Thinking and Learning in Children {बच्चों में सोचना एवं सीखना }

बच्चों में सोचना एवं सीखना Thinking and Learning in Children

बच्चे कैसे सोचते हैं How do Children Think ?

  • सोचना एक उच्च प्रकार की मानसिक प्रक्रिया है, जो ज्ञान को संगठिन करने में एक अहम भूमिका निभाती है। इस मानसिक प्रक्रिया में बहुधा स्मृति, प्रत्यक्षीरण, अनुमान, कल्पना आदि मानसिक प्रक्रियाएँ भी सम्मिलित होती हैं।
  • एक बालक के समक्ष हमेशा अनेक वस्तुएँ, समस्याएँ, दृश्य-परिदृश्य आदि दृष्टिगोचर होती रहती हैं तथा बालक उन समस्याओं, वस्तुओं, दृश्य-परिदृश्यों आदि के विषय में चिन्तन करता रहता हैं। यह चिन्तन अनुभवजन्य होता है।
  • बालक अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार वस्तुओं देखकर या छूकर उनके बारे में अनुभव प्राप्त करता है। धीरे-धीरे बालक में प्रत्यय निर्माण होने लगता है तथा पूर्व किशोरावस्था में बालक अमूर्त वस्तुओं के विषय में सोचने लगता है।
  • बालक में सोचने की प्रक्रिया का विकास एक निश्चित क्रम में होता है।

बालकों में सोचने की प्रक्रिया Process of Thinking in Children

प्रत्यक्षीकरण के आधार पर सोचना Thinking Based on Manifestation

  • बच्चों में इस प्रकार की सोच का विकास वस्तुओं और परिस्थितियों में पत्यक्षीकरण से सम्बन्धित होता है। बालक अपने चारों ओर के भौतिक और मनोवैज्ञानिक वातावरण में जिन वस्तुओं और परिस्थितियों को देखता है या प्रत्यक्षीकरण करता है। उसके आधार पर वह अपने ज्ञान का संचय कर अपनी सोच का विकास करता है।

कल्पना के आधार पर सोचना Thinking Based on Imagination

  • जब उद्दीपन, वस्तु या पदार्थ, उपस्थित नहीं होता है, तब उसकी कल्पना की जाती है। इनके अभाव में कोई बालक इनकी मानसिक प्रतिमा बनाकर अपने ज्ञान का संचय करता है। कल्पना, बालकों में सोचने का एक सुदृढ़ आधार है जिसके आधार पर बालक अपने पूर्व अनुभवों के आधार पर अपनी भविष्यगत सोच का निर्माण करता है।

प्रत्ययों के आधार पर सोचना Thinking Based on Concept

  • यह अपेक्षाकृत अधिक उच्च प्रकार सोच है। इसकी बालकों में अभिव्यक्ति तभी होती है, जब बालकों में प्रत्ययों का निर्माण प्रारम्भ होता है। एक बालक में जितने ही अधिक प्रत्यय निर्मित होते हैं उसमें उतनी ही अधिक प्रत्ययात्मक सोच पाई जाती है। इस प्रकार की सोच को विचारात्मक सोच भी कहते हैं। स्थान, आकार, भार, समय, दूरी और संख्या आदि सम्बन्धी प्रत्यय बालकों में प्रारम्भिक आयु स्तर पर ही बन जाते हैं।

तर्क के आधार पर सोचना Thinking Based on logic

  • इस प्रकार की सोच का विकास किसी बालक में भाषा सम्प्रेषण के आधार पर होता है। यह सबसे उच्च प्रकार की सोच है।

अनुभव के आधार पर सोचना Thinking Based on Experience

  • बालक अपने पूर्व अनुभवों के आधार पर अपनी नवीन सोच का विकास करते हैं। इस प्रकार की सोच का विकास बच्चों में स्थायी ज्ञान प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन माना जाता है।
  • रूचि और जिज्ञासा के आधार पर सोचना Thinking Based on Interest and Desire
  • कुछ बालक अपनी रूचियों और जिज्ञासाओं के आधार पर अपनी सोच का सृजन करते हैं। शिक्षक तथा अभिभावकों को चाहिए कि वह बालकों में नई-नई रूचियों और जिज्ञासा को पैदा करें, जिससे कि बच्चों में सोचने की प्रक्रिया की गति तीव्र हो सके।

अनुकरण के आधार पर सोचना Thinking Based on Imitation

  • बालकों की सोच के विकास में अनुकरण  का एक महत्वपूर्ण स्थान है। वह जब अपने आस-पास लोगों को कोई कार्य करने देखते हैं। तब वह उसी कार्य करने की चेष्टा करते हैं। तथा अपने सोच का विकास करते हैं।

बच्चों में सोचने की योग्यता को बढ़ाने हेतु आवश्यक कदम Essential Steps to Enhance Thinking Ability in Children

  • क्रो एवं क्रो अनुसार, “बालकों में सोचने की योग्यता सफल जीवन के लिए आवश्यक है।”
  • अतः संरक्षकों और शिक्षकों को चाहिए कि बालकों में इस योग्यता के विकास पर ध्यान दिया जाए। बालकों में सोचने की योग्यता के विकास में निम्नलिखित उपाय सहायक हैं
  • बालकों को सोचने के लिए प्रोत्साहित और प्रेरित करना चाहिए। बालकों के भाषा ज्ञान को उच्च करने उपाय करने चाहिए, जिससे वह समय-समय पर अपने विचारों की अभिव्यक्ति कर सकें।
  • बालकों की रूचियों के विकास पर ध्यान देना चाहिए। रूचियों के अभाव में सोचने योग्यता कठिनाई से विकसित हो पाती है।
  • बालकों को उनकी आयु के अनुसार समय-समय पर ऐसे कार्य सौंपे जाने चाहिएँ जिससे उनमें उत्तरदायित्व की भावना का विकास हो सके और उत्तरदायित्व के निर्वाहन हेतु सोचने के लिए प्रेरित हो सकें।
  • बालकों को उनकी आयु के अनुसार समस्या-समाधान करना भी माता-पिता और शिक्षकों को सिखलाना चाहिए, क्योंकि समस्या-समाधान के द्वारा भी सोचने की योग्यता विकसित होती है। शिक्षकों और माता-पिता को बालकों को नवीन बातों की समय-समय पर अर्थात् उनकी आयु के अनुसार जानकारी देनी चाहिए, जिससे उनमें सोचने का विकास सुचारू रूप से चल सके।
  • तर्क और वाद-विवाद की भी सोचने की योग्यता के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका है, इनकों भी सिखाने के अवसर देने चाहिएँ्।
  • बालकों को ऐसा उद्दीपकपूर्ण वातावरण समय-समय पर उपलब्ध कराना चाहिए जिससे वे सोचने के महत्व को समझें और अपनी योग्यता को बढ़ाने के लिए प्रदत्त वातावरण का लाभ उठा सकें।

बच्चें कैसे सीखते हैं How do Children Learn

  • सीखना एक प्रक्रिया है जो जीवन-पर्यन्त चलती रहती है एवं जिसके द्वारा हम कुछ ज्ञान अर्जित करते हैं या जिसके द्वारा हमारे व्यवहार में परिवर्तन होता है।
  • फें्रडसन के अनुसार, “सीखना, अनुभव या व्यवहार में परिवर्तन होता है।”
  • जन्म के तुरन्त बाद से ही व्यक्ति सीखना प्रारम्भ कर देता है।
  • सीखना कोई आसान और सीधी प्रक्रिया नहीं होती, बल्कि यह जटिल, बहुआयामी और गतिशील प्रक्रिया है।
  • अधिगम व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में सहायक होता है। इसके द्वारा जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायता मिलती है।
  • अधिगम के बाद व्यक्ति स्वयं और दुनिया को समझने के योग्य हो पाता है।
  • रटकर विषय-वस्तु को याद करने को अधिगम नहीं कहा जा  सकता। यदि छात्र किसी विषय-वस्तु के ज्ञान के आधार कुछ परिवर्तन करने एवं उत्पादन करने आर्थात् ज्ञान का व्यावहारिक प्रयोग करने में सक्षम हो गया हो, तभी उसके सीखने की प्रक्रिया को अधिगम के अन्तर्गत रखा जा सकता है। सार्थक अधिगम ठोस चीजों एवं मानसिक द्योतकों को प्रस्तुत करने व उनमें बदलाव लाने की उत्पादक प्रक्रिया है न कि जानकारी इकट्ठा कर उसे रटने की प्रक्रिया।
  • गेट्स के अनुसार, “अनुभव द्वारा व्यवहार में रूपान्तर लाना ही अधिगम है।”
  • ई.पी. पील के अनुसार, “अधिगम व्यक्ति में एक परिवर्तन है, जो उसके वातावरण के परिवर्तनों के अनुसरण में होता है।”
  • क्रो एवं क्रो के अनुसार, “सीखना, आदतों, ज्ञान एवं अभिवृत्तियों का अर्जन है। इसमें कार्यों को करने के नवीन तरीके सम्मिलित हैं और इसकी शुरूआत व्यक्ति द्वारा किसी भी बाधा को दूर करने अथवा नवीन परिस्थितियों में अपने समायोजन को लेकर होती है। इसके माध्यम से व्यवहार में उत्तरोत्तर परिवर्तन होता रहता है। यह व्यक्ति को अपने अभिप्राय अथवा लक्ष्य को पाने में समर्थ बनाती हैं।”  सभी बच्चे स्वभाव से ही सीखने के लिए प्रेरित रहते हैं और उनमें सीखने की क्षमता होती है।
  • अर्थ निकालना, अमूर्त सोच की क्षमता विकसित करना, विवेचना व कार्य, अधिगम या सीखने या सीखने की प्रक्रिया के सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू हैं।
  • बच्चे व्यक्तिगत स्तर पर एवं दूसरों से भी विभिन्न तरीकों से सीखते हैं। अनुभव के माध्यम से, प्रयोग करने से, पढ़ने, विमर्श करने, पूछने, सुनने, उस पर सोचने व मनन करने से तथा गतिविधि या लेखन के जरिए अभिव्यक्ति करने से। अपने विकास के मार्ग में उन्हें ये सभी तरह के अवसर मिलने चाहिएँ।
  • बच्चों मानसिक रूप तैयार हों, उससे पहले ही उन्हें पढ़ा देना, बाद की अवस्थाओं में उनमें सीखने की प्रवृत्ति को प्रभावित करता है। उन्हें बहुत-से तथ्य ‘याद‘ तो रह सकते हैं लेकिन सम्भव है कि वे न तो उन्हें समझ पाएँ, न ही उन्हें अपने आस-पास की दुनिया से जोड़ पाएँ।
  • स्कूल के भीतर और बाहर, दोनों जगहों पर सीखने की प्रक्रिया चलती है। इन दोनों जगहों में यदि सम्बन्ध रहे तो सीखने की प्रक्रिया पुष्ट होती है।
  • कला और कार्य, समग्र सीखने के अवसर प्रदान करते हैं जो सौन्दर्यबोध से पुष्ट होता है। ऐसे अनुभव भाषायी रूप से ज्ञात चीजों के लिए महत्वपूर्ण हैं विशेषकर नैतिक  मुद्दों में ताकि प्रत्यक्ष अनुभवों से सीखा जा सके और जीवन में समाहित किया जा सके।
  • सीखना किसी की मध्यस्थता या उसके बिना भी हो सकता है। प्रत्यक्ष रूप से सीखने से सामाजिक सन्दर्भ व संवाद विशेषकर अधिक सक्षम लोगों से संवाद विद्यार्थियों को उनके स्वयं के उच्च संज्ञानात्मक स्तर पर कार्य करने का मौका देते हैं।
  • सीखने की एक उचित गति होनी चाहिए ताकि विद्यार्थी अवधारणाओं को रट कर और परीक्षा के बाद सीखे हुए को भूल न जाएँ बल्कि उसे समक्ष सकें और आत्मसात कर सकें। साथ ही सीखने में विविधता व चुनौतियाँ होनी चाहिएँ ताकि वह बच्चों को रोचक लगें और उन्हें व्यस्त रख सकें। ऊब महसूस होना इस बात का संकेत है कि उस कार्य को बच्चा अब यान्त्रिक रूप से दोहरा रहा है और उसका संज्ञानात्मक मूल्य खत्म हो गया है।

