भारतीय जलीय निकायों में एक परेशानी घास के रूप में प्रदूषण निकलने के लिए एक जलीय पौधे को अमेरिका से पेश किया गया। इसका क्या नाम है?
[A] नागफनी
[B] एगीओल्प्स
[C] जलकुंभी
[D] पिस्टिया
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Correct Answer: B [एगीओल्प्स]
Notes:
जलकुंभी दक्षिण अमेरिका का एक पौधा है । यह बहुत अधिक संख्या में बीज उत्पन्न करता है तथा इसके बीजों में अंकुरण की क्षमता 30 वर्षों तक होती है।
17.
नाइट्रोजन चक्र में, मिट्टी नाइट्रेट्स को मुक्त नाइट्रोजन में किसके द्वारा बदल दिया जाता है?
[A] नाईट्रीफाइंग बैक्टीरिया
[B] डीनाईट्रीफाइंग बैक्टीरिया
[C] एमोनीफाइंग बैक्टीरिया
[D] इनमें से कोई नहीं
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Correct Answer: B [डीनाईट्रीफाइंग बैक्टीरिया]
Notes:
नाइट्रोजन चक्र में, मिट्टी नाइट्रेट्स को मुक्त नाइट्रोजन में डीनाईट्रीफाइंग बैक्टीरिया के द्वारा बदल दिया जाता है
18.
सल्फर डाई ऑक्साइड के प्रदूषण का जैविक सूचक है:-
[A] काई
[B] धुआँ
[C] ब्राओफाइटा
[D] इनमें से कोई नहीं
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Correct Answer: A [काई]
Notes:
सल्फर डाई ऑक्साइड के प्रदूषण का जैविक सूचक काई है।
19.
पानी के फ़र्न अज़ोला और साइनोबैक्टीरियम अन्नाबेना के बीच संबंध है:-
[A] सहजीवी
[B] पारस्परिक
[C] परजीविता
[D] आद्य-सहयोग
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Correct Answer: A [सहजीवी]
Notes:
पानी के फ़र्न अज़ोला और साइनोबैक्टीरियम अन्नाबेना परस्पर सहजीवी होते हैं।
20.
निम्नलिखित में कौन सा मूँगा चट्टान का क्षेत्र नहीं है?
[A] मन्नार की खाड़ी
[B] खम्भात की खाड़ी
[C] लक्षद्वीप
[D] अंडमान निकोबार द्वीपसमूह
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Correct Answer: B [खम्भात की खाड़ी]
Notes:
भारत में मूंगा चट्टान की चार जगहें हैं:-
मन्नार की खाड़ी
लक्षद्वीप
अंडमान निकोबार द्वीपसमूह
कच्छ की खाड़ी
21.
विश्व का सर्वाधिक प्रतिव्यक्ति कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जक है:-
[A] कतर
[B] संयुक्त राज्य अमेरिका
[C] चीन
[D] भारत
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Correct Answer: A [कतर]
Notes:
क़तर दुनिया का प्रति व्यक्ति सबसे बड़ा कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जक है। हालांकि कुल मिलाकर सबसे बड़ा कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जक चीन है।
22.
निम्नलिखित में कौन सी ग्रीन हाउस गैस नहीं है?
[A] मेथेन
[B] नाइट्रस ऑक्साइड
[C] सल्फर हेक्सा फ्लोराइड
[D] कार्बन मोनोऑक्साइड
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Correct Answer: D [कार्बन मोनोऑक्साइड]
Notes:
कार्बन मोनोऑक्साइड एक बड़ा प्रदूषक है लेकिन ग्रीन हाउस गैस नहीं है
23.
निम्नलिखित में कौन सा कथन गलत है।
[A] फोटोकेमिकल धुंध में हमेशा ओजोन होता है।
[B] कार्बन मोनोऑक्साइड का जहरीला प्रभाव ऑक्सीजन की तुलना में हीमोग्लोबिन के लिए अधिक से अधिक आकर्षक है।
[C] लीड ऑटोमोबाइल निकास का सबसे खतरनाक धातु प्रदूषक है
[D] इनमें से कोई नहीं
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Correct Answer: D [इनमें से कोई नहीं]
Notes:
ये सभी कथन सत्य हैं।
24.
इकोलॉजी शब्द किसने प्रतिपादित किया?
[A] चार्ल्स डार्विन
[B] रॉबर्ट व्हिटटेकर
[C] आर्थर टांसले
[D] अर्नेस्ट हैकल
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Correct Answer: D [अर्नेस्ट हैकल]
Notes:
इकोलॉजी या पारिस्थितिकी विज्ञान पारिस्थितिकी का अध्ययन कराने वाली पर्यावरण की एक शाखा है। इसकी स्थापना 1866 में अर्नेस्ट हैकल ने की।
25.
इकोटोन में जो प्रजातियाँ प्रचुर मात्रा में पाई जाती हैं, क्या कहलाती हैं?
[A] एज प्रजातियाँ
[B] कीस्टोन प्रजातियाँ
[C] एंडेमिक प्रजातियाँ
[D] फोस्टर प्रजातियाँ
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Correct Answer: A [एज प्रजातियाँ]
Notes:
दो बायोम के मध्य का सक्रमंणकालिन क्षेत्र इकोटोन कहलाता हैं। इकोटोन में प्रचुर मात्रा में पाई जाने वाली प्रजातियाँ एज प्रजातियाँ कहलाती हैं।
26.
साइबेरियन सारस किस नेशनल पार्क में आता है?
[A] केवलादेव नेशनल पार्क
[B] मानस नेशनल पार्क
[C] दुधवा नेशनल पार्क
[D] जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क
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Correct Answer: A [केवलादेव नेशनल पार्क]
Notes:
साइबेरियन सारस एक खतरे में प्रजाति है। यह भारत के केवलादेव नेशनल पार्क में आती है। केवकादेव नेशनल पार्क राजस्थान में है। इसका क्षेत्रफल 28.73 वर्ग किमी है और इसकी स्थापना 1982 में हुई। यह यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर घोषित किया गया है।
27.
चट्टानों के कितने प्रकार होते हैं?
[A] 1
[B] 2
[C] 3
[D] 4
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Correct Answer: C [3]
Notes:
चट्टानों के 3 प्रकार होते हैं:-
आग्नेय शैल
अवसादी शैल
रूपांतरित या कायांतरित शैल
28.
भारत में सबसे ज्यादा टाइगर रिज़र्व किस प्रदेश में हैं?
[A] महाराष्ट्र
[B] पश्चिम बंगाल
[C] उत्तर प्रदेश
[D] मध्य प्रदेश
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Correct Answer: D [मध्य प्रदेश]
Notes:
भारत में सबसे ज्यादा टाइगर रिज़र्व मध्य प्रदेश में हैं। मध्य प्रदेश में ही भारत के सर्वाधिक वन्यजीव अभ्यारण्य, नेशनल पार्क हैं।
29.
अर्थ ऑवर किसके द्वारा मनाया जाता है?
[A] यूनेस्को
[B] WWF
[C] संयुक्त राष्ट्र
[D] IUCN
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Correct Answer: B [WWF]
Notes:
अर्थ ऑवर WWF द्वारा मनाया जाता है। इसके 5 मिलियन समर्थक हैं और यह 100 देशों में फैला हुआ है। इसका उद्देश्य धरती के संसाधनों को बचाना है।
30.
राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (NGT) के पहले अध्यक्ष कौन थे?
[A] जस्टिस ए ई नायडू
[B] जस्टिस लोकेश्वर सिंह
[C] जस्टिस मार्कण्डेय काटजू
[D] इनमें से कोई नहीं
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Correct Answer: B [जस्टिस लोकेश्वर सिंह ]
Notes:
एन जी टी की स्थापना 2010 में हुई। इसके पहले अध्यक्ष जस्टिस लोकेश्वर सिंह थे।
प्रश्न=34 दुष्प्रकृति में संधि है (अ) स्वर संधि (ब) व्यंजन संधि (स) विसर्ग संधि (द) प्रकृतिभावसंधि 👉🏻(स)
प्रश्न=35.स्वर संधि के कितने भेद होते हैं। (अ) 3 (ब) 4 (स) 5 (द) 6 👉(स)
प्रश्न=36.विसर्ग संधि कहते हैं:- (अ) विसर्ग से,स्वर के मेल के कारण हुए विकार को। (ब) विसर्ग से, व्यंजन के मेल के कारण हुए विकार को। (स) विसर्ग से ,स्वर या व्यंजन के मेल के कारण हुए विकार को। (द) विसर्ग, से विसर्ग के मेल के कारण हुए विकार को। 👉(स)
प्रश्न=37.’जगदम्बा ‘ शब्द मे प्रयुक्त संधि हैं। (अ) स्वर संधि (ब) अयादि संधि (स) गुण संधि (द) व्यंजन संधि 👉(द)
प्रश्न=38. ‘व्यायाम’ मे कौनसी संधि हैं। (अ) यण संधि (ब) गुण संधि (स) व्रृदि संधि (द) अयादि संधि 👉(अ)
प्रश्न=39.’बहिरंग’ शब्द मे कौनसी संधि हैं। (अ) व्यंजन संधि (ब) दीर्घ संधि (स) विसर्ग संधि (द) गुण संधि 👉(स)
प्रश्न=40. सौजन्य शब्द का संधि विच्छेद होगा – (अ) सु + जन्य (ब) सजन + य (स) सुजन + य (द) स : +जन्य 👉(स)
प्रश्न=41. वैभव शब्द में संधि होंगी – (अ) अयादि (ब) वृद्धि (स) गुण (द) दीर्घ 👉(अ)
प्रश्न=42. नि + अस्त की संधि होगी – (अ) नि:अस्त (ब) न्वस्त (स) न्यस्त (द) नस्त 👉(स)
प्रश्न=43. दीर्घ संधि का रूप नहीं हैं – (अ) अ +आ (ब) इ + इ (स) उ + उ (द) ए ए 👉(द)
प्रश्न=44. अ + इ में संधि होती हैं (अ) दीर्घ (ब) गुण (स) वृद्धि (द) यण 👉(ब)
प्रश्न=45.’ प्रेरणास्पद ‘ शब्द का संधि-विच्छेद होगा (अ) प्रेरणा+ स्पद (ब) प्रेरणा + आस्पद (स) प्रेरणा + पद (द) प्रेरणा + अस्पद 👉(ब)
प्रश्न=47.इनमे से किस शब्द की संधि अशुद्ध हैं (अ) देवी + अवतरण = देव्यवतरण (ब) स्त्री + उपयोगी = स्त्रीयोपयोगी (स) अधि + अधीन = अध्यधीन (द) सत, + मार्ग = सन्मार्ग 👉(ब)
प्रश्न=48.निम्न में से किस शब्द की संधि सही है (अ) राम + ईश = रमेश (ब) उत्तर + अयन = उत्तरायन (स) ध्वनि + अर्थ = ध्वन्यार्थ (द) पितृ + आज्ञा = पित्राज्ञा 👉(द)
प्रश्न=49.’ यथेष्ट ‘ का सही संधि-विच्छेद हैं (अ) यथा + इष्ट (ब) यथ + इष्ट (स) यथा + ईष्ट (द) यथ + ईष्ट 👉(अ)
ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने गाँधी जयंती के अवसर पर ‘मो सरकार’ अभियान लांच किया। इस अभियान के तहत लोगों को उत्तम सरकारी सेवा दी जायेगी। इस अभियान के तहत सरकारी दफ्तरों में काम करवाने के लिए आने वाले लोगों से फीडबैक ली जाएगी। फीडबैक के आधार पर सरकारी कर्मचारियों को रैंकिंग दी जायेगी।
2.
निम्नलिखित बहुपक्षीय सम्मेलन में से कौन सा स्थायी कार्बनिक प्रदूषक से मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण की रक्षा करने के लिए है?
[A] बोन सम्मेलन
[B] स्टॉकहॉम सम्मेलन
[C] रॉटरडैम सम्मेलन
[D] बेसल सम्मेलन
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Correct Answer: B [स्टॉकहॉम सम्मेलन]
Notes:
स्टॉकहोम सम्मेलन स्थायी कार्बनिक प्रदूषक से मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण की रक्षा करने के लिए है।
3.
मोंट्रिक्स रिकॉर्ड किसका रजिस्टर है?
[A] खतरे में स्थित विदेशी प्रजातियाँ
[B] खतरे में स्थित वन्य प्रजातियाँ
[C] मानवजनित गतिविधियों के तहत खतरे में जलीय स्थान
[D] इनमें से कोई नहीं
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Correct Answer: C [मानवजनित गतिविधियों के तहत खतरे में जलीय स्थान]
Notes:
मानवजनित गतिविधियों से उतपन्न प्रदूषण से खतरे में स्थित जलीय स्थानों को मोंट्रिक्स रिकॉर्ड में रखा जाता है।
4.
निम्नलिखित में कौन सी बीमारी से कोयले की खान में काम करने वाले मजदूरों की उम्र कम हो जाती है और उस बीमारी को ब्लैक लंग्स बीमारी कहा जाता है?
[A] क्लोमगोलाणुरुग्णता
[B] प्रगतिशील विशाल फाइब्रोसिस
[C] मेसोथेलियोमा
[D] इनमें से कोई नहीं
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Correct Answer: A [क्लोमगोलाणुरुग्णता]
Notes:
क्लोमगोलाणुरुग्णता मुख्य रूप से खदानों में काम करने वाले लोगों को होती है। इसका कोई स्थायी इलाज नहीं है।
5.
वन्यजीव संरक्षण के क्षेत्र में अदम्य साहस दिखाने वाले को कौन सा पुरस्कार दिया जाता है?
[A] इंदिरा गांधी पर्यावरण पुरस्कार
[B] मेदिनी पुरस्कार योजना
[C] अमृता देवी बिश्नोई पुरस्कार
[D] पीताम्बर पंत राष्ट्रीय पुरस्कार
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Correct Answer: C [अमृता देवी बिश्नोई पुरस्कार]
Notes:
अमृता देवी बिश्नोई पुरस्कार वन्यजीव संरक्षण के क्षेत्र में अदम्य साहस दिखाने वाले को दिया जाता है।इसमें 1 लाख रुपये की राशि प्रदान की जाती है।
6.
दाचीगाम राष्ट्रीय उद्यान कहाँ है?
[A] जम्मू कश्मीर
[B] हिमाचल प्रदेश
[C] उत्तराखंड
[D] पंजाब
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Correct Answer: A [जम्मू कश्मीर]
Notes:
दाचीगाम राष्ट्रीय उद्यान जम्मू कश्मीर में श्रीनगर से 22 किमी दूर है। इसका मुख्य जानवर बारहसिंगा है।
7.
समताप मंडल की ओजोन गैस की परत की मोटाई किस इकाई में नापी जाती है?
[A] सीएवर्ट्स
[B] डॉबसन इकाई
[C] मेल्सन इकाई
[D] इनमें से कोई नहीं
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Correct Answer: B [डॉबसन इकाई]
Notes:
ओजोन परत की खोज 1913 में फ्रेंच वैज्ञानिक चार्ल्स फब्रे और हेनरी बिस्सोन ने की। इसके गुणों का अध्ययन वैज्ञानिक G.M.B. डॉबसन ने किया। उन्होंने इसकी मोटाई नापने के लिए स्पेक्ट्रोफोटोमीटर विकसित किया। उन्हीं के नाप पर ओजोन परत की मोटाई डॉबसन इकाई में नापी जाती है।
8.
कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जक देशों की सूची किस स्रोत से कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन पर आधारित होती है?
[A] जीवाश्म ईंधन का जलना
[B] सीमेंट उद्योग
[C] उपर्युक्त दोनों
[D] इनमें से कोई नहीं
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Correct Answer: C [उपर्युक्त दोनों]
Notes:
कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जक देशों की सूची जीवाश्म ईंधन जलने और सीमेंट उद्योग से उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड पर आधारित होती है।
9.
विश्व में सबसे ज्यादा पाई जाने वाली ग्रीन हाउस गैस है:-
[A] कार्बन डाइऑक्साइड
[B] जलवाष्प
[C] सल्फर डाई ऑक्साइड
[D] ओजोन
Hide Answer
Correct Answer: B [जलवाष्प]
Notes:
जलवाष्प सबसे ज्यादा पाई जाने वाली ग्रीन हाउस गैस है। यह साफ आसमान में 36 से 66 और बादलों वाले आकाश में 66 से 86 प्रतिशत ग्रीन हाउस प्रभाव उत्पन्न करती है।
10.
कार्टाजेना प्रोटोकॉल किसके सुरक्षित उपयोग, स्थानांतरण और हैंडलिंग के बारे में है?
[A] नाभिकीय कचरा
[B] आक्रामक विदेशी प्रजातियां
[C] संशोधित जीवित जीव (LMO)
[D] इनमें से कोई नहीं
Hide Answer
Correct Answer: C [संशोधित जीवित जीव (LMO)]
Notes:
कार्टाजेना प्रोटोकॉल 29 जनवरी 2000 को हस्ताक्षरित हुआ और 11 सिंतबर 2003 से लागू हुआ। यह LMO के सुरक्षित उपयोग, स्थानांतरण और हैंडलिंग के बारे में है।
11.
रेड डेटा बुक किन खतरे में स्थित प्राणियों की लिस्ट है:-
1- जानवर
2- पेड़
3- फुंगी
[A] केवल 1
[B] केवल 1 और 2
[C] केवल 2
[D] ये तीनो
Hide Answer
Correct Answer: D [ये तीनो ]
Notes:
रेड डेटा बुक उन प्रजातियों की सूची है जो खतरे में होती हैं। हर रेड डेटा बुक में जानवर या वृक्ष अथवा फुंगी की लिस्ट होती है जो खतरे में होती हैं।
12.
जैवविविधता हॉटस्पॉट के रूप में घोषित होने के लक्षण क्या है?
1- इस क्षेत्र में कम से कम 0.5 प्रतिशत या विनाशकारी पौधों की 1500 प्रजातियों को स्थानिक प्रजातियों के रूप में होना चाहिए।
2- इस क्षेत्र को अपनी प्राथमिक वनस्पति का कम से कम 70 प्रतिशत नष्ट करना चाहिए।
[A] केवल 1
[B] केवल 2
[C] ये दोनों
[D] इनमें से कोई नहीं
Hide Answer
Correct Answer: C [ये दोनों]
Notes:
ये दोनों ही जैवविविधता हॉटस्पॉट के लक्षण हैं।
13.
निम्नलिखित में कौन सा प्रोटोकॉल उसके मुद्दे से सही सम्बंधित नहीं है?
[A] 1987 का मोंट्रियल प्रोटोकॉल – ओजोन क्षयकारी पदार्थ
[B] 1979 का बोन सम्मेलन – प्रवासी प्रजातियों के संरक्षण
[C] 1989 का बासेल सम्मेलन – ट्रांसबाउंडरी आंदोलन, पारगमन, हैंडलिंग और रहने वाले संशोधित जीवों के उपयोग का विनियमन
[D] 1998 का रॉटरडैम सम्मेलन -कुछ खतरनाक रसायन और कीटनाशकों के अंतरराष्ट्रीय व्यापार में सहमति
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Correct Answer: C [1989 का बासेल सम्मेलन – ट्रांसबाउंडरी आंदोलन, पारगमन, हैंडलिंग और रहने वाले संशोधित जीवों के उपयोग का विनियमन]
Notes:
खतरनाक अपशिष्टों और उनके निपटान के संक्रमण-सीमा आंदोलनों के नियंत्रण पर बेसल कन्वेंशन, जिसे आमतौर पर बसिल कन्वेंशन के रूप में जाना जाता है, एक अंतर्राष्ट्रीय संधि है जो राष्ट्रों के बीच खतरनाक कचरे के आंदोलन को कम करने के लिए डिजाइन किया गया था, और विशेष रूप से खतरनाक हस्तांतरण को रोकने के लिए शुरू किया गया था।
14.
पश्चिमी घाट पारिस्थितिकी विशेषज्ञ पैनल (WGEEP) के अध्यक्ष कौन हैं?
[A] आर•के•पचौरी
[B] वंदना शिव
[C] माधव गाडगिल
[D] प्रदीप कृष्णन
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Correct Answer: C [माधव गाडगिल]
Notes:
पश्चिमी घाट पारिस्थितिकी विशेषज्ञ पैनल (WGEEP) Western Ghats Ecology Expert Panel (WGEEP), पश्चिमी घाटों के संरक्षण और देखभाल के लिए बनाई गई थी। इसे गाडगिल समिति भी कहा जाता है।
15.
शेर की पूँछ वाला मकाक किस वन्यजीब रिजर्व में पाया जाता है?
[A] नीलगिरि
[B] दिहांग-दिबांग
[C] नोकरेक
[D] इनमें से कोई नहीं
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Correct Answer: A [नीलगिरि]
Notes:
शेर की पूंछ वाला मकाक पश्चिम घाटों में पाया जाता है। यह नीलगिरि की पहाड़ियों में पाया जाता है। यह दुर्लभ प्रजाति है।
वैयक्तिक विभिन्नता प्रकृति का नियम है कि संसार में कोई भी दो व्यक्ति पूर्णतया एक-जैसे नहीं हो सकते, यहाँ तक कि जुड़वाँ बच्चों में भी कई समानताओं के बावजूद कई अन्य प्रकार की विभिन्नताएँ दिखाई पड़ती हैं। जुड़वाँ बच्चे शक्ल-सूरत से तो हू-ब-हू एक जैसे दिख सकते हैं, किन्तु उनके स्वभाव, बुद्धि, शारीरिक-मानसिक क्षमता, आदि में अन्तर होता है। भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में इस प्रकार की विभिन्नता को ही वैयक्तिक विभिन्नता कहा जाता है।
स्किनर के अनुसार, ‘वैयक्तिक विभिन्नताओं से हमारा तात्पर्य व्यक्तित्व के उन सभी पहलुओं से है जिनका मापन व मूल्यांकन किया जा सकता है।
‘जेम्स ड्रेवर के अनुसार, ‘‘कोई व्यक्ति अपने समूह के शारीरिक तथा मानसिक गुणों के औसत से जितनी भिन्नता रखता है, उसे वैयक्तिक भिन्नता कहते हैं।
‘टॉयलर के अनुसार,‘शरीर के रूप-रंग, आकार, कार्य, गति, बुद्धि, ज्ञान, उपलब्धि, रुचि, अभिरुचि आदि लक्षणों में पाई जाने वाली भिन्नता को वैयक्तिक भिन्नता कहते हैं।”प्रत्येक शिक्षार्थी स्वयं में विशिष्ट है। इसका अर्थ है कि कोई भी दो शिक्षार्थी अपनी योग्यताओं, रुचियों और प्रतिभाओं में एकसमान नहीं होते।
वैयक्तिक विभिन्नताओं के प्रकारवैयक्तिक विभिन्नताओं को विभिन्न आधारों पर वर्गीकृत किया गया है।
भाषा के आधार पर वैयक्तिक विभिन्नताएँअन्य कौशलों की तरह ही भाषा भी एक कौशल है। प्रत्येक व्यक्ति में भाषा के विकास की भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ पाई जाती हैं। यह विकास बालक के जन्म के बाद ही प्रारम्भ हो जाता है। अनुकरण, वातावरण के साथ अनुक्रिया तथा शारीरिक, सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति की माँग इसके विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसका विकास धीरे-धीरे परन्तु एक निश्चित क्रम में होता है।कोई बालक भाषा के माध्यम से अपने विचारों को अभिव्यक्त करने में अधिक कुशल होता है, जबकि कुछ बालक इस मामले में उतने कुशल नहीं होते।
लिंग के आधार पर वैयक्तिक विभिन्नतासामान्यतः स्त्रियाँ कोमलांगी होती हैं, किन्तु अधिगम के क्षेत्रों में बालकों एवं बालिकाओं में भिन्नता नहीं होती।स्त्रियों का शारीरिक गठन पुरुषों से अलग होता है। सामान्यत: पुरुष स्त्रियों से अधिक लम्बे होते हैं।
बुद्धि के आधार पर वैयक्तिक विभिन्नता(1) परीक्षणों के आधार पर ज्ञात हुआ है कि सभी व्यक्तियों की बुद्धि एकसमान नहीं होती।(2) बालकों में भी बुद्धि के आधार पर वैयक्तिक विभिन्नता दिखाई पड़ती है।(3) कुछ बालक अपनी आयु की अपेक्षा अधिक बुद्धि को प्रदर्शित करते हैं, इसके विपरीत कुछ बच्चों में सामान्य बुद्धि पाई जाती है।(4) बुद्धि-परीक्षण के आधार पर यह ज्ञात किया जा सकता है कि कोई बालक किसी अन्य बालक से कितना अधिक बुद्धिमान है?
