विविध पृष्ठभूमि के बच्चों के उचित समावेशन के लिए कुछ सुझाव Some suggestion for Various Background Children’s Proper Inclusive

विविध पृष्ठभूमि के  बच्चों के उचित समावेशन के लिए कुछ सुझाव Some suggestion for Various Background Children’s Proper Inclusiveसंस्थानगत सुधार Institutional Improvement

  • अनुसूचित जाति और जनजाति के बच्चों की विद्यालयी व्यवस्था को सुविधाओं के कुशल और निःसंकोच प्रावधान की आवश्यकता है।
  • निरन्तर उपेक्षा एवं बहिष्कार झेल रहे जनजाति एवं जाति समूहों और भौगोलक क्षेत्रों की पहचान कर उनके प्रति सकारात्मक व्यवहार अपनाए जाने की आवश्यकता है।
  • प्रायः देखा जाता है कि विद्यालय के कैलेण्डर, अवकाशों एवं समय में स्थानीय सन्दर्भों का ख्याल नहीं रखा जाता। इससे बचना चाहिए एवं स्थानीय सन्दर्भों को भी पर्याप्त स्थान दिया जाना चाहिए।
  • समावेशी कक्षा में कोर्स को ‘पूरा करने लिए‘ शिक्षकों द्वारा प्रयास किए जाने से अधिक आवश्यक यह है कि वह अधिक सहकारी एवं सहयोगात्मक गतिविधि अपनाएँ।
  • समावेशी कक्षा में प्रतियोगिता और ग्रेडों पर कम बल दिया जाना चाहिए तथा विद्यार्थियों के लिए अधिक विकल्प उपलब्ध कराना चाहिए।

विद्यालयी पाठ्यचर्या में सुधार Improvement in School’s Syllabus

  • पाठ्यचर्या के उद्देश्य ऐसे होने चाहिएँ जो भारतीय समाज और संस्कृति कि सराहना तथा विवेचनात्मक मूल्यांकन पर बल दें।
  • सुविधाओं से वंचित बच्चों के संवेगात्मक एवं सामाजिक विकार, मानसिक विकास आदि के समान अवसर उपलब्ध कराए जाने चाहिएँ।
  • रचनात्मक प्रतिभा, उत्पादन कौशल और सामाजिक न्याय, प्रजातन्त्र, धर्मनिरपेक्ष, समानता के मूल्यों सहित श्रम के आदर को प्रोत्साहन देना पाठ्यचर्या का लक्ष्य होना चाहिए।
  • पाठ्यचर्या का ऐसा उपागम हो, जोकि विवेचनात्मक सिद्धान्त पर आधारित हो, विशेषकर उपदलित, दलित-महिलावादी और विवेचनात्मक बहु-सांस्कृतिक दृष्टिकोणों का समावेशन और केन्द्रीकरण आवश्यक है। यह विवेचनात्मक भारतीयकरण की प्रक्रिया अन्याय और नायक प्रधान सामाजिक व्यवस्था पर प्रश्न उठाने, साथ-साथ विविध संस्कृतियों को समाहित करने और मूल्यवान सांस्कृतिक धरोहर का नुकसान होने से बचाने में सहायक होगा।
  • विवेचनात्मक बहु-सांस्कृतिक पाठों और पठन सामग्री के विकास आवश्यकता है।

शिक्षणशास्त्र में सुधार Improvement in Pedagogy

  • अधिगम सन्दर्भों  को बढ़ावा और प्रजातान्त्रिक व समानतावादी कक्षा-कक्ष व्यवहारों की रूपरेखा के विकास के लिए शिक्षणशास्त्र की विविध पद्धतियों और व्यवहारों को समाहित करने की अत्यन्त आवश्यकता है ताकि पाठ्यचर्या का प्रभावी क्रियान्वय हो सके।
  • शिक्षकों को रचनात्मक, समीक्षात्मक शिक्षणशास्त्र और बच्चों के प्रति लिंग, जाति, वर्ग जनजाति-आधारित और अन्य प्रकारों की पहचान सम्बन्धी इत्यादि भेदभाव को दूर करने और समान आदर और सम्मान को बढ़ावा देने के दृष्टिकोण के साथ कक्षा-कक्ष व्यवहारों पर विशेष दिशा-निर्देश विकसित करने की आवश्यकता है।
  • विद्यालय के संवेगात्मक वातावरण के सुधार लाने की आवश्यकता है ताकि शिक्षक एवं बच्चे ज्ञान के निर्माण और अधिगम में खुलकर भाग ले सकें।
  • शिक्षणशास्त्र के ऐसे व्यवहरों का विकास करने की आवश्यकता है जिसका लक्ष्य अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजातिय के आत्म-सम्मान और पहचान में सुधार।

भाषा के सन्दर्भ में सुधार Improvement in Reference of Language

  • स्थानीय भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया जाए। यदि यह सम्भव न हो, तो कम-से-कम व्याख्या एवं संवाद के लिए स्थानीय भाषा को वरीयता देना आवश्यक है।
  • भारतीय समाज की बहुभाषिक विशेषता को विद्यालयी जीवन को समृद्ध बनाने के संसाधन के रूप में देखा जाना चाहिए।

बुद्धि निर्माण एवं बहुआयामी बुद्धि और शिक्षा( Multi-Dimensional Intelligence)

अगर किसी भी कार्य को बिना गलती के किया जाएं और बिना कठिनाई से किया जाएं तो वो बौद्धिक क्षमता का सूचक मना जाता है। बुद्धि ही वह शक्ति है जो हमें समस्याओं का समाधान करने में सहायता प्रदान करती है। वैसे तो बुद्धि के विषय में अलग अलग मनोवैज्ञानिको ने अलग बात कही है। फिर भी बोला जा सकता है की बुद्धि व्यकितत्व का निर्धारक तत्व है। बहुआयामी बुद्धि और शिक्षा के बारे मे अधिक जानने से पहले सबसे पहले  बुद्धि क्या है ? और उसके अर्थ एवं प्रकृति को जानना होगा ?

बुद्धि का अर्थ (Meaning of Intelligence) :

देखा गया है सामान्यत बुद्धि शब्द का प्रयोग ज्ञान, प्रातिभा प्रज्ञा और समझ आदि के अर्थों से होता है। बुद्धि द्वारा ही हम विभिन्न समस्याओ का समाधान करने में सक्षम होते है। वैसे तो सभी व्यक्ति बोधिक रूप से अलग अलग होते है, जैसे कई बालक प्रतिभाशाली होते हैं और कुध सामान्य और कुध मन्द बुद्धि के होते है। इन सभी भिन्नता के कुध करण है – (1)  वंशानुक्रम (2) वातावरण (3) या दोनो ।

मनोवैज्ञानिकों ने ‘बुद्धि’ के अर्थ को सामान्य अर्थ से विशेष अर्थ बताया है। शुरुआत से ही मनोवैज्ञानकों ने बुद्धि शब्द को अनेक शब्दो द्वारा परिभाषित करने की कोशिश की है। सबसे पहले Boring ने 1923 में बुद्धि को एक औपचारिक परिभाषा (Formal definition) दिया  कि “बुद्धि परीक्षण जो मापता है, वही बुद्धि है। “(Intelligence is what intelligence measure)

पर इस परिभाषा के द्वारा बुद्धि के रूवरूप (Nature) का निश्चित अर्थ का पता नही लगा। इसके बाद बुद्धि को मापने के लिए बहुत से परीक्षण (प्रयोग) किये गए। इन मे से ही कई परीक्षणों के द्वारा किये गये मापन को बुद्धि कहा गया। बोरिंग के बाद अनेकों  मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि के सम्बंन्ध में अपने अपने ढंग से परिभाषित किया।

इन परिभाषाओ को तीन क्षेणीयो मे बाँटा गया –

  1. (Adjustment) समायोजन की योग्यता के रूप में : इस क्षेणी में उन परिभाषाओं को रखा गया जिसमें बुद्धि को वातावरण के साथ समायोजन( adjustment) करने की क्षमता के आधार पर परिभाषित किया गया । इस प्रकार से जो व्यक्ति जितनी जल्दी वातावरण के साथ समायोजन कर लेता है, वह उतना ही तीव्र बुद्धि का समझा जाता है।
  2. Ability to learn ( सीखने की योग्यता के रूप में) : दुसरे श्रेणी मे उन परिभाष को रखा गया  जिस में व्यक्ति मे सीखने की क्षमता जितनी ही अधिक होती है, उस व्यक्ति में बुद्धि भी उतनी ही होगी।
  3. As an ability to abstract thinking( अमूर्त चिन्तन की योग्यता के रूप में ) : तीसरे श्रेणी में उन परिभाषओं को समलित किया गया है जिस व्यकित में अमूर्त चिन्तन की योग्यता जितनी अधिक होगी उस व्यक्ति में बुद्धि भी उतनी ही अधिक होगी।

पर बाद में ज्यादा तर मनोवैज्ञानिकों को यह लगा की यह तीनों श्रेणियों की परिभाषाओं का एक सामान्य दोष ( Common defect) है और वह यह है कि प्रत्येक श्रेणी की परिभाषाओं में बुद्धि के मात्र एक पहलू या पक्ष को आधार मानकर बुद्धि को परिभाषित किया गया है। वास्तव में बुद्धि मे केवल एक ही तरह की क्षमता ( या पहलू) सम्मिलित नही होती बल्कि इसमें अनेक तरह की क्षमताएँ जिन्हे सामान्य क्षमता ( general ability) कहा जाता है, सम्मिलित होता है। इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए कुध मनोवैज्ञानिको ने बुद्धि को दूसरे ढंग से परिभाषित किया है इन परिभाषाओ में से कुछ सर्वश्रेष्ठ परिभाषाओ को नीचे दिया जा रहा है –

जैसे की हम सभी जानते है, मनुष्य एक बुद्धिमान प्राणी है, जो कि बुद्धि में सभी जीवों में श्रेष्ठ है और सभी से अलग है। इस लिए बुद्धि वह शक्ति हैं जिस की मदद से सभी समस्याओं को हल करने में सहायता मिलती हैं।

बिनेट के अनुसार :” समस्यो को समझना और तर्क के आधार पर किसी महत्वपूर्ण निर्णय पर पहुँचना बुद्धि की आवश्यक क्रियाएँ है.”

स्टर्न के अनुसारः “किसी भी नवीन  परिस्थितियों में अपने विचारों कों व्यक्त करने की एक सामान्य क्षमता बुद्धि है”

बुद्धि की परिभाषाएँ ( Definitions of Intelligence) :

  • एल एंम. र्टमन के शब्दो में – ” बुद्धि अमूर्त चिन्तन के सन्दर्भ मे सोचने की योग्यता है। ( “ Intelligence is the ability to abstract thinking” )
  • पिन्टर के अनुसार: जीवन की अपेक्षाकृत नवीन परिस्थितियों से अपना सामंजस्य करने की व्यक्ति की योग्यता ही बुद्धि है।
  • राँस के शब्दो में : बुद्धि नई पारिस्थिति में सचेत अनुकूलन हैं।
  • वैश्लर के अनुसार : बुद्धि किसी व्यक्ति के द्वारा उद्देश्यपूर्ण ढंग से कार्य करने, तार्किक चिन्तन करने तथा वातावरण के साथ प्रभावपूर्ण ढंग से क्रिया करने की सामूहिक योगयता है। वैश्लर के अनुसार : बुद्धि के तीन पक्ष है – (1) कार्यात्मक (2) संरचनात्मक (3) क्रियात्मक तथा वंशानुक्रम और वातावरण
  • वुडवर्थ के शब्दो में “ बुद्धि क्षमता ग्रहण करने की क्षमता है।” ( “Intelligence is the capacity to acquire capacity”. )
  • पियाजे के अनुसार – “ वृद्धि भौतिक और सामाजिक वातावरण का अनुकूलन है।”
  • स्पीयरमैन ने बुद्धि को औचित्यर्थण चिन्तन कहा है।

बुद्धि को निर्धारित करने वाले तत्व है –

  1. वंशानुक्रम
  2. वातावरण
  3. वंशानुक्रम तथा वातावरण इन दोनो की अन्त: क्रिया बुद्धि को निर्धारित करने वाले कारक हैं।

बुद्धि के प्रकार ( Types of Intelligence)

थार्नडाइक के अनुसार  बुद्धि को तीन चरणों में बटां गया है –

  1. अमूर्त बुद्धि ( Abstract Intelligence)
  2. ठोस या बुद्धि (Concrete or Motor Intelligence)
  3. सामाजिक बुद्धि (Social Intelligence)
  1. अमूर्त बुद्धि (Absent Intelligence): अमूर्त बुद्धि के अन्तर्गत है चिह्न, शब्द, सूत्र, अंक आदि से संबंधित समस्याओ को सुलझाने को शामिल किया गया है। इन अमूर्त चिन्तन से तात्पर्य वैसी मानसिक क्षमता से होता है, जिसके सहारे व्यक्ति शाब्दिक ( Verabal) तथा गणितीय संकेत एवं चिन्हों के संबंधों को आसानी से समझ जाता है तथा यह समस्यओं को पढ़ने और हल करने की अभिरूचि है, जिन्हे प्रतीक, ग्राफ, चित्र संकेतो द्वारा प्रस्तुत किया जाता है ।
  2. ठोस या गत्यात्मक बुद्धि ( Concrete or Motor Intelligence): ठोस या गत्यात्मक बुद्धि से तांत्पर्य ऐसे मानसिक क्षमता से होता है। जिसके सहारे व्यक्ति ठोस वस्तुओ के महत्वं को समझता है। उदहारण : जैसे- खेल – नृत्य आदि में गतिशील बुद्धि होती है इसका संबंध शारीरिक शिक्षा से होता है। तथा इस तरह को बुद्धि की जरुरत व्यापार एंव विभिन्न विभिन्न तरह के व्यवसयो में अधिकतर पड़ती है।
  3. सामाजिक बुद्धि ( Social Intelligence) : सामाजिक बुद्धि से तात्पर्य वैसे सामान्य मानसिक क्षमता से है जिसके मदद से व्यक्ति एक दूसरे को सही ढंग से समझता है और व्यवहार कुशलता दिखलाता है। इस प्रकार की बुद्धि का संबध दैनिक जीवन की क्रियाओं से होता है। यह समाज में लोगों के साथ समयोजन की क्षमता को बढ़ाती है। इस प्रकार कहा जा सकता है, यह समाजिक परिस्थितियों से समायोजन करने की क्षमता है।

बुद्धि के सिद्धांत (Theories of Intelligence)

  1. इकाई सिद्धांत( Unitary Theory)
  2. द्वि – कारक सिद्धांत (Two factors Theory )
  3. समूह – कारक सिद्धांत (Group Factor Theory)
  4. प्राइमरी मानसिक योग्यताओं का सिद्धांत( Theory of Primary Mental ability)
  5. बहु – कारक सिद्धांत (Multi Factors Theory)
  6. कैले का बुद्धि सिद्धांत (Kelley’s theory of Intelligence
  7. इकाई सिद्धांत (Unitary Theory) इस सिद्धांत का प्रतिपादन  बीने र्टमन और जॉनसन ने किया है। इस सिद्धांत के अनुसार बुद्धि को एक भाग शक्ति या कारक के रूप मे मना जाता है जो व्यक्ति की संपूर्ण कियाओं को प्रभावित करती है। इस प्रकार से सभी मनोवैज्ञानिक मानते है कि बुद्धि (single function)  उत्तम निर्णय लेने में सक्षम है।
  • यह भी स्पष्ट है कि है इस सिद्धान्त में बुद्ध को एक शक्ति या कारक के रूप में माना गया है ।
  • इस मे मनोवैज्ञानिको के द्वारा माना गया बुद्धि एक मानसिक शक्ति है, जो व्यक्ति के सभी कार्यों का संचालन तथा व्यक्ति के समस्त व्यवहारों को प्रभावित करती है।

यह सिद्धांत सबसे पुराना सिद्धांत हैं इस सिद्धांत को संकाय – सिद्धांत (Faculty Theory) से जानते है। इस सिद्धांत का विकास 18वीं और 19वीं शताब्दी में हुआ। इस सिद्धांत के अनुसार अगर व्यक्ति एक कार्य में बुद्धिमान होता है तो उसे दूसरे कार्यो में भी बुद्धिमान होना चाहिए पर ऐसा होता नहीं है।

2) द्वि-कारक सिद्धांत (Two-factor Theory)  द्विकारक सिद्धांत प्रतिपादकस्मीयरमैन है इस सिद्वांत मे उन्होंने दो कारक बताए हैं। इस सिद्धांत में सह – संबंध का प्रयोग किया गया था। इन दो कारकों में एक कारक को G अर्थात् सामान्य कारक (General factor) कहा गया और दूसरे कारक को S यानि विशिष्ट कारक (specific factor) की आवश्यकता होती है, क्योंकि बौद्धिक कार्य में दोनों कारक भाग लेते हैं।

स्पीयर मैन के अनुसार : दोनों कारक सह – संबंधित होते हैं।

व्यकित की कार्य सम्पन्ना = सामान्य कारक + विशिष्ट कारक

Individual Performance = G + C

उपरोक्त चित्र से पाता चलता है कि सामान्य कारक (G) काला भाग है। और सफेद भाग S1 व S2 जोकि विशेष कारक है, एक दूसरे से स्वतंत्र है और G की संलग्नता दोनों को चाहिए।

परंतु द्वि-कारक सिद्धांत को सभी मनोवैज्ञानिक स्वीकार नहीं करते हैं। इन लोगों का कहना है कि स्पीयरमैन जिसे सामान्य कारक (योग्यता) कहते हैं उसे अनेक योग्यताओं में विभाजित किया जा सकता है। थामसन व गोदरे जैसे मनोवैज्ञानिक द्विकारक सिद्धांत को अपूर्ण मानते हैं।

3) समूह – कारक सिद्धांत (Group Factor Theory) – समूह कारक सिद्धांत के प्रतिपादक थर्सटन है। इस सिद्धांत को बुद्धि के नमूने का सिद्धांत भी कहते है। इस सिद्धांत के अनुसार बौद्धिक योग्यताएँ कुध समूहों से जुड़ी होती है। और इनका संबधं न होकर इनका संबधं सकारात्मक होता है।

अर्थात जो तत्व सभी प्रीतभात्मक योग्यताओं में तो सामान्य नहीं होते परन्तु कई कियाओं में सामान्य होते है, उन्हे ग्रुप – तत्व की संज्ञा दी गई है।

इस सिद्धांत का परीक्षण करते हुए यह स्पष्ट हुवा कि कुछ मानसिक क्रियाओं में एक प्रमुख तत्व सामान्य तत्व सामान्य रूप से विद्यमान होता है, जो उन क्रियाओं के कई ग्रुप होते हैं, उनमें अपना एक प्रमुख तत्व होता है।

इस सिद्धान्त की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि यह हैै कि यह सामान्य तत्व की धारणा का खण्डन करता है।

4) प्राइमरी मानसिक योग्यताओं का सिद्धांत(Theory of Primary Mental Ability) इस सिद्धांत के प्रतिपादन थर्सटन थे । इस सिद्धांत का प्रतिपादन करने में थर्सटन ने कारक – विश्लेषण विधि सहायता ली थी। र्थसटन ने कई प्रयोग किए और इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि बुद्धि सात मानासिक योग्यताओं से मिलकर बनी हैं ।

