Kohlberg Theory of Moral Development / कोहलबर्ग का नैतिक विकास का सिद्धांत

नैतिकता का अर्थ Meaning of Morality : नैतिक व्यवहार जन्मजात नही होता है । इसे सामाजिक परिवेश से सीखा या अर्जित किया जाता है । सर्वप्रथम बालक का अनैपचारिक रूप से अपने आस – पड़ोस तथा स्कूल में नैतिक विकास होता है । निसंदेह बच्चा पहले पुरस्कार , दण्ड, प्रशंसा या निंदा के द्वारा अच्छे आचरण सम्पन करता है और बुरे आचरण का त्याग कर देता हैं और किशोरावस्था में उसके भीतर विवेक पैदा होता है । और इसी विवेक के द्वारा वह नैतिक व्यवहार को सिखता जाता है । जब नैतिक व्यवहार के बाहरी स्त्रोत समाप्त हो जाते है तो वह आन्तरिक स्त्रोत अर्थात विवेक के द्वारा नैतिक व्यवहार को सीखता है और अपने आचरण को नैतिक बनाने का प्रयास करता रहता है ।

जब बालक का जन्म होता है , तो वह न तो नैतिक होता है और न ही अनैतिक होता है । बल्कि वह अच्छा या बुरा आचरण समाज से भी सीखता है । इसलिए कहा जाता है कि विकास की प्रक्रिया में वातावरण की महत्वपूर्ण भूमिका होती है ।

हमें यहा यह भी जानना चाहिए कि नैतिकता से तात्पर्यं समाज के नियमो, मान्यताओ व अपेक्षाओं के अनुरूप सम्पन्न किया गया आचरण ही नैतिकता होती है । जो व्यकित आने समाज की मान्यता और अपेक्षाओं के अनुरूप सम्पन्न किया गया आचरण ही नैतिकता होती है । जो व्यकित अपने समाज की मान्यताओं या अपेक्षाओं के अनुसार आचरण करता है । वह नैतिक कहलाता है । और इसके विपरित जो इनका अनुसण नही करता है । वह अनैतिक कहलता है ।

अलग – अलग समजो के नियम भी अलग अलग ही होते है जैसे जो नियम अमेरिका में सामान्य माने जाते है । उनके अनुरूप हम भारत में मनुष्यों के व्यवहार को स्वीकृति नहीं दे सकते है । जो – जो नियम हमारे भारत में पालन किये जाते है । उन्हें अमेरिका में पालन करना अत्यन्त जटिल होगा । इस प्रकार नैतिक व्यवहार के किसी सार्वभौमिक सिद्धांत की कल्पना करना व्यर्थ होगा। जैसे भारत मे माता – पिता की सेवा न करना अनैतिक होता है और पश्चिमी देशो में इसे अधिक अनैतिक नहीं माना जाता है । वही भारत में पत्नी को तलाक देना अनैतिक माना जाता है ।

हरलाँक ने नैतिक व्यवहार को सीखने के लिए कुछ बातो को आवश्यक माना है । जो निम्न प्रकार से है-

(1) बालक को स्पष्ट रूप से यह बता देना चाहिए कि क्या गलत है और क्या सही है ?

(2) यदि बालक अच्छा आचरण करे तो उसे स्वंय ही प्रसन्नत का अनुमान होना चाहिए और यदि वह बुरा आचरण करे तो उसे स्वयं को खेद का अनुभव होना चाहिए ।

(3) ऐसे व्यवहारों का सामाजिक रूप से वाछंनीय होना अति अवश्यक होता है ।

(4) बालक को यह भी बताने का प्रयास करना चाहिए कि कोई व्यवहार या बात क्यो सही है और क्यों गलत है।

नैतिक व्यवहार का विकास बालक के समाजीकरण का महत्वपूर्ण लक्ष्य होता है । नैतिक विकास के साथ माता – पिता की अभिवृतियों पालन पोषण की विधियो तथा परिवार की सामाजिक आर्थिक दशा का सीध सम्बंध होता है। बच्चे के लिए उसके माता – पिता व परिवार के अन्य सदस्य व अध्यापक प्रभावंशाली नमूनो या माँडल ( Models ) का कार्य करते है । बच्चा ऐसे माँडल्स का अनुकरण करके ही नैतिक व्यवहार को सीखता है और नैतिक विकास की ओर अग्रसर होता है ।

नैतिक विकास के पक्ष (Aspects of Moral Development ) : नैतिकता के विकास के कई पक्ष होते है अलग अलग मानोवैज्ञानिक के द्वारा नैतिकता के पक्षो की विवेचना भिन्न – भिन्न तरीको से की गई है ।

जैसे – नैतिक ज्ञान (Moral knowledge) नैतिक सम्प्रत्यय ( Moral concepts ) नैतिक तर्क ( Moral Logic ) तथा नैतिक व्यवहार ( Moral Behavior) ।

उचित – अनुचित का ज्ञान तथा नैतिकता के संदर्भ में बालक के भीतर विकसित नैतिक सम्प्रत्यय नैतिक व्यवहार के लिए आवश्यक तत्व होते है नैतिक सम्प्रत्ययो व नैतिक व्यवहारों का सम्बंध बच्चे की आयु व परिपवक्ता से होता है । नैतिक तर्क किसी परिस्थिति घटना या व्यवहार के औचित्य के बारे में विचार करने की प्रक्रिया है ।

