Nature and characteristics of Emotions

🌺By रश्मि सावले🌺

संवेग की प्रकृति या विशेषताएं ( Nature and characteristics of emotions) :– (1) संवेग से संज्ञानात्मक विकास का पता चलता है …. (2) संवेग का क्षेत्र बहुत व्यापक होता है लेकिन इसकी प्रबलता प्रत्येक व्यक्ति में अलग अलग होती है (3 ) संवेग के कारण शारीरिक बदलाव आते हैं ये परिवर्तन दो प्रकार से होते हैं (१) आंतरिक परिवर्तन :– सांस बढना , धड़कन तेज चलना, चिंता होना, पाचन क्रिया में बदलाव आदि…. (२) बाहरी परिवर्तन :– आवाज में परिवर्तन, चेहरे के भाव परिवर्तन आदि | (4) संवेग में हम सामान्य स्थिति में नहीं रहतें है उचित अनुचित का ज्ञान नहीं रहता विचार प्रक्रिया लुप्त हो जाती है | . . ( 5 ) मूल प्रवृत्ति से संबंध अर्थात संवेग मूल प्रवृत्ति का आधार है | …( 6 ) संवेग से वैयक्तिकता (स्वभाव ,अवस्था, परिस्थिति) आती है | संवेग अस्थिर होता है चिंतन ,सोच, अभिवृत्ति पर निर्भर होता है क्रोध खुशी सब कुछ तत्कालिक होता है… (8) संवेग क्रियात्मक क्षेत्र को रखते हुए कार्य करता है सदैव कार्यात्मक या क्रियात्मक प्रवृत्ति पर कार्य करता है | 🌺🌺 ….


✍️BY➖ Anamika Rathore

==संवेग की प्रकृति और विशेताएं==

✍️संवेग में पाई जाने वाली प्रकृति और विशेषताएं निम्न है–
1: संवेग से संज्ञानात्मक विकास➖
हर व्यक्ति में संवेग के साथ संज्ञान भी होता है। हर संवेग का संज्ञानात्मक से संबंध होता है। व्यक्ति की बुद्धि और विवेक से निकल कर संवेग आता है जो उसके संज्ञान से जुड़ा होता है।

2: संवेग का क्षेत्र बहुत व्यापक होता है ➖
संवेग का क्षेत्र बहुत ही विस्तृत होता है। सभी प्राणियों में संवेग पाया जाता है, परन्तु किसी व्यक्ति में कम और किसी में ज्यादा होता है ।
3:संवेग से शारीरिक परिवर्तन ➖
व्यक्ति के संवेग के प्रभाव के कारण शारीरिक परिवर्तन भी होते हैं । यह परिवर्तन आंतरिक और बाह्य दोनों होते है।
जैसे – आंतरिक के अन्तर्गत सांस फूलने, धड़कन का तेज होना , पाचन क्रिया पर प्रभाव और सरदर्द का होना आदि ।
बाह्य के अन्तर्गत आवाज का बदलना, पसीना आना, हावभाव में परिवर्तन आदि ।

4: सामान्य स्तिथि ➖
संवेग की स्तिथि अलग अलग जगह पर अलग अलग होती है। जैसे- क्रोध आने पर व्यक्ति को उचित अनुचित का ज्ञान नहीं रहता है। सकारात्मक विचार लुप्त हो जाते हैं। सोचने समझने की क्षमता कम हो जाती है।
बहुत ज्यादा खुशी में भी व्यक्ति की सोचने समझने की क्षमता क्षीण हो जाती है।
5: मूल प्रवृत्ति से संबंध ➖
मूल प्रवृत्ति और संवेग एक दूसरे से जुड़े है। जहां संवेग होगा वहां पर मूल प्रवृत्ति भी अवश्य होगी। मूल प्रवृत्ति, आधार है और संवेग, उसका भाव है।
6: वैयक्तिकता ➖
व्यक्ति के स्वभाव, अवस्था, परिस्थिति के अनुसार संवेग , वैयक्तिकता के रूप में निकलता है।

7: अस्थिरता ➖
संवेग , व्यक्ति में स्थिर नहीं होता है, अर्थात् ज्यादा समय के लिए नहीं होता है। व्यक्ति के अंदर क्रोध या बहुत ज्यादा खुशी तात्कालिक होती है। लंबे समय तक दिमाग में किसी बात का रहना व्यक्ति की सोच, अभिवृति या चिंतन बन जाता हैं।
8: क्रियात्मकता ➖
संवेग कार्यात्मक या क्रियात्मक प्रवृत्ति पर कार्य करता है। व्यक्ति के एक्शन के अकॉर्डिंग संवेग होता है। ✍️


🌼 संवेग की प्रकृति और विशेषता 🌼
➡️व्यक्ति के संवेग से उसकी संज्ञानात्मक विकास को समझ सकते हैं। क्योंकि उसके व्यवहार मे उसकी प्रकृति का पता चल जाता है।
➡️संवेग का क्षेत्र बहुत व्यापक हैं। सभी प्राणियो मे संवेग पाये जाते हैं। सब मे संवेग का प्रभाव अलग अलग होती हैं।
➡️संवेग से शारीरिक परिवर्तन होते हैं। ये शारीरिक परिवर्तन दो प्रकार से हो सकते हैं -आन्तरिक और बाह्य
आन्तरिक परिवर्तन मे श्वास प्रक्रिया, धडकन ,पाचन क्रिया तेज गति से होती है।
बाह्य परिवर्तन मे आवाज मे परिवर्तन हो जाता है, चेहरे के हाव भाव बदल जाते हैं।
सामान्य स्थिति मे नहीं रहते हैं।
उचित -अनुचित का ज्ञान नहीं रहता है।
विचार प्रक्रिया लुप्त सी हो जाती है।
➡️संवेग का प्रदर्शन मूल प्रवृति के आधार पर होता है जैसे हमारी मूल प्रवृति भागने की है तो वहा हमे भय का संवेग उत्पन्न होगा।

➡️संवेग पर वैयक्तिकता का प्रभाव पडता है। अलग अलग व्यक्तियों के अलग अलग परिस्थिति मे उनके स्वभाव, अवस्था के अनुसार संवेग प्रदर्शित होते हैं।
➡️संवेग अस्थिर होता है अर्थात् यह ज्यादातर समय तक नहीं रहता है जैसे क्रोध, खुशी ज्यादा समय तक नहीं रहता है ।यह क्षणिक होता है। ज्यादा समय रहने पर यह हमारी चिंतन, सोच के रूप परिवर्तित हो जाता है ।
➡️संवेग क्रियात्मक प्रवृत्ति का होता है। मतलब संवेग आने पर हम कुछ न कुछ क्रिया करेगे।

Notes by – रवि कुशवाह


संवेग की विशेषतायें एवं प्रकृति
1)संवेग एक संज्ञानात्मक प्रक्रिया हैं ।
2) संवेग एक व्यापक प्रक्रिया हैं ।
3)संवेग के कारण विचार लुप्त हो जाता है ।
4)संवेग के कारण शारीरिक और मानसिक परिवरतन होता हैं यह आंतरिक और बाह्य दोनो तरीके से होता हैं जैसे गुस्से मे धड़कन का तेज हो जाना, सांस फूलना,अवाज बदल जाना आदि ।
5)संवेग का मुल्पृवतीयो से भी संबंध होता हैं ।जैसे किसी चीज से भय हुआ तो इन्सान पलायन कर जाता है ।
6) वैयक्तिक भिन्नता भी संवेग मे पाई जाती हैं जैसे प्रतेक बच्चा मे अलग अलग तरह के संवेग होते है ।उनके स्वभाव,अवस्था आदि अलग अलग होते हैं ।
7) संवेग आस्थिर होता हैं कभी कम कभी ज्यादा कभी छड़ भगुर होता हैं संवेग । यह चिंतन,,सोच अभिव्रती पर निर्भित होता है ।
8)संवेग क्रियात्मक प्रव्रति का होता हैं।
9) संवेग मे विवेकशक्ति का विलोपन हो जाता है ।
10)संवेग की मात्रा आनिश्चीत होती है।
11)संवेग सकारत्मक और नकरात्मक दोनो तरीके से होता है।
12)संवेग मे परिवर्तनशिल होता है।
13) सामान्य स्थिति- संवेग की स्थिति अलग अलग जगह पर अलग अलग होती है जैसे गुस्से पर ऐसे😡 😡😠खुशी पर ऐसे 😁😄🤗 प्यार पर ऐसे🥰😍😘 शर्ममाने पर ऐसे🙈🙈और आश्चर्य पर ऐसे🙀🙀😳
🖋 मालती साहू 🖋


✍🏻manisha gupta ✍🏻 संवेग की प्रकृति एवं विशेषताएं:- 🗼(1) किसी के संवेग से हम संज्ञानात्मक विकास को समझ सकते हैं➖ किसी व्यक्ति के प्रकृति व्यवहार के स्वभाव को देखकर उसके मानसिकता या संज्ञान को समझ सकते हैं । संवेगात्मक विकास संज्ञानात्मक विकास पर पूर्ण रूप से निर्भर होता है। संज्ञान अर्थात हमारी बुद्धि या विवेक से निकलकर ही संवेग आती है। 🗼(2):- संवेग का क्षेत्र बहुत व्यापक होता है➖ सभी प्राणियों में अलग-अलग प्रकार के संवेग पाए जाते हैं किसी में कम यह किसी में ज्यादा संवेग पाया जाता है किसी के समय की जानकारी उस स्तर तक ही हम कर पाते हैं जिस स्तर तक हम सोचते हैं ।संवेग का क्षेत्र तो व्यापक होता है लेकिन इसकी प्रबलता हर व्यक्ति में अलग अलग होती है। 🗼(3):- संवेग से शारीरिक परिवर्तन➖ प्रत्येक व्यक्ति में संवेग के प्रभाव के कारण शारीरिक परिवर्तन भी होते हैं यह परिवर्तन आंतरिक और बाह्य दोनों प्रकार से हो सकते हैं आंतरिक परिवर्तन अर्थात (सांस तेज होना, धड़कन बढ़ना, सिर दर्द होना और पाचन क्रिया भी प्रभावित होती है) बाह्य परिवर्तन अर्थात( आवाज में परिवर्तन ,चेहरे का हाव भाव,रोना) जिंदगी में एक व्यक्ति को (balance) संतुलन बना कर रखना चाहिए या एक सीमा तक ही कोई संवेग करना चाहिए। 🗼🗼(4):- संवेग में सामान्य स्थिति➖व्यक्ति संवेग में सामान्य स्थिति में नहीं रहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को उचित या अनुचित का ज्ञान नहीं रहता है ,विचार प्रक्रिया लुप्त सी हो जाती है, किसी व्यक्ति का सामान्य स्थिति में रहना जरूरी होता है, बहुत ज्यादा गुस्सा थी कुछ गलत करवा जाता है और बहुत ज्यादा खुशी में भी हमारी सोचने समझने की क्षमता छीण हो जाती है। 🗼(5):- मूल प्रवृत्तियों से संबंध➖ संवेगो का संबंध मूल प्रवृत्तियों से होता है प्रत्येक संवेग अपने मूल प्रवृत्ति से जुड़ा हुआ है जैसे जिज्ञासा से आश्चर्य होगा, आत्म गौरव से श्रेष्ठता की भावना उत्पन्न होगी ,स्वामित्व की भावना से संचय प्रकृति होगा। 🗼(6):-वैयक्तिकता ➖ संवेग की प्रकृति व्यक्तिगत होती है प्रत्येक व्यक्ति में परिसि्खति के आधार पर ही संवेग अलग-अलग होते हैं और अलग-अलग व्यक्तियों में भी स्थितियों ,स्वभाव ,अवस्था के आधार पर ही संवेग अलग-अलग होते हैं सामान्य शब्दों में ऐसा कह सकते हैं कि व्यक्ति का स्वभाव ,अवस्था, परिस्थिति संवेग पर निर्भर करता है। 🗼(7)➖संवेग अस्थिर होता है- कोई भी संवेग व्यक्ति में कुछ ही पल के लिए होता है जैसे क्रोध खुशी तत्कालिक ही होते हैं संवेग में व्यक्ति स्थिर नहीं होता है ।यदि कोई संवेग लंबे समय तक दिमाग में रह जाता है तो वह व्यक्ति की सोच या अभिवृत्ति या चिंतन बन जाती है । 🗼(8)क्रियात्मकता➖संवेग क्रियात्मक प्रवृत्ति को ध्यान में रखकर ही काम करता है इसमें कुछ ना कुछ एक्शन होता ही रहता है व्यक्ति के एक्शन के आधार पर ही संदेश क्रियात्मक प्रकृति को ध्यान रखते हुये कार्य करता है।✍️✍️


💫Notes by :- Neha Kumari

📚 की प्रकृति एवं विशेषताएं( Nature & characteristic of emotions) :-

📚संवेग से होनेवाली अनेक प्रकार की परिवर्तन और उसकी विशेषताएं :-

📚संवेग के अन्तर्गत संज्ञानात्मक विकास :- हर एक व्यक्ति में संवेग तथा संज्ञान दोनों विद्यमान होता है, ये परस्पर रूप से एक – दूसरे से जुड़े हुए होते हैं,क्योंकि हमारी बुद्धि और विवेक से संवेग निकलकर आती है, जो कि संज्ञान से जुड़ा हुआ है। अंततः संवेग एक संज्ञानात्मक प्रक्रिया है।

📚संवेग का क्षेत्र बहुत ही व्यापक होता है :- संवेग प्रत्येक व्यक्ति में पाया जाता है,परंतु किसी में ज्यादा किसी में कम।

📚संवेग परिवर्तनशील होता है।इस से अनेक प्रकार की शारीरिक,मनोवैज्ञानिक,आंतरिक और बाह्य तथा अन्य प्रकार के परिवर्तन भी होते हैं,जैसे कि :-
▪️आंतरिक परिवर्तन के अन्तर्गत :- सांस का फूलना,धड़कने तेज हो जाना,सिरदर्द होना तथा पाचन क्रिया पर भी इसका प्रभाव पड़ता है।
बाह्य परिवर्तन के अन्तर्गत :- आवाज का बदलना मतलब खूब कर्कश आवाज में आंखे घुर -२ कर बोलना🙄 पसीना आना, गुस्से में कोई चीज तोड़ – फोड़ करना,किसी से मार – पिट कर लेना,हावभाव में परिवर्तन तथा चिड़चिड़ापन आदि।

📚संवेग का हमारे वैयक्तिकता से संबंध :- इसमें व्यक्ति के परिस्थिति,स्वभाव और अवस्था के अनुसार संवेग में परिवर्तनशीलता आती है, जो हमारे वैयक्तिकता के रूप में प्रदर्शित होती है।

📚संवेग में अस्थिरता :- संवेग,एक ऐसी प्रक्रिया है जो किसी भी व्यक्ति विशेष में स्थिर नहीं रहती,हमेशा बदलती रहती है।जैसे कि :- किसी चीज को लेकर,कोई भी झगड़ा – लड़ाई इत्यादि से पल में गुस्सा और कुछ ही पलों में स्वयं ही तात्कालिक खुशी/ आंनद की अनुभूति आ जाना। ये अच्छी बात भी है क्योंकि,ज्यादा समय तक व्यक्ति का किसी तनाव,चिंता या क्रोध में होना भी अत्यंत हानिकारक होता है।

📚सामान्य स्थिति में संवेग :- संवेग अनेक प्रकार के होते हैं,तथा सबकी स्थिति अलग – अलग होती है।जैस की :- जब हम क्रोध आती है तो उचित – अनुचित का ज्ञान नहीं रह जाता, हम क्रोध में कुछ भी के जाते हैं लेकिन बाद में पछतावा होने लगी गई कि यार,मैंने ऐसा क्यों किया?? ये नहीं करना चाहिए था? कुछ भी…. जैसे अनेक प्रकार के ख्याल।

📚संवेग का मूल प्रवृत्ति से संबंध :- मूल प्रवृत्ति और संवेग एक – दूसरे से जुड़े हुए है,बोले तो सगे भाई जैसे होते हैं, एक के बिना दूसरा अधूरा।इसलिए जहां संवेग होती वहां मूल प्रवृत्ति भी अवश्य होगी।क्योंकि संवेग ही मूल प्रवृत्तियां का आधार है,उनका भाव है।

💫 ये ज्ञात होता है कि संवेग के बिना जीवन में कुछ भी संभव नहीं है। जीवन के हर एक परिस्थिति,हर एक पहलू पर संवेग का महत्वपूर्ण स्थान जुड़ा हुए है क्योंकि संवेग के द्वारा ही हम अपने अनुभूति और संवेदनाओं की प्रकट कर पाते हैं।

धन्यवाद्👏


✍🏻Notes By – Vaishali Mishra

“संवेग की प्रकृति एवम् विशेषताएं” (Nature and characteristics of emotion)➖
▪️1) संवेग की मदद से या उसकी प्रकृति से हम संज्ञानात्मक विकास को समझ सकते है।
” संवेग के द्वारा हम किसी व्यक्ति के स्वभाव, मस्तिष्क बुद्धि, उसकी सोच या विचार, व्यवहार के बारे में पता कर सकते हैं।
▪️2) संवेग जा क्षेत्र बहुत ही व्यापक होता है। और यह सभी जीवित प्राणियों में पाया जाता है।

  • संवेग का प्रभाव ओर उसकी प्रबलता सभी में अलग अलग रूप से होती है।शिक्षण कार्य हेतु एक शिक्षक को भी बच्चे के संवेग को ध्यान में रखते हुए शिक्षण कार्य सम्पन्न करना चाहिए।
    ▪️3)संवेग के कारण हमारे शरीर में कई शारीरिक परिवर्तन होते है जो बाहरी और आंतरिक दोनों रूपों में नजर आते है।
  • आंतरिक रूप से परिवर्तन में हमारे शरीर की कई अंत: क्रियाएं जैसे सांस जोर से चलना , धड़कन तेज होना , पाचन क्रिया प्रभावित होना,सिरदर्द जैसी आदि क्रियाएं होने लगती है।
  • बाहरी रूप से परिवर्तन में आवाज तेज होना, चेहरे के हाव भाव बदलना, आंखे लाल हो जाना जैसी कई सारी क्रियाएं देखते है
    ▪️4)जब भी हमारे संवेग सामने आते है तब हम सामान्य स्थिति में नहीं रहते है,हमारे अंदर उचित और अनुचित का ज्ञान भी खत्म हो जाता हैं, और हमारे विचार उस संवेग के प्रति ,लुप्त हो जाते है।या हमारे अंदर कोई सकारात्मक विचार नहीं आ पाते है।
    ▪️5) संवेग मूल प्रवृति से ही संबंधित है या इसी से जुड़ा हुआ है दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते है मूल प्रवृति संवेग का ही आधार है।
    ▪️6) संवेग व्यक्तिकता के रूप में होते है हर व्यक्ति में अलग अलग परिस्थिति के अनुसार अलग अलग प्रकार के संवेग आते है।
    हम अपने स्वभाव, अवस्था और परिस्थिति के आधार पर ही संवेग को व्यक्तित्वता के रूप में प्रदर्शित करते है
    ▪️6) संवेग अस्थिर होते हैं। जैसे कि खुशी , क्रोध आदि संवेग तात्कालिक होते है जो बदलते रहते है।
    संवेग वहीं होते है जो हमारे मस्तिष्क में चिंतन ,सोच और अभिवृद्धि से आते है।
    ▪️7) संवेग क्रियात्मक होते है।
    संवेग हमेशा कार्यात्मक प्रवृति पर कार्य करते है।जब हम किसी कार्य को करते है या उस कार्य के लिए कोई क्रिया करते है तो हमारे अंदर संवेग भी आ जाते है।

Note by ➖पूर्वी
संवेग {Emotion} ➖
संवेग (emotion) लैटिन भाषा के शब्द “Emovere” से बना है जिसका अर्थ होता है उत्तेजना, हल चल या उथल-पुथल.
संज्ञान ➖
संवेग हमारे संज्ञान पर आधारित होता है संज्ञान के बिना हम संवेग को प्रदर्शित नहीं कर सकते संज्ञान हमारी मानसिक क्रियाएं, शक्ति, बुद्धि, तर्क, संवेदना के कारण उत्पन्न होता है |
मूल प्रवृत्ति ➖
जो हमारा वास्तविक व्यव्हार होता है यह सबके अंदर होती है संवेग जो हम दिखाते है (represent)करते है.
वुडवर्थ➖”संवेग व्यक्ति की उत्तेजित दशा है |”
क्रो & क्रो ➖”संवेग वह भावनात्मक अनुभूति (emotional feeling) है जो किसी व्यक्ति की मानसिक /शारीरिक उत्तेजना से जुड़ी होती है आंतरिक समायोजन के साथ भी जुड़ी होती है|(जो हमारे अंदर की प्रवृत्ति है) जो अभिव्यक्ति द्वारा बाहरी व्यवहार के रूप में प्रदर्शित होती है |
मैक्डूगल के अनुसार –
संवेग की मूल प्रवृत्ति 14 प्रकार की होती हैं|
1- पलायन (escape) ➖भय (fear)
2- युयुत्सा (cambat) ➖क्रोध (anger)
3- निवृत्ति (repulsion) ➖घृणा (disgust)
4- जिज्ञासा (curiosity) ➖आश्चर्य (wonder)
5- शिशु रक्षा (parental) ➖ वात्सल्य (love)
6- शरणागति (apeal ) ➖ विषाद (distress)
7- रचनात्मक (construction) ➖संरचनात्मक भावना (feeling of construction)
8- संचय प्रवृत्ति (acquisition) ➖स्वामित्व की भावना (ownership)
9- सामुहिकता (gregariousness ➖एकाकीपन (loneliness)
10- काम (sex) ➖कामुक्ता (lust)
11- आत्मगौरव (self asseration) ➖श्रेष्ठता की भावना (positive self feeling)
12- दैन्य (submission) ➖आत्महीनता (negetive self feeling)
13- भोजन अन्वेषण (food seeking) ➖भूख (appetite)
14- हास्य (laughter) ➖आमोद (amusement).

संवेग की प्रकृति और विशेषता ➖
➖संवेग से संज्ञानात्मक विकास – संवेग से ही संज्ञानात्मक विकास होता है जो हमारे अंदर अलग अलग रूप में दिखाई देता है |
➖संवेगात्मक और संज्ञानात्मक एक दूसरे पर निर्भर होते हैं जो व्यक्ति की बुद्धि, तर्क, अभिवृत्ति से सामने आता है |
➖ संवेग का क्षेत्र बहुत व्यापक होता है जो कि यह सभी प्राणियों में पाया जाता है लेकिन यह हर एक व्यक्ति में एक समान नहीं होता है किसी में कम किसी में ज्यादा होता है |
➖संवेग से शारीरिक परिवर्तन – संवेग के कारण व्यक्ति में शारीरिक परिवर्तन भी होता है यह बदलाव आंतरिक और बाह्य दोनों ही रूप में होता है।
आंतरिक परिवर्तन – साँस फूलना, धड़कन तेज होना,सिर दर्द होना, पाचन क्रिया भी प्रभावित होती है।
बाह्य परिवर्तन – आवाज बदलना, चहरे का हाव भाव बदलना, पसीना आना बाहरी परिवर्तन है।
➖समान्य स्तिथि – संवेग की समान्य स्तिथि में उचित अनुचित का ज्ञान नहीं रहता है विचार प्रक्रिया लुप्त हो जाती है।
➖संवेग का मूल प्रवृत्ति से सम्बंध – व्यक्ति के हर संवेग मूल प्रवृत्ति से जुड़े होते हैं। मूल प्रवृत्ति संवेग का आधार है मूल प्रवृत्ति के बिना कोई भी संवेग सम्भव ही नहीं है।
➖वैयक्तिकता – हर व्यक्ति में अपना अलग -अलग स्वभाव, अवस्था, परिस्थित होती है। यह स्वभाव व्यक्ति के संवेग से उत्पन्न होती है।
➖संवेग अस्थिर होता है यह तात्कालिक रूप से आता है जेसे कि व्यक्ति खुश होता है कभी गुस्सा भी होता है यह व्यक्ति की परिस्थिति पर निर्भर होता है।
➖क्रियात्मक प्रवृत्ति व्यक्ति के कार्य करने पर निर्भर होता है जेसे आश्चर्य होना यह व्यक्ति के संवेग के आने से क्रिया होती है।
धन्यवाद 😊


वंदना शुक्ला- द्वारा
✳️Nature and characteristics of emotions✳️
✳️ संवेग की प्रकृति एवं विशेषताएं✳️

1🔸 संवेग से संज्ञानात्मक विकास का पता चलता है संवेगात्मक अनुभव किसी मूल प्रवृत्ति से या उत्तेजना से जुड़े होते हैं बच्चे में उम्र के अनुसार मूल प्रवृत्ति बढ़ती रहती है और मूल प्रवृत्ति के बढ़ने से संवेग में बढ़ोतरी होती है छोटे बच्चों में हर्ष स्नेह ईर्ष्या उत्सुकता यह संवेग पाए जाते हैं और किशोरों में डर क्रोध ईर्ष्या हर्ष जिज्ञासा चिंता दुख संवेग पाए जाते हैं।
2🔸संवेग का क्षेत्र बहुत व्यापक होता है सभी प्रकार के प्राणियों में अलग-अलग प्रकार के संवेग पाए जाते हैं संवेग सभी में उपस्थित होते हैं पर किसी में तीव्रता से प्रदर्शित होते हैं और किसी में धीमी गति से प्रदर्शित होते हैं।

3🔸संवेग से शारीरिक परिवर्तन संवेग से 2 तरह के शारीरिक परिवर्तन होते हैं 1 बाहरी शारीरिक परिवर्तन एवं 2आंतरिक शारीरिक परिवर्तन
1 बाहरी शारीरिक परिवर्तन मे शरीर का हाव-भाव बदल जाता है क्रोध में तौरियां चढ़ जाती हैं सुख होने पर चेहरा दमकने लगता है 2 आंतरिक शारीरिक परिवर्तन सांसे तेज, धड़कन बढ़ जाना, सिरदर्द ,पाचन क्रिया में प्रभाव।

4🔸सामान्य स्थिति -उचित अनुचित का ज्ञान नहीं रहता विचार करने की प्रक्रिया लुप्त सी हो जाती है।
5🔸 मूल प्रवृत्तियों से संबंध- संवेगो का मूल संबंध मूल प्रवृत्तियों से सीधा होता है प्रत्येक संवेग अपने मूल प्रवृत्ति के साथ होता है जैसे मूल प्रवृत्ति पलायन से भय संवेग का उत्पन्न होना
, जिज्ञासा से आश्चर्य संवेग का प्रकट होना
6🔸 व्यकि्तकता- संवेग से व्यक्ति के स्वभाव का उसकी स्थिति और मूल प्रवृत्ति का पता चलता है।
7🔸अस्थिरता- संवेग किसी भी व्यक्ति में स्थिर नहीं होता है यह अस्थिर होता है परिस्थिति के अनुसार आता है और थोड़ी देर बाद चला जाता है।

8🔸 क्रियात्मक -संवेग व्यक्ति के क्रियात्मकता के अनुसार होता है जैसा उसका कार्य होगा संवेग उससे प्रभावित होगा।

धन्यवाद


😰संवेग की प्रकृति और उसकी विशेषताएं 🙄1- संवेग से संज्ञानात्मक विकास का संबंध का पता चलता है 2-संवेग का क्षेत्र बहुत व्यापक है संवेग सभी प्राणियों में पाई जाती है
3-संवेग शारीरिक रूप से भी बदलते हैं यह दो तरह के होते हैं
A, आंतरिक 💚 इसमें व्यक्ति का जल्दी जल्दी सांस लेना, पाचन क्रिया प्रभावित होना, धड़कन तेज होना, body temprature बढ़ जाता है
B बाह्य👁️ आंख लाल होना
😍 चेहरे का भाव बदल जाना
आवाज भारी हो जाना
4-संवेग सामान्य स्थिति में उचित या अनुचित का ज्ञान नहीं रहता है
इस समय किसी प्रकार का निर्णय ले लेना या किसी को कुछ भी बोल देना
5-हर संवेग अपने मूल प्रवृत्ति से जुड़ी होती है
6 -संवेग Individuality (व्यक्तिक) हर किसी में अलग अलग होती है
7-संवेग स्थिर नहीं रहता यह हमेशा चिंतन, सोच,मैं बदल जाता है
Notes by ehtasham raj 🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷

Emotion

संवेग : –
【Emotion】
★ संवेग शब्द का शाब्दिक अर्थ उत्तेजना है ।
★ व्यक्ति की उत्तेजित अवस्था को संवेग कहते हैं ।
★ संवेग की संख्या 14 है ।
● भय, क्रोध, घृणा, आश्चर्य, वात्सल्य, कष्ट, कामुकता,
आत्मविभान, अधीनता, एकांकीपन, भूख, अधिकार, कृति, आमोद
★ संवेग और मूल प्रवृत्ति एक दूसरे के पूरक हैं ।
★ संवेग दो प्रकार के होते हैं ।

  1. सकारात्मक संवेग
  2. नकारात्मक संवेग

■ सकारात्मक संवेग

  1. कृति भाव
  2. आश्चर्य
  3. वात्सल्यता
  4. करूणा
  5. आमोद
  6. आत्माभिमान
  7. अधिकार भावना

■ नकारात्मक संवेग :

  1. क्रोध
    2.घृणा
    3.भय
  2. आत्महीनता
  3. एकांकीपन
  4. भूख
  5. कामुकता मूल प्रवृत्ति :-
    【Basic nature】
    ★ मूल प्रवृत्ति शब्द का शाब्दिक अर्थ मुख्य आदत है ।
    ★ ऐसी प्रवृत्ति जो जन्मजात या अनुवांशिकता में पायी जाती है उसे मूल प्रवृत्ति कहते हैं ।
    ★ ” किसी कार्य को करने का बिना सीखा हुआ स्वरूप मूल प्रवृत्ति है ” …. वुडवर्थ
    ★ ” मूल प्रवृत्ति अपने मूल अर्थ में पशु उद्वेग है ” …. जेम्स ड्रेवर
    ★ ” मूल प्रवृत्ति जन्मजात मनो शारीरिक प्रेरक है ” ….. मैक्डूगल
    ★ मूल प्रवृत्ति वह जन्मजात प्रवृत्ति है जो किसी जैविक प्रयोजन को निश्चित तरीके से किया करके पूरा करती है ” ….. वैलेन्टाइन
    ★ मूल प्रवृत्ति के जनक मैक्डूगल हैं ।
    ★ जेम्स ड्रेवर , थार्नडाईक , वुडवर्थ ने भी मूल प्रवृत्ति को परिभाषित किया है ।
    ★ मूल प्रवृत्तियों की संख्या 14 है ।
    ● पलायन , युयुत्सा, निवृत्ति, पैतृक प्रवृत्ति, संवेदना, जिज्ञासा, काम भावना, आत्म स्थापना, दैन्य, सामूहिकता, भोजनान्चेषण, संचय, रचना, हास्य

■ सकारात्मक या धनात्मक मूल प्रवृत्ति : – इनकी संख्या 7 है ।

  1. संतान कामना
  2. सृजनात्मकता
  3. संग्रह प्रवृत्ति
  4. आत्मस्थापना
  5. जिज्ञासा
  6. शरणागति
    7.हास्य

■ नकारात्मक या ऋणात्मक मूल प्रवृत्ति : – इनकी संख्या 7 है ।

  1. सामूहिकता
  2. युयुत्सा
  3. निवृत्ति
    4.पलायन
  4. काम प्रवृत्ति
    6 दैन्य भाव
    7 भोजनान्वेषण

★ प्रत्येक मूल प्रवृत्ति का संबंध संवेग से होता है। –
मूल प्रवृत्ति संवेग

  1. पलायन – भय
  2. युयुत्सा – क्रोध
  3. निवृत्ति – घृणा
  4. पैतृक प्रवृत्ति – वात्सल्य
  5. संवेदना – कष्ट
  6. जिज्ञासा – आश्चर्य
  7. काम भावना – कामुकता
  8. आत्म स्थापना – आत्मभिमान
  9. दैन्य – अधीनता की भावना
  10. सामूहिकता – एकांकीपन
  11. भोजनान्चेषण – भूख
  12. संचय – अधिकार की भावना
  13. रचना – कृति भाव
  14. हास्य – आमोद

✍️ 🇧 🇾 – ᴊᵃʸ ᴘʳᵃᵏᵃˢʰ ᴍᵃᵘʳʸᵃ


संवेग- अंग्रेजी भाषा के इमोशनल का हिंदी रूपांतरण है। इस शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के इमोवयर से हुई है।जिसका अर्थ है उतेजित होना।

●वुडवर्थ के अनुशार-संवेग व्यक्ति की उतेजित दशा हैं।
●क्रो और क्रो के अनुसार-संवेग ऐसी भावनात्मक अनुभूति ह जो किसी व्यक्ति के मानसिक या शारीरिक उतेजना से जुड़ी होती ह ।
आंतरिक समायोजन के साथ जुड़ी है जो अभिब्यक्ति के द्वारा बाहरी व्यवहार के रूप में प्रदर्शित होती है।

