Principles of Development विकास के सिद्धांत

विकास की प्रक्रिया एक जटिल व निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया होती है I यह जन्म से मृत्यु तक चलती रहती हैं। यह विकास की प्रकिया अनियमित रूप से नही बल्कि धीरे धीरे क्रमबद्ध वह निशिचत  समय पर होती है । धीरे धीरे उसका लम्बाई भार क्रियात्मक क्रियाएं प्रत्यक्षीकरण सामजिक समायोजन आदि का विकास होता है । अध्यापको को उस आयु के सामान्य बालको के शारीरिक , मानसिक , सामाजिक व संवोगत्मक परिपक्वता स्तर का ज्ञान होना चाहिए जिससे वे बालकों को सही दिशा प्रदान कर सकें ।

वैसे तो विकास के सिद्धांतो के विषय मे विद्वानो के अपने – अपने विचार है लेकिन कुछ ऐसे सर्वमान्य सिद्धांत है जो सभी क्षेत्रो पर लागू होते है। और सभी वचारक उनका समर्थन करते है जो निम्न प्रकार से है ।

  1. निरन्तरता का सिद्धांत ( Principles of continuity ) विकास की प्रक्रिया कभी नही रुकने वाली प्रक्रिया है अर्थात यह जन्म से लेकर मृत्यु तक चलती रहती है बाल्कि वैज्ञानिक तरीके से देखे तो विकास की प्रक्रिया माँ के गर्भ में ही शुरू हो जाती है । बालक का जन्म दो कोषो (Cells) अर्थात शुष्क ( sperm ) ओर अड़ ( ovum ) के निषेचन के परिणामस्वरूप होता है। और कई पारिवर्तनों का अनुभव करते हुए यह निषेचित अड़ मानव बनकर विकास के कई पक्षो की ओर बढ़ती है । इस प्रकार विकास की प्रक्रिया धीरे- धीरे चली रहती है ।
  2. एकरुपता का सिद्धांत ( Principles of uniform pattern ) विकास की प्रक्रिया में एकरूपता दिखाई देती है चाहे व्यक्तिगत विभिन्नतण कितनी भी हो लेकिन यह एकरूपता विकास के क्रम के सदर्भ मे होती है । उदाहरण – बालकों मे भाषा का विकास एक निशिचत क्रम से होगा चाहे वे बच्चे किसी भी देश के हो। बच्चो का शारीरिक विकास भी एक निशिचत क्रम में ही होगा अर्थात वह सिर से प्रारम्भ होता हैं इस प्रकार हम देखते है कि बच्चो के विकास की गति में तो अन्तर हो सकता है लेकिन विकास के क्रम मे एकरूपता पायी जाती है जैसे हम देखते है कि बच्चो के दूध के दाँत पहले टूटते है।
  3. बाहरी नियंन्त्रण के आन्तरिक नियंन्त्रण का सिद्धांत  ( Principles of outer control to inner ) : छोटे बच्चे मूल्यो व सिद्धांतो के लिए दूसरो पर निर्भर करते है जैसे -जैसे वे स्वंय बड़े होने लगते है तो उनके स्वंय के सिद्धांत मूल्य, प्रणाली, स्वंय की आत्मा व स्वय का आंतरिक नियन्त्रण विकसित होने लगता है I
  4. मूर्त से अमूर्त का सिद्धांत ( Principles of correct to abstract ) : मानसिक विकास की शुरुआत भौतिक रूप से उपीस्थत वस्तुओ के बारे में चिंतन करके होता है। जो वस्तुओ को देखने के सिद्धांत का अनुसरण करता है जो अमूर्त रूप मे होती है और बालक इसके प्रभाव व कारण को समझने का प्रयास करता है ।
  5. एकीकरण का सिद्धांत  (Principles of integration) : इस सिद्धांत के अनुसार बालक पहले सम्पूर्ण अंग को और उसके बाद उसके विशिष्ट भागो को चलाना व प्रयोग करना सीखता है और बाद में उन भागे का एकीकरण करना सीखता है । जैसे पहले बच्चा पूरे हाथ को और बाद में उसकी उगंलियो को हिलाने का प्रयास करता है ।
  6. सामान्य से विशिष्ट के विकास का सिद्धांत (Principles of development from specific ) : इस सिद्धांत के अनुसार बालक पहले सामान्य बतो की और बाद में उन सभी सामान्य बातों को मिलाकर एक विशिष्ट सिद्धांत बनाना सीखता है । जैसे बच्चा पहले व्यकित का नाम , स्थान और वस्तु का नाम जानता है और बाद में जनता है कि किसी व्यक्ति वस्तु या स्थान के नाम संज्ञा कहते हैं इस प्रकार बालक का विकास सामान्य से विशिष्ट की ओर होता है ।
  7. विकास की भविष्यावाणी का सिद्धांत ( Principle of predictability of development ) : अब तक के सिद्धांत से यह भी स्पष्ट हो चुका है कि विकास की भविष्यवाणी  अब की जा सकती है । जैसे यह पता लगाया जा सकता है कि बच्चे की रूचि क्या है? बालक को सम्मान की आवश्यकता है या नहीं ? उसकी अभिरूचियाँ  और वृद्धि आदि ।
  8. विकास की दिशा का सिद्धांत (Principle of Individual difference) : जैसाकि पहले बताया जा चुका है कि बच्चे के विकास की शुरुआत सिर से होती है । और उसकी टाँगे सबसे बाद में तैयार होती है । विकास की दिशा के सिद्धांत को भ्रण ( Embryo) के सिद्धांत के आधार पर तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है।