  1. शादिक बोध (Primary comprehension)
  2. सांख्यिक योग्यता (Numerical Ability)
  3. प्रत्यक्षीकरण गति (Perceptual Speed)
  4. स्थान संबंधी योग्यता( Spatial Ability)
  5. तर्क शक्ति (र्तक करना) (Reasoning)
  6. शब्द-प्रवाह (Word-Fluency)
  7. स्मृति (Memory)

(5) बहु कारक सिद्धांत (Multifactor Theory)

बहुकारक सिद्धांत को थाँर्नडाईक ने प्रस्तुत किया था। इस सिद्वांत के अनुसार बुद्धि विशेष और स्वतंत्र मानसिक कासकों से बनी होती है। सामान्य कारक जैसा कुध भी नहीं होता है। यह सिद्वांत द्वि – कारक सिद्धांत को शुद्ध करता हैं थाँर्नडाईक ने एक निष्कर्ष निकाला कि प्रत्येक कार्य में कुछ कारक अपनी भूमिका निभाते है और उनमें सह – सम्बंध होता है। इससे यह संकेत मिलता है कि इन कार्यो में कुध कारक साझे होते है।

(6) कैले का बुद्धि सिद्धांत ( Kelley’s Theory of Intelligence)

कैले ने बुद्धि को पाँच मानसिक योग्यताओं से निर्मित माना है। ये पाँच मानसिक योग्यता निम्न प्रकार से है।

  1. अंक योग्यता (Numerical Ability)
  2. स्थान सम्बंधी योग्यता (Ability to experience)
  3. याद करने की योग्यता (Memory)
  4. अनुभव करने की योग्यता(Ability to Experience)
  5. समझने की योग्यता ( Ability to under stand)

इस प्रकार उपरोक्त अध्ययन से हम बुद्धि की प्रकृति व अर्थ को समझ सकते हैै कि बुद्धि की संरचना क्या है? अतः विधार्थियो को चाहिए कि बुद्धि को पूर्णतः समझने के लिए बुद्धि के सिद्धांतो का भी अध्ययन करें।

बहुआयामी बुद्धि (Multi-Dimensional Intelligence)

कैली व र्थसटन ने बताया कि बुद्धि का निर्माण प्राथमिक मानासिक योग्यताओं के द्वारा होता है। कैली के अनुसार 05 मानसिक योग्यताओ द्वारा बुद्धि का निर्माण होता हैं ये पाँच योग्यता हम पढ़ चुके है। और र्थसटन ने सात 07 मानसिक योग्यताओं से बुद्धि का निर्माण किया है।

अधिकतर मनोवैज्ञानिको ने कैले व र्थसटन द्वारा दिए गए सिद्धांतो की अलोचना की है लेकिन अधिकार मनोवैज्ञानिको ने इस बात से सहमत है कि बुद्धि का बहुआयामी होना निशिचत तौर पर सम्भव है। इसी कारण से कुछ लोग कई प्रकार के कौशलों में माहिर हो जाते हैं।

मानसिक आयु और बुद्धि लब्धि ( Mental Age and I.Q)

मानसिक आयु की अवधारणा को लाब्धि (Mental Age and I.Q)

मानसिक आयु की अवधारणा को बिने (Binet) ने विकसित किया था। मानसिक आयु का निर्धारण बच्चों की परीक्षण उपलब्धि के आधार पर किया जाता है। किसी परीक्षण में जो अंक मिलते है उन्हे मानसिक आयु के रूप में अभिव्यक्त किया जाता है। किशोरावस्था के बीच में मानसिक आयु तेजी से नहीं बढ़ती है और प्रैढ़ावस्था में उसका कोई अर्थ नहीं होता है।

बुद्धिलाब्धि शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग एक र्जमन मनोवैज्ञानिक बिल हेल्स स्टर्न ने सन् 1912 ई० में किया था। 1996 ई० में स्टेनफोर्ड – बीने द्वारा प्रस्तुत किए गए कि बुद्धिलाब्धि मानसिक आयु और वास्तविक आयु के अनुपात में होता है। इस अनुपात को 100 से गुणा करके बुद्धिलाब्धि का मूल्य निकला जाता है।

बुद्धिलाब्धि (I.Q) = मानसिक आयु X 100

                         वास्तविक आयु

बुद्धि लब्धि के आधार पर ही हम व्यकितयों का वगीकरण कर सकते है। र्वमन और मैरिल ले 3184 विद्यार्मियो पर प्रयोग करके बुद्धिलाब्धि विभाजन किया।

शिक्षा के क्षेत्र में बुद्धि – परीक्षणों का महत्व (Importance of Intelligence Test in Education Field)

बुद्धि के द्वारा ही व्यक्ति में या विद्यार्थी की सफलता और असफलता में गहरा संबध होता है। बुद्धि परीक्षणों द्वारा कमजोर बुद्धि वाले विद्यार्थियो का पाता लगाया जा सकता है। देखा गया है जिनकी बुद्धिलब्धि 70 से कम होती है वे कम बुद्धि के होता है। इस विधि का प्रयोग विभिन्न प्रकार के क्रियाओं, कार्यक्रमों – पाठ्यक्रमों में चयन के लिए भी किया जाता हैै। उदहारण के लिए : छात्रवृत्तिओं, कार्यक्रमों में चयन के लिए भी किया जाता है। जैसे  छात्रवृतियाँ प्रदान करने, उत्तरदायित्व सौंपने में, विधालय की किसी सहभागी क्रिया में विद्यार्थियो के चयन करने के लिए किया जाता है।

इस विधि द्वारा विधार्थियो का वर्गीकृत भी किया जा सकता है, इस परीक्षणों के आधार पर विद्यार्थियों को सामान्य मन्द बुद्धि,  प्रतिभाशाली विद्यार्थियों के समूहों में बाँट सकते हैं। इस प्रकार से इस विधि द्वारा विद्यालय – व्यवस्था में सुधार लाया जा सकता है। इस की मदद से विशेष बच्चों के समूह का पता लगाया जा सकता है, जैसे – गूंगे, बहरे, अंधे, दुर्बल आदि।  साथ ही बच्चों को निर्देशन भी बुद्धि- परीक्षणों के आधार पर ही दिया जाता है। इस प्रकार से मानसिक स्तर के आधार पर बच्चों को पाठ्य पुस्तक के चयन की सहायता प्रदान की जा सकती है। इस की सहायता से कई शैक्षिक समस्याओं का समाधान हो जाता है।

शिक्षा में बुद्धि – परीक्षणों के लाभ (Advantage of Intelligence Tests in Education)

  1. व्यकितत्व की जानकारी
  2. शैक्षिक निदेशन में सहायक
  3. व्यवयायिक निर्देशन मे सहायक
  4. विद्यालय व्यवस्था के सुधार में सहायक
  5. विद्यार्थियों के वर्गीकरण में सहायक
  6. विद्यार्थियों के चयन में सहायक
  7. दुर्बल बुद्धि के बालको की पहचान
  8. यौन भेद का अध्ययन
  9. भविष्य वाणी में सहायक
  10. आकांक्षा – स्तर बढ़ाने मे सहायक
  11. सामाजिक अनुकूलन में सहायक
  12. अनुसंधान में सहायक
  13. विद्यार्थी की क्षमता जानने में सहायक
  14. छात्रवृतियाँ प्रदान करने में सहायक आदि

शिक्षा के क्षेत्र में बुद्धि – परीक्षणों का महत्त्व विस्तार से (Importance of intelligence Test in the Field of Education)

शैक्षणिक मार्गदर्शन (Educational Guidance)

  • विज्ञान ने और मनोविज्ञान ने मानवीय समस्याओं  के समाधान में बहुत योगदान दिया है। इस वृद्धि द्वारा बच्चों के भविष्य निर्धारण में काफी सहायता मिल रही है। शिक्षा के क्षेत्र में बुद्धि परीक्षाएँ बहुत लाभदायक सिद्ध हो रहा है।

छात्र वर्गीकरण Student’s Classification

  • बालकों को ज्ञान प्राप्त करने में बुद्धि क्षमता का सीधा प्रभाव पड़ता है। इस करण से छात्र वर्गीकरण में बुद्धि परीक्षाएँ बहुत महत्वपूर्ण है।
  • हमारे भारतीय शिक्षा व्यवस्था में सभी बच्चे एक कक्षा में अध्ययन करते है जो सामान्य से उच्च एवं सामान्य से नीचे आदि स्तरों के छात्र – छात्राएँ शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। तो अब प्रश्न यह उठाता है की सभी बच्चों का शैक्षिक विकास उत्तम हो सकेगा ? इस प्रकार से बुद्धि परीक्षण के माध्यम से शिक्षक सामान्य, सामान्य से भिन्न एवं उच्च आदि छात्रों का वर्गीकरण करके  उत्तम शिक्षा प्रदान कर सकते है।

अधिगम प्रणाली में उपयोगी ( Use in Learning System )

  • बुद्धि परीक्षणों द्वारा यह स्पष्ट हो गया है कि प्रतिभाशाली बच्चे कम समय में अधिक अधिगम एवं ज्ञान प्राप्त करने की क्षमता रखते हैं।

अधिगम या सिखने को प्रभावित करने वाले कारक (Factors affecting learning in Hindi)

अधिगम के स्तर को सुधारने और वृद्धि करने में सहायक है उन्हें अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक कहते हैं। कुछ मनोवैज्ञानिक और शिक्षाविद् अधिगम को प्रभावित करने वाले मनोवैज्ञानिक कारकों को महत्व देते हैं तो कुछ वातावरणीय कारकों को, कुछ विषय वस्तु, विधियों आदि को, और अन्य अधिगमकर्ता के आंतरिक एवं व्यक्तिगत कारको को।

कुछ शिक्षाविद् अध्यापक और स्कूल को अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। ये कारक चाहे किसी भी श्रेणी के हो, सीखने को प्रभावित करते हैं।

शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले कारक

  1. अभिप्रेरणा
  2. उद्देश्यों का स्पष्टीकरण
  3. पुनर्बलन
  4. परिपक्वता
  5. बौद्धिक योग्यता और क्षमता
  6. विषय वस्तु की रचना, व्यवस्था और अर्थपूर्णता
  7. थकान एवं अनुपयुक्त कार्यकारी परिस्थितियां
  8. अधिगम हेतु प्रयुक्त विधियां
  9. शिक्षण के तरीके

(1) अभिप्रेरणा (Motivation)

  अभिप्रेरणा अधिगम को अत्यधिक प्रभावित करती है। अभिप्रेरणा लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्राणी की मनोदैहिक एवं आंतरिक दशाएं हैं जो उससे इस प्रकार व्यवहार करवाती है कि लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। जो व्यवहार लक्ष्य प्राप्ति में सहायक होते हैं मनुष्य उन्हें करता है जो लक्ष्य प्राप्ति में सहायक नहीं होते उन्हें त्याग देता है।

जितनी अधिक प्रेरणा होगी अधिगम प्रक्रिया उतनी ही तीव्र होगी, किंतु एक निश्चित सीमा से अधिक प्रेरित करना अधिगम प्रक्रिया को प्रभावित करता है। अभिप्रेरणा बाह्य एवं आंतरिक दोनों प्रकार की होती होती है।

प्रशंसा, आलोचना, पुरस्कार, दंड, प्रगति का ज्ञान आदि अभिप्रेरणा की बाह्य अभिप्रेरणा प्रविधियां हैं। आकांक्षा स्तर को ऊंचा उठाना आंतरिक अभिप्रेरणा। शिक्षक यदि छात्रों के आकांक्षा स्तर को ऊंचा उठाता है तो वह कार्य में अधिक तल्लीनता से रुचि लेंगे।

अतः अध्यापक को आवश्यकतानुसार अभिप्रेरणा की विभिन्न विधियों का प्रयोग कक्षा-कक्ष में अधिगम को बढ़ाने हेतु करना चाहिए। अभिप्रेरणा कक्षा में अधिगम को प्रभावित करने वाला प्रमुख कारक है।

(2) उद्देश्यो का स्पष्टीकरण

अधिगम एक उद्देश्यपूर्ण क्रिया है। अधिगम को आसान और सार्थक बनाने के लिए अध्यापक को अधिगम के उद्देश्यों को पूर्व में निर्धारित करना चाहिए।

अधिगमकर्ता के सामने यदि यह स्पष्ट होगा कि इस विषय वस्तु को वह क्यों सीखे और इसे सीखने के बाद इसका वह विभिन्न प्रकार से उपयोग किस प्रकार कर सकेगा। इस स्थिति में उसके समस्त व्यवहार उद्देश्य केंद्रित और तीव्र होंगे।

(3) पुनर्बलन (Reinforcement)

पुनर्बलन अधिगम को प्रभावित करता है। पुनर्बलन वह प्रक्रिया है जिसमें यदि कोई उत्तेजक प्रतिक्रिया के तुरंत बाद प्रस्तुत किया जाए तो उससे प्रतिक्रिया शक्ति में वृद्धि होती है।

यदि बालक को कक्षा में सक्रिय अनुक्रिया करने पर तुरंत पुनर्बलन दिया जाए तो उसके अधिगम में वृद्धि होगी। कक्षा शिक्षण में बालक के अधिगम को शाब्दिक और अशाब्दिक पुनर्बल द्वारा प्रभावित किया जा सकता है।

(4) परिपक्वता (Maturity)

अधिगम तभी संभव होता है जब बालक उसके अनुकूल निश्चित स्तर की परिपक्वता प्राप्त कर लेता है। अगर 6 माह के बच्चे को चलना सिखाया जाए तो व्यर्थ होगा क्योंकि उसकी मांसपेशियां इतनी परिपक्व नहीं हुई है कि वह चलाना सीख सके।

इसलिए मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अधिगम तभी अधिक होगा यदि शैक्षणिक क्रियाएं बालक के विकास के अनुकूल होंगी। अध्यापक द्वारा उन माता पिता को इस सिद्धांत की जानकारी दी जानी चाहिए जो अपने ढाई या 3 वर्ष के बच्चे की शिक्षण उपलब्धि के प्रति अत्यधिक महत्वकांक्षी हो जाते हैं।

कॉलेसनिक ने उचित ही कहा है, “परिपक्वता और सीखना पृथक क्रियाएँ नहीं है, वरन् परस्पर संबद्ध और एक दूसरे पर निर्भर है।”

(5) बौद्धिक योग्यता और क्षमता

मनुष्य में अन्य निम्न श्रेणी के जीवों की तुलना में सीखने की क्षमता अधिक होती है किंतु प्रत्येक मनुष्य को सीखने की क्षमता भी अलग-अलग होती है।

टरमन और मेरील के बौद्धिक वर्गीकरण के अनुसार हम बालकों को उनकी सीखने की योग्यता के आधार पर तीन भागों में बांटा जा सकता है। (I) पिछड़े (II) सामान्य और (III) प्रतिभाशाली ।

अतः अध्यापक को बौद्धिक योग्यता के अनुसार सीखने की क्रियाएं आयोजित करनी चाहिए।

(6) विषय वस्तु की रचना, व्यवस्था और अर्थपूर्णता

विषय वस्तु की संरचना उसका कठिनाई स्तर अधिगम को प्रभावित करता है। यदि विषयवस्तु अधिगमकर्ता के स्तर के अनुकूल नहीं होगी तो सीखने की गति मंद होगी। अधिगम प्रक्रिया में विषय वस्तु के प्रस्तुतीकरण के क्रम का भी प्रभाव पड़ता है। यदि विषय वस्तु शिक्षण सूत्रों के अनुसार व्यवस्थित की जाएगी तो अधिगम प्रक्रिया सरल होगी।

विषय वस्तु यदि अर्थपूर्ण होगी तो सीखने की गति अधिक होगी। अर्थ पूर्णता से अभिप्राय है कि जो विषय वस्तु प्रेषित की जाए उसका संबंध बालक के दैनिक जीवन से जुड़े उदाहरणों से हो, और वह स्पष्ट अर्थ रखती हो तथा बालक के पूर्व ज्ञान से भी संबंधित हो।

अतः यदि अध्यापक विषय वस्तु को अर्थपूर्ण बनाकर प्रस्तुत करेगा तो सीखना प्रभावी होगा। विषय वस्तु की मात्रा भी बालक के स्तर के अनुसार होनी चाहिए।

(7) थकान एवं अनुपयुक्त कार्यकारी परिस्थितियां

थकान की स्थिति में व्यक्ति की कार्य क्षमता घट जाती है और कार्य की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। थकान शारीरिक या मानसिक हो सकती है।

बालक द्वारा लंबे समय तक कार्य करते रहने के बाद उसकी अधिगम की गति धीमी हो जाती है और कार्य के प्रति अरुचि उत्पन्न हो जाती है। अतः बालक को बीच में विश्राम देने से वह पुनः सक्रिय हो जाता है।

कार्य की विपरीत भौतिक परिस्थितियां, जैसे-बैठने की उपयुक्त व्यवस्था ना होना, शोर, विद्यार्थियों की बहुत अधिक संख्या, कम रोशनी, अपर्याप्त हवा, आदि अधिगम की गति को कम कर देते हैं, क्योंकि ऐसी परिस्थिति में थकान भी जल्दी होती है।

अतः कक्षा के मनोवैज्ञानिक पर्यावरण के साथ-साथ भौतिक पर्यावरण भी अधिगम को प्रभावित करता है।

(8) अधिगम हेतु प्रयुक्त विधियां (Teaching Method)

अधिगम की विधियां भी सीखने को प्रभावित करती हैं। जिन विधियो में बालकों को पढ़ने से पूर्व तत्पर किया जाता है, अधिगम प्रक्रिया के दौरान विभिन्न क्रियाएं करवाई जाती हैं, बालक स्वयं के अनुभव द्वारा सक्रिय रहकर ज्ञान अर्जित करता है, उन विधियों द्वारा अधिगम शीघ्रता से व स्थाई होता है।

अतः अध्यापक को शिक्षण में ऐसी विधियों का प्रयोग करना चाहिए जिनमें अध्यापक की सक्रियता कम और विद्यार्थी की सक्रियता अधिकतम हो और विद्यार्थी को स्वयं कार्य करने का अवसर मिले।

अतः कहां जा सकता है कि अधिगम को प्रभावी बनाने में योगदान देने वाले अनेक कारक अथवा दशाएं सामूहिक रूप से सहयोगी हो सकते हैं। विद्यालय की संपूर्ण परिस्थिति बालक के अधिगम को प्रभावित करती है।

रायबर्न के शब्दों में कहा जा सकता है, “विद्यालय कि वह संपूर्ण परिस्थिति जिसमें बालक स्वयं को पता है, जीवन से जितनी अधिक संबद्ध होगी उसका अधिगम उसी मात्रा में फलदायक और स्थाई होगा।”

(9) शिक्षण के तरीके

कक्षा कक्ष में यदि शिक्षक अपने परंपरागत तरीके से शिक्षण करवाएंगे तो बच्चे सीख नहीं पाएंगे। अतः अधिगम प्रभावित होगा। शिक्षक को यह ध्यान में रखना चाहिए कि बच्चे किस तरीके से अच्छा सीखते हैं।

इग्नासियो एस्ट्राडा के अनुसार, “यदि कुछ बच्चे हमारे सीखाने के तरीके से नहीं सीख सकते हैं तो शायद हमें उनके सीखने के तरीके से सिखाना चाहिए।”

अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक

अधिगम को प्रभावित करने वाला व्यक्तिगत कारक है

शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले व्यक्तिगत कारकों में संवेदना और प्रत्यक्षीकरण, थकान और ऊबना, परिपक्वता, संवेगात्मक दशाएं, आवश्यकताएं, रुचियां, अभिप्रेरणा, अवधान, बुद्धि , अभियोग्यता, अभिवृत्ति आदि मुख्य हैं।