भौतिक विकास के पक्ष 

(1) नैतिक ज्ञान (Moral knowledge)

(2) नैतिक सम्प्रत्यय ( Moral Concept )

(3) नैतिक तर्क (Moral Logic )

(4) नैतिक व्यवहार (Moral Behavior )

हेलेन बी (Helen Bee) के अनुसार नैतिक विकास के पक्ष

(1) नैतिक व्यवहार ( Moral Behaviout )

(2) नैतिक भावना ( Moral Feeling )

(3) नैतिक निर्णय ( Moral Judgement )

(1) नैतिक व्यवहार ( Moral Behaviout ): नैतिक व्यवहार वहा कहा जाएगा जब बालक जाएगा जब बालक किसी परिस्थिति में समाजिक नियमो और उचित अनुचित का ध्यान रखते हुए व्यवहार करता है । बच्चा नैतिक व्यवहार कैसे सीखता है ? यह एक शोध का विषय बन गया है । स्किनर ने विभिन्न सामाजिक अधिगम सिद्धांतो को विकसित करके बालक के नैतिक व्यवहार की अलग – अलग दृष्टिकोण व्याख्या की।

(2) नैतिक भावना ( Moral feelings ) : यह नैतिक विकास का दूसरा पक्ष है । इस पक्ष के अन्तर्गत यह पता लगाया जाता है कि जब कोई बच्चा अनैतिक आचरण करता है । तो उसके भीतर किस प्रकार के भाव पैदा होते है । ऐसी स्थिति में सामान्यतः बालक में आराध भाव पैदा होने लगता है । अपराध भाव के आधार पर ही समझा जा सकता है कि बालक ने नैतिक नियमो को स्वीकार कर लिया है ।

(3) नैतिक निर्णय ( Moral Judgement ) : नैतिक विकास का तीसरा पक्ष नैतिक निर्णय या नैतिक  तर्क है । यह नैतिकता का संज्ञानात्मक तत्व माना जाता है । इस पक्ष के अन्तर्गत यह पता लगाने का उद्देश्य होता है कि बालक किस तर्क के आधार यह स्वीकार कर लेता है कि कोई आचरण सही और नैतिक है ।

उपरोक्त नैतिकता के तीन पक्ष परस्पर सम्बंधित है । परन्तु वे बालक के नैतिक विकास को तीन अलग अलग दृष्टिकोण से देखते है । अतः अब जब हमने नैतिकता को और उसके तत्वो व पक्षो को समझ लिया है अब हम कोह्लबर्ग के नैतिक विकास के सिद्धांत का अध्ययन करेंगे ।

कोह् लबर्ग का नैतिक विकास सिद्धांत  Kohlber’s Theory of Moral Ddevelopment 

प्रारंभिक आयु में बच्चा नैतिकता के सम्प्रत्यय अवधारणा से अपरिचित होता है । उसका व्यवहार स्वाभाविक वृत्तियों के द्वारा निर्देशित होता है । उसकी वृत्तियो पर नियन्त्रण के लिए पुरस्कार एवं दण्ड और प्रशसा एवं निंदा की व्यवस्था करता है । इन सबके अतिरिकत बालक स्वय की जो क्रियाए सम्पन्न करता है । उसमें सुख – दुख का अनुभव करता है । मनोवैज्ञानिकों ने विषय पर शोध किया कि किस प्रकार बालक स्वाभाविक वृत्तियो से बालक नियत्रित होकर सामाजिक मूल्यो , नियमो व मर्यादाओ के अनुसार नैतिक आचरण को प्रदर्शित करता है । किसी बालक में नैतिक क्षमता का विकास कम होता है । और किसी में ज्यादा होता है । इसलिए नैतिक क्षमता के विकास के संदर्भ में सभी मनोवैज्ञातिक एकमत नहीं है । क्योंकि नैतिक विकास के सिद्धांत  भी अनेक है और नैतिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक भी कई होते है ।

फ्रायड़ के अनुसार- जब बालक अपने माता पिता की अभिवृत्तियो व भावनाओ को ग्रहण करता है । तो यह अभिवृतिया और भावनाए ही आगे चलकर बच्चे के विवेक का रूप ग्रहण कर लेती है । बालक नैतिक आचरण के लिए अपने भीतर से निदैशित होता है । इस प्रकार फ्रायड़ ने नैतिक विकास में व्यकित को बाल्यकालीन अनुभूतियो का महत्वपूर्ण स्थान बताया है ।

बैन्डूरा और वाल्टर्स ( Bandura and Walters ) ने बताया है कि बच्चे में नैतिक विकास सामाजिक अधिगम ( Social learning) का परिणाम होता है । बच्चा आने परिवेश में प्रतिदिन माँडलस के व्यवहार का अनुसरण करके नैतिक आचरण ग्रहण करता है । यहाँ नमूनो या माँडलस से तात्पर्य माता पिता, बड़े भाई बहन या अध्यापक आदि जिनका बच्चे अनुकरण करते है ।

स्किनर ( Skinner ) ने पुनर्बलन ( Reinforcement ) का प्रभाव बताते हुए कहा कि नैतिक व्यवहार का विकास दण्ड एवं पुरस्कार पर निर्भर करता है । लेकिन कोह्लबर्ग का सिद्धांत इन सबसे बिल्कुल भिन्न है ।

