शिक्षण – अधिगम teaching-learning

शिक्षाशास्त्र  मनोविज्ञान

  • शिक्षण जिसे अंग्रेजी में Teaching कहा जाता है। इसका तात्पर्य होता है- सीखना, पढाना, शिक्षा प्रदान करना एवं अध्ययन कार्य।
  • शिक्षा प्रक्रिया के दो अंग होते है- 1 शिक्षण, 2 अधिगम।

शिक्षण की अवधारणा

1. परम्परागत अवधारणाः 

  • शिक्षार्थी को कक्षा कक्षीय स्थिति में किसी विषय का सचेश्ट ज्ञान प्रदान करना ही अनुदेशन कहलाता है तथा यह अनुदेन देना ही शिक्षण कहलाता है।
  • यह शिक्षण की पारम्परिक अवधारणा है, इसमें एक अल्पज्ञ अपने से अधिक ज्ञान रखने वाले से सूचनाओं को प्राप्त करता है।

2. आधुनिक अवधारणाः 

  • शिक्षण की इस अवधारणा के अनुसार शिक्षण ऐसी प्रक्रिया है जिसमें विद्यार्थी, अध्यापक पाठ्यक्रम तथा अन्य विभिन्न वस्तुओं से पूर्व निश्चित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए विधिवत एवं मनोवैज्ञानिक रूप से गठित किया जाता है।

शिक्षण की परिभाषा 

  • रायबर्न के अनुसार ‘‘ शिक्षण एक ऐसा संबंध है जो बच्चे को अपनी  शक्तियों के विकास के लिए अग्रसर करता है।’’
  • बर्टन ‘‘शिक्षण अधिगम का उद्दीपन, निर्देशन एवं प्रोत्साहन है।’’
  • गेज ‘‘शिक्षण एक प्रकार का अन्तःपारस्परिक संबंध है, जिसका उद्देश्य दूसरों के व्यवहारों में परिवर्तन करना है।’’
  • स्मिथ ‘‘शिक्षण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसका सम्पादन अन्तःपारस्परिक संबंधों के माध्यम से अधिगम को बढाना है।’’
  1. शिक्षण एक त्रिध्रुवीय प्रक्रिया है, जिसमें शिक्षक, विद्यार्थी एवं पाठ्यक्रम के मध्य अन्तःक्रिया होती है।
  2. द्विमुखी शिक्षणः एडमस
  3. त्रिमुखी शिक्षणः जॉन डिवी

शिक्षण व अधिगम में अन्तर

1. क्रियाओं के आधार परः 

  • शिक्षण में जटिल परन्तु अन्तर्सम्बन्धित क्रियाएं सम्मिलित होती है, जैसे- प्रशंसा करना, प्रश्न पूछना, भाषण देना, प्रोत्साहन देना, कथन प्रदर्शन, अनुदेशन देना, निर्देश देना, विद्यार्थियों की क्रियाओं को स्वीकृत करना एवं संशोधित करना। जबकि अधिगम व्यक्तिगत क्रिया है। यह विद्यार्थी के उपक्रम में घटित होती है।

2. लक्ष्यों के आधार पर अन्तरः 

  • शिक्षण कुछ ऐसी क्रियाओं का समूह होता है जिन्हें पूर्व निश्चित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए विशेष रूप से नियोजित एवं कार्यान्वित किया जाता है। जबकि अधिगम में लक्ष्यों की प्राप्ति या शिक्षण का परिणाम निहित होता है।

3. कारण के आधार परः 

  • शिक्षण एक कार्य है जबकि अधिगम उसका परिणाम है।

4. सामाजिक कार्य के आधारः 

  • शिक्षण एक सामाजिक कार्य है जो दूसरों के हित के लिए व्यवस्थित किया जाता है। यह कार्य सामाजिक संदर्भ में घटित होता है। इसमें अध्यापक, विद्यार्थी, विषयवस्तु की जटिलता के साथ अन्तःक्रिया करता है। जबकि अधिगम एक व्यक्तिगत क्रिया है जिसमें मात्र सम्बन्धित व्यक्ति का हित निहित रहता है।

5. ईच्छा के आधार परः 

  • शिक्षण ईच्छापूर्वक किया गया एक कार्य है जबकि अधिगम कार्य की परिणीति है।

6. कार्य के आधार परः 

  • शिक्षण को एक कार्य भी कहा जा सकता है जिसमें किसी प्रकार की क्रिया निहित होती है और अधिगम को सफलता की उपलब्धि कहा जाता है।

शिक्षण व अधिगम के मध्य सम्बन्ध –

  • शिक्षण व अधिगम के मध्य घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है। शिक्षण व अधिगम को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता है। 
  • ये एक-दूसरे के अनुवर्ध्दक भी है और अनुपूरक भी है। 
  • शिक्षण ही अधिगम को उद्दीप्त, निर्देशित एवं प्रोत्साहित करता है और विद्यार्थी के प्रभावशाली समायोजन में सहायता करता है।
  • वस्तुतः अधिगम समायोजन का ही दूसरा नाम है। शिक्षण विद्यार्थी की क्रिया का निर्देशन एवं संवेगों का प्रशिक्षण है। जिससे सीखने का विकास होता है।
  • शिक्षण ही अधिगम (बच्चे) का कारण बनता है। 
  • संक्षिप्त रूप में अच्छे शिक्षण से तात्पर्य होता है, ज्यादा से ज्यादा अधिगम।

अभिप्रेरणा -अर्थ प्रकार एवं महत्व Motivation – Meaning Types and Significance

अभिप्रेरणा का अर्थ (Meaning of Motivation)  व्यवहार को समझने के लिए अभिप्रेरणा प्रत्यय का अध्ययन अति आवश्यक है। अभिप्रेरणा शब्द का प्रचलन अंग्रेजी भाषा के ‘मोटीवेशन’ (Motivation) के समानअर्थी के रूप में होता है। मोटीवेशन शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के मोटम (Motum) धातु से हुई है, जिसका अर्थ मूव (Move) या इन्साइट टू ऐक्सन (Insight to Action) होता है।   अतः प्रेरणा एक संक्रिया हैजो जीव को क्रिया के प्रति उत्तेजित करती है तथा सक्रिय करती है।

जब हमें किसी वस्तु की आवश्यकता होती है तो हमारे अन्दर एक इच्छा उत्पन्न होती है, इसके फलस्वरूप ऊर्जा उत्पन्न हो जाती है, जो प्रेरक शक्ति को गतिशील बनाती है। प्रेरणा इन ‘इच्छाओं और आन्तरिक प्रेरकों तथा क्रियाशीलता की सामूहिक शक्ति के फलस्वरूप है। उच्च प्रेरणा हेतु उच्च इच्छा चाहिए जिससे अधिक ऊर्जा उत्पन्न हो और गतिशीलता उत्पन्न हो। अभिप्रेरणा द्वारा व्यवहार को अधिक दृढ़ किया जा सकता है।

अभिप्रेरणा की परिभाषाएँ

  1. फ्रेण्डसन के अनुसार-‘‘सीखने में सफल अनुभव अधिक सीखने की प्रेरणा देते हैं।‘‘
  2. गुड के अनुसार-‘‘किसी कार्य को आरम्भ करने, जारी रखने और नियमित बनाने की प्रक्रिया को प्रेरणा कहते है।‘‘
  3. लोवेल के अनुसार-‘‘प्रेरणा एक ऐसी मनोशारीरिक अथवा आन्तरिक प्रक्रिया है, जो किसी आवश्यकता की उपस्थिति में प्रादुर्भूत होती है। यह ऐसी क्रिया की ओर गतिशील होती है, जो आवश्यकता को सन्तुष्ट करती है।‘‘

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि अभिप्रेरणा एक आन्तरिक कारक या स्थिति है,जो किसी क्रिया या व्यवहार को आरम्भ करने की प्रवृत्ति जागृत करती है। यह व्यवहार की दिशा तथा मात्रा भी निश्चित करती है।

अभिप्रेरणा के प्रकार -अभिप्रेरणा के निम्नलिखित दो प्रकार हैं—

(अ) प्राकृतिक अभिप्रेरणाएँ (Natural Motivation)- प्राकृतिक अभिप्रेरणाएँ निम्नलिखित प्रकार की होती हैं-

(1) मनोदैहिक प्रेरणाएँ– यह प्रेरणाएँ मनुष्य के शरीर और मस्तिष्क से सम्बन्धित हैं। इस प्रकार की प्रेरणाएँ मनुष्य के जीवित रहने के लिये आवश्यक है, जैसे -खाना, पीना, काम, चेतना, आदत एवं भाव एवं संवेगात्मक प्रेरणा आदि।

(2) सामाजिक प्रेरणाएँ-मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह जिस समाज में रहता है, वही समाज व्यक्ति के व्यवहार को निर्धारित करता है। सामाजिक प्रेरणाएँ समाज के वातावरण में ही सीखी जाती है, जैसे -स्नेह, प्रेम, सम्मान, ज्ञान, पद, नेतृत्व आदि। सामाजिक आवश्यकता की पूर्ति हेतु ये प्रेरणाएँ होती हैं।

(3) व्यक्तिगत प्रेरणाएँ-प्रत्येक व्यक्ति अपने साथ विशेष शक्तियों को लेकर जन्म लेता है। ये विशेषताएँ उनको माता-पिता के पूर्वजों से हस्तान्तरित की गयी होती है। इसी के साथ ही पर्यावरण की विशेषताएँ छात्रों के विकास पर अपना प्रभाव छोड़ती है। पर्यावरण बालकों की शारीरिक बनावट को सुडौल और सामान्य बनाने में सहायता देता है। व्यक्तिगत विभिन्नताओं के आधार पर ही व्यक्तिगत प्रेरणाएँ भिन्न-भिन्न होती है। इसके अन्तर्गत रुचियां, दृष्टिकोण, स्वधर्म तथा नैतिक मूल्य आदि हैं।

(ब) कृत्रिम प्रेरणा (Artificial Motivation)- कृत्रिम प्रेरणाएँ निम्नलिखित रुपों में पायी जाती है-

(1) दण्ड एवं पुरस्कार-विद्यालय के कार्यों में विद्यार्थियों को प्रेरित करने के लिये इसका विशेष महत्व है।

  • दण्ड एक सकारात्मक प्रेरणा होती है। इससे विद्यार्थियों का हित होता है।
  • पुरस्कार एक स्वीकारात्मक प्रेरणा है। यह भौतिक, सामाजिक और नैतिक भी हो सकता है। यह बालकों को बहुत प्रिय होता है, अतः शिक्षकों को सदैव इसका प्रयोग करना चाहिए।

(2) सहयोग-यह तीव्र अभिप्रेरक है। अतः इसी के माध्यम से शिक्षा देनी चाहिए। प्रयोजना विधि का प्रयोग विद्यार्थियों में सहयोग की भावना जागृत करता है।

(3) लक्ष्यआदर्श और सोद्देश्य प्रयत्न-प्रत्येक कार्य में अभिप्रेरणा उत्पन्न करने के लिए उसका लक्ष्य निर्धारित होना चाहिए। यह स्पष्ट, आकर्षक, सजीव, विस्तृत एवं आदर्श होना चाहिये।

(4) अभिप्रेरणा में परिपक्वता-विद्यार्थियों में प्रेरणा उत्पन्न करने के लिये आवश्यक है कि उनकी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखा जाए, जिससे कि वे शिक्षा ग्रहण कर सके।

(5) अभिप्रेरणा और फल का ज्ञान-अभिप्रेरणा को अधिकाधिक तीव्र बनाने के लिए आवश्यक है कि समय -समय पर विद्यार्थियों को उनके द्वारा किये गये कार्य में हुई प्रगति से अवगत कराया जायें जिससे वह अधिक उत्साह से कार्य कर सकें।

(6) पूरे व्यक्तितत्व को लगा देना-अभिप्रेरणा के द्वारा लक्ष्य की प्राप्ति से किसी विशेष भावना की सन्तुष्टि न होकर पूरे व्यक्तित्व को सन्तोष प्राप्त होना चाहिए। समग्र व्यक्तित्व को किसी कार्य में लगाना प्रेरणा उत्पन्न करने का बड़ा अच्छा साधन है।  (7) भाग लेने का अवसर देना-विद्यार्थियों में किसी कार्य में सम्मिलित होने की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। अतः उन्हें काम करने का अवसर देना चाहिएं

(8) व्यक्तिगत कार्य प्रेरणा एवं सामूहिक कार्य प्रेरणा-प्रारम्भिक स्तर पर व्यक्तिगत और फिर उसे सामूहिक प्रेरणा में परिवर्तित करना चाहिए क्योंकि व्यक्तिगत प्रगति ही अन्त में सामूहिक प्रगति होती है।

प्रभाव के नियम-मनुष्य का मुख्य उद्देश्य आनन्दानुभूति है। अतः मनोविज्ञान के प्रभाव के नियम सिद्धान्त को प्रेरणा हेतु अधिकता में प्रयोग किया जाना चाहिए।

शिक्षा में अभिप्रेरणा का महत्व  बालकों के सीखने की प्रक्रिया अभिप्रेरणा द्वारा ही आगे बढ़ती है। प्रेरणा द्वारा ही बालकों में शिक्षा के कार्य में रुचि उत्पन्न की जा सकती है और वह संघर्षशील बनता है। शिक्षा के क्षेत्र में अभिप्रेरणा का महत्व निम्नलिखित प्रकार से दर्शाया जाता है-

(1) सीखना – सीखने का प्रमुख आधार ‘प्रेरणा‘ है। सीखने की क्रिया में ‘परिणाम का नियम‘ एक प्रेरक का कार्य करता है। जिस कार्य को करने से सुख मिलता है। उसे वह पुनः करता है एवं दुःख होने पर छोड़ देता है। यही परिणाम का नियम है। अतः माता-पिता व अन्य के द्वारा बालक की प्रशंसा करना, प्रेरणा का संचार करता है।  (2) लक्ष्य की प्राप्ति– प्रत्येक विद्यालय का एक लक्ष्य होता है। इस लक्ष्य की प्राप्ति में प्रेरणा की मुख्य भूमिका होती है। ये सभी लक्ष्य प्राकृतिक प्रेरकों के द्वारा प्राप्त होते है।

(3) चरित्र निर्माण–  चरित्र-निर्माण शिक्षा का श्रेष्ठ गुण है। इससे नैतिकता का संचार होता है। अच्छे विचार व संस्कार जन्म लेते हैं और उनका निर्माण होता है। अच्छे संस्कार निर्माण में प्रेरणा का प्रमुख स्थान है।

(4) अवधान – सफल अध्यापक के लिये यह आवश्यक है कि छात्रों का अवधान पाठ की ओर बना रहे। यह प्रेरणा पर ही निर्भर करता है। प्रेरणा के अभाव में पाठ की ओर अवधान नहीं रह पाता है।

(5) अध्यापन विधियाँ  शिक्षण में परिस्थिति के अनुरूप अनेक शिक्षण विधियों का प्रयोग करना पड़ता है। इसी प्रकार प्रयोग की जाने वाली शिक्षण विधि में भी प्रेरणा का प्रमुख स्थान होता है।

(6) पाठ्यक्रम  बालकों के पाठ्यक्रम निर्माण में भी प्रेरणा का प्रमुख स्थान होता है। अतः पाठ्यक्रम में ऐसे विषयों को स्थान देना चाहिए जो उसमें प्रेरणा एवं रुचि उत्पन्न कर सकें तभी सीखने का वातावरण बन पायेगा।

(7) अनुशासन यदि उचित प्रेरकों का प्रयोग विद्यालय में किया जाय तो अनुशासन की समस्या पर्याप्त सीमा तक हल हो सकती है।

अभिप्रेरण करने की विधियाँ  कक्षा शिक्षण में प्रेरणा का अत्यन्त महत्व है। कक्षा में पढ़ने के लिये विद्यार्थियों को निरन्तर प्रेरित किया जाना चाहिए। प्रेरणा की प्रक्रिया में वे अनेक कार्य हैं, जिसके फलस्वरूप विभिन्न छात्रों का व्यवहार भिन्न होता जाता है, जैसे-सामाजिक तथा आर्थिक अवस्थाएँ, पूर्व अनुभव, आयु तथा कक्षा का वातावरण आदि सभी तत्व प्रेरणा की प्रक्रिया में सहयोग प्रदान करते हैं। अध्यापक विद्यार्थियों को सीखने तथा अभिप्रेरित करने के लिए निम्नलिखित विधियों का प्रयोग कर सकते है-

(1) खेल छात्र उन आनन्ददायक अनुभवों की इच्छा करते हैं, जिनसे सन्तोष प्राप्त होता है। खेलों से सन्तोष प्राप्त होता है। शिक्षक को खेलों द्वारा आनन्ददायक अनुभव देने चाहिए। जिससे विद्यार्थी को सन्तोष मिले। सन्तोषप्रद प्रेरणा ही विद्यार्थी को अधिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रेरित करेगी।

(2) रुचियाँ  विद्यार्थी जिस कार्य में अधिक रुचि लेता है, उसमें उसकी अधिक अभिप्रेरणा होगी और अभिप्रेरणा से वह कार्य शीघ्र एवं भली-भांति सीखा जा सकेगा। अतः शिक्षक को विद्यार्थियों की रुचियों को पहचान कर तद्नुरूप शिक्षण कार्य करना चाहिए।