परिवार एवं समुदाय के आधार पर वैयक्तिक विभिन्नता मानव के व्यक्तित्व के विकास पर उसके परिवार एवं समुदाय का स्पष्ट प्रभाव पड़ता है। इसलिए समुदाय के प्रभाव को वैयक्तिक विभिन्नता में भी देखा जा सकता है। अच्छे परिवार एवं समुदाय से सम्बन्ध रखने वाले बच्चों का व्यवहार सामान्यतः अच्छा होता है। यदि किसी समुदाय में किसी प्रकार के अपराध करने की प्रवृत्ति हो, तो इसका कुप्रभाव उस समुदाय के बच्चों पर भी पड़ता है। यद्यपि आर्थिक-सामाजिक स्तर तथा बुद्धि-लब्धि का सम्बन्ध तो है, किन्तु यह बहुत उच्च स्तर का नहीं है। इन दोनों में सह-सम्बन्ध अवश्य पाया गया है, किन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि निम्न सामाजिक-आर्थिक समूह से आने वाले बच्चे कम बुद्धिमान एवं उच्च सामाजिक-आर्थिक समूह के बच्चे अधिक बुद्धिमान होते हैं। इसके विपरीत निम्न स्तर के आर्थिक एवं सामाजिक समूह में अनेक उच्च बुद्धि-लब्धि वाले बालक पाए जाते हैं और उच्च स्तर के आर्थिक-सामाजिक समूह में निम्न बुद्धि-लब्धि वाले बालक पाए जाते हैं।बालकों के पोषण पर परिवार एवं समुदाय का प्रभाव अवश्य पड़ता है एवं इस प्रकार की विभिन्नता में परिवार एवं समुदाय की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।
संवेग के आधार पर वैयक्तिक विभिन्नतासंवेगात्मक विकास विभिन्न बालकों में विभिन्नता लिए हुए होता है, जबकि यह भी सत्य है कि मोटे तौर पर संवेगात्मक विशेषताएँ बालकों में समान रूप से पाई जाती हैं।कुछ बालक शान्त स्वभाव के होते हैं, जबकि कुछ बालक चिड़चिड़े स्वभाव के होते हैं।कुछ बालक सामान्यतः प्रसन्न रहते हैं, जबकि कुछ बालकों में उदास रहने की प्रवृत्ति होती है। शारीरिक विकास के आधार पर वैयक्तिक विभिन्नताशारीरिक दृष्टि से व्यक्तियों में अनेक प्रकार की विभिन्नताएँ देखने को मिलती हैं।शारीरिक भिन्नता रंग, रूप, आकार, भार, कद, शारीरिक गठन, यौन-भेद, शारीरिक परिपक्वता आदि के कारण होती है।
अभिवृत्ति के आधार पर वैयक्तिक विभिन्नतासभी बालकों की अभिवृति में भी समानता नहीं होती।कुछ बालक किसी विशेष प्रकार के कार्य में रुचि लेते हैं, जबकि अन्य बालक किसी और कार्य में रुचि लेते हैं।कुछ बालकों में पढ़ाई में मन लगाने की प्रवृत्ति होती है, जबकि कुछ अन्य बालक किन्हीं कारणों से इससे दूर भागते हैं।
व्यक्तित्व के आधार पर वैयक्तिक विभिन्नताप्रत्येक व्यक्ति में व्यक्तित्व के आधार पर वैयक्तिक विभिन्नता देखने को मिलती है।कुछ बालक अन्तर्मुखी होते हैं और कुछ बहिर्मुखी।एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से मिलने पर उसकी योग्यता से प्रभावित हो या न हो परन्तु उसके व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना नहीं रहता है।
टॉयलर के अनुसार, ‘सम्भवतः व्यक्ति, योग्यता की विभिन्नताओं के बजाय व्यक्तित्व की विभिन्नताओं से अधिक प्रभावित होता है।
”गत्यात्मक कौशलों के आधार पर वैयक्तिक विभिन्नता कुछ व्यक्ति किसी कार्य को अधिक कुशलता से कर पाते हैं, जबकि कुछ अन्य लोगों में पूर्ण कुशलता का अभाव पाया जाता है।क्रो एवं क्रो ने लिखा है, ‘शारीरिक क्रियाओं में सफल होने की योग्यता में एक समूह के व्यक्तियों में भी बहुत अधिक विभिन्नता होती है।
”शिक्षा के क्षेत्र में वैयक्तिक विभिन्नता का महत्व मनोविज्ञान इस बात पर जोर देता है कि बालकों की रुचियों, रुझानों, क्षमताओं, योग्यताओं आदि में अन्तर होता है। अत: सभी बालकों के लिए समान शिक्षा का आयोजन सर्वथा अनुचित होता है। इसी बात को ध्यान में रखकर मन्दबुद्धि, पिछड़े हुए बालक तथा शारीरिक दोष वाले बालकों के लिए अलग-अलग विद्यालयों में अलग-अलग प्रकार की शिक्षा की व्यवस्था की जाती है।सह-शैक्षणिक क्षेत्रों में निष्पादन के आधार पर शैक्षणिक क्षेत्रों में निष्पादन के स्तर को बढ़ाना इसलिए उचित होता है, क्योंकि यह वैयक्तिक विभिन्नताओं को सन्तुष्ट करता है। वैयक्तिक विभिन्नता को ध्यान में रखते हुए पिछड़े एवं मन्दबुद्धि के बालकों की शिक्षा के लिए भिन्न प्रकार के शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई है।वैयक्तिक विभिन्नता का ज्ञान शिक्षकों एवं विद्यालय प्रबन्धकों को कक्षा के वर्गीकरण में सहायता प्रदान करता है। शिक्षार्थी वैयक्तिक भिन्नता प्रदर्शित करते हैं। अतः एक शिक्षक को सीखने के विविध अनुभवों को उपलब्ध कराना चाहिए।कक्षा का आकार तय करने में भी वैयक्तिक विभिन्नता का ज्ञान विशेष सहायक होता है। यदि कक्षा के अधिकतर बालक अधिगम में कमजोर हों, तो कक्षा का आकार कम होना चाहिए। वैयक्तिक विभिन्नता का सिद्धान्त व्यक्तिगत शिक्षण पर जोर डालता है। इसके अनुसार बालकों की आवश्यकता को व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि उसका सर्वागीण विकास हो सके। वैयक्तिक विभिन्नता के ज्ञान के आधार पर शिक्षक यह तय कर पाते हैं कि लड़कियाँ किसी कार्य को विशेष ढंग से एवं लड़के किसी कार्य को विशेष ढंग से क्यों कर पाते हैं? पाठ्यक्रम के निर्धारण एवं विकास में भी वैयक्तिक विभिन्नता की प्रमुख भूमिका होती है। बालकों की आयु, कक्षा आदि को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक कक्षा के लिए अलग प्रकार की पाठ्यचर्या का निर्माण किया जाता है एवं उन्हें अलग प्रकार से लागू भी किया जाता है। उदाहरणस्वरूप बच्चों की पुस्तकें अधिक चित्रमय एवं रंगीन होती हैं, जबकि जैसे-जैसे कक्षा एवं आयु में वृद्धि होती जाती है, उनकी पुस्तकों के स्वरूप में भी अन्तर दिखाई पड़ता है। इसी प्रकार प्राथमिक कक्षा के बच्चों को खेलकूद के जरिए शिक्षा देने पर जोर दिया जाता है। बच्चों को गृहकार्य देते समय भी उनकी वैयक्तिक विभिन्नता का ध्यान रखा जाता है। बालकों के निर्देशन में भी वैयक्तिक विभिन्नता की विशेष भूमिका होती है।
Important Theories of Child Development & Pedagogy
=> मनोविज्ञान के जनक = विल्हेम वुण्ट => आधुनिक मनोविज्ञान के जनक = विलियम जेम्स => प्रकार्यवाद(Functionalism) सम्प्रदाय के जनक = विलियम जेम्स => आत्म सम्प्रत्यय(Self concept) की अवधारणा = विलियम जेम्स
=> शिक्षा-मनोविज्ञान के जनक = एडवर्ड थार्नडाइक => प्रयास एवं त्रुटि(Trial and error Method) सिद्धांत = थार्नडाइक => प्रयत्न एवं भूल का सिद्धांत = थार्नडाइक => संयोजनवाद का सिद्धांत (Connectionism) = थार्नडाइक => उद्दीपन-अनुक्रिया का सिद्धांत(Stimulus-Response Theory)= थार्नडाइक => S-R थ्योरी के जन्मदाता = थार्नडाइक => अधिगम का बन्ध सिद्धांत = थार्नडाइक => संबंधवाद का सिद्धांत = थार्नडाइक => प्रशिक्षण अंतरण का सर्वसम अवयव(Identical Elements) का सिद्धांत = थार्नडाइक => बहुखंड या बहुतत्व बुद्धि का सिद्धांत (Multi-factor Theory, मूर्त, अमूर्त और सामाजिक बुद्धि ))= थार्नडाइक
=> बिने-साइमन बुद्धि परीक्षण के प्रतिपादक = अल्फ्रेड बिने एवं साइमन => बुद्धि परीक्षणों के जन्मदाता (1905) = अल्फ्रेड बिने => एकखंड बुद्धि का सिद्धांत(Unifactor Theory) = अल्फ्रेड बिने
=> दो खंड बुद्धि का सिद्धांत(Two factor Theory)= स्पीयरमैन => तीन खंड बुद्धि का सिद्धांत = स्पीयरमैन => सामान्य व विशिष्ट तत्वों के सिद्धांत के प्रतिपादक(g-s factor, general-specific) = स्पीयरमैन => बुद्धि का द्वय शक्ति का सिद्धांत = स्पीयरमैन
=> त्रि-आयाम बुद्धि का सिद्धांत ( 180 ) =JP गिलफोर्ड => बुद्धि संरचना का सिद्धांत(Structure of Intellect) = गिलफोर्ड
=> समूह खंडबुद्धि का सिद्धांत(Group Factor Theory) = थर्स्टन (7 मानसिक योग्यताओं का समूह => युग्म तुलनात्मक निर्णय विधि के प्रतिपादक = थर्स्टन => क्रमबद्ध अंतराल विधि के प्रतिपादक = थर्स्टन => समदृष्टि अन्तर विधि के प्रतिपादक = थर्स्टन व चेव
=> न्यादर्श या प्रतिदर्श(वर्ग घटक) बुद्धि का सिद्धांत = थॉमसन => पदानुक्रमिक(क्रमिक महत्व) बुद्धि का सिद्धांत(Hiearchy) = बर्ट एवं वर्नन => तरल-ठोस बुद्धि का सिद्धांत(Fluid and Crystallized Intelligence) = आर. बी.केटल => प्रतिकारक (विशेषक) सिद्धांत के प्रतिपादक (16 Personality Factor Theory-16PF)= आर. बी.केटल
=> बुद्धि ‘क’ और बुद्धि ‘ख’ का सिद्धांत = D O हैब => बुद्धि इकाई का सिद्धांत = स्टर्न एवं जॉनसन => बुद्धि लब्धि(IQ-Intelligence Quotient) ज्ञात करने के सुत्र के प्रतिपादक = विलियम स्टर्न => संरचनावाद(Structuralism) सम्प्रदाय के जनक = Wilhelm Maximilian Wundt के शिष्य टिंचनर (Edward B. Titchener) => प्रयोगात्मक मनोविज्ञान(Experimental Psychology) के जनक=विल्हेम वुण्ट-1879 में लिपजिग जर्मनी में पहली प्रयोगशाला
=> विकासात्मक मनोविज्ञान(Developmental Psychology) के प्रतिपादक = जीन पियाजे => संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत(Cognitive Development Theory-4 Stages) = जीन पियाजे
=> मूल प्रवृत्तियों(Basic Instnicts)के सिद्धांत के जन्मदाता = विलियम मैक्डूगल => हार्मिक का सिद्धांन्त = विलियम मैक्डूगल
=> मनोविज्ञान – मन मस्तिष्क का विज्ञान = पोंपोनोजी => क्रिया-प्रसूत अनुबंधन(Operant Condioning) का सिद्धांन्त =B F स्किनर => सक्रिय अनुबंधन का सिद्धांन्त = B F स्किनर
=> अनुकूलित अनुक्रिया का सिद्धांत = इवान पेट्रोविच पावलव (I P Pavlov) => संबंध प्रत्यावर्तन का सिद्धांत = I P पावलव => शास्त्रीय अनुबंधन का सिद्धांत(Classical Conditioning)= इवान पेट्रोविच पावलव => प्रतिस्थापक का सिद्धांत = इवान पेट्रोविच पावलव
=> प्रबलन (पुनर्बलन) का सिद्धांत = सी. एल. हल => व्यवस्थित व्यवहार का सिद्धांत = सी. एल. हल => सबलीकरण का सिद्धांत = सी. एल. हल => संपोषक का सिद्धांत = सी. एल. हल => चालक / अंतर्नोद(प्रणोद(Drive Reduction Theory) का सिद्धांत = सी. एल. हल
=> अधिगम का सूक्ष्म सिद्धान्त = कोहलर ( Sultan Chimpanzee ) => सूझ या अन्तर्दृष्टि का सिद्धांत(Insight Learning) = कोहलर, वर्दीमर, कोफ्का => गेस्टाल्टवाद सम्प्रदाय(Gestalt-German Word-Whole/form)के जनक = कोहलर, वर्दीमर, कोफ्का
=> क्षेत्रीय सिद्धांत (Field Theory)= Kurt लेविन => तलरूप कासिद्धांत = Kurt लेविन
=> समूह गतिशीलतासम्प्रत्यय के प्रतिपादक = Kurt लेविन => सामीप्य संबंधवाद का सिद्धांत = Kurt गुथरी
=> साईन(चिह्न) का सिद्धांत = टॉलमैन => सम्भावना सिद्धांत के प्रतिपादक = टॉलमैन
=> अग्रिम संगठकप्रतिमान के प्रतिपादक = डेविड आसुबेल => भाषायीसापेक्षता प्राक्कल्पना के प्रतिपादक = व्हार्फ => मनोविज्ञान के व्यवहारवादी(Behaviourism) सम्प्रदाय के जनक = जोहन बी. वाटसन => अधिगम या व्यव्हार सिद्धांत के प्रतिपादक = क्लार्क Hull => सामाजिक अधिगम(Social Learning) सिद्धांत के प्रतिपादक = अल्बर्ट बण्डूरा => पुनरावृत्ति का सिद्धांत = G स्टेनले हॉल => अधिगम सोपानकी के प्रतिपादक = गेने (Gagne) => मनोसामाजिक विकास का सिद्धांत(Psychosocial Development) = एरिक एरिक्सन
=> प्रोजेक्ट प्रणाली(योजना विधि ) से करके सीखना का सिद्धांत = जान ड्यूवी के student किल्पैट्रिक => अधिगम मनोविज्ञान का जनक = हर्मन इबिनघौस (Hermann Ebbinghaus )
=> अधिगम अवस्थाओं के प्रतिपादक = जेरोम ब्रूनर => संरचनात्मक अधिगम का सिद्धांत(Constuctivism)= जेरोम ब्रूनर
=> सामान्यीकरण का सिद्धांत(Generalization)= सी. एच.जड => शक्ति मनोविज्ञान का जनक = वॉल्फ => अधिगम अंतरण का मूल्यों के अभिज्ञान का सिद्धांत= बगले => भाषा विकास का सिद्धांत(Language Development) = नोआम चोमस्की
=> माँग-पूर्ति(आवश्यकता-पदानुक्रम-Hiarchy of Needs) का सिद्धांत = अब्राहम मैस्लो (मास्लो) => स्व-यथार्थीकरण अभिप्रेरणा का सिद्धांत = अब्राहम मैस्लो (मास्लो) => आत्मज्ञान का सिद्धांत = अब्राहम मैस्लो (मास्लो)
=> उपलब्धि-अभिप्रेरणा का सिद्धांत( अचीवमेंट Motivation) = डेविड सी.मेक्लिएंड => प्रोत्साहन का सिद्धांत = बोल्स व काफमैन => शीलगुण(विशेषक) सिद्धांत के प्रतिपादक(Trait Theory ) = आलपोर्ट
=> व्यक्तित्व मापन का माँग का सिद्धांत = हेनरी मुरे => कथानक बोधपरीक्षण विधि के प्रतिपादक = मोर्गन व मुरे => प्रासंगिक अन्तर्बोध परीक्षण (TAT-Thematic Apperception Test,) विधि के प्रतिपादक = मोर्गन व मुरे
=> बाल -अन्तर्बोध परीक्षण (C.A.T.-Children Apperception Test) विधि के प्रतिपादक = लियोपोल्ड बैलाक => रोर्शा स्याही ध्ब्बा परीक्षण (I.B.T.-Ink Blot Test) विधि के प्रतिपादक = हरमन रोर्शा => वाक्य पूर्ति परीक्षण (Sentence Completion Test) विधि के प्रतिपादक = पाईन व टेंडलर
=> व्यवहार परीक्षण विधि के प्रतिपादक = मे एवं हार्टशार्न
=> किंडरगार्टन(बालोद्यान ) विधि के प्रतिपादक = फ्रोबेल => खेल प्रणाली के जन्मदाता = फ्रोबेल
=> मनोविश्लेषण(Psychoanalysis) विधि के जन्मदाता = सिगमंड फ्रायड => स्वप्न-विश्लेषण(Interpretation of Dreams विधि के प्रतिपादक = सिगमंड फ्रायड
=> प्रोजेक्ट(प्रयोग) विधि के प्रतिपादक = विलियम हेनरी क्लिपेट्रिक (जान ड्यूवी के शिष्य) => मापनी भेदक विधि के प्रतिपादक = एडवर्ड्स व क्लिपेट्रिक
=> डाल्टन विधि की प्रतिपादक = मिस हेलेन पार्कहर्स्ट => मांटेसरी विधि की प्रतिपादक = मेडम मारिया मांटेसरी => डेक्रोली विधि के प्रतिपादक(Teaching in Natural environment)= ओविड डेक्रोली => विनेटिका(इकाई) विधि के प्रतिपादक = कार्लटन वाशबर्न => ह्यूरिस्टिक(खोज) विधि के प्रतिपादक = एच.ई. आर्मस्ट्रांग => समाजमिति(Sociometry) विधि के प्रतिपादक = जे. एल. मोरेनो => योग निर्धारण विधि के प्रतिपादक = लिकर्ट => स्केलोग्राम विधि के प्रतिपादक = गटमैन => विभेद शाब्दिक विधि के प्रतिपादक = आसगुड => स्वतंत्र शब्द साहचर्य परीक्षण विधि के प्रतिपादक = फ़्रांसिस गाल्टन => स्टेनफोर्ड- बिने स्केल परीक्षण के प्रतिपादक = टरमन => पोरटियस भूल-भुलैया परीक्षण के प्रतिपादक = एस.डी. पोरटियस => वेश्लर-वेल्यूब बुद्धि परीक्षण के प्रतिपादक = डी.वेश्लवर
=> आर्मी अल्फा परीक्षण के प्रतिपादक = आर्थर एस. ओटिस => आर्मी बिटा परीक्षण के प्रतिपादक = आर्थर एस. ओटिस
=> हिन्दुस्तानी बिने क्रिया परीक्षण के प्रतिपादक = सी.एच.राइस => प्राथमिक वर्गीकरण परीक्षण के प्रतिपादक = जे. मनरो => बाल अपराध विज्ञान का जनक = सीजर लोम्ब्रसो => वंश सुत्र के नियम के प्रतिपादक = जोन ग्रैगर मैंडल => ब्रेल लिपि के प्रतिपादक = लुई ब्रेल => साहचर्य सिद्धांत के प्रतिपादक = एलेक्जेंडर बैन => “सीखने के लिएसीखना” सिद्धांत के प्रतिपादक = हर्लो => शरीर रचना का सिद्धांत = शैल्डन => व्यक्तित्व मापन के जीव सिद्धांत के प्रतिपादक = गोल्डस्टीन => मनोविज्ञान के जनक = विल्हेम वुण्ट => आधुनिक मनोविज्ञान के जनक = विलियम जेम्स => प्रकार्यवाद सम्प्रदाय के जनक = विलियम जेम्स => आत्म सम्प्रत्यय की अवधारणा = विलियम जेम्स => शिक्षा-मनोविज्ञान के जनक = एडवर्ड थार्नडाइक => प्रयास एवं त्रुटि सिद्धांत = थार्नडाइक => प्रयत्न एवं भूल का सिद्धांत = थार्नडाइक => संयोजनवाद का सिद्धांत = थार्नडाइक => उद्दीपन-अनुक्रिया का सिद्धांत = थार्नडाइक => S-R थ्योरी के जन्मदाता = थार्नडाइक => अधिगम का बन्ध सिद्धांत = थार्नडाइक => संबंधवाद का सिद्धांत = थार्नडाइक => प्रशिक्षण अंतरण का सर्वसम अवयव का सिद्धांत = थार्नडाइक => बहुखंड या बहुतत्व बुद्धि का सिद्धांत = थार्नडाइक => बिने-साइमन बुद्धि परीक्षण के प्रतिपादक =अल्फ्रेडबिने एवं साइमन => बुद्धि परीक्षणों के जन्मदाता =अल्फ्रेडबिने => एकखंड बुद्धि का सिद्धांत =अल्फ्रेडबिने => दो खंड बुद्धि का सिद्धांत = स्पीयरमैन => तीन खंड बुद्धि का सिद्धांत = स्पीयरमैन => सामान्य व विशिष्ट तत्वों के सिद्धांत के प्रतिपादक = स्पीयरमैन => बुद्धि का द्वय शक्ति का सिद्धांत = स्पीयरमैन => त्रि-आयाम बुद्धि का सिद्धांत ( 150 ) = गिलफोर्ड => बुद्धि संरचना का सिद्धांत = गिलफोर्ड => समूह खंडबुद्धि का सिद्धांत = थर्स्टन => युग्म तुलनात्मक निर्णय विधि के प्रतिपादक = थर्स्टन => क्रमबद्ध अंतराल विधि के प्रतिपादक = थर्स्टन => समदृष्टि अन्तर विधि के प्रतिपादक = थर्स्टन व चेव => न्यादर्श या प्रतिदर्श(वर्ग घटक) बुद्धि का सिद्धांत = थॉमसन => पदानुक्रमिक(क्रमिक महत्व) बुद्धि का सिद्धांत = बर्ट एवं वर्नन => तरल-ठोस बुद्धि का सिद्धांत = आर. बी.केटल => प्रतिकारक (विशेषक) सिद्धांत के प्रतिपादक = आर. बी.केटल => बुद्धि ‘क’ और बुद्धि ‘ख’ का सिद्धांत = D O हैब => बुद्धि इकाई का सिद्धांत = स्टर्न एवं जॉनसन => बुद्धि लब्धि ज्ञात करने के सुत्र के प्रतिपादक = विलियम स्टर्न => संरचनावाद साम्प्रदाय के जनक = WilhelmMaximilianWundtके शिष्यटिंचनर(Edward B. Titchener) => प्रयोगात्मक मनोविज्ञान के जनक = विल्हेम वुण्ट-1879 में लिपजिग जर्मनी में पहली प्रयोगशाला => विकासात्मक मनोविज्ञान के प्रतिपादक = जीन पियाजे => संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत = जीन पियाजे => मूल प्रवृत्तियों के सिद्धांत के जन्मदाता = विलियम मैक्डूगल => हार्मिक का सिद्धांन्त = विलियम मैक्डूगल => मनोविज्ञान – मन मस्तिष्क का विज्ञान = पोंपोनोजी => क्रिया-प्रसूत अनुबंधन का सिद्धांन्त =B F स्किनर => सक्रिय अनुबंधन का सिद्धांन्त = B F स्किनर => अनुकूलित अनुक्रिया का सिद्धांत = इवान पेट्रोविच पावलव (I P Pavlov) => संबंध प्रत्यावर्तन का सिद्धांत = I P पावलव => शास्त्रीय अनुबंधन का सिद्धांत = इवान पेट्रोविच पावलव => प्रतिस्थापक का सिद्धांत = इवान पेट्रोविच पावलव => प्रबलन (पुनर्बलन) का सिद्धांत = सी. एल. हल => व्यवस्थित व्यवहार का सिद्धांत = सी. एल. हल => सबलीकरण का सिद्धांत = सी. एल. हल => संपोषक का सिद्धांत = सी. एल. हल => चालक / अंतर्नोद(प्रणोद) का सिद्धांत = सी. एल. हल => अधिगम का सूक्ष्म सिद्धान्त = कोहलर ( Sultan Chimpanzee ) => सूझ या अन्तर्दृष्टि का सिद्धांत = कोहलर, वर्दीमर, कोफ्का => गेस्टाल्टवाद सम्प्रदाय के जनक = कोहलर, वर्दीमर, कोफ्का => क्षेत्रीय सिद्धांत =Kurtलेविन => तलरूप कासिद्धांत =Kurtलेविन => समूह गतिशीलतासम्प्रत्यय के प्रतिपादक =Kurtलेविन => सामीप्य संबंधवाद का सिद्धांत =Kurtगुथरी => साईन(चिह्न) का सिद्धांत = टॉलमैन => सम्भावना सिद्धांत के प्रतिपादक = टॉलमैन => अग्रिम संगठकप्रतिमान के प्रतिपादक = डेविड आसुबेल => भाषायीसापेक्षता प्राक्कल्पना के प्रतिपादक = व्हार्फ => मनोविज्ञान के व्यवहारवादी सम्प्रदाय के जनक = जोहन बी. वाटसन => अधिगम या व्यव्हार सिद्धांत के प्रतिपादक = क्लार्क Hull => सामाजिक अधिगम सिद्धांत के प्रतिपादक = अल्बर्ट बण्डूरा => पुनरावृत्ति का सिद्धांत = G स्टेनले हॉल => अधिगम सोपानकी के प्रतिपादक = गेने =>मनोसामाजिकविकासकासिद्धांत =एरिकएरिक्सन => प्रोजेक्ट प्रणाली से करके सीखना का सिद्धांत = जान ड्यूवी => अधिगम मनोविज्ञान का जनक =हर्मन इबिनघौस(Hermann Ebbinghaus ) बुद्धि का सिद्धान्त : 1. नवीन परिस्थितियों से चेतन अनुकूलन ही बुद्धि है उक्त परिभाषा है? रोस ने 2. वुडवर्थ के अनुसार बुद्धि की परिभाषा है? बुद्धि कार्य करने की एक विधि है| 3. बुद्धि अमूर्त विचारों के बारे में सोचने की योग्यता है – ये कथन किसका है? टरमन 4. बुद्धि कितने प्रकार की है? तीन प्रकार : 1- मूर्त 2- अमूर्त 3- सामाजिक । 5. 1904 में दो कारक सिद्धान्त का प्रतिपादन किसने किया? स्पीयरमैन ने । 6. श्रमिक के लिए कितनी बुद्धि – लब्धि पर्याप्त है? 70 से 85 बुद्धि – लब्धि । 7. बालक का वह गुण जिसमे किसी नवीन वस्तु का निर्माण किया जाता है, वह कहलाती है? सृजनात्मकता | 8. जालोटा ने परीक्षण दिया है? सामूहिक बुद्धि परीक्षण । 9. किस आयु में बालक की मानसिक योग्यता का लगभग पूर्ण विकास हो जाता है? 14वर्ष । 10. बहुखण्ड सिद्धान्त का प्रतिपादन किसने किया? थार्नडाइक ने । 11. बुद्धि – लब्धि को ज्ञात करने का सर्वप्रथम सूत्र किस मनोवैज्ञानिक ने दिया है? स्टर्न ने । 12.बुद्धि – लब्धि निकालने का सही फार्मूला क्या है? मानसिक आयु / वास्तविक आयु ×100 13. थस्टर्न का समूह तत्व सिद्धान्त बुद्धि के कितने प्राथमिक कारकों का वर्णन करता है? सात कारकों का । 14. बुद्धि परीक्षण का जनक किसे माना जाता है? बिने – साइमन । 15. भारत में सर्वप्रथम बुद्धि परीक्षण का प्रारम्भ कब हुआ? 1922 में । 16. बुद्धि ओर विकास पूरक है – एक – दुसरे के । 17. वर्नन. ने किस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया? क्रमिक महत्व सिद्धान्त का । 18. प्रतिदर्शन सिद्धान्त के प्रतिपादक है? थोमसन 19. त्रि – अायाम सिद्धान्त के प्रवर्तक है? गिलफर्ड 20. बुद्धि परीक्षण को कितने भागो में बाटाँ है? दो भागों में । 21. बुद्धि पहचानने तथा सुनने कि शक्ति है, यह मत है? बिने का ।
