सिगमंड फ्रायड व्यक्तित्व सिद्धांत, Id, ego and super-ego for CTET, MPTET, REET and all State TETs

उन्नीसवीं सदी के आरम्भ के कुछ समय पहले मनोविज्ञान एक स्वतंत्र विज्ञान के रूप में विकसित हुआ. इससे पहले मनोविज्ञान को दर्शन के अंतर्गत पढ़ा जाता था. उस वक्त मनोविज्ञान का उद्देश्य वयस्क मानव की चेतना का विश्लेषण और अध्ययन करना था. फ्रायड ने इस परम्परागत “चेतना के मनोविज्ञान ” का विरोध किया और मनोविश्लेषण सम्बन्धी कई नई संकल्पनाओं का प्रतिपादन किया जिसपर हमारा आधुनिक मनोविज्ञान टिका हुआ हैi

फ्रायड ने मन या व्यक्तित्व के स्वरुप को गत्यात्मक माना है. उनके अनुसार व्यक्तित्व हमारे मस्तिष्क एवं शरीर की क्रियाओं का नाम है. फ्रायड के मानसिक तत्व होते हैं जो चेतन में नहीं आ पाते या सम्मोहन अथवा चेतना लोप की स्थिति में चेतन में आते हैं. इसमें बाल्य काल की इच्छाएं, लैंगिक इच्छाएं और मानसिक संघर्ष आदि से सम्बंधित वे इच्छाएं होती है, जिनका ज्ञान स्वयं व्यक्ति को भी नहीं होता . इन्हें सामान्यतः व्यक्ति अपने प्रतिदिन की जिंदगी में पूरा नही कर पाता और ये विकृत रूप धारण करके या तो सपनों के रूप में या फिर उन्माद के दौरे के रूप में व्यक्ति के सामने उपस्थित होती हैi

फ्रायड के अनुसार व्यक्तित्व का गत्यात्मक पक्ष तीन अवस्थाओं द्वारा निर्मित होता है –
१. इदं (Id )
२. अहम् (ego)
३. पराअहम् (super ego)

ये तीनो घटक सुसंगठित कार्य करते है, तो व्यक्ति ‘समायोजित’ कहा जाता है। इनसे संघर्ष की स्थिति होने पर व्यक्ति असमायोजित हो जाता है।


(i). इदम् (Id) : यह जन्मजात प्रकृति है। इसमें वासनाएँ और दमित इच्छाएँ होती है। यह तत्काल सुख व संतुष्टि पाना चाहता है। यह पूर्णतः अचेतन में कार्य करता है। यह ‘पाश्विकता का प्रतीक’ है।


(ii). अहम् (Ego) : यह सामाजिक मान्यताओं व परम्पराओं के अनुरूप कार्य करने की प्रेरणा देता है। यह संस्कार, आदर्श, त्याग और बलिदान के लिए तैयार करता है। यह ‘देवत्व का प्रतीक’ है।

(iii). परम अहम् (Super Ego) : अन्तरात्मा की प्रकट करने वाला यह घटक व्यक्ति को गलत मार्ग पर चलने से रोकता है I यह इदम् और परम अहम् के बीच संघर्ष में मध्यस्थता करते हुए इन्हे जीवन की वास्तविकता से जोड़ता है अहम् मानवता का प्रतीक है, जिसका सम्बन्ध वास्तविक जगत से है। जिसमे अहम् दृढ़ व क्रियाशील होता है, वह व्यक्ति समायोजन में सफल रहता है। इस प्रकार व्यक्तित्व इन तीनों घटकों के मध्य ‘समायोजन का परिणाम’ है।


इदं की उत्पति मनुष्य के जन्म के साथ ही हो जाती है. फ्रायड इसे व्यक्तित्व का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा मानता था. इसकी विषयवस्तु वे इच्छाएं हैं जो लिबिडो (यौन मूल प्रवृति की उर्जा ) से सम्बंधित है और तात्कालिक संतुष्टि चाहती है. उर्जा की वृद्धि इदं नही सहन कर पाता और अगर इसे सही ढंग से अभिव्यक्ति नही मिलती तब यह विकृत स्वरुप धारण करके व्यक्ति को प्रभावित करता है. अहम् (ego) फ्रायड के लिए स्व-चेतना की तरह थी जिसे उसने मानव के व्यवहार का द्वितीयक नियामक बताया. यह इदं का संगठित भाग है, इसका उद्देश्य इदं के लक्ष्यों को आगे बढ़ाना है. परा अहम् एक प्रकार का व्यवहार प्रतिमानक होता है, जिससे नैतिक व्यवहार नियोजित होते हैं. इसका विकास अपेक्षाकृत देर से होता हैi

फ्रायड के व्यक्तित्व सम्बन्धी विचारों को मनोलैंगिक विकास का सिद्धांत भी कहा जाता है. इसे फ्रायड ने 5 अवस्थाओं में बांटा है –
१. मौखिक अवस्था (oral stage) – जन्म से एक वर्ष
२. गुदा अवस्था (Anal stage ) – २ से ३ वर्ष
३. लैंगिक अवस्था (Phallic stage) – ४ से ५ वर्ष
४. सुषुप्ता वस्था (Latency stage) – ६ से १२ वर्ष
५. जननिक अवस्था (Gental stage ) – १२ से २० वर्ष

इन्ही के आधार पर उसने विवादस्पद इलेक्ट्रा और ओडिपस काम्प्लेक्स की अवधारणा दी जिसके अनुसार शिशु की लैंगिक शक्ति प्रारंभ में खुद के लिए प्रभावी होती है, जो धीरे -धीरे दूसरे व्यक्तिओं की ओर उन्मुख होती है. इसी कारण पुत्र माता की ओर तथा पुत्री पिता की ओर अधिक आकर्षित होते हैं. इसके कारण लड़कों में माता के प्रति प्रेम और पिता के प्रति प्रतिद्वंदिता उत्पन्न होती है, जिसे फ्रायड द्वारा ओडिपस काम्प्लेक्स का नाम दिया. यह बहुत विवादास्पद और चर्चित अवधारणा रही है. फ्रायड इन संकल्पनाओं की सत्यता साबित करने के लिए आंकड़े नही दे पाए. उन पर आलोचकों ने यह आरोप लगाया की उन्होंने अपने अनुभवों को इन प्रेक्षणों के साथ मिश्रित किया है और जो कुछ भी उनके रोगियों ने कहा उस पर उन्होंने आँख बंद कर विश्वास किया है. फ्रायड पर यह भी आरोप लगे कि वह मनोविज्ञान में जरुरत से अधिक कल्पनाशीलता और मिथकीय ग्रंथों का घालमेल कर रहे हैं, यौन आवश्यकताओं को जरुरत से अधिक स्थान दे रहे हैं.
फ्रायड के कार्य और उन पर आधारित उनकी मान्यताओं के देखने पर हम यह पाते हैं कि फ्रायड ने मानव की पाशविक प्रवृति पर जरुरत से अधिक बल डाला था. उन्होंने यह स्पष्‍ट किया कि निम्नतर पशुओं के बहुत सारे गुण और विशेषताएं मनुष्यों में भी दिखाई देती हैं. उनके द्वारा परिभाषित मूल प्रवृति की संकल्पना भी इसके अंतर्गत आती है.
फ्रायड का यह मत था कि वयस्क व्यक्ति के स्वभाव में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं लाया जा सकता क्योंकि उसके व्यक्तित्व की नींव बचपन में ही पड़ जाती है, जिसे किसी भी तरीके से बदला नही जा सकता. हालाँकि बाद के शोधों से यह साबित हो चुका है कि मनुष्य मूलतः भविष्य उन्मुख होता है. एक शैक्षिक (अकादमिक) मनोविज्ञानी के समान फ्रायड के मनोविज्ञान में क्रमबद्धता नहीं दिखाई देती परन्तु उन्होंने मनोविज्ञान को एक नई परिभाषा दी जिसके आधार पर हम आधुनिक मनोविश्लेषानात्मक मनोविज्ञान को खड़ा पाते हैं और तमाम आलोचनाओं के बाद भी असामान्य मनोविज्ञान और नैदानिक मनोविज्ञान में फ्रायड के योगदान को अनदेखा नही किया जा सकता.

HINDI- कुछ प्रचलित लोकोक्तियाँ For CTET, all State TETs, KVS, NVS, DSSSB etc

1. अधजल गगरी छलकत जाए-(कम गुणवाला व्यक्ति दिखावा बहुत करता है)- श्याम बातेंतो ऐसी करता है जैसे हर विषय में मास्टर हो,वास्तव में उसे किसी विषय का भी पूरा ज्ञान नहीं-अधजल गगरी छलकत जाए।

2. अब पछताए होत क्या, जब चिड़ियाँ चुग गईखेत-(समय निकल जाने पर पछताने से क्या लाभ)-सारा साल तुमने पुस्तकें खोलकर नहीं देखीं। अबपछताए होत क्या, जब चिड़ियाँ चुग गई खेत।

3. आम के आम गुठलियों के दाम-(दुगुना लाभ)-हिन्दी पढ़ने से एक तो आप नई भाषा सीखकरनौकरी पर पदोन्नति कर सकते हैं, दूसरे हिन्दी के उच्च साहित्य का रसास्वादन कर सकते हैं, इसेकहते हैं-आम के आम गुठलियों के दाम।

4. ऊँची दुकान फीका पकवान-(केवल
ऊपरी दिखावा करना)- कनॉटप्लेस के अनेक स्टोर बड़े प्रसिद्ध है, पर सब घटिया दर्जे का माल बेचतेहैं। सच है, ऊँची दुकान फीका पकवान।

5. घर का भेदी लंका ढाए-(आपसी फूट के कारण भेदखोलना)-कई व्यक्ति पहले कांग्रेस में थे, अबजनता (एस) पार्टी में मिलकर काग्रेंस की बुराईकरते हैं। सच है, घर का भेदी लंका ढाए।

6. जिसकी लाठी उसकी भैंस-(शक्तिशाली की विजय होती है)- अंग्रेजों ने सेना के बल पर बंगाल परअधिकार कर लिया था-जिसकी लाठी उसकी भैंस।

7. जल में रहकर मगर से वैर-(किसी के आश्रय मेंरहकर उससे शत्रुता मोल लेना)- जो भारत मेंरहकर विदेशों का गुणगान करते हैं, उनके लिएवही कहावत है कि जल में रहकर मगर से वैर।

8. थोथा चना बाजे घना-(जिसमें सत नहीं होता वहदिखावा करता है)- गजेंद्र नेअभी दसवीं की परीक्षा पास की है, औरआलोचना अपने बड़े-बड़े गुरुजनों की करता है।थोथा चना बाजे घना।

9. दूध का दूध पानी का पानी-(सच और झूठका ठीक फैसला)- सरपंच ने दूध
का दूध,पानी का पानी कर दिखाया, असली दोषी मंगूको ही दंड मिला।

10. दूर के ढोल सुहावने-(जो चीजें दूर सेअच्छी लगती हों)- उनके मसूरी वाले बंगले की बहुत प्रशंसा सुनते थे किन्तु वहाँ दुर्गंध के मारे तंग आकर हमारे मुख से निकल ही गया-दूर के ढोलसुहावने।

11. न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी-(कारण के नष्ट होने पर कार्य न होना)- सारा दिन लड़के आमों केलिए पत्थर मारते रहते थे। हमने आँगन में से आमका वृक्ष की कटवा दिया। न रहेगा बाँस, नबजेगी बाँसुरी।

