Erikson’s theory of psychosocial development एरिक्सन का मनोसामाजिक विकास का सिद्धांत

प्रवर्तक – इरिक इरिक्सन / एरिक्सन (Erik Erikson)

इरिक्सन ने अपनी प्रसिद्ध कृति “चाइल्ड हुड एण्ड सोसायटी- 1963” में यह स्पष्ट किया है कि मनुष्य केवल से जैविक और मानसिक प्राणी ही नहीं है, बल्कि वह एक सामाजिक प्राणी भी है। इरिक्सन ने इस सिद्धांत में पूरे जीवन अवधि (Life Spans) को 8 विभिन्न अवस्थाओं में बांटा है।

मनोसामाजिक विकास का सिद्धांत की अवस्थाएँ

1. विश्वास बनाम् अविश्वास (Trust Vs Mistrust) 

शैशवावस्था – बच्चों को अपने माता-पिता को देखकर उचित स्नेह व प्रेम मिलता है, जो उनमें विश्वास (Trust) का भाव विकसित करता है तथा जब माता-पिता बच्चों को रोते-बिलखते व चिल्लाते छोड़ जाते हैं, तो उनमें अविश्वास (Mistrust) की भावना विकसित हो जाती है।

2. स्वतंत्रता बनाम् लज्जाशीलता (Autonomy Vs Shame )

प्रारम्भिक बाल्यावस्था (2 से 3 वर्ष) – इस अवस्था में बालक अपने आप भोजन करना, कपड़े पहनना इत्यादि पर दूसरों पर निर्भर रहना नहीं चाहते। वह स्वतंत्र रूप से कार्य करना चाहते हैं। दूसरी तरफ बहुत सख्त माता-पिता बच्चों को साधारण कार्य करने पर भी द्वार डाँटते हैं तथा उनकी क्षमता पर शक करते हैं, जिसके कारण बच्चे अपने अंदर लज्जा अनुभव करते हैं।

3.पहल शक्ति बनाम् दोषित (Initiative Vs Guilt) 

(4 से 6 वर्ष)  – यह बच्चों का प्राक् स्कूली वर्ष (Preschool Years) होता है तथा ये अवधि बालक की पूर्व/आरम्भिक बाल्यावस्था की होती है। माता-पिता बच्चों को जिंदगी के सभी क्षेत्रों में नये-नये खोज करने की प्रेरणा देते हैं, तो इसे पहल की संज्ञा देते हैं और जब माता-पिता पहल करने पर उनकी आलोचना / दण्ड देते हैं, तो बच्चों में दोष भाव उत्पन्न हो जाता है।

4.परिश्रम बनाम हीनता (Industry Vs Inferiority) 

(6 से 12 वर्ष) – इस अवधि को उत्तरबाल्यावस्था भी कहा जाता है। जब बच्चों को पहल से उत्पन्न नई अनुभूतियाँ मिलती है। तब वह अपनी ऊर्जा को नये ज्ञान अर्जित करने में लगाते हैं, इसे परिश्रम की संज्ञा दी गई है। लेकिन जब स्कूल में आने वाली चुनौतियों से असफलता मिलती है, तब बालक में हीनता का भाव उत्पन्न होता है।

5.अहं पहचान बनाम् भूमिका संभ्रान्ति (Identity Vs Role Confusion)

(13 से 19 वर्ष) – यह किशोरावस्था की अवस्था होती है। इस अवस्था में किशोरों में यह जानने की प्राथमिकता होती है कि वह कौन है, किसलिए है, और अपने जीवन में कहाँ जा रहे हैं? इसे पहचान की संज्ञा दी है तथा जब बालक भविष्य का रास्ता सुनिश्चित नहीं कर पाते, तब संभ्रांति की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

6. घनिष्ठता बनाम् अलगाव (Intimacy Vs Isolation) 

(20 से 35 वर्ष) – यह आरम्भिक वयस्क अवस्था / युवावस्था की अवस्था होती है। इस अवस्था में व्यक्ति दूसरों के साथ धनात्मक संबंध (Positive Relation) बनाता है। जब व्यक्ति वे दूसरों के साथ घनिष्ठता का भाव विकसित होता है, तो वह दूसरों के लिए अपने आपको समर्पित कर लेता है और जब दूसरों के साथ घनिष्ठता विकसित नहीं कर पाते हैं, तो वे सामाजिक रूप से अलग (Socially Isolated) हो जाते हैं अर्थात् इस अवस्था में घनिष्ठता बनाम अलगाव का संघर्ष होता है।

7. जननात्मकता बनाम् स्थिरता (Generativity Vs Stagnation) 

(30 से 65 वर्ष) – यह अवस्था मध्यवयस्कावस्था (Middle Adulthood) भी कहलाती है। इस अवस्था में व्यक्ति अगली पीढ़ी के लोगों के कल्याण तथा उस समाज के लिए जननात्मक में उत्पादकता सम्मिलित करता है, लेकिन जब व्यक्ति को जननात्मकता की चिंता उत्पन्न नहीं होती, तो उसमें स्थिरता उत्पन्न हो जाती है।

8. संपूर्णता बनाम् नैराश्य (Ego Integrity Vs Despair) 

(65 वर्ष के बाद) – इस अवस्था में 65 वर्ष के बाद से प्रारम्भ होकर मृत्यु तक की अवधि सम्मिलित होती है। इस अवस्था में व्यक्ति अपने पहले के समय को याद करता है, कि उसने सभी अवस्थाओं की जिम्मेदारी धनात्मक रूप से पूर्ण की है या नहीं। अगर परिणाम धनात्मक होता है, तो संपूर्णता का भाव विकसित होता है और अगर परिणाम ऋणात्मक होता है, तो नैराश्य का भाव होता है।

Principles of Development विकास के सिद्धांत

विकास की प्रक्रिया एक जटिल व निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया होती है I यह जन्म से मृत्यु तक चलती रहती हैं। यह विकास की प्रकिया अनियमित रूप से नही बल्कि धीरे धीरे क्रमबद्ध वह निशिचत  समय पर होती है । धीरे धीरे उसका लम्बाई भार क्रियात्मक क्रियाएं प्रत्यक्षीकरण सामजिक समायोजन आदि का विकास होता है । अध्यापको को उस आयु के सामान्य बालको के शारीरिक , मानसिक , सामाजिक व संवोगत्मक परिपक्वता स्तर का ज्ञान होना चाहिए जिससे वे बालकों को सही दिशा प्रदान कर सकें ।

वैसे तो विकास के सिद्धांतो के विषय मे विद्वानो के अपने – अपने विचार है लेकिन कुछ ऐसे सर्वमान्य सिद्धांत है जो सभी क्षेत्रो पर लागू होते है। और सभी वचारक उनका समर्थन करते है जो निम्न प्रकार से है ।

