सीखने या अधिगम में अभिप्रेरणा की भूमिका | Role of motivation in learning

मानव के प्रत्येक कार्य एवं व्यवहार के पीछे कोई न कोई अभिप्रेरणा अवश्य होती है। अतः मानव जीवन में अभिप्रेरणा का बहुत अधिक महत्त्व है। चूँकि व्यक्ति के प्रत्येक व्यवहार का संचालन अभिप्रेरणा के द्वारा ही होता है इसलिए शिक्षा सीखने के क्षेत्र में अभिप्रेरणा का स्थान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। मनोवैज्ञानिक गेट्स के अनुसार, सीखने की प्रक्रिया’ में अभिप्रेरक तीन तरह के कार्य करते हैं-

1. व्यवहार को शक्तिशाली बनाना- अभिप्रेरक व्यक्ति के अन्दर शक्ति का विकास करके उसे क्रियाशील बनाता है। अतः कक्षा में अध्यापकों द्वारा सहायक उत्तेजना के रूप में इनका प्रयोग किया जाना लाभदायक होता है। अभिप्रेरणा के द्वारा बालक एक निश्चित दिशा की ओर बढ़ने एवं कार्य करने को बाध्य होते हैं जिसके द्वारा सीखने की क्रिया दृढ़ एवं सुगम होती है। इस प्रकार वांछित व्यवहार की सम्भावना बहुत अधिक बढ़ जाती है।

2. व्यवहार को निश्चित करना- अभिप्रेरक, व्यक्ति को किसी उत्तेजना के प्रति निश्चित प्रतिक्रिया करने के लिए तैयार करते हैं तथा दूसरे व्यवहारों एवं वस्तुओं की अवहेलना करते हैं। उदाहरणार्थ समाचार पत्र के मिलते ही व्यक्ति अपने अन्दर निहित अभिप्रेरणा के अनुसार ही उसके विभिन्न खण्डों को पढ़ते हैं। खेल भावना से अभिप्रेरित व्यक्ति सीधे खेल सम्बन्धी पृष्ठ को पढ़ना चाहता है जबकि बेरोजगार व्यक्ति रोजगार सम्बन्धी विज्ञापन पर पहले ध्यान देता है। इस प्रकार अभिप्रेरणा के माध्यम से ही हमारा व्यवहार निश्चित होता है।

3. व्यवहार का संचालन- अभिप्रेरक, व्यक्ति के व्यवहार को चुनने एवं निश्चित करने के साथ-साथ उसका संचालन भी करते हैं। जब तक कार्य पूर्ण नहीं हो जाता, अभिप्रेरक लक्ष्य की ओर बढ़ने एवं शक्ति लगाने को प्रेरित करते रहते हैं। अभिप्रेरक हमें इस बात का अहसास दिलाते रहते हैं कि कार्य पूर्ण करना आवश्यक है। इस प्रकार अभिप्रेरक हमारी विभिन्न क्रियाओं का संचालन करते हैं।

अभिप्रेरकों के उपर्युक्त कार्यों कक्षा शिक्षण में भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। अध्यापक द्वारा बालकों के अन्दर अभिप्रेरणा उत्पन्न करने पर उनमें निम्नलिखित परिवर्तन स्पष्ट रूप से दिखायी पड़ते हैं- (क) शक्ति संचालन (ख) उत्सुकता (ग) निरन्तरता (घ) लक्ष्य प्राप्ति के लिए बेचैनी (ङ) ध्यान केन्द्रित होना

शिक्षा के क्षेत्र में अभिप्रेरणा के महत्त्व को निम्न रूप में भी व्यक्त किया जा सकता है-

(1) बालकों की शिक्षा उनकी आवश्यकता से सम्बन्धित कर देने पर वह उद्देश्य पूर्ण हो जाता है जिससे बालकों को सीखने की प्रेरणा मिलती है।

(2) सीखने की प्रक्रिया में सीखने की विधियाँ एवं नियम आदि अभिप्रेरक का कार्य करते हैं।

(3) अध्यापकों द्वारा अभिप्रेरणा प्रदान करने से बालकों में शिक्षा के प्रति रूचि उत्पन्न होती है।

(4) प्रशंसा पुरस्कार तथा निन्दा एवं दण्ड आदि अभिप्रेरकों के द्वारा बच्चों के व्यवहार को नियन्त्रित एवं अनुशासित किया जा सकता है।

(5) अभिप्रेरणा के द्वारा विद्यार्थियों में उत्तम चरित्र का निर्माण किया जा सकता है।

(6) अध्यापकों के समुचित निर्देशन द्वारा छात्रों को अच्छा व्यवहार करने के लिए अभिप्रेरित किया जा सकता है।

(7) उच्च एवं पवित्र जीवन लक्ष्य तथा समुचित आकांक्षा स्तर बनाये रखने के लिए शिक्षक बालकों को प्रेरणा प्रदान कर सकता है।

(8) शिक्षकों की अभिप्रेरणा से ही बालक समाजोपयोगी कार्यों को करने को अभिप्रेरित होता है।

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि उचित अभिप्रेरणा के द्वारा शिक्षा एवं सीखने की प्रक्रिया को सरल एवं तीव्र बनाया जा सकता है।

बालक एक समस्या – समाधान और वैज्ञानिक अन्वेषण | Child As a Problem Solver and Scientific Investigator

बालक एक समस्या – समाधान और वैज्ञानिक अन्वेषण 

समस्या समाधान का अर्थ

साधारण शब्दों में कहें तो किसी भी समस्या का समाधान चाहे समस्या छोटी हो या बड़ी जब भी सामने आती है तब उसके समाधान हेतु कुछ निश्चित सोपानों या कदमों का अनुसरण किया जाता है। बालक जब एक बार किसी समस्या का समाधान कर लेता है तब वह भविष्य में उन्हीं सोपानों का प्रयोग करता है जिससे उसने समस्या का समाधान निकाला था। समस्या समाधान के लिए चिंतन करना जरूरी है। 

बालक का मानसिक विकास

मानसिक विकास से तात्पर्य मानसिक क्षमताओं के विकास से है। मानसिक क्षमता के अंतर्गत चिंतन करने की क्षमता, तर्क करने की क्षमता, याद रखने की क्षमता, सही अर्थ देने की क्षमता आदि सम्मिलित है। जब बालक इन मानसिक क्षमताओं के आधार पर मानसिक कार्य संपन्न करने लगता है तब यह माना जाता है कि बालक का मानसिक विकास सही दिशा में हो रहा है। मानसिक विकास की प्रक्रिया जन्म से पूर्ण परिपक्वता आने तक चलती है। 

बालक एक समस्या-समाधान के रूप में

बालक बचपन से लेकर बड़े होने तक अनेक ऐसी समस्याओं का सामना करता है जिनका उसे स्वयं समाधान ढूंढना पड़ता है। बालक अपनी समस्या का हल ढूंढने के लिए वैज्ञानिक तरीकों का इस्तेमाल करते हैं। बच्चों को इस स्तर के योग्य बनाने के लिए आवश्यक है कि उसका व्यक्तिगत विकास किया जाए जिससे कि वह सभी प्रकार की परिस्थितियों का सही ढंग से सामना कर सके। 

बालक का एक अच्छा समस्या समाधान कैसे बनाया जाए

  • बालक के सामने छोटी-छोटी समस्या रखनी चाहिए ताकि आत्मविश्वास बढ़े।
  • बालकों को छोटी-छोटी समस्या के समाधान करने पर पुरस्कृत करते रहना चाहिए। 
  • बालकों में चिंतन व तर्क का विकास प्रायोगिक रूप से करना चाहिए। 
  • बालकों में भाषा, कौशल आदि का विकास किया जाना चाहिए।
  • बालकों को बार-बार अभ्यास कराकर अपनी कमियों को दूर करना सीखना चाहिए।
  • बालक में प्रत्यय निर्माण पर बल देना चाहिए।
  • बालकों को स्वावलंबी बनने के लिए प्रोत्साहित तथा आत्मविश्वास का गुण जाग्रत करना चाहिए।
  • बच्चे में आत्म पहचान का गुण विकसित करके
  • अपनी कमियों को स्वीकार करना तथा दूर करना सिखाकर
  • बच्चे को स्वावलम्बी बनाने के लिए प्रोत्साहित करके
  • बच्चे में भाषा का विकास करके
  • बच्चे को बार-बार प्रयास करके 

समस्या समाधान की वैज्ञानिक विधि

जब भी कोई समस्या सामने आती है तब उस वक्त सिर्फ वही एक समस्या हमारे पास नहीं होती है बल्कि कई और समस्याएं भी होती हैं। लेकिन आवश्यकतानुरूप प्राथमिकता के अनुसार समस्या समाधान करने हेतु समस्या का चयन किया जाता है। तत्पश्चात् उस समस्या से संबंधित जानकारी एकत्रित की जाती है। जानकारी, के अनुसार संभावित समाधान पर विचार किया जाता है। चिंतन-मनन के द्वारा जो समाधान सामने आता है, उसका मूल्यांकन व परीक्षण किया जाता है फिर जो निष्कर्ष आते हैं उन पर निर्णय लिया जाता है। एक जैसी समस्या के समाधान में अक्सर पूर्व से मिलते-जुलते समाधान का प्रयोग किया जाता है। 

समस्या समाधान की क्षमता बालक के तार्किक योग्यता पर निर्भर करती है, क्योंकि समस्या आने पर उसके समाधान के लिए क्रमबद्धता के साथ प्रयास करना तार्किक क्षमता को स्पष्ट करता है वहीं समस्या आने पर कई बालक समाधान का प्रयास न कर चिंता में बेवजह डूब जाते हैं, परेशान होते हैं तथा गलत कदम उठा लेते हैं। बालक के माता-पिता व शिक्षक को चाहिए कि बालकों को मानसिक रूप से मजबूत और उनमें तार्किक क्षमता का भी विकास करें जिससे वो समस्या समाधान कर सकें।


समस्या समाधान की वैज्ञानिक विधि निम्नलिखित है :-

  • समस्या का चयन
  • समस्या से संबंधित जानकारी 
  • संभावित समाधानों का निर्माण 4. संभावित समाधानों का मूल्यांकन
  • संभावित समाधानों का परीक्षण
  • निष्कर्षों का निर्णय
  • समाधान का उपयोग/प्रयोग

बालक, एक वैज्ञानिक अन्वेषक के रूप में

  1. निरीक्षण:-  बालक सबसे पहले विषय-वस्तु की परिस्थितियों का निरीक्षण करता है। 
  2. तुलना:-  विषय-वस्तु और परिस्थितियों में तुलना करता है।
  3. प्रयोगः- तुलना के आधार पर विचारों का प्रयोग करता है। 
  4. प्रदर्शन:-  फिर उस प्राप्त प्रयोग का प्रदर्शन या निरीक्षण करते हैं।
  5. सामान्यीकरण:-  परिणाम आने पर सिद्धांत निर्मित होते हैं, जो सामान्यीकरण को बताते हैं।
  6. प्रमाणीकरण:-  पुनः प्रयोग करके समस्या का सामान्यीकरण करना।

भाषा और विचार (language and though) चिंतन में संबंध, प्रकार , सिद्धांत एवं महत्‍व

भाषा क्‍या है ?

भाषा अभिव्‍यक्ति विचार विनिमय का मानव निर्मित साधन है जो पैतृक सम्‍पत्ति न होकर बल्कि अर्जित सम्‍पत्ति है जिसे हर बालक अनुकरण एवं प्रयास द्वारा ग्रहरण करने की चेष्‍टा करता है । 

भाषा योग्‍यता केवल मनुष्‍यो में पाई जाती है जो विचारो के आदान प्रदान में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाती है इसीलिए विकासात्‍मक मनोविज्ञान की विभिन्‍न विषय वस्‍तुओ में भाषा विकास भी अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण है । 

 विश्‍वकोष के अनुार – भाषा ध्‍वनि प्रतीको या संकेतो की ऐसा मान्‍य व्‍यवस्‍था है जिसके द्वारा एक समूह के लोग आपस में विचार विनियम करते है 

हरलॉक के अनुसार – भाषा के तात्‍पर्य विचारो तथा अनुभूतियों का अर्थ व्‍य‍क्‍त करने वाले उन सभी साधनो से है जिसमें विचारो के आदान प्रदान के सभी पक्ष सम्मिलित है । 

  • भाषा जीवित प्रणियो की प्रकाशन का एक साधन है । 
  • मनुष्‍य जिस माध्‍यम से अपने विचारो एवं भावो को अभिव्‍यक्‍त करता है आदान प्रदान करता है उसे भाषा कहते है । 
  • भाषा सम्‍प्रेषण का सबसे सशक्‍त माध्‍यम है 
  • बालक भाषा बोलने से पहले समझना आरम्‍भ कर देता है 

भाषा के प्रकार 

  1. मौखिक (सर्वाधिक उपयोगी ) 
  2. लिखित 
  3. सांकेतिक 

भाषा की विशेषताऍं – 

  1. भाषा अभिव्‍यक्ति का एक सांकेतिक साधन है 
  2. भाषा पेतृक संपत्ति न होकर अर्जित संपत्ति है 
  3. भाषा व विचारो का गहरा सम्‍बन्‍ध है 
  4. भाषा का कोई अंतिम स्‍वरूप नही है 
  5. भाषा का अर्जन अनुकरण द्वारा होता है 
  6. संस्‍कृति व सभ्‍यता से जुडी होती है 
  7. गतिशील व परिवर्तन शील होती है 
  8. भाष कठिनता से सरलता की अग्रसर होती है 
  9. भाषा स्‍थूलता से सूक्ष्‍मता और प्रौढ़ता की ओर जाती है 
  10. भाषा संयोगावस्‍था से वियोगावस्‍था की ओर जाती है 

भाषा विकास के सिद्धांत – 

  1. चॉमस्‍क का सिद्धांत 
    1. बालक में भाषा का गुण जन्‍म से पाया जाता है 
    2. वंशानुक्रम + वातावरण दोनो का योगदान होता है 
    3. बच्‍चे की पहली भाषा क्रंदन (रोना) होती है और फिर सांकेतिक भाषा में आता है । 
  2. बाण्‍डूरा का सिद्धांत – 
    1. बच्‍चा समाज के लोगो का अनुकरण के द्वारा ही भाषा सीखता है । 
  3. चैपनील , शार्ली , कर्टी वैलेन्‍टाइन का अनुकरण का सिद्धांत 
    1. बच्‍चे का जो भाषा विकास होता है वह अनुकरण के द्वारा होता है 
    2. यदि बच्‍चे के सामने दोषयुक्‍त भाषा का प्रयोग किया जा रहा है तो बालक भी दोषयुक्‍त भाषा सीखता है । 
  4. परिपक्‍वता का सिद्धांत – 
    1. परिपक्‍वता का तात्‍पर्य है कि भाषा अवयवों एवं स्‍वरों पर नियंत्रण होना । 
    2. बोलने के लिए जिभा , तालू , मूर्द्धा का परिपक्‍व होना आवश्‍यक है तो भाषा पर नियंत्रण होता हे और अभिव्‍यक्ति अच्‍छी होती है । 
  5. अनुबंधन का सिद्धांत – 
    1. शब्‍दों और भाषा को सीखने के लिए पहले व्‍यक्ति व वस्‍तु का सामने होना आवश्‍यक है । 

भाषा विकास को प्रभावित करने वाले कारक 

  1. शारीरिक परिपक्‍वता 
  2. पारिवारिक संबंध 
  3. सामाजिक आर्थिक स्‍तर 
  4. बुद्धि 
  5. स्‍वास्‍थ्‍य 
  6. प्रेरणा एवं निर्देशन 
  7. सामाजिक अधिगम के अवसर 
  8. लिंग 
  9. विद्यालय 
  10. सम समूह 
  11. मीडिया 
  12. बहुभषिक्‍ता 

भाषा सीखने के  साधन 

  1. अनुकरण 
  2. खेल 
  3. कहानी सुनना 
  4. वार्तालाप 
  5. प्रश्‍नोत्तर 

भाषा के भाग / धटक 

भाषा के चार भाग / घटक होते है । 

  1. स्‍वनिम – छोटे छोटे वर्ण को सीखता है जिसका कोई अर्थ नही होता उसे स्‍वनिम कहते है यह भाषा की सबसे छोटी इकाई होती है 
  2. रूपिम – इसके बाद बच्‍चा छोटे छोटे शब्‍द सीखता है 
  3. वाक्‍य विन्‍यास – भाषा के नियम सीखता है 
  4. अर्थविन्‍यास – वाक्‍य के सारे शब्‍द अर्थ पूर्ण होने चाहिए यही बताता है। 

चिंतन ( विचार ) क्‍या है ? 