संविधान, किसी देश का उच्चतम कानून होता है। इनमेँ उन मूलभूत सिद्धांत का वर्णन होता है जिन पर किसी देश की सरकार और प्रशासन की प्रणाली टिकी होती है। भारतीय प्रशासन के संवैधानिक संदर्भ का आश्रय भारतीय प्रशासन के उनके अधिकार और राजनीतिक ढांचों से है, जिनका निर्धारण भारतीय संविधान द्वारा किया गया है। दूसरे शब्दोँ मेँ, हम कह सकते है कि भारतीय प्रशासन की प्रकृति, संरचना, शक्ति और भूमिका भारतीय संविधान के सिद्धांतों और प्रावधानोँ द्वारा निर्धारित एवं प्रभावित है। भारतीय संविधान की रचना कैबिनेट मिशन योजना के तहत् वर्ष 1946 मेँ गठित संविधान सभा द्वारा की गई थी। इस संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद थे- डॉ. बी. आर. अंबेडकर उस सात सदस्यीय प्रारुप समिति के अध्यक्ष थे जिसने संविधान का प्रारुप तैयार किया था। संविधान सभा ने संविधान के निर्माण मेँ दो वर्ष, 11 माह और 18 दिन का समय लिया। भारतीय संविधान 26 नवंबर 1949 को अपनाया गया तथा 26 जनवरी 1950 से प्रभावी हुआ। इसी दिन से भारत एक गणतंत्र बन गया। भारतीय संविधान विश्व के लिखित एवं विस्तृत संविधानों मेँ से एक है। मूलतः इस संविधान मेँ 22 अध्याय, 395 अनुच्छेद और 8 अनुसूचियां थीं। वर्तमान मेँ इसमेँ 24 अध्याय, लगभग 450 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियाँ शामिल हैँ। संविधान की प्रस्तावना द्वारा भारत को संप्रभुता संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष और प्रजातांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया है। इसके अतिरिक्त संविधान के उद्देश्यों के रुप में न्याय, स्वतंत्रता समानता और भाईचारे की भावना को प्रमुखता प्रदान की गई है। संविधान की प्रस्तावना मेँ समाजवादी और पंथ निरपेक्ष शब्दोँ को 42 वेँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 के द्वारा जोड़ा गया है। भारतीय प्रशासन के संवैधानिक संदर्भ के विभिन्न पहलुओं की व्याख्या निम्नलिखित शीर्षकों के तहत् की गई है-
मौलिक अधिकार राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत मौलिक कर्तव्य संघीय प्रणाली केंद्र और राज्य के बीच विधायी संबंध केंद्र और राज्य के बीच प्रशासनिक संबंध केंद्र राज्य के मध्य वित्तीय संबंध संसदीय प्राणाली संविधान-एक झलक 10. संविधान की अनुसूचियाँ
मौलिक अधिकार Fundamental Rights
मौलिक अधिकारोँ का उल्लेख संविधान के भाग तीन में अनुच्छेद 12 से 35 मेँ है। संविधान निर्माताओं को इस संदर्भ में संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान (बिल ऑफ राइट्स) से प्रेरणा मिली थी। संविधान मेँ भारतीय नागरिकोँ के मौलिक अधिकारोँ की गारंटी दी गई है। इसका आशय 2 चीजो से है- पहला संसद इन अधिकारोँ को निरस्त या कम केवल संविधान संशोधन करके ही कर सकती है और यह संशोधन संविधान की धारा 368 में उल्लिखित क्रियाविधि के अनुसार ही किया जा सकता है। इन अधिकारोँ के संरक्षण का उत्तरदायित्व उच्चतम नन्यायालय पर है। अर्थात मौलिक अधिकारोँ को लागू करने के लिए पीड़ित व्यक्ति सीधे उत्तम न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है। मौलिक अधिकार औचित्यपूर्ण हैं, परंतु निरपेक्ष नहीँ। सरकार इन पर न्यायोचित प्रतिबंध लगा सकती है, परंतु इन प्रतिबंधोँ के औचित्य या अनौचित्य का निर्धारण उच्चतम न्यायालय द्वारा किया जाता है। ये अधिकार राज्य द्वारा अतिक्रमण किए जाने के विरुद्ध नागरिकोँ की स्वतंत्रताओं और अधिकारोँ की सुरक्षा करते हैँ। संविधान के अनुच्छेद 12 के अनुसार राज्य के अंतर्गत भारत सरकार, संसद तथा राज्योँ की सरकारें, विधान सभाएँ तथा भारत के राज्य क्षेत्र के भीतर या भारत सरकार के नियंत्रण के अधीन सभी स्थानीय और अन्य प्राधिकरण शामिल हैँ। सभी न्यायालय किसी भी मौलिक अधिकार का उल्लंघन करने वाले विधायिका के कानूनों और कार्यपालिका के आदेशो को असंवैधानिक और गैर कानूनी घोषित कर सकते हैं (अनुच्छेद 13)। मौलिक अधिकार राजनीतिक प्रजातंत्र के आदर्शोँ को बढ़ावा देने और देश मेँ अधिनायकवादी शासन की प्रवृत्ति को रोकने के लिए हैं। संविधान मेँ मूलतया 7 मौलिक अधिकारोँ का प्रावधान था। संविधान के 44 वेँ संशोधन अधिनियम 1978 के माध्यम से मौलिक अधिकारोँ की सूची से संपत्ति के अधिकार को हटा दिया गया है। इसलिए अब केवल 6 मौलिक अधिकार हैं यथा – समता का अधिकार
कानून (विधि) के समक्ष समानता अथवा समान कानूनी संरक्षण (अनुच्छेद 14) धर्म, मूल, जाति, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध (अनुच्छेद 15) लोक नियोजन मामलोँ मेँ अवसर की समानता (अनुच्छेद 16) अस्पृश्यता (छुआछूत) का अंत तथा इस प्रकार के किसी भी आचरण पर रोक (अनुच्छेद 17) पदवियों का अंत (सैन्य और शैक्षिक उपाधियों) को छोड़कर (अनुच्छेद 18) स्वतंत्रता का अधिकार
सभी नागरिकोँ को अनुच्छेद 19- वाक् स्वतंत्रता (बोलने की आजादी) और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता शांतिपूर्ण और निःशस्त्र सम्मेलन की स्वतंत्रता संगठन या संघ बनाने की स्वतंत्रता भारत के राज्य क्षेत्र मेँ सर्वत्र स्वतंत्र रुप से घूमने फिरने की स्वतंत्रता भारत के राज्य क्षेत्र के किसी भाग मेँ बसने और रहने की स्वतंत्रता कोई व्यवसाय, उपजीविका, व्यापार व कारोबार करने की स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त होगा। अपराधो के लिए दोष सिद्धि के संबंध मेँ संरक्षण (अनुच्छेद 20) जीवन और स्वतंत्रता (व्यक्तिगत) का संरक्षण (अनुच्छेद 21) आरंभिक शिक्षा का अधिकार (अनुच्छेद 21 क), जिसे 86वें मेँ संविधान संशोधन 2002 द्वारा जोड़ा गया है। कुछ स्थितियों मेँ गिरफ्तारी और नजरबंदी से संरक्षण (अनुच्छेद 22) शोषण के विरुद्ध अधिकार
मानव दुर्व्यापार और बलात श्रम पर प्रतिबंध (अनुच्छेद 23) कारखानो मेँ 14 वर्ष से कम आयु के बालकोँ के नियोजन पर निषेधात्मक प्रतिबंध (अनुच्छेद 24) धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार
अंतकरण और धर्म को मनाने, आचरण करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25) धार्मिक आयोजनोँ की आजादी (अनुच्छेद 26) किसी धर्म विशेष की अभिवृद्धि के लिए करोँ का भुगतान संबंधी स्वतंत्रता (अनुच्छेद 27) शिखन संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा प्राप्ति या धार्मिक उपासना की स्वतंत्रता (अनुच्छेद 28) सांस्कृतिक और अधिकार
भाषा लिपि और संस्कृति के संबंध मेँ अल्पसंख्यक वर्ग के हितों का संरक्षण (अनुच्छेद 29) शिक्षण संस्थान की स्थापना और उन पर प्रशासन करने का अल्पसंख्यक वर्गों का अधिकार (अनुच्छेद 30) संवैधानिक उपचारोँ का अधिकार
मौलिक अधिकारोँ को लागू करने के लिए उच्चतम न्यायालय का फैसला लेने के अधिकार की गारंटी है। उच्चतम न्यायालय को मूल अधिकारोँ को लागू करने के लिए निर्देश या आदेश या रिट, जिनमें बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकारी-पृच्छा और उत्प्रेषण रिट शामिल हैं, जारी करने की शक्ति प्राप्त होगी (अनुच्छेद 32)। राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत
राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतोँ का उल्लेख संविधान के भाग 4 में अनुच्छेद 36 से 51 मेँ किया गया है। यह श्रेष्ठ विचार आयरलैंड के संविधान से प्रेरित है। देश पर प्रशासन के लिए यह सिद्धांत मौलिक हैं, इसलिए कानून बनाते समय इनके अनुपालन की जिम्मेदारी राज्य की है। ये सिद्धांत मौलिक अधिकारो से निम्नलिखित संदर्भ मेँ अलग हैं- मौलिक अधिकारोँ का औचित्य सिद्ध किया जा सकता है जबकि निर्देशक सिद्धांतों का औचित्य सिद्ध नहीँ किया जा सकता, इसलिए इन सिद्धांतो के उल्लंघन होने पर न्यायालय द्वारा उन्हें लागू नहीँ करवाया जा सकता। मौलिक अधिकारोँ का उद्देश्य राज्य की कड़ी कार्यवाही से नागरिकोँ की रक्षा करके उन्हें राजनीतिक आजादी की गारंटी प्रदान करना है, जबकि निदेशक तत्वो का उद्देश्य राज्य द्वारा समुचित कार्यवाही के माध्यम से सामाजिक और आर्थिक आजादी को सुनिश्चित करना है। निदेशक (निर्धारण) तत्वों को उनकी उनकी प्रकृति के आधार पर निम्नलिखित तीन श्रेणियोँ मेँ विभाजित किया जा सकता है- कल्याणकारी (समाजवादी) सिद्धांत गांधीवादी सिद्धांत उत्तरवादी-बौद्धिक सिद्धांत कल्याणकारी (समाजवादी) सिद्धांत
लोगोँ में कल्याण की भावना को बढ़ावा देने के लिए समाज व्यवस्था को द्वारा बनाए रखेगा- सामाजिक, आर्थिक, एवं राजनीतिक- तथा आय, स्तर, सुविधाओं एवं अवसरोँ मेँ असमानता को न्यूनतम करना (अनुच्छेद 38)। राज्य अपनी नीति का इस प्रकार संचालन करेगा कि- सभी नागरिकोँ के लिए जीविका के पर्याप्त साधनो के अधिकार को सुनिश्चित करना। सर्वसाधारण के हित के लिए समुदाय के भौतिक संसाधनों के समान वितरण को सुनिश्चित करना। उत्पादन के साधनों एवं धन के विकेंद्रीकरण के निवारण हेतु प्रयास करेगा। पुरुषोँ और महिलाओं के लिए लिए समान कार्य के लिए समान वेतन हो। श्रमिकोँ की शक्ति एवं स्वास्थ्य की सुरक्षा तथा बच्चो की बलात श्रम के विरुद्ध सुरक्षा हो। बच्चो के स्वस्थ विकास हेतु अवसर उपलब्ध हों। समान न्याय को संवर्धित करना और गरीबों को निःशुल्क वैधानिक सहायता उपलब्ध कराना (अनुच्छेद 39 क)। रोजगार और शिक्षा पाने तथा बेरोजगारी, वृद्धावस्था और विकलांगता की स्थिति मेँ सार्वजनिक सहायता पाने का अधिकार हो (अनुच्छेद 41)। कार्य की न्याय संगत और मानवोचित दशाओं के अनुसार प्रसूति सहायता का प्रावधान हो (अनुच्छेद 42)। सभी श्रमिकोँ के लिए मजदूरी जीवन के गरिमामय मानकों एवं सांस्कृतिक अवसरोँ की उपलब्धता हो। उद्योगो के प्रबंधन मेँ मजदूरोँ की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाना (अनुच्छेद 43 क)। आजीविका स्तर और पोषण के स्तर को ऊपर उठाना और जन स्वास्थ्य मेँ सुधार करना (अनुच्छेद 47)। गांधीवादी सिद्धांत
ग्राम पंचायतो का गठन तथा उन्हें आवश्यक शक्तियों व प्राधिकारों से सुस्सजित करना ताकि वे स्वशासन की इकाइयोँ के रुप मेँ कार्य कर सकें (अनुच्छेद 40)। ग्रामीण क्षेत्रोँ मेँ व्यक्तिगत या सहकारी आधार पर कुटीर उद्योग को बढ़ावा देना (अनुच्छेद 43)। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य कमजोर वर्गो के शैक्षिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा तथा सामाजिक अन्याय व शोषण से उनकी रक्षा करना (अनुच्छेद 46)। स्वास्थ्य के लिए हानिकारक मादक द्रव्य पदार्थोँ के सेवन पर प्रतिबंध लगाना (अनुच्छेद 47)। गायों, बछड़ों व अन्य दुधारु व मरुस्थलीय पशुओं के कटान को निषेधित करना और उनकी नस्ल सुधारना (अनुच्छेद 48)। उदारवादी बौद्धिक सिद्धांत
पूरे देश मेँ नागरिकोँ के लिए समान नागरिक संहिता लागू करना (अनुच्छेद 44)। 6 वर्ष की आयु पूरी होने तक सभी बच्चों के लिए आरंभिक देखभाल और शिक्षा उपलब्ध कराना (अनुच्छेद 45)। आधुनिक और वैधानिक आधार पर कृषि एवं पशुपालन को संगठित करना (अनुच्छेद 48)। पर्यावरण को संरक्षित करना और सुधारना तथा वनों एवं वन्य जीवन की सुरक्षा के उपाय करना (अनुच्छेद 48 क)। राष्ट्रीय महत्व के घोषित स्मारकों, स्थानोँ और कलात्मक वस्तुओं या ऐतिहासिक महत्व के स्थानों आदि को संरक्षण देना (अनुच्छेद 49)। राज्य की लोक सेवाओं मेँ कार्यपालिका को न्यायपालिका से पृथक करना (अनुच्छेद 50)। अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को संवर्धित करना, राष्ट्रोँ के बीच न्यायपूर्ण और सम्मानजनक संबंधोँ को बनाए रखना, अंतर्राष्ट्रीय क़ानून और संधि आबंधों के प्रति सम्मान को बढ़ावा देना और विवाचन के द्वारा अंतराष्ट्रीय विवादों के समाधान को प्रोत्साहित करना (अनुच्छेद 51) मौलिक कर्तव्य
मूल संविधान मेँ मौलिक कर्तव्योँ का उल्लेख नहीँ था। संविधान मेँ मौलिक कर्तव्योँ का समावेश स्वर्ण सिंह समिति की अनुशंसा पर 42 वेँ संविधान संशोधन अधिनियम 1976 के द्वारा किया गया। 86 वेँ संविधान संशोधन अधिनियम 2002 द्वारा एक और कर्तव्य संविधान मेँ जोड़ा गया है। संविधान के भाग 4 क के अनुच्छेद 51 मेँ इन कर्तव्योँ का उल्लेख है। यह कर्तव्य निर्देशक सिद्धांतों की तरह ही हैं, जिनका औचित्य सिद्ध नहीँ किया जा सकता है- संविधान मेँ, इस प्रकार इन कर्तव्योँ को प्रत्यक्ष लागू करने का कोई प्रावधान नहीँ है। इसके अतिरिकत, इनके उल्लंघन पर सजा के तौर पर कानूनी कार्यवाही करने का प्रावधान भी नहीँ है। संविधान के अनुसार भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह – संविधान का पालन करे और उसके आदर्शोँ, संस्थाओं, राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे। स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शोँ को संजोए रखे और उनका अनुपालन करे। भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखे। देश की रक्षा करे और आह्वान पर राष्ट्र की तत्परता से सेवा करे। भारत के नागरिकोँ मेँ समरसता और भाईचारे की भावना का प्रसार करे जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग आधारित भेदभाव से परे हो तथा ऐसी प्रथाओं का त्याग करे जो स्त्रियोँ के सम्मान के विरुद्ध हैं। भारत की मिली जुली संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्व समझे और उसका परिरक्षण करे। पर्यावरण अर्थात वन, झील, नदी और वन्य जीवन की रक्षा करे तथा प्राणिमात्र के प्रति दया भाव रखे। वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करेँ। सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखे और हिंसा से दूर रहे। व्यक्तिगत एवं सामूहिक गतिविधियोँ के सभी क्षेत्रो में उत्कर्ष की और बढ़ने का निरंतर प्रयास करे, जिससे राष्ट्र निरंतर प्रगति करे और उपलब्धि की नई ऊँचाइयोँ को छू ले। 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चो के अपने बच्चो या आश्रितोँ को शिक्षा के अवसर उपलब्ध करायें (इसे 86 वेँ संविधान संशोधन द्वारा 2002 मेँ जोड़ा गया है) संघीय प्रणाली
भारतीय संविधान मेँ संघीय सरकार का प्रावधान है। एकल सरकार मेँ सभी शक्तियाँ केंद्र सरकार मेँ निहित होती हैं और राज्य सरकारें ने केंद्र सरकार से अपने अधिकार प्राप्त करती हैं। संघीय सरकार में संविधान के माध्यम से सभी शक्तियाँ केंद्र सरकार (राष्ट्रीय सरकार या संघीय सरकार) और राज्य सरकारोँ मेँ बंटी होती है तथा दोनो सरकारेँ अपने अपने अधिकार क्षेत्र मेँ स्वतंत्र रुप से कार्य करती हैं। भारतीय संविधान की संघीय की विशेषताएँ इस प्रकार हैं- द्वैध नीति- संविधान मेँ द्वैध नीति प्रावधान (दोहरी सरकार) है, जिसमेँ केंद्र स्तर पर संघ और क्षेत्र स्तर पर राज्य शामिल हैं। शक्तियोँ का विभाजन- संविधान की सातवीँ अनुसूची के अनुसार शक्तियो को केंद्र और राज्योँ के मध्य संघ सूची राज्य सूची और समवर्ती सूची के संदर्भ मेँ बांटा गया है। लिखित संविधान- भारत का एक संविधान लिखित संविधान है जो केंद्र तथा राज्य सरकारोँ दोनो के संगठन शक्तियोँ और सीमाओं को परिभाषित करता है। सर्वोच्च संविधान- संविधान देश का उच्चतम कानून है तथा केंद्र और राज्योँ के कानून संविधान के अनुरुप होने चाहिए। अनम्य संविधान- भारतीय संविधान अनम्य संविधान है, क्योंकि संघीय नीति (अर्थात केंद्र राज्य संबंध और न्यायिक संगठन) मेँ केंद्र द्वारा कोई भी संशोधन अधिकांश राज्योँ की स्वीकृति से किया जाता है। स्वतंत्र न्यायपालिका- भारतीय संविधान मेँ उच्चतम न्यायालय को सर्वोपरि मानते हुए स्वतंत्र न्यायपालिका का प्रावधान है। उच्चतम न्यायालय केंद्र और राज्योँ अथवा राज्योँ के मध्य विवाद का निपटान करता है। उच्चतम न्यायालय न्यायिक समीक्षा संबंधी अपनी शक्तियोँ का प्रयोग कर संविधान की उच्चतमता बनाए रखता है अर्थात केंद्र और राज्य सरकारोँ के उन कानूनों और नियमों को अवैध करार दे सकता है जो संविधान के प्रावधान के विरुद्ध हो। द्विसदनीय प्रणाली- संघीय प्रणाली मेँ दो सदन वाली विधायिका का प्रावधान है, अर्थात उच्च सदन (राज्य सभा) और निचला सदन (लोकसभा)। राज्यसभा भारत संघ के राज्यों का प्रतिनिधित्व करती हैँ तथा लोक सभा पूरे भारतीय समाज का। उपर्युक्त संघीय विशेषताओं के अतिरिक्त संविधान की निम्नलिखित गैर संघीय या (एकात्मक विशेषताएँ) भी हैं-