बच्चों में सीखने के नियम अथवा सिद्धान्त  Laws of Learning in Children

तत्परता का नियम  Law of Readiness

  • इस नियम का प्रतिपादन थॉर्नडाइक ने किया था। इस नियम का अभिप्राय यह है कि यदि बालक किसी कार्य को सीखने के लिए तत्पर या तौयर होते हैं, तो वह उसे शीघ्र ही सीख लेते हैं। तत्परता में कार्य करने की इच्छा निहित रहती है। यदि बालक में गणित के प्रश्न करने की तीव्र इच्छा हो, तो वह उनको करता है, अन्यथा नहीं। इतना ही नहीं, तत्परता के कारण वह उनको अधिक शीघ्रता और कुशलता से करता है। तत्परता उसके ध्यान को कार्य पर केन्द्रित करने में सहायता देती है, जिसके फलस्वरूप वह उसे सम्पन्न करने में सफल होता है।

अभ्यास का नियम Law of Practical

  • इस नियम का प्रतिपादन भी थॉर्नडाइक ने ही किया था। इस नियम का अभिप्राय है कि यदि बालक कार्य को बार-बार करता रहे, तो वह उस कार्य में अन्य सामान्य बालक की अपेक्षा अधिक निपुण हो जाता है।

प्रभाव का नियम Law of Effect

  • थॉर्नडाइक के इस नियम के अनुसार बालक उस कार्य को सीखना चाहते हैं, जिसका परिणाम हमारे लिए हितकर होता है या जिससे बालकों को सुख और सन्तोष मिलता है। यदि बालकों को किसी कार्य को करने या सीखने में कष्ट होता है, तो बालक उसको करते या सीखने नहीं हैं। वाशबर्न के अनुसार, “जब सीखने का अर्थ किसी उद्देश्य या इच्छा को सन्तुष्ट करना होता है, तब सीखने में सन्तोष का महत्वपूर्ण स्थान होता है।”

सीखने का प्रबलन सिद्धान्त Reinforcement Theory of Learning

  • इस सिद्धान्त का प्रतिपादन अमेरिकी मनोवैज्ञानिक सी.एल.हल द्वारा किया गया था। इस सिद्धान्त के अनुंसार, “सीखने का आधार आवश्यकता की पूर्ति की प्रक्रिया है। “जब बालक की किसी आवश्यकता की पूर्ति नहीं होती है, तब उसमें असन्तुलन उत्पन्न हो जाता है, उदाहरण के लिए भोजन की आवश्यकता पूर्ण न होने पर बालक में तनाव उत्पन्न हो जाता है, उसके फलस्वरूप उसकी दशा असन्तुलित हो जाती है। साथ ही, भूख की चालक शक्ति उसे भोजन प्राप्त करने के लिए क्रियाशील बना देती है अर्थात् प्रबलन बनता है। कुछ समय के बाद वह ऐसी स्थिति में पहुँच जाता है जब उसकी भोजन की आवश्यकता सन्तुष्ट हो जाती है। इसके फलस्वरूप, भूख के चालक की शक्ति कम हो जाती है।

लैंगिक भेदभाव । Gender discrimination in hindi

लैंगिक भेदभाव या लैंगिक असमानता समाज की वो कुरीति है जिसकी वजह से महिलाएं उस सामाजिक दर्जे से हमेशा वंचित रही जो दर्जा पुरुष वर्ग को प्राप्त है।

आज ये एक ज्वलंत मुद्दा है। इस लेख में लैंगिक भेदभाव (Gender discrimination) पर सरल और सहज चर्चा करेंगे एवं इसके विभिन्न महत्वपूर्ण पहलुओं को समझने का प्रयास करेंगे।

लैंगिक भेदभाव क्या है?

स्त्री-पुरुष मानव समाज की आधारशिला है। किसी एक के अभाव में समाज की कल्पना नहीं की जा सकती, लेकिन इसके बावजूद लैंगिक भेदभाव एक सामाजिक यथार्थ है। लैंगिक भेदभाव से आशय लैंगिक आधार पर महिलाओं के साथ भेदभाव से है, जहां स्त्रियों को पुरुषों के समान अवसर नहीं मिलता है और न ही समान व्यवहार। स्त्रियों को एक कमजोर वर्ग के रूप में देखा जाता है और उसे शोषित और अपमानित किया जाता है। इस रूप में स्त्रियों के साथ भेदभाव पूर्ण व्यवहार को लैंगिक भेदभाव (gender discrimination) कहा जाता है।

लैंगिक भेदभाव की शुरुआत कहाँ से होती है?

इसकी शुरुआत परिवार से ही समाजीकरण (Socialization) के क्रम में प्रारंभ होती है, जो आगे चलकर पोस्ट होती जाती है। परिवार  मानव की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक है। यह समाज का आधारशिला है। समाज में जितने भी छोटे-बड़े संगठन हैं, उनमें परिवार का महत्व सबसे अधिक है यह मानव की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति से संबंधित है।

व्यक्ति जन्म से जैविकीय प्राणी होता है और जन्म से ही लिंगों के बीच कुछ विशेष भिन्नताओं  को स्थापित और पुष्ट करती है। बचपन से ही लड़कों व लड़कियों के लिंग-भेद के अनुरूप व्यवहार करना, कपड़ा पहनना एवं खेलने के ढंग आदि सिखाया जाता है। यह प्रशिक्षण निरंतर चलता रहता है, फिर जरूरत पड़ने पर लिंग अनुरूप सांचे में डालने  के लिए बाध्य किया जाता है तथा यदा-कदा सजा भी दी जाती है।

बालक व बालिकाओं के खेल व खिलौने इस तरह से भिन्न होते हैं कि समाज द्वारा परिभाषित नर-नारी के धारणा के अनुरूप ही उनका विकास हो सके। सौंदर्य के प्रति अभिरुचि  की आधारशिला भी बाल्यकाल  से ही लड़की के मन में अंकित कर दी जाती है, इस प्रक्रिया में बालिका के संदर्भ में सौंदर्य को बुद्धि की तुलना में प्राथमिकता दी जाती है। कहने का अर्थ ये है कि जहां समाज में लड़कों के बौद्धिक क्षमताओं को प्राथमिकता दी जाती है वहीं लड़कियों के बौद्धिक क्षमताओं को दोयम दर्जे का समझ जाता है।

समाज द्वारा स्थापित ऐसी अनेक संस्थाएं या व्यवस्थाएं हैं जो नारी की प्रस्थिति को निम्न बनाने में सहायक होती है, जैसे कि –

(1) पितृ-सतात्मक समाज (Patriarchal society)

पितृ-सतात्मक भारतीय समाज आज भी महिलाओं की क्षमताओं को लेकर, उनकी आत्म-निर्भरता के सवाल पर पूर्वाग्रहों से ग्रसित है। स्त्री की कार्यक्षमता और कार्यदक्षता को लेकर तो वह इस कदर ससंकित है कि नवाचार को लेकर उनके किसी भी प्रयास को हतोत्साहित करता दिखता है।

देश में आम से लेकर ख़ास व्यक्ति तक लगभग सभी में यह दृष्टिकोण व्याप्त है कि स्त्री का दायरा घर की चारदीवारी तक ही होनी चाहिए। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि स्त्रियों की लिंग-भेद आधारित काम एवं अधीनता जैसी असमानता जैविक नहीं बल्कि सामाजिक – सांस्कृतिक मूल्यों, विचारधाराओं और संस्थाओं की देन है।

आज सामाजिक असमानता एक सार्वभौमिक तथ्य है और यह प्रायः सभी समाजों की विशेषता रही है भारत की तो यह एक प्रमुख समस्या है। यहाँ जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में जितनी सुविधाएं एवं स्वतंत्रता पुरुषों को प्राप्त है उतनी स्त्रियों को नहीं। इस बात की पुष्टि विश्व आर्थिक मंच द्वारा जारी 15वीं वैश्विक लैंगिक असमानता सूचकांक 2021 की रिपोर्ट से हो जाती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत 156 देशों की सूची में 140वें स्थान पर है। भारत की स्थिति इस मामले में कितनी ख़राब है इसका पता इससे चलता है कि नेपाल, भूटान, बांग्लादेश और श्रीलंका भी भारत से अच्छी स्थिति में है।

(2) लड़का और लड़की के शिक्षा में अंतर

यदि हम भारत में लड़कियों की शिक्षा की बात करें तो स्वतंत्रता के बाद अवश्य ही लड़कियों की साक्षरता दर बढ़ी है, लेकिन लड़कियों को शिक्षा दिलाने में वह उत्साह नहीं देखी जाती है। भारतीय परिवार में लड़के की शिक्षा पर धन व्यय करने की प्रवृति है क्योंकि वे सोचते है कि ऐसा करने से ‘धन’ घर में ही रहेगा

जबकि बालिकाओं के शिक्षा के बारे में उनके माता–पिता की यह सोच है कि उन्हें शिक्षित करके आर्थिक रूप से हानि ही होगी क्योंकि बेटी तो एक दिन चली जाएगी। शायद इसीलिए भारत में महिला साक्षरता की दर पुरुषों की अपेक्षा इतनी कम है:

सन् 1991 की जनगणना के अनुसार महिला साक्षरता की दर 32 प्रतिशत एवं पुरुष साक्षरता 53 प्रतिशत थी। 2001 की जनगणना के अनुसार पुरुष साक्षरता 76 प्रतिशत थी तो महिलाओं की साक्षरता 54 प्रतिशत थी। 2011 की जनगणना के अनुसार पुरुष साक्षरता 82.14 प्रतिशत है एवं महिला साक्षरता 65.46 प्रतिशत है। जिनमें आन्ध्र-प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश में स्त्री पुरुष साक्षरता में 25 प्रतिशत का अंतर हैं।

इस सब के बावजूद भी जो लडकियाँ आत्मविश्वास से शिक्षित होने में सफल हो जाती है और पुरुषों के समक्ष अपना विकास करना चाहती है, उन्हें पुरुषों के समाज में उचित सम्मान तक नहीं मिलता है। यहाँ तक कि नौकरियों में महिला कर्मचारियों को पुरुषों के मुकाबले कम वेतन मिलता है। इस बात की पुष्टि लिंक्डइन अपार्च्युनिटी सर्वे-2021 से होती है। इस सर्वे के अनुसार देश की 37 प्रतिशत महिलाएं मानती हैं कि उन्हें पुरुषों की तुलना में कम वेतन मिलता है, जबकि 22 प्रतिशत महिलाओं का कहना है कि उन्हें पुरुषों की तुलना में वरीयता नहीं दी जाती है।

लड़कियों के प्रति किया जाने वाला यह भेदभाव बचपन से लेकर बुढ़ापे तक चलता है। शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में यह भेदभाव अधिक देखने को मिलता हैं। अनुमान है की भारत में हर छठी महिला की मृत्यु लैंगिक भेदभाव के कारण होती हैं।

(3) लैंगिक भेदभाव को प्रोत्साहन देने वाली मानसिकता

अनेक पुरुष-प्रधान परिवारों में लड़की को जन्म देने पर माँ को प्रतारित किया जाता हैं। पुत्र प्राप्ति के चक्कर में उसे बार-बार गर्भ धारण करना पड़ता हैं और मादा भ्रूण होने पर गर्भपात करना पड़ता हैं। यह सिलसिला वर्षो तक चलता रहता है चाहे महिला की जान ही क्यों न चला जाए। यही कारण है जिससे प्रति हज़ार पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या हमेशा कम रही है।

जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि 1901 में प्रति हजार पुरुषों पर 972 औरतें थी। 1951 में औरतों की संख्या प्रति हजार 946 हो गई, जो कि 1991 तक आते-आते सिर्फ 927 रह गई। सन् 2001 की जनगणना की रिपोर्टों के अनुसार यह संख्या 933 हुई और 2011 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार ये 940 तक पहुंची है।

इस घटते हुए अनुपात का प्रमुख कारण समाज का नारी के प्रति बहुत ही संकीर्ण मानसिकता है। अधिकांश परिवार यह सोचते हैं की लड़कियां न तो बेटों के समान उनके वृद्धावस्था का सहारा बन सकती है और ना ही दहेज ला सकती है। इस प्रकार की मानसिकता वाले समाज में महिलाओं के लिए रहना कितना दुष्कर होगा; ये सोचने वाली बात है।

(4) लैंगिक भेदभाव के अन्य कारक

▪️ वैधानिक स्तर पर पिता की संपत्ति पर महिलाओं का पुरुषों के समान ही अधिकार है लेकिन आज भी भारत में व्यावहारिक स्तर पर पारिवारिक संपत्ति में महिलाओं के हक़ को नकार दिया जाता है।

▪️ राजनैतिक भागीदारी के मामलों में अगर पंचायती राज व्यवस्था को छोड़ दें तो उच्च वैधानिक संस्थाओं में महिलाओं के लिये किसी प्रकार के आरक्षण की व्यवस्था नहीं है। संसद में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण का बिल अभी भी अधर में लटका हुआ है।

▪️ कुछ राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों जैसे कि मध्य प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश एवं चंडीगढ़ आदि को छोड़ दें तो वर्ष 2017-18 के आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (Periodic Labour Force Survey) के अनुसार, भारतीय अर्थव्यवस्था में महिला श्रम शक्ति (Labour Force) और कार्य सहभागिता (Work Participation) की दर में कमी आयी है।

▪️ महिलाओं के द्वारा किए गए कुछ कामों को सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में नहीं जोड़ा जाता है जैसे कि महिलाओं द्वारा परिवार के खेतों और घरों के भीतर किये गए अवैतनिक कार्य (जैसे खाना बनाना, बच्चे की देखभाल करना आदि)। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का एक अध्ययन बताता है कि अगर भारत में महिलाओं को श्रमबल में बराबरी मिल जाए तो GDP में 27 प्रतिशत तक का इजाफा हो सकता है।

लैंगिक भेदभाव को कैसे समाप्त किया जा सकता है?