12. नाच न जाने आँगन टेढ़ा-(काम
करना नहीं आना और बहाने बनाना)-जब रवींद्र नेकहा कि कोई गीत सुनाइए, तो सुनील बोला, ‘आजसमय नहीं है’। फिर किसी दिन कहा तो कहने लगा,‘आज मूड नहीं है’। सच है, नाच न जाने आँगनटेढ़ा।

13. बिन माँगे मोती मिले, माँगे मिले न भीख-(माँगेबिना अच्छी वस्तु की प्राप्ति हो जाती है, माँगने परसाधारण भी नहीं मिलती)- अध्यापकों ने माँगों केलिए हड़ताल कर दी, पर उन्हें क्या मिला ? इनसेतो बैक कर्मचारी अच्छे रहे,उनका भत्ता बढ़ा दिया गया। बिन माँगे मोती मिले,माँगे मिले न भीख।

14. मान न मान मैं तेरा मेहमान-(जबरदस्ती ­किसी का मेहमान बनना)-एक अमेरिकन कहनेलगा, मैं एक मास आपके पास रहकर आपके रहन-सहन का अध्ययन करूँगा। मैंने मन में कहा, अजबआदमी है, मान न मान मैं तेरा मेहमान।

15. मन चंगा तो कठौती में गंगा-(यदि मन पवित्र हैतो घर ही तीर्थ है)-भैया रामेश्वरम जाकर क्या करोगे ? घर पर ही ईशस्तुति करो। मनचंगा तो कठौती में गंगा।

16. दोनों हाथों में लड्डू-(दोनों ओर लाभ)- महेंद्रको इधर उच्च पद मिल रहा था और उधरअमेरिका से वजीफा उसके तो दोनों हाथों में लड्डू थे।

17. नया नौ दिन पुराना सौ दिन-(नई वस्तुओंका विश्वास नहीं होता, पुरानी वस्तु टिकाऊहोती है)- अब भारतीय जनता का यह विश्वास हैकि इस सरकार से तो पहली सरकार फिर भी अच्छी थी। नया नौ दिन, पुराना नौ दिन।

18. बगल में छुरी मुँह में राम-राम-(भीतर सेशत्रुता और ऊपर से मीठी बातें)-साम्राज्यवादी आज भी कुछ
राष्ट्रों को उन्नति की आशा दिलाकर उन्हें अपनेअधीन रखना चाहते हैं, परन्तु अब सभी देश समझगए हैं कि उनकी बगल में छुरी और मुँह में राम-रामहै।

19. लातों के भूत बातों से नहीं मानते-
(शरारती समझाने से वश में नहीं आते)- सलीमबड़ा शरारती है, पर उसके अब्बा उसे प्यार सेसमझाना चाहते हैं। किन्तु वे नहीं जानतेकि लातों के भूत बातों से नहीं मानते।

20. सहज पके जो मीठा होय-(धीरे-धीरे किए जानेवाला कार्य स्थायी फलदायक होता है)- विनोबा भावेका विचार था कि भूमि सुधार धीरे-धीरे औरशांतिपूर्वक लाना चाहिए क्योंकि सहज पकेसो मीठा होय।

Object Permanence, वस्तु स्थायित्व for CTET, MPTET, REET and other State TETs

वस्तु स्थायित्व ज्ञान है कि एक वस्तु तब भी जब यह नहीं रह गया देखा जा सकता है मौजूद करने के लिए जारी है, सुना है, या किसी अन्य तरीके से माना जाता। सबसे पहले प्रस्तावित और मध्य 1900 के दशक में प्रसिद्ध स्विस विकास मनोवैज्ञानिक जीन Piaget द्वारा अध्ययन किया, वस्तु स्थायित्व एक बच्चे के जीवन के पहले दो वर्षों में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर विकास माना जाता है।

महत्वपूर्ण परिणाम: ऑब्जेक्ट स्थायित्व
वस्तु स्थायित्व को समझने के लिए है कि एक वस्तु अभी भी मौजूद न होने पर यह अब किसी भी तरह से माना जा सकता है की क्षमता है।
वस्तु स्थायित्व की अवधारणा स्विस मनोवैज्ञानिक जीन Piaget, जो निर्दिष्ट करने कब और कैसे वस्तु स्थायित्व जीवन के पहले दो वर्षों के दौरान विकसित छह चरणों की एक श्रृंखला का प्रस्ताव द्वारा अध्ययन किया गया।
Piaget के अनुसार, बच्चों के लिए पहले लगभग 8 महीने की उम्र में वस्तु स्थायित्व की एक विचार का विकास शुरू हो, लेकिन अन्य अध्ययनों की क्षमता एक छोटी उम्र में शुरू होता है सुझाव देते हैं।
मूल
Piaget बचपन के विकास के चरण सिद्धांत है, जो चार चरणों में शामिल विकसित की है। पहले चरण, ज्ञानेन्द्रिय चरण कहा जाता है, लगभग 2 वर्ष जन्म से जगह लेता है और तब होता है जब बच्चों को वस्तु स्थायित्व का विकास। ज्ञानेन्द्रिय चरण छह substages के होते हैं। substages में से प्रत्येक में वस्तु स्थायित्व में एक नई उपलब्धि की उम्मीद है।

विस्तार करने के लिए वस्तु स्थायित्व के विकास में substages, Piaget आयोजित सरल पढ़ाई अपने ही बच्चों के साथ। इन अध्ययनों में, Piaget एक कंबल के नीचे एक खिलौना छिपा रखा है, जबकि शिशु देखा था। अगर बच्चे को छिपा खिलौना के लिए खोज की है, यह वस्तु स्थायित्व का एक संकेत के रूप में देखा गया था। Piaget ने कहा कि सामान्य बच्चों में लगभग 8 महीने पुरानी थे जब वे खिलौना के लिए खोज करने के लिए शुरू कर दिया।

वस्तु स्थायित्व के चरण
Piaget के छह substages ज्ञानेन्द्रिय चरण के दौरान वस्तु स्थायित्व की प्राप्ति में इस प्रकार हैं:

चरण 1: 1 माह के लिए जन्म
जन्म के बाद ठीक है, शिशुओं के लिए खुद को बाहर कुछ भी की धारणा नहीं। इस जल्द से जल्द substage में वे अपने सजगता के माध्यम से दुनिया का अनुभव, विशेष रूप से चूसने की पलटा।

स्टेज 2: 1 से 4 महीने
लगभग 1 महीने की उम्र में शुरू, बच्चों क्या Piaget कहा जाता है के माध्यम से जानने के लिए शुरू “परिपत्र प्रतिक्रियाओं।” परिपत्र प्रतिक्रियाओं हो एक नया व्यवहार पर एक शिशु संभावना, अंगूठे के चूसने की तरह, और फिर इसे दोहराने के लिए प्रयास करता है। कार्रवाई के पैटर्न है कि मदद शिशुओं उनके आसपास दुनिया को समझने – ये परिपत्र प्रतिक्रियाओं क्या Piaget स्कीमा या योजनाओं के रूप में भेजा शामिल है। शिशुओं परिपत्र प्रतिक्रियाओं में कई विभिन्न योजनाओं का उपयोग करने के बारे में जानें। उदाहरण के लिए, जब एक बच्चे को अपने अंगूठे बेकार है, वे अपने हाथ आंदोलनों के साथ उनके मुंह से चूसने की कार्रवाई का समन्वय कर रहे हैं।

स्टेज 2 के दौरान शिशुओं अभी भी वस्तु स्थायित्व की कोई मतलब नहीं है। वे अब एक वस्तु या व्यक्ति देख सकते हैं, वे जहां वे अंतिम बार देखे जाने के लिए एक पल के लिए लग सकता है, लेकिन वे यह पता लगाने के लिए प्रयास नहीं करेंगे। विकास में इस बिंदु पर, कहावत “दृष्टि से बाहर, दिमाग से बाहर” लागू होता है।

चरण 3: 4 से 8 महीने
चारों ओर 4 महीने में बच्चों का पालन करेंगे और अपने आसपास के वातावरण के साथ अधिक बातचीत करने के लिए शुरू करते हैं। यह उन्हें खुद के बाहर चीजों के स्थायित्व के बारे में जानने में मदद करता है। इस स्तर पर, अगर कुछ दृष्टि से उनकी लाइन छोड़ देता है, वे देखने के लिए जहां वस्तु गिर गया होगा। इसके अलावा, अगर वे एक वस्तु नीचे रख दिया और दूर हो जाते हैं, वे वस्तु फिर से पा सकते हैं। इसके अलावा, अगर एक कंबल एक खिलौना का हिस्सा शामिल किया गया है, वे खिलौना मिल सकता है।

स्टेज 4: 8 करने के लिए 12 महीने
स्टेज 4 के दौरान, सच वस्तु स्थायित्व उभरने के लिए शुरू होता है। लगभग 8 महीने की उम्र में, बच्चों को सफलतापूर्वक खिलौने पूरी तरह से कंबल के नीचे छिपा पा सकते हैं। फिर भी, Piaget इस स्तर पर बच्चों को ‘वस्तु स्थायित्व की नई भावना के लिए एक सीमा पाया। विशेष रूप से, हालांकि एक शिशु एक खिलौना मिल सकता है जब यह बात एक में छिपा हुआ था, जब एक ही खिलौना बिंदु बी में छिपा हुआ था, शिशुओं फिर खिलौना के लिए बिंदु ए पर विचार करेंगे Piaget के अनुसार, स्टेज 4 में शिशुओं का पालन करने में असमर्थ हैं विभिन्न छिपने के स्थानों के लिए विस्थापन।

स्टेज 5: 12 से 18 महीने
स्टेज 5 में शिशुओं एक वस्तु का विस्थापन का पालन करने के रूप में लंबे समय के रूप में शिशु को एक छिपने की जगह से वस्तु के आंदोलन का निरीक्षण कर सकते सीखते हैं।

स्टेज 6: 18-24 महीनों
अंत में, स्टेज 6, शिशुओं विस्थापन का पालन कर सकते हैं भले ही वे का पालन नहीं करते कैसे उदाहरण के लिए छिपा बिंदु बी करने के लिए छिपा बिंदु A से एक खिलौना ले जाता है, अगर एक सोफे के नीचे एक गेंद रोल, बच्चे गेंद की प्रक्षेपवक्र अनुमान लगा सकते हैं शुरुआत जहां गेंद गायब हो गया के बजाय प्रक्षेपवक्र के अंत में गेंद को देखने के लिए उन्हें सक्रिय करने के।

Piaget सुझाव दिया कि यह इस स्तर है कि कम से है प्रतिनिधित्ववादी सोचा उभर रहे है, जो किसी के मन में वस्तुओं की कल्पना करने की क्षमता होती है। चीजों की मानसिक अभ्यावेदन बनाने की क्षमता वे वस्तु स्थायित्व के शिशुओं के विकास में परिणाम नहीं देख सकते हैं, साथ ही दुनिया में अलग और स्वतंत्र व्यक्तियों के रूप में खुद को की समझ।

चुनौतियां और आलोचक
चूंकि Piaget वस्तु स्थायित्व के विकास पर अपने सिद्धांत पेश किया, अन्य विद्वानों सबूत है कि इस क्षमता वास्तव में प्रदान की है पहले विकसित करता है की तुलना में Piaget विश्वास करते थे। मनोवैज्ञानिक अटकलें शिशुओं पर Piaget की निर्भरता अविकसित मोटर कौशल ‘एक खिलौना के लिए तक पहुँचने के लिए उसे अलग-अलग वस्तुओं के बच्चे के ज्ञान को नजरअंदाज करने क्योंकि यह शिशुओं overemphasizes नेतृत्व’ कहते हैं। अध्ययन है कि निरीक्षण क्या बच्चों में देखने के बजाय वे क्या तक पहुँचने की, पर, शिशुओं छोटी उम्र में वस्तु स्थायित्व की समझ का प्रदर्शन करने में दिखाई देते हैं।

