Thinking and Learning in Children

बच्चे कैसे सोचते हैं How do Children Think ?

  • सोचना एक उच्च प्रकार की मानसिक प्रक्रिया है, जो ज्ञान को संगठिन करने में एक अहम भूमिका निभाती है। इस मानसिक प्रक्रिया में बहुधा स्मृति, प्रत्यक्षीरण, अनुमान, कल्पना आदि मानसिक प्रक्रियाएँ भी सम्मिलित होती हैं।
  • एक बालक के समक्ष हमेशा अनेक वस्तुएँ, समस्याएँ, दृश्य-परिदृश्य आदि दृष्टिगोचर होती रहती हैं तथा बालक उन समस्याओं, वस्तुओं, दृश्य-परिदृश्यों आदि के विषय में चिन्तन करता रहता हैं। यह चिन्तन अनुभवजन्य होता है।
  • बालक अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार वस्तुओं देखकर या छूकर उनके बारे में अनुभव प्राप्त करता है। धीरे-धीरे बालक में प्रत्यय निर्माण होने लगता है तथा पूर्व किशोरावस्था में बालक अमूर्त वस्तुओं के विषय में सोचने लगता है।
  • बालक में सोचने की प्रक्रिया का विकास एक निश्चित क्रम में होता है।

बालकों में सोचने की प्रक्रिया Process of Thinking in Children

प्रत्यक्षीकरण के आधार पर सोचना Thinking Based on Manifestation

  • बच्चों में इस प्रकार की सोच का विकास वस्तुओं और परिस्थितियों में पत्यक्षीकरण से सम्बन्धित होता है। बालक अपने चारों ओर के भौतिक और मनोवैज्ञानिक वातावरण में जिन वस्तुओं और परिस्थितियों को देखता है या प्रत्यक्षीकरण करता है। उसके आधार पर वह अपने ज्ञान का संचय कर अपनी सोच का विकास करता है।

कल्पना के आधार पर सोचना Thinking Based on Imagination

  • जब उद्दीपन, वस्तु या पदार्थ, उपस्थित नहीं होता है, तब उसकी कल्पना की जाती है। इनके अभाव में कोई बालक इनकी मानसिक प्रतिमा बनाकर अपने ज्ञान का संचय करता है। कल्पना, बालकों में सोचने का एक सुदृढ़ आधार है जिसके आधार पर बालक अपने पूर्व अनुभवों के आधार पर अपनी भविष्यगत सोच का निर्माण करता है।

प्रत्ययों के आधार पर सोचना Thinking Based on Concept

  • यह अपेक्षाकृत अधिक उच्च प्रकार सोच है। इसकी बालकों में अभिव्यक्ति तभी होती है, जब बालकों में प्रत्ययों का निर्माण प्रारम्भ होता है। एक बालक में जितने ही अधिक प्रत्यय निर्मित होते हैं उसमें उतनी ही अधिक प्रत्ययात्मक सोच पाई जाती है। इस प्रकार की सोच को विचारात्मक सोच भी कहते हैं। स्थान, आकार, भार, समय, दूरी और संख्या आदि सम्बन्धी प्रत्यय बालकों में प्रारम्भिक आयु स्तर पर ही बन जाते हैं।

तर्क के आधार पर सोचना Thinking Based on logic

  • इस प्रकार की सोच का विकास किसी बालक में भाषा सम्प्रेषण के आधार पर होता है। यह सबसे उच्च प्रकार की सोच है।

अनुभव के आधार पर सोचना Thinking Based on Experience

  • बालक अपने पूर्व अनुभवों के आधार पर अपनी नवीन सोच का विकास करते हैं। इस प्रकार की सोच का विकास बच्चों में स्थायी ज्ञान प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन माना जाता है।
  • रूचि और जिज्ञासा के आधार पर सोचना Thinking Based on Interest and Desire
  • कुछ बालक अपनी रूचियों और जिज्ञासाओं के आधार पर अपनी सोच का सृजन करते हैं। शिक्षक तथा अभिभावकों को चाहिए कि वह बालकों में नई-नई रूचियों और जिज्ञासा को पैदा करें, जिससे कि बच्चों में सोचने की प्रक्रिया की गति तीव्र हो सके।

अनुकरण के आधार पर सोचना Thinking Based on Imitation

  • बालकों की सोच के विकास में अनुकरण  का एक महत्वपूर्ण स्थान है। वह जब अपने आस-पास लोगों को कोई कार्य करने देखते हैं। तब वह उसी कार्य करने की चेष्टा करते हैं। तथा अपने सोच का विकास करते हैं।

बच्चों में सोचने की योग्यता को बढ़ाने हेतु आवश्यक कदम Essential Steps to Enhance Thinking Ability in Children

  • क्रो एवं क्रो अनुसार, “बालकों में सोचने की योग्यता सफल जीवन के लिए आवश्यक है।”
  • अतः संरक्षकों और शिक्षकों को चाहिए कि बालकों में इस योग्यता के विकास पर ध्यान दिया जाए। बालकों में सोचने की योग्यता के विकास में निम्नलिखित उपाय सहायक हैं
  • बालकों को सोचने के लिए प्रोत्साहित और प्रेरित करना चाहिए। बालकों के भाषा ज्ञान को उच्च करने उपाय करने चाहिए, जिससे वह समय-समय पर अपने विचारों की अभिव्यक्ति कर सकें।
  • बालकों की रूचियों के विकास पर ध्यान देना चाहिए। रूचियों के अभाव में सोचने योग्यता कठिनाई से विकसित हो पाती है।
  • बालकों को उनकी आयु के अनुसार समय-समय पर ऐसे कार्य सौंपे जाने चाहिएँ जिससे उनमें उत्तरदायित्व की भावना का विकास हो सके और उत्तरदायित्व के निर्वाहन हेतु सोचने के लिए प्रेरित हो सकें।
  • बालकों को उनकी आयु के अनुसार समस्या-समाधान करना भी माता-पिता और शिक्षकों को सिखलाना चाहिए, क्योंकि समस्या-समाधान के द्वारा भी सोचने की योग्यता विकसित होती है। शिक्षकों और माता-पिता को बालकों को नवीन बातों की समय-समय पर अर्थात् उनकी आयु के अनुसार जानकारी देनी चाहिए, जिससे उनमें सोचने का विकास सुचारू रूप से चल सके।
  • तर्क और वाद-विवाद की भी सोचने की योग्यता के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका है, इनकों भी सिखाने के अवसर देने चाहिएँ्।
  • बालकों को ऐसा उद्दीपकपूर्ण वातावरण समय-समय पर उपलब्ध कराना चाहिए जिससे वे सोचने के महत्व को समझें और अपनी योग्यता को बढ़ाने के लिए प्रदत्त वातावरण का लाभ उठा सकें।

बच्चें कैसे सीखते हैं How do Children Learn

  • सीखना एक प्रक्रिया है जो जीवन-पर्यन्त चलती रहती है एवं जिसके द्वारा हम कुछ ज्ञान अर्जित करते हैं या जिसके द्वारा हमारे व्यवहार में परिवर्तन होता है।
  • फें्रडसन के अनुसार, “सीखना, अनुभव या व्यवहार में परिवर्तन होता है।”
  • जन्म के तुरन्त बाद से ही व्यक्ति सीखना प्रारम्भ कर देता है।
  • सीखना कोई आसान और सीधी प्रक्रिया नहीं होती, बल्कि यह जटिल, बहुआयामी और गतिशील प्रक्रिया है।
  • अधिगम व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में सहायक होता है। इसके द्वारा जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायता मिलती है।
  • अधिगम के बाद व्यक्ति स्वयं और दुनिया को समझने के योग्य हो पाता है।
  • रटकर विषय-वस्तु को याद करने को अधिगम नहीं कहा जा  सकता। यदि छात्र किसी विषय-वस्तु के ज्ञान के आधार कुछ परिवर्तन करने एवं उत्पादन करने आर्थात् ज्ञान का व्यावहारिक प्रयोग करने में सक्षम हो गया हो, तभी उसके सीखने की प्रक्रिया को अधिगम के अन्तर्गत रखा जा सकता है। सार्थक अधिगम ठोस चीजों एवं मानसिक द्योतकों को प्रस्तुत करने व उनमें बदलाव लाने की उत्पादक प्रक्रिया है न कि जानकारी इकट्ठा कर उसे रटने की प्रक्रिया।
  • गेट्स के अनुसार, “अनुभव द्वारा व्यवहार में रूपान्तर लाना ही अधिगम है।”
  • ई.पी. पील के अनुसार, “अधिगम व्यक्ति में एक परिवर्तन है, जो उसके वातावरण के परिवर्तनों के अनुसरण में होता है।”
  • क्रो एवं क्रो के अनुसार, “सीखना, आदतों, ज्ञान एवं अभिवृत्तियों का अर्जन है। इसमें कार्यों को करने के नवीन तरीके सम्मिलित हैं और इसकी शुरूआत व्यक्ति द्वारा किसी भी बाधा को दूर करने अथवा नवीन परिस्थितियों में अपने समायोजन को लेकर होती है। इसके माध्यम से व्यवहार में उत्तरोत्तर परिवर्तन होता रहता है। यह व्यक्ति को अपने अभिप्राय अथवा लक्ष्य को पाने में समर्थ बनाती हैं।”  सभी बच्चे स्वभाव से ही सीखने के लिए प्रेरित रहते हैं और उनमें सीखने की क्षमता होती है।
  • अर्थ निकालना, अमूर्त सोच की क्षमता विकसित करना, विवेचना व कार्य, अधिगम या सीखने या सीखने की प्रक्रिया के सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू हैं।
  • बच्चे व्यक्तिगत स्तर पर एवं दूसरों से भी विभिन्न तरीकों से सीखते हैं। अनुभव के माध्यम से, प्रयोग करने से, पढ़ने, विमर्श करने, पूछने, सुनने, उस पर सोचने व मनन करने से तथा गतिविधि या लेखन के जरिए अभिव्यक्ति करने से। अपने विकास के मार्ग में उन्हें ये सभी तरह के अवसर मिलने चाहिएँ।
  • बच्चों मानसिक रूप तैयार हों, उससे पहले ही उन्हें पढ़ा देना, बाद की अवस्थाओं में उनमें सीखने की प्रवृत्ति को प्रभावित करता है। उन्हें बहुत-से तथ्य ‘याद‘ तो रह सकते हैं लेकिन सम्भव है कि वे न तो उन्हें समझ पाएँ, न ही उन्हें अपने आस-पास की दुनिया से जोड़ पाएँ।
  • स्कूल के भीतर और बाहर, दोनों जगहों पर सीखने की प्रक्रिया चलती है। इन दोनों जगहों में यदि सम्बन्ध रहे तो सीखने की प्रक्रिया पुष्ट होती है।
  • कला और कार्य, समग्र सीखने के अवसर प्रदान करते हैं जो सौन्दर्यबोध से पुष्ट होता है। ऐसे अनुभव भाषायी रूप से ज्ञात चीजों के लिए महत्वपूर्ण हैं विशेषकर नैतिक  मुद्दों में ताकि प्रत्यक्ष अनुभवों से सीखा जा सके और जीवन में समाहित किया जा सके।
  • सीखना किसी की मध्यस्थता या उसके बिना भी हो सकता है। प्रत्यक्ष रूप से सीखने से सामाजिक सन्दर्भ व संवाद विशेषकर अधिक सक्षम लोगों से संवाद विद्यार्थियों को उनके स्वयं के उच्च संज्ञानात्मक स्तर पर कार्य करने का मौका देते हैं।
  • सीखने की एक उचित गति होनी चाहिए ताकि विद्यार्थी अवधारणाओं को रट कर और परीक्षा के बाद सीखे हुए को भूल न जाएँ बल्कि उसे समक्ष सकें और आत्मसात कर सकें। साथ ही सीखने में विविधता व चुनौतियाँ होनी चाहिएँ ताकि वह बच्चों को रोचक लगें और उन्हें व्यस्त रख सकें। ऊब महसूस होना इस बात का संकेत है कि उस कार्य को बच्चा अब यान्त्रिक रूप से दोहरा रहा है और उसका संज्ञानात्मक मूल्य खत्म हो गया है।