(3) सफलता  अध्यापक को समस्त कक्षा के लिये सफलता के लक्ष्य निर्धारित करने चाहिए, जिनकी प्राप्ति सुगमता से हो सकें। यदि विद्यार्थी का लक्ष्य लाभप्रद है तो वह सफलता प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील होगा और तुरन्त मिलने वाले कम लाभ को छोड़ देगा।

(4) प्रतिद्वन्दिता पाठ्यसहगामी क्रियाओं में प्रतियोगिता प्रेरणा का एक विशिष्ट साधन है। विद्यालय में अध्यापक विद्यार्थियों के मध्य प्रतियोगी कार्यक्रमों के माध्यम से प्रेरणा प्रदान कर सकता है।

(5) सामूहिक कार्य विद्यार्थी अवलोकन और अनुकरण द्वारा सुगमता से सीखता है। इसलिए विद्यार्थी को प्रेरित करने के लिये अध्यापक को सामूहिक कार्यों के आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए, जिसको देखकर विद्यार्थी अनुकरण कर सकें। ऐसे आदर्शों का प्रदर्शन श्रव्य और दृश्य सामग्री के उपयोग से किया जा सकता है। छात्रों को सामूहिक कार्यों की ओर प्रेरित करना चाहिए।

(6) प्रशंसा को सुदृढ़ करना  विद्यार्थियों को अभिप्रेरित करने में प्रशंसा अधिक प्रभावशाली होती है। प्रेरणा की यह सुदृढ़ता व्यक्तिगत विद्यार्थियों में भिन्न-भिन्न होती है। उचित अवसर पर ही प्रशंसा का प्रयोग करना चाहिए।

(7) पुरस्कार द्वारा उत्साहवर्द्धन शिक्षक को विद्यार्थियों का उत्साहवर्द्धन करने के लिये उनके कार्य पर पुरस्कार प्रदान करने चाहिए। पुरस्कार विद्यार्थियों को पढ़ने के लिये उत्साहवर्द्धन में साकारात्मक प्रभाव डालते हैं। शिक्षक को पुरस्कार का प्रयोग इस प्रकार करना चाहिए जिससे विद्यार्थी में प्रेरित होकर स्वतन्त्र रूप से घर पर पढ़ने में रुचि बनी रहे।

(8) ध्यान ध्यान एकाग्रता भी प्रेरणा में सहायक होते हैं। अध्यापक छात्रों का ध्यान एकाग्र कर दूसरे शिक्षण कार्यों में प्रेरित कर सकता है।

(9) सामजिक कार्यों में सहभागिता तथा सहयोग  सहयोग और सहभागिता भी प्रेरणा का महत्वपूर्ण साधन है। सहयोग की भावना पर ही समूहों का निर्माण होता है। सहयोग और सहभागिता द्वारा सम्पूर्ण कक्षा को अध्ययन में व्यस्त रखा जा सकता है।

(10) कक्षा का वातावरण कक्षा में बाह्य एवं आन्तरिक अभिप्रेरणा दोनों ही आवश्यक होती हैं। वाहय प्रेरणा का सम्बन्ध विद्यार्थियों के बाहय वातावरण से होता है, जबकि आन्तरिक प्रेरणा का सम्बन्ध उनकी रुचियों, अभिरुचियों, दृष्टिकोण और बुद्धि आदि से होता है। यह प्राकृतिक अभिप्रेरणा होती है। इसके लिये शिक्षण विधि की आवश्यकता का ज्ञान, आत्म प्रदर्शन का अवसर योग्यतानुसार देना चाहिए।

मूल्यांकन

(1) अभिप्रेरणा से क्या अभिप्राय है? अभिप्रेरणा के प्रकारों पर प्रकाश डालिए।

(2) शिक्षा में अभिप्रेरणा का महत्व बताइए तथा विद्यालय में सीखने की प्रक्रिया को अभिप्रेरित करने के लिये विधियों का सुझाव दीजिए।

सीखने की प्रक्रिया में अभिप्रेरणा की भूमिका – सीखने की प्रक्रिया का एक सशक्त माध्यम है। इस प्रक्रिया द्वारा व्यक्ति जीवन के सामाजिक, प्राकृतिक एवं व्यक्तिक क्षेत्र में अभिप्रेरणा द्वारा ही सफलता की सीढ़ी तक पहुँच जाता है। सीखने की प्रक्रिया में अभिप्रेरणा की भूमिका का वर्णन निम्नलिखित रुप में किया गया है-

  • शिक्षक को विद्यार्थियों के समक्ष कार्य से सम्बन्धित समस्त उद्देश्य रखना चाहिए जिससे सीखने की प्रक्रिया प्रभावशाली बन सकें।
  • उच्च आकांक्षाएं, स्पष्ट उद्देश्य तथा परिणामों का ज्ञान विद्यार्थी की आत्म-प्रेरणा के लिए प्रोत्साहन का कार्य करते है।
  • शिक्षक छात्रों में रुचि उत्पन्न कर ध्यान को केन्द्रित कर देता है जिससे रुचियों के बढ़ने से अभिप्रेरणा में वृद्धि होती है।
  • यदि शिक्षक विद्यार्थियों की आयु तथा मानसिक परिपक्वता के अनुरूप उन्हें कार्य दें तो सीखने की प्रक्रिया प्रभावित होगी।
  • सीखने के लिए प्रतियोगिताएँ बहुत प्रभावशाली माध्यम है। प्रतियोगिता और सहयोग लोकतान्त्रिक प्रवृत्तियों के विकास के लिये अभिप्रेरणा का मार्ग प्रशस्त करते हैं

इस प्रकार सीखने की प्रक्रिया में अभिप्रेरणा की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है।

विद्यालयी व्यवस्था के सन्दर्भ में समुदाय के सक्रिय सदस्यों का अभिप्रेरणा

विद्यालय व्यवस्था का संचालन एक महत्वपूर्ण विषय है। विद्यालय व्यवस्था का आदर्श स्वरूप प्रदान करने के लिये यह आवश्यक है कि विद्यालय से सम्बन्धित सभी मानवीय संसाधनों का उचित उपयोग किया जाए। मानवीय पक्ष के उचित कार्य के लिये यह आवश्यक है कि उनको समय-समय पर अभिप्रेरित किया जाय, जिससे अपने कर्तव्य के प्रति उत्साह बना रहे। मानवीय पक्ष की उदासीनता समाप्त करने का प्रभुख साधन अभिप्रेरणा है। इसके कुछ उदाहरण निम्नलिखित है- समुदाय के सक्रिय सदस्यों का अभिप्रेरण- समुदाय में इस प्रकार के अनेक व्यक्ति होते हैं, जो धन एवं मानव शक्ति से सम्पन्न होते हैं। उन्हें विद्यालय से जोड़ने के लिये विद्यालय कार्यक्रमों में आमन्त्रित किया जाय तथा मुख्य अतिथि का पद प्रदान किया जाय। शिक्षा के महत्व एवं विद्यालय की समस्याओं से अवगत कराया जाय। उन्हें यह बताया जाय कि आपके द्वारा विद्यालय व्यवस्था में सहयोग करने से आपके यश में वृद्धि होगी तथा समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त होगी। इस प्रकार के अभिप्रेरण से उनका विद्यालय में सहयोग प्राप्त किया जा सकता है। इसी प्रकार समुदाय के अन्य सक्रिय सदस्यों का सहयोग प्राप्त किया जा सकता है। इस कार्य से अधिगम प्रक्रिया में तीव्रता आयेगी।

ग्राम शिक्षा समितियों का अभिप्रेरण-ग्राम शिक्षा समितियों के अभिप्रेरण का प्रमुख दायित्व शिक्षक एवं शिक्षा विभाग के अधिकारियों का होता है। यदि ग्राम शिक्षा समिति उदासीन है तो इसके लिये मासिक बैठक में शिक्षक द्वारा ग्राम शिक्षा समिति के सदस्यों को बताया जाय कि वह विद्यालय तथा उसके छात्र एवं छात्राएं आपके हैं। अतः आपका दायित्व है कि विद्यालय एवं छात्रों की सम्पूर्ण व्यवस्था पर आप ध्यान दें। ग्राम शिक्षा समिति के उचित सुझावों को स्वीकार करना चाहिए तथा उसके सदस्यों को अपने विचार रखने का पूर्ण अवसर दिया जाना चाहिये। अच्छी ग्राम शिक्षा समिति को पुरस्कार भी प्रदान करना चाहिये। जिससे उसके सदस्यों में सामूहिक रूप से कार्य करने की भावना का विकास होगा तथा वह अपनी आदर्श भूमिका प्रस्तुत करेंगें।

शिक्षित एवं बेरोजगार युवक युवतियों का अभिप्रेरण-अनेक ग्रामों में शिक्षित युवक एवं युवतियाँ बेरोजगारी की स्थिति में होते हैं। ऐसे युवक एवं युवतियों को विद्यालयी व्यवस्था से सम्बद्ध करके छात्रों के अधिगम स्तर को तीव्र बनाया जा सकता है क्योंकि इसमें अनेक प्रतिभाओं से सम्पन्न युवक एवं युवतियाँ सम्मिलित होते हैं। उनकी इस प्रतिभा का उपयोग करके विद्यालयी व्यवस्था एवं छात्रों के अधिगम स्तर को तीव्र बनाया जा सकता है। विद्यालय कायक्रमों में ऐसे शिक्षित बेरोजगारों को पुरस्कार प्रदान किया जाए तथा समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों द्वारा उनके कार्य की प्रशंसा एवं सराहना करनी चाहिए।

इस प्रकार विद्यालय व्यवस्था का आदर्श रूप स्थापित करने के लिए ग्राम शिक्षा समिति, समाज के प्रतिष्ठित एवं सक्रिय सदस्य एवं शिक्षित बेरोजगारों का सहयोग प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। तभी हम शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति कर सकेंगे। इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि विद्यालय व्यवस्था एवं अधिगम प्रक्रिया में सामाजिक अभिप्रेरण महत्वपूर्ण स्थान रखता है।

शिक्षण अधिगम प्रक्रिया और शिक्षण विधियाँ Teaching Learning Process and Teaching Methods

शिक्षण अधिगम प्रक्रिया ( Shikshan Adhigam Prakriya ) और सीखना चारों ओर के परिवेश से अनुकूलन में सहायता करता है। किसी विशिष्ट सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में कुछ समय रहने के पश्चात् हम उस समाज के नियमों को समझ जाते हैं और यही हमसे अपेक्षित भी होता है। हम परिवार, समाज और अपने कार्यक्षे त्र के जिम्मे दार नागरिक एवं सदस्य बन जाते हैं। यह सब सीखने के कारण ही सम्भव है। हम विभिन्न प्रकार के कौशलों को अर्जित करने के लिये सीखने का ही प्रयोग करते हैं। परन्तु सबसे जटिल प्रश्न यह है कि हम सीखते कैसे हैं?

शिक्षण क्या है?

शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षण सबसे प्रमुख हैं। शिक्षण एक सामाजिक प्रक्रिया हैं। शिक्षण शब्द शिक्षा से बना हैं जिसका अर्थ हैं ‘ शिक्षा प्रदान करना‘। शिक्षण की प्रक्रिया मानव व्यवहार को परिवर्तित करने की तकनीक हैं अर्थात् शिक्षण का उद्देश्य व्यवहार परिवर्तन हैं।

शिक्षण एवं अध्ययन, एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें बहुत से कारक शामिल होते हैं। सीखने वाला जिस तरीके से अपने लक्ष्यों की ओर बढ़ते हुए नया ज्ञान, आचार और कौशल को समाहित करता है ताकि उसके सीख्नने के अनुभवों में विस्तार हो सके, वैसे ही ये सारे कारक आपस में संवाद की स्थिति में आते रहते हैं।

पिछली सदी के दौरान शिक्षण पर विभिन्न किस्म के दृष्टिकोण उभरे हैं। इनमें एक है ज्ञानात्मक शिक्षण, जो शिक्षण को मस्तिष्क की एक क्रिया के रूप में देखता है। दूसरा है, रचनात्मक शिक्षण जो ज्ञान को सीखने की प्रक्रिया में की गई रचना के रूप में देखता है। इन सिद्धांतों को अलग-अलग देखने के बजाय इन्हें संभावनाओं की एक ऐसी श्रृंखला के रूप में देखा जाना चाहिए जिन्हें शिक्षण के अनुभवों में पिरोया जा सके। एकीकरण की इस प्रक्रिया में अन्य कारकों को भी संज्ञान में लेना जरूरी हो जाता है- ज्ञानात्मक शैली, शिक्षण की शैली, हमारी मेधा का एकाधिक स्वरूप और ऐसा शिक्षण जो उन लोगों के काम आ सके जिन्हें इसकी विशेष जरूरत है और जो विभिन्न सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से आते हैं।

अधिगम क्या है?

सीखना या अधिगम (learning) एक व्यापक सतत् एवं जीवन पर्यन्त चलनेवाली महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। मनुष्य जन्म के उपरांत ही सीखना प्रारंभ कर देता है और जीवन भर कुछ न कुछ सीखता रहता है। धीरे-धीरे वह अपने को वातावरण से समायोजित करने का प्रयत्न करता है। इस समायोजन के दौरान वह अपने अनुभवों से अधिक लाभ उठाने का प्रयास करता है। इस प्रक्रिया को मनोविज्ञान में सीखना कहते हैं। जिस व्यक्ति में सीखने की जितनी अधिक शक्ति होती है, उतना ही उसके जीवन का विकास होता है। सीखने की प्रक्रिया में व्यक्ति अनेक क्रियाऐं एवं उपक्रियाऐं करता है। अतः सीखना किसी स्थिति के प्रति सक्रिय प्रतिक्रिया है।

उदाहरणार्थ – छोटे बालक के सामने जलता दीपक ले जानेपर वह दीपक की लौ को पकड़ने का प्रयास करता है। इस प्रयास में उसका हाथ जलने लगता है। वह हाथ को पीछे खींच लेता है। पुनः जब कभी उसके सामने दीपक लाया जाता है तो वह अपने पूर्व अनुभव के आधार पर लौ पकड़ने के लिए, हाथ नहीं बढ़ाता है, वरन् उससे दूर हो जाता है। इसीविचार को स्थिति के प्रति प्रतिक्रिया करना कहते हैं। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि अनुभव के आधार पर बालक के स्वाभाविक व्यवहार में परिवर्तन हो जाता है।

शिक्षण अधिगम प्रक्रिया

सीखना चारों ओर के परिवेश से अनुकूलन में सहायता करता है। किसी विशिष्ट सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में कुछ समय रहने के पश्चात् हम उस समाज के नियमों को समझ जाते हैं और यही हमसे अपेक्षित भी होता है। हम परिवार, समाज और अपने कार्यक्षे त्र के जिम्मे दार नागरिक एवं सदस्य बन जाते हैं। यह सब सीखने के कारण ही सम्भव है। हम विभिन्न प्रकार के कौशलों को अर्जित करने के लिये सीखने का ही प्रयोग करते हैं।

1. अनुभव, क्रिया-प्रतिक्रिया, निर्देश आदि प्राणी के वयवहार में परिवर्तन लाते रहते है। यह अधिगम का व्यापक अर्थ है।
2. सामान्य अर्थ-व्यव्हार में परिवर्तन होना या सीखना होता है।
3. गिल्फोर्ड -” व्यवहार के कारण में परिवर्तन होना अधिगम है ” ( अधिगम स्वय व्यव्हार में परिवर्तन का कारण है)।
4. स्किनर -” व्यवहार के अर्जन में उन्नति की प्रक्रिया ही अधिगम है “।
5. काल्विन -“पहले से निर्मित व्यवहार में अनुभव द्वारा परिवर्तन ही अधिगम है “।
6. अधिगम की पूरक प्रक्रिया विभेदीकरण या विशिष्टीकरण भी मानी गई है। जैसे -खिलोने के सभी घटकों को अलग कर फिर से जोड़ना।
7. अधिगम सदैव लक्ष्य-निर्दिष्ट व सप्रयोजन होता है। यदि अधिगम के लक्ष्यों को स्पस्ट और निश्चित कथन में दिया जाये तो अधिगमकर्ता के लिए अधिगम अर्थपूर्ण तथा सप्रयोजन होगा।
8. अधिगम एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है जैसे विकास।
9. अधिगम व्यक्तिगत होता है अर्थात प्रत्येक अधिगमकर्ता अपनी गति से,रूचि, आकांक्षा, समस्या, संवेग, शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य आदि के आधार पर सीखता है। इसमें अभिप्रेरनात्मक करना भी होते है।
10. अधिगम सृजनात्मक होता है अर्थात अधिगम ज्ञान व अनुभवों का सृजनात्मक संश्लेषण है।

शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले कारक

बालक के लिए कारक :- 1. सिखने की इच्छा 2. शैक्षिक प्रष्ठभूमि 3. शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य 4. परिपक्वता 5. अभिप्रेरणा 6. अधिगम कर्ता की अभिवृति 7. सिखने का समय व अवधि और 8.बुद्धि

अध्यापक के लिए कारक :- 1. अध्यापक का विषय ज्ञान, 2. शिक्षक का व्यवहार 3. शिक्षक को मनोविज्ञान का ज्ञान 4. शिक्षण विधि 5. व्यक्तिगत भेदों का ज्ञान 6. शिक्षक का व्यक्तित्व 7. पाठ्य-सहगामी क्रियाएं और 8. अनुशासन की स्थिति

शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के नियम

पावलाव, स्किनर आदि ने जिस प्रकार अधिगम सिद्धांतवादों का प्रतिपादन किया उसी प्रकार थार्नडायिक ने अधिगम के नियमो का प्रतिपादन किया है-

1. तत्परता का नियम: जब तक कोई अधिगम कर्ता सिखने के लिए अपने मन से तत्पर नहीं है तब तक अधिगम कठिन है।

2. अभ्यास का नियम: क्युकी शिक्षा,शिक्षण और अधिगम का मूल उद्देश्य विद्यार्थिओं में व्यवहारगत परिवर्तन लाना है। अतः व्यवहार में निरंतर अभ्यास न होने पर उसे भूल जाते है अतः अभ्यास अधिगम में बहुत महत्वपूर्ण है।

3. प्रभाव का नियम: जिस बात की जीवन उपयोगिता जितनी अधिक होगी बालक सिखने के लिए उतना ही अधिक प्रभावित होगा। साथ ही पूर्वज्ञान के प्रभाव में भी वह नए ज्ञान का अधिगम करता है।

शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के सिद्धांत

साहचर्यवादी –

1. अनुकरण सिद्धांत – अनुकरण का सिद्धांत प्लेटो और अरस्तु की उपज है। इसके अनुसार अधिगम की प्रक्रिया में सुनी हुई बात की अपेक्षा देखि हुई या किसी परिस्थिति में घटित हुई बात का प्रभाव अधिक होता है। यही करना है की विद्यार्थी शिक्षक का अनुकरण (नक़ल) करते है।

2. प्रयत्न एवं भूल का सिद्धांत – थार्नडायिक इस सिद्धांत के प्रणेता है। उनके अनुसार अधिगम, परिस्थिति और उसके परिणामों क बीच पारस्परिक संबंधो का परिणाम है। किसी कार्य को करने का प्रयत्न तो कोई भी कर सकता है किन्तु उसमे सुधर मस्तिस्क की विशेष प्रक्रिया है। मस्तिस्क विकसित होता जाता है और जीरो-इरर की स्थिति आदर्श होती है। नए प्रयोग और नेई खोज आदि के लिए इस सिद्धांत अत्यंत उपयोगी है।

व्यव्हारवादी –

1. पावलाव का सिद्धांत – इसे पावलाव का अनुकूलित अनुक्रिया सिद्धांत / क्लासिकी अनुबंध / शाश्त्रीय अनुबंध सिद्धांत वाद भी कहते है, यह व्यव्हार वादी सिद्धांत है। इसको मानने वालों में पावलाव,स्किनर, वाटसन आदि है। पावलाव ने कुत्तों पर, स्किनर ने चूहों पर, और वाटसन ने खरगोश के बच्चो पर प्रयोग किये। इस सिद्धांत में – ” स्वाभाविक उद्दीपक के साथ कृत्रिम उद्दीपक को इस प्रकार अनुबंधित किया जाता है की अनुक्रिया अंत में कृत्रिम उद्दिपक से ही अनुबंधित रह जाती है। इसलिए इसे उद्दीपन-अनुक्रिया -सिद्धांत भी कहते है। अधिगम की दृष्टि से देखें तो बालक को लोरी सुनाना, प्रशंसा करना आदि उद्दीपक से धीरे-धीरे जो अनुक्रिया होती है वह अंततः आदत बन जाती है . अर्थात उत्तेजक द्वारा उत्प्रेरण का इस सिद्धांत में बड़ा महत्त्व है।.

2. स्किनर का सिद्धांत – इसे क्रियाप्रसूत अनुबंधन का सिद्धांत भी कहते है। यह एक अधिगम प्रक्रिया है जिसके द्वारा अधिगम अनुक्रिया को अधिक संभाव्य और द्रुत बनाया जाता सकता है। स्किनर की मान्यता है की मानव का समग्र व्यवहार क्रियाप्रसूत पुनर्बलन है। जब कोई बात किसी व्यव्हार के किसी रूप को पुनर्बलित करती है तो उस व्यव्हार की आवृति अधिक होती है। प्रबलन जीतना अधिक शक्तिशाली होगा व्यवहार की आवृति उतनी ही अधिक होगी। प्राकृतिक प्रबलन सबसे अधिक शक्तिशाली होते है। अभिवृतिया, जीवन -मूल्य आदि कृत्रिम है परन्तु स्थाई प्रबलन है।

गेस्टाल्टवादी –

1. सूझ का सिद्धांत – व्यव्हार वादी वैज्ञानिकों ने पशु-पक्षियों पर प्रयोग निष्कर्ष मानव के अधिगम से जोड़े जो अधिगमकर्तायों को स्वीकार नहीं था। इन वैज्ञानिकों का मानना है की कुछ सभ्यता तो हो सकती है लेकिन मानव का अधिगम पूरी तरह पशु-पक्षियों के अधिगम की भांति नहीं हो सकता, अधिगम सदैव प्रयोजनपूर्ण होता है। और पशु पक्षियों पर किये जाने वाले कई प्रयोग पूरी तरह कृत्रिम वातावरण पर आधारित होते है। यह सिद्धांत ज्ञान के उद्देश्पुर्ती पर बल अधिक नहीं देता है बल्कि कौशल के विकास पर अधिक बल देता है। सूझ द्वारा अधिगम सिद्धांत केलिए कोहलर ने प्रयोग किये है।

शिक्षण अधिगम या सीखने के नियम

मुख्य नियम: सीखने के मुख्य नियम तीन है जो इस प्रकार हैं –

1. तत्परता का नियम – इस नियम के अनुसार जब व्यक्ति किसी कार्य को करने के लिए पहले से तैयार रहता है तो वह कार्य उसे आनन्द देता है एवं शीघ्र ही सीख लेता है। इसके विपरीत जब व्यक्ति कार्य को करने के लिए तैयार नहीं रहता या सीखने की इच्छा नहीं होती हैतो वह झुंझला जाता है या क्रोधित होता है व सीखने की गति धीमी होती है।

2. अभ्यास का नियम – इस नियम के अनुसार व्यक्ति जिस क्रिया को बार-बार करता है उस शीघ्र ही सीख जाता है तथा जिस क्रिया को छोड़ देता है या बहुत समय तक नहीं करता उसे वह भूलने लगताहै। जैसे‘- गणित के प्रष्न हल करना, टाइप करना, साइकिल चलाना आदि। इसे उपयोग तथा अनुपयोग का नियम भी कहते हैं।

3. प्रभाव का नियम – इस नियम के अनुसार जीवन में जिस कार्य को करने पर व्यक्ति पर अच्छा प्रभाव पड़ता है या सुख का या संतोष मिलता है उन्हें वह सीखने का प्रयत्न करता है एवं जिन कार्यों को करने पर व्यक्ति पर बुरा प्रभाव पडता है उन्हें वह करना छोड़ देता है। इस नियम को सुख तथा दुःख या पुरस्कार तथा दण्ड का नियम भी कहा जाता है।

गौण नियम: सीखने के गौण नियम पांच है जो इस प्रकार हैं

1. बहु अनुक्रिया नियम – इस नियम के अनुसार व्यक्ति के सामने किसी नई समस्या के आने पर उसे सुलझाने के लिए वह विभिन्न प्रतिक्रियाओं के हल ढूढने का प्रयत्न करता है। वह प्रतिक्रियायें तब तक करता रहता है जब तक समस्या का सही हल न खोज ले और उसकी समस्यासुलझ नहीं जाती। इससे उसे संतोष मिलता है थार्नडाइक का प्रयत्न एवं भूल द्वारा सीखने का सिद्धान्त इसी नियम पर आधारित है।

2. मानसिक स्थिति या मनोवृत्ति का नियम – इस नियम के अनुसार जब व्यक्ति सीखने के लिए मानसिक रूप से तैयार रहता है तो वह शीघ्र ही सीख लेता है। इसके विपरीत यदि व्यक्ति मानसिक रूप से किसी कार्य को सीखने के लिए तैयार नहीं रहता तो उस कार्य को वह सीख नहीं सकेगा।

3. आंशिक क्रिया का नियम – इस नियम के अनुसार व्यक्ति किसी समस्या को सुलझाने के लिए अनेक क्रियायें प्रयत्न एवं भूल के आधार पर करता है। वह अपनी अंर्तदृष्टि का उपयोग कर आंषिक क्रियाओं की सहायता से समस्या का हल ढूढ़ लेता है।

4. समानता का नियम – इस नियम के अनुसार किसी समस्या के प्रस्तुत होने पर व्यक्ति पूर्व अनुभव या परिस्थितियों में समानता पाये जाने पर उसके अनुभव स्वतः ही स्थानांतरित होकर सीखने में मद्द करते हैं।

5. साहचर्य परिवर्तन का नियम – इस नियम के अनुसार व्यक्ति प्राप्त ज्ञान का उपयोग अन्य परिस्थिति में या सहचारी उद्दीपक वस्तु के प्रति भी करने लगता है। जैसे-कुत्ते के मुह से भोजन सामग्री को देख कर लार टपकरने लगती है। परन्तु कुछ समय के बाद भोजन के बर्तनको ही देख कर लार टपकने लगती है।

अधिगम की परिभाषा और अर्थ – अधिगम की प्रक्रिया और महत्पूर्ण विशेषताएँ

अतः एक अच्छा विद्यार्थी सीखने के हर मौके को एक अच्छा अवसर मानकर उसका उपयोग करता है। सीखने की पूर्व उल्लिखित विभिन्न विधियाँ या प्रकार सीखने के बारे में कुछ मूल विचार प्रकट करते हैं। व्यक्तित्व, रुचि या अभिवृत्तियों में आने वाले परिवर्तन सीखने के कतिपय प्रकारों के परिणामस्वरूप होते हैं। यह बदलाव एक जटिल प्रक्रिया के साथ होते हैं। सीखने में उन्नति के साथ आप में सीखने की क्षमता विकसित हो ती है। अगर आप सीखते हैं तो आप एक बेहतर व्यक्ति, कार्यशैली में लचीले और सत्य को सराहने की निपुणता वाले बन जाते हैं।

एक समस्या समाधानकर्ता और एक ‘वैैज्ञानिक अन्वेषक’ केे रूप मेें बालक। Child as a problem solver and a ‘scientific investigator’.

बालक एक समस्या समाधानकर्ता केे रूप मेें:

स्कूली जीवन में एक बच्चे के समक्ष अनेक समस्याएं आती है तथा उसका समाधान भी उसे ही ढूँढना होता है। बच्चो को इस स्तर के योग्य बनाने के लिय आवश्यक है की उसका व्यक्तिगत विकास किया जाये ताकि वह सभी प्रकार की स्थितियों का सही ढंग से सामना कर सके। बच्चो को समस्या समाधाक के रूप में बनाने के लिए निम्नलिखित गुणों का विकास किया जा सकता है-

  • बच्चो में आत्मपहचान का  गुण विकसित करना 
  • अपनी कमी को स्वीकारना और दूर करना सीखना 
  • बच्चो को स्वावलम्बी बनने  लिए प्रोत्साहित करना 
  • बच्चो में भाषा का विकास करना 
  • बच्चो को बार बार प्रयास करना 

बालक एक वैैज्ञानिक अन्वेषक केे रूप मेें:

जब बालक अपने ज्ञान और अनुभव के माध्यम से किसी समस्या के प्रत्येक पहलु को जानने लगता है तथा खुद ही समस्या का समाधान खोज लेता है तब बच्चे में एक वैज्ञानिक अन्वेषक के गुण आने लगते है। तथा वह अपनी समस्याओ का खुद समाधान करने लगता है।

बच्चे को वैज्ञानिक अन्वेषक के रूप में बनने के लिए निम्नलिखित गुणों का विकास किया जा सकता है।

  • बच्चो के समक्ष छोटी-छोटी समस्या रखकर 
  • बच्चो को संभावित समाधानो के निर्माण हेतु प्ररित करके 
  • बच्चे के दुआरा बताए गए संभावित परिणामो का परीक्षण करके 

अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक कौन-कौन से हैं Factors affecting learning

सीखने को प्रभावित करने वाले कारक या अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक(factors affecting learning in hindi)

अधिगम को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं-
A. विद्यार्थी से संबंधित कारक
B. शिक्षक से संबंधित कारक
C. विषय वस्तु से संबंधित कारक
D. वातावरण से संबंधित कारक

A. विद्यार्थी से संबंधित कारक (factors related to students):

विद्यार्थी से संबंधित कारक निम्नलिखित हैं:
१. शारीरिक स्वास्थ्य
२. मानसिक स्वास्थ्य
३. सीखने की इच्छा
४. सीखने की समय
५. सीखने में तत्पर्यता
६. विद्यार्थी या बालक की मूलभूत क्षमता
७. बुद्धि स्तर
८. रूचि
९.अभिप्रेरणा का स्तर

१. शारीरिक स्वास्थ्य(physical health)

किसी भी कार्य को सीखने में विद्यार्थी का शारीरिक स्वास्थ्य बहुत ही महत्वपूर्ण होता है यदि बालक शारीरिक रूप से स्वस्थ होगा तो वह अपने अधिगम में रुचि लेगा इसके विपरीत यदि बालक को कोई शारीरिक कष्ट होता है तो उसका पूरा ध्यान उसी में लगा रहता है और वह अपने कार्य में समंग रूप से ध्यान नहीं लगा पता अतः अधिगम(learning) के लिए बालक का शारीरिक रूप से स्वस्थ होना अति आवश्यक है।

२. मानसिक स्वास्थ्य(mental health)

किसी भी कार्य को सीखने के लिए शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य भी अति आवश्यक होता है यदि बालक मानसिक रूप से स्वस्थ है तो वह किसी भी कार्य या बात को जल्दी सीख लेता है नहीं तो वह कार्य को सीखने में ज्यादा समय लगाता है वह उसे ज्यादा समय तक याद नहीं रख पाता।

३. सीखने की इच्छा(willingness to learn)

शारीरिक स्वास्थ्य या मानसिक स्वास्थ्य के सही होने पर बालक में किसी कार्य को सीखने की इच्छा होनी चाहिए। यदि उसमें कार्य सीखने की इच्छा होती है तब वह कार्य को शीघ्रता से सीखने में सफल हो जाता है इसके लिए बालकों में कुछ पाने की चाह या इच्छा होनी चाहिए।

४. सीखने की समय(learning time)

यदि बालक को कोई किरिया ज्यादा देर तक सिखाई जाती हैं तो वह थकान महसूस करने लगता है इस स्थिति में बालक में क्रिया को सीखने के प्रति उदासीनता आ जाती हैं अतः बालक को कोई भी क्रिया सिखाते समय इस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि बालक को लगातार ज्यादा समय तक कोई कार्य न कराया जाए इसके बीच थोड़ा समय अंतराल होना चाहिए।

५. सीखने में तत्परता(readiness to learn)

जब बालक से सीखने(learning) के लिए तत्पर या तैयार होता है तो उस स्थिति में बालक किसी भी कार्य को जल्दी सीख लेता है एवं उसे ज्यादा समय तक अपने मास्तिष्क में धारण रखता है। लेकिन यदि बालक किसी कार्य को सीखने के लिए तत्पर नहीं होता तो वह या तो उस कार्य को सीख नहीं पाएगा और यदि सीख भी लेता है तो शीघ्रता से भूल जाएगा। अतः किसी कार्य को बालक को सिखाने के लिए उस कार्य के प्रति तत्परता या रुझान उत्पन्न करना चाहिए।

६. विद्यार्थी या बालक की मूलभूत क्षमता(basic ability of the student)

प्रत्येक पालक की अपनी कुछ ना कुछ मूलभूत क्षमताएं होती है जिसको आधार बनाकर के क्रियाओं को सिखाना चाहिए। इसके अंतर्गत बालक की अंतर्निहित शक्ति संवेगात्मक दृष्टि आते हैं। यदि बालकों को कोई कार्य उसकी मूलभूत क्षमता के अनुसार सिखाया जाता है तो वह कार्य में शीघ्र निपुणता प्राप्त कर लेता है। अतः कार्यों का प्रशिक्षण देने से पूर्व बालक की मूलभूत क्षमताओं की जानकारी ले लेनी चाहिए नहीं तो उपयुक्त परिणाम प्राप्त नहीं होगा।

७. बुद्धि स्तर(intelligence level)

सभी विद्यार्थी या बालक भिन्न-भिन्न बुद्धि वाले होते हैं सामान्य प्रतिभाशाली मूर्ख मंदबुद्धि आदि विद्यार्थी को कोई कार्य सिखाने से पहले उसके बुद्धि स्तर को जान लेना चाहिए। इसके उपरांत ही उसी की कारें सिखाना चाहिए। जब विद्यार्थी को उसके बुद्धि स्तरीय क्षमता के अनुसार कोई कार्य सिखाया जाता है तो उसे समझने में सरलता होती है या सहायता मिलती है एवं इस स्थिति में कार्यों को जल्दी सीख लेता है।

८. रूचि(interest)

जिस प्रकाinterestर विद्यार्थी या बालक को कोई कार्य सिखाने(Learning) में अभिप्रेरणा(motivation) आवश्यक होती है उसी प्रकार कार्य के प्रति विद्यार्थी की रूचि का होना आवश्यक है सुरुचिपूर्ण कार्यों को बालक जल्दी सीख लेता है वह इससे उसे आनंद की अनुभूति होती है।