  1. निरन्तरता का सिद्धांत ( Principles of continuity ) विकास की प्रक्रिया कभी नही रुकने वाली प्रक्रिया है अर्थात यह जन्म से लेकर मृत्यु तक चलती रहती है बाल्कि वैज्ञानिक तरीके से देखे तो विकास की प्रक्रिया माँ के गर्भ में ही शुरू हो जाती है । बालक का जन्म दो कोषो (Cells) अर्थात शुष्क ( sperm ) ओर अड़ ( ovum ) के निषेचन के परिणामस्वरूप होता है। और कई पारिवर्तनों का अनुभव करते हुए यह निषेचित अड़ मानव बनकर विकास के कई पक्षो की ओर बढ़ती है । इस प्रकार विकास की प्रक्रिया धीरे- धीरे चली रहती है ।
  2. एकरुपता का सिद्धांत ( Principles of uniform pattern ) विकास की प्रक्रिया में एकरूपता दिखाई देती है चाहे व्यक्तिगत विभिन्नतण कितनी भी हो लेकिन यह एकरूपता विकास के क्रम के सदर्भ मे होती है । उदाहरण – बालकों मे भाषा का विकास एक निशिचत क्रम से होगा चाहे वे बच्चे किसी भी देश के हो। बच्चो का शारीरिक विकास भी एक निशिचत क्रम में ही होगा अर्थात वह सिर से प्रारम्भ होता हैं इस प्रकार हम देखते है कि बच्चो के विकास की गति में तो अन्तर हो सकता है लेकिन विकास के क्रम मे एकरूपता पायी जाती है जैसे हम देखते है कि बच्चो के दूध के दाँत पहले टूटते है।
  3. बाहरी नियंन्त्रण के आन्तरिक नियंन्त्रण का सिद्धांत  ( Principles of outer control to inner ) : छोटे बच्चे मूल्यो व सिद्धांतो के लिए दूसरो पर निर्भर करते है जैसे -जैसे वे स्वंय बड़े होने लगते है तो उनके स्वंय के सिद्धांत मूल्य, प्रणाली, स्वंय की आत्मा व स्वय का आंतरिक नियन्त्रण विकसित होने लगता है I
  4. मूर्त से अमूर्त का सिद्धांत ( Principles of correct to abstract ) : मानसिक विकास की शुरुआत भौतिक रूप से उपीस्थत वस्तुओ के बारे में चिंतन करके होता है। जो वस्तुओ को देखने के सिद्धांत का अनुसरण करता है जो अमूर्त रूप मे होती है और बालक इसके प्रभाव व कारण को समझने का प्रयास करता है ।
  5. एकीकरण का सिद्धांत  (Principles of integration) : इस सिद्धांत के अनुसार बालक पहले सम्पूर्ण अंग को और उसके बाद उसके विशिष्ट भागो को चलाना व प्रयोग करना सीखता है और बाद में उन भागे का एकीकरण करना सीखता है । जैसे पहले बच्चा पूरे हाथ को और बाद में उसकी उगंलियो को हिलाने का प्रयास करता है ।
  6. सामान्य से विशिष्ट के विकास का सिद्धांत (Principles of development from specific ) : इस सिद्धांत के अनुसार बालक पहले सामान्य बतो की और बाद में उन सभी सामान्य बातों को मिलाकर एक विशिष्ट सिद्धांत बनाना सीखता है । जैसे बच्चा पहले व्यकित का नाम , स्थान और वस्तु का नाम जानता है और बाद में जनता है कि किसी व्यक्ति वस्तु या स्थान के नाम संज्ञा कहते हैं इस प्रकार बालक का विकास सामान्य से विशिष्ट की ओर होता है ।
  7. विकास की भविष्यावाणी का सिद्धांत ( Principle of predictability of development ) : अब तक के सिद्धांत से यह भी स्पष्ट हो चुका है कि विकास की भविष्यवाणी  अब की जा सकती है । जैसे यह पता लगाया जा सकता है कि बच्चे की रूचि क्या है? बालक को सम्मान की आवश्यकता है या नहीं ? उसकी अभिरूचियाँ  और वृद्धि आदि ।
  8. विकास की दिशा का सिद्धांत (Principle of Individual difference) : जैसाकि पहले बताया जा चुका है कि बच्चे के विकास की शुरुआत सिर से होती है । और उसकी टाँगे सबसे बाद में तैयार होती है । विकास की दिशा के सिद्धांत को भ्रण ( Embryo) के सिद्धांत के आधार पर तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है।

(9) वैयक्तिक भिन्नताओं  का सिद्धांत ( Principle of Individual difference ) शिक्षा मनोविज्ञान में देखा जाता है कि मनोवैज्ञानिक वैयक्तिक भिन्नताओं के सिद्धांत को महत्वपूर्ण मानते है । चूकि जैसाकि हम जानते है कि विकास की प्रक्रिया को विभिन्न आयु वर्गो में बाँटा गया है । और सभी वर्गो की विशेषताएं अलग अलग होती है और इन आयु वर्गो के व्यवहारों में अन्तर पाया जाता है । जुडॅवा बच्चों मैं भी वैयकितक भिन्नता पायी जाती है । किसी व्यक्ति में कुध विशेषताएं या व्यवहार शीघ्र विकसित होती है तो कुध व्यकितयों में ये विशेषताएं और व्यवहार देरी से विकसित होती है । अर्थात सभी बालको में वृद्धि और विकास के संदर्भ में समानता नहीं पायी जाती है ।

(10) वातावरण और वंशानुक्रम के परिणाम सिद्धांत ( Principle of product of Heredity and environment) : वंशानुक्रम को बच्चे के व्यक्तित्व को नींव माना जाता है । और वंशानुक्रम व वतावरण के प्रभाव को विकास के सिद्धांत से अलग अलग नहीं किया जा सकता है । बच्चे की वृद्धि और विकास वंशानुक्रम व वातावरण दोनो को संयुक्त परिणाम होता है ऐसा कई अध्ययनों से पाता चलता है।

(11) सम्पूर्ण विकास का सिद्धांत (Principle of total development ) : शिक्षा मनोविज्ञान में बालक के सर्वोगींण विकास पर बल दिया जाता है जिसमें बालक का शारीरिक मानसिक सामाजिक संवेगात्मक व मनोगत्यामक विकास सभी पक्ष समिमलित कर लिए जाते है । इन द्वाष्टिकोणा से देखा जाए तो अध्यापक को बालक के सभी पक्षो के विकास की ओर ध्यान देना चाहिए ।

(12) परिपक्वता व अधिगम का सिद्धांत ( Principle of maturation and lossing ) : वृद्धि और विकास की प्रक्रिया वास्तव में परिपक्वता और अधिगम का विकास ही होता है । परिपक्वता से वृद्धि व विकास दोनो प्रभावित होते है । बालक किसी भी कार्य को करने में परिपक्वता ग्रहण कर लेता है और यही परिपक्वता अन्य कर्यो को करने में बालक की मदद करती है । उदाहरणार्थ यदि कोई बालक किसी कार्य को करने के लिए अभिप्रेरित है और वह भौतिक रूप से तैयार नहीं है तो वह बालक उस कार्य को करने मे असमर्थ ही होगा और उस बालक से अधिक आशाएं रखनी भी नहीं चाहिए !

बाल विकास से सम्बंधित एक अन्य महत्वपूर्ण सिद्धांत : One Important Principle Related with child development : पुर्नबलन सिद्धांत ( Reinforcement Theory ) इस सिद्धांत के अनुसार बच्चा जैसे – जैसे अपना विकास करता है , वह अधिगम करता है इस सिद्धांत मे पियाजे का सिद्धांत भी जुड़ा हुआ है कि जैसे – जैसे बालक की वृद्धि विकसित होती हैं वैसे – वैसे उसके अधिगम का दायरा भी बढ़ता है बाल्यावस्था के अनुभवो को आने वाली अवस्था में पुर्नबलन सिद्धांत को देने वाले विचारक डोलार्ड और मिलर (Dollar and Neal miller ) का मानना है कि नवजात शिशु को स्तनपान के व्यवहार से अर्जित भोजन की आवश्यकताओ को हमेश पूरा नहीं कर पाता । उसे अपनी भूख की आवश्यकता को पूरा करने के लिए कुध अधिक स्तनपान के कठिन व्यवहागे को सीखना होता है । इस सम्पूर्ण प्रक्रिया मे चार महत्वपूर्ण अवयव होते है ।

  1. अन्तर्नोद (अभिप्रेरणा) (2) संकेत ( उद्दीपक) (3) प्रत्युत्तर ( स्वंय का व्यवहार ) तथा (4) पुर्ननलन (पुरस्कार)

how children think and learn बच्चे कैसे सोचते और सीखते हैं

बच्चे कैसे सोचते हैं ?