▪️ कहने को तो लड़के और लड़कियाँ एक ही सिक्के के दो पहलू है पर लड़कियाँ सिक्के का वो पहलू है, जिन्हें दूसरे पहलू (लड़कों) द्वारा दबाकर रखा जाता हैं। समस्या की मूल जड़ इसी सोच के साथ जुड़ी है, जहां लड़कों को बचपन से यही सिखाया जाता है कि वे परिवार के भावी मुखिया हैं और लड़कियों को यह बताया जाता है कि वे तभी अच्छी मानी जाएंगी, जब वे हर स्थिति में पहली प्राथमिकता परिवार को देंगी।

‘प्रभुत्व’ का भाव पुरुषों के हिस्से और देखभाल का भाव स्त्री के हिस्से मान लिया जाता है। ये दोनों भाव पुरुष और स्त्री के व्यक्तित्व को ऐसे गढ़ देते हैं कि वे इस खोल से निकलने की कोशिश ही नहीं करते। इसके लिए पुरुष वर्ग को खुद आगे बढ़कर अपने प्रभुत्व के भाव को स्त्रियों के साथ साझा करना होगा और उन कामों को जिसे स्त्रियों का माना जाता है उसमें सहयोग करना होगा।

▪️ यूनीसेफ का कहना है कि घर व बाहर, दोनों जगह के कार्यों का दबाव स्त्रियों को शारीरिक और मानसिक रूप से बीमार कर रहा है, ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि – घर के काम में पुरुष सदस्य सहयोग करें, पिता का दायित्व सिर्फ आर्थिक दायित्वों की पूर्ति से ऊपर उठकर बच्चों की देखभाल तक हो। इससे समानता का भाव बढ़ेगा और स्त्री खुद को अन्य जरूरी कामों में संलग्न कर पाएगी।

▪️ भारतीय समाज में स्त्री को बड़े ही आदर्श रूप में प्रस्तुत किया गया है। देवियों के विभिन्न रूपों में सरस्वती, काली, लक्ष्मी, दुर्गा आदि का वर्णन मिलता है। यहाँ तक की भारत को भी भारतमाता के रूप में जाना जाता है। परन्तु व्यवहार में स्त्रियों को उचित सम्मान तक नहीं मिलता है। इसके लिए पुरुष वर्ग को अपनी मानसिकता में बदलाव लाना होगा ताकि वे स्त्रियों को उसी सम्मान और आदर के भाव से देखें जो वह खुद अपने लिए अपेक्षा करता है।

▪️ लड़कियों को उच्च शिक्षाकौशल विकासखेल कूद आदि में प्रोत्साहन देकर सशक्त बनाया जा सकता है। इसके लिए समाज को लड़कियों के प्रति अपनी धारणा व सोच बदलनी पड़ेगी और सरकार को भी उचित कानून बनाकर या जागरूकता या निवेश के जरिये महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देना होगा।

▪️ चूंकि लड़कियों को शुरू से ही काफी असमानताओं का सामना करना पड़ता है इसीलिए हमें लड़कियों को एक प्लैटफ़ार्म देना होगा जहाँ वे अपनी चुनौतियों को साझा कर सके, अपने लिए एक सही विकल्प तलाश कर सकें और अपने वैधानिक अधिकार, कर्तव्य एवं शक्तियों को पहचान सकें।

लैंगिक असमानता को समाप्त करने के लिए किया जा रहा प्रयास

▪️ बालिकाओं के संरक्षण और सशक्तिकरण के उद्देश्य से जनवरी 2015 में ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान की शुरुआत की गई। जो कि बेटियों के अस्तित्व को बचाने एवं उसका संरक्षण करने की दिशा में बहुत बड़ा कदम माना जाता है। इसके साथ ही वन स्टॉप सेंटर योजना’, ‘महिला हेल्पलाइन योजना’ और ‘महिला शक्ति केंद्र’ जैसी योजनाओं के द्वारा महिला सशक्तीकरण का सरकारी प्रयास सराहनीय है।

▪️ सरकारी योजनाओं का लाभ सीधे महिलाओं तक पहुंचे इसके लिए जेंडर बजटिंग का चलन बढ़ रहा है। दरअसल जब किसी देश के बजट में महिला सशक्तीकरण के लिए अलग से धन आवंटित किया जाये तो उसे जेंडर बजटिंग कहा जाता है।

▪️ यूनिसेफ इंडिया द्वारा लैंगिक समानता स्थापित करने की दिशा में काफी कुछ किया जा रहा है। इसके लिए देश में 2018-2022 तक चलने वाले कार्यक्रम का निर्माण किया गया है जिसके तहत लिंग आधारित असमानता एवं विकृत्यों को चिन्हित कर उसका उन्मूलन करने का प्रयास किया जाएगा।

कुल मिलाकर लैंगिक भेदभाव को मिटाने के लिए काफी कुछ किया गया है और काफी कुछ अभी भी किए जाने की जरूरत है। खासकर के समान वेतन, मातृत्व, उद्यमिता, संपत्ति और पेंशन जैसे मामलों में लैंगिक भेदभाव को खत्म करने के लिए आगे कड़े प्रयत्न करने होंगे। महिलाओं में आत्मविश्वास और स्वाभिमान का भाव पैदा हो इसके लिए पुरुषों के समान अधिकार और आर्थिक स्वतंत्रता को सुदृढ़ करना होगा।

शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 RTE act 2009 in hindi

शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 क्या है what is RTE act 2009 in hindi 

शिक्षा के अधिकार अधिनियम की एक बहुत ही लंबी कहानी है। प्रारंभ में भारत के संविधान के अनुच्छेद 45 में शिक्षा की घोषणा की गई थी।

कि सभी राज्य संविधान के प्रारंभ से 10 वर्ष की कालावधी के अंदर सभी बालक और बालिकाओं को 14 वर्ष की आयु समाप्ति तक निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा प्रदान करेगी

और तभी से राज्यों ने 14 वर्ष तक के बच्चों को अनिवार्य और निशुल्क शिक्षा व्यवस्था के प्रयास शुरू कर दिए।

आगे चलकर 2002 में 86 वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान में एक नया अनुच्छेद 21क को जोड़ दिया गया जो निम्न प्रकार से है:- 

राज्य 6 वर्ष से 14 वर्ष तक की आयु वाले सभी बालकों के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने की एक ऐसी नीति बनाएगा जो राज्य विधि द्वारा आधारित और उपबंध हो

और इसी 86 वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान के भाग 4 क में वर्णित मूल कर्तव्यों में एक नया मूल कर्तव्य 51 (ट) जोड़ा गया जो इस प्रकार से है:- 

माता-पिता या संरक्षक 6 से 14 वर्ष तक की आयु वाले अपने यथास्थिति बालक या प्रतिपाल्य के लिए शिक्षा के अवसर प्रदान करें

आगे चलकर 2009 में बालकों को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 पास किया गया।

जिसे संक्षेप में शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 RTE act 2009 in hindi कहते हैं। इस अधिनियम के अनुसार सभी वर्ग के 6 से 14 आयु वर्ग के बच्चों को

कक्षा 1 से 8 तक की नि:शुल्क शिक्षा प्राप्त करने का मूल अधिकार होगा। सरकार ने 1 अप्रैल 2010 से इस कानून को लागू कर दिया।

शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 कब लागू हुआ when the Right to Education Act 2009 came into force 

शिक्षा का अधिकार अधिनियम को अंग्रेजी में RTE act 2009 ( right to Education Act 2009) कहा जाता है।

जिसका सामान्य अर्थ right of children to compulsory and free Education Act 2009 है।

अर्थात शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 सभी जातियों के बालक तथा बालिकाओं को जो 6 से 14 वर्ष के हो उन्हें नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार प्रदान करता है।

शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 को 4 अगस्त 2009 को लोकसभा में बहुमत से पारित कर दिया गया था तथा यह 1 अप्रैल 2010 से पूरे भारत में लागू हो गया। 

आरटीई एक्ट 2009 का उद्देश्य Goal of RTE Act 2009

भारत एक लोकतांत्रिक और संवैधानिक देश है, क्योंकि भारत का कानून हमारे संविधान पर ही आधारित है। हमारे संविधान के द्वारा ही मनुष्य को मौलिक कर्तव्य और मौलिक अधिकार प्राप्त हुए हैं।

इसके द्वारा व्यक्ति अपने समुचित विकास में समाज देश तथा व्यक्तिगत प्रयास कर सकता है। किंतु किसी भी नागरिक का विकास तब तक संभव नहीं है,

जब तक वह शिक्षित ना हो इसीलिए शिक्षा का अधिकार अधिनियम RTE act 2009 को लाया गया। जिसका मुख्य उदेश्य 6 से 14 वर्ष के बालक बालिकाओं की नि:शुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान रखा गया है।

इसलिए आरटीई एक्ट 2009 का उद्देश्य सभी वर्ग के बालक बालिकाओं को जो 6 से 14 वर्ष के हों, उन्हें राज्य सरकार द्वारा नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराएगी।

शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 की विशेषताएँ Features of Right to Education Act 2009

संक्षिप्त नाम – इस अधिनियम का संक्षिप्त नाम शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 ( right to Education Act 2009) है

परिभाषाएँ – इस अधिनियम में प्रयुक्त विशेष शब्दों को परिभाषित किया गया है, जिसका स्पष्टीकरण हमने आगे संदर्भ में निम्न प्रकार से किया है:- 

निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा – किसी भी वर्ग के बालक और बालिकाओं को यह अधिकार होगा कि वे अपनी प्रारंभिक शिक्षा आसपास के

किसी भी विद्यालय से निशुल्क प्राप्त कर सकते हैं। बशर्ते वह बालक और बालिका 6 से 14 वर्ष के अंतराल में ही आते हो।  

प्रवेश ना दिए गए बालकों को या जिन्होंने प्राथमिक शिक्षा पूरी नहीं की है के लिए विशेष उपबंध – यदि कोई बच्चा ऐसा है, जो 6 वर्ष की आयु पर किसी विद्यालय में प्रवेश नहीं ले सका है तो वह बालक बाद में अपनी उम्र के अनुसार कक्षा में प्रवेश ले सकता है।

यदि वह निर्धारित 14 वर्ष की आयु तक प्राथमिक शिक्षा पूरी नहीं कर पाता है, तो उसके बाद भी वह पढ़ाई पूरी होने तक निशुल्क शिक्षा प्राप्त करता रहेगा।

अन्य विद्यालय में स्थानांतरण का अधिकार – यदि किसी स्कूल में प्रारंभिक शिक्षा पूरा करने का प्रावधान नहीं है अथवा किसी भी कारणवश

कोई छात्र एक स्कूल से दूसरे स्कूल जाना चाहता है तो उसे किसी दूसरे स्कूल में स्थानांतरण का अधिकार प्रदान होगा।

राज्य सरकारों और स्थानीय पदाधिकारियों को विद्यालय स्थापित करने के कर्तव्य – इस अधिनियम के लागू होने के 3 सालों के भीतर राज्य सरकारों और स्थानीय अधिकारियों को

पड़ोस के स्कूलों को स्थापित करना होगा जिस क्षेत्र में एक स्कूल नहीं है वहाँ स्कूलों को बनाना होगा।

वित्तीय तथा अन्य उत्तरदायित्व में हिस्सा बांटना – केंद्र सरकार इस अधिनियम को लागू करने में आने वाले खर्चों की एस्टीमेट तैयार करेगी

और राज्य सरकारों को आवश्यक तकनीकी सहायता और साधन उपलब्ध कराएगी जिससे विद्यालय स्थापित किए जा सकेंगे हैं।

राज्य सरकारों के कर्तव्य – राज्य सरकार 6 वर्ष से 14 वर्ष के प्रत्येक बच्चे का प्रवेश और उपस्थिति निश्चित करेगी। साथ ही यह भी वह सुनिश्चित करेगी