Heredity and Environment

अनुवांशिकता एवं वातावरण का महत्व अनुवांशिकता एवं वातावरण परस्पर एक दूसरे से जुड़े हुए होते हैं। अनुवांशिकता एवं वातावरण एक दूसरे से इस प्रकार से जुड़े हुए होते हैं कि इन्हें पृथक नहीं किया जा सकता। यह दोनों बाल विकास को गहरे स्तर पर प्रभावित करते हैं। चलिए जानते हैं कि अनुवांशिकता एवं वातावरण का महत्व क्या है?

अनुवांशिकता क्या है?

अनुवांशिकता को वंशानुक्रम(Heredity) तथा अनुवांशिक को वंशानुगत भी कहा जाता है। अनुवांशिक या वंशानुगत गुणों का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरण को अनुवांशिकता करते है अर्थात माता-पिता का गुण बालकों में पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित होती रहती है। यह प्रक्रिया अनुवांशिकता कहलाता है। अनुवांशिकता के माध्यम से शारीरिक, मानसिक, सामाजिक गुणों का स्थानांतरण बालकों में होता है।

वातावरण क्या है?

हमारे आस-पड़ोस की वे सारी वस्तुएं जिनसे हम गिरे हुए होते हैं पर्यावरण या वातावरण कहलाता है

वंशानुक्रम का बीजकोष की निरन्तरता का नियम :-

वंशानुक्रम के बीजकोष की निरन्तरता के नियम के अनुसार बच्चे को जन्म देने वाला बीजकोष कभी नष्ट नहीं होता। मतलब माता-पिता से प्राप्त बीजकोष कभी भी नष्ट नहीं होता और बच्चे द्वारा अगली पीढ़ी तक पहुंचा दिया जाता है।

वंशानुक्रम के बीजकोष की निरन्तरता के नियम के बारे में वीजमैन का कथन :-

मनोवैज्ञानिक वीजमैन ने वंशानुक्रम के बीजकोष की निरंतरता के सम्बंध में अपना मत दिया है, जिसे वीजमैन के बीजकोष की निरन्तरता के नियम के रूप में जाना जाता है।

बीजकोष का कार्य केवल उत्पादक कोषों का निर्माण करना है, जो बीजकोष बालक को अपने माता-पिता से मिलता है, उसे वह अगली पीढ़ी को हस्तान्तरित कर देता है। इस प्रकार, बीजकोष पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है।

– वीजमैन

वीजमैन के बीजकोष की निरन्तरता के नियम में विभिन्न वैज्ञानिकों में मतभेद हैं और वीजमैन के बीजकोष की निरन्तरता के नियम को स्वीकार नहीं किया जाता है। इसकी आलोचना करते हुए बी. एन. झा. ने लिखा है कि :-

इस सिद्धान्त (वीजमैन के सिद्धांत) के अनुसार माता-पिता, बच्चे के जन्मदाता न होकर केवल बीजकोष के संरक्षक हैं, जिसे वे अपनी सन्तान को देते हैं। बीजकोष एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को इस प्रकार हस्तान्तरित किया जाता है, मानो एक बैंक से निकलकर दूसरे बैंक में रख दिया गया हो। वीजमैन का सिद्धान्त न तो वंशानुक्रम की सम्पूर्ण प्रक्रिया की व्याख्या करता है, और न ही संतोषजनक है। यह मत वंशानुक्रम की संपूर्ण प्रक्रिया की व्याख्या न कर पाने के कारण अमान्य है।

– बी. एन. झा.(वीजमैन के सिद्धांत के खिलाफ)

वंशानुक्रम का समानता का नियम :-

वंशानुक्रम के समानता के नियम के अनुसार, जैसे माता-पिता होते हैं, वैसी ही उनकी सन्तान होती है। वंशानुक्रम के समानता के नियम के बारे में मनोवैज्ञानिक सोरेनसन ने अपना मत दिया है। सोरेनसन वंशानुक्रम के समानता का नियम का अर्थ और स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि :-

बुद्धिमान माता-पिता के बच्चे बुद्धिमान, साधारण माता-पिता के बच्चे साधारण और मन्द बुद्धि माता-पिता के बच्चे मन्द बुद्धि होते हैं। इसी प्रकार, शारीरिक रचना की दृष्टि से भी बच्चे माता-पिता के समान होते हैं।

– सोरेनसन

वंशानुक्रम का समानता का नियम भी पूरी तरह से सही नहीं प्रतीत होता है क्योंकि, समाज में ऐसे बहुत से उदाहरण देखने को मिलते हैं, जिसमें काले माता-पिता की सन्तान गोरी होती है, और ऐसे भी उदाहरण हैं, जिसमें मन्द बुद्धि माता-पिता की सन्तान बुद्धिमान होती है।

इससे सिद्ध होता है कि वंशानुक्रम का समानता का नियम पूरी तरह से सही नहीं है, मतलब संतान और उसके माता-पिता में समानता तो होती है, लेकिन इसके बहुत से अपवाद भी हैं।

वंशानुक्रम का विभिन्नता का नियम :-

वंशानुक्रम का विभिन्नता का नियम के अनुसार, बच्चे अपने माता-पिता के बिल्कुल समान न होकर उनसे कुछ भिन्न होते हैं। इसी प्रकार, एक ही माता-पिता के दो बच्चे भी एक दूसरे से भिन्न हो सकते हैं।

वंशानुक्रम का विभिन्नता का नियम के अनुसार, हो सकता है, कि एक ही माता-पिता की संताने रंग में समान हों लेकिन बुद्धि, और स्वभाव में एक-दूसरे से अलग-अलग होते हों। या फिर हो सकता है उनका रंग अलग-अलग हो और उनकी बुद्धि में समानता हो।

वंशानुक्रम के विभिन्नता के नियम के बारे में सोरेन्सन का मत :-

वंशानुक्रम का विभिन्नता का नियम के विषय में सोरेन्सन ने बताया है कि –

एक ही माता-पिता की संतानों में, विभिन्नता के कारण माता – पिता के उत्पादक कोषों की विशेषताएँ हैं । उत्पादक कोषों में अनेक पित्रैक होते हैं, जो विभिन्न प्रकार से संयुक्त होकर एक – दूसरे से भिन्न बच्चों का निर्माण करते हैं।

– सोरेन्सन

वंशानुक्रम के विभिन्नता के नियम के संबंध में डार्विन और लेमार्क का मत :-

डार्विन और लेमार्क ने अनेक प्रयोगों के आधार पर वंशानुक्रम का विभिन्नता का नियम का प्रतिपादन किया है, डार्विन और लेमार्क ने वंशानुक्रम के विभिन्नता के नियम के संबंध में निम्नलिखित विचार प्रस्तुत किये हैं –

वंशानुक्रम में उपयोग न करने वाले अवयवों और विशेषताओं का विलोपन आने वाली पीढ़ियों में होता रहता है, और नवोत्पत्ति (नये गुणों और विशेषताओं) और प्राकृतिक चयन द्वारा वंशानुक्रमीय (आनुवंशिक) विशेषताओं और गुणों का उन्नयन (सुधार) होता रहता है।

– डार्विन और लेमार्क

वंशानुक्रम का प्रत्यागमन का नियम :-

वंशानुक्रम का प्रत्यागमन का नियम के अनुसार, बच्चों में अपने माता-पिता के विपरीत गुण पाये जाते हैं। वंशानुक्रम के प्रत्यागमन का नियम के बारे में सोरेन्सन ने अपना मत देते हुए कहा है कि–