सोचना एक उच्च प्रकार की मानसिक प्रक्रिया है , जो ज्ञान को संगठित करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है । इस मानसिक प्रक्रिया में बहुधा स्मृति , प्रत्यक्षीकरण , अनुमान , कल्पना आदि मानसिक प्रक्रियाएँ भी सम्मिलित होती हैं ।

एक बालक के समक्ष हमेशा अनेक वस्तुएँ , समस्याएं , दृश्य परिदृश्य आदि दृष्टिगोचर होती रहती हैं तथा बालक उन समस्याओं , वस्तुओं , दृश्य परिदृश्यों आदि के विषय में चिन्तन करता रहता है । यह चिन्तन अनुभवजन्य होता है ।

बालक अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार वस्तुओं को देखकर या छूकर उनके बारे में अनुभव प्राप्त करता है । धीरे – धीरे बालक में प्रत्यय निर्माण होने लगता है तथा पूर्व किशोरावस्था में बालक अमूर्त वस्तुओं के विषय में सोचने लगता है ।

बालक में सोचने की प्रक्रिया का विकास एक निश्चित क्रम में होता है ।

बालकों में सोचने की प्रक्रिया

बालकों में सोचने की प्रक्रिया ( Process of Thinking in Children ) के निम्नलिखित प्रकार हैं

1. प्रत्यक्षीकरण के आधार पर सोचना

बच्चों में इस प्रकार की सोच का विकास वस्तुओं और परिस्थितियों के प्रत्यक्षीकरण से सम्बन्धित होता है । बालक अपने चारों ओर के भौतिक और मनोवैज्ञानिक वातावरण में जिन वस्तुओं और परिस्थितियों को देखता है या प्रत्यक्षीकरण करता है । उसके आधार पर वह अपने ज्ञान का संचय कर अपनी सोच का विकास करता है ।

2. कल्पना के आधार पर सोचना

जब उद्दीपन , वस्तु या पदार्थ , उपस्थित नहीं होता है , तब उसकी कल्पना ( Imagination ) की जाती है । इनके अभाव में कोई बालक इनकी मानसिक प्रतिमा ( Image ) बनाकर अपने ज्ञान का संचय करता है । कल्पना , बालकों में सोचने का एक सुदृढ़ आधार है , जिसके आधार पर बालक अपने पूर्व अनुभवों के आधार पर अपनी भविष्यगत सोच का निर्माण करता है ।

3. प्रत्ययों के आधार पर सोचना

यह अपेक्षाकृत अधिक उच्च प्रकार की सोच है । इसकी बालकों में अभिव्यक्ति तभी होती है , जब बालकों में प्रत्ययों ( Concepts ) का निर्माण प्रारम्भ होता है । एक बालक में जितने ही अधिक प्रत्यय निर्मित होते हैं उसमें उतनी ही अधिक प्रत्ययात्मक सोच पाई जाती है । इस प्रकार की सोच को विचारात्मक सोच भी कहते हैं । स्थान , आकार , भार , समय , दूरी और संख्या आदि सम्बन्धी प्रत्यय बालकों में प्रारम्भिक आयु स्तर पर ही बन जाते हैं ।

4. तर्क के आधार पर सोचना

इस प्रकार की सोच का विकास किसी बालक में भाषा सम्प्रेषण के आधार पर होता है । यह सबसे उच्च प्रकार की सोच है ।

5. तर्कणा के आधार पर सोचना

किसी बात / समस्या को लेकर भिन्न – भिन्न प्रकार का तर्क ( logic ) लगाना , तर्कणा कहलाता है । तर्कणा के विभिन्न प्रकार हैं

• निगमनात्मक तर्कणा ( Deductive Reasoning ) तर्क करने की एक ऐसी विधि जो अभिग्रह या पूर्वधारणा से आरम्भ होती है । यह सामान्य से विशिष्ट की ओर तर्कणा है ।

• आगमनात्मक तर्कणा ( Inductive Reasoning ) तर्क करने की एक ऐसी विधि जो विशिष्ट तथ्यों एवं प्रेक्षण पर आधारित हो । यह विशिष्ट से सामान्य की ओर चलती है ।

6. अनुभव के आधार पर सोचना

बालक अपने पूर्व अनुभवों के आधार पर अपनी नवीन सोच का विकास करते हैं । इस प्रकार की सोच का विकास बच्चों में स्थायी ज्ञान प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन माना जाता है ।

7. रुचि और जिज्ञासा के आधार पर सोचना

कुछ बालक अपनी रुचियों और जिज्ञासाओं के आधार पर अपनी सोच का सृजन करते हैं । शिक्षक तथा अभिभावकों को चाहिए कि वह बालकों में नई – नई रुचियों और जिज्ञासा ( Desire ) को पैदा करें , जिससे कि बच्चों में सोचने की प्रक्रिया की गति तीव्र हो सके ।

8. अनुकरण के आधार पर सोचना

बालकों की सोच के विकास में अनुकरण का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है । वह जब अपने आस – पास लोगों को कोई कार्य करते देखते हैं , तब वह उसी कार्य को करने की कोशिश करते हैं तथा अपनी सोच का विकास करते हैं ।

बच्चों में सोचने की योग्यता को बढ़ाने हेतु आवश्यक कदम

बालकों में सोचने की योग्यता सफल जीवन के लिए आवश्यक है । अतः अभिभावकों और शिक्षकों को चाहिए कि बालकों में इस योग्यता के विकास पर ध्यान दिया जाए । बालकों में सोचने की योग्यता के विकास में निम्नलिखित उपाय सहायक हैं , जो निम्न प्रकार है● बालको को सोचने के लिए प्रोत्साहित और प्रेरित करना चाहिए । बालकों के भाषा ज्ञान को उच्च करने के उपाय करने चाहिए , जिससे वह समय – समय पर अपने विचारों की अभिव्यक्ति कर सके ।• बालको की रुचियों के विकास पर ध्यान देना चाहिए । रुचियों के अभाव में सोचने की योग्यता कठिनाई से विकसित हो पाती है ।• बालकों को उनकी आयु के अनुसार समय – समय पर ऐसे कार्य सौंपे जाने चाहिए , जिससे उनमें उत्तरदायित्व की भावना का विकास हो सके और उत्तरदायित्व के निर्वहन हेतु सोचने के लिए प्रेरित हो सकें ।

• बालकों को उनकी आयु के अनुसार समस्या समाधान करना भी माता – पिता और शिक्षकों को सिखलाना चाहिए , क्योंकि समस्या समाधान के द्वारा भी सोचने की योग्यता विकसित होती है । शिक्षकों और माता – पिता को बालकों को नवीन बातों की समय – समय पर अर्थात् उनकी आयु के अनुसार जानकारी देनी चाहिए , जिससे उनमें सोचने का विकास सुचारु रूप से चल सके । तर्क और वाद – विवाद भी सोचने की योग्यता के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । 

• बालकों को ऐसा उद्दीपकपूर्ण वातावरण समय – समय पर उपलब्ध कराना चाहिए , जिससे वे सोचने के महत्त्व को समझें और अपनी योग्यता को बढ़ाने के लिए प्रदत्त वातावरण का लाभ उठा सकें ।

बच्चे कैसे सीखते हैं ?