चिंतन विचार करने की वह मानसिक प्रक्रिया है चिंतन का संबंध संज्ञानात्‍मक पक्ष से है जो किसी समस्‍य के उत्‍पन्‍न होने से आरम्‍भ होती है और उसके अंत तक चलती है । 
मानसिक प्रक्रिया के अंतर्गत अनुमान करना तर्क करना , कल्‍पना करना , निर्णय लेना , समस्‍या समाधान ओर रचनात्‍मक आदि सम्मिलित है। 

रॉस के अनुसार – चिंतन मानसिक क्रिया का ज्ञानात्‍मक पहलू है ।

चिंतन के प्रकार 

NCERT  के अनुसार चिंतन दो प्रकार का होता है। 

  1. स्‍वली चिंतन 
  2. यथार्थवादी चिंतन 
    1. अभिसारी चिंतन 
    2. अपसारी चिंतन 
    3. आलोचनात्‍मक चिंतन 
  1. स्‍वली चिंतन – दिवास्‍वप्‍न देखना , कल्‍पना करना अर्थात काल्‍पनिक विचारों व इच्‍छाओं की अभिव्‍यक्ति करना    उदा – झूठी कल्‍पना करके , स्‍वप्‍न देख करके सबको बताना  
  2. यथार्थवादी चिंतन – वास्‍तविकता से संबंधित चिंतन   जैसे – पंखा लते चलते रूक जाता है तो विचार करना कि क्‍या कारण है जिससे पंख रूक गया है 
    1. अभिसारी चिंतन – तथ्‍यों के आधार पर निष्‍कर्ष निकालना , बंद अंत वाले प्रश्‍न पूछना  प्रश्‍न का एक उत्‍तर हो अन्‍त में आ के रूक जाना   जैसे 4+4 =8 , उत्‍तरप्रदेश की राजधानी – लखनऊ 
    2. अपसारी चिंतन / सृजनात्‍मक चिंतन – विविध प्रकार की सोच, मुक्‍त अंत वाले प्रश्‍न पूछना । इसके अनेक उत्‍तर हो सकते है  जैसे – उत्‍तर प्रदेश की विशेषताएं क्‍या है । 
    3. आलोचनात्‍मक चिंतन  – गुण और दोष को देखते हुए किसी बात को स्‍वीकार करना । 

चिंतन के प्रकार (सामान्‍य प्रकार) 

  1. प्रत्‍यक्षात्‍मक चिंतन / मूर्त चिंतन – 
    1. यह चिंतन का सबसे निम्‍न प्रकार है 
    2. बच्‍चा देखी हूई चीज पर चिंतन करते है 
  2. प्रत्‍ययात्‍मक चिंतन / अमूर्त चिंतन 
    1. यह सबसे प्रचलित चिंतन है 
    2. एक बार किसी बस्‍तु को देख लिया और उसके न होने पर किया गया चिंतन 
  3. कल्‍पनात्‍म्‍क चिंतन / सृजनात्‍म्‍क चिंतन – 
    1. किये गये चिंतन को सृजनात्‍मक रूप देना 
    2. यह चिंतन सृजनात्‍मक बालक ज्‍यादा करते है 
  4. तार्किक चिंतन –
    1. यह सर्वश्रेष्‍ठ या सर्वोच्‍च्‍ चिंतन कहते है 
    2. जॉन डी वी मे इसे विचारात्‍मक चिंतन कहा है 
    3. समस्‍या के आने पर ही यह चिंतन शूरू होता है । 

चिंतन के सोपान / पद 

  1. समस्‍या का उत्‍पन्‍न होना 
  2. आकड़ो एवं तथ्‍यो का संकलन करना 
  3. निष्‍कर्ष निकालना 
  4. निष्‍कर्षो की जॉच करना 

चिन्‍तन के सूचना प्रक्रमण सिध्‍दांत के चरण  

  1. पूर्व प्रक्रमण 
  2. श्रेणीकरण 
  3. प्रतिक्रिया चयन 
  4. प्रतिक्रिया क्रियान्‍वयन 

चिंतन की विशेषताऍ  

  1. चिंतन एक मानसिक प्रक्रिया हे 
  2. चिंतन मस्तिष्‍क का  एक ज्ञानात्‍मक पक्ष  है 
  3. समस्‍या के समाधान  में सहायक है 
  4. इससे मस्तिष्‍क  में एकाग्रता आती है 
  5. ध्‍यान केन्द्रित करने की क्षमता विकासित होती है 
  6. मानसिक विकास होता है 
  7. चिंतन से अनावश्‍यक क्रियाऍ कम होती है 
  8. बालक के शैक्षिक विकास में महत्‍वपूर्ण है 
  9. चिंतन से किसी भी वस्‍तु प्रत्‍यक्ष किय जा सकता है 
  10. किसी भी क्रिया  को पूर्ण किया जा सकता है । 

संज्ञान और संवेग का अभिप्राय।(Sense of Cognition and Emotion/Impulses)

संज्ञान से तात्पर्य–(Meaning of cognition)

मनोवैज्ञानिक अवधारणा के अनुसार संज्ञान वह मानसिक क्रिया है, जिसके माध्यम से ज्ञानार्जन संभव होता है,जिसमें ज्ञान या जानकारी प्रत्यक्षीकरण,अंतः प्रज्ञा (intution) और तर्क सम्मिलित होते हैं। संज्ञान (cognition) शब्द का प्रयोग अधिकतर अधिगम और चिंतन को व्याख्यायित करने हेतु प्रयोग किया जाता है। कॉगनिशन शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के कॉगनोसियर (Cognoscere) शब्द से हुई है,जिसका अर्थ है- ‘जानना या ज्ञान’ (getting to know or knowledge)।यह शब्द 15वीं शताब्दी में ही प्रयोग में आने लगा था,किंतु संज्ञानात्मक प्रक्रिया पर सबसे ज्यादा ध्यान तब गया जब महान दार्शनिक अरस्तू (Aristotle) ने संज्ञानात्मक क्षेत्रों पर ध्यान देना प्रारंभ किया जिसमें स्मृति (memory), प्रत्यक्षीकरण (perception) व मानसिक प्रतिरूप (mental imagrry) शामिल होते हैं।संज्ञान शब्द का प्रयोग विभिन्न क्षेत्रों में करते हैं।विज्ञान के क्षेत्र में,संज्ञान सभी मानसिक योग्यताओं का समुदाय है और ज्ञान से संबंधित क्रिया करता है; जैसे– अवधान (attention), स्मृति और कार्य स्मृति,निर्णय और मूल्यांकन तर्क और गणना,समस्या समाधान और निर्णय अवबोध एवं भाषा निर्माण आदि।संज्ञान के विभिन्न स्वरूप होते हैं, जैसे–
i.चेतन और अचेतन।
ii.मूर्त और अमूर्त।
iii.अंतर प्रज्ञा आत्मक और संकल्पनात्मक।

According to the psychological concept, cognition is the mental action through which knowledge is acquired, which includes knowledge or information perception, intuition and reasoning.The word is mostly used to describe learning and thinking.The word cognition is derived from the Latin word cognoscere, which means- ‘getting to know or knowledge’.The term began to come into use only in the 15th century, but the cognitive process gained most attention when the great philosopher Aristotle began to focus on cognitive areas, including memory, perception, and mental patterns. (Mental imagrry) are included.The word cognition is used in various fields.In the field of science, cognition is the community of all mental abilities and actions related to knowledge; Such as attention (attention), memory and working memory, judgment and evaluation, reasoning and calculation, problem solving and judgment, understanding and language formation etc.There are different forms of cognition,eg–
i.conscious and unconscious.
ii.Tangible and intangible.
iii.Interpretation, subjective and conceptual.

संज्ञान की विभिन्न परिभाषाएंँ निम्नांकित हैं–

i.ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार– ” विचार, अनुभव और इंद्रियों के माध्यम से ज्ञान अर्जित करने और अवबोध की मानसिक क्रिया या प्रक्रियायें।”
ii.वेबस्टर शब्दकोश के अनुसार– “जानकारी, ज्ञान और प्रत्यक्षीकरण की क्रिया संज्ञान है।”
iii.नीरस के अनुसार– “संज्ञान शब्द उन सभी प्रक्रियाओं का संदर्भ देता है जिनके द्वारा इंद्रिय क्रियायें रूपांतरित, मात्रा में कम, व्याख्यायित, एकत्रित, खोई शक्ति को अर्जित तथा प्रयुक्त होती है।”

Different definitions of cognition are given below–

i.According to Oxford Dictionary– “mental action or processes of acquiring and perceiving knowledge through thought, experience and the senses.”
ii.According to the Webster Dictionary– “Cognition is the act of perceiving information, knowledge and perception.”
iii.According to Neeras– “The word cognition refers to all those processes by which sense actions are transformed, reduced in quantity, explained, accumulated, acquired and applied to lost energy.”

संज्ञान की विशेषताएंँ–(Features of Cognition)

संज्ञान के स्वरूप को और भी ग्राह्य बनाने हेतु इससे संबंधित कुछ तत्वों का उल्लेख कर सकते हैं–
1. संज्ञान एक विकासात्मक प्रक्रिया है।
2. संज्ञान एक अर्जित योग्यता है।
3. संज्ञान में चिन्हों (Symbols) का उपयोग किया जाता है।
4. इसमें अंतरण (Transfer) का गोचर प्रदर्शित होता है।
5. इस प्रक्रिया में चिंतन, कल्पना, स्मृति एवं पूर्व अनुभवों का योगदान होता है।
6. बच्चों का संज्ञान सरल,सहज और वयस्कों का जटिल होता है।
7. इसकी प्रक्रिया अव्यक्त होती है। बाहर से इसका प्रेक्षण असंभव होता है क्योंकि यह प्रक्रिया व्यक्ति के भीतर होती हैं।
8. संज्ञानात्मक संरचना में बदलाव होते रहता है।
9. संज्ञानात्मक विकास में तार्किक चिंतन का विशिष्ट महत्व माना जाता है।इस योग्यता में वृद्धि के परिणामस्वरुप संज्ञानात्मक योग्यता में भी वृद्धि होती रहती है।
10. व्यक्ति की क्षमता भी संज्ञानात्मक योग्यता को पूरी तरह प्रभावित करती है।चूँकि सक्षमता, समायोजन स्थापित करने में सहायक सिद्ध होती है अतः इसे संज्ञान का प्रमुख निर्धारक भी कहा गया है।

To make the nature of cognition more acceptable, some elements related to it can be mentioned –
1. Cognition is a developmental process.
2. Cognition is an acquired ability.
3. Symbols are used in cognition.
4. In this the transit of the transfer is displayed.
5. Reflection, imagination, memory and past experiences contribute to this process.
6. Children’s cognition is simple, intuitive and adults’ complex.
7. Its process is latent. It is impossible to observe from outside because this process takes place inside the person.
8. Cognitive structure changes.
9. Reasoning thinking is considered to be of special importance in cognitive development. As a result of increase in this ability, cognitive ability also keeps on increasing.
10. A person’s ability also completely influences cognitive ability.Since competence is helpful in establishing adjustment, it is also called major determinant of cognition.

संवेग का अर्थ–(Meaning of Emotion)

संवेग एक ऐसी अवस्था है जिसमें बालक या व्यक्ति किसी न किसी रूप में विचलित या उदोलित हो जाता है।यदि संवेग धनात्मक है तो प्रसन्नता अनुभूत होती है, जैसे प्रेम या सुख।यदि वे निषेधात्मक हैं तो चिंता, भय एवं असहिष्णुता प्रदर्शित होती है।इसीलिए कहा जाता है कि “संवेग हमारे जीवन को रंगीन बना देते हैं।”

संवेग शब्द की व्युत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘इमोवियर’ शब्द से हुई है।इसका मतलब है हिला देना, झकझोर देना,घबरा देना,उत्तेजित कर देना आदि है।कुछ इसी रूप में इसे अन्य मनोवैज्ञानिकों ने भी परिभाषित किया है–
i.पी.टी यंग (1939) के अनुसार– “संवेग, व्यक्ति में समग्र रूप में विघ्न उत्पन्न करने वाली प्रक्रिया है। इसकी उत्पत्ति मनोवैज्ञानिक होती है।इसमें व्यवहार, चेतन अनुभूति एवं आंतरिक क्रियाएंँ भी सन्निहित होती हैं।”
ii.एम.एच.मार्क्स (1976) के अनुसार–“प्रायः संवेग का आशय प्राणी में होने वाले ऐसे सामान्यीकृत विघ्न(व्याकुलता) या झकझोर की स्थिति से है जिसमें चेतन अनुभूति, व्यवहारिक एवं दैनिक विशेषताएंँ सन्निहित रहती हैं।”

Emotion is such a stage in which a child or person gets distracted or agitated in one way or the other. If the momentum is positive So happiness is felt, like love or happiness. If they are prohibitive then anxiety, fear and intolerance are displayed.That is why it is said that emotions make our life colorful.”

The word emotion is derived from the word ’emovier’ from Latin language.It means to shake, to shake, to bewildered, to agitate Giving is etc.It has also been defined in some way by other psychologists–
i.According to P.T. Young(1939)– “Emotion is the process that disturbs the individual as a whole. Its origin is psychological.It also includes behavior, conscious cognition and internal action.”
ii.According to M.H.Marx(1976)–“Most often, emotion refers to a state of generalized disturbance (distraction) or shaking occurring in an animal in which conscious cognition, behavioral and everyday features are embodied live.”

संवेगों की विशेषताएंँ–(Characteristics of Emotions-)

संवेगों की निम्नलिखित विशेषताएंँ हैं–
1. संवेग एक प्रकार का उदोलन है एवं इसके साथ भाव संयुक्त होता है।
2. इसमें संज्ञानात्मक विघ्नता उत्पन्न हो जाती है।
3. धनात्मक संवेगों से सुख अनुभूति और नकारात्मक संवेग से कष्ट अनुभूति या क्रोध आता है।
4. इसमें सांवेदिक तथा संज्ञानात्मक कारकों और स्वायत्त तंत्रिका तंत्र की भूमिका विशिष्ट होती है।
5. संवेगों का दमन कुसमायोजन को बढ़ाता है।
6. इसमें आंतरिक एवं बाह्य दोनों प्रकार के बदलाव होते हैं।
7.इनका प्रदर्शन शिशुओं में भी होता है।

Moments have the following characteristics–
1. Momentum is a type of movement and emotion is combined with it.
2. Cognitive disturbances arise in this.
3. Positive emotions lead to happiness and negative emotions bring pain or anger.
4. In this the role of sensory and cognitive factors and autonomic nervous system is specific.
5. Suppression of emotions increases maladjustment.
6. It has both internal and external changes.
7.These are also exhibited in infants.

संवेगों के प्रकार–(Types of Emotions)

संवेगों को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है। इन्हें धनात्मक (Positive) एवं नकारात्मक (Negative) संवेग कहते हैं।धनात्मक संवेगों को वांछित और नकारात्मक श्रमिकों को अवांछित संवेग भी कहा जाता है।इन्हें क्रमशः अनुकूल (Favourable) एवं प्रतिकूल (Unfavourable) के नाम से भी जाना जाता है।धनात्मक संवेगों में प्रसन्नता (Delight) तथा नकारात्मक संवेगों में क्लेश(Distress) की विशिष्टता पाई जाती है। प्रसन्नता से उल्लास, स्नेह तथा हर्ष आदी जैसे धनात्मक संवेगों का विकास होता है और क्लेश से क्रोध, घृणा, भय तथा ईष्या आदि जैसे नकारात्मक संवेगों का विकास होता है।

Moments are divided into two classes.These are called Positive and Negative emotions. Also known as Delight in positive emotions and Distress in negative emotions.Pleasure develops positive emotions like joy, affection and joy etc. and distress develops negative emotions like anger, hatred, fear and jealousy etc.

संवेगों का प्रभाव या महत्व–(Effect or Importance of Emotions-)

बालकों के जीवन में संवेगों का महत्व विभिन्न रूपों में प्रदर्शित होता है।उनका बालकों के व्यक्तिगत तथा सामाजिक समायोजन पर बड़े पैमाने में प्रभाव पड़ता है।संवेगों का प्रभाव,लाभ या हानि, शारीरिक या मनोवैज्ञानिक या दोनों प्रकार का पाया जा सकता है।संवेगों के प्रभाव की सूची वैसे तो काफी लंबी हो सकती है, किंतु यहांँ पर कुछ अत्यंत ही महत्वपूर्ण प्रभावों का ही वर्णन किया जाएगा।
A.सुख अनुभूति में वृद्धि– (Increase in Pleasure) संवेगों से बालकों की उत्तेजना तथा उनके सुख में वृद्धि होती है।धनात्मक संवेगों (जैसे- प्रेम,स्नेह आदि) से तो सुख की अनुभूति बढ़ती ही है,साथ में नकारात्मक संवेगों (क्रोध आदि) की अभिव्यक्ति से भी तनाव आदि से मुक्ति प्राप्त होती है। यह भी सुखदायक ही होता है।
B.कार्य के लिए तत्परता– (Readiness for Action) संवेगों के कारण शरीर में सक्रियता आती है तथा वे साम्यावस्था (Homoeostatis) को विघटित कर देते हैं ताकि शरीर आवश्यक क्रिया हेतु तैयार हो जाये।
C.क्रियात्मक कौशल में विघटन– (Disruption in Motor Skills) संवेगों के कारण क्रियात्मक व्यवहारों में बाधा उत्पन्न हो सकती है।इससे उनके व्यवहार में भद्दगी भी प्रदर्शित हो सकती है, जैसे- क्रोध में तुतलाना या हकलाना आदि।
D.संप्रेषण में सहायता– (Facilitation in Communication) संवेगात्मक अभिव्यक्ति संप्रेषण का भी कार्य संपन्न करती है।चेहरे व अन्य शारीरिक बदलाव से उनकी भावनाओं का पता लगता है तथा वे स्वयं भी अन्य व्यक्तियों की संवेगात्मक अभिव्यक्तियों एवं उनकी भावनाओं को जानने में सफलता प्राप्त करते हैं।
E.मानसिक क्रियाओं में व्यवधान– (Interference with Mental Activities) यदि संवेग प्रबल हैं तो उनका बालकों की मानसिक क्रियाओं (जैसे-ध्यान केंद्रण, पुनर्स्मरण तर्क आदि) पर बाधक प्रभाव पड़ता है और कार्यकुशलता पूरी तरह कम हो जाती है।

The importance of emotions in the life of children is displayed in various forms.They have a large impact on the personal and social adjustment of children. Effect of emotions, Profit or loss, physiological or psychological or both.The list of effects of emotions can be quite long, but here only some of the most important effects will be described.
A.Increase in Pleasure Feeling– (Increase in Pleasure) Emotions increase children’s excitement and their happiness. Positive emotions (like- love, affection etc.) increase the feeling of happiness.Along with the expression of negative emotions (anger etc.), one also gets freedom from stress etc.It is also soothing.
B.Readiness for Action– (Readiness for Action) Emotions cause activity in the body and they break the homoeostatis so that the body becomes ready for the necessary action.
C.Disruption in Motivational Skills– (Disruption in Motor Skills) Emotions can interfere with functional behaviours.This can also result in their behavior showing lewdness, such as stuttering in anger etc.
D.Aid in communication– (Facilitation in Communication)Emotional expression also performs the function of communication.Facial and other physical changes reveal their feelings and they themselves also express emotional expressions and emotions of other persons. get success in knowing their feelings.
E.Interference with Mental Activities– (Interference with Mental Activities)If the emotions are strong then they have a hindrance on the mental functions of the child (eg, attention-concentration, recall reasoning etc.) and the efficiency is completely reduced Gets it.