९.अभिप्रेरणा का स्तर (motivation level)

प्रत्येक बालक को सीखने की प्रक्रिया(process of learning) के लिए अधिक से अधिक प्रेरणा का प्रयोग करना चाहिए। जिससे बालक को कार्य के प्रति प्रेरित किया जा सकता है इसके अनुपस्थिति में बालक कार्य तो करता है लेकिन लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाता।

B. शिक्षक से संबंधित कारक (factors related to teacher)

१. विषय का ज्ञान
२. शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य
३. समय सारणी का निर्माण
४. व्यक्तिगत विभिन्नता का ज्ञान
५. शिक्षण पद्धति
६. शिक्षक का व्यक्तित्व
७. अध्यापक का व्यवहार
८. पढ़ाने की इच्छा
९. व्यवसाय के प्रति निष्ठा
१०. अभ्यास कार्य को दोहराने की व्यवस्था
११. बाल केंद्रित शिक्षा पर बल
१२. मनोविज्ञान एवं बाल प्रकृति का ज्ञान

१. विषय का ज्ञान(subject knowledge): 

कोई भी अध्यापक अपने छात्रों को अपने विषय का पूर्ण ज्ञान होने पर ही प्रभावित कर सकता है। ज्ञान विहिन शिक्षक ना तो छात्रों से सम्मान या आदत प्राप्त कर सकता है और ना ही उनके मस्तिष्क का विकास कर सकता है। अपने विषय का पूर्ण ज्ञाता होने पर ही शिक्षक आत्मविश्वास पूर्वक बालकों को नवीन ज्ञान प्रदान करते व्वे उनके मस्तिष्क का विकास कह सकता है।

२. शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य(physical and mental health):

शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से स्वस्थ होने पर ही शिक्षक बालकों का ध्यान केंद्रित कर प्रभावशाली ढंग से शिक्षण प्रदान कर सकता है।

३. समय सारणी का निर्माण(timetable creation):

विद्यालयों में समय सारणी का निर्माण करते समय इस बात का ध्यान आवश्य रखना चाहिए कि एक साथ लगातार दो कठिन विषयों को ना लगाया जाये वह कठिन विषयों को समय सारणी में प्रथम चरण में रखना चाहिए क्योंकि प्रथम चरण बालक में तरोताजगी एवं फूर्ति होती है एवं व शारीरिक एवं मानसिक रूप से सीखने के लिए तैयार रहते हैं।

४. व्यक्तिगत विभिन्नता का ज्ञान(knowledge of individual differences)

अध्यापक को व्यक्तिगत विभिन्नताओं(individual differences) के संबंध में जानकारी होनी नितांत आवश्यक है। मनोविज्ञान के प्रदुर्भाव के क्षेत्र में व्यक्तिगत विभिन्नताओं को महत्व प्रदान किया जा रहा है। इसलिए आज बालक की रुचि अभिरुचि योग्यता क्षमता इत्यादि को ध्यान में रखकर ही उन्हें शिक्षा प्रदान की जाती है। व्यक्तिगत विभिन्नताओं का ज्ञान होने पर ही शिक्षक अपने शिक्षण को सफल बना सकता है।

५. शिक्षण पद्धति(teaching method):

अधिगम प्रक्रिया से शिक्षण पद्धति का प्रत्यक्ष संबंध होता है। समस्त बालकों को एक ही शिक्षण विधि से नहीं पढ़ाया जा सकता है क्योंकि प्रत्येक छात्र दूसरे छात्र से भिन्न होता है। अतः शिक्षक द्वारा प्रयुक्त की जाने वाली शिक्षण पद्धति अधिक प्रभावी वा मनोवैज्ञानिक होनी चाहिए तभी अधिगम की प्रक्रिया सफल हो सकती है।

६. शिक्षक का व्यक्तित्व(teacher’s personality):

शिक्षक का व्यक्तित्व सफल शिक्षण का आधार होता है। उत्तम शिक्षक का व्यक्तित्व प्रभावशाली होता है। प्रभावशाली व्यक्तित्व का अर्थ यह है कि उत्तम अध्यापक आत्म विश्वास एवं इच्छा शक्ति वाला चरित्रवान कर्तव्यनिष्ठ एवं निरोगी होता है उसके गुणों एवं आदतों का प्रभाव बालकों पर इतना अधिक पड़ता है की उसकी समग्र रुचियां एवं अभिरुचियां ही बालकों की अभिरुचियां बन जाती हैं।

७. अध्यापक का व्यवहार(teacher’s behavior):

यदि शिक्षक का व्यवहार समस्त छात्रों के साथ समान है प्रेम सहयोग सहानुभूति आदि गुणों से युक्त हैं तो छात्र भली प्रकार से पाठ सीख लेंगे। इसके विपरीत शिक्षक का व्यवहार होने पर छात्रों में शिक्षक के प्रति गलत अवधारणा बन जाएगी जो अधिगम में अत्यंत बाधक सिद्ध होगी।

८. पढ़ाने की इच्छा(desire to teaching):

पाठ को पढ़ाने की इच्छा होने पर ही शिक्षक किसी पाठ को रूचि पूर्वक पढ़ा सकता है और छात्रों में भी पढ़ने के प्रति रुचि विकसित कर सकता है।

९. व्यवसाय के प्रति निष्ठा(loyalty to business):

व्यवसाय के प्रति निष्ठा भी अधिगम की प्रक्रिया को प्रभावित करती हैं और विषय में रुचि पैदा करती हैं। अतः शिक्षक को अपना कार्य उत्साह व तत्परता पूर्वक करना चाहिए।

१०. अभ्यास कार्य को दोहराने की व्यवस्था:

शिक्षक को चाहिए कि वह जिन कार्यों को विद्यार्थियों को सिखा रहा है उसको बार-बार उनसे दोहराए। इससे विद्यार्थियों में कार्य के प्रति रुचि उत्पन्न होती हैं वह बार-बार उसी कार्य को करने से वह उसे अच्छी तरह से सीख लेते हैं। वह उसको ज्यादा लंबे समय तक अपने मस्तिष्क में धारण रखते हैं।

११. बाल केंद्रित शिक्षा पर बल:

आज बाल केंद्रित शिक्षा पर अत्याधिक बल दिया जा रहा है। अतः शिक्षक के के लिए या आवश्यक है कि वह छात्रों को जो भी ज्ञान प्रदान करें, वह उनकी रूचि स्तर के अनुकूल होना चाहिए।

१२. मनोविज्ञान एवं बाल प्रकृति का ज्ञान:

अध्यापक को शिक्षण से संबंधित मनोविज्ञान की विभिन्न शाखाओं का ज्ञान होना भी नितांत आवश्यक है। मनोविज्ञान का ज्ञान होने पर ही अध्यापक अपने शिक्षण को सफल बना सकते हैं। इसके अतिरिक्त शिक्षक को बालक की प्रकृति का भी ज्ञान होना चाहिए।

C. विषय वस्तु से संबंधित कारक (factors related to content)

१. विषय वस्तु की प्रकृति
२. विषय वस्तु का आकार
३. विषय वस्तु के उद्देश्यपूर्णता
४. भाषा शैली
५. श्रव्य दृश्य सहायक सामग्री
६. रुचिकर विषय वस्तु

१. विषय वस्तु की प्रकृति(nature of subject matter)

विषय वस्तु की प्रकृति सीखने की प्रक्रिया को पूर्ण रूप से प्रभावित करती हैं। सीखे जाने वाले विषय वस्तु यदि सरल है। तो माध्यम श्रेणी का छात्र भी उसे सरलता से सीख सकता है। और यदि विषय वस्तु कठिन है तो छात्रों को सीखने में कठिनाई का अनुभव होता है इसलिए विषय वस्तु की प्रकृति जितनी सरल होगी सीखने की प्रवृत्ति उतनी ही अच्छी होगी।

२. विषय वस्तु का आकार

विषय वस्तु का आकार एवं उसकी मात्रा छात्रों की अधिगम प्रक्रिया को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। देखने में आया है कि छात्र पहले उन पाठ्य का अध्ययन करता है जो छोटे होते हैं तथा जिसका विषय वस्तु कम होता है। वह लंबे पाठों से बचना चाहते हैं और यही कारण है कि विद्यार्थी को ऐसे पाठों को पढ़ने के लिए विवश किया जाता है। अतः विषय वस्तु का आकार छोटा होना चाहिए ताकि वह किसी भी चीज़ को अच्छे तरीके से सीख ले।

३. विषय वस्तु के उद्देश्यपूर्णता

यदि विषय वस्तु उद्देश्यपूर्ण है तथा छात्रों की आवश्यकताओं की संतुष्टि करता है तो छात्र उसे सरलता से सीख लेते हैं। अतः विषय वस्तु छात्रों के उद्देश्य के अनुरूप बनाए जाने चाहिए।

४. भाषा शैली

सीखने में भाषा शैली का महत्वपूर्ण स्थान होता है। विभिन्न लेखकों के द्वारा सरल भाषाओं का उपयोग किया जाता है। बच्चे उस किताब को पढ़ने में ज्यादा मन लगाते हैं अतः किसी भी विषय वस्तु को तैयार करने के लिए सरल भाषा शैली का होना अति आवश्यक है।

५. श्रव्य दृश्य सहायक सामग्री

अधिगम को रोचक बनाने के लिए श्रव्य दृश्य सामग्री का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। कठिन से कठिन पाठ्यवस्तु को ही श्रव्य दृश्य सहायक सामग्री के द्वारा आसान बनाया जा सकता है। लेकिन इसका अर्थ या नहीं है कि जबरदस्ती सहायक सामग्री का प्रयोग पाठ्यवस्तु में किया जाए। इसका प्रयोग विषय वस्तु की प्रकृति पर निर्भर करता है। अतः विषय वस्तु से संबंधित एक कारक में श्रव्य दृश्य सामग्री का होना अति आवश्यक है।

६. रुचिकर विषय वस्तु

यदि पाठ्यपुस्तक रुचिकर है तो छात्र उसे खूब मन लगाकर पढ़ते हैं और यदि विषय वस्तु रुचिकर नहीं है तो छात्र सीखने में ध्यान नहीं देते हैं और शीघ्र ही उब जाते हैं या थक जाते हैं। इस दृष्टि से पाठ्यवस्तु का रुचिकर होना अत्यंत आवश्यक है। शिक्षण ही एक कला है। अतः अध्यापक को कक्षा शिक्षण करने से पूर्ण छात्रों को विषय के प्रति गहन रूचि उत्पन्न करनी चाहिए तथा अपनी सूझबूझ से विषय को रूचि बनाने के घातक प्रयास करना चाहिए।

D. वातावरण से संबंधित कारक (environmental factors)

१. विद्यालय की स्थिति
२. कक्षा का पर्यावरण
३. परिवारिक वातावरण
४. भौतिक वातावरण
५. सामाजिक वातावरण
६. विशेष सामग्री की प्रकृति
७. मनोवैज्ञानिक वातावरण

१. विद्यालय की स्थिति(school status)

बहुत से विद्यालय ऐसी जगह है जहां वाहनों का शोर ज्यादा मात्रा में होता है या कुछ विद्यालय ऐसी जगह पर होते हैं जहां पर निरंतर दुर्गंध आती है इन दोनों स्थितियों में बालक या विद्यार्थी का ध्यान कार्यों को सीखने में भंग होता है अतः विद्यालय का निर्माण उपयुक्त जगह होनी चाहिए।

२. कक्षा का पर्यावरण(classroom environment)

किसी विद्यालय में कक्षा का अनुशासन इतना अधिक होता है कि वहां कार्यों के अध्ययन के अतिरिक्त अन्य कोई बातें नहीं की जाती तो कहीं इतनी अधिक अनुशासनहिनता पाई जाती है कि वहां कार्यों के अलावा सभी बातों को स्थान दिया जाता है तो या दोनों ही स्थितियां सही नहीं होती हैं। इन दोनों स्थितियों में तालमेल बैठाए जाने पर अपेक्षित परिणाम की प्राप्ति होती है।

३. परिवारिक वातावरण(family environment)

कक्षा का वातावरण भी बालक के लिए आवश्यक नहीं होता अपितु परिवार का वातावरण ही अहम होता है जिन परिवारों का वातावरण उत्तम होता है उन परिवारों के बालक पढ़ाई में रुचि लेते हैं और कठिन पाठ को भी सरलता से सीख लेते हैं इसके विपरीत जिन परिवारों का वातावरण अच्छा नहीं होता उन परिवारों के बालकों की अधिगम के गति अत्यंत मंद होती हैं। अर्थात अगर किसी परिवार के सदस्यों के बीच लड़ाई झगड़े रहते हैं तो वहां पर पढ़ रहे बच्चों पर इसका सीधा प्रभाव पड़ता है अतः बालकों को इस वातावरण से बचाने के लिए परिवार में स्नेह पूर्ण वातावरण होना चाहिए।

४. भौतिक वातावरण(physical environment)

भौतिक वातावरण के अंतर्गत तापमान वातावरण प्रकाश वायु कोलाहल इत्यादि का प्रमुख स्थान है अतः कक्षा का भौतिक वातावरण उपयुक्त ना होने पर छात्रा भी थकान अनुभव करने लगेंगे और सीखने में भी उनकी अरुचि उत्पन्न होने लगेगी।

५. सामाजिक वातावरण(social environment)

छात्रों के अधिगम पर सामाजिक एवं सांस्कृतिक वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है सामान्यतः सांस्कृतिक वातावरण का आशय व्यक्ति द्वारा निर्मित या प्रभावित उन समस्त नियमों विचारों विश्वासो एवं भौतिक वस्तुओं को पूर्णतः से है जो उनके जीवन को चारों तरफ से गिरे हुए हैं संस्कृतिक वातावरण मानवीय होते हुए भी मानवीय का एवं सामाजिक विकास एवं बालक के अधिगम को सबसे अधिक प्रभावित करता है।

६. विशेष सामग्री की प्रकृति

बालकों को कोई भी कार्य सिखाने के लिए ऐसी विषय सामग्री प्रयुक्त करनी चाहिए जो वातावरण में सुगमता से प्राप्त हो जाए। ऐसे विषय सामग्री के साथ विद्यार्थियों को तालमेल या उसे समझने में सहायता मिलता है।

७. मनोवैज्ञानिक वातावरण(Psychological atmosphere)

अधिगम की प्रक्रिया पर मनोवैज्ञानिक वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है। यदि छात्रों में परस्पर सहयोग सद्भावना मधुर संबंध है तो अधिगम की प्रक्रिया सुचारू रूप से आगे बढ़ती हैं।

Why and How ‘Children Fail to Succeed in School Performance’ क्यों और कैसे ‘बच्चे स्कूल के प्रदर्शन में सफलता प्राप्त करने में असफल होते हैं’

बच्चा कैसे सीखते है
हालांकि बच्चे अपनी विरासत में मिले गुणों और प्रवृत्तियों के साथ पैदा होते हैं, लेकिन पर्यावरण और मुख्य रूप से वयस्क, बच्चों की शिक्षा को प्रोत्साहन और समर्थन प्रदान करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। एक बच्चा जैसे जैसे बढ़ता है, उस बच्चे काज्ञान भी बढ़ता जाता है, वह अपने आसपास की चीजों का निरीक्षण करता है, नए अनुभवों का सामना करता है और अपनी सीखने और समझने की क्षमता के आधार पर, वह आगे बढ़ने की कोशिश करता है।
बच्चे कैसे सोचते हैं
प्रत्येक बच्चा एक अलग गति से विकसित होता है और उसका चीजों के प्रति अलग-अलग दृष्टिकोण होता है। हालांकि, अधिकतर बच्चे उनकी पुस्तकों में चित्रों को देखकर कहानियां सुनाने की प्रवृत्ति रखते हैं। ये विभिन्नताएं एक बच्चे को विरासत में मिली प्रवृत्तियों, अवसरों या अनुभवों की वजह से हो सकती हैं। उनकी शिक्षा में भाषा की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। यह बच्चों को उनके विचारों और तथ्यों को व्यवस्थित करने में मदद करता है और धीरे-धीरे अपने विचारों को विकसित करने के बदले में उनकी समस्या को सुलझाने के कौशल को विकसित करता है।