बाल-केंद्रित और प्रगतिशील शिक्षा Child-centered and progressive education

Jean-Jacques Rousseau को प्रारंभिक बचपन शिक्षा के जनक के रूप में जाना जाता है। उनके शैक्षिक परिप्रेक्ष्य के कारण, प्रारंभिक बचपन शिक्षा बाल-केंद्रित दृष्टिकोण के साथ उभरी। सभी बच्चों को शिक्षा का अधिकार है जो उन्हें पूर्णत: बढ़ने और विकसित होने में मदद करता है, यह एक मूल तथ्य है जो बाल केंद्रित शिक्षा की अवधारणा के मूल भाग में कार्य करता है। यह सच है कि बच्चे अपने स्वयं की शिक्षा और विकास में सक्रिय प्रतिभागी होते हैं। इसका अर्थ है कि उन्हें मानसिक रूप से शामिल होना चाहिए तथा अधिगम में शारीरिक रूप से सक्रिय होना चाहिए जो उन्हें जानने और करने की आवश्यकता है। सभी महान शिक्षक बच्चों की मूल भलाई में विश्वास करते हैं; शिक्षक स्‍वयं को प्रकट करने के लिए इस भलाई हेतु वातावरण प्रदान करना है। बाल-केंद्रित शिक्षा का मूल सिद्धांत एक बच्‍चे के व्यक्तित्व और दक्षताओं के इष्टतम विकास को उनकी व्यक्तिगत जरूरतों और आवश्यकताओं का साथ-साथ सक्षम बनाना है।

छात्र केंद्रित शिक्षण,शिक्षक से छात्र तक परिवर्तित कर केन्द्रित कर देता है। यह छात्रों के हिस्से में सक्रिय भागीदारी को प्रोत्साहित करता है और यह आवश्यक है कि वे अपनी स्‍वयं की सोच की जाँच करें।

कक्षाओं में बाल-केंद्रित शिक्षा को शामिल करने के कई तरीके हो सकते हैं:

  1. खुले प्रश्‍न (ओपन-एंडेड प्रश्न) तकनीक का उपयोग करें, यह अभ्यास महत्वपूर्ण और रचनात्मक सोच को प्रोत्साहित करता है और समस्या निवारण कौशल को बढ़ाता है।
  2. निर्देशों के प्रत्यक्ष और आकर्षक तरीकों में बहुत अधिक व्यस्त रहें जो छात्रों को पाठों की गहराई में खींचती है। इस तरह छात्र क्या चल रहा है में सक्रिय प्रतिभागी बन जाते हैं।
  3. छात्रों के सहयोग और समूह परियोजनाओं को प्रोत्साहित करें, जब छात्र एक-दूसरे के साथ काम करते हैं तो वे केवल पाठ सामग्री पढ़ने से अधिक एक बड़ा सबक सीखते हैं। वे अपने विचारों को रखने और दूसरों को भी सुनने हेतु दोनों तरीकों से काम करने में सक्षम होते हैं।
  4. व्यक्तिगत मतभेदों के आधार पर असाइनमेंट बनाएं, सभी छात्र एक ही गति और असाइनमेंट पर काम नहीं करते हैं और कक्षा गतिविधियों को इसे प्रतिबिंबित करना चाहिए। विद्यार्थियों को उनकी अधिगम शैली के अनुसार फिट बैठने वाली दर से सामग्री के माध्यम से स्थानांतरित करने की अनुमति मिलती है जिससे वे अवधारणाओं की गहरी समझ प्राप्त करेंगे।

बाल-केंद्रित कक्षा की विशेषताएं:

  1. एक गहरे अधिगम और समझ पर बल देना।
  2. छात्रों के हिस्से में जिम्मेदारी और उत्तरदायित्व को बढ़ाना।
  3. शिक्षार्थियों में स्वायत्तता की भावना में वृद्धि।
  4. शिक्षक और शिक्षार्थी के बीच एक परस्पर-निर्भरता।
  5. शिक्षक और शिक्षार्थी के हिस्से में शिक्षण और सीखने की प्रक्रिया के लिए एक प्रतिबिंबित दृष्टिकोण।

प्रगतिशील शिक्षा :

‘प्रगतिशील शिक्षा’ शब्द को विचारों और प्रथाओं के रूप में वर्णित किया गया है जिसका उद्देश्य स्कूलों को ओर अधिक प्रभावी संगठन बनाना है। 1919 में प्रगतिशील शिक्षा एसोसिएशन की स्थापना, ‘अमेरिका की समग्र स्कूल प्रणाली में सुधार’ के उद्देश्य से की गई थी। यह शिक्षण की पारंपरिक शैली के खिलाफ एक प्रतिक्रिया है। यह एक शैक्षणिक प्रणाली है जो व्यक्तिगत बच्चों की जरूरतों और क्षमताओं द्वारा निर्धारित गतिविधियों के आधार पर सीखने की प्रक्रियाओं में लचीलापन की अनुमति देती है, इसका उद्देश्य सामाजिक विकास के साथ अकादमिक को एकीकृत करना है। प्रगतिशील शिक्षा के तत्वों को ‘बाल-केंद्रित’ और ‘सामाजिक पुनर्निर्माण’ दृष्टिकोण कहा गया है।

प्रगतिशील शिक्षा का कार्य :

  1. पाठ्यचर्या उनसे काफी प्रभावित है जिसमें बच्चे रुचि रखते हैं, और बाल-केंद्रित है।
  2. अधिगम प्रयोगात्मक होता है और उत्पाद की बजाय प्रक्रिया पर बल दिया जाता है।
  3. आकलन प्रामाणिक और समग्र होता है। बच्चों को उनके शिक्षकों द्वारा अच्छी तरह से जाना जाता है।
  4. बच्चे अपनी स्‍वयं की गति से कार्य करने में सक्षम होते हैं।
  5. प्रगतिशील शिक्षा एक विकासात्मक दृष्टिकोण का अभ्यास करती है जिसमें यह माना जाता है कि प्रत्येक बच्चा अद्वितीय है।

बाल केंद्रित और प्रगतिशील शिक्षा से संबंधित प्रश्न:

1.बाल-केंद्रित शिक्षा की वकालत निम्न में से किस विचारक द्वारा की गई थी?

  1. बी.एफ. स्किनर
  2. जॉन डूई
  3. एरिक एरिक्‍सन
  4. चार्ल्‍स डार्विन

Ans. B

2. निम्न में से कौन सी प्रगतिशील शिक्षा की विशेषता है?

  1. निर्देश पूर्णत: नियत पाठ्यपुस्तकों पर आधारित हैं।
  2. अच्छे अंक स्कोर करने पर बल देना।
  3. अक्सर टेस्‍ट और परीक्षाएं।
  4. लचीली समय सारणी और बैठक व्यवस्था।

Ans. D

3.बाल-केंद्रित शिक्षा में शामिल हैं:

  1. बच्चों के लिए प्रायोगिक गतिविधियां।
  2. एक कोने में बैठे बच्चे।
  3. प्रतिबंधित वातावरण में अधिगम।
  4. ऐसी गतिविधियां जिनमें खेल शामिल नहीं है।

Ans. A

4.अधिगम केंद्रित दृष्टिकोण का अर्थ है:

  1. पारंपरिक वर्णनात्‍मक विधि।
  2. विधियों का उपयोग जिसमें शिक्षक मुख्य कलाकार हैं।
  3. ऐसे तरीके जहां शिक्षार्थियों की अपनी पहल और प्रयास अधिगम में शामिल हैं।
  4. शिक्षक शिक्षार्थियों के लिए निष्कर्ष निकालते हैं।

उत्‍तर. C

अभिप्रेणा एवं अधिगम। Motivation and Learning

❍ अभिप्रेरणा :- अभिप्रेरणा का शाब्दिक अर्थ है – किसी कार्य को करने की इच्छा शक्ति का होना।

अभिप्रेरणा लैटिन भाषा के Motum / Movers
अर्थ :- To Move गति प्रदान करना।
Motive Need आवश्यकता

○ अभिप्रेरणा वे सभी कारक है जो प्राणी के शरीर को कार्य करने के लिए गति प्रदान करता है।

○ अभिप्रेणा ध्यान आकर्षण प्रलोभन या लालच की कला है जो व्यक्ति को कार्य करने के लिए तैयार करती है।

○ अभिप्रेरणा अंग्रेजी शब्द Motivation (मोटिवेशन) का हिंदी पर्याय है। जिसका अर्थ प्रोत्साहन होता है। Motivation लैटिन भाषा के Motum (मोटम) शब्द से बना है। जिसका अर्थ है Motion (गति)। अतः कार्य को गति प्रदान करना ही अभिप्रेरणा है। यही अभिप्रेरणा का अर्थ है।

○ गुड के अनुसार :-“प्रेरणा कार्य को आरम्भ करने, जारी रखने और नियमित करने की प्रक्रिया है।”

○ स्किनर के अनुसार :– अभिप्रेरणा अधिगम का सर्वोच्च राजमार्ग या स्वर्णप्रथ है।

○ सोरेन्सन के अनुसार :- अभिप्रेरणा को अधिगम का आधार कहा है।

○ मेकडूगल के अनुसार :- अभिप्रेरणा को व्याख्या जन्मजात मूल प्रवृतियों के आधार पर की जा सकती है।

❍ अभिप्रेरणा के प्रकार:-अभिप्रेरणा के दो प्रकार होते हैं।

1. आंतरिक अभिप्रेरणा ( internal motivation) वे आंतरिक शक्तियां , जो व्यक्ति के व्यवहार को उतेजित करती हैं , आंतरिक अभिप्रेरणा कहलाती हैं। भूख , प्यास , नींद , प्यार , तथा इसी का उदाहरण है।

2.बाह्य अभिप्रेरणा :- पहले से निर्धारित कोई ऐसा उद्देश्य जिसे करना व्यक्ति का उद्देश्य हो , बाह्य अभिप्रेरणा कहलाती है। रुचि , इच्छा , आत्मसम्मान , सामाजिक प्रतिष्ठा एवं विशेष , उपलब्धि , सत्ताप्रेरक तथा पुरस्कार इसके प्रमुख उदाहरण हैं।

❍ अभिप्रेरणा की विशेषताएँ :-

• अभिप्रेरणा गतिशीलता / क्रियाशीलता की प्रतीक होती है।

• अभिप्रेरणा किसी भी कार्य को पूरा करने का स्रोत है।

• अभिप्रेरणा व्यक्ति के व्यवहार को उतेजित करती है।

• अभिप्रेरणा किसी कार्य को करने के लिए ऊर्जा प्रदान करती है।

❍ अभिप्रेरणा के तत्व :-

• सकारात्मक प्रेरणा :- इस प्रेरणा में बालक किसी कार्य को स्वंय की इच्छा से करता है।

• नकारात्मक प्रेरणा :- इस प्रेरणा में बालक किसी कार्य को स्वंय की इच्छा से न करके , किसी दूसरे की इच्छा या बाह्य प्रभाव के कारण करता है।

❍ अभिप्रेरणा चक्र :- मनोवैज्ञानिको ने अभिप्रेरणा की प्रक्रिया को स्पष्ट करने के लिए अभिप्रेरणा चक्र का प्रतिपादन किया।

• आवश्यकता – अति आवश्यकता

• चालक – आवश्यकता उत्पन्न

• प्रोत्साहन – अपनी तरफ आकर्षित

❍ अभिप्रेरणा :- Motive = Need + Drive + Incentive
 आवश्यकता            चालक          प्रोस्ताहन
1. पानी की कमी        प्यास             पानी
2. भोजन की कमी      भूख             भोजन
3. नींद की कमी         नींद               सोना

❍ अभिप्रेरणा के सिद्धांत (Principles of Motivation)
अभिप्रेरणा के कुछ प्रमुख सिद्धांत इस प्रकार है। –

1- मूल प्रवृति का सिद्धांत :-इस सिद्धान्त के अनुसार मूल प्रवृत्तियाँ अभिप्रेरणा में सहायता करती हैं। अर्थात मनुष्य या बालक अपने व्यवहार का नियंत्रण और निर्देशन मूल प्रवृत्तियों के माध्यम से करता है।

2- प्रणोद का सिद्धांत :-इसे सिद्धांत के अनुसार, मनुष्य को जो बाहरी अभिप्रेरणा मिलती है अर्थात बाह्य उद्दीपक से जो अभिप्रेरणा मिलती है वो प्रणोद का कारण है। अर्थात अभिप्रेरणा से प्रणोद की स्थिति पाई जाती है जो शारीरिक अवस्था या बाह्य उद्दीपक से उतपन्न होती है।

3- विरोधी प्रक्रिया सिद्धान्त :-इसे सिद्धांत का प्रतिपादन सोलोमन और कौरविट ने किया था। यह एकदम सिंपल सा सिद्धांत है। इसको मोटा मोटा समझे तो हमें वही चीज़ ज़्यादा प्रेरित करती है जो हमे सुख देती है। और दुख देने वाली चीज़ो से हम दूर रहते हैं।

4- मरे का अभिप्रेरणा सिद्धान्त :-मरे ने इस सिद्धांत में अभिप्रेरणा को आवश्यकता कहा है। अर्थात मरे इस सिद्धांत को आवश्यकता के रूप में बताते हुए कहते हैं कि प्रत्येक आवश्यकता के साथ एक विशेष प्रकार संवेग जुड़ा होता है। मरे का अभिप्रेरणा का यह सिद्धांत बहुत सराहा गया। छात्र इसका अध्ययन और यहां तक कि इस पर रिसर्च भी करते हैं।

❍ अभिप्रेरणा के सिद्धांत
 अभिप्रेरणा के सिद्धांत                             प्रतिपादक
 मूल प्रवृत्ति का सिद्धांत                             मैकडूगल,बर्ट,जेम्स
शरीर क्रिया सिद्धान्त                                 मॉर्गन
मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांत                        फ्रायड
अंतर्नोद सिद्धान्त                                    सी०एल०हल
मांग का सिद्धान्त /पदानुक्रमित सिद्धान्त        मैस्लो
आवश्कयता सिद्धान्त                               हेनरी मरे
अभिप्रेरणा स्वास्थ्य सिद्धान्त                    फ्रेड्रिक हर्जवर्ग
सक्रिय सिद्धान्त                                मेम्लो,लिंडस्ले,सोलेसबरी
प्रोत्साहन सिद्धान्त                              बोल्स और कॉफमैन
चालक सिद्धान्त                                    आर०एस० वुडवर्थ

1) मनोविश्लेषणवाद का सिद्धांत (Theory of psychoanalysis)प्रतिपादक- सिगमंड फ्रायड है। इनके अनुसार “व्यक्ति के अचेतन मन की दमित इच्छाएं उसे कार्य करने के लिए प्रेरित करती है।”

(2) मूल प्रवृत्तियों का सिद्धांत (Theory of basic trends)प्रतिपादक – मैक्डूगल इनके अनुसार व्यक्ति में 14 मूल प्रवृत्तियां पाई जाती है, और यही मूल प्रवृत्तियां ही व्यक्ति को कार्य करने के लिए प्रेरित करती हैं।क्योंकि व्यक्ति अगर अपनी मूल प्रवृत्तियों को पूरा नहीं करता है तो उसका जीवित रहना संभव नहीं है। और इन से संबंधित 14 संवेग भी है जो मूल प्रवृत्तियों से संबंध रखते हैं। व्यक्ति संवेगो को की पूर्ति के लिए अभिप्रेरित होकर अपनी मूल प्रवृत्तियों केअनुसार कार्य करता है।

3) आवश्यकता का सिद्धांत (Principle of necessity)प्रतिपादक – अब्राहम मास्लों इस सिद्धांत के बारे में अब्राहम मस्लो ने कहा है कि ” प्रत्येक व्यक्ति आवश्यकता की पूर्ति हेतु अभिप्रेरित होता है।” मास्लों का मानना है कि आवश्यकता वह तत्व है जो व्यक्ति को कार्य करने के लिए प्रेरित करता है। क्योंकि व्यक्ति अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए कार्य करना चाहता है।

अब्राहम मस्लो ने पांच प्रकार की आवश्यकताओं के बारे में बताया है।
1. शारीरिक आवश्यकता
2. सुरक्षा की आवश्यकता
3. स्नेह\ संबंधता की आवश्यकता
4. सम्मान पाने की आवश्यकता
5. आत्मसिद्धि की आवश्यकता

(4) उपलब्धि का सिद्धांत (Achievement principle)प्रतिपादक – मैक्किलैंड
इनके अनुसार “उपलब्धियों की प्राप्ति हेतु व्यक्ति अभी प्रेरित होता है।” इनका मानना है कि व्यक्ति के द्वारा निर्धारित की गई सामान्य या विशिष्ट उपलब्धियां ही व्यक्ति को कार्य करने के लिए प्रेरित करती रहती है, और अंततः विशिष्ट उपलब्धियों को ही प्राप्त करना चाहता है।

(5) उद्दीपन – अनुक्रिया का सिद्धांत (Stimulus – theory of response)प्रतिपादक – स्किनर तथा थार्नडाइक है।
उन्होंने बताया कि ‘उद्दीपक’ व्यक्ति को कार्य करने के लिए प्रेरित करता है। और व्यक्ति जब तक अनुप्रिया करता है। तब तक वह उद्दीपक प्राप्त नहीं कर लेता। इसीलिए हम कह सकते हैं कि व्यक्ति उद्दीपक के माध्यम से प्रेरित होता हैं।

(6) प्रोत्साहन का सिद्धांत (Principle of encouragement)प्रतिपादक – बॉल्फ एवं फाकमैन

इन्होंने प्रोत्साहन के दो प्रकार के रूप बताएं हैं।

स्वयं कार्य हेतु प्रेरित होना। – सकारात्मक अभिप्रेरणा
किसी अन्य द्वारा कार्य हेतु प्रेरित होना। – नकारात्मक अभिप्रेरणा

(7) क्षेत्रीय सिद्धांत (Regional theory)प्रतिपादक- कुर्ट लेविन
इनका सिद्धांत स्थान विज्ञान के आधार पर कार्य करता है। लेविन के अनुसार – स्थान या वातावरण के अनुसार व्यक्ति प्रेरित होकर कार्य करता है। अगर वह कार्य नहीं करेगा तो समायोजन नहीं कर सकता है। लेविन ने अभिप्रेरणा को ‘वातावरण’ तथा ‘ समायोजन’ दोनों से संबंधित माना है।

(8) प्रणोद का सिद्धांत (Theory of thrust)प्रतिपादक – सी.एल हल
उनके द्वारा इस सिद्धांत के बारे में कहा गया कि “व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति होने वाले कार्य कठिन ही क्यों ना हो व्यक्ति द्वारा सीख लिए जाते हैं।”

सी.एल हल के अनुसार चालक वह तत्व है, जो व्यक्ति को कार्य करने के लिए बाध्य करता है। जैसे भूख ( चालक) की पूर्ति हेतु कोई व्यक्ति कुछ भी कर सकता है। चाहे काम कितना भी कठिन क्यों ना हो? वह अपनी भूख मिटाने के लिए भोजन का जुगाड़ करेगा कैसे भी हो? इसलिए हम कह सकते हैं, प्रणोद\ चालक अभी प्रेरित करता है।

