस्था में बालक अपना अधिक से अधिक समय दूसरे बालकों के साथ व्यतीत करते है। जिससे बालकों में सहयोग,सहनशीलता,नैतिकता आदि गुणों का विकास होता है।

यर्थातवादी दृष्टिकोण

बाल्यावस्था में बालक का दृष्टिकोण यर्थातवादी होता है। इस अवस्था में बालक कल्पना जगत से वास्तविक जगत में प्रवेश करने लगते है।

अनुकरण के प्रवृत्ति का विकास

 बाल्यावस्था में अनुकरण की प्रवृति का सबसे अधिक विकास होता है। इस आयु में बालक झूठ बोलना तथा चोरी करना भी सीख जाते है।

संवेगो पर दमन

 बाल्यावस्था में बालक उचित और अनुचित में अंतर समझने लगता है। बालक सामाजिक व पारिवारिक व्यवहार के लिए अपने भावनाओं का दमन और संवेगो पर नियंत्रण करना सीख भी जाता है।

बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप

बाल्यावस्था बालक के जीवन की आधार शिला होती है। तथा शिक्षा और विकास में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। शिक्षा विकास की एक प्रक्रिया है इसलिए बालक के शिक्षा को निर्धारित करते समय हमें निम्नलिखित बातों का ध्यान देना चाहिए –

शारीरिक विकास पर ध्यान

अरस्तु के अनुसार,”स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है।” अतः बालक के मानसिक विकास के लिए शारीरिक विकास पर विशेष ध्यान आवश्यक है। बालकों के अच्छे स्वास्थ के लिए उन्हें संतुलित और पौष्टिक भोजन देना चाहिए। और बालकों की क्रियाशीलता बनाये रखने के लिए विद्यालय में खेल-कूद को कराना चाहिए।

भाषा विकास पर बल

 बालकों के भाषा विकास पर विशेष बल दिया जाना चाहिए। बालकों को वार्तालाप करने, कहानी सुनाने,पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ने,वाद-विवाद करने,भाषण देने तथा कविता पढ़ाने पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

  • रोचक पाठय सामग्री 
  • खेल तथा क्रिया द्वारा शिक्षा 

किशोरावस्था

बालविकास की अवस्थाओं में बाल्यावस्था के बाद किशोरावस्था का प्रारम्भ होता है। तथा प्रौढ़ावस्था के प्रारम्भ होने तक चलता है। इसे जीवन का सबसे कठिन काल भी कहा जाता है। यह बालविकास की तीसरी अवस्था है। यह अवस्था 12 वर्ष से 18 वर्ष तक होती है। किशोरावस्था को अंग्रेजी में Adolescence कहते है। Adolescence लैटिन भाषा के Adolescere से बना है जिसका तात्पर्य होता है “परिपक्वता की ओर बढ़ना”

अतः किशोरावस्था वह अवस्था है जिसमे बालक परिपक्वता की ओर बढ़ता है। तथा जिसकी समाप्ति पर बलपूर्ण परिपक्व व्यक्ति बन जाता है। इस अवस्था में हड्डियों में दृहता आती है तथा अत्यधिक भूख का अनुभव लगता है। बालकों की अपेक्षा बालिकाओं में किशोरावस्था का आरम्भ दो वर्ष पूर्व हो जाता है।

स्टनले हाल ने “किशोरावस्था को बड़े संघर्ष,तूफ़ान तथा विरोध की अवस्था कहा है।”क्योंकि इस आयु में विकासशील बालक अपने अंदर हो रहे परिवर्तन से हैरान तथा परेशान रहता है। अर्थात यह जीवन का सबसे कठिन काल है। इसमें बालक बाल्यावस्था तथा पौढ़ावस्था के मध्य अर्थात दोनों अवस्थाओं में रहता है इसलिए इसे संधि काल भी कहा जाता है।

किशोरावस्था की कुछ महत्वपूर्ण परिभाषाएँ

रॉस– “किशोरावस्था, शैशवावस्था की पुनरावृत्ति है।” 

क्रो एण्ड क्रो– “किशोर ही वर्तमान की शक्ति और भावी आशा को प्रस्तुत करता है।”

कुल्हन– “किशोरावस्था,बाल्यकाल तथा पौढ़ावस्था के मध्य का संक्रान्ति काल है।”

किलपैट्रिक– “किशोरावस्था जीवन का सबसे कठिन काल है।”

कुछ मनोवैज्ञानिकों ने किशोरावस्था को दो भागो में बाँटा है जो निम्न है –

  1. पूर्व किशोरावस्था (12 से 16 वर्ष तक )
  2. उत्तर किशोरावस्था (17 से 19 वर्ष तक )

17 – वर्ष की आयु को दोनों का विभाजन विन्दु माना जाता है।

हरलॉक के अनुसार, “पूर्व और उत्तर बाल्यावस्था के मध्य की विभाजन रेखा लगभग 17 – वर्ष की आयु के पास है।”

पूर्व किशोरावस्था को अत्यंत द्रुत एवं तीव्र विकास का काल भी कहा जाता है। क्योंकि शारीरिक विकास के साथ साथ इस समय में शारीरिक विकास के सभी पक्षों में तेजी आ जाती है। पूर्व किशोरावस्था को एक बड़ी उलझन की अवस्था कहा गया है। क्योंकि इस समय में माता-पिता,अभिभावक तथा शिक्षक उसे बात बात पर डाटते,रोकते व टोकते रहते है। वह सदैव उलझन पूर्ण स्थिति में रहता है। कि वह क्या करे क्या न करे।

स्टनले हॉल ने “पूर्व किशोरावस्था को एक अत्यंत संवेदात्मक उथल-पुथल झंझा और तनाव की अवस्था कहा जाता है।” 

किशोरावस्था के विकास के सिद्धांत

किशोरावस्था के विकास के दो सिद्धांत है-

त्वरित विकास का सिद्धांत 

इस सिद्धांत का समर्थन स्टैलने हाल ने अपनी पुस्तक एडोलसेंस में किया है इनका कहना कहना है कि किशोरों में अनेक क्रांतिकारी परिवर्तन आकस्मिक रूप से होता है। जिनका शैशवावस्था व बाल्यावस्था से कोई सम्बन्ध नहीं होता है।

स्टेनले हॉल के शब्दों में,”किशोर अथवा किशोरी में जो शारीरिक मानसिक परिवर्तन होते है वह एकदम छलांग मारकर आते है।”

क्रमित विकास का सिद्धांत

इस  सिद्धांत के समर्थक थार्नडाइक,किंग और हालिंगवर्थ है जिनका मानना है कि किशोरावस्था में मानसिक शारीरिक तथा संवेदात्मक  परिवर्तन के फलस्वरूप जो नवीनताएँ दिखाई देती है वे एकदम न आकर धीरे धीरे क्रमशः आती है।

किशोरावस्था की विशेषताएँ

किशोरावस्था को जीवन का परिवर्तन काल,बसंत काल एवं अप्रसन्नता का काल भी कहा जाता है। किशोरावस्था की विशेषताएँ निम्नलिखित है –

शारीरिक विकास

किशोरावस्था को शारीरिक विकास की दृष्टि से अत्यंत महत्पूर्ण काल मन जाता है। इस काल में किशोर तथा किशोरियों में कुछ ऐसे महत्वपूर्ण शारीरिक परिवर्तन होते है जो यौवन आरम्भ होने के लक्षण होते है।

इस अवस्था में किशोरियाँ स्त्रीत्व को तथा पुरुष पुरुषत्व को प्राप्त करते है। भार व लम्बाई में तीव्र वृद्धि होती है किशोरों में दाढ़ी व मोछ की रोमावली दृष्टिगोचर होने लगाती है। वे अपने शरीर,रंग,रूप तथा स्वरूप के प्रति अधिक सजक रहते है। किशोर स्वस्थ,सबल तथा उत्साही बनने का प्रयास करते है जबकि किशोरियाँ अपनी आकृति को नारी सुलभ आकर्षण प्रदान करने की इच्छुक रहती है।

कालसेनिक के शब्दों में, “इस आयु में बालक एवं बालिका दोनों को अपनी शारीरिक एवं स्वस्थ की अत्यधिक चिन्ता रहती है।”

बौद्धिक विकास  

किशोरावस्था में बुद्धि का सबसे अधिक विकास होता है। किशोर-किशोरियों में परस्पर विरोधी मानसिक दशाएँ प्रालक्षित होने लगाती है। मानसिक जिज्ञासा का विकास हो जाता है वह सामाजिक,आर्थिक,नैतिक तथा अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं में रूचि लेने लगता है।

अपराध प्रवृति का विकास

इस अवस्था में इच्छापूर्ति,निर्वाधा तथा असफलता मिलने के कारण अपराध प्रवृत्ति का विकास हो जाता है। वैलेंटाइन के अनुसार, “किशोरावस्था अपराध प्रवृत्ति के विकास का नाजुक समय है।”

काम भावना का विकास

किशोरावस्था की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता काम इन्द्रियों की परिपक्वता तथा काम प्रवृत्ति की क्रियाशीलता है। शैशवावस्था का दबा हुआ यौन आवेश जो बाल्यावस्था में शुप्त अवस्था में रहता है पुनः जागृत हो जाता है। किशोर व किशोरियों में तीन बातें दिखाई देती है। स्वप्रेम,समलिंगी कामोक्ता और विषमलिंगी कामोक्ता।

  • आत्मसम्मान की भावना 
  • स्थिरता तथा समायोजन का अभाव 
  • किशोरावस्था में शिक्षा का स्वरूप 
  • शारीरिक विकास के लिए शिक्षा 
  • मानसिक विकास के लिए शिक्षा 
  • संवेगात्मक विकास के लिए शिक्षा 
  • सामाजिक विकास के लिए शिक्षा 
  • व्यक्तिगत भिन्नता के अनुसार शिक्षा   

Child Development Questions And Answers

  • शैशवावस्था का काल जन्म से लेकर कितना होता है –  5 या 6 वर्ष तक
  • “मनुष्य को जो कुछ भी बनना होता है वह प्रारम्भ के चार-पाँच वर्षो में बन जाता है” कथन है- फ्रायड 
  • “बीसवीं शताब्दी को बालक की शताब्दी माना जाता है” कथन है –  क्रो एण्ड क्रो
  • “शैशवावस्था सीखने का आदर्श काल है” कथन है – वैलेंटाइन
  • “शैशवावस्था द्वारा जीवन का पूरा क्रम निश्चित हो जाता है” कथन है – एडलर  
  • “वह सत्य और असत्य में भेद नहीं कर सकता है लेकिन इस काल में कल्पना की सजीवता पायी जाती है” कथन है – कुप्पूस्वामी
  • बालक प्रथम छः वर्षो में,बाद के 12 वर्षो का दूना सीख लेता है कथन है – गेसेल 
  • “5 वर्ष तक की अवस्था शरीर और मस्तिष्क के लिए बड़ी ग्रहणशील रहती है” कथन है – न्यूमैन 
  • शैशवावस्था में काम प्रवृत्ति कितनी होती है – प्रबल होती है
  • शैशवावस्था में बालक का भार का बालिका से कितना होता है – अधिक होता है 
  • बाल्यावस्था का काल कितना है – 6 वर्ष से 12 वर्ष तक
  • बाल्यावस्था को मिथ्या परिपक्वता का काल कहा है – जे0 एस0 रॉस
  • “बाल्यावस्था,जीवन का अनोखा काल है” कथन है – कॉल व ब्रूस 
  • “स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है” कथन है – अरस्तु 
  • रॉस ने बाल्यावस्था की सबसे प्रमुख विशेषता क्या बताई है – शारीरिक और मानसिक स्थिरता 
  • बाल्यावस्था में किसकी प्रबलता पायी जाती है – जिज्ञासा की
  • बाल्यावस्था में किस प्रकार की काम भावना पायी जाती है – निर्बल 
  • बाल्यावस्था को किन-किन नामों से जाना जाता है – जीवन का अनोखा काल,निर्माणकारी
  • काल,प्राथमिक विद्द्यालय की आयु,स्फूर्ति आयु,गन्दी अवस्था और समूह आयु 
  • किशोरावस्था का काल है – 12 से 18 वर्ष तक
  • “किशोरावस्था को बड़े संघर्ष,तूफ़ान तथा विरोध की अवस्था कहा है” – स्टेनले हॉल 
  • “किशोरावस्था,शैशवावस्था की पुनरावृत्ति है” कथन है – रॉस
  • “किशोरावस्था जीवन का सबसे कठिन काल है” कथन है – किलपैट्रिक 
  • किशोरावस्था के कितने सिद्धांत है – दो 
  • किस अवस्था में बुध्दि का विकास लगभग पूर्ण हो जाता है – किशोरावस्था में 
  • मानसिक स्वतंत्रता एवं विद्रोह की भावना किस अवस्था में प्रबल होती है – किशोरावस्था में 
  • अपराधिक प्रवृत्ति का सबसे अधिक विकास किस अवस्था में होता है –  किशोरावस्था में 

Thyroid gland, Adrenal gland, Pituitary gland, Reproductive gland

थायराइड ग्लैंड गले के आगे हिस्से में मौजूद होता है. यह एक प्रमुख एंडोक्राइन ग्लैंड है जो कि हार्मोन का स्राव करता है. इन हार्मोन की मदद से हमारा मेटाबोलिज्म, श्वास, हृद्य गति, शरीर का तापमान आदि नियंत्रित होता है. यह लेख थायराइड ग्लैंड, थायराइड हार्मोन, रोग और विकार आदि प्रश्नों और उत्तरों से संबंधित है.