कुछ मूलभूत कारक हैं ( Kuchh moolbhoot Karak ) 
1. कार्य को पूरा करने की असमर्थता – छात्रों को उनके कार्यों को पूरा करने के लिए प्रोत्साहित करते रहना चाहिए, जब तक कि वह पूरा न हो जाये, चाहे वह कितना ही मुश्किल क्यों न हो।
2. ‘विलंब’ या ख़राब समय प्रबंधन – शिक्षकों को चाहिए कि वह अपने विद्यार्थियों को कम उम्र से ही अच्छे गृहकार्य और अध्ययन की आदतों को प्रोत्साहित करें, क्योंकि कुछ विद्यार्थियों की कार्य को पूरा करने के अंतिम क्षण या अंतिम दिन पर कार्य करने की आदत होती है।
3. आत्मविश्वास की कमी – आत्मविश्वास की कमी या विफलता का डर एक छात्र को अपने कौशल और ताकत के गठन से रोक सकता है। हर नए कौशल में महारत हासिल करने से पूर्व धैर्य की आवश्यकता होती है।
4. दूसरों पर विश्वसनीयता – प्रत्येक बच्चे को उसके स्कूल में प्रवेश करने के पहले ही दिन से यह सिखाया जाना चाहिए कि अपनी पढ़ाई के लिए, अपने गृहकार्य और अन्य कार्यों को पूरा करने के लिए अपने सह-साथियों या दूसरों पर निर्भर रहने की बजाय केवल वही उसके लिए पूरी तरह से जिम्मेदार है।
5. इच्छा और प्रेरणा की कमी – कुछ विद्यार्थी सफलता पाने में असफल होते हैं, जबकि कुछ सफल होने में सक्षम हैं| दोनों ही स्थितियों में, वे अपने कार्यों को पूरा करने और अन्य गतिविधियों में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाते हैं| इसके अलावा, प्रेरणा की कमी के कारण, वे किसी भी काम में आनंद नहीं ले पाते हैं।
6. पढ़ने और समझने की ख़राब स्थिति – यदि एक बच्चा सामान्यतया पढ़ने और अपनी पढ़ाई में प्रयोग होने वाली भाषा को समझने में असमर्थ है, तो हम उससे तेज दिमाग होने के बावजूद उच्च उत्कृष्टता प्राप्त करने की उम्मीद नहीं कर सकते हैं|
7. माता पिता की भागीदारी में कमी – अपनी कम उम्र के दौरान एक बच्चे की दुनिया ज्यादातर अपने माता पिता के आसपास घूमती है और इसलिए एक प्रेरित कारक के रूप में बच्चे के माता-पिता एक बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। हालांकि कुछ बच्चे उनके माता पिता की मदद के बिना भी अच्छा कर सकते हैं, लेकिन अधिकांश मामलों में माता-पिता की भागीदारी एक बच्चे के अध्ययन पर बड़ा प्रभाव डालती है।
8. अनुचित संगठनात्मक कौशल – कुप्रबंधन और अनुचित संगठनात्मक कौशल न केवल एक बच्चे की सीखने की गति को कम या अव्यवस्थित करते हैं, बल्कि उसके आगे भी सीखने की प्रक्रिया में बाधा साबित होते हैं|भूख, प्यास, नींद की कमी, शारीरिक बीमारियां या अन्य भौतिक कारण भी कभी कभी बच्चे की कम समझ के कारण हो सकते हैं।
9. अन्य कारक – कुछ अन्य कारक जैसे आत्मविश्वास के स्तर में कमी, साथियों के दबाव, अति-संरक्षण और माता-पिता की बड़ी उम्मीदें, सामाजिक और संवादी कौशल की कमी भी स्कूल स्तर पर एक बच्चे की उपलब्धियों के साथ हस्तक्षेप करते हैं।

बाल-केन्द्रित(child-centered) एवं प्रगतिशील शिक्षा (progressive education) की अवधारणा , उद्देश्‍य , महत्‍व विशेषताऍं

बाल केन्द्रित शिक्षा 

बालकेन्द्रित शिक्षा मे शिक्षा का केन्‍द्र बिन्‍दु बालक होता है इस शिक्षा व्‍यवस्‍था के अंतर्गत बालक रूचियों, प्रवृत्तियो तथा क्षमताओ को ध्‍यान में रखकर शिक्षा प्रदान की जाती है । अत: बाल केन्द्रित शिक्षा व्‍यक्तिगत शिक्षण को महत्‍व देती है । 

बाल केन्द्रित शिक्षा पूर्णत: मनोवैज्ञानिक है जिसका मुख्‍य उद्देश्‍य बालक का चहुमुखी (सर्वाग्रीण) विकास करना है अत: हम कह  सकते है कि बाल केन्द्रित शिक्षा के अंतर्गत बालक की रूचियों , प्रवृत्तियों तथा क्षमताओं का ध्‍यान रखकर ही सम्‍पूर्ण शिक्षा का आयोजन किया जाता है । 

बाल केन्द्रित शिक्षा के उद्देश्‍य 

  1. बच्‍चों को उनकी योग्‍यता, क्षमता एवं रूचियों के अनुसार शिक्षा ग्रहण कराना । 
  2. बच्‍चों को अधिक से अधिक रचनात्‍मक कार्य करने के अवसर प्रदान कराना   ।
  3. बच्‍चों को उनके विद्यायल , धर पड़ोस के जीवन को उनके विषयों से जोड़ने के अवसर प्रदान कराना 
  4. स्‍वयं से कार्य करने , खोजने एवं नियमो को जानने के अवसर प्रदान कराना 
  5. प्रत्‍येक बच्‍चे को उसकी क्षमताओ और कौशलो को व्‍यक्‍त करने के समुचित अवसर प्रदान करना । 

बाल केन्द्रित शिक्षा की विशेषताऍ 

  1. बाल केन्द्रित शिक्षा एक आधारभूत शिक्षा है जिसक माध्‍यम से बालक को हम शुरूआती तौर पर जिधर चाहे उधर ही निर्देशित कर सकते है । 
  2. बाल केन्द्रित शिक्षा में बालक का चहुमुखी विकास पर बल दिया जाता है 
  3. इसमें बालक को उसकी अभिरूचि, बुद्धि और स्‍वभाव के अनुसार ही शिक्षा दी जाती है इसके कारण मन्‍द-बुद्धि और तेज बुद्धि वाले बालक आसानी से अपने स्‍वभावनुसार आगे बढ़ते है । 
  4. बालक को शारीरिक और मानसिक तौर पर सही दिशा की ओर निर्देशित करना भी बाल केन्द्रित शिक्षा का ही एक महत्‍वपूर्ण अंग होता है । 

बाल केन्द्रित शिक्षा का महत्‍व 

  1. सरल और रूचिपूर्ण शिक्षण प्रदान कराना 
  2. आत्‍मभिव्‍यक्ति के अवसर प्रदान कराना
  3. व्‍यावहारिक और सामाजिक ज्ञान से साथ जोडना 
  4. क्रियाशीलता पर आधारित शिक्षा प्रदान कराना
  5. स्‍वयं करके सीखने पर बल देना

बाल केन्द्रित शिक्षा में शिक्षक की भूमिका 

बाल केन्द्रित शिक्षा में शिक्षक बालको का सहयोगी तथा मार्गदर्शन के रूप में होता है अत: वह बालको का सभी प्रकार से मार्ग दर्शन करता है । और विभिन्‍न क्रियाकलापो को क्रियांन्वित करने में सहायता करता है शिक्षक का उद्देश्‍य बालको को केवल पुस्‍तकीय ज्ञान प्रदान करना मात्र हीन नही होता बल्कि बाल केन्द्रित शिक्षा का महानतम लक्ष्‍य बालक का सर्वाग्रीण विकास करना है । अत: यह कहना उचित होगा कि, शिक्षक वह धुरी है जिस पर सम्‍पूर्ण बाल केन्द्रित शिक्षा कार्यरत है बालकेन्द्रित शिक्षा की सफलता शिक्षक की योग्‍यता पर निर्भरत करती है । 

बाल केन्द्रित शिक्षा के सिद्धांत 

बाल केन्द्रित शिक्षा के सिद्धांत निम्‍नलिखित है 
1.क्रियाशीलता का सिद्धांत किसी भी क्रिया को करने में छात्र के हाथ पैर व मस्तिष्‍क सब क्रियाशील हो जाते है अथार्त छात्र की एक से अधिक ज्ञानन्द्रियो व एक से अधिक काम इन्द्रियों का प्रयोग होने से छात्र द्वारा किया गया अधिगम बहुत ही प्रभावी हो जाता हे । 
2.प्रेरणा का सिद्धांत नैतिक कहानियों ,नाटको आदि के द्वारा बालक में प्रेरणा भरनी चाहिए इसके लिए महापुरूषो तथा वैज्ञानिक आदि का उदाहरण सदा प्रेरणादायी रहता है । 
3.रूचि का सिद्धांत रूचि कार्य करने की प्रेरणा देती है फलस्‍वरूप शिक्षण बालक की रूचि के अनुसार दिया जाना चाहिए 
4.चयन का सिद्धांत छात्रों की रूचि के अनुसार उन्‍हे पढ़ाना और यदि उनका मन खेलने का हो तो उसे तो उसे उस स्थिति में कौन पढ़ाये इसका चयन करना तथा बलक की योग्यता के अनुसार विषय वस्‍तु का चयन करना चाहिए 
5.क्तिगत विभिन्‍नताओं का सिद्धांत प्रत्‍येक छात्र की बुद्धि लब्‍धी अलग-अलग होती है अत: अध्‍यापन के समय हमें उसकी इस विभिन्‍नता का ध्‍यान रखना  चाहिए 

बाल केन्द्रित शिक्षा के अंतर्गत पाठ्यक्रम का स्‍वरूप 

बालक के सर्वागीण विकास तथा उसकी दिशा व्‍यवस्‍था सुद्रंण बनाने के लिए एक अच्‍छे पाठ्यक्रम बनाने की आवश्‍यकता होती है जिसका स्‍वरूप निम्‍न प्रकार से होना चाहिए । 

  1. पाठ्यक्रम लचीला होना चाहिए 
  2. वातावरण के अनुसार होना चाहिए 
  3. पाठ्यक्रम जीवन उपयोगी होना चाहिए 
  4. पाठ्यक्रम पूर्व ज्ञान पर आधारित होना चाहिए 
  5. क्रियाशीलता के सिद्धांत के अनुसार होना चाहिए 
  6. पाठ्यक्रम छात्रों की रूच‍ि के अनुसार होना चाहिए 
  7. पाठ्यक्रम बालको के मानसिक स्‍तर के अनुसार होना चाहिए 
  8. पाठ्यक्रम में व्‍यक्तिगत विभिन्‍नता का ध्‍यान रखना चाहिए 

इसे भी पढ़े – समाजीकरण प्रक्रियाऍं 

प्रगतिशील शिक्षा 

शिक्षा एक सामाजिक आवश्‍यकता है जिसका उद्देश्‍य व्‍यक्ति और समाज दोनो का विकास करना है ।अत: ऐसी  शिक्षा व्‍यवस्‍था जो समाज के लिए प्रगति का रास्‍ता तैयार करे प्रगतिशील शिक्षा कहलाती है । प्रगतिशील शिक्षा की अवधारणा के विकास में जॉन डी.वी. का विशेष योगदान है । नोट – बाल केन्द्रित शिक्षा का समर्थन जॉन डी.वी. ने किया । प्रगति शील शिक्षा यह बताती है कि शिक्षा बालक के लिए है बालक शिक्षा के लिए नही अत: शिक्षा बालक का निर्माण करेगी न कि बालक शिक्षा का ।इसलिए शिक्षा का उद्देश्‍य ऐसा वातावरण तैयार करना होना चाहिए जिसमें प्रत्‍येक बालक को सामाजिक विकास का अवसर मिले । 

प्रगतिशील शिक्षा का महत्‍व 

  1. बालको की रूच‍ि को ध्‍यान में रखकर उनका निर्देशन करना चाहिए । 
  2. बालको को स्‍वयं करके सीखने पर बल दिया जाना चाहिए । 
  3. प्र‍गति शिक्षा के अंतर्गत अनुशासन बनाए रखने के लिए बालको की स्‍वाभाविक प्रवृत्तियों को दबाना नही चाहिए । 
  4. बालक के व्‍यक्तित्‍व का विकास बेहतर हो ताकि शिक्षा के द्वारा जनतान्त्रिक मूल्‍यों की स्‍थापना की जा सके । 
  5. प्रगतिशील शिक्षा के उद्देश्‍य बालको का विकास करना है । 

प्रगतिशील शिक्षा के सिद्धांत 

1.मस्तिष्‍क एवं बुद्धि का सिद्धांत – मस्ति‍ष्‍क एवं बुद्धि मनुष्‍य की उन क्रियाओ के परिणाम है जो व्‍यवहारिक या सामाजिक समस्‍याओ को सुलझाने के फलस्‍वरूप तैयार होता है । ज्‍यौ-ज्‍यौ वह जीन को दैनिक क्रियाओ को करने में मानसिक शक्तियो का प्रयोग करता हैै त्यौ त्‍यौ उसका विाकस भी होता जाता है । 
2.चिंतन की प्रक्रिया का सिद्धांत – चिंतन केवल मनन करने से पूर्ण नही होता और ना ही भावना समूह से इसकी उत्पत्ति होती है चिंतन का कुछ कारण जरूर होता है । किसी हेतु के आधार पर ही मनुष्‍य सोचना आंरभ करता है । यदि मनुष्‍य की क्रिया सरलता पूर्वक चलती रहती है तो उसके सोचने की आवश्‍यकता ही नही पड़ती किन्‍तु जब उसकी प्रगति में बाधार पड़ती है तो वह सोचने के लिए बाध्‍य हो जाता है । 
3.ज्ञान का सिद्धांत – ज्ञान कर्म का ही परिणाम है कर्म अनुभव से पूर्व आता है तथा अनुभव ज्ञान का स्‍त्रोत है जिस प्रकार बालक अनुभव से यह समझता है कि अग्नि हाथ जला देती है । उसी प्रकार उसका सम्‍पूर्ण ज्ञान अनुभव पर आधारित होता है । 

भाषा और चिन्तन { Language and Thought }

भाषा और चिन्तन { Language and Thought }

भाषा Language

  • भाषा भावों को अभिव्यक्त करने का एक माध्यम है। मनुष्य पशुओं से इसलिए श्रेष्ठ है क्योंकि उसके पास अभिव्यक्ति के लिए एक ऐसी भाषा होती है, जिसे लोग समझ सकते हैं। 
  • भाषा बौद्धिक क्षमता को भी अभिव्यक्त करती है। 
  • बहुत-से लोग वाणी और भाषा दोनों का प्रयोग एक-दूसरे के पर्यायवाची के रूप में करते हैं, परन्तु दोनों में बहुत अन्तर है। 

हरलॉक ने दोनों शब्दों को निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया है

  • भाषा में सम्प्रेषण के वे सभी साधन आते हैं, जिसमें विचारों और भावों को प्रतीकात्मक बना दिया जाता है। जिससे कि अपने विचारों और भावों को दूसरे से अर्थपूर्ण ढंग से कहा जा सके। 
  • वाणी भाषा का एक स्वरूप है जिसमें अर्थ को दूसरों को अभिव्यक्त करने के लिए कुछ ध्वनियाँ या शब्द उच्चारित किए जाते हैं। 
  • वाणी भाषा का एक विशिष्ट ढंग है। भाषा व्यापक सम्प्रत्यय है। वाणी, भाषा का एक माध्यम है। 

बालकों में भाषा का विकास  Language Development in Children

  • बालक के विकास के विभिन्न आयाम होते हैं। भाषा को विकास भी उन्हीं आयामों में से एक है। भाषा को अन्य कौशलों की तरह अर्जित किया जाता है। यह अर्जन बालक के जन्म के बाद ही प्रारम्भ हो जाता है। अनुकरण, वातावरण के साथ अनुक्रिया तथा शारीरिक, सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति की माँग इसमें विशेष भूमिका निभाती है। 

भाषा विकास की प्रारम्भिक अवस्थाFirst Stage of Language Development

  • इस अवस्था में एक तरह से बालक ध्वन्यात्मक संकेतों से युक्त को समझने और प्रयोग करने के लिए स्वंय को तैयार करता हुआ प्रतीत होता है जिसकी अभिव्यक्ति उसकी निम्न प्रकार की चेष्टाओं तथा क्रियाओं के रूप में होती है। 
  • सबसे पहले चरण के रूप में बालक जन्म लेते ही रोने, चिल्लाने की चेष्टाएँ करता है। 
  • रोने-चिल्लाने की चेष्टाओं के साथ ही वह अन्य ध्वनि या आवाजें  भी निकालने लगता है। ये ध्वनियाँ पूर्णतः स्वाभाविक, स्वचालित एवं नैसर्गिक होती हैं, इन्हें  सीखा नहीं जाता। 
  • उपरोक्त क्रियाओं के बाद बालकों में बड़बड़ाने की क्रियाएँ तथा चेष्टाएँ शुरू हो जाती हैं। इस बड़बड़ाने के माध्यम से बालक स्वर तथा व्यंजन ध्वनियों के अभ्यास का अवसर पाते हैं। वे कुछ भी दूसरों से सुनते हैं तथा जैसा उनकी समझ में आता है उसी रूप में वे उन्हीं ध्वनियों को किसी-न-किसी रूप में दोहराते हैं। इनके द्वारा स्वरों जैसे अ, ई, उ, ऐ, इत्यादि को व्यजनों त, म, न, क, इत्यादि से पहले उच्चरित किया जाता है। 
  • हाव-भाव तथा इशारों की भाषा भी बालकों को धीरे-धीरे समझ में आने लगती है। इस अवस्था में वे प्रातः एक-दो स्वर-व्यंजन ध्वनियाँ निकाल कर उसकी पूर्ति अपने हाव-भाव तथा चेष्टाओं से करते दिखाई देते हैं। 

भाषा का महत्त्व Importance of Languageइच्छाओं और आवश्यकताओं की सन्तुष्टि  

  • भाषा व्यक्ति को अपनी आवश्यकता, इच्छा, पीड़ा अथवा मनोभाव दूसरे के समक्ष व्यक्त करने की क्षमता प्रदान करती है। जिससे दूसरा व्यक्ति सरलता से उसकी आवश्यकताओं को समझकर तत्सम्बन्धी समाधान प्रदान करता है। 