उदाहरण के लिए, दो प्रयोगों भर में, मनोवैज्ञानिक रेनी बैलार्गिन शिशुओं स्क्रीन है कि उनमें से वापस में वस्तुओं की ओर घुमाया दिखाया। के रूप में वे घुमाया, स्क्रीन वस्तुओं छुपा है, लेकिन बच्चों को अभी भी आश्चर्य की बात है जब स्क्रीन चलती नहीं रोका जब वे उन्हें क्योंकि वस्तु को रोकने के लिए स्क्रीन के लिए मजबूर किया जाना चाहिए था की उम्मीद व्यक्त की है। नतीजे बताते हैं कि के रूप में युवा के रूप में 7 शिशुओं महीने पुरानी छिपा वस्तुओं के गुणों को समझ सकता हूँ, जब वस्तु स्थायित्व पहले बयाना में विकसित करने शुरू होता है के बारे में Piaget के विचारों को चुनौती देने।

गैर मानव पशु में स्थायित्व वस्तु
वस्तु स्थायित्व मनुष्य के लिए एक महत्वपूर्ण विकास है, लेकिन हम केवल जो इस अवधारणा को समझने की क्षमता विकसित नहीं कर रहे हैं। रिसर्च से पता चला है कि वानर, भेड़िये, बिल्लियों, और कुत्तों सहित उच्च स्तनधारी,, साथ ही पक्षियों की कुछ प्रजातियों, वस्तु स्थायित्व का विकास।

उदाहरण के लिए, एक अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने परीक्षण किया बिल्लियों और कुत्तों ‘वस्तु स्थायित्व कार्यों है कि शिशुओं में क्षमता का परीक्षण करने के लिए इस्तेमाल उन लोगों के समान थे। इनाम केवल एक छिपा खिलौना था, दोनों प्रजातियों में से सभी कार्यों को पूरा करने में कामयाब रहे, लेकिन वे सफल रहे थे जब कार्य इनाम छिपा हुआ भोजन बनाने के लिए समायोजित किया गया। इन निष्कर्षों से पता चलता है कि बिल्लियों और कुत्तों के लिए पूरी तरह से वस्तु स्थायित्व विकसित किया है।

आगमन तथा निगमन विधि / Inductive & Deductive Method for CTET, MPTET, REET and other State TETs

  • आगमन विधि – (Inductive Method)

आगमन विधि उस विधि को कहते हैं जिसमें विशेष तथ्यों तथा घटनाओं के निरीक्षण तथा विश्लेषण द्वारा सामान्य नियमों अथवा सिद्धान्तों का निर्माण किया जाता हैं। इस विधि में ज्ञात से अज्ञात की ओर, विशिष्ट से सामान्य की ओर तथा मूर्त से अमूर्त की ओर नामक शिक्षण सूत्रों का प्रयोग किया जाता हैं।

दूसरे शब्दों में, इस विधि का प्रयोग करते समय शिक्षक बालकों के सामने पहले उन्हीें के अनुभव क्षेत्र से विभिन्न उदाहरणों के सम्बन्ध में निरीक्षण, परीक्षण तथा ध्यानपूर्वक सोच विचार करके सामान्य नियम अथवा सिद्धान्त निकलवाता है। इस प्रकार आगमन विधि में विशिष्ट उदाहरणों द्वारा बालकों को सामान्यीकरण अथवा सामान्य नियमों को निकलवाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता हैं। उदाहरण के लिये व्याकरण पढ़ाते समय बालकों के सामने विभिन्न व्यक्तियों, वस्तुओं तथा स्थानों एवं गुणों के अनेक उदाहरण प्रस्तुत करके विश्लेषण द्वारा यह सामान्य नियम निकलवाया जा सकता हैं कि किसी व्यक्ति, वस्तु तथा स्थान एवं गुण को संज्ञा कहते हैं।
जिस प्रकार आगमन विधि का प्रयोग हिंदी में किया जा सकता है, उसी प्रकार इस विधि को इतिहास, भूगोल, गणित, नागरिक शास्त्र, तथा अर्थशास्त्र आदि अनेक विषयों के शिक्षण में भी सफलतापूर्वक प्रयोग किया जा सकता है। आगमन विधि में शिक्षण क्रम को निम्नलिखित सोपाणो में बांटा जाता है-

  1. उदाहरणों की प्रस्तुतीकरण
    इस सोपान में बालकों के सामने एक ही प्रकार के अनेकों उदाहरण प्रस्तुत किए जाते हैं l
  1. विश्लेषण
    ऐसे सोपान में प्रस्तुत किए हुए उदाहरणों का बालकों से निरीक्षण कराया जाता है तत्पश्चात शिक्षक बालकों से विश्लेषणात्मक प्रश्न पूछता है अंत में उन्हें उदाहरणों में से सामान्य तत्व की खोज करके एक ही परिणाम पर पहुंचने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है.
  2. सामान्यीकरण
    इस सोपान में बालक सामान्य नियम निकालते हैं.
  3. परीक्षण
    इस सोपान में बालकों द्वारा निकाले हुए सामान्य नियमों की विभिन्न उदाहरणों द्वारा परीक्षा की जाती है l

आगमन विधि के गुण
आगमन विधि के निम्नलिखित गुण है
आगमन विधि द्वारा बालकों को नवीन ज्ञान के खोजने का प्रशिक्षण मिलता है l य‍ह प्रशिक्षण उन्हें जीवन में नए नए तथ्यों को खोज निकालने के लिए सदैव प्रेरित करता रहता है l अतः विधि शिक्षण की एक मनोवैज्ञानिक विधि हैl
आगमन विधि में ज्ञात से अज्ञात की ओर तथा सरल से जटिल की ओर चलकर मूर्त उदाहरणों द्वारा बालकों से सामान्य नियम निकलवाए जाते हैंl इससे वे सक्रिय तथा प्रसन्न रहते हैं ज्ञानार्जन हेतु उनकी रुचि निरंतर बनी रहती है एवं उनमें रचनात्मक चिंतन, आत्मविश्वास आदि अनेक गुण विकसित हो जाते हैं l
आगमन विधि में ज्ञान प्राप्त करते हुए बालक को सीखने के प्रत्येक स्तर को पार करना पड़ता है l इससे शिक्षण प्रभावशाली बन जाता हैl
इस विधि में बालक उदाहरणों का विश्लेषण करते हुए सामान्य नियम एवं स्वयं निकाल लेते हैंl इससे उनका मानसिक विकास सफलतापूर्वक हो जाता हैl
इस विधि द्वारा प्राप्त किया हुआ ज्ञान स्वयं बालकों का खोजा हुआ ज्ञान होता हैl अतः ऐसा ज्ञान उनके मस्तिष्क का स्थाई अंग बन जाता हैl
यह विधि व्यवहारिक जीवन के लिए अत्यंत लाभप्रद है अतः यह विधि एक प्राकृतिक विधि हैl

आगमन विधि के दोष
आगमन विधि के निम्नलिखित दोष हैं-
इस विधि द्वारा सीखने में शक्ति तथा समय दोनों अधिक लगते हैंl
यह विधि छोटे बालकों के लिए उपयुक्त नहीं हैl इसका प्रयोग केवल बड़े और वह भी बुद्धिमान बालक ही कर सकता हैl सामान्य बुद्धि वाले बालक तो प्रायः प्रतिभाशाली बालकों द्वारा निकाले हुए सामान्य नियमों को आंख मिचकर स्वीकार कर लेते हैंl
आगमन विधि द्वारा सीखते हुए यदि बालक किसी अशुद्ध सामान्य नियम की ओर पहुंच जाए तो उन्हें सत्य की ओर लाने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता हैl
आगमन विधि द्वारा केवल सामान्य नियमों की खोज ही की जा सकती है l अतः इस विधि द्वारा प्रत्येक विषय की शिक्षा नहीं दी जा सकती है l
यह विधि स्वयं में अपूर्ण हैl इसके द्वारा खोजे हुए सत्य की परख करने के लिए निगमन विधि आवश्यक हैl

आगमन विधि ही ऐसी विधि है जिसके द्वारा सामान्य नियमों अथवा सिद्धांतों की खोज की जा सकती है l अतः इस विधि द्वारा शिक्षण करते समय यह आवश्यक है कि शिक्षक उदाहरणों तथा प्रश्नों का प्रयोग बालकों के मानसिक स्तर को ध्यान में रखते हुए करें इससे उसकी नवीन ज्ञान को सीखने में उत्सुकता निरंतर बढ़ती रहेगीl

निगमन विधि (INDUCTIVE METHODS)

शिक्षण के निगमन विधि उस विधि को कहते हैं जिसमें सामान्य से विशिष्ट अथवा सामान्य नियम से विशिष्ट उदाहरण की ओर बढ़ा जाता है l इस प्रकार निगमन विधि आगमन विधि के बिल्कुल विपरीत है l इस विधि का प्रयोग करते समय शिक्षक बालकों के सामने पहले किसी सामान्य नियम को प्रस्तुत करता हैl तत्पश्चात उस नियम की सत्यता को प्रमाणित करने के लिए विभिन्न उदाहरणों का प्रयोग करता हैl

कहने का तात्पर्य है कि निगमन विधि में विभिन्न प्रयोगों तथा उदाहरणों के माध्यम से किसी सामान्य नियम की सभ्यता घोषित करवाया जाता हैl उदाहरण के लिए, विज्ञान की शिक्षा देते समय बालकों से किसी भी सामान्य नियम को अनेक प्रयोग द्वारा सिद्ध कराया जा सकता है l इस प्रकार इस विधि का प्रयोग विज्ञान के शिक्षण में की या जा सकता है l उसी प्रकार इसका प्रयोग सामाजिक विज्ञान, व्याकरण, अंक गणित, ज्यामिति आदि अन्य विषयों के शिक्षण में भी सफलतापूर्वक किया जा सकता है l निगमण विधि में निम्नलिखित सोपाण होते हैं-

  1. सामान्य नियमों का प्रस्तुतीकरण
    इस सवाल में शिक्षक का लोगों के सामने सामान्य नियमों को कर्म पूर्वक प्रस्तुत करता हैl
  2. संबंधों की स्थापना
    इस सप्ताह में विश्लेषण की प्रक्रिया आरंभ होती है l दूसरों शब्दों में, शिक्षक प्रस्तुत किए हुए नियमों के अंदर तर्कयुक्त संबंधों का पर निरूपण करता हैl
  3. इस सोपाण में सामान्य नियमों की परीक्षा करने के लिए विभिन्न उदाहरणों को ढूंढा जाता है l दूसरे शब्दों में सामान्य नियमों का विभिन्न परिस्थितियों में प्रयोग किया जाता है l इस सत्यता का ठीक-ठीक परीक्षण हो जाए l

निगमन विधि के गुण
निगमन विधि के गुण में निम्नलिखित हैं

  1. या विधि प्रत्येक विषय को पढ़ने के लिए उपयुक्त है.
  2. निगमन विधि द्वारा पालक शुद्ध नियमों की जानकारी प्राप्त करते हैं उन्हें अशुद्ध नियमों को जानने का कोई अवसर नहीं मिलता.
  3. इस विधि द्वारा कक्षा के सभी बालकों को एक ही समय में पढ़ाया जा सकता है.
  4. इस विधि के प्रयोग से समय तथा शक्ति दोनों की बचत होती है.
  5. निगमन विधि में शिक्षक बने बनाए नियमों को बालकों के सामने प्रस्तुत करता हैl इस विधि में शिक्षक का कार्य अत्यंत सरल होता हैl