अधिवृक्क ग्रन्थि (अंग्रेज़ी: adrenal gland या Suprarenal gland) कशेरुकी जीवों में पायी जाने वाली एक अंतःस्रावी ग्रन्थि है। यह वृक्क (गुर्दे) के ऊपर स्थित होती है। इनका मुख्य कार्य तनाव की स्थिति में हार्मोन निकालना है।

पीयूष ग्रन्थि या पीयूषिका, एक अंत:स्रावी ग्रंथि है जिसका आकार एक मटर के दाने जैसा होता है और वजन 0.6 ग्राम (0.02 आउन्स) होता है। यह मस्तिष्क के तल पर हाइपोथैलेमस (अध;श्चेतक) के निचले हिस्से से निकला हुआ उभार है और यह एक छोटे अस्थिमय गुहा (पर्याणिका) में दृढ़तानिका-रज्जु (diaphragma sellae) से ढंका हुआ होता है।

जनन-ग्रंथि (Gonads)

रिलैक्सिन (Relaxin) : गर्भावस्था में यह अंडाशय, गर्भाशय एवं अपरा में उपस्थित रहता है। यह हॉर्मोन प्यूबिक सिंफाइसिक्स (public symphysix) को मुलायम करता है और यह गर्भाशय ग्रीवा (uterine cervix) को चौड़ा करता है, ताकि बच्चा आसानी से पैदा हो सके।

Scientific Investigator

बालक एक समस्या – समाधान और वैज्ञानिक अन्वेषण | Child As a Problem Solver and Scientific Investigator #ctet #uptet #cdp #pedagogy

समस्या समाधान का अर्थ

साधारण शब्दों में कहें तो किसी भी समस्या का समाधान चाहे समस्या छोटी हो या बड़ी जब भी सामने आती है तब उसके समाधान हेतु कुछ निश्चित सोपानों या कदमों का अनुसरण किया जाता है। बालक जब एक बार किसी समस्या का समाधान कर लेता है तब वह भविष्य में उन्हीं सोपानों का प्रयोग करता है जिससे उसने समस्या का समाधान निकाला था। समस्या समाधान के लिए चिंतन करना जरूरी है। 

बालक का मानसिक विकास

मानसिक विकास से तात्पर्य मानसिक क्षमताओं के विकास से है। मानसिक क्षमता के अंतर्गत चिंतन करने की क्षमता, तर्क करने की क्षमता, याद रखने की क्षमता, सही अर्थ देने की क्षमता आदि सम्मिलित है। जब बालक इन मानसिक क्षमताओं के आधार पर मानसिक कार्य संपन्न करने लगता है तब यह माना जाता है कि बालक का मानसिक विकास सही दिशा में हो रहा है। मानसिक विकास की प्रक्रिया जन्म से पूर्ण परिपक्वता आने तक चलती है। 

बालक एक समस्या-समाधान के रूप में

बालक बचपन से लेकर बड़े होने तक अनेक ऐसी समस्याओं का सामना करता है जिनका उसे स्वयं समाधान ढूंढना पड़ता है। बालक अपनी समस्या का हल ढूंढने के लिए वैज्ञानिक तरीकों का इस्तेमाल करते हैं। 

बच्चों को इस स्तर के योग्य बनाने के लिए आवश्यक है कि उसका व्यक्तिगत विकास किया जाए जिससे कि वह सभी प्रकार की परिस्थितियों का सही ढंग से सामना कर सके। 

बालक का एक अच्छा समस्या समाधान कैसे बनाया जाए

  • बालक के सामने छोटी-छोटी समस्या रखनी चाहिए ताकि आत्मविश्वास बढ़े।
  • बालकों को छोटी-छोटी समस्या के समाधान करने पर पुरस्कृत करते रहना चाहिए। 
  • बालकों में चिंतन व तर्क का विकास प्रायोगिक रूप से करना चाहिए। 
  • बालकों में भाषा, कौशल आदि का विकास किया जाना चाहिए।
  • बालकों को बार-बार अभ्यास कराकर अपनी कमियों को दूर करना सीखना चाहिए।
  • बालक में प्रत्यय निर्माण पर बल देना चाहिए।
  • बालकों को स्वावलंबी बनने के लिए प्रोत्साहित तथा आत्मविश्वास का गुण जाग्रत करना चाहिए।
  • बच्चे में आत्म पहचान का गुण विकसित करके
  • अपनी कमियों को स्वीकार करना तथा दूर करना सिखाकर
  • बच्चे को स्वावलम्बी बनाने के लिए प्रोत्साहित करके
  • बच्चे में भाषा का विकास करके
  • बच्चे को बार-बार प्रयास करके 

समस्या समाधान की वैज्ञानिक विधि

जब भी कोई समस्या सामने आती है तब उस वक्त सिर्फ वही एक समस्या हमारे पास नहीं होती है बल्कि कई और समस्याएं भी होती हैं। लेकिन आवश्यकतानुरूप प्राथमिकता के अनुसार समस्या समाधान करने हेतु समस्या का चयन किया जाता है। तत्पश्चात् उस समस्या से संबंधित जानकारी एकत्रित की जाती है। जानकारी, के अनुसार संभावित समाधान पर विचार किया जाता है। चिंतन-मनन के द्वारा जो समाधान सामने आता है, उसका मूल्यांकन व परीक्षण किया जाता है फिर जो निष्कर्ष आते हैं उन पर निर्णय लिया जाता है। एक जैसी समस्या के समाधान में अक्सर पूर्व से मिलते-जुलते समाधान का प्रयोग किया जाता है। 

समस्या समाधान की क्षमता बालक के तार्किक योग्यता पर निर्भर करती है, क्योंकि समस्या आने पर उसके समाधान के लिए क्रमबद्धता के साथ प्रयास करना तार्किक क्षमता को स्पष्ट करता है वहीं समस्या आने पर कई बालक समाधान का प्रयास न कर चिंता में बेवजह डूब जाते हैं, परेशान होते हैं तथा गलत कदम उठा लेते हैं। बालक के माता-पिता व शिक्षक को चाहिए कि बालकों को मानसिक रूप से मजबूत और उनमें तार्किक क्षमता का भी विकास करें जिससे वो समस्या समाधान कर सकें।

समस्या समाधान की वैज्ञानिक विधि निम्नलिखित है :-

  • समस्या का चयन
  • समस्या से संबंधित जानकारी 
  • संभावित समाधानों का निर्माण
  • संभावित समाधानों का मूल्यांकन
  • संभावित समाधानों का परीक्षण
  • निष्कर्षों का निर्णय
  • समाधान का उपयोग/प्रयोग

बालक, एक वैज्ञानिक अन्वेषक के रूप में

  1. निरीक्षण:-  बालक सबसे पहले विषय-वस्तु की परिस्थितियों का निरीक्षण करता है। 
  2. तुलना:-  विषय-वस्तु और परिस्थितियों में तुलना करता है।
  3. प्रयोगः- तुलना के आधार पर विचारों का प्रयोग करता है। 
  4. प्रदर्शन:-  फिर उस प्राप्त प्रयोग का प्रदर्शन या निरीक्षण करते हैं।
  5. सामान्यीकरण:-  परिणाम आने पर सिद्धांत निर्मित होते हैं, जो सामान्यीकरण को बताते हैं।
  6. प्रमाणीकरण:-  पुनः प्रयोग करके समस्या का सामान्यीकरण करना।

समस्या समाधान और वैज्ञानिक अन्वेषक के रूप में बालक

1.अन्वेषण का अर्थ है खोज . नए तथ्यों का संकलन , वैज्ञानिक द्रष्टिकोण , जाँच-पड़ताल का गुण .
2. वैज्ञानिक अन्वेषण: वैज्ञानिक विधि से या द्रष्टिकोण से तार्किक ढंग से नयी चीजों की खोज करना , या पहले से स्थापित तथ्यों की खोजपूर्ण पुनः पहचान करना.
3. विद्यार्थी को कक्षा से बाहर समाज में जाकर अपने इस गुण से जीवन का समायोजन प्राप्त करना होता है .
4. इसके लिए छोटे-छोटे प्रयोग शिक्षक कर सकते है . जैसे-दैनिक जीवन में संपर्क में आने वाले व्यक्तियों के व्यवसाय , कार्यकलाप आदि की जानकारी का प्रयास , जैसे डॉक्टर , अख़बार, डाकिया, वकील, बढाई, मोची, सुनार आदि .
5. बच्चो को वैज्ञानिक अन्वेषक बनाने के लिए उसे अलग-अलग जगह पर भ्रमण पर ले जाना ताकि वे उन चीजों के बारे में जान सके.
6. बच्चों को दुकानदारी , बैंकिंग, आदि के खेल खिलाना.
7. ऐसी परिस्थिति का निर्माण करना ताकि बच्चे वैज्ञानिक यंत्रों, धातुओं, वायु संचार आदि के बारे में स्वयं जानकारी प्राप्त कर सकें .
8. वैज्ञानिक अन्वेषक बालक की पहचान : जब बालक अपने ज्ञान और अनुभव के माध्यम से किसी समस्या के प्रत्येक पहलु के बारे में जिज्ञासापूर्वक जानने लगता है . इसके लिए आवश्यक है की उसके सामने वैज्ञानिक विधि से दैनिक संभाव्य परिस्थिति या समस्याओं को रखा जाएँ.

खोजपूर्ण परियोजना विद्यालय में बच्चे को या समूह को मिलकर दी जानी चाहिए . विशेषकर अवकाश के दिनों में समूह में मनोरंजक प्रोजेक्ट दिया जा सकता है .

शिक्षक को स्वय भी खोज परियोजना का समन्वय करना होता है . वह स्वयं जब अन्वेषक के रूप में वैज्ञानिक विधि प्रस्तुत करता है तभी बालक में अन्वेषण का गुण विकसित होता है जैसे -क्वेस्ट परियोजना में ऑन्लाइन  जुड़कर समूह में खोजपूर्ण प्रोजेक्ट का संचालन करना . 