★★मैकडुगल ने संवेग के 14 मूल प्रवित्ति बताई है ।जो निम्न ह :-

  • पलायन – भय
    *युयुत्सा। – क्रोध
    *निवृत्ति। – घृणा
    *जिज्ञासा। -आश्चर्य
    *शिशुरक्षा -वात्सल्य
    *शरणागत। -विषाद
    *रचनात्मक -संरचनात्मक
    *संचायेप्रवृति-स्वमित्व की भावना
    *सामूहिकता -एकाकीपन
    *काम। -कामुक्ता
    *आत्म गौरव- श्रेष्ठ की भावना
    *दैन्य -आत्महीनता
    *भोजन अन्वेषण- भूख
    *ह्रास। -आमोद।

🌈संवेग
संवेग इमोशन की उत्पत्ति लैटिन भाषा की इमोशनल शब्द से हुई है जिसका शाब्दिक अर्थ भड़क या उत्तेजना होना है संवेग संज्ञान पर आधारित होते हैं संवेग के लिए संज्ञान का होना आवश्यक है संवेग में मूल प्रवृत्तियां माय बेसिक नेचर होती है जब बच्चे को भूख लगती है तो वह रोने लगता है यह लो ना उसका बेसिक नेचर है उसी को हम मूर्ख व्यक्ति हैं कहते हैं संवेग वास्तव में मानसिक उत्पत्ति की व्यवस्था है जो प्रत्येक व्यक्ति के कार व्यवहार को प्रेरणा शक्ति प्रदान करती है किसी वस्तु को देखकर प्रसन्न होना तथा डरावनी वस्तु को देखकर डर लगना के विपरीत पर होने पर क्रोधित होना या किसी खराब वस्तु को देखकर घृणा हो ना इत्यादि संवेगात्मक स्थितियों के कुछ संवेग हैं
🌈वुडवर्थ के अनुसार संवेग व्यक्ति की भी उत्तेजित दशा है
🌈मैक्डूगल के अनुसार संवेग प्रगति का केंद्र है
🌈Crow and crow के अनुसार
संवेग व भावात्मक अनुभूति है जो व्यक्ति की मानसिक शारीरिक उत्तेजना से जुड़ी होती है आंतरिक समायोजन के साथ जुड़ी है जो अभिव्यक्ति द्वारा व्यवहार के रूप में प्रदर्शित होती है आंतरिक समायोजन मे हम किस प्रकार कार्य को करना है यह हम अपने आंतरिक व्यवहार से करते हैं इसमें मानसिक शारीरिक उत्तेजना का प्रयोग करते हैं जिस प्रकार हमें किसी चीज को अच्छी लगती है और तो हमारा मानसिक समायोजन होता है लगना हमारा सारिक समायोजन है आंतरिक समायोजन में मानसिक व शारीरिक उत्तेजना का समायोजन बैठाना है
🌈मैक्डूगल ने14 प्रकार की प्रवृत्तियां बताए हैं
⭐ पलायन -भय
⭐ युयुत्सा- क्रोध
⭐ निवृत्ति- घृणा
⭐ जिज्ञासा- आश्चर्य
⭐ शिशु रक्षा- वात्सल्य
⭐ शरणागति- विषाद/करुणा
⭐रचनात्मक- संरचनात्मक भाव
⭐ संचय प्रकृति- स्वामित्वकी भावना
⭐सामुहिकता- एकाकीपन
⭐ काम- कामुकता आत्मगौरव- श्रेष्ठ की भावना
⭐ दैन्य- आत्म हीनता
⭐ भोजन अन्वेषण- भूख
⭐ ह्रास- आमोद
✍Menka patel


✍️ By ➖
Anamika Rathore

🍁संज्ञान➖
संज्ञान का अर्थ जानना है । जानना, ज्ञान का अभिन्न अंग है। संज्ञान हमारे संवेग से जुड़ा हुआ है।

🍁 संवेग ( Emotion)➖
संवेग शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द ”एमोवेेर ” ( emovere) से हुई है। जिसका अर्थ है ‘ उत्तेजित होना ‘ या ‘ हलचल होना ‘ ।
“”संवेग को व्यक्ति की ‘ उत्तेजित दशा ‘ कहते है। व्यक्ति की मानसिक क्रियाओं के कारण संवेग होता है।””
✏️व्यक्ति के संज्ञान , बुद्धि के अनुसार ही व्यक्ति को कैसे रिएक्ट करना है वह करता है।
✏️हमारे संवेग हमारे मानसिक स्तर पर निर्भर करते हैं। अर्थात् हमारी मूल प्रवृत्ति को हम चाहे तो छुपा भी सकते है । परिस्थिति के अनुरूप मानसिक संवेगो को नियंत्रित किया जा सकता है।
✏️हमारा भिन्न- भिन्न व्यक्तियों के साथ भिन्न- भिन्न संवेग होता है जिसे आंतरिक समायोजन के द्वारा हम दिखाते है।
जैसे- अगर व्यक्ति घर में माता- पिता के सामने अलग और ऑफिस में अलग संवेग प्रदर्शित करता है और दोस्तो के साथ फिर अलग संवेग व्यक्त करता है।


🍁वुड वर्थ ➖ संवेग , व्यक्ति की उत्तेजित दशा है।

🍁क्रो & क्रो ➖ संवेग वह भावनात्मक अनुभूति है जो व्यक्ति की मानसिक और शारीरिक उत्तेजना से जुड़ी होती है। आंतरिक समायोजन के साथ जुड़ी होती है, जो अभिव्यक्ति के द्वारा बाहरी व्यवहार के रूप में प्रदर्शित होती है।


,✏️ मूल प्रवृत्ति और संवेग एक – दूसरे से जुड़े है।
✏️मूल प्रवृत्ति आधार ( base) है और संवेग , उसका भाव ( representation) है।

🍁मैक ङुगल ➖
मैक ड्डुगल के अनुसार, संवेग की 14 मुल प्रवृत्ति होती है।
मूल प्रवृत्ति। संवेग

1: पलायन ( escape) —
भय ( fear)

2: युयुत्सा ( combact)–
क्रोध(anger)

3: निवृत्ति (repulsion)–
घृणा(disgust)

4: जिज्ञासा (curiosity)–
आश्चर्य (wonder)

5: शिशुरक्षा (parental)–
वात्सल्य (love)

6: शरणागति (apeal)–
विषाद (distress)

7: रचनात्मक (construct)–
संरचनात्मक भावना (feeling of constructorness)

8: संचय प्रवृति (aequistion)–
स्वामित्व (ownership)

9: सामूहिकता (gregariousness)–
एकाकीपन(lonelyness)

10: काम (sex)–
कामुकता (lust)

11:आत्मगौरव(self asseration)–
श्रेष्ठता की भावना (positive self feeling)

12: दैन्य (submission)–
आत्महिनता (nagative self feeling)

13:भोजन अन्वेषण(food- seeking)–
भूख (appetite)

14: हास(laughter)–
आमोद (amusment)


📝Notes by रश्मि सावले 📝 संवेग (Emotions) :- संवेग व्यक्ति की मानसिक क्रियाओं एवं मूल प्रव्रतियाओ के द्वारा बाहरी व्यहार में व्यक्त किया जाता है संवेग हमारे मानसिक स्तर पर निर्भर करता है जो कि संज्ञान के द्वारा प्रदर्शित किया जाता है संज्ञान के बिना संवेग की कल्पना नहीं की जा सकती है… संवेग अंग्रेजी भाषा के शब्द Emotion का हिन्दी रूपांतरण है जो कि लेटिन भाषा के Emovere से बना है जिसका अर्थ है उत्तेजना हलचल या उथल पुथल…. वुडवर्थ के अनुसार :– संवेग व्यक्ति की उत्तेजित दशा है… क्रो एवं क्रो के अनुसार :– संवेग हमारी भावनात्मक अनुभूति है जो किसी व्यक्ति की मानसिक और शारीरिक उत्तेजना से जुड़ी होती है और ये आंतरिक समायोजन के साथ अभिव्यक्ति के द्वारा बाहरी व्यहार के रूप में प्रदर्शित होती है….. अर्थात परिस्थिति के अनुसार हम अपनी भावनाओं को समायोजित करते हैं… मेक्डूगल ने संवेग 14 प्रकार के बताये है.. (1) पलायन (Escape) :–भय ( Fear) (2) युयुत्सा ( Combat) :–क्रोध (Anger) (3) निवृत्ति (Replesion) :– घृणा ( Disgnst) (4) जिज्ञासा (Curiosity) :– आश्चर्य(Wonder) (5) शिशु रक्षा (Parental) :–वात्सल्य (Love) (6) शरणागति( Apeal):– विषाद (Distress) (7) रचनात्मक(Construction) :–संरचनात्मक की भावना (Feeling of creativeness) (8) संचय प्रवृत्ति(Acqnistion) :– स्वामित्व(Ownership) (9) सामूहिकता(Gregariouss) :–एकाकीपन (Loneliness) (10) काम ( Sex) :– कामुक्ता (Lust) (11) आत्मगौरव (Self assertion) :–श्रेष्ठता की भावना (Positive self feeling) (12) दैन्य (Submission) :–आत्महीनता (Negative self feeling) (13) भोजन अन्वेषण (Food seening) :–भूख (Appetite) (14) हृस (Laughter) :–अमोद (Amusement)


✍️manisha gupta ✍️

संवेग[emotion ] 🌺 हमारे संज्ञान के कारण ही उत्पन्न होता है संवेग अर्थात मानसिक क्रियाएं संवेदना तर्क ही डिसाइड करते हैं कि हमारा संवेग कैसा होगा। 🔆 ,angreji sabd “emotion” ka हिंदी रूपांतरण है यह ‘इमोशन ‘शब्द लैटिन भाषा के “इनोवेयर” से बना है जिसका अर्थ -उत्तेजना ,हलचल, उथल-पुथल होता है। 🔆woodwoth 🔆 ” संवेद व्यक्ति की उत्तेजित दशा है” 🔆 क्रो एंड क्रो के अनुसार- ” संवेग वह भावनात्मक अनुभूति है जो किसी व्यक्ति के मानसिक एवं शारीरिक उत्तेजना से जुड़ी होती है, आंतरिक समायोजन के साथ जुड़ी होती है जो अभिव्यक्ति के द्वारा बाहरी व्यवहार के रूप में प्रदर्शित होती है” 🌸 संवेगो का संबंध मूल प्रवृत्तियों से होता है मूल प्रवृत्ति के आधार पर ही हम अपनी भावना को रिप्रेजेंट करते हैं । 🔆 मैक्डूंगल के अनुसार 14 मूल प्रवृत्तियों के 14 संकेत दिए हैं-✏️(1)पलायन{escape}- भय {fear} ✏️(2) युयुत्सा {combat}- क्रोध{angry } ✏️(3) निवृत्ति{repulsion }- घृणा{disgust} ✏️(4) जिज्ञासा{curiasity }- आश्चर्य{wonder} ✏️(5) शिशु रक्षा{ parental}- वात्सल्य{love} ✏️(6)शरणागति{appeal}-विषाद। {distress} ✏️(7) रचनात्मक{construction }- संरचनात्मक भावना{feeling of creativeness} ✏️(8) संचय प्रकृति{acquisition }- स्वामित्व की भावना{ownership } ✏️(9) सामूहिकता{gregariousness}- एकाकीपन{ lonelyness} ✏️(10)काम{sex}-कामुक्ता{lust} ✏️(11) आत्म गौरव {self assertion}-श्रेष्ठता की भावना{positive self feeling} ✏️(12) दैन्य{submission }- आत्महीनता{negative self feeling } ✏️(13) भोजन अन्वेषण{food seeking }-भूख{appetite} ✏️(14)हास{laughter}-आमोद{amusement} 🔆संवेग की प्रकृति या विशेषताएं 🔆 संवेग हमारे प्रतिदिन के जीवन को प्रभावित करते हैं।


By-#Rohit_Vaishnav✍️

संवेग शब्द की उत्पत्ति अंग्रेजी भाषा की इमोशन शब्द से हुई है। इमोशन लेटिन भाषा के Emovear शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ होता है उत्तेजित दशा।

मनुष्य अपने दैनिक जीवन में सुख , दुख, भय , क्रोध,प्रेम आदि का अनुभव करता है, यह उसकी संवेग अवस्थाएं कहलाती हैं। संवेगो के प्रकार

1 सकारात्मक संवेग- यह संवेग प्रायः हमारे लिए सुखदाई होते हैं जैसे- प्रेम, हर्ष, उल्लास, स्नेह आदि।

2 नकारात्मक संवेग- यह संवेग हमारे लिए कष्टकारी या दुखदाई होते हैं जैसे- भय, क्रोध,, चिंता आदि।

“”संवेगों के तुरंत बाद होने वाली प्रक्रिया मूल प्रवृत्ति कहलाती है अर्थात पहले संवेग तथा बाद में मूल प्रवृत्तियां होती हैं””। 👉 मूल प्रवृत्तियों के जन्मदाता मेकडुगल को कहा गया है।
👉इनके अनुसार संवेग की संख्या 14 है।

👉 वुड वर्थ- संवेग व्यक्ति की उत्तेजित दशा को प्रस्तुत करता है।

👉 क्रो एंड क्रो- संवेग मनुष्य की वह भावात्मक स्थिति है जो व्यक्ति के मानसिक और शारीरिक उत्तेजना से परस्पर जुड़ी हुई है।


💫 Notes by – Neha Kumari

✍️संवेग :-

▪️संवेग शब्द का शाब्दिक अर्थ उत्तेजना होता है। जो कि अंग्रेजी भाषा के हिंदी इमोशनल शब्द का हिंदी रूपांतरण है। इसकी उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द इमोवेयर से हुई है।
▪️संवेग दो प्रकार के होते हैं :-

  1. सकारात्मक संवेग
    2 नकारात्मक संवेग

🏝️क्रो एवं क्रो के अनुसार :- संवेग एक ऐसी भावनात्मक अनुभूति है जो किसी व्यक्ति के मानसिक या शारीरिक उत्तेजना से जुड़ी होती है।

🏝️वूडवर्थ के अनुसार :- संवेग व्यक्ति की उत्तेजित दशा है।

📚ये एक ऐसी दशा है जो व्यक्ति के आंतरिक समायोजन के साथ जुड़ी होती है और हमारी अभिव्यक्ति के द्वारा प्रदर्शित होती है।

📚मैक्डूगल ने संवेग के 14 मूल प्रवृत्तियां बताई है। जो निम्नलिखित हैं :-

➡️ मूल प्रवृत्तियां :-
▪️पलायन (escape) – भय ( fear)
▪️ युयुत्सा (combat) – क्रोध ( anger)
▪️निवृति (repnlsion) – घृणा ( disgust)
▪️जिज्ञासा(curiosity) – आश्चर्य ( wonder)
▪️शिशुरक्षा(parental) – वात्सल्य(love)
▪️शरणागति(apeal) – विषाद ( distress)
▪️रचनात्मक(constructive) – संरचनात्मक(creativity)
▪️संचय प्रवृति(Aquisition) -। स्वामित्व(ownership)
▪️सामूहिकता(gregariousness) – एकाकीपन(loneless)
▪️काम( sex) – कामुकता(lust)
▪️ आत्मगौरव ( self assertion) – श्रेष्ठता की भावना ( positive self feeling)
▪️ दैन्य ( submission) – आत्म हीनता( negative self feeling)
▪️भोजन अन्वेषण ( food services) – भूख( appetite)
▪️ हास्य ( laughter) – आमोद( amusement)
Thanks 👏


संवेग – अंग्रेजी भाषा के Emotional का हिंदी रूपांतरण है। सवेग शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के इमोवयर से हुई है।जिसका अर्थ है-उथल पुथल ,, हल चल ,,उतेजित होना हैं ।

📚यह सबसे अधिक किशोरावस्था में होती हैं ।📚
📚इसका पहला अधययन चाल्स डार्विन ने किया।
सवेग की परिभाषाएँ
💕वुडवर्थ के अनुसार –
संवेग व्यक्ति की उतेजित दशा हैं।
💕रास के अनुसार-
संवेग एक मनशिक प्रकिया है जिसमे क्रोध, प्रेम ,हाव भाव तत्व प्रधान होते है।
💕क्रो और क्रो के अनुसार-
संवेग ऐसी भावनात्मक अनुभूति है जो किसी व्यक्ति के मानसिक या शारीरिक उतेजना से जुड़ी होती ह ।
यह आंतरिक समायोजन के साथ जुड़ी है जो अभियव्क्ती द्वारा बाहरी व्यवहार के रूप में प्रदर्शित होती है।
मुलप्रवितीया
💕मैकडुगल ने संवेग के 14 मूल प्रवित्ति बताई है ।💕
(1)पलायन(escape) – भय(fear)
(2)युयुत्सा(compat) – क्रोध(anger)
(3)निवृत्ति(repulsion) – घृणा(disgust)
(4)जिज्ञासा(curiosity) -आश्चर्य(wonder)
(5)शिशुरक्षा(perentar) -वात्सल्य(child love)
(6)शरणागत(apeal) -विषाद(distress)
(7)रचनात्मक(constreta) -संरचनात्मक(feeling of creative)
(8)संचयी प्रवृति(aeanistion)-स्वमित्व की भावना(ownership)
(9)सामूहिकता ( gregariousess)-एकाकीपन (loneliness)
(10)काम (sex) -कामुक्ता(lust)
(11)आत्म गौरव( self assertion)- श्रेष्ठ की भावना( positive self feeling)
(12)दैन्य (sunmission) -आत्महीनता (negative self feeling)
(13)भोजन अन्वेषण (food seeking)- भूख (appelite)
(14)ह्रास(laughter) -आमोद( amuse)।।।
😊मालती साहू😊


Notes by :- ✍️ Gudiya Chaudhary 👇👇
🔆🔆 संवेग ( Emotion)🔆🔆
संवेग वस्तुतः ऐसी प्रक्रिया है।जिसे व्यक्ति उद्दीपक द्वारा अनुभव करता है।
🔹 संवेगात्मक अनुभव ➖ संवेग चेतन उत्पन्न करने की अत्यंत प्रारम्भिक स्थिति है। शिशु का संवेग टूटा-फूटा अधूरा होता है जबकि प्रौढ की संवेदना विकृतजन्य होगी।
🔷 संवेग शब्द का अर्थ ➖
संवेग शब्द अंग्रेजी भाषा के Emotion का हिंदी रुपान्तर है। जो लेटिन भाषा के Emovare से बना है जिसका अर्थ है “उत्तेजना या हल चल या उथल-पुथल।
▪️ संवेग एक भावात्मक स्थिति है। जब मनुष्य का शरीर उत्तेजित होता है। इसी अवस्था को संवेग का नाम दिया है। जैसे ➖ भय,क्रोध,चिन्ता,हर्ष,प्रसन्नता आदि।
▪️ संवेग एक उत्तेजित अवस्था है जिस कारण वह अधिक मानसिक सजगता के कारण कोई प्रतिक्रिया करता है। संवेग एक कल्पित प्रत्यय है जिसकी विशेषताओं का अनुमान व्यवहार से लगाया जाता है। संवेग में भाव,आवेश तथा शारीरिक प्रतिक्रियाएं सम्मिलित हैं।
🔷 संवेग की परिभाषाएं ➖
▪️ मैक्डूगल ➖ संवेग मूलप्रवृत्ति का केन्द्रीय अपरिवर्तनशील तथा आवश्यक पहलू है।
▪️ वेलेंटाइन ➖ जब भावात्मक दशा तीव्रता में हो जाए तो उसे हम संवेग कहते हैं।
▪️ आर्थर टी जर्सीलड➖ संवेग शब्द किसी भी प्रकार से आवेश में आने तथा उत्तेजित होने की दशा को सूचित करता है।
▪️वुडवर्थ➖ संवेग व्यक्ति की उत्तेजित दशा है।
क्रो एण्ड क्रो ➖ संवेग हमारी भावनात्मक अनुभूति है जो व्यक्ति की मानसिक व शारीरिक उत्तेजना से जूडी रहती है। आन्तरिक समायोजन के साथ जुड़ी है जो अभिव्यक्ति के द्वारा बाहरी व्यवहार के रूप में प्रर्दशित होती है।
🔷मैक्डूगल ने 14 मूलप्रवृत्ति बताई है ➖
1.पलायन(Excape)➖भय(Fear)
2.युयुत्सा(combat)➖क्रोध(anger)
3.निवृत्ति(repulsion)➖घृणा(disgust)
4.जिज्ञासा(curiosity)➖ आश्चर्य(wonder)
5.शिशु रक्षा(parental)➖ वात्सल्य(tenderness)
6.शरणागति(apeal)➖ विषाद(distress)
7.रचनात्मक(construction)➖संरचनात्मक भावना(feeling of creativess)
8.संचय प्रवृत्ति(acquisition)➖स्वामित्व (ownership)
9.सामूहिकता(gregarious)➖एकाकीपन(lonlyness)
10.काम(sex),➖ कामुकता(lust)

  1. आत्मगौरव(self assertion)➖श्रेष्ठता की भावना(postive self feeling)
    12.दैन्य(submission)➖आत्महीनता(nagitive self feeling)
    13.भोजन अन्वेषण(food seening)➖ भूख(appetite)
    14.हास(laugther)➖आमोद(amusement)

🌼संवेग ( Emotion) 🌼
हमारे मन के अलग अलग प्रकार के भाव संवेग होते हैं।
संवेग संज्ञान (मानसिक क्रियाओं) के कारण उत्पन्न होते हैं।
जैसे जैसे संज्ञान बढता जाता है वैसे वैसे संवेग प्रदर्शित करने का तरीका बदल जाता है।
हम संज्ञान के कारण ही अपने संवेगो बाहर प्रकट करते हैं या छिपाते है।
संवेग emotion लैटिन भाषा के शब्द emovere (इमोवेयर) से बना है जिसका अर्थ होता है – उत्तेजना, उथल पुथल, हलचल

वुडवर्थ के अनुसार संवेग व्यक्ति की उत्तेजित दशा है।

क्रो&क्रो के अनुसार संवेग वह भावनात्मक अनुभूति है जो व्यक्ति की मानसिक या शारीरिक उत्तेजना की अवस्था से जुड़ी होती है, आंतरिक समायोजन के साथ जुड़ी हैं जो अभिव्यक्ति के द्वारा बाहरी व्यवहार के रूप में प्रदर्शित होती है।

संवेग का आधार मूल प्रवृति है। जैसी मूल प्रवृति होगी उसके आधार पर संवेग प्रदर्शन होता है।

मेक्डुगल ने 14 मूल प्रवृतियो के 14 संवेग बताये हैं।

मूल प्रवृति (basic nature ) संवेग( emotion )
1)पलायन (escape) – भय(fear)
2) युयुत्सा (combat) – क्रोध (anger)
3) निवृति (repulsion) – घृणा (disgust)
4) जिज्ञासा (curiosity) – आश्चर्य (wonder)
5) शिशुरक्षा(parental ( – वात्सल्य (Love)
6) शरणागति (apeal)- विषाद (distress)
7) रचनात्मक (construction) – संरचनात्मक भावना (feeling of creativeness)
8) संचय प्रवृत्ति(aequistion) – स्वामित्व (ownership)
9) सामूहिकता(gregariousness) – एकाकीपन (loneliness)
10) काम (sex) – कामुकता (lust)
11)आत्मगौरव (self assertion) – श्रेष्ठता की भावना (positive self feeling)
12) दैन्य(submission) – आत्महीनता (negative self feeling)
13) भोजन अन्वेषण( food seeking) – भूख (appetite)
14) ह्रास (laughter) – आमोद (amusement)


📝Notes by- Puja kumari 🖋️
Emotion (संवेग) :-
🔅emotion शब्द लैटिन भाषा के Emovere से बनी है।जिसका अर्थ उत्तेजना/हलचल होता है।
◆ व्यक्ति की उत्तेजना संवेग से जुड़ी होती है।
◆ व्यक्ति का संवेग अपनी संज्ञान या मानसिक क्रिया से जुड़ी है जो सिचुएशन के अनुसार कार्य करती है। संवेग व्यक्ति के मूल-प्रवर्ति से होती है, जिसमे कुछ संवेग जन्मजात होती है,जो हमारे heridity से जुड़ी होती है।
🌸 संवेग और मुलप्रवृति एक दूसरे के पूरक होते है, जो सकारात्मक और नकारात्मक दोनो ही व्यक्ति के अंदर होता है।
🔹वुडवर्थ :- संवेग व्यक्ति की उत्तेजित दशा है।
🔹 क्रो & क्रो :- संवेग वह भावनात्मक अनुभूति है, जो व्यक्ति की मनसिक या शारीरिक उत्तेजना से जुड़ी है, आंतरिक समायोजन के साथ जुड़ी है जो अभिव्यक्ति के द्वारा बाहरी व्यहार के रूप में प्रदर्शित होती है।
🔹मैकडुगल ने मूलप्रवृति के 14 प्रकार बताये है ,जो निम्न है:-
➡️मुलप्रवृति ( Basic nature)- (14) :-.
1). पलायन (Esscape)
2).युयत्सा (Combat)
3).निवृत्ति (Repulsion)
4).जिज्ञासा (Curiosity)
5).शिशुरक्षा (Parental)
6).शरणागति (Apeal)
7).रचनात्मक (Structure)
8).संचायप्रवृति(Acquisition)
9).सामूहिकता(Gragariousness)
10). काम (Sex)
11).आत्मगौरव (Selfproud)
12). दैन्य(Submission)
13).भोजन अन्वेषण(Food seeking)
14).ह्रास(Laughter)
➡️ संवेग (Emotion) :-
1). भय ( Fear)
2).क्रोध (Anger )
3). घृणा (Disgust)
4).आश्चर्य (Wonder)
5).वात्सल्य (Love)
6).विषाद (Distress)
7).संरचनात्मक (Felling of creativeness)
8).स्वामित्व (Ownership)
9).एकाकीपन (Loneliness)
10).कामुक्ता (Lust)
11).श्रेष्ठता की भावना (Positive self felling)
12).आत्महीनता (Negative self felling)
13).भूख ( Hungary )
14).आमोद (Amusement)


✍🏻Notes By➖ Vaishali Mishra 🔆संवेग (Emotion)

▪️संवेग या हमारे जो भाव है वो सब हमारे संज्ञान से निकल कर आते है।
▪️जितनी भी हमारी मानसिक क्रियाएं (तर्क, बुद्धि, संवेदनाएं, विचार) होती है वो सब हमारे संज्ञान में होती है और यही संज्ञान हमारे संवेग को जन्म देता है।हम अपने संज्ञान के अनुसार ही अपने संवेग दिखाते या छिपाते है।
▪️यदि कोई व्यक्ति हमारे किसी संवेग को पहचानते लेते है तो वह संज्ञान ही है जो उसको संवेग पहचानने में मदद करते है।
▪️ जैसे जैसे हमारा संज्ञान बढ़ता वैसे वैसे ही हमारे संवेग को पहचानने की क्षमता भी बेहतीन होती चली जाती है।
▪️ संवेग का आधार ही मूल प्रवृति होती है।

🔅मूल प्रवृति (Basic Nature)➖

*हमारे कई संवेग होते है जिसमे से जो सामने से दिखाई देते है वे संवेग कहलाते है और दूसरी तरफ जो संवेग हम नहीं दिखाते है या छिपाते है वहीं मूल प्रवृति कहलाते है।

◼️”संवेग – Emotion शब्द से बना हुआ है जो कि एक लेटिन भाषा के Emovere शब्द से बना है जिसका अर्थ उत्तेजना या हल चल या उथल पुथल होता हैं।

▪️ बुडवर्थ का कथन➖” संवेग व्यक्ति की उत्तेजित दशा है”
▪️क्रो एंड क्रो का कथन➖”संवेग एक भावनात्मक अनुभूति है जो किसी व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक उत्तेजना से आंतरिक रूप से समायोजन के साथ जुड़ी हुई होती है जो कि अभिव्यक्ति द्वारा प्रदर्शित की जाती हैं।”

हमारी कई सारी भावनात्मक अनुभूति होती है जो कि हमारे शारीरिक और मानसिक रूप से किसी न किसी प्रकार से जुड़ी हुई होती है जिनसे हमारे अंदर उत्तेजना आती है और हम आंतरिक रूप से परिस्थितियों के अनुरूप समायोजन करते है और अपनी अभिव्यक्ति के रूप में प्रदर्शित करने लगते है।

▪️जैसे जब हम किसी शिक्षक के साथ जुड़े हुए होते है तो हमारे मानसिक और शारीरिक क्रियाओं में कई उत्तेजनाएं भी आती है जिसको हम आंतरिक रूप से अपने अंदर समायोजित करते है फिर शिक्षक के प्रति अपनी अभिव्यक्ति के द्वारा अपने भाव या संवेग को प्रदर्शित करते है।
▪️किसी भी चीज के प्रति हमारे जो अच्छे या बुरे संवेग होते है उनका हम आंतरिक समायोजन के द्वारा परिस्थिति के अनुरूप ही अपनी अभिव्यक्ति को दिखाते है।

इन संवेग जा आधार ही मूल प्रवृति होती है या इन मूल प्रवृति से जी संवेग जा जन्म होता है”

🔅मेगडूगल ने कुल 14 मूल प्रवृति दी जो कि संवेग से जुड़ी हुई है।

▪️मूल प्रवृति ▪️संवेग
*1 पलायन (Escape)-भय (Fear)
*2 युयुप्सा(Combat)- क्रोध(Anger)
*3निवृति (Repulsion)- घृणा (Disgnst)
*4 जिज्ञासा (Curiosity)- आश्चर्य (Wounder)
*5 शिशुरक्षा (Parent)- वात्सल्य (Love)
*6 शरना गति (Appeat)- विषाद(Distress)
*7 रचनात्मक (construction)- संरचनात्मक (Feels of creativness)
*8 संचय प्रवृति (Aequistion)- स्वामित्व (Owenership)
*9 सामूहिकता (Gregariousness)- एकाकीपन (Loneliness)
*10 काम(Sex) – कामुकता ( Lust)
*11 आत्मगौरव (Self asseration)- श्रेष्ठता की भावना (Self Fellings)
*12 दैतय (Submission)- आत्महिंता ( Negative self feelings)
*13 भोजन अन्वेषण (Food Seeking) – भूख(Appetite)
*14 हास (Laughter)- अमोद (Amusement)।


वंदना शुक्ला -द्वारा

✳️संवेग Emotion ✳️

🔸संवेग संज्ञान के कारण ही उत्पन्न होता है संज्ञान मानसिक क्रियाए होती है, बुद्धि के हिसाब से संवेग होता है ,उम्र के हिसाब से संवेग होता है।
जैसे जब बच्चा छोटा होता है तो कम मानसिक क्रियाएं होती हैं और संवेग भी कम होते हैं जैसे जैसे बच्चा बड़ा होता है उसकी मानसिक क्रियाओं में वृद्धि होती है और संवेग में भी वृद्धि होती है।
🔸 संवेग मानसिक क्रियाओं के द्वारा उत्पन्न होता है ।
🔸मानसिक स्तर संवेग को प्रभावित करते हैं ।
🔸 संज्ञान के बिना संवेग की कल्पना नहीं की जा सकती।

🔸संवेग Emotion लेटिन भाषा के शब्द से बना है मतलब उत्तेजना, दिशाओं में उथल-पुथल।
🔸वुडवर्थ- ने कहा कि संवेग व्यक्ति की उत्तेजित दशा है।

🔸क्रो एंड क्रो- ने बोला कि संवेग वह भावनात्मक अनुभूति है जो व्यक्ति की मानसिक शारीरिक उत्तेजना से जुड़ी होती है और यह आंतरिक आंतरिक समायोजन के साथ अभिव्यक्ति के द्वारा बाहरी व्यवहार के रूप में प्रदर्शित होती है अर्थात परिस्थिति के अनुसार हम अपनी भावनाओं को समायोजित करते हैं।

🔸 मैक्डूगल के अनुसार संवेग 14 तरीके के होते हैं ।
मूल प्रवृत्ति। संवेग 1पलायन escape – भय fear 2युयुत्सा combat – क्रोध anger
3 निवृत्ति repulsion-घृणा disgust
4 जिज्ञासा curiosity- आश्चर्य wonder
5 शिशु रक्षा (parental)- वात्सल्य (love)
6 शरणागत (appeal )-विषाद दुख (distress)
7 रचनात्मक (construction)- संज्ञानात्मक भावना (feeling of creativeness)
8संचय प्रवृत्ति (acquisition)- स्वामित्व (ownership)
9सामूहिकता(gregariousness)- एकाकीपन(loneliness)
10 काम(sex)- कामुकता (last)
11आत्म गौरव (self assertion)-श्रेष्ठता की भावना(positive self feeling)
12 दैन्य (submission)- आत्म हीनता(negative self esteem)
13 भोजन अन्वेषण (food seeking)-भूख ( appetite)
14हास्य (laughter)- आमोद(amusement)