कोह्लबर्ग की मूल भूत आवश्यकताएँ ( Basic Assumption of Kohlberg’s Theory )

(1) बच्चे के नैतिकता विकास के स्वरूप को समझने के लिए उनके तर्क और सिद्वांत के रूवरूप का विश्लेषण करना आवश्यक होता है । बच्चे द्वारा किए गए प्रदर्शन के आधार पर बच्चे की नैतिकता का सही अनुमान नहीं लगाया जा सकता है । अधिकतर बालक डर में या पुस्कार के प्रलोभन में वांछनीय व्यवहार करता है । जैसे -अगर बच्चा विद्यालय नहीं जाना चाहता है लेकिन बिस्कुट , टाँकी या अन्य किसी प्रलोभनो के कारण विद्यालय चला जाता है । यह नैतिक चिंतन या नैतिक निर्णय के कारण नहीं ।

कोह् लबर्ग ने बालक को किसी धर्म संकट की स्थिति में रखकर यह देखा है कि बच्चा उस स्थिति में क्या करता है और किस तर्क के आधार पर उचित व्यवहार के लिए निर्णय लेता है । कोह्लबर्ग के इस उपागम को प्राणीगत उपागम ( Organismic Approach ) भी कहा जाता है ।

(2) कोह्लबर्ग के नैतिक विकास सिद्धांत को अवस्था सिद्धात ( Stage Therory ) भी कहा गया है । उन्होंने अपने सम्पूर्ण नैतिक विकास को छः अवस्थाओ में विभाजित किया है और इन्हे सार्वभौमिक ( Universal ) माना है । सार्वभौमिक का यहा तात्पर्य यह है कि कोई भी बच्चा हो वह इन अवस्थाओं से होकर अवश्य गुजरता है । नैतिक विकास की ये अवस्थाए एक निश्चित क्रम में आती है। इस क्रम को बदला नहीं जा सकता है । प्रत्येक अवस्था मे बच्चे की तर्क शक्ति पहले से नए प्रकार की होती है ।

(3) जब बच्चा एक अवस्था से दूसरी अवस्था से दूसरी अवस्था में प्रवेश में प्रवेश करता है तो उस बच्चे के भीतर नैतिक व्यवहार गुणात्मक परिवर्तन कब और कैसे उत्तपन होते है ? यह एक विचारणीय और शोध का विषय है । कोह्लबर्ग के अनुसार नैतिक व्यवहार में गुणात्मक परिवर्तन क्रमिक रूप से ही होते है । वे ऐसे ही पैदा नहीं हो जाते है । बच्चा जब किसी अवस्था में प्रवेश करता है तो वह केवल उस अवस्था की ही विशेषतओं का ही प्रदर्शन नही करता, बाल्कि वह अन्य अवस्थाओं की विशेषताओं का भी प्रदर्शन करता है । और अधिकतर मनोवैज्ञानिक उन अन्य विशेषताओं को केवल उसी अवस्था की विशेषता मान लेता है ।

(4) कोह्लबर्ग के एक सहयोगी ने भी मना है कि एक बच्चा प्रायः नैतिक विकास की एक अवस्था के बाद दूसरी अवस्था में प्रविष्ट होता है । परन्तु सभी बच्चे छः अवस्थाओ तक नहीं पहुंच पाते है । नैतिक अवस्था की अन्तिम आस्था में पहुँचने वाले बच्चो की संख्या बहुत कम होती है । अतः नैतिक र्तक शक्ति या नौतिक चिन्तन के आधार पर बालको में वैयक्तिक भिन्नताए पायी जाती है ।

नैतिक विकास की अवस्थाएँ ( Stage of moral development ) : कोह् लबर्ग ने नैतिक विकास की कुल छः अवस्थाओ का वर्णन किया है लेकिन इन्होंने दो – दो अवस्थाओ को एक साथ रखकर उनके तीन स्तर बना दिए है । ये तीन स्तर निम्न प्रकार से है ।

(1) प्री – कन्वेंशनल ( Pre – Conventional )

(2) कन्वेंशनल ( Conventional )

(3) पोस्ट कन्वेंशनल ( Post Conventional )

(1) प्री . कन्वेंशनल ( Pre – Conventional ) : जब बालक किसी बाहरी तत्व या किसी भैतिक घटना के संदर्भ मे किसी आचरण को नैतिक अभवा अनैतिक मानता है तो उसकी नैतिक तर्कशक्ति प्री– कन्वैशन स्तर की कही जाती है । इस स्तर के अन्तर्गत दो अवस्थाएँ आती है ।

(i) आज्ञा एवं दण्ड की अवस्था ( Stage of order and punishment )

(ii) अंहकार की अवस्था ( Stage of Ego )

(i) आज्ञा एवं दण्ड की अवस्था ( Stage of Order and Punishment ) : कोह्लबर्ग के अनुसार इस अवस्था में बच्चे का चिन्तन दण्ड से प्रभावित होता है । परिवार के सभी सदस्य बच्चे को कुछ कार्य कसने के आदेश देते रहते है । इन आदेशों का पालन ना करने पर बच्चे को दण्डित किया जाता है । इसलिए बच्चा यह सोचता है कि दण्ड से बचने के लिए आदेश का पालन करना अनिवार्य है । कम आयु में और अपरिपक्व होने के कारण बच्चा किसी कार्य को करने का या न करने का निर्णय इसलिए करता है क्योँकि वह दंड से डरता है। अर्थात आज्ञाओं का पालन इसालिए करता है क्योंकि वह दंड से डरता है । अर्थात आज्ञाओं का पालन इसलिए करता है कि वह दंडित न हो । इस प्रकार नैतिक विकास की शुरू की अवस्था में दण्ड को ही बच्चो की नैतिकता का मुख्य आधार माना जाता है ।