Achievement Test Notes

प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में अनेकों प्रकार का ज्ञान तथा कौशल प्राप्त करता है। इस ज्ञान तथा कौशल में कितनी दक्षता व्यक्ति ने प्राप्त की है, इसका पता उस ज्ञान तथा कौशल के उपलब्धि परीक्षण से ही चलता है।विद्यालय की विभिन्न कक्षाओं में अनेकों प्रकार के छात्र, शिक्षा ग्रहण करने के लिए आते हैं। समान मानसिक योग्यताओं से सम्पन्न न होने के कारण वे समय की एक ही अवधि में विभिन्न विषयों तथा कुशलताओं में विभिन्न सीमाओं तक प्रगति करते हैं। उनकी इसी प्रगति, प्राप्ति या उपलब्धि का मापन या मूल्यांकन करने के लिए उपलब्धि परीक्षाओं की व्यवस्था की गई है।

उपलब्धि परीक्षण का अर्थ एवं परिभाषाएँ

उपलब्धि परीक्षाएँ वे परीक्षाएँ हैं, जिनकी सहायता से विद्यालय में पढ़ाये जाने वाले विषयों और सिखाई जाने वाली कुशलताओं में छात्रों की सफलता या उपलब्धि का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। 
उपलब्धि परीक्षाओं के अर्थ को अधिक स्पष्ट करने के लिए कुछ परिभाषाएँ प्रस्तुत हैं –

1. प्रेसी, रॉबिन्सन व हॉरक्स के अनुसार :-

उपलब्धि परीक्षाओं का निर्माण मुख्य रूप से छात्रों के सीखने के स्वरूप और सीमा का माप करने के लिए किया जाता है। 

2. गैरिसन व अन्य के अनुसार :-

उपलब्धि परीक्षा, बालक की वर्तमान योग्यता या किसी विशिष्ट विषय के क्षेत्र में उसके ज्ञान की सीमा का मूल्यांकन करती हैं। 

3. थॉर्नडाइक व हेगन के अनुसार :-

जब हम उपलब्धि परीक्षा का प्रयोग करते हैं, तब हम इस बात का निश्चय करना चाहते हैं कि एक विशिष्ट प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त व्यक्ति ने क्या सीखा है। 

उपलब्धि परीक्षण की विशेषताएँ

उपलब्धि परीक्षण, ज्ञान तथा कौशल के मापन के लिए होती है, इसलिये विद्यालयों से इसका सीधा सम्बन्ध होता है। इसकी विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

  • उपलब्धि परीक्षण दि हुए ज्ञान तथा कौशल का मापन करता है।
  • उपलब्धि परीक्षण द्वारा ज्ञान तथा उपलब्धि की लब्धि ज्ञात की जाती है।
  • उपलब्धि परीक्षण में प्रश्नों की रचना उपलब्धि की मात्रा की गणना तथा व्यक्ति की प्रगति की मात्रा का मापन करने के लिए की जाती
  • उपलब्धि परीक्षण से वर्तमान प्रगति का पता चलता है।
  • विषयों की भिन्नता के अनुसार अलग – अलग परीक्षण बनाये जाते हैं।
  • उपलब्धि परीक्षण में अर्जित ज्ञान का मापन उसका साध्य होता है।
  • उपलब्धि परीक्षण, व्यक्ति की उपलब्धि की क्षमता का प्रदर्शन करता है।

उपलब्धि परीक्षण का उद्देश्य

साधारणतः वर्ष के अन्त में विभिन्न कक्षाओं के छात्रों के लिए उपलब्धि परीक्षाओं का आयोजन निम्नलिखित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किया जाता है – 

  • बालकों की उपलब्धि से सामान्य स्तर को निर्धारित करने के लिए किया जाता है।
  • बालकों को पढ़ाये जाने वाले विद्यालय – विषयों में उनकी ज्ञान की सीमा का मापन करने के लिए किया जाता है।
  • बालकों की विभिन्न विषयों तथा क्रियाओं में वास्तविक स्थिति को ज्ञात करने के लिए किया जाता है।
  • बालकों की पढ़ने – लिखने के समान कुशलताओं में गति तथा श्रेष्ठता को निश्चित करने के लिए किया जाता है।
  • पाठ्यक्रम के लक्ष्यों तथा उद्देश्यों की प्राप्ति की और बालकों की प्रगति की जानकारी करने के लिए किया जाता है।
  • बालकों को ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में दिये गए प्रशिक्षण के परिणामों का मूल्यांकन करने के लिए किया जाता है। बालकों की अधिगम सम्बन्धी कठिनाइयों को ज्ञात करने तथा उनका निवारण करने के लिए पाठ्यक्रमों में आवश्यक परिवर्तन करने के लिए किया जाता है।

शिक्षक के शिक्षण तथा अध्ययन की सफलता का अनुमान लगाने के लिए किया जाता है।

उपलब्धि परीक्षण के प्रकार

डगलस एवं हॉलैण्ड के अनुसार उपलब्धि परीक्षण निम्नलिखित प्रकार के होते हैं –

  • प्रमापित परीक्षण
  • शिक्षक – निर्मित परीक्षण
  • मौखिक परीक्षण
  • निबन्धात्मक परीक्षण
  • वस्तुनिष्ठ परीक्षण

प्रमापित परीक्षण

प्रमापित परीक्षण आधुनिक युग की एक देन है। इनके अर्थ को स्पष्ट करते हुए थॉर्नडाइक व हेगम ने कहा है कि प्रमापित परीक्षण का अभिप्राय केवल यह है कि सब छात्र समान निर्देशों और समय की समान सीमाओं के अन्तर्गत समान प्रश्नों और अनेक प्रश्नों का उत्तर देते हैं। प्रमापित परीक्षणों के कुछ उल्लेखनीय तथ्य निम्नलिखित हैं –

  • इनका निर्माण एक विशेषज्ञ या विशेषज्ञों के समूह द्वारा किया जाता है।
  • इनका निर्माण, परीक्षण – निर्माण के निश्चित नियमों तथा सिद्धान्तों के अनुसार किया जाता है।  
  • इनकानिर्माण विभिन्न कक्षाओं तथा विषयों के लिए किया जाता है। एक कक्षा तथा एक विषय के लिए अनेक प्रकार के परीक्षण होते हैं।
  • जिस कक्षा के लिए जिन परीक्षणों का निर्माण किया जाता है, उनको विभिन्न स्थानों पर उसी कक्षा के सैकड़ों – हजारों बालकों पर प्रयोग करके निर्दोष बनाया जाता है या प्रमापित किया जाता है।
  • निर्माण के समय इसमें प्रश्नों की संख्या बहुत अधिक होती है, लेकिन विभिन्न स्थानों पर प्रयोग किए जाने के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले अनुभवों के आधार पर उनकी संख्या में काफी कमी कर दी जाती है।
  • इनमें दिए हुए प्रश्नों को निश्चित निर्देशों के अनुसार निश्चित समय के अन्तर्गत करना पड़ता है। मूल्यांकन या अंक प्रदान करने के लिए भी निर्देश होते हैं।
  • इनका प्रकाशन किसी संस्था या व्यापारिक फर्म के द्वारा किया जाता है। जैसे – भारत में सेन्ट्रल इन्स्टीट्यूट ऑफ एजूकेशन, राष्ट्रीय शैक्षणिक एवं प्रशिक्षण परिषद्, जामिया मिलिया, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस इत्यादि ने इनको प्रकाशित किया है।

शिक्षक – निर्मित परीक्षण

शिक्षक – निर्मित परीक्षण, आत्मनिष्ठ तथा वस्तुनिष्ठ दोनों प्रकार के होते हैं। सामान्य रूप से शिक्षकों द्वारा सभी विषयों पर परीक्षणों का निर्माण किया जाता है तथा कुछ समय पूर्व तक इन परीक्षणों का रूप आत्मनिष्ठ था। भारत में अब भी इसी प्रकार के परीक्षणों का प्रचलन है, यद्यपि वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के निर्माण की दिशा में सक्रिय कदम उठाये जा रहे हैं। सब शिक्षकों में परीक्षणों के लिए प्रश्नों का निर्माण करने की समान योग्यता नहीं होती है। अतः एक ही विषय पर दो | शिक्षकों द्वारा निर्मित प्रश्नों के स्तरों में अन्तर हो सकता है। इसीलिए, शिक्षक निर्मित परीक्षणों को विश्वसनीय नहीं माना जाता है। ऐलिस ने कहा है कि –

 शिक्षक – निर्मित परीक्षणों में बधा कम विश्वसनीयता होती है। 

प्रमापित एवं शिक्षक – निर्मित परीक्षण की तुलना

थॉर्नडाइक एवं हेगन ने प्रमापित परीक्षण को शिक्षक – निर्मित परीक्षण से श्रेष्ठतर सिद्ध करने के लिए निम्नलिखित तथ्य प्रस्तुत किए हैं –

  • प्रमापित परीक्षण को सम्पूर्ण देश के किसी भी विद्यालय की किसी भी कक्षा के लिए प्रयोग किया जा सकता है, लेकिन शिक्षक – निर्मित परीक्षण को केवल उसी विद्यालय की किसी विशेष कक्षा के लिए प्रयोग किया जा सकता है।
  • प्रमापित परीक्षण का निर्माण किसी विशेषज्ञ या विशेषज्ञों के समूह के द्वारा किया जाता है, लेकिन शिक्षक – निर्मित परीक्षण का निर्माण अध्यापक के द्वारा अकेले तथा किसी की सहायता के बिना किया जाता है।
  • प्रमापित परीक्षण में प्रयोग की जाने वाली परीक्षा – सामग्री का व्यापक रूप में पहले ही परीक्षण कर लिया जाता है, लेकिन शिक्षक – निर्मित परीक्षण में इस प्रकार का कोई परीक्षण नहीं किया जाता है।
  • प्रमापित परीक्षण में बहुत कुछ विश्वसनीयता होती है, लेकिन शिक्षक – निर्मित परीक्षण में कम विश्वसनीयता होती है। इस सम्बन्ध में थॉर्नडाइक व हेगन की सलाह है कि –
    प्रमापित परीक्षणों का ही विश्वास किया जाना चाहिए।

कुछ लेखकों ने प्रमापित परीक्षण को शिक्षक – निर्मित परीक्षण से निम्नतर सिद्ध करने के लिए निम्नलिखित कारण प्रस्तुत किए हैं, जो निम्नलिखित हैं –

  • प्रमापित परीक्षण के निर्माण के लिए बहत समय तथा धन की आवश्यकता होती है, लेकिन शिक्षक – निर्मित परीक्षण के लिए अति अल्प समय तथा धन काफी है।
  • प्रमापित परीक्षण इस बात का मूल्यांकन नहीं कर सकता है कि कक्षा में क्या पढ़ाया जा सकता था ? क्या पढ़ाया जाना चाहिए था ? लेकिन शिक्षक – निर्मित परीक्षण इन दोनों बातों का मूल्यांकन कर सकता है।
  • प्रमापित परीक्षण, शिक्षक के शैक्षिक लक्ष्यों का अनुमान लगाने में असफल रहता है, लेकिन शिक्षक – निर्मित परीक्षण इन लक्ष्यों का मापन कर सकता है।
  • प्रमापित परीक्षण, अध्यापक की शैक्षिक सफलता तथा छात्रों की वास्तविक प्रगति का मूल्यांकन करने में सफल नहीं होता है, लेकिन शिक्षण – निर्मित परीक्षण देते हैं।

अतः उपरोक्त कारणों के फलस्वरूप अनेक लेखक प्रमापित परीक्षण को शिक्षक – निर्मित परीक्षण से निम्नतर स्थान देते हैं। आज जिन परिस्थितियों में हमारे विद्यालय कार्य कर रहे हैं, उन पर विचार करके तो यही कहना उचित जान पड़ता है कि शिक्षक – निर्मित परीक्षणों का प्रयोग ही अधिक लाभदायक है। प्रमापित परीक्षणों के प्रयोग में तीन विशेष आपत्तियाँ हैं–

  • उनको काफी धन व्यय करके ही प्रयोग किया जा सकता है, लेकिन धन व्यय करने पर भी यह आवश्यक नहीं है कि वे उचित समय पर उपलब्ध हो जाए।  
  • विद्यालयतथा छात्रों की स्थानीय आवश्यकताओं को केवल शिक्षक निर्मित परीक्षण ही पूरा कर सकते हैं, लेकिन प्रमापित परीक्षण नहीं।
  • प्रमापित परीक्षण का भले ही सर्वोत्तम विधि से निर्माण किया गया हो, पर यह आवश्यक नहीं है कि उसमें एक विशेष अध्यापक या एक विशेष विद्यालय के सभी महत्त्वपूर्ण लक्ष्यों का समावेश हो।

मौखिक परीक्षण

एक समय ऐसा था, जब विद्यालयों तथा उच्च शिक्षा – संस्थाओं में मौखिक परीक्षाओं की प्रधानता थी, लेकिन आधुनिक युग में लिखित परीक्षाओं का प्रचलन होने के कारण इनका महत्त्व बहुत कम हो गया है। फिर भी, प्राथमिक कक्षाओं तथा उच्च कक्षाओं में विज्ञान के विषयों की प्रयोगात्मक परीक्षाओं एवं वायवा के रूप में अब भी इनका अस्तित्व शेष है। मौखिक परीक्षा का मूल्यांकन करते हुए राईटस्टोन ने कहा है कि मौखिक परीक्षा कितनी भी अच्छी क्यों न हो, पर छात्रों को अंक प्रदान करने के लिए एक निम्न साधन है। इसका महत्त्व केवल निदानात्मक साधन के रूप में और उन परिस्थितियों में है, जिनमें लिखित परीक्षाओं का प्रयोग नहीं किया जा सकता है।

निबन्धात्मक परीक्षण

निबन्धात्मक परीक्षण, सर्वाधिक प्रचलित उपलब्धि परीक्षण हैं। इन्हें शिक्षक बनाता है। इनमें प्रश्नों का उत्तर निबन्ध के रूप में देना पड़ता है, इसीलिए इनको निबन्धात्मक परीक्षण कहा गया हैं। हमारे देश में मात्र निबन्धात्मक परीक्षा का ही प्रचलन है। इस परीक्षा – प्रणाली में छात्रों को कुछ प्रश्न दे दिये जाते हैं, जिनके उत्तर उनको निर्धारित समय में लिखने पड़ते हैं।