(9) वैयक्तिक भिन्नताओं  का सिद्धांत ( Principle of Individual difference ) शिक्षा मनोविज्ञान में देखा जाता है कि मनोवैज्ञानिक वैयक्तिक भिन्नताओं के सिद्धांत को महत्वपूर्ण मानते है । चूकि जैसाकि हम जानते है कि विकास की प्रक्रिया को विभिन्न आयु वर्गो में बाँटा गया है । और सभी वर्गो की विशेषताएं अलग अलग होती है और इन आयु वर्गो के व्यवहारों में अन्तर पाया जाता है । जुडॅवा बच्चों मैं भी वैयकितक भिन्नता पायी जाती है । किसी व्यक्ति में कुध विशेषताएं या व्यवहार शीघ्र विकसित होती है तो कुध व्यकितयों में ये विशेषताएं और व्यवहार देरी से विकसित होती है । अर्थात सभी बालको में वृद्धि और विकास के संदर्भ में समानता नहीं पायी जाती है ।

(10) वातावरण और वंशानुक्रम के परिणाम सिद्धांत ( Principle of product of Heredity and environment) : वंशानुक्रम को बच्चे के व्यक्तित्व को नींव माना जाता है । और वंशानुक्रम व वतावरण के प्रभाव को विकास के सिद्धांत से अलग अलग नहीं किया जा सकता है । बच्चे की वृद्धि और विकास वंशानुक्रम व वातावरण दोनो को संयुक्त परिणाम होता है ऐसा कई अध्ययनों से पाता चलता है।

(11) सम्पूर्ण विकास का सिद्धांत (Principle of total development ) : शिक्षा मनोविज्ञान में बालक के सर्वोगींण विकास पर बल दिया जाता है जिसमें बालक का शारीरिक मानसिक सामाजिक संवेगात्मक व मनोगत्यामक विकास सभी पक्ष समिमलित कर लिए जाते है । इन द्वाष्टिकोणा से देखा जाए तो अध्यापक को बालक के सभी पक्षो के विकास की ओर ध्यान देना चाहिए ।

(12) परिपक्वता व अधिगम का सिद्धांत ( Principle of maturation and lossing ) : वृद्धि और विकास की प्रक्रिया वास्तव में परिपक्वता और अधिगम का विकास ही होता है । परिपक्वता से वृद्धि व विकास दोनो प्रभावित होते है । बालक किसी भी कार्य को करने में परिपक्वता ग्रहण कर लेता है और यही परिपक्वता अन्य कर्यो को करने में बालक की मदद करती है । उदाहरणार्थ यदि कोई बालक किसी कार्य को करने के लिए अभिप्रेरित है और वह भौतिक रूप से तैयार नहीं है तो वह बालक उस कार्य को करने मे असमर्थ ही होगा और उस बालक से अधिक आशाएं रखनी भी नहीं चाहिए !