केंद्र और राज्योँ दोनो के लिए एक संविधान प्रणाली का प्रावधान (जम्मू और कश्मीर राज्य को छोड़कर जिसका अपना अलग संविधान है तथा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 के प्रावधानोँ के अनुसार इस राज्य को विशेष दर्जा प्राप्त है) है। संविधान द्वारा केंद्र को अधिक शक्तियाँ देकर केंद्र की पूरी मजबूती प्रदान की गई है। संविधान मेँ कठोरता की बजाय लचीलापन अधिक है, क्योंकि इसके अधिकांश भाग को अकेले संसद द्वारा संशोधित किया जा सकता है। संसद साधारण बहुमत माध्यम से भारतीय क्षेत्र तथा राज्योँ की सीमाओं और नामोँ को बदल सकती है (अनुच्छेद 3)। राज्यसभा द्वारा राष्ट्र के हित मेँ पारित प्रस्ताव पर संसद राज्य सूची के विषय से संबंधित कानून बना सकती है (अनुच्छेद 249)। संविधान के तहत एकल नागरिकता, अर्थात सभी राज्योँ और संघ राज्य क्षेत्रोँ मेँ सभी लोगोँ के लिए समान भारतीय नागरिकता का प्रावधान है। केंद्र और राज्य सरकारोँ के कानूनोँ को लागू करने के लिए उच्चतम न्यायालय की अध्यक्षता मेँ एकीकृत एवं एकल न्यायिक प्रणाली का प्रावधान है। राज्यपाल को राज्य मेँ उच्चतम दर्जा प्राप्त है, जिसे राष्ट्रपति द्वारा किसी भी समय नियुक्त और पद से हटाया जा सकता है। राज्यपाल केंद्र के एजेंट के रुप मेँ भी कार्य करता है (अनुच्छेद 155 और 156)। भारतीय संघ के राज्योँ का प्रतिनिधित्व राज्यसभा मेँ असमान ढंग से अर्थात आबादी के आधार पर होता है। संविधान मेँ अखिल भारतीय स्तर की सेवाओं – भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा और भारतीय विदेश सेवा का प्रावधान है (अनुच्छेद 312)। इन सेवाओं के अधिकारी राज्य प्रशासन मेँ उच्च पदों पर सेवाएं प्रदान करते हैँ तथा इनकी नियुक्ति और पदच्युति केंद्र द्वारा की जाती है। संविधान के माध्यम से राष्ट्रीय, प्रांतीय और वित्तीय आपातकाल के दौरान केंद्रोँ को असाधारण शक्तियां प्राप्त हो सकती हैं। संसदीय तथा विधानसभा चुनावो के लिए संविधान मेँ केंद्रीय स्तर पर निर्वाचन तंत्र का प्रावधान है (अनुच्छेद 324)। राज्योँ के लेखाखातों की लेखा परीक्षा भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक द्वारा की जाती है। इनकी नियुक्ति और पदच्युति राष्ट्रपति द्वारा ही की जाती है। इस प्रकार, भारतीय संविधान पारंपरिक संघीय प्रणाली से अलग है जिसमेँ अनेक एकल और गैर संघीय तात्विक विशेषताएँ विद्यमान होने के साथ-साथ केंद्र को अधिक शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। संविधान मेँ फेडरेशन (संघ) शब्द का प्रयोग कहीँ नहीँ हुआ है। दूसरी और संविधान के अनुच्छेद-1 मेँ भारत को राज्योँ का संघ बताया गया है। संविधानविद इससे प्रेरित होकर भारतीय संविधान के संघीय चरित्र को चुनौती देने का साहस कर सके हैँ। प्रो. के. सी. व्हेयर ने भारतीय संविधान को अर्ध संघीय बताते हुए टिप्पणी है भारतीय संघ सहायक संघीय लक्षणों वाला एकात्मक राज्य है न कि सहायक एकात्मक लक्षणों एक संघीय राज्य। इस प्रकार आइवर जेनिंग्स ने संविधान को केंद्र उन्मुक्त प्रवृत्ति युक्त एक संघ माना है। ग्रेनविल ऑस्टिन भारतीय संघवाद को सहकारी संघवाद बताया है। ऑस्टिन का मानना है कि यद्यपि भारतीय संविधान के माध्यम से सशक्त केंद्रीय सरकार का सृजन किया गया है, फिर भी राज्य सरकारोँ पर इसका कोई प्रभाव नहीँ पड़ा है, अर्थात राज्य सरकारेँ न ही कमजोर हुई है और ना ही उन्हें केंद्र सरकार की नीतियोँ को कार्य रुप देने संबंधी प्रशासनिक एजेंसी मात्र के स्तर तक सीमित रखा गया है। डाक्टर बी. आर. अंबेडकर ने कहा था कि भारतीय राजनीतिक व्यवस्था समय और परिस्थितियोँ की जरुरतोँ के अनुसार एकात्मक और संघात्मक दोनो है। उनके अनुसार राज्योँ का संघ वाक्य राज्योँ के परिसंघ वाक्य पर वरीयता देना दो चीजो का संकेतक है – 1. भारतीय संघ अमेरिकी संघ की भांति भारतीय राज्योँ के बीच एक समझौते का परिणाम नहीँ है, और 2. राज्यों को संग से पृथक होने का अधिकार नहीँ है। संघ एक सम्मिलन है क्योंकि यह अविघटनीय है। भारतीय प्रणाली कनाडा के मॉडल पर आधारित है न की अमेरिका के मॉडल पर। केंद्र राज्य वित्तीय संबंध
संविधान के अनुच्छेद 245 से 255 मेँ भारतीय संघीय प्रणाली मेँ केंद्र और राज्योँ के मध्य विधायी संबंधोँ का उल्लेख है। इस विषय का उल्लेख कुछ और अनुच्छेदों मेँ भी हुआ है, जिनका विवरण इस प्रकार है- केंद्र और राज्य के विधान की प्रादेशिक विस्तार सीमा
संसद पूरे भारत में अथवा भारत के किसी क्षेत्र के लिए कानून बना सकती है। भारतीय क्षेत्र के अंतर्गत राज्य, संघ राज्यक्षेत्र और भारत शहर मेँ फिलहाल के लिए शामिल किया गए अन्य क्षेत्र आते हैं। राज्य की विधानसभा पूरे राज्य अथवा राज्य के किसी भाग के लिए कानून बना सकती है। राज्य विधानसभा द्वारा बनाए गए कानून राज्य के बाहर लागू नहीँ हो सकते हैं। किसी क्षेत्र के बाहर के लिए विधान संसद ही बना सकती है। इस प्रकार संसद के कानून विश्व के किसी भाग मेँ भारतीय प्रजा और उनकी परिसंपत्तियों पर लागु होते हैं। विधायी विषयो का विभाजन
संसद को इस आशय की विशेष शक्ति प्राप्त है कि संघ सूची मेँ निर्दिष्ट किसी विषय से संबंधित कानून बना सके। इस सूची मेँ इस समय 100 विषय (मूलतः 97 विषय) शामिल हैँ, जिनमेँ मुख्य हैं- रक्षा, बैंकिंग, विदेश, मुद्रा, परमाणु ऊर्जा, बीमा, संचार, अंतर्राज्यीय व्यापार और वाणिज्य आदि। सेवा कर नया जोड़ा गया का विषय है (2003)। राज्य की विधानसभा और सामान्य परिस्थितियो में इस आशय की विशेष शक्ति प्राप्त है कि राज्य सूची मेँ निर्दिष्ट किसी विषय से संबंधित कानून बना सके। इस सूची मेँ इस समय 61 विषय (मूलतः 66 विषय) शामिल हैँ, जिनमेँ मुख्य हैं- कानून व्यवस्था और पुलिस, जन स्वास्थ्य, साफ-सफाई, कृषि, कारागार, स्थानीय शासन, मत्स्य पालन आदि। संसद और राज्य की विधानसभाओं- दोनो को इस आशय की शक्ति प्राप्त है कि समवर्ती सूची मेँ निर्दिष्ट किसी भी विषय से संबंधित कानून बना सकें। इसके अतिरिक्त इस सूची मेँ निर्दिष्ट किसी विषय पर केंद्र और राज्य के कानून के मध्य विवाद की स्थिति में केंद्रीय कानून ही मान्य है न कि राज्य का कानून। समवर्ती सूची मेँ इस समय 52 विषय (मूलतः) 47 विषय शामिल हैँ, जिनमेँ आपराधिक कानून और प्रक्रिया विधि, सिविल प्रक्रिया विवाह और तलाक वन, शिक्षा, आर्थिक और सामाजिक नियोजन, औषधियां, समाचारपत्र, पुस्तकें और मुद्रणालय और अन्य विषय। संविधान के 42वेँ संशोधन अधिनियम-1976 के माध्यम से राज्य सूची मेँ शामिल विषयों में से 5 विषयों अर्थात शिक्षा, वन, माप-तौल वन्यजीव और पक्षियो का संरक्षण तथा न्याय प्रशासन और उच्चतम और उच्च न्यायालयों को छोड़कर सभी न्यायालयों के कार्यप्रबंध- को समवर्ती सूची मेँ शामिल व स्थानांतरित किया गया है। संसद को इस आशय की भी विशेष शक्ति प्राप्त है कि उक्त तीनो सूचियोँ मेँ से किसी भी सूची मेँ शामिल किए गए विषयो से संबंधित कानून बना सके। संविधान के अनुसार शेष शक्तियां केंद्र को प्राप्त हैं। इन शक्तियों मेँ करारोपण संबंधी कानून बनाने, (जिसका उक्त सूचियोँ मेँ उल्लेख नहीँ है) की शक्ति भी शामिल है। कोई विषय विशेष शेष व्यक्तियों के अंदर आता है या नहीँ, इसका निर्णय न्यायालय द्वारा किए जाने का प्रावधान है। राज्य सूची मेँ शामिल विषयो से संबंधित कानून
संविधान के माध्यम से संसद को यह शक्ति प्रदान की गई है कि निम्नलिखित असामान्य परिस्थितियों मे राज्य सूची मेँ निर्दिष्ट किसी विषय से संबंधित कानून बना सके-
राष्ट्र के हित मेँ बर्शते कि राज्यसभा मेँ दो तिहाई बहुमत के साथ प्रस्ताव पारित हो (अनुच्छेद 249)। राष्ट्रीय आपातकाल घोषित होने की स्थिति मेँ (अनुच्छेद 250) दो या दो से अधिक राज्योँ द्वारा संसद से संयुक्त रुप से अनुरोध करने पर (अनुच्छेद 252) अंतर्राष्ट्रीय समझौतों, संधियों और संगोष्ठियोँ को प्रभावी बनाने के लिए (अनुच्छेद 253) राज्य मेँ राष्ट्रपति शासन लागू होने की स्थिति मेँ (अनुच्छेद 356) राज्य के विधि निर्माण पर केंद्र का नियंत्रण
केंद्र का राज्य के विधि निर्माण से जुड़े विषयो पर भी नियंत्रण है विवरण इस प्रकार है-
राज्यपाल, राज्य विधान सभा द्वारा पारित किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ रोक सकता है (अनुच्छेद 200 और 201)। राज्य सूची मेँ शामिल विषयो से संबंधित विधेयक राष्ट्रपति के पूर्व अनुमोदन से ही राज्य विधान सभाओं मेँ लाए जा सकते हैँ। उदाहरणार्थ- व्यापार और वाणिज्य की आजादी पर प्रतिबंध लगाने संबंधी विधेयक इसी श्रेणी मेँ आते हैँ (अनुच्छेद 304)। राष्ट्रीय वित्तीय आपात-काल की स्थिति में राज्य विधान सभा द्वारा पारित मुद्रा विधेयक और वित विधेयक को विचारार्थ रोक सकते हैँ (अनुच्छेद 360) केंद्र राज्य प्रशासनिक संबंध
हमारी संघीय व्यवस्था मेँ केंद्र और राज्योँ के मध्य प्रदेश प्रशासनिक संबंधोँ के विभिन्न पक्ष इस प्रकार हैं- केंद्र और राज्योँ की कार्यकारी शक्तियों की सीमा
केंद्र की कार्यकारी शक्तियो का विस्तार उन विषयोँ तक होगा संसद जिनसे संबंधित का कानून बना सके तथा किसी संधि या समझौते के माध्यम से केंद्र द्वारा उपयोग मेँ लाए जा सकने वाले अधिकार, प्राधिकार और अधिकार क्षेत्र का प्रयोग कर सके। राज्य की कार्यकारी शक्ति का विस्तार उन विषयोँ तक होगा जिनसे से संबंधित कानून राज्य विधानसभा बना सके। किसी राज्य की कार्यकारी शक्ति का विस्तार समवर्ती सूची मेँ शामिल उन विषयोँ तक भी होगा जिनसे संबंधित कानून राज्य विधानसभा और संसद दोनों बना सकें। तथापि, इस संदर्भ मेँ राज्य की कार्यकारी शक्ति संविधान द्वारा या संसद के किसी कानून द्वारा केंद्र को प्रदत्त कार्यकारी शक्ति पर निर्भर करेगी। केंद्र और राज्य का आबंध
प्रत्येक राज्य अपनी कार्यकारी शक्तियों का उपयोग संसद द्वारा बनाए गए कानून के अनुरुप करेगा। केंद्र की कार्यकारी शक्ति के तहत उक्त आवश्यक प्रयोजन से किसी राज्य को निर्देश दिया जाना भी शामिल है। कुछ विषय के संबंध मेँ केंद्र का राज्य पर नियंत्रण
राज्य अपने कार्यकारी एवं शक्तियों का उपयोग इस प्रकार से करेंगे केंद्र कि कार्यकारी शक्तियो की अवहेलना न हो। केंद्र की कार्यकारी शक्ति के तहत इस आवश्यक प्रयोजन से किसी राज्य को निर्देश दिया जाना भी शामिल है। केंद्र की कार्यकारी शक्तियाँ में यह भी शामिल है कि वह राज्य को राष्ट्रीय और सैन्य महत्त्व के संचार माध्यमोँ का निर्माण और अनुरक्षण करने तथा राज्य की सीमा मेँ आने वाले रेल मार्ग की संरक्षा का उपाय करने संबंधी निर्देश दे सके। केंद्र द्वारा राज्यों पर कार्य की जिम्मेदारी
राष्ट्रपति, सम्बद्ध राज्य की सहमति से उन विषयोँ से संबंधित कार्य की जिम्मेदारी उस राज्यपाल डाल सकते हैँ, जिन विषयोँ के संदर्भ में केंद्र को कार्यकारी शक्ति प्राप्त है। संघ सूची मेँ शामिल किसी विषय के संबंध में संसद द्वारा कानून के माध्यम से किसी राज्य पर शुल्क प्रभारित किए जाने के साथ साथ शक्ति भी प्रदान की जा सकती है, अथवा इसके लिए राज्य की सहमति पर ध्यान दिए बिना केंद्र को प्राधिकृत किया जा सकता है। केंद्र पर राज्योँ द्वारा कार्यभार की जिम्मेदारी डाला जाना
किसी राज्य का राज्यपाल केंद्र की सहमति से उन विषयो से संबंधित कार्य की जिम्मेदारी के केंद्र पर डाल सकता है जिन विषयोँ के संबंध मेँ राज्य को कार्यकारी शक्ति प्राप्त है।
जल विवाद
संसद किसी अंतर्राज्यीय नदी और घाटी के जल के उपयोग, वितरण और नियंत्रण से संबंधित किसी विवाद के समाधान का प्रावधान कर सकती है। संसद मेँ यह प्रावधान भी कर सकती है कि ऐसे विवादो के संबंध मेँ न ही उत्तम न्यायालय द्वारा और न ही किसी दूसरे न्यायालय द्वारा अपने अधिकार का प्रयोग किया जाएगा (अनुच्छेद 262)।
सार्वजनिक अधिनियम अभिलेख और न्यायिक कार्यवाही
भारत के पूरे क्षेत्र में भारत के पूरे क्षेत्र मेँ सार्वजनिक अधिनियमों, अभिलेखों और केंद्र की न्यायिक कार्यवाहियों को पूरे निष्ठाभाव से श्रेय दिया जाएगा। सार्वजनिक अधिनियमों, अभिलेखों और न्यायिक कार्यवाहियों के औचित्य तथा प्रभावी परिणामों का निर्धारण करने के तरीकों तथा स्थितियोंको संसद द्वारा तय किया जाएगा। भारत के पूरे क्षेत्र के किसी भाग मेँ सिविल न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय और पारित आदेश कानून के अनुसार किसी भी भाग मेँ लागू हो सकते हैँ। अंतर्राज्यीय परिषद
संविधान के अनुच्छेद 263 के तहत अंत राष्ट्रपति अंतर्राज्यीय परिषद का गठन कर उसके कर्तव्यों, संगठन और क्रिया विधि का निर्धारण (परिभाषित) कर सकते हैँ। इस परिषद को निम्नलिखित ढंग से सौंपें जाने वाले कार्यो का उल्लेख संविधान मेँ किया गया है- राज्योँ के मध्य विवादों की जांच पड़ताल का परामर्श देना, केंद्र और राज्य दोनो के लिए हितकर विषयों पर विचार विमर्श और, विशेषतः नीति और कार्य के मध्य बहतर तालमेल जैसे किसी भी विषय से संबंधित अनुशंसा करना। ऐसी एक परिषद का गठन राष्ट्रपति द्वारा सन 1990 मेँ केंद्र-राज्य संबंधों से सम्बद्ध सरकारिया आयोग की अनुशंसाओं के आधार पर किया गया था। आयोग के अध्यक्ष प्रधानमंत्री (तत्कालीन) और सदस्योँ मेँ शामिल थे- विधानसभा वाले सभी राज्य और संघ राज्य क्षेत्रोँ के मुख्यमंत्री, बिना विधानसभा वाले संघ राज्य क्षेत्रोँ के प्रशासक, तथा; प्रधानमंत्री द्वारा मनोनीत कैबिनेट स्तर के 6 केंद्रीय मंत्री जिनमें गृहमंत्री भी शामिल हैं। अंतर्राज्यीय परिषद आदेश 1990 मेँ यह प्रावधान है कि परिषद एक वर्ष मेँ कम से कम 3 बार बैठक करेगी। परिषद एक निकाय स्वरुप है जो अंतर्राज्यीय संबंधों, केंद्र राज्य संबंधों और केंद्र संघ राज्य क्षेत्र के संबंधोँ से जुड़े विषयों से संबंधित अनुशंसाएं करता है। परिषद का उद्देश्य ऐसे विषय की जांच और इससे संबंधित विचार विमर्श के द्वारा केंद्र, राज्योँ और संघ राज्य क्षेत्रो के मध्य तालमेल को बढ़ावा देना है। क्षेत्रीय परिषदें
क्षेत्रीय परिषदें संविधिक निकाय (न की संवैधानिक निकाय) हैं। इनका गठन संसद के संसद के एक अधिनियम (1956 का राज्य पुनर्गठन अधिनियम था) द्वारा हुआ था। इस अधिनियम के माध्यम से देश को 5 क्षेत्रों मेँ बांटा गया था और प्रत्येक क्षेत्र के लिए एक क्षेत्रीय परिषद का प्रावधान किया गया था। ये क्षेत्र इस प्रकार हैं- उत्तरी क्षेत्र- जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, दिल्ली और चंडीगढ़, मुख्यालय नई दिल्ली। मध्य क्षेत्र- उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश, मुख्यालय इलाहाबाद। पूर्वी क्षेत्र- बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा, मुख्यालय कोलकाता। पश्चिमी क्षेत्र- गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, दादरा व नगर हवेली और दमन व दीव, मुख्यालय मुंबई। दक्षिणी क्षेत्र- आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल और पुदुचेरी, मुख्यालय चेन्नई। प्रत्येक क्षेत्रीय परिषदोँ मेँ शामिल हैँ- केंद्रीय गृहमंत्री क्षेत्र के अधीन सभी राज्यो के मुख्यमंत्री क्षेत्र के अधीन प्रत्येक राज्य के दो मंत्री क्षेत्र के अधीन प्रत्येक संघ राज्य क्षेत्र के प्रशासक इसके अतिरिक्त निम्नलिखित व्यक्तियों को क्षेत्रीय परिषद के सलाहकार के रुप में (जिसे बैठकोँ मेँ मत देने का अधिकार प्राप्त नहीँ होगा) संबद्ध किया जा सकता है- योजना आयोग द्वारा नामित एक व्यक्ति क्षेत्र के अधीन प्रत्येक राज्य सरकार के मुख्य सचिव क्षेत्र के अधीन प्रत्येक राज्य के विकास आयुक्त उक्त 5 क्षेत्रीय परिषदों का अध्यक्ष केंद्रीय गृहमंत्री होता है। प्रदेश मुख्यमंत्री बारी-बारी से एक वर्ष के लिए परिषद का उपाध्यक्ष होता है। क्षेत्रीय परिषद का उद्देश्य राज्योँ, संघ राज्यों और केंद्र के मध्य सहयोग और समन्वय (तालमेल) को बढ़ावा देना है। क्षेत्रीय परिषदें विचार-विमर्श के बाद आर्थिक और सामाजिक नियोजन, भाषाई अल्पसंख्यकोँ, सीमा-विवाद, अंतर्राज्यीय परिवहन आदि जैसे आम विषयो से संबंधित अनुशंसाएं करती हैं। क्षेत्रीय परिषदें एवं परामर्श सेवाएँ प्रदान करने वाला निकाय है। उक्त क्षेत्रीय परिषदों के अतिरिक्त पूर्वोत्तर क्षेत्र परिषद का गठन भी एक अलग संसद अधिनियम- नार्थ ईस्टर्न कॉउंसिल एक्ट-1971 द्वारा किया गया था। यह परिषद असम, मणिपुर, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, नागालैंड और त्रिपुरा की आम समस्यों का निपटान करती है। वर्ष 1944 मेँ सिक्किम को परिषद के आठवेँ सदस्य के रुप मै शामिल किया गया। केंद्र राज्य वित्तीय संबंध
80 वें संशोधन (सन 2000) तथा 88वें संशोधन (सन 2003) मेँ केंद्र राज्य वित्तीय संबंध मेँ कई प्रमुख बदलाव किए। 80वां संशोधन 10वें वित्त आयोग की सिफारिश थी कि केंद्रीय करों और प्रशुल्कों से प्राप्त कुल आय का 29 प्रतिशत राज्योँ को दिया जाना चाहिए। इसे हस्तानांतरण की वैकल्पिक योजना योजना के रुप मेँ जाना जाता है। भूतलक्षी प्रभाव से यह योजना 1 अप्रैल 1996 से लागू हुई। इस संशोधन मेँ अनुच्छेद 272 (केंद्र द्वारा उद्गृहित तथा संग्रहीत तथा केंद्र और राज्योँ के बीच बीच वितरित किए जाने वाले कर) को समाप्त कर दिया। 88वें संशोधन ने एक नया अनुचित 268 (A) जोड़ा है, जो की सेवा कर से संबंधित है। इसने संघ सूची मेँ एक नया विषय भी जोड़ा है, जो की प्रविष्टि 92-C (सेवाओं पर कर) के रुप मेँ है। इन दो संशोधनोँ के बाद के इस संबंध मेँ वर्तमान स्थिति निम्न प्रकार से है- केंद्र और राज्योँ की करारोपण शक्ति
संविधान मेँ केंद्र और राज्योँ के बीच कराधान शक्तियों को निम्नलिखित तरीके से विभाजित किया है-
संसद के पास संघ सूची मेँ वर्णित करों को उद्गृहित करने की एक विशिष्ट शक्ति है। इस प्रकार के 15 कर हैं। राज्य विधानमंडल की सूची मेँ वर्णित करों को उद्गृहित करने की विशिष्ट शक्ति प्राप्त है। इस प्रकार के करोँ की संख्या 20 है। संसद और राज्य विधान मंडल दोनो समवर्ती सूची मेँ वर्णित करों को उद्गृहित कर सकते हैँ। इस प्रकार के 3 कर हैं। करारोपण की अवशिष्ट शक्ति (3 सूचियोँ मेँ से किसी में भी वर्णित न होने वाले करों को आरोपित करने की शक्ति) संसद के पास है। इस प्रावधान के अंतर्गत संसद ने उपहार कर, संपदा कर और व्यय आरोपित किए हैं। संविधान के अंतर्गत एक कर को उद्गृहित तथा संग्रहीत करने की शक्ति तथा इस प्रकार से उद्गृहित एवं संग्रहीत कर आगमों के विनियोजन की शक्ति के बीच विभेद किया गया है। उदाहरण के लिए आयकर का संग्रहण व उदग्रहण केंद्र द्वारा किया जाता है किंतु उसकी आय को केंद्र और राज्योँ के बीच बांट दिया जाता है।
केंद्र द्वारा उद्गृहित किन्तु राज्योँ द्वारा संग्रहित एवं विनियोजित कर (अनुच्छेद 268)
इस श्रेणी में निम्नलिखित कर एवं प्रशुल्क आते हैं-
विनिमय पत्र, चेक, बीमा पॉलिसी, वचन पत्र, शेयर स्थानांतरण इत्यादि पर स्टांप शुल्क। अल्कोहल तथा मादक द्रव्योँ वाली चिकित्सीय एवं प्रसाधन सामग्रियों पर उत्पादन शुल्क। किसी राज्य के भीतर उद्गृहित इन शुल्कों के आगम भारत की संचित निधि का अंश नहीँ होते हैं, बल्कि वे उस राज्य को सौंप दिए जाते हैँ। केंद्र द्वारा उद्गृहित तथा राज्योँ द्वारा संग्रहीत एवं विनियोजित सेवा कर (अनुच्छेद 268A)
सेवाओं पर करों का अधिग्रहण केंद्र द्वारा किया जाता है, किंतु उनके आगमों का संग्रहण एवं विनियोजन केंद्र एवं राज्य के द्वारा किया जाता है। उनके संग्रहण एवं विनियोजन के सिद्धांतो का निर्माण संसद करती है। केंद्र द्वारा उद्गृहित एवं संगृहीत किंतु राज्योँ को सौंपे गए कर (अनुच्छेद 269)
इस श्रेणी के अंतर्गत निम्नलिखित कर आते हैँ-
अंतर्राज्जीय व्यापार या वाणिज्य के प्रवाह के में सामानोँ (अखबारोँ को छोडकर) की बिक्री या खरीद पर कर। अंतर्राज्यीय व्यापार या वाणिज्य के प्रभाव में सामान के प्रेषण पर कर। इन करोँ के शुभ आगमों को भारत की संचित निधि मेँ शामिल नहीँ किया जाता। ये संसद द्वारा निर्धारित किए गए सिद्धांतो के अनुसार संबंधित राज्योँ को सौंप दिए जाते हैँ।
केंद्र द्वारा उद्गृहित एवं संग्रहीत किंतु केंद्र एवं राज्य के बीच वितरित कर (अनुच्छेद 270)
इस श्रेणी मेँ निम्नलिखित को छोड कर संघ सूची मेँ उल्लिखित सभी कर एवं प्रशुल्क शामिल हैं-
अनुच्छेद 268, 268-A और 269 (ऊपर उल्लिखित) में वर्णित कर एवं प्रशुल्क, अनुच्छेद 271 (नीचे उल्लिखित) मेँ वर्णित करों एवं पर अधिभार और, विशिष्ट प्रायोजनों से उद्गृहित किया जाने वाला कोई भी उपकर। इन करोँ और प्रशुल्कों के शुद्ध आगमों का वितरण वित्त आयोग की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा निर्धारित किए गए तरीकोँ से होता है। केंद्र के प्रयोजनोँ के लिए करों प्रशुल्कों पर अधिभार (अनुच्छेद 271)