कि कमजोर और वंचित वर्गों के बच्चों के साथ कोई भी भेदभाव ना हो सके। राज्य सरकार विद्यालय भवन, शिक्षक और शिक्षण सामग्री सहित आधारभूत संरचना की उपलब्धता निश्चित करेंगी

और बच्चों को उन्नत किस्म की शिक्षा और शिक्षकों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम भी उपलब्ध कराएगी ताकि शिक्षा के स्तर में सुधार लाया जा सके।

स्थानीय पदाधिकारियों के कर्तव्य – स्थानीय पदाधिकारी उपर्युक्त धारा 8 में वर्णित राज्य सरकार समस्त कर्तव्यों के साथ-साथ

अपने क्षेत्र में बालकों का अभिलेख करेगी विद्यालयों के कामकाज की निगरानी सुनिश्चित होगी और शैक्षिक कैलेंडर तैयार होंगे।

माता पिता और संरक्षक का कर्तव्य – प्रत्येक अभिभावक और माता-पिता का यह उत्तरदायित्व कर्तव्य होगा कि वे 6 से 14 वर्ष तक के अपने बच्चों को विद्यालय पढ़ने के लिए जरूर भेजें।

राज्य सरकारों का विद्यालय पूर्व शिक्षा के लिए व्याख्या करना – 3 वर्ष की आयु से ऊपर के बच्चों को प्रारंभिक शिक्षा के लिए तैयार करना और जन्म से 6 वर्ष तक के बालकों के लिए

आरंभिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा के लिए राज्य सरकार एवं स्थानीय प्राधिकारी जरूरी इंतजाम भी करेंगे।

निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के लिए विद्यालय के उत्तर की सीमा – सरकारी विद्यालय तो निशुल्क शिक्षा प्रदान करेंगे ही और साथ ही निजी

और विशेष श्रेणी वाले विद्यालय को भी आर्थिक रूप से निर्बल समुदाय के बच्चों के लिए पहली कक्षा में 25% स्थान आरक्षित करने होंगे।

प्रवेश के लिए किसी प्रति व्यक्ति फीस और अनुवीक्षण प्रक्रिया का ना होना – सरकारी विद्यालय ना तो दान याचना लेगा और ना ही बच्चे के चयन के लिए कोई प्रणाली अपना सकेगा।

प्रवेश के लिए आयु का सबूत – जन्म प्रमाण पत्र के अभाव में किसी भी बच्चे को प्रवेश देने से इनकार नहीं किया जाएगा।

प्रवेश से इंकार ना करना – स्कूल में प्रवेश तिथि के निकल जाने के बाद भी किसी बालक को प्रवेश देने से इनकार नहीं किया जा सकता।

रोकने और निष्कासन का प्रावधान – किसी भी बच्चे को किसी कक्षा में रोका नहीं जाएगा और ना ही स्कूल से निष्कासित किया जाएगा।

बालक को शारीरिक दंड और मानसिक उत्पीड़न का प्रतिसेध – बालक को किसी भी प्रकार की शारीरिक और मानसिक यातनाएँ विद्यालय में नहीं दी जाएगी।

मान्यता प्रमाण पत्र प्राप्त किए बिना किसी विद्यालय का स्थापित ना किया जाना – बिना मान्यता प्राप्त किए कोई भी स्कूल नहीं चलाया जाएगा और उन स्कूलों को मान्यता दी जाएगी जो धारा 19 में वर्णित मानक पूरे करते हो।

विद्यालय के मान और मानक – जो स्कूल अधिनियम लागू होने से पूर्व स्थापित हो चुके थे तथा निर्धारित मानक पूरे नहीं करते हैं उन्हें अधिनियम लागू होने के 3 वर्ष के अंदर समस्त मानक पूरे करने होंगे।

अनुसूची का संशोधन करने की शक्ति – केंद्रीय सरकार अधिसूचना द्वारा किसी मान और मानकों की अनुसूची में परिवर्तन या लोप करके उसका संशोधन भी कर सकती है।

विद्यालय प्रबंधन समिति – अनुदान ना पाने वाले निजी स्कूलों को छोड़कर सभी स्कूल एक स्कूल प्रबंधन समिति का गठन करेंगे।

जिसमें जनप्रतिनिधि अभिभावक और शिक्षक शामिल होंगे यह समिति स्कूल के कामकाज का मॉनिटर जैसे कार्य करेगी।

विद्यालय विकास योजना – धारा 21 में वर्णित विद्यालय प्रबंध समिति स्कूल विकास की योजना बनाने और उसकी संतुति करने का कार्य करेगी।

शिक्षकों की नियुक्ति के लिए योग्यतायें और सेवा के निबंधन और शर्तें – शिक्षकों की नियुक्ति के लिए न्यूनतम योग्यता का निदान केंद्र सरकार के द्वारा किया जाएगा।

छात्र शिक्षक अनुपात – इस अधिनियम के लागू होने के 6 महीने बाद राज्य सरकार और स्थानीय अधिकारियों को यह सुनिश्चित करना होगा

कि विद्यालय में शिक्षक छात्र अनुपात प्राध्यापक को जोड़कर एक अनुपात 40 से अधिक ना हो अर्थात 1 शिक्षक पर 40 छात्र 

शिक्षकों की रिक्तियों का भरा जाना – राज्य सरकार और स्थानीय सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि किसी स्कूल में शिक्षक के रिक्त पद स्वीकृत पद संख्या के 10 फीसद से अधिक ना हो।

गैर शैक्षिक प्रयोजनों के लिए शिक्षकों को अभिनियोजित किए जाने का प्रतिषेध – शिक्षकों से गैरशैक्षिक कार्यक्रमों के क्रियाकलापों में स्वयं को नहीं लगाया जायेगा। 

पाठ्यक्रम और मूल्यांकन प्रक्रिया – सरकार द्वारा निर्दिष्ट शिक्षा प्राधिकार (परिषद) संविधान में निहित मूल्यों के अनुसार इसका निर्धारण करेगा

और बच्चे के बहुमुखी विकास पर ध्यान देने के साथ-साथ उसे भय, कष्ट और चिंता से मुक्त करने का भी काम करेगा। जबकि मूल्यांकन व्यापक और सतत प्रकार का होगा।

परीक्षा और समापन प्रमाण पत्र – किसी बच्चे को प्रारंभिक शिक्षा पूर्ण होने से पहले बोर्ड की कोई परीक्षा नहीं देनी होगी, प्रारंभिक शिक्षा पूर्ण करने के बाद प्रत्येक बच्चे को प्रमाण पत्र भी दिया जाएगा।

बालक के शिक्षा के अधिकार को मॉनिटर करना – बाल अधिकार संरक्षण आयोग अधिनियम 2005 के प्रावधानों के अंतर्गत

गठित राष्ट्रीय राज्य बाल संरक्षण आयोग इस अधिनियम के तहत प्रदत्त अधिकारों का परीक्षण और देखभाल की समीक्षा करेगी।

शिकायतों को दूर करना – उपर्युक्त धारा 31 में वर्णित बाल संरक्षण आयोग नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा के बच्चे के अधिकार के संबंध में प्राप्त शिकायतों की जांच करेगी।

राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का गठन – प्रस्तावित राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का गठन केंद्र सरकार करेगी। इसका काम अधिनियम के प्रावधानों को प्रभावकारी ढंग से लागू करना तथा इसके बारे में केंद्र सरकार को परामर्श देना होगा।

राज्य सलाहकार परिषद का गठन – प्रस्तावित राज्य सलाहकार परिषद का गठन राज्य सरकारें करेंगी। इसका काम अधिनियम के प्रावधानों को प्रभावकारी ढंग से लागू करना और राज्य सरकार को परामर्श देना होगा।

निर्देश जारी करने की शक्ति – धारा 35 के अंतर्गत केंद्र सरकार राज्य सरकार को राज्य सरकार स्थानीय अधिकारियों को तथा

स्थानीय अधिकारी स्कूल प्रबंधन समितियों को अधिनियम के कार्यान्वयन के संबंध में मार्गदर्शन सिद्धांत जारी करेंगे और निर्देश दे सकेंगे।

अभिनियोजन नियोजन के लिए पूर्व मंजूरी – अधिनियम का पालन न करने पर धारा 13, 18 और 19 के तहत दंडनीय अपराध के लिए कोई भी

अभियोजन समुचित सरकार दादा तो सरकारी अधिकारी की पूर्व मंजूरी के करना संशिथित नहीं किया जाएगा।

सद्भावपूर्वक की गई कार्रवाई के लिए संरक्षण – इस अधिनियम के द्वारा या बाबत बनाए गए नियमों और आदेशों के पालन में सरकार, आयोग, स्थानीय अधिकारी

स्कूल प्रबंधन समितिया अधिनियम से जुड़े किसी व्यक्ति द्वारा सच्चे विश्वास के साथ किए गए कार्य पर कोई मुकदमा आया वैधिक प्रक्रिया नहीं चलाई जा सकेगी।

राज्य सरकारों के नियम बनाने की शक्ति – राज्य सरकार अधिनियम के उपबंधों के कार्यान्वयन के लिए नियम अधिसूचना द्वारा बना सकेगी।

अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक कौन-कौन से हैं factors affecting learning in hindi

सीखने को प्रभावित करने वाले कारक या अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक(factors affecting learning in hindi)

अधिगम को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं-
A. विद्यार्थी से संबंधित कारक
B. शिक्षक से संबंधित कारक
C. विषय वस्तु से संबंधित कारक
D. वातावरण से संबंधित कारक

A. विद्यार्थी से संबंधित कारक (factors related to students):

विद्यार्थी से संबंधित कारक निम्नलिखित हैं:
१. शारीरिक स्वास्थ्य
२. मानसिक स्वास्थ्य
३. सीखने की इच्छा
४. सीखने की समय
५. सीखने में तत्पर्यता
६. विद्यार्थी या बालक की मूलभूत क्षमता
७. बुद्धि स्तर
८. रूचि
९.अभिप्रेरणा का स्तर

१. शारीरिक स्वास्थ्य(physical health)

किसी भी कार्य को सीखने में विद्यार्थी का शारीरिक स्वास्थ्य बहुत ही महत्वपूर्ण होता है यदि बालक शारीरिक रूप से स्वस्थ होगा तो वह अपने अधिगम में रुचि लेगा इसके विपरीत यदि बालक को कोई शारीरिक कष्ट होता है तो उसका पूरा ध्यान उसी में लगा रहता है और वह अपने कार्य में समंग रूप से ध्यान नहीं लगा पता अतः अधिगम(learning) के लिए बालक का शारीरिक रूप से स्वस्थ होना अति आवश्यक है।

२. मानसिक स्वास्थ्य(mental health)

किसी भी कार्य को सीखने के लिए शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य भी अति आवश्यक होता है यदि बालक मानसिक रूप से स्वस्थ है तो वह किसी भी कार्य या बात को जल्दी सीख लेता है नहीं तो वह कार्य को सीखने में ज्यादा समय लगाता है वह उसे ज्यादा समय तक याद नहीं रख पाता।

३. सीखने की इच्छा(willingness to learn)

शारीरिक स्वास्थ्य या मानसिक स्वास्थ्य के सही होने पर बालक में किसी कार्य को सीखने की इच्छा होनी चाहिए। यदि उसमें कार्य सीखने की इच्छा होती है तब वह कार्य को शीघ्रता से सीखने में सफल हो जाता है इसके लिए बालकों में कुछ पाने की चाह या इच्छा होनी चाहिए।

४. सीखने की समय(learning time)

यदि बालक को कोई किरिया ज्यादा देर तक सिखाई जाती हैं तो वह थकान महसूस करने लगता है इस स्थिति में बालक में क्रिया को सीखने के प्रति उदासीनता आ जाती हैं अतः बालक को कोई भी क्रिया सिखाते समय इस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि बालक को लगातार ज्यादा समय तक कोई कार्य न कराया जाए इसके बीच थोड़ा समय अंतराल होना चाहिए।

५. सीखने में तत्परता(readiness to learn)

जब बालक से सीखने(learning) के लिए तत्पर या तैयार होता है तो उस स्थिति में बालक किसी भी कार्य को जल्दी सीख लेता है एवं उसे ज्यादा समय तक अपने मास्तिष्क में धारण रखता है। लेकिन यदि बालक किसी कार्य को सीखने के लिए तत्पर नहीं होता तो वह या तो उस कार्य को सीख नहीं पाएगा और यदि सीख भी लेता है तो शीघ्रता से भूल जाएगा। अतः किसी कार्य को बालक को सिखाने के लिए उस कार्य के प्रति तत्परता या रुझान उत्पन्न करना चाहिए।