धन्यवाद

Child as Problem solver

समस्या समाधान कर्ता ( Child problem solver) :- अपनी योग्यता के अनुसार किसी समस्या का टिकट समाधान करना ही समस्या समाधानकर्ता होना है इसमें हम अपनी संपूर्ण बुद्धि और क्षमता लगाकर समस्या को समाधान करने की कोशिश करते हैं इसी संदर्भ में वुडवर्थ ने कहा कि ज्ञान को अपने स्वभाव एवं व्यहार में लाना आवश्यक है… यदि कोई बालक निर्णय लेने के लिए संपूर्ण योग्यता के अनुसार अपनी क्षमता का प्रयोग कर समस्या के समाधान तक पहुँच जाता है तो उसके सही मार्गदर्शन में माता – पिता, शिक्षक, संस्कार और मूल्यों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. 👉. राबर्ट गैने ने अपनी पुस्तक The condition of learning में समस्या समाधान के 8 सोपानों का वर्णन किया है जो कि निम्न प्रकार से है (1) सांकेतिक सीखना (2) उद्दीपन अनुक्रिया (3) सरल श्रंखला (4) शाब्दिक साहचर्य / शाब्दिक अधिगम (5) विभेदीकरण (6) संप्रत्यय (Concept) (7) नियम सीखना (8) समस्या समाधान 👈 अर्थात हमारे पास जब कोई समस्या आती है तो हम सांकेतिक रुप से सीखते हैं फिर उसके प्रति अनुक्रिया व्यक्त करते हैं अनुक्रिया को समझकर उसकी एक सरल श्रृंखला बनाते हैं फिर उसका शाब्दिक रूप से अधिगम कर विभेदीकरण कर संप्रत्यय Concept बनाकर नियम बनाते हैं और अंत में हम समस्या का समाधान कर लेते हैं.🌺🌺 🌹

रश्मि सावले 🌹


🔆समस्या समाधक🔆
” बच्चा एक समस्या समाधक के रूप में” ( child as a problem solver)

▪️बच्चे के सामने जी भी समस्या आती है वह उस उसका समाधान खोजने की कोशिश करता है। चाहे जो भी समस्या हो वह उस पर विश्लेषण कर ,उस परिस्थिति को समझ कर एक उचित समाधान निकलता है ।
▪️हम समस्या के समाधान के लिए अपनी बुद्धि के द्वारा एक बेहतर उपाय ढूंढकर उसका सही प्रकार से तरीके से उपचार करते है या उस समस्या को दूर कर देते है।
▪️जब हमारे पास समस्या आती है तो उसके लिए हम अपने उत्तम मार्गदर्शन और योग्यता का प्रयोग करके ही एक बेहतर समाधान निकालते है। हमारे मस्तिष्क का ज्ञान ही हमारी समस्या के समाधान की खोजने में हमारी मदद करता है।
▪️समस्या जा समाधान निकालने के लिए कई लोग,माता पिता,शिक्षक एक मार्गदर्शक के रूप में तथा इसके साथ ही हमारे संस्कार हमारे मूल्य एक सर्वोत्तम समाधान खोजने में हमारी मदद करते है।

🔅 गेंने के अनुसार➖
हम जिस भी समस्या जा समाधान निकालते है उसके लिए हम सात सोपान को पार कर आठवें सोपान पर पहुंचकर समस्या का समाधान निकाल लेते है।
गेने की पुस्तक- “The condition of learning”➖ में समस्या समाधान के आठ सोपान या चरण बताए गए है।

1 सांकेतिक रूप में सीखना
2 उद्दीपन अनुक्रिया
3 सरल रेखा
4 शाब्दिक सहाचर
5 विभेदीकरण
6 संप्रतय
7 नियम सीखना
8 समस्या समाधान

  • सर्वप्रथम हमारे पास जो समस्या होती है उसके संकेतो की देखकर हम उस समस्या पर अनुक्रिया करते है और अनुक्रिया करते हुए एक सरल श्रंखला बनाते हुए उस समस्या जा शाब्दिक
    सहाचर या उस समस्या की एक
    अधारिय समझ बनाते है,फिर उसे अलग अलग रूप में बांटकर या उस समस्या का विभेदीकरण करते हैं। उपर्युक्त समस्त प्रक्रिया पूरी हो जाने पर हम अपने दिमाग में उसकी एक धारणा या समप्रत्य बना लेते है इसके बाद हम नियम बनाना सीख जाते है कि किस प्रकार से समाधान किया जाना है। और अंत में हम समस्या का सर्वोत्तम समाधान खोज लेते है। ✍🏻 वैशाली मिश्रा

Bchha एक समस्या समाधक के रूप में — समस्या समाधान करते समय हमारे माता पिता शिक्षक संस्कार मूल्य मार्ग दर्शक के रूप में मदद करते हैं
जैसा हमारा मूल्य आदर्श होगे हमारी समस्या समाधान में उनका विशेष प्रभाव देखने को मिलता है
इन सबकी सहायता से हम जो समस्या समाधान के लिए जो सर्वोत्तम विकल्प होता है वहीं चयन करते है
रोबर्ट गेने ने अपनी पुस्तक — समस्या समाधान के 8 चरण बताए है समस्या समाधान करते वक्त एक एक करके सभी चरणों से होकर क्रमानुसार गुजरना पड़ता है
जो निम्न है –(1) सांकेतिक अधिगम
( 2) उद्दीपक अभिक्रिया अधिगम (इसे s-r अधिगम भी कहते है )
(3) सरल स्रखला अधिगम
(4) शाब्दिक अधिगम
(5) विभेदीकरण अधिगम
(6) सम्प्रत्य अधिगम
(7) नियम सीखना
(8) समस्या समाधान

उदहारण — जैसे हम कोई समस्या का समाधान करते है मान लो हम movie देखने जा रहे टिकट नहीं मिल रही तो हम पहले जुगाड करते है पूछते है लोगो से तो लोग अपने इशारों में हमें बताते है ब्लैक में ले लो तो यह हुअा
1– पहला अधिगम सांकेतिक अधिगम
फिर हम उस टिकट के प्रति अपनी अनुक्रिया करते है (जहा टिकट है उद्दीपन) उसके प्रति जो क्रिया है वो है अनुक्रिया यह हुआ (2) दूसरा चरण उद्दिपक अनुक्रिया
अब हमें पता है कहा टिकट मिलनी है और कैसे यह हुआ तीसरा चरण (3) सरल श्रखला अधिगम
अब हम टिकट खरीदने के लिए अपने शब्दों का उपयोग करते है यह हुआ चतुर्थ चरण( 4) शाब्दिक सहचर्या
और हम टिकट लेते वक्त अपने अनुसार अपर लोअर जो भी शीट लेना उसकी टिकट लेते है यह हुआ पांचवां चरण ( 5) विभेदीकरण
अब अपने दिमाग में संप्रत्यय बना के जब टिकट नहीं मिलेगी तो क्या और कैसे करना है यह हुआ (6)चरण कॉन्सेप्ट बनना
जो हमने अपने दिमाग में एक नियम की तरह रख लिया और सीख लिया यह हुआ( 7) चरण नियम सीखना
और पूरी समस्या में हमने जो प्रक्रिया की ओर समस्या को सॉल्व लिया यही है आठवा चरण ,(8) समस्या समाधान

इस प्रकार हम अपनी निजी जिंदगी में समस्या को समाधान करते रहते है ओर पता नहीं नहीं चलता इस thoery को हम शादी के example or कई तरीके से भी समझ सकते है ।


Child -≤ problem solver

*✍️ समस्या ➖ समस्या एक ऐसा काम है जिसमें हम कठिनाई ( उलझन) का अनुभव करते है उसे समस्या कहते है।।
जैसे – एक व्यक्ति को कार चलाना सरल लगता है वहीं दूसरे व्यक्ति को वहीं कार्य बहुत कठिन लगता है

✍️समस्या समाधान ➖ जब व्यक्ति किसी विशेष लक्ष्य तक पहुंचना चाहता है परन्तु वह लक्ष्य तक आसानी से नहीं पहुंच पाता है तब समस्या समाधान की आवश्यकता होती हैं।।
✍️समस्या समाधान कर्ता ➖ हर व्यक्ति समस्या समाधान कर्ता होता है। कोशिश करते रहने से समस्या का समाधान होता है। समस्या को सुलझाना हमारे जीवन का अभिन्न अंग है।
*हर व्यक्ति को अपनी योग्यता और क्षमता के अनुसार कोई भी कार्य सरल या कठिन लगता है।
*व्यक्ति अपनी पूरी बुद्धि क्षमता का उपयोग करके समस्या का समाधान करता हैं।
*जब तक व्यक्ति कोई कार्य नहीं करेगा उसे वह कार्य कठिन लगेगा कार्य करने के बाद में वही कार्य उसके लिए आसान ( सरल) हो जाएगा।
*समस्या के लिए हम चिंतन करते है जिसमें अपने पूर्व ज्ञान ( अनुभावों) से समाधान करते हैं।
*समस्या समाधान में बच्चे को मदद की आवश्यकता होती है जैसे – शिक्षक , माता – पिता , मार्गदर्शन, संस्कार, मूल्यों के ज्ञान के माध्यम से बच्चे की समस्या का समाधान करते है ।
*व्यक्ति के संस्कार और मूल्यों का समस्या समाधान में महत्वपर्ण भूमिका होती है इसके आधार पर व्यक्ति सही या ग़लत तरीके से समाधान करता है ।
समाधान का ज्ञान स्थाई होता है।।

  • वुड वर्थ ➖ “”सीखना, आपके व्यवहार और स्वभाव में होना चाहिए।”” *रॉबर्ट गेने ➖ बुक- “”the condition of learning””

इन्होंने समस्या समाधान के 8 चरण ( सोपान) बताए है —
1::सांकेतिक सीखना ➖ व्यक्ति को कोई संकेत ( हिंट) का मिलना ।
2:: उद्दीपन अनुक्रिया ➖ व्यक्ति द्वारा उस संकेत पर क्रिया ( रिएक्ट) करना।
3:: सरल श्रृंखला ➖ उस क्रिया पर विश्लेषण करके कनेक्ट ( श्रृंखला में) करना।
4:: शाब्दिक सहचर्या ➖ विश्लेषण के स्वरूप को कनेक्ट करके उसके सभी पक्षों पर विस्तार से सोचना।
5:: विभेदीकरण ➖ समस्या के संभावित समाधानों को खोजना ।
6:: संप्रत्य ➖ संभावित समाधानों से एक कॉन्सेप्ट तैयार करना।
7::नियम सीखना➖ कॉन्सेप्ट के एक्सिक्यूशन के लिए रुल ( नियम) बनाना।
8:: समस्या समाधान ➖ रुल को एक्जीक्यूट करके समस्या के समाधान तक पहुंचा जाता है ।। ✍️ अनामिका राठौर ✍️


🌼बच्चे समस्या समाधानकर्ता के रुप 🌼
हर बच्चा अपने आप मे एक समस्या समाधानकर्ता है। जैसे बच्चा जब छोटा होता है तो गिलास को पकडकर पानी मे असमर्थ होता है पंरतु धीरे धीरे जैसे वह बडा होता जाता है तो वह गिलास से पानी पीना सिख जाता है।

बच्चे अपनी समस्या का समाधान माता – पिता, शिक्षक ,परिवार के लोगों के मार्गदर्शन पर और अपने संस्कार, मूल्य के अनुसार अपनी समस्या का समाधान करता है।
बच्चा अपनी समस्या का समाधान अपनी और योग्यता के अनुसार करता है।
समस्या का समाधान एक निश्चित क्रम मे होता है।

राबर्ट एम गेने ने इस क्रम को अपनी पुस्तक the condition of learning में बताया है।
इसके अनुसार समस्या का समाधान करने के लिए पहले हमे 7 सोपानो से गुजरना पडता है फिर समस्या का समाधान होता है।
1) सांकेतिक सीखना
2) उद्दीपन अनुक्रिया
3)सरल श्रृंखला
4) शाब्दिक साहचर्य
5)विभेदीकरण
6) सम्प्रत्य (concept )
7) नियम सीखना
8) समस्या समाधान

जैसे हमे किसी समस्या का समाधान करने के लिए बोला गया है तो वह हमारे संकेत का कार्य करता है। फिर हम उसके प्रति अपनी अनुक्रिया करते हैं। फिर समस्या को सरल श्रृंखला के रूप मे बनाते हुए शाब्दिक तालमेल बनाते हैं फिर उसको अलग अलग भागो मे बाटते है तो उसके प्रति हमारे दिमाग मे एक संप्रत्यय का निर्माण होता है जिससे हम नियम बनाते है और समस्या का समाधान कर लेते हैं।

रवि कुशवाह


🌈समस्या समाधान कर्ता
बच्चे के सामने जब समस्या आती है तो उसको समाधान खोजने के लिए अनेक प्रयास करता है और वह नियम नियम बनाता है और अपने परिवार शिक्षक संस्कृति मूल्य आदि की सहायता से समस्या को दूर करता है
☄रॉबर्ट गैने
the condition of learning
⭐1 संकेत
2 , उद्दीपन अनुक्रिया
3 श्रृंखला
4 शाब्दिक
5 विभेदीकरण
6सम्प्रत्य
7नियम
8 समस्या समाधान
हमारे आसपास जब समस्या आती है तो उस समस्या सुन सांकेतिक रूप से सीखते हैं फिर उसे अनुक्रिया व्यक्त है अनुप्रिया को समझ कर उसकी एक सरल संख्या बनाते हैं अधिगम के विविधीकरण संप्रत्यय बनाकर नियम का और अंत में समस्या को समाधान कर लेते हैं
✍ Menka patel


☘️समस्या समाधान कर्ता :- 🔯 जब किसी के पास समस्या आती है तो उस समस्या को समझ कर उसको जानने की कोशिश करते है, छोटे – छोटे भाग से जोड़ते है, कैसे करे कि solve हो जाये। अगर कोई बड़ी समस्या जो हम करने में सक्ष्म नही हो पाते है या हमारे समझ मे नही आता है तो हम अपने माता-पिता, शिक्षक से मार्गदर्शन लेते है, इसमे संस्कार का भी बहुत अहम भाग होता है। हमारा मूल्य हमे यह बताता है कि हम अपनी समस्या को किस तरह solve करते है, कई समस्या को हम दूसरे के माध्यम से रुपये देके solve करवाते है तो ये हमारा संस्कार कैसा है ये बताता है। ⚛️ रोबर्ट गेने के अनुसार समस्या को 8 चरण में बात है :- 1). सांकेतिक अधिगम 2).उद्दीपन अनुक्रिया 3).सरल श्रृंखला 4).शाब्दिक साहचर्य 5).विभेदीकरण 6). संप्रत्य 7).नियम सीखना 8).समस्या समाधान जैसे कोई हमारे बीच आती है, तो समस्या हमारे लिए संकेत का कार्य करती है। फिर उसमें हम उद्दीपन अनुक्रिया करते है, अनुक्रिया करने के बाद एक सरल श्रृंखला तैयार करते है, उस श्रृंखला की शाब्दिक के मूल को समझते है, समझकर उसका पुनःसमंजस्य स्थापना करते है। स्थापना करके उसमें विभेदीकरण करते है। फिर एक concept (संप्रत्य) तैयार हो जाता है। इस concept के basic पे एक नियम बना लेते है। तब नियम के आधार पर समस्या समाधान कर लेते है।। ✒️📝Puja Kumari✒️🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸


🌄समस्या समाधान कर्ता :-

हर एक व्यक्ति (बच्चा) समस्या समाधान कर्ता होता है।कई बार ऐसा होता है कि हमे ऐसा लगता है कि मेरे अंदर ये क्षमता नहीं है, हम ये नहीं कर पाएंगे। लेकिन वास्तव में हम किसी ना किसी कार्य के रूप में अनेक प्रकार की समास्यों का समाधान कर रहे होते हैं।
इस प्रकार जब कोई व्यक्ति अपनी अपनी क्षमताओं के अनुसार किसी कार्य को करने में सक्षम होता है तथा उस समस्या का समाधान करता है तो यह समझा जाता है कि उसमें समस्या समाधान की क्षमता विकसित हो चुकी है।

जैसे कि :-
1.एक बच्चे के सामने अनेक प्रकार की समस्याएं और बाधाएं आती है जिससे की वो अनभिज्ञ होता है,फिर भी वो अनेक प्रकार का विश्लेषण कर आसानी से उस समस्या का समाधान कर पाता है इसका मतलब यह है कि एक छोटा बच्चा भी समस्या समाधान कर्ता होता है।

  1. समस्या समाधान विधि में बुद्धि का भी महत्वपूर्ण योगदान है, अगर हमारे पास जिज्ञासु,तर्क,चिंतन युक्त बुद्धि होगा,तभी समस्या का समाधान करने के लिए हम अपनी बुद्धि का बेहतर तरीके से उपयोग कर अच्छे – से – अच्छा और बेहतर तरीके से सटीक समाधान ढूंढ सकते हैं।
  2. इस प्रक्रिया में एक अच्छे मार्गदर्शक और एक अच्छे माहौल की भी आश्यकता होती है जिसमें उसे महत्व दिया जाय जिससे कि उनमें उत्सुकता विकसित हो और वे अपनी विचारों को उचित तरीके से रख़ सके।तभी बच्चा उस कार्य में रुचि लेगा , और जब रुचि लेगा तभी उसमें समस्या समाधान कौशल सुदृढ़ होगी।

🏝️रॉबर्ट गेने के अनुसार समस्या समाधान के लिए एक व्यक्ति को सात स्तरों से होकर गुजरना पड़ता है,तब जाकर समस्या समाधान हो पाता है। जो की निम्नलिखित है :-
1. संकेत
2. उद्दीपन अनुक्रीया
3. श्रृंखला
4. शाब्दिक
5.विभेदीकरण
6. सम्प्रत्य
7.नियम और
8. समस्या समाधान

🏝️हमारे आस – पास जब कोई समस्या आती है तो हम उस सांकेतिक रूप से ग्रहण करके सीखते हैं फिर उससे अनुक्रिया व्यक्त करते हैं, अनुक्रिया से समझ विकसित कर उसकी श्रृंखला बनाते हैं तथा अधिगम के विविधीकरण कर सम्प्रत्यय बनाकर नियम विकसित कर तब जाकर समस्या समाधान कर लेते हैं।😊 *Neha Kumari*


🔆🔆 समस्या समाधान कर्त्ता🔆🔆
बच्चा एक समस्या समाधाक के रूप में होता है। वह समस्या का समाधान खोजने की कोशिश करता है। वह समस्या का विश्लेषण करने लगता है समस्या को समझकर वह उचित समाधान तक पहुंचता है।
▪️ वह समस्या का समाधान खोजने के लिए विभिन्न प्रकार से प्रयास करता है और समस्या को हल करता है।
▪️ जब हमारे पास कोई समस्या आती है तो वह उसका अपनी योग्यताओं के आधार पर अपने ज्ञान का प्रयोग कर के एक बेहतरीन हल निकालकर समस्या का समाधान खोजते हैं।
▪️ समस्या का समाधान खोजने में कई लोग माता, शिक्षक हमे एक मार्गदर्शक के रूप में तथा इसके साथ ही हमारे संस्कार हमारे मूल्य एक सर्वोत्तम समाधान खोजने में हमारी मदद करते हैं।
🔆 गेंने के अनुसार ➖
हम जिस समस्या का समाधान खोजते हैं। उसके लिए हम सात सोपानों को पार कर आठवें सोपान तक पहुंचते हैं अर्थात समस्या के समाधान तक पहुंचते हैं।
▪️ गेंदे ने अपनी पुस्तक ” the condition of learning” में समस्या समाधान के आठ सोपान बताए हैं।

  1. सांकेतिक रूप से सीखना
  2. उद्दीपन अनुक्रिया
  3. सरल रेखा
  4. शाब्दिक साहचर्य
  5. विभेदकारण
    6.सम्प्रत्यय
    7.नियम सीखना
    8.समस्या समाधान
    🔹 सर्वप्रथम हमारे पास जो समस्या होती है उसके संकेतों को देखकर ही हम उस समस्या पर अनुक्रिया करते हैं और अनुक्रिया करते हुए एक सरल श्रृंखला बनाते हुए उस समस्या की एक आधारित समझ बनाते हैं, फिर उसे अलग अलग रुप में बांटकर या उस का विभेदीकरण करते हैं। उपर्युक्त समस्त प्रक्रिया पूरी होने पर हम अपने दिमाग में उसकी एक धारणा बना लेते हैं। इसके बाद हम नियम बनाना सीख जाते हैं कि किस प्रकार से समाधान किया जाना है और अंत में हम समस्या का सर्वोत्तम समाधान खोज लेते हैं।
    ✍️ Gudiya Chaudhary

🌸 समस्या समाधान करता🌸 हर बच्चा समस्या समाधान करता होते हैं वह अपनी हर समस्या का समाधान करने के लिए प्रयास करते हैं वह बच्चा कोशिश तो करता है समस्या समाधान करने की बच्चे के सामने जो शिक्षण होता है एक निश्चित क्रम में होता है प्रत्येक बच्चे में हर समय किसी ना किसी समस्या का समाधान करने की आदत या प्रकृति होती है। 🌸उदाहरण के लिये- यदि एक बच्चा किसी एक समस्या का समाधान नहीं कर पाता है तो बच्चा failure नहीं कहलाएगा वह बच्चा समस्या समाधान करता ही कहलाएगा| 🔆 समस्या का समाधान निकालना हमारे जीवन का अभिन्न अंग है प्रत्येक कार्य किसी के लिए आसान भी हो सकता है और कठिन भी हम किसी समस्या का समाधान करने के लिए विश्लेषण करते रहते हैं जब हम कोई भी कार्य या निर्णय लेते हैं तो हम यह बुद्धि से करते हैं बुद्धि में जितनी भी चीजें उन सभी में सबसे अच्छी सोच को समस्या समाधान करने में लगाते हैं और बच्चे को जो कार्य आसान लगता है वह उसके लिए स्वभाविक हो जाता है| ♻️ किसी भी समस्या का समाधान करने के लिए बच्चे अपने संपूर्ण योग्यताएं, क्षमता या बुद्धि का प्रयोग करते हैं| ❇️ समस्या के आधार पर ही बुद्धि के सबसे बेस्ट सोच के द्वारा अपनी योग्यता एवं क्षमता के अनुसार समस्या का समाधान निकालने का प्रयास करते हैं| ♻️ समस्या का समाधान करने के लिए सर्वोत्तम गुरु या विकल्पों का प्रयोग करके कार्य को अंजाम देते हैं और समाधान तक पहुंच जाते हैं| 🌺 किसी भी परिस्थिति में यदि बच्चा एक समस्या समाधान करता के रूप में कार्य करता है तो वह अपनी क्षमता योग्यता के आधार पर ही उस समस्या का समाधान करने का प्रयास करता है| ♻️ समस्या समाधान करता अर्थात बालक को मदद की या सही दिशा की आवश्यकता होती है जैसे माता-पिता शिक्षक मार्गदर्शन हमारे संस्कार एवं मूल्यों के माध्यम से ही बच्चे समस्या का समाधान कर सकते हैं| ❇️ कोई भी बच्चा समस्या का समाधान अपने मूल्य संस्कार को खोकर नहीं कर सकता है उसे अपने मूल्यों या संस्कारों के आधार पर ही समस्या का समाधान करना चाहिए| 🌺 यदि बच्चे को सही मार्गदर्शक के रुप में शिक्षक माता-पिता या सही दिशा मिल जाता है तो बच्चे उस समस्या का समाधान अवश्य ही निकाल लेते हैं| ❇️ हमारी मूल्य एवं संस्कार समस्या समाधान में बहुत बड़ा योगदान देते हैं| 🌺Robert gene ➡️” इनके अनुसार समस्या समाधान तक पहुंचने के लिए 7 सोपान को पार करना होता है। इनकी बुक ➡️”the conditioning of learning ” 1st ⏩ संकेत अधिगम। 2nd ⏩ उद्दीपक अधिगम अभिक्रिया। 3rd ⏩सरल श्रृंखला। 4th⏩ शाब्दिक साहचर्य। 5 th⏩ विभेदीकरण। 6th ⏩ संप्रत्यय अधिगम। 7th ⏩ नियम सीखना। 8th ⏩ समस्या समाधान। 🌸🌸 सर्वप्रथम हमारे पास जो समस्या होती है उसके संकेतों को देखकर ही हम उस समस्या के अनुक्रिया करते हैं, उसके बाद समझते के आधार पर अनुप्रिया करके उस पर एक सरल श्रृंखला बनाते हुए उस समस्या की एक समझ बना लेते हैं फिर उसे अलग-अलग रूप में बाटकर उसका विभेदीकरण करते हैं विभेदीकरण के पश्चात मस्तिष्क 🧠में एक संप्रत्यय का निर्माण करते हैंअवधारणा का निर्माण करने के पश्चात नियम बनाना सीख जाते हैं कि किस प्रकार से समाधान किया जाना है और कैसे किया जाना है और अंतिम में समस्या का समाधान तक पहुंच जाते हैं। ✍️✍️Manisha gupta 🌸🌸


Teaching Variables and Phases

🔆शिक्षण के चर एवं शिक्षण की अवस्थाएं🔆

🔅 शिक्षण के चर➖ ऐसी चीजे या ऐसे तत्व, जो शिक्षक को चलाने या execute करने के लिए या शिक्षण प्रक्रिया को सही तरीके से पूर्ण करने के लिए जो सहयोग प्रदान करता है या उस प्रक्रिया के लिए काम आता है,शिक्षक के चर कहलाते है ।
यह तीन प्रकार के होते हैं।
1) स्वतंत्र चर
2) आश्रित चर
3) हस्तक्षेप चर

▪️1) स्वतंत्र चर➖ शिक्षण व्यवस्था का या शिक्षण कार्य का नियोजन या इस शिक्षण प्रक्रिया का परिचालन का कार्य एक शिक्षक के द्वारा ही पूरा किया जाता है।, इसलिए इसमें शिक्षक को स्वतंत्र चर कहा जाता है ।शिक्षक अपने शिक्षण कार्य का परिचालन सुव्यवस्थित ढ़ंग से , स्वतंत्र रूप से करता है।
शिक्षक को पूरी स्वतंत्रता रहती है कि वह अपने शिक्षण कार्य के नियोजन या प्रक्रिया के परिचालन को सुव्यवस्थित रूप से संचालन कर सके ।

▪️2) आश्रित चर➖ इसमें छात्र शिक्षक पर आश्रित होते है।छात्र शिक्षक के हिसाब से ही क्रियाशील होते है।शिक्षक द्वारा समझाने , नियोजन करवाने, व्यवस्था करवाना, परिचालन करना जैसे समस्त कार्य शिक्षक करता है और छात्र उस शिक्षक पर निर्भर रहता है।

▪️3) हस्तक्षेप चर➖यह शिक्षक और छात्र दोनों को आपस में बांध कर रखता है।यह सिखाने वाले ओर सीखने वाले के बीच में होने वाली एक अंत क्रिया या प्रक्रिया है और इस प्रक्रिया के बीच पाठ्यक्रम और शिक्षण विधियां मदद करती है।इस चर के द्वारा हम अपने शिक्षण कार्य के सही या गलत का पता कर सकते है और यह भी जान सकते है कि बच्चे को क्या जरूरत है और किस प्रकार से सिखाया जाए।

  • उपुर्युक्त वर्णित चर का अपना अपना महत्व होता है या प्रत्येक की अपनी अपनी उपयोगिता है।

🔅 शिक्षण की अवस्थाएं➖
1) पूर्व तत्परता की अवस्था
2) अंत: प्रक्रिया की अवस्था
3) तत्परता के बाद की अवस्था

▪️1) पूर्व तत्परता की अवस्था➖ शिक्षण कार्य करने से पहले शिक्षक को उस कार्य की तैयारी करनी होती है या शिक्षण कार्य के पूर्व से ही तत्परता का आना।इसके लिए –
1 सबसे पहले उद्देश्य का निर्धारण किया जाता हैं।
2 पाठ्यक्रम के संबंध में निर्णय लेना।
3शिक्षण कार्य के लिए क्रमबद्ध व्यवस्था करना।
4 शिक्षण विधि का चुनाव करना।

▪️2) अंत: क्रिया की व्यवस्था➖ वह क्रिया जो शिक्षक व छात्र के बीच आपस में चलती रहती है।
*अंत: क्रिया द्वारा शिक्षक बच्चे की शिक्षा से संबंधित जो भी समस्या है उनको जानकर या निदान करके उन्हें दूर कर पाता है।

  • अंत: क्रिया के माध्यम से शिक्षक कक्षा का आकार या संतुलन बनाकर रख सकता है ।

▪️3) तत्परता के बाद की अवस्था➖ (मूल्यांकन) यह मौखिक व लिखित रूप से कराई जाता है।
शिक्षण प्रक्रिया के पूरा हो जाने के बाद छात्र की intectuality को पता करने फिर उसमें सुधार करने की प्रक्रिया ही तत्परता के बाद की अवस्था कहलाती है।इसके द्वारा शिक्षक यह जान पाता है कि बच्चे ने कितना सीखा या क्या नहीं सीख पाया उन सब के बारे के मूल्यांकन करते है। ✍🏻 वैशाली मिश्रा


🌸शिक्षण के चर ( Teaching variable) :- ऐसी चीजें या ऐसी तत्व जो शिक्षण की प्रक्रिया को पूर्ण करने में सहायक प्रदान करते है, शिक्षण के चर कहते है। इसको तीन वर्ग में बांटा गया है – 1.स्वतन्त्र चर ( Independent variable ) :- हर शिक्षक अपनी शिक्षण व्यवस्था, नियोजन (planing), परिचालन खुद से करते है, क्योंकि बच्चे को कैसे पढ़ाना है उसकी सारी व्यवस्था शिक्षक ही करते है।। 2. आश्रित चर ( Depend variable ) :- छात्र , शिक्षक के बताए गए मार्ग पर क्रियाशील होते है ,जब हमें शिक्षक guide करते है तभी हम छात्र किसी कार्य को समझते है या कर पाते है , इसलिए छात्र शिक्षक पे आश्रित होते है।। 3. हस्तक्षेप चर ( Interference veriable ) :- हस्तक्षेप चर,में पाठ्यविधि, सिलेबस के हिसाब से अधिगम कराना होता है। अगर शिक्षक और छात्र के बीच पाठ्यक्रम विधि या सिलेबस नही होगा तो शिक्षक छात्र को कुछ भी पढ़ा देगे।इसलिए हस्तक्षेप ( सिलेबस ,पाठ्यक्रम) का होना आवश्यक है।। 🌸शिक्षण की अवस्थाये :- 1. पूर्व- ततपरता अवस्था (pre-active stage ) :- शिक्षक कोई भी विषय को पढ़ाने के पहले उसकी तैयारी करनी पड़ती है इसके लिए – उद्देश्य निर्धारित – पाठ्यक्रम के संबंध में निर्णय लेते है।। – पढ़ाने के लिए क्रमबद्ध व्यवस्था करते है।। – शिक्षण विधि का चुनाव करते है।। 2. अन्तः प्रक्रिया अवस्था ( Interactive phase stage ) :- वह प्रक्रिया जो छात्र और शिक्षक के बीच होती है। – इसमें शिक्षक क्रिया करते है और छात्र प्रतिक्रिया करते है। – छात्र को जो भी समस्या आती है शिक्षक उसका निदान करते है। – शिक्षक को कक्षा में आकार ( अनुशासन ) बना के रखना होता है।। 3. ततपरता के बाद की अवस्था ( Post action stage ) :- कक्षा करने के बाद छात्र का out put reaction कैसा होता है या छात्र कितना कुछ समझ पाया उसका लिखित या मौखिक मूल्यांकन करना।। 🌸📝पूजा कुमारी ✒️


🌹🌹🌹𝙏𝙚𝙖𝙘𝙝𝙞𝙣𝙜 𝙑𝙖𝙧𝙞𝙖𝙗𝙡𝙚𝙨 शिक्षण के चर 🌹🌹🌹:- ऐसी चीजें जो शिक्षण को चलाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाहन करते हैं या शिक्षण की प्रक्रिया को पूर्ण करने में सहयोग प्रदान करते हैं अर्थात जो परिणाम तक पहुँचने में सहायता करते हैं…ये तीन प्रकार के होते हैं 🌼(1) स्वतंत्र चर :- इस प्रकार के चर में शिक्षक आते हैं because शिक्षक शिक्षण व्यवस्था का नियोजन और परिचालन करने में सहायक होता है क्योंकि शिक्षण अपने अनुसार निर्माण करते हैं शिक्षा का परिचालन शिक्षक पर निर्भर करता है 🌼💐 ( 2 ) आश्रित चर :- इस प्रकार के चर के अन्तर्गत छात्र आते है क्योंकि छात्र नियोजन व्यवस्था और परिचालन पर निर्भर होतें है जो कि शिक्षक पर निर्भर करता है कि शिक्षण व्यवस्था का नियोजन कैसे करना है क्योंकि ज्ञान शिक्षक से छात्र पर स्थान्तरण होता है न कि छात्र से शिक्षक पर.💐…🌻 (3) हस्तक्षेप चर :- ऐसा चर जो हस्तक्षेप उत्पन्न करता है जिसके अंतर्गत पाठ्यक्रम ,शिक्षण विधि, विषय वस्तु, एवं शिक्षण का स्वरूप है🌻… शिक्षण की अवस्थाएँ :🌺 (1) पूर्व तत्परता की अवस्था (pree active stage) :- किसी कार्य को करने से पहले उसके उद्देश्य को निर्धारित करना अर्थात (a) शिक्षण का उद्देश्य निर्धारित करना.. (b) पाठ्यक्रम के सबंध में निर्णय लेना.. (c) क्रमबद्ध व्यवस्था 🌺 … (c) शिक्षण विधि को चुनना…🌺 (2) अन्त: क्रिया अवस्था :- जिस समय में हम Inrection करते हैं जिससे शिक्षक और छात्र के बीच समन्वय स्थापित किया जा सकता है (१) क्रिया या प्रतिक्रिया.. (२) छात्रों की समस्या का निदान… (३) कक्षा का आकार..🌺 … 🌸(3) तत्परता के बाद की अवस्था :- यह हमारे परिणाम अर्थात पर निर्भर करता है जिसको मौखिक या लिखित प्रश्नों का संग्रह माना जा सकता है.. 🌸🌹🌹