बहुत प्रतिभाशाली माता-पिता के बच्चों में कम प्रतिभा होने की प्रवृत्ति और बहुत कम प्रतिभाशाली के माता-पिता के बच्चों में कम प्रतिभा होने की प्रवृत्ति ही प्रत्यागमन है।

– सोरेन्सन

वंशानुक्रम का प्रत्यागमन का नियम, प्रकृति द्वारा विशिष्ट गुणों की जगह सामान्य गुणों का ज्यादा वितरण करके एक जाति के जीवों को एक ही स्तर पर रखने का प्रयास करती है।

प्रत्यागमन नियम के अनुसार, बच्चे अपने माता-पिता के विशिष्ट गुणों को ना अपनाकर सामान्य गुणों को ज्यादा ग्रहण करते हैं। वंशानुक्रम के प्रत्यागमन नियम के कारण ही महान व्यक्तियों की सन्तानें ज्यादातर उनके बराबर महान नहीं होते हैं। उदाहरण के लिए – बाबर की संतान अकबर में, बाबर की तुलना में बहुत कम प्रभावशाली गुण थे।

प्रत्यागमन के कारण :-

प्रत्यागमन के निम्नलिखित दो प्रमुख कारण–
● माता-पिता के पित्रैकों में से एक कम और एक अधिक शक्तिशाली होता है।
● माता-पिता में उनके पूर्वजों में से किसी का पित्रैक अधिक शक्तिशाली होता है।

वंशानुक्रम का अर्जित गुणों के संक्रमण का नियम :-

वंशानुक्रम का अर्जित गुणों के संक्रमण का नियम के अनुसार, माता-पिता द्वारा अपने जीवनकाल में अर्जित किये जाने वाले गुण उनकी सन्तान को प्राप्त नहीं होते हैं। लेकिन लेमार्क का मत इससे अलग है, लेमार्क ने वंशानुक्रम का अर्जित गुणों के संक्रमण का नियम के बारे में कहा कि–

व्यक्तियों द्वारा अपने जीवन में जो कुछ भी अर्जित किया जाता है, वह उनके द्वारा उत्पन्न किये जाने वाले संतानों को संक्रमित किया जाता है।

– लेमार्क

लेमार्क ने वंशानुक्रम का अर्जित गुणों के संक्रमण का नियम के लिए अपने मत को साबित करने के लिए उदाहरण के तौर पर कहतें हैं कि–

जिराफ की गर्दन पहले लगभग घोड़े की गर्दन के समान ही होती थी, लेकिन कुछ विशेष परिस्थितियों के कारण वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी लम्बी हो गई जिससे पता चलता है कि जिराफ की लम्बी गर्दन का गुण अगली पीढ़ी में संक्रमित होने हुआ।

– लेमार्क

लेमार्क के उपरोक्त कथन की पुष्टि मैक्डूगल और पवलव ने चूहों पर एवं हैरीसन ने पतंगों पर परीक्षण करके की है।

आज के समय में विकासवाद या अर्जित गुणों के संक्रमण का सिद्धान्त स्वीकार नहीं किया जाता है। इसके बारे में वुडवर्थ ने अपना मत रखा है जो कि निम्नलिखित है–

यदि आप कोई भाषा बोलना सीख लें, तो क्या आप पित्रैकों द्वारा इस ज्ञान को अपने बच्चे को संक्रमित कर सकते हैं? इस प्रकार के किसी प्रमाण की पुष्टि नहीं हुई है। क्षय या सूजाक ऐसा रोग, जो बहुधा परिवारों में पाया जाता है, यह रोग संतानों में परिवार में छुआ-छूत की वजह से होता है, न कि संक्रमण से।

– वुडवर्थ

वंशानुक्रम का मैण्डल का नियम :-

वंशानुक्रम का मैण्डल का नियम के अनुसार, वर्णसंकर प्राणी या वस्तुएँ अपने मौलिक या सामान्य रूप की ओर अग्रसर होती है। इस नियम को जेकोस्लोवेकिया के मैण्डल नामक पादरी ने प्रतिपादित किया था।

मैण्डल नेे बड़ी और छोटी मटरें बराबर संख्या में मिलाकर बोयीं। उगने वाली मटरों में सब वर्णसंकर जाति की थीं। मैण्डल ने इस वर्णसंकर मटरों को फिर बोया और इस क्रिया को कई बार दोहराया और अंत में मैण्डल को वर्णसंकर के बजाय शुद्ध मटर प्राप्त हुईं।

ग्रेगर जॉन मैण्डल ने जो प्रयोग किये, उनसे प्राप्त निष्कर्षों से वंशानुक्रम तथा वातावरण के प्रभावों के अध्ययन में अत्यधिक उपयोगी साबित हुए।

अधिक जाग्रत या प्रबल गुण, सुप्त गुण को निष्क्रिय कर देता है। सुप्तावस्था में रहने वाले व्यक्त गुण जब प्रकट होकर मुख्य गुण का रूप धारण कर लेते हैं तो यह स्थिति प्रत्यागमन का रूप धारण कर लेती है। उदाहरण के लिए काले माता-पिता से गोरी संतान का जन्म लेना।

– वंशानुक्रम का मैण्डल का नियम

वातावरण

वातावरण को पर्यावरण के नाम से भी जाना जाता है आमतौर पर वातावरण का अभिप्राय व्यक्ति के आस पास की चारो तरफ की परिस्थितियों से है

पर्यावरण शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है परी व आवरण, परि का अर्थ होता है चारो ओर व आवरण का अर्थ होता है ढकने वाला, किसी व्यक्ति को के चारो तरफ जो कुछ भी ह वह पर्यावरण है

वंशक्रम का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरण, विकास व वृद्धि में सहायक तत्व ही वातावरण कहलाता है

वातावरण की परिभाषाएं

डगलस व हॉलैंड के अनुसार: वातावरण शब्द का प्रयोग हम समस्त वाह्य शक्तियों, प्रभावों तथा दशाओं का सामूहिक रूप से वर्णित करने के लिए किया जाता है

वुडवर्थ के अनुसार: वातावरण में सभी तत्व आ जाते है जिन्होंने जीवन शुरू करने के समय मनुष्य को प्रभावित किया हो

पी गिल्बर्ट के अनुसार: वातावरण वह वस्तु है जो प्रयत्क्ष है जो प्रयत्क्ष रूप से तुरंत प्रभावित करती है

रॉल्स के अनुसार: यह वह शक्ति है जो सब पर प्रभाव डालती है

बोरिंग व लैंगफील्ड के अनुसार: वह प्रत्येक  वस्तु है जो व्यक्ति के पित्रैक के अतिरिक्त उसकी अन्य सभी बातों पर प्रभाव डालती है

वातावरण के प्रकार

भौतिक वातावरण: भोजन, जल, वायु, घर, विद्यालय, गाँव व शहर

समाजिक व सांस्कृतिक वातावरण: माता पिता ज़ परिवार ज़ समुदाय, समाज, अध्यापक, मित्र, मनोरंजन के साधन आदि सम्मिलित है

वातावरण का महत्व

मनोवैज्ञानिकों ने काफी अध्ययन करने के बाद यह सिद्ध कर दिया है की व्यक्ति के विकास मे वातावरण की आगम भूमिका होती है क्योंकि बालक के विकास मे भौतिक, सामाजिक, आर्थिक, मानसिक व सांस्कृतिक का व्यापक प्रभाव पड़ता है बालक का वातावरण गर्भवस्था के दौरान से ही विकसित होने लगता है नौ माह तक भ्रूण का विकास मत के गर्भशय मे ही होता है

शिशु के जन्म के उपरांत मिलने वाला वातावरण ही उसके शारीरिक व मानसिक विकास आदि को प्रभावित करता है उत्तम वातावरण मे पलने वाले बालकों की सामाजिक व बौद्धिक क्षमता अधिक होती है

Formative & Summative Assessment

रचनात्मक आकलन क्या है | What is Formative Assessment !!

रचनात्मक आकलन का कार्य शिक्षण प्रक्रिया की दशा का ज्ञान कराना होता है. ये आकलन शिक्षण प्रक्रिया के दौरान लगातार होता है. इसका प्रयोग अधिगम के लिए आकलन के रूप में किया जाता है. रचनात्मक आकलन का कार्य छात्रों का पृष्ठपोषण प्रदान करना है. इसके द्वारा विद्यार्थी को ये पता लगता है कि उसे कहाँ सुधार की आवश्यकता है.

योगात्मक आकलन क्या है | What is the Summative Assessment !!

योगात्मक आकलन का कार्य शिक्षण प्रक्रिया कितनी सफल रही इसका ज्ञान कराना होता है. ये सदैव एक निश्चित अवधि के पश्चात होता है. योगात्मक आकलन “अधिगम के आकलन” के रूप में किया जाता है. इसका कार्य छात्र को ग्रेड व परिणाम प्रदान करना होता है. इसके द्वारा विद्यार्थी को यह पता लगता है कि उसमे कितना सुधार किया गया है.

रचनात्मक तथा योगात्मक आकलन में क्या अंतर है | Difference between Formative and Summative assessment in Hindi !!

# रचनात्मक आकलन का प्रयोग शिक्षण प्रक्रिया की दशा का ज्ञान करने के लिए होता है जबकि योगात्मक आकलन का प्रयोग शिक्षण प्रक्रिया कितनी सफल रही इसका ज्ञान करने के लिए होता है.

# रचनात्मक आकलन शिक्षण प्रक्रिया के दौरान लगातार होता है जबकि योगात्मक आकलन निश्चित अवधि के बाद होता है.

# रचनात्मक आकलन का प्रयोग “अधिगम के लिए आकलन” के रूप में किया जाता है जबकि योगात्मक आकलन का प्रयोग “अधिगम का आकलन” करने लिए किया जाता है.