संसद किसी भी समय अनुच्छेद 269 और 270 मेँ उल्लिखित करों एवं प्रशुल्कों पर अधिभार लगा सकती है (ऊपर उल्लिखित)। ऐसे अधिभारों के आगम विशेष रुप से केंद्र के पास जाते हैं। दूसरे शब्दोँ मेँ, राज्योँ का इन अधिभारोँ मेँ कोई हिस्सा नहीँ होता है। राज्योँ द्वारा लगाए गए, संग्रहीत और पारित कर
ये कर राज्यों द्वारा ही लगाए जाते हैँ। ऐसे करो की संख्या 19 है, जिनका उल्लेख राज्य सूची मेँ है। प्रत्येक राज्योँ को इन करोँ को लगाने, संग्रहित करने और विनियोजित करने का अधिकार है। इन करों मेँ से कुछ इस प्रकार हैं। प्रति व्यक्ति कर कृषि भूमि का उत्तराधिकार कृषि भूमि संपदा शुल्क भू-राजस्व कृषि आय कर भूमि तथा भवन कर खनिज अधिकार कर विद्युत खपत और विक्रय कर वाहन कर मालों क्रय और विक्रय पर कर अर्थात बिक्री कर मार्ग कार व्यवसाय, व्यापार, आजीविका और रोजगार कर अन्य प्रावधान
केंद्र और राज्योँ के मध्य वित्तीय संबंधों से सम्बंधित संविधान के अन्य प्रावधान इस प्रकार हैं।
संविधान के प्रावधान के अनुसार केंद्र द्वारा राज्योँ को सहायता अनुदान दिया जाना। इस राशि को भारत की संचित निधि से लिया जाता है (अनुचछेद 275)। केंद्र, राज्योँ और राज्योँ के किसी भी संस्थान के लिए सार्वजनिक प्रयोजन अनुदान स्वीकृत कर सकता है (अनुच्छेद 282)। केंद्र राज्योँ के लिए ऋण मंजूर कर सकता है तथा राज्योँ द्वारा लिए गए निर्णय की गारंटी भी दे सकता है (अनुच्छेद 293)। संसद, जनहित मेँ अंतर्राज्यीय व्यापार और वाणिज्य पर प्रतिबंध लगा सकती है (अनुच्छेद 302)। राज्योँ के लेखोँ का रखरखाव भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक की सलाह से राष्ट्रपति द्वारा निर्धारित ढंग से किया जाएगा (अनुच्छेद 150) संसदीय सरकार
भारतीय संविधान मेँ केंद्र और राज्य सरकार के संसदीय स्वरुप का प्रावधान है। आधुनिक प्रजातांत्रिक सरकारोँ का वर्गीकरण सरकार के कार्यकारी और विधाई तत्वों के मध्य संबंध की प्रकृति के आधार पर संसदीय सरकार और अध्यात्मक सरकार के रुप मेँ किया गया है। संसदीय प्रणाली की सरकार मेँ कार्यपालिका, विधायिका के प्रति नीतियों और कार्योँ की दृष्टि से जिम्मेदार होती है। अध्यक्षात्मक सरकार मेँ कार्यपालिका अपनी नीतियोँ और कार्योँ की दृष्टि से विधायिका के प्रति जिम्मेदार नहीँ होती तथा अपने कार्यकाल के संदर्भ मेँ संवैधानिक तौर पर विधायिका से मुक्त होती है। राष्ट्रपति प्रणाली की सरकार मेँ राष्ट्रपति ही शासनाध्यक्ष भी होता है और राष्ट्राध्यक्ष भी, जिसे विधायिका के प्रति जिम्मेदार हुए बिना ही पूरी कार्यकारी शक्तियाँ प्राप्त होती हैं। संसदीय सरकार को कैबिनेट (मंत्रिमंडलीय) सरकार या उत्तरदायी सरकार भी माना जाता है जिसका प्रचलन ब्रिटेन, जापान, कनाडा, भारत और अन्य देशों में है। अध्यक्षात्मक सरकार को गैर संसदीय अथवा अनुत्तरदायी सरकार या निर्धारित कार्य प्रणाली की सरकार माना जाता है, जिसका प्रचलन संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्राजील, श्रीलंका और अन्य देशो मेँ है। भारत मेँ संसदीय प्रणाली की सरकार मुख्यतः ब्रिटिश संसदीय प्रणाली पर आधारित है, तथापि भारत की सरकार कभी भी संसदीय प्रणाली का प्रतिरुप नहीँ बनी तथा उससे निम्नलिखित संदर्भ मेँ सर्वथा अलग है-
भारत मेँ ब्रिटेन की साम्राज्य प्रणाली की जगह गणतांत्रिक प्रणाली है। भारत मेँ देश के प्रमुख के रुप मेँ राष्ट्रपति चुना जाता है, जबकी ब्रिटेन मेँ देश के प्रमुख के रुप मेँ राजा या महारानी तथा उसके वंशज होते हैँ। ब्रिटिश प्रणाली के संसद की प्रभुसत्ता के सिद्धांत पर आधारित है, जबकि भारत मेँ संसद उच्चतम नहीँ है और एक लिखित संविधान, संघीय प्रणाली, न्यायिक समीक्षा और मूल अधिकारोँ के कारण इसकी शक्तियां सीमित और प्रतिबंधित हैं। ब्रिटेन में प्रधानमंत्री संसद के निचले सदन (हाउस ऑफ कॉमंस) का सदस्य होना चाहिए। भारत मेँ प्रधानमंत्री संसद के दोनोँ सदनोँ मेँ से किसी भी सदन का सदस्य हो सकता है। सामान्यतः ब्रिटेन मेँ केवल संसद के सदस्योँ को ही मंत्री नियुक्त किया जाता है। भारत मेँ किसी भी ऐसे व्यक्ति को 6 महीने की अधिकतम अवधि के लिए मंत्री नियुक्त किया जा सकता है, जो संसद का सदस्य न हो। ब्रिटेन मेँ मंत्री के वैधानिक उत्तरदायित्व की व्यवस्था है जबकि भारत मेँ ऐसी कोई व्यवस्था नहीँ है। ब्रिटेन के विपरीत, भारत मेँ मंत्रियोँ को राज्य प्रमुख के आधिकारिक कृत्योँ पर प्रतिहस्ताक्षर करने की आवश्यकता नहीँ होती है। छाया मंत्रिमंडल ब्रिटिश कैबिनेट प्रणाली की एक अनुपम संस्था है। इसका गठन है विपक्षी दल द्वारा शासक मंत्रिमंडल को संतुलित करने तथा अपने सदस्योँ को भावी मंत्री पद हेतु तैयार करने के लिए किया जाता है। इस प्रकार की कोई संस्था भारत मेँ नहीँ है। भारत मेँ संसदीय प्रणाली की सरकार के सिद्धांत इस प्रकार हैं-
नाम मात्र का और वास्तविक शासक
राष्ट्रपति नाम मात्र का शासक होता है जबकि प्रधानमंत्री वास्तविक शासक होता है। राष्ट्रपति देश का प्रमुख होता है तथा प्रधानमंत्री सरकार का प्रमुख होता है। भारतीय संविधान के अनुसार राष्ट्रपति को उसके कार्य संचालन मे परामर्श देने और उसकी सहायता करने के लिए मंत्री परिषद का प्रावधान है। ऐसे परामर्श (अर्थात मंत्री परिषद द्वारा राष्ट्रपति को दिए गए परामर्श) राष्ट्रपति को मानने होते हैँ (अनुच्छेद 74)। बहुमत दल का शासन
लोकसभा मेँ जिस राजनीतिक दल के सदस्योँ का बहुमत होता है, वह तब सरकार बनाता है। बहुमत प्राप्त इस दल के नेता को राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री नियुक्त किया जाता है तथा अन्य मंत्रियोँ की नियुक्ति भी प्रधानमंत्री की सलाह से राष्ट्रपति द्वारा ही की जाती है (अनुच्छेद 75)। किसी दल को बहुमत न मिलने की स्थिति मेँ मिलीजुली पार्टीयों के मोर्चे द्वारा सरकार बनाई जाती है तथा इस मोर्चे के नेता को राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री नियुक्त किया जाता है। सामूहिक उत्तरदायित्व
संसदीय प्रणाली की सरकार का यह मूलभूत सिद्धांत है। मंत्रीगण सामान्यतः संसद के प्रति और विशेषतः लोकसभा के प्रति उत्तरदायी हैं (अनुच्छेद 75)। मंत्रीगण दलगत भावना से कार्य करते हैँ तथा सभी कार्योँ मेँ एक दूसरे के साथ होते हैँ। सामूहिक जिम्मेदारी के तहत व्यक्तिगत जिम्मेदारी भी है अर्थात प्रत्येक मंत्री को अपने प्रभार के अधीन के विभाग में दक्ष प्रशासन के लिए स्वयं उत्तरदायी है। सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धांत का आशय यह है कि लोकसभा अविश्वास प्रस्ताव पारित करा कर किसी मंत्री को पद से हटा सकती है। राजनीतिक समजातीयता
मंत्री परिषद् के सभी सदस्य एक ही राजनीतिक दल के होते हैँ, इसलिए उनकी राजनीतिक मान्यताएं भी समान होती है। मिली जुली पार्टी की सरकार होने की स्थिति मेँ मंत्रीगण को सहमत पर निर्भर रहना होता है। दोहरी सदस्यता
मंत्रीगण विधायिका और कार्यपालिका दोनो के सदस्य होते हैँ। कोई भी व्यक्ति संसद का सदस्य हुए बिना कोई मंत्री नहीँ बन सकता है। संविधान के अनुसार कोई मंत्री यदि निरंतर 6 मास तक संसद का सदस्य नहीँ है तो वह इस अवधि की समाप्ति पर मंत्री पद पर बना नहीँ रह सकता है (अनुच्छेद 75)। प्रधानमंत्री का नेतृत्व
संसदीय प्रणाली की सरकार मेँ प्रधानमंत्री की भूमिका नेतृत्व प्रदान करने की है। वह मंत्रिपरिषद का नेता, संसद का नेता और सत्ताधारी दल का नेता होता है। वह अपने इन क्षमताओं के साथ सरकार संचालन मेँ अतिमहत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस कुशल नेतृत्व के कारण ही राजनीतिक वैज्ञानिकोँ ने संसदीय प्रणाली की सरकार को प्रधानमंत्री उन्मुख सरकार की संज्ञा दी है। निचले सदन का भंग होना
संसद के निचले सदन (लोकसभा) को राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की अनुशंसा पर भंग कर सकता है। दूसरे शब्दोँ मेँ, प्रधानमंत्री लोकसभा को उसके कार्यकाल की समाप्ति से पहले ही भंग करने तथा नए चुनाव कराने की सलाह राष्ट्रपति को दे सकता है (अनुच्छेद 83)। इस प्रकार संसदीय प्रणाली की सरकार मेँ कार्यपालिका को विधायिका को भंग करने का अधिकार है। गोपनीयता
मंत्रीगण क्रियाविधि की गोपनीयता के सिद्धांत पर कार्य करते हैँ, तथा अपने विभागोँ की कार्यवाहियों और नीतियोँ और निर्णयों से संबंधित सूचना को गोपनीय रखते हैँ। मंत्रीगण अपने पद का कार्यभार संभालने से पहले गोपनीयता की शपथ लेते हैं (अनुच्छेद 75)। यह शपथ राष्ट्रपति द्वारा दिलाई जाती है। देश मेँ संसदीय प्रणाली को कायम रखा जाए या इसकी जगह राष्ट्रपति शासन की प्रणाली लाई जाए यह मुद्दा 70 के दशक से ही चर्चा का विषय बना हुआ है। कांग्रेस की सरकार द्वारा वर्ष 1975 मेँ गठित स्वर्ण सिंह समिति ने इस मामले पर विस्तार से विचार किया था। बाद मेँ समिति ने कहा था संसदीय प्रणाली की सरकार ठीक से कार्य कर रही है इसलिए इसकी जगह राष्ट्रपति शासन प्रणाली लाने की जरुरत नहीँ है।
समास की परिभाषा (Samas definition in Hindi) Hindi Grammar Samas
अनेक शब्दों को संक्षिप्त करके नए शब्द बनाने की प्रक्रिया समास कहलाती है। दूसरे अर्थ में- कम-से-कम शब्दों में अधिक-से-अधिक अर्थ प्रकट करना ‘समास’ कहलाता है।
अथवा,
जब दो या दो से अधिक शब्दों से मिलकर जो नया और छोटा शब्द बनता है उस शब्द को समास कहते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो जहाँ पर कम-से-कम शब्दों में अधिक से अधिक अर्थ को प्रकट किया जाए वह समास कहलाता है।
अथवा,
दो या अधिक शब्दों (पदों) का परस्पर संबद्ध बतानेवाले शब्दों अथवा प्रत्ययों का लोप होने पर उन दो या अधिक शब्दों से जो एक स्वतन्त्र शब्द बनता है, उस शब्द को सामासिक शब्द (Samasik Shabd) कहते है और उन दो या अधिक शब्दों का जो संयोग होता है, वह समास (Samas) कहलाता है।
समास में कम-से-कम दो पदों का योग होता है। वे दो या अधिक पद एक पद हो जाते है: ‘एकपदीभावः समासः’।
समास में समस्त होनेवाले पदों का विभक्ति-प्रत्यय लुप्त हो जाता है।
समास की प्रक्रिया से बनने वाले शब्द को समस्तपद (samastpad) या सामासिक शब्द कहते हैं; जैसे- देशभक्ति, मुरलीधर, राम-लक्ष्मण, चौराहा, महात्मा तथा रसोईघर आदि।
सामासिक शब्द क्या होता है :-
समास के नियमों से निर्मित शब्द सामासिक शब्द कहलाता है। इसे समस्तपद भी कहा जाता है। समास होने के बाद विभक्तियों के चिन्ह गायब हो जाते हैं।
जैसे :- राजपुत्र
समस्तपद का विग्रह करके उसे पुनः पहले वाली स्थिति में लाने की प्रक्रिया को समास-विग्रह (samas-vigrah) कहते हैं; जैसे- देश के लिए भक्ति; मुरली को धारण किया है जिसने; राम और लक्ष्मण; चार राहों का समूह; महान है जो आत्मा; रसोई के लिए घर आदि।
समास-विग्रह Samas-Vigrah:
सामासिक शब्दों के बीच के सम्बन्ध को स्पष्ट करने को समास – विग्रह कहते हैं। विग्रह के बाद सामासिक शब्द गायब हो जाते हैं अथार्त जब समस्त पद के सभी पद अलग – अलग किय जाते हैं उसे समास-विग्रह कहते हैं।
जैसे :- माता-पिता = माता और पिता।
समस्तपद में मुख्यतः दो पद होते हैं- पूर्वपद तथा उत्तरपद। पहले वाले पद को पूर्वपद कहा जाता है तथा बाद वाले पद को उत्तरपद; जैसे- पूजाघर(समस्तपद) – पूजा(पूर्वपद) + घर(उत्तरपद) – पूजा के लिए घर (समास-विग्रह) राजपुत्र(समस्तपद) – राजा(पूर्वपद) + पुत्र(उत्तरपद) – राजा का पुत्र (समास-विग्रह)
समास और संधि में अंतर
Difference between Samas and Sandhi :- दो या दो से अधिक शब्दो के मेल को समास कहते है । दो वर्ण या अक्षरो के मेल को संधि कहते है । अर्थात शब्दों से बने संक्षिप्त रूप को समास कहते हैं। तथा वर्णों के मेल से बने संक्षिप्त रूप को संधि कहते हैं। समास दो शब्दों का मेल है और संधि दो वर्णों का।
संधि में दो वर्णों का योग होता है किन्तु समास में दो शब्दों का।
संधि में दो वर्णों के मेल में विकार संभव है किन्तु समास में ऐसा नहीं है।
संधि में शब्दों की कमी नहीं की जाती भले ही ध्वनि में परिवर्तन हो जाता है जबकि समास में पदों के प्रत्यय समाप्त कर दिए जाते हैं।
आवश्यक नहीं की जहाँ-जहाँ समास हो वहां संधि भी हो।
संधि में शब्दों को अलग करने को संधि-विच्छेद कहते हैं जबकि समास में इसे समास-विग्रह कहते हैं। जैसे कि लम्बोदर का संधि विच्छेद होगा – लम्बा+उदर जबकि समास विग्रह होगा – लम्बा है उदर जिसका।
संधि-विच्छेद और समास-विग्रह में अंतरDifference in Sandhi-Vichched aur Samas-Vigrah:- सन्धि विच्छेद मे जो वर्ण मिले हुए थे उनको अलग अलग कर दिया जाता है। समास विग्रह मे हटाए गये शब्दो को वापस लिखा जाता है।
समास के भेद (Types of Samas in Hindi) Hindi Grammar Samas
समास के मुख्य सात भेद है:- (1)तत्पुरुष समास Tatpurus Samas (2)कर्मधारय समास Karmdharay Samas (3)द्विगु समास Dvigu Samas (4)बहुव्रीहि समास Bahubreehi Samas (5)द्वन्द समास Dwand Samas (6)अव्ययीभाव समास Avyavibhav Samas (7)नञ समास Nay Samas
प्रमुख समास
पद की प्रधानता
1.
अव्ययी भाव समास
पूर्व पद प्रधान होता है |
2.
तत्पुरुष समास में
उत्तर पद प्रधान होता है |
3.
कर्मधारय समास में
उत्तर पद प्रधान होता है |
4.
द्विगु समास में
उत्तर पद प्रधान होता है |
5.
द्वंद समास में
दोनों पद प्रधान होते है |
6.
बहुव्रीहि समास में
दोनों पद अप्रधान होते हैं |
(1)तत्पुरुष समास :-
Tatpurus Samas – जिस समास में बाद का अथवा उत्तरपद प्रधान होता है तथा दोनों पदों के बीच का कारक-चिह्न लुप्त हो जाता है, उसे तत्पुरुष समास कहते है।
जैसे- Example of Tatpurus Samas
तुलसीकृत= तुलसी से कृत शराहत= शर से आहत राहखर्च= राह के लिए खर्च राजा का कुमार= राजकुमार
Tatpurush Samas Examples in Hindi
तत्पुरुष समास में अन्तिम पद प्रधान होता है। इस समास में साधारणतः प्रथम पद विशेषण और द्वितीय पद विशेष्य होता है। द्वितीय पद, अर्थात बादवाले पद के विशेष्य होने के कारण इस समास में उसकी प्रधानता रहती है।
तत्पुरुष समास के भेद Types of Tatpurus Samas
तत्पुरुष समास के छह भेद होते है- (i)कर्म तत्पुरुष Karm Tatpurus Samas (ii)करण तत्पुरुष Karan Tatpurus Samas (iii)सम्प्रदान तत्पुरुष Sampradan Tatpurus Samas (iv)अपादान तत्पुरुष Apadan Tatpurus Samas (v)सम्बन्ध तत्पुरुष Sambandh Tatpurus Samas (vi)अधिकरण तत्पुरुष Adhikaran Tatpurus Samas
(i)कर्म तत्पुरुष या (द्वितीया तत्पुरुष)- जिसके पहले पद के साथ कर्म कारक के चिह्न (को) लगे हों। उसे कर्म तत्पुरुष कहते हैं। जैसे-
Example of Karm Tatpurus Samas
समस्त-पद विग्रह स्वर्गप्राप्त स्वर्ग (को) प्राप्त कष्टापत्र – कष्ट (को) आपत्र (प्राप्त) आशातीत – आशा (को) अतीत गृहागत – गृह (को) आगत सिरतोड़ – सिर (को) तोड़नेवाला चिड़ीमार – चिड़ियों (को) मारनेवाला सिरतोड़ – सिर (को) तोड़नेवाला गगनचुंबी – गगन को चूमने वाला यशप्राप्त – यश को प्राप्त ग्रामगत – ग्राम को गया हुआ रथचालक – रथ को चलाने वाला जेबकतरा – जेब को कतरने वाला
(ii) करण तत्पुरुष या (तृतीया तत्पुरुष)- जिसके प्रथम पद के साथ करण कारक की विभक्ति (से/द्वारा) लगी हो। उसे करण तत्पुरुष कहते हैं। जैसे-
Example of Karan Tatpurus Samas
समस्त-पद विग्रह वाग्युद्ध – वाक् (से) युद्ध आचारकुशल – आचार (से) कुशल तुलसीकृत – तुलसी (से) कृत कपड़छना – कपड़े (से) छना हुआ मुँहमाँगा – मुँह (से) माँगा रसभरा – रस (से) भरा करुणागत – करुणा से पूर्ण भयाकुल – भय से आकुल रेखांकित – रेखा से अंकित शोकग्रस्त – शोक से ग्रस्त मदांध – मद से अंधा मनचाहा – मन से चाहा सूररचित – सूर द्वारा रचित
(iii)सम्प्रदान तत्पुरुष या (चतुर्थी तत्पुरुष)- जिसके प्रथम पद के साथ सम्प्रदान कारक के चिह्न (को/के लिए) लगे हों। उसे सम्प्रदान तत्पुरुष कहते हैं। जैसे-
Examples of Sampradan Tatpurus Samas
समस्त-पद विग्रह देशभक्ति – देश (के लिए) भक्ति विद्यालय – विद्या (के लिए) आलय रसोईघर – रसोई (के लिए) घर हथकड़ी – हाथ (के लिए) कड़ी राहखर्च – राह (के लिए) खर्च पुत्रशोक – पुत्र (के लिए) शोक स्नानघर – स्नान के लिए घर यज्ञशाला – यज्ञ के लिए शाला डाकगाड़ी – डाक के लिए गाड़ी गौशाला – गौ के लिए शाला सभाभवन – सभा के लिए भवन लोकहितकारी – लोक के लिए हितकारी देवालय – देव के लिए आलय
(iv)अपादान तत्पुरुष या (पंचमी तत्पुरुष)- जिसका प्रथम पद अपादान के चिह्न (से) युक्त हो। उसे अपादान तत्पुरुष कहते हैं। जैसे-
Example of Apadan Tatpurus Samas
समस्त-पद विग्रह दूरागत – दूर से आगत जन्मान्ध – जन्म से अन्ध रणविमुख – रण से विमुख देशनिकाला – देश से निकाला कामचोर – काम से जी चुरानेवाला नेत्रहीन – नेत्र (से) हीन धनहीन – धन (से) हीन पापमुक्त – पाप से मुक्त जलहीन – जल से हीन
(v)सम्बन्ध तत्पुरुष या (षष्ठी तत्पुरुष)- जिसके प्रथम पद के साथ संबंधकारक के चिह्न (का, के, की) लगी हो। उसे संबंधकारक तत्पुरुष कहते हैं। जैसे-
Examples of Sambandh Tatpurus Samas
समस्त-पद विग्रह विद्याभ्यास – विद्या का अभ्यास सेनापति – सेना का पति पराधीन – पर के अधीन राजदरबार – राजा का दरबार श्रमदान – श्रम (का) दान राजभवन – राजा (का) भवन राजपुत्र – राजा (का) पुत्र देशरक्षा – देश की रक्षा शिवालय – शिव का आलय गृहस्वामी – गृह का स्वामी
(vi)अधिकरण तत्पुरुष या (सप्तमी तत्पुरुष)- जिसके पहले पद के साथ अधिकरण के चिह्न (में, पर) लगी हो। उसे अधिकरण तत्पुरुष कहते हैं। जैसे-
Examples of Adhikaran Tatpurus Samas
समस्त-पद विग्रह विद्याभ्यास – विद्या का अभ्यास गृहप्रवेश – गृह में प्रवेश नरोत्तम – नरों (में) उत्तम पुरुषोत्तम – पुरुषों (में) उत्तम दानवीर – दान (में) वीर शोकमग्न – शोक में मग्न लोकप्रिय – लोक में प्रिय कलाश्रेष्ठ – कला में श्रेष्ठ आनंदमग्न – आनंद में मग्न
(2)कर्मधारय समास:-
Karmdharay Samas : जिस समस्त-पद का उत्तरपद प्रधान हो तथा पूर्वपद व उत्तरपद में उपमान-उपमेय अथवा विशेषण-विशेष्य संबंध हो, कर्मधारय समास कहलाता है। दूसरे शब्दों में- वह समास जिसमें विशेषण तथा विशेष्य अथवा उपमान तथा उपमेय का मेल हो और विग्रह करने पर दोनों खंडों में एक ही कर्त्ताकारक की विभक्ति रहे। उसे कर्मधारय समास कहते हैं। सरल शब्दों में- कर्ता-तत्पुरुष को ही कर्मधारय कहते हैं।
पहचान: विग्रह करने पर दोनों पद के मध्य में ‘है जो’, ‘के समान’ आदि आते है।
समानाधिकरण तत्पुरुष का ही दूसरा नाम कर्मधारय है। जिस तत्पुरुष समास के समस्त होनेवाले पद समानाधिकरण हों, अर्थात विशेष्य-विशेषण-भाव को प्राप्त हों, कर्ताकारक के हों और लिंग-वचन में समान हों, वहाँ ‘कर्मधारयतत्पुरुष’ समास होता है।
कर्मधारय समास की निम्नलिखित स्थितियाँ होती हैं- (a) पहला पद विशेषण दूसरा विशेष्य : महान्, पुरुष =महापुरुष (b) दोनों पद विशेषण : श्वेत और रक्त =श्वेतरक्त भला और बुरा = भलाबुरा कृष्ण और लोहित =कृष्णलोहित (c) पहला पद विशेष्य दूसरा विशेषण : श्याम जो सुन्दर है =श्यामसुन्दर (d) दोनों पद विशेष्य : आम्र जो वृक्ष है =आम्रवृक्ष (e) पहला पद उपमान : घन की भाँति श्याम =घनश्याम व्रज के समान कठोर =वज्रकठोर (f) पहला पद उपमेय : सिंह के समान नर =नरसिंह (g) उपमान के बाद उपमेय : चन्द्र के समान मुख =चन्द्रमुख (h) रूपक कर्मधारय : मुखरूपी चन्द्र =मुखचन्द्र (i) पहला पद कु : कुत्सित पुत्र =कुपुत्र