संवेगों का नियंत्रण–(Control of Emotions)

संवेगों को नियंत्रित करने में कुछ लोकप्रिय और प्रमुख प्रकार निम्नांकित हैं–
1.शमन–(Repression) यह एक प्रकार की मानसिकत मनोरचना है जिसके माध्यम से व्यक्ति अप्रिय, दुखद, और कष्टकारी घटनाओं, विचारों, इच्छाओं और प्रेरणाओं आदि को चेतना से जानबूझकर निकालकर देता है।इस मानोरचना के द्वारा व्यक्ति दुख और अप्रिय लगने वाली अनुभूतियों को इस मनोरचना के माध्यम से बाहर निकाल देता है।
2.संवेगात्मक शक्ति को समाज द्वारा स्वीकृत ढंग से व्यक्त करना–(Express Emotions in to useful and Socially Approved Channels) इस ढंग को मार्गान्तरीकरण भी कहा जा सकता है।इसमें बालक को इस प्रकार प्रशिक्षित किया जाता है कि वह अपने संवेगों का प्रकाशन इस ढंग से करता है कि लोग उसे पसंद करने लगते हैं।
3.अध्यवसाय–(Industriousness) बालकों के संवेगों को नियंत्रित करने का एक ढंग यह है कि बालकों में संवेगों के उत्पन्न होने और व्यक्त करने का समय ही न मिले।इस हेतु आवश्यक है कि बालकों को पढ़ने-लिखने या किसी अन्य लाभदायक काम में व्यस्त रखा जाए।
4.विस्थापन–(Displacement) पेज के अनुसार यह वह मनोरचना है जिसमें किसी वस्तु या विचार से संबंधित संवेग किसी अन्य वस्तु या विचार से स्थानांतरित हो जाता है।
5.प्रतिगमन–(Regression) कोलमैन के अनुसार,अहम (Ego) एकता और संगठन को बनाए रखने हेतु तथा तनाव(Stress) को दूर करने हेतु जब व्यक्ति कम परिपक्व प्रत्युत्तरों की मदद लेता है तब यह मनोरचना प्रतिगमन कहलाती है। इस मनोरचना में बालक अपने से कम आयु के बालकों जैसे व्यवहार कर अपने संवेगात्मक तनाव को दूर करता है।
6.संवेगात्मक रेचन–(Emotional Catharsis) रेचन का अर्थ है शामित संवेगों को मुक्त करना।रेचन को परिभाषित करते हुए हरलॉक ने लिखा है कि,”Clearing the system of pent-up energy is known as emotional catharsis.” संवेगात्मक रेचन दो प्रकार के होते हैं-
i.शारीरिक रेचन (Physical Catharsis)।
ii.मानसिक रेचन (Mental Catharsis)।
7.शोध–(Sublimation) शोध एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके माध्यम से संवेगों का रूप इतना बदल जाता है कि हम उसे पहचान नहीं पाते हैं।

Following are some of the popular and important types of control of emotions–
1.Repression–(Repression) It is a type of mental formation through which a person deliberately removes unpleasant, sad, and painful events, thoughts, desires and motivations etc. from consciousness. Through this psychoanalysis, the person expels the feelings of sadness and unpleasant.
2.Express Emotional Power in a manner accepted by the society–(Express Emotions in to Useful and Socially Approved Channels) This method can also be called as Diversion.In this the child is trained in this way that he publishes his emotions in such a way that people start liking him.
3.Business-(Industriousness) One way to control children’s emotions is that children do not get time to generate and express emotions. For this it is necessary that children should read- To be kept busy in writing or any other profitable work.
4.Displacement–(Displacement) According to Page, this is the psychosis in which the emotion related to an object or idea is transferred from another object or idea.
5.Regression-(Regression) According to Coleman, this attitude occurs when a person takes the help of less mature responders to maintain ego unity and organization and to relieve stress.is called regression. In this psychoanalysis, the child removes his emotional stress by behaving like children younger than him.
6.Emotional Catharsis–(Emotional Catharsis) Catharsis means releasing the involved emotions. Defining catharsis Harlock wrote that, “Clearing the system of pent-up energy is known as emotional catharsis.” There are two types of emotional catharsis-
i.Physical Catharsis.
ii.Mental Catharsis
7.Research–(Sublimation) Research is a process through which the form of emotions is changed so much that we do not recognize them.

समाजीकरण | Socialization in hindi

▶समाजीकरण का अर्थ (Meaning of Socialization)

सामाजीकरण का अर्थ उस प्रक्रिया से है जिसके द्वारा व्यक्ति अन्य व्यक्तियों से अंतः क्रिया करता हुआ सामाजिक आदतों, विश्वासों, रीति रविाजों तथा परंपराओं एवं अभिवृत्तियों को सीखता है। इस क्रिया के द्वारा व्यक्ति जन कल्याण की भावना से प्रेरित होते हुए अपने आपको अपने परिवार, पड़ोस तथा अन्य सामाजिक वर्गों के अनुकूल बनाने का प्रयास करता है जिससे वह समाज का एक श्रेष्ठ, उपयोगी तथा उत्तरदायी सदस्य बन जाए तथा उक्त सभी सामाजिक संस्थाएं तथा वर्ग उसकी प्रशंसा करते रहें

▶समाजीकरण की परिभाषा (Definition of Socialization)

प्रायः मनुष्य एक साथ अनेक समाजों के सदस्य होते हैं और उन्हें इनमें से किसी भी समाज में समायोजन करने के लिए उसकी भाषा और व्यव्हार प्रतिमानों को सीखना होता है. इस पूरी प्रक्रिया को समाजशास्त्री सामाजिकरण कहते हैं. पाश्चात्य समाजशास्त्री ड्रेवर महोदय ने इसे निम्लिखितत रूप में परिभाषित किया है-

“समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने सामाजिक पर्यावरण के साथ अनुकूलन करता है और इस प्रकार वह उस समाज का मान्य, सहयोगी और कुशल सदस्य बनता है.”

जॉनसन के मतानुसार, “समाजीकरण एक प्रकार का सीखना है जो सीखने वाले को सामाजिक कार्य करने योग्य बनाता है ।

रॉस के अनुसार, “सामाजिकरण सहयोग करने वाले व्यक्तियों में हम की भावना का विकास करता है और उनमें एक साथ कार्य करने की क्षमता और इच्छा का विकास करता है.

हमारी दृष्टि से समाजीकरण की प्रक्रिया को ने लिखित रूप में परिभाषित करना चाहिए- “समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति और व्यक्ति एवं समाज के बीच अंतः क्रिया होती है और व्यक्ति समाज की भाषा, रहन-सहन, खान-पान एवं आचरण की विधियां और रीति-रिवाज सीखता है और इस प्रकार उस समाज में समायोजन करता है.”

▶समाजीकरण की प्रक्रिया (Process of Socialization)

बालक के समाजीकरण की प्रक्रिया जन्म के कुछ दिन बाद से ही प्रारंभ हो जाती हैं बालक के समाजीकरण की प्रक्रिया परिवार से प्रारंभ होती हैं परिवार के सदस्य के रूप में बालक परिवार के अन्य सदस्यों से अन्तः-क्रियात्मक संबंध स्थापित करता है और उनके व्यवहारों का अनुकरण करता है। इस प्रकार अनुकरण करते हुए जाने-अनजाने बालक परिवार के अन्य सदस्यों की भूमिका भी अदा करने लगता है। अनुकरण के आधार पर ही वह माता-पिता, भाई-बहन आदि की भूमिकाओं को सीखता है। उसके ये व्यवहार धीरे-धीरे स्थिर हो जाते हैं। धीरे-धीरे बालक अपने तथा पिता और अपने तथा माता के मध्य के अंतर को समझने लगता है कि वह स्वयं क्या है? इस प्रकार स्वयं (Self) का विकास होता है जो समाजीकरण का एक आवश्यक तत्व है।

▶समाजीकरण के तत्व (Factors of Socialization)

समाजशास्त्रियों ने समाजीकरण की प्रक्रिया को बड़ी बारीकी से अध्ययन किया है. उनके अनुसार समाजीकरण की प्रक्रिया के चार तत्व होते हैं-

(1). मनुष्य की जैविकीय विशेषता- मनुष्य की अपनी जैविकीय विशेषता है; वह कुछ मूल प्रवृत्तियों, संवेगों, सामान्य जन्मजात प्रवृत्तियों, इंद्रियों और मस्तिष्क को लेकर जन्म लेता है. इन्हीं के आधार पर उसका सामाजिकरण होता है. इनके अभाव में हम उसका सामाजिकरण नहीं कर सकते.

(2). सामाजिक अंतः क्रियाएं- मनुष्य के समाजीकरण के लिए दूसरा आवश्यक तत्व सामाजिक अंतर क्रियाएं हैं. जब तक कोई मनुष्य दूसरे मनुष्य के संपर्क में नहीं आता और उनके बीच अन्तः क्रियाएं नहीं होती तब तक वह ना तो समाज की भाषा सीख सकता है और ना ही आचरण की विधियां. इनको सीख कर ही वह जैविक पुरानी से सामाजिक प्राणी बनता है.

(3). सामाजिक अंतः क्रियाओं के निश्चित परिणाम- सामाजिकरण के लिए यह भी आवश्यक है कि व्यक्ति-व्यक्ति अथवा व्यक्ति-समाज के बीच की अन्तः क्रियाओं के निश्चित परिणाम हो; निरर्थक अन्तः क्रियाओं के समाज सम्मत आचरण नहीं सीखा जा सकता.

(4). परिणामों के प्रति स्वीकृति-अस्वीकृति- जहां क्रिया होगी वहां परिणाम अवश्य होगा, चोरों के बीच रहकर बच्चा चोरी करना सीख सकता है परंतु उसे जब यह जानकारी होगी कि यह कार्य समाज द्वारा स्वीकृत नहीं है और ऐसा करके वह समाज में समायोजन नहीं कर सकता तो वह उस कार्य को स्वीकार नहीं करेगा. समाज द्वारा स्वीकृत आचरण को सीखकर तदअनुकूल आचरण करना ही सामाजिकरण होता है.

▶समाजीकरण को प्रभावित करने वाले कारक (Factor affecting of Socialization)

1. पालन-पोषण (Upbringing)

बालक के समाजीकरण में पालन पोषण का महत्वपूर्ण भूमिका होती है। प्रारंभिक जीवन बालोंको को जिस प्रकार का वातावरण मिलता है, जिस प्रकार का माहौल मिलता है उसी के अनुसार बालक में भावनाएं तथा अनुभूतियां विकसित हो जाती है। एक बालक समाज विरोधी आचरण उसी समय करता है, जब वह स्वयं को समाज के साथ व्यवस्थापित नहीं कर पाता।

2. सहानुभूति (Sympathy)

सहानुभूति का भी बालक के समाजीकरण में गहरा प्रभाव पड़ता है। इसका कारण यह है कि सहानुभूति के द्वारा बालक में अपनत्व की भावना विकसित होती है। जिसके परिणाम स्वरूप वह एक दूसरे में भेदभाव करना सीख जाता है। वह उस व्यक्ति को अधिक प्यार करने लगता है जिसका व्यवहार उसके प्रति सहानुभूतिपूर्ण होता है।

3. सामाजिक शिक्षण (Social Learning)

सामाजिक शिक्षण का आरंभ परिवार से होता है, जहां पर बालक माता पिता, भाई-बहन तथा अन्य सदस्यों से खान-पान तथा रहन-सहन आदि से शिक्षा ग्रहण करता है।

4. पुरस्कार एवं दंड (Rewards and Punishments)

जब बालक समाज के आदर्शों तथा मान्यताओं के अनुसार व्यवहार करता है, तो लोग उसकी प्रशंसा करते हैं तथा लोग में उस कार्य के लिए पुरस्कार की देते हैं। वहीं दूसरी तरफ जब बालक कोई असामाजिक व्यवहार करता है, तो दंड दिया जाता है जिससे भयभीत होकर वह दोबारा ऐसा व्यवहार नहीं करता है।

5. वंशानुक्रम (Inheritance)

बालक ने वंशानुक्रम से प्राप्त कुछ अनुवांशिक गुण होते हैं। जैसे- मूलभाव, संवेग, सहज क्रिया तथा क्षमताए इत्यादि। इसके अतिरिक्त उनके अनुकरण एवं सहानुभूति जैसे गुणों में भी वंशानुक्रम की प्रमुख भूमिका होती है। यह सभी तत्व बालक के समाजीकरण के लिए उत्तरदाई होते हैं।

6. परिवार (Family)

बालक के समाजीकरण उसके परिवार से ही आरंभ होता है। बालक अपने परिवार के लिए लोगों के संपर्क में रहता है, तो उनसे सीखता है ।परिवार के लोगों के रहन-सहन, बात- विचार, इत्यादि का अनुकरण करने लगता है। इस प्रकार से परिवार बालक की समाजीकरण में अहम भूमिका निभाता है।

▶बालक के समाजीकरण करने वाले कारक (Socializing Factors of the Child)

बालक जन्म के समय कोरा पशु होता है। जैसे-जैसे वह समाज के अन्य व्यक्तियों तथा सामाजिक संस्थाओं के संपर्क में आकर विभिन्न प्रकार की सामाजिक क्रियाओं में भाग लेता रहता है वैसे-वैसे वह अपनी पार्श्विक प्रवृत्तियों को नियंत्रित करते हुए सामाजिक आदर्शों तथा मूल्यों को सीखता रहता है। बालक के समाजीकरण की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। बालक के समाजीकरण में सहायक मुख्य कारक अथवा तत्व निम्नांकित हैं-

  • परिवार
  • आयु समूह
  • पड़ोस
  • नातेदारी समूह
  • स्कूल
  • खेलकूद
  • जाति
  • समाज
  • भाषा समूह
  • राजनैतिक संस्थाएं और
  • धार्मिक संस्थाएं।

▶बालक के समाजीकरण में बाधक तत्व (Elements hindering the socialization of the child)

मेरे विचारको के अनुसार बालकों के समाजीकरण में बाधा पहुंचाने वाले तत्व इस प्रकार हैं-

  • सांस्कृतिक परिस्थितियां: जैसे जाति, धर्म, वर्ग आदि से संबद्ध पूर्व धारणाएं आदि।
  • बाल्यकालीन परिस्थितियां: जैसे माता-पिता का प्यार न मिलना, माता-पिता में सदैव कलह, विधवा मां, पक्षपात, एकाकीपन तथा अनुचित दंड आदि।
  • तात्कालिक परिस्थितियां: जैसे निराशा, अपमान, अभ्यास अनियमितता, कठोरता, परिहास और भाई-बहन, मित्र, पड़ोसी आदि की ईर्ष्या।
  • अन्य परिस्थितियां: जैसे शारीरिक हीनता, निर्धनता, असफलता, शिक्षा की कमी, आत्म विश्वास का अभाव तथा आत्म-निर्भरता की कमी आदि।

▶समाजीकरण की प्रक्रिया में शिक्षक की भूमिका (Role of teacher in the process of socialization)

बालक के समाजीकरण की प्रक्रिया में परिवार के बाद स्कूल और स्कूल में विशेष रूप से शिक्षक आता है। प्रत्येक समाज के कुछ विश्वास, दृष्टिकोण, मान्यताएं, कुशलताएं और परंपराएं होती हैं। जिनको ’संस्कृति’ के नाम से पुकारा जाता है। यह संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित की जाती है और समाज के लोगों के आचरण को प्रभावित करती है। शिक्षक का सर्वश्रेष्ठ कार्य है इस संस्कृति को बालक को प्रदान करना। यदि वह यह कार्य नहीं करता है तो बालक का समाजीकरण नहीं कर सकता है। शिक्षक, माता-पिता के साथ बालक के चरित्र और व्यक्तित्व का विकास करने में अति महत्वपूर्ण कार्य करता है।

कक्षा में, खेल के मैदान में, साहित्यक और सांस्कृतिक क्रियाओं में शिक्षक सामाजिक व्यवहार के आदर्श प्रस्तुत करता है। बालक अपनी अनुकरण की मूल प्रवृति के कारण शिक्षक के ढंगों, कार्यों, आदतों और नीतियों का अनुकरण करता है। अतः शिक्षक को सदैव सतर्क रहना चाहिए, उसे कोई ऐसा अनुचित कार्य या व्यवहार नहीं करना चाहिए, जिसका बालक के ऊपर गलत प्रभाव पड़े। अतः बालक के समाजीकरण की प्रक्रिया को तीव्र गति प्रदान करने के लिए शिक्षक को मुख्यतः निम्न बातों को ध्यान में रखना चाहिए-

(1). अभिभावक शिक्षक सहयोगः- समाजीकरण की प्रक्रिया को तीव्र गति प्रदान करने के लिए शिक्षक का सर्वप्रथम कार्य यह है कि वह बालक के माता-पिता से संपर्क स्थापित करके उसकी रूचियों तथा मनोवृत्तियों के विषय में ज्ञान प्राप्त करे एवं उन्हीं के अनुसार उसे विकसति होने के अवसर प्रदान करे।

(2). स्वस्थ प्रतियोगिता की भावनाः- बालक के समाजीकरण में प्रतियोगिता का महत्वपूर्ण स्थान होता है। पर ध्यान देने की बात है कि बालक के समाजीकरण के लिए स्वस्थ प्रतियोगिता का होना ही अच्छा है। अतः शिक्षक को बालक में स्वस्थ प्रतियोगिता की भावना विकसित करनी चाहिए।

(3). सामाजिक आदर्शः- शिक्षक को चाहिए कि वह कक्षा तथा खेल के मैदानों एवं सांस्कृतिक और साहित्यिक क्रियाओं में बालक के सामने सामाजिक आदर्शों को प्रस्तुत करें। इन आदर्शों का अनुकरण करके बालक का धीरे-धीरे समाजीकरण हो जाएगा।

(4). स्कूल की परंपराएं:- स्कूल की परंपराओं का बालक के समाजीकरण पर गहरा प्रभाव पड़ता है। अतः शिक्षक को चाहिए कि वह बालक का स्कूल की परंपराओें में विश्वास उत्पन्न करे तथा उसे इन्हीं के अनुसार कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करे।

(5). मूहिक कार्य को प्रोत्साहनः- शिक्षक को चाहिए कि वह स्कूल में विभिन्न सामाजिक योजनाओं के द्वारा बालकों को सामूहिक क्रियाओं में सक्रिय रूप से भाग लेने के अवसर प्रदान करे। इन क्रियाओं में भाग लेने से उसका समाजीकरण स्वतः ही हो जाएगा।

उपर्युक्त बातों से स्पष्ट है कि शिक्षक बालक के समाजीकरण को प्रभावित करता है। शिक्षक के स्नेह, पक्षपात, बुरे व्यवहार, दण्ड आदि का बालकों पर कुछ न कुछ प्रभाव पड़ता है और उसका सामाजिक विकास उत्तम या विकृत हो जाता है। यदि शिक्षक, मित्रता और सहयोग में विश्वास करता है तो बच्चों में भी इन गुणों का विकास होता है। यदि शिक्षक छोटी-छोटी बातों पर बच्चों को दंड देता है, तो उनके समाजीकरण में संकीर्णता आ जाती है। यदि शिक्षक अपने छात्रों के प्रति सहानुभूति रखता है, तो छात्रों का समाजीकरण सामान्य रूप से होता है।

Basic Process of Teaching and learning in Hindi || Micro Teaching in Hindi || Teaching Rules in Hindi

शिक्षण अधिगम की मूल प्रक्रियाएं

(Basic process of teaching and learning)

 शिक्षण सोद्देश्य  प्रक्रिया है| किसी ने किसी विशिष्ट उद्देश्य की प्राप्ति के लिए ही शिक्षण की विभिन्न क्रियाओं का आयोजन किया जाता है | शिक्षण का अर्थ है लक्ष्य को साधते हुए किसी को सिखाना| शिक्षण को एक त्रि-ध्रुवीय प्रक्रिया माना गया है| शिक्षण के लिए हमें छात्र अध्यापक और पाठ्यक्रम की जरूरत पड़ती है| इसी वजह से शिक्षण को त्रि ध्रुवीय प्रक्रिया माना गया है|
Teaching is the intended process. Different activities of learning are organized for the attainment of a specific purpose. Teaching means to teach someone while aiming. Teaching is considered a tri-polar process. For teaching, we need a student teacher and a course. For this reason, teaching has been considered as a tri-polar process.