निबन्धात्मक परीक्षण के गुण या विशेषताएँ

निबन्धात्मक परीक्षा प्रणाली में उत्तम गुणों का इतनी बहुतायत है कि वर्षों व्यतीत हो जाने पर भी इसकी लोकप्रियता में कोई विशेष न्यूनता दिखाई नहीं पड़ती है। इस प्रणाली के उल्लेखनीय गुण निम्नलिखित है –

1. यह सब विषयों के लिए उपयोगी है

यह प्रणाली विद्यालय के सब विषयों के लिए उपयोगी है। इस तरह के एक भी विषय का संकेत नहीं दिया जा सकता है, जिसके लिए इस प्रणाली का लाभप्रद ढंग से प्रयोग नहीं किया जा सके।

2. इसमें उत्तर एवं भाव प्रकाशन की स्वतन्त्रता है

यह प्रणाली बालकों को प्रश्नों के उत्तर देने तथा उनके सम्बन्ध में अपने भावों का प्रकाशन करने की पूरी स्वतन्त्रता प्रदान करती है। इन दोनों बातों में उनके ऊपर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं होता है।

3. यह शिक्षक की सुगमता प्रदान करती है

यह प्रणाली शिक्षक के लिए अत्यधिक सुगम होती है, क्योंकि वह प्रश्नों की रचना थोड़े ही समय में तथा बिना किसी विशेष प्रयास के कर सकता है। आवश्यकता पड़ने पर वह उनको बोल सकता है या श्यामपट्ट पर लिख भी सकता है।

4. यह बालकों को सुगमता प्रदान करती है

यह प्रणाली बालकों के लिए भी सुगम होती है, क्योंकि इसमें ऐसे कोई विशेष निर्देश नहीं होते हैं, जिनको समझने में उनको किसी भी प्रकार की कठिनाई का अनुभव हो।

5 . यह बालकों के तथ्यात्मक ज्ञान की परीक्षा करती है

इस प्रणाली का प्रयोग करके बालकों के तथ्यात्मक ज्ञान की बहुत अधिक सरलता से परीक्षा ली जा सकती है।

6. यह बालकों की विभिन्न योग्यताओं की परीक्षा करती है

इस परीक्षा का प्रयोग करके बालकों की लगभग सभी प्रकार की योग्यताओं की परीक्षा ली जा सकती है, जैसे – विचार – संगठन, विवेचन तथा अभिव्यक्ति, सम्बन्ध चिंतन एवं तार्किक लेखन इत्यादि।

7. यह बालकों के तथ्यात्मक ज्ञान की परीक्षा करती है

 इस प्रणाली का प्रयोग करके बालकों के तथ्यात्मक ज्ञान की बहुत अधिक सरलता से परीक्षा ली जा सकती है।

8. यह प्रणाली बालकों की प्रगति का वास्तविक ज्ञान कराती है

यह प्रणाली, शिक्षक को बालकों की प्रगति का वास्तविक ज्ञान प्रदान करती है। वह उनके उत्तरों को पढ़कर उनसे सम्बन्धित विषयों में उपलब्धियों का सही ज्ञान प्राप्त कर लेता है।

निबन्धात्मक परीक्षण के दोष

आधुनिक शिक्षा मनोविज्ञान ने निबन्धात्मक परीक्षा प्रणाली के अनेक दोषों पर प्रकाश डालकर, उसकी अनुपयुक्तता प्रमाणित करने का प्रयास किया है। इनमें से मुख्य दोष निम्नलिखित हैं –

1. इसमें अंकों में विविधता होती है

इस प्रणाली में प्रदान किए जाने वाले अंकों में विविधता पाई जाती है। इस सम्बन्ध में अनेकों अध्ययन किए गए हैं। उदाहरणार्थ, स्टार्च एवं इलियट ने बताया है कि जब 142 शिक्षकों द्वारा अंग्रेजी की उत्तर – पुस्तिकाओं की जाँच की गई, तो उनके द्वारा प्रदान किए गए अंक 50 और 95 के बीच में ही थे।

2. इसमें विश्वसनीयता का अभाव होता है

इस प्रणाली में जो अंक प्रदान किए जाते हैं, उन पर विश्वास नहीं किया जा सकता है। इसका कारण यह है कि अगर एक छात्र की एक ही उत्तर – पुस्तिका को दो परीक्षक जाँचते हैं, या एक ही शिक्षक कुछ समय व्यतीत होने के बाद जाँचता है, तो अंकों में अन्तर मिलता है। परीक्षा को विश्वसनीय तभी कहा जा सकता है, जब छात्र को अपने उत्तरों के लिए हमेशा समान अंक प्राप्त हो। निबन्धात्मक परीक्षा प्रणाली को इस दृष्टिकोण से विश्वसनीय नहीं कहा जा सकता है।

3. यह सीमित प्रतिनिधित्व करती है

इस प्रणाली का सबसे प्रिय दोष यह है कि वह विषय का सीमित प्रतिनिधित्व करती है। इसका अर्थ यह है कि इसमें सम्पूर्ण विषय से सम्बन्धित प्रश्न नहीं पूछे जाते हैं। विषय के अनेक भाग होते हैं, जिस पर एक भी प्रश्न नहीं पूछा जाता है। प्रणाली की इस निर्बलता से लाभ उठाकर छात्र थोड़े से प्रश्नों का चुनाव करके रट लेते हैं। इस निर्बलता का मुख्य कारण है – प्रश्नों की सीमित सीमा। पाँच या दस प्रश्न सम्पूर्ण विषय का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते हैं।

4. वैधता का अभाव होता है :-

इस प्रणाली में वैधता का स्पष्ट अभाव होता है । वैधता का अर्थ है कि परीक्षा उन गुणों, तथ्यों तथा कुशलताओं की जाँच करे, जिसकी जाँच करना उसका ध्येय होता है । अनेक अध्ययनों द्वारा यह सिद्ध किया गया है कि निबन्धात्मक परीक्षा वास्तव में विषय के ज्ञान की जाँच न करके, बालकों की भाषा, लेखन – शक्ति इत्यादि की जाँच करती है ।

5. इसमें भविष्यवाणी का अभाव होता है :-

इस प्रणाली के परिणामों के आधार पर छात्रों के भविष्य के सम्बन्ध में किसी प्रकार का निश्चित निर्णय नहीं दिया जा सकता है । इसका कारण यह है कि अंकों की प्राप्ति रटने की शक्ति, लेखन – शक्ति, अभिव्यंजना, सुलेख, उपयुक्त भाषा एवं संयोग पर निर्भर रहती है ।

6. इसमें आत्मनिष्ठता होती है :-

इस प्रणाली में आत्मनिष्ठता की प्रधानता पाई जाती है, जबकि अच्छे परीक्षण में वस्तुनिष्ठता का होना आवश्यक होता है । इसमें उत्तरों के अंकन में परीक्षक के विचारों, धारणाओं, मानसिक स्तर, मनोदशा, अभिवृत्तियाँ इत्यादि का बहुत प्रभाव पड़ता है । इसमें उत्तर – पुस्तिकाओं के अंकन के लिए वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं के समान कोई उत्तर – तालिका नहीं होती है, जिसको आधार बनाकर सभी परीक्षक, उत्तर – पुस्तिकाओं का अंकन कर सकें । कुछ परीक्षक सहृदय होने के कारण अधिक अंक प्रदान करते हैं, कुछ कठोर होने के कारण कम, कुछ आलसी तथा लापरवाह होने के कारण उत्तरों को पढ़ते ही नहीं हैं, बल्कि अव्यवस्थिति ढंग से अंक प्रदान करते हैं । इन सब कारणों के फलस्वरूप इस प्रणाली में आत्मनिष्ठा की मात्रा अधिक मिलती है ।

7. इसमें अंकन में अधिक समय लगता है :-

इस प्रणाली में छात्रों द्वारा दिए जाने वाले उत्तर काफी लम्बे होते हैं । उनको अच्छी तरह से पढ़कर ही उनका उचित ढंग से मूल्यांकन किया जा सकता है । इसके लिए न केवल अधिक समय और अधिक शक्ति की भी आवश्यकता है । स्टालनकर ने कहा है कि –

 अच्छी तरह से लिखे गए निबन्धात्मक प्रश्न का ठीक मूल्यांकन दीर्घकालीन और कठिन कार्य है और इसे उचित प्रकार से करने के लिए बुद्धि, परिश्रम और धैर्य की आवश्यकता है ।

निबन्धात्मक परीक्षाएँ के विषय में ऐलिस का मत है कि –

 छात्रों को मौलिकता का अवसर देती हैं और उनकी तर्क शक्ति की जाँच करने के लिए वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं की अपेक्षा इनका प्रयोग साधारणतः अधिक सरल है

वस्तुनिष्ठ परीक्षण

वस्तुनिष्ठ परीक्षण वस्तुनिष्ठ परीक्षणों का विकास करने का सराहनीय कार्य जे . एम . राइस का है। उसने इन परीक्षणों की रचना, प्रयोग और अंकन इत्यादि के सम्बन्ध में अनेकों मौलिक कार्य किए हैं। उसके कार्यों से प्रोत्साहित होकर स्टार्च व इलियट ने अनेक अध्ययन करके इन परीक्षणों की उपयोगिता को सिद्ध किया है। फलस्वरूप इनके प्रयोग पर अधिकाधिक बल दिया जाने लगा है।वस्तुनिष्ठ परीक्षा, वह परीक्षा है, जिनमें विभिन्न परीक्षक स्वतन्त्रापूर्वक कार्य करने के बाद अंकों के सम्बन्ध में एक ही निष्कर्ष पर पहुँचते हैं या समान उत्तरों के लिए समान अंक प्रदान करते हैं। गुड का कहना है कि –

 वस्तुनिष्ठ परीक्षा साधारणतः सत्य – असत्य उत्तर, बहसंख्यक चुनाव, मिलान या पूरक प्रकार के प्रश्नों पर आधारित होती है, जिसके सही उत्तरों का तालिका की सहायता से अंकन किया जाता है। यदि कोई तालिका के विपरीत होता है, जो उसे गलत माना जाता है

वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के प्रकार

वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के मुख्य प्रकार निम्नलिखित हैं –

  • सरल पुनः स्मरण टेस्ट :- इस टेस्ट के अन्तर्गत परीक्षार्थी को प्रश्नों के उत्तर स्वयं स्मरण करके लिखने पड़ते हैं।
  • सत्य – असत्य टेस्ट :- इस टेस्ट के अन्तर्गत परीक्षार्थी को सत्य या असत्य में उत्तर देने पड़ते हैं।
  • बहुसंख्यक चुनाव टेस्ट :- इस टेस्ट के अन्तर्गत परीक्षार्थी को दिए हुए अनेक उत्तरों में से सही उत्तर का चुनाव करना पड़ता है।
  • मिलान टेस्ट :- इस टेस्ट के अन्तर्गत परीक्षार्थी को दो पदों में मिलान करके कोष्ठक में सही पद लिखना पड़ता है।
  • पूरक टेस्ट :- इस टेस्ट के अन्तर्गत परीक्षार्थी को वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति करनी पड़ती है।

वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के गुण तथा विशेषताएँ

वस्तुनिष्ठ परीक्षा – प्रणाली अपनी विशेषताओं के कारण ही प्रचलन में दिन – प्रतिदिन लगातार वृद्धि होती चली जा रही है। वस्तुनिष्ठ परीक्षा – प्रणाली विशेषताएं निम्नलिखित हैं –