Examples of Karmdharay Samas
समस्त-पद विग्रह नवयुवक – नव है जो युवक पीतांबर – पीत है जो अंबर परमेश्र्वर – परम है जो ईश्र्वर नीलकमल – नील है जो कमल महात्मा -महान है जो आत्मा कनकलता – कनक की-सी लता प्राणप्रिय – प्राणों के समान प्रिय देहलता – देह रूपी लता लालमणि – लाल है जो मणि नीलकंठ – नीला है जो कंठ महादेव – महान है जो देव अधमरा -आधा है जो मरा परमानंद – परम है जो आनंद
(Karmdharay Samas Examples in Hindi)
कर्मधारय तत्पुरुष के भेद
Types of karmdharay Samas
कर्मधारय तत्पुरुष के चार भेद है- (i)विशेषणपूर्वपद (ii)विशेष्यपूर्वपद (iii)विशेषणोभयपद (iv)विशेष्योभयपद
(i)विशेषणपूर्वपद :- इसमें पहला पद विशेषण होता है। Examples of Visheshanpurva pad Karmdharay Samasजैसे- पीत अम्बर= पीताम्बर परम ईश्वर= परमेश्वर नीली गाय= नीलगाय प्रिय सखा= प्रियसखा
(ii) विशेष्यपूर्वपद :- इसमें पहला पद विशेष्य होता है और इस प्रकार के सामासिक पद अधिकतर संस्कृत में मिलते है। Examples of Visheshyapurva Pad Karmdharay Samasजैसे- कुमारी (क्वाँरी लड़की) श्रमणा (संन्यास ग्रहण की हुई )=कुमारश्रमणा।
(iii) विशेषणोभयपद :-इसमें दोनों पद विशेषण होते है। Examples of Visheshanobhaya Pad Karmdharay Samasजैसे- नील-पीत (नीला-पी-ला ); शीतोष्ण (ठण्डा-गरम ); लालपिला; भलाबुरा; दोचार कृताकृत (किया-बेकिया, अर्थात अधूरा छोड़ दिया गया); सुनी-अनसुनी; कहनी-अनकहनी।
(iv)विशेष्योभयपद:- इसमें दोनों पद विशेष्य होते है।
Examples of Visheshyobhaya Pad Karmdharay Samas जैसे- आमगाछ या आम्रवृक्ष, वायस-दम्पति।
कर्मधारयतत्पुरुष समास के उपभेद (Subtypes of karmdharay Samas)
कर्मधारयतत्पुरुष समास के अन्य उपभेद हैं- (i) उपमानकर्मधारय (ii) उपमितकर्मधारय (iii) रूपककर्मधारय
जिससे किसी की उपमा दी जाये, उसे ‘उपमान’ और जिसकी उपमा दी जाये, उसे ‘उपमेय’ कहा जाता है। घन की तरह श्याम =घनश्याम- यहाँ ‘घन’ उपमान है और ‘श्याम’ उपमेय।
(i) उपमानकर्मधारय- इसमें उपमानवाचक पद का उपमेयवाचक पद के साथ समास होता हैं। इस समास में दोनों शब्दों के बीच से ‘इव’ या ‘जैसा’ अव्यय का लोप हो जाता है और दोनों ही पद, चूँकि एक ही कर्ताविभक्ति, वचन और लिंग के होते है, इसलिए समस्त पद कर्मधारय-लक्षण का होता है। अन्य उदाहरण- विद्युत्-जैसी चंचला =विद्युच्चंचला।
(ii) उपमितकर्मधारय- यह उपमानकर्मधारय का उल्टा होता है, अर्थात इसमें उपमेय पहला पद होता है और उपमान दूसरा। जैसे- अधरपल्लव के समान = अधर-पल्लव; नर सिंह के समान =नरसिंह।
किन्तु, जहाँ उपमितकर्मधारय- जैसा ‘नर सिंह के समान’ या ‘अधर पल्लव के समान’ विग्रह न कर अगर ‘नर ही सिंह या ‘अधर ही पल्लव’- जैसा विग्रह किया जाये, अर्थात उपमान-उपमेय की तुलना न कर उपमेय को ही उपमान कर दिया जाय- दूसरे शब्दों में, जहाँ एक का दूसरे पर आरोप कर दिया जाये, वहाँ रूपककर्मधारय होगा। उपमितकर्मधारय और रूपककर्मधारय में विग्रह का यही अन्तर है। रूपककर्मधारय के अन्य उदाहरण- मुख ही है चन्द्र = मुखचन्द्र; विद्या ही है रत्न = विद्यारत्न भाष्य (व्याख्या) ही है अब्धि (समुद्र)= भाष्याब्धि।
(Hindi Grammar Samas)
(3)द्विगु समास Dvigu Samas :-
जिस समस्त-पद का पूर्वपद संख्यावाचक विशेषण हो, वह द्विगु कर्मधारय समास कहलाता है। इस समास को संख्यापूर्वपद कर्मधारय कहा जाता है। इसका पहला पद संख्यावाची और दूसरा पद संज्ञा होता है। Examples of Dvigu Samas जैसे-
समस्त-पद विग्रह सप्तसिंधु – सात सिंधुओं का समूह दोपहर – दो पहरों का समूह त्रिलोक – तीनों लोको का समाहार तिरंगा – तीन रंगों का समूह दुअत्री – दो आनों का समाहार पंचतंत्र – पाँच तंत्रों का समूह पंजाब – पाँच आबों (नदियों) का समूह पंचरत्न -पाँच रत्नों का समूह नवरात्रि – नौ रात्रियों का समूह त्रिवेणी – तीन वेणियों (नदियों) का समूह सतसई – सात सौ दोहों का समूह
(Dvigu Samas Examples in Hindi)
द्विगु के भेद
Types of Dvigu Samas
इसके दो भेद होते है- (i)समाहार द्विगु और (ii)उत्तरपदप्रधान द्विगु।
(i)समाहार द्विगु:- समाहार का अर्थ है ‘समुदाय’ ‘इकट्ठा होना’ ‘समेटना’ उसे समाहार द्विगु समास कहते हैं। Examples of Samahar Dvigu Samas जैसे- तीनों लोकों का समाहार= त्रिलोक पाँचों वटों का समाहार= पंचवटी पाँच सेरों का समाहार= पसेरी तीनो भुवनों का समाहार= त्रिभुवन
(ii)उत्तरपदप्रधान द्विगु:- इसका दूसरा पद प्रधान रहता है और पहला पद संख्यावाची। इसमें समाहार नहीं जोड़ा जाता। उत्तरपदप्रधान द्विगु के दो प्रकार है- (a) बेटा या उत्पत्र के अर्थ में; जैसे- दो माँ का- द्वैमातुर या दुमाता; दो सूतों के मेल का- दुसूती; (b) जहाँ सचमुच ही उत्तरपद पर जोर हो; जैसे- पाँच प्रमाण (नाम) =पंचप्रमाण; पाँच हत्थड़ (हैण्डिल)= पँचहत्थड़।
द्रष्टव्य- अनेक बहुव्रीहि समासों में भी पूर्वपद संख्यावाचक होता है। ऐसी हालत में विग्रह से ही जाना जा सकता है कि समास बहुव्रीहि है या द्विगु। यदि ‘पाँच हत्थड़ है जिसमें वह =पँचहत्थड़’ विग्रह करें, तो यह बहुव्रीहि है और ‘पाँच हत्थड़’ विग्रह करें, तो द्विगु।
(4)बहुव्रीहि समास Bahuvreehi Samas :-
समास में आये पदों को छोड़कर जब किसी अन्य पदार्थ की प्रधानता हो, तब उसे बहुव्रीहि समास कहते है।
दूसरे शब्दों में- जिस समास में पूर्वपद तथा उत्तरपद- दोनों में से कोई भी पद प्रधान न होकर कोई अन्य पद ही प्रधान हो, वह बहुव्रीहि समास कहलाता है। जैसे- दशानन- दस मुहवाला- रावण।
जिस समस्त-पद में कोई पद प्रधान नहीं होता, दोनों पद मिल कर किसी तीसरे पद की ओर संकेत करते है, उसमें बहुव्रीहि समास होता है। ‘नीलकंठ’, नीला है कंठ जिसका अर्थात शिव। यहाँ पर दोनों पदों ने मिल कर एक तीसरे पद ‘शिव’ का संकेत किया, इसलिए यह बहुव्रीहि समास है।
इस समास के समासगत पदों में कोई भी प्रधान नहीं होता, बल्कि पूरा समस्तपद ही किसी अन्य पद का विशेषण होता है।
Examples of Bahuvreehi Samas
समस्त-पद विग्रह प्रधानमंत्री – मंत्रियो में प्रधान है जो (प्रधानमंत्री) पंकज – (पंक में पैदा हो जो (कमल) अनहोनी – न होने वाली घटना (कोई विशेष घटना) निशाचर – निशा में विचरण करने वाला (राक्षस) चौलड़ी – चार है लड़ियाँ जिसमे (माला) विषधर – (विष को धारण करने वाला (सर्प) मृगनयनी – मृग के समान नयन हैं जिसके अर्थात सुंदर स्त्री त्रिलोचन – तीन लोचन हैं जिसके अर्थात शिव महावीर – महान वीर है जो अर्थात हनुमान सत्यप्रिय – सत्य प्रिय है जिसे अर्थात विशेष व्यक्ति
(Bahuvreehi Samas Examples in Hindi)
तत्पुरुष और बहुव्रीहि में अन्तर-
Difference in Tatpurush and Bahuvreehi Samas तत्पुरुष और बहुव्रीहि में यह भेद है कि तत्पुरुष में प्रथम पद द्वितीय पद का विशेषण होता है, जबकि बहुव्रीहि में प्रथम और द्वितीय दोनों पद मिलकर अपने से अलग किसी तीसरे के विशेषण होते है। जैसे- ‘पीत अम्बर =पीताम्बर (पीला कपड़ा )’ कर्मधारय तत्पुरुष है तो ‘पीत है अम्बर जिसका वह- पीताम्बर (विष्णु)’ बहुव्रीहि। इस प्रकार, यह विग्रह के अन्तर से ही समझा जा सकता है कि कौन तत्पुरुष है और कौन बहुव्रीहि। विग्रह के अन्तर होने से समास का और उसके साथ ही अर्थ का भी अन्तर हो जाता है। ‘पीताम्बर’ का तत्पुरुष में विग्रह करने पर ‘पीला कपड़ा’ और बहुव्रीहि में विग्रह करने पर ‘विष्णु’ अर्थ होता है।
बहुव्रीहि समास के भेद Types of Bahuvreehi Samas
बहुव्रीहि समास के चार भेद है- (i) समानाधिकरणबहुव्रीहि (ii) व्यधिकरणबहुव्रीहि (iii) तुल्ययोगबहुव्रीहि (iv) व्यतिहारबहुव्रीहि
(i) समानाधिकरणबहुव्रीहि :- इसमें सभी पद प्रथमा, अर्थात कर्ताकारक की विभक्ति के होते है; किन्तु समस्तपद द्वारा जो अन्य उक्त होता है, वह कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान, सम्बन्ध, अधिकरण आदि विभक्ति-रूपों में भी उक्त हो सकता है।
Examples of Samanadhikaran Bahuvreehi Samas
जैसे- प्राप्त है उदक जिसको =प्राप्तोदक (कर्म में उक्त); जीती गयी इन्द्रियाँ है जिसके द्वारा =जितेन्द्रिय (करण में उक्त); दत्त है भोजन जिसके लिए =दत्तभोजन (सम्प्रदान में उक्त); निर्गत है धन जिससे =निर्धन (अपादान में उक्त); पीत है अम्बर जिसका =पीताम्बर; मीठी है बोली जिसकी =मिठबोला; नेक है नाम जिसका =नेकनाम (सम्बन्ध में उक्त); चार है लड़ियाँ जिसमें =चौलड़ी; सात है खण्ड जिसमें =सतखण्डा (अधिकरण में उक्त)।
(ii) व्यधिकरणबहुव्रीहि :-समानाधिकरण में जहाँ दोनों पद प्रथमा या कर्ताकारक की विभक्ति के होते है, वहाँ पहला पद तो प्रथमा विभक्ति या कर्ताकारक की विभक्ति के रूप का ही होता है, जबकि बादवाला पद सम्बन्ध या अधिकरण कारक का हुआ करता है।
Examples of vyadhikaran Bahuvreehi Samas
जैसे- शूल है पाणि (हाथ) में जिसके =शूलपाणि; वीणा है पाणि में जिसके =वीणापाणि। (iii) तुल्ययोगबहुव्रीहिु:- जिसमें पहला पद ‘सह’ हो, वह तुल्ययोगबहुव्रीहि या सहबहुव्रीहि कहलाता है। ‘सह’ का अर्थ है ‘साथ’ और समास होने पर ‘सह’ की जगह केवल ‘स’ रह जाता है। इस समास में यह ध्यान देने की बात है कि विग्रह करते समय जो ‘सह’ (साथ) बादवाला या दूसरा शब्द प्रतीत होता है, वह समास में पहला हो जाता है।
Examples of Tulyayog Bahuvreehi Samas
जैसे- जो बल के साथ है, वह=सबल; जो देह के साथ है, वह सदेह; जो परिवार के साथ है, वह सपरिवार; जो चेत (होश) के साथ है, वह =सचेत।
(iv)व्यतिहारबहुव्रीहि:-जिससे घात-प्रतिघात सूचित हो, उसे व्यतिहारबहुव्रीहि कहा जाता है। इ समास के विग्रह से यह प्रतीत होता है कि ‘इस चीज से और इस या उस चीज से जो लड़ाई हुई’।
Examples of vyatihaar Bahuvreehi Samas
जैसे- मुक्के-मुक्के से जो लड़ाई हुई =मुक्का-मुक्की; घूँसे-घूँसे से जो लड़ाई हुई =घूँसाघूँसी; बातों-बातों से जो लड़ाई हुई =बाताबाती। इसी प्रकार, खींचातानी, कहासुनी, मारामारी, डण्डाडण्डी, लाठालाठी आदि।
इन चार प्रमुख जातियों के बहुव्रीहि समास के अतिरिक्त इस समास का एक प्रकार और है। जैसे- प्रादिबहुव्रीहि- जिस बहुव्रीहि का पूर्वपद उपसर्ग हो, वह प्रादिबहुव्रीहि कहलाता है। जैसे- कुत्सित है रूप जिसका = कुरूप; नहीं है रहम जिसमें = बेरहम; नहीं है जन जहाँ = निर्जन।
तत्पुरुष के भेदों में भी ‘प्रादि’ एक भेद है, किन्तु उसके दोनों पदों का विग्रह विशेषण-विशेष्य-पदों की तरह होगा, न कि बहुव्रीहि के ढंग पर, अन्य पद की प्रधानता की तरह। जैसे- अति वृष्टि= अतिवृष्टि (प्रादितत्पुरुष) ।
द्रष्टव्य- (i) बहुव्रीहि के समस्त पद में दूसरा पद ‘धर्म’ या ‘धनु’ हो, तो वह आकारान्त हो जाता है। जैसे- प्रिय है धर्म जिसका = प्रियधर्मा; सुन्दर है धर्म जिसका = सुधर्मा; आलोक ही है धनु जिसका = आलोकधन्वा।
(ii) सकारान्त में विकल्प से ‘आ’ और ‘क’ किन्तु ईकारान्त, उकारान्त और ऋकारान्त समासान्त पदों के अन्त में निश्र्चितरूप से ‘क’ लग जाता है। जैसे- उदार है मन जिसका = उदारमनस, उदारमना या उदारमनस्क; अन्य में है मन जिसका = अन्यमना या अन्यमनस्क; ईश्र्वर है कर्ता जिसका = ईश्र्वरकर्तृक; साथ है पति जिसके; सप्तीक; बिना है पति के जो = विप्तीक।
बहुव्रीहि समास की विशेषताएँ
बहुव्रीहि समास की निम्नलिखित विशेषताएँ है-
(i) यह दो या दो से अधिक पदों का समास होता है। (ii)इसका विग्रह शब्दात्मक या पदात्मक न होकर वाक्यात्मक होता है। (iii)इसमें अधिकतर पूर्वपद कर्ता कारक का होता है या विशेषण। (iv)इस समास से बने पद विशेषण होते है। अतः उनका लिंग विशेष्य के अनुसार होता है। (v) इसमें अन्य पदार्थ प्रधान होता है।
बहुव्रीहि समास-संबंधी विशेष बातें
(i) यदि बहुव्रीहि समास के समस्तपद में दूसरा पद ‘धर्म’ या ‘धनु’ हो तो वह आकारान्त हो जाता है। जैसे- आलोक ही है धनु जिसका वह= आलोकधन्वा
(ii) सकारान्त में विकल्प से ‘आ’ और ‘क’ किन्तु ईकारान्त, ऊकारान्त और ॠकारान्त समासान्त पदों के अन्त में निश्चित रूप से ‘क’ लग जाता है। जैसे- उदार है मन जिसका वह= उदारमनस् अन्य में है मन जिसका वह= अन्यमनस्क साथ है पत्नी जिसके वह= सपत्नीक
(iii) बहुव्रीहि समास में दो से ज्यादा पद भी होते हैं।
(iv) इसका विग्रह पदात्मक न होकर वाक्यात्मक होता है। यानी पदों के क्रम को व्यवस्थित किया जाय तो एक सार्थक वाक्य बन जाता है। जैसे- लंबा है उदर जिसका वह= लंबोदर वह, जिसका उदर लम्बा है।
(v) इस समास में अधिकतर पूर्वपद कर्त्ता कारक का होता है या विशेषण।
(5)द्वन्द्व समास Dwand Samas:-
जिस समस्त-पद के दोनों पद प्रधान हो तथा विग्रह करने पर ‘और’, ‘अथवा’, ‘या’, ‘एवं’ लगता हो वह द्वन्द्व समास कहलाता है।
Examples of Dwand Samas
समस्त-पद विग्रह रात-दिन = रात और दिन सुख-दुख = सुख और दुख दाल-चावल = दाल और चावल भाई-बहन = भाई और बहन माता-पिता = माता और पिता ऊपर-नीचे = ऊपर और नीचे गंगा-यमुना = गंगा और यमुना दूध-दही = दूध और दही आयात-निर्यात = आयात और निर्यात देश-विदेश = देश और विदेश आना-जाना =आना और जाना राजा-रंक = राजा और रंक
(Dwand Samas Examples in Hindi)
पहचान : दोनों पदों के बीच प्रायः योजक चिह्न (Hyphen (-) का प्रयोग होता है।
द्वन्द्व समास में सभी पद प्रधान होते है। द्वन्द्व और तत्पुरुष से बने पदों का लिंग अन्तिम शब्द के अनुसार होता है।
द्वन्द्व समास के भेद
Types of Dwand Samas द्वन्द्व समास के तीन भेद है- (i) इतरेतर द्वन्द्व (ii) समाहार द्वन्द्व (iii) वैकल्पिक द्वन्द्व
(i) इतरेतर द्वन्द्व-: वह द्वन्द्व, जिसमें ‘और’ से सभी पद जुड़े हुए हो और पृथक् अस्तित्व रखते हों, ‘इतरेतर द्वन्द्व’ कहलता है।
इस समास से बने पद हमेशा बहुवचन में प्रयुक्त होते है; क्योंकि वे दो या दो से अधिक पदों के मेल से बने होते है। Examples of Itaretar Dwand Samas जैसे- राम और कृष्ण =राम-कृष्ण ऋषि और मुनि =ऋषि-मुनि गाय और बैल =गाय-बैल भाई और बहन =भाई-बहन माँ और बाप =माँ-बाप बेटा और बेटी =बेटा-बेटी इत्यादि।
यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि इतरेतर द्वन्द्व में दोनों पद न केवल प्रधान होते है, बल्कि अपना अलग-अलग अस्तित्व भी रखते है।
(ii) समाहार द्वन्द्व-समाहार का अर्थ है समष्टि या समूह। जब द्वन्द्व समास के दोनों पद और समुच्चयबोधक से जुड़े होने पर भी पृथक-पृथक अस्तित्व न रखें, बल्कि समूह का बोध करायें, तब वह समाहार द्वन्द्व कहलाता है।
समाहार द्वन्द्व में दोनों पदों के अतिरिक्त अन्य पद भी छिपे रहते है और अपने अर्थ का बोध अप्रत्यक्ष रूप से कराते है। Examples of Samahar Dwand Samas जैसे- आहारनिद्रा =आहार और निद्रा (केवल आहार और निद्रा ही नहीं, बल्कि इसी तरह की और बातें भी); दालरोटी=दाल और रोटी (अर्थात भोजन के सभी मुख्य पदार्थ); हाथपाँव =हाथ और पाँव (अर्थात हाथ और पाँव तथा शरीर के दूसरे अंग भी ) इसी तरह नोन-तेल, कुरता-टोपी, साँप-बिच्छू, खाना-पीना इत्यादि।
कभी-कभी विपरीत अर्थवाले या सदा विरोध रखनेवाले पदों का भी योग हो जाता है। जैसे- चढ़ा-ऊपरी, लेन-देन, आगा-पीछा, चूहा-बिल्ली इत्यादि।
जब दो विशेषण-पदों का संज्ञा के अर्थ में समास हो, तो समाहार द्वन्द्व होता है। जैसे- लंगड़ा-लूला, भूखा-प्यास, अन्धा-बहरा इत्यादि। उदाहरण- लँगड़े-लूले यह काम नहीं कर सकते; भूखे-प्यासे को निराश नहीं करना चाहिए; इस गाँव में बहुत-से अन्धे-बहरे है।
द्रष्टव्य- यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि जब दोनों पद विशेषण हों और विशेषण के ही अर्थ में आयें तब वहाँ द्वन्द्व समास नहीं होता, वहाँ कर्मधारय समास हो जाता है। जैसे- लँगड़ा-लूला आदमी यह काम नहीं कर सकता; भूखा-प्यासा लड़का सो गया; इस गाँव में बहुत-से लोग अन्धे-बहरे हैं- इन प्रयोगों में ‘लँगड़ा-लूला’, ‘भूखा-प्यासा’ और ‘अन्धा-बहरा’ द्वन्द्व समास नहीं हैं।
(iii) वैकल्पिक द्वन्द्व:-जिस द्वन्द्व समास में दो पदों के बीच ‘या’, ‘अथवा’ आदि विकल्पसूचक अव्यय छिपे हों, उसे वैकल्पिक द्वन्द्व कहते है।
इस समास में विकल्प सूचक समुच्चयबोधक अव्यय ‘वा’, ‘या’, ‘अथवा’ का प्रयोग होता है, जिसका समास करने पर लोप हो जाता है।
Examples of vaikalpik Dwand Samas जैसे- धर्म या अधर्म= धर्माधर्म सत्य या असत्य= सत्यासत्य छोटा या बड़ा= छोटा-बड़ा
(6) अव्ययीभाव समास Avyavibhav Samas:-
अव्ययीभाव का लक्षण है- जिसमे पूर्वपद की प्रधानता हो और सामासिक या समास पद अव्यय हो जाय, उसे अव्ययीभाव समास कहते है। सरल शब्दो में- जिस समास का पहला पद (पूर्वपद) अव्यय तथा प्रधान हो, उसे अव्ययीभाव समास कहते है।
इस समास में समूचा पद क्रियाविशेषण अव्यय हो जाता है। इसमें पहला पद उपसर्ग आदि जाति का अव्यय होता है और वही प्रधान होता है। जैसे- प्रतिदिन, यथासम्भव, यथाशक्ति, बेकाम, भरसक इत्यादि।
अव्ययीभाववाले पदों का विग्रह- ऐसे समस्तपदों को तोड़ने में, अर्थात उनका विग्रह करने में हिन्दी में बड़ी कठिनाई होती है, विशेषतः संस्कृत के समस्त पदों का विग्रह करने में हिन्दी में जिन समस्त पदों में द्विरुक्तिमात्र होती है, वहाँ विग्रह करने में केवल दोनों पदों को अलग कर दिया जाता है।
जैसे- प्रतिदिन = दिन-दिन यथाविधि- विधि के अनुसार यथाक्रम- क्रम के अनुसार यथाशक्ति- शक्ति के अनुसार बेखटके- बिना खटके के बेखबर- बिना खबर के रातोंरात- रात ही रात में कानोंकान- कान ही कान में भुखमरा- भूख से मरा हुआ आजन्म- जन्म से लेकर पूर्वपद-अव्यय + उत्तरपद = समस्त-पद विग्रह प्रति + दिन = प्रतिदिन प्रत्येक दिन आ + जन्म = आजन्म जन्म से लेकर यथा + संभव = यथासंभव जैसा संभव हो अनु + रूप = अनुरूप रूप के योग्य भर + पेट = भरपेट पेट भर के हाथ + हाथ = हाथों-हाथ हाथ ही हाथ में
(Avyavibhav Samas Examples in Hindi)
अव्ययीभाव समास की पहचान के लक्षण:- अव्ययीभाव समास को पहचानने के लिए निम्नलिखित विधियाँ अपनायी जा सकती हैं- (i) यदि समस्तपद के आरंभ में भर, निर्, प्रति, यथा, बे, आ, ब, उप, यावत्, अधि, अनु आदि उपसर्ग/अव्यय हों। जैसे- यथाशक्ति, प्रत्येक, उपकूल, निर्विवाद अनुरूप, आजीवन आदि।
(ii) यदि समस्तपद वाक्य में क्रियाविशेषण का काम करे। जैसे- उसने भरपेट (क्रियाविशेषण) खाया (क्रिया)
(7)नञ समास Nay Samas:-
जिस समास में पहला पद निषेधात्मक हो उसे नञ तत्पुरुष समास कहते हैं। इसमे नहीं का बोध होता है। इस समास का पहला पद ‘नञ’ (अर्थात नकारात्मक) होता है। समास में यह नञ ‘अन, अ,’ रूप में पाया जाता है। कभी-कभी यह ‘न’ रूप में भी पाया जाता है। जैसे- (संस्कृत) न भाव=अभाव, न धर्म=अधर्म, न न्याय= अन्याय, न योग्य= अयोग्य
समस्त-पद विग्रह अनाचार -न आचार अनदेखा – न देखा हुआ अन्याय – न न्याय अनभिज्ञ – न अभिज्ञ नालायक – नहीं लायक अचल – न चल नास्तिक – न आस्तिक अनुचित – न उचित
प्रेरणा शब्द लैटिन भाषा के “मौटम” शब्द से बना है, जिसका अर्थ है- motor तथा motion इसके अनुसार प्रेरणा में गति होना अनिवार्य है| मनोवैज्ञानिक क्रेच तथा क्रेचफील्ड के अनुसार प्रेरणा हमारे ‘क्यों’ का उत्तर देती हैं| हम किसी से क्यों प्यार करते हैं? हम किसी से क्यों घृणा करते हैं? तारे दिन में क्यों दिखाई नहीं देते हैं?