(9) स्वास्थ्य का सिद्धांत (Principle of health)प्रतिपादक – हर्जवर्ग
इनके अनुसार यदि बालक शारीरिक तथा मानसिक रूप से स्वस्थ है तो बालक रुचि के साथ कार्य करता है। परंतु अगर वह अस्वस्थ हो तो वह कार्य करने में रुचि नहीं लेगा।

(10) शारीरिक गति\ परिवर्तन सिद्धांत (Physical movement theory)प्रतिपादक- विलियम जेम्स, शेल्डर, रदरफोर्ड
इनके अनुसार- समय, परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुसार बालक की शरीर में जो शारीरिक परिवर्तन होते हैं। वह परिवर्तन ही बालक को कार्य करने के लिए प्रेरित करते हैं।

 ❍ अभिप्रेरणा के मूल प्रवृत्ति के सिद्धांत का प्रतिपादन मैक्डूगल (1908) ने किया था। इस नियम के अनुसार,” मनुष्य का व्यवहार उसकी मूल प्रवृत्तियों पर आधारित होता है इन मूल प्रवृत्तियों के पीछे छिपे संवेग किसी कार्य को करने के लिए प्रेरित करते हैं”

❍ अभिप्रेरणा की विशेषताएं / प्रकृति

1 अभिप्रेरणा व्यक्त की आंतरिक अवस्था है ।

2 हमें प्रेरणा आवश्यकता से प्रारंभ होती है ।

3 अभिप्रेरणा एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है ।

4 अभिप्रेरणा एक ध्यान केंद्रित व ज्ञानात्मक प्रक्रिया है ।

5 अभिप्रेरणा की गति प्रत्येक व्यक्ति में अलग-अलग होती है ।

6 अभिप्रेरणा लक्ष्य प्राप्ति तक चलने वाली प्रक्रिया है ।

7 अभिप्रेरणा लक्ष्य को प्राप्त करने का साधन है ।

❍थॉमसन द्वारा किया गया वर्गीकरण:
क) प्राकृतिक अभिप्रेरक (Natural motives)
ख) कृत्रिम अभिप्रेरक (Artificial motives)

क) प्राकृतिक अभिप्रेरक (Natural motives) :-
प्राकृतिक अभिप्रेरक किसी भी व्यक्ति में जन्म से ही पाया जाता है जैसे:- भूख प्यास सुरक्षा आदि अभिप्रेरक मानव जीवन का विकास करता है।

ख) कृत्रिम अभिप्रेरक (Artificial motives) :-
इस प्रकार के अभी प्रेरक वातावरण में से विकसित होते हैं और इसका आधार भी प्राकृतिक अभिप्रेरक होते हैं परंतु सामाजिकता के आवरण में इनके अभिव्यक्ति कारण स्वरूप बदल जाता है जैसे समाज में मान प्रतिष्ठा प्राप्त करना, सामाजिक संबंध बनाना आदि।

❍ मैस्लो द्वारा किया गया वर्गीकरण:-
मैस्लो ने भी अभिप्रेरक को दो भागों में बांटा है:-

क) जन्मजात अभिप्रेरक(Inborn motives) :मैस्लो ने जन्मजात अभिप्रेरक के संबंध में कहा मानव का भूख, नींद, प्यास, सुरक्षा, प्रजनन आदि जन्मजात अभिप्रेरक हैं।

ख) अर्जित (Acquired) :अर्जित अभिप्रेरणा से तात्पर्य मानव वातावरण से जो कुछ भी प्राप्त करता है वह इसके अंतर्गत आते हैं मैस्लो अर्जित (Acquired) अभिप्रेरक को दो भागों में बांटा है

i. सामाजिक:- सामाजिक अभिप्रेरकों के अंतर्गत सामाजिकता , युयुत्सु और आत्मस्थापना आदि आता है।

ii. व्यक्तिगत:- व्यक्तिगत अभिप्रेरकों में आदत रूचि अभिवृत्ति तथा अचेतन अभी प्रेरक आते हैं।

○अभिप्रेरणा शब्द ‘मकसद‘ शब्द से आया है जिसका अर्थ है किसी व्यक्ति के भीतर की ज़रूरतें या ड्राइव।

○ प्रेरणा वह प्रक्रिया है जिसमें किसी व्यक्ति को कुछ करने के लिए मानसिक रूप से प्रोत्साहित किया जाता है।
 अभिप्रेरणा के प्रकार -अभिप्रेरणा के निम्नलिखित दो प्रकार हैं—

(अ) प्राकृतिक अभिप्रेरणाएँ (Natural Motivation)- प्राकृतिक अभिप्रेरणाएँ निम्नलिखित प्रकार की होती हैं-

(1) मनोदैहिक प्रेरणाएँ- यह प्रेरणाएँ मनुष्य के शरीर और मस्तिष्क से सम्बन्धित हैं। इस प्रकार की प्रेरणाएँ मनुष्य के जीवित रहने के लिये आवश्यक है, जैसे -खाना, पीना, काम, चेतना, आदत एवं भाव एवं संवेगात्मक प्रेरणा आदि।

(2) सामाजिक प्रेरणाएँ-मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह जिस समाज में रहता है, वही समाज व्यक्ति के व्यवहार को निर्धारित करता है। सामाजिक प्रेरणाएँ समाज के वातावरण में ही सीखी जाती है, जैसे -स्नेह, प्रेम, सम्मान, ज्ञान, पद, नेतृत्व आदि। सामाजिक आवश्यकता की पूर्ति हेतु ये प्रेरणाएँ होती हैं।

(3) व्यक्तिगत प्रेरणाएँ-प्रत्येक व्यक्ति अपने साथ विशेष शक्तियों को लेकर जन्म लेता है। ये विशेषताएँ उनको माता-पिता के पूर्वजों से हस्तान्तरित की गयी होती है। इसी के साथ ही पर्यावरण की विशेषताएँ छात्रों के विकास पर अपना प्रभाव छोड़ती है। पर्यावरण बालकों की शारीरिक बनावट को सुडौल और सामान्य बनाने में सहायता देता है। व्यक्तिगत विभिन्नताओं के आधार पर ही व्यक्तिगत प्रेरणाएँ भिन्न-भिन्न होती है। इसके अन्तर्गत रुचियां, दृष्टिकोण, स्वधर्म तथा नैतिक मूल्य आदि हैं।

(ब) कृत्रिम प्रेरणा (Artificial Motivation)- कृत्रिम प्रेरणाएँ निम्नलिखित रुपों में पायी जाती है-

(1) दण्ड एवं पुरस्कार-विद्यालय के कार्यों में विद्यार्थियों को प्रेरित करने के लिये इसका विशेष महत्व है।

दण्ड एक सकारात्मक प्रेरणा होती है। इससे विद्यार्थियों का हित होता है।
पुरस्कार एक स्वीकारात्मक प्रेरणा है। यह भौतिक, सामाजिक और नैतिक भी हो सकता है। यह बालकों को बहुत प्रिय होता है, अतः शिक्षकों को सदैव इसका प्रयोग करना चाहिए।

(2) सहयोग-यह तीव्र अभिप्रेरक है। अतः इसी के माध्यम से शिक्षा देनी चाहिए। प्रयोजना विधि का प्रयोग विद्यार्थियों में सहयोग की भावना जागृत करता है।

(3) लक्ष्य, आदर्श और सोद्देश्य प्रयत्न-प्रत्येक कार्य में अभिप्रेरणा उत्पन्न करने के लिए उसका लक्ष्य निर्धारित होना चाहिए। यह स्पष्ट, आकर्षक, सजीव, विस्तृत एवं आदर्श होना चाहिये।

(4) अभिप्रेरणा में परिपक्वता-विद्यार्थियों में प्रेरणा उत्पन्न करने के लिये आवश्यक है कि उनकी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखा जाए, जिससे कि वे शिक्षा ग्रहण कर सके।

(5) अभिप्रेरणा और फल का ज्ञान-अभिप्रेरणा को अधिकाधिक तीव्र बनाने के लिए आवश्यक है कि समय -समय पर विद्यार्थियों को उनके द्वारा किये गये कार्य में हुई प्रगति से अवगत कराया जायें जिससे वह अधिक उत्साह से कार्य कर सकें।
 शिक्षा में अभिप्रेरणा का महत्व बालकों के सीखने की प्रक्रिया अभिप्रेरणा द्वारा ही आगे बढ़ती है। प्रेरणा द्वारा ही बालकों में शिक्षा के कार्य में रुचि उत्पन्न की जा सकती है और वह संघर्षशील बनता है।

❍ शिक्षा के क्षेत्र में अभिप्रेरणा का महत्व निम्नलिखित प्रकार से दर्शाया जाता है-

(1) सीखना – सीखने का प्रमुख आधार ‘प्रेरणा‘ है। सीखने की क्रिया में ‘परिणाम का नियम‘ एक प्रेरक का कार्य करता है। जिस कार्य को करने से सुख मिलता है। उसे वह पुनः करता है एवं दुःख होने पर छोड़ देता है। यही परिणाम का नियम है। अतः माता-पिता व अन्य के द्वारा बालक की प्रशंसा करना, प्रेरणा का संचार करता है। (2) लक्ष्य की प्राप्ति– प्रत्येक विद्यालय का एक लक्ष्य होता है। इस लक्ष्य की प्राप्ति में प्रेरणा की मुख्य भूमिका होती है। ये सभी लक्ष्य प्राकृतिक प्रेरकों के द्वारा प्राप्त होते है।

(3) चरित्र निर्माण– चरित्र-निर्माण शिक्षा का श्रेष्ठ गुण है। इससे नैतिकता का संचार होता है। अच्छे विचार व संस्कार जन्म लेते हैं और उनका निर्माण होता है। अच्छे संस्कार निर्माण में प्रेरणा का प्रमुख स्थान है।

(4) अवधान – सफल अध्यापक के लिये यह आवश्यक है कि छात्रों का अवधान पाठ की ओर बना रहे। यह प्रेरणा पर ही निर्भर करता है। प्रेरणा के अभाव में पाठ की ओर अवधान नहीं रह पाता है।

(5) अध्यापन – विधियाँ शिक्षण में परिस्थिति के अनुरूप अनेक शिक्षण विधियों का प्रयोग करना पड़ता है। इसी प्रकार प्रयोग की जाने वाली शिक्षण विधि में भी प्रेरणा का प्रमुख स्थान होता है।

(6) पाठ्यक्रम– बालकों के पाठ्यक्रम निर्माण में भी प्रेरणा का प्रमुख स्थान होता है। अतः पाठ्यक्रम में ऐसे विषयों को स्थान देना चाहिए जो उसमें प्रेरणा एवं रुचि उत्पन्न कर सकें तभी सीखने का वातावरण बन पायेगा।

(7) अनुशासन –यदि उचित प्रेरकों का प्रयोग विद्यालय में किया जाय तो अनुशासन की समस्या पर्याप्त सीमा तक हल हो सकती है।

○ प्रेरणा देने वाले घटक
❍ अधिगम :- किसी कार्य को सोच विचार कर करना तथा एक निश्चित परिणाम तक पहुँचना ही अधिगम है।

क्रो एवं क्रो के अनुसार :- ज्ञान एवं अभिवृत्ति की प्राप्ति ही सीखना है।

गिलफोर्ड के अनुसार :- सीखना व्यवहार के फलस्वरूप व्यहवार में कोई परिवर्तन है।

स्किनर के अनुसार :- व्यहवार के अर्जन में उन्नति की प्रक्रिया को सीखना कहते हैं।

○ अधिगम निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है तथा सीखना विकास की प्रक्रिया का माध्यम है।

• सीखना उद्देश्यपूर्ण है।

• सीखना खोज करना है।

• सीखना सार्वभौमिक है।

• सीखना एक परिवर्तन है।

• सीखना नवीन कार्य करना है।

❍ अधिगम में अभिप्रेरणा :-

• अभिप्रेरणा छात्रों में उत्सुकता या जिज्ञासा उत्पन्न करती है।

• यह छात्रों की सीखने की अभिरुचि को बढ़ाता है।

• यह छात्रों में नैतिक , सांस्कृतिक , चारित्रिक तथा सामाजिक मूल्यों को बढ़ाता है।
 

❍ अधिगम में योगदान देने वाले कारक :-

○ व्यक्तिगत कारक :-

• बुद्धि
• ध्यान
• योग्यता
• अनुशासन
• पाठ्यक्रम की व्यवस्था
• शारीरिक व मानसिक दशाएँ

○ पर्यावरणीय कारक :-

• वंशानुक्रम
• समूह अध्ययन
• कक्षा का परिवेश
• पर्यावरण का प्रभाव
• अभ्यास एवं परिणाम पर बल
• सामाजिक व सांस्कृतिक वातावरण

आकलन और मूल्‍यांकन (assessment and evaluation) क्‍या है , परिभाषा , प्रकार , आवश्‍यकता , विशेषताऍ , क्षेत्र एवं अंतर

आकलन 

 आकलन का अर्थ – सूचनाओ को एकत्रित करना ।
यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें छात्रो को बिना अंक अथवा ग्रेडिंग के फीडबैक दिया जाता है ताकि शैक्षिक उद्देश्‍यो की प्राप्ति में अंतिम मूल्‍यांकन (वार्षिक परीक्षा ) के पूर्व सुधार संभव हो सके ।

आकलन की महत्‍व / आवश्‍यकत

अध्‍यापन के पश्‍चात छात्रो की अधिगम क्षमता , रूचि, व्‍यक्तित्‍व आदि के बारे में जानकारी प्राप्‍त करने की तथा उनके अनुरूप पाठ्यक्रम निर्माण आदि के लिए आकलन की आवश्‍यकता पडती है 

  1.  विघार्थी के सन्‍दर्भ में आकलन की आवश्‍यकता –
    1. छात्र क्‍या जानते है ।
    2. छात्रो की रूचियॉ कौन कौन सी है ।
    3. छात्रो की विशिष्‍ट आवश्‍यकताऍ क्‍या है ।
    4. छात्रो की योग्‍यता के अनुरूप पाठ्यक्रम चयन में
    5. कक्षा में छात्रो का उचित स्‍थान वर्गीकरण में ।
  2. अध्‍यापक हेतु –
    1. छात्रो के कौशल, योग्‍यता तथा अधिगम क्षमता को पहचाने के लिए
    2. शिक्षण  विधि का चयन करने के लिए
    3. विघार्थियो की वैयक्तिक आवश्‍यकताओ को जानने के लिए
    4. शिक्षण सामग्री के विकास के लिए
  3. पाठ्यसहगामी क्रियाओ हेतु –
    1. छात्रो की रूचि के अनुसार पाठ्यसहगामी क्रियाओ का वर्गीकरण करने के लिए ।
    2. कौन सा छात्र किस कार्यक्रम में अधिक उपयुक्‍त है ज्ञात कर रणनीति निर्माण के लिए 
    3. विघार्थियो की सांस्‍कृतिक , कलात्‍मक, रचनात्‍मक योग्‍यता को पहचानने के लिए
  4. परिवार के लिए –
    1. अभिभावको को छात्र की प्रगति से अवगत कराने के लिए
    2. छात्रो की अधगिम क्षमता के बारे में जानकारी देने के लिए
    3. छात्र की समस्‍याओ से पालक को अवगत करने के लिए
    4. विघार्थियो गतिविधियो से सम्‍बधित जानकारी प्रदान करने के लिए । 

आकलन के प्रकार

आकलन के चार प्रकार होते है

  1. स्‍वयं आकलन – जब अपना आकलन बालक खुद या स्‍वयं के द्वारा करते है
  2. सहपाठी का सह-पाठी से आकलन – जब दो या दो से अधिक बच्‍च्‍े आपस मे एक दूसरे की कमियॉ या अच्‍छाइयॉ को बताते है 
  3. व्‍यक्तिगत आकलन – इस आकलन में अध्‍यापक के सामने एक ही बच्‍चा होता है उसी का आकलन किया जाता है
  4. समूह आकलन – इस आकलन में अध्‍यापक कुछ बच्‍चो को एक समूह बनाता है और उन्‍हे सामूहिक साझी जिम्‍मेदारी दे देता है 

आकलन के विशेषताऍ

  1. विश्‍वसनीयता 
  2. वैधता 
  3. मानवीकरण 
  4. व्‍यावहारिकता 
  5. उपयोगिता 

आकलन के क्षेत्र

  1. शैक्षिक उपलब्धियो का पता लगाने में
  2.  वैयक्तिक विभिन्‍नता ज्ञात करने में 
  3. स्‍थान निर्धारित करने में 
  4. गुणवत्ता का निर्धारण करने में 
  5. पूर्वानुमान लगाने मे 

आकलन के रूप  

            आकलन मुख्‍यत: तीन रूपो में मापा जाता है –

  1. स्‍वयं आकलन 
  2. सहपाठी / सहयोगी समूह 
  3. ट्यूटर आकलन 

अधिगम के लिए आकलन और अधिगम का आकलन में अंतर

अधिगम के लिए आकलन 

सीखने से पहले किया गया आकलन 

  1. बालको के शिक्षण में किसी प्रकार की समस्‍या होने से पहले उसे आकलित करके उसके अनुरूप अधिगम कराना ।
  2. यह आकलन निदानात्‍मक होता है ।
  3. अधिगम के लिए आकलन रचनात्‍मक भी होता है ।
  4. यह एक शिक्षण वर्ष में चार होते है
  5. अवलोकन , गृहकार्य , क्‍लास टेस्‍ट ,दत्त कार्य आदि से इस प्रकार का आकलन किया जाता है ।
  6. इसके द्वारा विघार्थियो का तुलनात्‍मक आकलन नही होता  बल्कि उनकी व्‍यक्तिगत कमियो ओर गुणो का आकलन होता है
  7. बालक की योग्‍यता का स्‍तर व रूचि की पहचान करना ।
  8. शिक्षार्थियो की क्षमताओ की पहचान करना
  9. बालक की आवश्‍यकता के अनुसार विषय वस्‍तु का चयन ।
  10. शिक्षार्थी के अधिगम हेतु उचित शिक्षण विधि का चन करना ।
  11. बालक को पूर्व ज्ञान से जोड़कर प्रत्‍यक्ष अनुभव द्वारा अधिगम कराना।
  12. निरन्‍तर अभ्‍यास ।

अधिगम का आकलन 

 सीखने के बाद किया गया सीखने का आकलन 

  1. पूरे शिक्षण सत्र का अंत में किया आकलन अधिगम का आकलन होता है ।
  2. इस प्रकार के आकलन का उद्देश्‍य अधिगम प्र‍गति और शैक्षिक उपलब्धि का आकलन होता है ।
  3. यह सकलनात्‍मक आकलन होता है जो सम्‍पूर्ण शिक्षण सत्र की समाप्ति के बाद किया जाता है ।
  4. यह आकलन शिक्षण सत्र में दो बार किया जाता है
  5. .इसका आकलन कोई भी कर सकता है । अर्थात इसमें साक्षर या निरक्षर का कोई भेद नही हेाता  है
  6. इसमे वार्षिक परीक्षा के माध्‍यम से छात्र द्वारा किये गए अधिगम का आकलन किया जाता है ।
  7. बालक द्वारा सीखे गये कार्यो में हुई कमियो को जानने हेतु मूल्‍यांकन
  8. शिक्षण अधिगम में हुयी त्रुटियो में सुधार हेतु
  9. विषय वस्‍तु में सुधार हेतु
  10. भविष्‍य हेतु नीति निर्माण – 