ध्यान खींचने के लिए

  • सभी बालक चाहते हैं कि उनकी ओर लोग ध्यान दें इसलिए वे अभिभावकों से प्रश्न पूछकर, कोई समस्या प्रस्तुत करके तथा विभिन्न  तरीकों को प्रयोग कर उनका ध्यान अपनी ओर खींचने हैं। 

सामाजिक सम्बन्ध के लिए

  • भाषा के माध्यम से ही कोई व्यक्ति समाज के साथ आपसी ताल-मेल विकसित कर पाता है। भाषा के चरिए अपने विचारों को अभिव्यक्त कर समाज में अपनी  भूमिका निर्धारित करता है। अन्तर्मुखी बालक समाज के कम अन्तःक्रिया करते हैं, इसलिए उनका पर्याप्त सामाजिक विकास नहीं होता।

सामाजिक मूल्यांकन के लिए महत्त्व

  • बालक समाज के लोगों के साथ किस तरह बात करता है? कैसे बोलता है? इन प्रश्नों के उत्तर के माध्यम से उसका सामाजिक मूल्यांकन होता है। 

शैक्षिक उपलब्धि के महत्त्व

  • भाषा का सम्बन्ध बौद्धिक क्षमता से है। यदि बालक अपने विचारों को भाषा के जरिए अभिव्यक्त करने में सक्षम नहीं होता, तो इसका अर्थ है कि उसकी शैक्षिक उपलब्धि पर्याप्त नहीं है। 

दूसरों के विचारों को प्रभावित करने के लिए

  • जिन बच्चों की भाषा प्रिय, मधुर एवं ओजस्वी होती है वे अपने समूह, परिवार अथाव समाज के व्यक्तियों को प्रभावित करते हैं। लोग उन्हीं को अधिक महत्त्व देते हैं जिनका भाषा व्यवहार प्रभावपूर्ण होता है। 

बालकों की आयु   –   बालकों का शब्द भण्डार

  • जन्म से 8 माह तक – 0 
  • 9 माह से 12 माह तक – तीन से चार शब्द
  • डेढ़ वर्ष तक – 10 या 12 शब्द 
  • 2 वर्ष तक – 272 शब्द 
  • ढ़ाई वर्ष तक – 450 शब्द 
  • 3 वर्ष तक – 1 हजार शब्द 
  • साढ़े तीन वर्ष तक – 1250 शब्द 
  • 4 वर्ष तक – 1600 शब्द 
  • 5 वर्ष तक- 2100 शब्द 
  • 11 वर्ष तक – 50000 शब्द 
  • 14 वर्ष तक – 80000 शब्द 
  • 16 वर्ष से आगे – 1 लाख से अधिक शब्द

भाषा विकास के सिद्धान्त Theory of Language Developmentपरिपक्वता का सिद्धान्त 

  • परिपक्वता का तात्पर्य है कि भाषा अवयवों एवं स्वरों पर नियंत्रण होना। बोलने में जिह्वा, गला, तालु, होंठ, दाँत तथा स्वर यन्त्र आदि जिम्मेदार होते हैं इनमें किसी भी प्रकार की कमजोरी या कमी वाणी को प्रभावित करती है। इन सभी अंगों में जब परिपक्वता होती है, तो भाषा पर नियन्त्रण होता और अभिव्यक्ति अच्छी होती  है। 

अनुबन्धन का सिद्धान्त

  • भाषा विकास में अनुबंन्धन या साहचर्य का बहुत योगदान है। शैशवावस्था में जब बच्चे शब्द सीखते हैं, तो सीखना अमूर्त नहीं होता है, बल्कि किसी मूर्त वस्तु से जोड़कर उन्हें शब्दों की जानकारी दी जाती है। इसी तरह बच्चे विशिष्ट वस्तु या व्यक्ति से साहचर्य स्थापित करते हैं और अभ्यास हो जाने पर सम्बद्ध वस्तु या व्यक्ति की उपस्थिति पर सम्बन्धित शब्द से सम्बोधित करते हैं। 

अनुकरण का सिद्धान्त

  • चैपिनीज, शर्ली, कर्टी तथा वैलेण्टाइन आदि मनोवैज्ञानिकों ने अनुकरण के द्वारा भाषा सीखने पर अध्ययन किया है। इनका मत है कि बालक अपने परिवारजनों तथा साथियों की भाषा का अनुकरण करके सीखते हैं। जैसी भाषा जिस समाज या परिवार में बोली जाती है बच्चे उसी भाषा को सीखते हैं। यदि बालक के समाज या परिवार में प्रयुक्त भाषा में कोई दोष हो, तो उस बालक की भाषा में भी दोष परिलक्षित होता है। 

चोमस्की का भाषा अर्जित करने का सिद्धान्त

  • चोमस्की का कहना है कि बच्चे शब्दों की निश्चित संख्या से कुछ निश्चित नियमों का अनुकरण करते हुए वाक्यों का निर्माण करना सीख जाते हैं। इन शब्दों से नये-नये वाक्यों एवं शब्दों का निर्माण होता है। इन वाक्यों का निर्माण बच्चे जिन नियमों के अन्तर्गत करते हैं उन्हें चोमस्की ने जेनेरेटिव ग्रामर की संज्ञा प्रदान की है। 

भाषा विकास को प्रभावित करने वाले कारकEffecting Factors of Language Development

  1. स्वास्थ्य-  जिन बच्चों का स्वास्थ्य जितना अच्छा होता है उनमें भाषा के विकास की गति उतनी तीव्र होती है। 
  2. बुद्धि – हरलॉक के अनुसार जिन बच्चों का बौद्धिक स्तर उच्च होता है उनमें भाषा विकास अपेक्षाकृत कम बुद्धि से अच्छा होता है। टर्मन, फिशन एवं यम्बा का मानना है कि तीव्र बुद्धि बालकों का उच्चारण और शब्द भण्डार अधिक होता है। 
  3. सामाजिक-आर्थिक स्थिति – बालकों का सामाजिक-आर्थिक स्तर भी भाषा विकास को प्रभावित करता है। यही करण है कि ग्रामीण क्षेत्र में पढ़ने वाले बालकों की शाब्दिक क्षमता शहरी या अन्य पब्लिक स्कूल में पढ़ने वाले बालकों से कम होती है।
  4. लिंगीय भिन्नता-  सामान्यतः बालिकाएँ, बालकों की अपेक्षा अधिक शुद्ध उच्चाकरण करती हैं, किन्तु ऐसा प्रत्येक मामले में नहीं होता। 
  5. परिवार का आकार – छोटे परिवार में बालक की भाषा का विकास बड़े आकार के परिवार से अच्छा होता है, क्योंकि छोटे परिवार में माता-पिता अपने बच्चे के प्रशिक्षण में उनसे वार्तालाप के जरिए अधिक ध्यान देते हैं। 
  6. बहुजन्म-   कुछ ऐसे अध्ययन हुए हैं जिनसे प्रमाणित होता है कि यदि एक साथ अधिक सन्तानें उत्पन्न होती हैं, तो उनमें भाषा विकास विलम्ब से होता है। इसका कारण है कि बच्चे एक-दूसरे का अनुकरण करते हैं और दोनों ही अपरिपक्व होते हैं। उदाहरण के लिए यदि एक बच्चा गलत उच्चारण करता है तो उसी की नकल करके दूसरा भी वैसा ही उच्चारण करेगा। 
  7. द्वि-भाषावाद- यदि द्वि-भाषी परिवार है, उदारहण के लिए यदि पिता हिन्दी बोलने वाला और माँ शुद्ध अंग्रेजी बोलने वाली हो, तो ऐसे में बच्चों का भाषा विकास प्रभावित होता है। वे भ्रमित हो जाते हैं कि कौन-सी भाषा सीखें? 
  8. परिपक्वता – परिपक्वता का तात्पर्य है कि भाषा अवययों एवं स्वरों पर नियन्त्रण होना। बोलने में जिह्वा, गला, तालु, होंठ, दाँत तथा स्वर यन्त्र आदि जिम्मेदार होते हैं इनमें किसी भी प्रकार की कमजोरी या कमी वाणी को प्रभावित करती है। इन सभी अंगों में जब परिपक्वता होती है, तो भाषा पर नियन्त्रण होता है और अभिव्यक्ति अच्छी होती है। 
  9. संवेगात्मक तनाव– जिन बच्चों के संवेगों का कठोरता से दमन कर दिया जाता है ऐसे बच्चों का भाषा विकास देर से होता है। 
  10. व्यक्तित्व -फुर्तीले, चुस्त और बहिर्मुखी स्वभाव वाले बच्चों का भाषा विकास अन्तर्मुखी स्वभाव के बच्चों की अपेक्षा अधिक जल्दी और बेहतर होता है। 
  11. प्रशिक्षण विधि -प्रशिक्षण विधि भी भाषा विकास को प्रभावित करती है। भाषा के बारे में यदि सैद्धान्तिक रूप से शिक्षा दी जाए एवं उनका प्रयोग व्यावहारिक रूप से न किया जाए तो उस भाषा में अभिव्यक्ति कौशल का पर्याप्त विकास नहीं हो पता।

भाषा दोष 

  • यदि बालक अपने स्वर यन्त्रों पर नियन्त्रण नहीं रख पाता, तो उसमें भाषा दोष उत्पन्न हो जाता है।
  • भाषा दोष से ग्रसित बालक समाज से कतराने लगते हैं। उनमें हीनता की भावना का विकास हो जाता है और वे सामान्यतः अन्तर्मुखी स्वभाव के हो जाते हैं। 
  • भाषा दोष शैक्षिक विकास को भी प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है। 
  • मुख्यतः भाषा दोष निम्नलिखित प्रकार के होते हैं
  • ध्वनि परिवर्तन – अस्पष्ट उच्चारण 
  • हकलाना – तुतलाना 
  • तीव्र अस्पष्ट वाणी 

चिन्तन की प्रकृति Nature of Thought

  • चिन्तन सम्भवतः एक ऐसी प्रक्रिया है जो सोते समय भी क्रियाशील रहती है। 
  • चिन्तन में कल्पना, भाषा, संकल्पना, प्रतिज्ञप्ति शामिल है। 
  • चिन्तन एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है, जिसमें सूचनाओं का कुशलता से उपयोग होता है। इस प्रकार की सूचनाएँ ज्ञानेन्द्रियों (जैसे दृष्टि, श्रवणशक्ति, घ्राण शक्ति) द्वारा पर्यावरण के साथ ही, स्मृति में संचित पूर्वकाल की कतिपय घटनाओं से एकत्रित की जाती हैं। अतः चिन्तन एक रचनात्मक प्रक्रिया है अर्थात् यह किसी घटना या वस्तु की प्राप्त सूचना को नवीन रूप में रूपान्तरित करने में हमारी सहायता करती है। 
  • कॉलिन्स एवं ड्रेवर के अनुसार-“चिन्तन को जीव-शरीर के वातावरण के प्रति चैतन्य समायोजन कहा जाता है। इस रूप में विचार स्पष्टतः मानसिक स्तर पर हो सकते हैं, जैसे-प्रत्यक्षानुभव और प्रत्यानुभव।” 
  • चिन्तन में कई मानसिक क्रियाएँ जैसे-अनुमान करना, तर्क करना, कल्पना करना, निर्णय लेना, अभूतीकरण, समस्या समाधान और रचनात्मक विचार (चिन्तन) सम्मिलित हैं। ऐसी क्रियाएँ हमारे मस्तिष्क में होती हैं और हमारे व्यवहार द्वारा अनुमानित की जाती हैं। 
  • चिन्तन का आरम्भ प्रायः एक समस्या से होता है और ये कई चरणों में चलता है जैसे-निर्णय लेना, अनुमान करना, संक्षिप्तीकरण, तर्क करना , कल्पना और स्मरण करना। ये क्रम अधिकतर समस्या के समाधान के लिए होता है। 
  • समस्या समाधान के लिए चिन्तन इस उदाहरण से स्पष्ट होता है मान लीजिए कि आप अपने नये विद्यायल समय पर पहुँचने के लिए अपने घर से विद्यालय तक का सबसे छोटा रास्ता ढूँढ रहे हैं। आपके चुुनाव को कई कारक निर्देशित कर सकते हैं जैसे सड़क की दशा, स्कूल का समय, यातायात का घनत्व, सड़क पर चलते हुए सुरक्षा इत्यादि। अन्ततः इस सभी कारकों को ध्यान में रखते हुए आप सबसे उत्तम मार्ग का  ही निर्णय लेते हैं। इसलिए इस जैसी साधारण सी समस्या के लिए भी चिन्तन आवश्यक है। इस समस्या का समाधान हमारे पर्यावरण एवं पूर्व अनुभव से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर होता है। 
  • चिन्तन कई प्रकार की मानसिक संरचाओं पर निर्भर करता है जैसे-संकल्पना एवं तर्क।

संकल्पना Concepts

  • संकल्पना चिन्तन का एक मुख्य तत्व है। संकल्पनाएँ वस्तुओं, क्रियाओं, विचारों व जीवित प्राणियों का प्रतिनिधित्व करती हैं।
  • संकल्पना के अन्तर्गत किसी के लक्षण जैसे-मीठा, खट्टा, किसी के भाव जैसे-क्रोध, भय तथा दो या अधिक वस्तुओं के बीच सम्बन्ध जैसे उससे अच्छा, इससे खराब, आदि की बात की जाती है।
  • संकल्पनाएँ ऐसी मानसिक संरचनाएँ हैं जो हमारे ज्ञान को क्रमबद्ध रूप प्रदान करती हैं। हम उनका सीधे निरीक्षण नहीं कर सकते हैं, लेकिन हम उनका व्यवहार द्वारा अनुमान लगा सकते हैं।
  • मनुष्य होने के कारण हमारे पास वस्तुओ, घटनाओं या प्रत्यक्ष की गई बातों के आवश्यक लक्षणों को अमूर्त रूप में धारण करने की शक्ति होती है। जब हम किसी नये उद्दीपक से परिचित होते हैं तो उसे एक पहचानी हुई या याद की गई श्रेणी में रखते हैं और उसके साथ उसी प्रकार की क्रिया करते हैं और उसे एक नाम देते हैं।

तर्क Argument

  • तर्क भी चिन्तन का एक मुख्य पक्ष है। इस प्रक्रिया में अनुमान संलग्न है। तर्क, तर्कपूर्ण विचार व समस्या के समाधान में उपयोगी होता है। 
  • यह उद्देश्यपूर्ण होता है और तथ्यों के आधार पन निष्कर्ष निकाले जाते हैं व निर्णय लिए जाते हैं। 
  • तर्क में हम पर्यावरण से प्राप्त जानकारी और मस्तिष्क में एकत्र सूचनाओं का कतिपय नियमों के अन्तर्गत उपयोग करते हैं। 
  • तर्क दो प्रकार का होता है-निगमन और आगमन।
  • निगमन तर्क में हम पहले दिए गए कथन के आधार पर निष्कर्ष निकालने का प्रयास करते हैं। जबकि आगमन तर्क में हम उपलब्ध प्रमाण से निष्कर्ष निकालने से आरम्भ करते हैं। 
  • अधिकतर वैज्ञानिक तर्क आगमन प्रकृति के होते हैं। वैज्ञानिक हों या साधारण व्यक्ति कुछ घटनाओं के आधार पर सभी के लिए कुछ सामान्य नियम होते हैं। उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति पुजारी है क्योंकि  वह साधारण वस्त्र पहनचा है, प्रार्थना करता है और सादा भोजन करता है। 

समस्या-समाधान Problem Solving

  • समस्या को सुलझाना हमारे दैनिक जीवन का अभिन्न अंग है। हर दिन हम सरल से लेकर जटिल समस्याओं का समाधान करते हैं। कुछ समस्याओं को हल करने में कम समय लगता है। और कुछ में अधिक। किसी समस्या का समाधान करने के लिए यदि समुचित साधन उपलब्ध नहीं होते तो समाधान का विकल्प देखना पड़ता है। 
  • किसी भी प्रकार की समस्या का समाधान निकालने में हमारा चिन्तन निर्देशित और केन्द्रित हो जाता है, और सही और उपयुक्त निर्णय पर पहुँचने लिए हम सभी संसाधनों आन्तरित (मन) और बाह्म (दूसरों का समर्थन और सहायता) दोनों का उपयोग करने का प्रयास करते हैं। उदाहरण के लिए यदि आप यदि परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करना चाहते हैं, तो आप परिश्रम से पढ़ाई, शिक्षकों, मित्रों, और माता-पिता की सहायता लेते हैं और अन्त में आप अच्छे अंक प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार समस्या समाधान एक विशिष्ट समस्या से निपटने की दिशा में निर्देशित चिन्तन है। 
  • निर्देशित चिन्तन के तीन तत्व हैं समस्या, लक्ष्य और लक्ष्य दिशा में एक कदम। ऐसी दो विधियाँ हैं जिनका प्रमुख रूप से समस्या के समाधान मे उपयोग किया जाता है, ये हैं ‘मध्यमान-अन्त-विश्लेषण‘ और ‘एल्गोरिद्म‘ या कलन विधि।
  • मध्यमान-अन्त-विश्लेषण में विशेष प्रकार की समस्याओं का समाधान करने में एक विशिष्ट प्रकार की प्रक्रिया का चरणबद्ध प्रयोग किया जाता है। 
  • हृयूरिस्टिक्स या अन्वेषणात्मक के मामले में व्यक्ति समस्या समाधान के लिए किसी सम्भव नियम या विचार का उपयोग करने के लिए स्वतन्त्र है। इसे अभिसूचक नियम (रूल ऑफ थम्ब) भी कहा जाता है।