                                  शिक्षण की परिभाषाएं

” हफ  तथा डंकन के अनुसार – शिक्षण चार चरणों वाली प्रक्रिया है योजना, निर्देशन, मापन तथा मूल्यांकन|”
 “बर्टन  के अनुसार – शिक्षण अधिगम हेतु प्रेरणा, पथ प्रदर्शन व प्रोत्साहन है|”

                पाठ्यक्रम की विशेषताएं 

          (characteristics of Curriculum)

  1.  पाठ्यक्रम लचीला होना चाहिए |
  2.  शिक्षा पाठ्यक्रम सामाजिक आवश्यकता के अनुसार होना चाहिए |
  3.  पाठ्यक्रम अभ्यास पर आधारित होना चाहिए |
  4. पाठ्यक्रम पूर्व ज्ञान पर आधारित होना चाहिए |
  5.  पाठ्यक्रम मानसिक स्तर के अनुसार होना चाहिए |
  6. पाठ्यक्रम नैतिक मूल्य पर आधारित होनाचाहिए |

                         शिक्षण सूत्र 

                    (Teaching rules)

1.  ज्ञात से अज्ञात की ओर (Known to unknown) :-  पढ़ाने से पहले अध्यापक को प्रश्न करके पता कर लेना चाहिए कि बच्चों को उस पाठ के प्रति कितना ज्ञान है| पता करने से अध्यापक को कक्षा का स्तर पता चल जाता है| ज्ञान पता होने पर बच्चों को वहां तक पढ़ाना है जो बच्चे नहीं जानते हैं |
Known to unknown: – Before teaching, ask the teacher to know how much knowledge children have about that lesson. By knowing, the teacher gets to know the level of the class. On knowing knowledge, children have to be taught there which children do not know.
2.  सरल से कठिन की ओर  (Easy to complex) :-  पहले अध्यापक को सरल रचनाएं प्रस्तुत करनी चाहिए उसके बाद उससे थोड़ा सा ऊपर का स्तर तथा बिलकुल अंत में मुश्किल रचनाएं प्रस्तुत करनी चाहिए| क्योंकि अगर अध्यापक शुरू में ही कठिन रचनाएं प्रस्तुत करते हैं तो बच्चों का विश्वास डगमगा जाता है|
(Easy to complex: – First the teacher should present simple compositions and then a little higher level than that and at the end should present difficult compositions. Because If the teacher presents tough compositions at the beginning, the faith of children gets staggered)
3.  विशिष्ट से सामान्य की ओर (Specific to general) :-   अध्यापक को सबसे पहले पाठ का विशिष्ट रुप प्रस्तुत करना चाहिए | उसके बाद उसका सामान्य रूप प्रस्तुत करना चाहिए क्योंकि बच्चों को विशेष रुप पर ज्यादा ध्यान देने की आदत होती है|
4 मूर्त से अमूर्त / स्थूल से सूक्ष्म की ओर (Concrete to abstract) :-  बच्चा पहले अपनी सामने रखी हुई वस्तु पर ध्यान केंद्रित करता है| उसके बाद उनको हटाने पर भी ध्यान केंद्रित कर सकता है बच्चा उन चीजों के ऊपर तार्किक रूप से नहीं सोच सकता जो उसने पहले नहीं देखी हुई है अतः पहले बच्चों को वस्तुएँ  दिखानी चाहिए बाद में उन को हटाकर उन पर ध्यान केंद्रित करने के लिए बोलना चाहिए|
5 पूर्ण से अंश की ओर (Whole  to  partial) :-   अध्यापक को पहले पूरे भाग की जानकारी देनी चाहिए बाद में उसके छोटे छोटे भागों की जानकारी देनी चाहिए उदाहरणार्थ – पहले गाड़ी के बारे में फिर उसके भागों के बारे में बताना|
6.  अनिश्चितता से निश्चितता की ओर (Unsure to sure) :- बच्चा किसी भी नए सम्प्रत्य को लेकर हमेशा भ्रांति में रहता है | बच्चों की भ्रांति को ध्यान में रखकर उसको ज्ञान देना चाहिए ताकि उसके प्रति निश्चित हो जाए |
7.  बाल केंद्रित के अनुसार (According to child centered ) :- अध्यापक को बाल केंद्रित शिक्षा को ध्यान में रखकर शिक्षा देने चाहिए | बच्चों को अनुभूतियों व्यवहार तथा रुचियों को ध्यान में रखकर शिक्षा देनी चाहिए |
8.  विश्लेषण से संश्लेषण की ओर (Differentiation analysis to synthesis) :-  विश्लेषण का अर्थ होता है टुकड़ों में तोड़ना और संश्लेषण का अर्थ होता है जोड़ना |उदाहरणार्थ – जब हम किसी कविता का अनुवाद करते हैं तो एक-एक शब्द को तोड़ कर लिखते हैं और जब हम उसके निष्कर्ष देते हैं तो पूरी कविता का निचोड़ बताते हैं |
9.  मनोविज्ञान से तार्किक की ओर (Psychological to logical) :-  पहले अध्यापक को मनोविज्ञान तरीके से बच्चों को तैयार करना चाहिए कि उसको पढ़ाई करनी है अगर वह मनोवैज्ञानिक आधार बनाकर पड़ेगा तो वे रुचि के साथ पढ़ता हुआ तर्क प्रस्तुत कर सकता है |

                 शिक्षण की विशेषताएं 

           (Characteristics of teaching)

  1.  शिक्षण एक सामाजिक प्रक्रिया है |
  2.  शिक्षण एक भाषाई प्रक्रिया है |
  3.  शिक्षण एक अंतक्रिया है |
  4.  शिक्षण एक कला है  |
  5.  शिक्षणिक विकास की प्रक्रिया है |
  6.  शिक्षण एक त्रि ध्रुवीय प्रक्रिया है |

                   सूक्ष्म शिक्षण 

              (Micro teaching) 

एलन के अनुसार – सूक्ष्म शिक्षण से तात्पर्य शिक्षण क्रिया के उस सरलीकरण लघु रूप से है जिसे थोड़े विद्यार्थियों वाली कक्षा के सामने अल्प समय में संपन्न किया जाता है |
 बी के पासी एवं M S ललिता के अनुसार – जिसमें छात्राध्यापकों से यह अपेक्षा की जाती है कि उनके द्वारा किसी एक सम्प्रत्य  के थोड़े से विद्यार्थियों को अल्प समय में विशिष्ट शिक्षण कौशलों का प्रयोग करके पढ़ाया जाए |  
सूक्ष्म शिक्षण अध्यापकों का शिक्षण कौशलों का अभ्यास कराने हेतु अपनाई गई एक प्रशिक्षण तकनीक है | यह शिक्षण एक अति छोटा रूप है जिसमें वास्तविक शिक्षण की जटिलताओं को कम करने के हर संभव प्रयत्न किए जाते हैं | यह शिक्षण छात्रों के छोटे छोटे समूहों में होता है |

 सूक्ष्म शिक्षण चक्र (Cycle of microteaching)

 एनसीईआरटी के अनुसार :-

  1.  शिक्षण सूत्र (Teaching sessions) = 6  मिनट
  2.  प्रतिपुष्टि सत्र (Feedback session) = 6  मिनट
  3.  पुनर्योजना सत्र (Re-Plan Session) = 12  मिनट
  4.  पुनः अध्यापन सत्र (Re-Teach session) = 6  मिनट
  5.  पुनः प्रतिपुष्ठी सत्र (Re-Feedback session) = 6  मिनट

           कुल समय = 36  मिनट

Cognitive theory of Jean Piaget जीन पियाजे का संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत

संज्ञान का अर्थ 

संज्ञान का अर्थ उन सारीमानसिक क्रियाओं से है जिसका सम्बन्ध चिंतन ,समस्या समाधान, भाषा सम्प्रेषण तथा और भी बहुत सारे मानसिक क्रियाओं से है .

निस्सर के अनुसार -“संज्ञान संवेदी सूचनाओं (Sensory Information) को ग्रहण करके उसका रूपांतरण,विस्तारण,संग्रहण,पुनर्लाभ तथा इसके समुचित प्रयोग करने से होता है .”

                                      परिचय 

डॉ. जीन पियाजे (१८९६ -१९८० ) एक मनोवैज्ञानिक थे और मूल रूप से एक प्राणी विज्ञानं के विद्वान् थे .उनके कार्यो ने उन्हें एक मनोवैज्ञानिक के रूप में प्रसिद्धी दिलवाई थी .जीन पियाजे संज्ञानात्मक विकास के क्षेत्र में कार्य करने वाले मनोवैज्ञानिकों में सर्वाधिक प्रभावशाली माने जाते है .पियाजे का जन्म 9 अगस्त सन 1896 को स्विट्जरलैंड में हुआ था .उन्होंने जंतु विज्ञान में पीएचडी की उपाधि धारण की .मनोविज्ञान के प्रशिक्षण के दौरान वे अल्फ्रेड बिने के प्रयोगशाला में बुद्धि-परिक्षण पर जब कार्य कर रहे थे .उसी समय उन्होंने विभिन्न आयु के बच्चों के द्वारा चारो ओर के बाह्य जगत के बारे में ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया का अध्ययन करना शुरू कर दिया उनकी 1923 से 1932 के बीच पांच पुस्तके प्रकाशित हुई जिनमे उन्होंने संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत का प्रतिपादन किया .पियाजे के सिद्धांत की प्रमुख मान्यता यह है कि बालक के ज्ञान के विकास में वह खुद एक सक्रिय साझेदार की भूमिका अदा करता है और वह धीरे-धीरे वास्तविकता के रूप को समझाने लगता है .

      पियाजे ने बुद्धि के विषय में अपना तर्क दिया कि बुद्धि जन्म जात नहीं होती है .उन्होंने इससे पूर्व में प्रचलित कारक का कि बुद्धि जन्मजात होती है का खंडन किया .जैसे-जैसे बालक की आयु बढ़ती है वैसे-वैसे उसका कार्य क्षेत्र भी बढ़ता है और बुद्धि का विकास भी संभव होता है .प्रारम्भ में बच्चा केवल सरल संप्रत्ययो को ही सीखता है और जैसे-जैसे उसका अनुभव बढ़ता है बुद्धि का विकास होता है,आयु बढ़ती है वैसे-वैसे वह जटिल संप्रत्ययों को भी सीखता है .

      जीन पियाजे का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत 

संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत मानव बुद्धि की प्रकृति एवं उसके विकास से सम्बंधित एक विशद सिद्धांत है .पियाजे का मानना था कि व्यक्ति के विकास में उसका बचपन एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है .पियाजे का सिद्धांत ‘विकासी अवस्था सिद्धांत कहलाता है .यह सिद्धांत ज्ञान की प्रकृति के बारे में है और बतलाता है कि मानव कैसे ज्ञान क्रमशः इसका अर्जन करता है,कैसे इसे एक-एक कर जोड़ता है और कैसे इसका उपयोग करता है .

      व्यक्ति वातावरण के तत्वों का प्रत्यक्षीकरण करता है .अर्थात पहचानता है,प्रतीकों की सहायता से उन्हें समझाने की कोशिश करता है तथा सम्बंधित वास्तु/व्यक्ति के सन्दर्भ में अमूर्त चिंतन करता है .उक्त सभी प्रक्रियाओं से मिलकर उसके भीतर एक ज्ञान भण्डार या संज्ञानात्मक संरचना उसके व्यवहार को निर्देशित करती .इस प्रकार हम कह सकते है कि कोई भी प्रकार के उद्दीपकों से प्रभावित होकर सीधे प्रतिक्रिया नहीं करता ,पहले वह उन उद्दीपकों को पहचानता है,ग्रहण करता है,उसकी व्याख्या करता है .इस प्रकार हम कह सकते है कि संज्ञानात्मक संरचना वातावरण में उपस्थित उद्दीपकों और व्यवहार के बीच मध्यस्थता का कार्य करता है .

      जीन पियाजे ने व्यापक स्तर पर संज्ञानात्मक विकास का अध्ययन किया. पियाजे के अनुसार बालक द्वारा अर्जित ज्ञान के भण्डार का स्वरूप विकास की प्रत्येक अवस्था में बदलता है और परिमार्जित होता रहता है .पियाजे के संज्ञानात्मक सिद्धांत को विकासात्मक सिद्धांत भी कहा जाता है .चूँकि उनके अनुसार ,बालक के भीतर संज्ञान का विकास अनेक अवस्थाओं से होकर गुजरता है, इसलिए इसे अवस्था सिद्धांत भी कहा जाता है .

       पियाजे के संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत के पद 

पियाजे ने अपने संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत में दो पदों का उपयोग करते है .संगठन और अनुकूलन .हालाँकि एन पदों के अलावा भी पियाजे ने कुछ अन्य पदों का प्रयोग अपने संग्यांत्मक विकास में किया है .

1.संगठन ( Organization) संगठन से तात्पर्य प्रत्याक्षिकृत तथा बौद्धिक सूचनाओं को सही तरीके से बौद्धिक संरचनाओं में व्यवस्थित करने से है जो इसे वाह्य वातावरण के साथ समायोजन करने में उसके कार्यों को संगठित करता है .व्यक्ति मिलने वाली नयी सूचनाओं को पूर्व निर्मित संरचनाओं के साथ संगठित करने की कोशिश करता है,परन्तु कभी-कभी इस कार्य में सफल नहीं हो पाता है,तब वह अनुकूलन करता है .

2.अनुकूलन (Adaptation) पियाजे के अनुसार अनुकूलन वह प्रक्रिया है जिसमे बालक अपने को बाहरी वातावरण के साथ समायोजन करने की कोशिश करता है .यह एक जन्मजात,प्रवृत्ति है जिसके अंतर्गत दो प्रक्रियाएं सम्मिलित है .

आत्मसातीकरण (Assimilation) मूल रूप से आत्मसातीकरण एक नयी वास्तु अथवा घटना को वर्तमान अनुभवों में सम्मिलित करने की प्रक्रिया है .उदहारण के लिय यदि एक बालक के हाथ में टॉफी रख दिया जाता है तो वह तुरंत मुह में डाल देता है .क्योंकि उसे यह पता है कि टॉफी एक खाद्य वास्तु है .यहाँ बालक ने अनुकूलन के द्वारा खाने की क्रिया को आत्मसात कर रहा है .अर्थात पुरानी बौद्धिक क्रिया को नवीन क्रिया के साथ समायोजित करता है .अनुकूलन की यह प्रक्रिया जीवन पर्यंत चलती रहती है .

      जीन पियाजे के शब्दों में “नए अनुभव का आत्मसात कारण करने के लिए अनुभव के स्वरूप में परिवर्तन लाना पड़ता है .जिसे वह पुराने अनुभव के साथ मिलाजुलाकर संज्ञान के एक नए ढांचे को पैदा करना पड़ता है .इससे बालक के नए अनुभवों में परिवर्तन होते है .

समाविष्टिकरण /समंजन (Accommodation) समाविष्टिकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जो पूर्व में सीखी योजना या मानसिक प्रिक्रियाओं से काम न चलने पर समंजन के लिए ही की जाती है .पियाजे कहते है कि बालक आत्मसात्करण और समाविशितिकरण की प्रक्रियाओं के बीच संतुलन कायम करता है .जिससे वह वातावरण के साथ समायोजन कर सके .उदहारण के लिए जब बालक को टॉफी के स्थान पर रसगुल्ला देते है तो बालक यह जानता है,टॉफी मीठी होती है पर वह अपने मानसिक संरचना में परिवर्तन लाता है ,और इसमे नयी बातें जोड़ता है कि टॉफी और रसगुल्ले दोनों अलग-अलग खाद्य पदार्थ है जबकि दोनों का स्वाद मीठा है .

      आत्मसातीकरण तथा समविश्तिकरण तभी संभव है जब वातावरण के उद्दीपक बालक के बौद्धिक स्तर के अनुरूप होते है .

      समविश्तिकरण को आत्मसातीकरण की एक पूरक प्रक्रिया माना जाता है .बालक अपने वातावरण या परिवेश के साथ समायोजित होने के लिए सहारा अवस्यकतानुसार लेते है .

3.स्किमेता (Schemata) पियाजे के अनुसार अनुभव या व्यवहार को संगठित करने की ज्ञानात्मक संरचना को सकीमेटा कहते है .एक नवजात शिशु में सकीमेटा एक सहज प्रक्रिया है,जैसे शिशु की चूसने की प्रक्रिया बच्चा जैसे ही बाहरी दुनिया के साथ अंत-क्रिया करना प्रारम्भ करता है ,इन सकीमेटा में परिवर्तन तेजी से होना शुरू हो जाता है .सकीमेटा के सहारे बच्चा धीरे-धीरे समस्या समाधान के नियम तथा वर्गीकरण करना सीख लेता है .इस तरह सकीमेटा का सम्बन्ध मानसिक संक्रिया से है .

4.संज्ञानात्मक सरंचना (Cognitive Structure) पियाजे ने मानसिक योग्यताओं के सेट को संज्ञानात्मक संरचना की संज्ञा दी है .भिन्न-भिन्न आयु में बालकों की संज्ञानात्मक संरचना भिन्न-भिन्न हुआ करती है .बढ़ती हुई आयु के साथ यह संज्ञानात्मक संरचना सरल से जटिल बनती जाती है .

5.मानसिक संक्रिया /प्रचालन (Mental Operation) मानसिक संक्रिया का अर्थ संज्ञानात्मक सरंचना की सक्रियता से है जब बालक किसी समस्या का समाधान करना शुरू करता है तो मानसिक संरचना सक्रिय बन जाती है .इसे ही मानसिक संक्रिया या मानसिक प्रचालन कहते है .

 6. स्कीम्स (Schemes) पियाजे के सिद्धांत का यह संप्रत्यय वास्तव में मानसिक संक्रिया संप्रत्यय का बाह्य रूप है .जब मानसिक संक्रिया बाह्य रूप अभिव्यक्त होता है तो इसी अभिव्यक्त रूप को स्कीम्स कहते है .

7.स्कीम (Schema) पियाजे के अनुसार स्कीमा का अर्थ ऐसी मानसिक संरचना है,जिसका सामान्यीकरण संभव हो .यह संप्रत्यय वस्तुह संज्ञानात्मक संरचना तथा मानसिक प्रचलन के संप्रत्ययों के गहरे रूप से सम्बद्ध है .

8.विकेंद्रीकरण (Decentring) इस संप्रत्यय का सम्बन्ध यथार्थ चिंतन से है .विकेंद्रण का अर्थ है कि कोई बालक किसी समस्या के समाधान के सम्बन्ध में किस सीमा तक वास्तविक ढंग से सोच विचार करता है .इस संप्रत्यय का विपरीत अत्मकेंद्रण है .शुरू में बालक आत्मकेंद्रित रूप से सोचता है और बाद में उम्र बढ़ने पर विकेन्द्रित ढंग से सोचने लगता है .

9.पारस्परिक क्रिया (Intraction) पियाजे के अनुसार बच्चों में वास्तविकता को समझने तथा उसकी खोज करने की क्षमता न केवल बच्चों की प्रौढ़ता पर बल्कि उनके शिक्षण पर निर्भर करती है .यह दोनों की पारस्परिक क्रिया पर आधारित होती है .

10.संरक्षण ( Conservation) पियाजे के अनुसार संरक्षण का अर्थ वातावरण में परिवर्तन तथा स्थिरता को समझने और वास्तु के रंगरूप में परिवर्तन में अंतर करने की प्रक्रिया से है .दुसरे शब्दों में संरक्षण वह प्रक्रिया है,जिसके द्वारा बालक में एक ओर वातावरण के परिवर्तन तथा स्थिरता में अंतर करने की क्षमता और दूसरी ओर वास्तु के रंगरूप में परिवर्तन तथा उसके तत्व में परिवर्तन के बीच अंतर करने की क्षमता से है .

संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाएँ -(Stages of Cognitive Development)

पियाजे के अनुसार जैसे-जैसे संज्ञानात्मक विकास बढ़ता है वैसे-वैसे अवस्थाएँ भी परिवर्तित होती रहती है .किसी विशेष अवस्था में बालक के समस्त ज्ञान-विचारो,व्यवहारों के संगठन से एक सेट (set) यानि समुच्चय तैयार होता है , इन स्कीमाओ का विकास बालक के अनुभव व परिपक्वता पर निर्भर करता है .बालक के संज्ञानात्मक विकास की चार अवस्थाएँ होती है .

1.संवेदी पेशीय अवस्था (Sensory Motor Stage) जन्म से दो वर्ष तक 

इस अवस्था में बालक केवल अपनी संवेदनाओं और शारीरिक क्रियाओं की सहायता से ज्ञान अर्जित करता है .बच्चा जब जन्म लेता है तो उसके भीतर सहज क्रियाएँ होती है .और ज्ञानेन्द्रियो की सहायता से बच्चा वस्तुओं ,ध्वनियों,स्पर्श,रसों एवं गन्धो का अनुभव प्राप्त करता है और इन अनुभवों की पुनार्वृत्ति के कारण वातावरण में उपस्थित उद्दीपकों की कुछ विशेषताओं से परिचित होता है .पियाजे के अनुसार इस अवस्था में शिशुओं का बौद्धिक और संज्ञानात्मक विकास निम्नलिखित छ उप अवस्थाओं से होकर गुजरता है-

a)  सहज क्रियाओं कीअवस्था (जन्म से 3)0 दिन तक : 

इसके अंतर्गत बालक छोटी-छोटी या सहज क्रियाएं भी कर पाता है इसमें इसमें चूसने की क्रिया सबसे प्रबल होती हैl

b) प्रमुख वृत्तीय अनुक्रिया की अवस्था (1 माह से 4 माह तक) :

इस अवस्था में शिशुओं की परिवर्तित क्रियाओं में कुछ परिवर्तन होता है l शिशु अपने को नए वातावरण में अभियोजन करने की कोशिश करता है l वह अपने अनुभवों को दोहराता है lतथा उसमें रूपांतरण लाने का प्रयास करता है l इसे प्रमुख इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह परिवर्तित क्रियाएं प्रमुख होती हैं एवं उन्हें वृत्ति इसलिए कहा जाता है क्योंकि इन क्रियाओं को बार-बार दोहराते हैं l

c) गौंड वृत्तीय अनुक्रिया की अवस्था:

(4 माह से 8 माह तक) इस अवस्था में शिशु ऐसी क्रियाएं करता है जो रुचकर होते हैं तथा अपने आस-पास के वस्तुओं को छूने की कोशिश करता है l जैसे चादर पर पड़ी खिलौना को पाने के लिए चादर को खींच कर अपने तरफ करता है और फिर खिलौना लेता है l 

d) गौंड स्कीमेता की समन्वय की अवस्था:

(8 माह से 12 माह तक) इस अवधि में शिशु अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सहज क्रियाओं को इच्छा अनुसार प्रयोग कर सीख जाता है l वह वयस्कों द्वारा किए गए कार्यों को अनुकरण करने की कोशिश करता है l जैसे यदि हम बच्चों के सामने हाथ हिलाते हैं तो वह उसी तरह हाथ खिलाता है l वह इस अवधि में स्कीमेता का प्रयोग कर एक परिस्थिति से दूसरे परिस्थिति के समस्या का हल करता है l

e) तृतीय तृतीय अनुक्रिया की अवस्था:

( 12 माह से 18 माह तक) इस अवस्था में बालक प्रयास एवं त्रुटि के आधार पर अपनी परिस्थितियों को समझने की कोशिश करने से पहले सोचना प्रारंभ कर देता है l इस अवधि में बच्चे में उत्सुकता उत्पन्न होती है तथा भाषा का भी प्रयोग करना शुरू कर देता है l

f) मानसिक सहयोग द्वारा नए साधनों की खोज की अवस्था: (18 माह से 24 माह तक)

इस अवधि में शिशु प्रतिमा का उपयोग करना सीख जाता है l अब वह खुद ही समस्या का हल प्रतीकात्मक चिंतन क्रिया द्वारा ढूंढ लेता है l इस अवस्था में संज्ञानात्मक विकास के साथ बौद्धिक विकास भी बहुत तेजी से होता है l 

2)पूर्व संक्रियात्मक अवस्था (Pre Operational stage):

संज्ञानात्मक विकास की पूर्व संक्रियात्मक अवस्था लगभग 2 साल से प्रारंभ होकर 7 साल तक होती है l इस अवस्था में संकेतआत्मक कार्यों की उत्पत्ति तथा भाषा का प्रयोग होता है l पियाजे ने इस अवस्था को दो भागों में बांटा है l 

a) पूर्व प्रत्ययआत्मक काल:( 2 साल से 4 साल तक)

यह अवस्था वस्तुतः परिवर्तन की अवस्था है जिसे खोज की अवस्था भी कहा जाता है l इस अवस्था में बच्चे जो संकेत का प्रयोग करते हैं वह थोड़ी सी अव्यवस्थित होती है l इस अवस्था में बच्चे बहुत सारी ऐसी क्रियाएं करते हैं जिसे इससे पहले वह नहीं कर सकते थे l  जैसे संकेत वचन का प्रयोग कब और कहां किया जाता है l वह शब्दों का प्रयोग कर समस्याओं का समाधान करते हैं l बालक विभिन्न घटनाओं या कार्यों के संबंध में क्यों तथा कैसे जैसे प्रश्नों को जानने में रुचि रखते हैं l वह जिस कार्य को दूसरों के द्वारा होते या करते देखते हैं उस कार्य को करने लगते हैं l उनमें बड़ों का अनुकरण करने की प्रवृत्ति होती है l लड़की अपने पिता का अंकुरण कर गाड़ी चलाने या समाचार पत्र पढ़ने तथा लड़कियां अपनी मां की तरह गुड़ियों को खिलाना तैयार करना जैसे काम करते हैं l इस अवस्था में भाषा का विकास सबसे ज्यादा होता है l जिसके लिए समृद्ध भाषाई वातावरण की जरूरत होती है l 

     पियाजे ने पूर्व प्रत्यात्मक काल दो पर सीमाएं बताई है l

जीववाद : इसमें बालक निर्जीव वस्तुओं को भी सजीव समझने लगता है l उनके अनुसार जो भी वस्तुएं घूमती हैं या हिलती हैं वह वस्तुएं सजीव है जैसे सूरज बादल पंखा वह सभी अपना स्थान परिवर्तित करते हैं पंखा घूमता है इसलिए यह सभी सजीव हैं l

आत्मकेंद्रितआ:  इसमें बालक यह सोचता है कि यह दुनिया सिर्फ उसी के लिए बनाई गई है l इस दुनिया की सारी चीजें उसी के इर्द-गिर्द घूमती हैं l वह खुद को सबसे ज्यादा महत्व देता है l पियाजे के अनुसार उसकी बोली का लगभग 38% आत्म केंद्रित होता है l

b) अंत प्रज्ञ कॉल : 4 वर्ष से 7 वर्ष तक

इस अवस्था में बालक संकेत तथा चिन्ह को मस्तिष्क में ग्रहण करता है l  पियाजे के अनुसार अंतः प्रज्ञ चिंतन ऐसा चिंतन है जिसमें बिना किसी तार्किक विचार द्वारा प्रक्रिया के किसी बात को तुरंत स्वीकार कर लेना l अर्थात वह किसी समस्या का हल करता है तो उसके समाधान का कारण वह नहीं बता सकता है l समस्या समाधान में सन्निहित मानसिक प्रक्रिया के पीछे छिपे नियमों के बारे में उसकी जानकारी नहीं होती है lपियाजे ने अंतः प्रज्ञ चिंतन की कुछ पर सीमाएं बताइए हैं l

1 इस उम्र के बालकों के विचार अविलोमीय होते है l अर्थात बालक मानसिक क्रम के प्रारंभिक बिंदु पर पुनः लौट नहीं पाता है l जैसे 4 साल के बच्चे से कहा जाए कि तुम्हारी मम्मी अंकित की मौसी है उसी तरह उसकी मम्मी तुम्हारी मौसी होगी यह बात उसे समझ में नहीं आएगी l 

2 पियाजे के अनुसार उस उम्र के बच्चों में तार्किक चिंतन की कमी रहती है जिसे पियाजे ने संरक्षण का सिद्धांत कहा है l जैसे किसी वस्तु के आकार को बदल दिया जाए तो उसकी मात्रा पर उसका कोई प्रभाव नहीं होगा इस बात की समझ उसमें नहीं होती है l

                                               मूर्त संक्रियात्मक अवस्था

7 वर्ष से 12 वर्ष तक) इस अवस्था में बालक विद्यालय जाना प्रारंभ कर लेता है एवं वस्तुओं के बीच समानता भिन्नता समझने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है l इस अवस्था में बच्चे का तार्किक चिंतन संक्रियात्मक विचारों का स्थान ले लेता है l  बच्चे अब जोड़ना घटाना गुणा करना और / कर सकते हैं l इस अवस्था में बालकों में संख्या बोध वर्गीकरण क्रमानुसार व्यवस्था किसी भी वस्तु व्यक्ति के मध्य पारस्परिक संबंध का ज्ञान हो जाता है l वह तर्क कर सकता है l संक्षेप में अपने चारों ओर के पर्यावरण के साथ अनुकूलन करने के लिए अनेक नियम को सीख लेता है l 

                                             औपचारिक संक्रिया अवस्था 

यह संज्ञानात्मक विकास की अंतिम अवस्था है जो लगभग 12 वर्ष से 15 वर्ष तक की आयु की अवस्था है l इस अवस्था के दौरान बालक अमूर्त बातों के संबंध में तार्किक चिंतन करने की क्षमता विकसित कर लेता है l इस अवस्था को किशोरावस्था कहा जाता है l बच्चे अब वर्तमान भूत एवं भविष्य के बीच अंतर समझने लगते हैं l  समस्या का समाधान सुव्यवस्थित ढंग से करने लगते हैं l  इस अवस्था में बालक परिकल्पना ए बनाने के योग्य हो जाता है l उसकी व्यवस्था करता है तथा व्याख्यान के आधार पर निष्कर्ष भी निकलता है l अब बालक बड़ों की उत्तरदायित्व लेने के योग्य हो जाता है l पियाजे के अनुसार इस अवस्था में बालकों में बौद्धिक संगठन अधिक क्रम बंद हो जाता है l बालक एक साथ अधिक से अधिक बातों को समझने तथा उसका विचार करने में समर्थ हो जाता है l

     इस तरह पियाजे द्वारा बनाई गई संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत की चार अवस्थाएं इस बात का द्योतक हैं कि किसी भी बालक का संज्ञानात्मक विकास चार विभिन्न अवस्थाओं से होकर गुजरती है l जिसमें कुछ बालकों का बौद्धिक विकास तीव्र गति से होता है कुछ का औसत गति से तथा कुछ का धीमी गति से l 

पियाजे के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत की शिक्षा में उपयोगिता

  • पिया जी कहते हैं कि जो बच्चे सीखने में धीमे होते हैं उन्हें दंड नहीं देना चाहिए l
  • पियाजे के संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत बालकों के बौद्धिक विकास की प्रक्रिया को समझने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है l
  •  इस सिद्धांत के द्वारा शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाया जा सकता है l
  •  संज्ञानात्मक विकास अवस्था के आधार पर पाठ्यक्रम के संगठन में यह सिद्धांत कार्य मदद पहुंचाती है l
  • संज्ञानात्मक विकास की समुचित व्यवस्था करने में यह सिद्धांत एक सफल आधार प्रदान करता है l
  • पियाजे के संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत शैक्षिक शोध का एक बहुत बड़ा क्षेत्र है l
  •  बच्चों को अपने आप करके सीखने का अवसर हमें प्रदान करना चाहिए l
  • बच्चा स्वयं और पर्यावरण से अंतः क्रिया द्वारा सीखता है अतः हमें शिक्षकों माता-पिता बच्चे के लिए प्रेरणादायक माहौल का निर्माण करना चाहिए l
  • इस सिद्धांत के आधार पर शिक्षक एवं अभिभावक बच्चों की तार्किक व चिंतन विचार शक्ति को पहचान सकते हैं l

Theory of Behaviorism- Thorndike, Watson, Pavlov, Skinner

व्यवहारवादी साहचर्य सिद्धान्त / Theory of Behaviorism

विविन्न उद्दीपनों के प्रति सीखने वाले की विशेष अनुक्रियाएँ होती हैं इस उद्दीपनों तथा अनुक्रियाओं के साहचर्य से उसके व्यवहार में जो परिवर्तन आते हैं उनकी व्याख्या करना ही इस सिद्धान्त का उद्देश्य होता है। इस प्रकार के सिद्धान्तों के अन्तर्गत थॉर्नडाइक, वाटसन और पावलॉव तथा स्किनर के अधिगम सिद्धान्त आते हैं। 

थार्नडाइक का प्रयास एवं त्रुटि सिद्धान्त  Thorndike’s Theory of Trial and Error

  • थॉर्नडाइक के अधिगम के सिद्धान्त को प्रयास एवं त्रुटि का सिद्धान्त, उद्दीपन-अनुक्रिया का सिद्धान्त, संयोजनवाद सिद्धान्त तथा अधिगम का सम्बन्ध सिद्धान्त इत्यादि नामों से जाना जाता है। 
  • थॉर्नडाइक ने अपने अधिगम सिद्धान्त से सम्बन्धित एक प्रयोग एक बिल्ली पर किया। उसके एक भूखी बिल्ली को एक विशेष प्रकार के सन्दूक में बन्द कर दिया। इस सन्दूक का दरवाजा एक खटके अथवा चटकनी के दबने से खुलता था। सन्दूक के बाहर मछली का एक टुकड़ा इस प्रकार रखा कि अन्दर से बिल्ली को वह स्पष्ट दिखाई पड़ता रहे। भूखी बिल्ली के लिए मछली का एक टुकड़ा एक उद्दीपन का कार्य करता था। उस टुकड़े को देखकर सन्दूक में बन्द बिल्ली ने अनुक्रिया प्रारम्भ कर दी। बिल्ली ने बाहर निकलने के कई प्रयत्न किए। काफी देर तक बिल्ली सन्दूक के अन्दर ही उछलती-कूदती रही तथा उसके अनेक अनुक्रियाएँ प्रयत्न तथा भूल के आधार पर की। एक बार संयोगवश उसका पंजा फिर सन्दूक के दरवाजे पर पड़ा और वह खुल गया। बिल्ली ने बाहर रखा हुआ मछली का टुकड़ा खा लिया। 
  • थॉर्नडाइक ने उपरोक्त प्रयोग को दोहराया। उसके उसी बिल्ली को भूखा रखकर उसी सन्दूक में बन्द कर दिया। बिल्ली ने फिर पहले जैसे अनुक्रिया प्रारम्भ की तथा संयोगवश उसका पंजा फिर सन्दूक के दरवाजे पर पड़ा और वह बाहर निकलकर मछली का टुकड़ा पाने में कामयाब हो गई। इसी प्रकार थॉर्नडाइक ने इस प्रयोग को कई बार दोहराया। जैसे-जैसे प्रयोग की संख्या बढ़ती गई वैसे-वैसे ही बिल्ली कम प्रयास तथा कम भूल करती हुई बाहर निकलती रहीं एवं बिल्ली की गलत अनुक्रियाओं में कमी होती रही। अन्त में एक समय ऐसा आया कि बिल्ली बिना कोई भूल किए सन्दूक का दरवाजा खोलना सीख गई।
  • उपरोक्त प्रयोगों में आधार पर थॉर्नडाइक ने अधिगम के प्रयास एवं त्रुटि के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। इसके अनुसार सीखने की प्रक्रिया में व्यक्ति गलतियाँ कर सकता है, किन्तु बार-बार किए गए प्रयासों के बाद वह सीखने में सफल हो जातपा है। इस प्रक्रिया में उद्दीपक की भी प्रमुख भूमिका होती है, उद्दीपक की भी प्रमुख भूमिका होती है, उद्दीपक व्यक्ति को सीखने के लिए प्रेरित करता है। 

प्रयास एवं त्रुटि के सिद्धान्त का शैक्षिक महत्व 

  • शिक्षक इस सिद्धान्तके द्वारा ही समझते हैं कि बालक विभिन्न कौशलों को सीखने की प्रक्रिया में गलतियाँ कर सकते हैं। 
  • इस सिद्धान्त के आधार पर बालकों को सीखने के लिए अभिप्रेरित करने पर जोर दिया जाता है। 
  • इस सिद्धान्त के आधार पर बार-बार के अभ्यास से बालक की आदतों में सुधार किया जा सकता है एवं उसकी गलतियों को कम किया जा सकता है। 
  • यह सिद्धान्त अताता है कि सीखने हेतु कार्य को दोहराना आवश्यक है। 

वाटसन एवं पावलॉव का शास्त्रीय अनुबन्ध का सिद्धान्त Classical Conditioning Theory of Watson and Pavlov

वाटसन का प्रयोग Experiment of Watson

  • वाटसन नामक मनोवैज्ञानिक ने स्वयं अपने 11 माह के पुत्र अलबर्ट के साथ एक प्रयोग किया। उसे खेलने के लिए एक खरगोश दिया। बच्चे को उस खरगोश के नरम-नरम बालों पर हाथ फेरना अच्छा लगता था। वाटसन ने बच्चे को कुछ दिनों तक ऐसा करने दिया। कुछ समय पश्चात् वाटसन ने ऐसा किया कि जब बच्चा खरगोश को छुता था वह (वाटसन) एक तरह की डरावनी आवाज पैदा करने लगता था। ऐसा वाटसन ने कुछ दिनों तक किया। परिणाम यह हुआ कि डरावानी आवाज के न किए जाने पर भी बच्चे को खरगोश को देखने से ही डर लगने लगा।इस तरह भय की अनुक्रिया खरगोश (कृत्रिम उद्दीपन) के साथ अनुबन्धित हो गई और इस अनुबन्धन के फलस्वरूप उसने खरगोश से डरना सीख लिया।
  • प्रयोग को आगे बढ़ाने पर देखा गया कि बच्चा खरगोश से ही नहीं बल्कि ऐसी सभी चीजों से डरने लगा जिसमें खरगोश के बाल जैसी-नरमी और कोमलता हो। 

पावलॉव का प्रयोग /शास्त्रीय अनुबंधन का सिद्धांत (classical conditioning)/ अनुकूलित अनुक्रिया सिद्धांत   (Experiment of Pavlov)