मूल्‍यांकन का अर्थ

 मूल्‍यांकन दो शब्‍दो से मिल कर बना है     = मूल्‍य + अंकन

अर्थ – ऑकना , निर्णय लेना या एक अनुभव के संबंध में निष्‍कर्ष निकालना आदि ।

 परिभाषा –

F    कोठारी आयोग –

मूल्‍यांकन एक सतत् प्रक्रिया है तथा शिक्षा की सम्‍पूर्ण प्रक्रिया का अभिन्‍न अंग है यह शिक्षा के उद्देश्‍यो से पूर्ण रूप से संबंधित है मूल्‍यांकन के द्वारा शैक्षिक उपलब्धि की ही जॉच नही की जाती बल्कि उसके सुधार में भी सहायता मिलती है ।

F    गुड्स  

मूल्‍यांकन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें सही ढ़ंग से किसी वस्‍तु का मापन किया जा सकता है । 

मूल्‍यांकन की विशेषताऍ 

  1. मूल्‍यांकन एक सतत् प्रक्रिया है
  2. मूल्‍यांकन निरन्‍तर चलने वाली प्रक्रिया है ।
  3. मूल्‍यांकन शिक्षण प्रक्रिया का अभिन्‍न अंग है ।
  4. मूल्‍यांकन का संबंध छात्र की स्थिति से न होकर छात्र के विकास से होता है ।
  5. मूल्‍यांकन एक सहयोगी कार्य है क्‍योकि इसमें छात्रो , शिक्षको , अभिभावको , सभी को सहयोग प्राप्‍त किया जाता है
  6. मूल्‍यांकन केवल विघार्थी की शैक्षिक उपलब्धि का ही मापन नही करता है अपितु उसकी शैक्षिक उपलब्धि में सुधार करता है
  7. मूल्‍यांकन का क्षेत्र अत्‍यन्‍त व्‍यापक है क्‍योकि इसमे विघार्थी के सभी पक्ष आ जाते है । नैतिक , मानसिक , शारीरिक , सामाजिक एवं संवेगात्‍मक आदि ।
  8. मूल्‍यांकन का संबंध शिक्ष्‍ज्ञा के उद्देश्‍यो से होता है यह शिक्षा के उद्देश्‍यो की प्राप्ति की सीमा का निर्धारण करने वाली प्रक्रिया है
  9. मूल्‍यांकन द्वारा विघार्थियो के वांछित व्‍यवहारगत परिवर्तनो के संबंध में साक्षियो का संकलन किया जाता है
  10. छात्रो की व्‍यक्तिगत भिन्‍न्‍ता एवं सामूहिक आवश्‍यकताओ को पूरा करता है ।

मूल्‍यांकन का महत्‍व

  1. मूल्‍यांकन द्वारा यह ज्ञात किया जाता है कि शिक्षण उद्देश्‍यो की प्राप्ति कहॉ तक हो सकी है
  2. मूल्‍यांकन द्वारा यह निश्चित किया जाता है कि किन विशिष्‍ट उद्देश्‍यो की प्राप्ति नही हो पायी है ताकि उपचारात्‍मक अनुदेशन दिया जाए।
  3. कक्षा में छात्रो का स्‍तरीकरण करने में भी मूल्‍याकंन महत्‍वपूर्ण प्रक्रिया मानी गयी है ।
  4. मूल्‍यांकन के आधार पर विघार्थियो की वैयक्तिगत भिन्‍नता को समझने में भी सहायता मिलती है ।
  5. मूल्‍यांकन पाठ्यक्रम के परिमार्जन एवं परिवर्तन में भी सहायक होता है ।
  6. मूल्‍यांकन शिक्षको एव छात्रो दोनो को ही पूनबर्लन तथा पृष्‍ठ पोषण देने का कार्य करता है ।
  7. छात्रो की व्‍यक्तिगत भिन्‍नता एवं सामूहिक आवश्‍यकताओ को पूरा करना ।
  8. अध्‍यापक की शिक्षण कुशलता तथा सफलता की जॉच करना
  9. मूल्‍यांकन माप के अनेक दोषो को दूर करने में सहायक है ।

वाइगोत्सकी (Vygotsky) का सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धांत, zone of Proximal Development in Hindi

लिव वाइगोत्सकी (1896-1934) एक रूसी मनोवैज्ञानिक थे। उन्होंने मनोविज्ञान के क्षेत्र में विकास मनोविज्ञान पर मुख्य कार्य किया। वाइगोत्सकी ने संज्ञानात्मक विकास के विशेष रूप से भाषा और चिंतन पर अधिक कार्य किया। वाइगोत्सकी के अनुसार भाषा समाज द्वारा दिया गया प्रमुख सांकेतिक उपकरण है जो कि बालक के विकास में विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। वाइगोत्सकी, “हमारे स्वयं का विकास दूसरों के द्वारा होता है।” वाइगोत्सकी के अनुसार संज्ञानात्मक विकास पर सामाजिक कारकों (परिवार, समाज, विद्यालय, मित्र मंडली परिवेश) व भाषा का प्रभाव पड़ता है। संस्कृति और भाषा विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसलिए इस सिद्धांत को सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धांत के नाम से भी जाना जाता है। इस सिद्धांत के अनुसार संज्ञानात्मक विकास ‘अंतर वैयक्तिक सामाजिक परिस्थिति’ (कुशल एवं विद्वान व्यक्तियों के साथ अंत:क्रिया) के माध्यम से होता है। वाइगोत्सकी के अनुसार बालक का विकास समाज के द्वारा अर्थात सामाजिक अंतः क्रिया के द्वारा बालक ज्ञान अर्जन करता है। बालक व्यस्कों तथा समव्यस्कों के साथ परस्पर अंत: क्रिया से सिखता है।
बालक के सामाजिक अंतः क्रिया (Social interaction) के फलस्वरूप उनका संज्ञानात्मक, शारीरिक व सामाजिक विकास होता है। बालक के सामाजिक अंतः क्रिया के द्वारा ही विचार या भाषा का विकास होता है। बालक भाषा का ज्ञान भी सामाजिक अंतः क्रिया के द्वारा ही सीखता है।
वाइगोत्सकी के अनुसार बालक के सीखने को उनके सामाजिक संदर्भ से अलग नहीं किया जा सकता। वाइगोत्सकी अधिगम को एक सामाजिक गतिविधि मानता है। उसके सिद्धांत में विकास के सांस्कृतिक, सामाजिक और भाषाई पहलू पर अधिक बल दिया गया है।
वाइगोत्सकी ने खेलों पर महत्व देते हुए बताया कि बालक के संज्ञानात्मक, भावात्मक विकास सामाजिक विकास में खेल का महत्वपूर्ण स्थान है। यही कारण है कि विद्यालयों में शिक्षा के साथ-साथ खेलों पर भी पर्याप्त ध्यान दिया जाता है। अतः लेव वाइगोत्सकी ने सामाजिक अंत क्रिया को बालक के संज्ञानात्मक विकास का मूल कारण माना है।
• वाइगोत्सकी के सिद्धांत के नाम
1. वाइगोत्सकी का भाषा सिद्धांत
2. वाइगोत्सकी का सामाजिक विकास का सिद्धांत
3. वाइगोत्सकी का अधिगम सिद्धांत
4. वाइगोत्सकी का सामाजिक रचनावाद
5. वाइगोत्सकी का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत
6. जोन ऑफ प्रोक्सिमल डेवलपमेंट (ZPD)
7. हिंदी भाषा में संज्ञानात्मक विकास का वाइगोत्सकी का सिद्धांत
अंतरीकरण (Internalisation) :- बाहर (वातावरण) से अंदर की ओर (बच्चे के आंतरिक) की दिशा में होने वाले विकास को वाइगोत्सकी ने अंतरीकरण (internalisation)  कहा है। मनुष्य बाहरी वातावरण के अवलोकन को अपने भीतर आत्मसात करके सीखता है।
• भाषा का विकास (Development of Language) – वाइगोत्सकी को अनुसार बालक के भाषा का विकास अंतः क्रिया द्वारा ही होता है। भाषा का विकास मानव चिंतन के स्वभाव को बदल देता है। वाइगोत्सकी अनुसार भाषा विकास का आधार अंतः क्रिया है।
बालक दो प्रकार से भाषा सीखता है –१. मस्तिक या आंतरिक विचार से (अशाब्दिक)२. बाहरी विचार (शाब्दिक) अर्थात बालक विचारों को ध्वनियों में परिवर्तन कर लेता है।
• भाषा यंत्र – भाषा के गुणों को एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति तक सामाजिक अंतः क्रिया द्वारा स्थानांतरित करता है। (भाषा के गुण – भाव, विचार, कौशल, ज्ञान, नैतिकता)
जैसे – कोई व्यक्ति पंजाब का रहने वाला है जो किसी कार्य हेतु गुजरात में निवास करता है और उनके पड़ोस में राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र के लोग भी निवास कर रहे हैं। जब अपने पड़ोसियों के साथ हमारी अंतः क्रिया होती है तो उनकी भाषा, संस्कृति, रहन-सहन, खानपान, रीति रिवाज आदि का हमें ज्ञान हो जाता है।
• भाषा स्थानांतरण – अनुकरण द्वारा, निर्देशों द्वारा, सहपाठियों द्वारा।
• ढांचा निर्माण (Scaffolding) – ढांचा निर्माण विकास के संभावित क्षेत्र से संबंधित संप्रत्यय है। वाइगोत्सकी के अनुसार संवाद ढांचा निर्माण का महत्वपूर्ण औजार है। ढांचा निर्माण का कार्य अस्थायी होता है। क्योंकि जब बालक किसी कार्य या  ज्ञान अर्जन में पहले पहल अपने शिक्षक, सहपाठियों या माता-पिता की सहायता की जरूरत होती है तथा बाद में सहायता की आवश्यकता कम होते होते समाप्त हो जाती है।
उदाहरण के लिए एक छोटा बालक जो अभी तक चलना नहीं सीखा है तो उसे माता-पिता के सहयोग की आवश्यकता है। वे उसे अंगुली, हाथ पकड़कर धीरे धीरे चलना सिखाएंगे। कुछ समय बाद बालक स्वयं चलने लगता है, दौड़ने लगता है तो माता-पिता की सहायता की आवश्यकता नहीं रहती। कहने का तात्पर्य है कि कक्षा-कक्ष में जब शिक्षक कोई नई विषय वस्तु बालक को पढ़ाएगा तो शिक्षक को ज्यादा निर्देश देने पड़ेंगे तथा संवाद भी ज्यादा करना पड़ेगा। जब बालक विषय वस्तु को सीख जाता है तो निर्देशों एवं संवाद में कमी आने लगती है और बच्चा कार्य अपने आप करने लगता है।
• भाषा और विचार – वाइगोत्सकी के अनुसार बच्चे भाषा का प्रयोग न केवल संप्रेषण अपितु स्व निर्देशित तरीके से कार्य करने के लिए अपने व्यवहार हेतु योजना बनाने, निर्देश देने व मूल्यांकन करने में भी करते हैं। स्व निर्देशन में भाषा के प्रयोग को आंतरिक स्वभाषा या निजी भाषा कहा जाता है। पियाजे ने निजी भाषा को आत्म केंद्रित माना है परंतु वाइगोत्सकी के अनुसार प्रारंभिक बाल्यावस्था में यह बालक के विचारों का एक महत्वपूर्ण साधन है।
वाइगोत्सकी ने बालक के संज्ञानात्मक विकास (Cognitive Development) में सामाजिक कारको तथा भाषा को महत्वपूर्ण कारक माना है। उनका मानना था कि संज्ञानात्मक विकास कभी भी एकाकी नहीं हो सकता। यह भाषा विकास, सामाजिक विकास यहां तक कि शारीरिक विकास के साथ-साथ सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ में होता है। इसलिए वाइगोत्सकी बालकों के संज्ञानात्मक विकास में सामाजिक अंतः क्रिया को एक मूलभूत अंग स्वीकार करने पर बल देते हैं। उनका मानना है कि ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया में समुदाय एक केंद्रीय भूमिका के रूप में कार्य करता है। अतः वाइगोत्सकी के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत को सामाजिक सांस्कृतिक सिद्धांत (social cultural theory) भी कहा जाता है।
वाइगोत्सकी (Vygotsky) के अनुसार अधिगम की सामाजिक अंतः क्रिया प्रक्रिया में बालकों के वास्तविक विकास (बिना किसी मदद के) के स्तर से संभावित विकास (सहायता से किसी कार्य को करने में सक्षम) के स्तर की ओर ले जाने का प्रयास किया जाता है। वाइगोत्सकी ने इसे समीपस्थ विकास क्षेत्र (Zone of Proximal Development) की संज्ञा दी है।
वाइगोत्स्की ने बताया है कि किसी भी प्रकार के नए ज्ञान के निर्माण में या किसी नई भाषा को सीखने में समाज निर्देशित अंतः क्रिया की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। उनके सिद्धांत का समर्थन जेरोम ब्रूनर ने भी किया है। उनके अनुसार बालक का वातावरण और आसपास के लोग उसकी भाषा विकास में सहायक होते हैं। उन्होंने भाषा को एक मनोवैज्ञानिक साधन के रूप में देखा और बताया कि इसके द्वारा बालक किसी भी चीज के प्रति अपनी समझ विकसित करता है तथा आसपास के प्रोढ़ तथा कुशल व्यक्ति उसकी इस अधिगम प्रक्रिया में सहायता करते हैं। जब बालक प्रोढ़ व्यक्तियों तथा साथियों के साथ संवादात्मक क्रिया में सम्मिलित होते हैं तब वे उन संवादों को आत्मसात कर लेते हैं। जिसका प्रयोग वह बाद में स्वयं के विचार को निर्देशित करने के लिए आंतरिक संभाषण के रूप में करते हैं।
उदाहरण – एक बालक किसी कार्य को करते समय अपनी मां द्वारा दिए गए निर्देश को ध्यानपूर्वक सुनता है तथा बाद में जब स्वतंत्र पूर्वक वह ऐसे किसी कार्य को करना प्रारंभ करता है तब उस निर्देशों का अनुसरण करता है। वाइगोत्सकी ने अपने सिद्धांत में समीपस्थ विकास का क्षेत्र का वर्णन किया है।

• समीपस्थ विकास का क्षेत्र (Zone of Proximal Development – ZPD)

संभावित विकास का क्षेत्र, ZPD क्या है –लेव वैगोत्सकी के अनुसार, “बच्चों के सीखने का एक समीपस्थ क्षेत्र होता है। जब बच्चों को ऐसा कार्य दिया जाए जो उनके वर्तमान स्तर से थोड़ा अधिक मुश्किल हो तो वो बेहतर जुड़ते हैं और सीखते हैं।” ये हमें बताता है कि बच्चों को जोड़ने के लिये हम चुनौती का प्रयोग करें – और वह न तो बहुत ही मुश्किल हो ना बहुत आसान। यह एक महत्वपूर्ण संप्रत्यय है, जो यह बताता है कि कोई बालक स्वयं के स्तर तथा किसी अन्य कुशल व्यक्तियों की सहायता एवं मार्गदर्शन से क्या प्राप्त करने में सक्षम हो सकते हैं। बच्चा जो कर रहा है तथा जो करने की क्षमता रखता है के बीच के क्षेत्रों को संभावित विकास का क्षेत्र कहा है। अर्थात संभावित विकास का क्षेत्र बच्चे के द्वारा स्वतंत्र रूप से किए जा सकने वाले तथा सहायता के साथ करने वाले कार्यों के बीच का अंतर है। जबकि जहां बच्चे बिना किसी सहायता से अपने कार्य को करते हैं तो वह वास्तविक विकास का क्षेत्र कहलाता है। उदाहरण के रूप में मान लिया जाए कि एक बालक भाषा के किसी विशेष बिंदु पर व्याकरणगत नियमों पर आधारित वाक्य संरचना बनाने में कठिनाई महसूस करता है, लेकिन जब उसे किसी कुशल व्यक्ति की सहायता प्राप्त होती है तब वह उसे आसानी से करने में सक्षम हो जाता है। वाइगोत्सकी ने इसे पाठ बांधना (scaffolding) की संज्ञा दी है।

स्काफोल्डिंग का तात्पर्य बालकों में प्रगतिशील तरीके से उच्च समझ तथा अंततः विशेष अनुभव प्रदान करने वाले अधिगम प्रक्रिया में प्रयुक्त विभिन्न निर्देशक तकनीकों से है। लेव वाइगोत्सकी के अनुसार वह कार्य जो बालक के स्वयं के लिए अत्यधिक कठिन है परंतु किसी प्रौढ़ और अधिक कुशल साथी की सहायता से कर पाना संभव है। इस प्रक्रिया में शिक्षक छात्रों को क्रमिक स्तर से तात्कालिक सहायता उपलब्ध कराता है, जो बालकों में उच्च स्तर की समझ तथा कौशल विकसित करने में सहायता प्रदान करती है। वह बालकों में उत्पन्न समस्या तथा अधिगम के अंतराल को कम करने में भी मदद करता है। उदाहरण के रूप में जैसे किसी बालक को रेफ तथा हलंत युक्त ‘र’ के नियमों का ज्ञान नहीं होने से इस अर्धांक्षर से बनने वाले शब्दों के उच्चारण में बार-बार समस्या महसूस करता है लेकिन किसी के द्वारा जब उसे उचित सहयोग तथा ‘र’ के नियमों की जानकारी प्राप्त होती है तब वह स्वतंत्र रूप से उच्चारण करने में समर्थ हो जाता है। जब बालक किसी वस्तु या व्यक्ति से संपर्क स्थापित करता है तथा अन्य स्व नियंत्रित क्रियाएं करता जाता है तब उसकी समस्त गतिविधियां एक दूसरे से संबंधित होती जाती है जो एक प्रकार से कार्य उपलब्धि का मानसिक प्रस्तुतीकरण कहलाती है।

Vygotsky And Language Development

“एक बच्चे की भाषा के विकास में दूसरों के साथ संप्रेषण एक महत्वपूर्ण कारक है।”                                               — लेव वाइगोत्सकी