निगमन विधि के दोष

इसके द्वारा प्राप्त ज्ञान अस्पष्ट एवं अस्थायी होता है।
इस विधि में भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रश्नों के लिए अनेक सूत्र याद करने होते हैं जो कठिन कार्य है। इसमें क्रियाशीलता का सिद्धान्त लागू नहीं होता।
यह विधि बालक की तर्क, विचार व निर्णय शक्ति के विकास में सहायक नहीं है।
यह विधि मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के विपरीत है क्योंकि यह स्मृति केन्द्रित विधि है।
यह विधि खोज करने की अपेक्षा रटने की प्रवृत्ति पर अधिक बल देती है। अतः छात्र की मानसिक शक्ति का विकास नहीं होता हैं
हिन्दी प्रारम्भ करने वालों के लिए यह विधि उपयुक्त नहीं है।
यह विधि छोटी कक्षाओं के लिए उपयोगी नहीं है, क्योंकि छोटी कक्षाओं के बालकों के लिए विभिन्न सूत्रों, नियमों आदि को समझना बहुत कठिन होता हैं।
इस विधि के प्रयोग से अध्ययन अध्यापन प्रक्रिया अरुचिकर तथा नीरस बनी रहती हैं।
स्वतन्त्रतापूर्वक इस विधि का प्रयोग सम्भव नहीं हो सकता।
इस विधि द्वारा बालकों को नवीन ज्ञान अर्जित करने के अवसर नहीं मिलते हैं।
छात्र में आत्मनिर्भरता एवं आत्मविश्वास उत्पन्न नहीं होता हैं।
इस विधि में बालक यन्त्रवत् कार्य करते हैं क्योंकि उन्हें यह पता नहीं रहता है कि वे अमुक कार्य इस प्रकार ही क्यों कर रहे हैं।
इस विधि में तर्क, चिन्तन एवं अन्वेषण जैसी शक्तियों को विकसित करने का अवसर नहीं मिलता है।
इसके द्वारा अर्जित ज्ञान स्थायी नहीं होता है।

आगमन विधि एवं निगमन विधि के बारे में जानकारी
Important post for inductive and deductive teaching method…
आगमन विधि कक्षा शिक्षण की महत्वपूर्ण विधि है।
इस विधि में विषयवस्तु के प्रस्तुतीकरण के दौरान सबसे पहले उदाहरण दिए जाते हैं तत्पश्चात सामान्य सिध्दांत का प्रस्तुतीकरण किया जाता है।
आगमन विधि की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं
1- उदाहरण से नियम की ओर
2- स्थूल से सूक्ष्म की ओर
3- विशिष्ट से सामान्य की ओर
4- ज्ञात से अज्ञात की ओर
5- मूर्त से अमूर्त की ओर
6- प्रत्यक्ष से प्रमाण की ओर
आगमन विधि को प्राय: थकान वाली शिक्षण विधि माना जाता है क्योंकि इसमें शिक्षण प्रक्रिया काफी लम्बी होती है।
आगमन विधि अरस्तू ने दी थी।

निगमन विधि
कक्षा शिक्षण में निगमन विधि का महत्वपूर्ण स्थान है यह विधि विज्ञान व गणित शिक्षण के लिए अत्यंत उपयोगी है।
निगमन विधि के प्रतिपादक अरस्तू हैं।
निगमन विधि की शिक्षण के दौरान प्रस्तुत विषयवस्तु प्रमुख विशेषताएं निम्न प्रकार हैं
1- सूक्ष्म से स्थूल की ओर
2- सामान्य से विशिष्ट की ओर
3- अज्ञात से ज्ञात की ओर
4- प्रमाण से प्रत्यक्ष की ओर
5- अमूर्त से मूर्त की ओर
शिक्षण की निगमन विधि में शिक्षण प्रक्रिया सामान्य से विशिष्ट की ओर उन्मुख होती है॥
इस विधि में पाठ्यचर्या का क्रम सूक्ष्म से स्थूल की ओर होता है। विषयवस्तु के प्रस्तुतीकरण का क्रम अमूर्त से मूर्त की तरफ होता है। कक्षा शिक्षण प्रमाण से प्रत्यक्ष की ओर होता है एवं विषयवस्तु की प्रकृति अज्ञात से ज्ञात की ओर होती है।
निगमन विधि को विज्ञान व गणित शिक्षण के लिए उपयोगी माना जाता है लेकिन कुछ विद्वान मानते हैं इस शिक्षण की इस विधि में विद्यार्थी रटने की प्रवृत्ति को ओर बढने लगते हैं जो शिक्षण अधिगम की गति को धीमी करता है।
आगमन निगमन विधि के जनक/प्रतिपादक अरस्तू हैं।

अब्राहम मास्लो का अभिप्रेरणा सिद्धांत / Maslow’s Hierarchy of Needs

Maslow’s Hierarchy of Needs,
मास्लो का आवश्यकता पदानुक्रम
मैस्लो का अभिप्रेरणा सिद्धांत,
मास्लो पिरामिड,
अब्राहम मैस्लो का सिद्धांत,
मैस्लो का मानवतावादी सिद्धांत ,
मैस्लो का व्यक्तित्व सिद्धांत,
पदानुक्रम सिद्धांत

मास्लो द्वारा प्रतिपादित ‘आवश्यकता पदानुक्रम’ (Maslow’s Hierarchy of Needs) अब्राहम मास्लो (Abraham Harold Maslow; 1 अप्रैल 1908 – 8 जून 1970) अमेरिका के मनोवैज्ञानिक थे जिन्होने मास्लो का प्रेरणा का पदानुक्रम सिद्धान्त नामक मानसिक स्वास्थ्य का सिद्धान्त प्रस्तुत किया। मास्लो कई महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में मनोविज्ञान के प्रोफेसर रहे। व्यक्तित्व के अध्ययन के सन्दर्भ में वे मानवतावादी मनोविज्ञान (Humanistic psychology) के पक्षधर थे। .

अभिप्रेरणा लक्ष्य-आधारित व्यवहार का उत्प्रेरण या उर्जाकरण है। अभिप्रेरणा या प्रेरणा आंतरिक या बाह्य हो सकती है। इस शब्द का इस्तेमाल आमतौर पर इंसानों के लिए किया जाता है, लेकिन सैद्धांतिक रूप से, पशुओं के बर्ताव के कारणों की व्याख्या के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जा सकता है। इस आलेख का संदर्भ मानव अभिप्रेरणा है। विभिन्न सिद्धांतों के अनुसार, बुनियादी ज़रूरतों में शारीरिक दुःख-दर्द को कम करने और सुख को अधिकतम बनाने के मूल में अभिप्रेरणा हो सकती है, या इसमें भोजन और आराम जैसी खास ज़रूरतों को शामिल किया जा सकता है; या एक अभिलषित वस्तु, शौक, लक्ष्य, अस्तित्व की दशा, आदर्श, को शामिल किया जा सकता है, या इनसे भी कमतर कारणों जैसे परोपकारिता, नैतिकता, या मृत्यु संख्या से बचने को भी इसमें आरोपित किया जा सकता है।

मास्लो का जन्म रूढ़िवादी जैविस परिवार में न्यूयार्क में हुआ। उन्होंने कोलम्बिया विश्वविद्यालय से सन् 1934 में मनोविज्ञान विड्ढय में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। ‘मानवतावादी मनोविज्यान’ नामक इस सिद्धान्त के विकास में अस्तित्ववादी मनोविज्ञान का भी योगदान है। अस्तित्ववाद एवं मानवतावाद दोनों व्यक्ति की मानवीय चेतना, आत्मगत अनुभूतियां एवं उमंग तथा व्यक्तिगत अनुभवों की व्याख्या करते हो और उसे विश्व से जोड़ने का प्रयत्न करते हैं। मास्लो के इस सिद्धान्त में यह धारणा है कि अभिप्रेरणाएं समग्र रूप से मनुष्य को प्रभावित करती है। इसी धारणा के आधार पर मास्लो ने प्रेरणा के पदानुक्रम सिद्धान्त को प्रतिपादित किया।

मानवतावादी सिद्धान्त के मनोवैज्ञानिकों ने मानव व्यवहार एवं पशु व्यवहार में सापेक्ष अंतर माना है। ये व्यवहारवाद का इसलिए खण्डन करते हैं कि व्यवहारवाद का प्रारम्भ ही पशु व्यवहार से होता है। मास्लो एवं उनके साथियों ने मानव व्यवहार को सभी प्रकार के पशु व्यवहारों से भिन्न माना। इसलिए उन्होंने पशु व्यवहार की मानव व्यवहार के साथ की समानता को अस्वीकार किया। उन्होंने मानव व्यवहार को समझने के लिए पशुओं पर किये जाने वाले शोध कार्यों का खण्डन किया क्योंकि पशुओं में मानवोचित गुण जैसे आदर्श, मूल्य, प्रेम, लज्जा, कला, उत्साह, रोना, हंसना, ईर्ष्या, सम्मान तथा समानता नहीं पाये जाते। इन गुणों का विकास पशुओं में नहीं होता और विशेष मस्तिष्कीय कार्य जैसे कविता, गीत, कला, गणित आदि कार्य नहीं कर सकते। मानवतावादियों ने मानवीय व्यवहार की व्याख्या में मानव के अंतरंग स्वरूप पर विशेष बल दिया। उनके अनुसार व्यक्ति का एक अंतरंग रूप है जो कुछ मात्रा में उसके लिए स्वाभाविक, स्थाई तथा अपरिवर्तन्यील है। इसके अतिरिक्त उन्होंने मानव की सृजनात्मक क्रियाओं को व्यिष्ट क्रियाएं माना है। मास्लो तथा अन्य मानवतावादियों का यह विचार है कि अन्य सिद्धान्तों में मनोवैज्ञानिकों द्वारा मनुष्य के व्यवहार का अध्ययन करने में किसी ऐसे पक्ष का वर्णन नहीं किया, जो पूर्ण स्वस्थ मानव के प्रकार्य, जीवन पद्धति और लक्ष्यों का वर्णन कर सके। मास्लो का यह विश्वास था कि मानसिक स्वास्थ्य का अध्ययन किए बिना व्यक्ति की मानसिक दुर्बलताओं का अध्ययन करना बेकार है। मास्लो (1970) ने कहा कि केवल असामान्य, अविकसितों, विकलांगों तथा अस्वस्थों का अध्ययन करना केवल ‘विकलांग’ मनोविज्ञान को जन्म देना है। उन्होंने मनोवैज्ञानिक रूप से स्वस्थ एवं स्व-वास्तवीकृत व्यक्तियों के अध्ययन पर अधिक बल दिया। अतः मानवतावादी मनोविज्ञान में ‘आत्मपरिपूर्ण (Self-fulfillment) को मानव जीवन का मूल्य माना है।

अभिप्रेरणा के व्यापक रूप से चर्चित होने वाले सिद्धांतों में से एक अब्राहम मास्लो का सिद्धांत है।

सिद्धांत का सारांश इस तरह प्रकट किया जा सकता है:

– मनुष्य की कुछ जरूरतें और इच्छाएं है जो उसके बर्ताव या आचरण को प्रभावित करती हैं। केवल पूरी न होनेवाली जरूरत ही व्यवहार को प्रभावित करती हैं, न कि पूरी हो जानेवाली जरूरत।

– चूंकि जरूरतें अनेक होती हैं इसलिए इनकी प्राथमिकता मूलभूत जरूरतों से लेकर जटिल तक, क्रमानुसार उनके महत्व के आधार पर तय होती हैं।

– निम्न स्तर की ज़रूरत अगर न्यूनतम संतुष्टि दे जाती हैं तो व्यक्ति अपनी अगली जरूरत की ओर कदम बढ़ाता है।