(ii) अंहकार की अवस्था ( Stage of Ego ) : इस अवस्था में आकर बच्चे के चिन्तन का स्वरूप बदल जाता है । जैसे – जैसे बच्चे की आयु बढ़ती है वह परिपक्व होता है । तो वह अपनी आवश्यकताओं और इच्छाओ को समझने लगता हैं और उसके द्वारा उसकी इछाए पूरी हो जाति है । यादि उसका कोई उद्देश्य झूठ बोलने से पूरा होता है । तो वह झूठ बोलता है । अगर भूख लगी है । और चुरा कर वह कुछ खा लेता है । तो वह इन क्रिभाओ को नैतिक आचरण ही समझता है नैतिक विकास की इस अवस्था का आधार बालक का अंहकार (Ego) होता है ।

(2) कन्वेशनल स्तर ( Conventional Level ) : इस स्तर को भी दो उप उवस्थाओं में विभाजित किया जाता है ।

(i) प्रशंसा की अवस्था ( Stage of Appreciation )

(ii) सामाजिक व्यवस्था के प्रति सम्मान की अवस्था ( Stage of Respect for social system )

(i) प्रशंसा की अवस्था ( Stage of Appreciation ) : इस अवस्था में बच्चा जो भी करता है वह दूसरे लोगों के द्वारा उसकी प्रशंसा करने के लिए करता है । जब उसे पाता होता है कि दूसरे लोग उसकी प्रशंसा पाने के लिए ऐसा करते है । दूसरी ओर समाज के सदस्य बच्चो से विशेष अपेक्षाए करने लगते है , तो समाज से उन्हे स्वीकृति मिलने लगती है । इस अवस्था में बच्चे उन्हीं व्यवहारो को उचित व नैतिक मानते है जिनके लिए वे परिवार , स्कूल , पड़ोस मित्र – मण्डली से प्रशंसा प्राप्त करते है । इस प्रकार हम कह सकते है कि इस अवस्था में बच्चे के चिन्तन का स्वरूप समाज और उसके परिवेश से निर्धारित होता है ।

(ii) सामाजिक व्यवस्था के सम्मान की अवस्था ( Stage respect for social system ) : नैतिक विकास की यह उप – अवस्था अत्यन्त महत्वपूर्ण मानी जती है । कोह्लबर्ग के अनुसार समाज के ज्यादातर सदस्य नैतिक विकास की इस अवस्था तक पहुंच जाते है । इस अवस्था में प्रवेश से पहले बालक समाज को केवल इसलिए महत्वपूर्ण मानता है कि वह उसकी प्रशंसा करता है । अब वह समाज को स्वंय एक लक्ष्य मानने लगता है । इस अवस्था में पहुँचकर स्वंय यह समझने लगता है । कि सामाजिक नियमो के विरूद्ध प्रत्येक कार्य को अनैतिक कहता है । इस प्रकार हम देखते है कि कोह्लबर्ग ने नैतिक विकास की अवस्थाओं का क्रमिक अध्ययन किया है । 

(3) पोस्ट कंन्नेशनल स्तर ( Post – Conventional Level ) : कोह्लबर्ग ने अपने तीसरे स्तर को भी दो उप – अवस्थाओ में बाँटा है ।

(i) सामाजिक समझौते की अवस्था ( Stage of social contract )

(ii) विवेक की अवस्था ( Stage of Conscience )

(i) सामाजिक समझौते की अवस्था ( Stage of social contract ) : इस अवस्था तक आते आते व्यकित को नैतिक चिन्तन की दशा में पर्याप्त परिवर्तन आ जाते है । अब व्यक्ति परस्पर लेन देन में विश्वास करने लगता है। कि व्यक्ति व समाज के बीच एक समझौता होता है । व्यक्ति यह मानने लगता है , कि व्यक्ति को सामाजिक नियमों का पालन इसलिए करना चाहिए क्योंकि समाज हमारे हितो की रक्षा करता है । वो हमारा दायित्व बनता है कि हम समाज के नियमो का पालन करे । अगर व्यक्ति सामाजिक नियमो का पालन नहीं करता तो व्यक्ति व समाज के बीच का समझौता टूट जाता हैं अतः अपने नियमो , परम्पराओं , कानूनो के द्वारा समाज व्यक्ति को स्वतंत्रता अधिकार और सुरक्षा देता है । अतः ऐसे नियमों का उल्लघंन अनैतिक मना जाता है ।

