pedagogy / शिक्षा शास्त्र कक्षा सारांश -1

“शिक्षण अधिगम की मूल प्रक्रियाए”
(Basic process of teaching and learning)➖

🔅बिना किसी प्रक्रिया के हम कार्य को नहीं सीख सकते हैं।
यदि शिक्षक अपने शिक्षण कार्य को पूरा करते हुए बच्चो को सीखा रहा है और बच्चे उसे पूरी तरह से नहीं सीख पाया है तो शिक्षण का उद्देश्य कभी भी पूरा नहीं होगा।
सभी बच्चो में अधिगम ग्रहण करने की क्षमता या तरीका अलग अलग होता हैं।बच्चे जैसा भी सीखना चाहे उसे समझ आए वैसे ही शिक्षक द्वारा किसी भी तरह से सिखाया जाए।
जब भी शिक्षण अधिगम प्रक्रिया करवाई जाती है तो उसके द्वारा प्राप्त परिणाम प्रभावी भी होना चाहिए मुख्य रूप से वास्तवीक रूप से teaching कराई जानी चाहिए।
🔅 शिक्षण अधिगम को प्रभावित करने वाले कई मुख्य कारक है जो निम्न प्रकार है➖

1 अनुवांशिकता- यह बहुत ही महत्पूर्ण कारक है क्योंकि बच्चे में कोई चीज आनुवंशिक है तो उसे शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में अनदेखा नहीं किया जा सकता है।

2.पर्यावरण – इसका भी महत्वपूर्ण योगदान है । जहां पर बच्चा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से चारो ओर से घिरा या जुड़ा हुआ है वहीं पर्यावरण कहलाता है ।हमारा पर्यावरण में जो भी चीजे है वो वर्चुअली रूप से हमे किसी न किसी रूप में हमारे कार्य को या हमारी परिस्थिति को सकारात्मक या नकारात्मक रूप से अवश्य ही प्रभावित करती है।

  1. व्यक्तित्व- *यह मुख्य रूप से अनुवांशिकता ओर पर्यावरण पर ही निर्भर करता है इसमें व्यक्तित्व,सोच, चिंतन एवं समझ सब आ जाता हैं,ओर इन्हे पर्यावरण प्रभावित करते है जिससे हमारे व्यक्तित्व में निखार आता है और हमारा व्यक्तित्व ही शिक्षण प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
  • व्यक्तित्व में अनुवांशिकता की भी महत्व पूर्ण भूमिका होती हैं। जैसे यदि हम शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में शामिल लेकिन जब हम मानसिक रूप से किसी और के बारे में सोच रहे हैं तो आपका अधिगम कभी भी पूरा नहीं होगा या आप जी सीखना चाहते है वो कभी भी नहीं सीख पाएंगे।
  1. अनुभव- जब भी शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के समय कोई परेशानी या समस्या आती है तो उस समस्या का समाधान हम अपने अनुभव से निकाल लेते है। अनुभव के द्वारा ही हम प्रक्रिया के अच्छे बुरे को समझ सकते है।
  2. प्रशिक्षण- यदि प्रशिक्षण नहीं होगा तो शिक्षण अधिगम भी प्रभावित होगा ।इसलिए शिक्षक को बच्चे की समझ के अनुसार ,नवीन भिभिन प्रयोग या कई तरह के प्रशिक्षण का प्रयोग करके शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को प्रभावी ओर बेहतर बना सकते हैं।
    जैसे –
    ▪️वुडवर्थ के अनुसार – व्यक्ति को नवीन ज्ञान या जो नवीन प्रतिक्रिया है उनको प्राप्त करने की प्रक्रिया ही अधिगम कहलाता है।
    ▪️ क्रो एंड क्रो के अनुसार – अधिगम आदत , अभिवृद्धि और ज्ञान का ही अर्जन है।
    ( यदि हमारे पास कोई ज्ञान है तो हम उस ज्ञान को अपनी अभिवृद्धि या अपनी सोच में रखते है या उस ज्ञान को स्वीकारते है और उस ज्ञान को अपनी आदतों में भी अपनाने लगते है तो वहीं अधिगम अर्जन कहलाता है।
    यदि हम अपने ज्ञान को जानते है और अपनी सोच में भी रखते है लेकिन अपनी आदत में नहीं अपनाते है तो सही अधिगम अर्जन कभी पूरा नहीं होगा।
    सीखना ज्ञानात्मक,प्रभाव आत्मक ओर क्रियात्मक तीनो आधार पर कार्य करता है।
    जिस का हमे ज्ञान होता है वो हमारे सीखने को प्रभावित करता है और उस सीखे हुए ज्ञान को हम अपने कार्य में लेने लगते है।

🔅 व्यक्ति का अधिगम गर्भ से ही शुरू हो जाता हैं ओर बच्चा जैसे ही जन्म ले लेता है तो उसको अधिगम वातावरण के साथ समायोजन करने पर प्राप्त हो जाता हैं।
🔅सीखना➖

▪️सीखना एक प्रक्रिया है जिसके कई चरण से होकर गुजरती है ।
▪️सीखना एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है जिसमे हम कहीं पर भी किसी न किसी रूप में कुछ न कुछ मूर्त या अमूर्त रूप से सीखते रहते है।
(जब हम किसी विषय पर सोचते गई है तो हम केवल उस विषय के बारे में विश्लेषण कर रहे होते है।)
▪️ स्थानांतरण- यह एक स्वभाविक प्रक्रिया है जिसमे हम ज्ञान को किसी न किसी माध्यम से या साधन से या पर्यावरण से प्राप्त ज्ञान को अपने अंदर स्थानांतरित करते है तो सीखते है।
▪️सीखना एक रचनातमकता गैया रचनात्मक प्रक्रिया है।जिसमे हम जब चीजों को सीखते या अपने अंदर समाहित करते है तो उसके लिए कई तरीको गा कई रचनात्मकता का प्रयोग करते है या किसी भी समस्या जा समाधान ढूंढने में भी रचनात्मकता का प्रयोग करते है।
▪️सीखना एक प्रयोजन या एक कारण है।यदि हमारे पास कोई कारण है या कोई प्रयोजन या कोई उद्देश्य है तो हम उसे पूरा करने के लिए हम सीखते है।
▪️सीखना एक अनुकूलन है जब हम सीखते है तो उसे अपनी सोच ,व्यवहार, तौर तरीकों में अनुकूलित या समायोजित करने लगते है और यही सीखना कहलाता है।
▪️सीखना एक विकास है यदि हम किसी कार्य को सीख रहे है तो हमारा विकास हो रहा हैं या हमारे अंदर उस कार्य के गुण विकसित हो रहे है।
▪️सीखना एक परिवर्तन है। जब हम किसी कार्य को सीख रहे है तो हमारे अंदर कोई न कोई परिवर्तन अवश्य होता है।
▪️सीखना सार्वभौमिक है।यदि किसी भी कार्य एक बार सही रूप से सीख लिया जाता है तो वह सार्व भौमिक हो जाता है।सभी जगह ,किसी भी परिस्थिति में अपने सीखे हुए ज्ञान का प्रयोग कर पाते है।


शिक्षण अधिगम की मूल प्रक्रियाएं = इस प्रक्रिया के माध्यम से हम student के development के लिए वो हर चीज जो समझने या समझाने मे सहायक है वही शिक्षण अधिगम की मूल प्रक्रिया हैI

अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक

(1) अनु्वाशिकता(Heredity):- उम्र के साथ साथ सबका विकास होता है लेकिन सबका समान विकास नहीं होता है इसमें मुख्य भूमिका अनुवाशिकता की होती है

(2) पर्यावरण(Environment ) जहाँ जहाँ हम अपना समय व्यतीत करते हैं वह हमारा environment है |यह प्रत्यक्ष  एवं अप्रत्यक्ष दोनों होता है जैसे अकैडमी मोबाइल फोन आदि.. (3) व्यक्तित्व (Personality) :- व्यक्तित्व हमारे अधिगम की मूल प्रक्रिया है जो कि पर्यावरण और Heridity से मिलती है हर व्यक्ति की personality अलग अलग होती है जो हमारे जीवन के हर part पर dipend करता है..

(4) अनुभव( Experience) :- Teaching learning हमारे अनुभव में important भूमिका का निरवाह करता है….

(5) प्रशिक्षण (Training) :- Teaching Learning में प्रशिक्षण की भी important भूमिका होती है because best training के हम सब कुछ कर सकते हैं अथवा बिना best training के हम कुछ नहीं कर सकते हैं….

(सीखना या Learning)

वुडवर्थ :- नवीन ज्ञान या नवीन प्रतिक्रिया को प्राप्त करने की प्रक्रिया ही अधिगम है…

क्रो अथवा क्रो :- अधिगम ज्ञान अभिव्रति तथा आदतों का अर्जन है…

अधिगम की विशेषताएं:-

1 सीखना एक process है ..

2 सीखना एक Continues निरतंर चलने वाली प्रक्रिया है..

(3) यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है..

(4) सीखना Transfer हो सकता है जो कि शून्य धनात्मक ऋणात्मक हो सकता है..

(5) सीखना ज्ञानात्मक प्रभावातमक क्रियात्मक होता है…

(6) सीखना रचनात्मक है…

(7) सीखना अपने आप में एक प्रयोजन है…

(8) सीखना (Adaptation) अनुकूलन है… सीखना(Development) विकास है…

(9) सीखना परिवर्तन हैं…


शिक्षण अधिगम की मूल प्रक्रियाऐ

अधिगम प्रक्रिया क्यो आवश्यक है
यदि कोई शिक्षक बच्चों को पढा रहा है तो वह देखता है बच्चो उसका पढाया हुआ कितना सीखा कैसे ग्रहण किया ,यदि बालको ने शिक्षक इनुपुट के आउटपुट दिया तो शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया पूर्ण होती है लेकिन आउटपुट इनपुट के अनुरुप नहीं हुआ तो शिक्षण अधिगम प्रक्रिया पूर्ण नही होती है

अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक

आनुवांशिकता – आनुवांशिकता बालक की अधिगम प्रक्रिया को सकारात्मक और नकारात्मक दोनो प्रकार से प्रभावित करती है। यह आवशयक नही है बालक के माता पिता पढने मे अच्छे है तो बालक पढने मे अच्छा होगा या बालक के माता पिता पढने मे अच्छे नहीं है तो बालक अच्छा नही होगा।

वातावरण – वातावरण बालक की अधिगम प्रक्रिया को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। यदि बालक अच्छे वातावरण मे होगा तो अधिगम प्रक्रिया अच्छी होगी या बुरे वातावरण मे होगा अधिगम प्रक्रिया खराब हो सकती है वर्तमान समय मे वर्चुअल वातावरण बालक की अधिगम प्रक्रिया को हर पल प्रभावित करती है

व्यक्तित्व – सभी की रुचि ,कार्य करने का तरीका अलग अलग होती हैं । इससे अधिगम प्रक्रिया प्रभावित होती है ।

अनुभव – अनुभव अधिगम प्रक्रिया को प्रभावित करता है।
यदि कोई व्यक्ति पहली बार किसी कार्य को करता है तो उसे पता नहीं रहता है कैसे करना है क्या करना है परन्तु यदि व्यक्ति ने पहले उस कार्य का अनुभव है तो उसे समस्या कम आती है

प्रशिक्षण – प्रशिक्षण अधिगम प्रक्रिया को सकारात्मक और नकारात्मक दोनो प्रकार से प्रभावित करता है। यदि आपका प्रशिक्षण अच्छे से हुआ है तो आप उस कार्य को अच्छे से कर सकते हैं यदि अच्छे नही हुआ है तो आपको बहुत सारी परेशानीयो का सामना करना पड़ता हैI

अधिगम प्रक्रिया गर्भावस्था से ही प्रारम्भ हो जाती है लेकिन जन्म लेने के बाद बालक उसको वातावरण से समायोजित कर लेता है

वुडवर्थ के अनुसार नवीन ज्ञान, नवीन प्रतिक्रिया प्राप्त करने की प्रक्रिया अधिगम है।

क्रो एण्ड क्रो के अनुसार अधिगम आदतो, ज्ञान और अभिवृत्ति का अर्जन है ।

सीखना एक प्रक्रिया है। अर्थात् सीखना एक चरणबद्ध प्रकिया हैं जैसे हम अन अकेडमी पर पढने के लिए पहले एप इनस्टाल फिर आईडी लगाते हैं फिर टीचर को देखते हैं कौनसै टीचर क्या पढाते है
सीखना निरन्तर चलता है। (यह हर समय, हर स्थान, हर परिस्थिति मे चलता रहता है)
सीखना स्थानान्तरित होता रहता है
सीखना ज्ञानात्मक, प्रभावात्मक और क्रियात्मक है (जैसे हमे पहले अन अकेडमी के बारे मे पता चला (ज्ञान हुआ) फिर उसका प्रभाव देखा और बाद मे उससे पढने लगे )

सीखना रचनात्मक हैं।
सीखना एक प्रायोजन /कारण /उद्देश्य है।
सीखना अनुकूलन है
सीखना विकास है
सीखना परिवर्तन है
सीखना सार्वभौमिक है


【अधिगम】

●अधिगम शब्द का शाब्दिक अर्थ सीखना है ।

◆ अधिगम की परिभाषा –

  1. ” सीखना व्यवहार में उत्तरोत्तर सामंजस्य की प्रक्रिया है” …..स्कीनर
    2.” अधिगम आदतों , ज्ञान और अभिवृत्तियों का अर्जन है” …… क्रोएण्ड क्रो”
    3.सीखना अनुभव के परिणाम स्वरूप प्रकट होता है”…क्रैन बैक
    4.” अभ्यास और अनुभूति से व्यवहार में होने वाला परिवर्तन अधिगम है “….. लेविस
    5.” नवीन ज्ञान और नवीन प्रक्रियाओं को प्राप्त करने की क्रिया को अधिगम कहते हैं ”…. वुडवर्थ
    6.” अनुभव और प्रशिक्षण के द्वारा व्यवहार में होने वाले परिवर्तन को अधिगम कहते हैं …. गेट्स
    7.” व्यवहार के कारण व्यवहार में होने वाले परिवर्तन को अधिगम कहते है” …..गिल्फोर्ड

【वंशानुकम】
वंशानुकम की परिभाषा –

  1. ” वंशानुकम व्यक्ति की जन्मजात विशेषताओं का पूर्ण योग है ” . .बी.एन.झाँ
    2.” माता – पिता की शारीरिक एवं मानसिक विशेषताओं का हस्तानान्तरण होना ही आनुवांशिकता है ” ….. जेम्स ड्रेवर
    3.” वंशानुकम माता पिता से संतान को प्राप्त होने वाले गुणों का नाम है ” ….. रूथ
  2. “ वंशनुक्रम में वे सभी बातें सम्मिलित हैं जिनसे व्यक्ति का जीवन आरम्भ हुआ है ” …. वुडवर्थ
    5.“ वंशानुक्रम कमबद्ध पीढ़ियों के बीच उत्पत्ति सम्बन्धी सुविधा जनक शब्द है ” …. थामसन

【वातावरण】
वातावरण की परिभाषा –

  1. ” पर्यावरण वह बाहरी शक्ति है जो हमें प्रभावित करती है ” ….. रॉस
    2.” पर्यावरण वह हर चीज है जो व्यक्ति के जीने के अलावा उसे प्रभावित करती है ” ….. एनास्टैसी
    3.” वातावरण में वे सभी तत्व आते हैं जिन्हे व्यक्ति को जीवन आरम्भ करने के लिए समय से प्रभावित किया है ” …. वुडवर्थ
    4.” व्यक्ति का वातावरण उन सभी उत्तेजनाओं का योग है जिसको वह जन्म से लेकर मृत्यु तक ग्रहण करता है ” …. बोरिंग

Complete Notes on शिक्षण प्रतिमान (Teaching Model)

शिक्षण प्रतिमान (Teaching Model)
शिक्षण प्रतिमान क्या है ? What is The Teaching Model?
शिक्षण प्रतिमान शिक्षण सिद्धांत का आदि रूप माने जाते हैं। शिक्षण प्रतिमान शिक्षण सिद्धांतों के प्रतिपादन हेतु परिकल्पनाओं का कार्य करते हैं। शिक्षण प्रतिमान के प्रयोग से शिक्षण प्रभावी और रुचिकर हो जाता है, क्योंकि इनका विकास अधिगम सिद्धांतों के आधार पर किया जाता है।

प्रत्येक शिक्षण प्रतिमान में इस प्रकार की परिस्थितियां उत्पन्न की जाती है जिनमें शिक्षक और छात्र में प्रभावी अंतः क्रिया हो सके तथा छात्रों के व्यवहारगत परिवर्तन द्वारा उद्देश्य को प्राप्त किया जा सके। शिक्षण प्रतिमान में शिक्षण के लक्ष्य, शिक्षण तथा अधिगम की विभिन्न क्रियाओं के पारस्परिक संबंध की व्याख्या की जाती है।