सीखना एक प्रक्रिया है , जो जीवनपर्यन्त चलती रहती है एवं जिसके द्वारा हम कुछ ज्ञान अर्जित करते हैं या जिसके द्वारा हमारे व्यवहार में परिवर्तन होता है ।

फ्रेण्डसन के अनुसार , ” सीखना , अनुभव या व्यवहार में परिवर्तन है । ”

जन्म के तुरन्त बाद से ही व्यक्ति सीखना प्रारम्भ कर देता है । सीखना कोई आसान और सीधी प्रक्रिया नहीं होती , बल्कि यह जटिल ( complex ) , बहुआयामी और गतिशील प्रक्रिया है ।

अधिगम व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में सहायक होता है । इसके द्वारा जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायता मिलती है । अधिगम के बाद व्यक्ति स्वयं और दुनिया को समझने के योग्य पाता है ।

रटकर विषय – वस्तु को याद करने को अधिगम नहीं कहा जा सकता । यदि छात्र किसी विषय – वस्तु के ज्ञान के आधार पर कुछ परिवर्तन करने एवं उत्पादन करने अर्थात् ज्ञान का व्यावहारिक प्रयोग करने में सक्षम गया हो , तभी उसके सीखने की प्रक्रिया को अधिगम के अन्तर्गत रखा जा सकता है । सार्थक अधिगम ठोस चीजों एवं मानसिक द्योतकों को प्रस्तुत करने व उनमें बदलाव लाने की उत्पादक प्रक्रिया है न कि जानकारी इकट्ठा कर उसे रटने की प्रक्रिया ।

गेट्स के अनुसार , ” अनुभव द्वारा व्यवहार में रूपान्तर लाना ही अधिगम है । ”

ई.ए. पील के अनुसार , ” अधिगम व्यक्ति में एक परिवर्तन है , जो उसके वातावरण के परिवर्तनों के अनुसरण में होता है । “

क्रो एवं क्रो के अनुसार , ” सीखना , आदतों , ज्ञान एवं अभिवृत्तियों का अर्जन है । इसमें कार्यों को करने के नवीन तरीके सम्मिलित हैं और इसकी शुरुआत व्यक्ति द्वारा किसी भी बाधा को दूर करने अथवा नवीन परिस्थितियों में अपने समायोजन को लेकर होती है । इसके माध्यम से व्यवहार में उत्तरोत्तर परिवर्तन होता रहता है । यह व्यक्ति को अपने अभिप्राय अथवा लक्ष्य को पाने में समर्थ बनाती है । ” सभी बच्चे स्वभाव से ही सीखने के लिए प्रेरित रहते हैं और उनमें सीखने की क्षमता होती है ।

अर्थ निकालना , अमूर्त सोच ( Abstract thinking ) की क्षमता विकसित करना , विवेचना व कार्य , अधिगम या सीखने की प्रक्रिया के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पहलू हैं ।

• बच्चे व्यक्तिगत स्तर पर एवं दूसरों से भी विभिन्न तरीकों से सीखते हैं । अनुभव के माध्यम से , प्रयोग करने से , पढ़ने , विमर्श करने , पूछने , सुनने , उस पर सोचने व मनन करने से तथा गतिविधि या लेखन के जरिए अभिव्यक्ति करने से अपने विकास के मार्ग में उन्हें ये सभी तरह के अवसर मिलने चाहिए ।

• बच्चे मानसिक रूप से तैयार हों , उससे पहले ही उन्हें पढ़ा देना , बाद की अवस्थाओं में उनमें सीखने की प्रवृत्ति को प्रभावित करता है । उन्हें बहुत से तथ्य ‘ याद ‘ तो रह सकते हैं , लेकिन सम्भव है कि वे न तो उन्हें समझ पाएँ न ही उन्हें अपने आस – पास की दुनिया से जोड़ पाएँ ।

• स्कूल के भीतर और बाहर , दोनों जगहों पर सीखने की प्रक्रिया चलती रहती है इन दोनों जगहों में यदि सम्बन्ध रहे तो सीखने की प्रक्रिया पुष्ट होती है ।

• कला और कार्य , समग्र सीखने के अवसर प्रदान करते हैं , जो सौन्दर्यबोध ( Aesthetic sense ) से पुष्ट होता है । ऐसे अनुभव भाषायी रूप से ज्ञात चीजों के लिए महत्त्वपूर्ण हैं विशेषकर नैतिक मुद्दों में ताकि प्रत्यक्ष अनुभवों से सीखा जा सके और जीवन में समाहित किया जा सके ।

• सीखना किसी की मध्यस्थता या उसके बिना भी हो सकता है । प्रत्यक्ष रूप से सीखने से सामाजिक सन्दर्भ व संवाद विशेषकर अधिक सक्षम लोगों से संवाद विद्यार्थियों को उनके स्वयं के उच्च संज्ञानात्मक स्तर पर कार्य करने का मौका देते हैं ।

• सीखने की एक उचित गति होनी चाहिए ताकि विद्यार्थी अवधारणाओं को रट कर और परीक्षा के बाद सीखे हुए को भूल न जाएँ , बल्कि उसे सन्य सकें और आत्मसात ( Assimilate ) कर सकें । साथ ही सीखने में विविधत व चुनौतियाँ होनी चाहिए ताकि वह बच्चों को रोचक लगे और उन्हें व्यस्त रख सकें । ऊब महसूस होना इस बात का संकेत है कि उस कार्य को बच्चा अब यान्त्रिक रूप से दोहरा रहा है और उसका संज्ञानात्मक मूल्य खत्म हो गया है ।

बच्चों में सीखने के नियम अथवा सिद्धान्त

1. तत्परता का नियम

इस नियम का प्रतिपादन थॉर्नडाइक ने किया था । इस नियम का अभिप्राय यह है कि यदि बालक किसी कार्य को सीखने के लिए तत्पर या तैयार होते हैं , तो वह उसे शीघ्र ही सीख लेते हैं । तत्परता में कार्य करने की इच्छा निहित रहती है । यदि बालक में गणित के प्रश्न करने की तीव्र इच्छा हो , तो वह उनको करता है , अन्यथा नहीं । इतना ही नहीं , तत्परता के कारण वह उनको अधिक शीघ्रता और कुशलता से करता है । तत्परता उसके ध्यान को कार्य पर केन्द्रित करने में सहायता देती है , जिसके फलस्वरूप वह उसे सम्पन्न करने में सफल होता है ।

2. अभ्यास का नियम

इस नियम का प्रतिपादन भी थॉर्नडाइक ने ही किया था । इस नियम का अभिप्राय है कि यदि बालक कार्य को बार – बार करता रहे , तो वह उस कार्य में अन्य सामान्य बालक की अपेक्षा अधिक निपुण हो जाता है ।