(ii) विवेक की अवस्था ( Stage of Conscience ) : कोह्लबर्ग के अनुसार नैतिक विकास की छठी व अन्तिम अवस्था यही होती है । क्योकि इस अवस्था में पहुँचने पर व्यक्ति नैतिकता के बारे में अपना दृष्टिकोण भी विकसित कर लेता है । व्यक्ति में विवेक पैदा हो जाता है । व्यक्ति के अब अच्छे बुरे उचित – अनुचित आदि विषयों पर स्वंय के व्यकितगत विचार विकसित हो जाते है । अब व्यक्ति के नैतिक विकास का एकमात्र आधार विवेक ही बन जाता है । अब इस अवस्था में व्यक्ति नियमो का पालन स्वंय के दृष्टिकोण से प्रेरित होकर करने लगता है । इस अवस्था में व्यक्ति अब नियमो की वैद्यता को भी चुनौती देने लगता है । क्योंकि वे नियम उसके विवेक से मेल नहीं खाते है । अब व्यक्ति केवल विवेक के आधार पर ही जीवित रहने का आदि हो जाता है । अब व्यक्ति के लिए वही आचरण नैतिक होगा जो उसके स्वंय के विवेक का समर्थन प्राप्त कर लेगा ।

Adaptation and Assimilation (अनुकूलन और आत्मसात्करण) Piaget, Kohlberg & Vygotsky for CTET, all State TETs, KVS, NVS, DSSSB etc

Adaptation and Assimilation (अनुकूलन और आत्मसात्करण) Piaget, Kohlberg & Vygotsky for CTET, all State TETs, KVS, NVS, DSSSB etc

Q. Who gave the concept of Adaptation and Assimilation in his Cognitive Development Theory?

  1. Kohlberg
  2. Piaget
  3. Skinner
  4. Vygotsky

Ans- Option B

Through his study of the field of education, Piaget focused on two processes, which he named assimilation and accommodation. To Piaget, assimilation meant integrating external elements into structures of lives or environments, or those we could have through experience. Assimilation is how humans perceive and adapt to new information. It is the process of fitting new information into pre-existing cognitive schemas. Accommodation is the process of taking new information in one’s environment and altering pre-existing schemas in order to fit in the new information. This happens when the existing schema (knowledge) does not work, and needs to be changed to deal with a new object or situation.

Q. अपने संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत में अनुकूलन और आत्मसात्करण की अवधारणा किसने दी-

  1. कोहलबर्ग
  2. पियाजे
  3. स्किनर
  4. वाइगोत्सकी

Ans- विकल्प B

स्वयं के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत में पियाजे दो पदों का उपयोग करते हैं। संगठन और अनुकूलन। हालांकि इन पदों के अलावा भी पियाजे ने कुछ अन्य पदों का प्रयोग अपने संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत में किया है।

(1) अनुकूलन ( Adaptation ) 

पियाजे के अनुसार बच्चों में अपने वातावरण के साथ समायोजन की प्रवृति जन्मजात होती है । बच्चे की इस प्रवृति को अनुकूलन कहा जाता है । पियाजे के अनुसार बालक अपने प्रारभिंक जीवन से ही अनुकूलन करने लगता है । जब कोई बच्चा वातावरण में किसी उद्दीपक परिस्थितियो के समाने होता है तो उस समय उसकी विभिन्न मानसिक क्रियाएं अलग अलग कार्य न करके एक साथ संगंठित होकर कार्य करती हैं और ज्ञान अर्जित करती हैं। यही क्रिया हमेशा मानसिक स्तर पर चलती है। वातावरण के साथ मनुष्य का जो संबंध होता है उस संबंध को संगठन आन्तरिक रूप से प्रभावित करता है जबकि अनुकूलन बाहरी रूप से। पियाजे ने अनुकूलन की प्रक्रिया को अधिक महत्वपूर्ण माना है।

पियाजे ने अनुकूलन की सम्पूर्ण प्रक्रिया को दो उप -प्रक्रियाओं बांटा गया है।

  • आत्मसात्करण ( Assimilations )
  • समंजन ( Accommodation  )

(1) आत्मसात्करण ( Assimilations ) एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें बालक किसी समस्या का समाधान करने के लिए पहले सीखी हुई योजनाओं या मानसिक प्रक्रियाओं का सहारा लेता है । यह एक जैव वैज्ञानिक प्रक्रिया है । 

(2) समंजन ( Accommodation  ) एक ऐसी प्रक्रिया है जो पूर्व में सीखी योजना या मानासिक प्रक्रियाओं से काम न चलने पर समंजन के लिए ही की जाती है । पियाजे कहते हैं कि बालक आत्मसात्करण और सामंजस्य की प्रक्रियाओ के बीच संतुलन कायम करता है । जब बच्चे के सामने कोई नई समस्या होती है, तो उसमें सांज्ञानात्मक असंतुलन उत्पन्न होता है। उस असंतुलन को दूर करने के लिए वह आत्मसात्करण या समंजन या दोनों प्रक्रियाओं को प्रारंभ करता है ।

(Child Development & Pedagogy : Piaget, Kohlberg & Vygotsky)

पियाजे, कोह्लबर्ग, वाइगोत्स्की के सिद्धांत (Principle of Piaget, Kohlberg and Vygostky)

विकास की अवस्थाओं के  सिद्धांत(Principle of Development Stages)
मानव विकास की वृद्धि के कई आयाम होते हैं। विकास की अलग अलग अवस्थाओं में बालक में विशेष गुण देखने को मिलते हैं। इनके आधार पर मनोवैज्ञानिक  अवस्थाओं के अनेक सिद्धांत बनाते हैं। विकास की अवस्थाओं से सम्बंधित सिद्धांतों में पियाजे, कोह्लबर्ग, वाइगोत्स्की के सिद्धांत विशेष रूप से प्रसिद्द हैं।
 जीन प्याजे के विकास की अवस्थाओं के सिद्धांत 