• शिक्षण प्रतिमान की विशेषताएं- Characteristics of Teaching Model

  1. प्रत्येक शिक्षण प्रतिमान किसी न किसी सत्यापित सिद्धांत पर आधारित होता है। अतः इनकी प्रकृति वैज्ञानिक होती है।
  2. प्रत्येक शिक्षण प्रतिमान में क्रमबद सोपान होते हैं जिन्हें हूबहू दोहराया जा सकता है।
  3. प्रत्येक शिक्षण प्रतिमान के स्पष्ट रूप से परिभाषित शिक्षण प्रभाव होते हैं।
  4. प्रत्येक शिक्षण प्रतिमान में शिक्षण और छात्रों के कार्य एवं उत्तरदायित्व को निर्धारित किया जाता है।
  5. शिक्षण प्रतिमान छात्र केंद्रित होते हैं।
  6. शिक्षण प्रतिमान के प्रयोग के लिए कुछ आवश्यक सहायक सामग्री की आवश्यकता होती है।
  7. शिक्षण प्रतिमान अध्यापक और छात्र के व्यवहारों से संबंधित प्रत्येक मूलभूत प्रश्नों का उत्तर देता है, जैसे अध्यापक को कैसे व्यवहार करना चाहिए ? उसके इस व्यवहार का छात्रों पर क्या प्रभाव पड़ेगा आदि।
  8. शिक्षण प्रतिमान छात्रों की व्यक्तिगत विभिन्नता के अनुसार निर्मित किए गए हैं।
  9. प्रत्येक शिक्षण प्रतिमान द्वारा विशिष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए विशेष प्रकार का वातावरण निर्मित किया जाता है और अध्यापक छात्र की अंतः क्रिया का निर्धारण किया जाता है।
  10. शिक्षण प्रतिमान शिक्षक की शिक्षण दक्षता में वृद्धि करता है।
  11. प्रत्येक शिक्षण प्रतिमान की विशिष्ट मूल्यांकन प्रणाली होती है।

• शिक्षण प्रतिमान के तत्व (Elements of teaching model)

  1. उद्देश्य
  2. संरचना
  3. सामाजिक प्रणाली
  4. सिद्धांत जांच
  5. सहायक तंत्र

• शिक्षण प्रतिमानों का वर्गीकरण- Classification of Teaching Model

  1. दार्शनिक शिक्षण प्रतिमान (Philosophical teaching model)
    शिक्षण की प्रकृति एवं विशेषताओं के आधार पर इजराइल सेफलर ने दार्शनिक शिक्षण प्रतिमान के अंतर्गत तीन प्रतिमान का वर्णन किया है। उनकी धारणा है कि शिक्षण में ज्ञानात्मक, मनोवैज्ञानिक तथा सार्वभौमिक तत्व शामिल होते हैं।
    १. प्रभाव प्रतिमान (impression model)
    २. सूझ प्रतिमान (insight model)
    ३. नियम प्रतिमान (rule model)
  2. मनोवैज्ञानिक शिक्षण प्रतिमान (Psychological teaching model)
    जॉन. पी. डिसिको (John. P. Dececco) ने चार मनोवैज्ञानिक शिक्षण प्रतिमान दिए।
    १. बुनियादी शिक्षण प्रतिमान
    २. अंत: क्रिया शिक्षण प्रतिमान
    ३. कंप्यूटर आधारित शिक्षण प्रतिमान
    ४. विद्यालय अधिगम शिक्षण प्रतिमान
  3. अध्यापक शिक्षा शिक्षण प्रतिमान (Teacher education teaching model)
    ई. ई. हेडन ने 4 अध्यापक शिक्षा शिक्षण प्रतिमान और की चर्चा की जो शिक्षक शिक्षा की समस्याओं का समाधान करने में सहायक होते हैं।
    १. टाबा शिक्षण प्रतिमान
    २. टर्नर का शिक्षण प्रतिमान
    ३. शिक्षक अभिविन्यास शिक्षण प्रतिमान
    ४. फॉक्स लिपिट शिक्षण प्रतिमान
  1. आधुनिक शिक्षण प्रतिमान (Modern teaching model)
    शिक्षण प्रतिमान द्वारा प्राप्त किए जाने वाले शिक्षण उद्देश्यों को ध्यान में रखकर ज्वाइस और वेल ने अपनी पुस्तक मॉडल ऑफ टीचिंग (Model of Teaching) में शिक्षण प्रतिमानों को आधुनिक शिक्षण प्रतिमान शीर्षक के अंतर्गत 4 समूह में वर्गीकृत किया है। प्रत्येक समूह में उद्देश्यों की समानता के आधार पर प्रतिमानों को स्थान दिया गया है।
  1. सूचना प्रक्रम प्रतिमान (Information Processing Model)
    व्यक्ति अपने वातावरण में विभिन्न स्त्रोतों से प्राप्त सूचनाएं ग्रहण करके अपने मस्तिष्क में संगठित करता है, फिर इन सूचनाओं का मस्तिष्क में विश्लेषण होता है और विश्लेषण के समय जिन योग्यता की जरूरत होती है उन्हें संज्ञानात्मक प्रक्रिया कहते हैं। इन योग्यता के कारण ही बालक सूचनाओं से दूर जाकर अमूर्त और उपयोगी ज्ञान का सर्जन कर पाता है। यही प्रक्रिया सूचना प्रक्रम कहलाती है।
    इस समूह में आने वाले प्रतिमान निम्न प्रकार है –

१. संकल्पना प्राप्ति प्रतिमान (Concept Attainment)
प्रवर्तक – जे ब्रूनर
उद्देश्य – १. आगमन तर्क २. संकल्पना प्राप्ति ३. विश्लेषण क्षमता का विकास।
२. खोज प्रशिक्षण प्रतिमान (Inquiry Training Model)
प्रवर्तक – रिचर्ड सचमैन
उद्देश्य – १. खोज प्रक्रिया का प्रशिक्षण २. सिद्धांत निर्माण करने की क्षमता का विकास करना।
३. आगमन चिंतन प्रतिमान
प्रवर्तक – हिल्दा टाबा
उद्देश्य – १. आगमन तर्क एवं शैक्षिक तर्क का विकास करना।
४. वैज्ञानिक खोज प्रतिमान (Scientific Inquiry Model)
प्रवर्तक – जोसेफ जे स्कवाब
उद्देश्य – १. शोध पद्धतियों का शिक्षण २. सामाजिक समझ तथा सामाजिक समस्या के समाधान के लिए ३. समाज विज्ञान संबंधी विधियों के शिक्षण के लिए।
५. ज्ञानात्मक वृद्धि प्रतिमान
प्रवर्तक – जीन पियाजे, इरविंग सिंगेल
उदेश्य – १. सामान्य मानसिक विकास २. तार्किक चिंतन ३. सामाजिक एवं नैतिक विकास करना।
६. अग्रवर्ती संगठन प्रवर्तक (Advance Organization Model)
प्रवर्तक – डेविड जे. आसुबेल
उदेश्य – ज्ञान प्राप्त करना और संगठित करना तथा सूचना प्रक्रम की क्षमता विकसित करना।
७. स्मृति प्रतिमान
प्रवर्तक – हैरीलोरेन, जैरी लुकासी
उद्देश्य – स्मरण करने की क्षमता विकसित करना।

2. सामाजिक अंत: क्रिया प्रतिमान (Social Interaction Model)
सामाजिक अंतः क्रिया प्रतिमान के अंतर्गत विद्यार्थियों को दूसरे विद्यार्थियों से अंतः क्रिया करने का अवसर दिया जाता है जिससे उनमें सामाजिक कौशलों का विकास होता है। ये सामाजिक कौशल व्यक्ति को सामाजिक सामंजस्य स्थापित करने में मदद करते हैं। इस समूह में निमल प्रतिमान आते हैं –

१. समूह अन्वेषण – प्रवर्तक – हरबर्ट थीलेन, जॉन डीवी।
२. प्रयोगशाला विधि – प्रवर्तक – नेशनल ट्रेनिंग लेबोरेटरी, बीथेल मैंन।
३. सामाजिक खोज (Social Inquiry) – प्रवर्तक – बाइरोन मैसिएलस, बेन्जामिन काक्स।
४. भूमिका निर्वाह – प्रवर्तक – फैनी शाफ्टेल, जार्ज शाफ्टेल।
५. सामाजिक संरचना – प्रवर्तक – सोरोन बूकोक, हैरोल्ड गेज कोव।
६. न्यायिक विवेकपूर्ण खोज – प्रवर्तक – डोनाल्ड ओलिवर, जेम्स पी. शेवर।

3. वैयक्तिक प्रतिमान (Personal Model)
वैयक्तिक प्रतिमानों का उद्देश्य व्यक्ति को उसकी क्षमताओं के अनुसार स्वयं का विकास करने में मदद करना है। इस प्रतिमान के द्वारा व्यक्ति के संवेगात्मक पक्ष पर अधिक बल दिया जाता है जिसके परिणाम स्वरुप व्यक्ति में अपने वातावरण के साथ उचित संबंध स्थापित करने की योग्यता विकसित की जा सकती है। इसके साथ साथ व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के साथ उचित संबंध स्थापित करने एवं सूचना प्रक्रम की प्रक्रिया में सक्षम हो जाता है। इस समूह में निम्न प्रतिमान आते हैं –
१. चेतना प्रशिक्षण – प्रवर्तक – फ्रिट्ज पेरिस, विलियम स्कूट्ज।
२. अनिर्देशात्मक शिक्षण – प्रवर्तक – कार्ल रोजर्स
३. साइनेटिक्स – प्रवर्तक – विलियम जॉर्डन
४. कक्षीय गोष्ठी – प्रवर्तक – विलियम ग्लैसर
५. संकल्पनात्मक पद्धति – प्रवर्तक – डेविड हंट

4. व्यवहारिक प्रतिमान (Behavioral Model)
इस समूह में आने वाले सभी प्रतिमानों का मुख्य उद्देश्य अधिगमकर्ता के दृश्य व्यवहारों में परिवर्तन लाना है न की अंतर्निहित मनोवैज्ञानिक संरचनाओं एवं व्यवहारों में। ये प्रतिमान उद्दीपनों का नियंत्रण करके पुनर्बलकों का प्रस्तुतीकरण करते हैं। पुनर्बलकों का प्रयोग करके वांछित व्यवहारों का प्रशिक्षण दिया जाता है, जिससे सामान्य व्यवहारों को विशिष्ट प्रकार के व्यवहारों में परिवर्तित किया जाता है। इस समूह में निम्न प्रतिमान आते हैं –
१. आकस्मिकता की व्यवस्था – प्रवर्तक – बी. एफ. स्किनर
२. स्वनियंत्रण – प्रवर्तक – बी. एफ. स्किनर
३. शिथिलता – प्रवर्तक – रीम एवं मास्टर्स वोल्प
४. दबाव न्यूनता – प्रवर्तक – रीम एवं मास्टर्स वोल्प
५. स्थापन प्रशिक्षण – प्रवर्तक – वोल्प, लेजारम सालटर
६. अविध्न प्रशिक्षण – प्रवर्तक – गायने, स्मिथ एवं स्मिथ

शिक्षण प्रतिमानों की उपयोगिता – Utility of Teaching Model)

1. शिक्षण प्रतिमान शिक्षण को प्रभावशाली बनाने में सहायक है।
2. शिक्षण प्रतिमान में इस प्रकार की शिक्षण नीतियों और युक्तियों का प्रयोग किया जाता है जो विद्यार्थी के व्यवहार में परिवर्तन करने में सहायक होती है।
3. शिक्षण प्रतिमान शिक्षण क्षेत्र का विशिष्टीकरण करते हैं।
4. शिक्षण प्रतिमान का प्रयोग अनुदेशन सामग्री का विकास करने के लिए किया जाता है।
5. शिक्षण प्रतिमान पाठ्यक्रम का निर्माण करने में सहायक होते हैं।
6. शिक्षण प्रतिमान का प्रयोग विद्यार्थियों के व्यवहार का मूल्यांकन करने के लिए किया जाता है।
7. शिक्षण प्रतिमान द्वारा अध्यापक छात्र क्रिया को प्रभावी बनाया जाता है।
8. शिक्षण प्रतिमान उन उद्दीपक स्थितियों का चयन करने में सहायक होते हैं जो विद्यार्थियों में अपेक्षित व्यवहारगत परिवर्तन उत्पन्न कर सके।