# रचनात्मक आकलन का कार्य छात्रों का पृष्ठपोषण प्रदान करना है जबकि योगात्मक आकलन का कार्य छात्रों को ग्रेड और परिणाम प्रदान करने का होता है.

# रचनात्मक आकलन द्वारा विद्यार्थी को ये पता लगता है कि उसे कहाँ सुधार की आवश्यकता है जबकि योगात्मक आकलन द्वारा विद्यार्थी को ये पता लगता है कि उसने कितना सुधार किया है.

Child of Diverse Background

  • भारत विविधता से परिपूर्ण एक विशाल देश है। जाति-सम्प्रदाय, रीति-रिवाज, आर्थिक-सामाजिक स्थिति आदि अनेक आधारों पर यहाँ विविधता देखने को मिलती है। विविध पृष्ठभूमि के बालकों से तात्पर्य भारतीय समाज  के विविध वर्गों जैसे निर्धन, वंचित, पिछड़े, अनुसूचित जाति एवं जनजाति के बच्चों से है।
  • समावेशी शिक्षा का तात्पर्य है समाज के सभी वर्गों के बच्चों को शिक्षा की मुख्य धारा में समाविष्ट कर उन्हें शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध कराना।
  • भारतीय समाज के निर्धन, पिछड़े, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजातियों में साक्षरता दर सामान्य वर्ग से काफी कम है। इन वर्गों के उद्धार के लिए यह आवश्यक है कि इनके बच्चों को सामान्य वर्गों की तरह शिक्षा के अवसर उपलब्ध कराए जाएँ।
  • समावेशन का तात्पर्य अधिकतर लोग यह लगाते हैं कि इसमें विकलांग बच्चों को सामान्य बच्चों के साथ शिक्षा दी जाती है। यह समावेशन का एक संकुचित अर्थ है। वास्तविकता में समावेशन केवल विकलांग लोगों तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसका अर्थ किसी भी बच्चे का बहिष्कार न होना भी है।
  • समावेशी शिक्षा कक्षा में विविधता को प्रोत्साहित करती है, जिससे सभी संस्कृतियों को साथ मिलकर आगे बढ़ने का समुचित अवसर मिलता है।
  • समावेशी शिक्षा के अन्तर्गत सभी विशेष शैक्षिक आवश्यकता वाले विद्यार्थियों को विद्यालय में प्रवेेश को रोकने की कोई प्रक्रिया नहीं होनी चाहिए।
  • समावेशन की नीति को हर स्कूल और सारी शिक्षा व्यवस्था में व्यापक रूप से लागू किए जाने की आवश्यकता है।
  • समावेशी शिक्षा उस विद्यालयी शिक्षा व्यवस्था की ओर संकेत करती है, जो उनकी शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक, भाषिक या अन्य विभिन्न योग्यता स्थितियों को ध्यान में रखे बगैर सभी बच्चों को शामिल करती है।
  • सफल समावेशन के लिए बच्चे के जीवन के हर क्षेत्र में वह चाहे स्कूल में हो या बाहर, शिक्षा में सभी बच्चों की भागीदारी सुनिश्चित किए जाने की आवश्यकता हैं।
  • समावेशी शिक्षा के क्षिक्षक के सामाजिक-आर्थिक स्तर का अधिक महत्व नहीं है इसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है
  • बच्चों के प्रति उसकी संवेदनशीलता
  • विद्यार्थियों के लिए उसका लगाव और धैर्य
  • विद्यार्थियों की अक्षमताओं का ज्ञान
  • पृथक्-पृथक् समजातीय समूहों के व्यक्तियों के प्रति बच्चों की अभिवृत्ति साधारणतया उनके अभिभावक की चित्तवृत्ति पर आधारित होती है इसलिए इनके समावेशन हेतु यह आवश्यक है कि शिक्षकों में पर्याप्त धैर्य-शक्ति हो, यह तभी होगा जब वे उनके प्रति लगाव महसूस करेंगे।
  • सफल समावेशन में अभिभावकों की भागीदारी, उनके क्षमता संवर्द्धन एवं उन्हें संवेदनशील बनाने की भी आवश्यकता होती है ताकि वे अपने बच्चों को स्कूल आने के अवसर उपलब्ध कराएँ, ताकि उसके हर प्रकार के विकास में सहयोग करें।
  • समावेशन पृथक् हो गए समाज को मुख्य शिक्षा धारा में शामिल किए जाने से सम्बन्धित है।
  • निर्धन, वंचित, अनुसूचित जाति एवं जनजाति तथा असंगठित घर में आने वाला बच्चा स्वतन्त्र अध्ययन में सबसे अधिक कठिनाई का अनुभव करता है। इसलिए इनके सफल समावेशन के लिए इस प्रकार के विशेष रूप से जरूरतमन्द बच्चों की शिक्षा का प्रबन्ध दूसरे सामान्य बच्चों के साथ होना चाहिए।

निर्धन एवं पिछड़े वर्ग के बच्चें एवं उनकी शिक्षा  Poor and Backward Classes Children and Their Education

  • निर्धनता का तात्पर्य उस स्थिति से है, जिसमें व्यक्ति अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम नहीं होता। रोटी, कपड़ा एवं मकान के साथ-साथ शिक्षा भी मानव की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है। निर्धन परिवार अपना पेट ही ठीक से नहीं भर पाता, तो अपने बच्चों के लिए शिक्षा की व्यवस्था कहाँ से करेगा। निर्धनता का कुप्रभाव इस वर्ग के बच्चों पर पड़ता है। शिक्षा को मौलिक अधिकार घोषित किए जाने के बाद से बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान की जा रही है, किन्तु निर्धनता के कारण अभिभावक बच्चों को स्कूल भेजने के बजाय काम पर भेज देते है, जिससे उनके विकास में बाधा उत्पन्न हो रही है।
  • पिछड़े, वंचित एवं अनुसूचित जाति व जनजाति के बच्चों की सामान्य पहचान यह है कि पारिवारिक निर्धनता एवं पिछड़ेपन के कारण सामान्यतः वे अभावजन्य जीवन व्यतीत करने को बाध्य होते हैं।
  • शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009, सभी बच्चों की निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा पर जोर देता है समाज के पिछड़े एवं निर्धन वर्ग की आवश्यकताओं को देखते हुए ही मध्याहृ भोजन स्कीम को लागू किया गया है ताकि भूख को शिक्षा से दूर रहने का बहाना न बनाया जाए एवं अभिभावक की बच्चे को काम पर भेजने के बदले स्कूल में भेजें।
  • पिछड़े वर्ग के बच्चों को शिक्षा की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए राज्य सरकारों का द्वारा कई कार्यक्रम चलाए जा रहे है,
  • जिनमें से कुछ प्रमुख कार्यक्रम इस प्रकार है
  • विद्यालयी शिक्षा की सभी अवस्थाओं लिए मुफ्त किताबें एवं सामग्री आश्रम, विद्यालयों और सरकारी अनुमोदन प्राप्त छात्रावासों के बच्चों को मुफ्त पोशाकें
  • सभी स्तरों पर निःशुल्क शिक्षा 

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के बच्चे एवं उनकी शिक्षा SC and ST Classes Children and Their Education

  • अनुसूचित जाति एवं अनूसूचित जनजाति दोनों ही ऐसे समुदाय हैं, जिन्हें ऐतिहासिक कारणों से औपचारिक शिक्षा व्यवस्था से बाहर रखा गया। पहले को जाति के आधार पर विभाजित समाज में सबसे निचले पायदान पर होने के कारण एवं दूसरे को उनके भौगोलिक अलगाव, सांस्कृतिक अन्तरों तथा मुख्यधारा कहे जाने वाले प्रबल समुदाय ने अपने हित के लिए हाशिए पर रखा।
  • अनुसूचित जाति एवं जनजाति के बच्चों की शिक्षा के खराब स्तर के कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं
  • विद्यालयों में अनुसूचित जनजाति के बालकों की कम संख्या
  • अध्यापकों में उनके शिक्षण के प्रति उदासीना रवैया
  • पाठ्यपुस्तकों में उनकी स्थानीय बातों व उदाहरणों का न होना
  • बौद्धिक क्षेत्र में उनका पिछड़ा होना
  • निर्धनता
  • इन वर्गों में शिक्षा के प्रचार-प्रचार का अभाव
  • भारत की स्वतन्त्रता के बाद शिक्षा एवं अन्य अधिकारों से वंचित समुदायों के उद्धार के लिए भारतीय संविधान में विशेष प्रावधान किए गए ताकि इनका समुचित विकास हो सके।
  •  भारतीय संविधान की धाराओं 15(4), 45 और 46 में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के बच्चों के लिए शिक्षा मुहैया कराने हेतु राज्यों की प्रतिबद्धता की बात कही गई है।

विविध पृष्ठभूमि के  बच्चों के उचित समावेशन के लिए कुछ सुझाव Some suggestion for Various Background Children’s Proper Inclusive

संस्थानगत सुधार Institutional Improvement

  • अनुसूचित जाति और जनजाति के बच्चों की विद्यालयी व्यवस्था को सुविधाओं के कुशल और निःसंकोच प्रावधान की आवश्यकता है।
  • निरन्तर उपेक्षा एवं बहिष्कार झेल रहे जनजाति एवं जाति समूहों और भौगोलक क्षेत्रों की पहचान कर उनके प्रति सकारात्मक व्यवहार अपनाए जाने की आवश्यकता है।
  • प्रायः देखा जाता है कि विद्यालय के कैलेण्डर, अवकाशों एवं समय में स्थानीय सन्दर्भों का ख्याल नहीं रखा जाता। इससे बचना चाहिए एवं स्थानीय सन्दर्भों को भी पर्याप्त स्थान दिया जाना चाहिए।
  • समावेशी कक्षा में कोर्स को ‘पूरा करने लिए‘ शिक्षकों द्वारा प्रयास किए जाने से अधिक आवश्यक यह है कि वह अधिक सहकारी एवं सहयोगात्मक गतिविधि अपनाएँ।
  • समावेशी कक्षा में प्रतियोगिता और ग्रेडों पर कम बल दिया जाना चाहिए तथा विद्यार्थियों के लिए अधिक विकल्प उपलब्ध कराना चाहिए।