समस्या को हल करना और मनःस्थिति To Solve the problem and Conceptual

  • कभी-कभी हम एक समस्या का समाधान करने के लिए एक विशेष रणनीति/तकनीक का उपयोग करते हैं परन्तु हम अपने प्रयास में सफल या असफल हो सकते हैं। यह व्यक्ति के सम्मुख भविष्य में आने वाली समस्याओं के लिए उपागमों का  एक विन्यास तैयार करती है।  समस्या भिन्न होने पर भी यह विन्यास चलता रहता है। इसके अतिरिक्त भविष्य में वैसी ही समस्या आने पर हम उसी रणनीति/तकनीक का उपयोग करते हैं और फिर से समाधान तक पहुँचने में विफल हो जाते हैं। समस्या को सुलझाने में इस तरह की घटना को मनःस्थिति कहा जाता है।
  • मनःस्थिति, व्यक्ति की एक प्रवृत्ति है, जिससे वह  नई समस्या का समाधान उसी तरीके से हल करना चहता है जिसे पहली समस्या का समाधान करने में प्रयोग किया था। एक विशेष नियम के तहत पिछले प्रयासों में प्राप्त सफलता एक तरह की मानसिक कठोरता उत्पन्न करती है। जो नई समस्या का समाधान करने में नये विचारों को उत्पन्न करने में रूकावट उत्पन्न करती है। 
  • एक मनःस्थिति हमारी मानसिक क्रियाओं को बाधित करती है या उनकी गुणवत्ता को प्रभावित करती है फिर भी वास्तविक जीवन की वैसी ही या सम्बन्धित समस्याओं को सुलझाने हम प्रातः अतीत की सीख और अनुभव पर भरोसा करते हैं। 

सृजनात्मक चिन्तन Creative Thought

  • सृजनात्मक, चिन्तन का विशेष प्रकार है जो एक अद्वितीय और नया तरीका है जो पहले अनुपस्थित था। 
  • सृजनात्मक चिन्तन  को अपसारी चिन्तन भी कहा जाता है। 
  • सृजनात्मकता का परिणाम दुनिया के सभी आविष्कार और खोज हैं। 
  • समस्याओं के नियमित समाधान के विपरीत, सृजनात्मक समाधान, मूल, नवीन (नया) और अद्वितीय है जिनके बारे में पहले सोचा नहीं गया। 
  • सृजनात्मक समाधान या विचार अचानक या तत्क्षण होता है जिसमें चेतन व अचेतन रूप से अधिक कार्य तैयारी के परिणामस्वरूप जाने या अनजाने में होता है। 
  • नये विचारों की अचानक उपस्थिति को अन्तःदृष्टि कहा जाता है।
  • सृजनात्मक विचारक कोई भी हो सकता है जैसे-कलाकर, संगीतकार, लेखक, वैज्ञानिक या खिलाड़ी।
  • यह पाया है कि सृजनात्मक लोग आमतौर पर प्रतिभाशाली होते हैं (जैसे-कलाकार, संगीतकार, गणितज्ञ आदि) और  उनमें विशिष्ट योग्यता होती है। सृजनात्मक लोगों के व्यक्तित्व में कुछ विशिष्ट विशेषताएँ होती हैं जैसे-वे अपने निर्णय में स्वतन्त्र, स्वग्राही, प्रभावी, भावुक, आवेगी और जटिलता पसन्द करने वाले होते हैं। 

संज्ञान एवं संवेग | Cognition and Emotion

संज्ञान का अर्थ 

  • समझ या ज्ञान होता है। 
  • शैक्षणिक प्रक्रियाओं में अधिगम का मुख्य केन्द्र संज्ञानात्मक क्षेत्र होता है। इस क्षेत्र में अधिगम उन मानसिक क्रियाओं से जुड़ी होती है जिनमें पर्यावरण से सूचना प्राप्त की जाती है। इस प्रकार इस क्षेत्र में अनेक क्रियाएँ होती हैं जो सूचना प्राप्ति से प्रारम्भ होकर शिक्षार्थी के मस्तिष्क तक चलती रहती हैं। ये सूचनाएँ दृश्य रूप में होती हैं या सुनने या देखने के रूप में होती हैं। 
  • संज्ञान में मुख्यतः ज्ञान, समग्रता, अनुप्रयोग विश्लेषण तथा मूल्यांकन पक्ष सम्मिलित होते हैं।

ज्ञान 

  • ज्ञान का सम्बन्ध सूचना के उच्च चिन्तन से होता है। किसी विषय क्षेत्र में  विशिष्ट तत्वों का पुनमरण या पुनर्पहचान अर्थात् स्मरण स्तर की क्रियाएँ इसके द्वारा होती हैं।

समग्रता

  • सूचना तब तक महत्त्वपूर्ण नहीं होती, जब तक उसे समझा नहीं जाता। इस स्तर पर तथ्यों, सम्प्रत्ययों, सिद्धान्तों एवं सामान्यीकरण का बोध होता है।

अनुप्रयोग

  • सूचना उस समय और महत्त्वपूर्ण हो जाती है जब इसे नई परिस्थिति में प्रयोग किया जाता है। इस स्तर पर मानसिक क्रियाओं में सम्प्रत्यय, सिद्धान्तों, सत्य सिद्धान्त आदि का प्रयोग होता है। आजकल छात्रों की अनुप्रयोग क्षमता को बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है। सामान्यीकरण का प्रयोग समस्या को हल करने के लिए किया जाता है। उत्तरों को मापने के लिए पूर्व ज्ञान का प्रयोग किया जा सकता है अर्थात् छात्रों ने वास्तविक जीवन में जो कुछ सीखा है उसका वे प्रयोग करते हैं।

विश्लेषण

  • सृजनात्मक चिन्तन एवं समस्या समाधान विश्लेषण चिन्तन से आरम्भ होते हैं। अब सूचना प्राप्त होती है तो इनको विभिन्न अवयव तत्वों में विभाजित किया जाता है, जिससे विभिन्न भागों का आपसी सम्बन्ध किया जाता है। इस प्रक्रिया को सूचना का विश्लेषण कहते हैं। अधिगम के इस स्तर पर छात्र, सम्प्रत्यय और सिद्धान्तों का विश्लेषण कर सकता है।

संश्लेषण

  • इसके अन्तर्गत सम्प्रत्ययों, सिद्धान्तों या सामान्यीकरण के अवयवों या भागों को एकसाथ मिलाया जाता है जिससे यह पूर्ण रूप बन जाए।

मूल्यांकन

  • इस स्तर पर निर्णयों के लिए मानसिक क्रियाएँ होती हैं जो स्थायित्व या तर्क के क्षेत्र पर आधारित हो सकती हैं या मानक या प्रमापों में तुलना हो सकती है। निर्णय करना अधिगम के स्तर का सर्वाधिक जटिल कार्य है।

बालकों में संज्ञानात्मक विकास Cognitive Development in Children

  • संज्ञानात्मक विकास का तात्पर्य बच्चों के सीखने और सूचनाएँ एकत्रित करने के तरीके से है। इसमें अवधान में वृद्धि प्रत्यक्षीकरण, भाषा, चिन्तन, स्मरण शक्ति और तर्क शामिल हैं। 
  • पियाजे के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धान्त के अनुसार हमारे विचार और तर्क अनुकूलन के भाग हैं। 

संज्ञानात्मक विकास की चार अवस्थाओं का वर्णन 

संज्ञानात्मक विकास एक निश्चित अवस्थाओं के क्रम में होता है। पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास की चार अवस्थाओं का वर्णन किया है 

  • संवेदी – गतिक अवस्था (जन्म से 2 वर्ष) 
  • पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था (2 से 7 वर्ष) 
  • प्रत्यक्ष संक्रियात्मक अवस्था ( 7 से 11 वर्ष) 
  • औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था (11 + वर्ष)

प्रारम्भिक बाल्यकाल (2 से 6 वर्ष) में संज्ञानात्मक विकास 

Cognitive Development in Infancy (2 to 6 Years)

  • इस काल में बच्चे, शब्द जैसे प्रतीकों, विभिन्न वस्तुओं, परिस्थितियों और घटनाओं को दर्शाने वाली प्रतिमाओं के प्रयोग में अधिक प्रवीण हो जाते हैं। 
  • स्कूल जाने तक बच्चों की शब्दावली पर्याप्त अच्छी हो जाती है। वास्तव में बच्चे विभिन्न सन्दर्भों में अन्य भाषाएँ सीखने में अधिक ग्रहणशील हो जाते हैं। अनेक बार वे द्विभाषी या बहुभाषी के रूप में विकसित होते हैं। वे एक भाषी बच्चों की अपेक्षा भाषा की अच्छी समझ वाले होते हैं। 
  • प्रारम्भिक बाल्यकाल में स्थायी अवधान में वृद्धि हो जाती है। एक 3 वर्ष का बच्चा चित्रांकनी से रंग भरने, खिलौने से खेलने या 15-20 मिनट तक टेलीविजन देखने की जिद कर सकता है। इसके विपरीत एक 6 वर्ष का बच्चा किसी रोचक कार्य पर एक घण्टे से अधिक कार्य करता देखा जा सकता है। 
  • “बच्चे अपने अवधान में अधिक चयनात्मक हो जाते हैं। परिणामस्वरूप उनके प्रत्यक्षात्मक कौशल भी उन्नत होते हैं। 
  • चिंतन और अधिक तर्कपूर्ण हो जाता है और याद रखने की क्षमता और की प्रक्रिया भी उन्नत होती है। वातावरण से अन्तःक्रिया द्वारा बच्चा सामाजिक व्यवहार के सही नियम सीखता है जो उसे विद्यालय जाने के लिए तैयार करते हैं। 
  • प्रारम्भिक बाल्यकाल, 2 से 6 वर्ष में बच्चा पूर्व क्रियात्मक अवस्था द्वारा प्रगति करता है।

पूर्व-क्रियात्मक अवस्था की 2 उप-अवस्थाएँ होती हैं

  • प्रतीकात्मक क्रिया (2 से 4 वर्ष)
  • अन्तःप्रज्ञा विचार ( 4 से 7 वर्ष )
  • प्रतीकात्मक क्रिया, उप-अवस्था में, बच्चे वस्तुओं का मानसिक प्रतिबिम्ब बना लेते हैं और उसे बाद में उपयोग करने के लिए सम्भाल कर रख लेते हैं। उदाहरण के लिए, बच्चा एक छोटे कुत्ते की आकृति बनाए या उससे खेलने का नाटक करे, जोकि वहाँ उपस्थित ही नहीं है। बालक उन लोगों के विषय में बात कर सकते हैं जो यात्रा कर रहे हैं या जो कहीं अन्य स्थान पर रहते हों। वे उन स्थानों का भी रेखाचित्र बना सकते हैं, जो उन्होंने देखे हैं, साथ ही साथ अपनी कल्पना से नये दृश्य और जीव भी बना सकते हैं।
  • बच्चे अपनी वस्तुओं के मानसिक प्रतिबिम्ब का भी खेल में भूमिका निभाने के लिए उपयोग कर सकते हैं।

मध्य बाल्यकाल में संज्ञानात्मक विकास Cognitive Development in Childhood

  • मध्य बाल्यकाल में बच्चे उत्सुकता से भरे होते हैं और बाहरी वस्तुओं को ढूँढने में उनकी रुचि होती है। स्मरण और सम्प्रत्यय ज्ञान में हुई वृद्धि तर्कपूर्ण चिन्तन को तात्कालिक स्थिति के अतिरिक्त सहज बनाती है।
  • बच्चे इस अवस्था में संवेदी क्रियाओं में भी व्यस्त हो जाते हैं जैसे- संगीत, कला और नृत्य एवं रुचियों की अभिवृत्ति की रुचियातें का भी विकास इस अवस्था में हो जाता है। 

पियाजे के सिद्धान्त में, मध्य बाल्यकाल में इन्द्रयगोचर सक्रियात्मक अवस्था कीविशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  • तार्किक नियमों को समझना। 
  • स्थानिक तर्क में सुधार। 
  • तार्किक चिन्तन, यथार्थ और इन्द्रियगोचर स्थितियों तक सीमित। 
  • मध्य बाल्यकाल में भाषा विकास कई तरीकों से प्रगति करता है। नये शब्द सीखने से अधिक, बच्चे जिन शब्दों को जानते हैं, उनकी अधिक प्रौढ़ परिभाषा सीख लेते हैं। वे शब्दों के मध्य सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं। समानार्थी और विपरीतार्थी शब्दों को और उपसर्ग एवं प्रत्यय जोड़ने पर शब्दों के अर्थ कैसे बदल जाते हैं, को भी समझ लेते हैं।

संवेग का अर्थ Emotion Meaning

  • ‘संवेग’ अंग्रेजी भाषा के शब्द इमोशन का हिन्दी रूपान्तरण है। इस शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘इमोवेयर’ शब्द से है, जिसका अर्थ है ‘उत्तेजित होना’। इस प्रकार ‘संवेग’ को व्यक्ति की ‘उत्तेजित दशा’ कहते हैं। इस प्रकार संवेग शरीर को उत्तेजित करने वाली एक प्रक्रिया है। 
  • मनुष्य अपनी रोजाना की जिन्दगी में सुख, दुःख, भय, क्रोध, प्रेम, ईर्ष्या, घृणा  आदि का अनुभव करता है। वह ऐसा व्यवहार किसी उत्तेजनावश करता है। यह अवस्था संवेग कहलाती है।

संवेग Emotion की परिभाषा 

  • वुडवर्थ के अनुसार “संवेग, व्यक्ति की उत्तेजित दशा है।” 
  • ड्रेवर के अनुसार “संवेग, प्राणी की एक जटिल दशा है, जिसमें शारीरिक परिवर्तन प्रबल भावना के कारण उत्तेजित दशा और एक निश्चित प्रकार का व्यवहार करने की प्रवृत्ति निहित रहती है”।
  • जे. एस. रॉस के अनुसार “संवेग, चेतना की वह अवस्था है, जिसमें रागात्मक तत्व की प्रधानता रहती है।” 
  • जरसील्ड के अनुसार “किसी भी प्रकार के आवेश आने, भड़क उठने तथा उत्तेजित हो जाने की अवस्था को संवेग कहते हैं।”

संवेग के प्रकार Types of Emotion in Hindi 

संवेगों का सम्बन्ध मूल प्रवृत्तियों से होता है। चौदह मूल प्रवृत्तियों के चौदह ही संवेग हैं, जो इस प्रकार हैं

  1. भय 
  2. वात्सल्य 
  3. घृणा 
  4. कामुकता 
  5. करुणा व दुःख 
  6. आत्महीनता 
  7. क्रोध 
  8. आत्माभिमान 
  9. अधिकार भावना 
  10. भूख 
  11. आमोद 
  12. कृतिभाव 
  13. आश्चर्य 
  14. एकाकीपन

संवेगों की प्रकृति Nature of Emotions

  • हममें से प्रत्येक व्यक्ति अपने अच्छे और बुरे अनुभवों के प्रति दृढ़ भावनाओं का अनुभव करते हैं। 
  • संवेगों के उदाहरण हैं खुश होना, शर्मिन्दा होना, दुःखी होना, उदास होना आदि। 
  • संवेग हमारे प्रतिदिन के जीवन को प्रभावित करते हैं।

संवेगों की प्रमुख विशेषताएँ

  • संवेग परिवर्तनशील प्रवृत्ति के होते हैं। 
  • संवेग में दुःख, सुख, भय, क्रोध, प्रेम, ईर्ष्या, घृणा आदि की भावना निहित होती है। 
  • संवेगों में तीव्रता का गुण पाया जाता है। 
  • संवेग मानव व्यवहार में परिवर्तन हेतु उत्तरदायी संवेग क्षणिक होते हैं। 
  • संवेगों में अस्थाई प्रवृत्ति का गुण पाया जाता है। 
  • संवेग सार्वभौमिक हैं।

संवेगों के घटक Factors/Components of Emotions

शारीरिक परिवर्तन Physical Changes

  • जब एक व्यक्ति किसी संवेग का अनुभव करता है तब उसके शरीर में कुछ परिवर्तन होते हैं जैसे- हृदय गति और रक्त चाप बढ़ जाना, पुतली का बड़ा हो जाना, साँस तेज होना, मुँह का रूखा हो जाना या पसीना निकलना आदि। सोचिए जब आप किसी परीक्षा केन्द्र गए थे और परीक्षा दी थी या जब आप अपने छोटे भाई से नाराज हुए थे, तब शायद आपने ये शारीरिक परिवर्तन अनुभव किए होंगे।

व्यवहार में बदलाव और संवेगात्मक अभिव्यक्ति 
Changes in Behaviour and Emotional Expression

  • इसका तात्पर्य बाहरी और ध्यान देने योग्य चिह्नों से है, जो एक व्यक्ति अनुभव कर रहा है। इसमें चेहरे के हाव-भाव, शारीरिक स्थिति, हाथ के द्वारा संकेत करना, भाग जाना, मुस्कुराना, क्रोध करना एवं कुर्सी पर धम्म से बैठना सम्मिलित हैं। चेहरे की अभिव्यक्ति के छः मूल संवेग हैं भय, क्रोध, दुःख, आश्चर्य, घृणा एवं प्रसन्नता । इसका तात्पर्य है कि यह संवेग विश्वभर के लोगों में आसानी से पहचाने जा सकते हैं। 

संवेगात्मक भावनाएँ Emotional Feelings

  • संवेग उन भावनाओं को भी सम्मिलित करता है जो व्यक्तिगत हों। हम संवेग को वर्गीकृत कर सकते हैं जैसे प्रसन्न, दुःखी, क्रोध, घृणा आदि। हमारे पूर्व अनुभव और संस्कृति जिससे हम जुड़े हुए हैं हमारी भावनाओं को आकृति प्रदान करते हैं। जब हम किसी व्यक्ति के हाथ में छड़ी देखते हैं, तो हम भाग सकते हैं या अपने आपको लड़ाई के लिए तैयार कर लेते हैं, जब यदि एक प्रसिद्ध गायक आपके पड़ोस में रहता है, तो आप उससे अपने प्रिय गीत सुनने के लिए चले जाएँगे।

संवेगों का शिक्षा में महत्त्व Importance of Emotions in Education

  • शिक्षक, बालकों के संवेगों को जाग्रत करके, पाठ में उनकी रुचि उत्पन्न कर सकता है। 
  • शिक्षक, बालकों के संवेगों का ज्ञान प्राप्त करके, उपयुक्त पाठ्यक्रम का निर्माण करने में सफलता प्राप्त कर सकता है। 
  • शिक्षक, बालकों में उपयुक्त संवेगों को जाग्रत करके, उनको महान कार्यों को करने की प्रेरणा दे सकता है। 
  • शिक्षक, बालकों की मानसिक शक्तियों के मार्ग को प्रशस्त करके, उन्हें अपने अध्ययन में अधिक क्रियाशील बनने की प्रेरणा प्रदान कर सकता है। 
  • शिक्षक, बालकों के संवेगों को परिष्कृत करके उनको समाज के अनुकूल व्यवहार करने की क्षमता प्रदान कर सकता है। 
  • शिक्षक, बालकों को अपने संवेगों पर नियन्त्रण करने की विधियाँ बताकर, उनको शिष्ट और सभ्य बना सकता है। 
  • शिक्षक, बालकों के संवेगों का विकास करके, उनमें उत्तम विचारों, आदर्शों, गुणों और रुचियों का निर्माण कर सकता है।

प्रश्न1  संज्ञानात्मक विकास का अर्थ है?