६. विद्यार्थी या बालक की मूलभूत क्षमता(basic ability of the student)

प्रत्येक पालक की अपनी कुछ ना कुछ मूलभूत क्षमताएं होती है जिसको आधार बनाकर के क्रियाओं को सिखाना चाहिए। इसके अंतर्गत बालक की अंतर्निहित शक्ति संवेगात्मक दृष्टि आते हैं। यदि बालकों को कोई कार्य उसकी मूलभूत क्षमता के अनुसार सिखाया जाता है तो वह कार्य में शीघ्र निपुणता प्राप्त कर लेता है। अतः कार्यों का प्रशिक्षण देने से पूर्व बालक की मूलभूत क्षमताओं की जानकारी ले लेनी चाहिए नहीं तो उपयुक्त परिणाम प्राप्त नहीं होगा।

७. बुद्धि स्तर(intelligence level)

सभी विद्यार्थी या बालक भिन्न-भिन्न बुद्धि वाले होते हैं सामान्य प्रतिभाशाली मूर्ख मंदबुद्धि आदि विद्यार्थी को कोई कार्य सिखाने से पहले उसके बुद्धि स्तर को जान लेना चाहिए। इसके उपरांत ही उसी की कारें सिखाना चाहिए। जब विद्यार्थी को उसके बुद्धि स्तरीय क्षमता के अनुसार कोई कार्य सिखाया जाता है तो उसे समझने में सरलता होती है या सहायता मिलती है एवं इस स्थिति में कार्यों को जल्दी सीख लेता है।

८. रूचि(interest)

जिस प्रकाinterestर विद्यार्थी या बालक को कोई कार्य सिखाने(Learning) में अभिप्रेरणा(motivation) आवश्यक होती है उसी प्रकार कार्य के प्रति विद्यार्थी की रूचि का होना आवश्यक है सुरुचिपूर्ण कार्यों को बालक जल्दी सीख लेता है वह इससे उसे आनंद की अनुभूति होती है।

९.अभिप्रेरणा का स्तर (motivation level)

प्रत्येक बालक को सीखने की प्रक्रिया(process of learning) के लिए अधिक से अधिक प्रेरणा का प्रयोग करना चाहिए। जिससे बालक को कार्य के प्रति प्रेरित किया जा सकता है इसके अनुपस्थिति में बालक कार्य तो करता है लेकिन लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाता।

B. शिक्षक से संबंधित कारक (factors related to teacher)

१. विषय का ज्ञान
२. शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य
३. समय सारणी का निर्माण
४. व्यक्तिगत विभिन्नता का ज्ञान
५. शिक्षण पद्धति
६. शिक्षक का व्यक्तित्व
७. अध्यापक का व्यवहार
८. पढ़ाने की इच्छा
९. व्यवसाय के प्रति निष्ठा
१०. अभ्यास कार्य को दोहराने की व्यवस्था
११. बाल केंद्रित शिक्षा पर बल
१२. मनोविज्ञान एवं बाल प्रकृति का ज्ञान

१. विषय का ज्ञान(subject knowledge): 

कोई भी अध्यापक अपने छात्रों को अपने विषय का पूर्ण ज्ञान होने पर ही प्रभावित कर सकता है। ज्ञान विहिन शिक्षक ना तो छात्रों से सम्मान या आदत प्राप्त कर सकता है और ना ही उनके मस्तिष्क का विकास कर सकता है। अपने विषय का पूर्ण ज्ञाता होने पर ही शिक्षक आत्मविश्वास पूर्वक बालकों को नवीन ज्ञान प्रदान करते व्वे उनके मस्तिष्क का विकास कह सकता है।

२. शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य(physical and mental health):

शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से स्वस्थ होने पर ही शिक्षक बालकों का ध्यान केंद्रित कर प्रभावशाली ढंग से शिक्षण प्रदान कर सकता है।

३. समय सारणी का निर्माण(timetable creation):

विद्यालयों में समय सारणी का निर्माण करते समय इस बात का ध्यान आवश्य रखना चाहिए कि एक साथ लगातार दो कठिन विषयों को ना लगाया जाये वह कठिन विषयों को समय सारणी में प्रथम चरण में रखना चाहिए क्योंकि प्रथम चरण बालक में तरोताजगी एवं फूर्ति होती है एवं व शारीरिक एवं मानसिक रूप से सीखने के लिए तैयार रहते हैं।

४. व्यक्तिगत विभिन्नता का ज्ञान(knowledge of individual differences)

अध्यापक को व्यक्तिगत विभिन्नताओं(individual differences) के संबंध में जानकारी होनी नितांत आवश्यक है। मनोविज्ञान के प्रदुर्भाव के क्षेत्र में व्यक्तिगत विभिन्नताओं को महत्व प्रदान किया जा रहा है। इसलिए आज बालक की रुचि अभिरुचि योग्यता क्षमता इत्यादि को ध्यान में रखकर ही उन्हें शिक्षा प्रदान की जाती है। व्यक्तिगत विभिन्नताओं का ज्ञान होने पर ही शिक्षक अपने शिक्षण को सफल बना सकता है।

५. शिक्षण पद्धति(teaching method):

अधिगम प्रक्रिया से शिक्षण पद्धति का प्रत्यक्ष संबंध होता है। समस्त बालकों को एक ही शिक्षण विधि से नहीं पढ़ाया जा सकता है क्योंकि प्रत्येक छात्र दूसरे छात्र से भिन्न होता है। अतः शिक्षक द्वारा प्रयुक्त की जाने वाली शिक्षण पद्धति अधिक प्रभावी वा मनोवैज्ञानिक होनी चाहिए तभी अधिगम की प्रक्रिया सफल हो सकती है।

६. शिक्षक का व्यक्तित्व(teacher’s personality):

शिक्षक का व्यक्तित्व सफल शिक्षण का आधार होता है। उत्तम शिक्षक का व्यक्तित्व प्रभावशाली होता है। प्रभावशाली व्यक्तित्व का अर्थ यह है कि उत्तम अध्यापक आत्म विश्वास एवं इच्छा शक्ति वाला चरित्रवान कर्तव्यनिष्ठ एवं निरोगी होता है उसके गुणों एवं आदतों का प्रभाव बालकों पर इतना अधिक पड़ता है की उसकी समग्र रुचियां एवं अभिरुचियां ही बालकों की अभिरुचियां बन जाती हैं।

७. अध्यापक का व्यवहार(teacher’s behavior):

यदि शिक्षक का व्यवहार समस्त छात्रों के साथ समान है प्रेम सहयोग सहानुभूति आदि गुणों से युक्त हैं तो छात्र भली प्रकार से पाठ सीख लेंगे। इसके विपरीत शिक्षक का व्यवहार होने पर छात्रों में शिक्षक के प्रति गलत अवधारणा बन जाएगी जो अधिगम में अत्यंत बाधक सिद्ध होगी।

८. पढ़ाने की इच्छा(desire to teaching):

पाठ को पढ़ाने की इच्छा होने पर ही शिक्षक किसी पाठ को रूचि पूर्वक पढ़ा सकता है और छात्रों में भी पढ़ने के प्रति रुचि विकसित कर सकता है।

९. व्यवसाय के प्रति निष्ठा(loyalty to business):

व्यवसाय के प्रति निष्ठा भी अधिगम की प्रक्रिया को प्रभावित करती हैं और विषय में रुचि पैदा करती हैं। अतः शिक्षक को अपना कार्य उत्साह व तत्परता पूर्वक करना चाहिए।

१०. अभ्यास कार्य को दोहराने की व्यवस्था:

शिक्षक को चाहिए कि वह जिन कार्यों को विद्यार्थियों को सिखा रहा है उसको बार-बार उनसे दोहराए। इससे विद्यार्थियों में कार्य के प्रति रुचि उत्पन्न होती हैं वह बार-बार उसी कार्य को करने से वह उसे अच्छी तरह से सीख लेते हैं। वह उसको ज्यादा लंबे समय तक अपने मस्तिष्क में धारण रखते हैं।

११. बाल केंद्रित शिक्षा पर बल:

आज बाल केंद्रित शिक्षा पर अत्याधिक बल दिया जा रहा है। अतः शिक्षक के के लिए या आवश्यक है कि वह छात्रों को जो भी ज्ञान प्रदान करें, वह उनकी रूचि स्तर के अनुकूल होना चाहिए।

१२. मनोविज्ञान एवं बाल प्रकृति का ज्ञान:

अध्यापक को शिक्षण से संबंधित मनोविज्ञान की विभिन्न शाखाओं का ज्ञान होना भी नितांत आवश्यक है। मनोविज्ञान का ज्ञान होने पर ही अध्यापक अपने शिक्षण को सफल बना सकते हैं। इसके अतिरिक्त शिक्षक को बालक की प्रकृति का भी ज्ञान होना चाहिए।

C. विषय वस्तु से संबंधित कारक (factors related to content)

१. विषय वस्तु की प्रकृति
२. विषय वस्तु का आकार
३. विषय वस्तु के उद्देश्यपूर्णता
४. भाषा शैली
५. श्रव्य दृश्य सहायक सामग्री
६. रुचिकर विषय वस्तु

१. विषय वस्तु की प्रकृति(nature of subject matter)

विषय वस्तु की प्रकृति सीखने की प्रक्रिया को पूर्ण रूप से प्रभावित करती हैं। सीखे जाने वाले विषय वस्तु यदि सरल है। तो माध्यम श्रेणी का छात्र भी उसे सरलता से सीख सकता है। और यदि विषय वस्तु कठिन है तो छात्रों को सीखने में कठिनाई का अनुभव होता है इसलिए विषय वस्तु की प्रकृति जितनी सरल होगी सीखने की प्रवृत्ति उतनी ही अच्छी होगी।

२. विषय वस्तु का आकार

विषय वस्तु का आकार एवं उसकी मात्रा छात्रों की अधिगम प्रक्रिया को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। देखने में आया है कि छात्र पहले उन पाठ्य का अध्ययन करता है जो छोटे होते हैं तथा जिसका विषय वस्तु कम होता है। वह लंबे पाठों से बचना चाहते हैं और यही कारण है कि विद्यार्थी को ऐसे पाठों को पढ़ने के लिए विवश किया जाता है। अतः विषय वस्तु का आकार छोटा होना चाहिए ताकि वह किसी भी चीज़ को अच्छे तरीके से सीख ले।

३. विषय वस्तु के उद्देश्यपूर्णता

यदि विषय वस्तु उद्देश्यपूर्ण है तथा छात्रों की आवश्यकताओं की संतुष्टि करता है तो छात्र उसे सरलता से सीख लेते हैं। अतः विषय वस्तु छात्रों के उद्देश्य के अनुरूप बनाए जाने चाहिए।

४. भाषा शैली

सीखने में भाषा शैली का महत्वपूर्ण स्थान होता है। विभिन्न लेखकों के द्वारा सरल भाषाओं का उपयोग किया जाता है। बच्चे उस किताब को पढ़ने में ज्यादा मन लगाते हैं अतः किसी भी विषय वस्तु को तैयार करने के लिए सरल भाषा शैली का होना अति आवश्यक है।

५. श्रव्य दृश्य सहायक सामग्री

अधिगम को रोचक बनाने के लिए श्रव्य दृश्य सामग्री का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। कठिन से कठिन पाठ्यवस्तु को ही श्रव्य दृश्य सहायक सामग्री के द्वारा आसान बनाया जा सकता है। लेकिन इसका अर्थ या नहीं है कि जबरदस्ती सहायक सामग्री का प्रयोग पाठ्यवस्तु में किया जाए। इसका प्रयोग विषय वस्तु की प्रकृति पर निर्भर करता है। अतः विषय वस्तु से संबंधित एक कारक में श्रव्य दृश्य सामग्री का होना अति आवश्यक है।

६. रुचिकर विषय वस्तु

यदि पाठ्यपुस्तक रुचिकर है तो छात्र उसे खूब मन लगाकर पढ़ते हैं और यदि विषय वस्तु रुचिकर नहीं है तो छात्र सीखने में ध्यान नहीं देते हैं और शीघ्र ही उब जाते हैं या थक जाते हैं। इस दृष्टि से पाठ्यवस्तु का रुचिकर होना अत्यंत आवश्यक है। शिक्षण ही एक कला है। अतः अध्यापक को कक्षा शिक्षण करने से पूर्ण छात्रों को विषय के प्रति गहन रूचि उत्पन्न करनी चाहिए तथा अपनी सूझबूझ से विषय को रूचि बनाने के घातक प्रयास करना चाहिए।