विद्यालयी पाठ्यचर्या में सुधार Improvement in School’s Syllabus

  • पाठ्यचर्या के उद्देश्य ऐसे होने चाहिएँ जो भारतीय समाज और संस्कृति कि सराहना तथा विवेचनात्मक मूल्यांकन पर बल दें।
  • सुविधाओं से वंचित बच्चों के संवेगात्मक एवं सामाजिक विकार, मानसिक विकास आदि के समान अवसर उपलब्ध कराए जाने चाहिएँ।
  • रचनात्मक प्रतिभा, उत्पादन कौशल और सामाजिक न्याय, प्रजातन्त्र, धर्मनिरपेक्ष, समानता के मूल्यों सहित श्रम के आदर को प्रोत्साहन देना पाठ्यचर्या का लक्ष्य होना चाहिए।
  • पाठ्यचर्या का ऐसा उपागम हो, जोकि विवेचनात्मक सिद्धान्त पर आधारित हो, विशेषकर उपदलित, दलित-महिलावादी और विवेचनात्मक बहु-सांस्कृतिक दृष्टिकोणों का समावेशन और केन्द्रीकरण आवश्यक है। यह विवेचनात्मक भारतीयकरण की प्रक्रिया अन्याय और नायक प्रधान सामाजिक व्यवस्था पर प्रश्न उठाने, साथ-साथ विविध संस्कृतियों को समाहित करने और मूल्यवान सांस्कृतिक धरोहर का नुकसान होने से बचाने में सहायक होगा।
  • विवेचनात्मक बहु-सांस्कृतिक पाठों और पठन सामग्री के विकास आवश्यकता है।

शिक्षणशास्त्र में सुधार Improvement in Pedagogy

  • अधिगम सन्दर्भों  को बढ़ावा और प्रजातान्त्रिक व समानतावादी कक्षा-कक्ष व्यवहारों की रूपरेखा के विकास के लिए शिक्षणशास्त्र की विविध पद्धतियों और व्यवहारों को समाहित करने की अत्यन्त आवश्यकता है ताकि पाठ्यचर्या का प्रभावी क्रियान्वय हो सके।
  • शिक्षकों को रचनात्मक, समीक्षात्मक शिक्षणशास्त्र और बच्चों के प्रति लिंग, जाति, वर्ग जनजाति-आधारित और अन्य प्रकारों की पहचान सम्बन्धी इत्यादि भेदभाव को दूर करने और समान आदर और सम्मान को बढ़ावा देने के दृष्टिकोण के साथ कक्षा-कक्ष व्यवहारों पर विशेष दिशा-निर्देश विकसित करने की आवश्यकता है।
  • विद्यालय के संवेगात्मक वातावरण के सुधार लाने की आवश्यकता है ताकि शिक्षक एवं बच्चे ज्ञान के निर्माण और अधिगम में खुलकर भाग ले सकें।
  • शिक्षणशास्त्र के ऐसे व्यवहरों का विकास करने की आवश्यकता है जिसका लक्ष्य अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजातिय के आत्म-सम्मान और पहचान में सुधार।

भाषा के सन्दर्भ में सुधार Improvement in Reference of Language

  • स्थानीय भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया जाए। यदि यह सम्भव न हो, तो कम-से-कम व्याख्या एवं संवाद के लिए स्थानीय भाषा को वरीयता देना आवश्यक है।
  • भारतीय समाज की बहुभाषिक विशेषता को विद्यालयी जीवन को समृद्ध बनाने के संसाधन के रूप में देखा जाना चाहिए।

Correlated Coefficient

1.Correlation Coefficient of Wisdom of Baggage Twin -0.90 

2.Correlation Coefficient of Wisdom of Quadratic Twins -0.70

3.Correlation Coefficient of Wisdom of Brother-Sister -0.50

4.Correlation Coefficient of Mother-Father and Child IQ -0.31 

5.Correlated Coefficient of Relative Child’s IQ -0.30

1.सामान जुड़वा का बुद्धि का सहसंबंध गुणांक-0.90

2.गुणभेद जुड़वां का बुद्धि का सहसंबंध गुणांक-0.70

3.भाई-बहन का बुद्धि का सहसंबंध गुणांक-0.50

4.माता-पिता और बच्चे बुद्धि का सहसंबंध गुणांक-0.31

5.संबंधित बच्चे का बुद्धि का सहसंबंध गुणांक-0.30

Bloom Taxonomy

ब्लूम का वर्गीकरण Bloom Taxonomy बेंजामिन ब्लूम (1913-1999) एक अमेरिकी मनोवैज्ञानिक थे,जिन्होंने 1956 में प्रकाशित अपनी पुस्तक Taxonomy of Educational Objectives में इस वर्गीकरण को दर्शाया। जो Bloom Taxonomy के नाम से प्रचलित हुई। वर्तमान की शिक्षा ब्लूम के वर्गीकरण पर ही आधारित हैं, जैसे एक अध्यापक पढ़ाने से पहले उस प्रकरण से जुड़े ज्ञानात्मक,बोधात्मक एवं क्रियात्मक उद्देश्यों का चयन करता है यह सब ब्लूम के वर्गीकरण की ही देन हैं।

ब्लूम टैक्सोनोमी 1956 में प्रकाशित हुई। इसका निर्माण कार्य ब्लूम द्वारा हुआ, इसलिये यह bloom taxonomy के नाम से प्रचलित हुई । ब्लूम के वर्गीकरण को “शिक्षा के उद्देश्यों” के नाम से भी जाना जाता हैं अतः शिक्षण प्रक्रिया का निर्माण इस तरीके से किया जाता हैं ताकि इन उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सकें।

ब्लूम का वर्गीकरण |Bloom Taxonomy in Hindi

ब्लूम के वर्गीकरण के आधार पर ही कई मनोवैज्ञानिकों ने अपने परीक्षण किए और वह अपने परीक्षणों में सफल भी हुए। इस आधार पर यह माना जा सकता है कि ब्लूम का यह सिद्धांत काफी हद तक सही हैं। बेंजामिन ब्लूम के वर्गीकरण (bloom taxonomy) में संज्ञानात्मक उद्देश्य, भावात्मक उद्देश्य, मनोशारीरिक उद्देश्य समाहित हैं। सर्वप्रथम हम संज्ञानात्मक उद्देश्य (Cognitive Domain) की प्राप्ति के लिए निम्न बिंदुओं को जानिंगे –

संज्ञानात्मक उद्देश्य Cognitive Domain

1. ज्ञान (Knowledge) – ज्ञान को ब्लूम ने प्रथम स्थान दिया क्योंकि बिना ज्ञान के बाकी बिंदुओं की कल्पना करना असंभव हैं। जब तक किसी वस्तु के बारे में ज्ञान (knowledge) नही होगा तब तक उसके बारे में चिंतन करना असंभव है और अगर संभव हो भी जाये तो उसको सही दिशा नही मिल पाती। इसी कारण ब्लूम के वर्गीकरण में इसकी महत्ता को प्रथम स्थान दिया गया।

2. बोध (Comprehensive) – ज्ञान को समझना उसके सभी पहलुओं से परिचित होना एवं उसके गुण-दोषों के सम्बंध में ज्ञान अर्जित करना।

3. अनुप्रयोग (Application) – ज्ञान को क्रियान्वित (Practical) रूप देना अनुप्रयोग कहलाता हैं प्राप्त किये गए ज्ञान की आवश्यकता पड़ने पर उसका सही तरीके से अपनी जिंदगी में उसे लागू करना एवं उस समस्या के समाधान निकालने प्राप्त किये गए ज्ञान के द्वारा। यह ज्ञान को कौशल (Skill) में परिवर्तित कर देता है यही मार्ग छात्रों को अनुभव प्रदान करने में उनकी सहायता भी करता हैं।

4. विश्लेषण (Analysis) – विश्लेषण से ब्लूम का तात्पर्य था तोड़ना अर्थात किसी बड़े प्रकरण (Topic) को समझने के लिए उसे छोटे-छोटे भागों में विभक्त करना एवं नवीन ज्ञान का निर्माण करना तथा नवीन विचारों की खोज करना। यह ब्लूम का विचार समस्या-समाधान में भी सहायक हैं।

5. संश्लेषण (Sysnthesis) – प्राप्त किये गए नवीन विचारो या नवीन ज्ञान को जोड़ना उन्हें एकत्रित करना अर्थात उसको जोड़कर एक नवीन ज्ञान का निर्माण करना संश्लेषण कहलाता हैं।

6. मूल्यांकन (Evaluation) – सब करने के पश्चात उस नवीन ज्ञान का मूल्यांकन करना कि यह सभी क्षेत्रों में लाभदायक है कि नहीं। कहने का तात्पर्य है कि वह वैध (Validity) एवं विश्वशनीय (Reliability) हैं या नहीं। जिस उद्देश्य से वह ज्ञान छात्रों को प्रदान किया गया वह उस उद्देश्य की प्राप्ति करने में सक्षम हैं कि नही यह मूल्यांकन द्वारा पता लगाया जा सकता हैं।

2001 रिवाइज्ड ब्लूम वर्गीकरण |Revised Bloom Taxonomy

ब्लूम के वर्गीकरण (Bloom Taxonomy) में संशोधित रूप एंडरसन और कृतवोल ने दिया। इन्होंने वर्तमान की आवश्यकताओं को देखते हुए उसमे कुछ प्रमुख परिवर्तन किये। जिसे रिवाइज्ड ब्लूम वर्गीकरण (Revised bloom taxonomy) के नाम से जाना जाता हैं।