  • पावलॉव ने अपने प्रयोग में एक कुत्ते को भूखा रख कर उसे प्रयोग करने वाली मेज के साथ बाँध दिया। उसने उस कुत्ते की लार ग्रन्थियों का ऑपरेशन कर दिया था, जिससे कि उसकी लार की बूँदों को परखनली में एकत्रित कर लार की मात्रा मापी जा सके। 
  • उसने स्वतः चालित यान्त्रिक उपकरणों की सहायता से कुत्ते को भोजन देते की व्यवस्था की। घण्टी बजने के साथ ही कुत्ते के सामने भोजन प्रस्तुत हो जाता था। भोजन को देखकर कुत्ते के मुँह में लार आना स्वाभाविक था। इस लार को पाइप से जुड़े एक परखनली में एकत्रित कर लिया जाता था। इस प्रयोस को कई बार दोहराया गया और एकत्रित लार की मात्रा का माप लिया जाता रहा। 
  • प्रयोग के आखिरी चरण में भोजन न देकर केवल घण्टी की व्यवस्था में भी कुत्ते के मुँह से लार टपकी जिसकी मात्र का माप किया गया। इस प्रयोग के द्वारा यह देखने को मिला कि भोजन सामग्री जैसे प्राकृतिक उद्दीपन के अभाव में भी घण्टी बजने जैसी कृत्रिम उद्दीपन के प्रभाव से कुत्ते ने लार टपकाने जैसी स्वाभाविक अनुक्रिया व्यक्त की। कुत्ते ने यह सीखा था कि जब घण्टी बजती है तब खाना मिलता है। सीखने के इसी प्रभाव के कारण घण्टी बजने पर उसके मुँह से लार निकलना प्रारम्भ हो जाता था। 
  • उपरोक्त प्रयोगों के आधार पर मनोवैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला कि जब किसी क्रिया को बार-बार दोहराया जाता है, तो अस्वाभाविक उद्दीपक भी वही प्रतिक्रिया देने लगता है जो स्वाभाविक उद्दीपक देता है। 

शास्त्रीय अनुबन्ध के सिद्धान्त का शैक्षिक महत्व 

  1. स्वभाव निर्माण उपरोक्त सिद्धान्त के आधार पर बालक में भय, प्रेम एंव घ्रणा के भाव आसानी से उत्पन्न किए जा सकते हैं। 
  2. अभिवृत्ति का विकास  बालक में विशेश प्रकार की अभिवृत्ति के विकास में उपरोक्त सिद्धान्त शिक्षकों की सहायता करता है। 
  3. मानसिक एवं संवेगात्मक अस्थिरता का उपचार मानसिक एवं संवेगात्मक रूप से अस्थिर बालकों के उपचार में भी उपरोक्त सिद्धान्त प्रभावकारी साबित होता है। 

स्किनर का सक्रिय अनुबन्ध का सिद्धान्त/ क्रियाप्रसूत अनुकूलन (operant conditioning)  Conditioning Theory of Skinner

  • स्किनर ने अधिगम के जिस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया उसे सक्रिय अनुबन्धन का सिद्धान्त कहा जाता है। सक्रिय अनुबन्धन से अभिप्राय एक ऐसी अधिगम प्रक्रिया से है जिसके द्वारा सक्रिय व्यवहार को सुनियोजित पुनर्बलन द्वारा पर्याप्त बल मिल जाने कारण वांछित रूप में जल्दी-जल्दी पुनरावृत्ति होती रहती है। और सीखने वाला अन्त में सिखाने वाले की इच्छा के अनुरूप व्यवहार करने में समर्थ हो जाता है। 
  • स्किनर ने अपने अधिगम के सिद्धान्त के प्रतिपादन  हेतु सन् 1930 में सफेद चूहों पर एक प्रयोग किया। उसने एक विशेष प्रकार का बॉक्स लिखा, जिसे स्किनर बक्सा कहते हैं। इस बक्से में एक छोटा-सा मार्ग था जिसमें एक लीवर लगा हुआ था जिसका सम्बन्ध एक प्याली में खाने का एक टुकड़ा आ जाता था। चूहा जब इस बक्से में उस मार्ग से छोड़ा जाता था, तो लीवर पर उसका पैर पड़ने से खट की आवाज होती थी। तथा वह आवाज को सुनकर उसकी ओर बढ़ता था, जिससे अन्दर रखी प्याली में उसे खाने का टुकड़ा मिल जाता था। वह खाना उस चूहे के लिए पुनर्बलन का कार्य करता था। बक्से में इस प्रकार की व्यवस्था थी कि उसमें अन्य किसी प्रकार का शोर नहीं होता था। इस क्रिया को बार-बार दोहराया गया। खाना चूहे की लीवर दबाने की क्रिया को बल प्रदान करता था। इस क्रिया में चूहा भूखा होने के कारण अधिक सक्रिय रहता था। 

स्किनर के  सक्रिय अनुबन्ध का शैक्षिक महत्व 

  • स्किनर के सिद्धान्त के आधार पर पाठ्य-वस्तु को छोटे-छोटे पदों में बाँटने पर बल दिया जाता है, जिससे अधिगम शीघ्र एवं प्रभावकारी हो जाता है। छात्रों के व्यवहार को वांछित स्वरूप तथा दिशा प्रदान करने में यह सिद्धान्त शिक्षकों की सहयता करता हैं। यह सिद्धान्त बताता है कि यदि छात्रों को उनके प्रयासों के परिमाण का ज्ञान करा दिया जाए तो विद्यार्थी अपने कार्य में अधिक उन्नति कर सकते हैं। 
  • इस सिद्धान्त का प्रयोग अभिक्रमित अधिगम के लिए किया गया है। सक्रिय अनुबन्धन में पुनर्बलन का अत्यधिक महत्व है। पुनर्बलन के अनेक रूप हो सकते हैं, जैसे-दण्ड, पुरस्कार, परिणाम का ज्ञान इत्यादि।

CTET & TETs TEACHING METHODS ALL SUBJECTS

CTET & TETs TEACHING METHODS / CTET & TETs शिक्षण की विधियाँ

जिस ढंग से शिक्षक शिक्षार्थी को ज्ञान प्रदान करता है उसे शिक्षण विधि कहते हैं। “शिक्षण विधि” पद का प्रयोग बड़े व्यापक अर्थ में होता है। एक ओर तो इसके अंतर्गत अनेक प्रणालियाँ एवं योजनाएँ सम्मिलित की जाती हैं, दूसरी ओर शिक्षण की बहुत सी प्रक्रियाएँ भी सम्मिलित कर ली जाती हैं। कभी-कभी लोग युक्तियों को भी विधि मान लेते हैं; परंतु ऐसा करना भूल है। युक्तियाँ किसी विधि का अंग हो सकती हैं, संपूर्ण विधि नहीं। एक ही युक्ति अनेक विधियों में प्रयुक्त हो सकती है।