 उत्तर-   अभियोग्यता का विकास 

प्रश्न2  बच्चों के संज्ञानात्मक विकास को सबसे अच्छे तरीके से कहां परिभाषित किया जा सकता है ?

उत्तर-  विद्यालय एवं कक्षा में

 प्रश्न3  रॉस संवेग को कितने प्रकार में बांटा है?

उत्तर- 3 

प्रश्न4  पियाजे के संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत के अनुसार संवेदी क्रियात्मक अवस्था होती है?

 उत्तर-  जन्म से 2 वर्ष

 प्रश्न5 ‘जोन आफ प्रॉक्सिमल डेवलपमेंट (ZPD)’ का प्रत्यय  किसके द्वारा दिया गया?

 उत्तर-  वाइगोत्सकी द्वारा

प्रश्न6  पियाजे मुख्यतः किस क्षेत्र में योगदान के लिए जाने जाते हैं?

उत्तर-  ज्ञानात्मक विकास

प्रश्न7 ” संवेग व्यक्ति की उत्तेजित दशा है।”  उपरोक्त कथन किसके द्वारा दिया गया है?

 उत्तर-  वुडबर्थ का

प्रश्न8  संवेग की उत्पत्ति होती है?

 उत्तर-  मूल प्रवृत्तियों से

 प्रश्न9 बच्चों में संवेगात्मक समायोजन प्रभावी होता है?

 उत्तर- व्यक्तित्व निर्माण में, कक्षा शिक्षण में एवं अनुशासन में

 प्रश्न10 संवेग शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है?

 उत्तर-  उत्तेजना या भावो में उथल-पुथल 

प्रश्न11  स्नेह किस प्रकार का संवेग है?

 उत्तर- धनात्मक 

प्रश्न12  फ्राइड के अनुसार संवेग ओके विकास की कितनी अवस्थाएं सन्निहित है?

 उत्तर-  5 

 प्रश्न13   संवेग में कितनी प्रक्रियाएं सन्निहित होती हैं 

उत्तर- 3 

 प्रश्न14  बच्चों में संवेगात्मक विकास के प्रतिमानो में असमानता का कारण क्या है?

 उत्तर- अनुवांशिकता, पर्यावरण एवं परिपक्वता

प्रश्न15  संवेगात्मक भाव बच्चों में जन्मजात होता है,यह किसने कहा है?

 उत्तर- वाटसन 

प्रश्न16  ‘संवेगों का विकास अविभेदित उत्तेजना पर आधारित होता है।’ यह किसने कहा है?

उत्तर- ब्रिजेज 

प्रश्न17  संवेग के संबंध में मूल प्रवृत्तियों की संख्या होती है?

 उत्तर-  14

 प्रश्न18 “किसी भी प्रकार के आवेश आने, भड़क उठने दवा उत्तेजित हो जाने की अवस्था को समझें कहते हैं।”यह कथन  किसके द्वारा दिया गया है?

 उत्तर-  जरसील्ड

 प्रश्न19 “संवेग, चेतना की व्यवस्था हैजिसमें रागात्मक तत्व की प्रधानता होती है।” यह कथन किसका है?

 उत्तर- जे.एस. रॉस का

 प्रश्न20 संवेग किसी बालक को में कौन-कौन सी भावनाएं पैदा कर सकता है?

 उत्तर- सफलता की भावना, प्रेरणा की भावना एवं रुचि की भावना 

व्यक्तिगत भिन्नता के कारण, प्रकार

व्यक्तिगत भिन्नता के कारण (vyaktik bhinnata ke karan)

व्यक्तिगत भिन्नता के निम्नलिखित कारण हैं–

1. वंशानुक्रमण

व्यक्तिगत भिन्नता का प्रमुख कारण वंशानुक्रमण है क्योंकि बच्चे को आधे गुण अपनी मां से और आधे गुण अपने पिता से प्राप्त होते हैं, अतः जो गुण उसके माता पिता में होंगे वही गुण बच्चे में आयेंगे। माता-पिता का प्रभाव न केवल बालकों की शारीरिक सरंचना पर पड़ता है बल्कि उसके मानसिक गुणों पर भी अपने माता पिता का प्रभाव होता है। अक्सर देखा गया है कि तीव्र बुद्धि वाले माता-पिता की सन्तान तीव्र बुद्धि वाली होती है और मन्द बुद्धि वाले माता-पिता की सन्तान मन्द बुद्धि होती है। मन के अनुसार,” हमारा सभी का जीवन एक ही प्रकार से प्रारम्भ होता है। लेकिन जैसे-जैसे हम बड़े होत जाते है हम में अन्तर आता जाता है। इस अन्तर का कारण हमारा वंशानुक्रमण ही है। यहां यह उल्लेखनीय है कि केवल वंशानुक्रमण ही व्यक्तिगत भिन्नताओं का एक कारण नहीं है। यदि ऐसा होता तो एक माता-पिता की सभी सन्ताने समान होती जबकि एक माता-पिता की सभी सन्तानों में भी भिन्नतायें देखने को मिलती है। फिर भी यह सत्य है कि वशानुक्रमण शारीरिक तथा मानसिक विभिन्नताओं को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण योगदान देता है।

2. वातावरण 

वुडवर्थ के मतानुसार,” व्यक्ति वंशानुक्रमण तथा पर्यावरण की उपज है।” इस अर्थ में जो व्यक्तिगत भिन्नतायें हम व्यक्ति में देखते है उसका कारण वंशानुक्रमण तथा पर्यावरण की उपज हैं। इस अर्थ में जो व्यक्तिगत भिन्नतायें हम व्यक्ति में देखते है उसका कारण वंशानुक्रमण तो है ही साथ-साथ वातावरण भी इसके लिए उत्तरदायी है। बालक के चारों ओर का वातावरण उसे प्रभावित करता है और अपने अनुकूल ढ़ालने का प्रयास करता है। बालक के विकास पर भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक वातावरण का प्रभाव पड़ता है और वातावरण की विभिन्नतायें बालक में भिन्नताओं को जन्म देती हैं। 

3. यौन भेद  

स्त्री और पुरूष की शारीरिक संरचना में पर्याप्त अन्तर है और इस अन्तर के कारण ही दोनों की कार्य क्षमता भी भिन्न-भिन्न होती है। शारीरिक भिन्नताओं के कारण बालक बालिकाओं के शारीरिक विकास पर प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए बालिकाओं में बालकों की अपेक्षा परिपक्वता शीघ्र आती है। बालकों में बालिकाओं की अपेक्षा शारीरिक कार्य करने की क्षमता अधिक होती हैं और घरेलू कार्य करने में बालिकायें बालकों की तुलना में अधिक दक्ष एवं कुशल होती हैं। बालिकाओं की तुलना में बालक अधिक साहसी होते है। यह सब भिन्नतायें वास्तव में उनके लिंग भेद का परिणाम हैं। 

4. जाति एवं प्रजाति 

वंशानुक्रमण के माध्यम से एक जाति या प्रजाति अपने गुणों को अपनी आने वाली सन्तानों को हस्तान्तरिक करती रहती है। परिणामस्वरूप उस जाति या प्रजाति की कुछ विशिष्ट विशेषतायें उस जाति या प्रजाति में बनी रहती हैं जो इस जाति या प्रजाति को किसी अन्य जाति या प्रजाति से भिन्न करती हैं। उदाहरण के लिए, पहाड़ी जातियां व प्रजातियां मैदानी जातियों एवं प्रजातियों की तुलना में अधिक परिश्रमी होती हैं। इसी प्रकार नीग्रो जाति के लोग श्वेत जाति के लोगों से अधिक कुशल एवं परिश्रमी होते है। भारत में क्षत्रिय जाति अधिक युद्ध निपुण जबकि वैश्य जाति व्यापार में अधिक निपुण होती है। 

5. आयु 

आयु के साथ-साथ बालकों के मानसिक तथा शारीरिक विकास में भिन्नता स्पष्ट देखी जा सकती है। जैसे-जैसे व्यक्ति की आयु बढ़ती है वैसे-वैसे उसकी बुद्धि परिपक्व होती जाती है । यही करण है कि बालक और वृद्ध व्यक्ति की क्रियाओं में स्पष्ट अन्तर  को अधिक देखा जा सकता है।

6. आर्थिक दशा 

निर्धन तथा अमीर व्यक्तियों में भी अन्तर देखने को मिलता है। निर्धन व्यक्तियों का निम्न आर्थिक परिस्थितियों के कारण समुचित विकास नहीं हो पाता, जिसकी वजह से वह जीवन के क्षेत्र में पिछड़ जाते हैं। उनमें आत्म विश्वास की कमी रहती है। इसके विपरीत अमीर व्यक्तियों के बच्चों में आत्म-विश्वास अधिक रहता है जिसके कारण वह जीवन के क्षेत्र में आगे निकल जाते है  निर्धन और अमीर परिवार के बच्चों को आसानी से पहचाना जा सकता है। 

7. प्रशिक्षण 

प्रशिक्षण भी व्यक्तिगत भिन्नता का एक प्रमुख कारण है। एक ही आयु तथा समान बुद्धि के बालकों में भी अन्तर देखने को मिलता है। यह अन्तर उनको मिलने वाले प्रशिक्षण का परिणाम है। कम बुद्धि वाला बालक भी प्रशिक्षण के माध्यम से तीव्र बुद्धि वाले बालक की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ हो सकता है। शारीरिक प्रशिक्षण के द्वारा व्यक्ति की शारीरिक एवं मानसिक क्षमताओं को विकसित किया जा सकता है।

वैयक्तिक विभिन्नता के प्रकार (vyaktik bhinnata ke prakar)

भिन्न व्यक्तियों में जो अंतर पाया जाता हैं, वह मुख्यतः निम्न प्रकार का होता हैं– 

1. बुद्धि स्तर पर आधारित विभिन्नता

सभी व्यक्ति एक-सी बुद्धि वाले नहीं होते, कुछ प्रतिभाशाली होते हैं तथा कुछ पिछड़े हुये। बुद्धि परीक्षणों के आधार पर हम यह पता लगा सकते हैं कि अमुक बालक या व्यक्ति प्रतिभाशाली है या तीव्र बुद्धि बालक है या सामान्य है या मंद बुद्धि अथवा जड़ बुद्धि बालक हैं।

2. शारीरिक विकास में विभिन्नता

सभी व्यक्तियों का शारीरिक विकास समान रूप से नहीं होता। कुछ व्यक्ति मोटे होते हैं तो कुछ पतले, कुछ लम्बे होते हैं तो कुछ नाटे, किसी का रंग गोरा होता है किसी का साँवला, तो किसी का बिल्कुल काला, कोई बहुत सुंदर तथा आकर्षक होता है तो कोई कुरूप और भद्दा। कोई सबल होता है तो कोई निर्बल। इस तरह व्यक्तियों में शारीरिक दृष्टि से विभिन्नतायें होती हैं। शारीरिक विभिन्नता प्रायः जन्म से ही होती हैं, जैसे– किसी व्यक्ति के छ: अंगुलियों का होना, नाक का चपटा या लम्बा होना, ओठों का बड़ा होना आदि। पर कभी-कभी यह प्राप्त की जाती है जैसे– दुर्घटना से हाथ या पैर का टूट जाना, मुँह का विकृत हो जाना आदि आदि। 

3. संवेगात्मक विभिन्नता 

भिन्न-भिन्न बालकों या व्यक्तियों में भिन्न-भिन्न तरह के संवेगों का विकास होता है। कुछ व्यक्ति सदैव प्रसन्न रहते हैं, कुछ सुदैव उदास रहते हैं। कुछ अत्यधिक क्रोधी तथा चिडचिड़े होते हैं, कुछ शांत एवं गंभीर होते हैं, कुछ में बहुत भावुकता होती है तथा कुछ में कम। कुछ संवेगात्मक दृष्टि से स्थिर होते हैं उनका व्यवहार सामान्य होता जबकि कुछ व्यक्तियों में संवेगात्मक अस्थिरता पाई जाती है। उनका व्यवहार तनावपूर्ण रहता तथा वे व्याकुल से रहते हैं। 

4. गतिवाही योग्यता में विभिन्नता

विभिन्न बालकों तथा व्यक्तियों में गतिवाही योग्यता में विभिन्नता दिखाई देती है। कुछ बालकों में गति-कौशल का विकास शीघ्रता से हो जाता है एवं कुछ में देर से होता है। एक ही आयु के कुछ बालक गतिवाही कार्य शीघ्रता तथा कुशलता से करने में सफल हो जाते हैं जबकि दूसरे उन कार्यों को करने में असफल रहते हैं। 

5. रुचियों में विभिन्नता 

प्राय : प्रत्येक व्यक्ति की रुचियाँ दूसरे व्यक्तियों से भिन्न होती हैं किसी को पढ़ने में अधिक रुचि होती है तो किसी की खेलने में। किसी की रुचि अच्छे वस्त्र पहनने की होती है तो किसी को अच्छा भोजन करने में। किसी की संगीत में रुचि होती है तो किसी की नाटक अथवा चलचित्र देखने में। पारिवारिक पृष्ठ-भूमि और विकास के स्तर आदि कई कारक बालक की रुचियों को प्रभावित करते हैं। 

6. सीखने में विभिन्नता

सीखने के संबंध में बालकों में बड़ा अंतर देखा जाता है। विभिन्न आयु के बालकों में ही नहीं, समान आयु के बालकों में भी सीखने की गति, सीखने की रुचि तथा सीखने की तत्परता में अंतर पाया जाता है। कुछ बालक सीखने में बड़े कुशल होते है तो कुछ देर से सीख पाते हैं।  वे किसी चीज को बहुत शीघ्रता से सीख लेते हैं जबकि कुछ बालक उसी चीज को काफी देर में सीख पाते हैं।

7. विशिष्ट योग्यताओं में विभिन्नता  

विशिष्ट योग्यताओं की दृष्टि से व्यक्तियों में विभिन्नतायें पाई जाती हैं। कोई बालक अंग्रेजी में अच्छा होता है, कोई गणित अथवा हिन्दी। कुछ बालक वाचन में श्रेष्ठ होते है, कुछ लेखन में अच्छे होते हैं। एक तो सभी व्यक्तियों में विशिष्ट योग्यतायें नहीं पाई जाती दूसरे जिन में पाई जाती हैं उनमें इनकी मात्रा में अंतर होता है। जैसे सभी खिलाड़ी समान स्तर के नहीं होते। 

8. सामाजिक विभिन्नता 

बालक तथा बालिकाओं दोनों के सामाजिक विकास में अंतर पाया जाता है। किसी बालक में सामाजिक परिपक्वता शीघ्र आ जाती है और किसी में बहुत दर में आती है। सामाजिक गुणों की दृष्टि से भी बालकों में अंतर होता है। कुछ बालकों में नेतृत्व के गुण होते हैं, जबकि कुछ में अनुकरण की प्रधानता होती है। कुछ बहिर्मुखी होते हैं तो कुछ अंतर्मुखी। बालकों के लड़ने में और मित्र बनाने में भी विभिन्नता पाई जाती है।