1. स्मरण (Remembering)  प्राप्त किये गये ज्ञान को अधिक समय तक अपनी बुद्धि (Mind) में संचित रख पाना एवं समय आने पर उसको पुनः स्मरण (recall) कर पाना स्मरण शक्ति का गुण हैं।

2. समझना (Understanding) – प्राप्त किया गया ज्ञान का उपयोग कब, कहा और कैसे करना है यह किसी व्यक्ति के लिए तभी सम्भव हैं जब वह प्राप्त किये ज्ञान को सही तरीके से समझे।

3. लागू करना (Apply) – जब वह ज्ञान समझ में आ जाये जब पता चल जाये कि इस ज्ञान का प्रयोग कब,कहा और कैसे करना हैं तो उस ज्ञान को सही तरीके से सही समय आने पर उसको लागू करना।

4. विश्लेषण (Analysis) – उस ज्ञान को लागू करने के पश्चात उसका विश्लेषण करना अर्थात उसको तोड़ना उसको छोटे-छोटे भागों में विभक्त करना।

5. मूल्यांकन (Evaluate) – विश्लेषण करने के पश्चात उसका मूल्यांकन करना कि जिस उद्देश्य से उसकी प्राप्ति की गयी है वह उस उद्देश्य की प्राप्ति कर रहा हैं या नहीं इसका पता हम उसका मूल्यांकन करके कर सकते हैं।

6. रचना (Creating) – मूल्यांकन करने के पश्चात उस स्मरण में एक नयी विचार का निर्माण होता हैं जिससे एक नवीन विचार की रचना होती हैं।

भावात्मक उद्देश्य (Affective Domain)

Bloom taxonomy के अंतर्गत भावात्मक उद्देश्य (Affective Domain)का निर्माण क्रयवाल एवं मारिया ने 1964 में किया। इन्होंने छात्रों के भावात्मक पक्ष पर ध्यान देते हुए कुछ प्रमुख बिंदुओं को हमारे सम्मुख रखा। भावात्मक पक्ष से तात्पर्य हैं कि उस प्रत्यय (Topic) के प्रति छात्रों के भावात्मक (गुस्सा,प्यार,चिढ़ना, उत्तेजित होना, रोना आदि) रूप का विकास करना।

1. अनुकरण (Receiving) – भावात्मक उद्देश्य (Affective Domain) की प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम बालको को अनुकरण (नकल) के माध्यम से ज्ञान प्रदान करना चाहिए। एक अध्यापक को छात्रों को पढ़ाने के समय उस प्रकरण का भावात्मक पक्ष को महसूस कर उसको क्रियान्वित रूप देना चाहिये जिससे छात्र उसका अनुकरण कर उसको महसूस कर सकें।

2. अनुक्रिया (Responding) – तत्पश्चात अनुकरण कर उस अनुकरण के द्वारा क्रिया करना अनुक्रिया कहलाता हैं।

3. अनुमूल्यन (Valuing) – उस अनुक्रिया के पश्चात हम उसका मूल्यांकन करते है कि वह सफल सिध्द हुआ कि नहीं।

4. संप्रत्यय (Conceptualization) – हम उसके सभी पहलुओं पर एक साथ विचार करते हैं।

5. संगठन (Organization) – उस प्रकरण को एक स्थान में रखकर उसके बारे में चिंतन करते हैं उसमें विचार करना शुरू करते हैं।

6. चारित्रीकरण (Characterisation) – तत्पश्चात हम उस पात्र का एक चरित्र निर्माण करते हैं जिससे हमारे भीतर उसके प्रति एक भाव उत्त्पन्न होता हैं जैसे गुंडो के प्रति गुस्से का भाव हीरो के प्रति सहानुभूति वाला भाव आदि।

मनोशारीरिक उद्देश्य (Psychomotor Domain)

Bloom taxonomy के अंतर्गत मनोशारीरिक उद्देश्य का निर्माण सिम्पसन ने 1969 में किया। इन्होंने ज्ञान के क्रियात्मक पक्ष पर बल देते हुए निन्म बिंदुओं को प्रकाशित किया।

1. उद्दीपन (Stimulation) – उद्दीपन से आशय कुछ ऐसी वस्तु जो हमे अपनी ओर आकर्षित करती हैं तत्पश्चात हम उसे देखकर अनुक्रिया करतें हैं जैसे भूख लगने पर खाने की तरफ क्रिया करते हैं इस उदाहरण में भूख उद्दीपन हुई जो हमें क्रिया करने के लिये उत्तेजित कर रहीं हैं।

2. कार्य करना (Manipulation) – उस उद्दीपन के प्रति क्रिया हमको कार्य करने पर मजबूर करती हैं।

3. नियंत्रण (Control)  उस क्रिया पर हम नियंत्रण रखने का प्रयास करते हैं।

4. समन्वय (Coordination) – उसमें नियंत्रण रखने के लिए हम उद्दीपन ओर क्रिया के मध्य समन्वय स्थापित करते हैं।

5. स्वाभाविक (Naturalization) – वह समन्वय करते करते एक समय ऐसा आता हैं कि उनमें समन्वय स्थापित करना हमारे लिए सहज हो जाता हैं हम आसानी के साथ हर परिस्थिति में उनमें समन्वय स्थापित कर पाते हैं वह हमारा स्वभाव बन जाता हैं।

6. आदत ( Habit formation) – वह स्वभाव में आने के पशचात हमारी आदत बन जाता है। ऐसी परिस्थिति दुबारा आने के पश्चात हम वही क्रिया एवं प्रतिक्रिया हमेशा करते रहते हैं जिससे हमारे अंदर नयी आदतों का निर्माण होता हैं।

निष्कर्ष Conclusion –

ब्लूम के वर्गीकरण में ब्लूम ने छात्रों के ज्ञान एवं बौद्धिक पक्ष पर पूरा ध्यान केंद्रित किया हैं। वह छात्रों के सर्वांगीण विकास के लिये बौद्धिक विकास पर अध्यधिक बल देते हैं। उनका यह वर्गीकरण छात्रों के व्यवहार में वांछित परिवर्तन लाने हेतु काफी उपयोगी सिद्ध हुआ हैं। ब्लूम के वर्गीकरण के माध्यम से चलकर ही हम शिक्षण के उद्देश्यों की प्राप्ति कर सकतें हैं।

Syllabus and Curriculum

पाठ्यक्रम(Syllabus) और पाठ्यचर्या(Curriculum) में अंतर 

पाठ्यक्रम और पाठ्यचर्या में निम्न अंतर है– 

1. पाठ्यक्रम वह मार्ग है जिस पर चलकर लक्ष्य तक पहुंचा जा सकता है, जबकि पाठ्यचर्या लक्ष्य पर पहुंचने का स्थान है। 

2. पाठ्यक्रम का अध्ययन क्षेत्र संकुचित होता है– जिसमे मात्र इस बात का ज्ञान होता है कि विविध स्तरों पर बालकों को विभिन्न विषयों का लगभग कितना ज्ञान प्राप्त हुआ। जबकि पाठ्यचर्या का क्षेत्र पाठ्यक्रम की तुलना मे अत्यन्त व्यापक होता है जो छात्र के जीवन के लगभग सभी पक्षों से संबंधित होता है।

3. पाठ्यक्रम में पाठ्यवस्तु का व्यवस्थित स्वरूप है जो कई विद्वानों के सहयोग से निर्मित होता है, जबकि पाठ्यचर्या गन्तव्य स्थान तक पहुंचने तक की प्रक्रिया का विषय ज्ञान है। 

4. पाठ्यक्रम में रटने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करके परीक्षा में सफल होना ही मुख्य लक्ष्य माना जाता है। पाठ्यवस्तु में छात्रों की तात्कालिक क्रियाओं को महत्व दिया जाता है। पाठ्यचर्या तथ्यों को रटने की उपेक्षा करता है एवं बालक के सर्वांगीण विकास को प्राथमिकता देता है।

5. पाठ्यचर्या और पाठ्यक्रम मे एक अंतर यह भी है कि पाठ्यक्रम की प्रकृति पाठ्यक्रम आधारित होती है। जबकि पाठ्यचर्या की प्रकृति परिस्थिति, आवश्यकताएं एवं समस्याओं पर आधारित है। 

6. पाठ्यक्रम का विकास एवं प्रबंधन, शिक्षक एवं उसकी योग्यता तथा छात्रों की आवश्यकताओं द्वारा होता है। पाठ्यचर्या का विकास सामाजिक एवं वातावरणजन्य, परिस्थितियाँ, शैक्षिक व्यवस्था, शैक्षिक प्रणाली, परिषदें, समितियों के सदस्य करते है।

7. पाठ्यक्रम के द्वारा तात्कालिक गुणों मे परिवर्तन की संभावना होती है। पाठ्यचर्या द्वारा सामाजिक परिवर्तन एवं स्थायी परिवर्तन होने की संभावना होती है।

8. पाठ्यक्रम के उद्देश्यों को कक्षा में या सीमित क्षेत्रों मे रहकर प्राप्त किया जाता है। जबकि पाठ्यचर्या के उद्देश्यों को असीमित क्षेत्रों में जाकर प्राप्त किया जा सकता है।

9. पाठ्यक्रम के अनुसार केवल कक्षागत बदलाव भी सदैव जरूरी नही होते है। पाठ्यचर्या के अनुसार विद्यालय प्रबन्धन के अंतर्गत बदलाव किए जाते है।

10. पाठ्यक्रम मे शिक्षा के व्यावहारिक पक्ष पर अधिक विचार किया जाता है जिससे छात्रों को व्यावसारिक ज्ञान प्रदान किया जा सके। पाठ्यचर्या शिक्षा के सैद्धान्तिक पक्ष को महत्वपूर्ण मानता है क्योंकि वह ज्ञान प्रदान करने का आवश्यक आधार है।