रश्मि सावले 🌹🌹


🌈शिक्षण के चर==×

“”चर वह होते है जो शिक्षण की प्रक्रिया को पूर्ण करने में सहयोग करते हैं।।””
चर शिक्षण की प्रक्रिया को चलाने के लिए फंक्शन पर डिपेंड होते है।।
शिक्षण के चर , शिक्षण की मैथड नहीं होती हैं अर्थात् दोनों टर्म अलग अलग हैं।।
यह तीन प्रकार के होते है=✓
1️⃣ स्वतंत्र चर —<
शिक्षण व्यवस्था के नियोजन या परिचालन की प्रक्रिया एक शिक्षक द्वारा ही किया जाता है।
शिक्षण में शिक्षक को स्वतंत्र चर कहा गया है।
हर शिक्षक अपनी-२ प्लांनिंग से व्यवस्था , परिचालन के अनुरूप शिक्षण करते है।
जैसे — एक चित्रकार अपने अकॉर्डिंग ही चित्रकारी करता हैं।
2️⃣ आश्रित चर–<
इसमें छात्र, शिक्षक पर आश्रित रहता हैं।
एक अच्छे शिक्षण के नियोजन, व्यवस्था, परिचालन। के लिए छात्र, शिक्षक पर ही आश्रित रहता है।
छात्र, शिक्षक के माध्यम से क्रियाशील रहते हैं।
जैसे– शिक्षक के गाइड करने पर ही छात्र उस विषय या ज्ञान को एक्सिक्यूट करेगा।
3️⃣ हस्तक्षेप चर–<
यह चर वह है जो सारी मध्यस्थता की भूमिका निभाता है।
शिक्षक और छात्र के बीच की कड़ी है।
इस प्रक्रिया में पाठ्यक्रम ऑर शिक्षण विधियां कार्य करती हैं।
बच्चे को क्या सिखाना है और कैसे सिखाना है इसके अन्तर्गत आता है।
✍️ वैसे तो सभी चर महत्वपूर्ण हैं और प्रत्येक की अपनी अपनी उपयोगिता है।
तीनों एकदूसरे से बंधे है सभी की उपस्थिति आवश्यक हैं।
शिक्षक को प्राथमिक माना गया हैं।

🌈शिक्षण की अवस्थाएं==
1️⃣पूर्व तत्परता अवस्था–<
शिक्षण कार्य करने से पहले शिक्षक को कार्य की योजना बनानी होती है जो इस प्रकार है–
१: उद्देश्य निर्धारित करना।
२: पाठ्यक्रम के संबंध में निर्णय लेना ३: क्रमबद्ध व्यवस्था करना।
४: विधि का चयन करना।

2️⃣ अतः प्रक्रिया अवस्था–<
शिक्षण कार्य को करते समय शिक्षक और छात्र के बीच की क्रिया , अतः प्रक्रिया कहलाती हैं।
∆ इसमें शिक्षक , छात्र की समस्या को समझकर उसका निदान करता हैं।
∆ इसके माध्यम से शिक्षक कक्षा का संतुलन बना कर रखता हैं।

3️⃣ तत्परता के बाद की अवस्था–<
इसमें मूल्यांकन किया जाता है , जो मौखिक या लिखित रूप में हो सकता है।
यह शिक्षक द्वारा या स्वयं छात्र द्वारा भी किया जाता है।
शिक्षण प्रक्रिया के पूर्ण होने के बाद छात्र ने कितना ग्रहण किया उसका मूल्यांकन करना ही तत्परता के बाद की अवस्था है।।।।
🙏अनामिका राठौर 🙏


🌼शिक्षण के चर 🌼
गणितीय दृष्टिकोण से चर वह होता हैं जिसका मान निश्चित नहीं रहता है अर्थात् बदलता रहता है। चर हमे अपनी मंजिल (उत्तर) तक पहुँचने मे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता हैं

शिक्षण के चर मतलब शिक्षण विधि से नहीं है

शिक्षण के चर – ऐसी चीजे, तत्व जो शिक्षण प्रक्रिया को पूर्ण करने में सहयोग प्रदान करता है, शिक्षण चर कहलाते है।

शिक्षण चर के प्रकार –3

1) स्वतंत्र चर – शिक्षण का स्वतंत्र चर शिक्षक होता है।
शिक्षण व्यवस्था, नियोजन और परिचालन शिक्षक स्वयं स्वतंत्रता पूर्वक अपने अनुसार करता है।
शिक्षक की क्वालिटि (गुणवत्ता) निर्धारित करती है कि शिक्षण का परिचालन कैसा होगा।

2) आश्रित चर – शिक्षण का आश्रित चर छात्र होता है।
छात्र शिक्षक के अनुसार क्रियाशील रहते है। शिक्षक शिक्षण व्यवस्था का परिचालन छात्र को ध्यान मे रखते हुए करता है।

3)हस्तक्षेप चर – यह शिक्षक और छात्र के मध्य एक पुल (सेतु ) की तरह कार्य करता है।
यह बताता की शिक्षक छात्र को क्या पढाना है
इसमे पाठ्यक्रम, पाठ्यचर्या, शिक्षण विधि आदि शामिल हैं।

उपरोक्त तीनो मे से सबका अपना अपना महत्व है किसी को भी कम नहीं आका जा सकता है ।

शिक्षण की अवस्था –3

1) पूर्व तत्परता की अवस्था – यह शिक्षण करने के पहली की अवस्था है ।इसमें शिक्षक शिक्षण करने पहले अपनी तैयारी निम्म बातो का ध्यान रखते हुए करता है।
शिक्षण के उद्देश्य क्या है
पाठ्यक्रम के संबंध मे निर्णय
क्रमबद्ध व्यवस्था
विधि को चुनना

2) अंत प्रक्रिया अवस्था
इसमे शिक्षक और छात्र के मध्य क्रिया और प्रतिक्रिया होती है।
शिक्षण छात्रो की कमियो पहचानता है उन्हें दूर करने का प्रयास करता है।
कक्षा के वातावरण को ठीक ढंग से बनाये रखता है

3) तत्परता के बाद की अवस्था
इसमे शिक्षक शिक्षण कार्य के पश्चात् यह पता लगाता है की छात्र ने कितना सिखा
इसके लिए वह मूल्यांकन करता है
मौखिक और लिखित रूप से छात्रो से प्रश्न पूछता है।

रवि कुशवाह


🌸” शिक्षण के चर “🌸
👉ऐसी चीजे, ऐसे तत्व जो शिक्षण को चलाने में भूमिका निभाते है और शिक्षण की प्रक्रिया को पूर्ण करने में सहयोग प्रदान करता है
✒️चर तीन प्रकार के होते है।
🌸1- स्वतंत्र चर- इस चर में शिक्षक आते है। शिक्षक के द्वारा नियोजन, व्यवस्था को परिचालन करने का निर्णय स्वयं लेता है।
🌸2- आश्रित चर- इस चर मे छात्र अपने शिक्षक पर निर्भर रहता है छात्र अपने शिक्षक के अनुसार ही कार्य करता है।
🌸3-हस्तक्षेप चर- यह चर शिक्षक और छात्र क बीच की कडी है। इसमे छात्रो के कैसे ,क्या पढ़ाना है इसी में आता है।
🌸👉 शिक्षण की अवस्था🌸
1️⃣ पूर्व तत्परता का सिद्धांत – किसी भी कार्य को करने के लिए शिक्षक उद्देश्य निर्धारित करता है फिर पाठ्यक्रम के संबन्धमें निर्णय लेता है,क्रमबद्ध व्यवस्था तथा विधि का चयन करता है।
2️⃣ अतः प्रक्रिया अवस्था- शिक्षण करते समय शिक्षक और छात्रमें क्रिया प्रतिक्रिया होती है शिक्षक को बच्चे की समस्या का निदान करना जिसके माध्यम से कक्षा कक्ष को सन्तुलन बनाये रखे
3️⃣ तत्परता के बाद की अवस्था- इसमे शिक्षक छात्र का मूल्यांकन करता है जिससे शिक्षक को छात्र के बारे मे पता चलता है कि छात्रक कितना ग्रहण किया है या कितना सीखा है।।
🌸शशी चौधरी🌸

Planning Method of Teaching

🔅योजना विधि- किसी काम को करने से पहले हम अपनी capacity,knowledge & time के according एक प्लान को निश्चित करते है। जैसे- हम अपनी पढ़ाई को पूरी करने के लिए unacedemy का subscription लिए अब किस समय मे किस educator से कैसे पढेंगे फिर कब मुझे self study करनी है ये सब का एक शेड्यूल बनेगे फिर उसके according पढ़ाई करेगे । 🔅इस योजना विधि में किलपेट्रिक के अनुसार- शिक्षा सप्रयोजन होनी चाहिए (लक्ष्य निर्धारण) इसमे अनुभव (experience) होना जरूरी है ।जैसे- हम उस काम को सही तरीके से कर सकते है जिसमे हमारा अनुभव पहले से है। अगर हमारे पास पढ़ाने का अनुभव है तभी हम बच्चे को सही तरीके से पढ़ा सकते है या बालक को कैसे पढाये जिससे जल्दी समझ सके इसमे हमारा अनुभव help करता है। 🌸योजना विधि के गुण – योजना बनाने से हमारे अंदर अमूर्त्त सोच / तर्कशक्ति का विकास होता है। इससे हमारा काम सिस्टमेटिक तरीके से easy हो जाता है जिससे हमे संतुष्टि मिलती है। इसमें निरीक्षण करने की क्षमता बढ़ती है। योजना बनाने से समय की सदुपयोग होता है जिससे हमारे दिमाग पर बोझ नही लगता है। इसमें सहज रूप से किसी भी परिस्तिथियों को संभालने की क्षमता बढ़ती है।और निर्णय लेने की क्षमता बढ़ती है। इसमें हमारा आत्मविश्वास भी बढ़ता है। इसमे क्रियात्मक और सृजनात्मक क्षमता का गुण बढ़ता है। 🌸योजना विधि के सिद्धांत🌸- समस्या (टास्क) का उत्पन्न होना, कार्य को चुनना,योजना करना, योजना को क्रियान्वयन करना, कार्य का निर्णय और कार्य का निष्कर्ष (लेखा-जोखा) करना। 👉🏻बैकन के अनुसार:- गणित सभी विज्ञान का प्रवेश द्वार एवं कुंजी है। 👉🏻हॉगबैन के द्वारा :- गणित संस्कृति का दर्पण है। 👉🏻 बर्नार्ड शो के द्वारा :- तार्किक चिंतन के लिए गणित एक शाक्तिशाली साधन है। 👉🏻 आईंस्टीन के द्वारा :- गणित उस मानव का प्रतिफल है,जो अनुभव से स्वतंत्र है और सत्य के अनुरूप है। 👉🏻पियर्स के द्वारा :- गणित एक विज्ञान ही है,जिसकी सहायता से आवश्यक निष्कर्ष निकले जाते है। 🌸योजना विधि के दोष :- हर विषय मे योजना करके पढ़ाई नही हो सकती है। अगर planing करके काम नही कर पाते है तो replaning करके उस काम को कर सकते है। 🌸 पूजा कुमारी🌸


🔆योजना विधि🔆
▪️इस विधि को किलपेट्रिक द्वारा दिया गया ।
▪️कार्य को सही तरीके से आसान बनाने के लिए हम योजना बनाते है।
किसी भी कार्य को करने से पहले हम उसकी एक planning अपनी capacitiy,time और knowledge के हिसाब से करते हैं।
▪️जब भी हम अपने कार्य को सफल तरीके से करना चाहते है तो उसके लिए हमे अपने अनुभव के आधार पर अपना मकसद पूरा कर सकते हैं।
▪️ हमारा मकसद या हमारी शिक्षा का संप्रयोजन होना चाहिए और उस उद्देश्य को पूरा करने के लिए हमारे पास एक योजना होना बहुत ज़रूरी है।
यदि हम बिना योजना के आधार पर किसी कार्य को करते हैं तो हम अपने कार्य को कभी भी सफल तरीके से पूरा नहीं कर पाएंगे।
▪️शिक्षण के कार्य में शिक्षक को अपने अनुभव के आधार पर एवम् समय क्षमता और ज्ञान के हिसाब से एक योजना बनानी चाहिए जिससे शिक्षण कार्य को सही तरीके से और सफल तरीके से पूरा कर सकते है।
▪️हम अपनी प्रायकिता के आधार पर अपनी capacity,time और knowledge को manage कर अपने कार्य को सफल बना सकते है।
( यदि हम अपने मकसद को या उद्घेश्य को पूरा करना चाहते है तो हम अपना वर्तमान कार्य को बेहतरीन तरीके से करने में सफल होंगे।)

🔅योजना विधि के गुण➖
1 तर्क शक्ति का विकास होता है।
2 अमूर्त चिंतन का विकास कर पाते है।
3 निरीक्षण क्षमता का विकास होता हैं।
4 अनुभव द्वारा सीखने को बढावा मिलता है।
5 सहज रूप से हमारे अंदर परिस्थिति को संभालने की क्षमता बढ़ती है।
6 निर्णय लेने की क्षमता का विकास हो जाता है ।
इन सभी गुणों को एक सार रूप में कह सकते है कि योजना विधि द्वारा क्रियात्मक और सृजनात्मकता का विकास होता है।
🔅योजना बनाने के चरण➖
1 समस्या उत्पन्न करना ( स्थिति या task)
2 समस्या या चुनना ( कार्य का चयन)
3 योजना बनाना
4 योजना क्रियान्वयन (निष्पादन)
5 कार्य का निर्णय (मूल्यांकन)
6 कार्य का लेखा जोखा ( Reporting और recording)

🔅 विभिन्न कथन➖
▪️बेकन➖ गणित सभी विज्ञान का प्रवेश द्वार की कुंजी है।
▪️ बर्नाड शॉ➖ तार्किक चिंतन के लिए गणित एक शक्तिशाली साधन है।
▪️होगबेन➖ गणित संस्कृति का दर्पण है।
▪️ आइंस्टीन➖गणित उस मानव चिंतन का प्रतिफल है ,जो अनुभव से स्वतंत्र है और सत्य के अनुरूप है।
▪️ रॉबर्ट पियर्स➖गणित एक विज्ञान ही है जिसकी सहायता से आवश्यक निष्कर्ष निकाले जाते हैं।

🔅योजना विधि के दोष➖ हर विषय या हर कार्य को इस विधि द्वारा कर पाना संभव नहीं है क्योंकि हमें उसके लिए उस कार्य में या विषय में अनुभव होना काफी जरूरी है।
▪️सभी कार्य की planning नहीं कर पाते है क्योंकि किसी कार्य को करने में ज्यादा समय लगता है किसी कार्य में कम।

उपर्युक्त विधि से यह निष्कर्ष निकलता है कि योजना विधि बहुत ही अच्छी विधि है जिसका आप अपनी कार्य की प्राथमिकता के आधार पर अपनी क्षमता,ज्ञान समय के हिसाब से एक योजना बनाकर अपने कार्य को सफल रूप से कर पाएंगे ओर कार्य के सफल होने पर निश्चित ही हमारा उद्देश्य पूरा हो जाता है। ✍🏻वैशाली मिश्रा


🌈 योजना विधि
इस विधि का प्रयोग किसी काम को करने के लिए किया जाता है| कि काम को किस तरह से करना चाहिए जिससे किसी प्रकार की कठिनाई न आये और काम को अच्छी तरह कर दिया जाए|
🌟योजना विधि के लाभ|
👉 योजना विधि मे तर्क शक्ति का विकास होता है|
👉 इस विधि मे अमूर्त चिंतन शक्ति का विकास होता है|
👉 सहज रूप से परिस्थिति को समझ लेते है|
👉 निरिक्षण क्षमता का विकास होता है |
👉 क्रियात्मक विकास होता है|
👉सृजनात्मक विकास होता है|
🌈योजना विधि के सिध्दांत
⭐समस्या उत्पन्न होना|
⭐कार्य का चुनाव करना|
⭐योजना बनाना|
⭐योजना क्रियान्वयन करना|
⭐कार्य निर्णय करना| ⭐कार्य का लेखा- जोखा करना |
🌈 योजना विधि के दोष
👉कुशल शिक्षक की आवश्यकता होती है|
👉कभी समय का अधिक उपयोग होता है👉 कई चीजों मे इस विधि का उपयोग नही कर सकते है|

💥रोजन बेकन- गणित सभी विज्ञान का द्वार एवं कुश्ती है|
💥 हाॅगवेन- गणित सभ्यता व संस्कृति का दर्पण है|


🌼योजना विधि 🌼
हम किसी भी कार्य को करने से पहले उसके बारे मे सोचते हैं क्या कार्य, कैसे होगा कितना समय लगेगा, कार्य अपनी क्षमता के अनुसार है या नहीं फिर हम उसको करने के लिए चरणबद्ध तरीका अपनाते के हैं वही हमारी योजना है।

👉योजना विधि के प्रवर्तक किलपेट्रीक थे

शिक्षा मे योजना सप्रयोजन (कारण ) के होनी चाहिए। जैसे हम सीटेट को पास कराने के लिए अनअकेडमी पर पढ रहे हैं।

योजना अनुभव के आधार पर होनी चाहिए

योजना विधि के गुण –

इससे बालक मे तर्क शक्ति का विकास होता है।
अमूर्त चिंतन का विकास होता है क्योंकि इसमे पहले योजना बनाते है फिर उसका क्रियान्वयन करते हैं
निरीक्षण क्षमता बढती है क्योंकि बालक स्वयं अपने कार्य का अवलोकन करता है
अनुभव द्वारा सीखने को बढावा मिलता है
सहज रूप से परिस्थिति को संभालने की क्षमता बढती है
निर्णय लेने की क्षमता बढती हैं।
क्रियात्मक और सृजनात्मक विकास होता है।

योजना विधि के सिध्दांत –

1) समस्या उत्पन्न होना
2) कार्य को चुनना अर्थात् दिए गए कार्य मे उपयुक्त कार्य का चुनाव करना
3)योजना बनाना -चुने हुए कार्य को पूर्ण करने के लिए योजना बनाना
4) योजना का क्रियान्वयन – बनी हुयी योजना के अनुसार कार्य को करना
5) कार्य का निर्णय -कार्य पूर्ण होने के पश्चात निष्कर्ष निकालना की कार्य सही हुआ या गलत
6) कार्य का लेखा जोखा -कार्य सही होने पर उसकी भविष्य मे पडने वाली आवश्यकता को देखते उसको लिखना। यदि कार्य गलत हुआ है तो उसकी कमियो को लिखना ताकि भविष्य मे गलती दोहरायी न जाए

बेकन के अनुसार गणित सभी विज्ञानो का प्रवेश द्वार एवं कुंजी है
हाॅगबेन के अनुसार गणित संस्कृति का दर्पण हैं।

बनार्ड शो के अनुसार तार्किक चिंतन के लिए गणित एक शक्तिशाली साधन हैं।

आइसंटाइन के अनुसार गणित उस मानव चिंतन का प्रतिफल है जो अनुभव से स्वतंत्र हैं और सत्य के अनुरूप है

पियर्स के अनुसार गणित एक विज्ञान है जिसकी सहायता से आवश्यक निष्कर्ष निकाले जाते हैं।

दोष –
हर विषय के लिए योजना नहीं बना सकते हैं
कुशल अध्यापक की आवश्यकता होती है

रवि कुशवाहा


✳️योजना विधि✳️

🌸 यह विधि किलपैट्रिक द्वारा दी गई है ।🌸

🔅इस विधि से हम किसी भी कार्य को सही तरीके से पूर्ण कर सकते हैं।
🔸 कार्य को संपादित करने से पहले हम एक खाका या योजना बनाते हैं ।
🔸इस योजना में हम क्षमता के अनुसार अपने ज्ञान का उचित प्रयोग करते हुए समय के अंदर कार्य को कैसे संपन्न करें इस पर चिंतन करते हैं।

🔸 शिक्षक इस विधि का प्रयोग कर पाठ को कक्षा में पढ़ाने से पहले एक योजना का निर्माण करता है जिससे वह अपने अनुभवों का प्रयोग कर शिक्षण कार्य को पूर्ण करता है और छात्रों की समस्या को हल करता है।

🔶 योजना विधि के सिद्धांत
1.समस्या उत्पन्न होना

  1. कार्य चुनना
    3.योजना बनाना
    4.योजना क्रियान्वयन
    5.कार्य का निर्णय
    6.कार्य का लेखा-जोखा

🔶योजना विधि के गुण 1.तर्कशक्ति
2.अमूर्त चिंतन
3.निरीक्षण क्षमता
4.अनुभव द्वारा सीखना
5.सहज रूप से परिस्थिति को 6.निर्णय लेने की क्षमता

  1. क्रियात्मक सृजनात्मक

🔶योजना विधि के दोष

1.इस विधि से सभी कार्य को कर पाना संभव नहीं है कुछ कार्यों को करने का समय निर्धारित नहीं हो सकता क्योंकि कुछ कार्य को करने में कम तथा कुछ को ज्यादा समय लगता है
2.कई कार्यो में अनुभव की कमी हो जाती है

  1. इस विधि में कुशल शिक्षकों की आवश्यकता होती है।

🌸 बेकन – गणित सभी विज्ञानों का प्रवेश द्वार एवं कुंजी है ।
🌸 हागबेग- गणित संस्कृति का दर्पण है ।
🌸 बर्नार्ड- तार्किक चिंतन के लिए गणित एक शक्तिशाली साधन है।
🌸 पीयर्स – एक विज्ञान है जिससे सहायता से आवश्यक निष्कर्ष निकाले जाते हैं।
🌸 आइंस्टीन- गणित उस मानव चिंतन का प्रतिफल है जो अनुभव से स्वतंत्र है और सत्य के अनुरूप है।।

धन्यवाद
वंदना शुक्ला


Teaching Learning Method

🔆शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया🔆

▪️हम शिक्षण को ज्ञान और कौशल के संप्रेषण के रूप में देखते हैं।

🔅ज्ञान और कुशलता –
यदि हम अपने सीखे हुए ज्ञान को एक real implementation या उसमे वास्तविक बदलाव कर लेते है तो वहीं कुशलता कहलाती है।
▪️यदि बच्चे से practically कोई काम करवाकर सिखाया जाए फिर उस काम का या उस ज्ञान का implementation किया जाएगा तभी ज्ञान से कुशलता तक जाने की अधिगम प्रक्रिया पूर्ण होगी।
▪️इस प्रक्रिया में सिखाने वाला – सीखने वाले को प्रभावित करता है।, सीखने वाला इसलिए प्रभावित होता है है क्योंकि सीखने के प्रति रुचि, अभिप्रेना की भावना जागृत होती है , और वह उस समय सिखाने वाले (शिक्षक) के व्यक्तित्व, भाव,विचार या उसकी सोच ।सीखने वाले (छात्रों) को ज्यादा प्रभावित कर जाते है।
यदि शिक्षक और छात्र एक दूसरे से प्रभावित या जुड़े नहीं होंगे तो अधिगम कार्य कभी सही नहीं हो पाएगा।
▪️शिक्षण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमे सिखाने वाला (शिक्षक) सीखने वाले(छात्र) के लिए विभिन्न परिस्थिती या माहौल या वातावरण में विभिन्न साधनों और विधियों का प्रयोग कर या निर्माण कर अपने शिक्षण कार्य का सही उद्देश्य प्राप्त कर पाते है।
*शैक्षिक या ज्ञान का वातावरण शिक्षक व छात्र दोनों के द्वारा ही विकसित किया जाना चाहिए।
▪️शिक्षण का तब तक कोई मतलब नहीं है जब तक सीखने वाला नहीं सीख जाता और उसके व्यवहार में वांछित परिवर्तन नहीं हो जाता।
यदि हम बच्चो को सीखना चाहते है तो उसे शिक्षा से जुड़ा हुआ माहौल या वातावरण दे और छात्रों द्वारा भी वह माहौल वातावरण बना रहना चाहिए ,तभी हम बेहतर और पूर्ण रूप से सीखा पाएंगे।

🔅 शिक्षण एक सामाजिक प्रक्रिया है
इसमें हम शिक्षण को सभी के योगदान से , सक्रिय होकर सामाजिक रूप से आगे बढाते है।

” शिक्षण को कई आधारो में बांटा गया है”
🔅उद्देश्य की दृष्टि के आधार पर➖

(1) ज्ञानात्मक – यह हमारी बौद्धिक ज्ञान,समझ ,सोच विचार को अपने जीवन में जोड़ने का एक आधार है।

(2) क्रियात्मक – यह हमारे ज्ञान को शारीरिक और मानसिक रूप से अपने कार्यों में प्रयोग लाने का एक आधार है।

(3) भावनात्मक- जो भी ज्ञान का हम प्रयोग किए है या कार्य में लाए है वह ज्ञान भावनात्मक रूप से या पूरे मन से बच्चो के साथ जुड़ा हुआ होने का आधार है।

▪️यदि आपके पास ज्ञान है लेकिन उस ज्ञान का प्रयोग या उस पर कार्य नहीं क्या गया है तो उस ज्ञान का कोई मूल्य नहीं है।
और यदि आपके पास ज्ञान है और आप उस ज्ञान का प्रयोग भी किए लेकिन यह ज्ञान आपके भावनात्मक रूप से नहीं जुड़ा हुआ है तो हमारा उद्देश्य (ज्ञान को सीखना) कभी पूरा नहीं हो पाएगा।
यदि हम अपने गया पर कार्य करे और वह भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ होगा तब हमारा उद्देश्य निश्चित ही पूरा हो जाएगा।

🔅 स्तर के दृष्टि के आधार पर➖

(1) स्मृति स्तर – जो भी हम सीखना चाहते है वह पूर्ण रूप से स्मृति में रखा जाए।

(2) बोध स्तर- जो भी सीखा हुआ ज्ञान हमारी स्मृति में है उस ज्ञान की समझ भी होना काफी जरूरी है ।
हम अपने स्मृति के ज्ञान की समझ को किसी परिस्थिति में बेहतर रूप से समझ भी पाए।
(3) चिंतन – जो भी ज्ञान हमारी स्मृति में बैठ गया है, उसे समझते हुए उस पर चिंतन करके उस ज्ञान को और निखारा जा सकता है।

✍🏻 वैशाली मिश्रा


शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया=√
शिक्षण अधिगम एक व्यापक मानसिक संज्ञानात्मक प्रक्रिया है, इसमें निरंतरता का गुण पाया जाता है और विभिन्न चरणों से गुजर कर यह प्रक्रिया संपन्न होती है।।
🌈१) ज्ञान और कौशल से संप्रेषण==
जब व्यक्ति का वर्तमान व्यवहार , ज्ञान का भंडार तथा कुशलताएं उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं करती है , उसे नवीन ज्ञान का संचय करने और कौशल अर्जित करने की आवश्यकता होती है, अर्थात् एक शिक्षक द्वारा विधि, साधन और तौर तरीकों के माध्यम से सीखने की परिस्थिति का निर्माण करके छात्र की उसके प्रभाव से सहायता करना।।।
✍️एक अच्छे शिक्षण का तब तक कोई अर्थ नहीं है, जब तक –
1️⃣ जब तक कि छात्र ( सीखने वाला) , अच्छे से सीख न जाए ।
2️⃣जब तक कि छात्र के व्यवहार में वांछित परिवर्तन नहीं हो जाता हैं।।
🌈 शिक्षण एक सामाजिक प्रक्रिया है==

शिक्षक द्वारा दिए गए ज्ञान का उद्देश्य छात्र को सामाजिक रूप से जोड़ कर शिक्षण प्राप्त कराना है , शिक्षक का उद्देश्य ज्ञान के साथ में छात्र में सामाजिकता का भी विकास करना होना चाहिए। ।
✍️सामाजिक उद्देश्य प्राप्त करने के निम्न चरण है=
1️⃣ ज्ञानात्मक —
ज्ञानात्मक अधिगम का उद्देश्य अधिगमकर्ता ( छात्र) के संज्ञानात्मक व्यवहार में परिवर्तन लाना है, इस व्यवहार में ज्ञानेन्द्रियो तथा मस्तिष्क की भूमिका मुख्य रहती है, विभिन्न प्रकार की बौद्घिक और मानसिक क्रियाएं जैसे – सोचना , कल्पना करना, तर्क करना , स्मरण करना , वर्णन ओर व्याख्या करना तथा सामान्यीकरण करना आदि अधिगम आते हैं।।
2️⃣ क्रियात्मक —
क्रियात्मक अधिगम का उद्देश्य अधिगमकर्ता ( छात्र) के क्रियात्मक या मनोशारीरिक व्यवहार में परिवर्तन लाना है । विभिन्न प्रकार की क्रियाएं जैसे – चलना , दौड़ना, कूदना , नाचना, खाना पीना , गाना आदि अधिगम आते हैं।।
3️⃣ भावात्मक —
भावात्मक अधिगम का उद्देश्य छात्र के भावात्मक व्यवहार में परिवर्तन लाना है। इसमें शिक्षक ओर छात्र की भावनाएं एक – दूसरे से जुड़ी होती हैं, अगर व्यक्ति का भाव अच्छा नहीं होगा तो आत्मिक संतुष्टि नहीं आएगी। विभिन्न प्रकार की क्रियाएं जैसे- दुखी या सुखी होना , डरना , प्रेम , घृणा आदि आते है।।
✍️ सिर्फ ज्ञान जरूरी नहीं है उसके साथ में क्रिया और भाव भी होना चाहिए।✍️

🌈 स्तर के दृष्टिकोण से==
स्तर के तीन चरण होते है-
1️⃣ स्मृति स्तर —
स्मृति का स्तर ” हरबर्ट ” ने दिया था। स्मृति का उपयोग शिक्षक द्वारा दिए गए ज्ञान को स्मृति में स्थापित करना या उसको स्मृति में बनाए रखना। अर्थात् जो भी हमारे द्वारा सीखा जाता है उसे स्मृति में बनाए रखना।।
2️⃣ बौध स्तर–
बोध का स्तर ” मॉरिसन ” के द्वारा दिया गया था। बोध – समझ का होना । अर्थात् हमारे द्वारा स्मृति के ज्ञान को समझना या उसका बोध होना ।
3️⃣ चिंतन स्तर–
चिंतन का स्तर ” हंट ” के द्वारा दिया गया था। चिंतन- तर्क करना। अर्थात् तार्किक रूप से स्मृति का चिंतन करना ।
“स्मृति के ज्ञान को बोधात्मक रूप से समझकर तार्किक रूप से चिंतन करना ।”

✍️ ANAMIKA RATHORE


✍️शिक्षण अधिगम प्रक्रिया✍️

शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के दो महत्वपूर्ण निष्कर्ष है, जो सीखने वाले मे उक्त प्रक्रिया द्वारा दिखायी देते है!
1)ज्ञान(किसी भी क्रिया को करने का तरीका और क्रिया के चरणों का हमारे मष्तिष्क मे स्थान होना या हमारी स्मृति मे समझ के अनुसार उसका स्थायित्व होना!)

2)कौशल ( किसी भी क्रिया या कार्य के प्राप्त ज्ञान का उपयोग करने की योग्यता को कौशल कहते है)

✍️ ज्ञान एवं कौशल का संबंध परस्पर एक दूसरे से होता है! ज्ञान से ही हम कौशल करने के योग्य बनते है और कौशल से ही ज्ञान का स्थायित्व और उसके प्रभाव का हमे पता चलता है!
का
✍️शिक्षण अधिगम प्रक्रिया मे शिखाने वाले को चाहिए कि वो एक प्रभावशाली वातावरण का निर्माण करके ज्ञान का संप्रेषण शिक्षार्थियों के समक्ष करे, और शिक्षार्थियों को भी ये चाहिए कि वे निर्मित वातावरण मे समायोजन करके ज्ञानार्जन करे!