CDP One Liner Important Questions

CDP One Liner Important Questions

प्रश्‍न 1 – प्राचीनकाल में मनोविज्ञान का अ‍र्थ क्‍या था।
उत्‍तर – आत्‍मा का विज्ञान
प्रश्‍न 2 – मनोविज्ञान को आत्‍मा का विज्ञान किसने कहॉ ।
उत्‍तर – अरस्‍तू नें ।
प्रश्‍न 3 – 17 वी शताब्‍दी में मनोविज्ञान का क्‍या कहा जाता था। और यह किसने कहॉ ।
उत्‍तर – मन या मतिष्‍क का विज्ञान यह पोम्‍पोनॉजी ने कहॉ
प्रश्‍न 4 – 18 वी शताब्‍दी में मनोविज्ञान को क्‍या कहॉ जाता था।
उत्‍तर – चेतना का विज्ञान यह विलियम जेम्‍स या बुन्‍ट ने कहॉ ।
प्रश्‍न 5 – 20 वी शताब्‍दी में मनोविज्ञान को क्‍या कहा जाता है।
उत्‍तर – व्‍यवहार का विज्ञान यह वांटसन ने कहा ।
प्रश्‍न – 6 – शिक्षामनोविज्ञान कि पहली पुस्‍तक किसने लिखी और कब लिखी ।
उत्‍तर – थार्नडायिक ने 1903 में ।
प्रश्‍न 7 – शिक्षा का अधिकार अधिनियम कब बना ।
उत्‍तर – 2009 में ।
प्रश्‍न 8 – शिक्षा का अधिकार अधिनियम कब लागू हुआ।
उत्‍तर – 1 अप्रैल 2010 को
प्रश्‍न 9 – शिक्षा का निशुल्‍क एवं अनिवार्य शिक्षा अधिनियम के तहत कितने वर्ष के बच्‍चों को निशुल्‍क शिखा दी जाती है।
उत्‍तर – 6 से 14 वर्ष के बच्‍चों को ।
प्रश्‍न 10 – शिक्षा के मौलिक अधिकार संविधान के किस अनुच्‍छेद से लिये गये है।
उत्‍तर – अनुच्‍छेद 21 A से इसे 2002 में 86 वें संविधान संसोधन से जोडा गया।
प्रश्‍न 11 – C.B.S.E कब बना ।
उत्‍तर – 1929 में
प्रश्‍न 12 – एक कक्षा में शिक्षक और छात्र का अनुपात कितना होना चाहिए।
उत्‍तर – 1:40 होना चाहिए।
प्रश्‍न 13 – शिक्षकों के लिये रिफरैसर कोर्स का आयोजन कौन करता है।
उत्‍तर – C.B.S.E बोर्ड
प्रश्‍न 14 – शिक्षा मनोविज्ञान का उधेश्‍य क्‍या होता है।
उत्‍तर – बालकों का सर्वागींण विकास ।
प्रश्‍न 15 – अज्ञात से ज्ञात की ओर किस विधि में पढते है।
उत्‍तर – विषलेशण विधि में
प्रश्‍न 16 – ज्ञात से अज्ञात की ओर किस विधि में पढते है।
उत्‍तर – संशलेषण विधि में
प्रश्‍न 17 – सामान्‍य से विशिष्‍ट की ओर कौन सी विधि होती है।
उत्‍तर – आगमन विधि
प्रश्‍न 18 – विशिष्‍ट से सामान्‍य की ओर कौन सी विधि होती है।
उत्‍तर – निगमन विधि
प्रश्‍न 19 – वह कौन सी विधि होती है जिसमें पहले उदहारण बताया जाता है बाद मे नियम बताया जाता है।
उत्‍तर – आगमन विधि
प्रश्‍न 20 – वह कौन्‍ सी विधि है जिसमें पहले नियम बताया जाता है बाद में उदहारण बताया जाता है।
उत्‍तर – निगमन विधि
प्रश्‍न 21 – देखो सुनो और समझो किस विधि पर आ‍धारित है।
उत्‍तर – प्रदर्शन विधि
प्रश्‍न 22 – देखो , सुनो और बोलो किस विधि पर आधारित है।
उत्‍तर – प्रयोगात्‍मक विधि
प्रश्‍न 23 – किस विधि मे शिक्षण सूत्र का प्रयोग होता है।
उत्‍तर – आगमन विधि में
प्रश्‍न 24 – करके सीखने पर कौन सी विधि काम करती है।
उत्‍तर – प्रयोग शाला विधि
प्रश्‍न 25 – किण्‍डनगार्डन विधि ( L.K.G व U.K.G ) के जनक कौन है।
उत्‍तर – फ्रोबेल (यह विधि खेल एवं करके सीखने पर आधारित होती है।)
प्रश्‍न 26 – ग्रंथि के दोषपूर्ण कार्य के कारण व्‍यक्ति का लैंगिक विकास उचित रूप से नही हो पाता है।
उत्‍तर – पीनियल ग्रंथि
प्रश्‍न 27 – खेल पर आधारित विधि है।
उत्‍तर – किण्‍डर गार्टन विधि
प्रश्‍न 28 – अतिरिक्‍त शक्ति के सिद्धांत का संबंध है।
उत्‍तर – खेल से
प्रश्‍न 29 – “psychology from the standpoint of behaviourist” किसकी रचना है।
उत्‍तर – वाटसन की
प्रश्‍न 30 – बाल विकास को सर्वाधिक प्रभावित करने वाला कारक है-
उत्‍तर – खेलकूद का मैदान
प्रश्‍न 31 – प्रथम बाल निर्देशन केन्‍द्र किसके द्वारा खोला गया।
उत्‍तर – विलि‍यम हिली
प्रश्‍न 32 – किसकी क्रियाशीलता का संबंध मनुष्‍य की पाचन क्रिया से भी होता है।
उत्‍तर – अभिवृक्‍क ग्रंथि
प्रश्‍न 33 – संरचनात्‍मक अधिगम सिद्धांत जोर देता है।
उत्‍तर – विद्यार्थियों द्वारा नवीन ज्ञान की संरचना पर
प्रश्‍न 34 – शब्‍द ‘IDENTICAL ELEMENTS’ (समान तत्‍व) निम्‍न से गहन संबंध रखता है।
उत्‍तर – अधिगम स्‍थानान्तरण
प्रश्‍न 35 – छोटा शिशु खिलौनों तथा अन्‍य वस्‍तुओं को फेंककर उसके भागों को अलग करके किस भाव को दर्शाता है।
उत्‍तर – जिज्ञासा प्रवत्ति
प्रश्‍न 36 – स्‍फूर्ति अवस्‍था कहा जाता है-
उत्‍तर – बाल्‍यावस्‍था
प्रश्‍न 37 – प्रतिबिम्‍ब, अवधारणा, प्रतीक एवं संकेत, भाषा, शारीरिक क्रिया और मानसिक क्रिया अंतर्निहित है-
उत्‍तर – विचारात्‍मक प्रक्रिया
प्रश्‍न 38 – वातावरण वह बाहरी शक्ति है, जो हमें प्रभावित करती है। किसने कहा है।
उत्‍तर – रॉस
प्रश्‍न 39 – बुद्धि परीक्षण निर्माण के जन्‍मदाता है-
उत्‍तर – अल्‍फ्रेड विने
प्रश्‍न 40 – संवेदना ज्ञान की पहली सीढ़ी है यह कथन-
उत्‍तर – मानसिक विकास है।
प्रश्‍न 41 – ब्रिजेज के अनुसार उत्‍तेजना भाग है।
उत्‍तर – संवेगात्‍मक विकास का
प्रश्‍न 42 – तर्क, जिज्ञासा तथा निरीक्षण शक्ति का विकास होता है………..की आयु पर।
उत्‍तर – 11 वर्ष
प्रश्‍न 43 – इस अवस्‍था में बालकों में नयी खोज करने की और घूमने की प्रवृत्ति बहुत अधिक बढ़ जाती है।
उत्‍तर – उत्‍तर बाल्‍यावस्‍था
प्रश्‍न 44 – कौन सा वंशानुक्रम का निकाय नही है।
उत्‍तर – अभिप्रेरणा
प्रश्‍न 45 – ………….. की अवस्‍था तक बालक की दृष्टि एवं श्रवण इन्द्रियाँ पूर्ण विकसित हो चुकती है।
उत्‍तर – 8 अथवा 9 वर्ष
प्रश्‍न 46 – 20वी शताब्‍दी को बालक की शताब्‍दी कहा जाता है। यह कथन किसका है।
उत्‍तर – क्रो एण्‍ड क्रो
प्रश्‍न 47 – गामक विकास से हमारा तात्‍पर्य माँसपेशियों के विकास से तथा पैरों के उचित उपयोग –
उत्‍तर – शक्ति और गति
प्रश्‍न 48 – इस अवस्‍था को मिथ्‍या पक्‍वता का समय भी कहा जाता है।
उत्‍तर – बाल्‍यावस्‍था
प्रश्‍न 49 – मनुष्‍य जीवन का आरंभ मूलत: घटित होता है।
उत्‍तर – केवल एक कोष
प्रश्‍न 50 – शैशवावस्‍था की विशेषता नही है।
उत्‍तर – नैतिकता का होना
प्रश्‍न 51 – सीखने का वह सिद्धान्‍त जो पूर्ण रूप से और केवल अवलोकनीय व्‍यवहार पर आधारित है सीखने के ………… सिद्धान्‍त से सम्‍बद्ध है ।
उत्‍तर – व्‍यवहारवादी ।
प्रश्‍न 52 – सीमा हर पाठ को बहुत जल्‍दी सीख लेती है जबकि लीना उसे सीखने में ज्‍यादा समय लेती है। यह विकास के …………… सिद्धान्‍त को दर्शाता है।
उत्‍तर – वैयक्तिक भिन्‍नता ।
प्रश्‍न 53 – सीखने के सिद्धान्‍तों के सन्‍दर्भ में स्‍कैफोल्डिंग ……………. की ओर संकेत करता है।
उत्‍तर – सीखने मे वयस्‍कों द्वारा अस्‍थायी सहयोग ।
प्रश्‍न 54 – प्रयोजन विधि के प्रतिपादक है।
उत्‍तर – किलपैट्रिक ।
प्रश्‍न 55 – वर्तमान समय में शिक्षा का सबसे उपयुक्‍त उपागम कौन सा है।
उत्‍तर – सृजनवादी उपागम ।
प्रश्‍न 56 – वर्तमान समय मे शिक्षक की भूमिका है।
उत्‍तर – सुगम कर्ता की ।
प्रश्‍न 57 – एक शिक्षक को विद्यार्थियों की तत्‍परता स्‍तर को बढाना है ऐसा करने के लिए सबसे अच्‍छा तरीका कौन सा होगा ।
उत्‍तर – विशेष प्रकरण से सम्‍बन्धित सृजनात्‍मक क्रियाकलाप को कक्षा में संगठित करवाकर ।
प्रश्‍न 58 – यदि आपकी कक्षा मे कोई बच्‍चा अधिगम अक्षम हो तो आप क्‍या करेगे ।
उत्‍तर – उसकी अक्षमता किस प्रकार की है यह जानकर उसको सिखाने का प्रयास करेगे।
प्रश्‍न 59 – सीखने का वह सिद्धान्‍त जो केवल अवलोकित व्‍यवहार पर निर्भर है सीखने के ……………… सिद्धान्‍त से जुडा है।
उत्‍तर – व्‍यवहारात्‍मक ।
प्रश्‍न 60 – सृजनशीलता के पोषण हेतु एक अध्‍यापक को अपने विद्यार्थियों को रखना चाहिए।
उत्‍तर – कार्य केन्द्रित एवं लक्ष्‍य केन्द्रित ।
प्रश्‍न 61 – कौन सा मत अन्‍तर्दृष्टि द्वारा सीखने की व्‍याख्‍या करता है।
उत्‍तर – गेस्‍टाल्‍टवाद ।
प्रश्‍न 62 – किस मनोवैज्ञानिक ने सीखने की सामग्री के रूप में निर‍र्थक शब्‍दों का प्रयोग किया ।
उत्‍तर – एबिंगहॉस ने ।
प्रश्‍न 63 – सीखने का नियम किसने दिया ।
उत्‍तर – थॉर्नडाइक ने ।
प्रश्‍न 64 – सामाजिक प्रत्‍याशाओं के अनुरूप व्‍यवहार की योग्‍यता का अधिगम सामाजिक विकास कहा जाता है। यह कथन किसका है।
उत्‍तर – हरलॉक का ।
प्रश्‍न 65 – सीखने का सर्वाधिक उपयुक्‍त अर्थ है।
उत्‍तर – व्‍यवहार में परिमार्जन ।
प्रश्‍न 66 – कौशल सीखने की पहली अवस्‍था है।
उत्‍तर – अनुकरण ।
प्रश्‍न 67 – सीखे हुए ज्ञान , कौशल या विषय का अन्‍य परिस्थितियों में उपयोग करने को कहते है।
उत्‍तर – सीखने का स्‍थानान्‍तरण ।
प्रश्‍न 68 – स्‍मृति सीखी हुई वस्‍तु का सीधा उपयोग है यह कथन किसका है।
उत्‍तर – बुडवर्थ का ।
प्रश्‍न 69 – जिस वक्र रेखा में प्रारम्‍भ मे सीखने की गति तीव्र होती है और बाद में यह क्रमश: मन्‍द होती हे उसे कहते है।
उत्‍तर – उन्‍नतोदर वक्र कहते है ।
प्रश्‍न 70 – प्रयास और भूल सिद्धान्‍त के प्रतिपादक है।
उत्‍तर – थॉर्नडाइक ।
प्रश्‍न 71 – अनुबन्‍धन की प्रक्रिया में प्रथम सोपान कौन सा है।
उत्‍तर – उत्‍तेजना ।
प्रश्‍न 72 – गेट्स के अनुसार , अनुभव द्वारा व्‍यवहार में परिवर्तन ही …………….. है।
उत्‍तर – सीखना ।
प्रश्‍न 73 – संवेग की उत्‍पत्ति ………… से होती है।
उत्‍तर – मूल प्रवृत्तियों ।
प्रश्‍न 74 – अधिगम का कौन सा सिद्धान्‍त यह बताता है कि सीखने हेतु कार्य को दोहराना आवश्‍यक है।
उत्‍तर – अनुभवजन्‍य अधिगम सिद्धान्‍त ।
प्रश्‍न 75 – जब कोई बच्‍चा अपनी समस्‍या का समाधान स्‍वयं करने लगता है तो उसमें कौन से गुण विकसित हो जाते है।
उत्‍तर – वैज्ञानिक अन्‍वेषक का ।

New Education Policy 2020: राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी की अध्यक्षता में मंत्रिमंडल की बैठक में 21वीं सदी की नई शिक्षा नीति को मंजूरी दी गई। यह बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि 34 सालों से शिक्षा नीति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ था।


शिक्षा मंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल निंशक ने कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 को तैयार करने के लिए विश्व की सबसे बड़ी परामर्श प्रक्रिया अपनाई गई थी। उन्होंने कहा कि मै देश के 1000 से अधिक विश्वविद्यालयों, 1 करोड़ से अधिक शिक्षकों और 33 करोड़ छात्र-छात्रों को शुभकामनाएं देता हूं।
केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ ने पहले कहा था कि नई शिक्षा नीति शिक्षा क्षेत्र में कई मुद्दों का समाधान करेगी। उन्होंने यह भी कहा कि नई नीति से युवाओं के लिए उच्च शिक्षा लेना आसान हो जाएगा। राष्ट्रीय शिक्षा नीति को 1986 में अपनाया गया था और अंतिम बार इसे 1992 में संशोधित किया गया था।

नई शिक्षा नीति की हैं प्रमुख बातें:-

  • मानव संसाधन विकास मंत्रालय (MHRD) का नाम बदलकर शिक्षा मंत्रालय किया जाएगा।
  • ई-पाठ्यक्रम क्षेत्रीय भाषाओं में विकसित किए जाएंगे। वर्चुअल लैब विकसित की जा रही है और एक राष्ट्रीय शैक्षिक टेक्नोलॉजी फोरम (NETF) बनाया जा रहा है।
  • देश में उच्च शिक्षा के लिए एक ही नियामक(Regulator) होगा, इसमें अप्रूवल और वित्त के लिए अलग-अलग वर्टिकल होंगे। वो नियामक ‘ऑनलाइन सेल्फ डिसक्लोजर बेस्ड ट्रांसपेरेंट सिस्टम’ पर काम करेगा।
  • मल्टिपल एंट्री और एग्ज़िट सिस्टम में पहले साल के बाद सर्टिफिकेट, दूसरे साल के बाद डिप्लोमा और तीन-चार साल बाद डिग्री दी जाएगी।
  • इस नीति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि स्कूली शिक्षा, उच्च शिक्षा के साथ कृषि शिक्षा, कानूनी शिक्षा, चिकित्सा शिक्षा और तकनीकी शिक्षा जैसी व्यावसायिक शिक्षाओं को इसके दायरे में लाया गया है।
  • अब कला, संगीत, शिल्प, खेल, योग, सामुदायिक सेवा जैसे सभी विषयों को भी पाठ्यक्रम में शामिल किया जाएगा। इन्हें सहायक पाठ्यक्रम (co-curricular) या अतिरिक्त पाठ्यक्रम ( extra- curricular) नहीं कहा जाएगा।
  • आयोग ने शिक्षकों के प्रशिक्षण में व्यापक सुधार के लिए शिक्षक प्रशिक्षण और सभी शिक्षा कार्यक्रमों को विश्वविद्यालयों या कॉलेजों के स्तर पर शामिल करने की सिफारिश की है।
  • शिक्षा प्रणाली में बदलाव करते हुए उच्च गुणवत्ता और व्यापक शिक्षा तक सबकी पहुँच सुनिश्चित की गई है। इसके जरिए भारत का निरंतर विकास सुनिश्चित होगा साथ ही वैश्विक मंचों पर – आर्थिक विकास, सामाजिक विकास, समानता और पर्यावरण की देख – रेख, वैज्ञानिक उन्नति और सांस्कृतिक संरक्षण के नेतृत्व का समर्थन करेगा।
  • 4 साल का डिग्री प्रोग्राम फिर M.A. और उसके बाद बिना M.Phil के सीधा PhD कर सकते हैं।
  • सरकार ने लक्ष्य निर्धारित किया है कि GDP का 6% शिक्षा में लगाया जाए जो अभी 4.43% है। इसमें बढ़ोतरी करके शिक्षा का क्षेत्र बढ़ाया जाएगा।
  • प्राथमिक स्तर पर शिक्षा में बहुभाषिकता को प्राथमिकता के साथ शामिल करने और ऐसे भाषा शिक्षकों की उपलब्धता को महत्व दिया दिया गया है जो बच्चों के घर की भाषा समझते हों। यह समस्या राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न राज्यों में दिखाई देती है। पहली से पाँचवी तक जहाँ तक संभव हो मातृभाषा का इस्तेमाल शिक्षण के माध्यम के रूप में किया जाये। जहाँ घर और स्कूल की भाषा अलग-अलग है, वहां दो भाषाओं के इस्तेमाल का सुझाव दिया गया है।
  • पहली व दूसरी कक्षा में भाषा व गणित पर काम करने पर जोर देने की बात नई शिक्षा नीति के मसौदे में है। इसके साथ ही चौथी व पाँचवीं के बच्चों के साथ लेखन कौशल पर काम करने पर भी ध्यान देने की बात कही गई है। भाषा सप्ताह, गणित सप्ताह व भाषा मेला व गणित मेला जैसे आयोजन करने की बात भी इस प्रारूप में लिखी गई है।
  • इसमें पुस्तकालयों को जीवंत बनाने व गतिविधियों को कराने पर ध्यान देने की बात कही गई है। इसमें कहानी सुनाने, रंगमंच, समूह में पठन, लेखन व बच्चों के बनाये चित्रों व लिखी हुई सामग्री का डिसप्ले करने पर ध्यान देने की बात कही गई है।
  • लड़कियों की शिक्षा जारी रहे इसके लिए उनको भावनात्मक रूप से सुरक्षित वातावरण देने का सुझाव दिया गया है। कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय का विस्तार 12वीं तक करने का सुझाव नई शिक्षा नीति-2019 के मसौदे में किया गया है।
  • रेमेडियल शिक्षण को मुख्य धारा में शामिल करने जैसा सुझाव दिया गया है। इसके तहत 10 सालों की परियोजना का प्रस्ताव किया गया है। इसमें स्थानीय महिलाओं व स्वयं सेवकों की भागीदारी हासिल करने की बात कही गई है।
  • शिक्षकों के सपोर्ट के लिए तकनीकी के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करने की बात भी नई शिक्षा नीति-2019 के मसौदे में है। इसके लिए कंप्यूटर, लैपटॉप व फोन इत्यादि के जरिए विभिन्न ऐप का इस्तेमाल करके शिक्षण को रोचक बनाने की बात कही गई है।
  • U.S. की NSF (नेशनल साइंस फाउंडेशन) की तर्ज पर हम NRF (नेशनल रिसर्च फाउंडेशन) ला रहे हैं। इसमें न केवल साइंस बल्कि सोशल साइंस भी शामिल होगा। ये बड़े प्रोजेक्ट्स की फाइनेंसिंग करेगा। ये शिक्षा के साथ रिसर्च में हमें आगे आने में मदद करेगा।
  • अर्ली चाइल्डहुड केयर एवं एजुकेशन के लिए कैरिकुलम एनसीईआरटी द्वारा तैयार होगा। इसे 3 से 6 वर्ष के बच्चों के लिए विकसित किया जाएगा। बुनियादी शिक्षा (6 से 9 वर्ष के लिए) के लिए फाउंडेशनल लिट्रेसी एवं न्यूमेरेसी पर नेशनल मिशन शुरु किया जाएगा।
  • पढ़ाई की रुपरेखा 5+3+3+4 के आधार पर तैयारी की जाएगी। इसमें अंतिम 4 वर्ष 9वीं से 12वीं शामिल हैं।
  • नया कौशल (जैसे कोडिंग) शुरु किया जाएगा। एक्सट्रा कैरिकुलर एक्टिविटीज को मेन कैरिकुलम में शामिल किया जाएगा।
  • गिफ्टेड चिल्ड्रेन एवं गर्ल चाइल्ड के लिए विशेष प्रावधान किया गया है। कक्षा 6 के बाद से ही वोकेशनल को जोड़ा जाएगा।
  • नई नेशनल क्यूरिकुलम फ्रेमवर्क तैयार किया जाएगा जिसमें ईसीई, स्कूल, टीचर्स और एडल्ट एजुकेशन को जोड़ा जाएगा। बोर्ड एग्जाम को भाग में बांटा जाएगा।
  • बच्चों के रिपोर्ट कार्ड में लाइफ स्किल्स को जोड़ा जाएगा। जिससे बच्चों में लाइफ स्किल्स का भी विकास हो सकेगा। अभी रिपोर्ट कार्ड में ऐसा कोई प्रावधान नहीं था।
  • वर्ष 2030 को हर बच्चे के लिए शिक्षा सुनिश्चित की जाएगी। विद्यालयी शिक्षा के निकलने के बाद हर बच्चे के पास कम से कम लाइफ स्किल होगी। जिससे वो जिस क्षेत्र में काम शुरू करना चाहेगा कर सकेगा।
  • नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में राष्ट्रीय परीक्षा एजेंसी द्वारा उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रवेश के लिए कॉमन एंट्रेंस एग्जाम का ऑफर दिया जाएगा। यह संस्थान के लिए अनिवार्य नहीं होगा।
  • पाठ्यक्रम में भारतीय ज्ञान पद्धतियों को शामिल करने, ‘राष्ट्रीय शिक्षा आयोग’ का गठन करने और प्राइवेट स्कूलों को मनमाने तरीके से फीस बढ़ाने से रोकने की सिफारिश की गई है।

Nature Vs Nurture (प्रकृति बनाम पोषण)


प्रकृति बनाम पालन-पोषण (Nature versus Nurture) मनोविज्ञान और सामाजिक मनोविज्ञान की शब्दावली और अवधारणा है जिसका प्रयोग व्यक्तियों के जन्मजात सहज गुणों (स्वभाव अथवा प्रकृति) और उसकी परवरिश और पालन-पोषण के दौरान मिले पर्यावरण और माहौल के प्रभावों के द्वारा विकसित व्यवहार के लक्षणों की आपसी सम्पूरकता और बिरोधाभासों का विवेचन किया जाता है। शब्दावली के रूप में वस्तुतः यह अंग्रेजी के मुहावरे Nature versus nurture का हिंदी शब्दानुवाद है और अंग्रेजी का यह वाक्य इंग्लैंड में काफ़ी पुराने समय से प्रचलित है जो खुद मध्यकालीन फ़्रांस से यहाँ आया।

प्रकृति
प्रकृति एक बच्चे के वंशानुगत कारकों या जीन को संदर्भित करता है, जो न केवल एक बच्चे की शारीरिक उपस्थिति को परिभाषित करता है, बल्कि बच्चे के व्यक्तित्व लक्षणों के निर्माण में भी मदद करता है।
पालन ​​- पोषण करना
दूसरी ओर, पोषण का तात्पर्य विभिन्न पर्यावरणीय कारकों से है जो हमारे व्यक्तित्व लक्षणों, हमारे बचपन के अनुभवों, बच्चे की परवरिश, सामाजिक संबंधों और संस्कृति के बारे में बताते हैं।


मनोविज्ञान की विभिन्न शाखाएँ प्रकृति और पोषण के प्रति एक अलग दृष्टिकोण रखती हैं। जहां कुछ का मानना ​​है कि यह मुख्य रूप से प्रकृति है जो एक बच्चे के व्यवहार को आकार देने के लिए जिम्मेदार है, दूसरों का मानना ​​है कि यह एक बच्चे के पोषण का तरीका है, जो उसकी व्यवहार विशेषताओं को चिह्नित करता है। अतीत में, यह माना जाता था कि प्रकृति अधिक महत्वपूर्ण थी लेकिन हाल ही में अधिकांश विशेषज्ञ बच्चे के व्यवहार पर प्रकृति और पोषण के तरीकों दोनों पर तनाव और महत्व देते हैं।


बाल विकास में प्रकृति बनाम पोषण
अब हम एक बच्चे के व्यवहार के विभिन्न पहलुओं और इन पहलुओं के प्रभावों पर चर्चा करेंगे, दूसरे शब्दों में, हमें बाल विकास में प्रकृति और पोषण के बीच अंतर देखें:

  1. नींद

अपेक्षित प्रकृति क्या है?