  • इसमें वैधता होती है :- वैधता इस प्रणाली का एक मुख्य गुण है। यह उसी निर्धारित योग्यता का माप करती है, जिसके लिए इसका निर्माण किया जाता है।
  • इसमें वस्तुनिष्ठता होती है :- इस प्रणाली में वस्तुनिष्ठता इतनी अधिक होती है कि अंक प्रदान करने के समय परीक्षक के व्यक्तिगत निर्णय, विचार, धारणा, मानसिक स्तर, मनोदशा इत्यादि के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता है।
  • इसमें विश्वसनीयता होती है :- इस प्रणाली में विश्वसनीयता अपनी चरम सीमा पर पाई जाती है। इसका कारण यह है कि चाहे कोई भी व्यक्ति अंक प्रदान करे, उनमें किसी भी प्रकार का अन्तर नहीं होता है।
  • इसमें विभेदीकरण होता है :- इस प्रणाली की एक मुख्य विशेषता है – इसकी विभेदीकरण करने की क्षमता। इसका अर्थ यह है कि प्रतिभाशाली तथा मन्दबुद्धि छात्रों के भेद को स्पष्ट कर देती है।
  • इसमें विस्तृत प्रतिनिधित्व होता है :- इस प्रणाली में प्रत्येक प्रश्न – पत्र में प्रश्नों की संख्या इतनी अधिक होती है कि विषय का कोई भी अंक अछूता नहीं रह जाता है। इस तरह यह प्रणाली विषय का विस्तृत प्रतिनिधित्व करती हैं
  • इसमें धन की बचत होती है :- इस प्रणाली में इतना कम लिखना पड़ता है कि साधारणतया दो – तीन पृष्ठों की उत्तर – पुस्तिकाएँ काफी होती हैं।
  • इसमें समय की बचत होती है :- इस प्रणाली में छात्र कम समय में बहुत से प्रश्नों का उत्तर देते हैं। परीक्षकों को भी उत्तर पुस्तिकाओं को जाँचने में कम समय लगता है।
  • इसमें एक संक्षिप्त उत्तर देना पड़ता है :- प्रणाली में एक प्रश्न का केवल एक ही संक्षिप्त उत्तर हो सकता है। अतः छात्रों को अपने उत्तरों के सम्बन्ध में किसी प्रकार का भ्रम नहीं रह सकता है।
  • इसमें उत्तर की सरलता होती है :- इस प्रणाली में उत्तर देना बहुत ही आसान होता है। इसका कारण यह है कि छात्र हाँ या नहीं लिखकर सत्य या असत्य में से एक पर निशान लगाकर, एक या दो शब्दों को रेखांकित करके तथा इसी प्रकार के अन्य सरल कार्य करके उत्तर दे सकते हैं।
  • इसमें छात्रों को सन्तोष प्राप्त होता है :- इस प्रणाली में छात्रों को ठीक अंक मिलते हैं। इससे उनको न केवल सन्तोष ही प्राप्त होता है, बल्कि उनको अधिक परिश्रम करने की प्रेरणा भी मिलती है।
  • इसमें छात्रों की उत्तर पुस्तिका को जाँचने में कम समय लगता है :- इस प्रणाली में उत्तर – पुस्तिकाओं को जाँचने में इतना कम समय लगता है कि परीक्षण के कुुुछ समय में ही परिणाम घोषित किया जा सकता है। इस तरह यह प्रणाली छात्रों के लिए बहुत उपयोगी है।
  • इसमें अंकों में समानता होती है :- इस प्रणाली में सब छात्रों को सब परीक्षकों से समान अंक प्राप्त होते हैं।
  • इसमें अंकन में सरलता होती है :- इस प्रणाली में अंकन, उत्तरों की तालिका की सहायता से किया जाता है। अतः अंकन का कार्य एकदम सरल होता है तथा समय भी कम लगता है।
  • इसमें रटने का अन्त हो जाता है :- यह प्रणाली रटने की प्रथा का अन्त करती है, क्योंकि इस प्रणाली में कुछ प्रश्नों के उत्तरों को रट लेने से ही काम नहीं चलता है। अतः छात्र रटने के बजाय विषय – वस्तु को ध्यान से पढ़कर स्मरण करते हैं।
  • इसमें ज्ञान की वास्तविक जाँच होती है :- इस प्रणाली में छात्रों को अति संक्षिप्त उत्तर देने पड़ते हैं। अतः वे अपनी अज्ञानता को भाषा के आवरण में नहीं छिपा पाते हैं। इस तरह यह प्रणाली ज्ञान की वास्तविक जाँच करती है।

वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के दोष

परीक्षणों के निरन्तर प्रयोग से इनमें कुछ दोष इस तरह उभर कर सामने आ गए हैं, जिनके कारण अनेकों शिक्षाविद इनको छात्रों के लिए अहितकर समझने लगे हैं। इस प्रकार के कुछ दोष निम्नलिखित हैं–

  • यह अनुमान को प्रोत्साहन देता है :- ये परीक्षण, छात्रों में अनुमान लगाने की अवांछनीय प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देते हैं। वे बुद्धि का प्रयोग नहीं करके केवल अनुमान से सत्य या असत्य पर चिह्न लगा देते हैं तथा शब्दों को रेखांकित कर देते हैं।
  • इसमें भाषा व शैली की दुर्बलता होती है :- इन परीक्षणों का भाषा तथा शैली से कोई प्रयोजन नहीं होता है। अतः छात्र इन बातों की ओर जरा भी ध्यान नहीं देते हैं। फलस्वरूप, उनकी भाषा तथा शैली हमेशा के लिए दुर्बल हो जाती है।
  • इसमें भाव – प्रकाशन की असमर्थता होती है :- ये परीक्षण, छात्रों की अभिव्यंजना – शक्ति का विकास नहीं कर पाते हैं। अतः वे अपने भावों का प्रकाशन करने में असमर्थ सिद्ध होते हैं।
  • इसमें श्रेष्ठ मानसिक शक्तियों की जाँच असम्भव होती है :- इन परीक्षणों द्वारा श्रेष्ठ मानसिक शक्तियों की जाँच असम्भव होती है। जैसे – तर्क, चिन्तन, मौलिक विचार, सृजनात्मक कल्पना तथा विश्लेषणात्मक शक्तियों की जाँच का कोई स्थान नहीं होता है।
  • इसमें केवल तथ्यात्मक ज्ञान की जाँच होती है :- इन परीक्षणों द्वारा केवल तथ्यात्मक ज्ञान पर बल दिया जाता है। अतः इसके अन्तर्गत केवल इसी ज्ञान की जाँच की जा सकती है।
  • इसमें विवादग्रस्त तथ्यों एवं समस्याओं की अवहेलना होती है :- साहित्य, इतिहास तथा सामाजिक विज्ञान में अनेकों विवादग्रस्त तथ्य तथा समस्याएँ होती हैं तथा इनको अत्यधिक महत्त्वपूर्ण समझा जाता है, क्योंकि वस्तुनिष्ठ परीक्षणों में प्रश्नों के उत्तर सन्देहपूर्ण नहीं हो सकते हैं। इसलिए इन महत्त्वपूर्ण विवादग्रस्त तथ्यों तथा समस्याओं को हमेशा के लिए छोड़ दिया जाता है।
  • इसमें अधिक धन की आवश्यकता होती है वस्तुनिष्ठ परीक्षणों में प्रश्नों की संख्या बहुत अधिक होती है :- इन प्रश्नों को बोलना या श्यामपट्ट पर लिखना असम्भव होता है। अतः हर बार इनकी उतनी ही प्रतियाँ छपवानी पड़ती हैं, जितने कि छात्र होते हैं। इसके लिए काफी मात्रा में धन की आवश्यकता पड़ती है।
  • इसमें शिक्षक पर अत्यधिक भार होता है :- ये परीक्षण, शिक्षक पर अत्यधिक भार डालते हैं। छोटे उत्तरों वाले प्रश्नों को बनाने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है। इसके अलावा इनकी संख्या भी बहुत अधिक होती है। अतः इसका अधिकांश समय इन प्रश्नों की रचना में व्यतीत हो जाता है।

Thinking and Learning in Children

बच्चे कैसे सोचते हैं How do Children Think ?

  • सोचना एक उच्च प्रकार की मानसिक प्रक्रिया है, जो ज्ञान को संगठिन करने में एक अहम भूमिका निभाती है। इस मानसिक प्रक्रिया में बहुधा स्मृति, प्रत्यक्षीरण, अनुमान, कल्पना आदि मानसिक प्रक्रियाएँ भी सम्मिलित होती हैं।
  • एक बालक के समक्ष हमेशा अनेक वस्तुएँ, समस्याएँ, दृश्य-परिदृश्य आदि दृष्टिगोचर होती रहती हैं तथा बालक उन समस्याओं, वस्तुओं, दृश्य-परिदृश्यों आदि के विषय में चिन्तन करता रहता हैं। यह चिन्तन अनुभवजन्य होता है।
  • बालक अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार वस्तुओं देखकर या छूकर उनके बारे में अनुभव प्राप्त करता है। धीरे-धीरे बालक में प्रत्यय निर्माण होने लगता है तथा पूर्व किशोरावस्था में बालक अमूर्त वस्तुओं के विषय में सोचने लगता है।
  • बालक में सोचने की प्रक्रिया का विकास एक निश्चित क्रम में होता है।

बालकों में सोचने की प्रक्रिया Process of Thinking in Children

प्रत्यक्षीकरण के आधार पर सोचना Thinking Based on Manifestation

  • बच्चों में इस प्रकार की सोच का विकास वस्तुओं और परिस्थितियों में पत्यक्षीकरण से सम्बन्धित होता है। बालक अपने चारों ओर के भौतिक और मनोवैज्ञानिक वातावरण में जिन वस्तुओं और परिस्थितियों को देखता है या प्रत्यक्षीकरण करता है। उसके आधार पर वह अपने ज्ञान का संचय कर अपनी सोच का विकास करता है।

कल्पना के आधार पर सोचना Thinking Based on Imagination

  • जब उद्दीपन, वस्तु या पदार्थ, उपस्थित नहीं होता है, तब उसकी कल्पना की जाती है। इनके अभाव में कोई बालक इनकी मानसिक प्रतिमा बनाकर अपने ज्ञान का संचय करता है। कल्पना, बालकों में सोचने का एक सुदृढ़ आधार है जिसके आधार पर बालक अपने पूर्व अनुभवों के आधार पर अपनी भविष्यगत सोच का निर्माण करता है।

प्रत्ययों के आधार पर सोचना Thinking Based on Concept

  • यह अपेक्षाकृत अधिक उच्च प्रकार सोच है। इसकी बालकों में अभिव्यक्ति तभी होती है, जब बालकों में प्रत्ययों का निर्माण प्रारम्भ होता है। एक बालक में जितने ही अधिक प्रत्यय निर्मित होते हैं उसमें उतनी ही अधिक प्रत्ययात्मक सोच पाई जाती है। इस प्रकार की सोच को विचारात्मक सोच भी कहते हैं। स्थान, आकार, भार, समय, दूरी और संख्या आदि सम्बन्धी प्रत्यय बालकों में प्रारम्भिक आयु स्तर पर ही बन जाते हैं।

तर्क के आधार पर सोचना Thinking Based on logic

  • इस प्रकार की सोच का विकास किसी बालक में भाषा सम्प्रेषण के आधार पर होता है। यह सबसे उच्च प्रकार की सोच है।

अनुभव के आधार पर सोचना Thinking Based on Experience

  • बालक अपने पूर्व अनुभवों के आधार पर अपनी नवीन सोच का विकास करते हैं। इस प्रकार की सोच का विकास बच्चों में स्थायी ज्ञान प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन माना जाता है।
  • रूचि और जिज्ञासा के आधार पर सोचना Thinking Based on Interest and Desire
  • कुछ बालक अपनी रूचियों और जिज्ञासाओं के आधार पर अपनी सोच का सृजन करते हैं। शिक्षक तथा अभिभावकों को चाहिए कि वह बालकों में नई-नई रूचियों और जिज्ञासा को पैदा करें, जिससे कि बच्चों में सोचने की प्रक्रिया की गति तीव्र हो सके।

अनुकरण के आधार पर सोचना Thinking Based on Imitation

  • बालकों की सोच के विकास में अनुकरण  का एक महत्वपूर्ण स्थान है। वह जब अपने आस-पास लोगों को कोई कार्य करने देखते हैं। तब वह उसी कार्य करने की चेष्टा करते हैं। तथा अपने सोच का विकास करते हैं।

बच्चों में सोचने की योग्यता को बढ़ाने हेतु आवश्यक कदम Essential Steps to Enhance Thinking Ability in Children