D. वातावरण से संबंधित कारक (environmental factors)

१. विद्यालय की स्थिति
२. कक्षा का पर्यावरण
३. परिवारिक वातावरण
४. भौतिक वातावरण
५. सामाजिक वातावरण
६. विशेष सामग्री की प्रकृति
७. मनोवैज्ञानिक वातावरण

१. विद्यालय की स्थिति(school status)

बहुत से विद्यालय ऐसी जगह है जहां वाहनों का शोर ज्यादा मात्रा में होता है या कुछ विद्यालय ऐसी जगह पर होते हैं जहां पर निरंतर दुर्गंध आती है इन दोनों स्थितियों में बालक या विद्यार्थी का ध्यान कार्यों को सीखने में भंग होता है अतः विद्यालय का निर्माण उपयुक्त जगह होनी चाहिए।

२. कक्षा का पर्यावरण(classroom environment)

किसी विद्यालय में कक्षा का अनुशासन इतना अधिक होता है कि वहां कार्यों के अध्ययन के अतिरिक्त अन्य कोई बातें नहीं की जाती तो कहीं इतनी अधिक अनुशासनहिनता पाई जाती है कि वहां कार्यों के अलावा सभी बातों को स्थान दिया जाता है तो या दोनों ही स्थितियां सही नहीं होती हैं। इन दोनों स्थितियों में तालमेल बैठाए जाने पर अपेक्षित परिणाम की प्राप्ति होती है।

३. परिवारिक वातावरण(family environment)

कक्षा का वातावरण भी बालक के लिए आवश्यक नहीं होता अपितु परिवार का वातावरण ही अहम होता है जिन परिवारों का वातावरण उत्तम होता है उन परिवारों के बालक पढ़ाई में रुचि लेते हैं और कठिन पाठ को भी सरलता से सीख लेते हैं इसके विपरीत जिन परिवारों का वातावरण अच्छा नहीं होता उन परिवारों के बालकों की अधिगम के गति अत्यंत मंद होती हैं। अर्थात अगर किसी परिवार के सदस्यों के बीच लड़ाई झगड़े रहते हैं तो वहां पर पढ़ रहे बच्चों पर इसका सीधा प्रभाव पड़ता है अतः बालकों को इस वातावरण से बचाने के लिए परिवार में स्नेह पूर्ण वातावरण होना चाहिए।

४. भौतिक वातावरण(physical environment)

भौतिक वातावरण के अंतर्गत तापमान वातावरण प्रकाश वायु कोलाहल इत्यादि का प्रमुख स्थान है अतः कक्षा का भौतिक वातावरण उपयुक्त ना होने पर छात्रा भी थकान अनुभव करने लगेंगे और सीखने में भी उनकी अरुचि उत्पन्न होने लगेगी।

५. सामाजिक वातावरण(social environment)

छात्रों के अधिगम पर सामाजिक एवं सांस्कृतिक वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है सामान्यतः सांस्कृतिक वातावरण का आशय व्यक्ति द्वारा निर्मित या प्रभावित उन समस्त नियमों विचारों विश्वासो एवं भौतिक वस्तुओं को पूर्णतः से है जो उनके जीवन को चारों तरफ से गिरे हुए हैं संस्कृतिक वातावरण मानवीय होते हुए भी मानवीय का एवं सामाजिक विकास एवं बालक के अधिगम को सबसे अधिक प्रभावित करता है।

६. विशेष सामग्री की प्रकृति

बालकों को कोई भी कार्य सिखाने के लिए ऐसी विषय सामग्री प्रयुक्त करनी चाहिए जो वातावरण में सुगमता से प्राप्त हो जाए। ऐसे विषय सामग्री के साथ विद्यार्थियों को तालमेल या उसे समझने में सहायता मिलता है।

७. मनोवैज्ञानिक वातावरण(Psychological atmosphere)

अधिगम की प्रक्रिया पर मनोवैज्ञानिक वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है। यदि छात्रों में परस्पर सहयोग सद्भावना मधुर संबंध है तो अधिगम की प्रक्रिया सुचारू रूप से आगे बढ़ती हैं।

अभिप्रेणा एवं अधिगम। Motivation and Learning

अभिप्रेरणा :- अभिप्रेरणा का शाब्दिक अर्थ है – किसी कार्य को करने की इच्छा शक्ति का होना।

अभिप्रेरणा लैटिन भाषा के Motum / Movers
अर्थ :- To Move गति प्रदान करना।
Motive Need आवश्यकता

○ अभिप्रेरणा वे सभी कारक है जो प्राणी के शरीर को कार्य करने के लिए गति प्रदान करता है।

○ अभिप्रेणा ध्यान आकर्षण प्रलोभन या लालच की कला है जो व्यक्ति को कार्य करने के लिए तैयार करती है।

○ अभिप्रेरणा अंग्रेजी शब्द Motivation (मोटिवेशन) का हिंदी पर्याय है। जिसका अर्थ प्रोत्साहन होता है। Motivation लैटिन भाषा के Motum (मोटम) शब्द से बना है। जिसका अर्थ है Motion (गति)। अतः कार्य को गति प्रदान करना ही अभिप्रेरणा है। यही अभिप्रेरणा का अर्थ है।

○ गुड के अनुसार :-“प्रेरणा कार्य को आरम्भ करने, जारी रखने और नियमित करने की प्रक्रिया है।”

○ स्किनर के अनुसार :– अभिप्रेरणा अधिगम का सर्वोच्च राजमार्ग या स्वर्णप्रथ है।

○ सोरेन्सन के अनुसार :- अभिप्रेरणा को अधिगम का आधार कहा है।

○ मेकडूगल के अनुसार :- अभिप्रेरणा को व्याख्या जन्मजात मूल प्रवृतियों के आधार पर की जा सकती है।

❍ अभिप्रेरणा के प्रकार:-अभिप्रेरणा के दो प्रकार होते हैं।

1. आंतरिक अभिप्रेरणा ( internal motivation) वे आंतरिक शक्तियां , जो व्यक्ति के व्यवहार को उतेजित करती हैं , आंतरिक अभिप्रेरणा कहलाती हैं। भूख , प्यास , नींद , प्यार , तथा इसी का उदाहरण है।

2.बाह्य अभिप्रेरणा :- पहले से निर्धारित कोई ऐसा उद्देश्य जिसे करना व्यक्ति का उद्देश्य हो , बाह्य अभिप्रेरणा कहलाती है। रुचि , इच्छा , आत्मसम्मान , सामाजिक प्रतिष्ठा एवं विशेष , उपलब्धि , सत्ताप्रेरक तथा पुरस्कार इसके प्रमुख उदाहरण हैं।

❍ अभिप्रेरणा की विशेषताएँ :-

• अभिप्रेरणा गतिशीलता / क्रियाशीलता की प्रतीक होती है।

• अभिप्रेरणा किसी भी कार्य को पूरा करने का स्रोत है।

• अभिप्रेरणा व्यक्ति के व्यवहार को उतेजित करती है।

• अभिप्रेरणा किसी कार्य को करने के लिए ऊर्जा प्रदान करती है।

❍ अभिप्रेरणा के तत्व :-

• सकारात्मक प्रेरणा :- इस प्रेरणा में बालक किसी कार्य को स्वंय की इच्छा से करता है।

• नकारात्मक प्रेरणा :- इस प्रेरणा में बालक किसी कार्य को स्वंय की इच्छा से न करके , किसी दूसरे की इच्छा या बाह्य प्रभाव के कारण करता है।

❍ अभिप्रेरणा चक्र :- मनोवैज्ञानिको ने अभिप्रेरणा की प्रक्रिया को स्पष्ट करने के लिए अभिप्रेरणा चक्र का प्रतिपादन किया।

• आवश्यकता – अति आवश्यकता

• चालक – आवश्यकता उत्पन्न

• प्रोत्साहन – अपनी तरफ आकर्षित

❍ अभिप्रेरणा :- Motive = Need + Drive + Incentive
 आवश्यकता            चालक          प्रोस्ताहन
1. पानी की कमी        प्यास             पानी
2. भोजन की कमी      भूख             भोजन
3. नींद की कमी         नींद               सोना

❍ अभिप्रेरणा के सिद्धांत (Principles of Motivation)
अभिप्रेरणा के कुछ प्रमुख सिद्धांत इस प्रकार है। –

1- मूल प्रवृति का सिद्धांत :-इस सिद्धान्त के अनुसार मूल प्रवृत्तियाँ अभिप्रेरणा में सहायता करती हैं। अर्थात मनुष्य या बालक अपने व्यवहार का नियंत्रण और निर्देशन मूल प्रवृत्तियों के माध्यम से करता है।

2- प्रणोद का सिद्धांत :-इसे सिद्धांत के अनुसार, मनुष्य को जो बाहरी अभिप्रेरणा मिलती है अर्थात बाह्य उद्दीपक से जो अभिप्रेरणा मिलती है वो प्रणोद का कारण है। अर्थात अभिप्रेरणा से प्रणोद की स्थिति पाई जाती है जो शारीरिक अवस्था या बाह्य उद्दीपक से उतपन्न होती है।

3- विरोधी प्रक्रिया सिद्धान्त :-इसे सिद्धांत का प्रतिपादन सोलोमन और कौरविट ने किया था। यह एकदम सिंपल सा सिद्धांत है। इसको मोटा मोटा समझे तो हमें वही चीज़ ज़्यादा प्रेरित करती है जो हमे सुख देती है। और दुख देने वाली चीज़ो से हम दूर रहते हैं।

4- मरे का अभिप्रेरणा सिद्धान्त :-मरे ने इस सिद्धांत में अभिप्रेरणा को आवश्यकता कहा है। अर्थात मरे इस सिद्धांत को आवश्यकता के रूप में बताते हुए कहते हैं कि प्रत्येक आवश्यकता के साथ एक विशेष प्रकार संवेग जुड़ा होता है। मरे का अभिप्रेरणा का यह सिद्धांत बहुत सराहा गया। छात्र इसका अध्ययन और यहां तक कि इस पर रिसर्च भी करते हैं।

❍ अभिप्रेरणा के सिद्धांत
 अभिप्रेरणा के सिद्धांत                             प्रतिपादक
 मूल प्रवृत्ति का सिद्धांत                             मैकडूगल,बर्ट,जेम्स
शरीर क्रिया सिद्धान्त                                 मॉर्गन
मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांत                        फ्रायड
अंतर्नोद सिद्धान्त                                    सी०एल०हल
मांग का सिद्धान्त /पदानुक्रमित सिद्धान्त        मैस्लो
आवश्कयता सिद्धान्त                               हेनरी मरे
अभिप्रेरणा स्वास्थ्य सिद्धान्त                    फ्रेड्रिक हर्जवर्ग
सक्रिय सिद्धान्त                                मेम्लो,लिंडस्ले,सोलेसबरी
प्रोत्साहन सिद्धान्त                              बोल्स और कॉफमैन
चालक सिद्धान्त                                    आर०एस० वुडवर्थ

1) मनोविश्लेषणवाद का सिद्धांत (Theory of psychoanalysis)प्रतिपादक- सिगमंड फ्रायड है। इनके अनुसार “व्यक्ति के अचेतन मन की दमित इच्छाएं उसे कार्य करने के लिए प्रेरित करती है।”

(2) मूल प्रवृत्तियों का सिद्धांत (Theory of basic trends)प्रतिपादक – मैक्डूगल इनके अनुसार व्यक्ति में 14 मूल प्रवृत्तियां पाई जाती है, और यही मूल प्रवृत्तियां ही व्यक्ति को कार्य करने के लिए प्रेरित करती हैं।क्योंकि व्यक्ति अगर अपनी मूल प्रवृत्तियों को पूरा नहीं करता है तो उसका जीवित रहना संभव नहीं है। और इन से संबंधित 14 संवेग भी है जो मूल प्रवृत्तियों से संबंध रखते हैं। व्यक्ति संवेगो को की पूर्ति के लिए अभिप्रेरित होकर अपनी मूल प्रवृत्तियों केअनुसार कार्य करता है।

3) आवश्यकता का सिद्धांत (Principle of necessity)प्रतिपादक – अब्राहम मास्लों इस सिद्धांत के बारे में अब्राहम मस्लो ने कहा है कि ” प्रत्येक व्यक्ति आवश्यकता की पूर्ति हेतु अभिप्रेरित होता है।” मास्लों का मानना है कि आवश्यकता वह तत्व है जो व्यक्ति को कार्य करने के लिए प्रेरित करता है। क्योंकि व्यक्ति अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए कार्य करना चाहता है।

अब्राहम मस्लो ने पांच प्रकार की आवश्यकताओं के बारे में बताया है।
1. शारीरिक आवश्यकता
2. सुरक्षा की आवश्यकता
3. स्नेह\ संबंधता की आवश्यकता
4. सम्मान पाने की आवश्यकता
5. आत्मसिद्धि की आवश्यकता