यदि आपका बच्चा एक शांतिपूर्ण स्लीपर है या यदि वह रात में जागता रहता है, तो यह उसके जीन के कारण हो सकता है। समरूप और भ्रातृ जुड़वा बच्चों पर किए गए एक अध्ययन में, यह देखा गया कि जीन एक बच्चे के सोने के पैटर्न में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह देखा गया कि लगभग सभी समान जुड़वा बच्चों की रातों के दौरान जागने की प्रवृत्ति थी, लेकिन उन्होंने भी एक ही नैपिंग पैटर्न साझा किया। हालांकि, समान जुड़वां की तुलना में रात में जागने की कम प्रवृत्ति भ्रातृ जुड़वाँ प्रदर्शित करती है।

पोषण कैसे करें
यह देखा गया, कि यदि बच्चा ठीक से नहीं सोता है, तो बेहतर नींद के लिए उसका स्लीपिंग शेड्यूल आपके द्वारा बेहतर बनाया जा सकता है। एक अध्ययन के अनुसार, यह देखा गया है कि जिन शिशुओं को दिन के दौरान महत्वपूर्ण मात्रा में दिन के उजाले से अवगत कराया गया था, उन बच्चों की तुलना में रात में बेहतर नींद आती थी जो नहीं थे। ऐसा इसलिए है क्योंकि बच्चों को धूप में उजागर करना उनकी नींद और जागने की अनुसूची को विनियमित करने में फायदेमंद है। इसके अलावा, आपके बच्चे की सोने की दिनचर्या में कुछ सरल बदलाव जैसे कि सोने से पहले कोई ध्यान न देना, शांत वातावरण, नरम संगीत बजाना, कुछ ऐसी चीजें हैं जो बेहतर नींद लाने में मदद कर सकती हैं।

  1. रोना
    यदि आपका बच्चा लगातार रोता है, तो आप आश्चर्य करेंगे कि क्या वह उसकी प्रकृति के कारण है या यह एक आदत है जो उसने विकसित की है, उसके रास्ते के कारण उसका पोषण होता है। पता करें कि आपके बच्चे के पालन-पोषण का तरीका कैसा है और आप किस तरह से अपने बच्चे का पालन-पोषण करते हैं।

अपेक्षित प्रकृति क्या है?

बच्चे अपने माता-पिता से ध्यान हटाने के लिए रोते हैं ताकि उनकी जरूरतों का ध्यान रखा जाए। जबकि कुछ शिशुओं को शांत और शांत करना आसान होता है, दूसरों को अपने माता-पिता के जीवन को अपने पति के साथ दुखी करना पड़ सकता है। जेनेटिक्स आपके बच्चे के रोने के तरीके में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। कई शोधकर्ताओं का मानना ​​है कि आपके बच्चे का स्वभाव लगभग 60 प्रतिशत वंशानुगत है।

पोषण कैसे करें

माता-पिता के लिए अच्छी खबर यह है कि बच्चे एक शांत पलटा के साथ पैदा होते हैं और इसे हासिल करना मुश्किल नहीं है। अधिकांश बच्चे स्वैडलिंग, रॉकिंग, स्विंग, स्विंगिंग और यहां तक ​​कि चूसने (स्तन या बोतल की पेशकश) का अच्छी तरह से जवाब देते हैं। आप अपने रोते हुए बच्चे को शांत करने और शांत करने के लिए इनमें से कोई भी तरीका आजमा सकते हैं। हर बच्चा अलग होता है, और इस तरह आपको यह स्थापित करना पड़ सकता है कि आपके बच्चे के लिए सबसे अच्छा क्या है।

  1. समाजीकरण
    क्या आपका शिशु अजनबियों की संगति में सहज है या कुछ अपरिचित चेहरों को देखते ही उन्मत्त हो जाता है? यह भी या तो उसकी प्रकृति या उसके पोषण के तरीके के कारण हो सकता है।

अपेक्षित प्रकृति क्या है?

यदि आपका शिशु अत्यधिक सामाजिक है और लोगों की कंपनी से प्यार करता है या यदि वह बेहद शर्मीला है और अजनबियों की कंपनी में अजीब महसूस करता है, तो ज्यादातर मामलों में यह वंशानुगत जीन के कारण होता है। प्रकाशित अध्ययनों में से एक में, यह कहा गया था कि विरासत में मिला स्वभाव वह है जो आपके बच्चे को एक निश्चित तरीके से कार्य करता है।

पोषण कैसे करें

शिशुओं के लिए, जो दूसरों की संगति में रहने में सहज हैं, माता-पिता के रूप में आपको बहुत कुछ करने की जरूरत नहीं है। हालांकि, बच्चे जो सामाजिक रूप से अजीब हैं, आपको अजनबियों की कंपनी में सहज महसूस करने के लिए कुछ प्रयास करने पड़ सकते हैं। आप उन्हें खेल की तारीखों पर लेने की कोशिश कर सकते हैं या अपने बच्चे को बातचीत करने और ऐसी विभिन्न चीजों को आज़माने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं। हालाँकि, यह पूरी तरह से आपके बच्चे को कुछ भी करने के लिए मजबूर करने के लिए नहीं है, जिसके साथ वह सहज नहीं हो सकता है। ऐसा करने से प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है, और वह अजनबियों से सावधान हो सकता है।

  1. भोजन करना
    यह अजीब लग सकता है लेकिन आपके बच्चे की खाने की आदतें और भोजन की प्राथमिकताएं भी विरासत में मिल सकती हैं और कुछ वह विकसित हो सकती हैं। जानिए कैसे और किस तरह से आप अपने बच्चे को पालते हैं, उसके खाने की आदतों पर क्या असर पड़ता है:

अपेक्षित प्रकृति क्या है?

आपके बच्चे की खाने की आदत आनुवांशिक भी हो सकती है। यदि कुछ बच्चे धीमे खाने वाले हैं और दूसरों को पसंद करते हैं, तो यह उनके जीन के कारण है। अपने बच्चे को एक विशेष भोजन खिलाने के लिए लगातार प्रयास करने के बाद भी, यदि आपका बच्चा अभी भी उस भोजन को तुच्छ समझता है, तो यह क्रिया में उसका जीन हो सकता है। समरूप और भ्रातृ जुड़वा बच्चों पर किए गए एक अध्ययन में, यह देखा गया कि भोजन के नुकसान आनुवांशिक हो सकते हैं।

पोषण कैसे करें

यदि आपका बच्चा एक उधम मचाता है, तो आप अपने बच्चे को एक विशेष भोजन खाने के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं। पहली और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि खाने के मज़े लेने चाहिए और आपके बच्चे को इसके लिए तत्पर होना चाहिए। हमेशा एक समय में एक भोजन का परिचय दें, क्योंकि एक ही समय में बहुत सारे स्वाद और खाद्य पदार्थों की पेशकश करने से आपके बच्चे के तालू में गड़बड़ हो सकती है। जब भी कोई नया स्वाद पेश किया जाता है तो शिशुओं के लिए अजीब चेहरे बनाना बहुत सामान्य है। जब भी आपके बच्चे के लिए एक नया भोजन पेश करने की बात आती है, तो धैर्य का अभ्यास करें।

  1. हिलना
    यदि आपका शिशु हर समय गति में रहना पसंद करता है या यदि उसे वापस रखा जाता है और उसे ज्यादा घूमना पसंद नहीं है, तो यह उसके जीन या उसके पोषण के तरीके के कारण हो सकता है।

अपेक्षित प्रकृति क्या है?

यह देखा जाता है कि जो बच्चे अधिक सक्रिय होते हैं या जो घूमना पसंद करते हैं, वे इस तरह से अपने वंशानुगत जीन के कारण होते हैं। इसी तरह, यदि आपका बच्चा अधिक आराम और गतिहीन है, तो यह इसलिए है क्योंकि उसके जीन उसे ऐसा कर रहे हैं। एक अध्ययन में, यह स्थापित किया गया था कि सक्रिय बच्चे सक्रिय वयस्कों में बड़े होते हैं जबकि आराम करने वाले बच्चे वैसे ही रह सकते हैं जैसे वे बड़े होते हैं।

पोषण कैसे करें

आप अपने बच्चे को अधिक सक्रिय होने में मदद करने के मामले में बहुत कुछ कर सकते हैं। आप उसे विभिन्न गतिविधियों और खेलों में शामिल कर सकते हैं, उसे खेलने और अन्य ऐसे काम करने के लिए विभिन्न प्रकार के खिलौने दे सकते हैं। अपने शुरुआती महीनों के दौरान अपने बच्चे को पर्याप्त पेट समय देना भी महत्वपूर्ण है।

प्रकृति और पोषण की बातचीत
वर्तमान परिदृश्य में, विभिन्न विकास मनोवैज्ञानिकों की राय है कि इसके अलावा प्रकृति और पोषण बचपन में शारीरिक विकास को कैसे प्रभावित करते हैं, मानव विकास सामाजिक कारकों जैसे सामाजिक-पर्यावरणीय, सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक कारकों पर भी निर्भर करता है। हम सभी विशिष्ट आनुवंशिक लक्षणों के साथ पैदा होते हैं और अलग-अलग वातावरण में पोषित होते हैं और इस प्रकार हम सभी अलग-अलग लक्षण विकसित करते हैं। हालाँकि, हम विभिन्न पर्यावरणीय कारकों पर कैसे प्रतिक्रिया करते हैं यह हमारे आनुवंशिक कारकों द्वारा भी निर्धारित किया जाता है। यह संकेत दे सकता है कि ये कारक सह-निर्भर हैं।

बाल विकास में प्रकृति और पोषण के कुछ उदाहरण उपर्युक्त कथनों को स्पष्ट कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, यदि कोई बच्चा लंबे माता-पिता के लिए पैदा हुआ है, लेकिन उसका पालन-पोषण सही तरीके से नहीं किया जाता है या अनुचित पोषण प्राप्त करता है, तो हो सकता है कि वह उसके लम्बे जीन के बावजूद लंबा न हो। इसी तरह, एक बच्चे में अपने जीन के कारण संगीत को समझने की क्षमता हो सकती है, लेकिन अकेले जीन उसे एक संगीत प्रतिभा नहीं बनाएंगे; उसे कम उम्र से प्रशिक्षण से गुजरना होगा।

अधिगम के सिद्धान्त – Theories of learning

1 प्रयत्न एवं भूल का सिद्धान्त

अन्य नाम:- उद्दीपन अनुक्रिया सिद्धान्त, अधिगम का बंध सिद्धान्त, एसआर थ्योरी, संबंधवादी, व्यवहारवादी
प्रवर्तक:- एडवर्ड ली थार्नडाइक, अमेरिका
बिल्ली पर प्रयोग
यह सिद्धान्त अभ्यास द्वारा सीखने पर बल देता है। यह गणित और विज्ञान के लिए उपयोगी सिद्धान्त है। इसमें त्रुटियों का निराकरण पर बल दिया जाता है।

2 अनुकूलित अनुक्रिया सिद्धान्त

अन्य नाम:- प्राचीन अनुबंध का सिद्धान्त, शास्त्रीय अनुबंध का सिद्धान्त, संबंद्ध प्रतिक्रिया का सिद्धान्त, कंडीशनल रिस्पोंस थ्योरी
प्रवर्तक:- इवान पैट्रोविच, रूस
कुत्ता पर प्रयोग
यह सिद्धान्त कहता है कि आदतों का निर्माण कृत्रिम उद्दीपकों से संबंद्ध प्रतिक्रिया द्वारा होता है। इसी सिद्धान्त से सम्बद्ध प्रतिवर्त (सहज) विधि का जन्म हुआ। यह सिद्धांत भाषा विकास, मनोवृतियों का निर्माण, बुरी आदतों से छुटकारा पाना, सुलेख, अक्षर विन्यास जैसे विषयों में उपयोगी है। इस सिद्धांत के तहत छोटे बच्चों को वस्तुएं दिखाकर शब्दों का ज्ञान कराया जाता है।

3 अंतदृष्टि या सूझ का सिद्धान्त

अन्य नाम:- गेस्टाल्ट सिद्धान्त, संबंधवादी/व्यवहारवादी
प्रवर्तक:- वर्दिमिर, कोफ्का और कोहलर
वनमानुष सुल्तान चिंपांजी पर प्रयोग
यह सिद्धांत समस्या का हल स्वयं को ही खोजने के लिए प्रेरित करता है।

4 क्रिया प्रसूत अनुबंध का सिद्धांत

अन्य नाम:- सक्रिय अनुबंध का सिद्धान्त, नैमित्तिक अनुबंध, संबंधवादी /व्यवहार वादी
प्रवर्तक:- ब्यूरहस फ्रेडरिक स्किनर
कबूतर, चूहा पर प्रयोग
यह सिद्धांत कहता है कि किसी को पुनर्बलन देकर अच्छे कार्य के लिए प्रेरित किया जा सकता है। यहां सही कार्य के लिए सकारात्मक और गलत कार्य के लिए नकारात्मक पुनर्बलन दिए जाने की बात कही गई है। पुनर्बलन का अर्थ होता है प्रेरक। यह पुरस्कार भी हो सकता है ओर दंड भी।


5 प्रबलन का सिद्धान्त

अन्य नाम:- न्यूनतम आवश्यकता का सिद्धान्त, विधिक सिद्धान्त, संबंधवादी/व्यवहारवादी
प्रवर्तक:- सीएलहल
चूहा पर प्रयोग
इस सिद्धांत में व्यक्तिगत शिक्षा पर बल दिया गया है। सिद्धांत कहता है कि शिक्षक को विषयवस्तु तथा अधिगम को दोहराने पर बल देना चाहिए। इससे बालक की आदतों को बेहतर बनाया जा सकता है।

6 अनुकरण द्वारा अधिगम

प्रवर्तक:- हेगरटी
यह सिद्धांत कहता है कि अधिगम की प्रक्रिया अनुकरण द्वारा भी पूर्ण की जा सकती है। बच्चा जैसा देखता है वैसा ही करने का प्रयास करता है।

7 अधिगम का प्राकृतिक दशा सिद्धान्त

अन्य नाम:- क्षेत्र सिद्धान्त, तलरूप सिद्धान्त
प्रवर्तक:- कुर्टलेविन
यह सिद्धांत कहता है कि शिक्षकों द्वारा विद्यार्थियों को उनकी योग्यता और शक्ति के अनुसार उपयुक्त मनोवैज्ञानिक वातावरण उपलब्ध कराना चाहिए। साथ ही प्राप्त उद्देश्यों को प्रभावी तरीके से निर्देशित किया जाना चाहिए। इस सिद्धांत के तहत व्यवहार पर जोर देते हुए अभिप्रेरणा पर जोर दिया जाता है।

8 स्थानापन्न / प्रतिस्थापन या समीपता का सिद्धांत

प्रवर्तक:- एडविन गुथरी
यह सिद्धांत कहता है कि शिक्षक को उत्तेजना और अनुक्रिया के बीच अधिकतम साहचर्य स्थापित करना चाहिए ताकि अधिगम की प्रक्रिया को और अधिक प्रभावशाली बनाया जा सके।

9 अव्यक्त अधिगम

अन्य नाम:- चिह्न आकार अधिगम, चिह्न पूर्णाकारवाद संभावना सिद्धांत, प्रतीक अधिगम, अप्रकट अधिगम
प्रवर्तक:- एडवर्ड टोलमैन
चूहा पर प्रयोग
यह सिद्धांत कहता है कि सीखना संज्ञानात्मक मानचित्र बनाना है। साथ ही यह भी कहता है कि अध्यापक को चाहिए कि वह उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए इनाम व दंड का प्रयोग करे। उद्देश्य प्राप्त करने का अर्थ है शिक्षा के उद्देश्य प्राप्त करना। बच्चे को सिखाना। इसके लिए अध्यापक इनाम व दंड का प्रयोग कर सकता है।