11. पाठ्यक्रम का प्रारूप छात्रों की रूचियों एवं योग्यताओं पर आधारित होकर बनाया जाता है, जबकि पाठ्यचर्या का प्रारूप सामाजिक एवं तात्कालिक आवश्यकताओं, मूल्यों, राष्ट्रीय विकास, मानवीय गुणों पर आधारित होकर बनाया जाता है।

12. पाठ्यक्रम विस्तृत पाठ्यक्रम का एक आंशिक भाग होता है। पाठ्यचर्या अपने आप में विभिन्न तत्वों के संगठन से निर्मित होता है।

13. पाठ्यक्रम में उन सभी क्रियाओं, विषय वस्तु तथा जरूरी बातों का समावेश होता है जिसे एक स्तर पर अध्ययन-अध्यापन को क्रमबद्ध बनाने के लिए संगठित किया जाता है। यह शिक्षण के विषयों को व्यवस्थित रूप में प्रदर्शित करता है। जबकि कंनिधम के शब्दों मे,” पाठ्यचर्या एक कलाकार (अध्यापक) के हाथों में यंत्र (साधन) है जिससे वह अपनी वस्तु (विद्यार्थी) को अपने कक्षा-कक्ष (स्कूल) में अपने आदर्शों (उद्देश्यो) के अनुसार बनाता है।”

Integrated Education and Inclusive Education difference

एकीकृत शिक्षा और समावेशी शिक्षा में अंतर (Integrated Education and Inclusive Education difference in Hindi)

  1. एकीकृत शिक्षा में विशेष आवश्यकता वाले छात्रों को सिर्फ सामान्य छात्रों के साथ पढ़ने-लिखने की अनुमति दी जाती है। जबकि समावेशी शिक्षा में आपस में पढ़ने की अनुमति के साथ-साथ विशेष सुविधाएं भी मुहैया करवाई जाती हैं।
  2. एकीकृत शिक्षा प्रणाली में विशेष आवश्यकता वाले छात्रों के लिए पाठ्यक्रम में कोई बदलाव नहीं किया जाता। वहीं समावेशी शिक्षा प्रणाली में पाठ्यक्रम में बदलाव किया जाता है, जिससे विशेष आवश्यकता वाले छात्रों को तो मदद मिले ही, साथ ही सामान्य छात्रों को भी कोई नुकसान न हो।
  3. जहां एकीकृत शिक्षा, शिक्षक केंद्रित होती है। वही समावेशी शिक्षा छात्र केंद्रित होती है।
  4. एकीकृत शिक्षा में विशेष आवश्यकता वाले छात्रों को पढ़ाने के लिए प्रशिक्षित शिक्षक नहीं होते, बल्कि वहां के शिक्षकों को ऊपरी तौर पर प्रशिक्षित करके विशेष आवश्यकता वाले छात्रों को पढ़ाने के लिए कहा जाता है। लेकिन समावेशी शिक्षा में विशेष शिक्षा प्राप्त प्रशिक्षित अध्यापकों की व्यवस्था की जाती है।
  5. एकीकृत शिक्षा के तहत विश्वविद्यालयों की बनावट और आधारभूत संरचना विशेष आवश्यकता वाले छात्रों के अनुकूल नहीं होती। लेकिन समावेशी शिक्षा में विद्यालय की बनावट और आधारभूत संरचना को विशेष आवश्यकता वाले छात्रों के मुताबिक बनाया जाता है।
  6. एकीकृत शिक्षा में डॉक्टर व मनोवैज्ञानिक की व्यवस्था नहीं होती लेकिन समावेशी शिक्षा में होती है।
  7. विशेष आवश्यकता वाले छात्रों पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत होती है। लेकिन एकीकृत शिक्षा व्यवस्था में उनके लिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं की जाती। परंतु समावेशी शिक्षा प्रणाली में छात्रों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखा जाता है।
  8. एकीकृत शिक्षा व्यवस्था में प्रशिक्षित शिक्षक न होने की वजह से छात्र प्रभावी शिक्षा हासिल नहीं कर पाते। लेकिन समावेशी शिक्षा में प्रशिक्षित शिक्षकों द्वारा उन्हें प्रभावी शिक्षा दी जाती है।
  9. एकीकृत शिक्षा का प्रावधान करने वाले स्कूलों में स्कूल की बनावट छात्रों के अनुकूल नहीं होती जिससे उन्हें कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है। लेकिन समावेशी शिक्षा प्रदान करने वाले स्कूलों में इन छात्रों के अनुकूल व्यवस्था की जाती है।
  10. एकीकृत शिक्षा में ज्यादा लागत नहीं लगती। लेकिन समावेशी शिक्षा में प्रशिक्षित शिक्षकों, डॉक्टर, मनोवैज्ञानिक, स्कूल की बनावट आदि पर काफी पैसा लगता है।

Problem Solving Method

समस्या समाधान विधि – Problem Solving Method 

समस्या समाधान विधि ( problem solving method )

समस्या समाधान विधि (Problem Solving Method) इस विधि के जनक प्राचीन काल के अनुसार सुकरात व सेंट थॉमस तथा आधुनिक समय के अनुसार जॉन डीवी है। समस्या उस समय प्रकट होता है, जब लक्ष्य की प्राप्ति में किसी प्रकार की बाधा आती है। यदि लक्ष्य तक पहुंचने का मार्ग सीधा और आसान हो तो समस्या आती ही नहीं है।समस्या-समाधान विधि मनोविज्ञान के कोहलर अंतर्दृष्टि सिद्धांत पर आधारित है।

समस्या समाधान का अर्थ ( Meaning of problem resolution )

विद्यार्थियों को शिक्षण काल में अनेक समस्याओं या कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। जिनका समाधान उसे स्वयं करना पड़ता है। समस्या समाधान का अर्थ है लक्ष्य को प्राप्त करने आने समस्याओं का समाधान  इसको समस्या हल करने की विधि भी कहते हैं।

व्याख्यान प्रदर्शन विध

व्याख्यान विधि

समस्या समाधान विधि परिभाषा ( Problem Resolution Method Definition )

वुडवर्थ (Woodworth) “समस्या-समाधान उस समय प्रकट होता है जब उद्देश्य की प्राप्ति में किसी प्रकार की बाधा पड़ती है। यदि लक्ष्य तक पहुंचने का मार्ग सीधा और आसन हों तो समस्या आती ही नहीं।”

स्किनर (Skinner) “समस्या-समाधान एक ऐसी रूपरेखा है जिसमें सर्जनात्मक चिंतन तथा तर्क दोनों होते हैं।”

यदि हम किसी निश्चित लक्ष्य पर पहुँचना चाहते हैं, पर किसी कठिनाई के कारण नहीं पहुँच पाते हैं, तब हमारे समक्ष एक समस्या उपस्थित हो जाती है। यदि हम इस कंठिनाई पर विजय प्राप्त करके अपने लक्ष्य पर पहुँच जाते हैं, तो हमें अपनी समस्या का समाधान कर लेते हैं। इस प्रकार, समस्या समाधान का अर्थ है-कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करके लक्ष्य को प्राप्त करना।

स्किनर के अनुसार- “समस्या समाधान किसी लक्ष्य की प्राप्ति में बाधा डालती प्रतीत होती कठिनाइयों पर विजय पाने की प्रक्रिया है। यह बाधाओं के बावजूद सामंजस्य करने की विधि है।”

“Problem-solving is a process of overcoming difficulties that appear to interfere with the attainment of a goal. It is a procedure of making adjustments in spite of interferences.” -Skinner

समस्या समाधान के स्तर (Levels of Problem-Solving)

तर्क, समस्या के समाधान का आवश्यक अंग है। समस्या का समाधान, चिन्तन तथा तर्क का उद्देश्य है। स्टेर्नले ग्रे के अनुसार- “समस्या समाधान वह प्रतिमान है, जिसमें तार्किक चिन्तन निहित होता है।” समस्या समाधान के अनेक स्तर हैं। कुछ समस्यायें बहुत सरल होती हैं, जिनको हम बिना किसी कठिनाई के हल कर सकते हैं, जैसे—पानी पीने की इच्छा । हम इस इच्छा को निकट की प्याऊ पर जाकर तृप्त कर सकते हैं। इसके विपरीत, कुछ समस्यायें बहुत जटिल होती हैं, जिनको हल करने में हमें अत्यधिक कठिनाई होती है; उदाहरण के लिये रेगिस्तान में किसी विशेष स्थान पर जल-प्रणाली स्थापित करने की इच्छा है। इस समस्या का समाधान करने के लिये अनेक उपाय किये जाने आवश्यक हैं; जैसे-पानी कहाँ से प्राप्त किया जाये ? उसे उस विशेष स्थान कैसे पहुँचाया जाये ? उसके लिये धन किस प्रकार प्राप्त किया जाये ? इत्यादि। इन समस्याओं को हल करने के बाद ही पानी की मुख्य इच्छा पूरी की जा सकती है।

समस्या समाधान की विधियाँ (Methods of Problem-solving)

स्किनर (Skinner) ने समस्या समाधान’ की निम्नलिखित विधियाँ बताई हैं-

1. प्रयास एवं त्रुटि विधि (Trial & Error Method) – इस विधि का प्रयोग निम्न और उच्च कोटि के प्राणियों द्वारा किया जाता है। इस सम्बन्ध में थार्नडाइक (Thorndike) का बिल्ली पर किया जाने वाला प्रयोग उल्लेखनीय है। बिल्ली अनेक गलतियाँ करके अन्त में पिंजड़े से बाहर निकलना सीख गई।

2. वाक्यात्मक भाषा विधि (Sentence Language Method)- इस विधि का प्रयोग मनुष्य के द्वारा बहुत लम्बे समय से किया जा रहा है। वह पूरे वाक्य बोलकर अपनी अनेक समस्याओं का समाधान करता है और फलस्वरूप प्रगति करता चला आ रहा है। इसलिये, वाक्यात्मक भाषा को सारी सभ्यता का आधार माना जाता है।