– पदानुक्रम की और ज्यादा प्रगति से एक व्यक्ति अधिक व्यक्तिपरकता, मानविकता और मनोवैज्ञानिक स्वस्थता दिखाएगा।

जरूरतों की सूची मूलभूत (बिलकुल निम्न) से लेकर सबसे जटिल तक इस प्रकार है:

– शारीरिक
– सुरक्षा
– तादात्मिकता या सम्बन्ध
– आत्मसम्मान
– स्व प्रत्यक्षीकरण

 शारीरिक जरुरत

शारीरिक ज़रूरत मानव अस्तित्व के लिए जरुरी आवश्यकताएं हैं। यदि ये आवश्यकताएं पूरी नहीं हुई हैं तो कोई भी मानव संभवतः उचित रूप से कार्य नहीं करेगा और वह अपने लक्ष्य में सफल नहीं हो सकता। शारीरिक आवश्यकताओं को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है अतः इनकी पूर्ति सबसे पहले होनी चाहिए। मनुष्यों और सभी जानवरों में अपने जीवन को बनाए रखने के लिए वायु, पानी और भोजन आदि बुनियादी जरुरत है। इसके अतिरिक्त कपड़े, शरणस्थली व्यक्तियों को प्रकृति से सुरक्षा प्रदान करते हैं और मानव यौन व्यवहार जीवन दर को बनाए रखने के लिए भी परम आवश्यक माना गया है।

सुरक्षा जरुरत

प्रायः जब किसी व्यक्ति की शारीरिक ज़रूरतें अपेक्षाकृत पूरी हो जाती हैं, तो उनकी सुरक्षा की आगे आने लगती हैं और उनके व्यवहार में यह दिखाई पड़ने लगती हैं।

सुरक्षा और सुरक्षा की जरूरतों में शामिल हैं:

– व्यक्तिगत सुरक्षा
– वित्तीय सुरक्षा
– स्वास्थ्य और भलाई
– दुर्घटना / बीमारी और उनके प्रतिकूल प्रभावों के खिलाफ सुरक्षा निवारण

तादात्मिकता या सम्बन्ध

शारीरिक और सुरक्षा आवश्यकता की पूर्ति के पश्चात मानव जरूरत के तीसरे स्तर पर तादात्मिकता या सम्बन्ध भावनाओं को शामिल किया जाता है। जिसे तीन भागों में बाँट सकते हैं-

1. दोस्ती
2. परिवार
3. अंतरंगता या सामाजिक सम्बन्ध

मास्लो के अनुसार, मनुष्यों अपने सामाजिक समूहों के मध्य अपने सम्बन्ध की स्वीकृति की भावना महसूस करता है- भले ही ये समूह बड़े या छोटे हों। उदाहरण के लिए, कुछ बड़े सामाजिक समूहों में क्लब, सह-कार्यकर्ता, धार्मिक समूह, पेशेवर संगठन, खेल टीम और गिरोह शामिल हो सकते हैं।
छोटे सामाजिक संबंधों के कुछ उदाहरणों में परिवार के सदस्यों, अंतरंग साझेदार, संरक्षक, सहकर्मियों और विश्वासपात्र शामिल हो सकते हैं। मनुष्य की आतंरिक चाह प्यार देने और प्यार करने की होती है, वह चाहता है की लोग उसे महत्त्व दें।

 आत्मसम्मान

सभी मनुष्यों में आत्म-सम्मान की भावना निहित होती है। इस स्तर पर प्रत्येक मनुष्य की यह भावना होती है कि समाज में उसे स्वीकृति मिले और लोग उसे सहज भाव में स्वीकार करें। उसके मूल्य को स्वीकारा जाय। लोग को अक्सर दूसरों से सम्मान की आवश्यकता होती है। वे ख्याति या महिमा की तलाश करते हैं। हालांकि यह सत्य है कि प्रसिद्धि या महिमा व्यक्ति के स्वयं-आत्म-सम्मान को निर्मित नहीं करती जब तक कि वह स्वीकार न करे कि वे आंतरिक रूप से कौन हैं? मास्लो ने सम्मान की जरूरतों के तहत दो संस्करणों का उल्लेख किया: एक “निचला” संस्करण और “उच्च” संस्करण।
सम्मान के “निचले” संस्करण दूसरों से सम्मान की आवश्यकता है। इसमें मनुष्य की स्थिति, मान्यता, प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा और लोगों द्वारा ध्यान देने की आवश्यकता शामिल हो सकती है।
“उच्च” संस्करण आत्म-सम्मान की आवश्यकता के रूप में प्रकट होता है उदाहरण के लिए, व्यक्ति की शक्ति, क्षमता, स्वामित्व, आत्मविश्वास, स्वतंत्रता और स्वतंत्रता की आवश्यकता हो सकती है। यह “उच्च” संस्करण “निचले” संस्करण पर प्राथमिकता लेता है क्योंकि यह अनुभव के माध्यम से स्थापित किसी आंतरिक क्षमता पर निर्भर करता है।
इसके बाद के स्तर में ज्यादा अंतर प्रकट नहीं होता इसके बजाय, स्तर का निकटतम सम्बन्ध देख जा सकता है।

स्व-प्रत्यक्षीकरण

एक आदमी क्या हो सकता है उसे वही होना चाहिए। जरूरत के इस स्तर को संदर्भित करता है कि एक व्यक्ति की पूर्ण क्षमता क्या है और उसकी संभावित प्राप्ति क्या है? मास्लो इस स्तर पर यह वर्णित करता है कि आदमी जो कर रहा है और जो करना चाहता है वह महत्पूर्ण होता है। उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति के पास आदर्श बनने की तीव्र इच्छा हो सकती है। दूसरे में एथलेटिक के रूप की इच्छा हो सकती है। तीसरे में, यह पेंटिंग, चित्र या आविष्कारों में व्यक्त करने की इच्छा हो सकती है। मास्लो का मानना था कि इस स्तर की आवश्यकता को समझने के लिए, व्यक्ति को केवल पिछली जरूरतों को प्राप्त नहीं करना चाहिए, बल्कि उन्हें मास्टर करना चाहिए।

Kohlberg Theory of Moral Development / कोहलबर्ग का नैतिक विकास का सिद्धांत

नैतिकता का अर्थ Meaning of Morality : नैतिक व्यवहार जन्मजात नही होता है । इसे सामाजिक परिवेश से सीखा या अर्जित किया जाता है । सर्वप्रथम बालक का अनैपचारिक रूप से अपने आस – पड़ोस तथा स्कूल में नैतिक विकास होता है । निसंदेह बच्चा पहले पुरस्कार , दण्ड, प्रशंसा या निंदा के द्वारा अच्छे आचरण सम्पन करता है और बुरे आचरण का त्याग कर देता हैं और किशोरावस्था में उसके भीतर विवेक पैदा होता है । और इसी विवेक के द्वारा वह नैतिक व्यवहार को सिखता जाता है । जब नैतिक व्यवहार के बाहरी स्त्रोत समाप्त हो जाते है तो वह आन्तरिक स्त्रोत अर्थात विवेक के द्वारा नैतिक व्यवहार को सीखता है और अपने आचरण को नैतिक बनाने का प्रयास करता रहता है ।

जब बालक का जन्म होता है , तो वह न तो नैतिक होता है और न ही अनैतिक होता है । बल्कि वह अच्छा या बुरा आचरण समाज से भी सीखता है । इसलिए कहा जाता है कि विकास की प्रक्रिया में वातावरण की महत्वपूर्ण भूमिका होती है ।

हमें यहा यह भी जानना चाहिए कि नैतिकता से तात्पर्यं समाज के नियमो, मान्यताओ व अपेक्षाओं के अनुरूप सम्पन्न किया गया आचरण ही नैतिकता होती है । जो व्यकित आने समाज की मान्यता और अपेक्षाओं के अनुरूप सम्पन्न किया गया आचरण ही नैतिकता होती है । जो व्यकित अपने समाज की मान्यताओं या अपेक्षाओं के अनुसार आचरण करता है । वह नैतिक कहलाता है । और इसके विपरित जो इनका अनुसण नही करता है । वह अनैतिक कहलता है ।

अलग – अलग समजो के नियम भी अलग अलग ही होते है जैसे जो नियम अमेरिका में सामान्य माने जाते है । उनके अनुरूप हम भारत में मनुष्यों के व्यवहार को स्वीकृति नहीं दे सकते है । जो – जो नियम हमारे भारत में पालन किये जाते है । उन्हें अमेरिका में पालन करना अत्यन्त जटिल होगा । इस प्रकार नैतिक व्यवहार के किसी सार्वभौमिक सिद्धांत की कल्पना करना व्यर्थ होगा। जैसे भारत मे माता – पिता की सेवा न करना अनैतिक होता है और पश्चिमी देशो में इसे अधिक अनैतिक नहीं माना जाता है । वही भारत में पत्नी को तलाक देना अनैतिक माना जाता है ।

हरलाँक ने नैतिक व्यवहार को सीखने के लिए कुछ बातो को आवश्यक माना है । जो निम्न प्रकार से है-

(1) बालक को स्पष्ट रूप से यह बता देना चाहिए कि क्या गलत है और क्या सही है ?

(2) यदि बालक अच्छा आचरण करे तो उसे स्वंय ही प्रसन्नत का अनुमान होना चाहिए और यदि वह बुरा आचरण करे तो उसे स्वयं को खेद का अनुभव होना चाहिए ।

(3) ऐसे व्यवहारों का सामाजिक रूप से वाछंनीय होना अति अवश्यक होता है ।

(4) बालक को यह भी बताने का प्रयास करना चाहिए कि कोई व्यवहार या बात क्यो सही है और क्यों गलत है।

नैतिक व्यवहार का विकास बालक के समाजीकरण का महत्वपूर्ण लक्ष्य होता है । नैतिक विकास के साथ माता – पिता की अभिवृतियों पालन पोषण की विधियो तथा परिवार की सामाजिक आर्थिक दशा का सीध सम्बंध होता है। बच्चे के लिए उसके माता – पिता व परिवार के अन्य सदस्य व अध्यापक प्रभावंशाली नमूनो या माँडल ( Models ) का कार्य करते है । बच्चा ऐसे माँडल्स का अनुकरण करके ही नैतिक व्यवहार को सीखता है और नैतिक विकास की ओर अग्रसर होता है ।

नैतिक विकास के पक्ष (Aspects of Moral Development ) : नैतिकता के विकास के कई पक्ष होते है अलग अलग मानोवैज्ञानिक के द्वारा नैतिकता के पक्षो की विवेचना भिन्न – भिन्न तरीको से की गई है ।

जैसे – नैतिक ज्ञान (Moral knowledge) नैतिक सम्प्रत्यय ( Moral concepts ) नैतिक तर्क ( Moral Logic ) तथा नैतिक व्यवहार ( Moral Behavior) ।

उचित – अनुचित का ज्ञान तथा नैतिकता के संदर्भ में बालक के भीतर विकसित नैतिक सम्प्रत्यय नैतिक व्यवहार के लिए आवश्यक तत्व होते है नैतिक सम्प्रत्ययो व नैतिक व्यवहारों का सम्बंध बच्चे की आयु व परिपवक्ता से होता है । नैतिक तर्क किसी परिस्थिति घटना या व्यवहार के औचित्य के बारे में विचार करने की प्रक्रिया है ।

भौतिक विकास के पक्ष 

(1) नैतिक ज्ञान (Moral knowledge)

(2) नैतिक सम्प्रत्यय ( Moral Concept )

(3) नैतिक तर्क (Moral Logic )

(4) नैतिक व्यवहार (Moral Behavior )

हेलेन बी (Helen Bee) के अनुसार नैतिक विकास के पक्ष

(1) नैतिक व्यवहार ( Moral Behaviout )