  • क्रो एवं क्रो अनुसार, “बालकों में सोचने की योग्यता सफल जीवन के लिए आवश्यक है।”
  • अतः संरक्षकों और शिक्षकों को चाहिए कि बालकों में इस योग्यता के विकास पर ध्यान दिया जाए। बालकों में सोचने की योग्यता के विकास में निम्नलिखित उपाय सहायक हैं
  • बालकों को सोचने के लिए प्रोत्साहित और प्रेरित करना चाहिए। बालकों के भाषा ज्ञान को उच्च करने उपाय करने चाहिए, जिससे वह समय-समय पर अपने विचारों की अभिव्यक्ति कर सकें।
  • बालकों की रूचियों के विकास पर ध्यान देना चाहिए। रूचियों के अभाव में सोचने योग्यता कठिनाई से विकसित हो पाती है।
  • बालकों को उनकी आयु के अनुसार समय-समय पर ऐसे कार्य सौंपे जाने चाहिएँ जिससे उनमें उत्तरदायित्व की भावना का विकास हो सके और उत्तरदायित्व के निर्वाहन हेतु सोचने के लिए प्रेरित हो सकें।
  • बालकों को उनकी आयु के अनुसार समस्या-समाधान करना भी माता-पिता और शिक्षकों को सिखलाना चाहिए, क्योंकि समस्या-समाधान के द्वारा भी सोचने की योग्यता विकसित होती है। शिक्षकों और माता-पिता को बालकों को नवीन बातों की समय-समय पर अर्थात् उनकी आयु के अनुसार जानकारी देनी चाहिए, जिससे उनमें सोचने का विकास सुचारू रूप से चल सके।
  • तर्क और वाद-विवाद की भी सोचने की योग्यता के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका है, इनकों भी सिखाने के अवसर देने चाहिएँ्।
  • बालकों को ऐसा उद्दीपकपूर्ण वातावरण समय-समय पर उपलब्ध कराना चाहिए जिससे वे सोचने के महत्व को समझें और अपनी योग्यता को बढ़ाने के लिए प्रदत्त वातावरण का लाभ उठा सकें।

बच्चें कैसे सीखते हैं How do Children Learn

  • सीखना एक प्रक्रिया है जो जीवन-पर्यन्त चलती रहती है एवं जिसके द्वारा हम कुछ ज्ञान अर्जित करते हैं या जिसके द्वारा हमारे व्यवहार में परिवर्तन होता है।
  • फें्रडसन के अनुसार, “सीखना, अनुभव या व्यवहार में परिवर्तन होता है।”
  • जन्म के तुरन्त बाद से ही व्यक्ति सीखना प्रारम्भ कर देता है।
  • सीखना कोई आसान और सीधी प्रक्रिया नहीं होती, बल्कि यह जटिल, बहुआयामी और गतिशील प्रक्रिया है।
  • अधिगम व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में सहायक होता है। इसके द्वारा जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायता मिलती है।
  • अधिगम के बाद व्यक्ति स्वयं और दुनिया को समझने के योग्य हो पाता है।
  • रटकर विषय-वस्तु को याद करने को अधिगम नहीं कहा जा  सकता। यदि छात्र किसी विषय-वस्तु के ज्ञान के आधार कुछ परिवर्तन करने एवं उत्पादन करने आर्थात् ज्ञान का व्यावहारिक प्रयोग करने में सक्षम हो गया हो, तभी उसके सीखने की प्रक्रिया को अधिगम के अन्तर्गत रखा जा सकता है। सार्थक अधिगम ठोस चीजों एवं मानसिक द्योतकों को प्रस्तुत करने व उनमें बदलाव लाने की उत्पादक प्रक्रिया है न कि जानकारी इकट्ठा कर उसे रटने की प्रक्रिया।
  • गेट्स के अनुसार, “अनुभव द्वारा व्यवहार में रूपान्तर लाना ही अधिगम है।”
  • ई.पी. पील के अनुसार, “अधिगम व्यक्ति में एक परिवर्तन है, जो उसके वातावरण के परिवर्तनों के अनुसरण में होता है।”
  • क्रो एवं क्रो के अनुसार, “सीखना, आदतों, ज्ञान एवं अभिवृत्तियों का अर्जन है। इसमें कार्यों को करने के नवीन तरीके सम्मिलित हैं और इसकी शुरूआत व्यक्ति द्वारा किसी भी बाधा को दूर करने अथवा नवीन परिस्थितियों में अपने समायोजन को लेकर होती है। इसके माध्यम से व्यवहार में उत्तरोत्तर परिवर्तन होता रहता है। यह व्यक्ति को अपने अभिप्राय अथवा लक्ष्य को पाने में समर्थ बनाती हैं।”  सभी बच्चे स्वभाव से ही सीखने के लिए प्रेरित रहते हैं और उनमें सीखने की क्षमता होती है।
  • अर्थ निकालना, अमूर्त सोच की क्षमता विकसित करना, विवेचना व कार्य, अधिगम या सीखने या सीखने की प्रक्रिया के सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू हैं।
  • बच्चे व्यक्तिगत स्तर पर एवं दूसरों से भी विभिन्न तरीकों से सीखते हैं। अनुभव के माध्यम से, प्रयोग करने से, पढ़ने, विमर्श करने, पूछने, सुनने, उस पर सोचने व मनन करने से तथा गतिविधि या लेखन के जरिए अभिव्यक्ति करने से। अपने विकास के मार्ग में उन्हें ये सभी तरह के अवसर मिलने चाहिएँ।
  • बच्चों मानसिक रूप तैयार हों, उससे पहले ही उन्हें पढ़ा देना, बाद की अवस्थाओं में उनमें सीखने की प्रवृत्ति को प्रभावित करता है। उन्हें बहुत-से तथ्य ‘याद‘ तो रह सकते हैं लेकिन सम्भव है कि वे न तो उन्हें समझ पाएँ, न ही उन्हें अपने आस-पास की दुनिया से जोड़ पाएँ।
  • स्कूल के भीतर और बाहर, दोनों जगहों पर सीखने की प्रक्रिया चलती है। इन दोनों जगहों में यदि सम्बन्ध रहे तो सीखने की प्रक्रिया पुष्ट होती है।
  • कला और कार्य, समग्र सीखने के अवसर प्रदान करते हैं जो सौन्दर्यबोध से पुष्ट होता है। ऐसे अनुभव भाषायी रूप से ज्ञात चीजों के लिए महत्वपूर्ण हैं विशेषकर नैतिक  मुद्दों में ताकि प्रत्यक्ष अनुभवों से सीखा जा सके और जीवन में समाहित किया जा सके।
  • सीखना किसी की मध्यस्थता या उसके बिना भी हो सकता है। प्रत्यक्ष रूप से सीखने से सामाजिक सन्दर्भ व संवाद विशेषकर अधिक सक्षम लोगों से संवाद विद्यार्थियों को उनके स्वयं के उच्च संज्ञानात्मक स्तर पर कार्य करने का मौका देते हैं।
  • सीखने की एक उचित गति होनी चाहिए ताकि विद्यार्थी अवधारणाओं को रट कर और परीक्षा के बाद सीखे हुए को भूल न जाएँ बल्कि उसे समक्ष सकें और आत्मसात कर सकें। साथ ही सीखने में विविधता व चुनौतियाँ होनी चाहिएँ ताकि वह बच्चों को रोचक लगें और उन्हें व्यस्त रख सकें। ऊब महसूस होना इस बात का संकेत है कि उस कार्य को बच्चा अब यान्त्रिक रूप से दोहरा रहा है और उसका संज्ञानात्मक मूल्य खत्म हो गया है।

Heredity and Environment

अनुवांशिकता एवं वातावरण का महत्व अनुवांशिकता एवं वातावरण परस्पर एक दूसरे से जुड़े हुए होते हैं। अनुवांशिकता एवं वातावरण एक दूसरे से इस प्रकार से जुड़े हुए होते हैं कि इन्हें पृथक नहीं किया जा सकता। यह दोनों बाल विकास को गहरे स्तर पर प्रभावित करते हैं। चलिए जानते हैं कि अनुवांशिकता एवं वातावरण का महत्व क्या है?

अनुवांशिकता क्या है?

अनुवांशिकता को वंशानुक्रम(Heredity) तथा अनुवांशिक को वंशानुगत भी कहा जाता है। अनुवांशिक या वंशानुगत गुणों का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरण को अनुवांशिकता करते है अर्थात माता-पिता का गुण बालकों में पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित होती रहती है। यह प्रक्रिया अनुवांशिकता कहलाता है। अनुवांशिकता के माध्यम से शारीरिक, मानसिक, सामाजिक गुणों का स्थानांतरण बालकों में होता है।

वातावरण क्या है?

हमारे आस-पड़ोस की वे सारी वस्तुएं जिनसे हम गिरे हुए होते हैं पर्यावरण या वातावरण कहलाता है

वंशानुक्रम का बीजकोष की निरन्तरता का नियम :-

वंशानुक्रम के बीजकोष की निरन्तरता के नियम के अनुसार बच्चे को जन्म देने वाला बीजकोष कभी नष्ट नहीं होता। मतलब माता-पिता से प्राप्त बीजकोष कभी भी नष्ट नहीं होता और बच्चे द्वारा अगली पीढ़ी तक पहुंचा दिया जाता है।

वंशानुक्रम के बीजकोष की निरन्तरता के नियम के बारे में वीजमैन का कथन :-

मनोवैज्ञानिक वीजमैन ने वंशानुक्रम के बीजकोष की निरंतरता के सम्बंध में अपना मत दिया है, जिसे वीजमैन के बीजकोष की निरन्तरता के नियम के रूप में जाना जाता है।

बीजकोष का कार्य केवल उत्पादक कोषों का निर्माण करना है, जो बीजकोष बालक को अपने माता-पिता से मिलता है, उसे वह अगली पीढ़ी को हस्तान्तरित कर देता है। इस प्रकार, बीजकोष पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है।

– वीजमैन

वीजमैन के बीजकोष की निरन्तरता के नियम में विभिन्न वैज्ञानिकों में मतभेद हैं और वीजमैन के बीजकोष की निरन्तरता के नियम को स्वीकार नहीं किया जाता है। इसकी आलोचना करते हुए बी. एन. झा. ने लिखा है कि :-

इस सिद्धान्त (वीजमैन के सिद्धांत) के अनुसार माता-पिता, बच्चे के जन्मदाता न होकर केवल बीजकोष के संरक्षक हैं, जिसे वे अपनी सन्तान को देते हैं। बीजकोष एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को इस प्रकार हस्तान्तरित किया जाता है, मानो एक बैंक से निकलकर दूसरे बैंक में रख दिया गया हो। वीजमैन का सिद्धान्त न तो वंशानुक्रम की सम्पूर्ण प्रक्रिया की व्याख्या करता है, और न ही संतोषजनक है। यह मत वंशानुक्रम की संपूर्ण प्रक्रिया की व्याख्या न कर पाने के कारण अमान्य है।

– बी. एन. झा.(वीजमैन के सिद्धांत के खिलाफ)

वंशानुक्रम का समानता का नियम :-

वंशानुक्रम के समानता के नियम के अनुसार, जैसे माता-पिता होते हैं, वैसी ही उनकी सन्तान होती है। वंशानुक्रम के समानता के नियम के बारे में मनोवैज्ञानिक सोरेनसन ने अपना मत दिया है। सोरेनसन वंशानुक्रम के समानता का नियम का अर्थ और स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि :-

बुद्धिमान माता-पिता के बच्चे बुद्धिमान, साधारण माता-पिता के बच्चे साधारण और मन्द बुद्धि माता-पिता के बच्चे मन्द बुद्धि होते हैं। इसी प्रकार, शारीरिक रचना की दृष्टि से भी बच्चे माता-पिता के समान होते हैं।

– सोरेनसन

वंशानुक्रम का समानता का नियम भी पूरी तरह से सही नहीं प्रतीत होता है क्योंकि, समाज में ऐसे बहुत से उदाहरण देखने को मिलते हैं, जिसमें काले माता-पिता की सन्तान गोरी होती है, और ऐसे भी उदाहरण हैं, जिसमें मन्द बुद्धि माता-पिता की सन्तान बुद्धिमान होती है।

इससे सिद्ध होता है कि वंशानुक्रम का समानता का नियम पूरी तरह से सही नहीं है, मतलब संतान और उसके माता-पिता में समानता तो होती है, लेकिन इसके बहुत से अपवाद भी हैं।

वंशानुक्रम का विभिन्नता का नियम :-

वंशानुक्रम का विभिन्नता का नियम के अनुसार, बच्चे अपने माता-पिता के बिल्कुल समान न होकर उनसे कुछ भिन्न होते हैं। इसी प्रकार, एक ही माता-पिता के दो बच्चे भी एक दूसरे से भिन्न हो सकते हैं।

वंशानुक्रम का विभिन्नता का नियम के अनुसार, हो सकता है, कि एक ही माता-पिता की संताने रंग में समान हों लेकिन बुद्धि, और स्वभाव में एक-दूसरे से अलग-अलग होते हों। या फिर हो सकता है उनका रंग अलग-अलग हो और उनकी बुद्धि में समानता हो।