10 अन्वेषण का सिद्धान्त

प्रवर्तक:- जेराम एस बू्रनर
यह सिद्धांत कहता है कि शिक्षक द्वारा बच्चों में अधिगम के प्रति रुझान पैदा करना चाहिए। इसके लिए विषय वस्तु को क्रमबद्ध रूप से प्रभावी तरीके से बच्चों के सामने प्रस्तुत करना चाहिए।

11 शाब्दिक अधिगम का सिद्धान्त

अन्य नाम:-प्राप्त अधिगम का सिद्धांत
प्रवर्तक:- आसुबेल
यह सिद्धांत विषय वस्तु को विद्यालयी परिस्थितियों में प्रस्तुत करने पर जोर देता है और कॉलेज स्तर के लिए अनुकूल है।

12 अधिगम सोपानिकी सिद्धान्त

प्रवर्तक:- राबर्ट गेने
इस सिद्धांत के अनुसार अधिगम की क्षमताओं के आठ प्रतिमान माने गए हैं।
1 संकेत अधिगम
2 उद्दीपक-अनुक्रिया अधिगम
3 गत्यात्मक शृंखलन
4 शाब्दिक शृंखलन
5 अपवत्र्य विभेदन
6 सम्प्रत्यय अधिगम
7 अधिनियम अधिगम
8 समस्या समाधान
यह सिद्धांत कहता है कि अधिगम प्रभाव संचय होता है और अधिगम का हर प्रकार उत्तरोत्तर सरलतम से जटिलतम अधिगम तक सोपानवत जुड़ा हुआ है। यहां सरलतम से अर्थ संकेत अधिगम और जटिलतम से अर्थ है समस्या समाधान अधिगम।

13 सामाजिक अधिगम सिद्धांत

अन्य नाम:- प्रेक्षणात्मक अधिगम
प्रवर्तक:-अल्बर्ट बंडुरा
यह सिद्धांत कहता है कि व्यक्ति सामाजिक व्यवहारों का प्रेक्षण करता है और फिर वैसा ही व्यवहार करता है। जैसे हम टीवी पर फैशन शो या विज्ञापन देखकर यथावत व्यवहार का प्रयास करते हैं।

सर्व शिक्षा अभियान for CTET & all State TETs

सर्व शिक्षा अभियान का कार्यान्‍वयन वर्ष 2000-2001 से किया जा रहा है जिसका उद्देश्‍य सार्वभौमिक सुलभता एवं प्रतिधारण, प्रारंभिक शिक्षा में बालक-बालिका एवं सामाजिक श्रेणी के अंतरों को दूर करने तथा अधिगम की गुणवत्‍ता में सुधार हेतु विविध अंत:क्षेपों में अन्‍य बातों के साथ-साथ नए स्‍कूल खोला जाना तथा वैकल्पिक स्‍कूली सुविधाएं प्रदान करना, स्‍कूलों एवं अतिरिक्‍त कक्षा-कक्षों का निर्माण किया जाना, प्रसाधन-कक्ष एवं पेयजल सुविधा प्रदान करना, अध्‍यापकों का प्रावधान करना, नियमित अध्‍यापकों का सेवाकालीन प्रशिक्षण तथा अकादमिक संसाधन सहायता, नि:शुल्‍क पाठ्य-पुस्‍तकें एवं वर्दियां तथा अधिगम स्‍तरों/परिणामों में सुधार हेतु सहायता प्रदान करना शामिल हैI

सर्व शिक्षा अभियान जिला आधारित एक विशिष्ट विकेन्द्रित योजना है। इसके माध्यम से प्रारंभिक शिक्षा का सार्वभौमीकरण करने की योजना है। इसके लिए स्कूल प्रणाली को सामुदायिक स्वामित्व में विकसित करने रणनीति अपनाकर कार्य किया जा रहा है। यह योजना पूरे देश में लागू की गई है और इसमें सभी प्रमुख सरकारी शैक्षिक पहल को शामिल किया गया है। इस अभियान के अंतर्गत राज्यों की भागीदारी से 6-14 आयुवर्ग के सभी बच्चों को 2010 तक प्रारंभिक शिक्षा उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया था।

सर्व शिक्षा अभियान

सभी व्यक्ति को अपने जीवन की बेहतरी का अधिकार है। लेकिन दुनियाभर के बहुत सारे बच्चे इस अवसर के अभाव में ही जी रहे हैं क्योंकि उन्हें प्राथमिक शिक्षा जैसे अनिवार्य मूलभूत अधिकार भी मुहैया नहीं कराई जा रही है।

भारत में बच्चों को साक्षर करने की दिशा में चलाये जा रहे कार्यक्रमों के परिणामस्वरूप वर्ष 2000 के अन्त तक भारत में 94 प्रतिशत ग्रामीण बच्चों को उनके आवास से 1 किमी की दूरी पर प्राथमिक विद्यालय एवं 3 किमी की दूरी पर उच्च प्राथमिक विद्यालय की सुविधाएँ उपलब्ध थीं। अनुसूचित जाति व जनजाति वर्गों के बच्चों तथा बालिकाओं का अधिक से अधिक संख्या में स्कूलों में नामांकन कराने के उद्देश्य से विशेष प्रयास किये गये। प्रथम पंचवर्षीय योजना से लेकर अब तक प्राथमिक व उच्च प्राथमिक विद्यालयों में नामांकन लेने वाले बच्चों की संख्या एवं स्कूलों की संख्या मे निरंतर वृद्धि हुई है। 1950-51 में जहाँ प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए 3.1 मिलियन बच्चों ने नामांकन लिया था वहीं 1997-98 में इसकी संख्या बढ़कर 39.5 मिलियन हो गई। उसी प्रकार 1950-51 में प्राथमिक व उच्च प्राथमिक विद्यालयों की संख्या 0.223 मिलियन थी जिसकी संख्या 1996-97 में बढ़कर 0.775 मिलियन हो गई। एक अनुमान के मुताबिक वर्ष 2002-03 में 6-14 आयु वर्ग के 82 प्रतिशत बच्चों ने विभिन्न विद्यालयों में नामांकन लिया था। भारत सरकार का लक्ष्य इस संख्या को इस दशक के अंत तक 100 प्रतिशत तक पहुँचाना है।

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि विश्व से स्थायी रूप से गरीबी को दूर करने और शांति एवं सुरक्षा का मार्ग प्रशस्त करने के लिए जरूरी है कि दुनिया के सभी देशों के नागरिकों एवं उसके परिवारों को अपनी पसंद के जीवन जीने का विकल्प चुनने में सक्षम बनाया जाए। इस लक्ष्य को पाना तभी संभव है जब दुनियाभर के बच्चों को कम से कम प्राथमिक विद्यालय के माध्यम से उच्च स्तरीय स्कूली सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाएँ।

सर्व शिक्षा अभियान क्या है

  • सार्वभौमिक प्रारंभिक शिक्षा के लिए एक स्पष्ट समय-सीमा के साथ कार्यक्रम।
  • पूरे देश के लिए गुणवत्तायुक्त आधारभूत शिक्षा की माँग का जवाब,
  • आधारभूत शिक्षा के माध्यम से सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने का अवसर,
  • प्रारंभिक शिक्षा के प्रबंधन में – पंचायती राज संस्थाओं, स्कूल प्रबंधन समिति, ग्रामीण व शहरी गंदी बस्ती स्तरीय शिक्षा समिति, अभिभावक-शिक्षक संगठन, माता-शिक्षक संगठन, जनजातीय स्वायतशासी परिषद् और अन्य जमीन से जुड़े संस्थाओं को, प्रभावी रूप से शामिल करने का प्रयास,
  • पूरे देश में सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा के लिए राजनीतिक इच्छा-शक्ति की अभिव्यक्ति,
  • केन्द्र, राज्य एवं स्थानीय सरकार के बीच सहभागिता व
  • राज्यों के लिए प्रारंभिक शिक्षा का अपना दृष्टि विकसित करने का सुनहरा अवसर।

लक्ष्य कथन

सर्व शिक्षा अभियान, एक निश्चित समयावधि के भीतर प्रारंभिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भारत सरकार का एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम है। 86 वें संविधान संशोधन द्वारा 6-14 आयु वर्ष वाले बच्चों के लिए, प्राथमिक शिक्षा को एक मौलिक अधिकार के रूप में, निःशुल्क और अनिवार्य रूप से उपलब्ध कराना अनिवार्य बना दिया गया है। सर्व शिक्षा अभियान पूरे देश में राज्य सरकार की सहभागिता से चलाया जा रहा है ताकि देश के 11 लाख गाँवों के 19.2 लाख बच्चों की जरूरतों को पूरा किया जा सके। इस कार्यक्रम के अंतर्गत वैसे गाँवों में, जहाँ अभी स्कूली सुविधा नहीं है, वहाँ नये स्कूल खोलना और विद्यमान स्कूलों में अतिरिक्त क्लास रूम (अध्ययन कक्ष), शौचालय, पीने का पानी, मरम्मत निधि, स्कूल सुधार निधि प्रदान कर उसे सशक्त बनाये जाने की भी योजना है। वर्तमान में कार्यरत वैसे स्कूल जहाँ शिक्षकों की संख्या अपर्याप्त है वहाँ अतिरिक्त शिक्षकों की व्यवस्था की जाएगी जबकि वर्तमान में कार्यरत शिक्षकों को गहन प्रशिक्षण प्रदान कर, शिक्षण-प्रवीणता सामग्री के विकास के लिए निधि प्रदान कर एवं टोला, प्रखंड, जिला स्तर पर अकादमिक सहायता संरचना को मजबूत किया जाएगा। सर्व शिक्षा अभियान जीवन-कौशल के साथ गुणवत्तायुक्त प्रारंभिक शिक्षा प्रदान करने की इच्छा रखता है। सर्व शिक्षा अभियान का बालिका शिक्षा और जरूरतमंद बच्चों पर खास जोर है। साथ ही, सर्व शिक्षा अभियान का देश में व्याप्त डिजिटल दूरी को समाप्त करने के लिए कंप्यूटर शिक्षा प्रदान करने की भी योजना है।

सर्व शिक्षा अभियान का उद्देश्य

  • सभी बच्चों के लिए वर्ष 2005 तक प्रारंभिक विद्यालय, शिक्षा गारंटी केन्द्र, वैकल्पिक विद्यालय, “बैक टू स्कूल” शिविर की उपलब्धता।
  • सभी बच्चे 2007 तक 5 वर्ष की प्राथमिक शिक्षा पूरी कर लें।
  • सभी बच्चे 2010 तक 8 वर्षों की स्कूली शिक्षा पूरी कर लें।
  • संतोषजनक कोटि की प्रारंभिक शिक्षा, जिसमें जीवनोपयोगी शिक्षा को विशेष महत्त्व दिया गया हो, पर बल देना।
  • स्त्री-पुरुष असमानता तथा सामाजिक वर्ग-भेद को 2007 तक प्राथमिक स्तर तथा 2010 तक प्रारंभिक स्तर पर समाप्त करना।
  • वर्ष 2010 तक सभी बच्चों को विद्यालय में बनाए रखना।

केन्द्रित क्षेत्र (फोकस एरिया)

  • वैकल्पिक स्कूली व्यवस्था
  • विशेष जरूरतमंद बच्चे
  • सामुदायिक एकजुटता या संघटन
  • बालिका शिक्षा
  • प्रारंभिक शिक्षा की गुणवत्ता

संस्थागत सुधार – सर्व शिक्षा अभियान के एक भाग के रूप में राज्यों में संस्थागत सुधार किए जाएंगे। राज्यों को अपनी मौजूदा शैक्षिक पद्धति का वस्तुपरक मूल्यांकन करना होगा जिसमें शैक्षिक प्रशासन, स्कूलों में उपलब्धि स्तर, वित्तीय मामले, विकेन्द्रीकरण तथा सामुदायिक स्वामित्व, राज्य शिक्षा अधिनियम की समीक्षा, शिक्षकों की नियुक्ति तथा शिक्षकों की तैनाती को तर्कसम्मत बनाना, मॉनीटरिंग तथा मूल्यांकन, लड़कियों, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति तथा सुविधाविहीन वर्गो के लिए शिक्षा, निजी स्कूलों तथा ई.सी.सी.ई. संबंधी मामले शामिल होगें। कई राज्यों में प्रारंभिक शिक्षा प्रदान करने की व्यवस्था में सुधार के लिए संस्थागत सुधार भी किए गए हैं।

सतत वित्त पोषण –सर्व शिक्षा अभियान इस तथ्य पर आधारित है कि प्रारंभिक शिक्षा कार्यक्रम का वित्त पोषण सतत् जारी रखा जाए। केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच वित्तीय सहभागिता पर दीर्धकालीन परिप्रेक्ष्य की अपेक्षा है।

सामुदायिक स्वामित्व –इस कार्यक्रम के लिए प्रभावी विकेन्द्रीकरण के जरिए स्कूल आधारित कार्यक्रमों में सामुदायिक स्वामित्व की अपेक्षा है। महिला समूह, ग्राम शिक्षा समिति के सदस्यों और पंचायतीराज संस्थाओं के सदस्यों को शामिल करके इस कार्यक्रम को बढ़ाया जाएगा।

संस्थागत क्षमता निर्माण –सर्व शिक्षा अभियान द्वारा राष्ट्रीय शैक्षिक योजना एवं प्रशासन संस्थान/ राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद्/राज्य शैक्षिक अनुसंधान व प्रशिक्षण परिषद्/सीमेट (एस.आई.ई.एम.ए.टी.) जैसी राष्ट्रीय एवं राज्यस्तरीय संस्थाओं के लिए क्षमता निर्माण की महत्वपूर्ण भूमिका की परिकल्पना की गयी है। गुणवत्ता में सुधार के लिए विशषज्ञों के स्थायी सहयोग वाली प्रणाली की आवश्यकता है।

शैक्षिक प्रशासन की प्रमुख धारा में सुधार –इसमें संस्थागत विकास, नयी पहल को शामिल करके और लागत प्रभावी और कुशल पद्धतियां अपनाकर शैक्षिक प्रशासन की मुख्य धारा में सुधार करने की अपेक्षा है।

पूर्ण पारदर्शिता युक्त सामुदायिक निरीक्षण – इस कार्यक्रम में समुदाय आधारित पद्धति अपनायी जायेगी। शैक्षिक प्रबंध सूचना पद्धति, माइक्रो योजना और सर्वेक्षण से समुदाय आधारित सूचना के साथ स्कूल स्तरीय आंकड़ों का संबंध स्थापित करेगा। इसके अतिरिक्त प्रत्येक स्कूल एक नोटिस बोर्ड रखेगा जिसमें स्कूल द्वारा प्राप्त किये गए सारे अनुदान और अन्य ब्यौरे दर्शाए जाएंगे।

योजना इकाई के रूप में बस्ती –सर्व शिक्षा अभियान आयोजना की इकाई के रूप में बस्ती के साथ योजना बनाते हुए समुदाय आधारित दृष्टिकोण पर कार्य करता है। बस्ती योजनाएं जिला की योजनाएं तैयार करने का आधार होंगी।

समुदाय के प्रति जवाबदेही –सर्व शिक्षा अभियान में शिक्षकों, अभिभावकों और पंचायतीराज संस्थाओं के बीच सहयोग तथा जवाबदेही एवं पारदर्शिता की परिकल्पना की गयी है।

लड़कियों की शिक्षा –लड़कियों विशेषकर अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति की लड़कियों की शिक्षा, सर्व शिक्षा अभियान का एक प्रमुख लक्ष्य होगा।

विशेष समूहों पर ध्यान –अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, धार्मिक एवं भाषाई अल्पसंख्यकों, वंचित वर्गो के बच्चों और विकलांग बच्चों की शैक्षिक सहभागिता पर विशेष ध्यान दिया जाएगा।

परियोजना पूर्व चरण –सर्व शिक्षा अभियान पूरे देश में सुनियोजित रूप से परियोजनापूर्व चरण प्रारम्भ करेगा जो वितरण और निरीक्षण (मॉनीटरिंग) पद्धति को सुधार कर क्षमता विकास के कार्यक्रम चलाएगा।

गुणवत्ता पर बल देना –सर्व शिक्षा अभियान पाठ्यचर्या में सुधार करके तथा बाल केन्द्रित कार्यकलापों और प्रभावी शिक्षण पद्धतियों को अपनाकर प्रारंभिक स्तर तक शिक्षा को उपयोगी और प्रासंगिक बनाने पर विशेष बल देता है।

शिक्षकों की भूमिका –सर्व शिक्षा अभियान, शिक्षकों की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करता है और उनकी विकास संबंधी आवश्यकताओं पर ध्यान देने का समर्थन करता है। प्रखंड संसाधन केन्द्र/सामूहिक संसाधन केन्द्र की स्थापना, योग्य शिक्षकों की नियुक्ति, पाठ्यचर्या से संबंधित सामग्री के विकास में सहयोग के जरिये शिक्षक विकास के अवसर, शिक्षा संबंधी प्रक्रियाओं पर ध्यान देना और शिक्षकों के एक्सपोजर दौरे, शिक्षकों के बीच मानव संसाधन को विकसित करने के उद्देश्य से तैयार किए जाते हैं।

जिला प्रारम्भिक शिक्षा योजनाएँ –सर्व शिक्षा अभियान के कार्य ढाँचे के अनुसार प्रत्येक जिला एक जिला प्रारम्भिक शिक्षा योजना तैयार करेगा जो संकेद्रित और समग्र दृष्टिकोण से युक्त प्रारम्भिक शिक्षा के क्षेत्र में किए गए सभी निवेशों को दर्शाएगा।