(2) नैतिक भावना ( Moral Feeling )

(3) नैतिक निर्णय ( Moral Judgement )

(1) नैतिक व्यवहार ( Moral Behaviout ): नैतिक व्यवहार वहा कहा जाएगा जब बालक जाएगा जब बालक किसी परिस्थिति में समाजिक नियमो और उचित अनुचित का ध्यान रखते हुए व्यवहार करता है । बच्चा नैतिक व्यवहार कैसे सीखता है ? यह एक शोध का विषय बन गया है । स्किनर ने विभिन्न सामाजिक अधिगम सिद्धांतो को विकसित करके बालक के नैतिक व्यवहार की अलग – अलग दृष्टिकोण व्याख्या की।

(2) नैतिक भावना ( Moral feelings ) : यह नैतिक विकास का दूसरा पक्ष है । इस पक्ष के अन्तर्गत यह पता लगाया जाता है कि जब कोई बच्चा अनैतिक आचरण करता है । तो उसके भीतर किस प्रकार के भाव पैदा होते है । ऐसी स्थिति में सामान्यतः बालक में आराध भाव पैदा होने लगता है । अपराध भाव के आधार पर ही समझा जा सकता है कि बालक ने नैतिक नियमो को स्वीकार कर लिया है ।

(3) नैतिक निर्णय ( Moral Judgement ) : नैतिक विकास का तीसरा पक्ष नैतिक निर्णय या नैतिक  तर्क है । यह नैतिकता का संज्ञानात्मक तत्व माना जाता है । इस पक्ष के अन्तर्गत यह पता लगाने का उद्देश्य होता है कि बालक किस तर्क के आधार यह स्वीकार कर लेता है कि कोई आचरण सही और नैतिक है ।

उपरोक्त नैतिकता के तीन पक्ष परस्पर सम्बंधित है । परन्तु वे बालक के नैतिक विकास को तीन अलग अलग दृष्टिकोण से देखते है । अतः अब जब हमने नैतिकता को और उसके तत्वो व पक्षो को समझ लिया है अब हम कोह्लबर्ग के नैतिक विकास के सिद्धांत का अध्ययन करेंगे ।

कोह् लबर्ग का नैतिक विकास सिद्धांत  Kohlber’s Theory of Moral Ddevelopment 

प्रारंभिक आयु में बच्चा नैतिकता के सम्प्रत्यय अवधारणा से अपरिचित होता है । उसका व्यवहार स्वाभाविक वृत्तियों के द्वारा निर्देशित होता है । उसकी वृत्तियो पर नियन्त्रण के लिए पुरस्कार एवं दण्ड और प्रशसा एवं निंदा की व्यवस्था करता है । इन सबके अतिरिकत बालक स्वय की जो क्रियाए सम्पन्न करता है । उसमें सुख – दुख का अनुभव करता है । मनोवैज्ञानिकों ने विषय पर शोध किया कि किस प्रकार बालक स्वाभाविक वृत्तियो से बालक नियत्रित होकर सामाजिक मूल्यो , नियमो व मर्यादाओ के अनुसार नैतिक आचरण को प्रदर्शित करता है । किसी बालक में नैतिक क्षमता का विकास कम होता है । और किसी में ज्यादा होता है । इसलिए नैतिक क्षमता के विकास के संदर्भ में सभी मनोवैज्ञातिक एकमत नहीं है । क्योंकि नैतिक विकास के सिद्धांत  भी अनेक है और नैतिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक भी कई होते है ।

फ्रायड़ के अनुसार- जब बालक अपने माता पिता की अभिवृत्तियो व भावनाओ को ग्रहण करता है । तो यह अभिवृतिया और भावनाए ही आगे चलकर बच्चे के विवेक का रूप ग्रहण कर लेती है । बालक नैतिक आचरण के लिए अपने भीतर से निदैशित होता है । इस प्रकार फ्रायड़ ने नैतिक विकास में व्यकित को बाल्यकालीन अनुभूतियो का महत्वपूर्ण स्थान बताया है ।

बैन्डूरा और वाल्टर्स ( Bandura and Walters ) ने बताया है कि बच्चे में नैतिक विकास सामाजिक अधिगम ( Social learning) का परिणाम होता है । बच्चा आने परिवेश में प्रतिदिन माँडलस के व्यवहार का अनुसरण करके नैतिक आचरण ग्रहण करता है । यहाँ नमूनो या माँडलस से तात्पर्य माता पिता, बड़े भाई बहन या अध्यापक आदि जिनका बच्चे अनुकरण करते है ।

स्किनर ( Skinner ) ने पुनर्बलन ( Reinforcement ) का प्रभाव बताते हुए कहा कि नैतिक व्यवहार का विकास दण्ड एवं पुरस्कार पर निर्भर करता है । लेकिन कोह्लबर्ग का सिद्धांत इन सबसे बिल्कुल भिन्न है ।

कोह्लबर्ग की मूल भूत आवश्यकताएँ ( Basic Assumption of Kohlberg’s Theory )

(1) बच्चे के नैतिकता विकास के स्वरूप को समझने के लिए उनके तर्क और सिद्वांत के रूवरूप का विश्लेषण करना आवश्यक होता है । बच्चे द्वारा किए गए प्रदर्शन के आधार पर बच्चे की नैतिकता का सही अनुमान नहीं लगाया जा सकता है । अधिकतर बालक डर में या पुस्कार के प्रलोभन में वांछनीय व्यवहार करता है । जैसे -अगर बच्चा विद्यालय नहीं जाना चाहता है लेकिन बिस्कुट , टाँकी या अन्य किसी प्रलोभनो के कारण विद्यालय चला जाता है । यह नैतिक चिंतन या नैतिक निर्णय के कारण नहीं ।

कोह् लबर्ग ने बालक को किसी धर्म संकट की स्थिति में रखकर यह देखा है कि बच्चा उस स्थिति में क्या करता है और किस तर्क के आधार पर उचित व्यवहार के लिए निर्णय लेता है । कोह्लबर्ग के इस उपागम को प्राणीगत उपागम ( Organismic Approach ) भी कहा जाता है ।

(2) कोह्लबर्ग के नैतिक विकास सिद्धांत को अवस्था सिद्धात ( Stage Therory ) भी कहा गया है । उन्होंने अपने सम्पूर्ण नैतिक विकास को छः अवस्थाओ में विभाजित किया है और इन्हे सार्वभौमिक ( Universal ) माना है । सार्वभौमिक का यहा तात्पर्य यह है कि कोई भी बच्चा हो वह इन अवस्थाओं से होकर अवश्य गुजरता है । नैतिक विकास की ये अवस्थाए एक निश्चित क्रम में आती है। इस क्रम को बदला नहीं जा सकता है । प्रत्येक अवस्था मे बच्चे की तर्क शक्ति पहले से नए प्रकार की होती है ।

(3) जब बच्चा एक अवस्था से दूसरी अवस्था से दूसरी अवस्था में प्रवेश में प्रवेश करता है तो उस बच्चे के भीतर नैतिक व्यवहार गुणात्मक परिवर्तन कब और कैसे उत्तपन होते है ? यह एक विचारणीय और शोध का विषय है । कोह्लबर्ग के अनुसार नैतिक व्यवहार में गुणात्मक परिवर्तन क्रमिक रूप से ही होते है । वे ऐसे ही पैदा नहीं हो जाते है । बच्चा जब किसी अवस्था में प्रवेश करता है तो वह केवल उस अवस्था की ही विशेषतओं का ही प्रदर्शन नही करता, बाल्कि वह अन्य अवस्थाओं की विशेषताओं का भी प्रदर्शन करता है । और अधिकतर मनोवैज्ञानिक उन अन्य विशेषताओं को केवल उसी अवस्था की विशेषता मान लेता है ।

(4) कोह्लबर्ग के एक सहयोगी ने भी मना है कि एक बच्चा प्रायः नैतिक विकास की एक अवस्था के बाद दूसरी अवस्था में प्रविष्ट होता है । परन्तु सभी बच्चे छः अवस्थाओ तक नहीं पहुंच पाते है । नैतिक अवस्था की अन्तिम आस्था में पहुँचने वाले बच्चो की संख्या बहुत कम होती है । अतः नैतिक र्तक शक्ति या नौतिक चिन्तन के आधार पर बालको में वैयक्तिक भिन्नताए पायी जाती है ।

नैतिक विकास की अवस्थाएँ ( Stage of moral development ) : कोह् लबर्ग ने नैतिक विकास की कुल छः अवस्थाओ का वर्णन किया है लेकिन इन्होंने दो – दो अवस्थाओ को एक साथ रखकर उनके तीन स्तर बना दिए है । ये तीन स्तर निम्न प्रकार से है ।

(1) प्री – कन्वेंशनल ( Pre – Conventional )

(2) कन्वेंशनल ( Conventional )

(3) पोस्ट कन्वेंशनल ( Post Conventional )

(1) प्री . कन्वेंशनल ( Pre – Conventional ) : जब बालक किसी बाहरी तत्व या किसी भैतिक घटना के संदर्भ मे किसी आचरण को नैतिक अभवा अनैतिक मानता है तो उसकी नैतिक तर्कशक्ति प्री– कन्वैशन स्तर की कही जाती है । इस स्तर के अन्तर्गत दो अवस्थाएँ आती है ।

(i) आज्ञा एवं दण्ड की अवस्था ( Stage of order and punishment )

(ii) अंहकार की अवस्था ( Stage of Ego )

(i) आज्ञा एवं दण्ड की अवस्था ( Stage of Order and Punishment ) : कोह्लबर्ग के अनुसार इस अवस्था में बच्चे का चिन्तन दण्ड से प्रभावित होता है । परिवार के सभी सदस्य बच्चे को कुछ कार्य कसने के आदेश देते रहते है । इन आदेशों का पालन ना करने पर बच्चे को दण्डित किया जाता है । इसलिए बच्चा यह सोचता है कि दण्ड से बचने के लिए आदेश का पालन करना अनिवार्य है । कम आयु में और अपरिपक्व होने के कारण बच्चा किसी कार्य को करने का या न करने का निर्णय इसलिए करता है क्योँकि वह दंड से डरता है। अर्थात आज्ञाओं का पालन इसालिए करता है क्योंकि वह दंड से डरता है । अर्थात आज्ञाओं का पालन इसलिए करता है कि वह दंडित न हो । इस प्रकार नैतिक विकास की शुरू की अवस्था में दण्ड को ही बच्चो की नैतिकता का मुख्य आधार माना जाता है ।

(ii) अंहकार की अवस्था ( Stage of Ego ) : इस अवस्था में आकर बच्चे के चिन्तन का स्वरूप बदल जाता है । जैसे – जैसे बच्चे की आयु बढ़ती है वह परिपक्व होता है । तो वह अपनी आवश्यकताओं और इच्छाओ को समझने लगता हैं और उसके द्वारा उसकी इछाए पूरी हो जाति है । यादि उसका कोई उद्देश्य झूठ बोलने से पूरा होता है । तो वह झूठ बोलता है । अगर भूख लगी है । और चुरा कर वह कुछ खा लेता है । तो वह इन क्रिभाओ को नैतिक आचरण ही समझता है नैतिक विकास की इस अवस्था का आधार बालक का अंहकार (Ego) होता है ।

(2) कन्वेशनल स्तर ( Conventional Level ) : इस स्तर को भी दो उप उवस्थाओं में विभाजित किया जाता है ।

(i) प्रशंसा की अवस्था ( Stage of Appreciation )

(ii) सामाजिक व्यवस्था के प्रति सम्मान की अवस्था ( Stage of Respect for social system )