✍️शिक्षण अधिगम प्रक्रिया का कोई महत्त्व नहीं है जब तक कि अधिगम कर्ता शिक्षा को पूर्ण रूप से ग्रहण नहीं करलेता है, अर्थात उसके व्यवहार मे अधिगम पश्चात वांछनीय परिवर्तन देखने को नहीं मिलता है!

✍️अगर जिस अधिगम की योजना बनाकर शिक्षक अपने ज्ञान का संप्रेषण कर्ता है और अधिगम कर्ता मे और अधिगम कर्ता के व्यवहार मे वांछनीय परिवर्तन दिख जाता है तो वहां शिक्षण एक सार्थक क्रिया के रूप मे समझा जाता है!

✍️शिक्षण एक सामाजिक प्रक्रिया भी है जिसमे समाज के विभिन्न पहलुओं का योगदान होता है जिनकी सहायता से अधिगम सुगम रूप से संचालित होता है!✍️

शिक्षण प्रक्रिया को दो रूपों मे बांटा गया है!
1)शिक्षण के उद्देश्य
2)शिक्षण के स्तर

1)शिक्षण के उद्देश्य – इसका मतलब है कि हमे क्यो शिक्षण ग्रहण करना है ये विचार हमारे मष्तिष्क मे बिना किसी उलझन के स्थिर होनी चाहिए!

इसके भी 3 पक्ष है जो कि निम्‍न है
👉) ज्ञानात्मक पक्ष
👉) क्रियात्मक पक्ष
👉) भावात्मक पक्ष

👉) ज्ञानात्मक पक्ष के अंतर्गत हम ये समझ सकते है कि हम किसी वस्तु, क्रिया, या स्थान का स्मृति है उसकी मानसिक समझ है लेकिन हमने उस मानसिक समझ का कभी प्रयोग नहीं किया!

👉) क्रियात्मक पक्ष के अंतर्गत जो ज्ञान हम अर्जित करते है उसका प्रयोग मे लाना उसकी मदद से अपने कार्यों और जीवन संबंधी समस्याओं का समाधान करना!

👉) भावनात्मक पक्ष के अंतर्गत वो क्रियाएं आती है जिनमे हम अपने ज्ञान एवं क्रिया को एक समर्पण भाव से करते है!

2) शिक्षण के स्तर – शिक्षण के स्तर का निर्माण ज्ञान के अधिगम की विभिन्न क्रियाओं द्वारा हुआ है!
जो कि निम्‍न प्रकार है
👉) स्मृति स्तर
👉) बोध स्तर
👉) चिंतन स्तर

👉स्मृति स्तर – इस स्तर मे मष्तिष्क द्वारा किसी मूर्त ज्ञान को अमूर्त स्थायित्व मे लाना, अर्थात किसी ग्यान को स्थिर रखना स्मृति है!

👉) बोध स्तर – इस स्तर मे प्राप्त ज्ञान का स्थायित्व समझ और भावनाओं के सहसम्बंध के साथ होना बोध स्तर को दर्शाता है!

👉) चिंतन स्तर – इस स्तर मे शिक्षार्थी के मन मष्तिष्क मे स्मृति, बोध के साथ किया गया चिंतन शिक्षार्थी को रचनात्मकता की और प्रेरित करता है और रचनात्मक कौशलो की व्रद्धी करता है!

👉यहा हम निष्कर्ष दे सकते है कि ज्ञान और कौशलों को संप्रेषित करने की क्रिया ही अधिगम कह लाती है! 👈

ASHWANY DUBEY


शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया
ज्ञान और कौशल के सम्प्रषण
बच्चों मे ज्ञान बस नही होना चाहिए उनमे कौशल का विकास होना चाहिए
सिखाने वाला हो जो सिखने वाले को प्रभावित
करे
तथा सिखाने वाला सिखाने के लिए अलग -अलग तरह की विधियों, साधनों, तथा तौर- तरीके का प्रयोग करके ऐसी परिस्थिति उत्पन्न करे जिससे बच्चा सीखे
☀ शिक्षण का तब तक कोई अर्थ नही है जब तक सीखने वाला सीख नही जाता तथा उसके व्यहार मे वांछित परिवर्तन नही हो जाए
☀शिक्षण के प्रकार
(1) उद्देश्य के आधार पर 👉ज्ञानात्मक उद्देश्य ज्ञानात्मक अधिगम का उद्देश्य बच्चों की सोचने
की शक्ति का विकास करना विभिन्न प्रकार की बौद्धिक और मानसिक क्रिया -तर्क करना, सोचना, आदि
👉क्रियात्मक उद्देश्य
किसी चीज को शारीरिक, मानसिक दोनों
रुप से कार्य मे लाना जैसे- चलना, कूदना, दौड़ना आदि अधिगम मे आते हैं
👉 भावात्मक उद्देश्य
भावात्मक अधिगम का उद्देश्य इसमें शिक्षक और
छात्र की भावना एक दूसरे से जुड़ी होनी चाहिए प्यार, सुख, दुख
आदि
🌟स्तर के दृष्टिकोण से
1 . स्मृति स्तर बच्चों को स्मति क्षमता के अनुसार उनको सीखना चाहिए ज्ञान को स्मृति मे स्थापित करना

  1. बौध स्तर –
    किसी के बारे मे ज्ञान बस नही होना समझ का होना अवश्यक है
  2. चिंतन स्तर-
    चिंतन – तर्क करना अर्थात् तार्किक रूप से स्मृति का चिंतन करना
  3. ✒Menka patel

✴️✴️ शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया ✴️✴️
◾ शिक्षण को हम ज्ञान और कौशल के सम्प्रेषण के रूप में देखते हैं
यदि हम अपने सीखें हुए ज्ञान का प्रयोग वास्तविक बदलाव के लिए करते हैं तो वहीं कौशल है
◾ यदि बच्चे को कोई भी कार्य उस से स्वंय करवाया जायेगा तो ज्ञान से कौशल तक जाने की अधिगम प्रक्रिया होती है
◾ इस प्रक्रिया में सिखाने वाला सिखने वाले को प्रभावित करता है। अर्थात सिखने के प्रति रूचि अभिप्रेरणा की भावना सिखने के लिए वातावरण आदि सिखाने वाला निर्माण करता है। वह उस समय शिक्षक के विचार भाव और उसकी सोच से प्रभावित होता है
यदि शिक्षक और छात्र एक दूसरे से प्रभावित या जुड़ नहीं पाते है तो अधिगम प्रक्रिया प्रभावशाली नहीं होगी।
◾ शिक्षण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें शिक्षक छात्रों के लिए विभिन्न प्रकार की परिस्थिती या वातावरण में विभिन्न प्रकार की अधिगम सामग्री या साधनों और विभिन्न विधियों का प्रयोग करके या निर्माण करके अपने शिक्षण को सही उद्देश्य तक पहुंचाने का कार्य करता है
◾ शैक्षिक या ज्ञान का वातावरण शिक्षक और छात्र दोनों के लिए विकसित किया जाना चाहिए।
◾ शिक्षण का तब तक कोई अर्थ नहीं होता है जब तक सिखने वाले ने कुछ सिखा नहीं है और अपने व्यवहार में वांछित परिवर्तन नहीं किया है।
यदि हम छात्रों को कुछ सिखाना चाहते हैं तो हमें उनके लिए ऐसा वातावरण निर्मित करना चाहिए जिस में वो सीख सकते हैं तभी वो बेहतर रुप से सीख सकते हैं
◾ शिक्षण एक सामाजिक प्रक्रिया है
इसमें हम शिक्षण को सभी के योगदान से सक्रिय होकर सामाजिक रूप से समूह में रह कर सिखाते हैं
✴️✴️ शिक्षण को कई आधारों में बांटा गया है ✴️✴️
◾ उद्देश्य के आधार पर ➖

  1. ज्ञानात्मक ➖ यह हमारी बौद्धिक ज्ञान,समझ, सोच, विचार को अपने जीवन में जोड़ने का एक आधार है।
    2.क्रियात्मक➖ यह हमारी शारीरिक मानसिक रूप से अपने कार्यो में प्रयोग में लाने का एक आधार है।
    3.भावात्माक➖ जो भी ज्ञान का हम प्रयोग करके कार्य में लाते हैं वह भावात्मक रूप से जुड़े होने का आधार है।
    यदि आपके पास ज्ञान है लेकिन उस ज्ञान का प्रयोग नहीं किया गया है तो उस ज्ञान का कोई मूल्य नहीं है
    और यदि आपके पास ज्ञान है और आप उस ज्ञान का प्रयोग भी करते हैं लेकिन यह ज्ञान आपके भावात्मक रूप से नहीं जुड़ा है तो हमारा उद्देश्य कभी पूरा नहीं हो सकता है।
    यदि हम अपने ज्ञान पर कार्य करें और वह भावात्मक रूप से जुड़ा हुआ होगा तब हमारा उद्देश्य निश्चित ही पूरा हो पाएगा।
    ✴️✴️ स्मृति के दृष्टिकोण से ✴️✴️
    1.स्मृति संयंत्र➖ जो भी हम सिखना चाहते हैं वह पूर्ण रूप से स्मृति में रहता है।
  2. बोध स्तर➖ जो ज्ञान हमने सीखा है उस ज्ञान की समझ होना काफी जरूरी है।
  3. चिन्तन स्तर➖ जो भी ज्ञान हमारी स्मृति में बैठ गया है उसे समझते हुए उस पर चिन्तन करके उस ज्ञान को और अधिक विश्लेषित करना होता है।
    📝📝 Gudiya Chaudhary 📝📝

Analysis and Synthesis Method Notes

🌸विश्लेषण और संश्लेषण विघि: ”किसी चीज के बारे मे गहराई से जानना ” किसी बात के अलग अलग पहलू पर चर्चा करना ही विश्लेषण कहलाता है ।ये सारे छोटे छोटे भाग किसी एक को परिपूर्ण करती है ।इकठ्ठी की गई वस्तु को अलग अलग भाग मे divide करके उसके बारे मे गहराई से जानना ही विश्लेषण विधि है । (उदाहरण – गणित विषय का कोई पश्न मे क्या दिया है ,और क्या दिया है ,क्या ज्ञात करना ह ,कैसे ज्ञात हो सकता है ,एैसै विश्लेषण करके उसके आखिरी उत्तर तक पहुँच जाते है ।) 🌸1 यह एक अनुसंधान विधि है जिसके अन्तर्गत किसी एक वस्तु को टुकडों में बाटकर उसे गहराई तक खोज कर उसका research करते है ।🌹2🌹यह विधि जटिल से सरल की ओर चलती है :- अर्थात कोई वस्तु या पकरण यदि जटिल है उसे विश्लेषित करके उसका सरलीकरण करते है। 🌺3🌺अग्यात से ग्यात की ओर : जो चीज नही पता है उसके बारे मे गहराई से खोज कर जो पता है उसकी ओर चलते है। विश्लेषण विधि के गुण :- (1)इस विधि से बच्चे की तर्क शक्ति का विकास होता है। (2) इस विधि के द्वारा बच्चे की खोज करने की क्षमता का विकास होता है।(3) इस विधि के द्वारा बच्चों में एक समस्या को लेकर उस समस्या को अलग-अलग पहलू में सोच कर उसका समाधान करने की आदत विकसित होती हैं। यदि किसी व्यक्ति में विश्लेषण करने की क्षमता है तो किसी भी वे डिसीजन को ले पाएंगे🌺 विश्लेषण विधि के दोष:- (1) समय अधिक लगता है ।2) अधिकतर क्षति की जरूरत होती है जो छोटे बच्चों के पास नहीं होती इसीलिए विधि छोटे बच्चों के लिए अनुपयोगी है🌺 🌸🌸संश्लेषण विघि🌸🌸 किसी समस्या को टुकड़ों में या भाग में या अलग-अलग करके उसे इकट्ठा या एकत्रित करना ही संश्लेषण कहलाता है । यह विधि विश्लेषण विधि के ठीक विपरीत होता है। अर्थात अनेक को एक कर देना कि संश्लेषण है। किसी समस्या के छोटे-छोटे टुकड़ों का समाधान करके पुणे एकत्रीकरण करना ही संश्लेषण कहलाता है। उदाहरण – जैसे हम हिंदी विषय में बच्चे को पहले वर्णमाला को सिखाते हैं फिर उसके बाद शब्द बनाना या वाक्य बनाना सिखाया जाता है। 🌺 संश्लेषण विधि के गुण🌺 (1) यह विधि ज्ञात से अज्ञात की ओर ले जाती है अर्थात जो पता है उसका प्रयोग करके जो नहीं पता है उसकी प्राप्ति की जाती है।(2) इस विधि में किसी समस्या का हल कर एकत्रित करने के लिए उस समस्या से संबंधित पूर्व ज्ञात सूचनाओं को एक साथ मिलाकर समस्या को हल करने का प्रयत्न किया जाता है। 🌺 विश्लेषण -संश्लेषण विधि। विश्लेषण और संश्लेषण विधि के ठीक बिल्कुल विपरीत है किसी भी समस्या के निश्चित समाधान तक पहुंचने के लिए दोनों का होना जरूरी है अर्थात विश्लेषण और संश्लेषण एक दूसरे के पूरक हैंl 🌸prof yung ke sbdo ke anusar🌸 – “संश्लेषण विधि द्वारा सूखी घास से तिनका निकाला जाता है किंतु विश्लेषण विधि से तिनका स्वयं घास से बाहर निकल आया है” अर्थात संश्लेषण विधि म जो ज्ञात है से जो ज्ञात नहीं है अर्थात अज्ञात की ओर अग्रसर होते हैं।🌸 manisha gupta 🌸


विश्लेषण और सन्श्लेषण विधि :- (1) विश्लेषण विधि :- किसी चीज को बहुत गहराई से जानना उसको छोटे छोटे टुकडो़ में विभाजित कर उसके बारे में परीक्षण करना ही विश्लेषण है साधारण भाषा में कहा जाये तो माथापच्ची करना या पन्चायत करना | जैसे क्या गणित में क्षेत्रमिती के प्रश्नों को अलग अलग करके Solution निकालना | अर्थात (1) जटिल को सरल बनाना… (2) अज्ञात से ज्ञात की ओर जाना… (3) तर्क शक्ति का विकास होना… विश्लेषण विधि अनुसंधान विधि है इसमें विश्लेषण की क्षमता होती है जिसमें किसी परिणाम को लेना सरल हो जाता है.. …. सन्श्लेषण विधि:- किसी चीज के अलग अलग टुकडो़ को एकत्रित करना ही सन्श्लेषण है यह विधि विश्लेषण के विपरीत है अर्थात इसमें (1) ज्ञात से अज्ञात की ओर जातें हैं..(2) सरल से जटिल की ओर…(3) तर्क शक्ति का विकास होता है….दोनों विधियों में समानता :- (1) जितने भी point लिए गए हैं उनको साथ लेकर चले तो वो सफल परीक्षण होगा.. (2) सही परीक्षण वही होगा जिसका विश्लेषण और सन्श्लेषण सभी पक्षों के अनुसार किया गया हो… दोनों विधियों में तुलना :- (1) दोनों एक दूसरे के विपरीत है… (2) दोनों विधि वैज्ञानिक है परंतु विश्लेषण अनुसंधान विधि है.. (3) परिणाम के लिए दोनों विधियों का होना आवश्यक है… (4) जो शिक्षक छात्रों को समस्या का हल को विश्लेषण विधि द्वारा समझाने की कोशिश करते हैं वहीं सफल शिक्षक होते हैं.. (5) युन्ग के अनुसार ” सन्श्लेषण से सूखी से तिनका निकाला जाता है लेकिन विश्लेषण में तिनका खुद बाहर निकल जाता है….🌺🌺🌺🌺 रश्मि सावले 🌺🌺


● विश्लेषण ( Analytical Method ):-

◆ विश्लेषण से अभिप्राय है कि किसी समस्या को छोटे – छोटे भागों में विभाजित करके उसका अध्ययन करना और किसी निष्कर्ष पर पहुँचना । संश्लेषण से अभिप्राय है विश्लेषित तथ्यों को इकट्ठा करना और अभीष्ट परिणाम प्राप्त करना ।

◆ रसायन शास्त्र में पानी ( H20 ) को हाईड्रोजन व ऑक्सीजन में विभाजित करना विश्लेषण है । इसके विपरीत ऑक्सीजन का किसी विशेष ताप या दबाव पर संयुक्त कर पानी बनाना संश्लेषण है । संश्लेषण और विश्लेषण एक – दूसरे के पूरक हैं ।

◆ संश्लेशण में हमें कुछ तथ्य ज्ञात होते हैं और उनकी सहायता या उन्हें संयुक्त करके हम एक निष्कर्ष पर पहुच सकते हैं जो पहले अज्ञात था । इस प्रकार संश्लेषण ज्ञात से क्या अज्ञात की ओर बढ़ता है ।

◆ मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक यह मानते है , कि मनुष्य की बौद्विक किया का अन्तिम सोपान संश्लेषण विश्लेषण के उद्देश्य को पूरा करता है ।

● संश्लेषण विधि ( Synthesis Method ):-

◆ विश्लेषण विधि के विपरीत हैं । इस विधि में ज्ञात से अज्ञात की तरफ जाते है ।

◆ संश्लेषण में एक तथ्य की सत्यता की जाँच होती है । परन्तु इससे पाठ का सही तथा वास्तविक ढाँचा ज्ञात नही होता है । इस प्रकार संश्लेषण विधि साध्य सिद्ध करती है लेकिन उसकी व्याख्या नही करती । इसके द्वारा विश्लेषण विधि से प्राप्त तथ्य की जाँच की जा सकती है ।

संश्लेषण विधि के गुण :-
• यह विधि विश्लेषण विधि से सरल है तथा हल या निष्कर्श निकालने की विधि से अधिक स्थान नही घेरती ।
• विश्लेषण विधि के पश्चात संश्लेषण विधि का उपयोग आवश्यक है ।
• ज्ञात से अज्ञात की ओर अग्रसर करने का सिद्वान्त मनोवैज्ञानिक है तथा विद्यार्थियों के लिए असुविधाजनक है ।
• अध्यापक के कार्य को इस विधि ने अत्याधिक सरल बना दिया है ।
• इस विधि द्वारा प्राप्त ज्ञान विद्यार्थियों के द्वारा स्वयं ढूढाँ हुआ नही होता इसलिए वह स्थायी नही होता । यह विधि केवल सिद्ध कर सकती है , समझा नही सकती ।
• किसी साध्य अथवा समस्या का हल इस विधि से ज्ञात नही किया जा सकता ।
• इस विधि से छात्रों की तर्कशक्ति तथा सोचने की शक्ति का विकास नही हो सकता ।

🇧 🇾- ᴊᵃʸ ᴘʳᵃᵏᵃˢʰ ᴍᵃᵘʳʸᵃ


🔆 विश्लेषण एवं संश्लेषण विधि🔆

  • किसी विषय को गहराई से जानने,उस विषय के अलग अलग पहलू पर चर्चा करते है या जब हम उस विषय का पूरी तरह से विश्लेषण कर लेते है तब हम उस विषय के बारे में संपूर्ण या परिपूर्ण जानकारी को एकत्र कर लेते है।

✴️ विश्लेषण विधि ➖ गणिततीय दृष्टिकोण से यदि हम किसी समस्या के समाधान को निकालना चाहते हैं तो उसके लिए हम उस समस्या का विश्लेषण यानि कि उस समस्या के दुकड़े दुकड़े कर या उस अलग अलग करते हुए समाधान निकलते है।
▪️जब हम समस्या का समाधान खोजते है तो समाधान को खोजने में के लिए हम उस समस्या का विश्लेषण करते हैं जिसके फलस्वरूप हमे समस्या का समाधान मिल जाता है।
▪️यह विधि एक अनुसंधान है क्योंकि इसमें हल को खोजने पर बल दिया जाता है।( खोज करना या समस्या पर माथा पच्ची या दिमाग लगाकर या उस समस्या पर पंचायत कर या कहे विश्लेषण कर उस समस्या का उचित समाधान निकाला जा सकता है।)
▪️किसी भी विषय या वस्तु जो हमे जटिल लगती है उनको सरल बनाने के लिए ,इसके साथ ही जो विषय या चीजे जो हम नहीं जानते है या हम उससे अज्ञात है, उन्हें जानने के लिए या उन्हें ज्ञात करने के लिए इस विधि को प्रयोग में लाते हैं।
▪️ इसके द्वारा हम अपनी तर्क शक्ति को भी विकसित कर पाते है ।जैसे कि यदि हमारे पास कोई समस्या होती है तो उसके समाधान निकालने के लिए उस समस्या पर तर्क लगाते है।

✴️ संश्लेषण विधि➖

जब हमारे पास कोई समस्या होती है या हम किसी वस्तु या विषय के बारे में जानना चाहते है तब हम उस समस्या के दुकड़े या जो अलग अलग रूप से बटी हुई है उन्हें पुनः से एकत्रित करना ही संश्लेषण कहलाता है।

🔅 जब हम संश्लेषण से विश्लेषण की ओर जाते है तो हमे इस सकारात्मक बिंदु का भी ध्यान रखना चाहिए-

  • जब भी हम किसी विषय या किसी वस्तु के बारे में जानना चाहते हैं तो उसके लिए कई समस्या सामने आती है इन समस्याओं के समाधान निकालने से हमे जी परिणाम प्राप्त होते है वह win win situation में हो , यानि कि जब भी कोई बात बताई जाए या पता की जाए तो अंत में उसका जो भी परिणाम प्राप्त हो उससे बताने वाले ओर पूछने वाले या समझने वाले दोनों का ही फायदा या जीत हो या दूसरे रूप में कहे जी भी परिणाम प्राप्त हो वह दोनों के सकारात्मक पक्ष के लिए हो।
    ➖जैसे कि यदि कोई शिक्षक अपनी बातो को छात्रों को बताता है या उन तक input करता है और फिर उसे छात्रों द्वारा प्राप्त कर output दे देता है तो यहां पर शिक्षक और छात्र दोनों को ही सकारात्मक परिणाम प्राप्त होते है जो कि दोनों के पक्ष में होंगे।
    ▪️जब भी हम किसी विषय का संश्लेषण करते है तो हम उस विषय के प्रत्येक बिंदु या दुकड़ो को या हर पहलु को या सभी पक्षों पर विश्लेषण कर इन सभी का पुनः एकत्रिकरण कर या मिलाकर उस विषय का उचित रूप से निर्माण या संश्लेषण कर पाते है।

🔅 विश्लेषण और संश्लेषण में अंतर➖
▪️दोनों ही एक दूसरे पर पूरी तरह से निर्भर या विपरीत है इसलिए इन दोनों का ही होना जरूरी है यदि दोनों में से कोई भी रुक गया तो सही तरह से कार्य नहीं हो पायेगा।
▪️यह विधि एक मनोवैज्ञानिक विधि है ।इसमें अन्वेषण क्षमता या अनुसंधान या खोज करने की क्षमता का विकास होता है। इसमें छात्रों की अन्तर्दृष्टि का विकास होता है।
▪️जब भी हम किसी समस्या का विश्लेषण करते है तो हमे उस समस्या का उचित प्रकार से संश्लेषण कर समाधान निकाल लेते है।

🔅 युंग का कथन है कि किसी भूसे के ढ़ेर से एक छोटे से दुकड़े को निकालना संश्लेषण है जबकि भूसे के ढेर से दुकड़े का खुद से निकालना या प्राप्त दुकड़ा विश्लेषण कहलाता है।
हम संश्लेषण में ज्ञात से अज्ञात और विश्लेषण में इसके विपरित अज्ञात से ज्ञात की ओर जाते है।
▪️यदि हम किसी विषय या वस्तु का विश्लेषण नहीं कर रहे होते है तब हम दिए हुए विश्लेषण के आधार पर ही अपना विश्लेषण लगाकर उस विषय या वस्तु का संश्लेषण कर पाते हैं।

✍🏻 वैशाली मिश्रा


विश्लेषण- यह विषय वस्तु को विभिन्न तरीको से विभक्त करके उसमें सामिल संरचना को समझने की योग्यता है
किसी एक चीज को गहराई से जानना
और जटिल चीजो को सरल बनाना तथा कुछ चीजों को आपको पता नहीं उसे पता करना चाहते हैं
इससे बच्चों में तर्क शक्ति
का विकास होता है
संलेषण- इसमें प्राप्त उद्देश्य की प्राप्ति हर से बच्चों का सामाजिक अध्ययन विषय के प्रति
सकारात्मक दृष्टिकोण
विकसित होता है
संश्लेषण में हमे कुछ तथ्यों कि जानकारी होती है Menka patel


💫विश्लेषण विधि :-
किसी भी चीजों के बारे में जानने या समझने के लिए उसे टुकड़ों – टुकड़ों में विभाजित करके उस पर विश्लेषण करके उसके तथ्यों को समझने की कोशिश करते हैं,ये विधि, विश्लेषण विधि कहलाती है।

💫विश्लेषण विधि के गुण :-
🏝️ये विधि ज्ञात से अज्ञात की ओर चलती है।

🏝️यह एक प्रकार से अनुसंधानात्मक विधि कहलाती है,क्योंकि इस विधि में छात्र सक्रिय रूप से खोज करते हुए अपने समस्याओं को खुद से सुलझाने में सक्षम हो पाते हैं।

🏝️इस विधि में किसी भी चीज के हर एक पहलू को गहराई से जानने पर जोर दिया जाता है।इसे रचनात्मक विधि भी कहा जा सकता है।

🏝️इस विधि में बच्चे को भरपूर मौका दिया जाता है,जिससे उनमें चिंतन शक्ति का विकास होता है,उनमें किसी बात को लेकर किसी भी समस्या का समाधान ढूंढने की क्षमता भी विकसित होती है।

🏝️इस विधि के अन्तर्गत बच्चे अपनी तार्किक चिंतन शक्ति का प्रयोग करते हैं,जिससे उनमें चिंतन करने की क्षमता का विकास होता है।इसे एक प्रकार से समस्या समाधान विधि भी बोला जा सकता है।

💫विश्लेषण विधि के दोष :-
🏝️इस विधि में कार्य करने में समय अधिक लगता है।

🏝️इसमें अधिकतर तर्क शक्ति की आवश्यकता होती है,इसलिए ये विधि छोटे बच्चो के लिए अनुपयोगी हो सकती है।

💫संश्लेषण विधि :-
🏝️किसी भी समस्या को छोटे -२ भागों में करके उसे एकत्रित करना अथवा अनेक को एक करना ही,संश्लेषण विधि कहलाता है।

संश्लेषण विधि के गुण :-
🏝️ये विधि विश्लेषण विधि के बिल्कुल विपरीत होता है।

🏝️ये विधि ज्ञात से अज्ञात जी ओर के जानेवाली विधि है, इसके द्वारा हमे जो पता है उसका उपयोग करके को नहीं पता है उसे खोज करने की कोशिश करते हैं।

💫इस विधि के अन्तर्गत प्रोफेसर YUNG के द्वारा कहा गया कि :-
🌅संश्लेषण विधि सूखी घास से तिनका बाहर निकालने जैसा है,बल्कि विश्लेषण विधि से तिनका घास से स्वयं ही बाहर निकल आता है।

नेहा कुमारी☺️


विश्लेषण == किसी विषय पर बहुत गहराई से जानकारी प्राप्त करना। अर्थात् किसी विषय पर उसे छोटे- छोटे भागो में विघटित करके विषय की संपूर्ण जानकारी प्राप्त करना। तथा यह विषय की संपूर्ण जानकारी सुदृढ होगी।
जैसे- जब बच्चा स्कूल में एडमिशन लेता है तब उसके सामने बहुत से ऑप्शन होते है जिनमे से वो सभी को उनके गुणों के आधर पर विघटित करके एक स्कूल को सेलेक्ट करता है ।।।
✍️ विश्लेषण जटिल चीजों को सरल बनाता है।
✍️यह अज्ञात चीजों से ज्ञात पर ले जाता है।
✍️इससे तर्कशक्ति का विकास होता है , बच्चे में सोचने तथा तर्क करने की क्षमता का विकास होता है।
संश्लेषण== किसी विषय पर उसको छोटे छोटे भागो में बांटकर परीक्षण करके एक तर्क पर पहुंचना । अर्थात् बच्चो के द्वारा किसी विषय की समस्या के बारे में संपूर्ण जानकारी प्राप्त करके एक निश्चित हल पर पहुंचना ही संश्लेषण है।।।
जैसे – बच्चा जब बच्चे को कोई खिलौना चाहिए होता है तो वह चिंतन करके तर्क लगाता है कि मेरे रोने पर पापा मुझे खिलौना दिला देंगे ,इसमें पापा उसे खिलौना कब दिला देंगे उस समस्या का उसने एक हल निकाल लिया ।।।
✍️ समस्याओं के सभी पहलु को पुनः एकत्रित करके हल निकालना।
✍️ यह ज्ञात से अज्ञात की जाती हैं।
✍️इसमें बच्चे के पास पूर्व ज्ञान होता है जिसके आधार पर एक तर्क पर पहुंचना।
विश्लेषण- संश्लेषण विधि ==किसी विषय की समस्या को बहुत गहराई से जानकर संपूर्ण परीक्षण करके एक तर्क पर पहुंचना या सभी हलो को पुनः एकत्रित करके एक हल प्राप्त करना या पहले विघटित ( तोड़कर) करके फिर जोड़ना ही विश्लेषण- संश्लेषण विधि हैं।✍️✍️
युंग के अनुसार== ‘ सुखी घास में से तिनका निकालना’ अर्थात् घास में से तिनका अलग करना संश्लेषण होगा और घास को विघटित करने पर तिनका स्वयं बाहर आ जाए उसे विश्लेषण कहेंगे।
✍️ अनामिका राठौर ✍️


ःविशलेषण विघि और सशलेषण विघि 🌸🌸🌸🌸
विश्लेषण विघि को अनुसघान विधि भी बोलते है ः
ःविशलेषण मतलब टुकड़ों में बाटना ः
विश्लेषण विधि में समस्या को टुकड़े टुकड़े में बाटना जो स्थित रहती है उसको भागो में करना
विश्लेषण की क्षमता होती हैं तो हम निणय सही तरीके से ले सकते हैं इससे हमारा तक् सक्ति का विकास होता है इसमें हम कोई भी बात को डिटेल में प्रस्तुत करते है
इस विघि मे दिमाग भी ज्यादा लगाना पड़ता है ज्यादा सोचते हैं जिससे तक् सक्ति का विकास होता है
ःजटिल से सरल 🌸🌸🌸🌸
इस विघि में कोई काय् को जटिल से सरल की ओर करते हैं जैसे -आज क्लास है कल भी होगा परसो भी होगा बाद में फिर बाद में क्लास प्रतिदिन होती है
ःअज्ञात से ज्ञात 🌸🌸🌸
इसमे पहले जो नही जानते है उसके बारे में बात करेगे और फिर जो जानते है उसके बारे में विश्लेषण करेगे
ःइस विधि में टुकड़े टुकड़े जो किये गये उसे एकत्रित करके समस्या से जुड़ी हुई जितने भी पुव्र ज्ञान है सभी को मिलाकर एकत्रित करते है
ः win win situation को विश्लेषण का साकारातमक परिणाम हैः win win situation matlab मतलब दोनों तरफ से विश्लेषण और सशलेषण दोनों है दोनों पक्षों में होगा तब साकारातमक होगा ः
ःसशलेषण विघि 🌸🌸🌸🌸
ःसशलेषण विधि मतलब जोड़ना ः
ःटुकडो मे बाटना उसको एकत्रित करना ही सशलेषण कहलाता है
ःविशलेषण के विपरीत होता है सशलेषण
ःसशलेषण करना बहुत ही आवश्यक है
ःसशलेषण में एकपक्षीय निणय लेना गलत है विश्लेषण के बाद अगर सशलेषण नही करते है तो कोई भी सही निणय नही ले पाते है जितनी भी बातें है जैसे u academy पे पहले अच्छे से विश्लेषण किये कोन सर से पढना हैं और कब पढना है उसके बाद शसलेषण कि हमे अब दिपक सर से ही cdp पढना है
ःविशलेषण सशलेषण ये दोनों एक दूसरे के पूरक भी बोलते हैं मगर opposite भी बोलते हैं
किसी चीज को output तक पहुँचना विश्लेषण के बाद सशलेषण करना जरुरी है दोनों पक्षों के कुछ साकारातमक है तो नाकारातमक भी है ः
YUNG के अनुसार ः 🌸🌸🌸
ःविशलेषण विधि में सवय से घास से तिनका निकालना पड़ता है
ःसशलेषण विधि में सुखी घास से तिनका निकलता है
ःज्ञात से अज्ञात
ःबच्चो को पढाने के लिए दोनों विघि सही है मगर देखेगे बच्चो के आवश्यकता के अनुसार जहा जो जरूरत हो उसी के माध्यम से बच्चो को ज्ञान देगे 🌸🌸🌸

NEHA ROY 🙏🙏🙏🙏


विश्लेषण विधि= विश्लेषण विधि का अर्थ है…. किसी चीज को बहुत गहराई से जानना

🌸 किसी समस्या को हल करने के लिए उसे टुकड़े में बहुत बांटना या इकट्ठी की गई वस्तुओं को अलग अलग भागों में बांटना व उनका परिक्षण करना विश्लेषण विधि कहलाता है |✍✍✍✍✍✍