जिला प्रारंभिक शिक्षा योजना – सर्व शिक्षा अभियान ढाँचा के अनुसार प्रत्येक जिला प्रारंभिक शिक्षा के क्षेत्र में समग्र एवं केन्द्रित दृष्टिकोण के साथ, निवेश किये जाने वाले और उसके लिए जरूरी राशि को प्रदर्शित करने वाली एक जिला प्रारंभिक शिक्षा योजना तैयार करेगी। यहाँ एक प्रत्यक्ष योजना होगी जो दीर्घावधि तक सार्वभौमिक प्रारंभिक शिक्षा के लक्ष्य को प्राप्त करने की गतिविधियों को ढ़ाँचा प्रदान करेगा। उसमें एक वार्षिक कार्ययोजना एवं बजट भी होगा जिसमें सालभर में प्राथमिकता के आधार पर संपादित की जाने वाली गतिविधियों की सूची होंगी। प्रत्यक्ष योजना एक प्रामाणिक दस्तावेज होगा जिसमें कार्यक्रम कार्यान्वयन के मध्य में निरन्तर सुधार भी होगा।

उपलब्धि परीक्षण, प्रमापित परीक्षण, शिक्षक – निर्मित परीक्षण, मौखिक परीक्षण, निबन्धात्मक परीक्षण, वस्तुनिष्ठ परीक्षण

प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में अनेकों प्रकार का ज्ञान तथा कौशल प्राप्त करता है। इस ज्ञान तथा कौशल में कितनी दक्षता व्यक्ति ने प्राप्त की है, इसका पता उस ज्ञान तथा कौशल के उपलब्धि परीक्षण से ही चलता है।विद्यालय की विभिन्न कक्षाओं में अनेकों प्रकार के छात्र, शिक्षा ग्रहण करने के लिए आते हैं। समान मानसिक योग्यताओं से सम्पन्न न होने के कारण वे समय की एक ही अवधि में विभिन्न विषयों तथा कुशलताओं में विभिन्न सीमाओं तक प्रगति करते हैं। उनकी इसी प्रगति, प्राप्ति या उपलब्धि का मापन या मूल्यांकन करने के लिए उपलब्धि परीक्षाओं की व्यवस्था की गई है।

उपलब्धि परीक्षण का अर्थ एवं परिभाषाएँ
उपलब्धि परीक्षाएँ वे परीक्षाएँ हैं, जिनकी सहायता से विद्यालय में पढ़ाये जाने वाले विषयों और सिखाई जाने वाली कुशलताओं में छात्रों की सफलता या उपलब्धि का ज्ञान प्राप्त किया जाता है।
उपलब्धि परीक्षाओं के अर्थ को अधिक स्पष्ट करने के लिए कुछ परिभाषाएँ प्रस्तुत हैं –

  1. प्रेसी, रॉबिन्सन व हॉरक्स के अनुसार :-
    उपलब्धि परीक्षाओं का निर्माण मुख्य रूप से छात्रों के सीखने के स्वरूप और सीमा का माप करने के लिए किया जाता है।
  2. गैरिसन व अन्य के अनुसार :-
    उपलब्धि परीक्षा, बालक की वर्तमान योग्यता या किसी विशिष्ट विषय के क्षेत्र में उसके ज्ञान की सीमा का मूल्यांकन करती हैं।
  3. थॉर्नडाइक व हेगन के अनुसार :-
    जब हम उपलब्धि परीक्षा का प्रयोग करते हैं, तब हम इस बात का निश्चय करना चाहते हैं कि एक विशिष्ट प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त व्यक्ति ने क्या सीखा है।

उपलब्धि परीक्षण की विशेषताएँ
उपलब्धि परीक्षण, ज्ञान तथा कौशल के मापन के लिए होती है, इसलिये विद्यालयों से इसका सीधा सम्बन्ध होता है। इसकी विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

उपलब्धि परीक्षण दि हुए ज्ञान तथा कौशल का मापन करता है।
उपलब्धि परीक्षण द्वारा ज्ञान तथा उपलब्धि की लब्धि ज्ञात की जाती है।
उपलब्धि परीक्षण में प्रश्नों की रचना उपलब्धि की मात्रा की गणना तथा व्यक्ति की प्रगति की मात्रा का मापन करने के लिए की जाती
उपलब्धि परीक्षण से वर्तमान प्रगति का पता चलता है।
विषयों की भिन्नता के अनुसार अलग – अलग परीक्षण बनाये जाते हैं।
उपलब्धि परीक्षण में अर्जित ज्ञान का मापन उसका साध्य होता है।
उपलब्धि परीक्षण, व्यक्ति की उपलब्धि की क्षमता का प्रदर्शन करता है।

उपलब्धि परीक्षण का उद्देश्य
साधारणतः वर्ष के अन्त में विभिन्न कक्षाओं के छात्रों के लिए उपलब्धि परीक्षाओं का आयोजन निम्नलिखित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किया जाता है –

बालकों की उपलब्धि से सामान्य स्तर को निर्धारित करने के लिए किया जाता है।
बालकों को पढ़ाये जाने वाले विद्यालय – विषयों में उनकी ज्ञान की सीमा का मापन करने के लिए किया जाता है।
बालकों की विभिन्न विषयों तथा क्रियाओं में वास्तविक स्थिति को ज्ञात करने के लिए किया जाता है।
बालकों की पढ़ने – लिखने के समान कुशलताओं में गति तथा श्रेष्ठता को निश्चित करने के लिए किया जाता है।
पाठ्यक्रम के लक्ष्यों तथा उद्देश्यों की प्राप्ति की और बालकों की प्रगति की जानकारी करने के लिए किया जाता है।
बालकों को ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में दिये गए प्रशिक्षण के परिणामों का मूल्यांकन करने के लिए किया जाता है। बालकों की अधिगम सम्बन्धी कठिनाइयों को ज्ञात करने तथा उनका निवारण करने के लिए पाठ्यक्रमों में आवश्यक परिवर्तन करने के लिए किया जाता है।
शिक्षक के शिक्षण तथा अध्ययन की सफलता का अनुमान लगाने के लिए किया जाता है।

उपलब्धि परीक्षण के प्रकार
डगलस एवं हॉलैण्ड के अनुसार उपलब्धि परीक्षण निम्नलिखित प्रकार के होते हैं –

प्रमापित परीक्षण
शिक्षक – निर्मित परीक्षण
मौखिक परीक्षण
निबन्धात्मक परीक्षण
वस्तुनिष्ठ परीक्षण


प्रमापित परीक्षण

प्रमापित परीक्षण आधुनिक युग की एक देन है। इनके अर्थ को स्पष्ट करते हुए थॉर्नडाइक व हेगम ने कहा है कि प्रमापित परीक्षण का अभिप्राय केवल यह है कि सब छात्र समान निर्देशों और समय की समान सीमाओं के अन्तर्गत समान प्रश्नों और अनेक प्रश्नों का उत्तर देते हैं। प्रमापित परीक्षणों के कुछ उल्लेखनीय तथ्य निम्नलिखित हैं –

इनका निर्माण एक विशेषज्ञ या विशेषज्ञों के समूह द्वारा किया जाता है।
इनका निर्माण, परीक्षण – निर्माण के निश्चित नियमों तथा सिद्धान्तों के अनुसार किया जाता है।
इनकानिर्माण विभिन्न कक्षाओं तथा विषयों के लिए किया जाता है। एक कक्षा तथा एक विषय के लिए अनेक प्रकार के परीक्षण होते हैं।
जिस कक्षा के लिए जिन परीक्षणों का निर्माण किया जाता है, उनको विभिन्न स्थानों पर उसी कक्षा के सैकड़ों – हजारों बालकों पर प्रयोग करके निर्दोष बनाया जाता है या प्रमापित किया जाता है।
निर्माण के समय इसमें प्रश्नों की संख्या बहुत अधिक होती है, लेकिन विभिन्न स्थानों पर प्रयोग किए जाने के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले अनुभवों के आधार पर उनकी संख्या में काफी कमी कर दी जाती है।
इनमें दिए हुए प्रश्नों को निश्चित निर्देशों के अनुसार निश्चित समय के अन्तर्गत करना पड़ता है। मूल्यांकन या अंक प्रदान करने के लिए भी निर्देश होते हैं।
इनका प्रकाशन किसी संस्था या व्यापारिक फर्म के द्वारा किया जाता है। जैसे – भारत में सेन्ट्रल इन्स्टीट्यूट ऑफ एजूकेशन, राष्ट्रीय शैक्षणिक एवं प्रशिक्षण परिषद्, जामिया मिलिया, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस इत्यादि ने इनको प्रकाशित किया है।


शिक्षक – निर्मित परीक्षण
शिक्षक – निर्मित परीक्षण, आत्मनिष्ठ तथा वस्तुनिष्ठ दोनों प्रकार के होते हैं। सामान्य रूप से शिक्षकों द्वारा सभी विषयों पर परीक्षणों का निर्माण किया जाता है तथा कुछ समय पूर्व तक इन परीक्षणों का रूप आत्मनिष्ठ था। भारत में अब भी इसी प्रकार के परीक्षणों का प्रचलन है, यद्यपि वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के निर्माण की दिशा में सक्रिय कदम उठाये जा रहे हैं। सब शिक्षकों में परीक्षणों के लिए प्रश्नों का निर्माण करने की समान योग्यता नहीं होती है। अतः एक ही विषय पर दो | शिक्षकों द्वारा निर्मित प्रश्नों के स्तरों में अन्तर हो सकता है। इसीलिए, शिक्षक निर्मित परीक्षणों को विश्वसनीय नहीं माना जाता है। ऐलिस ने कहा है कि –

“शिक्षक – निर्मित परीक्षणों में बधा कम विश्वसनीयता होती है’

प्रमापित एवं शिक्षक – निर्मित परीक्षण की तुलना
थॉर्नडाइक एवं हेगन ने प्रमापित परीक्षण को शिक्षक – निर्मित परीक्षण से श्रेष्ठतर सिद्ध करने के लिए निम्नलिखित तथ्य प्रस्तुत किए हैं –

प्रमापित परीक्षण को सम्पूर्ण देश के किसी भी विद्यालय की किसी भी कक्षा के लिए प्रयोग किया जा सकता है, लेकिन शिक्षक – निर्मित परीक्षण को केवल उसी विद्यालय की किसी विशेष कक्षा के लिए प्रयोग किया जा सकता है।
प्रमापित परीक्षण का निर्माण किसी विशेषज्ञ या विशेषज्ञों के समूह के द्वारा किया जाता है, लेकिन शिक्षक – निर्मित परीक्षण का निर्माण अध्यापक के द्वारा अकेले तथा किसी की सहायता के बिना किया जाता है।
प्रमापित परीक्षण में प्रयोग की जाने वाली परीक्षा – सामग्री का व्यापक रूप में पहले ही परीक्षण कर लिया जाता है, लेकिन शिक्षक – निर्मित परीक्षण में इस प्रकार का कोई परीक्षण नहीं किया जाता है।
प्रमापित परीक्षण में बहुत कुछ विश्वसनीयता होती है, लेकिन शिक्षक – निर्मित परीक्षण में कम विश्वसनीयता होती है। इस सम्बन्ध में थॉर्नडाइक व हेगन की सलाह है कि –
प्रमापित परीक्षणों का ही विश्वास किया जाना चाहिए।
कुछ लेखकों ने प्रमापित परीक्षण को शिक्षक – निर्मित परीक्षण से निम्नतर सिद्ध करने के लिए निम्नलिखित कारण प्रस्तुत किए हैं, जो निम्नलिखित हैं –

प्रमापित परीक्षण के निर्माण के लिए बहत समय तथा धन की आवश्यकता होती है, लेकिन शिक्षक – निर्मित परीक्षण के लिए अति अल्प समय तथा धन काफी है।
प्रमापित परीक्षण इस बात का मूल्यांकन नहीं कर सकता है कि कक्षा में क्या पढ़ाया जा सकता था ? क्या पढ़ाया जाना चाहिए था ? लेकिन शिक्षक – निर्मित परीक्षण इन दोनों बातों का मूल्यांकन कर सकता है।
प्रमापित परीक्षण, शिक्षक के शैक्षिक लक्ष्यों का अनुमान लगाने में असफल रहता है, लेकिन शिक्षक – निर्मित परीक्षण इन लक्ष्यों का मापन कर सकता है।
प्रमापित परीक्षण, अध्यापक की शैक्षिक सफलता तथा छात्रों की वास्तविक प्रगति का मूल्यांकन करने में सफल नहीं होता है, लेकिन शिक्षण – निर्मित परीक्षण देते हैं।
अतः उपरोक्त कारणों के फलस्वरूप अनेक लेखक प्रमापित परीक्षण को शिक्षक – निर्मित परीक्षण से निम्नतर स्थान देते हैं। आज जिन परिस्थितियों में हमारे विद्यालय कार्य कर रहे हैं, उन पर विचार करके तो यही कहना उचित जान पड़ता है कि शिक्षक – निर्मित परीक्षणों का प्रयोग ही अधिक लाभदायक है। प्रमापित परीक्षणों के प्रयोग में तीन विशेष आपत्तियाँ हैं–

उनको काफी धन व्यय करके ही प्रयोग किया जा सकता है, लेकिन धन व्यय करने पर भी यह आवश्यक नहीं है कि वे उचित समय पर उपलब्ध हो जाए।
विद्यालयतथा छात्रों की स्थानीय आवश्यकताओं को केवल शिक्षक निर्मित परीक्षण ही पूरा कर सकते हैं, लेकिन प्रमापित परीक्षण नहीं।
प्रमापित परीक्षण का भले ही सर्वोत्तम विधि से निर्माण किया गया हो, पर यह आवश्यक नहीं है कि उसमें एक विशेष अध्यापक या एक विशेष विद्यालय के सभी महत्त्वपूर्ण लक्ष्यों का समावेश हो।


मौखिक परीक्षण
एक समय ऐसा था, जब विद्यालयों तथा उच्च शिक्षा – संस्थाओं में मौखिक परीक्षाओं की प्रधानता थी, लेकिन आधुनिक युग में लिखित परीक्षाओं का प्रचलन होने के कारण इनका महत्त्व बहुत कम हो गया है। फिर भी, प्राथमिक कक्षाओं तथा उच्च कक्षाओं में विज्ञान के विषयों की प्रयोगात्मक परीक्षाओं एवं वायवा के रूप में अब भी इनका अस्तित्व शेष है। मौखिक परीक्षा का मूल्यांकन करते हुए राईटस्टोन ने कहा है कि मौखिक परीक्षा कितनी भी अच्छी क्यों न हो, पर छात्रों को अंक प्रदान करने के लिए एक निम्न साधन है। इसका महत्त्व केवल निदानात्मक साधन के रूप में और उन परिस्थितियों में है, जिनमें लिखित परीक्षाओं का प्रयोग नहीं किया जा सकता है।

निबन्धात्मक परीक्षण
निबन्धात्मक परीक्षण, सर्वाधिक प्रचलित उपलब्धि परीक्षण हैं। इन्हें शिक्षक बनाता है। इनमें प्रश्नों का उत्तर निबन्ध के रूप में देना पड़ता है, इसीलिए इनको निबन्धात्मक परीक्षण कहा गया हैं। हमारे देश में मात्र निबन्धात्मक परीक्षा का ही प्रचलन है। इस परीक्षा – प्रणाली में छात्रों को कुछ प्रश्न दे दिये जाते हैं, जिनके उत्तर उनको निर्धारित समय में लिखने पड़ते हैं।

निबन्धात्मक परीक्षण के गुण या विशेषताएँ
निबन्धात्मक परीक्षा प्रणाली में उत्तम गुणों का इतनी बहुतायत है कि वर्षों व्यतीत हो जाने पर भी इसकी लोकप्रियता में कोई विशेष न्यूनता दिखाई नहीं पड़ती है। इस प्रणाली के उल्लेखनीय गुण निम्नलिखित है –

  1. यह सब विषयों के लिए उपयोगी है
    यह प्रणाली विद्यालय के सब विषयों के लिए उपयोगी है। इस तरह के एक भी विषय का संकेत नहीं दिया जा सकता है, जिसके लिए इस प्रणाली का लाभप्रद ढंग से प्रयोग नहीं किया जा सके।
  2. इसमें उत्तर एवं भाव प्रकाशन की स्वतन्त्रता है
    यह प्रणाली बालकों को प्रश्नों के उत्तर देने तथा उनके सम्बन्ध में अपने भावों का प्रकाशन करने की पूरी स्वतन्त्रता प्रदान करती है। इन दोनों बातों में उनके ऊपर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं होता है।
  3. यह शिक्षक की सुगमता प्रदान करती है
    यह प्रणाली शिक्षक के लिए अत्यधिक सुगम होती है, क्योंकि वह प्रश्नों की रचना थोड़े ही समय में तथा बिना किसी विशेष प्रयास के कर सकता है। आवश्यकता पड़ने पर वह उनको बोल सकता है या श्यामपट्ट पर लिख भी सकता है।
  4. यह बालकों को सुगमता प्रदान करती है
    यह प्रणाली बालकों के लिए भी सुगम होती है, क्योंकि इसमें ऐसे कोई विशेष निर्देश नहीं होते हैं, जिनको समझने में उनको किसी भी प्रकार की कठिनाई का अनुभव हो।

5 . यह बालकों के तथ्यात्मक ज्ञान की परीक्षा करती है
इस प्रणाली का प्रयोग करके बालकों के तथ्यात्मक ज्ञान की बहुत अधिक सरलता से परीक्षा ली जा सकती है।