जीन प्याजै स्विट्ज़रलैंड के एक प्रसिद्द मनोवैज्ञानिक थे। बच्चों में बुद्धि का विकास कैसे होता है यह जानने के लिए उन्होंने अपने ही बच्चो पर खोज की। जैसे जैसे वे बड़े हुए उनकी मानसिक विकास की क्रियाओं का बारीकी से अध्ययन किया गया। इन अध्ययनों के अनुसार जिन सिद्धांतों को बताया गया है वे पियाजे के मानसिक विकास  के नाम से जाने जाते हैं। संज्ञानात्मक विकास का अभिप्राय बच्चों की  एकत्रित करने की क्रिया से है। इसमें भाषा चिंतन समरण शक्ति और तर्क शामिल हैं।पियाजे के संज्ञानात्मक सिद्धांत के अनुसार जिससे संज्ञानात्मक संरचना को संसोधित किया जाता है समावेशन कहलाती है। पियाजे ने अपने सिद्धांत में कहा है की बच्चो की बुद्धि का विकास जन्म से ही शुरू हो जाता है। जब भी बालक का जन्म होता है वह कुछ क्रियाएं करने में सक्षम होता है। जैसे चूसना , देखना, पकड़ना, वस्तुओं तक पंहुचना। उस समय उसकी बौद्धिक संरचना इसी प्रकार की होती है जो उसे केवल यही क्रियाएं करने योग्य बनाती हैं। जैसे जैसे वह बड़ा होता है उसके बौद्धिक सरंचना का दायरा भी बढ़ता है और वह बुद्धिमान बनता चला जाता है।  पियाजे के अनुसार संज्ञानात्मक विकास एक निश्चित अवस्थाओं के क्रम में होते हैं। पियाजे ने बालक के संज्ञानात्मक विकास को चार भागों में बांटा है 
१ इन्द्रियजनित गामक अवस्था (जन्म से दो वर्ष तक)  मानसिक क्रियाओं का विकास इसी अवस्था में संपन्न होता है। भूख लगने की स्थिति में बालक  करता है। जिन वस्तुओं को देखते हैं उनके लिए उन्ही वस्तुओं का अस्तित्व होता है। इस अवस्था में बालक की बुद्धि उसके द्वारा किये हए कार्यों द्वारा व्यक्त होती है।  तरह  की अवस्था अनुकरण , स्मृति, और मानसिक निरूपण से सम्बंधित है .

पूर्व संक्रियात्मक अवस्था (दो से सात वर्ष तक )
 इस  अवस्था में बालक अपने परिवेश की वस्तुओं को पहचानने लगता है एवं उनमें अंतर पहचानने लगता है। इस दौरान उसमे भाषा का विकास भी प्रारम्भ हो जाता है। इस अवस्था में बालक नई सूचनाओं को इकठ्ठा करता है वह पहली अवस्था की तुलना में अधिक समस्याओं को सुलझाने में सक्षम हो जाता है। 

मूर्त संक्रियात्मक अवस्था (सात वर्ष से ग्यारह वर्ष तक) 
इस अवस्था में बालक वस्तुओं को और अच्छी तरह पहचानने और उनका वर्गीकरण करने लगता है। उनका चिंतन और अधिक तर्कसंगत होने  लगता है।  बालक सामाजिक अनुकूलन के लिया भोत से नियम सीख लेता है। इस अवस्था में बालकक को लगता है की अंक लम्बाई तथा भर स्थिर हैं।  

अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था (ग्यारह वर्ष से आगे)
 यह अवस्था ग्यारह वर्ष से प्रौढ़ावस्था तक चलते है। अमूर्त चिंतन की इस अवस्था में प्रमुख विशेषता है। इस अवस्था में भाषा सम्बन्धी योग्यता अपने चरम पर होती है बालक अच्छी तरह सोचने लगता है और किसी भी समस्या के समाधान ढूंढ़ने के लिए अमूर्त विचारों का निर्माण करता है।  अब उसमे निर्णय लेने की क्षमता का विकास हो जाता है।  
जीन पियाजे के अन्य सिद्धांत 
निर्माण और खोज का सिद्धांत प्रत्येक बालक अपने अनुभवों को अर्थपूर्ण बनाने की कोशिश करता रहता है। बालक नए नए व्यावहारिक गुण सिखने की कोशिश करता है जिनको उसने पूर्व में अनुभव नहीं किया। पियाजे के अनुसार बौद्धिक विकास केवल नक़ल नहीं है वह खोज पर आधारित है। 
कार्यात्मक क्रिया का अर्जन कार्यात्मक क्रिया से अभिप्राय है उस क्रिया से जिसमे बालक  कार्य कर रहा होता है उसी काम के प्रारम्भ में आजाता है। जैसे वह एक मिटटी के चक्र को दो भागों में जोड़ देता है और फिर उन दो भागों को  जोड़ कर पुनः चक्र का निर्माण कर देता है। बौद्धिक विकास का केंद्र यही क्रियात्मक क्रियाओं का अर्जन है। पियाजे के अनुसार जब तक बालक किशोरावस्था तक नहीं पंहुच जाता वह भिन्न भिन्न विकास की अवस्थाओं में भिन्न भिन्न वर्गों की कार्यात्मक क्रियाओं का अर्जन करता है। एक विकास की अवस्था से दूसरे पर जाने के लिए दो तथ्य अत्यंत आवश्यक हैं। सात्मीकरण और संतुलन स्थातिप करना। सात्मीकरण का अर्थ है बालक में उपस्थित विचारों में किसी अन्य विचार का समावेश करना। संतुलन का अर्थ है किसी नयी वास्तु अथवा विचार  साथ समायोजन स्थापित करना। या अपने विचारों और गुणों को दूसरे नए गुणों और विचारों साथ समावेशित करना।  