शिक्षा एक जीवनपर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है अर्थात क्रिया है| किसी भी क्रिया के पीछे एक बल कार्य करता है जिसे हम प्रेरक बल कहते हैं| उसी प्रकार शिक्षा प्राप्त करने की प्रक्रिया में कार्य करने वाला बल अभिप्रेरणा है|
प्रेरकों का वर्गीकरण(Classification of motives)
आंतरिक अभिप्रेरक
जिन्हें हम व्यक्तिगत, जैविक, प्राथमिक, जन्मजात अभिप्रेरक आदि भी कहते हैं | भूख,प्यास,आराम,नींद,प्यार,क्रोध,सेक्स,मल-मूत्र त्याग आदि|
बाह्य अभिप्रेरक
जिन्हें हम सामाजिक,मनोवैज्ञानिक,द्वितीयक,अर्जित अभिप्रेरक कहते हैं| सुरक्षा,प्रदर्शन,जिज्ञासा,सामाजिकता,ज्ञान प्रेरक= आवश्यकता+ चालक+ प्रोत्साहन
आवश्यकता ( need)
यह हमारे शरीर की कोई जरूरत या अभाव है जिसके उत्पन्न होने पर हम शारीरिक असंतुलन या तनाव महसूस करते हैं| जैसे-भूख लगने पर खाने की आवश्यकता| बीमार पड़ने पर दवा की आवश्यकता| अकेले रहने पर साथी की आवश्यकता| थक जाने पर आराम की आवश्यकता| “आवश्यकता प्राणी की वहां आंतरिक अवस्था है जो किसी उद्दीपन हो अथवा लक्ष्यों के संबंध में जीवो का क्षेत्र संगठित करती हैं और उन की प्राप्ति हेतु क्रिया उत्पन्न करती हैं |”
चालक/अंतर्नोद/प्रणोदन ( drive)
प्रत्येक आवश्यकता से जुड़ा हुआ एक चालाक होता है| जैसे- खाने की आवश्यकता से भूख, पानी की आवश्यकता से प्यास| जब तक चालक शांत नहीं हो जाता तब तक हम तनाव में रहते हैं|
उद्दीपन/प्रोत्साहन(Incentive)
प्रोत्साहन वातावरण में उपस्थित तत्व है जो हमारे चालक को शांत कर देते हैं| जैसे- प्यास लगने पर जीव तालाब,झरना,नदी-नाले का पानी पीकर अपनी प्यास बुझाता है| “उद्दीपन वह वस्तु परिस्थितियां अथवा प्रक्रिया है जो व्यवहार को उत्तेजना प्रदान करती हैं उसे जारी रखती हैं तथा उसे दिशा देती हैं|” वास्तव में आवश्यकता चालक एवं उद्दीपन में घनिष्ठ संबंध है| आवश्यकता चालको को जन्म देती हैं| चालक एक तनावपूर्ण स्थिति हैं तथा व्यवहार को एक निश्चि
मनोवैज्ञानिकों ने मानवीय व्यवहार में होने वाले परिवर्तन व विविधता को ही अभिप्रेरणा का नाम दिया है।
जेंमस ड्रेवर-अभिप्रेरणा एक भावात्मक क्रियात्मक कारक है जो कि चेतन व अचेतन लक्ष्य की ओर होने वाले व्यक्ति के व्यवसाय की दिशा को निश्चित करने का कार्य करता है
विटिंग व विलियम तृतीय-अभिप्रेरणा अवस्थाओं का एक ऐसा समूचय है जो व्यवहार को सक्रिय करता है निर्देशित करता तथा किसी लक्ष्य की और उसे बनाए रखता है।
अभिप्रेरणा का स्वरूप
यह क्रियाएं लक्ष्य प्राप्ति के लिए प्राणी को प्रेरित करती है। अभिप्रेरणा जन्मजात नहीं होती। अभिप्रेरणा एक बाहय कारक है जो व्यक्ति में आंतरिक भावना पैदा करती है। अभिप्रेरणा व्यक्ति को लक्ष्य की तरफ निर्देशित करते हैं। अभिप्रेरणा के मौलिक अभिप्रेरणा संप्रत्यय
1 आवश्यकता 2 प्रणोद 3 प्रोत्साहन
अभिप्रेरणा चक्र
आवश्यकता➡ अंतरनोद➡ संज्ञान ➡लक्ष्य निर्देशित व्यवहार ➡लक्ष्य की प्राप्ति ➡अंतरनाेद में कमी
अभिप्रेरणा के प्रकार
1 -जैविक अभिप्रेरक,प्राथमिक,जन्मजात,शारीरिक
वह अभिप्रेरक जो व्यक्ति में जन्म से ही उपस्थित होते हैं प्राथमिक अभिप्रेरित कहलाते हैं।
शरीफ के अनुसार अभिप्रेरक अर्जित नहीं होते,इनकी अभिव्यक्ति में एक ही प्रजाति के सभी सदस्य में समरूपता होती है,वे व्यक्ति में उत्तेजना उत्पन्न करते हैं तथा व्यक्तिगत मांगों के प्रति प्रतिक्रिया करते हैं।
मुख्य जैविक अभिप्रेरक-भूख,प्यास,नींद ,मल मूत्र त्यागना,काम
कैनन ने भूख का स्थानीय उद्दीपक सिद्धांत प्रस्तुत किया इनके अनुसार भूख अमस्या में संकुचन के कारण लगती है।
अन्य कारक
रक्त में ग्लूकोज की मात्रा का कम होना फ्रीडमैन व स्टीकर के अनुसार-ईधन की आपूर्ति में कमी के कारण मस्तिष्क के हाइपोथैलेमस के एक हिस्से लेटरल हाइपोथैलेमस(जागृति केंद्र) को भूख का अनुभव होता है। जबकि वेंट्रोमेडियल हाइपोथैलेमस भोजन संतृप्ति का अनुभव करवाता है।
इप्सटीन का डबल डिफ्लेशन सिद्धांत-इनके अनुसार प्यास दो शारीरिक क्रियाओं -कोशिका में पानी की कमी हो जाना और रक्त की मात्रा में कमी होने का परिणाम है। हाइपोथैलेमस व पीयूष ग्रंथि से स्रावित हार्मोन एंटीड्यूरेटिक हॉरमोन किडनी द्वारा पानी को शरीर से बाहर निकालने की प्रक्रिया पर नियंत्रण रखता है।
इसके अलावा रानी नामक पदार्थ स्रावित होता है जो वक्त ने मिलकर एंजियोटेंशिन द्वितीय बनाता है जो व्यक्ति में प्याज की अनुमति करता है।
नींद-तीव्र आंख गतिक नींद व मंद आंख गतिक नींद(क्लिंट मैन के अनुसार)
Posterior हाइपोथैलेमस को नींद का केंद्र माना जाता है।
2 द्वितीय,अर्जित,मनोवैज्ञानिक,सामाजिक अभिप्रेरक
कराउनी और मारलों के अनुसार – उच्च अनुमोदन वाला व्यक्ति निमन अनुमोदन वाले व्यक्तियों की तुलना में समूह के प्रति अधिक अनुरूपता प्रदर्शित करता है। शेशटर के अनुसार संबंध अभिप्रेरक-इसमें व्यक्ति को दूसरों के साथ रहने व संबंध बनाने में संतोष प्राप्त होता है जे वीराॅफ का सत्ता अभिप्रेरक-इस अभी प्रेरक में व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के व्यवहार को प्रभावित करने वाले संसाधनों पर नियंत्रण कर संतुष्टि प्रदान करता है।इसी को डोलॉर्ड ने कुंठा आक्रमणता कल्पना कहा गया है।मैकदुग्गल ने इसे युयुत्सु मूल प्रवृत्ति,फ्रायड ने मृत्यु मूल प्रवृत्ति,लारेंज ने इसे अभियोजनआत्मक मूल प्रवृत्ति माना है। अभिप्रेरक(मैक्लीलैंड के अनुसार) उच्च उपलब्धि प्रेरक वाले व्यक्ति व्यवहार के चुने हुए क्षेत्रों में कार्य करना पसंद करते हैं,ऐसे व्यक्ति किसी भी प्रतियोगिता में सर्वोच्च स्थान पाने के लिए प्रयासरत होते हैं अगर वह असफल होते हैं तो इसके लिए हम को जिम्मेदार ठहराते हैं।
उपलब्धि अभिप्रेरणा सिद्धांत का प्रतिपादन एटकिंसन विर्क ने किया था।i अभिप्रेरित व्यवहार के प्रतिमान-
मनोविश्लेषणात्मक प्रतिमान-इस मॉडल के प्रतिपादक सिगमंड फ्रायड थे,इन के अनुसार मूल प्रवृत्तियों के दो प्रकार हैं जीवन मूल प्रवृत्ति(लिबिडो) व मृत्यु मूल प्रवृत्ति(माटिडो) उदोलन प्रतिमान-इसके समर्थक फिक्स एवं माडी है संज्ञानात्मक प्रतिमान इस मॉडल की अवधारणा टोलमैन व लेविन ने रखी थी-टोलमैन के अनुसार व्यक्ति के व्यवहार का स्त्रोत आवश्यकता व अंतरनाेद जबकि लेविन के अनुसार व्यवहार में उपस्थित तनाव है। इसे एटकिंस व विरूम ने प्रोत्साहन प्रत्याशा सिद्धांत भी कहा है। मानवतावादी प्रतिमान के प्रतिपादक अब्राहम मैस्लो है इन्होंने मानव आवश्यकता के आधार पर पांच वर्गीकरण की है। मूलपरवर्ती प्रतिमान-मैक्डूगल के अनुसार-‘संवेग उत्पन्न होने पर जो क्रिया होती है उसे मूल प्रवृत्ति कहलाती है’ प्रत्येक मूल प्रवृत्ति के साथ एक संवेग जुड़ा रहता है।
सन्धि संधि का अर्थ है– मिलना। दो वर्णोँ या अक्षरोँ के परस्पर मेल से उत्पन्न विकार को ‘संधि’ कहते हैँ। जैसे– विद्या+आलय = विद्यालय। यहाँ विद्या शब्द का ‘आ’ वर्ण और आलय शब्द के ‘आ’ वर्ण मेँ संधि होकर ‘आ’ बना है। संधि–विच्छेद: संधि शब्दोँ को अलग–अलग करके संधि से पहले की स्थिति मेँ लाना ही संधि विच्छेद कहलाता है। संधि का विच्छेद करने पर उन वर्णोँ का वास्तविक रूप प्रकट हो जाता है। जैसे– हिमालय = हिम+आलय। परस्पर मिलने वाले वर्ण स्वर, व्यंजन और विसर्ग होते हैँ, अतः इनके आधार पर ही संधि तीन प्रकार की होती है– (1) स्वर संधि, (2) व्यंजन संधि, (3) विसर्ग संधि।
1. स्वर संधि
जहाँ दो स्वरोँ का परस्पर मेल हो, उसे स्वर संधि कहते हैँ। दो स्वरोँ का परस्पर मेल संस्कृत व्याकरण के अनुसार प्रायः पाँच प्रकार से होता है– (1) अ वर्ग = अ, आ (2) इ वर्ग = इ, ई (3) उ वर्ग = उ, ऊ (4) ए वर्ग = ए, ऐ (5) ओ वर्ग = ओ, औ। इन्हीँ स्वर–वर्गोँ के आधार पर स्वर–संधि के पाँच प्रकार होते हैँ– 1.दीर्घ संधि– जब दो समान स्वर या सवर्ण मिल जाते हैँ, चाहे वे ह्रस्व होँ या दीर्घ, या एक ह्रस्व हो और दूसरा दीर्घ, तो उनके स्थान पर एक दीर्घ स्वर हो जाता है, इसी को सवर्ण दीर्घ स्वर संधि कहते हैँ। जैसे– अ/आ+अ/आ = आ दैत्य+अरि = दैत्यारि राम+अवतार = रामावतार देह+अंत = देहांत अद्य+अवधि = अद्यावधि उत्तम+अंग = उत्तमांग सूर्य+अस्त = सूर्यास्त कुश+आसन = कुशासन धर्म+आत्मा = धर्मात्मा परम+आत्मा = परमात्मा कदा+अपि = कदापि दीक्षा+अंत = दीक्षांत वर्षा+अंत = वर्षाँत गदा+आघात = गदाघात आत्मा+ आनंद = आत्मानंद जन्म+अन्ध = जन्मान्ध श्रद्धा+आलु = श्रद्धालु सभा+अध्याक्ष = सभाध्यक्ष पुरुष+अर्थ = पुरुषार्थ हिम+आलय = हिमालय परम+अर्थ = परमार्थ स्व+अर्थ = स्वार्थ स्व+अधीन = स्वाधीन पर+अधीन = पराधीन शस्त्र+अस्त्र = शस्त्रास्त्र परम+अणु = परमाणु वेद+अन्त = वेदान्त अधिक+अंश = अधिकांश गव+गवाक्ष = गवाक्ष सुषुप्त+अवस्था = सुषुप्तावस्था अभय+अरण्य = अभयारण्य विद्या+आलय = विद्यालय दया+आनन्द = दयानन्द श्रदा+आनन्द = श्रद्धानन्द महा+आशय = महाशय वार्ता+आलाप = वार्तालाप माया+ आचरण = मायाचरण महा+अमात्य = महामात्य द्राक्षा+अरिष्ट = द्राक्षारिष्ट मूल्य+अंकन = मूल्यांकन भय+आनक = भयानक मुक्त+अवली = मुक्तावली दीप+अवली = दीपावली प्रश्न+अवली = प्रश्नावली कृपा+आकांक्षी = कृपाकांक्षी विस्मय+आदि = विस्मयादि सत्य+आग्रह = सत्याग्रह प्राण+आयाम = प्राणायाम शुभ+आरंभ = शुभारंभ मरण+आसन्न = मरणासन्न शरण+आगत = शरणागत नील+आकाश = नीलाकाश भाव+आविष्ट = भावाविष्ट सर्व+अंगीण = सर्वांगीण अंत्य+अक्षरी = अंत्याक्षरी रेखा+अंश = रेखांश विद्या+अर्थी = विद्यार्थी रेखा+अंकित = रेखांकित परीक्षा+अर्थी = परीक्षार्थी सीमा+अंकित = सीमांकित माया+अधीन = मायाधीन परा+अस्त = परास्त निशा+अंत = निशांत गीत+अंजलि = गीतांजलि प्र+अर्थी = प्रार्थी प्र+अंगन = प्रांगण काम+अयनी = कामायनी प्रधान+अध्यापक = प्रधानाध्यापक विभाग+अध्यक्ष = विभागाध्यक्ष शिव+आलय = शिवालय पुस्तक+आलय = पुस्तकालय चर+अचर = चराचर
3. वृद्धि संधि– अ या आ के बाद यदि ए, ऐ होँ तो इनके स्थान पर ‘ऐ’ तथा अ, आ के बाद ओ, औ होँ तो इनके स्थान पर ‘औ’ हो जाता है। ‘ऐ’ तथा ‘औ’ स्वर ‘वृद्धि स्वर’ कहलाते हैँ अतः इस संधि को वृद्धि संधि कहते हैँ। जैसे– अ/आ+ए/ऐ = ऐ एक+एक = एकैक मत+ऐक्य = मतैक्य सदा+एव = सदैव स्व+ऐच्छिक = स्वैच्छिक लोक+एषणा = लोकैषणा महा+ऐश्वर्य = महैश्वर्य पुत्र+ऐषणा = पुत्रैषणा वसुधा+ऐव = वसुधैव तथा+एव = तथैव महा+ऐन्द्रजालिक = महैन्द्रजालिक हित+एषी = हितैषी वित्त+एषणा = वित्तैषणा अ/आ+ओ/औ = औ वन+ओषध = वनौषध परम+ओज = परमौज महा+औघ = महौघ महा+औदार्य = महौदार्य परम+औदार्य = परमौदार्य जल+ओध = जलौध महा+औषधि = महौषधि प्र+औद्योगिकी = प्रौद्योगिकी दंत+ओष्ठ = दंतोष्ठ (अपवाद)
4. यण संधि– जब हृस्व इ, उ, ऋ या दीर्घ ई, ऊ, ॠ के बाद कोई असमान स्वर आये, तो इ, ई के स्थान पर ‘य्’ तथा उ, ऊ के स्थान पर ‘व्’ और ऋ, ॠ के स्थान पर ‘र्’ हो जाता है। इसे यण् संधि कहते हैँ। यहाँ यह ध्यातव्य है कि इ/ई या उ/ऊ स्वर तो ‘य्’ या ‘व्’ मेँ बदल जाते हैँ किँतु जिस व्यंजन के ये स्वर लगे होते हैँ, वह संधि होने पर स्वर–रहित हो जाता है। जैसे– अभि+अर्थी = अभ्यार्थी, तनु+अंगी = तन्वंगी। यहाँ अभ्यर्थी मेँ ‘य्’ के पहले ‘भ्’ तथा तन्वंगी मेँ ‘व्’ के पहले ‘न्’ स्वर–रहित हैँ। प्रायः य्, व्, र् से पहले स्वर–रहित व्यंजन का होना यण् संधि की पहचान है। जैसे– इ/ई+अ = य यदि+अपि = यद्यपि परि+अटन = पर्यटन नि+अस्त = न्यस्त वि+अस्त = व्यस्त वि+अय = व्यय वि+अग्र = व्यग्र परि+अंक = पर्यँक परि+अवेक्षक = पर्यवेक्षक वि+अष्टि = व्यष्टि वि+अंजन = व्यंजन वि+अवहार = व्यवहार वि+अभिचार = व्यभिचार वि+अक्ति = व्यक्ति वि+अवस्था = व्यवस्था वि+अवसाय = व्यवसाय प्रति+अय = प्रत्यय नदी+अर्पण = नद्यर्पण अभि+अर्थी = अभ्यर्थी परि+अंत = पर्यँत अभि+उदय = अभ्युदय देवी+अर्पण = देव्यर्पण प्रति+अर्पण = प्रत्यर्पण प्रति+अक्ष = प्रत्यक्ष वि+अंग्य = व्यंग्य इ/ई+आ = या वि+आप्त = व्याप्त अधि+आय = अध्याय इति+आदि = इत्यादि परि+आवरण = पर्यावरण अभि+आगत = अभ्यागत वि+आस = व्यास वि+आयाम = व्यायाम अधि+आदेश = अध्यादेश वि+आख्यान = व्याख्यान प्रति+आशी = प्रत्याशी अधि+आपक = अध्यापक वि+आकुल = व्याकुल अधि+आत्म = अध्यात्म प्रति+आवर्तन = प्रत्यावर्तन प्रति+आशित = प्रत्याशित प्रति+आभूति = प्रत्याभूति प्रति+आरोपण = प्रत्यारोपण वि+आवृत्त = व्यावृत्त वि+आधि = व्याधि वि+आहत = व्याहत प्रति+आहार = प्रत्याहार अभि+आस = अभ्यास सखी+आगमन = सख्यागमन मही+आधार = मह्याधार इ/ई+उ/ऊ = यु/यू परि+उषण = पर्युषण नारी+उचित = नार्युचित उपरि+उक्त = उपर्युक्त स्त्री+उपयोगी = स्त्र्युपयोगी अभि+उदय = अभ्युदय अति+उक्ति = अत्युक्ति प्रति+उत्तर = प्रत्युत्तर अभि+उत्थान = अभ्युत्थान आदि+उपांत = आद्युपांत अति+उत्तम = अत्युत्तम स्त्री+उचित = स्त्र्युचित प्रति+उत्पन्न = प्रत्युत्पन्न प्रति+उपकार = प्रत्युपकार वि+उत्पत्ति = व्युत्पत्ति वि+उपदेश = व्युपदेश नि+ऊन = न्यून प्रति+ऊह = प्रत्यूह वि+ऊह = व्यूह अभि+ऊह = अभ्यूह इ/ई+ए/ओ/औ = ये/यो/यौ प्रति+एक = प्रत्येक वि+ओम = व्योम वाणी+औचित्य = वाण्यौचित्य उ/ऊ+अ/आ = व/वा तनु+अंगी = तन्वंगी अनु+अय = अन्वय मधु+अरि = मध्वरि सु+अल्प = स्वल्प समनु+अय = समन्वय सु+अस्ति = स्वस्ति परमाणु+अस्त्र = परमाण्वस्त्र सु+आगत = स्वागत साधु+आचार = साध्वाचार गुरु+आदेश = गुर्वादेश मधु+आचार्य = मध्वाचार्य वधू+आगमन = वध्वागमन ऋतु+आगमन = ऋत्वागमन सु+आभास = स्वाभास सु+आगम = स्वागम उ/ऊ+इ/ई/ए = वि/वी/वे अनु+इति = अन्विति धातु+इक = धात्विक अनु+इष्ट = अन्विष्ट पू+इत्र = पवित्र अनु+ईक्षा = अन्वीक्षा अनु+ईक्षण = अन्वीक्षण तनु+ई = तन्वी धातु+ईय = धात्वीय अनु+एषण = अन्वेषण अनु+एषक = अन्वेषक अनु+एक्षक = अन्वेक्षक ऋ+अ/आ/इ/उ = र/रा/रि/रु मातृ+अर्थ = मात्रर्थ पितृ+अनुमति = पित्रनुमति मातृ+आनन्द = मात्रानन्द पितृ+आज्ञा = पित्राज्ञा मातृ+आज्ञा = मात्राज्ञा पितृ+आदेश = पित्रादेश मातृ+आदेश = मात्रादेश मातृ+इच्छा = मात्रिच्छा पितृ+इच्छा = पित्रिच्छा मातृ+उपदेश = मात्रुपदेश पितृ+उपदेश = पित्रुपदेश
5. अयादि संधि– ए, ऐ, ओ, औ के बाद यदि कोई असमान स्वर हो, तो ‘ए’ का ‘अय्’, ‘ऐ’ का ‘आय्’, ‘ओ’ का ‘अव्’ तथा ‘औ’ का ‘आव्’ हो जाता है। इसे अयादि संधि कहते हैँ। जैसे– ए/ऐ+अ/इ = अय/आय/आयि ने+अन = नयन शे+अन = शयन चे+अन = चयन संचे+अ = संचय चै+अ = चाय गै+अक = गायक गै+अन् = गायन नै+अक = नायक दै+अक = दायक शै+अर = शायर विधै+अक = विधायक विनै+अक = विनायक नै+इका = नायिका गै+इका = गायिका दै+इनी = दायिनी विधै+इका = विधायिका ओ/औ+अ = अव/आव भो+अन् = भवन पो+अन् = पवन भो+अति = भवति हो+अन् = हवन पौ+अन् = पावन धौ+अक = धावक पौ+अक = पावक शौ+अक = शावक भौ+अ = भाव श्रौ+अन = श्रावण रौ+अन = रावण स्रौ+अ = स्राव प्रस्तौ+अ = प्रस्ताव गव+अक्ष = गवाक्ष (अपवाद) ओ/औ+इ/ई/उ = अवि/अवी/आवु रो+इ = रवि भो+इष्य = भविष्य गौ+ईश = गवीश नौ+इक = नाविक प्रभौ+इति = प्रभावित प्रस्तौ+इत = प्रस्तावित भौ+उक = भावुक