(i) प्रशंसा की अवस्था ( Stage of Appreciation ) : इस अवस्था में बच्चा जो भी करता है वह दूसरे लोगों के द्वारा उसकी प्रशंसा करने के लिए करता है । जब उसे पाता होता है कि दूसरे लोग उसकी प्रशंसा पाने के लिए ऐसा करते है । दूसरी ओर समाज के सदस्य बच्चो से विशेष अपेक्षाए करने लगते है , तो समाज से उन्हे स्वीकृति मिलने लगती है । इस अवस्था में बच्चे उन्हीं व्यवहारो को उचित व नैतिक मानते है जिनके लिए वे परिवार , स्कूल , पड़ोस मित्र – मण्डली से प्रशंसा प्राप्त करते है । इस प्रकार हम कह सकते है कि इस अवस्था में बच्चे के चिन्तन का स्वरूप समाज और उसके परिवेश से निर्धारित होता है ।

(ii) सामाजिक व्यवस्था के सम्मान की अवस्था ( Stage respect for social system ) : नैतिक विकास की यह उप – अवस्था अत्यन्त महत्वपूर्ण मानी जती है । कोह्लबर्ग के अनुसार समाज के ज्यादातर सदस्य नैतिक विकास की इस अवस्था तक पहुंच जाते है । इस अवस्था में प्रवेश से पहले बालक समाज को केवल इसलिए महत्वपूर्ण मानता है कि वह उसकी प्रशंसा करता है । अब वह समाज को स्वंय एक लक्ष्य मानने लगता है । इस अवस्था में पहुँचकर स्वंय यह समझने लगता है । कि सामाजिक नियमो के विरूद्ध प्रत्येक कार्य को अनैतिक कहता है । इस प्रकार हम देखते है कि कोह्लबर्ग ने नैतिक विकास की अवस्थाओं का क्रमिक अध्ययन किया है । 

(3) पोस्ट कंन्नेशनल स्तर ( Post – Conventional Level ) : कोह्लबर्ग ने अपने तीसरे स्तर को भी दो उप – अवस्थाओ में बाँटा है ।

(i) सामाजिक समझौते की अवस्था ( Stage of social contract )

(ii) विवेक की अवस्था ( Stage of Conscience )

(i) सामाजिक समझौते की अवस्था ( Stage of social contract ) : इस अवस्था तक आते आते व्यकित को नैतिक चिन्तन की दशा में पर्याप्त परिवर्तन आ जाते है । अब व्यक्ति परस्पर लेन देन में विश्वास करने लगता है। कि व्यक्ति व समाज के बीच एक समझौता होता है । व्यक्ति यह मानने लगता है , कि व्यक्ति को सामाजिक नियमों का पालन इसलिए करना चाहिए क्योंकि समाज हमारे हितो की रक्षा करता है । वो हमारा दायित्व बनता है कि हम समाज के नियमो का पालन करे । अगर व्यक्ति सामाजिक नियमो का पालन नहीं करता तो व्यक्ति व समाज के बीच का समझौता टूट जाता हैं अतः अपने नियमो , परम्पराओं , कानूनो के द्वारा समाज व्यक्ति को स्वतंत्रता अधिकार और सुरक्षा देता है । अतः ऐसे नियमों का उल्लघंन अनैतिक मना जाता है ।

(ii) विवेक की अवस्था ( Stage of Conscience ) : कोह्लबर्ग के अनुसार नैतिक विकास की छठी व अन्तिम अवस्था यही होती है । क्योकि इस अवस्था में पहुँचने पर व्यक्ति नैतिकता के बारे में अपना दृष्टिकोण भी विकसित कर लेता है । व्यक्ति में विवेक पैदा हो जाता है । व्यक्ति के अब अच्छे बुरे उचित – अनुचित आदि विषयों पर स्वंय के व्यकितगत विचार विकसित हो जाते है । अब व्यक्ति के नैतिक विकास का एकमात्र आधार विवेक ही बन जाता है । अब इस अवस्था में व्यक्ति नियमो का पालन स्वंय के दृष्टिकोण से प्रेरित होकर करने लगता है । इस अवस्था में व्यक्ति अब नियमो की वैद्यता को भी चुनौती देने लगता है । क्योंकि वे नियम उसके विवेक से मेल नहीं खाते है । अब व्यक्ति केवल विवेक के आधार पर ही जीवित रहने का आदि हो जाता है । अब व्यक्ति के लिए वही आचरण नैतिक होगा जो उसके स्वंय के विवेक का समर्थन प्राप्त कर लेगा ।

Jean Piaget’s- Adaptation , Assimilation , Accommodation , Cognitive structure , Mental operation, Schemes , Schema

Jean Piaget’s- Adaptation , Assimilation , Accommodation , Cognitive structure , Mental operation, Schemes , Schema

संज्ञानात्मक विकास के सम्बन्ध में जीन पियाजे का योगदान सर्वोपरि है। जीन पियाजे (1896-1980) स्विट्जरलैण्ड के एक प्रमुख मनोवैज्ञानिक थे, जिन्होंने प्राणि-विज्ञान में शिक्षा प्राप्त की थी, इनकी रुचि यह जानने की थी कि बालकों में बुद्धि का विकास किस ढंग से होता है। इसके लिए उन्होंने अपने स्वयं के बच्चों को अपनी खोज का विषय बनाया। बच्चे जैसे-जैसे बड़े होते गये, उनके मानसिक विकास सम्बन्धी क्रियाओं का वे बड़ी बारीकी से अध्ययन करते रहे। इस अध्ययन के परिणामस्वरूप उन्होंने जिन विचारों का प्रतिपादन किया उन्हें पियाजे के मानसिक या संज्ञानात्मक विकास के सिद्धान्त के नाम से जाना जाता है। जीन पियाजे ने 1923 से 1932 के बीच पाँच पुस्तकों को प्रकाशित कराया, जिनमें संज्ञानात्मक विकास के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया। जीन पियाजे का मानना था कि बच्चे खेल प्रक्रिया के माध्यम से सक्रिय रूप से सीखते हैं, उन्होंने सुझाव दिया कि बच्चे को सीखने में मदद करने में वयस्क की भूमिका बच्चे के लिए उपयुक्त सामग्री प्रदान करना है। अल्फ्रेड बिने के साथ (1922-23) बुद्धि-परीक्षणों पर कार्य करते समय ही उन्होंने बालकों के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धान्त की अवधारणा प्रस्तुत की। जीन पियाजे ने बालक के संज्ञानात्मक विकास के संदर्भ में शिक्षा मनोविज्ञान में क्रांतिकारी संकल्पना को प्रस्तुत किया है, जिसके परिणामस्वरूप इन्हें प्रतिष्ठित नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। जीन पियाजे ने अधिगम के व्यवहारवादी सिद्धान्तों की आलोचना करते हुए संज्ञानात्मक विकास का गत्यात्मक माॅडल प्रस्तुत किया, जिसे ‘कन्स्ट्रटिविजम’ के नाम से जाना जाता है।

अपने संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत में पियाजे दो पदों का उपयोग करते है । संगठन और अनुकूलन हालांकि इन पदों के अलावा भी पियाजे ने कुध अन्य पदों का प्रयोग अपने संज्ञानात्मक विकास मे किया है।

(1) अनुकूलन ( Adaptation ) : पियाजे के अनुसार बच्चों में अपने वातावरण के साथ समायोजन की प्रवृति जन्मजात होती है I बच्चे की इस प्रवृति को अनुकूलन कहा जाता है । पियाजे के अनुसार बालक आने प्रारभिंक जीवन से ही अनुकूलन करने लगता है । जब को बच्चा वातावरण में किसी उद्दीपक परिस्थितियो के समाने होता है । उस समय उसकी विभिन्न मानसिक क्रियाए अलग – अलग कार्य न करके एक साथ संगंठित होकर कर्या करती है , और ज्ञान अर्जित करती है । यही क्रिया हमेशा मानसिक – स्तर पर चलती है। वातावरण के साथ मनुष्य का जो संबंध होता है उस संबंध को संगठन आन्तरिक रूप से प्रभावित करता है जबकि अनुकूलन बाहरी रूप से ।पियाजे ने अनुकूलन की प्रक्रिया को अधिक महत्वपूर्ण मना है ।

पियाजे ने अनुकूलन की सम्पूर्ण प्रक्रिया को दो उप -पकियोओं में बॉटा है।

(i) आत्मसात्करण ( Assimilations )
(ii) समंजन ( Accommodation )

(1) आत्मसात्करण एक ऐसी पक्रिया है जिसमें बालक किसी समस्या का समाधान करने के लिए पहले सीखी हुई योजनाओं या मानसिक प्रक्रिमाओं का सहारा लेता है । यह एक जीव – वैज्ञानिक प्रक्रिया है । आत्मसात्करण को हम इस उदाहरण के माध्यम से भी समझ सकते हैं कि जब हम भोजन करते हैँ तो मूलरूप से भोजन हमारे भीतर नहीं रह पाता है बल्कि भोजन से बना हुआ रक्त हमारी मांसपेशियों मे इस प्रकार समा जाता है कि जिससे हमारी मांसपेशियों की संरचना का आकार बदल जाता है । इससे यह बात स्पष्ट होती है कि आत्मसात्करण की प्रक्रिया से संरचनात्मक परिर्वतन होते हैं ।

पियाजे के शब्दों में ” नए अनुभव का आत्मसात्करण करने के लिए अनुभव के स्वरूप में परिवर्तन लना पड़ता है । जिससे वह पुराने अनुभव के साथ मिलजुलकर संज्ञान के एक नए ढांचे को पैदा करना पड़ता है । इससे बालक के नए अनुभवों में परिर्वतन होते है ।

(2) संमजन एक ऐसी प्रक्रिया है जो पूर्व में सीखी योजना या मानासिक प्रक्रियाओं से काम न चलने पर समंजन के लिए ही की जाती है । पियाजे कहते हैं कि बालक आत्मसात्करण और सामंजस्य की प्रक्रियाओ के बीच संतुलन कायम करता है । जब बच्चे के सामने कोई नई समस्या होती है , तो उसमें सांज्ञानात्मक असंतुलन उत्पन्न होता है और उस असंतुलन को दूर करने के लिए वह आत्मसात्करण या समंजन या दोनों प्रक्रियाओं को प्रारंभ करता है ।

समंजन को आत्मसात्करण की एक पूरक प्रकिया माना जाता है । बालक अपने वातावरण या परिवेश के साथ समायोजित होने के लिए आत्मसात् करण और समंजन का सहरा आवश्यकतानुसार लेते हैं ।

संज्ञानात्मक संरचना ( Cognitiive structure ) : पियाजे के अनुसार संज्ञानात्मक संरचना से तात्पर्य बालक का मानसिक संगठन से है । अर्थात् बुद्धि में संलिप्त विभिन्न क्रियाएं जैसे – प्रत्यक्षीकरण स्मृति, चिन्तन तथा तर्क इत्यादि ये सभी संगठित होकर कार्य करते हैं । वातावरण के साथ सर्मयाजन , संगठन का ही परिणाम है ।

मानसिक संक्रिया ( Mental operation ): बालक द्वारा समस्या – समाधान के लिए किए जाने वाले चिन्तन को ही मानसिक संक्रिया कहते हैं ।

स्कीम्स ( Schemes ) : यह बालक द्वारा समस्या – समाधान के लिए किए गए चिन्तन का आभिव्यकत रूप होता । अर्थात् मानसिक संक्रियाओं का अभिव्यक्त रूप ही स्कीम्स होता है ।

स्कीमा ( Schema ) : एक ऐसी मानसिक संरचना जिसका सामान्यीकरण किया जा सके, स्कीमा होता है ।