1) किसी वस्तु या चीज की पुरी तरह विश्लेषण करने से उनके छोटे छोटे पार्ट के बारे में जानकारी सुदृढ़ हो जाती हैं ✍

2) विश्लेषण किए बिना कोई भी उसका सारांश नहीं निकल सकता ✍

3) जब कोई भी चीज हमारे लिए जटिल होती है और उसे हम सरल बनाना चाहते हैं या जो चीजें पता नहीं है उसके बारे में जानना ही विश्लेषण करना है✍

4) विश्लेषण हमारे लिए एक अनुसंधान विधि है क्योंकि इसमें ( माथापच्ची व पंचायत) दिमाग ज्यादा लगाना पड़ता हैं✍
5) विश्लेषण विधि से पढ़ाने का मतलब है किसी पाठ को अलग अलग भागों में बांटना व विश्लेषण करना ✍

संश्लेषण विधि= विश्लेषण विधि का विपरीत संश्लेषण विधि है
1) किसी भी वस्तु को जिसे छोटे छोटे टुकड़े में बांटा गया हो उस सभी छोटे टुकड़े को फिर से एकत्रित करना संश्लेषण विधि है

2) इसमें किसी भी समस्या का हल उस समस्या से जुड़ी हुई जितनी भी पूर्व ज्ञान सुचनाएं है उसे मिलाकर हम उस समस्या का हल करते हैं✍

“Yung ” ने कहा है कि…..
संश्लेषण विधि से सुखी घास से तिनका निकाला जा सकता है लेकिन विश्लेषण विधि से तिनका स्वयं घास से बाहर निकल आता है✍✍✍✍✍✍

विश्लेषण व संश्लेषण में अन्तर……..
1) ये दोनों एक दूसरे के विपरीत है 1
2) विपरीत है इसलिए दोनों का होना जरूरी है 1
3) ये दोनो वैज्ञानिक विधि है परन्तु विश्लेषण अनुसंधान विधि है जो बहुत महत्वपूर्ण है✍✍✍✍✍✍✍✍✍✍

🌸🌸Varsha sharma🌸🌸


🔶विश्लेषण विधि और संश्लेषण विधि 🔸
✳️ विश्लेषण विधि (analysis)

🔅विश्लेषण विधि वह विधि है जिसके द्वारा हम किसी भी समस्या या विषय वस्तु को टुकड़ों में विभाजित करके उसके एक-एक पहलू का निरीक्षण करते हैं हम समस्या को खंडों में करके उसके पीछे छुपे तर्कों को खोजते हैं और अनुसंधान करते हैं।

जटिल वस्तु को सरल वस्तु बनाते हैं।और अज्ञात वस्तु को ज्ञात की ओर ले जाते हैं।

सरल शब्दों में हम ब्रेनस्टॉर्मिंग करते हैं अपने दिमाग की माथापच्ची करते हैं इसके द्वारा हम अपनी तर्क वितर्क लगाते हैं तर्क शक्ति को बढ़ाते हैं चिंतन को बढ़ाते हैं ।

🔅 संश्लेषण विधि🔅

संश्लेषण विधि में जो समस्या को हमने टुकड़ों में किया है उसे जोड़ कर समाधान निकलते हैं उन्हें एकत्रित करते हैं।
संश्लेषण विधि में हमें दोनों पहलुओं प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष पर विचार करना चाहिए कि किसी भी स्थिति में परिणाम win win में हो किसी को नुकसान ना हो संश्लेषण के समय हमें प्रत्येक बिंदु को अपने निष्कर्ष में शामिल करना चाहिए।
संश्लेषण और विश्लेषण दोनों विधि एक दूसरे से विपरीत हैं।

इसीलिए दोनों ही विधि आवश्यक हैं दोनों विधि मनोवैज्ञानिक विधि है।

धन्यवाद
वंदना शुक्ला

CTET & TETs TEACHING METHODS ALL SUBJECTS

CTET & TETs TEACHING METHODS / CTET & TETs शिक्षण की विधियाँ

जिस ढंग से शिक्षक शिक्षार्थी को ज्ञान प्रदान करता है उसे शिक्षण विधि कहते हैं। “शिक्षण विधि” पद का प्रयोग बड़े व्यापक अर्थ में होता है। एक ओर तो इसके अंतर्गत अनेक प्रणालियाँ एवं योजनाएँ सम्मिलित की जाती हैं, दूसरी ओर शिक्षण की बहुत सी प्रक्रियाएँ भी सम्मिलित कर ली जाती हैं। कभी-कभी लोग युक्तियों को भी विधि मान लेते हैं; परंतु ऐसा करना भूल है। युक्तियाँ किसी विधि का अंग हो सकती हैं, संपूर्ण विधि नहीं। एक ही युक्ति अनेक विधियों में प्रयुक्त हो सकती है।

प्रयोग प्रदर्शन विधि —

  • प्राथमिक स्तर के बालकों को भौतिक एवं जैविक पर्यावरण अध्ययन विषय के पाठों के अंतर्गत आए प्रयोग प्रदर्शन को स्वयं करके बच्चों को दिखाना चाहिए ।
  • छात्रों को भी यथा संभव प्रयोग करने तथा निरिक्षण करने का अवसर देना चाहिए ।
  • इस विधि से शिक्षण कराने पर करके सीखने के गुण का विकास होता है ।
    प्रयोग – प्रदर्शन विधि की विशेषता :-
  • यह विधि छात्रों को वैज्ञानिक विधि का प्रशिक्षण प्रदान करती है ।
  • इस विधि में छात्र सक्रिय रहते है तथा प्रश्नोत्तरी के माध्यम से पाठ का विकास होता है ।
  • छात्रों की मानसिक तथा निरिक्षण शक्ति का विकास होता है ।
  • विषय वस्तु सरल, सरस, बोधगम्य तथा स्थायी हो जाती है ।
    प्रयोग-प्रदर्शन विधि को प्रभावी बनाने के तरीके —
  • प्रयोग प्रदर्शन ऐसे स्थान पर करना चाहिए जहाँ से सभी बालकों को आसानी से दिख सके ।
  • छात्रों को प्रयोग करने का अवसर प्रदान किया जाना चाहिए ।
  • इस विधि का शिक्षण कराते समय अध्यापक को सक्रिय रहकर छात्रों द्वारा प्रयोग करते समय उनका उचित मार्गदर्शन करना चाहिए ।
  • कक्षा में प्रयोग करने से पहले अध्यापक को एक बार स्वयं प्रयोग करके देख लेना चाहिए ।
  • प्रयोग से संबंधित चित्र, महत्वपूर्ण सारांश एवं निष्कर्ष श्यामपट्ट पर लिखना चाहिए ।
    प्रयोग-प्रदर्शन विधि के दोष —
  • इस विधि से शिक्षण कराने पर सभी छात्रों को समान अवसर नहीं मिलते ।
  • इस विधि में व्यक्तिगत समस्या के समाधान का अवसर छात्रों को नहीं मिलता ।
  • प्रयोग करते समय कुछ छात्र निष्क्रिय बैठें रहते है ।
  • कक्षा में छात्रों की संख्या अधिक होने पर यह विधि प्रभावी नहीं रहती ।
    प्रोजेक्ट (योजना) विधि
  • प्रोजेक्ट (योजना) विधि शिक्षण की नवीन विधि मानी जाती है। इसका विकास शिक्षा में सामाजिक प्रवृत्ति के फलस्वरूप हुआ। शिक्षा इस प्रकार दी जानी चाहिए जो जीवन को समर्थ बना सके। इसके प्रवर्तक जान ड्यूबी के शिष्य डब्ल्यू0एच0 किलपैट्रिक थे।
  • परिभाषा -“प्रोजेक्ट वह सह्रदय सौउद्देश्यपूर्ण कार्य है जो पूर्ण संलग्नता से सामाजिक वातावरण में किया जाता है ।” – किलपैट्रिक
    ” प्रोजेक्ट एक समस्यामूलक कार्य है जो स्वाभाविक स्थिति में पूरा किया जाता है ।” – प्रो• स्टीवेंसन
    ” क्रिया की एक ऐसी इकाई जिसके नियोजन एवं क्रियान्वन के लिए क्रिया स्वयं ही उत्तरदायी हो ।” – पारकर
  • इस विधि में कोई कार्य छात्रों के सामने समस्या के रूप में प्रस्तुत किया जाता है और उस समस्या को बालक स्वयं सुलझाने का प्रयास करता है ।
  • प्रोजेक्ट विधार्थियों के जीवन से संबंधित किसी समस्या का हल खोजने के लिए किया जाने वाला कार्य है जो स्वाभाविक परिस्थितियों में पूर्ण किया जाता है ।
    प्रोजेक्ट (योजना) विधि के चरण :–
  • परिस्थिति उत्पन्न करना – इसमें बालकों की स्वतंत्रता सबसे महत्वपूर्ण होती है ।
  • प्रायोजना का चुनाव – प्रोजेक्ट के चुनाव में शिक्षक का महत्वपूर्ण स्थान है ।
  • प्रायोजना का नियोजन – इसके अंतर्गत प्रायोजना का कार्यक्रम बनाना पड़ता है ।
  • प्रायोजना का क्रियान्वन – इस स्तर पर शिक्षक कार्यक्रम की योजना के अनुसार सभी छात्रों को आवंटित करता है ।
  • प्रायोजना का मूल्यांकन – प्रायोजना की क्रियान्विती पूर्ण होने पर छात्र तथा शिक्षक इस बात का मूल्यांकन करते हैं कि कार्य में कहा तक सफलता मिली ।
  • प्रायोजना का अभिलेखन – इस चरण के अंतर्गत प्रायोजना से संबंधित सभी बातों का उल्लेख किया जाता है ।
    प्रोजेक्ट (योजना) विधि के गुण –
  • यह मनोवैज्ञानिक सिद्धांत पर आधारित विधि है जिसमें बालक को स्वतंत्रतापूर्वक सोचने, विचारने, निरिक्षण करने तथा कार्य करने का अवसर मिलता है ।
  • प्रोजेक्ट संबंधी क्रियाएं सामाजिक वातावरण में पूरी की जाती है । इस कारण छात्रों में सामाजिकता का विकास होता है ।
  • इस विधि में छात्र स्वयं करके सीखते है, अतः प्राप्त होने ज्ञान स्थायी होता है ।
  • प्रायोजना का चुनाव करते समय छात्रों की रुचियों, क्षमताओं और मनोभावों को ध्यान में रखा जाता है ।
    प्रोजेक्ट (योजना) विधि के दोष –
  • इस विधि द्वारा सभी प्रकरणों का अध्ययन नहीं कराया जा सकता ।
  • इस विधि में प्रशिक्षित अध्यापक की आवश्यकता होती है ।
  • प्रायोजना विधि अधिक खर्चीली है ।
  • इस विधि में अधिक समय लगता है ।
    प्रक्रिया विधि (Learning by doing)
  • इस विधि को क्रिया द्वारा सीखना भी कहते है।
  • शिक्षा में क्रिया को प्रधानता देने वाले प्रथम शिक्षाशास्त्री कमेनियस थे । उनके अनुसार क्रिया करना बालक का स्वाभाविक गुण है, अतः जो भी शिक्षा प्रदान की जाए, वह क्रिया के द्वारा प्रदान की जाए ।
  • शिक्षाविद पेस्टालाजी ने क्रिया द्वारा सीखने पर बल दिया है ।
  • पेस्टालाजी के शिष्य फ्रोबेल ने प्रसिद्ध शिक्षण विधि किंडरगार्टन का आविष्कार किया । यह खेल और प्रक्रिया द्वारा शिक्षा देने की विधि है ।
  • प्रक्रिया विधि बालकों के प्रशिक्षण में क्रियाशीलता के सिद्धांत को स्वीकार करती है ।
  • प्रोजेक्ट विधि, मान्टेसरी विधि, किंडरगार्टन विधि इस पर आधारित है ।
  • प्रक्रिया विधि जैविक एवं भौतिक पर्यावरण विषय के अध्ययन के लिए उपयुक्त विधि है ।
    प्रक्रिया विधि के गुण —
  • यह विधि बाल केन्द्रित विधि है जिसमें बालक को प्रधानता दी जाती हैं ।
  • प्रक्रिया विधि में वस्तुओं के संग्रह, पर्यटन, अवलोकन, परीक्षण के विषयों में विशेष रूप से विचार करती है ।
  • बालकों में करके सीखने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देती है ।
    प्रक्रिया विधि के दोष —
  • प्रकिया विधि में स्वतंत्र अध्ययन होने के कारण वास्तविक (यथार्थ) अध्ययन नहीं हो पाता ।
  • प्रक्रिया विधि विषय केन्द्रित तथा शिक्षक केन्द्रित नहीं है जबकि शिक्षण में दोनों की आवश्यकता है ।
    सम्प्रत्यय प्रविधि
  • “सम्प्रत्यय किसी देखी गई वस्तु की मानसिक प्रतिमा है । ” – बोरिंग, लैंगफील्ड और वील्ड ।
  • सम्प्रत्यय किसी देखी हुई वस्तु या मन का प्रतिमान है । ” – रास
  • ” सम्प्रत्यय किसी वस्तु का सामान्य अर्थ होता है जिसे शब्द या शब्द समूहों द्वारा व्यक्त किया जा सकता है । सम्प्रत्यय का आधार अनुभव होता है ।” – क्रो एंड क्रो
  • सम्प्रत्यय बालक के व्यवहार को निर्धारित करते हैं । उदाहरण के लिए बालक मस्तिष्क में परिवार का सम्प्रत्यय (मानसिक प्रतिमा) यदि अच्छा और अनुक्रम विकसित हुआ है, तो बालक अपने परिवार के अन्य सदस्यों के साथ अच्छा व्यवहार करेगा और परिवार से संबंधित सभी कार्य उत्तरदायित्व से करेगा । परिवार के सभी सदस्यों का आदर करेगा तथा परिवार में वह प्रत्येक प्रकार से समायोजित होगा ।
    सम्प्रत्यय निर्माण प्रविधि —
    सम्प्रत्यय निर्माण में बच्चों को पाँच स्तरों से गुजरना पड़ता है । यथा —
    1. निरिक्षण – निरिक्षण के द्वारा बच्चें किसी वस्तु के सम्प्रत्यय का निर्माण करता है ।
    2. तुलना – छात्र निरिक्षण द्वारा बनें विभिन्न सम्प्रत्ययों में तुलना करता है ।
    3. पृथक्करण – छात्र दो सम्प्रत्ययों के बीच समानता और भिन्नता की बातों को पृथक करता है ।
    4. सामान्यीकरण – इसमें छात्र किसी वस्तु का सम्प्रत्यय (प्रतिमा) का स्पष्ट रूप धारण कर लेता है ।
    5. परिभाषा निर्माण – छात्र के उपर्युक्त चारों स्तरों से गुजरने के बाद वास्तविक सम्प्रत्यय का निर्माण उसके मन में बनता है ।
  • सम्प्रत्यय निर्माण को प्रभावित करने वाले कारक – ज्ञानेन्द्रियाँ 2. बौद्धिक क्षमता 3. परिपक्वता 4. सीखने के अवसर 5. समायोजन 6. अन्य कारक – अनुभवों के प्रकार, लिंग, समय आदि ।
    अनुसंधान विधि (Discovery Methods)
  • इस विधि को खोज या अन्वेषण विधि भी कहते हैं ।
  • प्रो• एच• ई• आर्मस्ट्रांग ने विज्ञान शिक्षण विधि में इस अनुसंधान विधि का सुत्रपात किया ।
  • इस विधि का आधार आर्मस्ट्राग ने हरबर्ट स्पेन्सर के इस कथन पर रखा कि ” बालकों को जितना संभव हो, बताया जाए और उनको जितना अधिक संभव हो, खोजने के लिए प्रोत्साहित किया जाए ।”
  • इस विधि का प्रमुख उद्देश्य बालकों में खोज की प्रवृत्ति का उदय करना है ।
  • इस विधि में छात्र पर ज्ञान उपर से लादा नही जाता, उन्हें स्वयं सत्य की खोज के लिए प्रेरित किया जाता है ।
  • अध्यापक का कर्तव्य है कि वह बच्चे को कम से कम बताएं और उसे स्वयं अधिक से अधिक सत्य प्राप्त करने का अवसर प्रदान करें ।
    अनुसंधान विधि की कार्यप्रणाली —
  • इस विधि में छात्र के सामने कोई समस्या प्रस्तुत की जाती है । प्रत्येक बालक को व्यक्तिगत रूप से कार्य करने की स्वतंत्रता दी जाती है ।
  • आवश्यकता पड़ने पर बालक परस्पर वाद विवाद करते हैं, प्रश्न पुते हैं तथा पुस्तकालय में जाकर पुस्तक देखते है ।
    अनुसंधान विधि के गुण —
  • बालको को स्वयं करके सीखने को प्रेरित करती है ।
  • छात्रों में वैज्ञानिक अभिरूचि तथा दृष्टिकोण उत्पन्न करती है ।
  • छात्रों में स्वाध्याय की आदत बनती है ।
  • छात्र क्रियाशील रहते है, जिससे अर्जित ज्ञान स्थायी होता है ।
  • छात्रों में परिश्रम करने की आदत पड़ जाती है ।
  • छात्रों में आत्मानुशासन, आत्म संयम तथा आत्मविश्वास जागृत होता है ।
  • सफलता प्राप्त करने पर छात्र उत्साही होते है तथा उन्हें प्रेरणा मिलती हैं ।
    अनुसंधान विधि के दोष —
  • छोटी कक्षाओं के लिए अनुसंधान विधि उपर्युक्त नहीं है क्योंकि तार्किक व निरिक्षण शक्ति का विकास छोटे बच्चों में नहीं हो पाता ।
  • इस शिक्षण विधि में मंद बुद्धि विधार्थी आगे नही बढ़ पाते हैं तथा पाठ्यक्रम धीरे – धीरे आगे बढ़ते है ।
  • यह विधि प्रतिभावान बच्चों के लिए उपयुक्त है । पूरी कक्षा के लिए नहीं ।
  • प्राथमिक स्तर के बालक समस्या का विश्लेषण करने में असमर्थ होते है ।
    पर्यटन विधि
  • पर्यटन विधि छात्रों को प्रत्यक्ष ज्ञान देने के सिद्धांत पर आधारित है ।
  • इस विधि में छात्रों को का की चारदीवारी मे नियंत्रित शिक्षा न देकर स्थान – स्थान पर घुमाकर शिक्षा दी जाती है ।
  • पर्यटन के द्वारा बच्चें स्वयं प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त करने का अवसर प्राप्त करते हैं ।
  • पेस्टालाॅजी पर्यटन विधि के जन्मदाता माने जाते हैं । यद्यपि महान दार्शनिक रूसो ने भी पर्यटन को बालकों की शिक्षा का एक प्रमुख साधन माना है ।
    पर्यटन विधि के लाभ —
  • कक्षा तथा प्रयोगशाला में पढ़ी हुई बातों, तथ्यों, वस्तुओं, सिद्धांतों एवं नियमों का बाह्य जगत में आकर स्पष्टीकरण करने का अवसर मिलता है ।
  • पर्यटन विधि द्वारा विज्ञान शिक्षण को सरल, बोधगम्य तथा आकर्षक बनाया जा सकता है ।
  • पर्यटन विधि द्वारा छात्रों में निरिक्षण करने की योग्यता का विकास होता है ।
  • पर्यटन विधि से छात्र मिलकर काम करना सीखते है ।
  • छात्र अपने ज्ञान को क्रमबद्ध तथा सुव्यवस्थित करना सीखते है ।
  • इस विधि में छात्र पर्यटन के साथ – साथ मनोरंजन होने के कारण बालक मानसिक रूप से थकते नहीं है ।
    पर्यटन विधि के दोष —
  • इस विधि द्वारा प्रत्येक प्रकरण का अध्ययन संभव नहीं है ।
  • इसकी सफलता के लिए शिक्षक तथा छात्रों में सहयोग जरूरी है ।
  • पर्यटन के लिए उचित मात्रा में धन की जरूरत होती है ।
    प्रयोगशाला विधि
  • इस विधि में छात्र प्रयोगशाला में स्वयं करके सीखना सिद्धांत पर सीखता है अर्थात छात्र स्वयं प्रयोग करता है, निरिक्षण करता है और परिणाम निकालता है । इससे छात्र सक्रिय रहते है ।
  • इस विधि में छात्र को कोई शंका या कठिनाई होती है, तो शिक्षक उसका समाधान करता है ।
  • इस विधि में छात्र अधिकतम सक्रिय रहता है जबकि शिक्षक निरीक्षण करते रहते है ।
    प्रयोगशाला विधि के लाभ —
  • प्रयोगशाला विधि करके सीखने के सिद्धांत पर आधारित है ।
  • इस विधि में छात्रों में निरिक्षण, परीक्षण, चिंतन, तर्क आदि कुशलताओं का विकास किया जा सकता है जो विज्ञान शिक्षण के प्रमुख उद्देश्य है ।
  • छात्रों को अधिकाधिक ज्ञानेन्द्रियों के प्रयोग का अवसर मिलता है । इस प्रकार प्राप्त इन अधिक स्थाई होता है ।
  • प्रयोगशाला विधि द्वारा छात्रों को वैज्ञानिक विधियों में प्रशिक्षित कर सकते हैं ।
  • इस विधि द्वारा वैज्ञानिक अभिवृद्धि का विकास किया जा सकता है ।
    प्रयोगशाला विधि के दोष —
  • प्रयोगशाला विधि में छोटी कक्षाओं के छात्र कठिनाई महसूस करते हैं ।
  • इस विधि से उच्च स्तर का शिक्षण ही संभव हैं ।
  • अध्यापक के सक्रिय न होने पर यह विधि सफल नही हो सकती ।
  • यह विधि अंत्यत खर्चीली हैं ।
    अवलोकन विधि
  • इस विधि में छात्र स्वयं निरिक्षण कर वास्तविक ज्ञान प्राप्त करते हैं ।
  • विज्ञान शिक्षण में छात्र प्रत्येक संभावित तथ्य को देखकर, छूकर, स्पर्श करके और चख कर निरीक्षण करता है, जिसके आधार पर वस्तुओं अथवा पदार्थों के गुणों का वर्णन करने में समर्थ होते हैं ।
  • अवलोकन विधि में निरीक्षण करने की प्रक्रिया को अधिक व्यवस्थित, सबल व प्रभावी बनाने का प्रयास किया जाता है ।
    अवलोकन विधि के गुण – –
  • इस विधि द्वारा प्राप्त ज्ञान स्थायी तथा स्पष्ट होता है ।
  • यह विधि स्वयं करके सीखने पर आधारित होने के कारण विषय को रोचक बनाती हैं ।
  • इस विधि में छात्रों को स्वतंत्र रूप से देखने, सोचने तथा तर्क करने का अवसर मिलता है ।
  • छात्रों की विचार प्रकट करने, अभिव्यक्ति प्रकट करने की प्रवृत्ति का विकास होता है ।
  • छात्रों में करके सीखने की आदत का विकास होता है ।
    अवलोकन के समय ध्यान देने योग्य बातें – –
  • छात्रों को अवलोकन हेतु प्रेरित करने से पहले अध्यापक को स्वयं भलीभाँति अवलोकन करना चाहिए ।
  • अवलोकन के सभी कार्य प्रजातांत्रिक वातावरण में होने चाहिए ।
  • आवश्यकतानुसार अध्यापक को अवलोकन के समय बीच – बीच में प्रश्न करते रहना चाहिए
    अवलोकन विधि के गुण – –
  • हर स्तर पर अवलोकन नही कर सकते ।
  • समूह का आकार बड़ा होने पर सभी छात्र प्रदर्शन को नहीं देख पाते हैं जिससे वे अवलोकन नहीं कर पाते ।
  • एक ही समय में कई प्रयोग प्रदर्शन दिखाए जाते हैं जिससे छोटी कक्षाओं के छात्र समझ नहीं पाते ।
    प्रश्नोंत्तर परिचर्चा विधि ( Discussion Methods )
  • प्रश्नोत्तर परिचर्चा विधि का प्रयोग की रूपों में होता है जैसे – वाद विवाद, विचार गोष्ठी, दल चर्चा आदि ।
  • इस विधि का उपयोग तब किया जाता है जब सभी विधार्थियों को विचार विमर्श में सीधे रूप में सम्मिलित करना संभव हो ।
  • इस विधि में कुछ छात्र दिए गए विषय या समस्या के विभिन्न पक्षों पर संक्षेप में भाषण तैयार करते हैं तथा शिक्षक की अध्यक्षता में भाषण देते हैं ।
  • भाषण के उपरान्त शिक्षक शेष छात्रों से प्रश्न आमंत्रित करता है ।
  • जहाँ कहीं जरूरत होती है, शिक्षक सही उत्तर देने में संपूर्ण कार्यक्रम में मार्गदर्शन करता हैं
    प्रश्नोत्तरी परिचर्चा विधि के गुण – –
  • इस विधि में छात्रों में आत्माभिव्यक्ति का विकास होता है ।
  • इस विधि में छात्रों में नेतृत्व के लिए प्रशिक्षण मिलता हैं ।
  • छात्रों में व्यापक दृष्टिकोण का विकास होता हैं ।
  • आलोचनात्मक चिंतन, तर्क आदि क्षमताओं का विकास किया जा सकता है ।
  • परस्पर सहयोग करने की भावना का विकास होता हैं ।
    प्रश्नोत्तर परिचर्चा विधि के दोष – –
  • प्रारंभिक कक्षाओं में छात्रों की अभिव्यक्ति स्तर की नहीं होती है, अतः प्रयोग करना कठिन होता हैं ।
  • प्रश्नोंत्तर विधि में पाठ्यवस्तु का विकास धीमी गति से होता है ।
  • इस विधि में एक अच्छे पुस्तकालय की सुविधा होनी चाहिए ताकि विधार्थी विचार विमर्श से पहले अध्ययन कर सकें ।
  • इस विधि का प्रयोग करने के लिए कुशल व योग्य शिक्षकों की आवश्यकता होती है ।
    वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समस्या समाधान विधि (Problem Solving Method)
  • यह ह्युरिस्टिक विधि की तरह है जो काम करो और सीखो के सिद्धांत पर आधारित है ।
  • इस विधि से छात्रों में समस्या हल करने की क्षमता विकसित होती है ।
  • यह विधि छात्रों में चिंतन तथा तर्कशक्ति का विकास करती हैं ।
  • “समस्या विधि निर्देश की वह विधि है जिसके द्वारा सीखने की प्रक्रिया को उन चुनौती पूर्ण स्थितियों के द्वारा प्रोत्साहित किया जाता है जिनका समाधान करना आवश्यक है ।” – वुड
    समस्या समाधान विधि के चरण —
  • समस्या विधि का चयन – अध्यापक व विधार्थी मिलकर समस्या का चयन करते हैं ।
  • समस्या चयन का कारण — विधार्थियों को बताया जाता है कि समस्या का चयन क्यों किया गया है ?
  • समस्या को पूर्ण करना – समस्त विधार्थी अध्यापक के मार्गदर्शन में समस्या के समाधान हेतू कार्य करते है ।
  • समस्या को हल करना — अंत में विधार्थी समस्या का हल खोज लेते है, यह हल प्रामाणिक या परिलक्षित लक्ष्यों पर आधारित होता हैं ।
  • हर या समाधान का प्रयोग — विधार्थी प्रामाणिक समाधान का प्रयोग करते हैं ।
    समस्या समाधान विधि के गुण —
  • समस्या समाधान विधि विधार्थियों में विचार तथा निर्णय शक्ति का विकास करती हैं ।
  • इस विधि में छात्र सामुहिक निर्णय लेना सीखते हैं ।
  • छात्रों में वैज्ञानिक ढंग से चिंतन करने की क्षमता का विकास होता हैं ।
  • यह विधि स्वाध्याय का विकास करती हैं तथा प्रशिक्षण प्रदान करती है ।
  • यह विधि छात्रों की भावी योजनाओं के समस्याओं को हल करने का प्रशिक्षण देती हैं ।
    समस्या समाधान विधि के दोष
  • समस्या समाधान विधि का प्रयोग छोटी कक्षाओं के लिए नहीं किया जा सकता हैं ।
  • इस विधि में जरूरी नहीं है कि विधार्थियों द्वारा निकाले गए परिणाम संतोषजनक हो ।
  • इस विधि का प्रयोग कुशल अध्यापक ही कर सकते हैं, सामान्य स्तर के अध्यापक नहीं ।
  • इस विधि में पर्याप्त समय लगता हैं ।
     गणितीय दृष्टिकोण से समस्या समाधान विधि —
  • गणित अध्यापन की यह प्राचीनतम विधि है ।
  • अध्यापक इस विधि में विधार्थियों के समक्ष समस्यायों को प्रस्तुत करता हैं तथा विधार्थी सीखे हुए सिद्धांतों, प्रत्ययों की सहायता से कक्षा में समस्या हल करते हैं ।
  • समस्या प्रस्तुत करने के नियम —
  • समस्या बालक के जीवन से संबंधित हो ।
  • उनमें दिए गए तथ्यों से बालक अपरिचित नहीं होने चाहिए ।
  • समस्या की भाषा सरल व बोधगम्य होनी चाहिए ।
  • समस्या का निर्माण करते समय बालकों की आयु एवं रूचियों का भी ध्यान रखना चाहिए ।
  • समस्या लम्बी हो तो उसके दो – तीन भाग कर चाहिए ।
  • नवीन समस्या को जीवन पर आधारित समस्याओं के आधार पर प्रस्तुत करना चाहिए ।
  • समस्या निवारण विधि के गुण –
  • इस विधि से छात्रों में समस्या का विश्लेषण करने की योग्यता का विकास होता हैं ।
  • इससे सही चिंतन तथा तर्क करने की आदत का विकास होता है ।
  • उच्च गणित के अध्ययन में यह विधि सहायक हैं ।
  • समस्या के द्वारा विधार्थियों को जीवन से संबंधित परिस्थितियों की सही जानकारी दे सकते हैं
  • समस्या समाधान विधि के दोष
  • जीवन पर आधारित समस्याओं का निर्माण प्रत्येक अध्यापक के लिए संभव नहीं हैं ।
  • बीज गणित तथा ज्यामिति ऐसे अनेक उप विषय हैं जिसमें जीवन से संबंधित समस्यायों का निर्माण संभव नही हैं
  • खेल विधि —
  • खेल पद्धति के प्रवर्तक हैनरी काल्डवैल कुक हैं । उन्होंने अपनी पुस्तक प्ले वे में इसकी उपयुक्तता अंग्रेजी शिक्षण हेतु बतायी हैं ।
  • सबसे पहले महान शिक्षाशास्त्री फ्रोबेल ने खेल के महत्व को स्वीकार करके शिक्षा को पूर्ण रूप से खेल केन्द्रित बनाने का प्रयत्न किया था ।
  • फ्रोबेल ने इस बात पर जोर दिया कि विधार्थियों को संपूर्ण ज्ञान खेल – खेल में दिया जाना चाहिए ।
    खेल में बालक की स्वाभाविक रूचि होती हैं ।
  • गणित की शिक्षा देने के लिए खेल विधि का सबसे अच्छा उपयोग इंग्लैंड के शिक्षक हैनरी काल्डवैल कुक ने किया था ।
    खेल विधि के गुण —
  • मनोवैज्ञानिक विधि – खेल में बच्चें की स्वाभाविक रूचि होती है और वह खेल आत्मप्रेरणा से खेलता है । अतः इस विधि से पढ़ाई को बोझ नहीं समझता ।
  • सर्वांगीण विकास — खेल में गणित संबंधी गणनाओं और नियमों का पूर्ण विकास होता है । इसके साथ साथ मानवीय मूल्यों का विकास भी होता हैं ।
  • क्रियाशीलता – यह विधि करो और सीखो के सिद्धांत पर आधारित है ।
  • सामाजिक दृष्टिकोण का विकास – इस विधि में पारस्परिक सहयोग से काम करने के कारण सामाजिकता का विकास होता हैं ।
  • स्वतंत्रता का वातावरण – खेल में बालक स्वतंत्रतापूर्वक खुले ह्रदय व मस्तिष्क से भाग लेता हैं
  • रूचिशील विधि – यह विधि गणित की निरसता को समाप्त कर देती हैं ।
    खेल विधि के दोष –
  • शारीरिक शिशिलता
  • व्यवहार में कठिनाई
  • मनोवैज्ञानिक विलक्षणता
    आगमन विधि –
  • इस शिक्षा प्रणाली में उदाहरणों की सहायता से सामान्य नियम का निर्धारण किया जाता है, को आगमन शिक्षण विधि कहते हैं
  • यह विधि विशिष्ट से सामान्य की ओर शिक्षा सूत्र पर आधारित है ।
  • इसमें स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ा जाता है । उदाहरण स्थूल है, नियम सूक्ष्म ।
    आगमन विधि के गुण —
  • यह शिक्षण की सर्वोत्तम विधि है । इससे नवीन ज्ञान को खोजने का अवसर मिलता है और यह अनुसंधान का मार्ग प्रशस्त करती हैं ।
  • इस विधि में विशेष से सामान्य की ओर और स्थूल से सूक्ष्म की ओर अग्रसर होने के कारण यह विधि मनोवैज्ञानिक हैं ।
  • नियमों को स्वयं निकाल सकने पर छात्रों में आत्मविश्वास की भावना का विकास होता हैं ।
  • इस विधि में रटने की प्रवृत्ति को जन्म नहीं मिलता हैं । अतः छात्रों को स्मरण शक्ति पर निर्भर रहना पड़ता है ।
  • यह विधि छोटे बच्चों के लिए अधिक उपयोगी और रोचक हैं ।
    आगमन विधि के दोष —
  • यह विधि बड़ी कक्षाओं और सरल अंशों को पढ़ाने के लिए उपयुक्त हैं ।
  • आजकल की कक्षा पद्धति के अनुकूल नहीं है क्योंकि इसमें व्यक्तिगत शिक्षण पर जोर देना पड़ता है ।
  • छात्र और अध्यापक दोनों को ही अधिक परिश्रम करना पड़ता है ।
    निगमन विधि
  • इस विधि में अध्यापक किसी नियम का सीधे ढ़ंग से उल्लेख करके उस पर आधारित प्रश्नों को हल करने और उदाहरणों पर नियमों को लागू करने का प्रयत्न करता हैं ।
  • इस विधि में छात्र नियम स्वयं नही निकालते, वे नियम उनकों रटा दिए जाते हैं और कुछ प्रश्नों को हल करके दिखा दिया जाता है
    निगमन विधि के गुण —
  • बड़ी कक्षाओं में तथा छोटी कक्षाओं में भी किसी प्रकरण के कठिन अंशों को पढ़ाने के लिए यह विधि सर्वोत्तम है ।
  • यह विधि कक्षा पद्धति के लिए सबसे अधिक उपयोगी है ।
  • ज्ञान की प्राप्ति काफी तीव्र होती है । कम समय में ही अधिक ज्ञान दिया जाता है ।
  • ऊँची कक्षाओं में इस विधि का प्रयोग किया जाता है क्योंकि वे नियम को तुरंत समझ लेते है ।
  • इस विधि में छात्र तथा शिक्षक दोनों को ही कम परिश्रम करना पड़ता है ।
  • इस विधि से छात्रों की स्मरण शक्ति में वृद्धि होती है ।
    निगमन विधि के दोष —
  • निगमन विधि सूक्ष्म से स्थूल की ओर बढ़ने के कारण शिक्षा सिद्धांत के प्रतिकूल है । यह विधि अमनोवैज्ञानिक है ।
  • इस विधि रटने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता हैं ।
  • इसके माध्यम से छात्रों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा नही होता ।
  • नियम के लिए इस पद्धति में दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता है, इसलिएइस विधि से सीखने में न आनंद मिलता है और न ही आत्मविश्वास बढ़ता हैं ।
    आगमन तथा निगमन विधि में तुलनात्मक निष्कर्ष —
  • आगमन विधि निगमन विधि से अधिक मनोवैज्ञानिक हैं ।
  • प्रारंभिक अवस्था में आगमन विधि अधिक उपयुक्त है परन्तु उच्च कक्षाओं में निगमन विधि अधिक उपयुक्त है क्योंकि इसकी सहायता से कम समय में अधिक ज्ञान प्राप्त किया जा सकता हैं ।
    विश्लेषण विधि (Analytic Method) —
  • विश्लेषण शब्द का अर्थ है – किसी समस्या को हल करने के लिए उसे टुकड़ों बांटना, इकट्ठी की गई वस्तु के भागों को अलग – अलग करके उनका परीक्षण करना विश्लेषण है ।
  • यह एक अनुसंधान की विधि है जिसमें जटिल से सरल, अज्ञात से ज्ञात तथा निष्कर्ष से अनुमान की ओर बढ़ते हैं ।
  • इस विधि में छात्र में तर्कशक्ति तथा सही ढंग से निर्णय लेने की आदत का विकास होता हैं ।
    संश्लेषण विधि
  • संश्लेषण विधि विश्लेषण विधि के बिल्कुल विपरीत हैं ।
  • संश्लेषण का अर्थ है उस वस्तु को जिसको छोटे – छोटे टुकड़ों में विभाजित कर दिया गया है, उसे पुन: एकत्रित कर देना है ।
  • इस विधि में किसी समस्या का हल एकत्रित करनेके लिए उस समस्या से संबंधित पूर्व ज्ञात सूचनाओं को एक साथ मिलाकर समस्या को हल करने का प्रयत्न किया जाता है ।
    विश्लेषण – संश्लेषण विधि —
  • दोनों विधियाँ एक दूसरे की पूरक हैं ।
  • जो शिक्षक विश्लेषण द्वारा पहले समस्या का विश्लेषण कर छात्रों को समस्या के हल ढूंढने की अंतदृष्टि पैदा करता है, वही शिक्षक गणित का शिक्षण सही अर्थ में करता हैं ।
  • “संश्लेषण विधि द्वारा सूखी घास से तिनका निकाला जाता है किंतु विश्लेषण विधि से तिनका स्वयं घास से बाहर निकल आया है ।” – प्रोफेसर यंग । अर्थात संश्लेषण विधि में ज्ञात से अज्ञात की ओर अग्रसर होते हैं, और विश्लेषण विधि में अज्ञात से ज्ञात की ओर ।
    योजना विधि
  • इस विधि का प्रयोग सबसे पहले शिक्षाशास्त्री किलपैट्रिक ने किया जो प्रयोजनवादी शिक्षाशास्त्री थे ।
  • उनके अनुसार शिक्षा सप्रयोजन होनी चाहिए तथा अनुभवों द्वारा सीखने को प्रधानता दी जानी चाहिए ।
    योजना विधि के सिद्धांत — समस्या उत्पन्न करना, , कार्य चुनना, योजना बनाना, योजना कार्यान्वयन, कार्य का निर्णय, कार्य का लेखा
  • योजना विधि के गुण —
  • बालकों में निरिक्षण, तर्क, सोचने और सहज से किसी भी परिस्थिति में निर्णय लेने की क्षमता का विकास होता हैं ।
  • क्रियात्मक तथा सृजनात्मक शक्ति का विकास होता हैं ।
    योजना विधि के दोष –
    इस विधि से सभी पाठों को नही पढ़ाया जा सकता ।
    क्या आप जानते है ?
  • गणित सभी विज्ञानों का प्रवेश द्वार एवं कुंजी हैं – बैकन
  • गणित संस्कृति का दर्पण है – हाॅग बैन
  • तार्किक चिंतन के लिए गणित एक शक्तिशाली साधन है – बर्नार्ड शाॅ
  • गणित क्या है, यह उस मानव चिंतन का प्रतिफल है, जो अनुभवों से स्वतन्त्र तथा सत्य के अनुरूप है – आइन्सटीन
  • गणित एक विज्ञान है जिसकी सहायता से आवश्यक निष्कर्ष निकाले जाते हैं – पियर्स
  • आगमन विधि गणित में सूत्रों की स्थापना हेतु उत्तम विधि हैं । आगमन विधि में ज्ञात से अज्ञात की ओर सिद्धांत लागू होता हैं ।
  • विश्लेषण विधि में अज्ञात से ज्ञात की ओर अग्रसर हैं ।
  • त्रिकोणमिति गणित में मौखिक कार्य का सर्वाधिक महत्व छात्रों के मानसिक विकास करने में हैं ।
  • यदि विज्ञान की रीढ़ की हड्डी गणित हटा दिया जाए, तो सम्पूर्ण भौतिक सभ्यता निःसंदेह नष्ट हो जाएगी – यंग