2. व्यंजन संधि व्यंजन के साथ स्वर या व्यंजन के मेल को व्यंजन संधि कहते हैँ। व्यंजन संधि मेँ एक स्वर और एक व्यंजन या दोनोँ वर्ण व्यंजन होते हैँ। इसके अनेक भेद होते हैँ। व्यंजन संधि के प्रमुख नियम इस प्रकार हैँ– 1. यदि किसी वर्ग के प्रथम वर्ण के बाद कोई स्वर, किसी भी वर्ग का तीसरा या चौथा वर्ण या य, र, ल, व, ह मेँ से कोई वर्ण आये तो प्रथम वर्ण के स्थान पर उसी वर्ग का तीसरा वर्ण हो जाता है। जैसे– ‘क्’ का ‘ग्’ होना दिक्+अम्बर = दिगम्बर दिक्+दर्शन = दिग्दर्शन वाक्+जाल = वाग्जाल वाक्+ईश = वागीश दिक्+अंत = दिगंत दिक्+गज = दिग्गज ऋक्+वेद = ऋग्वेद दृक्+अंचल = दृगंचल वाक्+ईश्वरी = वागीश्वरी प्राक्+ऐतिहासिक = प्रागैतिहासिक दिक्+गयंद = दिग्गयंद वाक्+जड़ता = वाग्जड़ता सम्यक्+ज्ञान = सम्यग्ज्ञान वाक्+दान = वाग्दान दिक्+भ्रम = दिग्भ्रम वाक्+दत्ता = वाग्दत्ता दिक्+वधू = दिग्वधू दिक्+हस्ती = दिग्हस्ती वाक्+व्यापार = वाग्व्यापार वाक्+हरि = वाग्हरि ‘च्’ का ‘ज्’ अच्+अन्त = अजन्त अच्+आदि = अजादि णिच्+अंत = णिजंत ‘ट्’ का ‘ड्’ षट्+आनन = षडानन षट्+दर्शन = षड्दर्शन षट्+रिपु = षड्रिपु षट्+अक्षर = षडक्षर षट्+अभिज्ञ = षडभिज्ञ षट्+गुण = षड्गुण षट्+भुजा = षड्भुजा षट्+यंत्र = षड्यंत्र षट्+रस = षड्रस षट्+राग = षड्राग ‘त्’ का ‘द्’ सत्+विचार = सद्विचार जगत्+अम्बा = जगदम्बा सत्+धर्म = सद्धर्म तत्+भव = तद्भव उत्+घाटन = उद्घाटन सत्+आशय = सदाशय जगत्+आत्मा = जगदात्मा सत्+आचार = सदाचार जगत्+ईश = जगदीश तत्+अनुसार = तदनुसार तत्+रूप = तद्रूप सत्+उपयोग = सदुपयोग भगवत्+गीता = भगवद्गीता सत्+गति = सद्गति उत्+गम = उद्गम उत्+आहरण = उदाहरण इस नियम का अपवाद भी है जो इस प्रकार है– त्+ड/ढ = त् के स्थान पर ड् त्+ज/झ = त् के स्थान पर ज् त्+ल् = त् के स्थान पर ल् जैसे– उत्+डयन = उड्डयन सत्+जन = सज्जन उत्+लंघन = उल्लंघन उत्+लेख = उल्लेख तत्+जन्य = तज्जन्य उत्+ज्वल = उज्ज्वल विपत्+जाल = विपत्जाल उत्+लास = उल्लास तत्+लीन = तल्लीन जगत्+जननी = जगज्जननी
2.यदि किसी वर्ग के प्रथम या तृतीय वर्ण के बाद किसी वर्ग का पंचम वर्ण (ङ, ञ, ण, न, म) हो तो पहला या तीसरा वर्ण भी पाँचवाँ वर्ण हो जाता है। जैसे– प्रथम/तृतीय वर्ण+पंचम वर्ण = पंचम वर्ण वाक्+मय = वाङ्मय दिक्+नाग = दिङ्नाग सत्+नारी = सन्नारी जगत्+नाथ = जगन्नाथ सत्+मार्ग = सन्मार्ग चित्+मय = चिन्मय सत्+मति = सन्मति उत्+नायक = उन्नायक उत्+मूलन = उन्मूलन अप्+मय = अम्मय सत्+मान = सन्मान उत्+माद = उन्माद उत्+नत = उन्नत वाक्+निपुण = वाङ्निपुण जगत्+माता = जगन्माता उत्+मत्त = उन्मत्त उत्+मेष = उन्मेष तत्+नाम = तन्नाम उत्+नयन = उन्नयन षट्+मुख = षण्मुख उत्+मुख = उन्मुख श्रीमत्+नारायण = श्रीमन्नारायण षट्+मूर्ति = षण्मूर्ति उत्+मोचन = उन्मोचन भवत्+निष्ठ = भवन्निष्ठ तत्+मय = तन्मय षट्+मास = षण्मास सत्+नियम = सन्नियम दिक्+नाथ = दिङ्नाथ वृहत्+माला = वृहन्माला वृहत्+नला = वृहन्नला
3. ‘त्’ या ‘द्’ के बाद च या छ हो तो ‘त्/द्’ के स्थान पर ‘च्’, ‘ज्’ या ‘झ’ हो तो ‘ज्’, ‘ट्’ या ‘ठ्’ हो तो ‘ट्’, ‘ड्’ या ‘ढ’ हो तो ‘ड्’ और ‘ल’ हो तो ‘ल्’ हो जाता है। जैसे– त्+च/छ = च्च/च्छ सत्+छात्र = सच्छात्र सत्+चरित्र = सच्चरित्र समुत्+चय = समुच्चय उत्+चरित = उच्चरित सत्+चित = सच्चित जगत्+छाया = जगच्छाया उत्+छेद = उच्छेद उत्+चाटन = उच्चाटन उत्+चारण = उच्चारण शरत्+चन्द्र = शरच्चन्द्र उत्+छिन = उच्छिन सत्+चिदानन्द = सच्चिदानन्द उत्+छादन = उच्छादन त्/द्+ज्/झ् = ज्ज/ज्झ सत्+जन = सज्जन तत्+जन्य = तज्जन्य उत्+ज्वल = उज्ज्वल जगत्+जननी = जगज्जननी त्+ट/ठ = ट्ट/ट्ठ तत्+टीका = तट्टीका वृहत्+टीका = वृहट्टीका त्+ड/ढ = ड्ड/ड्ढ उत्+डयन = उड्डयन जलत्+डमरु = जलड्डमरु भवत्+डमरु = भवड्डमरु महत्+ढाल = महड्ढाल त्+ल = ल्ल उत्+लेख = उल्लेख उत्+लास = उल्लास तत्+लीन = तल्लीन उत्+लंघन = उल्लंघन
4. यदि ‘त्’ या ‘द्’ के बाद ‘ह’ आये तो उनके स्थान पर ‘द्ध’ हो जाता है। जैसे– उत्+हार = उद्धार तत्+हित = तद्धित उत्+हरण = उद्धरण उत्+हत = उद्धत पत्+हति = पद्धति पत्+हरि = पद्धरि उपर्युक्त संधियाँ का दूसरा रूप इस प्रकार प्रचलित है– उद्+हार = उद्धार तद्+हित = तद्धित उद्+हरण = उद्धरण उद्+हत = उद्धत पद्+हति = पद्धति ये संधियाँ दोनोँ प्रकार से मान्य हैँ।
5. यदि ‘त्’ या ‘द्’ के बाद ‘श्’ हो तो ‘त् या द्’ का ‘च्’ और ‘श्’ का ‘छ्’ हो जाता है। जैसे– त्/द्+श् = च्छ उत्+श्वास = उच्छ्वास तत्+शिव = तच्छिव उत्+शिष्ट = उच्छिष्ट मृद्+शकटिक = मृच्छकटिक सत्+शास्त्र = सच्छास्त्र तत्+शंकर = तच्छंकर उत्+शृंखल = उच्छृंखल
6. यदि किसी भी स्वर वर्ण के बाद ‘छ’ हो तो वह ‘च्छ’ हो जाता है। जैसे– कोई स्वर+छ = च्छ अनु+छेद = अनुच्छेद परि+छेद = परिच्छेद वि+छेद = विच्छेद तरु+छाया = तरुच्छाया स्व+छन्द = स्वच्छन्द आ+छादन = आच्छादन वृक्ष+छाया = वृक्षच्छाया
7. यदि ‘त्’ के बाद ‘स्’ (हलन्त) हो तो ‘स्’ का लोप हो जाता है। जैसे– उत्+स्थान = उत्थान उत्+स्थित = उत्थित
8. यदि ‘म्’ के बाद ‘क्’ से ‘भ्’ तक का कोई भी स्पर्श व्यंजन हो तो ‘म्’ का अनुस्वार हो जाता है, या उसी वर्ग का पाँचवाँ अनुनासिक वर्ण बन जाता है। जैसे– म्+कोई व्यंजन = म् के स्थान पर अनुस्वार (ं ) या उसी वर्ग का पंचम वर्ण सम्+चार = संचार/सञ्चार सम्+कल्प = संकल्प/सङ्कल्प सम्+ध्या = संध्या/सन्ध्या सम्+भव = संभव/सम्भव सम्+पूर्ण = संपूर्ण/सम्पूर्ण सम्+जीवनी = संजीवनी सम्+तोष = संतोष/सन्तोष किम्+कर = किँकर/किङ्कर सम्+बन्ध = संबन्ध/सम्बन्ध सम्+धि = संधि/सन्धि सम्+गति = संगति/सङ्गति सम्+चय = संचय/सञ्चय परम्+तु = परन्तु/परंतु दम्+ड = दण्ड/दंड दिवम्+गत = दिवंगत अलम्+कार = अलंकार शुभम्+कर = शुभंकर सम्+कलन = संकलन सम्+घनन = संघनन पम्+चम् = पंचम सम्+तुष्ट = संतुष्ट/सन्तुष्ट सम्+दिग्ध = संदिग्ध/सन्दिग्ध अम्+ड = अण्ड/अंड सम्+तति = संतति सम्+क्षेप = संक्षेप अम्+क = अंक/अङ्क हृदयम्+गम = हृदयंगम सम्+गठन = संगठन/सङ्गठन सम्+जय = संजय सम्+ज्ञा = संज्ञा सम्+क्रांति = संक्रान्ति सम्+देश = संदेश/सन्देश सम्+चित = संचित/सञ्चित किम्+तु = किँतु/किन्तु वसुम्+धर = वसुन्धरा/वसुंधरा सम्+भाषण = संभाषण तीर्थँम्+कर = तीर्थँकर सम्+कर = संकर सम्+घटन = संघटन किम्+चित = किँचित धनम्+जय = धनंजय/धनञ्जय सम्+देह = सन्देह/संदेह सम्+न्यासी = संन्यासी सम्+निकट = सन्निकट
9. यदि ‘म्’ के बाद ‘म’ आये तो ‘म्’ अपरिवर्तित रहता है। जैसे– म्+म = म्म सम्+मति = सम्मति सम्+मिश्रण = सम्मिश्रण सम्+मिलित = सम्मिलित सम्+मान = सम्मान सम्+मोहन = सम्मोहन सम्+मानित = सम्मानित सम्+मुख = सम्मुख
10. यदि ‘म्’ के बाद य, र, ल, व, श, ष, स, ह मेँ से कोई वर्ण आये तो ‘म्’ के स्थान पर अनुस्वार (ं ) हो जाता है। जैसे– म्+य, र, ल, व, श, ष, स, ह = अनुस्वार (ं ) सम्+योग = संयोग सम्+वाद = संवाद सम्+हार = संहार सम्+लग्न = संलग्न सम्+रक्षण = संरक्षण सम्+शय = संशय किम्+वा = किँवा सम्+विधान = संविधान सम्+शोधन = संशोधन सम्+रक्षा = संरक्षा सम्+सार = संसार सम्+रक्षक = संरक्षक सम्+युक्त = संयुक्त सम्+स्मरण = संस्मरण स्वयम्+वर = स्वयंवर सम्+हित = संहिता
11. यदि ‘स’ से पहले अ या आ से भिन्न कोई स्वर हो तो स का ‘ष’ हो जाता है। जैसे– अ, आ से भिन्न स्वर+स = स के स्थान पर ष वि+सम = विषम नि+सेध = निषेध नि+सिद्ध = निषिद्ध अभि+सेक = अभिषेक परि+सद् = परिषद् नि+स्नात = निष्णात अभि+सिक्त = अभिषिक्त सु+सुप्ति = सुषुप्ति उपनि+सद = उपनिषद अपवाद– अनु+सरण = अनुसरण अनु+स्वार = अनुस्वार वि+स्मरण = विस्मरण वि+सर्ग = विसर्ग
12. यदि ‘ष्’ के बाद ‘त’ या ‘थ’ हो तो ‘ष्’ आधा वर्ण तथा ‘त’ के स्थान पर ‘ट’ और ‘थ’ के स्थान पर ‘ठ’ हो जाता है। जैसे– ष्+त/थ = ष्ट/ष्ठ आकृष्+त = आकृष्ट उत्कृष्+त = उत्कृष्ट तुष्+त = तुष्ट सृष्+ति = सृष्टि षष्+थ = षष्ठ पृष्+थ = पृष्ठ
13. यदि ‘द्’ के बाद क, त, थ, प या स आये तो ‘द्’ का ‘त्’ हो जाता है। जैसे– द्+क, त, थ, प, स = द् की जगह त् उद्+कोच = उत्कोच मृद्+तिका = मृत्तिका विपद्+ति = विपत्ति आपद्+ति = आपत्ति तद्+पर = तत्पर संसद्+सत्र = संसत्सत्र संसद्+सदस्य = संसत्सदस्य उपनिषद्+काल = उपनिषत्काल उद्+तर = उत्तर तद्+क्षण = तत्क्षण विपद्+काल = विपत्काल शरद्+काल = शरत्काल मृद्+पात्र = मृत्पात्र
14. यदि ‘ऋ’ और ‘द्’ के बाद ‘म’ आये तो ‘द्’ का ‘ण्’ बन जाता है। जैसे– ऋद्+म = ण्म मृद्+मय = मृण्मय मृद्+मूर्ति = मृण्मूर्ति
15. यदि इ, ऋ, र, ष के बाद स्वर, कवर्ग, पवर्ग, अनुस्वार, य, व, ह मेँ से किसी वर्ण के बाद ‘न’ आ जाये तो ‘न’ का ‘ण’ हो जाता है। जैसे– (i) इ/ऋ/र/ष+ न= न के स्थान पर ण (ii) इ/ऋ/र/ष+स्वर/क वर्ग/प वर्ग/अनुस्वार/य, व, ह+न = न के स्थान पर ण प्र+मान = प्रमाण भर+न = भरण नार+अयन = नारायण परि+मान = परिमाण परि+नाम = परिणाम प्र+यान = प्रयाण तर+न = तरण शोष्+अन् = शोषण परि+नत = परिणत पोष्+अन् = पोषण विष्+नु = विष्णु राम+अयन = रामायण भूष्+अन = भूषण ऋ+न = ऋण मर+न = मरण पुरा+न = पुराण हर+न = हरण तृष्+ना = तृष्णा तृ+न = तृण प्र+न = प्रण
16. यदि सम् के बाद कृत, कृति, करण, कार आदि मेँ से कोई शब्द आये तो म् का अनुस्वार बन जाता है एवं स् का आगमन हो जाता है। जैसे– सम्+कृत = संस्कृत सम्+कृति = संस्कृति सम्+करण = संस्करण सम्+कार = संस्कार
17. यदि परि के बाद कृत, कार, कृति, करण आदि मेँ से कोई शब्द आये तो संधि मेँ ‘परि’ के बाद ‘ष्’ का आगम हो जाता है। जैसे– परि+कार = परिष्कार परि+कृत = परिष्कृत परि+करण = परिष्करण परि+कृति = परिष्कृति
3. विसर्ग संधि जहाँ विसर्ग (:) के बाद स्वर या व्यंजन आने पर विसर्ग का लोप हो जाता है या विसर्ग के स्थान पर कोई नया वर्ण आ जाता है, वहाँ विसर्ग संधि होती है।
विसर्ग संधि के नियम निम्न प्रकार हैँ– 1. यदि ‘अ’ के बाद विसर्ग हो और उसके बाद वर्ग का तीसरा, चौथा, पांचवाँ वर्ण या अन्तःस्थ वर्ण (य, र, ल, व) हो, तो ‘अः’ का ‘ओ’ हो जाता है। जैसे– अः+किसी वर्ग का तीसरा, चौथा, पाँचवाँ वर्ण, य, र, ल, व = अः का ओ मनः+वेग = मनोवेग मनः+अभिलाषा = मनोभिलाषा मनः+अनुभूति = मनोभूति पयः+निधि = पयोनिधि यशः+अभिलाषा = यशोभिलाषा मनः+बल = मनोबल मनः+रंजन = मनोरंजन तपः+बल = तपोबल तपः+भूमि = तपोभूमि मनः+हर = मनोहर वयः+वृद्ध = वयोवृद्ध सरः+ज = सरोज मनः+नयन = मनोनयन पयः+द = पयोद तपः+धन = तपोधन उरः+ज = उरोज शिरः+भाग = शिरोभाग मनः+व्यथा = मनोव्यथा मनः+नीत = मनोनीत तमः+गुण = तमोगुण पुरः+गामी = पुरोगामी रजः+गुण = रजोगुण मनः+विकार = मनोविकार अधः+गति = अधोगति पुरः+हित = पुरोहित यशः+दा = यशोदा यशः+गान = यशोगान मनः+ज = मनोज मनः+विज्ञान = मनोविज्ञान मनः+दशा = मनोदशा
2. यदि विसर्ग से पहले और बाद मेँ ‘अ’ हो, तो पहला ‘अ’ और विसर्ग मिलकर ‘ओऽ’ या ‘ओ’ हो जाता है तथा बाद के ‘अ’ का लोप हो जाता है। जैसे– अः+अ = ओऽ/ओ यशः+अर्थी = यशोऽर्थी/यशोर्थी मनः+अनुकूल = मनोऽनुकूल/मनोनुकूल प्रथमः+अध्याय = प्रथमोऽध्याय/प्रथमोध्याय मनः+अभिराम = मनोऽभिराम/मनोभिराम परः+अक्ष = परोक्ष
3. यदि विसर्ग से पहले ‘अ’ या ‘आ’ से भिन्न कोई स्वर तथा बाद मेँ कोई स्वर, किसी वर्ग का तीसरा, चौथा, पाँचवाँ वर्ण या य, र, ल, व मेँ से कोई वर्ण हो तो विसर्ग का ‘र्’ हो जाता है। जैसे– अ, आ से भिन्न स्वर+वर्ग का तीसरा, चौथा, पाँचवाँ वर्ण/य, र, ल, व, ह = (:) का ‘र्’ दुः+बल = दुर्बल पुनः+आगमन = पुनरागमन आशीः+वाद = आशीर्वाद निः+मल = निर्मल दुः+गुण = दुर्गुण आयुः+वेद = आयुर्वेद बहिः+रंग = बहिरंग दुः+उपयोग = दुरुपयोग निः+बल = निर्बल बहिः+मुख = बहिर्मुख दुः+ग = दुर्ग प्रादुः+भाव = प्रादुर्भाव निः+आशा = निराशा निः+अर्थक = निरर्थक निः+यात = निर्यात दुः+आशा = दुराशा निः+उत्साह = निरुत्साह आविः+भाव = आविर्भाव आशीः+वचन = आशीर्वचन निः+आहार = निराहार निः+आधार = निराधार निः+भय = निर्भय निः+आमिष = निरामिष निः+विघ्न = निर्विघ्न धनुः+धर = धनुर्धर
4. यदि विसर्ग के बाद ‘र’ हो तो विसर्ग का लोप हो जाता है और विसर्ग से पहले का स्वर दीर्घ हो जाता है। जैसे– हृस्व स्वर(:)+र = (:) का लोप व पूर्व का स्वर दीर्घ निः+रोग = नीरोग निः+रज = नीरज निः+रस = नीरस निः+रव = नीरव
5. यदि विसर्ग के बाद ‘च’ या ‘छ’ हो तो विसर्ग का ‘श्’, ‘ट’ या ‘ठ’ हो तो ‘ष्’ तथा ‘त’, ‘थ’, ‘क’, ‘स्’ हो तो ‘स्’ हो जाता है। जैसे– विसर्ग (:)+च/छ = श् निः+चय = निश्चय निः+चिन्त = निश्चिन्त दुः+चरित्र = दुश्चरित्र हयिः+चन्द्र = हरिश्चन्द्र पुरः+चरण = पुरश्चरण तपः+चर्या = तपश्चर्या कः+चित् = कश्चित् मनः+चिकित्सा = मनश्चिकित्सा निः+चल = निश्चल निः+छल = निश्छल दुः+चक्र = दुश्चक्र पुनः+चर्या = पुनश्चर्या अः+चर्य = आश्चर्य विसर्ग(:)+ट/ठ = ष् धनुः+टंकार = धनुष्टंकार निः+ठुर = निष्ठुर विसर्ग(:)+त/थ = स् मनः+ताप = मनस्ताप दुः+तर = दुस्तर निः+तेज = निस्तेज निः+तार = निस्तार नमः+ते = नमस्ते अः/आः+क = स् भाः+कर = भास्कर पुरः+कृत = पुरस्कृत नमः+कार = नमस्कार तिरः+कार = तिरस्कार
6. यदि विसर्ग से पहले ‘इ’ या ‘उ’ हो और बाद मेँ क, ख, प, फ हो तो विसर्ग का ‘ष्’ हो जाता है। जैसे– इः/उः+क/ख/प/फ = ष् निः+कपट = निष्कपट दुः+कर्म = दुष्कर्म निः+काम = निष्काम दुः+कर = दुष्कर बहिः+कृत = बहिष्कृत चतुः+कोण = चतुष्कोण निः+प्रभ = निष्प्रभ निः+फल = निष्फल निः+पाप = निष्पाप दुः+प्रकृति = दुष्प्रकृति दुः+परिणाम = दुष्परिणाम चतुः+पद = चतुष्पद
7. यदि विसर्ग के बाद श, ष, स हो तो विसर्ग ज्योँ के त्योँ रह जाते हैँ या विसर्ग का स्वरूप बाद वाले वर्ण जैसा हो जाता है। जैसे– विसर्ग+श/ष/स = (:) या श्श/ष्ष/स्स निः+शुल्क = निःशुल्क/निश्शुल्क दुः+शासन = दुःशासन/दुश्शासन यशः+शरीर = यशःशरीर/यश्शरीर निः+सन्देह = निःसन्देह/निस्सन्देह निः+सन्तान = निःसन्तान/निस्सन्तान निः+संकोच = निःसंकोच/निस्संकोच दुः+साहस = दुःसाहस/दुस्साहस दुः+सह = दुःसह/दुस्सह
8. यदि विसर्ग के बाद क, ख, प, फ हो तो विसर्ग मेँ कोई परिवर्तन नहीँ होता है। जैसे– अः+क/ख/प/फ = (:) का लोप नहीँ अन्तः+करण = अन्तःकरण प्रातः+काल = प्रातःकाल पयः+पान = पयःपान अधः+पतन = अधःपतन मनः+कामना = मनःकामना
9. यदि ‘अ’ के बाद विसर्ग हो और उसके बाद ‘अ’ से भिन्न कोई स्वर हो तो विसर्ग का लोप हो जाता है और पास आये स्वरोँ मेँ संधि नहीँ होती है। जैसे– अः+अ से भिन्न स्वर = विसर्ग का लोप अतः+एव = अत एव पयः+ओदन = पय ओदन रजः+उद्गम = रज उद्गम यशः+इच्छा = यश इच्छा
हिन्दी भाषा की अन्य संधियाँ हिन्दी की कुछ विशेष सन्धियाँ भी हैँ। इनमेँ स्वरोँ का दीर्घ का हृस्व होना और हृस्व का दीर्घ हो जाना, स्वर का आगम या लोप हो जाना आदि मुख्य हैँ। इसमेँ व्यंजनोँ का परिवर्तन प्रायः अत्यल्प होता है। उपसर्ग या प्रत्ययोँ से भी इस तरह की संधियाँ हो जाती हैँ। ये अन्य संधियाँ निम्न प्रकार हैँ– 1. हृस्वीकरण– (क) आदि हृस्व– इसमेँ संधि के कारण पहला दीर्घ स्वर हृस्व हो जाता है। जैसे – घोड़ा+सवार = घुड़सवार घोड़ा+चढ़ी = घुड़चढ़ी दूध+मुँहा = दुधमुँहा कान+कटा = कनकटा काठ+फोड़ा = कठफोड़ा काठ+पुतली = कठपुतली मोटा+पा = मुटापा छोटा+भैया = छुटभैया लोटा+इया = लुटिया मूँछ+कटा = मुँछकटा आधा+खिला = अधखिला काला+मुँहा = कलमुँहा ठाकुर+आइन = ठकुराइन लकड़ी+हारा = लकड़हारा (ख) उभयपद हृस्व– दोनोँ पदोँ के दीर्घ स्वर हृस्व हो जाता है। जैसे – एक+साठ = इकसठ काट+खाना = कटखाना पानी+घाट = पनघट ऊँचा+नीचा = ऊँचनीच लेना+देना = लेनदेन
2. दीर्घीकरण– इसमेँ संधि के कारण हृस्व स्वर दीर्घ हो जाता है और पद का कोई अंश लुप्त भी हो जाता है। जैसे– दीन+नाथ = दीनानाथ ताल+मिलाना = तालमेल मूसल+धार = मूसलाधार आना+जाना = आवाजाही व्यवहार+इक = व्यावहारिक उत्तर+खंड = उत्तराखंड लिखना+पढ़ना = लिखापढ़ी हिलना+मिलना = हेलमेल मिलना+जुलना = मेलजोल प्रयोग+इक = प्रायोगिक स्वस्थ+य = स्वास्थ्य वेद+इक = वैदिक नीति+इक = नैतिक योग+इक = यौगिक भूत+इक = भौतिक कुंती+एय = कौँतेय वसुदेव+अ = वासुदेव दिति+य = दैत्य देव+इक = दैविक सुंदर+य = सौँदर्य पृथक+य = पार्थक्य
3. स्वरलोप– इसमेँ संधि के कारण कोई स्वर लुप्त हो जाता है। जैसे– बकरा+ईद = बकरीद।
4. व्यंजन लोप– इसमेँ कोई व्यंजन सन्धि के कारण लुप्त हो जाता है। (क) ‘स’ या ‘ह’ के बाद ‘ह्’ होने पर ‘ह्’ का लोप हो जाता है। जैसे– इस+ही = इसी उस+ही = उसी यह+ही = यही वह+ही = वही (ख) ‘हाँ’ के बाद ‘ह’ होने पर ‘हाँ’ का लोप हो जाता है तथा बने हुए शब्द के अन्त मेँ अनुस्वार लगता है। जैसे– यहाँ+ही = यहीँ वहाँ+ही = वहीँ कहाँ+ही = कहीँ (ग) ‘ब’ के बाद ‘ह्’ होने पर ‘ब’ का ‘भ’ हो जाता है और ‘ह्’ का लोप हो जाता है। जैसे– अब+ही = अभी तब+ही = तभी कब+ही = कभी सब+ही = सभी
5. आगम संधि– इसमेँ सन्धि के कारण कोई नया वर्ण बीच मेँ आ जुड़ता है। जैसे– खा+आ = खाया रो+आ = रोया ले+आ = लिया पी+ए = पीजिए ले+ए = लीजिए आ+ए = आइए।