3. अनसीखी विधि (Unlearned Method) – इस विधि का प्रयोग निम्न कोटि के प्राणियों द्वारा किया जाता है। उदाहरणार्थ, मधुमक्खियों की भोजन की इच्छा, फूलों का रस चूसने से और खतरे से बचने की इच्छा, शत्रु को डंक मारने से पूरी हो जाती है।

4. वैज्ञानिक विधि (Scientific Method) – आज का प्रगतिशील मानव अपनी समस्या का समाधान करने के लिये वैज्ञानिक विधि का प्रयोग करता है। हम इसका विस्तृत वर्णन कर रहे है।

5. अन्तर्दृष्टि विधि (Insight Method)- इस विधि का प्रयोग उच्च कोटि के प्राणियों द्वारा किया जाता है। इस सम्बन्ध में कोहलर (Kohler) का वनमानुषों पर किया जाने वाला प्रयोग उल्लेखनीय है।

समस्या समाधान की वैज्ञानिक विधि (Scientific Method of Problem-Solving)

स्किनर (Skinner) के अनुसार, समस्या समाधान की वैज्ञानिक विधि में निम्नलिखित छः सोपानों (Steps) का अनुकरण किया जाता है—

1. समस्या को समझना (Understanding the Problem) – इस सोपान में व्यक्ति यह समझने का प्रयास करता है कि समस्या क्या है, उसके समाधान में क्या कठिनाइयाँ हैं या हो सकती हैं तथा उनका समाधान किस प्रकार किया जा सकता है ?

2. जानकारी का संग्रह (Collecting Information)- इस सोपान में व्यक्ति समस्या से सम्बन्धित जानकारी का संग्रह करता है। हो सकता है कि उससे पहले कोई और व्यक्ति उस समस्या को हल कर चुका हो। अतः वह अपने समय की बचत करने के लिये उस व्यक्ति द्वारा संग्रह किये गये तथ्यों की जानकारी प्राप्त करता है।

3. सम्भावित समाधानों का निर्माण- (Formulating Possible Solutions) – इस सोपान में व्यक्ति, संग्रह की गई जानकारी की सहायता से समस्या का समाधान करने के लिये कुछ विधियों को निर्धारित करता है। वह जितना अधिक बुद्धिमान होता है, उतनी ही अधिक उत्तम ये विधियाँ होती हैं। इस सोपान में सृजनात्मक चिन्तन (Creative Thinking) प्रायः सक्रिय रहता है।

4. सम्भावित समाधानों का मूल्यांकन (Evaluating the Possible Solutions) – इस सोपान में व्यक्ति निर्धारित की जाने वाली विधियों का मूल्यांकन करता है। दूसरे शब्दों में, वह प्रत्येक विधि के प्रयोग के परिणामों पर विचार करता है। इस कार्य में उसकी सफलता आँशिक रूप से उसकी बुद्धि तथा आंशिक रूप से संग्रह की गई जानकारी के आधार पर निर्धारित की जाने वाली विधियों पर निर्भर रहती है।

5. सम्भावित समाधानों का परीक्षण (Testing Possible Solutions) – इस सोपान में व्यक्ति उक्त विधियों का प्रयोगशाला में या उसके बाहर परीक्षण करता है।

6. निष्कर्षों का निर्णय-Forming Conclusions- इस सोपान में व्यक्ति अपने परीक्षणों के आधार पर विधियों के सम्बन्ध में अपने निष्कर्षों का निर्माण करता है। परिणामस्वरूप, वह यह अनुमान लगा लेता है कि समस्या का समाधान करने के लिये उनमें से कौन-सी विधि सर्वोत्तम है।

7. समाधान का प्रयोग (Application of Solution)- इस सोपान का उल्लेख क्रो एवं क्रो (Crow & Crow) ने किया है। व्यक्ति अपने द्वारा निश्चित की गई सर्वोत्तम विधि को समस्या का समाधान करने के लिये प्रयोग करता है।

8. यह आवश्यक नहीं है कि व्यक्ति, समस्या का समाधान करने में सफल हो। इस सम्बन्ध में स्किनर के अनुसार- “इस विधि से भी भविष्यवाणियाँ बहुधा गलत होती हैं और गलतियाँ हो जाती हैं।”

“Even with this method, predictions are often inaccurate and errors are still made.” -Skinner

समस्या समाधान विधि का महत्व (Importance of Problem-Solving Method)

मरसेल का कथन है— “समस्या समाधान की विधि का शिक्षा में सर्वाधिक महत्व है।”

“The process of problem-solving is of the utmost importance in education.” – Mursell

छात्रों की शिक्षा में समस्या समाधान की विधि का महत्व इसके अनेक लाभों के कारण है। कुछ प्रमुख लाभ इस प्रकार हैं—(1) यह उनमें स्वयं कार्य करने का आत्मविश्वास उत्पन्न करती है। (2) यह उनके विचारात्मक और सृजनात्मक चिन्तन एवं तार्किक शक्ति का विकास करती है। (3) यह उनकी रुचि को जाग्रत करती है। (4) यह उनको अपने भावी जीवन की समस्याओं का समाधान करने का प्रशिक्षण देती है। (5) यह उनको समस्याओं का समाधान करने के लिये वैज्ञानिक विधियों के प्रयोग का अनुभव प्रदान करती है। इन लाभों के कारण क्रो एवं क्रो का सुझाव है—“शिक्षकों को समस्या समाधान की वैज्ञानिक विधि में प्रशिक्षण दिया जाना चाहिये। केवल तभी वे शुद्ध स्पष्ट और निष्पक्ष चिन्तन का विकास करने के लिये छात्रों का प्रदर्शन कर सकेंगे।”

समस्या समाधान विधि के महत्व (Importance of problem solving method )

समस्या समाधान विधि मनोवैज्ञानिक एवं वैज्ञानिक विधि है। समस्या विद्यार्थी के पाठ्यवस्तु से संबंधित होती है। इसमें छात्र को करके, सीखने के अवसर उपलब्ध होते हैं। 

इस विधि में विद्यार्थी के सामने एक समस्या रखी जाती है और विद्यार्थी उसका हल ढूंढने के लिए प्रयास करता है। अध्यापक हल ढूंढने के लिए प्रेरित करता है।

अन्वेषण विधि

समस्या समाधान विधि के सोपान (Steps of Problem Solving Method)

Problem solving method in teaching, इस विधि की अनुपालन करते समय सर्वप्रथम समस्या की पहचान की जाती है। समस्या को हल करने के लिए समस्या समाधान विधि के चरण को पालन करते हुए हम अपनी समस्या का निराकरण कर अपनी लक्ष्य को हासिल कर सकते हैं।

  • समस्या की पहचान

a.   समस्या का स्पष्ट विवरण अथवा समस्या कथन

b.   समस्या का स्पष्टीकरण विद्यार्थियों द्वारा आपस में चर्चा

c.   समस्या का परिसीमन समस्या का क्षेत्र निर्धारित करना

  • परिकल्पना का निर्माण – जांच एवं परीक्षण के लिए परिकल्पना का निर्माण।
  • प्रयोग द्वारा परीक्षण – परिकल्पनाओं का परीक्षण करना
  • विश्लेषण
  • समस्या के निष्कर्ष पर पहुंचना

समस्या समाधान विधि के गुण (Properties of the Problem Solving Method)

  • विधि से विधार्थी सहयोग करके सीखने के लिए प्रेरित होते हैं।
  • दाती समस्या को हल करने की प्रक्रिया में शामिल होकर उसे हल करना सीखते हैं।
  • विद्यार्थी परिकल्पना निर्माण करना सीखते हैं और इस प्रक्रिया से उसकी कल्पनाशीलता में वृद्धि होती है।
  • विद्यार्थी जीवन में आने वाली समस्याओं को हल करना सीखते हैं।
  • यह विधि विद्यार्थी में वैज्ञानिक अभिवृत्ति के विकास में सहायक हैं।

समस्या समाधान विधि के दोष Problem resolution method faults

  • इस विधि के प्रयोग में समय ज्यादा लगता है।
  • पाठ्य-पुस्तक का अभाव होता है।
  • इस विधि में त्रुटियाँ प्रभावहीन के कारण होती है।
  • गति धीमी रहती हैं।
  • इस विधि से हर विषय वस्तु का शिक्षण नहीं किया जा सकता है।
  • समस्या उचित रूप से चुनी हुई न हो तो वह असफल रहती हैं।
  • चूंकि इस विधि में प्रायोगिक कार्य भी करना होता है। अतः शिक्षक का प्रायोगिक कार्य में दक्ष होना आवश्यक होता है।

Micro-teaching Cycle

Micro-teaching is a teacher training and faculty development technique whereby the teacher reviews a recording of a teaching session, in order to get constructive feedback from peers and/or students about what has worked and what improvements can be made to their teaching technique.

Steps of the Micro-teaching cycle-

1.    Planning

2.    Teaching

3.    Feedback

4.    Re-Planning

5.    Re-Teaching

6.    Re-feedback

सूक्ष्म-शिक्षण एक शिक्षक प्रशिक्षण और संकाय विकास तकनीक है, जिसके तहत शिक्षक शिक्षण सत्र की रिकॉर्डिंग की समीक्षा करता है, ताकि साथियों और / या छात्रों से रचनात्मक प्रतिक्रिया प्राप्त की जा सके कि उन्होंने क्या काम किया है और उनकी शिक्षण तकनीक में क्या सुधार हो सकते हैं।

सूक्ष्म-शिक्षण चक्र के चरण-

1.    योजना

2.    शिक्षण

3.    प्रतिक्रिया

4.    पुनः योजना

5.    पुनः शिक्षण

6.    पुनः प्रतिक्रिया