लॉरेंस कोह्लबर्ग का नैतिक विकास की अवस्था का सिद्धांत 
कोह्लबर्ग के अनुसार बालको के नैतिक विकास की क्रिया में को निश्चित अवस्थाएं सम्मिलित हैं। ये अवस्थाएं इस प्रकार हैं –
⇭पूर्व नैतिक स्तर 
⇭परम्परागत नैतिक स्तर 
⇭आत्म अंगीकृत नैतिक मूल्य स्तर 
पूर्व नैतिक अवस्था में बालक की उम्र चार वर्ष से दस वर्ष तक होती है। परम्परागत नैतिक स्तर में आयु दस से तेरह वर्ष होती है। आत्म अंगीकृत नैतिक मूल्य स्तर  आयु तेरह वर्ष से ऊपर होती है। कोह्लबर्ग  अध्ययन के आधार पर नैतिक विकास को निम्न अवस्थाओं में बांटा गया है पूर्व नैतिक अवस्था , सवकेन्द्रित अवस्था , परम्पराओं को धारण करने वाली अवस्था , आधारहीन आत्मचेतना अवस्था , आधारयुक्त आत्मचेतना अवस्था। 

पूर्व नैतिक अवस्था 
यह अवस्था जन्म से लेकर दो वर्ष की आयु तक रहती है। इस अवस्था में बालक को कोई किसी प्रकार के नैतिक मूल्यों को धारण करने के लिए नहीं कहता क्योंकि इस अवस्था में उसे यह समझ नहीं होती की उसके किसी कार्य से किसी को परेशानी या नुकसान तो नहीं होगा।  अवस्था में उसे अच्छे बुरे का ज्ञान नहीं होता  वह अपनी भावनाओं तथा इच्छाओं पर नियंत्रण नहीं रख पाता तथा बात बात पर जिद्द करता है। 

स्वकेन्द्रित अवस्था 
यह अवस्था तीसरे वर्ष से शुरू होकर छह वर्ष तक रहती है। इस अवस्था में बालक की सभी नैतिक क्रियाएं अपनी आवश्यकताओं तथा इच्छाओं पर केंद्रित होती हैं। बालक के लिए वही क्रिया नैतिक होता है जो उसके हित में होती है। 
परम्पराओं को धारण करने वाली अवस्था
सातवें वर्ष से किशोरावस्था तक होती है। इस अवस्था में बालक सामाजिकता के गुणों को धारण करता है। उसमे सामाजिक नियमों के प्रति नैतिकता का विकास होता है। इस अवस्था में उसे अच्छे बुरे का ज्ञान हो जाता है वह समझने लगता है की कोनसा व्यव्हार उसके  समाज के हित में है या नहीं। 

आधारहीन आत्मचेतना अवस्था 
 अवस्था किशोरावस्था से सम्बंधित है। इसमें बालक में स्वयं के गुणों की  प्रवृति उत्पन होजाती है।  पूर्णता की चाह उसे संतुष्ट नहीं रहने देती। यही असंतुष्टि उसे समाज या परिवेश में जो गलत हो रहा है उसे बदलने या परम्पराओं का विरोध करने के लिए उकसाती है। 

आधार युक्त आत्मचेतना अवस्था 
 नैतिक विकास की यह चरम अवस्था है  अवस्था में व्यक्ति अपनी भावनाओं को नियंत्रण में रख कर अपनी मानसिक शक्तियों का परयोग करते हुए विशेष नैतिक व्यवहार करता हुआ पाया जाता है। 

वायगॉट्स्की का सिद्धांत 
इस सिद्धांत के अनुसार बालक की वास्तविक क्षमता स्तर तथा कार्यकारी विकास स्तर के मध्य अनन्तर से सम्बंधित है।  अंतर को निकट विकास का क्षेत्र कहते हैं 
वायगॉट्स्की निकट विकास क्षेत्र सिद्धांन्त 
रटकर सिखने और निष्क्रिय रूप से सीखते जाने की अपेक्षा रचनावादी तरीके से सिखने का अर्थ है किसी बात को समझना। मार्गदर्शन में कुछ समझकर सीख्नना एक ऐसी प्रिक्रिया है जो चार चरणों से होकर गुजरती है। 

प्रथम चरण प्रथम चरण वह है जिसमे व्यक्ति को किसी अपने से अधिक योग्य व्यक्ति से  सीधे  सहायता प्राप्त होती है। इसमें योग्य व्यक्ति बच्चे के साथ काम करते हुए यह देखने में मदद करता है की वह पहले से क्या जनता है और इसका उस प्रश्न से क्या सम्बन्ध है जिसका हल वह निकलना चाहता है। प्रश्न का हल वह खुद खोजता है