3. प्रभाव / सन्तोष का नियम

थॉर्नडाइक के इस नियम के अनुसार बालक उस कार्य को सीखना चाहते हैं , जिसका परिणाम हमारे लिए हितकर होता है या जिससे बालकों को सुख और सन्तोष मिलता है । यदि बालकों को किसी कार्य को करने या सीखने में कष्ट होता है , तो बालक उसको करते या सीखते नहीं हैं । वाशबर्न के अनुसार , “ जब सीखने का अर्थ किसी उद्देश्य या इच्छा को सन्तुष्ट करना होता है , तब सीखने में सन्तोष का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है । ”

4. सीखने का प्रबलन सिद्धान्त

इस सिद्धान्त का प्रतिपादन अमेरिकी मनोवैज्ञानिक सी.एल. हल द्वारा किया गया था । इस सिद्धान्त के अनुसार , ” सीखने का आधार आवश्यकता की पूर्ति की प्रक्रिया है । ” जब बालक की किसी आवश्यकता की पूर्ति नहीं होती है , तब उसमें असन्तोष उत्पन्न हो जाता है , उदाहरण के लिए भोजन की आवश्यकता पूर्ण न होने पर बालक में तनाव उत्पन्न हो जाता है , उसके फलस्वरूप उसकी दशा असन्तुलित हो जाती है ।

साथ ही , भूख की चालक शक्ति उसे भोजन प्राप्त करने के लिए क्रियाशील बना देती है अर्थात प्रबलन ( Reinforcement ) बनता है । कुछ समय के बाद वह ऐसी स्थिति में पहुँच जाता है जब उसकी भोजन की आवश्यकता सन्तुष्ट जाती है । इसके फलस्वरूप , भूख से बालक की शक्ति कम हो जाती है ।

बालक विद्यालय / शाला प्रदर्शन में सफलता प्राप्त करने में कैसे और क्यों असफल होते हैं

पढ़ाई के दौरान बालक विद्यालय स्तर पर कैसे एवं क्यों असफल हो जाते हैं यह आरम्भ से ही अनुसन्धान ( Research ) का विषय रहा है । शिक्षार्थियों की असफलता के पीछे कोई एक कारण , नहीं अपितु कारणों की शृंखला उत्तरदायी है , जो इस प्रकार हैं

1. विद्यालय का परिवेश

विद्यालय का परिवेश ( Environment of School ) काफी हद तक विद्यार्थियों की सफलता एवं असफलता को प्रभावित करता है । विद्यालय का वातावरण बाल – केन्द्रित होना चाहिए तथा विद्यालय की सभी व्यवस्था के केन्द्र में बालकों को होना चाहिए साथ ही विद्यालय का वातावरण जनतान्त्रिक आदर्शों , मौलिकता , स्वतन्त्र चिन्तन तथा सृजन पर आधारित होना चाहिए । शिक्षक एवं शिक्षार्थी दोनों को पढ़ाई के प्रति अभिप्रेरित होना चाहिए तथा विद्यालय का वातावरण शान्त एवं भयमुक्त होना चाहिए । अगर इन व्यवस्थाओं में कमियाँ उत्पन्न होंगी , तो इसका नकारात्मक प्रभाव बच्चों के परिणाम पर पड़ेगा ।

2. पारिवारिक माहौल

बालकों की असफलता के लिए पारिवारिक माहौल ( Familiar Environment ) भी जिम्मेदार होता है । अगर माता – पिता अपने बच्चों की पढ़ाई के प्रति जागरूक न हों तो बच्चे विलम्ब से पढ़ना प्रारम्भ करते । माता – पिता एवं परिवार के अन्य सदस्यों के जागरूक नहीं रहने के कारण बच्चों की सफलता की दर काफी हद तक प्रभावित होती है , क्योंकि परिवार को शिक्षा की प्रथम पाठशाला माना गया है ।

3. अभ्यास का अभाव

बच्चे पढ़ाई के दौरान अपने पाठ्यक्रम का उचित तरीके से अभ्यास नहीं करते हैं , इसके परिणामस्वरूप वे सीखी हुई विषयों को भूलने लगते है । अभ्यास की कमी के कारण जब बालकों की उपलब्धियों का मूल्यांकन विद्यालय स्तर पर होता है तो वे असफल हो जाते हैं ।

4. अभिरुचि एवं जिज्ञासा की कमी

विद्यालय स्तर पर अध्ययन के दौरान प्रायः यह देखा जाता है कि बालकों में पढ़ाई के प्रति अभिरुचि एवं जिज्ञासा ( Interest and Curious ) का अभाव दिखता है । जिसके कारण बच्चे पढ़ाई के प्रति संवेदनशील नहीं हो पाते तथा जब उनकी उपलब्धियों का मूल्यांकन होता है , तो वे पिछड़ जाते हैं तथा वे असफल हो जाते हैं

5. स्वास्थ्य

पठन – पाठन के लिए बालकों को शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ रहना अतिआवश्यक है । स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण बालक पढ़ाई पर ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाते हैं । अस्वस्थ वातावरण में उसकी शैक्षिक विकास धीमा पड़ जाता है । इस कारण परीक्षा की उचित तैयारी नहीं हो पाती है परिणामस्वरूप वे असफल हो जाते हैं ।

6. कक्षा वर्ग का वातावरण

विद्यालय स्तर पर अध्ययन के दौरान कक्षा का माहौल प्रतिस्पर्द्धात्मक ( competitive ) एवं अनुशासनात्मक होना चाहिए । यह तभी सम्भव होगा , जब शिक्षक एवं शिक्षार्थी दोनों अपने – अपने कार्यों के प्रति जवाबदेह हों । कक्षा का अनुपयुक्त परिवेश भी बालकों के कमजोर प्रदर्शन के लिए जिम्मेदार होता है ।

7. शिक्षण विधियाँ एवं युक्तियाँ

छात्रों के प्रदर्शन एवं उपलब्धियों पर उचित शिक्षण विधि एवं युक्ति ( Teaching Method & Instrument ) का गहरा प्रभाव पड़ता है । अध्यापक यदि अध्यापन ( teaching ) के दौरान नवीन तरीकों का प्रयोग करते हैं तो बच्चों की पढ़ाई के प्रति जागरूक होंगे । यदि पढ़ाने की परम्परागत विधि अर्थात् ‘ रटंत प्रणाली ‘ पर शिक्षक जोर देंगे तो इसका नकारात्मक प्रभाव बालकों के परीक्षा परिणाम पर पड़ेगा ।

8. प्रेरणा एवं मागदर्शन का अभाव

यदि बालकों को पढ़ाई के दौरान उचित प्रेरणा एवं मार्गदर्शन ( Motivation & Guidance ) मिलता रहे तो वे कभी असफल नहीं होंगे । बालको को क्या पढ़ना चाहिए ? कैसे पढ़ना चाहिए ? पढ़ने की वैज्ञानिक शैली क्या हो यह काफी हद तक प्रेरणा एवं मार्गदर्शन पर निर्भर करता है । प्रेरणा बालकों में पढ़ाई के प्रति जोश उत्पन्न करती है । इनके अभाव के कारण बच्चे असफल हो सकते हैं ।

9. पढ़ाई के दौरान विद्यालय से भाग जाना

कुछ बच्चे विद्यालय स्तर पर प्रदर्शन में इसलिए असफल हो जाते हैं कि जब विद्यालय में पढ़ाई होती है , तो वे पढ़ने के भय से विद्यालय से भाग जाते हैं । तथा विषय – वस्तु के अध्ययन से वंचित हो जाते हैं । इसके परिणामस्वरूप उनकी शैक्षिक उपलब्धि पर नकारात्मक असर पड़ता है ।