बाल विकास से सम्बंधित एक अन्य महत्वपूर्ण सिद्धांत : One Important Principle Related with child development : पुर्नबलन सिद्धांत ( Reinforcement Theory ) इस सिद्धांत के अनुसार बच्चा जैसे – जैसे अपना विकास करता है , वह अधिगम करता है इस सिद्धांत मे पियाजे का सिद्धांत भी जुड़ा हुआ है कि जैसे – जैसे बालक की वृद्धि विकसित होती हैं वैसे – वैसे उसके अधिगम का दायरा भी बढ़ता है बाल्यावस्था के अनुभवो को आने वाली अवस्था में पुर्नबलन सिद्धांत को देने वाले विचारक डोलार्ड और मिलर (Dollar and Neal miller ) का मानना है कि नवजात शिशु को स्तनपान के व्यवहार से अर्जित भोजन की आवश्यकताओ को हमेश पूरा नहीं कर पाता । उसे अपनी भूख की आवश्यकता को पूरा करने के लिए कुध अधिक स्तनपान के कठिन व्यवहागे को सीखना होता है । इस सम्पूर्ण प्रक्रिया मे चार महत्वपूर्ण अवयव होते है ।

  1. अन्तर्नोद (अभिप्रेरणा) (2) संकेत ( उद्दीपक) (3) प्रत्युत्तर ( स्वंय का व्यवहार ) तथा (4) पुर्ननलन (पुरस्कार)

विकास की अवस्थाएँ और वृद्धि- विकास के सिद्धान्त Stages of Development and Growth – Principles of Development

विकास की अवस्थाएँ और वृद्धि- विकास के सिद्धान्त

विकास की अवस्थाएँ


हरलॉक के अनुसार-
1- जन्म से पूर्व की अवस्था गर्भावस्था।
2- जन्म से 14 दिन तक की अवस्था प्रारम्भिक शैशवावस्था
3-  2 से 11 वर्ष की बाल्यावस्था
4-  11 से 13 वर्ष वर्ष तक प्रारम्भिक किशोरावस्था
5-  13 से 17 किशोरावस्था
6-  5 से 21 उत्तर किशोरावस्था

शैले ने विकास की तीन अवस्थाएं बताई है
(1) शैशवावस्था (0-5 वर्ष तक)

(2) बाल्यावस्था  (6-12 वर्ष तक)

(3) किशोरावस्था  (13-18 वर्ष तक )

रॉस के अनुसार वर्गीकरण
(1) शैशवावस्था – 1 से 3 वर्ष तक
(2) आरम्भिक बाल्यावस्था- 3 से 6 वर्ष तक
(3) उत्तर बाल्यावस्था – 6 से 12 वर्ष तक
(4) किशोरावस्था – 12 से 18 वर्ष तक

कॉलसनिक के अनुसार विकास की अवस्थाएॅं-

 भ्रूणावस्था-जन्म से पहले की अवस्था
नव शैशवावस्था-जन्म से 4 सप्ताह तक
 आरम्भिक अवस्था-5 माह से 15 माह तक
 उत्तर शैशवावस्था-15 माह से 30 माह तक
 पूर्व बाल्यावस्था -2 से 5 वर्ष तक
 मध्य बाल्यावस्था 6 से 9 वर्ष तक
 उत्तर बाल्यावस्था 9 से 12 वर्ष तक
अर्नेस्ट जॉन्स के अनुसार वर्गीकरण

इसका वर्गीकरण सर्वाधिक उपयुक्त और मानक है।
शैशवावस्था 0.6 वर्ष तक 0 से 5.6 वर्ष तक।
 बाल्यावस्था 6 से 11.12 वर्ष तक।
 किशोरावस्था -12 वर्ष से 18 तक।
शैशवावस्था

मनुष्य को जो कुछ बनना होता है। वह 4-5 वर्ष में बन जाता है।
बालक के निर्माण का काल शैशवावस्था है। फ्रायड सिंगमंड शैशवावस्था मानव विकास की 2 अवस्था है।