वंशानुक्रम के विभिन्नता के नियम के बारे में सोरेन्सन का मत :-

वंशानुक्रम का विभिन्नता का नियम के विषय में सोरेन्सन ने बताया है कि –

एक ही माता-पिता की संतानों में, विभिन्नता के कारण माता – पिता के उत्पादक कोषों की विशेषताएँ हैं । उत्पादक कोषों में अनेक पित्रैक होते हैं, जो विभिन्न प्रकार से संयुक्त होकर एक – दूसरे से भिन्न बच्चों का निर्माण करते हैं।

– सोरेन्सन

वंशानुक्रम के विभिन्नता के नियम के संबंध में डार्विन और लेमार्क का मत :-

डार्विन और लेमार्क ने अनेक प्रयोगों के आधार पर वंशानुक्रम का विभिन्नता का नियम का प्रतिपादन किया है, डार्विन और लेमार्क ने वंशानुक्रम के विभिन्नता के नियम के संबंध में निम्नलिखित विचार प्रस्तुत किये हैं –

वंशानुक्रम में उपयोग न करने वाले अवयवों और विशेषताओं का विलोपन आने वाली पीढ़ियों में होता रहता है, और नवोत्पत्ति (नये गुणों और विशेषताओं) और प्राकृतिक चयन द्वारा वंशानुक्रमीय (आनुवंशिक) विशेषताओं और गुणों का उन्नयन (सुधार) होता रहता है।

– डार्विन और लेमार्क

वंशानुक्रम का प्रत्यागमन का नियम :-

वंशानुक्रम का प्रत्यागमन का नियम के अनुसार, बच्चों में अपने माता-पिता के विपरीत गुण पाये जाते हैं। वंशानुक्रम के प्रत्यागमन का नियम के बारे में सोरेन्सन ने अपना मत देते हुए कहा है कि–

बहुत प्रतिभाशाली माता-पिता के बच्चों में कम प्रतिभा होने की प्रवृत्ति और बहुत कम प्रतिभाशाली के माता-पिता के बच्चों में कम प्रतिभा होने की प्रवृत्ति ही प्रत्यागमन है।

– सोरेन्सन

वंशानुक्रम का प्रत्यागमन का नियम, प्रकृति द्वारा विशिष्ट गुणों की जगह सामान्य गुणों का ज्यादा वितरण करके एक जाति के जीवों को एक ही स्तर पर रखने का प्रयास करती है।

प्रत्यागमन नियम के अनुसार, बच्चे अपने माता-पिता के विशिष्ट गुणों को ना अपनाकर सामान्य गुणों को ज्यादा ग्रहण करते हैं। वंशानुक्रम के प्रत्यागमन नियम के कारण ही महान व्यक्तियों की सन्तानें ज्यादातर उनके बराबर महान नहीं होते हैं। उदाहरण के लिए – बाबर की संतान अकबर में, बाबर की तुलना में बहुत कम प्रभावशाली गुण थे।

प्रत्यागमन के कारण :-

प्रत्यागमन के निम्नलिखित दो प्रमुख कारण–
● माता-पिता के पित्रैकों में से एक कम और एक अधिक शक्तिशाली होता है।
● माता-पिता में उनके पूर्वजों में से किसी का पित्रैक अधिक शक्तिशाली होता है।

वंशानुक्रम का अर्जित गुणों के संक्रमण का नियम :-

वंशानुक्रम का अर्जित गुणों के संक्रमण का नियम के अनुसार, माता-पिता द्वारा अपने जीवनकाल में अर्जित किये जाने वाले गुण उनकी सन्तान को प्राप्त नहीं होते हैं। लेकिन लेमार्क का मत इससे अलग है, लेमार्क ने वंशानुक्रम का अर्जित गुणों के संक्रमण का नियम के बारे में कहा कि–

व्यक्तियों द्वारा अपने जीवन में जो कुछ भी अर्जित किया जाता है, वह उनके द्वारा उत्पन्न किये जाने वाले संतानों को संक्रमित किया जाता है।

– लेमार्क

लेमार्क ने वंशानुक्रम का अर्जित गुणों के संक्रमण का नियम के लिए अपने मत को साबित करने के लिए उदाहरण के तौर पर कहतें हैं कि–

जिराफ की गर्दन पहले लगभग घोड़े की गर्दन के समान ही होती थी, लेकिन कुछ विशेष परिस्थितियों के कारण वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी लम्बी हो गई जिससे पता चलता है कि जिराफ की लम्बी गर्दन का गुण अगली पीढ़ी में संक्रमित होने हुआ।

– लेमार्क

लेमार्क के उपरोक्त कथन की पुष्टि मैक्डूगल और पवलव ने चूहों पर एवं हैरीसन ने पतंगों पर परीक्षण करके की है।

आज के समय में विकासवाद या अर्जित गुणों के संक्रमण का सिद्धान्त स्वीकार नहीं किया जाता है। इसके बारे में वुडवर्थ ने अपना मत रखा है जो कि निम्नलिखित है–

यदि आप कोई भाषा बोलना सीख लें, तो क्या आप पित्रैकों द्वारा इस ज्ञान को अपने बच्चे को संक्रमित कर सकते हैं? इस प्रकार के किसी प्रमाण की पुष्टि नहीं हुई है। क्षय या सूजाक ऐसा रोग, जो बहुधा परिवारों में पाया जाता है, यह रोग संतानों में परिवार में छुआ-छूत की वजह से होता है, न कि संक्रमण से।

– वुडवर्थ

वंशानुक्रम का मैण्डल का नियम :-

वंशानुक्रम का मैण्डल का नियम के अनुसार, वर्णसंकर प्राणी या वस्तुएँ अपने मौलिक या सामान्य रूप की ओर अग्रसर होती है। इस नियम को जेकोस्लोवेकिया के मैण्डल नामक पादरी ने प्रतिपादित किया था।

मैण्डल नेे बड़ी और छोटी मटरें बराबर संख्या में मिलाकर बोयीं। उगने वाली मटरों में सब वर्णसंकर जाति की थीं। मैण्डल ने इस वर्णसंकर मटरों को फिर बोया और इस क्रिया को कई बार दोहराया और अंत में मैण्डल को वर्णसंकर के बजाय शुद्ध मटर प्राप्त हुईं।

ग्रेगर जॉन मैण्डल ने जो प्रयोग किये, उनसे प्राप्त निष्कर्षों से वंशानुक्रम तथा वातावरण के प्रभावों के अध्ययन में अत्यधिक उपयोगी साबित हुए।

अधिक जाग्रत या प्रबल गुण, सुप्त गुण को निष्क्रिय कर देता है। सुप्तावस्था में रहने वाले व्यक्त गुण जब प्रकट होकर मुख्य गुण का रूप धारण कर लेते हैं तो यह स्थिति प्रत्यागमन का रूप धारण कर लेती है। उदाहरण के लिए काले माता-पिता से गोरी संतान का जन्म लेना।

– वंशानुक्रम का मैण्डल का नियम

वातावरण

वातावरण को पर्यावरण के नाम से भी जाना जाता है आमतौर पर वातावरण का अभिप्राय व्यक्ति के आस पास की चारो तरफ की परिस्थितियों से है

पर्यावरण शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है परी व आवरण, परि का अर्थ होता है चारो ओर व आवरण का अर्थ होता है ढकने वाला, किसी व्यक्ति को के चारो तरफ जो कुछ भी ह वह पर्यावरण है

वंशक्रम का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरण, विकास व वृद्धि में सहायक तत्व ही वातावरण कहलाता है

वातावरण की परिभाषाएं

डगलस व हॉलैंड के अनुसार: वातावरण शब्द का प्रयोग हम समस्त वाह्य शक्तियों, प्रभावों तथा दशाओं का सामूहिक रूप से वर्णित करने के लिए किया जाता है

वुडवर्थ के अनुसार: वातावरण में सभी तत्व आ जाते है जिन्होंने जीवन शुरू करने के समय मनुष्य को प्रभावित किया हो

पी गिल्बर्ट के अनुसार: वातावरण वह वस्तु है जो प्रयत्क्ष है जो प्रयत्क्ष रूप से तुरंत प्रभावित करती है

रॉल्स के अनुसार: यह वह शक्ति है जो सब पर प्रभाव डालती है

बोरिंग व लैंगफील्ड के अनुसार: वह प्रत्येक  वस्तु है जो व्यक्ति के पित्रैक के अतिरिक्त उसकी अन्य सभी बातों पर प्रभाव डालती है

वातावरण के प्रकार

भौतिक वातावरण: भोजन, जल, वायु, घर, विद्यालय, गाँव व शहर

समाजिक व सांस्कृतिक वातावरण: माता पिता ज़ परिवार ज़ समुदाय, समाज, अध्यापक, मित्र, मनोरंजन के साधन आदि सम्मिलित है

वातावरण का महत्व

मनोवैज्ञानिकों ने काफी अध्ययन करने के बाद यह सिद्ध कर दिया है की व्यक्ति के विकास मे वातावरण की आगम भूमिका होती है क्योंकि बालक के विकास मे भौतिक, सामाजिक, आर्थिक, मानसिक व सांस्कृतिक का व्यापक प्रभाव पड़ता है बालक का वातावरण गर्भवस्था के दौरान से ही विकसित होने लगता है नौ माह तक भ्रूण का विकास मत के गर्भशय मे ही होता है

शिशु के जन्म के उपरांत मिलने वाला वातावरण ही उसके शारीरिक व मानसिक विकास आदि को प्रभावित करता है उत्तम वातावरण मे पलने वाले बालकों की सामाजिक व बौद्धिक क्षमता अधिक होती है

Formative & Summative Assessment

रचनात्मक आकलन क्या है | What is Formative Assessment !!

रचनात्मक आकलन का कार्य शिक्षण प्रक्रिया की दशा का ज्ञान कराना होता है. ये आकलन शिक्षण प्रक्रिया के दौरान लगातार होता है. इसका प्रयोग अधिगम के लिए आकलन के रूप में किया जाता है. रचनात्मक आकलन का कार्य छात्रों का पृष्ठपोषण प्रदान करना है. इसके द्वारा विद्यार्थी को ये पता लगता है कि उसे कहाँ सुधार की आवश्यकता है.

योगात्मक आकलन क्या है | What is the Summative Assessment !!

योगात्मक आकलन का कार्य शिक्षण प्रक्रिया कितनी सफल रही इसका ज्ञान कराना होता है. ये सदैव एक निश्चित अवधि के पश्चात होता है. योगात्मक आकलन “अधिगम के आकलन” के रूप में किया जाता है. इसका कार्य छात्र को ग्रेड व परिणाम प्रदान करना होता है. इसके द्वारा विद्यार्थी को यह पता लगता है कि उसमे कितना सुधार किया गया है.

रचनात्मक तथा योगात्मक आकलन में क्या अंतर है | Difference between Formative and Summative assessment in Hindi !!

# रचनात्मक आकलन का प्रयोग शिक्षण प्रक्रिया की दशा का ज्ञान करने के लिए होता है जबकि योगात्मक आकलन का प्रयोग शिक्षण प्रक्रिया कितनी सफल रही इसका ज्ञान करने के लिए होता है.

# रचनात्मक आकलन शिक्षण प्रक्रिया के दौरान लगातार होता है जबकि योगात्मक आकलन निश्चित अवधि के बाद होता है.

# रचनात्मक आकलन का प्रयोग “अधिगम के लिए आकलन” के रूप में किया जाता है जबकि योगात्मक आकलन का प्रयोग “अधिगम का आकलन” करने लिए किया जाता है.

# रचनात्मक आकलन का कार्य छात्रों का पृष्ठपोषण प्रदान करना है जबकि योगात्मक आकलन का कार्य छात्रों को ग्रेड और परिणाम प्रदान करने का होता है.

# रचनात्मक आकलन द्वारा विद्यार्थी को ये पता लगता है कि उसे कहाँ सुधार की आवश्यकता है जबकि योगात्मक आकलन द्वारा विद्यार्थी को ये पता लगता है कि उसने कितना सुधार किया है.