(4) उपलब्धि का सिद्धांत (Achievement principle)प्रतिपादक – मैक्किलैंड
इनके अनुसार “उपलब्धियों की प्राप्ति हेतु व्यक्ति अभी प्रेरित होता है।” इनका मानना है कि व्यक्ति के द्वारा निर्धारित की गई सामान्य या विशिष्ट उपलब्धियां ही व्यक्ति को कार्य करने के लिए प्रेरित करती रहती है, और अंततः विशिष्ट उपलब्धियों को ही प्राप्त करना चाहता है।

(5) उद्दीपन – अनुक्रिया का सिद्धांत (Stimulus – theory of response)प्रतिपादक – स्किनर तथा थार्नडाइक है।
उन्होंने बताया कि ‘उद्दीपक’ व्यक्ति को कार्य करने के लिए प्रेरित करता है। और व्यक्ति जब तक अनुप्रिया करता है। तब तक वह उद्दीपक प्राप्त नहीं कर लेता। इसीलिए हम कह सकते हैं कि व्यक्ति उद्दीपक के माध्यम से प्रेरित होता हैं।

(6) प्रोत्साहन का सिद्धांत (Principle of encouragement)प्रतिपादक – बॉल्फ एवं फाकमैन

इन्होंने प्रोत्साहन के दो प्रकार के रूप बताएं हैं।

स्वयं कार्य हेतु प्रेरित होना। – सकारात्मक अभिप्रेरणा
किसी अन्य द्वारा कार्य हेतु प्रेरित होना। – नकारात्मक अभिप्रेरणा

(7) क्षेत्रीय सिद्धांत (Regional theory)प्रतिपादक- कुर्ट लेविन
इनका सिद्धांत स्थान विज्ञान के आधार पर कार्य करता है। लेविन के अनुसार – स्थान या वातावरण के अनुसार व्यक्ति प्रेरित होकर कार्य करता है। अगर वह कार्य नहीं करेगा तो समायोजन नहीं कर सकता है। लेविन ने अभिप्रेरणा को ‘वातावरण’ तथा ‘ समायोजन’ दोनों से संबंधित माना है।

(8) प्रणोद का सिद्धांत (Theory of thrust)प्रतिपादक – सी.एल हल
उनके द्वारा इस सिद्धांत के बारे में कहा गया कि “व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति होने वाले कार्य कठिन ही क्यों ना हो व्यक्ति द्वारा सीख लिए जाते हैं।”

सी.एल हल के अनुसार चालक वह तत्व है, जो व्यक्ति को कार्य करने के लिए बाध्य करता है। जैसे भूख ( चालक) की पूर्ति हेतु कोई व्यक्ति कुछ भी कर सकता है। चाहे काम कितना भी कठिन क्यों ना हो? वह अपनी भूख मिटाने के लिए भोजन का जुगाड़ करेगा कैसे भी हो? इसलिए हम कह सकते हैं, प्रणोद\ चालक अभी प्रेरित करता है।

(9) स्वास्थ्य का सिद्धांत (Principle of health)प्रतिपादक – हर्जवर्ग
इनके अनुसार यदि बालक शारीरिक तथा मानसिक रूप से स्वस्थ है तो बालक रुचि के साथ कार्य करता है। परंतु अगर वह अस्वस्थ हो तो वह कार्य करने में रुचि नहीं लेगा।

(10) शारीरिक गति\ परिवर्तन सिद्धांत (Physical movement theory)प्रतिपादक- विलियम जेम्स, शेल्डर, रदरफोर्ड
इनके अनुसार- समय, परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुसार बालक की शरीर में जो शारीरिक परिवर्तन होते हैं। वह परिवर्तन ही बालक को कार्य करने के लिए प्रेरित करते हैं।

 ❍ अभिप्रेरणा के मूल प्रवृत्ति के सिद्धांत का प्रतिपादन मैक्डूगल (1908) ने किया था। इस नियम के अनुसार,” मनुष्य का व्यवहार उसकी मूल प्रवृत्तियों पर आधारित होता है इन मूल प्रवृत्तियों के पीछे छिपे संवेग किसी कार्य को करने के लिए प्रेरित करते हैं”

❍ अभिप्रेरणा की विशेषताएं / प्रकृति

1 अभिप्रेरणा व्यक्त की आंतरिक अवस्था है ।

2 हमें प्रेरणा आवश्यकता से प्रारंभ होती है ।

3 अभिप्रेरणा एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है ।

4 अभिप्रेरणा एक ध्यान केंद्रित व ज्ञानात्मक प्रक्रिया है ।

5 अभिप्रेरणा की गति प्रत्येक व्यक्ति में अलग-अलग होती है ।

6 अभिप्रेरणा लक्ष्य प्राप्ति तक चलने वाली प्रक्रिया है ।

7 अभिप्रेरणा लक्ष्य को प्राप्त करने का साधन है ।

❍थॉमसन द्वारा किया गया वर्गीकरण:
क) प्राकृतिक अभिप्रेरक (Natural motives)
ख) कृत्रिम अभिप्रेरक (Artificial motives)

क) प्राकृतिक अभिप्रेरक (Natural motives) :-
प्राकृतिक अभिप्रेरक किसी भी व्यक्ति में जन्म से ही पाया जाता है जैसे:- भूख प्यास सुरक्षा आदि अभिप्रेरक मानव जीवन का विकास करता है।

ख) कृत्रिम अभिप्रेरक (Artificial motives) :-
इस प्रकार के अभी प्रेरक वातावरण में से विकसित होते हैं और इसका आधार भी प्राकृतिक अभिप्रेरक होते हैं परंतु सामाजिकता के आवरण में इनके अभिव्यक्ति कारण स्वरूप बदल जाता है जैसे समाज में मान प्रतिष्ठा प्राप्त करना, सामाजिक संबंध बनाना आदि।

❍ मैस्लो द्वारा किया गया वर्गीकरण:-
मैस्लो ने भी अभिप्रेरक को दो भागों में बांटा है:-

क) जन्मजात अभिप्रेरक(Inborn motives) :मैस्लो ने जन्मजात अभिप्रेरक के संबंध में कहा मानव का भूख, नींद, प्यास, सुरक्षा, प्रजनन आदि जन्मजात अभिप्रेरक हैं।

ख) अर्जित (Acquired) :अर्जित अभिप्रेरणा से तात्पर्य मानव वातावरण से जो कुछ भी प्राप्त करता है वह इसके अंतर्गत आते हैं मैस्लो अर्जित (Acquired) अभिप्रेरक को दो भागों में बांटा है

i. सामाजिक:- सामाजिक अभिप्रेरकों के अंतर्गत सामाजिकता , युयुत्सु और आत्मस्थापना आदि आता है।

ii. व्यक्तिगत:- व्यक्तिगत अभिप्रेरकों में आदत रूचि अभिवृत्ति तथा अचेतन अभी प्रेरक आते हैं।

○अभिप्रेरणा शब्द ‘मकसद‘ शब्द से आया है जिसका अर्थ है किसी व्यक्ति के भीतर की ज़रूरतें या ड्राइव।

○ प्रेरणा वह प्रक्रिया है जिसमें किसी व्यक्ति को कुछ करने के लिए मानसिक रूप से प्रोत्साहित किया जाता है।
 अभिप्रेरणा के प्रकार -अभिप्रेरणा के निम्नलिखित दो प्रकार हैं—

(अ) प्राकृतिक अभिप्रेरणाएँ (Natural Motivation)- प्राकृतिक अभिप्रेरणाएँ निम्नलिखित प्रकार की होती हैं-

(1) मनोदैहिक प्रेरणाएँ- यह प्रेरणाएँ मनुष्य के शरीर और मस्तिष्क से सम्बन्धित हैं। इस प्रकार की प्रेरणाएँ मनुष्य के जीवित रहने के लिये आवश्यक है, जैसे -खाना, पीना, काम, चेतना, आदत एवं भाव एवं संवेगात्मक प्रेरणा आदि।

(2) सामाजिक प्रेरणाएँ-मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह जिस समाज में रहता है, वही समाज व्यक्ति के व्यवहार को निर्धारित करता है। सामाजिक प्रेरणाएँ समाज के वातावरण में ही सीखी जाती है, जैसे -स्नेह, प्रेम, सम्मान, ज्ञान, पद, नेतृत्व आदि। सामाजिक आवश्यकता की पूर्ति हेतु ये प्रेरणाएँ होती हैं।

(3) व्यक्तिगत प्रेरणाएँ-प्रत्येक व्यक्ति अपने साथ विशेष शक्तियों को लेकर जन्म लेता है। ये विशेषताएँ उनको माता-पिता के पूर्वजों से हस्तान्तरित की गयी होती है। इसी के साथ ही पर्यावरण की विशेषताएँ छात्रों के विकास पर अपना प्रभाव छोड़ती है। पर्यावरण बालकों की शारीरिक बनावट को सुडौल और सामान्य बनाने में सहायता देता है। व्यक्तिगत विभिन्नताओं के आधार पर ही व्यक्तिगत प्रेरणाएँ भिन्न-भिन्न होती है। इसके अन्तर्गत रुचियां, दृष्टिकोण, स्वधर्म तथा नैतिक मूल्य आदि हैं।

(ब) कृत्रिम प्रेरणा (Artificial Motivation)- कृत्रिम प्रेरणाएँ निम्नलिखित रुपों में पायी जाती है-

(1) दण्ड एवं पुरस्कार-विद्यालय के कार्यों में विद्यार्थियों को प्रेरित करने के लिये इसका विशेष महत्व है।

दण्ड एक सकारात्मक प्रेरणा होती है। इससे विद्यार्थियों का हित होता है।
पुरस्कार एक स्वीकारात्मक प्रेरणा है। यह भौतिक, सामाजिक और नैतिक भी हो सकता है। यह बालकों को बहुत प्रिय होता है, अतः शिक्षकों को सदैव इसका प्रयोग करना चाहिए।

(2) सहयोग-यह तीव्र अभिप्रेरक है। अतः इसी के माध्यम से शिक्षा देनी चाहिए। प्रयोजना विधि का प्रयोग विद्यार्थियों में सहयोग की भावना जागृत करता है।

(3) लक्ष्य, आदर्श और सोद्देश्य प्रयत्न-प्रत्येक कार्य में अभिप्रेरणा उत्पन्न करने के लिए उसका लक्ष्य निर्धारित होना चाहिए। यह स्पष्ट, आकर्षक, सजीव, विस्तृत एवं आदर्श होना चाहिये।

(4) अभिप्रेरणा में परिपक्वता-विद्यार्थियों में प्रेरणा उत्पन्न करने के लिये आवश्यक है कि उनकी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखा जाए, जिससे कि वे शिक्षा ग्रहण कर सके।

(5) अभिप्रेरणा और फल का ज्ञान-अभिप्रेरणा को अधिकाधिक तीव्र बनाने के लिए आवश्यक है कि समय -समय पर विद्यार्थियों को उनके द्वारा किये गये कार्य में हुई प्रगति से अवगत कराया जायें जिससे वह अधिक उत्साह से कार्य कर सकें।
 शिक्षा में अभिप्रेरणा का महत्व बालकों के सीखने की प्रक्रिया अभिप्रेरणा द्वारा ही आगे बढ़ती है। प्रेरणा द्वारा ही बालकों में शिक्षा के कार्य में रुचि उत्पन्न की जा सकती है और वह संघर्षशील बनता है।

❍ शिक्षा के क्षेत्र में अभिप्रेरणा का महत्व निम्नलिखित प्रकार से दर्शाया जाता है-

(1) सीखना – सीखने का प्रमुख आधार ‘प्रेरणा‘ है। सीखने की क्रिया में ‘परिणाम का नियम‘ एक प्रेरक का कार्य करता है। जिस कार्य को करने से सुख मिलता है। उसे वह पुनः करता है एवं दुःख होने पर छोड़ देता है। यही परिणाम का नियम है। अतः माता-पिता व अन्य के द्वारा बालक की प्रशंसा करना, प्रेरणा का संचार करता है। (2) लक्ष्य की प्राप्ति– प्रत्येक विद्यालय का एक लक्ष्य होता है। इस लक्ष्य की प्राप्ति में प्रेरणा की मुख्य भूमिका होती है। ये सभी लक्ष्य प्राकृतिक प्रेरकों के द्वारा प्राप्त होते है।

(3) चरित्र निर्माण– चरित्र-निर्माण शिक्षा का श्रेष्ठ गुण है। इससे नैतिकता का संचार होता है। अच्छे विचार व संस्कार जन्म लेते हैं और उनका निर्माण होता है। अच्छे संस्कार निर्माण में प्रेरणा का प्रमुख स्थान है।