प्रयोग प्रदर्शन विधि —

  • प्राथमिक स्तर के बालकों को भौतिक एवं जैविक पर्यावरण अध्ययन विषय के पाठों के अंतर्गत आए प्रयोग प्रदर्शन को स्वयं करके बच्चों को दिखाना चाहिए ।
  • छात्रों को भी यथा संभव प्रयोग करने तथा निरिक्षण करने का अवसर देना चाहिए ।
  • इस विधि से शिक्षण कराने पर करके सीखने के गुण का विकास होता है ।
    प्रयोग – प्रदर्शन विधि की विशेषता :-
  • यह विधि छात्रों को वैज्ञानिक विधि का प्रशिक्षण प्रदान करती है ।
  • इस विधि में छात्र सक्रिय रहते है तथा प्रश्नोत्तरी के माध्यम से पाठ का विकास होता है ।
  • छात्रों की मानसिक तथा निरिक्षण शक्ति का विकास होता है ।
  • विषय वस्तु सरल, सरस, बोधगम्य तथा स्थायी हो जाती है ।
    प्रयोग-प्रदर्शन विधि को प्रभावी बनाने के तरीके —
  • प्रयोग प्रदर्शन ऐसे स्थान पर करना चाहिए जहाँ से सभी बालकों को आसानी से दिख सके ।
  • छात्रों को प्रयोग करने का अवसर प्रदान किया जाना चाहिए ।
  • इस विधि का शिक्षण कराते समय अध्यापक को सक्रिय रहकर छात्रों द्वारा प्रयोग करते समय उनका उचित मार्गदर्शन करना चाहिए ।
  • कक्षा में प्रयोग करने से पहले अध्यापक को एक बार स्वयं प्रयोग करके देख लेना चाहिए ।
  • प्रयोग से संबंधित चित्र, महत्वपूर्ण सारांश एवं निष्कर्ष श्यामपट्ट पर लिखना चाहिए ।
    प्रयोग-प्रदर्शन विधि के दोष —
  • इस विधि से शिक्षण कराने पर सभी छात्रों को समान अवसर नहीं मिलते ।
  • इस विधि में व्यक्तिगत समस्या के समाधान का अवसर छात्रों को नहीं मिलता ।
  • प्रयोग करते समय कुछ छात्र निष्क्रिय बैठें रहते है ।
  • कक्षा में छात्रों की संख्या अधिक होने पर यह विधि प्रभावी नहीं रहती ।
    प्रोजेक्ट (योजना) विधि
  • प्रोजेक्ट (योजना) विधि शिक्षण की नवीन विधि मानी जाती है। इसका विकास शिक्षा में सामाजिक प्रवृत्ति के फलस्वरूप हुआ। शिक्षा इस प्रकार दी जानी चाहिए जो जीवन को समर्थ बना सके। इसके प्रवर्तक जान ड्यूबी के शिष्य डब्ल्यू0एच0 किलपैट्रिक थे।
  • परिभाषा -“प्रोजेक्ट वह सह्रदय सौउद्देश्यपूर्ण कार्य है जो पूर्ण संलग्नता से सामाजिक वातावरण में किया जाता है ।” – किलपैट्रिक
    ” प्रोजेक्ट एक समस्यामूलक कार्य है जो स्वाभाविक स्थिति में पूरा किया जाता है ।” – प्रो• स्टीवेंसन
    ” क्रिया की एक ऐसी इकाई जिसके नियोजन एवं क्रियान्वन के लिए क्रिया स्वयं ही उत्तरदायी हो ।” – पारकर
  • इस विधि में कोई कार्य छात्रों के सामने समस्या के रूप में प्रस्तुत किया जाता है और उस समस्या को बालक स्वयं सुलझाने का प्रयास करता है ।
  • प्रोजेक्ट विधार्थियों के जीवन से संबंधित किसी समस्या का हल खोजने के लिए किया जाने वाला कार्य है जो स्वाभाविक परिस्थितियों में पूर्ण किया जाता है ।
    प्रोजेक्ट (योजना) विधि के चरण :–
  • परिस्थिति उत्पन्न करना – इसमें बालकों की स्वतंत्रता सबसे महत्वपूर्ण होती है ।
  • प्रायोजना का चुनाव – प्रोजेक्ट के चुनाव में शिक्षक का महत्वपूर्ण स्थान है ।
  • प्रायोजना का नियोजन – इसके अंतर्गत प्रायोजना का कार्यक्रम बनाना पड़ता है ।
  • प्रायोजना का क्रियान्वन – इस स्तर पर शिक्षक कार्यक्रम की योजना के अनुसार सभी छात्रों को आवंटित करता है ।
  • प्रायोजना का मूल्यांकन – प्रायोजना की क्रियान्विती पूर्ण होने पर छात्र तथा शिक्षक इस बात का मूल्यांकन करते हैं कि कार्य में कहा तक सफलता मिली ।
  • प्रायोजना का अभिलेखन – इस चरण के अंतर्गत प्रायोजना से संबंधित सभी बातों का उल्लेख किया जाता है ।
    प्रोजेक्ट (योजना) विधि के गुण –
  • यह मनोवैज्ञानिक सिद्धांत पर आधारित विधि है जिसमें बालक को स्वतंत्रतापूर्वक सोचने, विचारने, निरिक्षण करने तथा कार्य करने का अवसर मिलता है ।
  • प्रोजेक्ट संबंधी क्रियाएं सामाजिक वातावरण में पूरी की जाती है । इस कारण छात्रों में सामाजिकता का विकास होता है ।
  • इस विधि में छात्र स्वयं करके सीखते है, अतः प्राप्त होने ज्ञान स्थायी होता है ।
  • प्रायोजना का चुनाव करते समय छात्रों की रुचियों, क्षमताओं और मनोभावों को ध्यान में रखा जाता है ।
    प्रोजेक्ट (योजना) विधि के दोष –
  • इस विधि द्वारा सभी प्रकरणों का अध्ययन नहीं कराया जा सकता ।
  • इस विधि में प्रशिक्षित अध्यापक की आवश्यकता होती है ।
  • प्रायोजना विधि अधिक खर्चीली है ।
  • इस विधि में अधिक समय लगता है ।
    प्रक्रिया विधि (Learning by doing)
  • इस विधि को क्रिया द्वारा सीखना भी कहते है।
  • शिक्षा में क्रिया को प्रधानता देने वाले प्रथम शिक्षाशास्त्री कमेनियस थे । उनके अनुसार क्रिया करना बालक का स्वाभाविक गुण है, अतः जो भी शिक्षा प्रदान की जाए, वह क्रिया के द्वारा प्रदान की जाए ।
  • शिक्षाविद पेस्टालाजी ने क्रिया द्वारा सीखने पर बल दिया है ।
  • पेस्टालाजी के शिष्य फ्रोबेल ने प्रसिद्ध शिक्षण विधि किंडरगार्टन का आविष्कार किया । यह खेल और प्रक्रिया द्वारा शिक्षा देने की विधि है ।
  • प्रक्रिया विधि बालकों के प्रशिक्षण में क्रियाशीलता के सिद्धांत को स्वीकार करती है ।
  • प्रोजेक्ट विधि, मान्टेसरी विधि, किंडरगार्टन विधि इस पर आधारित है ।
  • प्रक्रिया विधि जैविक एवं भौतिक पर्यावरण विषय के अध्ययन के लिए उपयुक्त विधि है ।
    प्रक्रिया विधि के गुण —
  • यह विधि बाल केन्द्रित विधि है जिसमें बालक को प्रधानता दी जाती हैं ।
  • प्रक्रिया विधि में वस्तुओं के संग्रह, पर्यटन, अवलोकन, परीक्षण के विषयों में विशेष रूप से विचार करती है ।
  • बालकों में करके सीखने की प्रवृत्ति को बढ़ावा देती है ।
    प्रक्रिया विधि के दोष —
  • प्रकिया विधि में स्वतंत्र अध्ययन होने के कारण वास्तविक (यथार्थ) अध्ययन नहीं हो पाता ।
  • प्रक्रिया विधि विषय केन्द्रित तथा शिक्षक केन्द्रित नहीं है जबकि शिक्षण में दोनों की आवश्यकता है ।
    सम्प्रत्यय प्रविधि
  • “सम्प्रत्यय किसी देखी गई वस्तु की मानसिक प्रतिमा है । ” – बोरिंग, लैंगफील्ड और वील्ड ।
  • सम्प्रत्यय किसी देखी हुई वस्तु या मन का प्रतिमान है । ” – रास
  • ” सम्प्रत्यय किसी वस्तु का सामान्य अर्थ होता है जिसे शब्द या शब्द समूहों द्वारा व्यक्त किया जा सकता है । सम्प्रत्यय का आधार अनुभव होता है ।” – क्रो एंड क्रो
  • सम्प्रत्यय बालक के व्यवहार को निर्धारित करते हैं । उदाहरण के लिए बालक मस्तिष्क में परिवार का सम्प्रत्यय (मानसिक प्रतिमा) यदि अच्छा और अनुक्रम विकसित हुआ है, तो बालक अपने परिवार के अन्य सदस्यों के साथ अच्छा व्यवहार करेगा और परिवार से संबंधित सभी कार्य उत्तरदायित्व से करेगा । परिवार के सभी सदस्यों का आदर करेगा तथा परिवार में वह प्रत्येक प्रकार से समायोजित होगा ।
    सम्प्रत्यय निर्माण प्रविधि —
    सम्प्रत्यय निर्माण में बच्चों को पाँच स्तरों से गुजरना पड़ता है । यथा —
    1. निरिक्षण – निरिक्षण के द्वारा बच्चें किसी वस्तु के सम्प्रत्यय का निर्माण करता है ।
    2. तुलना – छात्र निरिक्षण द्वारा बनें विभिन्न सम्प्रत्ययों में तुलना करता है ।
    3. पृथक्करण – छात्र दो सम्प्रत्ययों के बीच समानता और भिन्नता की बातों को पृथक करता है ।
    4. सामान्यीकरण – इसमें छात्र किसी वस्तु का सम्प्रत्यय (प्रतिमा) का स्पष्ट रूप धारण कर लेता है ।
    5. परिभाषा निर्माण – छात्र के उपर्युक्त चारों स्तरों से गुजरने के बाद वास्तविक सम्प्रत्यय का निर्माण उसके मन में बनता है ।
  • सम्प्रत्यय निर्माण को प्रभावित करने वाले कारक – ज्ञानेन्द्रियाँ 2. बौद्धिक क्षमता 3. परिपक्वता 4. सीखने के अवसर 5. समायोजन 6. अन्य कारक – अनुभवों के प्रकार, लिंग, समय आदि ।
    अनुसंधान विधि (Discovery Methods)
  • इस विधि को खोज या अन्वेषण विधि भी कहते हैं ।
  • प्रो• एच• ई• आर्मस्ट्रांग ने विज्ञान शिक्षण विधि में इस अनुसंधान विधि का सुत्रपात किया ।
  • इस विधि का आधार आर्मस्ट्राग ने हरबर्ट स्पेन्सर के इस कथन पर रखा कि ” बालकों को जितना संभव हो, बताया जाए और उनको जितना अधिक संभव हो, खोजने के लिए प्रोत्साहित किया जाए ।”
  • इस विधि का प्रमुख उद्देश्य बालकों में खोज की प्रवृत्ति का उदय करना है ।
  • इस विधि में छात्र पर ज्ञान उपर से लादा नही जाता, उन्हें स्वयं सत्य की खोज के लिए प्रेरित किया जाता है ।
  • अध्यापक का कर्तव्य है कि वह बच्चे को कम से कम बताएं और उसे स्वयं अधिक से अधिक सत्य प्राप्त करने का अवसर प्रदान करें ।
    अनुसंधान विधि की कार्यप्रणाली —
  • इस विधि में छात्र के सामने कोई समस्या प्रस्तुत की जाती है । प्रत्येक बालक को व्यक्तिगत रूप से कार्य करने की स्वतंत्रता दी जाती है ।
  • आवश्यकता पड़ने पर बालक परस्पर वाद विवाद करते हैं, प्रश्न पुते हैं तथा पुस्तकालय में जाकर पुस्तक देखते है ।
    अनुसंधान विधि के गुण —
  • बालको को स्वयं करके सीखने को प्रेरित करती है ।
  • छात्रों में वैज्ञानिक अभिरूचि तथा दृष्टिकोण उत्पन्न करती है ।
  • छात्रों में स्वाध्याय की आदत बनती है ।
  • छात्र क्रियाशील रहते है, जिससे अर्जित ज्ञान स्थायी होता है ।
  • छात्रों में परिश्रम करने की आदत पड़ जाती है ।
  • छात्रों में आत्मानुशासन, आत्म संयम तथा आत्मविश्वास जागृत होता है ।
  • सफलता प्राप्त करने पर छात्र उत्साही होते है तथा उन्हें प्रेरणा मिलती हैं ।
    अनुसंधान विधि के दोष —
  • छोटी कक्षाओं के लिए अनुसंधान विधि उपर्युक्त नहीं है क्योंकि तार्किक व निरिक्षण शक्ति का विकास छोटे बच्चों में नहीं हो पाता ।
  • इस शिक्षण विधि में मंद बुद्धि विधार्थी आगे नही बढ़ पाते हैं तथा पाठ्यक्रम धीरे – धीरे आगे बढ़ते है ।
  • यह विधि प्रतिभावान बच्चों के लिए उपयुक्त है । पूरी कक्षा के लिए नहीं ।
  • प्राथमिक स्तर के बालक समस्या का विश्लेषण करने में असमर्थ होते है ।
    पर्यटन विधि
  • पर्यटन विधि छात्रों को प्रत्यक्ष ज्ञान देने के सिद्धांत पर आधारित है ।
  • इस विधि में छात्रों को का की चारदीवारी मे नियंत्रित शिक्षा न देकर स्थान – स्थान पर घुमाकर शिक्षा दी जाती है ।
  • पर्यटन के द्वारा बच्चें स्वयं प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त करने का अवसर प्राप्त करते हैं ।
  • पेस्टालाॅजी पर्यटन विधि के जन्मदाता माने जाते हैं । यद्यपि महान दार्शनिक रूसो ने भी पर्यटन को बालकों की शिक्षा का एक प्रमुख साधन माना है ।
    पर्यटन विधि के लाभ —
  • कक्षा तथा प्रयोगशाला में पढ़ी हुई बातों, तथ्यों, वस्तुओं, सिद्धांतों एवं नियमों का बाह्य जगत में आकर स्पष्टीकरण करने का अवसर मिलता है ।
  • पर्यटन विधि द्वारा विज्ञान शिक्षण को सरल, बोधगम्य तथा आकर्षक बनाया जा सकता है ।
  • पर्यटन विधि द्वारा छात्रों में निरिक्षण करने की योग्यता का विकास होता है ।
  • पर्यटन विधि से छात्र मिलकर काम करना सीखते है ।
  • छात्र अपने ज्ञान को क्रमबद्ध तथा सुव्यवस्थित करना सीखते है ।
  • इस विधि में छात्र पर्यटन के साथ – साथ मनोरंजन होने के कारण बालक मानसिक रूप से थकते नहीं है ।
    पर्यटन विधि के दोष —
  • इस विधि द्वारा प्रत्येक प्रकरण का अध्ययन संभव नहीं है ।
  • इसकी सफलता के लिए शिक्षक तथा छात्रों में सहयोग जरूरी है ।
  • पर्यटन के लिए उचित मात्रा में धन की जरूरत होती है ।
    प्रयोगशाला विधि
  • इस विधि में छात्र प्रयोगशाला में स्वयं करके सीखना सिद्धांत पर सीखता है अर्थात छात्र स्वयं प्रयोग करता है, निरिक्षण करता है और परिणाम निकालता है । इससे छात्र सक्रिय रहते है ।
  • इस विधि में छात्र को कोई शंका या कठिनाई होती है, तो शिक्षक उसका समाधान करता है ।
  • इस विधि में छात्र अधिकतम सक्रिय रहता है जबकि शिक्षक निरीक्षण करते रहते है ।
    प्रयोगशाला विधि के लाभ —
  • प्रयोगशाला विधि करके सीखने के सिद्धांत पर आधारित है ।
  • इस विधि में छात्रों में निरिक्षण, परीक्षण, चिंतन, तर्क आदि कुशलताओं का विकास किया जा सकता है जो विज्ञान शिक्षण के प्रमुख उद्देश्य है ।
  • छात्रों को अधिकाधिक ज्ञानेन्द्रियों के प्रयोग का अवसर मिलता है । इस प्रकार प्राप्त इन अधिक स्थाई होता है ।
  • प्रयोगशाला विधि द्वारा छात्रों को वैज्ञानिक विधियों में प्रशिक्षित कर सकते हैं ।
  • इस विधि द्वारा वैज्ञानिक अभिवृद्धि का विकास किया जा सकता है ।
    प्रयोगशाला विधि के दोष —
  • प्रयोगशाला विधि में छोटी कक्षाओं के छात्र कठिनाई महसूस करते हैं ।
  • इस विधि से उच्च स्तर का शिक्षण ही संभव हैं ।
  • अध्यापक के सक्रिय न होने पर यह विधि सफल नही हो सकती ।
  • यह विधि अंत्यत खर्चीली हैं ।
    अवलोकन विधि
  • इस विधि में छात्र स्वयं निरिक्षण कर वास्तविक ज्ञान प्राप्त करते हैं ।
  • विज्ञान शिक्षण में छात्र प्रत्येक संभावित तथ्य को देखकर, छूकर, स्पर्श करके और चख कर निरीक्षण करता है, जिसके आधार पर वस्तुओं अथवा पदार्थों के गुणों का वर्णन करने में समर्थ होते हैं ।
  • अवलोकन विधि में निरीक्षण करने की प्रक्रिया को अधिक व्यवस्थित, सबल व प्रभावी बनाने का प्रयास किया जाता है ।
    अवलोकन विधि के गुण – –
  • इस विधि द्वारा प्राप्त ज्ञान स्थायी तथा स्पष्ट होता है ।
  • यह विधि स्वयं करके सीखने पर आधारित होने के कारण विषय को रोचक बनाती हैं ।
  • इस विधि में छात्रों को स्वतंत्र रूप से देखने, सोचने तथा तर्क करने का अवसर मिलता है ।
  • छात्रों की विचार प्रकट करने, अभिव्यक्ति प्रकट करने की प्रवृत्ति का विकास होता है ।
  • छात्रों में करके सीखने की आदत का विकास होता है ।
    अवलोकन के समय ध्यान देने योग्य बातें – –
  • छात्रों को अवलोकन हेतु प्रेरित करने से पहले अध्यापक को स्वयं भलीभाँति अवलोकन करना चाहिए ।
  • अवलोकन के सभी कार्य प्रजातांत्रिक वातावरण में होने चाहिए ।
  • आवश्यकतानुसार अध्यापक को अवलोकन के समय बीच – बीच में प्रश्न करते रहना चाहिए
    अवलोकन विधि के गुण – –
  • हर स्तर पर अवलोकन नही कर सकते ।
  • समूह का आकार बड़ा होने पर सभी छात्र प्रदर्शन को नहीं देख पाते हैं जिससे वे अवलोकन नहीं कर पाते ।
  • एक ही समय में कई प्रयोग प्रदर्शन दिखाए जाते हैं जिससे छोटी कक्षाओं के छात्र समझ नहीं पाते ।
    प्रश्नोंत्तर परिचर्चा विधि ( Discussion Methods )
  • प्रश्नोत्तर परिचर्चा विधि का प्रयोग की रूपों में होता है जैसे – वाद विवाद, विचार गोष्ठी, दल चर्चा आदि ।
  • इस विधि का उपयोग तब किया जाता है जब सभी विधार्थियों को विचार विमर्श में सीधे रूप में सम्मिलित करना संभव हो ।
  • इस विधि में कुछ छात्र दिए गए विषय या समस्या के विभिन्न पक्षों पर संक्षेप में भाषण तैयार करते हैं तथा शिक्षक की अध्यक्षता में भाषण देते हैं ।
  • भाषण के उपरान्त शिक्षक शेष छात्रों से प्रश्न आमंत्रित करता है ।
  • जहाँ कहीं जरूरत होती है, शिक्षक सही उत्तर देने में संपूर्ण कार्यक्रम में मार्गदर्शन करता हैं
    प्रश्नोत्तरी परिचर्चा विधि के गुण – –
  • इस विधि में छात्रों में आत्माभिव्यक्ति का विकास होता है ।
  • इस विधि में छात्रों में नेतृत्व के लिए प्रशिक्षण मिलता हैं ।
  • छात्रों में व्यापक दृष्टिकोण का विकास होता हैं ।
  • आलोचनात्मक चिंतन, तर्क आदि क्षमताओं का विकास किया जा सकता है ।
  • परस्पर सहयोग करने की भावना का विकास होता हैं ।
    प्रश्नोत्तर परिचर्चा विधि के दोष – –
  • प्रारंभिक कक्षाओं में छात्रों की अभिव्यक्ति स्तर की नहीं होती है, अतः प्रयोग करना कठिन होता हैं ।
  • प्रश्नोंत्तर विधि में पाठ्यवस्तु का विकास धीमी गति से होता है ।
  • इस विधि में एक अच्छे पुस्तकालय की सुविधा होनी चाहिए ताकि विधार्थी विचार विमर्श से पहले अध्ययन कर सकें ।
  • इस विधि का प्रयोग करने के लिए कुशल व योग्य शिक्षकों की आवश्यकता होती है ।
    वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समस्या समाधान विधि (Problem Solving Method)
  • यह ह्युरिस्टिक विधि की तरह है जो काम करो और सीखो के सिद्धांत पर आधारित है ।
  • इस विधि से छात्रों में समस्या हल करने की क्षमता विकसित होती है ।
  • यह विधि छात्रों में चिंतन तथा तर्कशक्ति का विकास करती हैं ।
  • “समस्या विधि निर्देश की वह विधि है जिसके द्वारा सीखने की प्रक्रिया को उन चुनौती पूर्ण स्थितियों के द्वारा प्रोत्साहित किया जाता है जिनका समाधान करना आवश्यक है ।” – वुड
    समस्या समाधान विधि के चरण —
  • समस्या विधि का चयन – अध्यापक व विधार्थी मिलकर समस्या का चयन करते हैं ।
  • समस्या चयन का कारण — विधार्थियों को बताया जाता है कि समस्या का चयन क्यों किया गया है ?
  • समस्या को पूर्ण करना – समस्त विधार्थी अध्यापक के मार्गदर्शन में समस्या के समाधान हेतू कार्य करते है ।
  • समस्या को हल करना — अंत में विधार्थी समस्या का हल खोज लेते है, यह हल प्रामाणिक या परिलक्षित लक्ष्यों पर आधारित होता हैं ।
  • हर या समाधान का प्रयोग — विधार्थी प्रामाणिक समाधान का प्रयोग करते हैं ।
    समस्या समाधान विधि के गुण —
  • समस्या समाधान विधि विधार्थियों में विचार तथा निर्णय शक्ति का विकास करती हैं ।
  • इस विधि में छात्र सामुहिक निर्णय लेना सीखते हैं ।
  • छात्रों में वैज्ञानिक ढंग से चिंतन करने की क्षमता का विकास होता हैं ।
  • यह विधि स्वाध्याय का विकास करती हैं तथा प्रशिक्षण प्रदान करती है ।
  • यह विधि छात्रों की भावी योजनाओं के समस्याओं को हल करने का प्रशिक्षण देती हैं ।
    समस्या समाधान विधि के दोष
  • समस्या समाधान विधि का प्रयोग छोटी कक्षाओं के लिए नहीं किया जा सकता हैं ।
  • इस विधि में जरूरी नहीं है कि विधार्थियों द्वारा निकाले गए परिणाम संतोषजनक हो ।
  • इस विधि का प्रयोग कुशल अध्यापक ही कर सकते हैं, सामान्य स्तर के अध्यापक नहीं ।
  • इस विधि में पर्याप्त समय लगता हैं ।
     गणितीय दृष्टिकोण से समस्या समाधान विधि —
  • गणित अध्यापन की यह प्राचीनतम विधि है ।
  • अध्यापक इस विधि में विधार्थियों के समक्ष समस्यायों को प्रस्तुत करता हैं तथा विधार्थी सीखे हुए सिद्धांतों, प्रत्ययों की सहायता से कक्षा में समस्या हल करते हैं ।
  • समस्या प्रस्तुत करने के नियम —
  • समस्या बालक के जीवन से संबंधित हो ।
  • उनमें दिए गए तथ्यों से बालक अपरिचित नहीं होने चाहिए ।
  • समस्या की भाषा सरल व बोधगम्य होनी चाहिए ।
  • समस्या का निर्माण करते समय बालकों की आयु एवं रूचियों का भी ध्यान रखना चाहिए ।
  • समस्या लम्बी हो तो उसके दो – तीन भाग कर चाहिए ।
  • नवीन समस्या को जीवन पर आधारित समस्याओं के आधार पर प्रस्तुत करना चाहिए ।
  • समस्या निवारण विधि के गुण –
  • इस विधि से छात्रों में समस्या का विश्लेषण करने की योग्यता का विकास होता हैं ।
  • इससे सही चिंतन तथा तर्क करने की आदत का विकास होता है ।
  • उच्च गणित के अध्ययन में यह विधि सहायक हैं ।
  • समस्या के द्वारा विधार्थियों को जीवन से संबंधित परिस्थितियों की सही जानकारी दे सकते हैं
  • समस्या समाधान विधि के दोष
  • जीवन पर आधारित समस्याओं का निर्माण प्रत्येक अध्यापक के लिए संभव नहीं हैं ।
  • बीज गणित तथा ज्यामिति ऐसे अनेक उप विषय हैं जिसमें जीवन से संबंधित समस्यायों का निर्माण संभव नही हैं
  • खेल विधि —
  • खेल पद्धति के प्रवर्तक हैनरी काल्डवैल कुक हैं । उन्होंने अपनी पुस्तक प्ले वे में इसकी उपयुक्तता अंग्रेजी शिक्षण हेतु बतायी हैं ।
  • सबसे पहले महान शिक्षाशास्त्री फ्रोबेल ने खेल के महत्व को स्वीकार करके शिक्षा को पूर्ण रूप से खेल केन्द्रित बनाने का प्रयत्न किया था ।
  • फ्रोबेल ने इस बात पर जोर दिया कि विधार्थियों को संपूर्ण ज्ञान खेल – खेल में दिया जाना चाहिए ।
    खेल में बालक की स्वाभाविक रूचि होती हैं ।
  • गणित की शिक्षा देने के लिए खेल विधि का सबसे अच्छा उपयोग इंग्लैंड के शिक्षक हैनरी काल्डवैल कुक ने किया था ।
    खेल विधि के गुण —
  • मनोवैज्ञानिक विधि – खेल में बच्चें की स्वाभाविक रूचि होती है और वह खेल आत्मप्रेरणा से खेलता है । अतः इस विधि से पढ़ाई को बोझ नहीं समझता ।
  • सर्वांगीण विकास — खेल में गणित संबंधी गणनाओं और नियमों का पूर्ण विकास होता है । इसके साथ साथ मानवीय मूल्यों का विकास भी होता हैं ।
  • क्रियाशीलता – यह विधि करो और सीखो के सिद्धांत पर आधारित है ।
  • सामाजिक दृष्टिकोण का विकास – इस विधि में पारस्परिक सहयोग से काम करने के कारण सामाजिकता का विकास होता हैं ।
  • स्वतंत्रता का वातावरण – खेल में बालक स्वतंत्रतापूर्वक खुले ह्रदय व मस्तिष्क से भाग लेता हैं
  • रूचिशील विधि – यह विधि गणित की निरसता को समाप्त कर देती हैं ।
    खेल विधि के दोष –
  • शारीरिक शिशिलता
  • व्यवहार में कठिनाई
  • मनोवैज्ञानिक विलक्षणता
    आगमन विधि –
  • इस शिक्षा प्रणाली में उदाहरणों की सहायता से सामान्य नियम का निर्धारण किया जाता है, को आगमन शिक्षण विधि कहते हैं
  • यह विधि विशिष्ट से सामान्य की ओर शिक्षा सूत्र पर आधारित है ।
  • इसमें स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ा जाता है । उदाहरण स्थूल है, नियम सूक्ष्म ।
    आगमन विधि के गुण —
  • यह शिक्षण की सर्वोत्तम विधि है । इससे नवीन ज्ञान को खोजने का अवसर मिलता है और यह अनुसंधान का मार्ग प्रशस्त करती हैं ।
  • इस विधि में विशेष से सामान्य की ओर और स्थूल से सूक्ष्म की ओर अग्रसर होने के कारण यह विधि मनोवैज्ञानिक हैं ।
  • नियमों को स्वयं निकाल सकने पर छात्रों में आत्मविश्वास की भावना का विकास होता हैं ।
  • इस विधि में रटने की प्रवृत्ति को जन्म नहीं मिलता हैं । अतः छात्रों को स्मरण शक्ति पर निर्भर रहना पड़ता है ।
  • यह विधि छोटे बच्चों के लिए अधिक उपयोगी और रोचक हैं ।
    आगमन विधि के दोष —
  • यह विधि बड़ी कक्षाओं और सरल अंशों को पढ़ाने के लिए उपयुक्त हैं ।
  • आजकल की कक्षा पद्धति के अनुकूल नहीं है क्योंकि इसमें व्यक्तिगत शिक्षण पर जोर देना पड़ता है ।
  • छात्र और अध्यापक दोनों को ही अधिक परिश्रम करना पड़ता है ।
    निगमन विधि
  • इस विधि में अध्यापक किसी नियम का सीधे ढ़ंग से उल्लेख करके उस पर आधारित प्रश्नों को हल करने और उदाहरणों पर नियमों को लागू करने का प्रयत्न करता हैं ।
  • इस विधि में छात्र नियम स्वयं नही निकालते, वे नियम उनकों रटा दिए जाते हैं और कुछ प्रश्नों को हल करके दिखा दिया जाता है
    निगमन विधि के गुण —
  • बड़ी कक्षाओं में तथा छोटी कक्षाओं में भी किसी प्रकरण के कठिन अंशों को पढ़ाने के लिए यह विधि सर्वोत्तम है ।
  • यह विधि कक्षा पद्धति के लिए सबसे अधिक उपयोगी है ।
  • ज्ञान की प्राप्ति काफी तीव्र होती है । कम समय में ही अधिक ज्ञान दिया जाता है ।
  • ऊँची कक्षाओं में इस विधि का प्रयोग किया जाता है क्योंकि वे नियम को तुरंत समझ लेते है ।
  • इस विधि में छात्र तथा शिक्षक दोनों को ही कम परिश्रम करना पड़ता है ।
  • इस विधि से छात्रों की स्मरण शक्ति में वृद्धि होती है ।
    निगमन विधि के दोष —
  • निगमन विधि सूक्ष्म से स्थूल की ओर बढ़ने के कारण शिक्षा सिद्धांत के प्रतिकूल है । यह विधि अमनोवैज्ञानिक है ।
  • इस विधि रटने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता हैं ।
  • इसके माध्यम से छात्रों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा नही होता ।
  • नियम के लिए इस पद्धति में दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता है, इसलिएइस विधि से सीखने में न आनंद मिलता है और न ही आत्मविश्वास बढ़ता हैं ।
    आगमन तथा निगमन विधि में तुलनात्मक निष्कर्ष —
  • आगमन विधि निगमन विधि से अधिक मनोवैज्ञानिक हैं ।
  • प्रारंभिक अवस्था में आगमन विधि अधिक उपयुक्त है परन्तु उच्च कक्षाओं में निगमन विधि अधिक उपयुक्त है क्योंकि इसकी सहायता से कम समय में अधिक ज्ञान प्राप्त किया जा सकता हैं ।
    विश्लेषण विधि (Analytic Method) —
  • विश्लेषण शब्द का अर्थ है – किसी समस्या को हल करने के लिए उसे टुकड़ों बांटना, इकट्ठी की गई वस्तु के भागों को अलग – अलग करके उनका परीक्षण करना विश्लेषण है ।
  • यह एक अनुसंधान की विधि है जिसमें जटिल से सरल, अज्ञात से ज्ञात तथा निष्कर्ष से अनुमान की ओर बढ़ते हैं ।
  • इस विधि में छात्र में तर्कशक्ति तथा सही ढंग से निर्णय लेने की आदत का विकास होता हैं ।
    संश्लेषण विधि
  • संश्लेषण विधि विश्लेषण विधि के बिल्कुल विपरीत हैं ।
  • संश्लेषण का अर्थ है उस वस्तु को जिसको छोटे – छोटे टुकड़ों में विभाजित कर दिया गया है, उसे पुन: एकत्रित कर देना है ।
  • इस विधि में किसी समस्या का हल एकत्रित करनेके लिए उस समस्या से संबंधित पूर्व ज्ञात सूचनाओं को एक साथ मिलाकर समस्या को हल करने का प्रयत्न किया जाता है ।
    विश्लेषण – संश्लेषण विधि —
  • दोनों विधियाँ एक दूसरे की पूरक हैं ।
  • जो शिक्षक विश्लेषण द्वारा पहले समस्या का विश्लेषण कर छात्रों को समस्या के हल ढूंढने की अंतदृष्टि पैदा करता है, वही शिक्षक गणित का शिक्षण सही अर्थ में करता हैं ।
  • “संश्लेषण विधि द्वारा सूखी घास से तिनका निकाला जाता है किंतु विश्लेषण विधि से तिनका स्वयं घास से बाहर निकल आया है ।” – प्रोफेसर यंग । अर्थात संश्लेषण विधि में ज्ञात से अज्ञात की ओर अग्रसर होते हैं, और विश्लेषण विधि में अज्ञात से ज्ञात की ओर ।
    योजना विधि
  • इस विधि का प्रयोग सबसे पहले शिक्षाशास्त्री किलपैट्रिक ने किया जो प्रयोजनवादी शिक्षाशास्त्री थे ।
  • उनके अनुसार शिक्षा सप्रयोजन होनी चाहिए तथा अनुभवों द्वारा सीखने को प्रधानता दी जानी चाहिए ।
    योजना विधि के सिद्धांत — समस्या उत्पन्न करना, , कार्य चुनना, योजना बनाना, योजना कार्यान्वयन, कार्य का निर्णय, कार्य का लेखा
  • योजना विधि के गुण —
  • बालकों में निरिक्षण, तर्क, सोचने और सहज से किसी भी परिस्थिति में निर्णय लेने की क्षमता का विकास होता हैं ।
  • क्रियात्मक तथा सृजनात्मक शक्ति का विकास होता हैं ।
    योजना विधि के दोष –
    इस विधि से सभी पाठों को नही पढ़ाया जा सकता ।
    क्या आप जानते है ?
  • गणित सभी विज्ञानों का प्रवेश द्वार एवं कुंजी हैं – बैकन
  • गणित संस्कृति का दर्पण है – हाॅग बैन
  • तार्किक चिंतन के लिए गणित एक शक्तिशाली साधन है – बर्नार्ड शाॅ
  • गणित क्या है, यह उस मानव चिंतन का प्रतिफल है, जो अनुभवों से स्वतन्त्र तथा सत्य के अनुरूप है – आइन्सटीन
  • गणित एक विज्ञान है जिसकी सहायता से आवश्यक निष्कर्ष निकाले जाते हैं – पियर्स
  • आगमन विधि गणित में सूत्रों की स्थापना हेतु उत्तम विधि हैं । आगमन विधि में ज्ञात से अज्ञात की ओर सिद्धांत लागू होता हैं ।
  • विश्लेषण विधि में अज्ञात से ज्ञात की ओर अग्रसर हैं ।
  • त्रिकोणमिति गणित में मौखिक कार्य का सर्वाधिक महत्व छात्रों के मानसिक विकास करने में हैं ।
  • यदि विज्ञान की रीढ़ की हड्डी गणित हटा दिया जाए, तो सम्पूर्ण भौतिक सभ्यता निःसंदेह नष्ट हो जाएगी – यंग