शैशवावस्था की विशेषताऐं

मूल प्रवृत्तियों पर आधारित व्यवहार करते है। भूख लगने पर किसी वस्तु को मुंह में डालना।
नैतिकता का अभाव होता है। अनुकरण की प्रवृत्ति जिज्ञासा की प्रवृति।
सामाजिक भावना का विकास 5.6 वर्ष के बीच सीखने की प्रक्रिया में तीव्रता आती है।

कल्पना लोक में विचरण करता है।
दोहराने की प्रवृत्ति।

शैशवावस्था में शिक्षा का स्वरूप-
1- चित्र और कहानियों के द्वारा शिक्षा
2- खेल के द्वारा शिक्षा
3- अच्छी आदतों का निर्माण
4- मानसिक क्रियाओं का विस्तार
5- आत्म निर्भरता का विकास
6- जिज्ञासा की संतुष्टि
7- क्रिया के द्वारा सीखना

शैशवावस्था में मानसिक विकास
प्रत्यय (विज्ञान)
नोट :- शैशवावस्था में बालक में प्रत्यय निर्माण की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। वह एक और अनेक में अंतर करना सीख जाता है। यह चिंतन करना सीख जाता है।
इस अवस्था में बालक में निम्नलिखित विशेषताएॅं होती है-
1- प्रत्यय का मतलब चिंतन
2- बालक एक और अनेक में अंतर सीखना सीख जाता है।
3- बालक प्रारम्भ में ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा सीखता है।
4- मानसिक विकास का साधन ज्ञानेन्द्रियां हैं।
5- बालक में स्पर्शता और ताप दबाव जन्म के समय में उपस्थित होती है।
6- जिज्ञासा जन्मजात है।
7- सूक्ष्म, चिंतन जन्मजात है।
8- बालक ने जिज्ञासा और सूक्ष्म चिन्तन का प्रारम्भ शैशवावस्था में ही होती है।
9- बालक में रटने की क्षमता होती है।
10- स्मरण शक्ति विकसित हो जाती है।
11-
बालक में कल्पना शक्त्ति इसी शैशवावस्था में होता है।
12- इस अवस्था में शिशु कल्पना जगत में विचरण करता है। उनकी रुचि कहानियॉं सुनने में अधिक होती है। इस अवस्था में सीखने की प्रक्रिया तीव्र होती है।

शैशवावस्था में सामाजिकता का प्रभाव
1- 3 माह में मां को पहचानना।
2- 5 माह में क्रोध व प्रेम में अंतर समझने लगता।
3- 6 माह में अपरिचितों को व परिचितों को पहचानने लगता है।
4- 1 वर्ष की उम्र में मना किए जाने वाले कार्य नहीं करता है।
5- 2 वर्ष की आयु में बड़ो के साथ कोई न कोई काम करने लगता है।
6- परिवार का सक्रिय सदस्य बन जाता है।
7- 3 वर्ष में अन्य बच्चों के साथ खेलना शुरू कर देता है और उनसे सामाजिक संबंध बनाने लगता है।
8- उत्तेजना- जन्म के समय बालक मेंं केवल उत्तेजना होती है।
(उत्तेजना एक संवेग है।)

संवेग व्यक्ति की उत्तेजित दशा है-वुडवर्थ
विशिष्ट संवेग-मनोवैज्ञानिकों के अनुसार 3 मुख्य संवेग है
(1) प्रेम (2) भय (3) क्रोध और तीनों बच्चों में पाये जाते हैं।
पलायन-अपने लक्ष्य से लौटना या वापिस आना। जन्म के बाद प्रेम और भय संवेग होते हैं।
शिशु में आत्मसमान की प्रवृत्ति अधिक होती है। सामाजिक भावना का विकास 3 वर्ष की उम्र के बाद शुरू होता है।

इस अवस्था में कुछ बालक एकांतप्रिय भी होते हैं।
शिशु अधिकाधिक अनुकरण करके सीखता है।

शैशवावस्था में भाषा का विकास
नोट :- बालक (शिशु) केवल क्रन्दन करता है। उसे भाषा का ज्ञान नहीं होता है।
स नोट :- जन्म से 8 माह तक बच्चे के पास भाषा के रूप में किसी प्रकार का शब्द कोष नहीं होता है। लेकिन 1 वर्ष के बाद उसके पास शब्द कोष का विस्तार होने लगता है।
5 वर्ष की अवस्था तक बालक के पास लगभग 2500 शब्दों का शब्दकोष संग्रहित होता है।
इस काल में बालक की मानसिक योग्यताओं का विकास शुरू हो जाता है।
3 से 5 वर्ष की उम्र तक वह तुलना करना, निर्णय करने की क्षमता प्राप्त कर लेता है।
फ्रायड के अनुसार बालक में यौन भावना का विकास शैशवावस्था में शुरू हो जाता है।
इस अवस्था में बालक में आत्म प्रेम की भावना होती है।
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार लड़का अपनी मॉं से और लड़की अपने पिता से अधिक प्रेम करते हैं। अगर लड़की अपने पिता से प्रेम करती है और मां से घृणा करती है तो उसे इलेक्ट्रा कॉम्पलेक्स कहते हैं। इसके विपरीत बालक अपनी माता से प्रेम करता है और पिता से घृणा करता है उसे ओडिपस कॉम्पलेक्स कहते हैं।

बाल्यावस्था
(6 से 12 वर्ष तक की अवस्था)
बाल्यावस्था के उपनाम
1- अनोखा काल
2- छद्म परिपक्वता
3- बहिमुखी व्यक्तित्व का काल
बाल्यावस्था में बालक ने मानसिक योग्यताओं का विकास मुख्य विशेषता है। इसलिए इसे वैचारिक अवस्था का काल कहते हैं।

बाल्यावस्था की विशेषताएं
1- वास्तविक दुनिया से संबंध स्थापित होता है।
2- संग्रह की प्रवृत्ति होती है।
3- सामाजिकता का विकास (शैशवावस्था का विकास का प्रारम्भ)
4- फालतू का घूमने की प्रवृत्ति होती है।
5- समूह में घूमने की प्रवृत्ति होती है।
6- बर्हिमुखी व्यक्तित्व का विकास होता है।
7- सामूहिक रूप से खेलने की रूचि होती है।
8- रूचियों में/अभिरूचियों में परिवर्तन होता है।
9- रूचि जन्मजात नहीं होती है। रूचि परिवर्तनशील होती है।

बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप
1- 5.8 वर्ष तक उम्र में कहानी विधि द्वारा शिक्षा प्रदान की जाएं।
2- जिज्ञासा की संतुष्टि करना।
3- रचनात्मक कार्यों को करने के लिए प्रोत्साहित करना।
4- सामाजिक गुणों का विकास
5- खेल द्वारा शिक्षा
6- शिक्षा की रोचक सामग्री

बाल्यावस्था में मानसिक विकास
बाल्यावस्था में मानसिक विकास के मापदण्ड
1- संवेदना
2- कल्पना
3- निर्णय
4- स्मरण शक्ति
5- चिंतन
6- संवेदना-किसी विषय के प्रति बच्चे की रूचि/अभिरूचि
7- बुद्धि लब्धि
8- भाषा का विकास
9- 6 वर्ष तक की अवस्था में बच्चे को दायें-बायें का ज्ञान हो जाता है।
10- 7 वर्ष की अवस्था में बालक को अंतर का ज्ञान हो जाता है।
11- बाल्यावस्था/उत्तर बाल्यावस्था में बालक में बाह्य चिंतन विकसित होने लगता है।
12- रचनात्मकता का विकास होता है।
13- सूक्ष्म चिंतन शैशवावस्था में शुरू होता है।
14- यह अवस्था शारीरिक और मानसिक दृष्टि से धीमी विकास की अवस्था है। इस अवस्था को मनोवैज्ञानिकों ने मिथ्या परिपक्वता का नाम दिया।

सामाजिकता का विकास
1- विधिवत रूप से सामाजिक जीवन में प्रवेश करता है।
2- समूह की भावना विकसित होती है।
3- 6 वर्ष इस अवस्था में लड़के-लड़कियां अलग-अलग खेलना पसंद करते हैं।