वाइगोत्स्की भाषा विकास के लिए सामाजिक अंतः क्रिया को एक जिम्मेदार कारक के रूप में देखते हैं। उनके अनुसार अर्थ पूर्ण संवादात्मक प्रक्रिया के द्वारा जब संपर्क स्थापित किया जाता है तब भाषा विकास में विशेष सहायता प्राप्त होती है। उन्होंने बाह्या जगत से संपर्क स्थापित करने के लिए भाषा को एक महत्वपूर्ण साधन माना है। वाइगोत्स्की के अनुसार बालकों के संज्ञानात्मक विकास में भाषा की दो महत्वपूर्ण भूमिकाएं है – पहला यह कि इसके द्वारा व्यक्ति बालकों तक समस्त सूचनाएं स्थानांतरित कर पाता है तथादूसरा की भाषा स्वयं में बौद्धिक आत्मसात करने का बहुत ही सशक्त साधन है। वाइगोत्सकी ने भाषा विकास के 3 रूपों की चर्चा की है
 १. सामाजिक वाक् (Social Speech) – बाह्य संपर्क स्थापित करने के लिए अन्य के साथ संवाद स्थापित करने की क्रिया सामाजिक वाक् कहीं जाती है। यह जन्म से 2 वर्ष तक की अवधि तक होता है और इसे बाह्य संभाषण भी कहा जाता है। आंतरिक संभाषण यह अंतरण 3 साल से 7 साल के बीच होता है इसमें बच्चे आपस में बातचीत करना सीख लेते हैं और इसके बाद आतम बातचीत है बालकों का स्वभाव बनता जाता है फिर वह बिना स्पष्ट बोले ही कई कार्य करने की क्षमता विकसित कर लेते हैं आतम बातचीत संज्ञानात्मक विकास की नींव मनी गई है।
२. आंतरिक संभाषण (Internal Speech) – यह अंतरण 3 से 7 साल के बीच होता है। इसमें बच्चे आपस में बातचीत करना सीख लेते हैं और इसके बाद आत्म बातचीत बालकों का स्वभाव बनता जाता है फिर वह बिना स्पष्ट बोले ही कई कार्य करने की क्षमता विकसित कर लेता है। आत्म बातचीत संज्ञानात्मक विकास की नींव मानी गई है।
३.आंतरिक संभाषण (Inner Speech)- आतम बातचीत बालकों को स्व निर्देशन में सहायता प्रदान करती है। बच्चे अपने कार्य को दिशा देने के लिए स्वयं से बोलते हैं। जैसे जैसे बच्चे बड़े होते जाते हैं उनकी यह आत्म बातचीत अंतरीकृत होकर आंतरिक संभाषण में परिवर्तित होते जाती है, जो आगे की अवस्था में चिंतन के रूप में परिलक्षित होती है। पियाजे ने इस बातचीत को अपरिपक्व तथा आत्म केंद्रित स्पीच कहा है। वाइगोत्सकी ने यह भी माना है कि जो बालक आत्म बातचीत अधिक करते हैं वह अन्य की अपेक्षा सामाजिक रूप से अधिक दक्ष होते हैं। बालक इसका प्रयोग उच्च स्तर की क्रिया करने में भी करते हैं। वाइगोत्सकी ऐसे पहले मनोवैज्ञानिक हैं जिन्होंने बालकों के आत्म बातचीत की धनात्मक भूमिका को स्वीकार किया है। ‘ निजी भाषा’ शब्दावली का प्रयोग पहली बार लेव वाइगोत्सकी के द्वारा किया गया। संभवतः इन्हीं कारणों से वाइगोत्सकी को पियाजे के सिद्धांत के विस्तारक के रूप में भी जाना जाता है।

• वाइगोत्सकी और पियाजे के सिद्धांत में अंतर

Deference between Vygotsky and Piaget theory

वाइगोत्सकी और जीन पियाजे के सिद्धांत में प्रमुख अंतर भाषा और चिंतन के दृष्टिकोण से है।

1. वाइगोत्सकी के अनुसार बालक में विचार पहले तथा भाषा बाद में आती है जबकि प्याजे के अनुसार बालक में पहले भाषा आती है विचार बाद में। परंतु वाइगोत्सकी और पियाजे के सिद्धांतों का निष्कर्ष यही है कि विचार और भाषा एक दूसरे पर आधारित है।
2. वाइगोत्सकी बच्चों के सीखने में सामाजिक कारक (social factor) की महत्वपूर्ण भूमिका पर बल देते हैं। पियाजे बालक के विकास का आधार आयु को मानते हैं तो वाइगोत्सकी समाज को मानते हैं।
3. वाइगोत्सकी के अनुसार जैविक कारक मानव विकास में बहुत ही कम भूमिका निभाते हैं। जबकि सामाजिक कारक संज्ञानात्मक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसके विपरीत पियाजे का सिद्धांत जैविकता तथा विकास अधिगम में अग्रणी भूमिका निभाते हैं। वाइगोत्सकी के सिद्धांत के अनुसार अधिगम व विकास सांस्कृतिक व सामाजिक वातावरण की मध्यस्थता के साथ चलते हैं।
4. वाइगोत्सकी के अनुसार अधिगम (learning) सर्वप्रथम बालक तथा वयस्क जिसमें जो अधिक ज्ञानवान होगा के बीच होता है। दूसरों के साथ अंतः क्रिया तथा सहयोग द्वारा जानने की प्रक्रिया गुणात्मक रूप से श्रेष्ठ होती है। अतः वे इस बात पर जोर देते हैं कि संज्ञानात्मक विकास की प्रकृति सामाजिक है न की संज्ञानात्मक, जैसा जीन पियाजे का मानना है। इस प्रकार पियाजे का सिद्धांत निर्मितीवाद है जबकि वाइगोत्सकी का सामाजिक निर्मितीवाद है। वाइगोत्सकी का सामाजिक निर्मितीवाद अधिगम के लिए दूसरे के सहयोग पर बल देता है।

• वाइगोत्सकी सिद्धांत का शैक्षिक निहितार्थ

वाइगोत्सकी (Vygotsky) के अनुसार भाषा अर्जन के लिए मात्र शब्दों पर बल देना ही पर्याप्त नहीं अपितु भाषा तथा विचारों पर आधारित परस्पर प्रक्रिया की आवश्यकता होती है। शिक्षक बालकों के दृष्टिकोण को समझकर उनके भाषिक स्तर में सुधार ला सकते हैं। वाइगोत्सकी का कहना है कि बालक सामाजिक अनुभव द्वारा स्वयं ज्ञान निर्माण करते हैं और इस स्थिति में प्रौढ़ तथा अनुभवी व्यक्ति उसे मार्ग निर्देशन तथा सहायता पहुंचाते हैं। वाइगोत्हकी के इस विचार का द्वितीय भाषा अध्ययन तथा शोध पर दूरगामी प्रभाव देखने को मिलता है, जो सांस्कृतिक ऐतिहासिक तथा सामाजिक परिप्रेक्ष्य में सामाजिक अंतः क्रिया पर अत्यधिक है। यद्यपि वाइगोत्सकी ने प्रत्यक्षतया द्वितीय भाषा अर्जन पर टिप्पणी नहीं की है, किंतु मनुष्य की भाषा सीखने का संपर्क स्थापित करने की क्षमता का विश्लेषण करते हुए उन्होंने इसे परिभाषित किया है।
वाइगोत्सकी (Vygotsky) ने यह भी बताया है कि बालकों की वैयक्तिक विभिन्नता को ध्यान में रखते हुए कक्षा में उसकी सक्रिय सहभागिता सुनिश्चित किया जाना चाहिए। उन्हें ऐसी समस्या प्रदान की जानी चाहिए जिससे वह अपने साथियों एवं शिक्षकों के सहयोग से समीपस्थ विकास के क्षेत्र को सशक्त बना सकें। ऐसा करने से वे आत्मानुशासन के प्रति सजग भी रहेंगे। कक्षा में शिक्षकों को चाहिए कि वह सहयोगी अधिगम समूह का निर्माण करें जिसमें परस्पर समस्या-समाधान विधि से उच्च संज्ञानात्मक चिंतन ( high Cognitive thinking) विकसित करने में मदद मिल सके।

Cognition and Emotion/अनुभूति और भावना

एक बच्चा सीखता है क्योंकि वह समय और ज्ञान के साथ बढ़ता है, वह अपने विचारों, अनुभवों, इंद्रियों आदि के माध्यम से प्राप्‍त करता है ये सभी संज्ञान है। बच्‍चे का संज्ञान परिपक्‍व हो जाता है जैसे ही वह बढ़ता है। इस प्रकार, हम कह सकते हैं कि संज्ञान कृपण, याद रखने, तर्क और समझने की बौद्धिक क्षमता है।

संज्ञान के तत्‍व:

संज्ञान के तत्‍व निम्‍नलिखित हैं:

1. अनुभूति: यह इंद्रियों के माध्यम से किसी चीज़ को देखने, सुनने या जागरूक होने की क्षमता है।

2. स्‍मृति: स्मृति संज्ञान में संज्ञानात्मक तत्व है। स्मृति जब भी आवश्यकता हो, अतीत से जानकारी को स्टोर, कोड या पुनर्प्राप्त करने हेतु मानव मस्तिष्‍क को अनुमति देती है।

3. ध्‍यानइस प्रक्रिया के तहत हमारा मस्तिष्‍क हमारी इंद्रियों के उपयोग सहित विभिन्न गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित करने की अनुमति देता है।

4. विचार: विचार सोच की क्रिया प्रक्रियाएं हैं। विचार हमें प्राप्त होने वाली सभी सूचनाओं को एकीकृत करके घटनाओं और ज्ञान के बीच संबंध स्थापित करने में हमारी सहायता करते हैं।

5. भाषाभाषा और विचार एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। भाषा बोले जाने वाले शब्दों की सहायता से हमारे विचारों को व्यक्त करने की क्षमता है।

6. अधिगम: अधिगम अध्ययन, अनुभव और व्यवहार में संशोधन के माध्यम से ज्ञान या कौशलों का अधिग्रहण है।

बच्‍चों की संज्ञानात्‍मक विशेषताएं:

संज्ञानात्मक विकास सोचने और समझने की क्षमता है। पियागेट के अनुसार संज्ञानात्मक विकास में चार चरण शामिल हैं:

1. संवेदिक पेशीय अवस्‍थायह आयु जन्म से 2 वर्ष तक होती है। इस स्तर पर बच्चा अपनी इंद्रियों के माध्‍यम से सीखता है।

2. पूर्व-संक्रिया अवस्‍था: यह अवस्‍था 2 वर्ष की आयु से 7 वर्ष की आयु तक होती है। इस अवस्‍था में एक बच्चे की स्मृति और कल्पना शक्ति विकसित होती है। यहां बच्‍चे की प्रकृति आत्‍मकेंद्रित होती है।

3. मूर्त संक्रिया अवस्‍था: यह अवस्‍था 7 वर्ष की आयु से 11 वर्ष की आयु तक होती है। यहां आत्‍मकेंद्रित विचार शक्तिहीन हो जाते हैं। इस अवस्‍था में संक्रियात्‍मक सोच विकसित होती है।

4. औपचारिक संक्रिया अवस्‍थायह अवस्‍था 11 वर्ष की आयु तथा उससे ऊपर की आयु से शुरू होती है। इस अवस्‍था में बच्चे समस्या हल करने की क्षमता और तर्क के उपयोग को विकसित करते हैं।

मनोभाव:

मनोभाव किसी की परिस्थितियों, मनोदशा या दूसरों के साथ संबंधों से व्‍युत्‍पन्‍न होने वाली मजबूत भावना होती हैं। मनोभाव मन की स्थिति का एक भाग है।

मनोभाव की प्रकृति और विशेषताएं:

1. मनोभाव व्‍यक्तिपरक अनुभव है।

2. यह एक अभिज्ञ मानसिक प्रतिक्रिया है। मनोभाव और सोच विपरीत रूप से संबंधित हैं।

3. मनोभाव में दो संसाधन अर्थात् प्रत्यक्ष धारणाएं या अप्रत्यक्ष धारणाएंशामिल हैं।

4. मनोभाव कुछ बाह्य परिवर्तन बनाता है जिन्‍हें दूसरों द्वारा हमारे चेहरे की अभिव्यक्तियों और व्यवहार पैटर्न के रूप में देखा जा सकता है।

5. मनोभाव हमारे व्यवहार में कुछ आंतरिक परिवर्तन करताहै जिन्हें केवल उस व्यक्ति द्वारा समझा जा सकता है जिसने उन मनोभाव का अनुभव किया है।

6. अनुकूलन और उत्‍तरजीविता के लिए मनोभावआवश्‍यक हैं।

7. सबसे विचलित मनोभाव समरूप या असमान होना है।

मनोभाव के घटक तथा कारक:

मनोभाव के मुख्य घटकों में से एक अभिव्यक्तिपूर्ण व्यवहार है। एक बहुमूल्‍य व्यवहार बाहरी संकेत है कि एक मनोभाव का अनुभव किया जा रहा है। मनोभाव के बाह्य संकेतों में मूर्च्‍छा, उत्‍तेजित चेहरा, मांसपेशियों में तनाव, चेहरे का भाव, आवाज का स्वर, तेजी से सांस लेना, बेचैनी या अन्य शरीर के हाव-भाव इत्यादि शामिल हैं।

शिक्षा में मनोभाव का महत्‍व:

निम्नलिखित बिन्‍दु मनोभाव के महत्व का उल्‍लेख करते हैं:

1. सकारात्मक मनोभाव बच्चे के अधिगम को सुदृढ़ करते हैं जबकि नकारात्मक मनोभाव जैसे अवसादइत्‍यादिअधिगम प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं।

2. किसी भी मनोभाव की तीव्रता अधिगम को प्रभावित कर सकती है चाहे वह सुखद या कष्‍टकरमनोभाव हो।

3. जब छात्र मानसिक रूप से परेशान नहीं होते हैं तो अधिगम सुचारू रूप से होता है।

4. सकारात्मक मनोभाव एक कार्य में हमारी प्रेरणा को बढ़ाते है।

5. मनोभाव व्यक्तिगत विकास के साथ-साथ बच्चे के अधिगम में भी मदद करतेहैं।

Individual Differences व्यक्तिगत विभिन्नता

व्यक्तिगत विभिन्न्ता (Individual Differences)

अर्थ :- सभी व्यक्तियों या बालकों का अवलोकन करने पर ज्ञात होता हैं कि कोई दो व्यक्ति का बालक सभी प्रकार से एक जैसे नहीं होते हैं । यहाँ तक कि दो जुड़वा भाई – बहिनों में भी पूर्णरूप से समानता नहीं पायी जाती है । उनमें रूप – रंग , शारीरिक गठन , विशिष्ट योग्यताओं , बुद्धि , स्वभाव आदि परस्पर एक – दूसरे से कुछ न कुछ भिन्न अवश्य होते हैं। इस प्रकार उन पायी जाने वाली इस भिन्नता को हीं व्यतिगत विभिन्नता कहते हैं । अतः व्यक्तिगत भिन्नता का अभिप्राय किहीं दो व्यक्ति या बालकों के शारीरिक , मानसिक , संवेगात्मक तथा सामाजिक विभिन्नताओं में भिन्नता से हैं ।

व्यक्तिगत विभिन्नता कारण

1 . वंशानुक्रम ( Heredity )
2 . वातावरण (Environment)
3 . जाति , प्रजाति एवं देश ( Caste, Race & Country)

4 . आयु एवं बुद्धि ( Age & Intelligence )
5 . शिक्षा एवं आर्थिक दशा ( Education & Economical Condition )
6 . लिंग – भेद ( Sex – Differences)

व्यक्तिगत विभिन्नताओं का शैक्षिक महत्व (Educational Importance of Individual Difference)

व्यक्तिगत विभिन्नताओं का ज्ञान हो जाने पर शिक्षक अपने छात्रों का अधिक हित कर सकता है । प्रायः प्रत्येक कक्षा में सामान्य बालकों की अपेक्षा मंदबुद्धि और प्रतिभाशाली बालक भी कुछ संख्या में रहते है । कक्षा शिक्षण सामान्य बुद्धि बालकों के लिए उपयुक्त होता हैं । मंदबुद्धि और प्रतिभाशाली बालक इससे अधिक लाभ नहीं उठा पाते हैं क्योंकि सभी को सामान्य रूप से एक ही पद्धति द्वारा शिक्षा दी जाती है । अतः शिक्षकों का दायित्त हो जाता हैं कि वे बालकों को उनकी व्यक्तिगत विभिन्नताओं को ध्यान में रखते हुए शिक्षा प्रदान करें । इसके लिए निम्न बातों पर ध्यान देना आवश्यक हैं :-
1 . कक्षा का सीमित आकार ।
2 . छात्रों का वर्गीकरण ।
3 . पाठ्यक्रम का विभिन्नीकरण ।
4 . व्यक्तिगत शिक्षण की व्यवस्था ।
5 . शिक्षण – पद्धतियों में परिवर्तन ।
6 . गृहकार्य ।
7 . शारीरिक दोषों के प्रति ध्यान ।
8 . लिंग – भेद के अनुसार शिक्षा ।
9 . बहुउद्देशीय विद्यालयों की स्थापना ।
10 . शैक्षिक निर्देशन ।
11 . व्यावसायिक निर्देशन ।

वंशानुक्रम एवं वातावरण (Heredity & Environment)

संसार में कोई दो व्यक्ति , शरीर और व्यवहार की दृष्टि से समान नहीं होते हैं अर्थात् सभी व्यक्तियों में कोई न कोई भिन्नता अवश्य होती है । प्रश्न यह उठता है कि व्यक्तियों में परस्पर भिन्नता क्यों पाई जाती है ? इसका क्या कारण है ? इस व्यक्तिगत विभिन्नता का प्रमुख कारण वंशानुक्रम और वातावरण है । व्यक्तित्व के विकास और व्यवहार के निर्धारण में वंशानुक्रम और वातावरण दोनो का ही महत्वपूर्ण स्थान है ।

वंशानुक्रम का अर्थ एवं परिभाषा ( Meaning and Definition of Heredity ):-
वंशानुक्रम एक जैविकीय प्रत्यय हैं जो आनुवांशिकी के सिद्धान्त पर आधारित है । प्राणिशास्त्रीय नियमों के अनुसार एक पीढ़ी , दूसरी पीढ़ी को कुछ विशिष्ट गुण हस्तांतरित करती हैं इस प्रकार गुणों के हस्तांतरण को ही वंशानुक्रम या आनुवांशिकता कहते हैं ।
जेम्स ड्रेवर के अनुसार –  “माता – पिता की शारीरिक एवं मानसिक विशेषताओं का संतान में हस्तांतरण होना वंशानुक्रम है ।”
पीटरसन के अनुसार – “ व्यक्ति अपने माता – पिता के माध्यम से पूर्वजों की भी विशेषताएँ प्राप्त करता है , उसे वंशानुक्रम कहते हैं । ”

वंशानुक्रम के नियम ( Laws of Heredity ) 

1.  बीज कोषो की निरंतरता का नियम ( Law of continuity of Germ Plasm ) :-  इस नियम का प्रतिपादक बीजमैन नामक वैज्ञानिक था। उसके अनुसार मानव की उत्पत्ति बीज कोषो से होती है जिनका प्रमुख गुण यह बताता है कि बीज कोष कभी नष्ट नहीं होते हैं । ये माता – पिता द्वारा अपनी संतति को हस्तांतरित होते रहते हैं ।
2.  समानता का नियम (Law of Resemblance):- इस नियम के अनुसार जैसे माता – पिता होते हैं , वैसी ही उनकी संतान होती है ।
3.  विभिन्नता का नियम (Law of variation):- इस नियम से तात्पर्य है कि बच्चे अपने माता – पिता की सत्य प्रतिलिपि नहीं होते है और न एक ही माता – पिता के सभी बत्ने एक – दूसरे के समान होते हैं । उनमें परस्पर रंग , बुद्धि एवं स्वभाव में भिन्नता रहती है ।
4.  प्रत्यागमन का नियम (Law of regression):- इस नियम के अनुसार , बालक में अपने माता – पिता के विपरीत गुण पाये जाते हैं । मन्द बद्धि माता – पिता की संतानों को प्रतिभाशाली होने एवं प्रतिभाशाली माता – पिता की संतानों को मन्द बुद्धि होने की प्रवृत्तियों को प्रत्यागमन कहा जाता है ।
 5.  अर्जित गुणों के संक्रमण का नियम (Inheritance of Acquired Traits):- लेमार्क के अनुसार – “ व्यक्तियों द्वारा अपने जीवन में जो कुछ भी अर्जित किया जाता है , वह उनके द्वारा उत्पन्न किये जाने वाले व्यक्तियों को संक्रमित किया जाता है”

वातावरण का अर्थ एवं परिभाषा ( Meaning and Definition of Environment )