  1. यह बालकों की विभिन्न योग्यताओं की परीक्षा करती है
    इस परीक्षा का प्रयोग करके बालकों की लगभग सभी प्रकार की योग्यताओं की परीक्षा ली जा सकती है, जैसे – विचार – संगठन, विवेचन तथा अभिव्यक्ति, सम्बन्ध चिंतन एवं तार्किक लेखन इत्यादि।
  2. यह बालकों के तथ्यात्मक ज्ञान की परीक्षा करती है
    इस प्रणाली का प्रयोग करके बालकों के तथ्यात्मक ज्ञान की बहुत अधिक सरलता से परीक्षा ली जा सकती है।
  3. यह प्रणाली बालकों की प्रगति का वास्तविक ज्ञान कराती है
    यह प्रणाली, शिक्षक को बालकों की प्रगति का वास्तविक ज्ञान प्रदान करती है। वह उनके उत्तरों को पढ़कर उनसे सम्बन्धित विषयों में उपलब्धियों का सही ज्ञान प्राप्त कर लेता है।

निबन्धात्मक परीक्षण के दोष
आधुनिक शिक्षा मनोविज्ञान ने निबन्धात्मक परीक्षा प्रणाली के अनेक दोषों पर प्रकाश डालकर, उसकी अनुपयुक्तता प्रमाणित करने का प्रयास किया है। इनमें से मुख्य दोष निम्नलिखित हैं –

  1. इसमें अंकों में विविधता होती है
    इस प्रणाली में प्रदान किए जाने वाले अंकों में विविधता पाई जाती है। इस सम्बन्ध में अनेकों अध्ययन किए गए हैं। उदाहरणार्थ, स्टार्च एवं इलियट ने बताया है कि जब 142 शिक्षकों द्वारा अंग्रेजी की उत्तर – पुस्तिकाओं की जाँच की गई, तो उनके द्वारा प्रदान किए गए अंक 50 और 95 के बीच में ही थे।
  2. इसमें विश्वसनीयता का अभाव होता है
    इस प्रणाली में जो अंक प्रदान किए जाते हैं, उन पर विश्वास नहीं किया जा सकता है। इसका कारण यह है कि अगर एक छात्र की एक ही उत्तर – पुस्तिका को दो परीक्षक जाँचते हैं, या एक ही शिक्षक कुछ समय व्यतीत होने के बाद जाँचता है, तो अंकों में अन्तर मिलता है। परीक्षा को विश्वसनीय तभी कहा जा सकता है, जब छात्र को अपने उत्तरों के लिए हमेशा समान अंक प्राप्त हो। निबन्धात्मक परीक्षा प्रणाली को इस दृष्टिकोण से विश्वसनीय नहीं कहा जा सकता है।
  3. यह सीमित प्रतिनिधित्व करती है
    इस प्रणाली का सबसे प्रिय दोष यह है कि वह विषय का सीमित प्रतिनिधित्व करती है। इसका अर्थ यह है कि इसमें सम्पूर्ण विषय से सम्बन्धित प्रश्न नहीं पूछे जाते हैं। विषय के अनेक भाग होते हैं, जिस पर एक भी प्रश्न नहीं पूछा जाता है। प्रणाली की इस निर्बलता से लाभ उठाकर छात्र थोड़े से प्रश्नों का चुनाव करके रट लेते हैं। इस निर्बलता का मुख्य कारण है – प्रश्नों की सीमित सीमा। पाँच या दस प्रश्न सम्पूर्ण विषय का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते हैं।
  4. वैधता का अभाव होता है :-
    इस प्रणाली में वैधता का स्पष्ट अभाव होता है । वैधता का अर्थ है कि परीक्षा उन गुणों, तथ्यों तथा कुशलताओं की जाँच करे, जिसकी जाँच करना उसका ध्येय होता है । अनेक अध्ययनों द्वारा यह सिद्ध किया गया है कि निबन्धात्मक परीक्षा वास्तव में विषय के ज्ञान की जाँच न करके, बालकों की भाषा, लेखन – शक्ति इत्यादि की जाँच करती है ।
  5. इसमें भविष्यवाणी का अभाव होता है :-
    इस प्रणाली के परिणामों के आधार पर छात्रों के भविष्य के सम्बन्ध में किसी प्रकार का निश्चित निर्णय नहीं दिया जा सकता है । इसका कारण यह है कि अंकों की प्राप्ति रटने की शक्ति, लेखन – शक्ति, अभिव्यंजना, सुलेख, उपयुक्त भाषा एवं संयोग पर निर्भर रहती है ।
  6. इसमें आत्मनिष्ठता होती है :-
    इस प्रणाली में आत्मनिष्ठता की प्रधानता पाई जाती है, जबकि अच्छे परीक्षण में वस्तुनिष्ठता का होना आवश्यक होता है । इसमें उत्तरों के अंकन में परीक्षक के विचारों, धारणाओं, मानसिक स्तर, मनोदशा, अभिवृत्तियाँ इत्यादि का बहुत प्रभाव पड़ता है । इसमें उत्तर – पुस्तिकाओं के अंकन के लिए वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं के समान कोई उत्तर – तालिका नहीं होती है, जिसको आधार बनाकर सभी परीक्षक, उत्तर – पुस्तिकाओं का अंकन कर सकें । कुछ परीक्षक सहृदय होने के कारण अधिक अंक प्रदान करते हैं, कुछ कठोर होने के कारण कम, कुछ आलसी तथा लापरवाह होने के कारण उत्तरों को पढ़ते ही नहीं हैं, बल्कि अव्यवस्थिति ढंग से अंक प्रदान करते हैं । इन सब कारणों के फलस्वरूप इस प्रणाली में आत्मनिष्ठा की मात्रा अधिक मिलती है ।
  7. इसमें अंकन में अधिक समय लगता है :-
    इस प्रणाली में छात्रों द्वारा दिए जाने वाले उत्तर काफी लम्बे होते हैं । उनको अच्छी तरह से पढ़कर ही उनका उचित ढंग से मूल्यांकन किया जा सकता है । इसके लिए न केवल अधिक समय और अधिक शक्ति की भी आवश्यकता है । स्टालनकर ने कहा है कि –

“अच्छी तरह से लिखे गए निबन्धात्मक प्रश्न का ठीक मूल्यांकन दीर्घकालीन और कठिन कार्य है और इसे उचित प्रकार से करने के लिए बुद्धि, परिश्रम और धैर्य की आवश्यकता है ।”

निबन्धात्मक परीक्षाएँ के विषय में ऐलिस का मत है कि –

“छात्रों को मौलिकता का अवसर देती हैं और उनकी तर्क शक्ति की जाँच करने के लिए वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं की अपेक्षा इनका प्रयोग साधारणतः अधिक सरल है”

वस्तुनिष्ठ परीक्षण
वस्तुनिष्ठ परीक्षण वस्तुनिष्ठ परीक्षणों का विकास करने का सराहनीय कार्य जे . एम . राइस का है। उसने इन परीक्षणों की रचना, प्रयोग और अंकन इत्यादि के सम्बन्ध में अनेकों मौलिक कार्य किए हैं। उसके कार्यों से प्रोत्साहित होकर स्टार्च व इलियट ने अनेक अध्ययन करके इन परीक्षणों की उपयोगिता को सिद्ध किया है। फलस्वरूप इनके प्रयोग पर अधिकाधिक बल दिया जाने लगा है।वस्तुनिष्ठ परीक्षा, वह परीक्षा है, जिनमें विभिन्न परीक्षक स्वतन्त्रापूर्वक कार्य करने के बाद अंकों के सम्बन्ध में एक ही निष्कर्ष पर पहुँचते हैं या समान उत्तरों के लिए समान अंक प्रदान करते हैं।

गुड का कहना है कि –

“वस्तुनिष्ठ परीक्षा साधारणतः सत्य – असत्य उत्तर, बहसंख्यक चुनाव, मिलान या पूरक प्रकार के प्रश्नों पर आधारित होती है, जिसके सही उत्तरों का तालिका की सहायता से अंकन किया जाता है। यदि कोई तालिका के विपरीत होता है, जो उसे गलत माना जाता है”

वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के प्रकार
वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के मुख्य प्रकार निम्नलिखित हैं –

सरल पुनः स्मरण टेस्ट :- इस टेस्ट के अन्तर्गत परीक्षार्थी को प्रश्नों के उत्तर स्वयं स्मरण करके लिखने पड़ते हैं।
सत्य – असत्य टेस्ट :– इस टेस्ट के अन्तर्गत परीक्षार्थी को सत्य या असत्य में उत्तर देने पड़ते हैं।
बहुसंख्यक चुनाव टेस्ट :– इस टेस्ट के अन्तर्गत परीक्षार्थी को दिए हुए अनेक उत्तरों में से सही उत्तर का चुनाव करना पड़ता है।
मिलान टेस्ट :- इस टेस्ट के अन्तर्गत परीक्षार्थी को दो पदों में मिलान करके कोष्ठक में सही पद लिखना पड़ता है।
पूरक टेस्ट :– इस टेस्ट के अन्तर्गत परीक्षार्थी को वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति करनी पड़ती है।


वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के गुण तथा विशेषताएँ
वस्तुनिष्ठ परीक्षा – प्रणाली अपनी विशेषताओं के कारण ही प्रचलन में दिन – प्रतिदिन लगातार वृद्धि होती चली जा रही है। वस्तुनिष्ठ परीक्षा – प्रणाली विशेषताएं निम्नलिखित हैं –

इसमें वैधता होती है :- वैधता इस प्रणाली का एक मुख्य गुण है। यह उसी निर्धारित योग्यता का माप करती है, जिसके लिए इसका निर्माण किया जाता है।
इसमें वस्तुनिष्ठता होती है :- इस प्रणाली में वस्तुनिष्ठता इतनी अधिक होती है कि अंक प्रदान करने के समय परीक्षक के व्यक्तिगत निर्णय, विचार, धारणा, मानसिक स्तर, मनोदशा इत्यादि के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता है।
इसमें विश्वसनीयता होती है :- इस प्रणाली में विश्वसनीयता अपनी चरम सीमा पर पाई जाती है। इसका कारण यह है कि चाहे कोई भी व्यक्ति अंक प्रदान करे, उनमें किसी भी प्रकार का अन्तर नहीं होता है।
इसमें विभेदीकरण होता है :– इस प्रणाली की एक मुख्य विशेषता है – इसकी विभेदीकरण करने की क्षमता। इसका अर्थ यह है कि प्रतिभाशाली तथा मन्दबुद्धि छात्रों के भेद को स्पष्ट कर देती है।
इसमें विस्तृत प्रतिनिधित्व होता है :- इस प्रणाली में प्रत्येक प्रश्न – पत्र में प्रश्नों की संख्या इतनी अधिक होती है कि विषय का कोई भी अंक अछूता नहीं रह जाता है। इस तरह यह प्रणाली विषय का विस्तृत प्रतिनिधित्व करती हैं
इसमें धन की बचत होती है :- इस प्रणाली में इतना कम लिखना पड़ता है कि साधारणतया दो – तीन पृष्ठों की उत्तर – पुस्तिकाएँ काफी होती हैं।
इसमें समय की बचत होती है :- इस प्रणाली में छात्र कम समय में बहुत से प्रश्नों का उत्तर देते हैं। परीक्षकों को भी उत्तर पुस्तिकाओं को जाँचने में कम समय लगता है।
इसमें एक संक्षिप्त उत्तर देना पड़ता है :-प्रणाली में एक प्रश्न का केवल एक ही संक्षिप्त उत्तर हो सकता है। अतः छात्रों को अपने उत्तरों के सम्बन्ध में किसी प्रकार का भ्रम नहीं रह सकता है।
इसमें उत्तर की सरलता होती है :– इस प्रणाली में उत्तर देना बहुत ही आसान होता है। इसका कारण यह है कि छात्र हाँ या नहीं लिखकर सत्य या असत्य में से एक पर निशान लगाकर, एक या दो शब्दों को रेखांकित करके तथा इसी प्रकार के अन्य सरल कार्य करके उत्तर दे सकते हैं।
इसमें छात्रों को सन्तोष प्राप्त होता है :- इस प्रणाली में छात्रों को ठीक अंक मिलते हैं। इससे उनको न केवल सन्तोष ही प्राप्त होता है, बल्कि उनको अधिक परिश्रम करने की प्रेरणा भी मिलती है।
इसमें छात्रों की उत्तर पुस्तिका को जाँचने में कम समय लगता है :- इस प्रणाली में उत्तर – पुस्तिकाओं को जाँचने में इतना कम समय लगता है कि परीक्षण के कुुुछ समय में ही परिणाम घोषित किया जा सकता है। इस तरह यह प्रणाली छात्रों के लिए बहुत उपयोगी है।
इसमें अंकों में समानता होती है :- इस प्रणाली में सब छात्रों को सब परीक्षकों से समान अंक प्राप्त होते हैं।
इसमें अंकन में सरलता होती है :- इस प्रणाली में अंकन, उत्तरों की तालिका की सहायता से किया जाता है। अतः अंकन का कार्य एकदम सरल होता है तथा समय भी कम लगता है।
इसमें रटने का अन्त हो जाता है :- यह प्रणाली रटने की प्रथा का अन्त करती है, क्योंकि इस प्रणाली में कुछ प्रश्नों के उत्तरों को रट लेने से ही काम नहीं चलता है। अतः छात्र रटने के बजाय विषय – वस्तु को ध्यान से पढ़कर स्मरण करते हैं।
इसमें ज्ञान की वास्तविक जाँच होती है :- इस प्रणाली में छात्रों को अति संक्षिप्त उत्तर देने पड़ते हैं। अतः वे अपनी अज्ञानता को भाषा के आवरण में नहीं छिपा पाते हैं। इस तरह यह प्रणाली ज्ञान की वास्तविक जाँच करती है।


वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के दोष
परीक्षणों के निरन्तर प्रयोग से इनमें कुछ दोष इस तरह उभर कर सामने आ गए हैं, जिनके कारण अनेकों शिक्षाविद इनको छात्रों के लिए अहितकर समझने लगे हैं। इस प्रकार के कुछ दोष निम्नलिखित हैं–

यह अनुमान को प्रोत्साहन देता है :– ये परीक्षण, छात्रों में अनुमान लगाने की अवांछनीय प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देते हैं। वे बुद्धि का प्रयोग नहीं करके केवल अनुमान से सत्य या असत्य पर चिह्न लगा देते हैं तथा शब्दों को रेखांकित कर देते हैं।
इसमें भाषा व शैली की दुर्बलता होती है :– इन परीक्षणों का भाषा तथा शैली से कोई प्रयोजन नहीं होता है। अतः छात्र इन बातों की ओर जरा भी ध्यान नहीं देते हैं। फलस्वरूप, उनकी भाषा तथा शैली हमेशा के लिए दुर्बल हो जाती है।
इसमें भाव – प्रकाशन की असमर्थता होती है :– ये परीक्षण, छात्रों की अभिव्यंजना – शक्ति का विकास नहीं कर पाते हैं। अतः वे अपने भावों का प्रकाशन करने में असमर्थ सिद्ध होते हैं।
इसमें श्रेष्ठ मानसिक शक्तियों की जाँच असम्भव होती है :- इन परीक्षणों द्वारा श्रेष्ठ मानसिक शक्तियों की जाँच असम्भव होती है। जैसे – तर्क, चिन्तन, मौलिक विचार, सृजनात्मक कल्पना तथा विश्लेषणात्मक शक्तियों की जाँच का कोई स्थान नहीं होता है।
इसमें केवल तथ्यात्मक ज्ञान की जाँच होती है :– इन परीक्षणों द्वारा केवल तथ्यात्मक ज्ञान पर बल दिया जाता है। अतः इसके अन्तर्गत केवल इसी ज्ञान की जाँच की जा सकती है।
इसमें विवादग्रस्त तथ्यों एवं समस्याओं की अवहेलना होती है :– साहित्य, इतिहास तथा सामाजिक विज्ञान में अनेकों विवादग्रस्त तथ्य तथा समस्याएँ होती हैं तथा इनको अत्यधिक महत्त्वपूर्ण समझा जाता है, क्योंकि वस्तुनिष्ठ परीक्षणों में प्रश्नों के उत्तर सन्देहपूर्ण नहीं हो सकते हैं। इसलिए इन महत्त्वपूर्ण विवादग्रस्त तथ्यों तथा समस्याओं को हमेशा के लिए छोड़ दिया जाता है।
इसमें अधिक धन की आवश्यकता होती है- वस्तुनिष्ठ परीक्षणों में प्रश्नों की संख्या बहुत अधिक होती है :- इन प्रश्नों को बोलना या श्यामपट्ट पर लिखना असम्भव होता है। अतः हर बार इनकी उतनी ही प्रतियाँ छपवानी पड़ती हैं, जितने कि छात्र होते हैं। इसके लिए काफी मात्रा में धन की आवश्यकता पड़ती है।
इसमें शिक्षक पर अत्यधिक भार होता है :- ये परीक्षण, शिक्षक पर अत्यधिक भार डालते हैं। छोटे उत्तरों वाले प्रश्नों को बनाने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है। इसके अलावा इनकी संख्या भी बहुत अधिक होती है। अतः इसका अधिकांश समय इन प्रश्नों की रचना में व्यतीत हो जाता है।

वस्तुनिष्ठ परीक्षणों का योगदान
स्किनर का विचार है कि अपनी सीमाओं के बावजूद वस्तुनिष्ठ परीक्षणों ने शिक्षा को चार रूपों में अपूर्व योगदान दिया है –

• इन परीक्षणों ने छात्रों में वैयक्तिक भेदों की उपस्थिति पर बल देने वाले साधनों के रूप में काम किया है।

• इन्होंने छात्रों की शक्तियों तथा उपलब्धियों का अधिक उत्तम वर्गीकरण करने की विधि प्रस्तुत की है।

• इन्होंने छात्रों के बारे में शिक्षकों के अति त्वरित, अति संकुचित तथा अति वैयक्तिक निर्णयों पर अंकुश लगा दिया है।

स्किनर ने कहा है कि – ऐसे परीक्षणों के बिना जिन पर अंक वस्तुनिष्ठ दृष्टि से दिए जाते हैं, बच्चों और युवकों के मानसिक और शैक्षिक विकास पर बहुत सा ऐसा अनुसन्धान नहीं हो पाता, जिसने शिक्षा की प्रक्रिया पर प्रभाव डाला है। “