द्वितीय चरण
इस चरण में बच्चा स्वयं अपनी मदद करता है जो की पहले किसी बड़े के द्वारा की जाती थी बड़े की मदद सिर्फ इतनी चाहिए की वह पहले और अब के सवाल के बीच की समानता को इंगित करे। 

त्तृतीय चरण 
यह चरण तब अत है जब बच्चों को न तो किसी योग्य व्यक्ति की सहायता की आवश्यकता होती है और न ही उन्हें बार बार सोचना पड़ता है की आगे क्या करना है? 
चतुर्थ चरण 
जब बच्चा एक तरह के क्षेत्र में महारत हासिल कर लेता है तब वह दूसरे क्षेत्रों में भी सिखने के लिए तैयार होते हैं। जिस प्रक्रिया में बड़े बच्चो की किसी सवाल का हल करने में सहायता करते हैं को स्कैफ़ोल्डिंग कहते हैं जैसे जैसे बच्चा आत्मनिर्भर होता है और उसका आत्मविश्वास है वैसे वैसे बड़ो के सहयता करने का तरीका भी बदल जाता है। 
वायगॉट्स्की के निकट विकास क्षेत्र में खेल का महत्त्व 
वायगॉट्स्की के अनुसार खेल बौद्धिक तथा सामाजिक विकास को बढ़ावा देता है विकास के विषय में खेल के प्रति वायगॉट्स्की  दृष्टिकोण समन्वयकारी था 
उनके अनुसार खेल एक ऐसा उपकरण जिससे वह अपनी भावनाओं और व्यहवहार पर नियन्त्रन करना सीखता है। अधिगम की अन्य गतिविधियों की तुलना में खेल में बच्चों का मानसिक स्तर उच्चतम स्तर पर होता है। उनके अनुसार खेल बच्चे के विकास को तीन तरीके से प्रभावित करता है। 
१ खेल बच्चे के निकट विकास क्षेत्र का निर्माण करता है। 
२ खेल कार्यों और वस्तुओं को विकार से अलग करने  करता है 
३ खेल अभिनियन्त्रण के विकास में सहायता करता है। 

निकट विकास क्षेत्र के निर्माण में खेल का महत्त्व 
वायगॉट्स्की के अनुसार खेल बच्चो बके लिए निकट विकास क्षेत्र का निर्माण करता है। खेल में बच्चा अपनी आयु से अधिक और अपनी दिनचर्या से ऊपर उठ कर व्यव्हार करता है। इसके विषय में निम्न तथ्य दिए गए हैं 
1 खेल में विकास के सभी तत्व शामिल हैं इसमें बालक सामान्य क्षमता से अधिक करने के लिए तत्पर रहता है। 
2 खेलने के लिए बालक जिस मानसिक प्रक्रिया का प्रयोग करता है वह निकट विकास क्षेत्र की रचना करती है। बच्चा निकट विकास क्षेत्र पर काम कर सके उसके लिए खेल क नियम , भूमिका , तथा प्रेरणा सहायता करते हैं। 
3 वायगॉट्स्की  शिष्यों लियोंतयेव और ऐलकोनिने ने  विचार का अध्ययन करके यह धरना बनाई  खेल एक प्रमुख गतिविधि है। उनका मानना था की खेल 3 से 6 वर्ष के बालक के लिए एक महत्त्वपूर्ण गतिविधि है जिसमे बालक बहुत कुछ सीखता है।   

वस्तुनिष्ट प्रश्न 
निम्न में से कोण सा बुद्धिमान बच्चे का लक्षण नहीं है 
१ वह लम्बे निम्बंधो को जल्दी रटने की क्षमता रखता है। 
२ वह जो प्रवाहपूर्ण एवं उचित तरीके से सम्प्रेषण करने की क्षमता रखता है 
३ वह जो अमूर्त रूप से सोचता रहता है 
४ वह जो नए परिवेश में स्वयं को समायोजित  सकता है 

Ans- 1

2 बच्चे दुनिया में अपनी समझ का सृजन करते है इसका श्रेय जाता है 
१ पियाजे को 
२ पॉवलोक को 
३ कोहलबर्ग को 
४ स्किनर को 

Ans- 1

3 शिक्षा मनोविज्ञान की दृष्टि में कोना सा कथन सत्य है 
१ बच्चे अपने ज्ञान का सृजन स्वयं करते है 
२ विद्यालय में आने से पूर्व बच्चो में कोई पूर्व ज्ञान नहीं होता है 
३ अधिगम प्रक्रिया में बच्चों को कष्ट होता  है  
४ बच्चे केवल वही सीखते हैं जो उन्हें सिखाया जाता है 

Ans- 1

4 घटना तथा वस्तुओं के बारे में बच्चा तार्किक  रूप से सोच सकता है पियाजे के चरणों में निम्न कथन सही है 
१ सेंसरी तंत्रिका तंत्र
२ प्रारंभिक सञ्चालन प्रक्रिया 
३ मूर्त सञ्चालन प्रक्रिया 
४ औपचारिक संचालन प्रक्रिया 

Ans- 3

5 वायगॉट्स्की ने बालक विकास के बारे में कहा है 
१ यह  संस्कारों की अनुवांशिकी के कारण है 
२ यह सामाजिक अन्तर्क्रियाओं का उत्पाद है 
३ औपचारिक शिक्षा  उत्पाद है 
४ यह समावेश और समायोजन का परिणाम है 

Ans- 2