वातावरण के लिए इसका पर्यायवाची शब्द ‘ पर्यावरण ‘ का भी प्रयोग किया जाता है । पर्यावरण दो शब्दों से मिलकर बना है ” परि ‘ तथा ‘ आवरण ‘ । ‘ परि का अर्थ है – ‘ चारों ओर ‘ तथा ‘ आवरण ‘ का अर्थ है – घेरने वाला । इस प्रकार पर्यावरण या वातावरण वह है जो व्यक्ति को चेतन या चेतन रूप में चारों ओर से घेरे हुए हैं।
अनुकूल वातावरण में व्यक्ति का स्वाभाविक विकास होता है और प्रतिकूल वातावरण में उसका विकास कुण्ठित होता है । वातावरण के तत्वों के अंतर्गत वे सभी भौतिक और मनोवैज्ञानिक उद्दीपक आते है जिनमें प्राणी गर्भाधान से लेकर जीवन पर्यन्त प्रभावित होता रहता है ।
रॉस के अनुसार – “वातावरण कोई बाहरी शक्ति है जो हमें प्रभावित्त करती हैं ।”
वुडवर्थ के अनुसार – “ वातावरण में वे सब बाह्य तत्व आ जाते हैं , जिन्होंने व्यक्ति को जीवन आरंभ करने के समय से प्रभावित किया है ।”

वंशानुक्रम और वातावरण का सापेक्ष महत्व (Relative Importance of Heredity and Environment) 

1 . वंशानुक्रम और वातावरण को एक – दूसरे से पृथक नहीं किया जा सकता ।
2 . वंशानुक्रम और वातावरण , एक – दूसरे के पूरक , सहायक और सहयोगी हैं ।
3 . वंशानुक्रम और वातावरण के प्रभावों में अंतर करना संभव नहीं हैं ।
4.  व्यक्ति का विकास , वंशानुक्रम एवं वातावरण की अन्तः क्रिया के फलस्वरूप होता हैं और व्ययित इन दोनों का योगफल न होकर गुणनफल है ।
व्यक्ति (Individual) = H (वंशानुक्रम) X E (वातावरण) 

व्यक्तिगत विभिन्नताओं पर आधारित प्रविधियाँ (Teaching Techniques Based on Individual Differences or Individualizing Educational Prograrthnic)

(1) प्रोजेक्ट प्रणाली (Project Method)

इस पद्धति का जन्म अमेरिका में हुआ तथा इस पद्धति के जन्मदाता किलपेट्रिक थे। उनके अनुसार- “प्रोजेक्ट पूरे मन से किया जाने वाला एक उद्देश्यपूर्ण कार्य है जो सामाजिक वातावरण में सम्पन्न होता है ।” इस प्रणाली में छात्र अपनी रुचि से योजना का चयन करता है । जैसे – मिट्टी के बर्तन बनाना, गुड़िया का घर बनाना, नाटक खेलना , बागवानी करना , जानवरों को पालना आदि । यह विधि ‘ करके सीखो सिद्धान्त पर बल देती है । इस विधि में छात्रों को एक – एक कार्य सौंप दिया जाता है जिसे वे मिल – जुल कर पूरा करते हैं जैसे सांस्कृतिक कार्यक्रम या पिकनिक की व्यवस्था करना । योजना के पदों में परिस्थिति निर्माण , चयन , नियोजन , पूर्ण करना , मूल्यांकन तथा अंकन प्रमुख हैं ।

(2) डाल्टन प्रणाली (Dalton Method)

इस प्रणाली को मिस हेलेन पार्कहस्र्ट ने दिया । इस प्रणाली में छात्र को अपनी योग्यता , क्षमता व रुचि के अनुसार कार्य करने की स्वतंत्रता होती है । उसे Time – Table के बन्धन में नहीं बाँधा जाता । विद्यार्थी चाहे तो सारे दिन एक ही विषय पढ़ सकता है । इसमें प्रत्येक विषय के लिये प्रयोगशाला बनाई जाती है । इस प्रणाली की मुख्य विशेषता कार्य का ठेका है जिसे छात्र को निश्चित अवधि में पूरा करना होता है । वर्ष भर के कार्य को वह महीनों , सप्ताहो व दिनों में बाँट सकता हैं । इस प्रणाली में अध्यापक मात्र एक पथ – प्रदर्शक के रूप में कार्य करता है ।

(3) ईकाई या विनेटिका प्रणाली (Winnetka Method)

इस योजना के प्रतिपादन डॉ . कार्लटन वाशबर्न ने किया । इस योजना में भी बालक को कार्य करने की पूर्ण स्वतंत्रता रहती है । इसमें पूरे पाठ्यक्रम को छोटी – छोटी इकाइयों में बाँट दिया जाता है । छात्र एक इकाई का सफलता पूर्वक अध्ययन करने के बाद ही दुसरी इकाई का अध्ययन करता है । छात्र अपने ज्ञान की परीक्षा स्वयं करता है । अध्यापक मात्र मार्ग – दर्शक होता है । इस योजना में कोई बालक अनुत्तीर्ण नहीं होता तथा प्रत्येक विषय में बालक को अलग से ग्रेड दिया जाता है । इस विधि में बालक का ईमानदार होना आवश्यक है ।

(4) डेक्रोली प्रणाली (Descroley Metliod)

इस प्रणाली के जन्मदाता डॉ . ओविड डेक्रोली थे । बेलजियम में प्रोफेसर थे । उनके अनुसार बालक को शिक्षा उसके जीवन से ही मिलनी चाहिये । इस विधि में बालक का विभाजन उनकी रुचि , क्षमता एव स्तर के आधार पर कर दिया जाता है । फिर उन्हें उनकी क्षमता के अनुसार आगे बढ़ने दिया जाता हैं । डेक्रोली प्रणाली में स्कूल का वातावरण प्राकृतिक होता है जहाँ बालकों को उदार शिक्षा दी जाती है । लड़के – लड़कियों को एक साथ शिक्षा दी जाती है तथा इनकी संख्या 20 – 25 होती है । इस प्रणाली में माता – पिता का भी सहयोग लिया जाता है तथा बालकों में सामूहिक भावना का विकास किया जाता है ।

(5)  कान्ट्रेक्ट प्रणाली (Contract Method)

यह योजना एक प्रकार से डाल्टन प्रणाली तथा विनेटीका प्रणाली का मिला – जुला रूप हैं । इसमें छात्र को सप्ताह , महीने या वर्ष भर का कार्य एक साथ ही दे दिया जाता है । कोई समय – सारणी का बन्धन नहीं होता और न ही पाठ्यक्रम के छोटे – छोटे भाग किये जाते हैं । छात्र को कार्य करने की पूरी स्वतंत्रता रहती है । वह चाहे तो वर्ष का कार्य 8 महीने में पूरा कर सकता है और यदि वह किन्हीं कारणों से कार्य पूरा नहीं कर पाता तो वह उसे अगले वर्ष पूरा कर सकता है । कार्य की समाप्ति पर उसकी परीक्षा ली जाती है और उसके असफल होने पर उसके कारणों को जानने का प्रयास किया जाता है ।

(6) क्रिया – योजना (Activity Method)

क्रिया योजना वस्तुत: कोई योजना नहीं है बल्कि शिक्षण प्रक्रिया का एक पहलू है । अध्यापक का यह प्रयास रहता है कि उसके विद्यार्थी कक्षा में पूरे समय सक्रिय बने रहें । इसलिये जब तक विद्यार्थी प्रश्न पूछकर पाठ्य – वस्तु को आत्मसात करने की कोशिश नहीं करता , अध्यापक को संतुष्टि नहीं होती । इस विधि में अध्यापक छात्र की क्रियाओं का निरीक्षण करता है । छात्र को वही क्रिया सौंपी जाय जो उसके मानसिक स्तर के अनुकूल हो।

(7) अभिक्रमित अनुदेशन (Programmed Instruction)

यह प्रणाली एक प्रकार से विनेटिका प्रणाली का ही रूप है । जिस प्रकार विनेटिका प्रणाली मैं हम पाठ्यक्रम को छोटी – छोटी इकाइयों में बाँट लेते हैं वैसे ही ये इकाइयाँ इस अभिक्रमित अनुदेशन में प्रोग्राम कहलाती हैं । अब छात्र एक – एक प्रोग्राम को लेकर चलता है तथा उसे पूरा करता है । एक प्रोग्राम के सफलतापूर्वक कर लेने पर ही उसे दुसरा प्रोग्राम दिया जाता है । जो विद्यार्थी प्रथम प्रयास में प्रोग्राम नहीं सीख पाता उसे feedback दी जाती है तथा जो सीख जाता है उसे Reinforcement दिया जाता है । छात्र को निर्धारित समय सीमा में ही सारे प्रोग्राम करने होते हैं ।

(8) किण्डरगार्टन प्रणाली (Kindergarten Method)

इस प्रणाली के जन्मदाता फ्रोबेल हैं । किण्डरगार्टन शब्द का अर्थ है ‘ बच्चों का बगीचा। फ्रोबेल शिक्षक को एक माली तथा बच्चे को पौधा मानता है । उसका कहना है कि बालक एक अविकसित पौधा है जो शिक्षक रूपी माली की देखरेख में पनपता है । इस प्रणाली में बालक को पुस्तकों से नहीं लादा जाता बल्कि उसे स्वतन्त्र रूप से हँसने , खेलने , बोलने व घूमने दिया जाता है । इस प्रणाली में बालक खेल खेल में सब कुछ सीख जाता है ।

(9) मान्टेसरी प्रणाली (Montessori Method)

छोटे बच्चों को शिक्षित करने की यह एक लोकप्रिय प्रणाली है । इस प्रणाली की जन्मदात्री डॉ . मेरिया मांटेसरी हैं । यह विधि मन्द बुद्धि बालकों के लिये बहुत उपयोगी है । यह प्रणाली मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित है । स्वतन्त्रता , आत्म – अनुशासन , आत्मनिर्भरता , व्यावहारिक शिक्षा , व्यक्तिगत शिक्षा , खेल , कर्मेन्द्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा आदि इस ‘ प्रणाली के आधार हैं । दृष्टि , श्रवण , स्पर्श , स्वाद एवं घाण शक्तियों तथा घरेलु उपकरणों के द्वारा शिक्षा दी जाती है । 

प्रतिभाशाली बालक (Gifted children)

अर्थ:-  प्रतिभाशाली बालक , सामान्य या औसत बालकों से सब बातों ( बुद्धि , विचार आदि ) में श्रेष्ठ होते हैं । ये बालक सामान्य बालकों से इतने अलग होते हैं कि इनके लिए विशेष प्रकार की शिक्षा , प्रशिक्षण और समायोजन की आवश्यकता होती हैं । अन्यथा ये दूसरे बालों के साथ और कक्षा में उचित प्रकार से समायोजित ( Adjust ) , नहीं हो पाते । मनोवैज्ञानिकों के अनुसार प्रतिभाशाली वे बालक हैं जिनकी बुद्धि लब्धि ( I . Q . ) 1 30 या 140 से अधिक होती है । 

टरमन के अनुसार – “ प्रतिभावान बालक शारीरिक विकास , शैक्षणिक उपलब्धि , बुद्धि और व्यक्तित्व में वरिष्ठ होते है ।”

कॉलेसनिक के अनुसार – “ वह प्रत्येक बालक जो अपनी आयु – स्तर के बालकों में किसी योग्यता में अधिक हो और जो हमारे समाज के लिए कुछ महत्वपूर्ण नई देन दें। ”  

प्रतिभाशाली बालक की विशेषताएँ (Characteristics of Gifted child)

1. शारीरिक विशेषता – ट्रमन ने अपने अध्ययनों द्वारा स्पष्ट किया हैं कि प्रतिभाशाली बालक जन्म के समय सामान्य बालक की तुलना में डेढ़ इंच लम्वा वे भार में एक पौण्ड अधिक होता है । इसके अतिरिक्त वह चलना , फिरना और बोलना , सामान्य बालर्को की तुलना में जल्दी सीख लेता है । 

2 . उच्च बुद्धि – लब्धि – प्रायः इनकी बुद्धि लब्धि 140 से अधिक मानी गई है ।
3 . अमूर्त चिन्तन – इनकी चिन्तन प्रक्रिया श्रेष्ठ होती है । जिससे वे कठिन समस्याओं को समझाने तथा समाधान ढूढ़ने में देर नहीं करते ।
4.  सामाजिक और संवेगात्मक दृढता – प्रतिभाशाली बालकों की सामाजिकता और संवेगात्मकता अधिक दृढ़ होती हैं ।
5 . मानवीय गुण – इनमें सहयोग , परोपकार , सहिष्णुता , दया तथा ईमानदारी जैसे मानवीय गुण दूसरों की तुलना में अधिक होते हैं ।

6 . अंतर्दृष्टि – ऐसे बालक आश्चर्यजनक सूझबूझ रखते है ।
7 . नेतृत्व की क्षमता – ऐसे बालकों में कुशल नेतृत्व की क्षमता होती हैं और अपने इस नेतृत्व से सबका मन मोह लेते है ।
8 . अवधान योग्यता – प्रतिभाशाली बालकों में अवधान की शक्ति तीव्र होती
9 . निर्देशन की कम आवश्यकता – ऐसे बालकों में बौद्धिक सजगता और मौलिकता अधिक होती हैं अतः वह अपने पूर्व अनुभव व सूझबूझ से कार्य को सफलतापूर्वक कर सकता है । ऐसे बालकों को निर्देशन की आवश्यकता कम पड़ती है ।
10 . हास्य तथा उदार प्रकृति – ऐसे बालकों की ज्ञानेन्द्रियाँ अधिक संवेदनशील होती हैं । सामान्यतः ये हास्य तथा उदार प्रकृति के होते हैं ।

प्रतिभावान बालकों की शैक्षिक व्यवस्थाएँ (Educational Provisions for Gifted Children)

1 . विशेष व विस्तृत पाठ्यक्रम ।
2 . बालर्को पर व्यक्तिगत ध्यान ।
३ . योग्य अध्यापकों की आवश्यकता ।
4 . पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं का आयोजन ।
5 . पुस्तकालय सुविधायें ।
6 . नेतृत्त्व का प्रशिक्षण ।
7 . संस्कृति की शिक्षा ।
8 . विशेष स्कूल और कक्षायें ।
9 . घर के लिए विशेष कार्य ।
10 . उत्तरदायित्व का कार्य ।
11 . सर्वांगीण विकास पर बल ।

बाल – अपराधी बालक (Delinquent Children)

बाल अपराध का सम्बन्ध बालक के व्यक्तित्व के सभी पक्षों से होता हैं , जैसे – सामाजिक पक्ष , संवेगात्मक पक्ष और मानसिक पक्ष । किसी भी पक्ष में समायोजन करने में यदि बालक असफल रहता है , तो वह बालक बाल – अपराधी बन जाता हैं । बाल अपराध का शाब्दिक अर्थ हैं सामान्य रास्ते से भटक जाना ।

हैडफील्ड के अनुसार – “ बाल अपराध का अर्थ हैं – असामाजिक व्यवहार ।”
स्किनर के अनुसार – “बाल अपराध की परिभाषा किसी कानून के उस उल्लघंन के रूप में की जाती हैं , जो किसी वयस्क द्वारा किये जाने पर अपराध होता हैं ।”

बाल – अपराध के कारण

1 . वंशानुक्रम सम्बन्धी कारण
2.  वातावरण सम्बन्धी कारण

(a) पारिवारिक वातावरण

● माता – पिता का बालकों पर नियंत्रण न रहना ।
● घरेलू लड़ाई झगड़े ।
★ परिवार में माता – पिता के सम्बन्ध विच्छेद या किसी एक की मृत्यु हो जाना ।
● पारिवारिक निर्धनता ।
● घर में बच्चों के साथ पक्षपातपूर्ण रवैया ।
★ बालकों की रूचियों की ओर ध्यान न देना ।
● बालकों को आवश्यक स्वतन्त्रता प्रदान न करना ।
● बालकों की बेकारी की समस्या ।
★ सौतले माता – पिता का होना ।
● घर के अन्य सदस्यों का अपराधी होना ।
● माता – पिता का अनैतिक व्यवहार ।
★ माता – पिता के शारीरिक व मानसिक दोषों के कारण जैसे – अन्धा , पागल , अपाहिज होना ।
● बालकों की आवश्यकताओं को पूरा न कर पाना ।
● परिवार में अधिक बच्चे होने के कारण ।
★ परिवार में बच्चों का स्थान ।

(b) स्कूल का वातावरण 

● व्यक्तिगत विभिन्नताओं की और ध्यान न देना ।
● पाठ्य – सहगामी क्रियाओं की कमी ।
★ उचित मार्गदर्शन की कमी ।
● कठोर अनुशासन ।
● अधिक गृहकार्य ।
★ दूषित पाठ्यक्रम ।
● शिक्षकों का व्यवहार ।
● विद्यालय में राजनैतिक वातावरण ।
★ मित्रमण्डली ।
● असफलता एवं पिछड़ापन ।

(c) समाज का वातावरण

● समाज का दूषित वातावरण ।
● बेरोजगारी ।
★ गन्दी बस्तियाँ ।
● बुरी संगति ।
● सिनेमा ।
★ अश्लील साहित्य ।

3 . शरीर रचना सम्बन्धी कारण

बाल अपराधियों की विशेषताएँ

शारीरिक- आयताकृति, पुष्ट मांसपेशियों युक्त एवं दुस्साहसी । 

स्वभावगत – अशांत , शक्ति से भरपूर , आक्रमक , बर्हिमुखी , शीघ्र उद्वेलित , विध्वंसात्मक ।
अभिवृत्तियाँ – अपारम्परिक , संदेही , सत्ता के विरोधी , द्वेषपूर्ण एवं शत्रुता भाव रखने वाले ।
मनोवैज्ञानिक – मूर्त एवं प्रत्यक्ष की ओर झुकाव रखने वाले , समस्याओं के समाधान में कम व्यवस्थित ।
सामाजिक सांस्कृतिक – स्नेह या अभाव , माता – पिता के नैतिक मानदण्ड इन्हें पर्याप्त रूप में निर्देशित नहीं कर पाते ।

बाल अपराधी के कृत्य

1 . चोरी , उठाईगिरी ।
2 . भगोड़ापन ।
3 . निरुद्देश्य भटकना ।
4 . जेब काटना ।
5 . धोखाधड़ी , ठगी ।
6 . जुआ खेलना ।
7 . उपदव , हमला , लड़ना एवं क्रुरता ।
8 . सम्पत्ति को क्षति पहुँचाना ।
9 . यौन अपराध ।
12 . हत्या ।
11 . मादक पदार्थों का सेवन ।

बाल अपराधों की रोकथाम

1 . परिवार के वातावरण में सुधार ।
2 . स्कूल के वातावरण में सुधार ।
3 . समाज के वातावरण में सुधार ।
4 . मनोवैज्ञानिक विधि ।
5 . मानसिक चिकित्सा ।
6 . मनो – विश्लेषण विधि ।
7 . विशेष बाल न्यायालय ।

विकलांग बालक ( Physically Handicapped children)

अर्थ :- कुछ बालक ऐसे होते हैं जिनके शरीर का कोई न कोई अंग जन्म से ही दोषपूर्ण होता हैं । या किसी बड़ी बीमारी , चोट , दुर्घटना आदि के कारण शरीर के विसी न किसी अंग में दोष आ जाता है । ऐसे बालकों को विकलांग बालक कहते हैं