Child of Diverse Background

  • भारत विविधता से परिपूर्ण एक विशाल देश है। जाति-सम्प्रदाय, रीति-रिवाज, आर्थिक-सामाजिक स्थिति आदि अनेक आधारों पर यहाँ विविधता देखने को मिलती है। विविध पृष्ठभूमि के बालकों से तात्पर्य भारतीय समाज  के विविध वर्गों जैसे निर्धन, वंचित, पिछड़े, अनुसूचित जाति एवं जनजाति के बच्चों से है।
  • समावेशी शिक्षा का तात्पर्य है समाज के सभी वर्गों के बच्चों को शिक्षा की मुख्य धारा में समाविष्ट कर उन्हें शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध कराना।
  • भारतीय समाज के निर्धन, पिछड़े, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजातियों में साक्षरता दर सामान्य वर्ग से काफी कम है। इन वर्गों के उद्धार के लिए यह आवश्यक है कि इनके बच्चों को सामान्य वर्गों की तरह शिक्षा के अवसर उपलब्ध कराए जाएँ।
  • समावेशन का तात्पर्य अधिकतर लोग यह लगाते हैं कि इसमें विकलांग बच्चों को सामान्य बच्चों के साथ शिक्षा दी जाती है। यह समावेशन का एक संकुचित अर्थ है। वास्तविकता में समावेशन केवल विकलांग लोगों तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसका अर्थ किसी भी बच्चे का बहिष्कार न होना भी है।
  • समावेशी शिक्षा कक्षा में विविधता को प्रोत्साहित करती है, जिससे सभी संस्कृतियों को साथ मिलकर आगे बढ़ने का समुचित अवसर मिलता है।
  • समावेशी शिक्षा के अन्तर्गत सभी विशेष शैक्षिक आवश्यकता वाले विद्यार्थियों को विद्यालय में प्रवेेश को रोकने की कोई प्रक्रिया नहीं होनी चाहिए।
  • समावेशन की नीति को हर स्कूल और सारी शिक्षा व्यवस्था में व्यापक रूप से लागू किए जाने की आवश्यकता है।
  • समावेशी शिक्षा उस विद्यालयी शिक्षा व्यवस्था की ओर संकेत करती है, जो उनकी शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक, भाषिक या अन्य विभिन्न योग्यता स्थितियों को ध्यान में रखे बगैर सभी बच्चों को शामिल करती है।
  • सफल समावेशन के लिए बच्चे के जीवन के हर क्षेत्र में वह चाहे स्कूल में हो या बाहर, शिक्षा में सभी बच्चों की भागीदारी सुनिश्चित किए जाने की आवश्यकता हैं।
  • समावेशी शिक्षा के क्षिक्षक के सामाजिक-आर्थिक स्तर का अधिक महत्व नहीं है इसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है
  • बच्चों के प्रति उसकी संवेदनशीलता
  • विद्यार्थियों के लिए उसका लगाव और धैर्य
  • विद्यार्थियों की अक्षमताओं का ज्ञान
  • पृथक्-पृथक् समजातीय समूहों के व्यक्तियों के प्रति बच्चों की अभिवृत्ति साधारणतया उनके अभिभावक की चित्तवृत्ति पर आधारित होती है इसलिए इनके समावेशन हेतु यह आवश्यक है कि शिक्षकों में पर्याप्त धैर्य-शक्ति हो, यह तभी होगा जब वे उनके प्रति लगाव महसूस करेंगे।
  • सफल समावेशन में अभिभावकों की भागीदारी, उनके क्षमता संवर्द्धन एवं उन्हें संवेदनशील बनाने की भी आवश्यकता होती है ताकि वे अपने बच्चों को स्कूल आने के अवसर उपलब्ध कराएँ, ताकि उसके हर प्रकार के विकास में सहयोग करें।
  • समावेशन पृथक् हो गए समाज को मुख्य शिक्षा धारा में शामिल किए जाने से सम्बन्धित है।
  • निर्धन, वंचित, अनुसूचित जाति एवं जनजाति तथा असंगठित घर में आने वाला बच्चा स्वतन्त्र अध्ययन में सबसे अधिक कठिनाई का अनुभव करता है। इसलिए इनके सफल समावेशन के लिए इस प्रकार के विशेष रूप से जरूरतमन्द बच्चों की शिक्षा का प्रबन्ध दूसरे सामान्य बच्चों के साथ होना चाहिए।

निर्धन एवं पिछड़े वर्ग के बच्चें एवं उनकी शिक्षा  Poor and Backward Classes Children and Their Education

  • निर्धनता का तात्पर्य उस स्थिति से है, जिसमें व्यक्ति अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम नहीं होता। रोटी, कपड़ा एवं मकान के साथ-साथ शिक्षा भी मानव की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है। निर्धन परिवार अपना पेट ही ठीक से नहीं भर पाता, तो अपने बच्चों के लिए शिक्षा की व्यवस्था कहाँ से करेगा। निर्धनता का कुप्रभाव इस वर्ग के बच्चों पर पड़ता है। शिक्षा को मौलिक अधिकार घोषित किए जाने के बाद से बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान की जा रही है, किन्तु निर्धनता के कारण अभिभावक बच्चों को स्कूल भेजने के बजाय काम पर भेज देते है, जिससे उनके विकास में बाधा उत्पन्न हो रही है।
  • पिछड़े, वंचित एवं अनुसूचित जाति व जनजाति के बच्चों की सामान्य पहचान यह है कि पारिवारिक निर्धनता एवं पिछड़ेपन के कारण सामान्यतः वे अभावजन्य जीवन व्यतीत करने को बाध्य होते हैं।
  • शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009, सभी बच्चों की निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा पर जोर देता है समाज के पिछड़े एवं निर्धन वर्ग की आवश्यकताओं को देखते हुए ही मध्याहृ भोजन स्कीम को लागू किया गया है ताकि भूख को शिक्षा से दूर रहने का बहाना न बनाया जाए एवं अभिभावक की बच्चे को काम पर भेजने के बदले स्कूल में भेजें।
  • पिछड़े वर्ग के बच्चों को शिक्षा की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए राज्य सरकारों का द्वारा कई कार्यक्रम चलाए जा रहे है,
  • जिनमें से कुछ प्रमुख कार्यक्रम इस प्रकार है
  • विद्यालयी शिक्षा की सभी अवस्थाओं लिए मुफ्त किताबें एवं सामग्री आश्रम, विद्यालयों और सरकारी अनुमोदन प्राप्त छात्रावासों के बच्चों को मुफ्त पोशाकें
  • सभी स्तरों पर निःशुल्क शिक्षा 

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के बच्चे एवं उनकी शिक्षा SC and ST Classes Children and Their Education

  • अनुसूचित जाति एवं अनूसूचित जनजाति दोनों ही ऐसे समुदाय हैं, जिन्हें ऐतिहासिक कारणों से औपचारिक शिक्षा व्यवस्था से बाहर रखा गया। पहले को जाति के आधार पर विभाजित समाज में सबसे निचले पायदान पर होने के कारण एवं दूसरे को उनके भौगोलिक अलगाव, सांस्कृतिक अन्तरों तथा मुख्यधारा कहे जाने वाले प्रबल समुदाय ने अपने हित के लिए हाशिए पर रखा।
  • अनुसूचित जाति एवं जनजाति के बच्चों की शिक्षा के खराब स्तर के कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं
  • विद्यालयों में अनुसूचित जनजाति के बालकों की कम संख्या
  • अध्यापकों में उनके शिक्षण के प्रति उदासीना रवैया
  • पाठ्यपुस्तकों में उनकी स्थानीय बातों व उदाहरणों का न होना
  • बौद्धिक क्षेत्र में उनका पिछड़ा होना
  • निर्धनता
  • इन वर्गों में शिक्षा के प्रचार-प्रचार का अभाव
  • भारत की स्वतन्त्रता के बाद शिक्षा एवं अन्य अधिकारों से वंचित समुदायों के उद्धार के लिए भारतीय संविधान में विशेष प्रावधान किए गए ताकि इनका समुचित विकास हो सके।
  •  भारतीय संविधान की धाराओं 15(4), 45 और 46 में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के बच्चों के लिए शिक्षा मुहैया कराने हेतु राज्यों की प्रतिबद्धता की बात कही गई है।

विविध पृष्ठभूमि के  बच्चों के उचित समावेशन के लिए कुछ सुझाव Some suggestion for Various Background Children’s Proper Inclusive

संस्थानगत सुधार Institutional Improvement

  • अनुसूचित जाति और जनजाति के बच्चों की विद्यालयी व्यवस्था को सुविधाओं के कुशल और निःसंकोच प्रावधान की आवश्यकता है।
  • निरन्तर उपेक्षा एवं बहिष्कार झेल रहे जनजाति एवं जाति समूहों और भौगोलक क्षेत्रों की पहचान कर उनके प्रति सकारात्मक व्यवहार अपनाए जाने की आवश्यकता है।
  • प्रायः देखा जाता है कि विद्यालय के कैलेण्डर, अवकाशों एवं समय में स्थानीय सन्दर्भों का ख्याल नहीं रखा जाता। इससे बचना चाहिए एवं स्थानीय सन्दर्भों को भी पर्याप्त स्थान दिया जाना चाहिए।
  • समावेशी कक्षा में कोर्स को ‘पूरा करने लिए‘ शिक्षकों द्वारा प्रयास किए जाने से अधिक आवश्यक यह है कि वह अधिक सहकारी एवं सहयोगात्मक गतिविधि अपनाएँ।
  • समावेशी कक्षा में प्रतियोगिता और ग्रेडों पर कम बल दिया जाना चाहिए तथा विद्यार्थियों के लिए अधिक विकल्प उपलब्ध कराना चाहिए।

विद्यालयी पाठ्यचर्या में सुधार Improvement in School’s Syllabus

  • पाठ्यचर्या के उद्देश्य ऐसे होने चाहिएँ जो भारतीय समाज और संस्कृति कि सराहना तथा विवेचनात्मक मूल्यांकन पर बल दें।
  • सुविधाओं से वंचित बच्चों के संवेगात्मक एवं सामाजिक विकार, मानसिक विकास आदि के समान अवसर उपलब्ध कराए जाने चाहिएँ।
  • रचनात्मक प्रतिभा, उत्पादन कौशल और सामाजिक न्याय, प्रजातन्त्र, धर्मनिरपेक्ष, समानता के मूल्यों सहित श्रम के आदर को प्रोत्साहन देना पाठ्यचर्या का लक्ष्य होना चाहिए।
  • पाठ्यचर्या का ऐसा उपागम हो, जोकि विवेचनात्मक सिद्धान्त पर आधारित हो, विशेषकर उपदलित, दलित-महिलावादी और विवेचनात्मक बहु-सांस्कृतिक दृष्टिकोणों का समावेशन और केन्द्रीकरण आवश्यक है। यह विवेचनात्मक भारतीयकरण की प्रक्रिया अन्याय और नायक प्रधान सामाजिक व्यवस्था पर प्रश्न उठाने, साथ-साथ विविध संस्कृतियों को समाहित करने और मूल्यवान सांस्कृतिक धरोहर का नुकसान होने से बचाने में सहायक होगा।
  • विवेचनात्मक बहु-सांस्कृतिक पाठों और पठन सामग्री के विकास आवश्यकता है।

शिक्षणशास्त्र में सुधार Improvement in Pedagogy

  • अधिगम सन्दर्भों  को बढ़ावा और प्रजातान्त्रिक व समानतावादी कक्षा-कक्ष व्यवहारों की रूपरेखा के विकास के लिए शिक्षणशास्त्र की विविध पद्धतियों और व्यवहारों को समाहित करने की अत्यन्त आवश्यकता है ताकि पाठ्यचर्या का प्रभावी क्रियान्वय हो सके।
  • शिक्षकों को रचनात्मक, समीक्षात्मक शिक्षणशास्त्र और बच्चों के प्रति लिंग, जाति, वर्ग जनजाति-आधारित और अन्य प्रकारों की पहचान सम्बन्धी इत्यादि भेदभाव को दूर करने और समान आदर और सम्मान को बढ़ावा देने के दृष्टिकोण के साथ कक्षा-कक्ष व्यवहारों पर विशेष दिशा-निर्देश विकसित करने की आवश्यकता है।
  • विद्यालय के संवेगात्मक वातावरण के सुधार लाने की आवश्यकता है ताकि शिक्षक एवं बच्चे ज्ञान के निर्माण और अधिगम में खुलकर भाग ले सकें।
  • शिक्षणशास्त्र के ऐसे व्यवहरों का विकास करने की आवश्यकता है जिसका लक्ष्य अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजातिय के आत्म-सम्मान और पहचान में सुधार।

भाषा के सन्दर्भ में सुधार Improvement in Reference of Language

  • स्थानीय भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया जाए। यदि यह सम्भव न हो, तो कम-से-कम व्याख्या एवं संवाद के लिए स्थानीय भाषा को वरीयता देना आवश्यक है।
  • भारतीय समाज की बहुभाषिक विशेषता को विद्यालयी जीवन को समृद्ध बनाने के संसाधन के रूप में देखा जाना चाहिए।