बालकों को असफल होने से रोकने के लिए- सुझाव एवं रणनीति

1. माता – पिता की भागीदारी

बच्चों की सफलता के पीछे माता – पिता की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । अगर घर का वातावरण मजबूत एवं स्थिर हो तो बच्चों की सफल होने की सम्भावना बढ़ जाती है । माता – पिता बालको की पढ़ाई में सहयोगी भूमिका निभाते हैं अर्थात् बच्चों से बात – चीत करने का उचित तरीका , होमवर्क के समय उपस्थित रहना , शिष्टाचार सिखाना , समय पर विद्यालय भेजना तथा विषय – वस्तु से हटकर अपने बालकों को सामान्य ज्ञान की जानकारी देना आदि ।

2. बालकों में कौशल का विकास

माता – पिता एवं शिक्षक दोनों मिलकर बालकों में विभिन्न प्रकार के कौशलों का विकास करते हैं , उदाहरणस्वरूप पढ़ना , लिखना , गणित के विषय में बताना , सामाजिक शिष्टाचार के बारे में बताना तथा बालकों में नैतिक विकास को बढ़ावा देना । स्कूल में उत्पन्न चुनौतियों का सामना करने में इस प्रकार का कौशल उन्हें मदद करता है ।

3. उच्च अभिप्रेरणा स्तर

अभिप्रेरणा ( Motivation ) बालकों को विद्यालय स्तर पर बेहतर प्रदर्शन में उत्प्रेरक ( Catalyst ) का कार्य करती है । शैक्षणिक सफलता एवं माता – पिता का सहयोग उनके आत्म सम्मान को बढ़ाता है । अभिप्रेरणा के कारण बालकों में पाठ्यक्रम से अलग जाकर ज्ञान अर्जित करने की क्षमता तथा उनमें जोखिम उठाने की क्षमता होती है । बालकों के कार्य प्रदर्शन के अनुरूप माता – पिता एवं शिक्षक उन्हें लगातार फीडबैक देते रहते हैं ।

लैंगिक भेदभाव । Gender discrimination in Hindi

लैंगिक भेदभाव या लैंगिक असमानता समाज की वो कुरीति है जिसकी वजह से महिलाएं उस सामाजिक दर्जे से हमेशा वंचित रही जो दर्जा पुरुष वर्ग को प्राप्त है।

आज ये एक ज्वलंत मुद्दा है। इस लेख में लैंगिक भेदभाव (Gender discrimination) पर सरल और सहज चर्चा करेंगे एवं इसके विभिन्न महत्वपूर्ण पहलुओं को समझने का प्रयास करेंगे।

लैंगिक भेदभाव क्या है?

स्त्री-पुरुष मानव समाज की आधारशिला है। किसी एक के अभाव में समाज की कल्पना नहीं की जा सकती, लेकिन इसके बावजूद लैंगिक भेदभाव एक सामाजिक यथार्थ है। लैंगिक भेदभाव से आशय लैंगिक आधार पर महिलाओं के साथ भेदभाव से है, जहां स्त्रियों को पुरुषों के समान अवसर नहीं मिलता है और न ही समान व्यवहार। स्त्रियों को एक कमजोर वर्ग के रूप में देखा जाता है और उसे शोषित और अपमानित किया जाता है। इस रूप में स्त्रियों के साथ भेदभाव पूर्ण व्यवहार को लैंगिक भेदभाव (gender discrimination) कहा जाता है।

लैंगिक भेदभाव की शुरुआत कहाँ से होती है?

इसकी शुरुआत परिवार से ही समाजीकरण (Socialization) के क्रम में प्रारंभ होती है, जो आगे चलकर पोस्ट होती जाती है। परिवार  मानव की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक है। यह समाज का आधारशिला है। समाज में जितने भी छोटे-बड़े संगठन हैं, उनमें परिवार का महत्व सबसे अधिक है यह मानव की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति से संबंधित है।

व्यक्ति जन्म से जैविकीय प्राणी होता है और जन्म से ही लिंगों के बीच कुछ विशेष भिन्नताओं  को स्थापित और पुष्ट करती है। बचपन से ही लड़कों व लड़कियों के लिंग-भेद के अनुरूप व्यवहार करना, कपड़ा पहनना एवं खेलने के ढंग आदि सिखाया जाता है। यह प्रशिक्षण निरंतर चलता रहता है, फिर जरूरत पड़ने पर लिंग अनुरूप सांचे में डालने  के लिए बाध्य किया जाता है तथा यदा-कदा सजा भी दी जाती है।

बालक व बालिकाओं के खेल व खिलौने इस तरह से भिन्न होते हैं कि समाज द्वारा परिभाषित नर-नारी के धारणा के अनुरूप ही उनका विकास हो सके। सौंदर्य के प्रति अभिरुचि  की आधारशिला भी बाल्यकाल  से ही लड़की के मन में अंकित कर दी जाती है, इस प्रक्रिया में बालिका के संदर्भ में सौंदर्य को बुद्धि की तुलना में प्राथमिकता दी जाती है। कहने का अर्थ ये है कि जहां समाज में लड़कों के बौद्धिक क्षमताओं को प्राथमिकता दी जाती है वहीं लड़कियों के बौद्धिक क्षमताओं को दोयम दर्जे का समझ जाता है।

समाज द्वारा स्थापित ऐसी अनेक संस्थाएं या व्यवस्थाएं हैं जो नारी की प्रस्थिति को निम्न बनाने में सहायक होती है, जैसे कि –

(1) पितृ-सतात्मक समाज (Patriarchal society)

पितृ-सतात्मक भारतीय समाज आज भी महिलाओं की क्षमताओं को लेकर, उनकी आत्म-निर्भरता के सवाल पर पूर्वाग्रहों से ग्रसित है। स्त्री की कार्यक्षमता और कार्यदक्षता को लेकर तो वह इस कदर ससंकित है कि नवाचार को लेकर उनके किसी भी प्रयास को हतोत्साहित करता दिखता है।

देश में आम से लेकर ख़ास व्यक्ति तक लगभग सभी में यह दृष्टिकोण व्याप्त है कि स्त्री का दायरा घर की चारदीवारी तक ही होनी चाहिए। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि स्त्रियों की लिंग-भेद आधारित काम एवं अधीनता जैसी असमानता जैविक नहीं बल्कि सामाजिक – सांस्कृतिक मूल्यों, विचारधाराओं और संस्थाओं की देन है।

आज सामाजिक असमानता एक सार्वभौमिक तथ्य है और यह प्रायः सभी समाजों की विशेषता रही है भारत की तो यह एक प्रमुख समस्या है। यहाँ जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में जितनी सुविधाएं एवं स्वतंत्रता पुरुषों को प्राप्त है उतनी स्त्रियों को नहीं। इस बात की पुष्टि विश्व आर्थिक मंच द्वारा जारी 15वीं वैश्विक लैंगिक असमानता सूचकांक 2021 की रिपोर्ट से हो जाती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत 156 देशों की सूची में 140वें स्थान पर है। भारत की स्थिति इस मामले में कितनी ख़राब है इसका पता इससे चलता है कि नेपाल, भूटान, बांग्लादेश और श्रीलंका भी भारत से अच्छी स्थिति में है।