साम्यधारण (Equilibrium)- साम्यधारण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा बालक आत्मसात्करण तथा समायोजन की प्रक्रियाओं के बीच एक संतुलन कायम करता है। इस तरह से साम्यधारण एक तरह के आत्म-नियन्त्रक प्रक्रिया है।

वायगोत्सकी का सामाजिक विकास दृष्टीकोण, स्केफोल्डिंग,समीपस्थ विकास का क्षेत्र For CTET, MPTET, REET and all State TETs

Vygotsky’s sociocultural theory of cognitive development, zone of proximal development, Scaffolding

वायगोत्सासकी का सामाजिक विकास दृष्टीकोण, स्केफोल्डिंग,समीपस्थ विकास का क्षेत्र

सामाजिक विकास का सिद्धांत कहता है , कि सामाजिक अन्तः क्रिया के बाद विकास होता है। यानी कि पहले सामाजिक अन्तः क्रिया (Social Interaction) होगी फिर विकास (Development) होगा। (Social Interaction precedes Development) चेतना और संज्ञान, सामाजीकरण और सामाजिक व्यवहार का परिणाम हैं।

लिव सिमनोविच वाइगोत्सकी (1896 – 1934) सोवियत संघ के मनोवैज्ञानिक थे तथा वाइगोत्स्की मण्डल के नेता थे। उन्होने मानव के सांस्कृतिक तथा जैव-सामाजिक विकास का सिद्धान्त दिया जिसे सांस्कृतिक-ऐतिहासिक मनोविज्ञान कहा जाता है।

उनका मुख्य कार्यक्षेत्र विकास मनोविज्ञान था। उन्होने बच्चों में उच्च संज्ञानात्मक कार्यों के विकास से सम्बन्धित एक सिद्धान्त प्रस्तुत किया। अपने करीअर के आरम्भिक काल में उनका तर्क था कि तर्क-शक्ति का विकास चिह्नों एवं प्रतीकों के माध्यम से होता है।

वाइगोत्स्की का सामाजिक दृषिटकोण संज्ञानात्मक विकास का एक प्रगतिशील विश्लेषण प्रस्तुत करता है। वस्तुत: वाइगोत्सकी ने बालक के संज्ञानात्मक विकास में समाज एवं उसके सांस्कृतिक संबन्धों के बीच संवाद को एक महत्त्वपूर्ण आयाम घोषित किया। ज़ाँ प्याज़े की तरह वाइगोत्स्की भी यह मानते थे कि बच्चे ज्ञान का निर्माण करते हैं। किन्तु इनके अनुसार संज्ञानात्मक विकास एकाकी नहीं हो सकता, यह भाषा-विकास, सामाजिक-विकास, यहाँ तक कि शारीरिक-विकास के साथ-साथ सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ में होता है।


पुनर्बलन / प्रबलन (Reinforcement) का सिद्धांत या हल का सिद्धांत FOR CTET, MPTET and State TETs

पुनर्बलन / प्रबलन (Reinforcement) का सिद्धांत या हल का सिद्धांत FOR CTET, MPTET and State TETs

ऐसी कोई क्रिया जो अनुक्रिया की संख्या में वृद्धि करती है पुनर्बलन (reinforcement) कहलाती है। मानव द्वारा सीखे हुए अधिकांशतः व्यवहार की व्याख्या हम क्रियाप्रसूत अनुबन्धन के सहयोग से कर सकते हैं। क्रियाप्रसूत अनुबन्धन में पुनर्बलन की निर्णायक भूमिका है। यह नकारात्मक या सकारात्मक हो सकता है।
जब कोई बालक क्रिया करता है तो क्रिया के दौरान उसमें जो अनुक्रिया में वृद्धि होती है, उसे ही पुनर्बलन कहते हैं। पुनर्बलन के द्वारा बालक के कार्य करने की क्षमता में वृद्धि की जा सकती है। अध्यापक बालक को समय-समय पर पुनर्बलन देता रहता है। पुनर्बलन को अंग्रेजी में Reinforcement कहते हैं.

सकारात्मक पुनर्बलन
स्किनर के प्रयोग में चूहा बार-बार लीवर दबाने की अनुक्रिया करता है और भोजन प्राप्त कर लेता है। इसे सकारात्मक पुनर्बलन कहते हैं। इस प्रकार एक सकारात्मक पुनर्बलन या पुरस्कार (उदाहरणार्थ भोजन, यौन-सुख आदि) वह प्रवृत्ति है जिससे उस विशिष्ट व्यवहार के प्रभाव को सीखने को बल मिलता है। सकारात्मक पुनर्बलन वह कोई भी उद्दीपन (स्टिमुलेशन) है जिसके माध्यम से उस विशिष्ट अनुक्रिया को आगे जाने का बल मिलता है। (उदाहरण- भोजन, लीवर के दबाने को बल प्रदान करता है।

नकारात्मक पुनर्बलन
नकारात्मक पुनर्बलन द्वारा एक बिल्कुल भिन्न प्रकार से अनुक्रिया की संख्या में वृद्धि की जाती है। मान लीजिए स्किनर बाक्स के अन्दर चूहे के पंजों पर प्रत्येक सेकेन्ड पर विद्युत आघात दिया जाता है। जैसे ही चूहा लीवर दबाता है विद्युत आघात दस सेकेन्ड के लिए रोक दिया जाता है।इससे चूहे की अनुक्रिया की संख्या में वृद्धि हो जाती है। इस विधि को नकारात्मक पुनर्बलन कहा जाता है जिसमें प्रतिकूल उद्दीपन का प्रयोग किया जाता है। (उदाहरण- गर्मी, विद्युत आघात, तेजी से दौड़ना आदि)। ‘नकारात्मक’ शब्द पुनर्बलन की प्रकृति को बताता है (विमुखी उद्दीपन)।यह पुनर्बलन है क्योंकि यह अनुक्रियाओं की संख्या में वृद्धि करता है। इस विधि को ‘पलायन’ अधिगम कहा गया क्योंकि चूहा अगर लीवर को दबाता है तो आघात से बच सकता है। दूसरे तरह के नकारात्मक पुनर्बलन के परिणामस्वरूप जो अनुबन्धन (कन्डीशनिंग) होता है उसे बचाव द्वारा (अवॉयडेन्स) सीखना कहा गया जिसमें चूहा लीवर दबाकर आघात से बच सकता है। पलायन या बचाव द्वारा सीखने में नकारात्मक पुनर्बलन का प्रयोग किया जाता है और प्राणी पलायन द्वारा इससे बच जाता है।

पुनर्बलन का सिद्धांत C.L. हल ने दिया था, यह USA के रहने वाले थे I
उन्होंने अपनी पुस्तक Principals of Behavior में यह सिद्धांत दिया।यह सिद्धांत आवश्यकता पर बल देता है.

सीखने के प्रबलन सिद्धान्त का प्रतिपादन क्लार्क एल. हल के द्वारा 1915 में किया गया। इस सिद्धान्त का गणितीय सिद्धांत, परिकल्पित निगमन सिद्धांत/आवश्यकता अवकलन/ जैवकीय अनुकूलन/ उद्देश्य प्रवणता सिद्धांत आदि नामों से जाना जाता है।
यह सिद्धांत स्वयं सिद्ध मान्यताओं पर आधारित है। हल ने 17 स्वयं सिद्ध मान्यताओं का प्रतिपादन किया है। 17 स्वयं सिद्ध मान्यताओं के आधार पर 133 प्रमेयों का स्पष्टीकरण किया है।
ये सभी मान्यताएं जीवधारी की जैवकीय संरचना पर आधारित है। यह सिद्धांत पावलव व थॉर्नडाइक के नियमों पर आधारित है।

हल के सीखने के सिद्धान्त का अर्थ स्पष्ट करते हुए स्टोन्स नामक मनोवैज्ञानिक ने कहा है कि सीखने का आधार आवश्यकता की पूर्ति की प्रक्रिया है। यदि कोई र्का पशु अथवा मनुष्य की आवश्यकता की पूर्ति करता है। आवश्यकता की पूर्ति के लिए हल ने आवश्यकता की कमी का भी प्रयोग किया है।

क्लार्क एस हल के अनुसार
बिल्ली की आवश्यकता भोजन को बिल्ली के लिए चालक है। इसकी पूर्ति होते ही बिल्ली का अधिगम करना बंद हो जाता है। क्लार्क एस हल ने उद्दीपक के बजाय आवश्यकता पर बल दिया और कहा कि कोई भी जीव अपनी आवश्यकता पूरी करने के लिए जो क्रिया करता है। वह उसे आसानी से सीख लेता है।


हल के अनुसार सीखना आवश्यकता की पूर्ति की प्रक्रिया के द्वारा होता है हल ने इस सिद्धान्त की व्याख्या करते समय बताया कि प्रत्येक प्राणी अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने का प्रयास करता है। सीखने का आधार किसी आवश्यकता की पूर्ति की प्रक्रिया में होता है अर्थात कोई भी प्राणी उसी कार्य को सीखता है जिसमें उसकी किसी आवश्यकता की पूर्ति होती है।


स्किनर ने हल् के इस सिद्धांत को अधिगम का सर्वश्रेष्ठ सिद्धांत बताया है क्योंकि यह आवश्यकता व प्रेरणा पर बल देता है इसलिए शिक्षार्थी को प्रेरित करके ही सिखाया जाता है.


पुनर्बलन का शैक्षिक महत्व:-
-बालक को प्रेरित किया जाता है।
-यह सिद्धांत पाठ्यक्रम बनाते समय विद्यार्थियों की आवश्यकता पर बल देता है।
-यह सिद्धांत कक्षा में पढ़ाए जाने वाले प्रकरणों के उद्देश्यों को स्पष्ट करने पर बल देता है।
-पुरष्कार की व्यवस्था को समझाता है।

पुनर्बलन सिद्धांत के उपनाम:-
-प्रबलन का सिद्धांत
-अंतरनाद न्यूनता का सिद्धांत
-सबलीकरण का सिद्धांत
-यथार्थ अधिगम का सिद्धांत
-सतत अधिगम का सिद्धांत
-क्रमबद्ध अधिगम का सिद्धांत
-चालक न्यूनता का सिद्धांत।

स्कीनर ने इसी सिद्धान्त को सभी सिद्धान्तों में सर्वश्रेष्ठ सिद्धांत कहा है।

इस सिद्धान्त को चालक न्यूवता का सिद्धांत भी कहा जाता है।
इस सिद्धांत में दो प्रकार के प्रबलन के बारे में बताया गया है-

  1. प्राथमिक और
  2. द्वितीयक प्रबलन
    हल ने दो प्रकार के प्रबलन बताये हैं जो विभिन्न अवस्थाओं में दृष्टिगोचर होते हैं। भोजन, भूख के चालक को प्रबल बनाता है। यह अवस्था प्राथमिक प्रबलन की है।
    भूख उस समय तक शांत नहीं होती जब तक की भोजन नहीं खा लिया जाता है। अतः भोजन करने से पहले भूख रूपी चालक एक बार फिर प्रबल बन जाता है जिसे द्वितीयक प्रबलन कहा जाता है।

शिक्षा में उपयोग—
सीखना तभी सार्थक होता है जब वह आवश्यकता की पूर्ति करें।
छात्रों की आवश्यकता को ध्यान में रखकर ही पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाना चाहिए (व्यवसायिक शिक्षा का सूत्रपात)
शिक्षा प्रदान करते समय प्राथमिक व द्वितीयक पुनर्बलन का ध्यान रखना चाहिए।
यह सिद्धांत सीखने में प्रेरणा पर बल देता है।
आन्तरिक अभिप्रेरणा पर बल देता है।
अधिगम कभी भी व्यर्थ नहीं होता है।
उद्देश्य की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।