शिक्षण विधियों की कुछ महत्वपूर्ण बातें

  • पाठ योजना (पंचपदी) के प्रवर्तक – हरबर्ट स्पेन्सर
  • इकाई योजना के प्रवर्तक – मारिसन
  • खेल विधि के प्रवर्तक – काल्डवेन कुक
  • खोज/अनुसंधान/ अन्वेषण/ह्युरिस्टिक विधि के प्रवर्तक – प्रो• आर्मस्ट्राग
  • अभिक्रमिक अनुदेशन विधि के जन्मदाता – बी• एफ• स्किनर
  • प्रोजेक्ट/ प्रायोजना विधि के प्रवर्तक – किलपैट्रिक
  • प्रयोगशाला विधि स्वयं करके सीखने के सिद्धांत पर आधारित है ।
  • पर्यटन विधि छात्रों को प्रत्यक्ष इन देने के सिद्धांत पर आधारित है । (पेस्टालाजी)
  • अवलोकन विधि से छात्रों में निरिक्षण करने की योग्यता का विकास होता है ।
  • अनुसंधान विधि से छात्रों में खोज प्रवृत्ति का उदय होता है ।
  • समस्या समाधान विधि में छात्रों में विचार तथा निर्णय शक्ति का विकास होता है ।
  • छोटी कक्षाओं में अधिकतर प्रयोग प्रदर्शन विधि का प्रयोग उचित होता है ।
  • बड़ी कक्षाओ में प्रयोगशाला विधि का प्रयोग किया जाना उचित है ।
  • प्रयोग प्रदर्शन विधि से शिक्षण कराने में बालकों में करके सीखने के गुण का विकास होता हैं
  • प्रायोजना विधि में कोई कार्य बालकों के सामने समस्या के रूप में प्रस्तुत किया जाता है और उस समस्या को बालक स्वयं हर करने का प्रयास करते हैं ।
  • प्रक्रिया विधि बाल केन्द्रित विधि है जिसमें बालक को प्रधानता दी जाती हैं । बालक स्वतः स्वभाविक रूप से क्रियाशील होता हैं ।
  • सम्प्रत्यय किसी देखी गई वस्तु की मानसिक प्रतिमा है । सम्प्रत्यय वे विचार है जो वस्तुओं, घटनाओं तथा गुणों का उल्लेख करते हैं ।
  • सम्प्रत्यय निर्माण में बच्चों को पाँच स्तरों से गुजरना पड़ता है – निरिक्षण, तुलना, पृथक्करण, सामान्यीकरण तथा परिभाषा निर्माण । व्याख्यान विधि सबसे सरल व प्राचीन विधि है ।छोटी कक्षाओं के लिए गणित शिक्षण की उपयुक्त विधि – खेल मनोरंजन विधि
  • रेखा गणित शिक्षण की सर्वश्रेष्ठ विधि – विश्लेषण विधि
  • बेलनाकार आकृति के शिक्षण की सर्वश्रेष्ठ विधि – आगमन निगमन विधि
  • नवीन प्रश्न को हल करने की सर्वश्रेष्ठ विधि – आगमन विधि
  • स्वयं खोज कर अपने आप सीखने की विधि – अनुसंधान विधि
  • मानसिक, शारीरिक और सामाजिक विकास के लिए सर्वश्रेष्ठ विधि – खेल विधि
  • ज्यामिति की समस्यायों को हल करने के लिए सर्वोत्तम विधि – विश्लेषण विधि
  • सर्वाधिक खर्चीली विधि – प्रोजेक्ट विधि
  • बीजगणित शिक्षण की सर्वाधिक उपयुक्त विधि – समीकरण विधि
  • सूत्र रचना के लिए सर्वोत्तम विधि – आगमन विधि
  • प्राथमिक स्तर पर थी गणित शिक्षण की सर्वोत्तम विधि – खेल विधि
  • वैज्ञानिक आविष्कार को सर्वाधिक बढ़ावा देने वाली विधि – विश्लेषण विधि
  • गणित शिक्षण की विधियाँ : स्मरणीय तथ्य
  • शिक्षण एक त्रि – ध्रुवी प्रक्रिया है जिसका प्रथम ध्रुव शिक्षण उद्देश्य, द्वितीय अधिगम तथा तृतीय मूल्यांकन है ।
  • व्याख्यान विधि में शिक्षण का केन्द्र बिन्दु अध्यापक होता है, वही सक्रिय रहता है ।
  • बड़ी कक्षाओं में जब किसी के जीवन परिचय या ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से परिचित कराना है, वहाँ व्याख्यान विधि उत्तम है ।
  • प्राथमिक स्तर पर थी गणित स्मृति केन्द्रित होना चाहिए जिसका आधार पुनरावृति होता हैं ।

सामान्य विज्ञान शिक्षण के विशिष्ट उद्देश्य अपेक्षित व्यवहारगत परिवर्तन के रूप में —

  • ज्ञान (Knowledge) — छात्रों को उन तथ्यों, सिद्धांतों व विधियों का ज्ञान प्रदान करना है जो विज्ञान से संबंधित हैं । इससे बालक के व्यवहार में निम्नलिखित परिवर्तन होगे —
    • A. विज्ञान के नवीन शब्दों की जानकारी प्राप्त कर छात्र वैज्ञानिक भाषा में तथ्यों का वर्णन कर सकेंगे ।
      B. छात्र अपने व्यक्तिगत तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य से संबंधित ज्ञान को प्राप्त व व्यक्त कर सकेंगे ।
      C. वैज्ञानिक परिभाषाएँ तथा सिद्धांतों से परिचित होकर उनमें पारस्परिक संबंध स्थापित कर सकेंगे ।
  • अवबोध (Understanding) — इससे बालक में निम्नलिखित परिवर्तन आएगें – A. छात्र वैज्ञानिक विचारों तथा संबंधों को अपनी भाषा में व्यक्त करता है तथा विभिन्न तथ्यों में परस्पर तुलना कर सकता हैं । B. कारण तथा प्रभाव संबंध को स्पष्ट कर सकता हैं ।
  • ज्ञानापयोग (Application) – छात्र अपरिचित समस्याओं को समझने एवं उन्हें हल करने में सामान्य विज्ञान के ज्ञान का उपयोग करता है ।
  • कौशल (Skill) — छात्रों में चार्ट एवं चित्र बनाने तथा उनमें प्रयोग करने का कौशल उत्पन्न हो जाता है । इसके अंतर्गत उसमें निम्न परिवर्तन होते हैं —
    A. पर्यावरण से संबंधित तथ्यों व वस्तुओं का कुशलतापूर्वक प्रयोग करने की योग्यता प्राप्त करता है ।
    B. उपकरणों को प्रयोग में लाने, परीक्षण करके परिणाम निकालने, उनमें होने वाले दोषों को दूर करने की कुशलता प्राप्त करता हैं ।
  • अभिवृति (Attitude) — A. बालक विभिन्न परिस्थितियों में शीघ्र व सही निर्णय ले सकता है
    B. अंधविश्वासों व पूर्वाग्रहों को वैज्ञानिक विधि से दूर करने में सहायता प्राप्त होती हैं ।
    C. विज्ञान से संबंधित तथ्यों का सूक्ष्म निरीक्षण करता हैं ।
  • अभिरुचि (Interest) — A. विधालय की वैज्ञानिक प्रवृत्तियों जैसे — विज्ञान मेला, विज्ञान प्रदर्शनी, विज्ञान क्विज आदि में सक्रिय भाग लेता हैं ।
    B. विज्ञान के दैनिक उपयोग संबंधी कार्यों में रूचि लेता हैं ।
  • प्रशंसा (Appreciation) — वैज्ञानिक आविष्कारों एवं खोजों के मानव जीवन में योगदान की प्रशंसा करता है । वैज्ञानिकोंके जीवन की घटनाओं की सराहना कर उनसे प्रेरणा लेता है
    NCERT के शब्दों में हमारे शैक्षिक उद्देश्य वे परिवर्तन है जो हम बालक में लाना चाहते है

    गणित शिक्षण के प्राप्य उद्देश्य व अपेक्षित व्यवहारगत परिवर्तन —-
  • ज्ञान – छात्र गणित के तथ्यों, शब्दों, सूत्रों, सिद्धांतों, संकल्पनाओं, संकेत, आकृतियों तथा विधियों का ज्ञान प्राप्त करते हैं ।
    व्यवहारगत परिवर्तन –
    A. छात्र तथ्यों, परिभाषाएँ, सिद्धांतों आदि में त्रुटियों का पता लगाकर उनका सुधार करता हैं
    B. तथ्यों तथा सिद्धांतों के आधार पर साधारण निष्कर्ष निकालता हैं ।
    C. गणित की भाषा, संकेत, संख्याओं, आकृतियों आदि को भली भांति पहचानता एवं जानता हैं ।
  • अवबोध — संकेत, संख्याओं, नियमों, परिभाषाओं आदि में अंतर तथा तुलना करना, तथ्यों तथा आकृतियों का वर्गीकरण करना सीखते हैं ।
  • कुशलता — विधार्थी गणना करने, ज्यामिति की आकृतियों, रेखाचित्र खींचने मे, चार्ट आदि को पढ़ने में निपुणता प्राप्त कर सकेंगे । छात्र गणितीय गणनाओं को सरलता व शीघ्रता से कर सकेंगे । ज्यामितीय आकृतियों, लेखाचित्र, तालिकाओं, चार्टों आदि को पढ़ तथा खींच सकेंगे
  • ज्ञानापयोग —
    A. छात्र ज्ञान और संकल्पनाओं का उपयोग समस्याओं को हल कर सकेंगे ।
    B. छात्र तथ्यों की उपयुक्तता तथा अनुपयुक्तता की जांच कर सकेगा
    C. नवीन परिस्थितियों में आने वाली समस्यायों को आत्मविश्वास के साथ हल कर सकेगा ।
  • रूचि :–
    A. गणित की पहेलियों को हल कर सकेगा ।
    B. गणित संबंधी लेख लिख सकेगा ।
    C. गणित संबंधित सामग्री का अध्ययन करेगा ।
    D. गणित के क्लब में भाग ले सकेगा ।
  • अभिरुचि :–
    A. विधार्थी गणित के अध्यापक को पसंद कर सकेगा ।
    B. गणित की परीक्षाओं को देने में आनन्द पा सकेगा ।
    C. गणित की विषय सामग्री के बारे में सहपाठियों से चर्चा कर सकेगा ।
    D. कमजोर विधार्थियों को सीखाने में मदद कर सकेगा ।
  • सराहनात्मक (Appreciation objectives)
    A. छात्र दैनिक जीवन में गणित के महत्व एवं उपयोगिता की प्रशंसा कर सकेगा ।
    B. गणितज्ञों के जीवन में व्याप्त लगन एवं परिश्रम को श्रद्धा की दृष्टि से देख सकेगा ।

विज्ञान शिक्षण के प्रमुख उपकरण —

  • मैजिक लेण्टर्न — इसके द्वारा छोटे चित्रों को बड़ा करके पर्दे पर प्रदर्शित किया जाता है । इसमें पारदर्शी शीशे की स्लाइड प्रयोग में लाई जाती हैं ।
  • एपिस्कोप – इस उपकरण द्वारा पुस्तक, पत्रिका आदि के चित्र, रेखाचित्र तथा ग्राफ आदि के सूक्ष्म रूप को पर्दे पर बड़ा करके दिखाया जाता हैं । इसमें स्लाइड बनाने की आवश्यकता नही पड़ती ।
  • एपिडायस्कोप – इस यंत्र द्वारा मैजिक लेण्टर्न तथा एपिस्कोप दोनों के काम किए जाते हैं ।
  • प्रतिमान (माडल) — जब प्रत्यक्ष वस्तु बहुत बड़ी हो, कि कक्षा में लाना असंभव हो, अथवा इतनी छोटी हो कि दिखाई ही न पड़े, तब माडल का प्रयोग किया जाता है । इंजन, हवाई जहाज, छोटे जीव जन्तु, जीवाणु, इलैक्ट्रोनिक सामान, मानव ह्रदय आदि का अध्ययन माडल के सहयोग से किया जाता हैं ।

संस्कृत शिक्षण विधियां 20 महत्वपूर्ण प्रश्न

प्रश्न1 लेखनकौशलस्य वृद्धिर्भवति ?

उत्तर – पत्रलेखनेन 

प्रश्न2 पठनकौशलस्य उद्देश्यमस्ति?

उत्तर – पठित्वार्थग्रहणम् 

प्रश्न3  मुख्यत: भाषाशिक्षणस्य सम्बन्ध: केन सह अस्ति?

उत्तर – ज्ञानात्मकपक्षेण 

प्रश्न4 भाषाया: कौशलानि सन्ति?

उत्तर – चत्वारि 

प्रश्न5  मुख्यरूपेण संस्कृतभाषाशिक्षणस्योद्देश्

यमस्ति?

उत्तर – संस्कृतभाषायां दक्षताप्रदानम् 

प्रश्न6 दृष्टलेखनविधे: प्रयोग: क्रियते?

उत्तर – लेखनकौशले 

प्रश्न7 लेखनकौशलस्य विधिरस्ति ?

उत्तर – मोंटेसरी विधि: 

प्रश्न8 अक्षर – शब्दस्वरूपस्य ज्ञानमस्मिन् कौशले ?

उत्तर –लेखनकौशले

प्रश्न9 “कथाविधि:” अस्य कौशलस्य विधिरस्ति?

उत्तर – पठनकौशले 

प्रश्न10  पठनकौशलस्य श्रेष्ठविधिरस्ति?

उत्तर – पदपद्धति: 

प्रश्न11  भाषाकौशलस्य क्रमश: चरणानि ?

उत्तर – श्रवणम् , भाषणम् , पठनम् , लेखनम् 

प्रश्न12 ध्वनिविज्ञानस्य सम्बन्धिते कौशले के?

उत्तर – श्रवणभाषणे 

प्रश्न13 ” प्राथमिकलक्षित: अधिगमविशेष: ” कौशलं किम् ?

उत्तर –  श्रवणकौशलम्

प्रश्न14 ” स्वजन: श्वजनो मा भूत् ” कस्मिन् कौशलप्रसङ्गे कथितम्?

उत्तर – भाषणकौशले

प्रश्न15 संस्कृतभाषायां कथितादेशानुसारेण कार्य-सम्पादनेन विकासो भवति ?

उत्तर – श्रवणकौशलस्य 

प्रश्न16  ” बलाघात: ” इति कदा प्रयुक्तो दृश्यते ?

उत्तर –  मौखिकाभिव्यक्त्याम् 

प्रश्न17 भाषणकौशलहेतु आवश्यकं नास्ति?

उत्तर – विद्वत्ता 

प्रश्न18 भाषाया: कौशलं नास्ति ?

उत्तर –  चिन्तनम् 

प्रश्न19 अभिव्यक्तिर्लिखिता, अस्य कौशलस्य उद्देश्यम्?

उत्तर –  लेखनम्

प्रश्न20 श्रेष्ठपाठकस्य गुणेषु एतन्नास्ति?

उत्तर – यथालिखितपाठक: