Teaching Learning Material

शिक्षण सहायक सामग्री (teaching learning material -TLM) का प्रयोग शिक्षक क्यों करते हैं?

अध्यापन अधिगम की जो प्रक्रिया है उसे सरल एवं प्रभावकारी या रूचिकर बनाने के लिए शिक्षक विभिन्न प्रकार के उपकरणों का प्रयोग करते हैं जिससे शिक्षक को कठिन से कठिन विषय को अध्यापन या कहे पढ़ाने में आसानी होती है और छात्र-छात्राओं या कहें बच्चों को आसानी से समझ भी आ जाता है और समय की बचत होती हैं। क्योंकि बच्चे देखकर और करके बहुत जल्दी सीख  पाते हैं। इसलिए शिक्षक शिक्षण सहायक सामग्री का प्रयोग करते हैं।

शिक्षण सहायक सामग्री के प्रकार

जैसे कि हमने ऊपर पढ़ा कि शिक्षक को शिक्षण सहायक सामग्री का प्रयोग क्यों पड़ता है? इसे मद्देनजर रखते हुए शिक्षण सहायक सामग्री को तीन भागों में बांटा गया है –

१. दृश्य सहायक सामग्री (visual aids)

२. श्रव्य सहायक सामग्री (audio aids)

३. दृश्य श्रव्य सहायक सामग्री (visual audio aids)

1. दृश्य सहायक सामग्री (visual aids material) : –

दृश्य सहायक सामग्री जिसे अंग्रेजी में  visual aids भी कहते हैं जिसका अर्थ है प्रत्यक्ष रुप से देखना। यह ऐसे सामग्री है जिसे हम अपने आंखों से देख सकते हैं यह सबसे महत्वपूर्ण शिक्षक सहायक सामग्री है जिसका प्रयोग शिक्षक हमेशा करते हैं प्रतिदिन अपने अध्यापन-अधिगम की प्रक्रिया में करते ही हैं जैसे पुस्तकश्यामपट्टचोखडस्टरसंकेतक,  चित्रमानचित्रग्राफचार्टपोस्टरबुलेटिन बोर्डसंग्रहालयप्रोजेक्टर और भी महत्वपूर्ण दृश्य सहायक सामग्री।

i. वास्तविक पदार्थ (ground substance):-

वास्तविक पदार्थ वे पदार्थ होते हैं इससे बालक देखकर तथा छूकर सकता है। बालक पदार्थ छूकर तथा देखकर निरीक्षण एवं परीक्षण करता है जिससे बालक के ज्ञान इंद्रियों विकास होता है साथ ही उनके सोचने समझने या अवलोकन शक्ति का विकास होता है।

ii. नमूने (model) :-

जब वास्तविक पदार्थ को क्लास रूम में नहीं लाया जा सकता या उसके आकार इतनी बड़ी होती है या वह उपलब्ध ही नहीं होता कि उसे कक्षा में नहीं लाया जा सकता तब उसकी नमूने या model तैयार करें कक्षा में दिखाया जाता है जिससे बालक को आसानी से समझाया जा सके। जैसे जल-चक्र की प्रक्रियाज्वालामुखीहवाई जहाज, इत्यादि।

iii. चित्र (image) :-

चित्र बहुत ज्यादा बच्चों को प्रभावित करता है बच्चे चित्रों को देखकर वास्तविकता में खो जाते हैं इसलिए शिक्षक भी किसी भी कहानी या विज्ञान या अन्य किसी भी विषय संबंधित चित्र को बच्चों के सामने प्रस्तुत करते है ताकि उन्हें दिखा कर समझाया जा सके। चित्र के माध्यम से सिखाई गई बातें बच्चों को अधिक समय तक याद भी रहती है साथ में चित्रों को आसानी से कक्षा में दिखाया जा सकता है इसलिए शिक्षक कक्षा में किसी भी विषय को समझाने के लिए चित्र का प्रयोग करते हैं जैसे पौधे के विभिन्न भागह्रदयकहानी भी । चित्र को बच्चों के सामने प्रस्तुत करने से पहले शिक्षक को दो बातों का विशेष ध्यान रखना पड़ता है-

a) चित्र स्पष्ट होना चाहिए रंगीन तथा आकर्षक होना चाहिए जिससे बालक रुचि लगे जिससे उन्हें वास्तविकता का अनुभव हो पाठ से संबंधित मुख्य बातें दिखानी चाहिए या तो जरूरी है उन्हीं दर्शानी चाहिए।

b) चित्र का आकार इतना बड़ा हो कक्षा में पीछे बैठे विद्यार्थी को भी आसानी से दिखाई दे उनके अंदर अगर कुछ लिखा हो तो वे भी स्पष्ट या साफ-साफ दिखाई दे।

iv. मानचित्र (map):- 

मानचित्र का प्रयोग हम तभी करते हैं जब हमें बच्चों को ऐतिहासिक घटनाओं तथा भौगोलिक तत्व या स्थानों के बारे में बताना होता है मानचित्र का प्रयोग करते समय शिक्षकों को कुछ बातों का ध्यान रखना चाहिए जैसे कि उनके ऊपर नामशीर्षकदिशा तथा संकेत  आदि आवश्यक लिखा हो।

v. रेखा चित्र (sketch):-

रेखा चित्र की आवश्यकता हमें तभी पड़ती है जब हमें किसी भी वास्तविक पदार्थ या मॉडल या मानचित्र नहीं हो तो हम बच्चों को ब्लैक बोर्ड पर या वाइट बोर्ड पर रेखा चित्र या sketch बनाकर दिखाते हैं जैसे भारत के नक्शा बनाकर किसी भी राज्य को दिखाना, किसी भी महापुरुषों के या नेताओं के चित्र  बना कर दिखाना जैसे महात्मा गांधीनेताजी सुभाष चंद्र बोसभगत सिंहइंदिरा गांधी इत्यादि।

vi. ग्राफ (graph) :- 

एक शिक्षक ग्राफ का प्रयोग तभी करता है जब उन्हें किसी भी बढ़ती या घटती स्वरूप को दिखाना होता है ग्राफ का प्रयोग कई विषयों में किया जाता है जैसे भूगोलइतिहासगणितविज्ञान जैसे विषयों में भी या जाता है भूगोल विषय में जलवायुउपज तथा जनसंख्या आदि के विषय में जानकारी देने के लिए ग्राफ का प्रयोग या जाता है साथ ही गणित तथा विज्ञान शिक्षण में ग्राफ का प्रयोग सबसे ज्यादा किया जाता है।

vii. चार्ट (chart):- 

चार्ट का प्रयोग हिंदीअंग्रेजीभूगोलइतिहासअर्थशास्त्रनागरिकशास्त्रगणित तथा विज्ञान विषय में किया जाता है। जैसे :- हिंदी में या अंग्रेजी में व्याकरण में संज्ञा के विभिन्न रूपों को दर्शाना। भूगोल में गेहूं की उपज भारत में किन-किन राज्यों में उपज होती हैं उन्हें बताना। इत्यादि।

viii. बुलेटिन बोर्ड (bulletin board) :-

बुलेटिन बोर्ड वह बोर्ड होती है जहां बालक देश की राजनीतिआर्थिक एवं सामाजिक समस्याओं के संबंध में चित्रग्रामआकृतिलेख या आवश्यक सूचनाओं को प्रदर्शित करते हैं बुलेटिन बोर्ड से बालक के ज्ञान में निरंतर वृद्धि होती है बुलेटिन बोर्ड को इतनी ऊंचाई पर लगानी चाहिए ताकि बच्चे उन्हें देखकर आसानी से समझ सके और उससे ज्ञान हासिल कर सकें बुलेटिन बोर्ड शिक्षक एवं बालक दोनों ही उपयोग कर सकते हैं शिक्षक एवं बालक द्वारा प्राप्त सामग्री को  बुलेटिन बोर्ड में दिखाया जाता है यह बहुत ही आकर्षक एवं रोचक होता है या आधुनिक शिक्षा प्रणाली का एक अहम हिस्सा है।

ix. संग्रहालय (Museum) :-

बालक के ज्ञान को बढ़ाने के लिए  संग्रहालय भी शिक्षा का एक महत्वपूर्ण उपकरण है इसमें सभी वस्तुओं को एक जगह रखा जाता है इन वस्तुओं से पाठ को और भी रोचक एवं संजीव बनाया। संग्रहालय एकत्रित वस्तुएं जोकि भूगोलइतिहासगणितविज्ञान जैसे विषयों में बहुत ज्यादा सहायक होता है इसे हमें अपने इतिहास के बारे में भी पता चलता है।

x.  प्रोजेक्टर (projector):- 

आधुनिक शिक्षा प्रणाली में सबसे ज्यादा प्रयोग किए जाने वाले उपकरण में से प्रोजेक्टर सबसे अहम भूमिका निभाते हैं प्रोजेक्टर के माध्यम से अध्यापन-अधिगम को और भी सरल एवं रोचक बनाया जाता है रूचिकर एवं प्रभावशाली होते हैं प्रोजेक्ट एक ऐसा माध्यम है जिसके माध्यम से बालक को सजीव एवं वास्तविकता का अनुभव होता है क्योंकि इसके माध्यम से अध्यापन-अधिगम को आसान बनाया जाता है इतिहास के विभिन्न तस्वीरों को दिखाया जाता है दुनिया में इंटरनेट का प्रचलन इतना ज्यादा बढ़ गया है कि शिक्षा में इंटरनेट प्रयोग कर  प्रोजेक्टर के माध्यम से दिखाया जा सकता है इसका भरपूर फायदा शिक्षक उठा रहे हैं। प्रोजेक्टर के माध्यम से बालक को एक अलग प्रकार का आनंद एवं स्मरण शक्ति अवलोकन शक्तिजिज्ञासा आदि का विकास लगता है।

xi.स्लाइडेंफिल्म पट्टियां :- 

स्लाइडें एवं फिल्म पट्टियां का प्रयोग शिक्षण में सहायक सामग्री के तौर पर किया जाता है इसके लिए प्रोजेक्टर की सहायता ली जाती है प्रोजेक्टर द्वारा चित्रों की स्लाइडो अथवा फिल्म पट्टियों को एक क्रम में दिखाया जा सकता है।

xii. ग्लोब (glob) :- 

ग्लोब की मदद से बच्चों को महाद्वीप, महासागर, नदी, पर्वत की सीमाओं को दिखाया जाता है सबसे ज्यादा भूगोल विषय में ग्लोब  का प्रयोग किया जाता है जिसमें पृथ्वी की आकृति, उत्तरी दक्षिणी, गोलार्ध अक्षांश, देशांतर रेखाओं के बारे में बच्चों को बताने एवं समझाने में आसानी होता है।

xiii. पोस्टर एवं कार्टून पोस्टर (poster and Cartoon poster): –

आज शिक्षा जगत में पोस्टर एवं कार्टून पोस्टर की बहुत ज्यादा धूम मची है पोस्टर कार्टून पोस्टर की मदद से बच्चों को सही निर्देश एवं व्यंग्य तरीके से बच्चों को शिक्षा दी जाती है। आज इसका प्रयोग समाचार पत्र एवं पत्र-पत्रिकाओं में ज्यादा प्रयोग किया गया है। ऐसे बच्चों की अच्छी आदत तो परिवार नियोजन, जल संरक्षण, दहेज प्रथा ,धूम्रपान, वनों की कटाई नेताओं, अभिनेत्रियों, धूम्रपान, प्रदा प्रथा जैसे विषयों पर कार्टून पोस्टर की मदद से लोगों को जागरूक किया जा रहा है।

xiv. भित्ति चित्र (wall painting) :-

अक्सर हमने देखा है कि नर्सरी एलकेजी यूकेजी कक्षाओं में भित्ति चित्र बनाया हुआ रहता है जिसमें चित्रों के साथ वर्ण(alphabet), फलों के नामनंबर जानवरों के नाममहीनों के नामपहाड़ासप्ताह के नामवस्तुओं आदि का चित्र बनाया हुआ रहता है जिसे बच्चे देख देख कर उसे पढ़ते हैं तथा उन्हें याद भी रहता है इसलिए प्राथमिक कक्षा में भित्ति चित्र बना हुआ रहता है  शिक्षक चित्र के माध्यम से बच्चों को पढ़ाते भी हैं शिक्षक उन चित्रों का प्रयोग अपने सहायक सामग्री के रूप में भी करते हैं।

2.श्रव्य सहायक सामग्री (audio aids material)

श्रव्य सामग्री (Audio aids) वह साधन है जिस में केवल इंद्रिया (कान) का ही प्रयोग किया जाता है। श्रव्य सामग्री के अंतर्गत ग्रामोफोन रेडियो टेलीफोन टेली कॉन्फ्रेंसिंग टेप रिकॉर्डर जैसे ऑडियो ऐड आते हैं जिसमें बच्चों को कुछ सुना कर उनके मानसिक शक्तियों एवं सुनने की शक्तियों का विकास किया जाता है।

१. रेडियो (radio):-

 रेडियो(Radio) के माध्यम से बालकों को नवीनतम घटनाओं तथा सूचनाओं की जानकारी दी जाती है रेडियो पर विभिन्न कक्षाओं के विभिन्न विषयों के अध्यापन संबंधी प्रोग्राम सुनाए जाते हैं जिससे बालक के अधिगम की क्षमता का विकास होता है साथ ही सुनकर समझने तथा उसे याद रखने की शक्ति का विकास होता है।

२. टेप रिकॉर्डर (tape recorder) :-

शिक्षा जगत में टेप रिकॉर्डर ( Tape-recorder) एक प्रचलित उपकरण है इसकी सहायता से महापुरुषों के प्रवचन नेताओं के भाषण तथा प्रसिद्ध साहित्यकारों की कविताओं उनकी कहानियों तथा प्रसिद्ध कलाकारों के संगीत का आनंद उठाया जा सकता है इसे बालकों को बोलने की गति तथा प्रभाव संबंधी सभी त्रुटियों एवं विचारों को सुधारने में सहायता मिलती है साथ ही बालक टेप रिकॉर्डर की सहायता से शिक्षक के बातों को भी रिकॉर्ड कर रख सकते हैं ताकि उन्हें बाद में सुनकर अच्छे से समझा जा सकता है।

३. टेली कांफ्रेंसिंग (teli conferencing) : –

टेली कॉन्फ्रेंसिंग की सहायता से भी बच्चों को सूचना दी जाती हैं टेली कॉन्फ्रेंसिंग एक ऐसा माध्यम है जिससे कई स्कूलों को एक साथ जोड़ा जा सकता है अलग-अलग शिक्षक एवं अलग-अलग बालक टेली कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से बातें कर महत्वपूर्ण जानकारियां हासिल कर सकते हैं।

3.दृश्य-श्रव्य सहायक सामग्री (audio-visual aids meterial)

दृश्य-श्रव्य सामग्री से तात्पर्य उन साधनों से है जिनके माध्यम से बालक देखने और सुनने की शक्तियों को बढ़ाते हुए अपनी अधिगम क्षमता को बढ़ाता है दृश्य-श्रव्य सहायक सामग्री एक ऐसा साधन है जिसका आधुनिक शिक्षा प्रणाली में प्रयोग बढ़ता ही जा रहा है बच्चे पाठ के सूक्ष्म से सूक्ष्म कठिन से कठिन भावों को भी इसके माध्यम से सरलता से समझ जाता है इस सामग्री के माध्यम से लिखित तथा मौखिक पाठ्य सामग्री को समझने में सहायक होती है इनके अंतर्गत सिनेमादूरदर्शननाटकटेलीविजनचलचित्रवृत्तचित्रकम्प्यूटर आदि आते हैं।

१. चलचित्र (फिल्म) (films, cinema) :-

 चलचित्र अथवा सिनेमा के अनेक लाभ हैं इसके द्वारा प्राप्त किया गया ज्ञान अन्य उपकरणों की अपेक्षा अधिक उपयोगी होता है क्योंकि बालक देखकर तथा सुनकर अच्छी तरीका से सीख पाते हैं इसके द्वारा बालकों को विभिन्न देशों स्थानों तथा घटनाओं का ज्ञान बड़ी ही आसानी से कराया जा सकता है साथ ही बालक की कल्पना शक्ति यह सोचने की क्षमता का भी विकास होता है।

२. टेलीविजन (television):-

सिनेमा या चलचित्र से होने वाली सभी लाभ टेलीविजन से भी प्राप्त किया जा सकता है किंतु सिनेमा की अपेक्षा इसका दायरा अत्यंत विस्तृत होता है आज के आधुनिक युग में टेलीविजन के मनोरंजन कार्यक्रमों के अलावे कई प्रकार के शैक्षणिक कार्यक्रम प्रसारण करता है बच्चों के ज्ञान में वृद्धि होती है इग्नू एवं यूजीसी जैसे विश्वविद्यालयों द्वारा भी उपग्रहों की मदद से विभिन्न प्रकार के शैक्षिक कार्यक्रमों का प्रसारण करता है जिससे बालक को अधिगम का उचित अवसर मिलता है।

३. कंप्यूटर (computer):- 

कंप्यूटर का आधुनिक एवं आधुनिक शिक्षा प्रणाली में सबसे ज्यादा प्रयोग करने वाले साधन में से एक है या एक इलेक्ट्रॉनिक उपकरण है जिसकी सहायता से शिक्षा जगत को अधिगम का सुनहरा अवसर मिल चुका है कंप्यूटर का प्रयोग शिक्षा जगत में ही नहीं बल्कि अपने जीवन के विभिन्न क्षेत्र में किया जा सकता है शिक्षा के क्षेत्र में कंप्यूटर से निम्नलिखित लाभ है –

i. कंप्यूटर के माध्यम से पाठ के प्रति रुचि का विकास होता है कंप्यूटर में चित्र चल चित्रों के माध्यम से पाठ को अत्यंत जीवन एवं मनोरंजन बनाया जाता है

ii. कंप्यूटर छात्रों को उच्च कोटि का पुनर्बलन प्राप्त होता है बच्चे कंप्यूटर के जरिए इंटरनेट का प्रयोग विभिन्न प्रकार की जानकारी प्राप्त करने के लिए करते हैं।

iii. विभिन्न प्रकार के प्रोजेक्ट, पीपीटी, एमएस वर्ड, एक्स सेल जैसे प्रोग्रामओं का प्रयोग कर बालक का अधिगम बढ़ता ही जा रहा है साथ ही शिक्षा जगत को एक चुनौती और विकास का एक नया अवसर मिल चुका है।

iv. आज शिक्षा जगत में कंप्यूटर का प्रचलन इतना बढ़ चुका है कि हर स्कूलों एवं विश्वविद्यालयों में इसका प्रयोग किया जा रहा है ऐसा लगता है कि कंप्यूटर के बिना शिक्षा का महत्व एक अधूरा है क्योंकि आज देश दुनिया की हर जानकारियां इंटरनेट के माध्यम से मिल ही जाती है तथा बच्चों को उन जानकारियों को दिलाने में कंप्यूटर एक अच्छा माध्यम है।

४. मोबाइल(mobile):-

मोबाइल कंप्यूटर का एक छोटा रूप ही कहा जा सकता है क्योंकि आज के आधुनिक शिक्षा जगत में शिक्षक किया विद्यार्थी मोबाइल के माध्यम से हर प्रकार के जानकारी चुटकियों  में घर बैठे ही प्राप्त कर लेते हैं साथ ही अपने प्रोजेक्ट और गृह कार्य बड़ी ही आसानी से इंटरनेट के माध्यम से जानकारी हासिल कर बना लेते हैं आज कंप्यूटर से ज्यादा मोबाइल फोन की मांगे बढ़ती जा रही है और इसका प्रयोग शिक्षा जगत में भी किया जा रहा है।

५. नाटक (drama): –

अगर बच्चों को किसी भी लंबी-लंबी कहानी उपन्यास आदि को नाटक के माध्यम से दिखाया जाता है तो उन्हें पूरी घटनाएं अच्छी तरह से याद भी होती है और वे बड़ी आसानी से उन्हें समझ भी पाते हैं इसलिए शिक्षक लंबी-लंबी कहानियांप्रेरणादायक कहानीकिसी घटना उपन्यास जैसे विषयों को नाटक के माध्यम से बच्चों को पढ़ाया जाता है या उनसे ही नाटक कराया जाता है।

शिक्षण सहायक सामग्री की आवश्यकताएं (need of TLM)

=>  अध्यापन अधिगम को आसान बनाने के लिए।

=>  बच्चों की जिज्ञासा को पूरा करने के लिए।

=>  क्लास को प्रभावशाली एवं रुचिकार बनाने के लिए।

=>  कठिन से कठिन विषयों को सरलता से बतलाने के लिए।

=>  बच्चों को निरीक्षण एवं परीक्षण एवं उनकी अवलोकन शक्तियों को बढ़ाने के लिए।

शिक्षण सहायक सामग्री की विशेषताएं (features of teaching learning material -TLM)

शिक्षण सहायक सामग्री TLM की विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

१. शिक्षक इसकी सहायता से शिक्षण अधिगम को रोचक एवं आकर्षक बनाता है।

२. छात्र से मानसिक विकास में सहायक करता है।

३. इसकी सहायता से शिक्षक को किसी भी विषय को समझाने में समय के बचत कराता है।

४. जटिल से जटिल विषय को भी सरल बनाने में TLM सहायक होता है।

५. बच्चों की जिज्ञासाओं को बढ़ाने में सहायक होता है।

६. बालक के मानसिक सामाजिक एवं संवेगात्मक विकास भी करता है।

७. शिक्षण सहायक सामग्री की सहायता से बालक के व्यवहार में परिवर्तन लाता है।

८. बच्चों को ध्यान केंद्रित करने में सहायक करता है उनके इंद्रियों की क्षमता को भी बढ़ाता है।

९. अमृत विचारों को मूर्त रूप में प्रस्तुत करने में मदद करता है।

१०. बालक के अधिगम एवं उनकी रुचियां को बढ़ाने में मदद करता है।

ज्ञान के विस्तार व जटिलता ने अध्यापकों के लिए सहायक सामग्री का प्रयोग अनिवार्य बना दिया है।

शिक्षण सहायक सामग्री का महत्त्व (IMPORTANCE OF TEACHING  LEARNING AIDS)

शिक्षण सहायक सामग्री के महत्त्व को निम्न बिन्दुओं में व्याख्यायित किया जा सकता है:-

1. सहायक सामग्री से बालक की ज्ञानेन्द्रियों को क्रियाशील रखने में सहायता मिलती है। क्रियाशील ज्ञानेन्द्रियाँ बालक की सीखने की क्षमता में वृद्धि करती हैं।

2. सहायक सामग्रियों के प्रयोग से विद्यार्थी निष्क्रिय होने से बच जाता है। यदि इन्द्रियों को क्रियाशील रखा जाए तो बालक को अपना दृष्टिकोण विकसित करने में सहायता मिलती है और उसमें परिपक्वता का विकास होता है।

3. सहायक सामग्री बालकों का ध्यान आकर्षित करके ज्ञान को मूर्त रूप में प्रस्तुत करती है। इससे बालक सीखने के लिए प्रेरित होता है। सीखने के लिए उत्सुकता बढ़ती है। बालक पाठ को ध्यानपूर्वक सुनते हैं और आनन्द लेते हैं ।

4. सहायक सामग्री के प्रयोग से बालकों की बोधात्मकता और अवधान केन्द्रण में सकारात्मक वृद्धि होती है, जिससे अधिगम में सहायता मिलती है।

5. दुरूह प्रयोजनों को सहायक सामग्री के माध्यम से आसानी से समझाया जा सकता है, क्योंकि बालक जो सुनते हैं उसे अपनी आँखों से देखते भी हैं।

6. सहायक सामग्री के प्रयोग से बालकों की रटने की क्रिया को कम किया जा सकता है।

7. मानसमन्द बालकों के लिए सहायक सामग्री वरदान है। सामान्य बालक जिन प्रकरणों को आसानी से समझ लेते हैं, मानसमन्द बच्चे नहीं समझ पाते। परन्तु यदि सहायक सामग्री के प्रयोग से उन्हें समझाया जाता है तो उन्हें लाभ मिलता है।

8. अध्यापक प्रभावकारी ढंग से शिक्षण करने में सफलता प्राप्त करने के लिए सहायक सामग्री का प्रयोग करता है। सहायक सामग्री के प्रयोग से अध्यापक अपने शिक्षण कौशलों का परिचालन सफलतापूर्वक कर लेता है, जैसे-प्रश्न पूछना, पाठ्यवस्तु को प्रस्तुत करना, उत्तर देना, प्रतिकार करना, प्रतिपुष्टि और मूल्यांकन करना आदि।

9. अधिगम के स्थानान्तरण में सहायक सामग्री की विशेष भूमिका होती है। जिन प्रकरणों या तथ्यों को बालक इन्द्रिय अनुभव से ग्रहण करता है, उन्हें अन्य स्थानों पर उपयोग करने में सफल हो जाता है। केवल सुनी हुई बातों तथा तथ्यों को स्थानान्तरित करना कठिन होता है।

10. सहायक सामग्री पुनर्बलन और प्रतिपुष्टि प्रदान कर शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को अपने उद्देश्यों में सफल बनाते हैं।

11. विभिन्न प्रकार की सहायक सामग्री (रेडियो, टेलीफोन, कम्प्यूटर आदि) के प्रयोग से बालकों को नए-नए शब्दों का अनुभव होता है, उनके शब्द भंडार में वृद्धि होती है।

12. सहायक सामग्री बालकों की कल्पना-शक्ति का विकास करती है।

13. सहायक सामग्री के उपयोग से बालकों को जो सिखाया जाता है, वे तुरन्त अपने मस्तिष्क में धारण कर लेते हैं और आवश्यकतानुसार प्रत्यास्मरण भी कर लेते हैं।

Factors Affecting Learning

सीखने को प्रभावित करने वाले कारक या अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक(factors affecting learning in hindi)

अधिगम को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं-
A. विद्यार्थी से संबंधित कारक
B. शिक्षक से संबंधित कारक
C. विषय वस्तु से संबंधित कारक
D. वातावरण से संबंधित कारक

A. विद्यार्थी से संबंधित कारक (factors related to students):

विद्यार्थी से संबंधित कारक निम्नलिखित हैं:
१. शारीरिक स्वास्थ्य
२. मानसिक स्वास्थ्य
३. सीखने की इच्छा
४. सीखने की समय
५. सीखने में तत्पर्यता
६. विद्यार्थी या बालक की मूलभूत क्षमता
७. बुद्धि स्तर
८. रूचि
९.अभिप्रेरणा का स्तर

१. शारीरिक स्वास्थ्य(physical health)

किसी भी कार्य को सीखने में विद्यार्थी का शारीरिक स्वास्थ्य बहुत ही महत्वपूर्ण होता है यदि बालक शारीरिक रूप से स्वस्थ होगा तो वह अपने अधिगम में रुचि लेगा इसके विपरीत यदि बालक को कोई शारीरिक कष्ट होता है तो उसका पूरा ध्यान उसी में लगा रहता है और वह अपने कार्य में समंग रूप से ध्यान नहीं लगा पता अतः अधिगम(learning) के लिए बालक का शारीरिक रूप से स्वस्थ होना अति आवश्यक है।

२. मानसिक स्वास्थ्य(mental health)

किसी भी कार्य को सीखने के लिए शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य भी अति आवश्यक होता है यदि बालक मानसिक रूप से स्वस्थ है तो वह किसी भी कार्य या बात को जल्दी सीख लेता है नहीं तो वह कार्य को सीखने में ज्यादा समय लगाता है वह उसे ज्यादा समय तक याद नहीं रख पाता।

३. सीखने की इच्छा(willingness to learn)

शारीरिक स्वास्थ्य या मानसिक स्वास्थ्य के सही होने पर बालक में किसी कार्य को सीखने की इच्छा होनी चाहिए। यदि उसमें कार्य सीखने की इच्छा होती है तब वह कार्य को शीघ्रता से सीखने में सफल हो जाता है इसके लिए बालकों में कुछ पाने की चाह या इच्छा होनी चाहिए।

४. सीखने की समय(learning time)

यदि बालक को कोई कार्य ज्यादा देर तक सिखाई जाती हैं तो वह थकान महसूस करने लगता है इस स्थिति में बालक में क्रिया को सीखने के प्रति उदासीनता आ जाती हैं अतः बालक को कोई भी क्रिया सिखाते समय इस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि बालक को लगातार ज्यादा समय तक कोई कार्य न कराया जाए इसके बीच थोड़ा समय अंतराल होना चाहिए।

५. सीखने में तत्परता(readiness to learn)

जब बालक से सीखने(learning) के लिए तत्पर या तैयार होता है तो उस स्थिति में बालक किसी भी कार्य को जल्दी सीख लेता है एवं उसे ज्यादा समय तक अपने मास्तिष्क में धारण रखता है। लेकिन यदि बालक किसी कार्य को सीखने के लिए तत्पर नहीं होता तो वह या तो उस कार्य को सीख नहीं पाएगा और यदि सीख भी लेता है तो शीघ्रता से भूल जाएगा। अतः किसी कार्य को बालक को सिखाने के लिए उस कार्य के प्रति तत्परता या रुझान उत्पन्न करना चाहिए।

६. विद्यार्थी या बालक की मूलभूत क्षमता(basic ability of the student)

प्रत्येक पालक की अपनी कुछ ना कुछ मूलभूत क्षमताएं होती है जिसको आधार बनाकर के क्रियाओं को सिखाना चाहिए। इसके अंतर्गत बालक की अंतर्निहित शक्ति संवेगात्मक दृष्टि आते हैं। यदि बालकों को कोई कार्य उसकी मूलभूत क्षमता के अनुसार सिखाया जाता है तो वह कार्य में शीघ्र निपुणता प्राप्त कर लेता है। अतः कार्यों का प्रशिक्षण देने से पूर्व बालक की मूलभूत क्षमताओं की जानकारी ले लेनी चाहिए नहीं तो उपयुक्त परिणाम प्राप्त नहीं होगा।

७. बुद्धि स्तर(intelligence level)

सभी विद्यार्थी या बालक भिन्न-भिन्न बुद्धि वाले होते हैं सामान्य प्रतिभाशाली मूर्ख मंदबुद्धि आदि विद्यार्थी को कोई कार्य सिखाने से पहले उसके बुद्धि स्तर को जान लेना चाहिए। इसके उपरांत ही उसी की कारें सिखाना चाहिए। जब विद्यार्थी को उसके बुद्धि स्तरीय क्षमता के अनुसार कोई कार्य सिखाया जाता है तो उसे समझने में सरलता होती है या सहायता मिलती है एवं इस स्थिति में कार्यों को जल्दी सीख लेता है।

८. रूचि(interest)

जिस प्रकाinterestर विद्यार्थी या बालक को कोई कार्य सिखाने(Learning) में अभिप्रेरणा(motivation) आवश्यक होती है उसी प्रकार कार्य के प्रति विद्यार्थी की रूचि का होना आवश्यक है सुरुचिपूर्ण कार्यों को बालक जल्दी सीख लेता है वह इससे उसे आनंद की अनुभूति होती है।

९.अभिप्रेरणा का स्तर (motivation level)

प्रत्येक बालक को सीखने की प्रक्रिया(process of learning) के लिए अधिक से अधिक प्रेरणा का प्रयोग करना चाहिए। जिससे बालक को कार्य के प्रति प्रेरित किया जा सकता है इसके अनुपस्थिति में बालक कार्य तो करता है लेकिन लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाता।

B. शिक्षक से संबंधित कारक (factors related to teacher)

१. विषय का ज्ञान
२. शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य
३. समय सारणी का निर्माण
४. व्यक्तिगत विभिन्नता का ज्ञान
५. शिक्षण पद्धति
६. शिक्षक का व्यक्तित्व
७. अध्यापक का व्यवहार
८. पढ़ाने की इच्छा
९. व्यवसाय के प्रति निष्ठा
१०. अभ्यास कार्य को दोहराने की व्यवस्था
११. बाल केंद्रित शिक्षा पर बल
१२. मनोविज्ञान एवं बाल प्रकृति का ज्ञान

१. विषय का ज्ञान(subject knowledge): 

कोई भी अध्यापक अपने छात्रों को अपने विषय का पूर्ण ज्ञान होने पर ही प्रभावित कर सकता है। ज्ञान विहिन शिक्षक ना तो छात्रों से सम्मान या आदत प्राप्त कर सकता है और ना ही उनके मस्तिष्क का विकास कर सकता है। अपने विषय का पूर्ण ज्ञाता होने पर ही शिक्षक आत्मविश्वास पूर्वक बालकों को नवीन ज्ञान प्रदान करते है।

२. शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य(physical and mental health):

शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से स्वस्थ होने पर ही शिक्षक बालकों का ध्यान केंद्रित कर प्रभावशाली ढंग से शिक्षण प्रदान कर सकता है।

३. समय सारणी का निर्माण(timetable creation):

विद्यालयों में समय सारणी का निर्माण करते समय इस बात का ध्यान आवश्य रखना चाहिए कि एक साथ लगातार दो कठिन विषयों को ना लगाया जाये वह कठिन विषयों को समय सारणी में प्रथम चरण में रखना चाहिए क्योंकि प्रथम चरण बालक में तरोताजगी एवं फूर्ति होती है एवं व शारीरिक एवं मानसिक रूप से सीखने के लिए तैयार रहते हैं।

४. व्यक्तिगत विभिन्नता का ज्ञान(knowledge of individual differences)

अध्यापक को व्यक्तिगत विभिन्नताओं(individual differences) के संबंध में जानकारी होनी नितांत आवश्यक है। मनोविज्ञान के प्रदुर्भाव के क्षेत्र में व्यक्तिगत विभिन्नताओं को महत्व प्रदान किया जा रहा है। इसलिए आज बालक की रुचि अभिरुचि योग्यता क्षमता इत्यादि को ध्यान में रखकर ही उन्हें शिक्षा प्रदान की जाती है। व्यक्तिगत विभिन्नताओं का ज्ञान होने पर ही शिक्षक अपने शिक्षण को सफल बना सकता है।

५. शिक्षण पद्धति(teaching method):

अधिगम प्रक्रिया से शिक्षण पद्धति का प्रत्यक्ष संबंध होता है। समस्त बालकों को एक ही शिक्षण विधि से नहीं पढ़ाया जा सकता है क्योंकि प्रत्येक छात्र दूसरे छात्र से भिन्न होता है। अतः शिक्षक द्वारा प्रयुक्त की जाने वाली शिक्षण पद्धति अधिक प्रभावी वा मनोवैज्ञानिक होनी चाहिए तभी अधिगम की प्रक्रिया सफल हो सकती है।

६. शिक्षक का व्यक्तित्व(teacher’s personality):

शिक्षक का व्यक्तित्व सफल शिक्षण का आधार होता है। उत्तम शिक्षक का व्यक्तित्व प्रभावशाली होता है। प्रभावशाली व्यक्तित्व का अर्थ यह है कि उत्तम अध्यापक आत्म विश्वास एवं इच्छा शक्ति वाला चरित्रवान कर्तव्यनिष्ठ एवं निरोगी होता है उसके गुणों एवं आदतों का प्रभाव बालकों पर इतना अधिक पड़ता है की उसकी समग्र रुचियां एवं अभिरुचियां ही बालकों की अभिरुचियां बन जाती हैं।

७. अध्यापक का व्यवहार(teacher’s behavior):

यदि शिक्षक का व्यवहार समस्त छात्रों के साथ समान है प्रेम सहयोग सहानुभूति आदि गुणों से युक्त हैं तो छात्र भली प्रकार से पाठ सीख लेंगे। इसके विपरीत शिक्षक का व्यवहार होने पर छात्रों में शिक्षक के प्रति गलत अवधारणा बन जाएगी जो अधिगम में अत्यंत बाधक सिद्ध होगी।

८. पढ़ाने की इच्छा(desire to teaching):

पाठ को पढ़ाने की इच्छा होने पर ही शिक्षक किसी पाठ को रूचि पूर्वक पढ़ा सकता है और छात्रों में भी पढ़ने के प्रति रुचि विकसित कर सकता है।

९. व्यवसाय के प्रति निष्ठा(loyalty to business):

व्यवसाय के प्रति निष्ठा भी अधिगम की प्रक्रिया को प्रभावित करती हैं और विषय में रुचि पैदा करती हैं। अतः शिक्षक को अपना कार्य उत्साह व तत्परता पूर्वक करना चाहिए।

१०. अभ्यास कार्य को दोहराने की व्यवस्था:

शिक्षक को चाहिए कि वह जिन कार्यों को विद्यार्थियों को सिखा रहा है उसको बार-बार उनसे दोहराए। इससे विद्यार्थियों में कार्य के प्रति रुचि उत्पन्न होती हैं वह बार-बार उसी कार्य को करने से वह उसे अच्छी तरह से सीख लेते हैं। वह उसको ज्यादा लंबे समय तक अपने मस्तिष्क में धारण रखते हैं।

११. बाल केंद्रित शिक्षा पर बल:

आज बाल केंद्रित शिक्षा पर अत्याधिक बल दिया जा रहा है। अतः शिक्षक के के लिए या आवश्यक है कि वह छात्रों को जो भी ज्ञान प्रदान करें, वह उनकी रूचि स्तर के अनुकूल होना चाहिए।

१२. मनोविज्ञान एवं बाल प्रकृति का ज्ञान:

अध्यापक को शिक्षण से संबंधित मनोविज्ञान की विभिन्न शाखाओं का ज्ञान होना भी नितांत आवश्यक है। मनोविज्ञान का ज्ञान होने पर ही अध्यापक अपने शिक्षण को सफल बना सकते हैं। इसके अतिरिक्त शिक्षक को बालक की प्रकृति का भी ज्ञान होना चाहिए।

C. विषय वस्तु से संबंधित कारक (factors related to content)

१. विषय वस्तु की प्रकृति
२. विषय वस्तु का आकार
३. विषय वस्तु के उद्देश्यपूर्णता
४. भाषा शैली
५. श्रव्य दृश्य सहायक सामग्री
६. रुचिकर विषय वस्तु

१. विषय वस्तु की प्रकृति(nature of subject matter)

विषय वस्तु की प्रकृति सीखने की प्रक्रिया को पूर्ण रूप से प्रभावित करती हैं। सीखे जाने वाले विषय वस्तु यदि सरल है। तो माध्यम श्रेणी का छात्र भी उसे सरलता से सीख सकता है। और यदि विषय वस्तु कठिन है तो छात्रों को सीखने में कठिनाई का अनुभव होता है इसलिए विषय वस्तु की प्रकृति जितनी सरल होगी सीखने की प्रवृत्ति उतनी ही अच्छी होगी।

२. विषय वस्तु का आकार

विषय वस्तु का आकार एवं उसकी मात्रा छात्रों की अधिगम प्रक्रिया को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। देखने में आया है कि छात्र पहले उन पाठ्य का अध्ययन करता है जो छोटे होते हैं तथा जिसका विषय वस्तु कम होता है। वह लंबे पाठों से बचना चाहते हैं और यही कारण है कि विद्यार्थी को ऐसे पाठों को पढ़ने के लिए विवश किया जाता है। अतः विषय वस्तु का आकार छोटा होना चाहिए ताकि वह किसी भी चीज़ को अच्छे तरीके से सीख ले।

३. विषय वस्तु के उद्देश्यपूर्णता

यदि विषय वस्तु उद्देश्यपूर्ण है तथा छात्रों की आवश्यकताओं की संतुष्टि करता है तो छात्र उसे सरलता से सीख लेते हैं। अतः विषय वस्तु छात्रों के उद्देश्य के अनुरूप बनाए जाने चाहिए।

४. भाषा शैली

सीखने में भाषा शैली का महत्वपूर्ण स्थान होता है। विभिन्न लेखकों के द्वारा सरल भाषाओं का उपयोग किया जाता है। बच्चे उस किताब को पढ़ने में ज्यादा मन लगाते हैं अतः किसी भी विषय वस्तु को तैयार करने के लिए सरल भाषा शैली का होना अति आवश्यक है।

५. श्रव्य दृश्य सहायक सामग्री

अधिगम को रोचक बनाने के लिए श्रव्य दृश्य सामग्री का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। कठिन से कठिन पाठ्यवस्तु को ही श्रव्य दृश्य सहायक सामग्री के द्वारा आसान बनाया जा सकता है। लेकिन इसका अर्थ या नहीं है कि जबरदस्ती सहायक सामग्री का प्रयोग पाठ्यवस्तु में किया जाए। इसका प्रयोग विषय वस्तु की प्रकृति पर निर्भर करता है। अतः विषय वस्तु से संबंधित एक कारक में श्रव्य दृश्य सामग्री का होना अति आवश्यक है।

६. रुचिकर विषय वस्तु

यदि पाठ्यपुस्तक रुचिकर है तो छात्र उसे खूब मन लगाकर पढ़ते हैं और यदि विषय वस्तु रुचिकर नहीं है तो छात्र सीखने में ध्यान नहीं देते हैं और शीघ्र ही उब जाते हैं या थक जाते हैं। इस दृष्टि से पाठ्यवस्तु का रुचिकर होना अत्यंत आवश्यक है। शिक्षण ही एक कला है। अतः अध्यापक को कक्षा शिक्षण करने से पूर्ण छात्रों को विषय के प्रति गहन रूचि उत्पन्न करनी चाहिए तथा अपनी सूझबूझ से विषय को रूचि बनाने के घातक प्रयास करना चाहिए।

D. वातावरण से संबंधित कारक (environmental factors)

१. विद्यालय की स्थिति
२. कक्षा का पर्यावरण
३. परिवारिक वातावरण
४. भौतिक वातावरण
५. सामाजिक वातावरण
६. विशेष सामग्री की प्रकृति
७. मनोवैज्ञानिक वातावरण

१. विद्यालय की स्थिति(school status)

बहुत से विद्यालय ऐसी जगह है जहां वाहनों का शोर ज्यादा मात्रा में होता है या कुछ विद्यालय ऐसी जगह पर होते हैं जहां पर निरंतर दुर्गंध आती है इन दोनों स्थितियों में बालक या विद्यार्थी का ध्यान कार्यों को सीखने में भंग होता है अतः विद्यालय का निर्माण उपयुक्त जगह होनी चाहिए।

२. कक्षा का पर्यावरण(classroom environment)

किसी विद्यालय में कक्षा का अनुशासन इतना अधिक होता है कि वहां कार्यों के अध्ययन के अतिरिक्त अन्य कोई बातें नहीं की जाती तो कहीं इतनी अधिक अनुशासनहिनता पाई जाती है कि वहां कार्यों के अलावा सभी बातों को स्थान दिया जाता है तो या दोनों ही स्थितियां सही नहीं होती हैं। इन दोनों स्थितियों में तालमेल बैठाए जाने पर अपेक्षित परिणाम की प्राप्ति होती है।

३. परिवारिक वातावरण(family environment)

कक्षा का वातावरण भी बालक के लिए आवश्यक नहीं होता अपितु परिवार का वातावरण ही अहम होता है जिन परिवारों का वातावरण उत्तम होता है उन परिवारों के बालक पढ़ाई में रुचि लेते हैं और कठिन पाठ को भी सरलता से सीख लेते हैं इसके विपरीत जिन परिवारों का वातावरण अच्छा नहीं होता उन परिवारों के बालकों की अधिगम के गति अत्यंत मंद होती हैं। अर्थात अगर किसी परिवार के सदस्यों के बीच लड़ाई झगड़े रहते हैं तो वहां पर पढ़ रहे बच्चों पर इसका सीधा प्रभाव पड़ता है अतः बालकों को इस वातावरण से बचाने के लिए परिवार में स्नेह पूर्ण वातावरण होना चाहिए।

४. भौतिक वातावरण(physical environment)

भौतिक वातावरण के अंतर्गत तापमान वातावरण प्रकाश वायु कोलाहल इत्यादि का प्रमुख स्थान है अतः कक्षा का भौतिक वातावरण उपयुक्त ना होने पर छात्रा भी थकान अनुभव करने लगेंगे और सीखने में भी उनकी अरुचि उत्पन्न होने लगेगी।

५. सामाजिक वातावरण(social environment)

छात्रों के अधिगम पर सामाजिक एवं सांस्कृतिक वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है सामान्यतः सांस्कृतिक वातावरण का आशय व्यक्ति द्वारा निर्मित या प्रभावित उन समस्त नियमों विचारों विश्वासो एवं भौतिक वस्तुओं को पूर्णतः से है जो उनके जीवन को चारों तरफ से गिरे हुए हैं संस्कृतिक वातावरण मानवीय होते हुए भी मानवीय का एवं सामाजिक विकास एवं बालक के अधिगम को सबसे अधिक प्रभावित करता है।

६. विशेष सामग्री की प्रकृति

बालकों को कोई भी कार्य सिखाने के लिए ऐसी विषय सामग्री प्रयुक्त करनी चाहिए जो वातावरण में सुगमता से प्राप्त हो जाए। ऐसे विषय सामग्री के साथ विद्यार्थियों को तालमेल या उसे समझने में सहायता मिलता है।

७. मनोवैज्ञानिक वातावरण(Psychological atmosphere)

अधिगम की प्रक्रिया पर मनोवैज्ञानिक वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है। यदि छात्रों में परस्पर सहयोग सद्भावना मधुर संबंध है तो अधिगम की प्रक्रिया सुचारू रूप से आगे बढ़ती हैं।

Principles of Learning

अधिगम (सीखने) के सिद्धांत – Theories (Principles) of Learning

अधिगम (सीखना) एक प्रक्रिया है। जब हम किसी कार्य को करना सीखते हैं, तो एक निश्चित क्रम से गुजरना होता है। विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने सीखना कैसे होता है, इस पर कुछ सिद्धांतों को निर्धारित किया है। अतः किसी भी उद्दीपक के प्रति क्रमबद्ध प्रतिक्रिया की खोज करना ही अधिगम सिद्धांत होता है।

  1. प्रयत्न और भूल का सिद्धान्त (Theory of Trial and Error)
    किसी कार्य को हम एकदम से नहीं सीख पाते हैं। सीखने की प्रक्रिया में हम प्रयत्न करते हैं और बाधाओं के कारण भूलें भी होती हैं। लगातार प्रयत्न करने से सीखने में प्रगति होती है और भूलें कम होती जाती हैं। अत: किसी क्रिया के प्रति बार-बार प्रयास करने से भूलों का ह्रास होता है, तो इसको प्रयत्न और भूल का सिद्धान्त कहते हैं, वुडवर्थ के अनुसार- “प्रयत्न और त्रुटि में किसी कार्य को करने के लिये अनेक प्रयत्न करने पड़ते हैं, जिनमें अधिकांश गलत होते हैं।“ एल. रेन (L. Rein) के अनुसार- “संयोजन सिद्धान्त वह सिद्धान्त है, जो यह मानता है कि प्रक्रियाएँ, परिस्थिति और प्रतिक्रिया में होने वाले मूल या अर्जित कार्य सम्मिलित हैं।”
  1. सम्बद्ध प्रतिक्रिया का सिद्धान्त (Conditioned Response Theory)
    साहचर्य के द्वारा सीखने में सम्बद्ध सहज क्रिया सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। जब हम अस्वाभाविक उद्दीपक के प्रति स्वाभाविक प्रतिचार करने लगते हैं, तो वहाँ पर सम्बद्ध प्रतिक्रिया के द्वारा सीखना उत्पन्न होता है। जब खाने को देखने पर कुत्ते के मुँह में लार आ जाती है या घण्टी बजने पर लार, आने लगे तो सम्बद्ध प्रतिक्रिया के द्वारा सीखना होता है। जैसा कि बरनार्ड ने लिखा है, “सम्बद्ध प्रतिक्रिया, उद्दीपक की पुनरावृत्ति द्वारा व्यवहार का स्वचालन है, जिसमें उद्दीपक पहले किसी प्रतिक्रिया के साथ होती है, किन्तु अन्त में वह स्वयं ही उद्दीपक बन जाती है।”
  1. ऑपरेन्ट कन्डीशनिंग या स्किनर का क्रिया प्रसूत अनुबन्धन (Skinner’s Operant Conditioning)
    उत्तेजक प्रतिक्रिया अधिगम सिद्धान्तों की कोटि में बी. एफ. स्किनर ने सन् 1938 में क्रिया प्रसूत अधिगम प्रतिक्रिया को विशेष आधार देकर महान योगदान दिया। स्किनर ने इस प्रक्रिया को प्रमाणित करने के लिये मंजूषा का निर्माण किया, जिसे स्किनर बॉक्स या स्किनर मंजूषा के नाम से जाना जाता है।
  1. अन्तर्दृष्टि या सूझ का सिद्धान्त (Theory of Insight)
    सीखने का सूझ का सिद्धान्त गैस्टाल्टवादियों की देन है। वे लोग समग्र में विश्वास करते हैं, अंश में नहीं। जैसा कॉलसनिक ने लिखा है- “अधिगम व्यक्ति के वातावरण के प्रति सूझ तथा आविष्कार के सम्बन्ध को स्पष्ट करने वाली प्रक्रिया है।“ प्रस्तुत सिद्धान्त के प्रणेता कोहलर और बर्दीमर थे। ये सीखने को सामग्री की सार्थकता और परिणाम पर आधारित मानते हैं। अपने सूझ को बुद्धि का परिणाम मानकर कार्य किया है।
  1. अनुकरण का सिद्धान्त (Theory of Imitation)
    अनुकरण एक सामान्य प्रवृत्ति है, जिसका प्रयोग मानव दैनिक जीवन की समस्याओं के सुलझाने में करता है। अनुकरण में हम दूसरों को क्रिया करते हुए देखते हैं और वैसा ही करना सीख लेते हैं। मनोवैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि अनुकरण के द्वारा भी सीखा जा सकता है। अनुकरण का सिद्धांतत मानव में अधिक सफल हुआ है। मैक्डूगल के अनुसार- “एक व्यक्ति द्वारा दूसरों की क्रियाओं या शारीरिक गतिविधियों की नकल करने की प्रक्रिया को अनुकरण कहते हैं।”

National Curriculum Framework

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा

2005  National Curriculum Framework (NCF-2005)

  • बालकों को क्या और कैसे पढ़ाया जाए राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 इन्हीं विषयों पर ध्यान केन्द्रित कराने हेतु एक अति महत्वपूर्ण दस्तावेज है।
  • राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 (NCF-2005) का उद्धरण रवीन्द्रनाथ टैगोरे के निबंध ‘‘सभ्यता और प्रगति‘‘ से हुआ है। जिसमें उन्होंने बताया हैकि सृजनात्मकता और उदार आनंद बचपन की कुंजी है।

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या के दस्तावेज ने पाठ्यचर्या के निर्माण के लिए पॉच निर्देशक सिद्धान्तों का प्रस्ताव रखा है।

  • ज्ञान को स्कूल के बाहर के जीवन से जोड़ना।
  • पढ़ाई रटंत प्रणाली से मुक्त हो यह सुनिश्चित करना।
  • पाठ्यचर्या का इस तरह संवर्द्धन कि वह बच्चों के चहुंमुखी विकास के अवसर मुहैया करवाए, बजाय इसके कि पाठ्य पुस्तक केन्द्रित बन कर रह जाए।
  • परीक्षा को अपेक्षकृत अधिक लचीला बनाना और कक्षा की गतिविधियों से जोड़ना।
  • एक ऐसी अधिभावी पहचान का विकास जिमें प्रजातांत्रिक राज्य व्यवस्था के अंतर्गत राष्ट्रीय चिंताएं समाहित हों।

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा को 5 भागों में बॉटकर वर्णित किया गया है

  1. परिप्रेक्ष्य
  2. सीखना और ज्ञान
  3. पाठ्यचर्या के क्षेत्र, स्कूल की अवस्थाएं और आंकलन
  4. विद्यालय तथा कक्षा का वातावरण
  5. व्यवस्थागत सुधार

परिप्रेक्ष्य-( Perspective)

  • शिक्षा बिना बोझ के सूझ आधार पर पाठ्यचर्या का बोझ कम करना।
  • पढाई को रंटत प्रणाली से मुक्त रखते हुए स्कूली ज्ञान को बाहरी जीवन से जोड़ा जाना।
  • पाठ्यक्रम का इस प्रकार संवर्द्धन किया जाना जिससे बच्चों का चहुमुंखी विकास हो।
  • ऐसे नागरिक का निर्माण करना, जौ लैंगिक न्याय, मूल्यों, लोकतांत्रिक व्यवहारों, अनुसूचित-जनजातियों, और विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के प्रति संवेदनशील हों।
  • ऐसे नागरिक वर्ग का निर्माण करना जिनमें राजनीतिक एवं आर्थिक प्रक्रियाओं में भाग लेने की क्षमता हो।

सीखना और ज्ञान-(Learning and Knowledge)

  • समाज में मिलने वाली अनौपचारिक शिक्षा, विद्यार्थीं में अपना ज्ञान सृजित करने की स्वाभाविक क्षमता को विकसित करती है।
  • बाल केन्द्रित शिक्षा का अर्थ है बच्चों के अनुभवों और उनकी सक्रिय सहभागिता को प्राथमिकता देना।
  • संज्ञान का अर्थ है कर्म है कर्म व भाषा के माध्यम से स्वंय और दुनिया को समझना।
  • विवेचनात्मक शिक्षाशास्त्र, विभिन्न मुद्दों पर उनके राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, तथा नैतिक पहुओं के संदर्भ में आलोचनात्मक चिंतन का अवसर प्रदान करना।
  • अवलोकन, अन्वेषण, विश्लेषणात्मक विमर्श तथा ज्ञान की विषय-वस्तु विद्यार्थियों की सहभागिता के प्रमुख क्षेत्र।

पाठ्यचर्या के क्षेत्र, स्कूल की अवस्थाएं और आंकलन-(Scope of curriculum, stages of school and assessment)

  • बहुभाषिता एक ऐसा संसाधन है जिसकी तुलना सामाजिक तथा राष्ट्रीय स्तर पर किसी अन्य राष्ट्रीय संसाधन से की जा सकती है।
  • प्रत्यक्षीकरण तथा तिरूपण जैसे कौशलों के विकास मे गणित बहुत सहायक सिद्ध हुई है।
  • सामाजिक विज्ञान शिक्षण अंतर्गत् एक ऐसी पाठ्यचर्या का होना आवश्यक है, जो शिक्षार्थियों में समाज के प्रति आलोचनात्मक समझ का विकास कर सके।
  • आकलन का मुख्य प्रयोजन सीखने सिखाने की  प्रक्रियाओं एवं सामग्री में सुधार लाना तथा उन लक्ष्यों पर पुनर्विचार करना है जो स्कूल के विभिन्न चरणें के लिए तैयार किए जाते हैं।
  • पूर्व प्राथमिक स्तर पर आकलन बच्चों की दैनिक गतिविधियों, स्वास्थ्य और शारीरिक विकास पर आधारित होना चाहिए।

विद्यालय तथा कक्षा का वातावरण-(Environment of school and class)

  • चेतन और अचेतन दोनों रूप से बच्चे हमेसा विद्यालय के भौतिक वातावरण से निरंतर अन्तःक्रिया करते रहते हैं।
  • कक्षा का आकार शिक्षण अधिगम क्रिया को प्रभावित करने वाला एक महत्वपूर्ण कारक है। किसी भी अवस्था में शिक्षक तथा शिक्षार्थियों का अनुपाता 1ः30 से अधिक नहीं होना चाहिए।
  • अनुशासन ऐसा होना चाहिए जो कार्य सम्पन्न होने में मदद करे साथ ही बच्चों की सक्षमता को बढ़ाए।

व्यवस्थागत सुधार-(Organised amendment)

  • बच्चों की शिक्षा व्यवस्था में विकासात्मक मानकों का प्रयोग किया जाना चाहिए, जो अभिप्रेरणा तथा क्षमता की समग्र वृद्धि की पूर्व मान्यता पर आधारित हो।
  • पाठ्यचर्या को इस प्रकार निर्मित करना  चाहिए जिसमें शिक्षक शिक्षार्थियों को खेलते तथा काम करे हुए प्रत्यक्ष रूप से अवलोकित कर सके।
  • काम केन्द्रित शिक्षा का अर्थ है बच्चों में उनके परिवेश, प्राकृतिक संसाधनों, तथा जीविका से संबंधित ज्ञान आधारों, सामाजिक अर्न्दृष्टियों तथा कौशलोें को विद्यालयी व्यवस्थामें उनकी गरिमा और मजबूती के स्त्रोतों में बदलना।

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या संरचना 2005 के उद्देश्य

NCF 2005 के उद्देश्यों का निर्धारण समाज की आवश्यकताओ के अनुरूप हुआ। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या संरचना 2005 National Curriculum Framework 2005 को देश की स्थिति के अनुरूप बनाए जाने एवं वर्तमान शिक्षा प्रणाली को देखते हुए इसके उद्देश्यों के निर्धारण इस प्रकार किया गया-

1. राष्ट्रीय एकता – NCF 2005 में राष्ट्रीय एकता, संप्रभुता, अखंडता को एक नया रूप प्रदान किया गया एवं राष्ट में व्याप्त भाषायी भिन्नता, धार्मिक भिन्नता जैसे मुख्य पहलुओं को ध्यान में रखते हुए इसका निर्माण किया गया। जिससे देश के सभी स्तर के छात्रों का विकास किया जा सकें।

2. शिक्षण विधियां – शिक्षण कार्य मे उपयोग लायी जा रहीं शिक्षण विधियां वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार नही थीं। NCF 2005 की संरचना के अनुसार नयी शिक्षण विधियां अपनायी जाने की जरूरत थी। जैसे- छोटे बालकों को खेल-खेल से शिक्षा प्रदान करने के लिए खेल विधि का प्रयोग पर बल देना।

3. सामाजिक महत्व – NCF 2005 के निर्माण सामाजिक महत्व को ध्यान में रखते हुए किया गया था। समाज की जरूरतों एवं आवश्यकताओं को देखते हुए राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना 2005 का ढांचा तैयार किया गया।

4. मानसिक और बौद्धिक विकास – छात्रों का बौद्धिक विकास करना इसका प्रमुख उद्देश्य था। छात्रो को भविष्य में आने वाली समस्याओं हेतु तैयार करना और उनके मानसिक स्तर को इतना मजबूत बनाना की वह हर परिस्थिति में सामान्य रहना सिख सकें।

5. शारीरिक विकास – छात्रों के शारीरिक विकास हेतु इसकी शिक्षण विधियों में भी उपयुक्त परिवर्तन किए गए थे। सह पाठ्यक्रम गतिविधियों में खेल को प्रमुखता प्रदान की गई जिससे बालकों के शारीरिक विकास किया जा सकें।

6. शिक्षण उद्देश्य – NCF 2005 की संरचना के अनुसार नवीन शिक्षण उद्देश्यों को शिक्षा में सम्मिलित किया गया। शिक्षण उद्देश्यों का चयन समाज की वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार किया जाना जरूरी था।

7. रुचि महत्ता – छात्रों की रुचि के अनुसार पाठ्यक्रम का निर्माण करना इसका प्रमुख उद्देश्य था। पाठ्यक्रम को छात्र केंद्रित बनाना और शिक्षा का क्रियान्वयन छात्रों की रुचि एवं उनके स्तर के अनुरूप करना ही इसका लक्ष्य एवं उद्देश्य था।

8. सर्वांगीण विकास – पाठ्यक्रम संरचना 2005 छात्रों के सर्वांगीण विकास (ज्ञानात्मक, बोधात्मक, क्रियात्मक) हेतु तैयार की गई थी। जिससे छात्रों का हर स्तर पर विकास हो सकें। शिक्षा के महत्वपूर्ण उद्देश्य के आधार पर इसको NCF 2005 के उद्देश्यों में सम्मिलित किया गया था।

9. संस्कृति का विकास – भारतीय संस्कृति का विकास करना और संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना इसका उद्देश्य था। जिससे छात्रों के नैतिक-मूल्यों का विकास किया जा सकें।

10. नैतिक मूल्यों का विकास – छात्रों में भारतीय सभ्यता एवं लोकतांत्रिक नैतिक मूल्यों का विकास करना जरूरी था। जिससे छात्र राष्ट की स्थिति से भली-भांति परिचित हो सकें।

Principles of NCF 2005

NCF 2005 में 8 सिद्धान्तों को अपनाया गया था। जिसके मार्ग पर चलकर राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना 2005 का निर्माण किया गया –

● मानवता सिद्धान्त – छात्रों में मानवीय गुणों के विकास हेतु एवं नागरिकों में सहयोग की भावना के विकास के लिए यह जरूरी था कि उनमें मानवता के गुणों का विकास किया जाए। इसलिए इसकी संरचना के निर्माण में इस सिद्धान्त का निर्वहन किया गया।

● बहुसंस्कृति सिद्धान्त – भारत देश में हर प्रकार के धर्म के लोग रहते हैं और सभी की अपनी एक संस्कृति हैं और विभिन्नता में एकता के स्वरूप को लेकर सभी धर्म के लोग एक दूसरे की संस्कृति का सम्मान करते हैं और इसी संस्कृति के प्रचार-प्रसार हेतु भारतीय संस्कृति को इसमें सम्मिलित किया गया।

● सामाजिक सिद्धान्त – सामाजिक मूल्यों एवं सामाजिक आवश्यकताओं को देखते हुए यह जरूरी था कि NCF 2005 (National Curriculum Framework 2005) का निर्माण सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार किया जाए। जिससे शिक्षा के वास्तिविक उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सकें।

● एकता सिद्धान्त – भारत देश की एकता, अखंडता एवं संप्रभुता को ध्यान में रखते हुए। इसका निर्माण किया जाना तय था। धर्मनिरपेक्षता के पालन एवं मौलिक अधिकारों की समानता के दृष्टिकोण को देखते हुए छह आवश्यक था कि इसके निर्माण के समय एकता सिद्धान्त का पालन हो।

● समायोजन सिद्धान्त – छात्रों में समाज के साथ समायोजन (परिस्थिति के अनुसार व्यवहार में परिवर्तन) करने की कला के विकास के लिए जरूरी हैं कि शिक्षण के द्वारा उनमें समायोजन के कौशल का विकास किया जाए। इसके लिए NCF 2005 में इस सिद्धांत को सम्मिलित किया गया।

● उपयोगिता सिद्धान्त – इस सिद्धान्त का अनुसरण करते हुए राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना 2005 का निर्माण वास्तविक परिस्थितयों के अनुसार किया गया। पाठ्यक्रम को छात्रों के वास्तविक जीवन से सम्बंध करके इसका निर्माण किया जाना उचित था। जिससे वह जीविकोपार्जन हेतु तैयार हो सकें।

● रुचि सिद्धान्त – पाठ्यक्रम को छात्रों की रुचि के अनुसार तैयार करना (NCF) का प्रमुख कार्य था। पाठ्यक्रम को छात्र केंद्रित बनाना ही इसका लक्ष्य था।

● नैतिकता सिद्धान्त – छात्रों में नैतिक मूल्यों एवं नैतिक भावनाओं का विकास करना और छात्रों में राष्ट व समाज के नैतिक मूल्यों का विकास करना इसका प्रमुख कार्य था। इसलिये इस सिद्धान्त को अपनाया जाना अनिवार्य था।

राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना 2005 (NCF 2005) की आवश्यकता

शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में पाठ्यक्रम के महत्व को स्वीकार करते हुए हम राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना 2005 National Curriculum Framework 2005 की आवश्यकताओं को निम्न आधार पर देख सकते हैं –

1. नवीन पाठ्यक्रम – इसके द्वारा शिक्षा जगत में नवीन विचारों को पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया गया। आधुनिक युग के तकनीकी विकास को देखते हुए छात्रों को उसके लिए तैयार करने के लिए यह आवश्यक था कि नवीन विचारों का समावेश पाठ्यक्रम में किया जाए।

2. भाषायी आधार – भारतीय शिक्षा प्रणाली में भाषायी समस्या के समाधान हेतु भाषायी समस्याओं का निवारण करने के लिए।

3. रुचि – भावी पीढ़ी की बदलती रुचियों एवं शिक्षा को प्रभावशाली बनाने हेतु यह जरूरी था कि पाठ्यक्रम की नवीन संरचना तैयार की जाए। जिसमें छात्रों की रुचियों की तरफ विशेष ध्यान केंद्रित किया जाए।

4. नैतिक एवं मानवीय मूल्य – छात्रों में नैतिक एवं मानवीय मूल्यों के विकास हेतु नवीन पाठ्यक्रम की आवश्यकताओं को स्वीकार किया गया। जिसके माध्यम से उनके उत्तम व्यक्तित्व का निर्माण किया जा सकें।

5. पाठ्यक्रम विकास – पाठ्यक्रम के विकास हेतु एक नवीन पाठ्यक्रम की आवश्यकता को महसूस किया गया क्योंकि उस समय की पाठ्यक्रम नीति वर्तमान स्तिथि के अनुरूप नही थीं। पाठ्यक्रम को नवीन उद्देश्यों की प्राप्ति करने के अनुरूप बनाने के लिए यह आवश्यक था कि उसमें उचित परिवर्तन लाये जाए। जो कार्य राष्टीय पाठ्यक्रम संरचना 2005 द्वारा पूर्ण किया गया।

6. शैक्षिक उद्देश्य – शिक्षा के उद्देश्य सदैव परिवर्तनशील होते हैं। समाज की आवश्यकता में निरंतर बदलाव आते रहता हैं। जिस कारण शैक्षिक उद्देश्यों में भी बदलाव होते रहता हैं और इन उद्देश्यो की प्राप्ति हेतु नवीन पाठ्यक्रम की संरचना वर्तमान शैक्षिक उद्देश्यों के अनुरूप बनाना अति आवश्यक था।

Teaching Skills Notes

शिक्षण कौशल(Teaching Skills)

शिक्षण कौशल क्या है ?

शिक्षण कौशल – प्रत्यक्ष रूप से अध्यापक अधिगम को सरल एवं सहज बनाने के उद्देश्य से किये जाने वाले शिक्षण कार्यों का व्यवहारों का समूह शिक्षण कौशल या अध्यापन कौशल कहलाता है।

शिक्षण एक विज्ञान है। इस आधार पर प्रशिक्षण द्वारा अच्छे शिक्षक तैयार किये जा सकते हैं। उनमें शिक्षण के लिए आवश्यक कौशलों को विकसित किया जा सकता है। इन्हीं कौशलों का उपयोग कर कक्षा में प्रभावी शिक्षण कर अच्छे शिक्षक बन सकते है। अतः शिक्षक प्रशिक्षण में इन कौशलों का विकास महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।

शिक्षण कौशल की परिभाषाएं (Teaching Skills Definition)

डॉक्टर बी के पासी के अनुसार- “शिक्षण कौशल, छात्रों के सीखने के लिए सुगमता प्रदान करने के विचार से संपन्न की गई संबंधित शिक्षण क्रियाओं या व्यवहारिक का समूह है।”

मेकइंटेयर एवं व्हाइट के अनुसार- “शिक्षण कौशल, शिक्षण व्यवहार से संबंधित वह स्वरूप है ,जो कक्षा की अंतः प्रक्रिया द्वारा उन विशिष्ट परिस्थितियों को जन्म देता है। जो शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक होती है और सीखने में सुगमता प्रदान करती है।”

डॉ कुलश्रेष्ठ के अनुसार- ” शिक्षण कौशल शिक्षक की हाथ में वह शस्त्र है। जिसका प्रयोग करके शिक्षक अपनी कक्षा शिक्षण को प्रभावी तथा सक्रिय बनाता है एवं कक्षा की अंतर प्रक्रिया में सुधार लाने का प्रयास करता है।”

भारत देश में अध्यापन-कुशलताओं पर कार्य 1972 में आरंभ हुआ और कुछ प्रशिक्षण-महाविद्यालयों ने इस पर अनुसंधान और प्रयोग किए। 1975 तक यहाँ के अनुकूल कुछ कुशलताओं की सूची तैयार की गई।
वह इस प्रकार हैं –

⇒ अध्यापन के उद्देश्य लिखने की कुशलता।
⇔ किसी पाठ की प्रस्तावना करने की कुशलता।
⇒ प्रश्नों में प्रवाह लाने की कुशलता।
⇔ उत्खन्न करने की कुशलता या खोजी प्रश्न करने की कुशलता।
⇒ व्याख्या करने की कुशलता या उदाहरणों द्वारा समझाने की कुशलता।
⇔ उद्दीपनों में विविधता लाने की कुशलता।
⇒ मौन सम्प्रेषण की कुशलता।
⇔ पुनर्बलन की कुशलता।
⇒ छात्रों का प्रतिभागित्व बढ़ाने की कुशलता।
⇔ श्यामपट्ट के उपयोग की कुशलता।
⇒ पाठ के समापन की कुशलता।

शिक्षण कौशल के प्रकार (Types of teaching skills)

प्रमुख शिक्षण कौशल –

  • प्रस्तावना कौशल
  • प्रश्न सहजता कौशल
  • खोजपूर्ण प्रश्न कौशल
  • प्रदर्शन कौशल
  • व्याख्या कौशल
  • प्रबलन कौशल
  • श्यामपट्ट कौशल।

1. प्रस्तावना कौशल

प्रस्तावना कौशल का सम्बन्ध पाठ को प्रारम्भ करने से पूर्व किया जाता है।
इस कौशल से सम्बन्धित सूक्ष्म पाठ तैयार करने के लिये हमें पूर्वज्ञान, सम्बन्ध-शृंखलाबद्धता सहायक सामग्री का ध्यान रखना चाहिए।
प्रस्तावना कौशल में प्रस्तावना अधिक लम्बी या अधिक छोटी नहीं होनी चाहिए। इस कौशल में 5 से 7 मिनट का समय लगता है। प्रस्तावना से बालक पाठ के अध्ययन में रुचि लेगा।
इस कौशल में अध्यापक छात्रों से प्रश्न, कहानी कह कर या किसी का उदाहरण देकर या निदर्शेन से या पाठ का सार या मन्तव्य बताकर इसमें से किसी भी तकनीक या कथन का सहारा ले सकता है।
इसके लिए तीन प्रकार के प्रश्नों का उपयोग भी करता है –

1. प्रत्यास्मरण प्रश्न – ऐसे प्रश्न जिनका जवाब बालक पूर्व ज्ञान पर आधारित एवं आसानी से दे सकें।
2. निबंधात्मक प्रश्न – शिक्षक ही पूछता है एवं स्वयं ही जवाब देता है।
3. आज्ञापालन प्रश्न – जिनका जवाब ’हाँ’ या ’ना’ में दे सके।

2. प्रश्न सहजता कौशल

कक्षा-शिक्षण में प्रश्न पूछने की प्रक्रिया का बङा महत्व है प्रश्न के माध्यम से अध्यापक बालक को अधिक चिन्तनशील बनाता है तथा विद्यार्थियों के ज्ञान, बोध, रुचि, अभिवृत्ति आदि का पता लगाता रहता है। सहज प्रश्न कौशल से अभिप्राय है – प्रश्न एवं शिक्षक की भाषा सहज हो।
शिक्षण प्रक्रिया के आधार पर तीन प्रकार के प्रश्न होते हैं –
(।) प्रस्तावना प्रश्न, (।। ) शिक्षणात्मक प्रश्न (।।। ) परीक्षणात्मक प्रश्न।

अध्यापक को प्रश्न पूछते समय धैर्य तथा सहानूभूतिपूर्ण व्यवहार रखना चाहिए।
विषय-वस्तु व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध प्रश्न बालकों से पूछना चाहिए। इसमें गति और विराम का भी ध्यान रखना चाहिए।

इसमें उचित संख्या में प्रश्न होने चाहिए। अध्यापक को सरल एवं स्पष्ट तथा संक्षिप्त प्रश्न पूछना चाहिए।

3. खोजपूर्ण प्रश्न कौशल

शिक्षक अपने विद्यार्थियों से विषय-वस्तु के गहन अध्ययन एवं गहराई तक पहुँचने के लिए विद्यार्थियों से खोजपूर्ण प्रश्न पूछता है।
यह एक ऐसा कौशल है जो विद्यार्थियों की नई खोज, नवीन जानकारी कल्पना करने आदि के लिए प्रेरित करता है।
खोजपूर्ण प्रश्न पूछने से विद्यार्थियों के ज्ञान को काम में लिया जा सकता है।

शिक्षक द्वारा पूछे गये प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थता प्रकट करे तो शिक्षक को विषय-वस्तु से सम्बन्धित आलोचनात्मक सजगता के लिए खोजपूर्ण प्रश्न पूछता है।

ध्यान रखने योग्य –

  • छात्रों का ध्यान केन्द्रित करने वाले प्रश्न होना।
  • आगे की सूचना खोजने वाला प्रश्न होगा।
  • अर्थ संकेतकता होना – इसमें छात्र को किस दशा में उत्तर की खोज करनी है।
  • बातों को अन्य की ओर मोङना
  • गलत उत्तर देने पर प्रश्नों के माध्यम से धीरे-धीरे सही उत्तरों की ओर ले जाना।

4. प्रदर्शन कौशल

शिक्षण की सम्पूर्ण प्रक्रिया केवल मौखिक रूप से नहीं चल सकती इसीलिए इस कौशल में किसी विषय-वस्तु को स्पष्ट करने के लिए तथा रोचक बनाने के उद्देश्य से सहायक सामग्री जैसे चित्र, आर्ट आदि से प्रदर्शन किया जाता है।
किसी पदार्थ या उत्पादन के बारे में एक सार्वजनिक प्रदर्शन और उसके मुख्य-मुख्य गुणों, उपयोगिता, कार्य-कुशलता आदि पर जोर देना ही प्रदर्शन है। प्रदर्शन कौशल से पूर्व अध्यापक को प्रशिक्षण की आवश्यकता रहती है।

ध्यान रखने योग्य –

  • बालकों की सहभागिता
  • विषय-वस्तु से सम्बद्धता
  • प्रदर्शन का स्पष्ट उद्देश्य
  • प्रदर्शन की उपयुक्त गति, रोचकता।
  •  छात्रों के स्तर के अनुकूल
  • ध्यान के क्रम, प्रदर्शन, योजनाबद्ध एवं पूर्व अभ्यास किया हुआ हो।

5. व्याख्या कौशल

उच्च कक्षाओं में से गद्य, पद्य कविता आदि का भाव प्रकट करने, अर्थ बताने या अपने विचारों और सिद्धातों को शाब्दिक रूप में पहुँचाना ही व्याख्या कौशल कहलाती है –
थाॅमस एम. रिस्क – ने अपनी पुस्तक ’’Principle and Practices of Teaching in Secondary School’’ ने कहा है कि –
व्याख्यान उन तथ्यों, सिद्धान्तों या अन्य सम्बन्धों का स्पष्टीकरण है, जिनको शिक्षक चाहता है कि उसके सुनने वाले समझे।
व्याख्या – वर्णनात्मक, व्याख्यात्मक, तर्कात्मक
सहायक सामग्री से भी चार्ट, चित्र, टेप रिकाॅर्डर आदि के प्रयोग से या माध्यम से भी व्याख्या की जाती है।

ध्यान रखने योग्य –

  • व्याख्यान की भाषा सरल होनी चाहिए।
  • पाठ की गति प्रारम्भ में मंद फिर सतत् हो।
  •  दृश्य-श्रव्य सामग्री का प्रयोग होना चाहिए।
  •  आवाज का स्पष्ट होना आवश्यक है।
  • निष्कर्षात्मक कथन आवश्यक है।
  • छात्र से जाँच प्रश्न पूछे जाने चाहिए।
  •  उपयुक्त मुहावरों, शब्दों एवं उदाहरणों का प्रयोग
  • कथनों की तारत्मयता, कथन में सहजता होनी चाहिए।

6. प्रबलन कौशल

इसे प्रतिपुष्टि या सुदृढ़ीकरण कौशल भी कहते हैं। प्रबलन का पुनःबल देना है।
सकारात्मक शब्दों, व्यवहार एवं माध्यम से अधिगम की प्रक्रिया से जोङना व रुचि उत्पन्न करने का कार्य करना है। इससे सीखने की प्रक्रिया में गति आती है।

सकारात्मक पुनर्बलन – वह घटना जो किसी उद्दीपन को वैसी ही परिस्थितियों में पैदा करने पर दोबारा अनुक्रिया की सम्भावना बढ़ती है।

नकारात्मक पुनर्बलन – यदि घटना के समाप्त होने पर अनुक्रिया के नहीं होने की सम्भावना बढ़ती है तो इसे नकारात्मक पुनर्बलन कहते हैं।

शाब्दिक सकारात्मक – बालक के सही एवं संतोषजनक उत्तर देने पर अध्यापक द्वारा उसी समय प्रोत्साहन एवं उत्साहवर्द्धक शब्दों का प्रयोग करता है। जैसे- अच्छा, बहुत अच्छा, शाबाश, उत्तम इन सभी क्रियाओं को शाब्दिक सकारात्मक प्रबलन कहते हैं।

सांकेतिक सकारात्मक प्रबलन – शिक्षक छात्र को प्रोत्साहित करने के लिये अशाब्दिक संकेतों का प्रयोग करता है। जैसे- सिर हिलाना, मुस्कुराना, बालक की पीठ थपथपाना आदि।

शाब्दिक नकारात्मक प्रबलन -बालकों के अशुद्ध या असन्तोषजनक उत्तर या कार्य के लिए शिक्षक द्वारा नकारात्मक शब्दों का प्रयोग किया जाता है। जैसे – गलत, ठीक नहीं, रुको, ऐसे नहीं, गोबर गणेश, मूर्ख, बेवकूफ, पागल कहीं का आदि। लेकिन इनके प्रयोग से विद्यार्थियों को यह लगेगा कि अध्यापक कक्षा में उनकी आलोचना कर रहा है अतः इस प्रकार के प्रबलन नहीं देना चाहिए।

सांकेतिक नकारात्मक – बालक के गलत या असंतोषजनक कार्य पर शिक्षक सांकेतिक नकारात्मक पुनर्बलन का प्रयोग करता है, जैस – गुस्से से देखना, आंखें दिखाना आदि।

7. श्यामपट्ट कौशल

शिक्षण प्रक्रिया में श्यामपट्ट का विशेष महत्व है। कक्षा में श्यामपट्ट अध्यापक का मित्र होता है।
शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को सही, प्रभावपूर्ण एवं समुन्नत बनाने के लिये अध्यापक अनेक प्रकार से स्वकौशल का प्रदर्शन श्यामपट्ट के माध्यम से करता है। उदाहरण के लिये कार्टून, चित्र ग्राफ, समय-सारणी आदि का श्यामपट्ट के माध्यम से विद्यार्थियों को अवगत कराना। एक कुशल शिक्षक बिन्दु का नाम लिखना नहीं भूलता तथा प्रमुख बिन्दुओं को भी अंकित करता है।

घटक –

  • स्पष्ट लेखन, स्वच्छ एवं सुन्दर लेखन होना चाहिए।
  • अक्षरों का आकार और लिखने का क्रम सही होना चाहिए।
  • मुख्य बिन्दुओं को रेखांकित करना।
  • शब्दों के बीच में उचित अंतराल होना।
  • श्यामपट्ट का उचित प्रयोग आवश्यक है।
  • चमकदार स्याही से लिखना चाहिए।
  • श्याम के सामने खङा नहीं होना चाहिए।
  • कक्षा की समाप्ति पर श्यामपट्ट को स्वच्छ करना चाहिए।

शिक्षण कौशल से संबंधित महत्वपूर्ण प्रश्न उत्तर (Important questions related to teaching skills)

  • सूक्ष्म- शिक्षण का विकास किसने किया।  – डी.डब्लू.एलेन
  • डॉ.वी.के. पासी ने अपने अध्ययन के आधार पर कितने शिक्षण कौशल की सूची तैयार की थी।– 13
  • शिक्षण कौशल के विकास एवं सुधार की प्रविधि किसे कहा जाता है। –  सूक्ष्म शिक्षण
  • चित्र तथा पोस्टर कौन से साधन/ सामग्री है। –  दृश्य
  • अभिक्रमित अनुदेशन का विकास किसने किया था। –  बी. एफ. स्किनर ने
  • रेखीय विक्रम का प्रतिपादक किसे माना जाता है। –  बी.एफ स्किनर को
  • रेखीय अभिक्रमित अन्य किस नाम से जाना जाता है।  -बाहय अभिक्रम
  • चलचित्र कैसा साधन है। –  दृश्य- श्रव्य
  • ” एजुकेशन टेक्नोलॉजी” शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम किसने किया था। –  ब्रायनमोर जोंस(1967)
  • शैक्षिक तकनीकी  केंद्र किसने प्रारंभ किया था ।–  NCERT नई दिल्ली
  • आधारभूत शिक्षण प्रतिमान किसके द्वारा दिया गया था। –  रॉबर्ट  ग्लेजर
  • शिक्षण मशीन का निर्माण किसके द्वारा किया गया। –  सिडनी एल  प्रेसी(अमेरिका में 1926)
  • “Technology”शब्द की उत्पत्ति किस किस भाषा से हुई है। – Technikos(कला)
  • शिक्षण प्रतिमान के कितने तत्व होते हैं। –  4(उद्देश्य, संरचना, सामाजिक प्रणाली,मूल्यांकन)
  • साखी अभिक्रम का विकास किसके द्वारा किया गया। -नार्मन ए. क्राउडर
  • एलेन  एवं रेयान  ने सूक्ष्म शिक्षण के कितने कौशल बताए हैं। – 14
  • अभिक्रमित अनुदेशन कितने प्रकार के होते हैं। –  3(रेखीय, शाखीय,मैथेटिक्स)
  • OHP  का पूरा नाम है।-Over Head Projector  (ओवरहेड प्रोजेक्टर)
  • सूक्ष्म शिक्षण में एक समय में कितने शिक्षण कौशल का विकास किया जाता है। – एक
  • भारत में दूरदर्शन सेवा का औपचारिक रूप से उद्घाटन कब हुआ। –  15 सितंबर 1959 ई
  • टेलीकॉन्फ्रेसिंग कितने प्रकार की होती है। –  3( टेलीकॉन्फ्रेसिंग, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, कंप्यूटर कॉन्फ्रेंसिंग)
  • श्रव्य दृश्य सामग्री के उपागम के अंतर्गत आती है। –  हार्डवेयर
  • कठोर शिल्प उपागम का संबंध अनुदेशन के किस पक्ष से होता है। – ज्ञानात्मक
  • खोजपूर्ण प्रश्न पूछने से छात्रों में किस का विकास होता है। –  ज्ञानात्मक
  • किस शिक्षण कौशल के अंतर्गत शिक्षक द्वारा हावभाव एवं अपनी स्थिति को बदला जाता है। -उद्दीपन भिन्नता
  • बोध स्तर के शिक्षण प्रतिमान का प्रतिपादन किसके द्वारा किया गया।  –  बी एस ब्लूम
  • एजर डेल के अनुसार किस प्रकार का अनुभव सबसे स्थाई होता है। –  प्रत्यक्ष अवलोकन
  • शिक्षक की योग्यता एवं आचरण का मूल्यांकन सबसे भली प्रकार कौन करता है। –  छात्र/ शिष्य
  • शिक्षण की समस्याओं को हल करने का दायित्व किस का होता है। –  शिक्षक का
  • विद्यालय परिसर के बाहर एक शिक्षक को अपने छात्र से किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए। –  मैत्रीपूर्ण
  • निगमनात्मक शिक्षण प्रविधि किसके अंतर्गत आती है। –  सामान्य से विशिष्ट की ओर
  • अध्यापक के लिए सबसे मूल्यवान वस्तु क्या होती है। –  छात्रों का विश्वास
  • ग्रामीण क्षेत्र के बच्चों के स्कूल से भागने तथा पढ़ाई छोड़ने का क्या कारण होता है। –  नीरज वातावरण
  • भारत में शिक्षित बेरोजगारी का प्रमुख कारण होता है। –  उद्देश्यहीन शिक्षा
  • किस प्रकार का कक्षा नेतृत्व सबसे उत्तम माना गया है। –  लोकतांत्रिक
  • किसी भी विषय वस्तु को छात्रों को सरलता से सिखाने के लिए आवश्यक गुण अध्यापक के लिए कौन सा है। –  प्रभावी अभिव्यक्ति
  • वर्तमान समय में प्राइमरी शिक्षा की दुर्दशा का मुख्य कारण बतलाइए। –  शिक्षक- छात्र विषम अनुपात
  • छोटे बच्चों की शिक्षा देना जरूरी है, लेकिन बच्चों पर कौन सा बोझ नहीं डालना चाहिए। –  गृह
  • जब छात्र उन्नति करते हैं तो उनका अध्यापक कैसा महसूस करता है। –  आत्म संतोष
  • शिक्षा से किस का कल्याण होता है। –  समाज के सभी वर्गों का
  • यह किसने कहा है कि“ शिशु का मस्तिष्क कोरी स्लेट होता है”।–  प्लेटो ने
  • किस विद्वान के द्वारा सीखने के पांच चरण बतलाए गए हैं। –  हरबर्ट स्पेंसर
  • “  किंडरगाटेर्न ” स्कूल सबसे पहले किस देश में खोले गए थे। –  जर्मनी
  • भाषा सीखने का सबसे प्रभावी उपाय है। – वार्तालाप करना
  • नर्सरी स्कूलों की शुरुआत किसने की थी। –  फ्रोबेल
  • कौन सी शिक्षण विधि वास्तविक अनुभवों को प्रदान करने के लिए उत्तम मानी जाती है। –  भ्रमण विधि
  • किस विद्वान के अनुसार शिक्षा के क्षेत्र में” अभिरुचि” को सबसे महत्वपूर्ण तत्व बताया गया है। –  टी पी नन
  • आज के आवासीय स्कूल किस भारतीय पद्धति के समान है। –  गुरुकुल
  • भारत में स्त्री शिक्षा के महान समर्थक कौन थे। –  कार्वे
  • ज्ञान इंद्रियों का प्रशिक्षण किस प्रकार का होता है। –  अभ्यास द्वारा
  • प्रयोजनवादी विचारधारा के प्रवर्तक थे। –  विलियम जेम्स
  • यह किसने कहा है कि”बच्चों के लिए सबसे उत्तम शिक्षक वह होता है जो स्वयं बालक जैसा हो”। –  मैकेन
  • गणित शिक्षण की कौन सी संप्रेषण रणनीति सर्वाधिक उत्तम उपयुक्त मानी गई है। –  एल्गोरिथ्म
  • एक शिक्षक के घर में किस वस्तु का होना ज्यादा जरूरी है। –  पुस्तकालय
  • किस सिद्धांत द्वारा बालक में रूचि का विकास होता है। –  प्रेरणा का सिद्धांत
  • अधिगम का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत बतलाइए। –  क्रिया का सिद्धांत
  • वैदिक काल में परिवार में विद्या का प्रारंभ करते समय कौन सा संस्कार होता था। –  विद्यारंभ संस्कार( चूड़ाकर्म)
  • शिक्षा की अवधि क्या है। –  500 ईसा पूर्व से 1200 तक

Teaching methods Notes

शिक्षण विधियां और प्रविधियां  {Teaching methods}

शिक्षण विधियां और प्रविधियां पठन-पाठन को आनन्दमय एवं रुचिकर बनाते हैं| शिक्षण का अर्थ होता है- अध्ययन करना। और विधि का अर्थ है- तरीका। अर्थात वह तरीके जिनका प्रयोग करते हुए शिक्षक छात्रों को ज्ञान प्रदान करता है उन्हें शिक्षण विधियां कहते हैं शिक्षण विधियों का संबंध विषय वस्तु के प्रस्तुतीकरण से है।

शिक्षण विधियों के निर्धारण एवं चयन का आधार पाठ्यवस्तु होती है। पाठ्यवस्तु की प्रकृति के आधार पर ही  शिक्षण विधियों का प्रयोग होता है। प्रस्तुतीकरण के ढ़ग को शिक्षण विधि कहते हैं । 

शिक्षण विधियों के उपयोग में शिक्षण प्रविधियों की सहायता ली जाती है जैसे कथन करना,  उदाहरण देना, व्याख्या करना आदि| एक शिक्षण विधि में  अन्य  कई शिक्षण प्रविधियों का उपयोग किया जाता है|

प्रमुख शिक्षण विधियां और उनके प्रतिपादक 

शिक्षण को छात्रों हेतु रुचिकर बनाने के लिए शिक्षकों द्वारा अनेक शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाता है। उनमें से कुछ प्रमुख शिक्षण विधियां और उनके प्रतिपादक  निम्नांकित है-

प्राचीन काल से वर्तमान तक शिक्षण विधियों और प्रविधियों का प्रयोग होता आ रहा है तथा नवीन-नवीन शिक्षण विधियों और प्रविधियों का अविष्कार होता आ रहा है।  इनमें प्रमुख शिक्षण विधियां निम्नांकित है-

पाठशाला विधि

यह सबसे प्राचीन शिक्षण विधि है। जिसमें शिष्य गुरु के समीप शिक्षण कार्य करता था। इसमें छात्रों को नियमित दिनचर्या का पालन करना होता था तथा यम-नियम, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य आदि नियमों का पालन करना होता था। पाठशाला विधि को व्यक्तिगत शिक्षण विधि भी कहा जाता है।पाठशाला विधि में संस्कारों की शिक्षा दी जाती है, पुरुषार्थ चतुष्टय की शिक्षा प्रदान की जाती है तथा  जीवन के महत्व को समझाया जाता है।

विश्लेषणात्मक विधि

विश्लेषणात्मक विधि में शिक्षक संपूर्ण पाठ को कुछ भागों में बांट लेता है तथा उसके पश्चात सभी भागों का वर्णन करता है यह विधि पूर्ण से अंत की ओर शिक्षण सूत्र पर आधारित है व्याकरण तथा कहानी शिक्षण करते समय इस विधि का प्रयोग सर्वाधिक किया जाता है। इस विधि के द्वारा बड़े तथा जटिल विषय भी आसानी से समझाया जा सकते है| विश्लेषणात्मक विधि के द्वारा  विषय को विस्तारपूर्वक समझाया जा सकता है।

संश्लेषणात्मक विधि

संश्लेषण विधि में छोटे-छोटे विषयों को जोड़कर पढ़ाया जाता है संश्लेषण तथा विश्लेषण दोनों विधियां आपस में संबंध रखती हैं। संश्लेषण विधि में हम विषय को खंडों में विभाजित करके उस विषय का अध्ययन करते हैं परंतु विश्लेषण विधि में विषय को खंडों में विभक्त करने के स्थान पर समन्वय किया जाता है। संश्लेषण विधि में ज्ञात से अज्ञात की ओर शिक्षण सूत्र का प्रयोग होता है संश्लेषण विधि को मनोवैज्ञानिक विधि भी कहा जाता है।

व्याख्यान विधि

व्याख्यान विधि में शिक्षक मौखिक एवं लिखित रूप से छात्रों को सूचनाएं प्रदान करता है। शिक्षक सक्रिय रूप से अपने विचारों को प्रकट करता है तथा छात्र शिक्षक की सभी बातों को ध्यानपूर्वक सुनते हैं और जरूरत पड़ने पर संपूर्ण जानकारी लिखते भी हैं।व्याख्यान  विधि में  कथन प्रविधि प्रवचन प्रविधि चॉक तथा वार्ता प्रविधि का  भी प्रयोग किया जाता है। व्याख्यान  विधि में छात्र एवं शिक्षक का संबंध भावात्मक रूप से जुड़ा होता है।  इस विधि विषय की विस्तार पूर्वक व्याख्या हो पाती है। शिक्षक अच्छे उदाहरण देकर विषय को रोचक तथा प्रेरणादायक बना सकते हैं । व्याख्यान विधि के द्वारा विषय को कम समय में पढ़ाया जा सकता है। 

प्रयोजना शिक्षण विधि या प्रोजेक्ट विधि

प्रयोजना शिक्षण विधि या प्रोजेक्ट विधि  आधुनिक विधि मानी जाती है।  शिक्षा में सामाजिक प्रवृत्ति के फल स्वरुप प्रयोजना शिक्षण विधि या प्रोजेक्ट विधि का विकास हुआ है। इसके प्रवर्तक डब्ल्यू एच किलपैट्रिक है, जो जॉन डीवी के शिष्य थे। किलपैट्रिक ने कहा है कि  शिक्षा इस प्रकार दी जानी चाहिए जो जीवन को समर्थ बना सके। प्रयोजना शिक्षण विधि या प्रोजेक्ट विधि अनुभव केंद्रित होती है।  छात्रों  के समाजिक करण पर प्रयोजना शिक्षण विधि या प्रोजेक्ट विधि  विशेष बल देती है। सामाजिक विषयों के शिक्षण में इसे भली प्रकार प्रयुक्त किया जा सकता है। इस विधि से छात्रों को मौलिक चिंतन, क्रियाओं तथा अनुभव द्वारा सीखने का अवसर मिलता है। प्रोजेक्ट विधि में  छात्र अधिक क्रियाशील रहता है और स्वयं अनुभव करके सीखता है।

बेसिक शिक्षा विधि

बेसिक शिक्षा विधि को वर्धा योजना भी कहते हैं। उत्तर प्रदेश में वर्धा शिक्षा या बेसिक शिक्षा तथा मध्य प्रदेश में विद्या मंदिर योजना सब इसी प्रकार के  ही नामांतर है। बेसिक शिक्षा विधि के प्रतिपादक महात्मा गांधी हैं। गांधी जी ने अनुभव किया कि प्रचलित शिक्षा प्रणाली हमारे देश की समस्याओं का निदान करने में असमर्थ है। उन्होंने एक ऐसी शिक्षा योजना का निर्माण किया जो देश के निर्धनता, निरक्षरता, परतंत्रता और शिक्षा प्रणाली की नीरसता को मिटा डाले इस पृष्ठभूमि में उन्होंने चार मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों का अवलंबन किया-

(१) आत्म शिक्षण

(२) क्रिया द्वारा सीखना

(३) अव्ययिक शिक्षा

(४) श्रम के प्रति आदर।

खेल विधि

खेल विधि का श्रेय श्री कार्डवेल कुक को है कुक ने अपनी पुस्तक प्ले-वे में इसकी उपयुक्तता अंग्रेजी पढ़ाने के संबंध में की है। खेल विधि में खेल के विषय में अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है।शीलर और हरबर्ट का  अतिरिक्त शिक्षा का सिद्धांत लॉर्ड क्रिम्स का  शक्ति वर्धन का सिद्धांत कार्लग्रूस का भावी जीवन की तैयारी का सिद्धांत तथा यूनान के प्राचीन दार्शनिक अरस्तु का रेचन का सिद्धांत आदि खेल के प्रसिद्ध सिद्धांत है। खेल को परिभाषित करते हुए ग्यूलिक ने अपनी पुस्तक फिलासफी आफ प्ले मे लिखा है- जो कार्यक्रम अपनी इच्छा से स्वतंत्रता पूर्वक करें वही खेल है।

आगमन विधि

आगमन विधि में अध्यापक विभिन्न उदाहरण देते हुए, सिद्धांत अथवा संप्रत्यय का स्पष्टीकरण करता है और इस आधार पर निश्चित परिणाम निष्कर्षों की व्याख्या करता है। इस विधि का प्रयोग व्याकरण शिक्षण में अधिक किया जाता है। आगमन विधि के जनक फ्रांसिस बेकन को माना जाता है। आगमन विधि में मूर्त से अमूर्त, विशेष से सामान्य, स्थूल से सूक्ष्म आदि शिक्षण सिद्धांतों का प्रयोग किया जाता है।

निगमन विधि

निगमन विधि का जनक अरस्तु को माना जाता है। निगमन विधि में अध्यापक पहले संप्रत्यय अथवा सिद्धांत बतलाता है, फिर संबंधित उदाहरणों और दृष्टांतों के सहारे उसकी व्याख्या करता है। निगमन विधि आगमन विधि के विपरीत है । निगमन विधि में शिक्षक और छात्र दोनों सक्रिय होते हैं।

हरबर्ट विधि

हरबर्ट विधि के सम्बन्ध में यह धारण है कि, समस्त ज्ञान बाहर से शिक्षार्थी को दिया जाता है और वह ज्ञान संचित  होता रहता है। यदि नवीन ज्ञान को पूर्व ज्ञान से सम्बंधित कर दिया जाये, तो शिक्षार्थी को सीखने में सुगमता होती है। सीखने की परिस्थितियों में इकाइयों को तर्कसंगत प्रस्तुत करना चाहिए। इकाई की क्रियाओं को एक क्रम में सम्पादित करना चाहिए। इसके लिए हरबर्ट ने पाँच सोपानों को दिया है इन सोपानों को पंचपदी भी कहा जाता है-  

हरबर्ट विधि में पंचपदी
  प्रस्तावना     प्रस्तुतिकरण
  व्यवस्था   तुलना
  मूल्यांकन 

मांटेसरी विधि

मांटेसरी विधि के जन्मदाता मारिया मांटेसरी है । इन्होंने अपने  विधि में इस बात पर अधिक बल दिया है, कि छात्रों को अपने अधिगम उद्देश्यों का स्पष्ट रूप से बोध होना चाहिए। शिक्षण में छात्रों की आवश्यकताओं को प्रधानता दी जानी चाहिए, जिससे वे अपने उद्देश्यों की प्राप्ति कर सकें। मांटेसरी विधि के शिक्षण के चक्रीय योजना के प्रारुप में पाँच सोपानो का अनुसरण किया जाता है-  (१) योजना    (२) प्रस्तुतिकरण    (३) परिपाक     (४) व्यवस्था    (५) वर्णन। 

मारीसन के इन सोपानों का उपयोग बोध स्तर के शिक्षण के लिए किया जाता है, जबकि हरबर्ट के पाँच पदो का उपयोग स्मृति स्तर पर ही किया जाता है। 

मूल्यांकन विधि

मूल्यांकन विधि का प्रतिपादन  बी.एस. ब्लूम ने दिया है। इसमें शिक्षण तथा परीक्षण उद्देश्य केन्द्रित होता है। शिक्षण के लिए आयोजित सभी शिक्षकों की क्रियायें उद्देश्य केन्द्रित होनी चाहिए।

मूल्यांकन विधि अर्थ विद्यालय द्वारा हुए बालकों के व्यवहार परिवर्तन के विषय में साक्षियों का संकलन करना  तथा उनकी व्याख्या करने की प्रक्रिया है।

Stages of Child Development

बाल विकास की विभिन्न अवस्थाएँ

डा0 अरनेस्ट जोन्स ने बाल विकास को मुख्यता  चार अवस्थाओं में  विभाजित किया है जो निम्न है-

  1. शैशवावस्था (जन्म से 5 वर्ष या 6 वर्ष तक)
  2. बाल्यावस्था (6 वर्ष से 11 वर्ष या 12 वर्ष तक)
  3. किशोरावस्था (12 वर्ष से 18 वर्ष तक)
  4. प्रौढ़ावस्था (18 वर्ष के बाद की अवस्था) 

लेकिन शिक्षा के दृष्टि से केवल तीन अवस्थाओं का ही विशेष महत्व दिया जाता है।

शैशवावस्था

शैशवावस्था को जीवन का सबसे महत्वपूर्ण काल भी कहा जाता है।यह बाल विकास की प्रथम अवस्था होती है यह जन्म से लेकर 6 वर्ष तक होती है शिशु को अंग्रेजी में (Infancy) कहते है यह लैटिन भाषा के Inferi शब्द से मिलकर बना है।जिसका शाब्दिक अर्थ होता है’बोलने के अयोग्य’।

न्यूमैन का कथन है कि “5-वर्ष तक की अवस्था शरीर और मस्तिष्क के लिए बड़ी ग्रहणशील रहती है”

अर्थात इस अवस्था में बालक को जो कुछ भी सिखाया जाता है उसका असर तत्काल बालक पर पड़ता है। मनोविश्लेषण वादियों ने भी शैशवावस्था पर विशेष ध्यान दिया है।

कुछ महत्वपूर्ण कथन ( परिभाषाएँ )

क्रो एण्ड क्रो– “बीसवीं शताब्दी को बालक की शाताब्दी माना जाता है।”

फ्रायड– “मनुष्य को जो कुछ भी बनना होता है वह प्रारम्भ के चार पाँच वर्षों में बन जाता है।” 

एडलर– “शैशवावस्था द्वारा जीवन का पूरा क्रम निश्चित हो जाता है।”

गुडएनफ के अनुसार, “व्यक्ति का जितना भी मानसिक विकास होता है,उसका आधा तीन वर्ष की आयु तक हो जाता है।”

शैशवावस्था की विकासात्मक विशेषताएँ

  1. मानसिक विकास में तीव्रता 
  2. शारीरिक विकास में तीव्रता 
  3. सीखने की प्रक्रियों में तीव्रता 
  4. दोहराने की प्रवृत्ति 
  5. परनिर्भरता 
  6. जिज्ञासा प्रवृत्ति 
  7. स्वप्रेम की भावना 
  8. काम प्रवृत्ति  

शैशवावस्था में शिक्षा का स्रोत

वैलेंटाइन के अनुसार, “शैशवावस्था सीखने का आदर्श काल है।”

शैशवावस्था में बालक के शारीरिक व मानसिक विकास  के आधार पर ही उसे शिक्षा प्रदान करनी चाहिए। अतः बालक को शिक्षा प्रदान करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए-

पालन पोषण

शारीरिक विकास की तीव्रता के कारण माता,पिता और अध्यापक को उसके स्वास्थ पर पूरा ध्यान रखना चाहिए। इसके लिए बालक को पौष्टिक और संतुलित भोजन के साथ- साथ चिकित्सक व्यवस्था का भी पूरा ध्यान रखना चाहिए।

अच्छी आदतों का निर्माण

बालक अपने आस-पास के वातावरण का अनुशरण करता है। यदि वह अच्छे वातावरण में रह रहा है तो वह अच्छी आदतों को सीख जायेगा।

करके सीखने पर अधिक महत्व देना

 बालक को स्वयं करके सीखने का अवसर प्रदान करना चाहिए। क्योकि करके सीखा हुआ ज्ञान अधिक समय तक स्थायी रहता है। बालक किसी काम को करके सीखने में अधिक आनंद का अनुभव भी प्राप्त करता है।

  • वार्तालाप का अवसर 
  • जिज्ञासा की संतुष्टि 
  • स्नेह गुण का व्यवहार 

बाल्यावस्था

बालविकास की अवस्थाओं में  शैशवावस्था के बाद बाल्यावस्था का आरम्भ होता है। इसे जीवन का अनोखा काल भी कहा जाता है। यह बालविकास की दूसरी अवस्था है। यह अवस्था छः वर्ष से लेकर बारह वर्ष  तक होती है। मनोवैज्ञानिकों ने इस अवस्था को निम्नलिखित नाम दिया है-

  • प्राथमिक विद्यालय की आयु (क्योंकि बालक इसी अवस्था में ही अपनी प्रारम्भिक  विद्यालय की शिक्षा शुरू करता है।)
  • स्फूर्ति आयु (क्योंकि इस समय में बालक के अंदर स्फूर्ति अधिक होती है।)
  • गन्दी आयु (क्योकि इस अवस्था में बालक खेलकूद,भागदौड़,उछल-कूद में अधिक लगे होने के कारण यह प्रायः गन्दा और लापरवाह रहता है।)
  • समूह आयु (क्योंकि इस काल  में बालक-बालिकाओं में सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने की क्षमता अधिक होती है। और वे अपना-अपना समूह बनाते है।)

जीवन में बाल्यावस्था के महत्व पर प्रकाश डालते हुए ब्लेयर जोन्स सिम्पसन ने कहा है कि-

“शैक्षिक दृष्टिकोण से जीवन चक्र में बाल्यावस्था से अधिक महत्वपूर्ण और कोई अवस्था नहीं है।”

जो अध्यापक इस अवस्था में बालकों को शिक्षा देता है, उन्हें बालक के आधारभूत आवश्यकताएँ एवं  उनकी समस्याओं का और उन परिस्थितियों का पूर्व जानकारी होना चाहिए जो उनके व्यवहार को रूपान्तरित और परिवर्तित करती है। इस अवस्था में बालक के जीवन में स्थायित्व आने लगता है और वे आगे आने वाले जीवन की तैयारी करने लगते है। 

कुछ महत्वपूर्ण कथन(परिभाषाएँ)

कोल व ब्रूस– “बाल्यावस्था जीवन का अनोखा काल है।”

किलपैट्रिक– “बाल्यावस्था को प्रतिद्वन्दता की अवस्था कहा है।”

जे0 एस0 रॉस– “बाल्यावस्था को मिथ्या परिपक्वता का काल कहा है।”

बाल्यावस्था की विकासात्मक विशेषताएँ

बाल्यावस्था की कुछ महत्वपूर्ण विकासात्मक विशेषताएँ निम्नलिखित है –

शारीरिक तथा मानसिक विकास में स्थिरता

बाल्यावस्था में विकास की गति में कुछ धीमापन आ जाता है और शारीरिक तथा मानसिक में विकास में स्थिरता आ जाती है। बालकों की चंचलता भी काम होने लगती है। इस काल मे शारीरिक व मानसिक स्थिरता बाल्यावस्था की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है ।

इस अवस्था को दो भागो में बाँटा गया  है – 

  1. संचय काल (6 से 9 वर्ष तक )
  2. परिपाक काल (9 से 12 वर्ष तक )

आत्मनिर्भरता की भावना  

शैशवावस्था की तरह इस अवस्था में बालक अपने शारीरिक एवं मानसिक कार्यों के लिए किसी दूसरे पर आश्रित नहीं रहता है। बाल्यावस्था में वह अपना व्यक्तिगत कार्य जैसे- नहाना,कपड़ा धोना,स्कूल जाने की तैयारी आदि स्वयं कर लेता है।

प्रतिस्पर्धा की भावना

बाल्यावस्था में बालकों में प्रतिस्पर्धा की भावना आ जाती है। बालक अपने भाई-बहन से झगड़ा करने लगता है।

सामूहिक प्रवृत्तियों की भावना :- बाल्यावस्था में बालक अपना अधिक से अधिक समय दूसरे बालकों के साथ व्यतीत करते है। जिससे बालकों में सहयोग,सहनशीलता,नैतिकता आदि गुणों का विकास होता है।

यर्थातवादी दृष्टिकोण

बाल्यावस्था में बालक का दृष्टिकोण यर्थातवादी होता है। इस अवस्था में बालक कल्पना जगत से वास्तविक जगत में प्रवेश करने लगते है।

अनुकरण के प्रवृत्ति का विकास

 बाल्यावस्था में अनुकरण की प्रवृति का सबसे अधिक विकास होता है। इस आयु में बालक झूठ बोलना तथा चोरी करना भी सीख जाते है।

संवेगो पर दमन

 बाल्यावस्था में बालक उचित और अनुचित में अंतर समझने लगता है। बालक सामाजिक व पारिवारिक व्यवहार के लिए अपने भावनाओं का दमन और संवेगो पर नियंत्रण करना सीख भी जाता है।

बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप

बाल्यावस्था बालक के जीवन की आधार शिला होती है। तथा शिक्षा और विकास में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। शिक्षा विकास की एक प्रक्रिया है इसलिए बालक के शिक्षा को निर्धारित करते समय हमें निम्नलिखित बातों का ध्यान देना चाहिए –

शारीरिक विकास पर ध्यान

अरस्तु के अनुसार,”स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है।” अतः बालक के मानसिक विकास के लिए शारीरिक विकास पर विशेष ध्यान आवश्यक है। बालकों के अच्छे स्वास्थ के लिए उन्हें संतुलित और पौष्टिक भोजन देना चाहिए। और बालकों की क्रियाशीलता बनाये रखने के लिए विद्यालय में खेल-कूद को कराना चाहिए।

भाषा विकास पर बल

 बालकों के भाषा विकास पर विशेष बल दिया जाना चाहिए। बालकों को वार्तालाप करने, कहानी सुनाने,पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ने,वाद-विवाद करने,भाषण देने तथा कविता पढ़ाने पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

  • रोचक पाठय सामग्री 
  • खेल तथा क्रिया द्वारा शिक्षा 

किशोरावस्था

बालविकास की अवस्थाओं में बाल्यावस्था के बाद किशोरावस्था का प्रारम्भ होता है। तथा प्रौढ़ावस्था के प्रारम्भ होने तक चलता है। इसे जीवन का सबसे कठिन काल भी कहा जाता है। यह बालविकास की तीसरी अवस्था है। यह अवस्था 12 वर्ष से 18 वर्ष तक होती है। किशोरावस्था को अंग्रेजी में Adolescence कहते है। Adolescence लैटिन भाषा के Adolescere से बना है जिसका तात्पर्य होता है “परिपक्वता की ओर बढ़ना”

अतः किशोरावस्था वह अवस्था है जिसमे बालक परिपक्वता की ओर बढ़ता है। तथा जिसकी समाप्ति पर बलपूर्ण परिपक्व व्यक्ति बन जाता है। इस अवस्था में हड्डियों में दृहता आती है तथा अत्यधिक भूख का अनुभव लगता है। बालकों की अपेक्षा बालिकाओं में किशोरावस्था का आरम्भ दो वर्ष पूर्व हो जाता है।

स्टनले हाल ने “किशोरावस्था को बड़े संघर्ष,तूफ़ान तथा विरोध की अवस्था कहा है।”क्योंकि इस आयु में विकासशील बालक अपने अंदर हो रहे परिवर्तन से हैरान तथा परेशान रहता है। अर्थात यह जीवन का सबसे कठिन काल है। इसमें बालक बाल्यावस्था तथा पौढ़ावस्था के मध्य अर्थात दोनों अवस्थाओं में रहता है इसलिए इसे संधि काल भी कहा जाता है।

किशोरावस्था की कुछ महत्वपूर्ण परिभाषाएँ

रॉस– “किशोरावस्था, शैशवावस्था की पुनरावृत्ति है।” 

क्रो एण्ड क्रो– “किशोर ही वर्तमान की शक्ति और भावी आशा को प्रस्तुत करता है।”

कुल्हन– “किशोरावस्था,बाल्यकाल तथा पौढ़ावस्था के मध्य का संक्रान्ति काल है।”

किलपैट्रिक– “किशोरावस्था जीवन का सबसे कठिन काल है।”

कुछ मनोवैज्ञानिकों ने किशोरावस्था को दो भागो में बाँटा है जो निम्न है –

  1. पूर्व किशोरावस्था (12 से 16 वर्ष तक )
  2. उत्तर किशोरावस्था (17 से 19 वर्ष तक )

17 – वर्ष की आयु को दोनों का विभाजन विन्दु माना जाता है।

हरलॉक के अनुसार, “पूर्व और उत्तर बाल्यावस्था के मध्य की विभाजन रेखा लगभग 17 – वर्ष की आयु के पास है।”

पूर्व किशोरावस्था को अत्यंत द्रुत एवं तीव्र विकास का काल भी कहा जाता है। क्योंकि शारीरिक विकास के साथ साथ इस समय में शारीरिक विकास के सभी पक्षों में तेजी आ जाती है। पूर्व किशोरावस्था को एक बड़ी उलझन की अवस्था कहा गया है। क्योंकि इस समय में माता-पिता,अभिभावक तथा शिक्षक उसे बात बात पर डाटते,रोकते व टोकते रहते है। वह सदैव उलझन पूर्ण स्थिति में रहता है। कि वह क्या करे क्या न करे।

स्टनले हॉल ने “पूर्व किशोरावस्था को एक अत्यंत संवेदात्मक उथल-पुथल झंझा और तनाव की अवस्था कहा जाता है।” 

किशोरावस्था के विकास के सिद्धांत

किशोरावस्था के विकास के दो सिद्धांत है-

त्वरित विकास का सिद्धांत 

इस सिद्धांत का समर्थन स्टैलने हाल ने अपनी पुस्तक एडोलसेंस में किया है इनका कहना कहना है कि किशोरों में अनेक क्रांतिकारी परिवर्तन आकस्मिक रूप से होता है। जिनका शैशवावस्था व बाल्यावस्था से कोई सम्बन्ध नहीं होता है।

स्टेनले हॉल के शब्दों में,”किशोर अथवा किशोरी में जो शारीरिक मानसिक परिवर्तन होते है वह एकदम छलांग मारकर आते है।”

क्रमित विकास का सिद्धांत

इस  सिद्धांत के समर्थक थार्नडाइक,किंग और हालिंगवर्थ है जिनका मानना है कि किशोरावस्था में मानसिक शारीरिक तथा संवेदात्मक  परिवर्तन के फलस्वरूप जो नवीनताएँ दिखाई देती है वे एकदम न आकर धीरे धीरे क्रमशः आती है।

किशोरावस्था की विशेषताएँ

किशोरावस्था को जीवन का परिवर्तन काल,बसंत काल एवं अप्रसन्नता का काल भी कहा जाता है। किशोरावस्था की विशेषताएँ निम्नलिखित है –

शारीरिक विकास

किशोरावस्था को शारीरिक विकास की दृष्टि से अत्यंत महत्पूर्ण काल मन जाता है। इस काल में किशोर तथा किशोरियों में कुछ ऐसे महत्वपूर्ण शारीरिक परिवर्तन होते है जो यौवन आरम्भ होने के लक्षण होते है।

इस अवस्था में किशोरियाँ स्त्रीत्व को तथा पुरुष पुरुषत्व को प्राप्त करते है। भार व लम्बाई में तीव्र वृद्धि होती है किशोरों में दाढ़ी व मोछ की रोमावली दृष्टिगोचर होने लगाती है। वे अपने शरीर,रंग,रूप तथा स्वरूप के प्रति अधिक सजक रहते है। किशोर स्वस्थ,सबल तथा उत्साही बनने का प्रयास करते है जबकि किशोरियाँ अपनी आकृति को नारी सुलभ आकर्षण प्रदान करने की इच्छुक रहती है।

कालसेनिक के शब्दों में, “इस आयु में बालक एवं बालिका दोनों को अपनी शारीरिक एवं स्वस्थ की अत्यधिक चिन्ता रहती है।”

बौद्धिक विकास  

किशोरावस्था में बुद्धि का सबसे अधिक विकास होता है। किशोर-किशोरियों में परस्पर विरोधी मानसिक दशाएँ प्रालक्षित होने लगाती है। मानसिक जिज्ञासा का विकास हो जाता है वह सामाजिक,आर्थिक,नैतिक तथा अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं में रूचि लेने लगता है।

अपराध प्रवृति का विकास

इस अवस्था में इच्छापूर्ति,निर्वाधा तथा असफलता मिलने के कारण अपराध प्रवृत्ति का विकास हो जाता है। वैलेंटाइन के अनुसार, “किशोरावस्था अपराध प्रवृत्ति के विकास का नाजुक समय है।”

काम भावना का विकास

किशोरावस्था की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता काम इन्द्रियों की परिपक्वता तथा काम प्रवृत्ति की क्रियाशीलता है। शैशवावस्था का दबा हुआ यौन आवेश जो बाल्यावस्था में शुप्त अवस्था में रहता है पुनः जागृत हो जाता है। किशोर व किशोरियों में तीन बातें दिखाई देती है। स्वप्रेम,समलिंगी कामोक्ता और विषमलिंगी कामोक्ता।

  • आत्मसम्मान की भावना 
  • स्थिरता तथा समायोजन का अभाव 
  • किशोरावस्था में शिक्षा का स्वरूप 
  • शारीरिक विकास के लिए शिक्षा 
  • मानसिक विकास के लिए शिक्षा 
  • संवेगात्मक विकास के लिए शिक्षा 
  • सामाजिक विकास के लिए शिक्षा 
  • व्यक्तिगत भिन्नता के अनुसार शिक्षा   

Child Development Questions And Answers

  • शैशवावस्था का काल जन्म से लेकर कितना होता है –  5 या 6 वर्ष तक
  • “मनुष्य को जो कुछ भी बनना होता है वह प्रारम्भ के चार-पाँच वर्षो में बन जाता है” कथन है- फ्रायड 
  • “बीसवीं शताब्दी को बालक की शताब्दी माना जाता है” कथन है –  क्रो एण्ड क्रो
  • “शैशवावस्था सीखने का आदर्श काल है” कथन है – वैलेंटाइन
  • “शैशवावस्था द्वारा जीवन का पूरा क्रम निश्चित हो जाता है” कथन है – एडलर  
  • “वह सत्य और असत्य में भेद नहीं कर सकता है लेकिन इस काल में कल्पना की सजीवता पायी जाती है” कथन है – कुप्पूस्वामी
  • बालक प्रथम छः वर्षो में,बाद के 12 वर्षो का दूना सीख लेता है कथन है – गेसेल 
  • “5 वर्ष तक की अवस्था शरीर और मस्तिष्क के लिए बड़ी ग्रहणशील रहती है” कथन है – न्यूमैन 
  • शैशवावस्था में काम प्रवृत्ति कितनी होती है – प्रबल होती है
  • शैशवावस्था में बालक का भार का बालिका से कितना होता है – अधिक होता है 
  • बाल्यावस्था का काल कितना है – 6 वर्ष से 12 वर्ष तक
  • बाल्यावस्था को मिथ्या परिपक्वता का काल कहा है – जे0 एस0 रॉस
  • “बाल्यावस्था,जीवन का अनोखा काल है” कथन है – कॉल व ब्रूस 
  • “स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है” कथन है – अरस्तु 
  • रॉस ने बाल्यावस्था की सबसे प्रमुख विशेषता क्या बताई है – शारीरिक और मानसिक स्थिरता 
  • बाल्यावस्था में किसकी प्रबलता पायी जाती है – जिज्ञासा की
  • बाल्यावस्था में किस प्रकार की काम भावना पायी जाती है – निर्बल 
  • बाल्यावस्था को किन-किन नामों से जाना जाता है – जीवन का अनोखा काल,निर्माणकारी
  • काल,प्राथमिक विद्द्यालय की आयु,स्फूर्ति आयु,गन्दी अवस्था और समूह आयु 
  • किशोरावस्था का काल है – 12 से 18 वर्ष तक
  • “किशोरावस्था को बड़े संघर्ष,तूफ़ान तथा विरोध की अवस्था कहा है” – स्टेनले हॉल 
  • “किशोरावस्था,शैशवावस्था की पुनरावृत्ति है” कथन है – रॉस
  • “किशोरावस्था जीवन का सबसे कठिन काल है” कथन है – किलपैट्रिक 
  • किशोरावस्था के कितने सिद्धांत है – दो 
  • किस अवस्था में बुध्दि का विकास लगभग पूर्ण हो जाता है – किशोरावस्था में 
  • मानसिक स्वतंत्रता एवं विद्रोह की भावना किस अवस्था में प्रबल होती है – किशोरावस्था में 
  • अपराधिक प्रवृत्ति का सबसे अधिक विकास किस अवस्था में होता है –  किशोरावस्था में 

Thyroid gland, Adrenal gland, Pituitary gland, Reproductive gland

थायराइड ग्लैंड गले के आगे हिस्से में मौजूद होता है. यह एक प्रमुख एंडोक्राइन ग्लैंड है जो कि हार्मोन का स्राव करता है. इन हार्मोन की मदद से हमारा मेटाबोलिज्म, श्वास, हृद्य गति, शरीर का तापमान आदि नियंत्रित होता है. यह लेख थायराइड ग्लैंड, थायराइड हार्मोन, रोग और विकार आदि प्रश्नों और उत्तरों से संबंधित है.

अधिवृक्क ग्रन्थि (अंग्रेज़ी: adrenal gland या Suprarenal gland) कशेरुकी जीवों में पायी जाने वाली एक अंतःस्रावी ग्रन्थि है। यह वृक्क (गुर्दे) के ऊपर स्थित होती है। इनका मुख्य कार्य तनाव की स्थिति में हार्मोन निकालना है।

पीयूष ग्रन्थि या पीयूषिका, एक अंत:स्रावी ग्रंथि है जिसका आकार एक मटर के दाने जैसा होता है और वजन 0.6 ग्राम (0.02 आउन्स) होता है। यह मस्तिष्क के तल पर हाइपोथैलेमस (अध;श्चेतक) के निचले हिस्से से निकला हुआ उभार है और यह एक छोटे अस्थिमय गुहा (पर्याणिका) में दृढ़तानिका-रज्जु (diaphragma sellae) से ढंका हुआ होता है।

जनन-ग्रंथि (Gonads)

रिलैक्सिन (Relaxin) : गर्भावस्था में यह अंडाशय, गर्भाशय एवं अपरा में उपस्थित रहता है। यह हॉर्मोन प्यूबिक सिंफाइसिक्स (public symphysix) को मुलायम करता है और यह गर्भाशय ग्रीवा (uterine cervix) को चौड़ा करता है, ताकि बच्चा आसानी से पैदा हो सके।

Scientific Investigator

बालक एक समस्या – समाधान और वैज्ञानिक अन्वेषण | Child As a Problem Solver and Scientific Investigator #ctet #uptet #cdp #pedagogy

समस्या समाधान का अर्थ

साधारण शब्दों में कहें तो किसी भी समस्या का समाधान चाहे समस्या छोटी हो या बड़ी जब भी सामने आती है तब उसके समाधान हेतु कुछ निश्चित सोपानों या कदमों का अनुसरण किया जाता है। बालक जब एक बार किसी समस्या का समाधान कर लेता है तब वह भविष्य में उन्हीं सोपानों का प्रयोग करता है जिससे उसने समस्या का समाधान निकाला था। समस्या समाधान के लिए चिंतन करना जरूरी है। 

बालक का मानसिक विकास

मानसिक विकास से तात्पर्य मानसिक क्षमताओं के विकास से है। मानसिक क्षमता के अंतर्गत चिंतन करने की क्षमता, तर्क करने की क्षमता, याद रखने की क्षमता, सही अर्थ देने की क्षमता आदि सम्मिलित है। जब बालक इन मानसिक क्षमताओं के आधार पर मानसिक कार्य संपन्न करने लगता है तब यह माना जाता है कि बालक का मानसिक विकास सही दिशा में हो रहा है। मानसिक विकास की प्रक्रिया जन्म से पूर्ण परिपक्वता आने तक चलती है। 

बालक एक समस्या-समाधान के रूप में

बालक बचपन से लेकर बड़े होने तक अनेक ऐसी समस्याओं का सामना करता है जिनका उसे स्वयं समाधान ढूंढना पड़ता है। बालक अपनी समस्या का हल ढूंढने के लिए वैज्ञानिक तरीकों का इस्तेमाल करते हैं। 

बच्चों को इस स्तर के योग्य बनाने के लिए आवश्यक है कि उसका व्यक्तिगत विकास किया जाए जिससे कि वह सभी प्रकार की परिस्थितियों का सही ढंग से सामना कर सके। 

बालक का एक अच्छा समस्या समाधान कैसे बनाया जाए

  • बालक के सामने छोटी-छोटी समस्या रखनी चाहिए ताकि आत्मविश्वास बढ़े।
  • बालकों को छोटी-छोटी समस्या के समाधान करने पर पुरस्कृत करते रहना चाहिए। 
  • बालकों में चिंतन व तर्क का विकास प्रायोगिक रूप से करना चाहिए। 
  • बालकों में भाषा, कौशल आदि का विकास किया जाना चाहिए।
  • बालकों को बार-बार अभ्यास कराकर अपनी कमियों को दूर करना सीखना चाहिए।
  • बालक में प्रत्यय निर्माण पर बल देना चाहिए।
  • बालकों को स्वावलंबी बनने के लिए प्रोत्साहित तथा आत्मविश्वास का गुण जाग्रत करना चाहिए।
  • बच्चे में आत्म पहचान का गुण विकसित करके
  • अपनी कमियों को स्वीकार करना तथा दूर करना सिखाकर
  • बच्चे को स्वावलम्बी बनाने के लिए प्रोत्साहित करके
  • बच्चे में भाषा का विकास करके
  • बच्चे को बार-बार प्रयास करके 

समस्या समाधान की वैज्ञानिक विधि

जब भी कोई समस्या सामने आती है तब उस वक्त सिर्फ वही एक समस्या हमारे पास नहीं होती है बल्कि कई और समस्याएं भी होती हैं। लेकिन आवश्यकतानुरूप प्राथमिकता के अनुसार समस्या समाधान करने हेतु समस्या का चयन किया जाता है। तत्पश्चात् उस समस्या से संबंधित जानकारी एकत्रित की जाती है। जानकारी, के अनुसार संभावित समाधान पर विचार किया जाता है। चिंतन-मनन के द्वारा जो समाधान सामने आता है, उसका मूल्यांकन व परीक्षण किया जाता है फिर जो निष्कर्ष आते हैं उन पर निर्णय लिया जाता है। एक जैसी समस्या के समाधान में अक्सर पूर्व से मिलते-जुलते समाधान का प्रयोग किया जाता है। 

समस्या समाधान की क्षमता बालक के तार्किक योग्यता पर निर्भर करती है, क्योंकि समस्या आने पर उसके समाधान के लिए क्रमबद्धता के साथ प्रयास करना तार्किक क्षमता को स्पष्ट करता है वहीं समस्या आने पर कई बालक समाधान का प्रयास न कर चिंता में बेवजह डूब जाते हैं, परेशान होते हैं तथा गलत कदम उठा लेते हैं। बालक के माता-पिता व शिक्षक को चाहिए कि बालकों को मानसिक रूप से मजबूत और उनमें तार्किक क्षमता का भी विकास करें जिससे वो समस्या समाधान कर सकें।

समस्या समाधान की वैज्ञानिक विधि निम्नलिखित है :-

  • समस्या का चयन
  • समस्या से संबंधित जानकारी 
  • संभावित समाधानों का निर्माण
  • संभावित समाधानों का मूल्यांकन
  • संभावित समाधानों का परीक्षण
  • निष्कर्षों का निर्णय
  • समाधान का उपयोग/प्रयोग

बालक, एक वैज्ञानिक अन्वेषक के रूप में

  1. निरीक्षण:-  बालक सबसे पहले विषय-वस्तु की परिस्थितियों का निरीक्षण करता है। 
  2. तुलना:-  विषय-वस्तु और परिस्थितियों में तुलना करता है।
  3. प्रयोगः- तुलना के आधार पर विचारों का प्रयोग करता है। 
  4. प्रदर्शन:-  फिर उस प्राप्त प्रयोग का प्रदर्शन या निरीक्षण करते हैं।
  5. सामान्यीकरण:-  परिणाम आने पर सिद्धांत निर्मित होते हैं, जो सामान्यीकरण को बताते हैं।
  6. प्रमाणीकरण:-  पुनः प्रयोग करके समस्या का सामान्यीकरण करना।

समस्या समाधान और वैज्ञानिक अन्वेषक के रूप में बालक

1.अन्वेषण का अर्थ है खोज . नए तथ्यों का संकलन , वैज्ञानिक द्रष्टिकोण , जाँच-पड़ताल का गुण .
2. वैज्ञानिक अन्वेषण: वैज्ञानिक विधि से या द्रष्टिकोण से तार्किक ढंग से नयी चीजों की खोज करना , या पहले से स्थापित तथ्यों की खोजपूर्ण पुनः पहचान करना.
3. विद्यार्थी को कक्षा से बाहर समाज में जाकर अपने इस गुण से जीवन का समायोजन प्राप्त करना होता है .
4. इसके लिए छोटे-छोटे प्रयोग शिक्षक कर सकते है . जैसे-दैनिक जीवन में संपर्क में आने वाले व्यक्तियों के व्यवसाय , कार्यकलाप आदि की जानकारी का प्रयास , जैसे डॉक्टर , अख़बार, डाकिया, वकील, बढाई, मोची, सुनार आदि .
5. बच्चो को वैज्ञानिक अन्वेषक बनाने के लिए उसे अलग-अलग जगह पर भ्रमण पर ले जाना ताकि वे उन चीजों के बारे में जान सके.
6. बच्चों को दुकानदारी , बैंकिंग, आदि के खेल खिलाना.
7. ऐसी परिस्थिति का निर्माण करना ताकि बच्चे वैज्ञानिक यंत्रों, धातुओं, वायु संचार आदि के बारे में स्वयं जानकारी प्राप्त कर सकें .
8. वैज्ञानिक अन्वेषक बालक की पहचान : जब बालक अपने ज्ञान और अनुभव के माध्यम से किसी समस्या के प्रत्येक पहलु के बारे में जिज्ञासापूर्वक जानने लगता है . इसके लिए आवश्यक है की उसके सामने वैज्ञानिक विधि से दैनिक संभाव्य परिस्थिति या समस्याओं को रखा जाएँ.

खोजपूर्ण परियोजना विद्यालय में बच्चे को या समूह को मिलकर दी जानी चाहिए . विशेषकर अवकाश के दिनों में समूह में मनोरंजक प्रोजेक्ट दिया जा सकता है .

शिक्षक को स्वय भी खोज परियोजना का समन्वय करना होता है . वह स्वयं जब अन्वेषक के रूप में वैज्ञानिक विधि प्रस्तुत करता है तभी बालक में अन्वेषण का गुण विकसित होता है जैसे -क्वेस्ट परियोजना में ऑन्लाइन  जुड़कर समूह में खोजपूर्ण प्रोजेक्ट का संचालन करना . 

Achievement Test Notes

प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में अनेकों प्रकार का ज्ञान तथा कौशल प्राप्त करता है। इस ज्ञान तथा कौशल में कितनी दक्षता व्यक्ति ने प्राप्त की है, इसका पता उस ज्ञान तथा कौशल के उपलब्धि परीक्षण से ही चलता है।विद्यालय की विभिन्न कक्षाओं में अनेकों प्रकार के छात्र, शिक्षा ग्रहण करने के लिए आते हैं। समान मानसिक योग्यताओं से सम्पन्न न होने के कारण वे समय की एक ही अवधि में विभिन्न विषयों तथा कुशलताओं में विभिन्न सीमाओं तक प्रगति करते हैं। उनकी इसी प्रगति, प्राप्ति या उपलब्धि का मापन या मूल्यांकन करने के लिए उपलब्धि परीक्षाओं की व्यवस्था की गई है।

उपलब्धि परीक्षण का अर्थ एवं परिभाषाएँ

उपलब्धि परीक्षाएँ वे परीक्षाएँ हैं, जिनकी सहायता से विद्यालय में पढ़ाये जाने वाले विषयों और सिखाई जाने वाली कुशलताओं में छात्रों की सफलता या उपलब्धि का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। 
उपलब्धि परीक्षाओं के अर्थ को अधिक स्पष्ट करने के लिए कुछ परिभाषाएँ प्रस्तुत हैं –

1. प्रेसी, रॉबिन्सन व हॉरक्स के अनुसार :-

उपलब्धि परीक्षाओं का निर्माण मुख्य रूप से छात्रों के सीखने के स्वरूप और सीमा का माप करने के लिए किया जाता है। 

2. गैरिसन व अन्य के अनुसार :-

उपलब्धि परीक्षा, बालक की वर्तमान योग्यता या किसी विशिष्ट विषय के क्षेत्र में उसके ज्ञान की सीमा का मूल्यांकन करती हैं। 

3. थॉर्नडाइक व हेगन के अनुसार :-

जब हम उपलब्धि परीक्षा का प्रयोग करते हैं, तब हम इस बात का निश्चय करना चाहते हैं कि एक विशिष्ट प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त व्यक्ति ने क्या सीखा है। 

उपलब्धि परीक्षण की विशेषताएँ

उपलब्धि परीक्षण, ज्ञान तथा कौशल के मापन के लिए होती है, इसलिये विद्यालयों से इसका सीधा सम्बन्ध होता है। इसकी विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

  • उपलब्धि परीक्षण दि हुए ज्ञान तथा कौशल का मापन करता है।
  • उपलब्धि परीक्षण द्वारा ज्ञान तथा उपलब्धि की लब्धि ज्ञात की जाती है।
  • उपलब्धि परीक्षण में प्रश्नों की रचना उपलब्धि की मात्रा की गणना तथा व्यक्ति की प्रगति की मात्रा का मापन करने के लिए की जाती
  • उपलब्धि परीक्षण से वर्तमान प्रगति का पता चलता है।
  • विषयों की भिन्नता के अनुसार अलग – अलग परीक्षण बनाये जाते हैं।
  • उपलब्धि परीक्षण में अर्जित ज्ञान का मापन उसका साध्य होता है।
  • उपलब्धि परीक्षण, व्यक्ति की उपलब्धि की क्षमता का प्रदर्शन करता है।

उपलब्धि परीक्षण का उद्देश्य

साधारणतः वर्ष के अन्त में विभिन्न कक्षाओं के छात्रों के लिए उपलब्धि परीक्षाओं का आयोजन निम्नलिखित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किया जाता है – 

  • बालकों की उपलब्धि से सामान्य स्तर को निर्धारित करने के लिए किया जाता है।
  • बालकों को पढ़ाये जाने वाले विद्यालय – विषयों में उनकी ज्ञान की सीमा का मापन करने के लिए किया जाता है।
  • बालकों की विभिन्न विषयों तथा क्रियाओं में वास्तविक स्थिति को ज्ञात करने के लिए किया जाता है।
  • बालकों की पढ़ने – लिखने के समान कुशलताओं में गति तथा श्रेष्ठता को निश्चित करने के लिए किया जाता है।
  • पाठ्यक्रम के लक्ष्यों तथा उद्देश्यों की प्राप्ति की और बालकों की प्रगति की जानकारी करने के लिए किया जाता है।
  • बालकों को ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में दिये गए प्रशिक्षण के परिणामों का मूल्यांकन करने के लिए किया जाता है। बालकों की अधिगम सम्बन्धी कठिनाइयों को ज्ञात करने तथा उनका निवारण करने के लिए पाठ्यक्रमों में आवश्यक परिवर्तन करने के लिए किया जाता है।

शिक्षक के शिक्षण तथा अध्ययन की सफलता का अनुमान लगाने के लिए किया जाता है।

उपलब्धि परीक्षण के प्रकार

डगलस एवं हॉलैण्ड के अनुसार उपलब्धि परीक्षण निम्नलिखित प्रकार के होते हैं –

  • प्रमापित परीक्षण
  • शिक्षक – निर्मित परीक्षण
  • मौखिक परीक्षण
  • निबन्धात्मक परीक्षण
  • वस्तुनिष्ठ परीक्षण

प्रमापित परीक्षण

प्रमापित परीक्षण आधुनिक युग की एक देन है। इनके अर्थ को स्पष्ट करते हुए थॉर्नडाइक व हेगम ने कहा है कि प्रमापित परीक्षण का अभिप्राय केवल यह है कि सब छात्र समान निर्देशों और समय की समान सीमाओं के अन्तर्गत समान प्रश्नों और अनेक प्रश्नों का उत्तर देते हैं। प्रमापित परीक्षणों के कुछ उल्लेखनीय तथ्य निम्नलिखित हैं –

  • इनका निर्माण एक विशेषज्ञ या विशेषज्ञों के समूह द्वारा किया जाता है।
  • इनका निर्माण, परीक्षण – निर्माण के निश्चित नियमों तथा सिद्धान्तों के अनुसार किया जाता है।  
  • इनकानिर्माण विभिन्न कक्षाओं तथा विषयों के लिए किया जाता है। एक कक्षा तथा एक विषय के लिए अनेक प्रकार के परीक्षण होते हैं।
  • जिस कक्षा के लिए जिन परीक्षणों का निर्माण किया जाता है, उनको विभिन्न स्थानों पर उसी कक्षा के सैकड़ों – हजारों बालकों पर प्रयोग करके निर्दोष बनाया जाता है या प्रमापित किया जाता है।
  • निर्माण के समय इसमें प्रश्नों की संख्या बहुत अधिक होती है, लेकिन विभिन्न स्थानों पर प्रयोग किए जाने के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले अनुभवों के आधार पर उनकी संख्या में काफी कमी कर दी जाती है।
  • इनमें दिए हुए प्रश्नों को निश्चित निर्देशों के अनुसार निश्चित समय के अन्तर्गत करना पड़ता है। मूल्यांकन या अंक प्रदान करने के लिए भी निर्देश होते हैं।
  • इनका प्रकाशन किसी संस्था या व्यापारिक फर्म के द्वारा किया जाता है। जैसे – भारत में सेन्ट्रल इन्स्टीट्यूट ऑफ एजूकेशन, राष्ट्रीय शैक्षणिक एवं प्रशिक्षण परिषद्, जामिया मिलिया, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस इत्यादि ने इनको प्रकाशित किया है।

शिक्षक – निर्मित परीक्षण

शिक्षक – निर्मित परीक्षण, आत्मनिष्ठ तथा वस्तुनिष्ठ दोनों प्रकार के होते हैं। सामान्य रूप से शिक्षकों द्वारा सभी विषयों पर परीक्षणों का निर्माण किया जाता है तथा कुछ समय पूर्व तक इन परीक्षणों का रूप आत्मनिष्ठ था। भारत में अब भी इसी प्रकार के परीक्षणों का प्रचलन है, यद्यपि वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के निर्माण की दिशा में सक्रिय कदम उठाये जा रहे हैं। सब शिक्षकों में परीक्षणों के लिए प्रश्नों का निर्माण करने की समान योग्यता नहीं होती है। अतः एक ही विषय पर दो | शिक्षकों द्वारा निर्मित प्रश्नों के स्तरों में अन्तर हो सकता है। इसीलिए, शिक्षक निर्मित परीक्षणों को विश्वसनीय नहीं माना जाता है। ऐलिस ने कहा है कि –

 शिक्षक – निर्मित परीक्षणों में बधा कम विश्वसनीयता होती है। 

प्रमापित एवं शिक्षक – निर्मित परीक्षण की तुलना

थॉर्नडाइक एवं हेगन ने प्रमापित परीक्षण को शिक्षक – निर्मित परीक्षण से श्रेष्ठतर सिद्ध करने के लिए निम्नलिखित तथ्य प्रस्तुत किए हैं –

  • प्रमापित परीक्षण को सम्पूर्ण देश के किसी भी विद्यालय की किसी भी कक्षा के लिए प्रयोग किया जा सकता है, लेकिन शिक्षक – निर्मित परीक्षण को केवल उसी विद्यालय की किसी विशेष कक्षा के लिए प्रयोग किया जा सकता है।
  • प्रमापित परीक्षण का निर्माण किसी विशेषज्ञ या विशेषज्ञों के समूह के द्वारा किया जाता है, लेकिन शिक्षक – निर्मित परीक्षण का निर्माण अध्यापक के द्वारा अकेले तथा किसी की सहायता के बिना किया जाता है।
  • प्रमापित परीक्षण में प्रयोग की जाने वाली परीक्षा – सामग्री का व्यापक रूप में पहले ही परीक्षण कर लिया जाता है, लेकिन शिक्षक – निर्मित परीक्षण में इस प्रकार का कोई परीक्षण नहीं किया जाता है।
  • प्रमापित परीक्षण में बहुत कुछ विश्वसनीयता होती है, लेकिन शिक्षक – निर्मित परीक्षण में कम विश्वसनीयता होती है। इस सम्बन्ध में थॉर्नडाइक व हेगन की सलाह है कि –
    प्रमापित परीक्षणों का ही विश्वास किया जाना चाहिए।

कुछ लेखकों ने प्रमापित परीक्षण को शिक्षक – निर्मित परीक्षण से निम्नतर सिद्ध करने के लिए निम्नलिखित कारण प्रस्तुत किए हैं, जो निम्नलिखित हैं –

  • प्रमापित परीक्षण के निर्माण के लिए बहत समय तथा धन की आवश्यकता होती है, लेकिन शिक्षक – निर्मित परीक्षण के लिए अति अल्प समय तथा धन काफी है।
  • प्रमापित परीक्षण इस बात का मूल्यांकन नहीं कर सकता है कि कक्षा में क्या पढ़ाया जा सकता था ? क्या पढ़ाया जाना चाहिए था ? लेकिन शिक्षक – निर्मित परीक्षण इन दोनों बातों का मूल्यांकन कर सकता है।
  • प्रमापित परीक्षण, शिक्षक के शैक्षिक लक्ष्यों का अनुमान लगाने में असफल रहता है, लेकिन शिक्षक – निर्मित परीक्षण इन लक्ष्यों का मापन कर सकता है।
  • प्रमापित परीक्षण, अध्यापक की शैक्षिक सफलता तथा छात्रों की वास्तविक प्रगति का मूल्यांकन करने में सफल नहीं होता है, लेकिन शिक्षण – निर्मित परीक्षण देते हैं।

अतः उपरोक्त कारणों के फलस्वरूप अनेक लेखक प्रमापित परीक्षण को शिक्षक – निर्मित परीक्षण से निम्नतर स्थान देते हैं। आज जिन परिस्थितियों में हमारे विद्यालय कार्य कर रहे हैं, उन पर विचार करके तो यही कहना उचित जान पड़ता है कि शिक्षक – निर्मित परीक्षणों का प्रयोग ही अधिक लाभदायक है। प्रमापित परीक्षणों के प्रयोग में तीन विशेष आपत्तियाँ हैं–

  • उनको काफी धन व्यय करके ही प्रयोग किया जा सकता है, लेकिन धन व्यय करने पर भी यह आवश्यक नहीं है कि वे उचित समय पर उपलब्ध हो जाए।  
  • विद्यालयतथा छात्रों की स्थानीय आवश्यकताओं को केवल शिक्षक निर्मित परीक्षण ही पूरा कर सकते हैं, लेकिन प्रमापित परीक्षण नहीं।
  • प्रमापित परीक्षण का भले ही सर्वोत्तम विधि से निर्माण किया गया हो, पर यह आवश्यक नहीं है कि उसमें एक विशेष अध्यापक या एक विशेष विद्यालय के सभी महत्त्वपूर्ण लक्ष्यों का समावेश हो।

मौखिक परीक्षण

एक समय ऐसा था, जब विद्यालयों तथा उच्च शिक्षा – संस्थाओं में मौखिक परीक्षाओं की प्रधानता थी, लेकिन आधुनिक युग में लिखित परीक्षाओं का प्रचलन होने के कारण इनका महत्त्व बहुत कम हो गया है। फिर भी, प्राथमिक कक्षाओं तथा उच्च कक्षाओं में विज्ञान के विषयों की प्रयोगात्मक परीक्षाओं एवं वायवा के रूप में अब भी इनका अस्तित्व शेष है। मौखिक परीक्षा का मूल्यांकन करते हुए राईटस्टोन ने कहा है कि मौखिक परीक्षा कितनी भी अच्छी क्यों न हो, पर छात्रों को अंक प्रदान करने के लिए एक निम्न साधन है। इसका महत्त्व केवल निदानात्मक साधन के रूप में और उन परिस्थितियों में है, जिनमें लिखित परीक्षाओं का प्रयोग नहीं किया जा सकता है।

निबन्धात्मक परीक्षण

निबन्धात्मक परीक्षण, सर्वाधिक प्रचलित उपलब्धि परीक्षण हैं। इन्हें शिक्षक बनाता है। इनमें प्रश्नों का उत्तर निबन्ध के रूप में देना पड़ता है, इसीलिए इनको निबन्धात्मक परीक्षण कहा गया हैं। हमारे देश में मात्र निबन्धात्मक परीक्षा का ही प्रचलन है। इस परीक्षा – प्रणाली में छात्रों को कुछ प्रश्न दे दिये जाते हैं, जिनके उत्तर उनको निर्धारित समय में लिखने पड़ते हैं।

निबन्धात्मक परीक्षण के गुण या विशेषताएँ

निबन्धात्मक परीक्षा प्रणाली में उत्तम गुणों का इतनी बहुतायत है कि वर्षों व्यतीत हो जाने पर भी इसकी लोकप्रियता में कोई विशेष न्यूनता दिखाई नहीं पड़ती है। इस प्रणाली के उल्लेखनीय गुण निम्नलिखित है –

1. यह सब विषयों के लिए उपयोगी है

यह प्रणाली विद्यालय के सब विषयों के लिए उपयोगी है। इस तरह के एक भी विषय का संकेत नहीं दिया जा सकता है, जिसके लिए इस प्रणाली का लाभप्रद ढंग से प्रयोग नहीं किया जा सके।

2. इसमें उत्तर एवं भाव प्रकाशन की स्वतन्त्रता है

यह प्रणाली बालकों को प्रश्नों के उत्तर देने तथा उनके सम्बन्ध में अपने भावों का प्रकाशन करने की पूरी स्वतन्त्रता प्रदान करती है। इन दोनों बातों में उनके ऊपर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं होता है।

3. यह शिक्षक की सुगमता प्रदान करती है

यह प्रणाली शिक्षक के लिए अत्यधिक सुगम होती है, क्योंकि वह प्रश्नों की रचना थोड़े ही समय में तथा बिना किसी विशेष प्रयास के कर सकता है। आवश्यकता पड़ने पर वह उनको बोल सकता है या श्यामपट्ट पर लिख भी सकता है।

4. यह बालकों को सुगमता प्रदान करती है

यह प्रणाली बालकों के लिए भी सुगम होती है, क्योंकि इसमें ऐसे कोई विशेष निर्देश नहीं होते हैं, जिनको समझने में उनको किसी भी प्रकार की कठिनाई का अनुभव हो।

5 . यह बालकों के तथ्यात्मक ज्ञान की परीक्षा करती है

इस प्रणाली का प्रयोग करके बालकों के तथ्यात्मक ज्ञान की बहुत अधिक सरलता से परीक्षा ली जा सकती है।

6. यह बालकों की विभिन्न योग्यताओं की परीक्षा करती है

इस परीक्षा का प्रयोग करके बालकों की लगभग सभी प्रकार की योग्यताओं की परीक्षा ली जा सकती है, जैसे – विचार – संगठन, विवेचन तथा अभिव्यक्ति, सम्बन्ध चिंतन एवं तार्किक लेखन इत्यादि।

7. यह बालकों के तथ्यात्मक ज्ञान की परीक्षा करती है

 इस प्रणाली का प्रयोग करके बालकों के तथ्यात्मक ज्ञान की बहुत अधिक सरलता से परीक्षा ली जा सकती है।

8. यह प्रणाली बालकों की प्रगति का वास्तविक ज्ञान कराती है

यह प्रणाली, शिक्षक को बालकों की प्रगति का वास्तविक ज्ञान प्रदान करती है। वह उनके उत्तरों को पढ़कर उनसे सम्बन्धित विषयों में उपलब्धियों का सही ज्ञान प्राप्त कर लेता है।

निबन्धात्मक परीक्षण के दोष

आधुनिक शिक्षा मनोविज्ञान ने निबन्धात्मक परीक्षा प्रणाली के अनेक दोषों पर प्रकाश डालकर, उसकी अनुपयुक्तता प्रमाणित करने का प्रयास किया है। इनमें से मुख्य दोष निम्नलिखित हैं –

1. इसमें अंकों में विविधता होती है

इस प्रणाली में प्रदान किए जाने वाले अंकों में विविधता पाई जाती है। इस सम्बन्ध में अनेकों अध्ययन किए गए हैं। उदाहरणार्थ, स्टार्च एवं इलियट ने बताया है कि जब 142 शिक्षकों द्वारा अंग्रेजी की उत्तर – पुस्तिकाओं की जाँच की गई, तो उनके द्वारा प्रदान किए गए अंक 50 और 95 के बीच में ही थे।

2. इसमें विश्वसनीयता का अभाव होता है

इस प्रणाली में जो अंक प्रदान किए जाते हैं, उन पर विश्वास नहीं किया जा सकता है। इसका कारण यह है कि अगर एक छात्र की एक ही उत्तर – पुस्तिका को दो परीक्षक जाँचते हैं, या एक ही शिक्षक कुछ समय व्यतीत होने के बाद जाँचता है, तो अंकों में अन्तर मिलता है। परीक्षा को विश्वसनीय तभी कहा जा सकता है, जब छात्र को अपने उत्तरों के लिए हमेशा समान अंक प्राप्त हो। निबन्धात्मक परीक्षा प्रणाली को इस दृष्टिकोण से विश्वसनीय नहीं कहा जा सकता है।

3. यह सीमित प्रतिनिधित्व करती है

इस प्रणाली का सबसे प्रिय दोष यह है कि वह विषय का सीमित प्रतिनिधित्व करती है। इसका अर्थ यह है कि इसमें सम्पूर्ण विषय से सम्बन्धित प्रश्न नहीं पूछे जाते हैं। विषय के अनेक भाग होते हैं, जिस पर एक भी प्रश्न नहीं पूछा जाता है। प्रणाली की इस निर्बलता से लाभ उठाकर छात्र थोड़े से प्रश्नों का चुनाव करके रट लेते हैं। इस निर्बलता का मुख्य कारण है – प्रश्नों की सीमित सीमा। पाँच या दस प्रश्न सम्पूर्ण विषय का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते हैं।

4. वैधता का अभाव होता है :-

इस प्रणाली में वैधता का स्पष्ट अभाव होता है । वैधता का अर्थ है कि परीक्षा उन गुणों, तथ्यों तथा कुशलताओं की जाँच करे, जिसकी जाँच करना उसका ध्येय होता है । अनेक अध्ययनों द्वारा यह सिद्ध किया गया है कि निबन्धात्मक परीक्षा वास्तव में विषय के ज्ञान की जाँच न करके, बालकों की भाषा, लेखन – शक्ति इत्यादि की जाँच करती है ।

5. इसमें भविष्यवाणी का अभाव होता है :-

इस प्रणाली के परिणामों के आधार पर छात्रों के भविष्य के सम्बन्ध में किसी प्रकार का निश्चित निर्णय नहीं दिया जा सकता है । इसका कारण यह है कि अंकों की प्राप्ति रटने की शक्ति, लेखन – शक्ति, अभिव्यंजना, सुलेख, उपयुक्त भाषा एवं संयोग पर निर्भर रहती है ।

6. इसमें आत्मनिष्ठता होती है :-

इस प्रणाली में आत्मनिष्ठता की प्रधानता पाई जाती है, जबकि अच्छे परीक्षण में वस्तुनिष्ठता का होना आवश्यक होता है । इसमें उत्तरों के अंकन में परीक्षक के विचारों, धारणाओं, मानसिक स्तर, मनोदशा, अभिवृत्तियाँ इत्यादि का बहुत प्रभाव पड़ता है । इसमें उत्तर – पुस्तिकाओं के अंकन के लिए वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं के समान कोई उत्तर – तालिका नहीं होती है, जिसको आधार बनाकर सभी परीक्षक, उत्तर – पुस्तिकाओं का अंकन कर सकें । कुछ परीक्षक सहृदय होने के कारण अधिक अंक प्रदान करते हैं, कुछ कठोर होने के कारण कम, कुछ आलसी तथा लापरवाह होने के कारण उत्तरों को पढ़ते ही नहीं हैं, बल्कि अव्यवस्थिति ढंग से अंक प्रदान करते हैं । इन सब कारणों के फलस्वरूप इस प्रणाली में आत्मनिष्ठा की मात्रा अधिक मिलती है ।

7. इसमें अंकन में अधिक समय लगता है :-

इस प्रणाली में छात्रों द्वारा दिए जाने वाले उत्तर काफी लम्बे होते हैं । उनको अच्छी तरह से पढ़कर ही उनका उचित ढंग से मूल्यांकन किया जा सकता है । इसके लिए न केवल अधिक समय और अधिक शक्ति की भी आवश्यकता है । स्टालनकर ने कहा है कि –

 अच्छी तरह से लिखे गए निबन्धात्मक प्रश्न का ठीक मूल्यांकन दीर्घकालीन और कठिन कार्य है और इसे उचित प्रकार से करने के लिए बुद्धि, परिश्रम और धैर्य की आवश्यकता है ।

निबन्धात्मक परीक्षाएँ के विषय में ऐलिस का मत है कि –

 छात्रों को मौलिकता का अवसर देती हैं और उनकी तर्क शक्ति की जाँच करने के लिए वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं की अपेक्षा इनका प्रयोग साधारणतः अधिक सरल है

वस्तुनिष्ठ परीक्षण

वस्तुनिष्ठ परीक्षण वस्तुनिष्ठ परीक्षणों का विकास करने का सराहनीय कार्य जे . एम . राइस का है। उसने इन परीक्षणों की रचना, प्रयोग और अंकन इत्यादि के सम्बन्ध में अनेकों मौलिक कार्य किए हैं। उसके कार्यों से प्रोत्साहित होकर स्टार्च व इलियट ने अनेक अध्ययन करके इन परीक्षणों की उपयोगिता को सिद्ध किया है। फलस्वरूप इनके प्रयोग पर अधिकाधिक बल दिया जाने लगा है।वस्तुनिष्ठ परीक्षा, वह परीक्षा है, जिनमें विभिन्न परीक्षक स्वतन्त्रापूर्वक कार्य करने के बाद अंकों के सम्बन्ध में एक ही निष्कर्ष पर पहुँचते हैं या समान उत्तरों के लिए समान अंक प्रदान करते हैं। गुड का कहना है कि –

 वस्तुनिष्ठ परीक्षा साधारणतः सत्य – असत्य उत्तर, बहसंख्यक चुनाव, मिलान या पूरक प्रकार के प्रश्नों पर आधारित होती है, जिसके सही उत्तरों का तालिका की सहायता से अंकन किया जाता है। यदि कोई तालिका के विपरीत होता है, जो उसे गलत माना जाता है

वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के प्रकार

वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के मुख्य प्रकार निम्नलिखित हैं –

  • सरल पुनः स्मरण टेस्ट :- इस टेस्ट के अन्तर्गत परीक्षार्थी को प्रश्नों के उत्तर स्वयं स्मरण करके लिखने पड़ते हैं।
  • सत्य – असत्य टेस्ट :- इस टेस्ट के अन्तर्गत परीक्षार्थी को सत्य या असत्य में उत्तर देने पड़ते हैं।
  • बहुसंख्यक चुनाव टेस्ट :- इस टेस्ट के अन्तर्गत परीक्षार्थी को दिए हुए अनेक उत्तरों में से सही उत्तर का चुनाव करना पड़ता है।
  • मिलान टेस्ट :- इस टेस्ट के अन्तर्गत परीक्षार्थी को दो पदों में मिलान करके कोष्ठक में सही पद लिखना पड़ता है।
  • पूरक टेस्ट :- इस टेस्ट के अन्तर्गत परीक्षार्थी को वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति करनी पड़ती है।

वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के गुण तथा विशेषताएँ

वस्तुनिष्ठ परीक्षा – प्रणाली अपनी विशेषताओं के कारण ही प्रचलन में दिन – प्रतिदिन लगातार वृद्धि होती चली जा रही है। वस्तुनिष्ठ परीक्षा – प्रणाली विशेषताएं निम्नलिखित हैं –

  • इसमें वैधता होती है :- वैधता इस प्रणाली का एक मुख्य गुण है। यह उसी निर्धारित योग्यता का माप करती है, जिसके लिए इसका निर्माण किया जाता है।
  • इसमें वस्तुनिष्ठता होती है :- इस प्रणाली में वस्तुनिष्ठता इतनी अधिक होती है कि अंक प्रदान करने के समय परीक्षक के व्यक्तिगत निर्णय, विचार, धारणा, मानसिक स्तर, मनोदशा इत्यादि के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता है।
  • इसमें विश्वसनीयता होती है :- इस प्रणाली में विश्वसनीयता अपनी चरम सीमा पर पाई जाती है। इसका कारण यह है कि चाहे कोई भी व्यक्ति अंक प्रदान करे, उनमें किसी भी प्रकार का अन्तर नहीं होता है।
  • इसमें विभेदीकरण होता है :- इस प्रणाली की एक मुख्य विशेषता है – इसकी विभेदीकरण करने की क्षमता। इसका अर्थ यह है कि प्रतिभाशाली तथा मन्दबुद्धि छात्रों के भेद को स्पष्ट कर देती है।
  • इसमें विस्तृत प्रतिनिधित्व होता है :- इस प्रणाली में प्रत्येक प्रश्न – पत्र में प्रश्नों की संख्या इतनी अधिक होती है कि विषय का कोई भी अंक अछूता नहीं रह जाता है। इस तरह यह प्रणाली विषय का विस्तृत प्रतिनिधित्व करती हैं
  • इसमें धन की बचत होती है :- इस प्रणाली में इतना कम लिखना पड़ता है कि साधारणतया दो – तीन पृष्ठों की उत्तर – पुस्तिकाएँ काफी होती हैं।
  • इसमें समय की बचत होती है :- इस प्रणाली में छात्र कम समय में बहुत से प्रश्नों का उत्तर देते हैं। परीक्षकों को भी उत्तर पुस्तिकाओं को जाँचने में कम समय लगता है।
  • इसमें एक संक्षिप्त उत्तर देना पड़ता है :- प्रणाली में एक प्रश्न का केवल एक ही संक्षिप्त उत्तर हो सकता है। अतः छात्रों को अपने उत्तरों के सम्बन्ध में किसी प्रकार का भ्रम नहीं रह सकता है।
  • इसमें उत्तर की सरलता होती है :- इस प्रणाली में उत्तर देना बहुत ही आसान होता है। इसका कारण यह है कि छात्र हाँ या नहीं लिखकर सत्य या असत्य में से एक पर निशान लगाकर, एक या दो शब्दों को रेखांकित करके तथा इसी प्रकार के अन्य सरल कार्य करके उत्तर दे सकते हैं।
  • इसमें छात्रों को सन्तोष प्राप्त होता है :- इस प्रणाली में छात्रों को ठीक अंक मिलते हैं। इससे उनको न केवल सन्तोष ही प्राप्त होता है, बल्कि उनको अधिक परिश्रम करने की प्रेरणा भी मिलती है।
  • इसमें छात्रों की उत्तर पुस्तिका को जाँचने में कम समय लगता है :- इस प्रणाली में उत्तर – पुस्तिकाओं को जाँचने में इतना कम समय लगता है कि परीक्षण के कुुुछ समय में ही परिणाम घोषित किया जा सकता है। इस तरह यह प्रणाली छात्रों के लिए बहुत उपयोगी है।
  • इसमें अंकों में समानता होती है :- इस प्रणाली में सब छात्रों को सब परीक्षकों से समान अंक प्राप्त होते हैं।
  • इसमें अंकन में सरलता होती है :- इस प्रणाली में अंकन, उत्तरों की तालिका की सहायता से किया जाता है। अतः अंकन का कार्य एकदम सरल होता है तथा समय भी कम लगता है।
  • इसमें रटने का अन्त हो जाता है :- यह प्रणाली रटने की प्रथा का अन्त करती है, क्योंकि इस प्रणाली में कुछ प्रश्नों के उत्तरों को रट लेने से ही काम नहीं चलता है। अतः छात्र रटने के बजाय विषय – वस्तु को ध्यान से पढ़कर स्मरण करते हैं।
  • इसमें ज्ञान की वास्तविक जाँच होती है :- इस प्रणाली में छात्रों को अति संक्षिप्त उत्तर देने पड़ते हैं। अतः वे अपनी अज्ञानता को भाषा के आवरण में नहीं छिपा पाते हैं। इस तरह यह प्रणाली ज्ञान की वास्तविक जाँच करती है।

वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के दोष

परीक्षणों के निरन्तर प्रयोग से इनमें कुछ दोष इस तरह उभर कर सामने आ गए हैं, जिनके कारण अनेकों शिक्षाविद इनको छात्रों के लिए अहितकर समझने लगे हैं। इस प्रकार के कुछ दोष निम्नलिखित हैं–

  • यह अनुमान को प्रोत्साहन देता है :- ये परीक्षण, छात्रों में अनुमान लगाने की अवांछनीय प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देते हैं। वे बुद्धि का प्रयोग नहीं करके केवल अनुमान से सत्य या असत्य पर चिह्न लगा देते हैं तथा शब्दों को रेखांकित कर देते हैं।
  • इसमें भाषा व शैली की दुर्बलता होती है :- इन परीक्षणों का भाषा तथा शैली से कोई प्रयोजन नहीं होता है। अतः छात्र इन बातों की ओर जरा भी ध्यान नहीं देते हैं। फलस्वरूप, उनकी भाषा तथा शैली हमेशा के लिए दुर्बल हो जाती है।
  • इसमें भाव – प्रकाशन की असमर्थता होती है :- ये परीक्षण, छात्रों की अभिव्यंजना – शक्ति का विकास नहीं कर पाते हैं। अतः वे अपने भावों का प्रकाशन करने में असमर्थ सिद्ध होते हैं।
  • इसमें श्रेष्ठ मानसिक शक्तियों की जाँच असम्भव होती है :- इन परीक्षणों द्वारा श्रेष्ठ मानसिक शक्तियों की जाँच असम्भव होती है। जैसे – तर्क, चिन्तन, मौलिक विचार, सृजनात्मक कल्पना तथा विश्लेषणात्मक शक्तियों की जाँच का कोई स्थान नहीं होता है।
  • इसमें केवल तथ्यात्मक ज्ञान की जाँच होती है :- इन परीक्षणों द्वारा केवल तथ्यात्मक ज्ञान पर बल दिया जाता है। अतः इसके अन्तर्गत केवल इसी ज्ञान की जाँच की जा सकती है।
  • इसमें विवादग्रस्त तथ्यों एवं समस्याओं की अवहेलना होती है :- साहित्य, इतिहास तथा सामाजिक विज्ञान में अनेकों विवादग्रस्त तथ्य तथा समस्याएँ होती हैं तथा इनको अत्यधिक महत्त्वपूर्ण समझा जाता है, क्योंकि वस्तुनिष्ठ परीक्षणों में प्रश्नों के उत्तर सन्देहपूर्ण नहीं हो सकते हैं। इसलिए इन महत्त्वपूर्ण विवादग्रस्त तथ्यों तथा समस्याओं को हमेशा के लिए छोड़ दिया जाता है।
  • इसमें अधिक धन की आवश्यकता होती है वस्तुनिष्ठ परीक्षणों में प्रश्नों की संख्या बहुत अधिक होती है :- इन प्रश्नों को बोलना या श्यामपट्ट पर लिखना असम्भव होता है। अतः हर बार इनकी उतनी ही प्रतियाँ छपवानी पड़ती हैं, जितने कि छात्र होते हैं। इसके लिए काफी मात्रा में धन की आवश्यकता पड़ती है।
  • इसमें शिक्षक पर अत्यधिक भार होता है :- ये परीक्षण, शिक्षक पर अत्यधिक भार डालते हैं। छोटे उत्तरों वाले प्रश्नों को बनाने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है। इसके अलावा इनकी संख्या भी बहुत अधिक होती है। अतः इसका अधिकांश समय इन प्रश्नों की रचना में व्यतीत हो जाता है।