National Policy on Education, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986

शिक्षा आयोग (1964-66) में भारतीय शिक्षा के प्रति के स्तर को सुधारने, उसका विकास तथा भारती करण करने तथा छात्रों के चारित्रिक विकास के लिए बड़े उपयोगी सुझाव दिए | इसमें शिक्षा को राष्ट्र के आर्थिक सामाजिक तथा औद्योगिक आवश्यकता के अनुरूप बनाने की पूरी-पूरी कोशिश की जुलाई 1968 में सर्वप्रथम भारत के राष्ट्रीय शिक्षा नीति की घोषणा की गई, परंतु शिक्षा नीति के प्रस्तावों एवं प्रावधानों को पूरी तरह से लागू नहीं किया जा सका |

जनवरी सन 1985 में देश के भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी ने नए राष्ट्रीय शिक्षा नीति विकसित करके उसे लागू करने की घोषणा की, जिसमें शिक्षा व्यवस्था का विश्लेषण कर समीक्षा की गई |

इस समस्या विश्लेषण के आधार पर शिक्षा की चुनौती- ‘A policy perspective’ प्रमाण पत्र प्रकाशित किया गया | इस सवाल पत्र के आधार पर राष्ट्रीय शिक्षा नीति के प्रस्तावित प्रारूप को अंतिम रूप प्रदान करने के लिए केंद्रीय शिक्षा सलाहकार समिति मंडल के सामने प्रस्तुत किया गया तथा मई सन 1986 संसद द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा नीति के प्रारूप को राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 के रूप में स्वीकृति प्रदान कर दी गई | इसमें यह स्पष्ट किया गया कि राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली से अभिप्राय एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था से है, जिसके अंतर्गत जाति, धर्म, लिंग एवं निवास के विभेदीकरण के बिना एक निश्चित स्तर तक सभी को तुलनात्मक गुणवत्ता के साथ शिक्षा प्रदान की जा सके |

राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 1986 में नवीन राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू की गई ताकि शिक्षा में व्याप्त कमियों को दूर किया जा सके तथा देश की वर्तमान और भावी राष्ट्रीय आवश्यकता ओं के अनुसार शिक्षा का स्वरूप तैयार किया जा सके | इस नीति के अनुसार शिक्षा को राष्ट्रीय उद्देश्य और राष्ट्रीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अग्रसर किया गया, ताकि शिक्षा के लोग व्यतिकरण के साथ-साथ शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार हो सके |

राष्ट्रीय आवश्यकताएं- राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का मूल आधार भारतीय संविधान में वर्णित स्वतंत्रता समानता धर्मनिरपेक्षता तथा लोकतांत्रिक समाज के आदेशों को माना गया है | शिक्षा प्रणाली में बिना किसी जाति, पाति, धर्म, स्थान या लिंग भेद के प्रत्येक बालक के लिए एक निश्चित स्तर तक तुलनीय कोटी की शिक्षा का प्रावधान करने का निश्चय दोहराया गया है |

दुर्भाग्य से वर्तमान शिक्षा सामान्य जनजीवन उसकी आवश्यकताएं और आकांक्षाओं से सर्वथा असमबंध रही है | इसी कारण उसकी अंतर्वस्तु (Contents) राष्ट्रीय विकास के उद्देश्य और हितों के अनुकूल नहीं है|
अतः उन सब बातों पर विचार करके यह निर्णय लिया गया कि शिक्षा राष्ट्रीय विकास की साधीका ना सके| इसके लिए आवश्यक है कि शिक्षा को जनता के जीवन से, जनता की आवश्यकताओं से और जनता की आकांक्षाओं से संयुक्त किया जाए ताकि शिक्षा उन सामाजिक आर्थिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तनों का शक्तिशाली वाहन बन सके, जो राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक है| इस प्रयोजन से शिक्षा का नियोजन इस प्रकार किया जाए कि वह-

  1. उत्पादकता बढ़ाएं |
  2. सामाजिक राष्ट्रीय एकीकरण को सूजन करें |
  3. आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को तेज करें |
  4. सामाजिक नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों का पोषण करें|

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 के प्रस्ताव

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 के प्रस्ताव या प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं |

  1. राष्ट्रीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए 10+2+3 शिक्षा पद्धति की अपनाया गया, जिसमें शैक्षिक संरचना 5 वर्वीय प्राथमिक शिक्षा, 3 वर्षीय उच्च प्राथमिक शिक्षा (मिडिल), 2 वर्षीय माध्यमिक शिक्षा (हाईस्कूल), 2 वर्षीय उच्चतर माध्यमिक शिक्षा तथा 3 वर्षीय प्रथम उपाधि शिक्षा से संयुक्त की गई।
  2. विद्यालय स्तर की 10 वर्षीय शिक्षा का पाठ्यक्रम सारे देश में समानता के आधार पर लागू किया गया, जिसमें आवश्यकतानुसार लचीलेपन के लिए गुंजाइश रखी गयी। भारत के समी भावी नागरिकों से देश की एकता, अखण्डता, भारतीय संस्कृति के प्रति गौरव की भावना तथा भारतीयता के अनुरूप जीवन मूल्यों को ढालने की दृष्टि से समान पाठ्यक्रम में भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन, संवैधानिक दायित्व, राष्ट्रीय पहचान, भारतीय संस्कृति के मूल तत्व, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समानता, पर्यावरण संरक्षण, वैज्ञानिक दृष्टिकोण सीमित परिवार आदि पहलुओं का समावेश किया गया है।
  3. शिक्षा के क्षेत्र में, विशेष रूप से उच्च शिक्षा एवं तकनीकी शिक्षा के सन्दर्म में प्रत्येक प्रतिभाशाली विद्यार्थी को शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर प्रदान करने की व्यवस्था की गई है। शोध और विकास तथा विज्ञान व तकनीकी शिक्षा के बारे में देश की विभिन्न संस्थाओ के बीच व्यापक ताना-बाना स्थापित करने के लिए विशेष उपाय किये जाने के प्रयास प्रारम्भ कर दिये गये हैं।

‘जीवन-पर्यन्त शिक्षा’ शैक्षिक प्रणाली का मूलभूत लक्ष्य है। इसका तकाजा है, सार्वजनिक साक्षरता। अत: प्रोढो, गृहणियों, कृषकों, श्रमिकों, व्यवसायियों आदि को अपनी पसन्द तथा सुविधा के अनुसार शिक्षा प्राप्त करने के अवसर उपलब्ध कराये जावेंगे। भविष्य में खुली शिक्षा एवं दूर-शिक्षण का महत्व अधिकाधिक बढाया जायेगा।

  1. विश्वविद्यालय अनुदान-आयोग, अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, भारतीय चिकित्सा परिषद, शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण की राष्ट्रीय परिषद, अखिल भारतीय समाज- विज्ञान शोध परिषद, आदि संस्थाओ को अधिक सुदृढ बनाया जायेगा, ताकि नवीन राष्टीय शिक्षा प्रणाली को संवारने में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह कर सके। शिक्षा के पुनर्निर्माण के लिए, असमानताओं को कम करने के लिए साक्षरता प्रसार के लिए, वैज्ञानिक एवं प्रोद्योगिकी अनुसंधान के लिए तथा इस प्रकार के अन्य लक्ष्यों की पूर्ति हेतु साधन जुटाने के लिए सारा राष्ट्र कटिबद्ध रहेगा।
  2. नवीन शिक्षा नीति के अंतर्गत समाज में व्याप्त असमानताओं को दूर करने के लिए विशेष ध्यान देने की व्यवस्था हैं। हमारे देश में पॉच वर्ग विशेष रूप से उपेक्षित रहे है |
    (I) महिलायें, (ii) अनुसूचित जातियाँ, (iii) अनुसूचित जनजातियाँ, (iv) शारीरिक विकलांग तथा अल्पसंख्यक वर्ग |

महिला-वर्ग की सामाजिक असमानता को मिटाने के लिए शिक्षा को साधन बनाया जायेगा। महिलाओं से सम्बन्धित अध्ययनों को पाठ्यक्रम में प्रोत्साहन दिया जाये| उसकी निरक्षरता निवारण के विशेष प्रयास किये जायेंगे। अनुसूचित जाति के लोगों को अन्य सवर्ण जाति के लोगों के समकक्ष लाने हेतु भरसक प्रयास किये जायेगे। ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न की जायेंगी जिससे कि इस वर्ग के सभी बच्चे कम से कम 14 वर्ष की आयु तक शिक्षा ग्रहण कर सके। जनजाति वर्ग की शिक्षा को बढावा देने के लिए नवीन प्राथमिक शालायें प्राथमिकता के आधार पर आदिवासी क्षेत्रों में खोली जायेंगी। पढे- लिखें आदिवासी युवकों को प्रशिक्षण देकर शिक्षक बनने के लिए प्रोत्साहित किया जायेगा। समाज के अल्पसंख्यक वर्ग शिक्षा की दृष्टि से पिछडे हुए हैं। साधारणतया विकलांगता वाले बालकों को आम बालकों के साथ ही पढाया जावेगा, किंतु गंभीर रूप से विकलांग बालको को शिक्षा हेतु विशेष व्यवस्था की जायेगी।

प्रोढ शिक्षा एवं सतत् शिक्षा के प्रयास किये जायेगे। विभिन्न स्तरों पर शिक्षा का पुनर्गठन किए जायेगा। तकनीकी और प्रबंध शिक्षा का पुनर्गठन करते समय शताब्दी परिवर्तन के बदलाव का ध्यान रखा जायेगा। शिक्षा के व्यवसायकरण को दृष्टिगत रखते हुए विभिन्न स्तरों पढ्यों का पुनर नवीनीकरण किया जायेगा।

  1. राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में सबको प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध करने लक्ष्य की कम से कम समय मे पूरा करने की अनिवार्यता की और ध्यान आकृष्ट कराया था। इसमें सन् 1995 में देश के 14 वर्ष तक की उम्र के सभी बच्चों को मुफ्त ओर अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराने का संकल्प लिमा क्या था। राष्टीय शिक्षा नीति के अन्तर्गत बनायी गयी वर्ष 1987 की कार्ययोजना में सबको प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये कुछ महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम शुरू किए गये और नवीन पहल की गयी। इसके अन्तर्गत स्कूलो में पढाई-लिखाई के माहौल में सुधार और अध्यापकों की कार्यकुशलता बढाने के साथ-साथ 6 से 14 वर्ष तक की उम्र के ऐसे बच्चों के लिये वैकल्पिक शिक्षा प्रणाली की व्यवस्था की गयी थी, जो स्कूली शिक्षा के दायरे से बाहर रह गये थे। इस कार्ययोजना में शिक्षा के क्षेत्र मे केन्द्र द्वारा प्रायोजित तीन प्रमुख कार्यक्रम किए गये। इनमें आपरेशन ब्लैक बोर्ड, शिक्षा प्रशिक्षण के क्षेत्र मे सुधार और पुनर्गठन तथा गैर-औपचारिक शिक्षा का कार्यक्रम सम्मिलित किया गया|
  2. शिक्षा नीति मे विद्यालयो में माध्यमिक स्तर पर गणित, विज्ञान, कफ्यूटर एवं पर्यावरण का ज्ञान दिये जाने की व्यवस्था एवं 1968 की नीति के अनुसार भाषा अध्ययन के मूल्यांक्ल का प्रस्ताव किया गया। विद्यालयों में योग शिक्षा की व्यवस्था के प्रयास किये जाएँगे।
  3. राष्ट्रीय शिक्षा नीति में अध्यापकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था में क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिए प्रस्ताव किया गया। प्राथमिक शिक्षकों के पूर्व सेवा एवं सेवारत प्रशिक्षण के लिए जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान (डाइट) के रूप में विकसित करने का प्रावधान किया गया।
  4. राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शिक्षा प्रबन्ध पर विचार किया गया, जिसमें शिक्षा, प्रबंध का विकेंद्रीकरण करने और स्वायत्तता की भावना का सृजन करने का प्रस्ताव किया गया।
  5. शिक्षा नीति मे शिक्षा की आर्थिक व्यवस्था का स्वरूप राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1968) के राष्ट्रीय आय का 6 प्रतिशत से अधिक शिक्षा पर व्यय करने के प्रस्ताव को स्वीकार किया गया। शिक्षा पर केंद्रीय बजट का 10 प्रतिशत तथा राज्य बजट पर 30 प्रतिशत व्यय किया जायेगा। शिक्षा के विकास के लिए धन स्रोत सरकारी अनुदान के अतिरिक्त दान को प्रोत्साहित कर वृद्धि करके एवं बचत करके संसाधन जुटाये जायेगे।
  6. राष्ट्रीय शिक्षा नीति मेँ यह भी प्रावधान किया गया कि शिक्षा नीति के आयामों, क्रियान्वयन उपलब्धियों एवं कमियों आदि की समीक्षा प्रत्येक पांच वर्ष बाद की जायेगी।

राट्रीय शिक्षा नीति, 1986 का क्रियान्वयन संसद ने 1986 में बजट के दौरान राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 पर विचार-विमर्श किया और उसे अपनी स्वीकृति प्रदान की। उस समय मानव संसाधन विकास मंत्री के द्वारा यह विश्वास दिलाया गया था कि वह वर्षाकालीन सत्र में नीति के क्रियान्वयन के लिये एक कार्यं-योजना प्रस्तुत करेगे। बजट सत्र के शीघ्र बाद मंत्रालय ने कार्य-योजना तैयार करने का कार्य तटस्थता के साथ करना प्रारंभ कर दिया।

प्रारंभ मे 23 कार्यदल गठित किये गये तथा प्रत्येक कार्यदल को राष्ट्रीय शिक्षा नीति का एक विषय सौपा गया। प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री, विशेषज्ञ एवं केंद्रीय एवं राज्य सरकारों के वरिष्ठ प्रतिनिधि इन कार्य दलो से सम्बद्ध थे।

इन कार्यदलों को निम्मलिखित विषय सौपे गये थे |

(1) विद्यालय शिक्षा की विषयवस्तु और प्रक्रिया।
(2 ) नागरिकों की समानता के लिये शिक्षा।
(3) अल्पसंख्यकों की शिक्षा।
(4) शिक्षा प्रणाली को लागू करना।
(5) विकलांगो की शिक्षा।
(6) अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछडे वगों की शिक्षा|
(7) प्रारंभिक शिक्षा (अनौपचारिक शिक्षा एवं ऑपरेशन ऑफ़ ब्लैक बोर्ड)
(8) प्रौढ तथा सतत् शिक्षा।
(9) शिशु देखभाल एवं शिक्षा।
(1०) व्यावसायीकरण |
(11) माध्यमिक शिक्षा एवं नवोदय विद्यालय|
(12) उच्च शिक्षा।
(13) अनुसंधान एवं विकास |
(14) खुला विश्वविद्यालय एवं दूरस्थ शिक्षा।
(15) तकनीकी एवं प्रबन्ध शिक्षा।
(16) उपाधियों को नौकरियों से पृथक करना एवं जनशक्ति आयोजन |
(17) संचार माध्यम एवं शैक्षिक प्रोद्योगिकी।
(18) खेल, शारीरिक शिक्षा एवं युवा।
(19) सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य तथा भाषा नीति का कार्यान्वयन |
(2०) शिक्षक तथा उनका प्रशिक्षण |
(21) मूल्यांकन प्रणाली एवं परीक्षा सुधार |
(22) ग्रामीण विश्वविद्यालय या संस्थाएं।
(23) शिक्षा का प्रबन्ध |

कार्यदलों से उनको सौपे गये विषयों की वर्तमान स्थिति की जाँच करने एवं राष्ट्रीय शिक्षा नीति के विशिष्ट विवरणों का संक्षेप में उल्लेख करने का अनुरोध किया गया था। इसके अन्तर्गत कार्यदलों से यह आशा की गयी थी कि वे आवश्यक कार्यवाही और कार्यक्रमों के व्यापक लक्ष्यों एवं चरणों का भी उल्लेख करें । इसके अतिरिक्त उनसे प्रत्येक चरण के सन्दर्भ में विस्तृत वित्तीय दायित्वों को निर्दिष्ट करने का भी अनुरोध किया गया था।

कार्यदलों ने समय की कमी के बाद भी अपना कार्य बडी सावधानीपूर्वक पूरा किया। उन्होंने अपनी रिपोर्ट जुलाई, 1986 में प्रस्तुत कर दी। इन रिपोर्टों पर मानव संसाधन विकास मंत्री के द्वारा आयोजित की गयी बैठकों में चर्चा की गयी। इन चर्चाओं के पूरा हो जाने के बाद 20 जुलाई, 1986 क्रो राज्य सरकारों या संघ शासित क्षेत्रों के शिक्षा सचिवों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया। इस बैठक के दौरान प्राप्त सुझावों पर सावधानीपूर्वक विचार किया गया तथा राष्ट्रीय शिक्षा नीति के प्रमुख विषयों को ध्यान में रखकर कार्य योजना बनाकर तैयार की गयी। केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड की बैठक नई दिल्ली में एक और दो अगस्त 1986 को हुई। इस बैठक में कार्ययोजना दस्तावेज पर चर्चा की गयी तथा चर्चा में भाग लेने वाले राज्य सरकारों एवं संघ शासित क्षेत्रों के शिक्षा मंत्रियों एवं शिक्षाविदों ने अनेक महत्वपूर्ण सुझाव दिये। कार्ययोजना में इन सभी सुझावों पर विचार किया गया तथा उसे संसद के समक्ष प्रस्तुत किया गया।

संसद ने उसे पारित करके क्रियान्वयन के लिये दे दिया। इसका कार्यान्वयन सन् 1987- 88 से विभिन्न योजनाओं के माध्यम से हुआ।