विकलांग बालकों के प्रकार ( Kinds of Handicapped Childrens )

1 . शारीरिक रूप से विकलांग बालक:- शारीरिक रूप से विकलांग बालक वे होते हैं जिनमें कोई शारीरिक त्रुटि होती हैं और वह श्रुटि उनके काम – काज में किसी न किसी प्रकार की बाधा डालती है । इनका वर्गीकरण निम्न हैं
अपंग बालक:- अन्धे , लूले , लंगड़े , बहरे , गुंगे आदि अपंग कहलाते हैं ।
2 . मानसिक रूप से विकलांग बालक:- इस प्रकार के बालकों में मूर्ख , निम्न बद्धि वाले या मन्द गति से सीखने वाले बालकों की गणना होती हैं । इन बालकों का वर्गीकरण बुद्धि – लब्धि  के आधार पर किया जाता हैं ।
3 . संवेगात्मक और सामाजिक रूप से विकलांग बालक:- इस श्रेणी में बाल अपराधी बालकों की गिनती होती हैं । अर्थात् वे बालक जो संवेगात्मक और सामाजिक रूप से कुसमायोजित हों ।

विकलांग बालकों की शिक्षा

शारीरिक रूप से विकलांग बालकों की शिक्षा सामान्य बालकों के साथ सम्भव नहीं । इन विकलांग बालकों को अधिगम और समायोजन संबंधी विभिन्न समस्याओं का सामना करना पड़ता है । इन समस्याओं के परिणाम स्वरूप बालकों में हीन भावनाओं ( Inferiority Celirigs ) का विकास होता है । अतः विभिन्न दृष्टिकोण से विकलांग बालकों को विशेष शैक्षणिक सुविधायें प्रदान की जानी चाहिए ।
पिछड़े बालक या मन्द गति से सीखने वाले बालक:- पिछड़े बालकों से तात्पर्य उन बालकों से हैं । जो कक्षा में किसी बात को बार बार समझाने पर भी नहीं समझते हैं या औसत दर्जे के बालकों के समान प्रगति करने में असमर्थ रहते है।

पिछड़े बालकों का वर्गीकरण

1 . वातावरण और परिस्थितियों के कारण पिछड़े बालक ।
2 . मन्द बुद्धि वाले पिछड़े बालक ।
3 . शारीरिक दोष के कारण पिछड़े बालक ।
4 . शिक्षा के अभाव से पिछड़े बालक ।
5 . संवेगात्मक दृष्टि से पिछड़े बालक ।

विशेषताएँ

1 . इन बालकों में दृष्टि , वाणी एवं श्रवण दोष पाये जाते हैं ।
2 . इन बालकों में अमूर्त चिन्तन की योग्यता व बौद्धिक कौशल सीमित मात्रा में पाया जाता है ।
3 . इन बालों की तर्क शक्ति व ध्यान संकेन्द्रण की क्षमता भी सीमित पाई जाती है ।
4 . इन बालकों को सामान्यीकरण में कठिनाई होती है ।
5 . इन बालक का सीखने के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण होता है ।
5 . इन बालर्को में नकारात्मकता , अपरिपक्वता , क्षतिपूरक गतिविधयाँ जैसी नकारात्मक समायोजन युक्तियों का प्रयोग पाया जाता हैं ।
7 . ऐसे बालक निरन्तर ध्यान एवं अध्यापक की सहमति चाहते हैं ।
8 . इन बालों में उत्तरदायित्व ग्रहण करने की क्षमता सीमित होती है ।
9 . ये बालक दूसरों पर निर्भर रहते हैं ।
10 . इन बालकों में जिज्ञासा प्रवृत्ति नहीं होती ।
11 . इन बालकों में हीनता की भावना , दुश्चिंता व असफलता का भय पाया जाता है ।

पिछड़ेपन व धीमी गति से सीखने वाले बालकों की शिक्षा

पिछड़ेपन के उपचार की कोई एक विधि या उपाय नहीं हैं जो कि सभी बालको पर समान रूप से अपनाया जा सके । प्रत्येक पिछड़ा बालक अनूठा है । अतः प्रत्येक पिछड़े बालक को व्यक्तिगत ध्यान व नियोजित उपचार की आवश्यकता होती है । निम्न बिन्दु शैक्षिक कार्यक्रम के आयोजन एवं क्रियान्वयन में सहायक हो सकते हैं ।
1 . वैयक्तिक उपचार
2 . अभिप्रेरणा
3 . अधिगम तत्परता
4 . मूर्त रूप से अध्ययन
5 . माता – पिता का सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण
6 . कक्षा का आकार
7 . विशिष्ट विद्यालय
8 . उचित शैक्षिक निर्देशन

विकास की अवस्थाएँ और वृद्धि- विकास के सिद्धान्त Stages of Development and Growth – Principles of Development

विकास की अवस्थाएँ और वृद्धि- विकास के सिद्धान्त

विकास की अवस्थाएँ


हरलॉक के अनुसार-
1- जन्म से पूर्व की अवस्था गर्भावस्था।
2- जन्म से 14 दिन तक की अवस्था प्रारम्भिक शैशवावस्था
3-  2 से 11 वर्ष की बाल्यावस्था
4-  11 से 13 वर्ष वर्ष तक प्रारम्भिक किशोरावस्था
5-  13 से 17 किशोरावस्था
6-  5 से 21 उत्तर किशोरावस्था

शैले ने विकास की तीन अवस्थाएं बताई है
(1) शैशवावस्था (0-5 वर्ष तक)

(2) बाल्यावस्था  (6-12 वर्ष तक)

(3) किशोरावस्था  (13-18 वर्ष तक )

रॉस के अनुसार वर्गीकरण
(1) शैशवावस्था – 1 से 3 वर्ष तक
(2) आरम्भिक बाल्यावस्था- 3 से 6 वर्ष तक
(3) उत्तर बाल्यावस्था – 6 से 12 वर्ष तक
(4) किशोरावस्था – 12 से 18 वर्ष तक

कॉलसनिक के अनुसार विकास की अवस्थाएॅं-

 भ्रूणावस्था-जन्म से पहले की अवस्था
नव शैशवावस्था-जन्म से 4 सप्ताह तक
 आरम्भिक अवस्था-5 माह से 15 माह तक
 उत्तर शैशवावस्था-15 माह से 30 माह तक
 पूर्व बाल्यावस्था -2 से 5 वर्ष तक
 मध्य बाल्यावस्था 6 से 9 वर्ष तक
 उत्तर बाल्यावस्था 9 से 12 वर्ष तक
अर्नेस्ट जॉन्स के अनुसार वर्गीकरण

इसका वर्गीकरण सर्वाधिक उपयुक्त और मानक है।
शैशवावस्था 0.6 वर्ष तक 0 से 5.6 वर्ष तक।
 बाल्यावस्था 6 से 11.12 वर्ष तक।
 किशोरावस्था -12 वर्ष से 18 तक।
शैशवावस्था

मनुष्य को जो कुछ बनना होता है। वह 4-5 वर्ष में बन जाता है।
बालक के निर्माण का काल शैशवावस्था है। फ्रायड सिंगमंड शैशवावस्था मानव विकास की 2 अवस्था है।

शैशवावस्था की विशेषताऐं

मूल प्रवृत्तियों पर आधारित व्यवहार करते है। भूख लगने पर किसी वस्तु को मुंह में डालना।
नैतिकता का अभाव होता है। अनुकरण की प्रवृत्ति जिज्ञासा की प्रवृति।
सामाजिक भावना का विकास 5.6 वर्ष के बीच सीखने की प्रक्रिया में तीव्रता आती है।

कल्पना लोक में विचरण करता है।
दोहराने की प्रवृत्ति।

शैशवावस्था में शिक्षा का स्वरूप-
1- चित्र और कहानियों के द्वारा शिक्षा
2- खेल के द्वारा शिक्षा
3- अच्छी आदतों का निर्माण
4- मानसिक क्रियाओं का विस्तार
5- आत्म निर्भरता का विकास
6- जिज्ञासा की संतुष्टि
7- क्रिया के द्वारा सीखना

शैशवावस्था में मानसिक विकास
प्रत्यय (विज्ञान)
नोट :- शैशवावस्था में बालक में प्रत्यय निर्माण की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। वह एक और अनेक में अंतर करना सीख जाता है। यह चिंतन करना सीख जाता है।
इस अवस्था में बालक में निम्नलिखित विशेषताएॅं होती है-
1- प्रत्यय का मतलब चिंतन
2- बालक एक और अनेक में अंतर सीखना सीख जाता है।
3- बालक प्रारम्भ में ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा सीखता है।
4- मानसिक विकास का साधन ज्ञानेन्द्रियां हैं।
5- बालक में स्पर्शता और ताप दबाव जन्म के समय में उपस्थित होती है।
6- जिज्ञासा जन्मजात है।
7- सूक्ष्म, चिंतन जन्मजात है।
8- बालक ने जिज्ञासा और सूक्ष्म चिन्तन का प्रारम्भ शैशवावस्था में ही होती है।
9- बालक में रटने की क्षमता होती है।
10- स्मरण शक्ति विकसित हो जाती है।
11-
बालक में कल्पना शक्त्ति इसी शैशवावस्था में होता है।
12- इस अवस्था में शिशु कल्पना जगत में विचरण करता है। उनकी रुचि कहानियॉं सुनने में अधिक होती है। इस अवस्था में सीखने की प्रक्रिया तीव्र होती है।

शैशवावस्था में सामाजिकता का प्रभाव
1- 3 माह में मां को पहचानना।
2- 5 माह में क्रोध व प्रेम में अंतर समझने लगता।
3- 6 माह में अपरिचितों को व परिचितों को पहचानने लगता है।
4- 1 वर्ष की उम्र में मना किए जाने वाले कार्य नहीं करता है।
5- 2 वर्ष की आयु में बड़ो के साथ कोई न कोई काम करने लगता है।
6- परिवार का सक्रिय सदस्य बन जाता है।
7- 3 वर्ष में अन्य बच्चों के साथ खेलना शुरू कर देता है और उनसे सामाजिक संबंध बनाने लगता है।
8- उत्तेजना- जन्म के समय बालक मेंं केवल उत्तेजना होती है।
(उत्तेजना एक संवेग है।)

संवेग व्यक्ति की उत्तेजित दशा है-वुडवर्थ
विशिष्ट संवेग-मनोवैज्ञानिकों के अनुसार 3 मुख्य संवेग है
(1) प्रेम (2) भय (3) क्रोध और तीनों बच्चों में पाये जाते हैं।
पलायन-अपने लक्ष्य से लौटना या वापिस आना। जन्म के बाद प्रेम और भय संवेग होते हैं।
शिशु में आत्मसमान की प्रवृत्ति अधिक होती है। सामाजिक भावना का विकास 3 वर्ष की उम्र के बाद शुरू होता है।

इस अवस्था में कुछ बालक एकांतप्रिय भी होते हैं।
शिशु अधिकाधिक अनुकरण करके सीखता है।

शैशवावस्था में भाषा का विकास
नोट :- बालक (शिशु) केवल क्रन्दन करता है। उसे भाषा का ज्ञान नहीं होता है।
स नोट :- जन्म से 8 माह तक बच्चे के पास भाषा के रूप में किसी प्रकार का शब्द कोष नहीं होता है। लेकिन 1 वर्ष के बाद उसके पास शब्द कोष का विस्तार होने लगता है।
5 वर्ष की अवस्था तक बालक के पास लगभग 2500 शब्दों का शब्दकोष संग्रहित होता है।
इस काल में बालक की मानसिक योग्यताओं का विकास शुरू हो जाता है।
3 से 5 वर्ष की उम्र तक वह तुलना करना, निर्णय करने की क्षमता प्राप्त कर लेता है।
फ्रायड के अनुसार बालक में यौन भावना का विकास शैशवावस्था में शुरू हो जाता है।
इस अवस्था में बालक में आत्म प्रेम की भावना होती है।
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार लड़का अपनी मॉं से और लड़की अपने पिता से अधिक प्रेम करते हैं। अगर लड़की अपने पिता से प्रेम करती है और मां से घृणा करती है तो उसे इलेक्ट्रा कॉम्पलेक्स कहते हैं। इसके विपरीत बालक अपनी माता से प्रेम करता है और पिता से घृणा करता है उसे ओडिपस कॉम्पलेक्स कहते हैं।

बाल्यावस्था
(6 से 12 वर्ष तक की अवस्था)
बाल्यावस्था के उपनाम
1- अनोखा काल
2- छद्म परिपक्वता
3- बहिमुखी व्यक्तित्व का काल
बाल्यावस्था में बालक ने मानसिक योग्यताओं का विकास मुख्य विशेषता है। इसलिए इसे वैचारिक अवस्था का काल कहते हैं।

बाल्यावस्था की विशेषताएं
1- वास्तविक दुनिया से संबंध स्थापित होता है।
2- संग्रह की प्रवृत्ति होती है।
3- सामाजिकता का विकास (शैशवावस्था का विकास का प्रारम्भ)
4- फालतू का घूमने की प्रवृत्ति होती है।
5- समूह में घूमने की प्रवृत्ति होती है।
6- बर्हिमुखी व्यक्तित्व का विकास होता है।
7- सामूहिक रूप से खेलने की रूचि होती है।
8- रूचियों में/अभिरूचियों में परिवर्तन होता है।
9- रूचि जन्मजात नहीं होती है। रूचि परिवर्तनशील होती है।

बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप
1- 5.8 वर्ष तक उम्र में कहानी विधि द्वारा शिक्षा प्रदान की जाएं।
2- जिज्ञासा की संतुष्टि करना।
3- रचनात्मक कार्यों को करने के लिए प्रोत्साहित करना।
4- सामाजिक गुणों का विकास
5- खेल द्वारा शिक्षा
6- शिक्षा की रोचक सामग्री

बाल्यावस्था में मानसिक विकास
बाल्यावस्था में मानसिक विकास के मापदण्ड
1- संवेदना
2- कल्पना
3- निर्णय
4- स्मरण शक्ति
5- चिंतन
6- संवेदना-किसी विषय के प्रति बच्चे की रूचि/अभिरूचि
7- बुद्धि लब्धि
8- भाषा का विकास
9- 6 वर्ष तक की अवस्था में बच्चे को दायें-बायें का ज्ञान हो जाता है।
10- 7 वर्ष की अवस्था में बालक को अंतर का ज्ञान हो जाता है।
11- बाल्यावस्था/उत्तर बाल्यावस्था में बालक में बाह्य चिंतन विकसित होने लगता है।
12- रचनात्मकता का विकास होता है।
13- सूक्ष्म चिंतन शैशवावस्था में शुरू होता है।
14- यह अवस्था शारीरिक और मानसिक दृष्टि से धीमी विकास की अवस्था है। इस अवस्था को मनोवैज्ञानिकों ने मिथ्या परिपक्वता का नाम दिया।

सामाजिकता का विकास
1- विधिवत रूप से सामाजिक जीवन में प्रवेश करता है।
2- समूह की भावना विकसित होती है।
3- 6 वर्ष इस अवस्था में लड़के-लड़कियां अलग-अलग खेलना पसंद करते हैं।

वृद्धि एवं विकास के सिद्धान्त
 फेक – कोशिका की गुणात्मक वृद्धि अभिवृद्धि कहलाती है
हरलाॅक-शारीरिक अंगों की लम्बाई भार में वृद्धि चैड़ाई में वृद्धि मस्तिष्क के आकार और संरचना में वृद्धि
मुनरो-परिवर्तन श्रृंखला की वह अवस्था है जिसमें बालक भ्रूणा अवस्था से लेकर प्रौढ़ा अवस्था तक गुजरता है विकास कहलता है।
गैसल:- विकास एक परिवर्तन है। जिसके द्वारा बालक में नवीन विषेशताएं नवीन गुणों और क्षमताओं का विकास होता हैं।
जैम्स ड्रेवर-विकास प्राणाी में होने वाला प्रगतिशील परिवर्तन है जो किसी लक्ष्य की ओर निर्देषित होता है।
हरलाॅक-दो बालकों में समान मानसिक योग्यता नहीं होती है।
शर्मन-संवेदना ज्ञान की पहली सीढ़ी है नवजात शिशु में केवल दो संवेग होते हैं। सुख और दुख का है।
वाॅटसन-भय क्रोध और स्नेह तीनों संवेगों का संबंध जन्म से होता है।
अभिवृद्धि और विकास के सिद्धान्त/लक्षण
निरन्तर विकास का सिद्धान्त :- विकास निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। बच्चों में ही व्यावहारिक पविर्तन से ही विकास का पता लगाया जा सकता है। प्रथम तीन वर्ष में बालक के विकास की प्र्रक्रिया तीव्र रहती है। उसके बाद धीमी हो जाती है।
सामान्य से विशिष्ट की ओर– प्रारम्भ में बच्चा किसी वस्तु को पूरे हाथ से पकड़ता है उसके बाद अंगुलियों से इसे विकास की गामक विकास कहते है। बच्चों में सर्वप्रथम उत्तेजना का प्रारम्भ/अनुभव होता है। उत्तेजना सामान्य संवेग है जबकि अन्य विशिष्ट संवेग है।
नोट :- बालक में भाषा विकास अर्थहीन आवाजों से होता है।

मस्तष्का अधोमुखी सिद्धान्त- सिर से पांव की ओर विकास गर्भ में सर्वप्रथम सिर का विकास होता है फिर अन्य अंगों का विकास।
निकट से दूर का सिद्धान्त– सिर का सर्वप्रथम विकास केन्द्रीय स्नायुमण्डल के पास से विकास शुरू होता है। उसके बाद क्रमशः हृदय छाती, कुहिनी, अंगुलियों का विकास फिर पैरों की ओर विकास होता है।
संगठित प्रक्रिया का सिद्धान्त- एक जैसे  या एक ही क्षेत्र के विकास एक साथ जैसे-संवेगात्मक मानसिक, शारीरिक, सामाजिक विभिन्नताओं का सिद्धान्त- शैशवावस्था में विकास की गति तीव्र होती है। किशोरावस्था के अंग तक विकास की प्रक्रिया लगभग पूर्ण हो जाती है।
नोटः- विकास वंशानुक्रम और वातावरण का परिणाम है।
वृद्धि और विकास पर वंश और वातावरण का प्रभाव पड़ता है। सर्वप्रथम वंशानुक्रम का प्रभाव पड़ता है।
समान प्रतिमान का सिद्धान्त- विश्व के किसी भी हिस्से में पशु मानव और सभी प्रजातियों में विकास का एक ही मानक होती है। सभी एक ही नियम या मानक का अनुसरण करते हैं-हरलॉक
व्यक्तिगत भिन्नता का सिद्धान्त-एक ही आयु के दो बालकों दो बालिकाओं एक बालक/बालिका शारीरिक, मानसिक, सामाजिक विकास में भिन्नता होती है अर्थात् प्रत्येक बालक का बालिका से अलग-अलग स्वरूप होता है।
विकास क्रम का सिद्धान्त- तीन माह में एक बच्चा गले से आवाजें निकालना शुरू कर देता है। 6 माह आनंद देने वाली ध्वनियां निकालती है। 7 माह के बाद बच्चा दा मां के शब्दों का उच्चारण करना सीख जाता है।
परस्पर संबंध का सिद्धान्त- बच्चें में शारीरिक, मानसिक, सामजिक, सांवेगिक विकास में परस्पर संबंध होता है। शारीरिक विकास के साथ बच्चे की रूचियों में संवेगांं में बदलाव आता है।