वृद्धि एवं विकास के सिद्धान्त
 फेक – कोशिका की गुणात्मक वृद्धि अभिवृद्धि कहलाती है
हरलाॅक-शारीरिक अंगों की लम्बाई भार में वृद्धि चैड़ाई में वृद्धि मस्तिष्क के आकार और संरचना में वृद्धि
मुनरो-परिवर्तन श्रृंखला की वह अवस्था है जिसमें बालक भ्रूणा अवस्था से लेकर प्रौढ़ा अवस्था तक गुजरता है विकास कहलता है।
गैसल:- विकास एक परिवर्तन है। जिसके द्वारा बालक में नवीन विषेशताएं नवीन गुणों और क्षमताओं का विकास होता हैं।
जैम्स ड्रेवर-विकास प्राणाी में होने वाला प्रगतिशील परिवर्तन है जो किसी लक्ष्य की ओर निर्देषित होता है।
हरलाॅक-दो बालकों में समान मानसिक योग्यता नहीं होती है।
शर्मन-संवेदना ज्ञान की पहली सीढ़ी है नवजात शिशु में केवल दो संवेग होते हैं। सुख और दुख का है।
वाॅटसन-भय क्रोध और स्नेह तीनों संवेगों का संबंध जन्म से होता है।
अभिवृद्धि और विकास के सिद्धान्त/लक्षण
निरन्तर विकास का सिद्धान्त :- विकास निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। बच्चों में ही व्यावहारिक पविर्तन से ही विकास का पता लगाया जा सकता है। प्रथम तीन वर्ष में बालक के विकास की प्र्रक्रिया तीव्र रहती है। उसके बाद धीमी हो जाती है।
सामान्य से विशिष्ट की ओर– प्रारम्भ में बच्चा किसी वस्तु को पूरे हाथ से पकड़ता है उसके बाद अंगुलियों से इसे विकास की गामक विकास कहते है। बच्चों में सर्वप्रथम उत्तेजना का प्रारम्भ/अनुभव होता है। उत्तेजना सामान्य संवेग है जबकि अन्य विशिष्ट संवेग है।
नोट :- बालक में भाषा विकास अर्थहीन आवाजों से होता है।

मस्तष्का अधोमुखी सिद्धान्त- सिर से पांव की ओर विकास गर्भ में सर्वप्रथम सिर का विकास होता है फिर अन्य अंगों का विकास।
निकट से दूर का सिद्धान्त– सिर का सर्वप्रथम विकास केन्द्रीय स्नायुमण्डल के पास से विकास शुरू होता है। उसके बाद क्रमशः हृदय छाती, कुहिनी, अंगुलियों का विकास फिर पैरों की ओर विकास होता है।
संगठित प्रक्रिया का सिद्धान्त- एक जैसे  या एक ही क्षेत्र के विकास एक साथ जैसे-संवेगात्मक मानसिक, शारीरिक, सामाजिक विभिन्नताओं का सिद्धान्त- शैशवावस्था में विकास की गति तीव्र होती है। किशोरावस्था के अंग तक विकास की प्रक्रिया लगभग पूर्ण हो जाती है।
नोटः- विकास वंशानुक्रम और वातावरण का परिणाम है।
वृद्धि और विकास पर वंश और वातावरण का प्रभाव पड़ता है। सर्वप्रथम वंशानुक्रम का प्रभाव पड़ता है।
समान प्रतिमान का सिद्धान्त- विश्व के किसी भी हिस्से में पशु मानव और सभी प्रजातियों में विकास का एक ही मानक होती है। सभी एक ही नियम या मानक का अनुसरण करते हैं-हरलॉक
व्यक्तिगत भिन्नता का सिद्धान्त-एक ही आयु के दो बालकों दो बालिकाओं एक बालक/बालिका शारीरिक, मानसिक, सामाजिक विकास में भिन्नता होती है अर्थात् प्रत्येक बालक का बालिका से अलग-अलग स्वरूप होता है।
विकास क्रम का सिद्धान्त- तीन माह में एक बच्चा गले से आवाजें निकालना शुरू कर देता है। 6 माह आनंद देने वाली ध्वनियां निकालती है। 7 माह के बाद बच्चा दा मां के शब्दों का उच्चारण करना सीख जाता है।
परस्पर संबंध का सिद्धान्त- बच्चें में शारीरिक, मानसिक, सामजिक, सांवेगिक विकास में परस्पर संबंध होता है। शारीरिक विकास के साथ बच्चे की रूचियों में संवेगांं में बदलाव आता है।