(2) लड़का और लड़की के शिक्षा में अंतर

यदि हम भारत में लड़कियों की शिक्षा की बात करें तो स्वतंत्रता के बाद अवश्य ही लड़कियों की साक्षरता दर बढ़ी है, लेकिन लड़कियों को शिक्षा दिलाने में वह उत्साह नहीं देखी जाती है। भारतीय परिवार में लड़के की शिक्षा पर धन व्यय करने की प्रवृति है क्योंकि वे सोचते है कि ऐसा करने से ‘धन’ घर में ही रहेगा

जबकि बालिकाओं के शिक्षा के बारे में उनके माता–पिता की यह सोच है कि उन्हें शिक्षित करके आर्थिक रूप से हानि ही होगी क्योंकि बेटी तो एक दिन चली जाएगी। शायद इसीलिए भारत में महिला साक्षरता की दर पुरुषों की अपेक्षा इतनी कम है:

सन् 1991 की जनगणना के अनुसार महिला साक्षरता की दर 32 प्रतिशत एवं पुरुष साक्षरता 53 प्रतिशत थी। 2001 की जनगणना के अनुसार पुरुष साक्षरता 76 प्रतिशत थी तो महिलाओं की साक्षरता 54 प्रतिशत थी। 2011 की जनगणना के अनुसार पुरुष साक्षरता 82.14 प्रतिशत है एवं महिला साक्षरता 65.46 प्रतिशत है। जिनमें आन्ध्र-प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश में स्त्री पुरुष साक्षरता में 25 प्रतिशत का अंतर हैं।

इस सब के बावजूद भी जो लडकियाँ आत्मविश्वास से शिक्षित होने में सफल हो जाती है और पुरुषों के समक्ष अपना विकास करना चाहती है, उन्हें पुरुषों के समाज में उचित सम्मान तक नहीं मिलता है। यहाँ तक कि नौकरियों में महिला कर्मचारियों को पुरुषों के मुकाबले कम वेतन मिलता है। इस बात की पुष्टि लिंक्डइन अपार्च्युनिटी सर्वे-2021 से होती है। इस सर्वे के अनुसार देश की 37 प्रतिशत महिलाएं मानती हैं कि उन्हें पुरुषों की तुलना में कम वेतन मिलता है, जबकि 22 प्रतिशत महिलाओं का कहना है कि उन्हें पुरुषों की तुलना में वरीयता नहीं दी जाती है।

लड़कियों के प्रति किया जाने वाला यह भेदभाव बचपन से लेकर बुढ़ापे तक चलता है। शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में यह भेदभाव अधिक देखने को मिलता हैं। अनुमान है की भारत में हर छठी महिला की मृत्यु लैंगिक भेदभाव के कारण होती हैं।

(3) लैंगिक भेदभाव को प्रोत्साहन देने वाली मानसिकता

अनेक पुरुष-प्रधान परिवारों में लड़की को जन्म देने पर माँ को प्रतारित किया जाता हैं। पुत्र प्राप्ति के चक्कर में उसे बार-बार गर्भ धारण करना पड़ता हैं और मादा भ्रूण होने पर गर्भपात करना पड़ता हैं। यह सिलसिला वर्षो तक चलता रहता है चाहे महिला की जान ही क्यों न चला जाए। यही कारण है जिससे प्रति हज़ार पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या हमेशा कम रही है।

जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि 1901 में प्रति हजार पुरुषों पर 972 औरतें थी। 1951 में औरतों की संख्या प्रति हजार 946 हो गई, जो कि 1991 तक आते-आते सिर्फ 927 रह गई। सन् 2001 की जनगणना की रिपोर्टों के अनुसार यह संख्या 933 हुई और 2011 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार ये 940 तक पहुंची है।

इस घटते हुए अनुपात का प्रमुख कारण समाज का नारी के प्रति बहुत ही संकीर्ण मानसिकता है। अधिकांश परिवार यह सोचते हैं की लड़कियां न तो बेटों के समान उनके वृद्धावस्था का सहारा बन सकती है और ना ही दहेज ला सकती है। इस प्रकार की मानसिकता वाले समाज में महिलाओं के लिए रहना कितना दुष्कर होगा; ये सोचने वाली बात है।

(4) लैंगिक भेदभाव के अन्य कारक

▪️ वैधानिक स्तर पर पिता की संपत्ति पर महिलाओं का पुरुषों के समान ही अधिकार है लेकिन आज भी भारत में व्यावहारिक स्तर पर पारिवारिक संपत्ति में महिलाओं के हक़ को नकार दिया जाता है।

▪️ राजनैतिक भागीदारी के मामलों में अगर पंचायती राज व्यवस्था को छोड़ दें तो उच्च वैधानिक संस्थाओं में महिलाओं के लिये किसी प्रकार के आरक्षण की व्यवस्था नहीं है। संसद में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण का बिल अभी भी अधर में लटका हुआ है।

▪️ कुछ राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों जैसे कि मध्य प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश एवं चंडीगढ़ आदि को छोड़ दें तो वर्ष 2017-18 के आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (Periodic Labour Force Survey) के अनुसार, भारतीय अर्थव्यवस्था में महिला श्रम शक्ति (Labour Force) और कार्य सहभागिता (Work Participation) की दर में कमी आयी है।

▪️ महिलाओं के द्वारा किए गए कुछ कामों को सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में नहीं जोड़ा जाता है जैसे कि महिलाओं द्वारा परिवार के खेतों और घरों के भीतर किये गए अवैतनिक कार्य (जैसे खाना बनाना, बच्चे की देखभाल करना आदि)। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का एक अध्ययन बताता है कि अगर भारत में महिलाओं को श्रमबल में बराबरी मिल जाए तो GDP में 27 प्रतिशत तक का इजाफा हो सकता है।

लैंगिक भेदभाव को कैसे समाप्त किया जा सकता है?

▪️ कहने को तो लड़के और लड़कियाँ एक ही सिक्के के दो पहलू है पर लड़कियाँ सिक्के का वो पहलू है, जिन्हें दूसरे पहलू (लड़कों) द्वारा दबाकर रखा जाता हैं। समस्या की मूल जड़ इसी सोच के साथ जुड़ी है, जहां लड़कों को बचपन से यही सिखाया जाता है कि वे परिवार के भावी मुखिया हैं और लड़कियों को यह बताया जाता है कि वे तभी अच्छी मानी जाएंगी, जब वे हर स्थिति में पहली प्राथमिकता परिवार को देंगी।

‘प्रभुत्व’ का भाव पुरुषों के हिस्से और देखभाल का भाव स्त्री के हिस्से मान लिया जाता है। ये दोनों भाव पुरुष और स्त्री के व्यक्तित्व को ऐसे गढ़ देते हैं कि वे इस खोल से निकलने की कोशिश ही नहीं करते। इसके लिए पुरुष वर्ग को खुद आगे बढ़कर अपने प्रभुत्व के भाव को स्त्रियों के साथ साझा करना होगा और उन कामों को जिसे स्त्रियों का माना जाता है उसमें सहयोग करना होगा।

▪️ यूनीसेफ का कहना है कि घर व बाहर, दोनों जगह के कार्यों का दबाव स्त्रियों को शारीरिक और मानसिक रूप से बीमार कर रहा है, ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि – घर के काम में पुरुष सदस्य सहयोग करें, पिता का दायित्व सिर्फ आर्थिक दायित्वों की पूर्ति से ऊपर उठकर बच्चों की देखभाल तक हो। इससे समानता का भाव बढ़ेगा और स्त्री खुद को अन्य जरूरी कामों में संलग्न कर पाएगी।