शिक्षण विधियों की कुछ महत्वपूर्ण बातें

  • पाठ योजना (पंचपदी) के प्रवर्तक – हरबर्ट स्पेन्सर
  • इकाई योजना के प्रवर्तक – मारिसन
  • खेल विधि के प्रवर्तक – काल्डवेन कुक
  • खोज/अनुसंधान/ अन्वेषण/ह्युरिस्टिक विधि के प्रवर्तक – प्रो• आर्मस्ट्राग
  • अभिक्रमिक अनुदेशन विधि के जन्मदाता – बी• एफ• स्किनर
  • प्रोजेक्ट/ प्रायोजना विधि के प्रवर्तक – किलपैट्रिक
  • प्रयोगशाला विधि स्वयं करके सीखने के सिद्धांत पर आधारित है ।
  • पर्यटन विधि छात्रों को प्रत्यक्ष इन देने के सिद्धांत पर आधारित है । (पेस्टालाजी)
  • अवलोकन विधि से छात्रों में निरिक्षण करने की योग्यता का विकास होता है ।
  • अनुसंधान विधि से छात्रों में खोज प्रवृत्ति का उदय होता है ।
  • समस्या समाधान विधि में छात्रों में विचार तथा निर्णय शक्ति का विकास होता है ।
  • छोटी कक्षाओं में अधिकतर प्रयोग प्रदर्शन विधि का प्रयोग उचित होता है ।
  • बड़ी कक्षाओ में प्रयोगशाला विधि का प्रयोग किया जाना उचित है ।
  • प्रयोग प्रदर्शन विधि से शिक्षण कराने में बालकों में करके सीखने के गुण का विकास होता हैं
  • प्रायोजना विधि में कोई कार्य बालकों के सामने समस्या के रूप में प्रस्तुत किया जाता है और उस समस्या को बालक स्वयं हर करने का प्रयास करते हैं ।
  • प्रक्रिया विधि बाल केन्द्रित विधि है जिसमें बालक को प्रधानता दी जाती हैं । बालक स्वतः स्वभाविक रूप से क्रियाशील होता हैं ।
  • सम्प्रत्यय किसी देखी गई वस्तु की मानसिक प्रतिमा है । सम्प्रत्यय वे विचार है जो वस्तुओं, घटनाओं तथा गुणों का उल्लेख करते हैं ।
  • सम्प्रत्यय निर्माण में बच्चों को पाँच स्तरों से गुजरना पड़ता है – निरिक्षण, तुलना, पृथक्करण, सामान्यीकरण तथा परिभाषा निर्माण । व्याख्यान विधि सबसे सरल व प्राचीन विधि है ।छोटी कक्षाओं के लिए गणित शिक्षण की उपयुक्त विधि – खेल मनोरंजन विधि
  • रेखा गणित शिक्षण की सर्वश्रेष्ठ विधि – विश्लेषण विधि
  • बेलनाकार आकृति के शिक्षण की सर्वश्रेष्ठ विधि – आगमन निगमन विधि
  • नवीन प्रश्न को हल करने की सर्वश्रेष्ठ विधि – आगमन विधि
  • स्वयं खोज कर अपने आप सीखने की विधि – अनुसंधान विधि
  • मानसिक, शारीरिक और सामाजिक विकास के लिए सर्वश्रेष्ठ विधि – खेल विधि
  • ज्यामिति की समस्यायों को हल करने के लिए सर्वोत्तम विधि – विश्लेषण विधि
  • सर्वाधिक खर्चीली विधि – प्रोजेक्ट विधि
  • बीजगणित शिक्षण की सर्वाधिक उपयुक्त विधि – समीकरण विधि
  • सूत्र रचना के लिए सर्वोत्तम विधि – आगमन विधि
  • प्राथमिक स्तर पर थी गणित शिक्षण की सर्वोत्तम विधि – खेल विधि
  • वैज्ञानिक आविष्कार को सर्वाधिक बढ़ावा देने वाली विधि – विश्लेषण विधि
  • गणित शिक्षण की विधियाँ : स्मरणीय तथ्य
  • शिक्षण एक त्रि – ध्रुवी प्रक्रिया है जिसका प्रथम ध्रुव शिक्षण उद्देश्य, द्वितीय अधिगम तथा तृतीय मूल्यांकन है ।
  • व्याख्यान विधि में शिक्षण का केन्द्र बिन्दु अध्यापक होता है, वही सक्रिय रहता है ।
  • बड़ी कक्षाओं में जब किसी के जीवन परिचय या ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से परिचित कराना है, वहाँ व्याख्यान विधि उत्तम है ।
  • प्राथमिक स्तर पर थी गणित स्मृति केन्द्रित होना चाहिए जिसका आधार पुनरावृति होता हैं ।

सामान्य विज्ञान शिक्षण के विशिष्ट उद्देश्य अपेक्षित व्यवहारगत परिवर्तन के रूप में —

  • ज्ञान (Knowledge) — छात्रों को उन तथ्यों, सिद्धांतों व विधियों का ज्ञान प्रदान करना है जो विज्ञान से संबंधित हैं । इससे बालक के व्यवहार में निम्नलिखित परिवर्तन होगे —
    • A. विज्ञान के नवीन शब्दों की जानकारी प्राप्त कर छात्र वैज्ञानिक भाषा में तथ्यों का वर्णन कर सकेंगे ।
      B. छात्र अपने व्यक्तिगत तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य से संबंधित ज्ञान को प्राप्त व व्यक्त कर सकेंगे ।
      C. वैज्ञानिक परिभाषाएँ तथा सिद्धांतों से परिचित होकर उनमें पारस्परिक संबंध स्थापित कर सकेंगे ।
  • अवबोध (Understanding) — इससे बालक में निम्नलिखित परिवर्तन आएगें – A. छात्र वैज्ञानिक विचारों तथा संबंधों को अपनी भाषा में व्यक्त करता है तथा विभिन्न तथ्यों में परस्पर तुलना कर सकता हैं । B. कारण तथा प्रभाव संबंध को स्पष्ट कर सकता हैं ।
  • ज्ञानापयोग (Application) – छात्र अपरिचित समस्याओं को समझने एवं उन्हें हल करने में सामान्य विज्ञान के ज्ञान का उपयोग करता है ।
  • कौशल (Skill) — छात्रों में चार्ट एवं चित्र बनाने तथा उनमें प्रयोग करने का कौशल उत्पन्न हो जाता है । इसके अंतर्गत उसमें निम्न परिवर्तन होते हैं —
    A. पर्यावरण से संबंधित तथ्यों व वस्तुओं का कुशलतापूर्वक प्रयोग करने की योग्यता प्राप्त करता है ।
    B. उपकरणों को प्रयोग में लाने, परीक्षण करके परिणाम निकालने, उनमें होने वाले दोषों को दूर करने की कुशलता प्राप्त करता हैं ।
  • अभिवृति (Attitude) — A. बालक विभिन्न परिस्थितियों में शीघ्र व सही निर्णय ले सकता है
    B. अंधविश्वासों व पूर्वाग्रहों को वैज्ञानिक विधि से दूर करने में सहायता प्राप्त होती हैं ।
    C. विज्ञान से संबंधित तथ्यों का सूक्ष्म निरीक्षण करता हैं ।
  • अभिरुचि (Interest) — A. विधालय की वैज्ञानिक प्रवृत्तियों जैसे — विज्ञान मेला, विज्ञान प्रदर्शनी, विज्ञान क्विज आदि में सक्रिय भाग लेता हैं ।
    B. विज्ञान के दैनिक उपयोग संबंधी कार्यों में रूचि लेता हैं ।
  • प्रशंसा (Appreciation) — वैज्ञानिक आविष्कारों एवं खोजों के मानव जीवन में योगदान की प्रशंसा करता है । वैज्ञानिकोंके जीवन की घटनाओं की सराहना कर उनसे प्रेरणा लेता है
    NCERT के शब्दों में हमारे शैक्षिक उद्देश्य वे परिवर्तन है जो हम बालक में लाना चाहते है

    गणित शिक्षण के प्राप्य उद्देश्य व अपेक्षित व्यवहारगत परिवर्तन —-
  • ज्ञान – छात्र गणित के तथ्यों, शब्दों, सूत्रों, सिद्धांतों, संकल्पनाओं, संकेत, आकृतियों तथा विधियों का ज्ञान प्राप्त करते हैं ।
    व्यवहारगत परिवर्तन –
    A. छात्र तथ्यों, परिभाषाएँ, सिद्धांतों आदि में त्रुटियों का पता लगाकर उनका सुधार करता हैं
    B. तथ्यों तथा सिद्धांतों के आधार पर साधारण निष्कर्ष निकालता हैं ।
    C. गणित की भाषा, संकेत, संख्याओं, आकृतियों आदि को भली भांति पहचानता एवं जानता हैं ।
  • अवबोध — संकेत, संख्याओं, नियमों, परिभाषाओं आदि में अंतर तथा तुलना करना, तथ्यों तथा आकृतियों का वर्गीकरण करना सीखते हैं ।
  • कुशलता — विधार्थी गणना करने, ज्यामिति की आकृतियों, रेखाचित्र खींचने मे, चार्ट आदि को पढ़ने में निपुणता प्राप्त कर सकेंगे । छात्र गणितीय गणनाओं को सरलता व शीघ्रता से कर सकेंगे । ज्यामितीय आकृतियों, लेखाचित्र, तालिकाओं, चार्टों आदि को पढ़ तथा खींच सकेंगे
  • ज्ञानापयोग —
    A. छात्र ज्ञान और संकल्पनाओं का उपयोग समस्याओं को हल कर सकेंगे ।
    B. छात्र तथ्यों की उपयुक्तता तथा अनुपयुक्तता की जांच कर सकेगा
    C. नवीन परिस्थितियों में आने वाली समस्यायों को आत्मविश्वास के साथ हल कर सकेगा ।
  • रूचि :–
    A. गणित की पहेलियों को हल कर सकेगा ।
    B. गणित संबंधी लेख लिख सकेगा ।
    C. गणित संबंधित सामग्री का अध्ययन करेगा ।
    D. गणित के क्लब में भाग ले सकेगा ।
  • अभिरुचि :–
    A. विधार्थी गणित के अध्यापक को पसंद कर सकेगा ।
    B. गणित की परीक्षाओं को देने में आनन्द पा सकेगा ।
    C. गणित की विषय सामग्री के बारे में सहपाठियों से चर्चा कर सकेगा ।
    D. कमजोर विधार्थियों को सीखाने में मदद कर सकेगा ।
  • सराहनात्मक (Appreciation objectives)
    A. छात्र दैनिक जीवन में गणित के महत्व एवं उपयोगिता की प्रशंसा कर सकेगा ।
    B. गणितज्ञों के जीवन में व्याप्त लगन एवं परिश्रम को श्रद्धा की दृष्टि से देख सकेगा ।

विज्ञान शिक्षण के प्रमुख उपकरण —

  • मैजिक लेण्टर्न — इसके द्वारा छोटे चित्रों को बड़ा करके पर्दे पर प्रदर्शित किया जाता है । इसमें पारदर्शी शीशे की स्लाइड प्रयोग में लाई जाती हैं ।
  • एपिस्कोप – इस उपकरण द्वारा पुस्तक, पत्रिका आदि के चित्र, रेखाचित्र तथा ग्राफ आदि के सूक्ष्म रूप को पर्दे पर बड़ा करके दिखाया जाता हैं । इसमें स्लाइड बनाने की आवश्यकता नही पड़ती ।
  • एपिडायस्कोप – इस यंत्र द्वारा मैजिक लेण्टर्न तथा एपिस्कोप दोनों के काम किए जाते हैं ।
  • प्रतिमान (माडल) — जब प्रत्यक्ष वस्तु बहुत बड़ी हो, कि कक्षा में लाना असंभव हो, अथवा इतनी छोटी हो कि दिखाई ही न पड़े, तब माडल का प्रयोग किया जाता है । इंजन, हवाई जहाज, छोटे जीव जन्तु, जीवाणु, इलैक्ट्रोनिक सामान, मानव ह्रदय आदि का अध्ययन माडल के सहयोग से किया जाता हैं ।

Pedagogy / शिक्षा शास्त्र कक्षा सारांश -2

Pedagogy class -2
Teaching methods/formulas
Essentials for best teaching method-
this is the name of all teaching methods

  1. Known to unknown:- whatever we know is the best way to understand an unknown things.
    {link the concepts from previous knowledge}
  2. from easy to complex:- if you know something , it is easy to understand but if you are unknown to something then it is complex for you.
    It depends on place time and situation. It vary person to person.
  3. macro to micro:- macro means large and micro means small.
    Micro is the conclusion/ perfection
    Macro is the deep study or huge knowledge
    Macro is necessary for micro teaching
    4.direct to indirect/ concrete to abstract:- [ pratyaksh – apratyaksh / moort – amoort]
    Link existing things to new things
  4. complete to fraction:- [poorn se ansh]
    When we know complete knowledge about something then only we go for a part
  5. uncertain to certain/ unpredictable to predictable:- in beginning some concepts are uncertain to us but when we got to know about the concept it will be certain to us.
  6. analysis to synthesis:- anylse the all aspects and then conclude it. It is very effective to understand something.
  7. specific to general:- specific things make a general statements . general is a rule.
  8. psychology to logic:- when you aware about the pattern/ psychology then you think is logically.
  9. experience to concept:- experience makes the concept

By – Chahita acharya


● शिक्षण :-

◆ “ शिक्षण एक उद्देश्य निर्देशित किया है”….. स्मिथ
◆ ” शिक्षण पुनर्बलन की आकस्मिकताओं का क्रम है ” ….. स्कीनर
• शिक्षण पशुवत प्रवृत्तियों का परिशोधन है ।
• शिक्षण शिक्षा में उद्देश्य प्राप्ति का साधन है ।
• शिक्षण बालक को संवेग नियंत्रण करना सिखाता है ।
• शिक्षण का मुख्य उद्देश्य बालक में आत्म विश्वास उत्पन्न करना है ।
• शिक्षण बालक में वातावरण के साथ समायोजन की योग्यता विकसित करता है ।

● शिक्षण के सिद्धान्त :-

1.क्रियाशीलता या करके सीखने के सिद्धान्त

  1. अभिप्रेरणा का सिद्धान्त
  2. रूचि का सिद्धान्त
  3. निश्चित उद्देश्य का सिद्धान्त
  4. नियोजन का सिद्धान्त
  5. व्यक्तिगत भिन्नताओं का सिद्धान्त
  6. चयन का सिद्धान्त
  7. लोक तांत्रिक सिद्धान्त
  8. आवृति का सिद्धान्त
  9. मनोरंजन का सिद्धान्त
  10. विभाजन का सिद्धान्त

● शिक्षण की प्रविधियाँ :-

  1. प्रश्नोत्तर प्रविधि
  2. वर्णन प्रविधि
  3. व्याख्या या भाषण प्रविधि
  4. स्पष्टीकरण प्रविधि
  5. निरीक्षण या अवलोकन प्रविधि
  6. उदाहरण प्रविधि
  7. सामूहिक परिचर्चा प्रविधि
  8. प्रयोगार्थ प्रविधि
  9. वाद – विवाद प्रतिक्षि

● शिक्षण की विशेषताएँ :-

◆ शिक्षण किया के आधार पर शिक्षण तीन प्रकार के होते हैं । प्रस्तुतीकरण , प्रदर्शन और कार्य
◆ शिक्षण उद्देश्य के आधार पर शिक्षण तीन प्रकार के हैं । ज्ञनात्मक , भावात्मक , क्रियात्मक
◆ शिक्षण स्वरूप की दृष्टि से शिक्षण दो प्रकार के हैं । वर्णात्मक शिक्षण , उपचारात्मक शिक्षण
◆ शिक्षण को प्रभावित करने वाले दो प्रमुख कारक हैं । आनुवांशिकता और वातावरण

प्रमुख शिक्षण सूत्र :-

  1. सरल से कठिन की ओर
  2. ज्ञात से अज्ञात की ओर
  3. स्थूल से सूक्ष्म की ओर
  4. पूर्ण से अंश की ओर
  5. अनिश्चित से निश्चित की ओर
  6. प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष की ओर
  7. विशिष्ट से सामान्य की ओर
  8. संश्लेषण से विश्लेषण की ओर
  9. अनुभव से तर्क की ओर
  10. मूर्त से अमूर्त की ओर
  11. आगमन से निगमन की ओर
  12. प्रयोग से विवेक की ओर
  13. मनोवैज्ञानिकता से तर्कात्मक क्रम की ओर

🇧 🇾- ᴊᵃʸ ᴘʳᵃᵏᵃˢʰ ᴍᵃᵘʳʸᵃ


“शिक्षण सूत्र”➖इनका प्रयोग बच्चे को बेहतर रूप से सिखाने के लिए किया जाता है।

▪️ज्ञात से अज्ञात की ओर- जो चीजे हमे पहले से पता होती है या ज्ञात होती है उन ज्ञात चीजों की मदद से अज्ञात चीजों को या जो हम नहीं जानते है उन्हें जानना हमारे लिए बहुत आसान हो जाता है।

  • जब भी हम किसी विषय या वस्तु के बारे में बेहतर रूप से बताना चाहते है तो वह विषय या वस्तु उस व्यक्ति से जुड़ी हुई हो,उसकी उस विषय में रुचि हो, उसे कुछ पूर्व ज्ञान हो तब ही आप उसे आसान, प्रभावी और बेहतर और पूर्ण रूप से समझा पाएंगे।

▪️ सरल से जटिल की ओर➖
*दुनिया में किसी भी व्यक्ति स्थान, समय और परिस्थिति के अनुसार ही सरल और जटिल की परिभाषा अलग अलग प्रकार से होती है।
*जब हम चीजों के बारे में जानते है तो वह हमे काफी सरल लगने लगती है और जब हम इन्हीं सरल चीजो के द्वारा जटिल चीजों को जानने का प्रयास करते है तो फिर हमे यह चीजे भी काफी आसान लगने लगती है।
जैसे यदि हम गणित में छोटी छोटी गणना जैसे जोड़, गुणा, भाग,घटाव के बारे में जानते है तो हमे गणित की जटिल प्रक्रिया को समझना आसान हो जाता है।

▪️ स्थूल से सूक्ष्म की ओर➖

  • जब हम किसी चीज के बारे में बड़े रूप में, बेहतर रूप से , स्थूल रूप से जानते है तो उसे संक्षिप्त या सारांश के रूप में या छोटे रूप में बताना काफी आसान हो जाता है।
    *जैसे यदि हम किसी को बताए कि हमारी क्लासेस आज हुई थी,कल हुई थी, परसो हुई थी,आगे भी होगी…तो यह बड़े रूप से जानना हो जाएगा लेकिन इसी बात को हम बोले की हमारी क्लासेस रोज होती है तो यह छोटे रूप में या सूक्ष्म रूप में बताना हो जाता है ।सूक्ष्म रूप से बताने में चीजे आसानी से ओर बेहतर तरीके से समझ आ जाती हैं।
    *जैसे यदि हम बताए कि सभी अभाज्य संख्याएं एक से या खुद से ही विभाजित होती है तो यह सूक्ष्म रूप से बताना होगा लेकिन जब हम यह बोले कि 3 एक अभाजय है और वह 3,1,11,17,19 21….से विभाजित होती है तो यह स्थूल रूप से बताना हो जाता है।

▪️प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष/मूर्त सेअमूर्त➖
जो चीजे हमारे सामने है या प्रत्यक्ष रूप से या मूर्त रूप में होती है उन्हीं के द्वारा जब हम उन चीज़ों के बारे में बताते है जो हमारे सामने नहीं है,अमूर्त है या अप्रत्यक्ष है ,तब वहां बताना काफी आसान हो जाता है।

▪️पूर्ण से अंश की ओर➖
इसमें बच्चे को संपूर्ण ज्ञान से एक अंश की ओर के जय जाता है।
जब हम किसी विषय या वस्तु के बारे में समस्त जानकारी या ज्ञान को जानते है तब ही हम उस विषय के बारे में उसका बेहतर और आसान रूप से अंश बता पाएंगे।विषय के overview से किसी particular अंश को बेहतर तरीके से define किया जा सकता है।

▪️
अनिश्चित से निश्चित की ओर➖जो चीजे हमारे लिए निश्चित नहीं है या अनिश्चित है उन्हीं की द्वारा हम निश्चित चीजों के बारे में बेहतर जान पाते है।

  • जब हमे चीजे पता नहीं होती है या हमारे लिए अनिश्चित होती है लेकिन जब उसे बता दिया जाता है तब वह चीजे हमारे लिए निश्चित हो जाती है।ओर उन्हें समझना काफी आसान और बेहतर हो जाता है।

▪️ विश्लेषण से संश्लेषण की ओर➖किसी भी विषय या वस्तु के बारे में अलग अलग रूप से या टुकड़ों में या छोटे छोटे रूप में या उसका विखंडन करके बताया जाता है तो यह विश्लेषण कहलाता है ओर हम इसी विश्लेषण के द्वारा ही प्राप्त ज्ञान को जब एक सार कर एक रूप से निर्मित कर देते है तब यह संश्लेषण कहलाता है।

▪️ विशिष्ठ से सामान्य की ओर➖
जब किसी विशिष्ठ परिस्थिति में सीखा हुआ ज्ञान हमारे पास होता है तो उसे हम सामान्य रूप से बता पाते है।
जैसे यदि हमारे पास यह विशिष्ठ ज्ञान है कि हमारे यहां पर 1 घंटे के लिए बिजली आज गई थी,कल भी गई थी,परसो भी गई थी ,आगे दो दिन भी जाएगी ,या आगे भी जाती रहेगी यह सब बताने कि बजाय यह बता दिया जाए कि प्रतिदिन हमारे यहां पर बिजली एक घंटा जाती है तो यह सामान्य रूप में बताना हो जाता है। ज्ञान को विशिष्ठ से सामान्य रूप में बताने पर वह ज्ञान सरल ओर बेहतर तरीके से समझने योग्य हो जाता है।

▪️ मनो वैज्ञानिक से तार्किकता की ओर➖जब हमारे दिमाग में या हमारे मन में कोई बात या ज्ञान होता है और जब हम इसी ज्ञान पर तर्क लगाते है तो समझना काफी आसान हो जाता है।

  • जब हम अपने मन के ज्ञान का प्रयोग ,जिसे हमने देखा है उसी ज्ञान का प्रयोग ,जिसे हमने नहीं देखा है उस पर तर्क लगाने लगते है।

▪️ अनुभव से युक्ति की ओर➖
हमारे पास पूर्व से कुछ प्राप्त अनुभव होते है और इन्हीं अनुभव का प्रयोग हम युक्ति या concept को बेहतर तरीके से समझने में प्रयोग करने लगते है।
वैशाली मिश्रा..


शिक्षण सूत्र :- (1) ज्ञात से अज्ञात की ओर :- यह पूर्व ज्ञान पर आधारित है इसमें बच्चे को उस तरीके से सिखाया जाता है जो उनके पूर्व ज्ञान पर आधारित होता है.. (2) सरल से जटिल की ओर :- इसमें किसी विशेष व्यक्ति स्थान समय या समस्या के अनुसार बात की जाती है जो बच्चे के पूर्व ज्ञान पर आधारित होती है… (3) स्थूल से सूक्ष्म की ओर :- स्थूल (बडा़) सुक्ष्म (छोटा) इसमें उदाहरणों के अनुसार किसी विशेष समस्या को पेश किया जाता है और उसके अनुसार निष्कर्ष पर पहुँचा जाता है जो कि बहुत ही सूक्ष्म होते हैं… (4) प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष की ओर :- इसमें प्रत्यक्ष उदाहरण के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप को प्रस्तुत किया जाता है और उसके अनुसार परिणाम को प्राप्त किया जाता है… (5) पूर्ण से अश की ओर :- अर्थात किसी विशेष समस्या को पहचान कर उसके भाव को समझकर परिणाम तक पहुँचना ही पूर्ण से अश की ओर होता है… (6) अनिश्चित से निश्चित की ओर :- पहले किसी अनिश्चित वस्तु के बारे में जानना समझना और फिर निष्कर्ष निकालना ही अनिश्चित से निश्चित की ओर जाना है… (7) विश्लेषण से सशलेषण की ओर :- अनेक भागो में तोडकर समझना और एक निष्कर्ष निकालना…. (8) विशिष्ट से सामान्य की ओर :- कोई भी चीज़ एक विशेष स्थिति में सही मानी जाती है उस Situation के अनुसार सामान्यीकृत करना ही विशिष्ट से सामान्य की ओर जाना है.. (8) मनोविज्ञान से तार्किकता की ओर :- किसी विशेष समस्या को मानसिक रूप से समझकर उसका तर्क लगाना ही मनोविज्ञान से तार्किकता की ओर जाना है.. (10) अनुभूत से युक्ति युक्त :- अपने ज्ञान के अनुसार किसी Concept को विकसित करने की प्रक्रिया ही अनुभूति से युक्तियुक्त की ओर चलना है…….. 🌺🌺🌺

Rashmi savle🌸🌸🌸🌸


✍️27/08/20,✍️🌸 Topic – Teaching models/formulas 🌸( 1) ज्ञात से अज्ञात की ओर – जब हम किसी पॉइंट के बारे मेँ अपने पूर्व ज्ञान के आधार पर किसी अज्ञात chiizo के बारे मेँ जानते है। 2- सरल से जटिल – किसी भी सरल यानी आसान बातो को जब हम समझ जाते है तो जटिल यानी मुश्किल chhizze/point/बातें आसान ही जाती है।जैसे:- छोटे – छोटे स्टेप्स (सरल ) से लक्ष्य (जटिल ) को पूरा करना।….. 3)स्थूल से सूक्ष्म :- किसी बड़ी baation की गहनता को जब हम समझ जाते है तो अंत मेँ उसका सार के रूप मे हम सूक्ष्म रूप से समझ सकते है। जैसे -किसी फ़िल्म का ट्रेलर देखकर उस मूवी का आईडिया लग जाना की मूवी कैसी hogi… 4) प्रतयक्ष से अप्रतयक्ष -इसमें चीजे मूर्त रूप से सामने रहती है ओर हम उसके बारे मे अमूर्त रूप से अध्ययन करते है। 5) पूर्ण से अंश की ओर – इसे हम स्थूल से सूक्ष्म रूप मे सम्बंधित करके समझ सकते है। 6)विश्लेषण से संष्लेशन – जब हम अननकेडेमी मे आये पढ़ने तो हमने बहुत सारे टीचर्स को देखा CDP के लिए विश्लेषण किया… फ़िर अंत मे हम 🥰दीपक सर के पास आये (संश्लेषन )….. 7)विशिष्ट से सामन्य – जैसे बिजली आज 5बजे गयी कल, परसो भी जाएगी यह विशिष्ट फ़िर हमने ये सामन्य रूल बना लिया बिजली रोज 5 बजे जाएगी अब। 8) मनोवैज्ञानिक से तार्किकता – किसी टॉपिक पर अपनी मन की विज्ञान / आत्मा से विचार करना फ़िर किसी अवधारणा तक अपनी राय बनाना। 9- अनुभव से युक्ति तक – अनुभव इंसान को उसे अपनेयुक्ति तक pauchane मे सहायक होता है। 10)- अनिश्चित से निश्चित की ओर – जब हम कोई कार्य करते है तो अनिश्चित होती है ( शुरुआत मे ) पर जब हम उसे कर लेते है तो निश्चिता आ जाती है। 🤟🌸 शिक्षन विधी ना सिर्फ हमारे किताब तक सिमित है बल्कि ये हमारे जीवन के हर छोटे बड़े पहलु मे शामिल है… ये हमें जीवन जीने को तरीके को / बच्चे को पढ़ाने (हम भावी शिक्षक को ) के तरीके को एक सुवयवस्थित रूप प्रदान करती है।🤟🌸💥…….

By -Akanksha kumari🤘🏻


शिक्षण विधियां :-

🌄एक सुव्यवस्थित शिक्षण अधिगम के लिए अपनाई जाने वाली अत्यंत आवश्यक एवं सुगम शिक्षण विधियां :-

  1. सरल से कठिन की ओर
  2. ज्ञात से अज्ञात की ओर
  3. स्थूल से सूक्ष्म की ओर
  4. पूर्ण से अंश की ओर
  5. अनिश्चित से निश्चित की ओर
  6. प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष की ओर
  7. संश्लेषण से विश्लेषण की ओर
  8. मूर्त से अमूर्त की ओर
  9. विशिष्ट से सामान्य की ओर
  10. मनोविज्ञान से तार्किकता की ओर
    11.अनुभूत से युक्तियुक्त की ओर

🌄इन शिक्षण – अधिगम विधियों का मुख्य उद्देश्य शिक्षार्थियों के अधिगम को बेहतर रूप में प्रेरित करना है,क्योंकि इसमें शिक्षार्थियों की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका होती है और उनकी सक्रिय रूप भागीदारी निहित होती है।

🏝️जैसे कि, हम इस दुनिया में अपने आस – पास जो कुछ भी प्रत्यक्ष या रोजाना की जिंदगी में देखते या अनुभव करते हैं,ये सारे ज्ञात चीजें हैं।इसी के आधार पर हम अपने अनुभवों द्वारा अज्ञात चीजों के बारे में भी जानकारी प्राप्त कर पाने में सक्षम हो पाते हैं।

🏝️जैसे जब हम किसी विषय वस्तु के बारे में किसी को बताना चाहते हैं,हम उस चीज़ को उस व्यक्ति को बताने से पहले उसके रुचि और सहज क्षमता ( पूर्व ज्ञान) के बारे में जान लेना चाहिए।क्योंकि,जब व्यक्ति अपने पूर्व ज्ञान से संबंधित करके किसी कार्य को करता या सीखता है तभी एक अच्छी मस्तिष्क कि विकास होती है और बेहतर शिक्षण – अधिगम हो पाती है फिर वह अपनी लक्ष्यों को आसानी से प्राप्त कर पाते हैं।

🏝️शिक्षण इस बात पर भी निर्भर होती है कि हम कितना ज्ञान है और उसका उपयोग किस रूप में किया जा रहा है। जैसे कि बच्चे बहुत छोटे होते हैं तो उनमें तर्क करने या सोचने समझने की क्षमता बहुत कम होती है,धीरे – धीरे, जैसे – जैसे बच्चे बड़े होने लगते हैं तो उनके तर्क – वितर्क और शाब्दिक क्षमता बढ़ने लगती है। इन विधियों में ठीक इसी प्रकार की प्रविधि होती है।

🏝️जैसे कि हम बच्चों को किसी कार्य शिक्षण में अनेक प्रकार की उदाहरणों को प्रस्तुत कर उनमें समस्याओं का समाधान करने की सहज प्रवृति विकसित करते हैं,तथा बच्चे सक्रिय होकर उसे यथावत रूप आत्मसात करने और उसपर विश्लेषण करने में सक्षम हो जाते हैं।इस प्रकार की विधियों द्वारा शिक्षण प्रक्रिया और भी मनोरंजक हो जाती हैं।

🌎इन शिक्षण सूत्रों के द्वारा( प्रयोग कर)हम शिक्षण – अधिगम को मनोरंजक,रूचिपूर्ण और सुव्यवस्थित बनाना चाहिए, तभी बच्चे सक्रिय रूप भागीदारी लेते हुए शिक्षण – अधिगम को रूप से सुव्यवस्थित रूप से आत्मसात् कर पाएंगे।

Neha Kumari


शिक्षण सूत्र (विधि)—-
किसी भी विषय को सीखने के लिए जिस विधि का प्रयोग किया जाता है उसे शिक्षण विधि कहते है!…
शिक्षण विधि के कई प्रकार है~~
१) ज्ञात से अज्ञात की ओर== बच्चे को उसके पूर्वज्ञान की सहायता से अज्ञात ज्ञान तक ले जाना , अर्थात् इसमें बच्चे के पास कुछ पूर्वज्ञान होता है जिससे रिलेट करके बच्चा अज्ञात ज्ञान को समझता है, पूर्वज्ञान के द्वारा अज्ञात को जानने में आसानी होती हैं।
२) सरल से जटिल की ओर== बच्चो को सरल चीजों से रिलेट करके जटिल पर ले जाना अर्थात् जो बच्चे को पता है वह उसके लिए सरल होता है एवं जो बच्चे को नहीं पता है वह उसके लिए जटिल होता है।जैसे समय और परिस्थिति के अनुसार जो काम एक बच्चे के लिए जटिल है वहीं कार्य दूसरे के लिए सरल होगा ।
३) स्थूल से सुष्म की ओर== बच्चो को किसी बात को बड़े पैमाने पर एक्सप्लेन करके समझाकर एक लाइन में उसके सारांश को बताना । किसी टॉपिक पर बड़ा एक्स्पलैनशन करके फिर सुश्म निष्कर्ष तक पहुंचना।
४) प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष ==
जो बच्चे के सामने है उससे रिलेट करके जो सामने नहीं है उसके बारे में बताना, अर्थात् जो सामने है वह प्रत्यक्ष ( मूर्त) है तथा जो सामने नहीं है वह अप्रत्यक्ष (अमूर्त) है।
५) पूर्ण से अंश की ओर==
बच्चे को किसी विषय पर चर्चा करने से पहले उसके पूर्ण रूप को बताएंगे फिर उसके भागो के बारे में चर्चा करेंगे ,जैसे – बच्चे को पहले पेड़ को बताएंगे फिर उसके भागो ( पत्ती, शाखा, जड़ इत्यादि) के बारे में बताएंगे।
६)अनिश्चित से निश्चित की ओर==
बच्चे को पहले किसी अनिश्चित वस्तु के बारे में बताना फिर एक निश्चित निष्कर्ष तक जाना ही अनिश्चित से निश्चित की ओर हैं।
७) विश्लेषण से संश्लेषण की ओर==
किसी विषय को अनेक भागो में तोड़कर समझना और फिर उन्हें जोड़कर एक निष्कर्ष निकालना ही विश्लेषण से संश्लेषण की ओर हैं।
८) विशिष्ट से सामान्य की ओर==
किसी विषय पर अलग अलग विशिष्ट स्तिथि में बाते मानी जाती है उस स्तिथि के अनुसार विशिष्ट बातो का एक सामान्य रूप या निष्कर्ष निकालना ।
९) मनोविज्ञान से तार्किकता की ओर==
जब हमारे मन में कोई बात होती है उस पर मानसिक रूप से तर्क करके निष्कर्ष निकालना।
९०) अनुभव से युक्ति युक्त की ओर==
हमारे पूर्व अनिभवो का प्रयोग करके हम एक नया कॉन्सेप्ट बना सकते है जो हमें कॉन्सेप्ट को समझने मे मदद करता हैं।

अनामिका राठौर


ःशिक्षण सुत्र 🌸🌸🌸🌸
ःज्ञात से अज्ञात ़
जो बच्चे कोज्ञात होता है उसी के माध्यम से जो ज्ञात नहीं है बच्चे को बताते है इससे बच्चे आसानी से समझ जाते हैं जैसे बच्चे के मन में चित्र बन जाता है आसानी से रिलेट कर पाते है

सरल से जटिल 🌸🌸🌸
बच्चे पहले कोई भी कार्य सरल तरीके से करते हैं बाद में जटिल जैसे -पहले बच्चे क ल म सीखते है बाद में पुरा वाक्य कलम सीखते है
स्थूल से सूक्ष्म 🌸🌸🌸🌸
बड़ा से छोटा
किसी चीज को पहले हम बड़ा करके बताते है बाद में सक्षिपत मतलब छोटा करके बताते है जैसे -कोई पुछेगा क्लास कब कब हैं तो आज है कल हैं परसो हैं ये बड़ा हो गया और उसी को बोलेगे क्लास प्रतिदिन होती हैं ये छोटा

प्रत्यक्ष से प्रमाण 🌸🌸🌸
इसे मुत् से अमुत् भी बोलते है
कोई चीज सामने होती हैं तो बच्चे को समझाने में आसानी होती हैं अप्रत्यक्ष रूप से बताने सामने नहीं होता है
पूण् से अश की 🌸🌸🌸
इसमें बच्चे को सपूण् ज्ञान से अश की ओर जाते हैं जब हम किसी विषय के बारे में जानते हैं तो हम आसानी से बता सकते हैं

अनिशचित से निशिचित 🌸🌸🌸
जब हम किसी काय् को अनिशचित तरीके से जानते हैं उसी को फिर हम निशचित तरीके से करते हैं

विशलेषण से संश्लेषण 🌸🌸🌸🌸
विश्लेषण में किसी चीज को डिटेल में बताते है और सशलेषण में छोटा करके
ःविशलेषण मतलब तोड़ना
ःसशलेषण मतलब जोड़ना

विशिष्ट से सामान्य 🌸🌸🌸🌸
जब हम कोई काय् विशिष्ट तरीके से जानते है उसे सामान्य रुप में बताते है जैसे उसे Drawing बहुत अच्छी आती हैं

मनोविज्ञान से ताकिक्ता 🌸🌸🌸🌸

बच्चे की उतम विघि हैं ः

जब हम अपने मन से सोचते हैं उसपे तक्र करते है समझना काफी आसान हो जाता है

अनुभव से युक्ति 🌸🌸🌸🌸
हमारे पास कुछ अनुभव होते है इसी अनुभव के आधार पर हम
Concept लगाते है और बेहतर तरीके से सीखते हैं

Neha Roy

आगमन विधि और निगमन विधि नोट्स

आगमन विधि ( Inductive Method) आरसतू :- यह विधि शिक्षण अधिगम की सबसे अच्छी विधि है because इस विधि में नये ज्ञान को खोजने का अवसर मिलता है जो अनुसंधान की राह प्रदान करता है इस विधि में चीजों को Attempt करने का अवसर मिलता है लोगों को उस ज्ञान की जरुरत होती है जिससे कुछ नया अविष्कार होता है…. आगमन विधि के key points :-

( 1 ) समस्या को खोजकर हम एक निकर्षण पर पहुचते हैं जिससे आत्मविश्वास में व्रद्धि होती है और यह विधि करके सीखने पर आधारित है…

( 2 ) परिस्थितियों Situation के अनुसार नियम बनाकर उसको implement किया जाता है जिससे रटने की प्रव्रति का अत होता है और अनुभव बढ़ जाता है…

( 3 ) समस्या आने पर हम उसको Explore करते हैं जिससे अनुसंधान किया जाता है और हम Solution तक पहुँच जाते हैं… आगमन विधि की विशेषताएं

Rashmi Savle

🔅आगमन और निगमन विधि🔅

🔆आगमन विधि➖शिक्षण अधिगम की सर्वोत्तम विधि है।यह नए ज्ञान को खोजने के अवसर प्रदान करती है एवं अनुसंधान मार्ग को भी प्रशस्त करती है।
जब हमे किसी चीज की जरूरत होती है या हमे किसी कार्य को पूरा करने में कोई समस्या आती है तो उस जरूरत को पूरा करने या समस्या का समाधान निकालने के लिए खोज करते है जिससे हमे कई सारे नवीन ज्ञान प्राप्त होते है।
* और जब भी हम नए ज्ञान को खोज लेते है या अनुसंधान कर लेते है तो एक निष्कर्ष पर पहुंच जाते है।जिससे हमारे अंदर आत्मविश्वास बढ़ता है,क्योंकि हम खुद से उस कार्य को करते है, उसमे परिस्थिति में शामिल होते है जिससे हमे रटना नहीं पड़ता है ।हमे अनुभव भी प्राप्त हो जाते है।
▪️आगमन विधि के गुण➖
1.नवीन ज्ञान को खोजने का प्रशिक्षण
2.नवीन ज्ञान को अर्जन करने का अवसर प्राप्त होता हैं।
3.मनो वैज्ञानिक विधि है।
4.बच्चो से सामान्य नियम निकलवाए जाते है जिससे उनमें रचनात्मकता, आत्मविश्वास गुणों का विकास होता है।
5.बालक उदाहरणों का विश्लेषण करते हुए सामान्य नियम स्वयं से निकाल लेते है।
6.इसमें सीखा हुआ ज्ञान स्थाई होता है,क्योंकि बच्चा खुद से करके दिखता है।
कार्यरत-
* उदाहरण से नियम की और
*विशिष्ठ से सामान्य की और ( विशिष्ट परिस्थिति से सामान्य की ओर)
* स्थूल से सूक्ष्म की ओर
*ज्ञात से अज्ञात की ओर
*मूर्त से अमूर्त की ओर

▪️ आगमन विधि के दोष➖
1. प्रत्येक विषय को पड़ाने या समझाने के लिए उपयुक्त हो यह संभव नहीं है।
2. आधुनिक समय की कक्षा पद्धति जिसमे हर व्यक्ति को तुरन्त ही कुछ न कुछ चाहिए ही होता है जो आगमन विधि का पूरी तरह से प्रयोग कर पाना संभव नहीं हो पाता है।
.(हर कोई अपने ज्ञान का तुरन्त प्राप्त करना चाहता है जिससे उनकी धैर्य क्षमता भी खत्म होती जाती है।)
3.सीखने में शक्ति व समय अधिक लगता है।
4.केवल सामान्य नियमो की खोज
5.यह विधि स्वयं में अपूर्ण है क्योंकि इसमें खोजे हुए सत्य की परख करने के लिए निगमन विधि की आवश्यकता होती है।
🔆निगमन विधि➖
(Put the value gate the result)
इसमें शिक्षक नियमो का उल्लेख करता है और उन नियमो के आधार पर छात्र सीखता है।
लेकिन छात्र इसमें खुद से कार्य को नहीं करता बल्कि शिक्षक द्वारा बताए गए नियम के आधार पर ही अपने कार्य को पूरा करता है और अपनी जरूरतों को या समस्याओं को पूरा करता है लेकिन उसका यह ज्ञान स्थाई नहीं हो पाता है तथा साथ ही साथ छात्र को अनुभव भी प्राप्त नहीं ही पाता है।
▪️ निगमन विधि के दोष➖
* निगमन विधि से शिक्षण कार्य तेजी से होता है।
*इसमें कम समय में अधिक ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
*उच्च कक्षा के छात्रों के लिए ज्यादा प्रभावी होती है।
* इसमें शिक्षक व छात्र दोनों को कम मेहनत करनी पड़ती है।
*इसमें रटना होता है इसलिए स्मरण शक्ति का विकास होता है।
▪️ निगमन विधि के दोष➖
* रटने को प्रोत्साहित या बढ़ावा देती है जो कि सही नहीं है।
* वैज्ञानिक विधि नहीं है।
* आत्मविश्वास का विकास नहीं होता है।
* नियमो पर आश्रित रहना पड़ता है।

Vaishali

☀️ आगमन विधि ☀️
शिक्षण अधिगम की सर्वोत्तम विधि हैं। सर्वोत्तम मतलब जिसमे सबसे ज्यादा समस्या, परेशानी आती है
जब भी हमे कोई समस्या आती हैं तो हम उसका हल खोजते है हल खोजने के लिए हमे नये ज्ञान का उपयोग करने का अवसर मिलता है और इससे हमारे अनुसंधान का मार्ग प्रशस्त होता है
अनुसंधान करने के पश्चात् हम निष्कर्ष पर पहुचते है
इसमे हमारा आत्मविश्वास बढ़ता हैं
इसमे हमे रटना नही पडता हैं क्योंकि हम स्वयं समस्या का हल अपने ज्ञान से अनुसंधान करके निष्कर्ष निकालते है।
इससे ज्ञान ज्यादा स्थाई होता है क्योंकि इसमे हम करते है और हमारे अनुभव इसमें शामिल होते है
यह मनोवैज्ञानिक विधि हैं कयोंकि हम इसमे स्वयं अनुसंधान करके निष्कर्ष निकालते है
प्राथमिक स्तर के अच्छी विधि है
इस विधि से हमारी नियम बनाने की क्षमता का विकसित होती है

इस विधि में हम
उदाहरण से नियम की ओर
विशिष्ट से सामान्य की ओर
स्थूल से सूक्ष्म की ओर
सरल से जटिल की ओर
ज्ञात से अज्ञात की ओर
मूर्त से अमूर्त की ओर चलते हैं

दोष
हर विषय, हर जगह पर पढाने के लिए उपयुक्त नही है।
सभी छात्र और शिक्षक योग्य नहीं हो पाते हैं क्योंकि आजकल सभी कम समय मे बहुत ज्यादा पाने की कोशिश होती है परंतु इसमे समय अधिक लगता है
और खर्च भी ज्यादा होता है

रवि कुशवाहा

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आगमन विधि -:

◆ आगमन विधि में सबसे पहले विषय वस्तु से सम्बन्धित उदाहरण दिये जाते हैं और उदाहरणों के आधार पर नियम स्थापित किये जाते हैं ।

◆ यह छात्र केन्द्रित विधि है । यह विधि मूर्त से अमूर्त की ओर , ज्ञात से अज्ञात की ओर , स्थूल से सूक्ष्म की ओर , सरल से कठिन की ओर सिद्धान्त पर कार्य करती है ।

◆ व्याकरण शिक्षण हेतु सर्वोत्तम विधि है । इसे व्याकरण शिक्षण की वैज्ञानिक विधि कहते हैं ।

निगमन विधि -:

◆ इसे सूत्र प्रणाली या संश्लेषण प्रणाली कहते हैं ।

◆ निगमन विधि में पहले नियमों का ज्ञान कराया जाता है फिर उदाहरण दिये जाते हैं ।

◆ उदाहरण के आधार पर समझाया जाता है । इस विधि को सिद्धान्त प्रणाली भी कहते हैं ।

◆ यह शिक्षक केन्द्रित विधि है । इस विधि का प्रयोग उच्च कक्षाओं में किया जाता है ।

◆ निगमन विधि आगमन विधि के ठीक विपरीत कार्य करती है ।
इस विधि का प्रयोग गणित और विज्ञान शिक्षण में किया जाता है l

Jay Prakash Maurya

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★आगमन विधि★
◆आगमन विधि एक मनोवैज्ञानिक विधि है, जो काफी सराहनीय है।यह विधि शिक्षन अधिगम की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विधि हैं।
#शिक्षको की भूमिका:-
●शिक्षक इस विधि द्वारा छोटे बच्चों को कई उदाहरण जैसे; निजी जीवन से जुड़े बातों को लेकर या उसके परिवार, विद्यालय तथा आस-पड़ोस में होने वाली सभी गतिविधियों से जोड़करउन्हें विषय को समझने में सक्षम होते हैं।
● इस प्रकार शिक्षको को करने से बच्चों में स्थायी ज्ञान की प्रवृत्ति होती हैं।
●बच्चों की मानशिक छमता के अनुरूप शिक्षक कार्य करते हैं, ताकि बच्चे आसानी से समझ सकें।
●इस विधि में शिक्षक और छात्र दोनों को सक्रिय रहने की आवश्यकता होती हैं, जिसके कारण ये प्रतिक्रिया सफल होती हैं।
#छात्र की भूमिका:-
●इस विधि द्वारा बच्चे किसी भी वस्तु के बारे में विस्तृत ज्ञान अर्जन प्राप्त कर सकते हैं,जिसमें बच्चे की ज्ञान के दायरा में वृद्धि होती रहती हैं।
●इस विधि मे बच्चे विभिन्न प्रकार के ज्ञान अर्जन करते हैं, जैसे;-
1)किसी भी वस्तु के बारे में जानने की इच्छा जागृत होती हैं।
2)नई चीज सीखने के लिए उत्साहित एवं प्रयास करते हैं।
3)खुद के अनुभवों से तरह-तरह की विधियां को अपनाते हैं।
4)जब बच्चों के सामने कोई कार्य करने में समस्या उत्पन्न होती हैं, तब वो उसे करने के लिए अपना सफल प्रयास जरूर करते हैं।
#इस विधि के गुण:-
1)खोज विधि
2)आत्म विश्वास
3)नियम निर्माण करना
4)स्थायी ज्ञान
5)नई ज्ञान का निर्माण
6)समस्या समाधान
7)निष्कर्ष तक पहुंचाना
8)लक्ष्य निर्धारण करना
9)आवस्यकता का होना
10)मानशिकता शक्ति में वृद्धि
11)विशिष्ट से सामान
12)उदाहरण से नियम
13)मूर्त से अमूर्त
14)स्थूल से सूक्ष्म
#इस विधि के दोष:-
●सभी जगहों पर लागू नहीं होना।
●अधिक समय का लगना।
●ज्यादा खर्च

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🌸आगमन विधि- 🌸
🌹आगमन विधि शिक्षण विधि की सबसे अच्छी विधि मानी जाती है ।🌹
🌼इस विधि में प्रत्यक्ष अनुभवों, उदाहरणों तथा प्रयोगों का अध्ययन कर नियम निकाले जाते है तथा ज्ञात तथ्यों के आधार पर उचित सूझ बुझ से निर्णय लिया जाता है| इसमें शिक्षक छात्रों को अध्ययन
1. प्रत्यक्ष से प्रमाण की ओर,
2. स्थूल से सूक्ष्म की ओर, एवं
3. विशिष्ट से सामान्य की ओर
करवाते है|
4 . मूर्त से अमूर्त की ओर
5 .उदाहरण से नियम की ओर 🌼

🌻उदाहरण के लिए- जब हम बच्चों की संज्ञा पढ़ाते है तो पहले सारे बच्चे से 1,1उदाहरण पुछते है फिर नियम बना कर कहते हैं कि यही संज्ञा है ।।।🌻,,,,,

🌼 निगमन विधि🌼- यह एक आमनोविज्ञान विधि है ।

🌸इसमें छात्र स्वयं नियम नहीं बनाते, बल्कि शिक्षक उन्हें पहले बने नियमों, उदाहरणों, प्रयोगों ओर अनुभवों आदि से अवगत करवा देते है ओर उन्हें कुछ प्रश्नो के हल करके दिखा दिया जाता है|🌸
🌻1. नियम से उदाहरण की ओर
2. सामान्य से विशिष्ट की ओर,
3. सूक्ष्म से स्थूल की ओर.
4. प्रमाण से प्रत्यक्ष की ओर
5.अमूर्त से मूर्त की ओर 🌻
उदाहरण के लिए –
🌹( 1)जब हम बच्चों को संज्ञा के बारे मे पढ़ाना है तो पहले नियम बताते हैं उसके बाद उदाहरण प्रस्तुत करते हैं ।🌹
🌹2) जैसे हमे बिजली विभाग से मेसेज आया की आज शाम को 5 से 7 लाइट नहीं रहेगी तो हमारे मन मे ये नियम बन गया की बिजली नहीं तब हम अपने सारे काम पुरे कर लेते हैं जो भी बिजली से सम्बंधित है –
जैसे- मोबाइल चार्ज करना , मोटर से पानी भरना, हिटर में खाना बना लेना इत्यादि ।🌹
मालती साहु😊

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Inductive method
This is the best method of teaching
It is parallel to to give chances to explore new ideas and pave the way of research
[ It is based on the situation / need.
Explore things by yourself]
When you complete your research ,you conclude it, – it increases your self confidence.
Without problem there is no exploration and if there is no exploration then there is no research and if there is no research there is no solution.
You will be able tomake the rules.
You gain the permanent knowledge
It is scientific
This is good for children
Example- rule
Particular- general
Macro to micro
Lacks in inductive method:-
It is not suitable to teach all the things.
It is time consuming method
All teacher and students may not be able to fulfill because they don’t have patience, both must be capable.

Deductive method {nigman vidhi]}
Put the value get the result
It is just opposite of inductive method
It is time saving
Less time more knowledge
Upper class students easily understand by this method
It increases memory
Lack of self confidence

By- Chahita acharya

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✍🏻 शिक्षा जगत मेँ शिक्षा को रुचिकर और सरल बनाने के लिए भिन्न भिन्न शिक्षाबीदो और मनोवैज्ञानिको का अपनी – अपनी अहम् भूमिका है। उन्ही विधियो मेँ से अरस्तु द्वारा दी गयी विधी आगमन विधी और निगमन विधी है (inductive method or deductive method) ✨️आगमन विधी ✨ आगमन विधी, मेँ शिक्षा को सरल और वास्तविक जीवन से सम्बंधित करके चीजो को बताया जाता है। इस विधी के द्वारा एक समस्या दी जाती है और उस समस्या का हल तर्कपूर्ण ढंग से, अपनी सोच, छमता,बुद्धी के आधार पर किया जाता है। बच्चे के स्तर से देखा जाये तो इसमें बच्चा एक खोजकर्ता और अनुशन्धानकर्ता के रूप मेँ कार्य करता है। (जो हमारे देश की रीड की हड्डी है ) इस विधी मेँ हम : उदहारण से नियम स्थूल से सूक्ष्म विशिष्ट से सामान्य ज्ञात से अज्ञात मूर्त से अमूर्त की ओर जाते है।
गुण (आगमन विधी ):- 1) यह विधी करके सिखने पर आधरित है जिससे स्थायी ज्ञान मेँ वृद्धि होती है। 2) इस विधी मेँ बच्चा खुद के अनुसार अन्वेषन करता है जिससे वैयागनिक गुण का विकाश होता है। 3) यह विधी अधिक रूचि पूर्ण होती है। 4) इसमें आत्मविश्वास की भावना का विकास बच्चों के अंदर होता है। 5)रटंतप्रणाली से मुक्ति मिलती है।

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आगमन विधि /निगमन विघि :-

आगमन विधि अरस्तु ने दिया है

आगमन विधि के गुण 🌸🌸🌸🌸
यह एक सवोतम विधि हैं
आगमन विघि न्ई खोज का अवसर देता है जब समसया आती आती हैं तो समस्या समाधान के लिए न्ई न्ई चीजो के बारे में सोचते हैं
खुद से समस्या समाधान करते हैं तो आतम विशवास बढता हैं
आगमन विघि में स्थाई ज्ञान होता है यह रटंत प्रणाली से मुक्त है
ये विधि छोटे बच्चों के लिए हैं
यह मनोवैज्ञानिक विधि हैं
उदाहरण से नियम
विशिष्ट से सामान्य
स्थूल से सूक्ष्म

आगमन विधि के दोष 🌸🌸🌸🌸
प्रत्येक विषय को पढाने या समझाने के लिए उपयुक्त विधि नही है
इस विधि में समय अघिक लगती हैं

निगमन विधि 🌸🌸🌸🌸
निगमन विधि में शिक्षक पहले बच्चो को नियम बताते है फिर उदाहरण बताते है
इस विधि में बच्चे खुद से नहीं करते इसमें शिक्षक द्वारा बताए गए नियम के अनुसार काय करते है
आगमन विधि के उल्टा है निगमन विघि
निगमन विधि के गुण 🌸🌸🌸🌸
निगमन विघि में बच्चो को काय् जल्द करते है जिसमें समय कम लगता है
अधिक ज्ञान प्राप्त करते है
यह विधि बड़ी बच्चो के लिए ज्यादा प्रभावी है
इसमें स्मरण शक्ति का विकास होता है
निगमन विधि दोष 🌸🌸🌸🌸🌸
यह विधि रटंत प्रणाली को बढावा देती हैं
बच्चे खुद से कार्य नही करते है जिससे उनका आत्म विश्वास का विकास नहीं बढता हैं

Neha Roy

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आगमन विघि और निगमन विघि : यह विधि अरस्तु के द्वारा दिया गया है आगमन विधि आगमन विधि शिक्षण अधिगम की सबसे सर्वोत्तम विधि है। जिसमें बच्चे समस्या को खोजने के लिए जोर देते हैं। इस विधि के द्वारा ने ज्ञान को खोजने का अवसर मिलता है ,और अनुसंधान करने की क्षमता भी विकसित होती है इस विधि के द्वारा नियम बनाने की क्षमता भी विकसित होती है, और बच्चों में इस विधि के द्वारा आत्मविश्वास की भावना भी विकसित होता है इस विधि से प्राप्त ज्ञान स्थाई होता है यह विधि रटने पर जोर नही देता है। यह विधि छोटे बच्चों के लिए सबसे उपयुक्त विधि होती है : 🌸यह विधि उदाहरण से नियम की ओर चलती है, 🌸 विशिष्ट से सामान्य 🌸 स्थूल से सूछ्म की ओर 🌸सरल से जटिल की ओर 🌸 ज्ञात से अज्ञात की ओर🌸 मूर्त से अमूर्त की ओर चलते हैं🌸 आगमन विधि के दोष : हर चीज को इस विधि के द्वारा नही बताया जा सकता है यह विधि शिछक और छात्र के लिये उपयुक्त नही हो पाती है। समय भी बहुत लगता है। 🌸 निगमन विधि : ( अरस्तु) यह विधि नियम से उदाहरण की ओर होती है, 🌸 इस विधि मे छात्र को अधिक अवसर प्राप्त नहीं होता है क्योंकि इस विधि में बच्चों को पहले से ही टीचर नियम बता देते हैं 🌸 कम समय में अधिक ज्ञान 🌸 इस विधि में बच्चों में आत्मविश्वास की भी कमी होती है🌸 निगमन विधि बड़े बच्चों के लिए उपयुक्त होती 🌸 इसमें ज्ञान अस्थाई होता

🌸manisha gupta 🌸🌸

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आगमन विधि……
यह विधि को अरस्तू ने दिया है1
1) यह शिक्षण अधिगम की सवोॅतम विधि है1
2) यह मनोवैज्ञानिक विधि है 1✍
आगमन विधि मे बच्चों को उदाहरण देकर पहले बताया जाता है इसमें बच्चों को नए ज्ञान को खोजने का अवसर मिलता है✍
3) नए ज्ञान की अनुसंधान के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है समस्या का होना..
Kyuki समस्या होगी तभी बच्चे उस समस्या को दूर करने का प्रयास करेंगे व नए अनुभव प्राप्त करेंगे इस प्रकार बच्चे खुद से करके सिखते है✍
4) इस विधि में ज्ञान का अवसर मिलता है व ज्ञान स्थायी हो जाता है✍
5) इस विधि में रटना मना है✍
6) उदाहरण से नियम की ओर ✍
7) विशिष्ट से सामान्य की ओर✍
8) स्थूल से सुक्ष्म की ओर✍
9) प्रत्यक्ष से प्रमाण की ओर✍
10) मूर्त से अमूर्त की ओर✍

आगमन विधि के कमी/ दोष=

1) इसमें समय अधिक लगता है✍
2यह विधि हर चीज को पढाने के लिए उपयुक्त नहीं है✍……………..

varsha sharma……