▪️ भारतीय समाज में स्त्री को बड़े ही आदर्श रूप में प्रस्तुत किया गया है। देवियों के विभिन्न रूपों में सरस्वती, काली, लक्ष्मी, दुर्गा आदि का वर्णन मिलता है। यहाँ तक की भारत को भी भारतमाता के रूप में जाना जाता है। परन्तु व्यवहार में स्त्रियों को उचित सम्मान तक नहीं मिलता है। इसके लिए पुरुष वर्ग को अपनी मानसिकता में बदलाव लाना होगा ताकि वे स्त्रियों को उसी सम्मान और आदर के भाव से देखें जो वह खुद अपने लिए अपेक्षा करता है।

▪️ लड़कियों को उच्च शिक्षाकौशल विकासखेल कूद आदि में प्रोत्साहन देकर सशक्त बनाया जा सकता है। इसके लिए समाज को लड़कियों के प्रति अपनी धारणा व सोच बदलनी पड़ेगी और सरकार को भी उचित कानून बनाकर या जागरूकता या निवेश के जरिये महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देना होगा।

▪️ चूंकि लड़कियों को शुरू से ही काफी असमानताओं का सामना करना पड़ता है इसीलिए हमें लड़कियों को एक प्लैटफ़ार्म देना होगा जहाँ वे अपनी चुनौतियों को साझा कर सके, अपने लिए एक सही विकल्प तलाश कर सकें और अपने वैधानिक अधिकार, कर्तव्य एवं शक्तियों को पहचान सकें।

लैंगिक असमानता को समाप्त करने के लिए किया जा रहा प्रयास

▪️ बालिकाओं के संरक्षण और सशक्तिकरण के उद्देश्य से जनवरी 2015 में ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान की शुरुआत की गई। जो कि बेटियों के अस्तित्व को बचाने एवं उसका संरक्षण करने की दिशा में बहुत बड़ा कदम माना जाता है। इसके साथ ही वन स्टॉप सेंटर योजना’, ‘महिला हेल्पलाइन योजना’ और ‘महिला शक्ति केंद्र’ जैसी योजनाओं के द्वारा महिला सशक्तीकरण का सरकारी प्रयास सराहनीय है।

▪️ सरकारी योजनाओं का लाभ सीधे महिलाओं तक पहुंचे इसके लिए जेंडर बजटिंग का चलन बढ़ रहा है। दरअसल जब किसी देश के बजट में महिला सशक्तीकरण के लिए अलग से धन आवंटित किया जाये तो उसे जेंडर बजटिंग कहा जाता है।

▪️ यूनिसेफ इंडिया द्वारा लैंगिक समानता स्थापित करने की दिशा में काफी कुछ किया जा रहा है। इसके लिए देश में 2018-2022 तक चलने वाले कार्यक्रम का निर्माण किया गया है जिसके तहत लिंग आधारित असमानता एवं विकृत्यों को चिन्हित कर उसका उन्मूलन करने का प्रयास किया जाएगा।

कुल मिलाकर लैंगिक भेदभाव को मिटाने के लिए काफी कुछ किया गया है और काफी कुछ अभी भी किए जाने की जरूरत है। खासकर के समान वेतन, मातृत्व, उद्यमिता, संपत्ति और पेंशन जैसे मामलों में लैंगिक भेदभाव को खत्म करने के लिए आगे कड़े प्रयत्न करने होंगे। महिलाओं में आत्मविश्वास और स्वाभिमान का भाव पैदा हो इसके लिए पुरुषों के समान अधिकार और आर्थिक स्वतंत्रता को सुदृढ़ करना होगा।

Concept of child development and relation to learning बाल विकास की अवधारणा एवं अधिगम से संबंध

बाल विकास की विशेषताएँ :-

● बाल विकास की प्रकिया प्राकृतिक, सरल एवं स्वाभाविक रूप में सम्पन्न होती है।

● बाल विकास को छात्रों, शिक्षक एवं अभिभावकों के लिए बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है।

● बाल विकास में शारीरिक कार्य एवं व्यवहार में परिवर्तन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, इनको देखकर बाल विकास के बारे में जानकारी प्राप्त की जाती है।

●बाल विकास एक स्वाभाविक प्रकिया है, और बाल विकास की स्थिति का पता कुछ निर्धारित मानकों के आधार पर किया जाता है।

● बाल विकास में विकास के स्तरों का वर्गीकरण करके उसके स्वरूप को निर्धारित किया जाता है, इसलिए हम यह कह सकते हैं कि बाल विकास एक वर्गीकृत प्रकिया है।

● बाल विकास एक मनोवैज्ञानिक प्रकिया है, क्योंकि इसमें मनोवैज्ञानिक के कई सिद्धान्तो, नियमों एवं अनुसंधानों का प्रयोग करके परिणाम तक पहुंचा जाता है।

● बाल विकास में सभी बच्चों के विकास में कुछ न कुछ अंतर पाया जाता है

● बाल विकास के सिद्धांत एवं इसके मापन की प्रक्रिया पूरी तहर विज्ञान के नियमों पे आधारित है, इसलिए आप बाल विकास की अवधारणा को एक प्रयकर की वैज्ञानिक प्रिक्रिया कह सकते हैं

● बाल विकास आधुनिक एवं सामाजिक प्रकिया है क्योंकि इसमें छात्रों के सर्वांग्रीण विकास के लिए वैज्ञानिक दृष्टिको का प्रयोग किया जाता हैं

बाल विकास एवं अधिगम (सीखना) का सम्बन्ध :-

● शारीरिक विकास के उच्च स्थिति की अवस्था में अधिगम या सीखने की प्रकिया तीव्र एवं स्थायी रूप में होती है, और शारीरिक विकास के अच्छी स्थिति में न होने पर अधिगम की प्रक्रिया धीमें हो जाती है

● संज्ञानात्मक विकास की उचित स्थिति ही अधिगम को उच्च एवं स्थायी बनाती है.

● सामाजिक विकास की प्रभावशीलता ही प्रभावी अधिगम का मार्ग प्रशस्त करती हैं,

● संवेगगत्मक स्थिरता के माध्यम से ही बालक सन्तुलित कार्य व्यवहार सीखता है.

● नैतिक विकास के आधार पर ही छात्र नैतिक कार्यों को एवं गतिविधियों को सीखता है.

● मानसिक विकास के आधार पर ही छात्रों कं द्वारा तर्क, चिन्तन एवं खोज सम्बन्धी गतिविधियाँ सीखी जाती हैं

बाल विकास का उद्देश्य, आवश्यकता एवं महत्व :-

● बाल विकास के आधार पर शिक्षक द्वारा और स्कूल के माध्यम से विद्यार्थियों का अच्छा शारीरिक विकास किया जाता है 

● बाल विकास के आधार पर विद्यार्थियों का का मानसिक विकास को बढ़ाने का कार्य शिक्षक, विद्यालय एवं अभिभावक द्वारा किया जाता है

● बाल विकास द्वारा विद्यार्थियों में शिक्षण के माध्यम से और विद्यालय के माध्यम से सृजनात्मकविकास किया जाता है।

● बाल विकास द्वारा विद्यार्थियों शिक्षक एवं विद्यालय द्वारा छात्रों की संवेगात्मक स्थिरता उत्पन्न करने वाली गतिविधियों उपलब्ध करायी जाती हैं।

● बाल विकास के आधार पर छात्रों का सामाजिक विकास किया जाता है