(4) अवधान – सफल अध्यापक के लिये यह आवश्यक है कि छात्रों का अवधान पाठ की ओर बना रहे। यह प्रेरणा पर ही निर्भर करता है। प्रेरणा के अभाव में पाठ की ओर अवधान नहीं रह पाता है।

(5) अध्यापन – विधियाँ शिक्षण में परिस्थिति के अनुरूप अनेक शिक्षण विधियों का प्रयोग करना पड़ता है। इसी प्रकार प्रयोग की जाने वाली शिक्षण विधि में भी प्रेरणा का प्रमुख स्थान होता है।

(6) पाठ्यक्रम– बालकों के पाठ्यक्रम निर्माण में भी प्रेरणा का प्रमुख स्थान होता है। अतः पाठ्यक्रम में ऐसे विषयों को स्थान देना चाहिए जो उसमें प्रेरणा एवं रुचि उत्पन्न कर सकें तभी सीखने का वातावरण बन पायेगा।

(7) अनुशासन –यदि उचित प्रेरकों का प्रयोग विद्यालय में किया जाय तो अनुशासन की समस्या पर्याप्त सीमा तक हल हो सकती है।

○ प्रेरणा देने वाले घटक
❍ अधिगम :- किसी कार्य को सोच विचार कर करना तथा एक निश्चित परिणाम तक पहुँचना ही अधिगम है।

क्रो एवं क्रो के अनुसार :- ज्ञान एवं अभिवृत्ति की प्राप्ति ही सीखना है।

गिलफोर्ड के अनुसार :- सीखना व्यवहार के फलस्वरूप व्यहवार में कोई परिवर्तन है।

स्किनर के अनुसार :- व्यहवार के अर्जन में उन्नति की प्रक्रिया को सीखना कहते हैं।

○ अधिगम निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है तथा सीखना विकास की प्रक्रिया का माध्यम है।

• सीखना उद्देश्यपूर्ण है।

• सीखना खोज करना है।

• सीखना सार्वभौमिक है।

• सीखना एक परिवर्तन है।

• सीखना नवीन कार्य करना है।

❍ अधिगम में अभिप्रेरणा :-

• अभिप्रेरणा छात्रों में उत्सुकता या जिज्ञासा उत्पन्न करती है।

• यह छात्रों की सीखने की अभिरुचि को बढ़ाता है।

• यह छात्रों में नैतिक , सांस्कृतिक , चारित्रिक तथा सामाजिक मूल्यों को बढ़ाता है।
 

❍ अधिगम में योगदान देने वाले कारक :-

○ व्यक्तिगत कारक :-

• बुद्धि
• ध्यान
• योग्यता
• अनुशासन
• पाठ्यक्रम की व्यवस्था
• शारीरिक व मानसिक दशाएँ

○ पर्यावरणीय कारक :-

• वंशानुक्रम
• समूह अध्ययन
• कक्षा का परिवेश
• पर्यावरण का प्रभाव
• अभ्यास एवं परिणाम पर बल
• सामाजिक व सांस्कृतिक वातावरण

Assessment and Evaluation (आकलन और मूल्यांकन)

Assessment and Evaluation in Hindi

आकलन और मूल्यांकन

आकलन और मूल्यांकन दोनों का उद्देश्य बच्चों की अभिव्यक्ति, क्षमता, अनुभूति, आदि का मापन करना है। आकलन एक संक्षिप्त प्रक्रिया है और मूल्यांकन एक व्यापक प्रक्रिया है। मूल्यांकन किसी भी शैक्षिक कार्यक्रम में किसी भी पक्ष के विपक्ष में विषय में सूचना एकत्र करना उसका विया करना श्लेषण करना और व्याख्या करना है।

Assessment (आकलन)

किसी व्यक्ति या किसी चीज़ के बारे में जानकारी प्राप्त करने, समीक्षा करने और उपयोग करने के तरीके को आकलन करना यानि Assessment कहते है, assessment का उदेश्य यही होता है की जहां आवश्यक हो, सुधार किया जा सके।

Type of Assessment

Summative Assessment
Interim Assessment
Formative Assessment

आंकलन का उद्देश्य (objective of Assessment)

आंकलन का निर्देश देता है।
आंकलन सीखने को प्रेरित करता है।
आंकलन उनकी प्रगति के छात्रों को सूचित करता है।
आंकलन शिक्षण अभ्यास को सूचित करता है।
आंकलन में ग्रेडिंग की भूमिका होती है।

Evalution (मूल्यांकन)

मूल्यांकन किसी व्यक्ति या किसी चीज को मापने या अवलोकन करने की एक व्यवस्थित और वस्तुनिष्ठ प्रक्रिया है, यह एक व्यक्ति के प्रदर्शन, पूर्ण परियोजना, प्रक्रिया या उत्पाद का प्रदर्शन करता है, ताकि इसकी कीमत या महत्व निर्धारित किया जा सके।मूल्यांकन एक सतत प्रक्रिया है मूल्यांकन शिक्षण प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग है।

इसका सीधा संबंध शिक्षा के उद्देश्य से होता है।यह बालकों के परिणामों की गुणवत्ता मूल्य और प्रभाव प्रभाव एकता के आधार पर उनके भावी कार्यक्रमों का निर्धारण करता है।मूल्यांकन का प्रमुख प्रयोजन व्यवहारगत परिवर्तन की दिशा प्रकृति एवं स्तर के संबंध में निर्णय करना है यह शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति की सीमा का निर्धारण करने वाली प्रक्रिया है।

मूल्यांकन का उद्देश्य (Objective of Evalution)

  • बच्चों में अपेक्षित व्यवहार एवं आचरण परिवर्तन की जांच करना।
  • यह जांचना कि बच्चों ने कुशलताओं, योग्यता, आदि को कितना ग्रहण किया है।
  • बालकों की सभी कठिनाइयों का निर्धारण करने तथा दोषो को जानना।
  • उपचारात्मक शिक्षण प्रदान करना।
  • बालकों की चहुमुखी विकास को निरंतर गति प्रदान करना।
  • इससे अध्ययन और अध्यापन दोनों का मापन कर सकते हैं।
  • मूल्यांकन द्वारा प्रयोजन, शिक्षण विधियों की उपयोगिता एवं विद्यालय की समस्त क्रियाओं का अंकन करना।

 मूल्यांकन का महत्व (Importance of Evaluation)

  • छात्रों को अध्ययन की ओर अग्रसित करता है।
  • छात्रों के व्यक्तिगत मार्गदर्शन में सहायता करता है।
  • शिक्षण के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक है।
  • बच्चों की कमजोरियों को जानने में सहायक होता है।
  • बच्चों की प्रगति में सहायक है।
  • शैक्षिक व व्यवसायिक मार्गदर्शन में सहायक है।

मूल्यांकन प्रक्रिया या मूल्यांकन के पद (Steps of Evaluation Process)

  • मूल्यांकन के उद्देश्यों का चयन व निर्धारण।
  • उद्देश्यों का निर्धारण विश्लेषण (व्यवहारगत परिवर्तन के संदर्भ में)।
  • मूल्यांकन प्रविधियों का चयन करना।
  • मूल्यांकन प्रविधियों का प्रयोग एवं परिणाम निकालना।
  • परिणामो की व्याख्या सामान्यकरण करना।

राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (NCERT) के अनुसार-

सतत एवं व्यापक मूल्यांकन (Continuous and Comprehensive Evaluation)

सतत एवं व्यापक मूल्यांकन में यह तथ्य सम्मिलित होने चाहिए :-
निर्धारित शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति किस सीमा तक हो रही है।
कक्षा में प्रदान किए गए अधिगम अनुभव कितने प्रभावशाली रहे हैं।
व्यवहार परिवर्तन की प्रक्रिया कितने अच्छे ढंग से पूर्ण हो रही है।

हम किसी भी बच्चे का शैक्षणिक मूल्यांकन प्रश्न पत्र द्वारा कर सकते हैं।
जब हम प्रश्नपत्र प्यार करते हैं तो उसमें हम प्रश्नों को आधार बनाते हैं।

प्रश्नों के प्रकार (Types of Questions)

  1. मुक्त अंत / मुक्त उत्तरीय प्रश्न
  2. बंद अंत / सीमित उत्तर वाले प्रश्न

1. मुक्त अंत (Open Ended) :-  मुक्त अंत प्रश्नों में हमें अपने विचार प्रस्तुत करने की स्वतंत्रता होती है। हम अपने विचारों को अपने तरीकों से प्रस्तुत कर सकते हैं। जैसे: Answer the following question, One word answer.
2. बंद – अंत (Close Ended) :- बंद अंत प्रश्नों में हमें अपने विचारों को प्रस्तुत करने की स्वतंत्रता नहीं होती। हमें प्रश्न के विकल्प में से एक को छांटना होता है।

बंद अंत प्रश्नों के प्रकार (Types of Close Ended Questions)

  • बहु विकल्प प्रश्न (Objective type Question)- कई विकल्प में से एक को चुनना।
  • सत्य /असत्य(True/False)  –  हां और ना में उत्तर देना।
  • मिलान (Match the Following) – सही विकल्प का मिलान करना।
  • खाली स्थान (Fill in the Blanks) – खाली जगह के स्थान पर सही विकल्प।
  • वर्गीकृत प्रश्न (odd one out) – पांच छह शब्दों के एक समूह में से अलग शब्द निकालना।
  • व्यवस्थितकरण प्रश्न( Arrange the word in proper manner) – शब्दों को व्यवस्थित रुप से लगाना।

नोट बंद अंत को वस्तुनिष्ट प्रश्न भी बोल सकते हैं बहुविकल्प, सत्यासत्य, मिलान, खाली स्थान, वर्गीकृत और व्यवस्थितकरण प्रश्न सभी वस्तुनिष्ट प्रश्न है।

ब्लूम के अनुसार शैक्षिक उद्देश्यों का वर्गीकरण (Bloom Taxonomy of Educational Objectives)

ब्लूम के अनुसार व्यवहार के तीन पक्ष है :-

  • ज्ञानात्मक पक्ष
  • भावात्मक पक्ष
  • क्रियात्मक पक्ष

प्रथम ज्ञानात्मक पक्ष का वर्गीकरण ब्लूम ने 1956 में, दूसरे पक्ष का वर्गीकरण ब्लूम में उसके सहयोगी कथवाल  मारिया ने 1965 में और तीसरे क्रियात्मक पक्ष का वर्गीकरण सिंपसन तथा हैरो ने प्रस्तुत किया।

ज्ञानात्मक पक्ष के उद्देश्यों का वर्गीकरण (Taxonomy of Objectives in the Cognitive Domain)

ब्लूम ने ज्ञानात्मक पक्ष के उद्देश्यों को सरल से कठिन और शिक्षण अधिगम के निम्न स्तर से शुरू करके ऊँचे से ऊँचे स्तर तक ले जाने के दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए 6 भागों में विभाजित किया है :-

(i) ज्ञान (Knowledge) :- इस वर्ग में विद्यार्थियों को पाठ्यवस्तु के विशिष्ट तथ्य पदों, परंपराओं, प्रचलनों, वर्गो, कसौटियों का प्रत्यय विज्ञान और प्रत्यास्मरण कराने का प्रयास किया जाता है।
उदाहरण – परिभाषा देना, सूची देना, मापन करना, प्रत्यास्मरण, पहचानना, पुनरुत्पादन आदि।

(ii) बोध (Comprehension) :- ज्ञान वर्ग में बच्चों को जो ज्ञान कराया जाता है।  बोध में उसके बारे में समझ विकसित की जाती है।  ज्ञान के बिना अवबोध करना आसान नहीं है।
उदाहरण – वर्गीकरण, भेद करना, व्याख्या, प्रतिपादन करना, उदाहरण देना, संकेत करना, सारांश, रुपांतरण करना आदि।

(iii) प्रयोग (Application) :- आत्मसात किए हुए ज्ञान को परिस्थितियों के अनुसार प्रयोग करना।
उदाहरण – जांच करना, प्रदर्शित करना, संचालित करना, गणना करना, संशोधित करना, पूर्व कथन देना, परिपालन करना।

(iv) विश्लेषण (Analysis) :-  आत्मसात किये हुए ज्ञान में से अलग – अलग करने की क्षमता।
उदाहरण – विश्लेषण करना, संबंधित करना, तुलना करना, आलोचना, विभेद, इंगित करना, अलग – अलग करना।

(v) संश्लेषण (Synthesis) :- पाठ्यवस्तु में दिए हुए संप्रत्यय, नियमों के आधार पर उनमें से अपने अनुसार संप्रत्य निकालना।  उदाहरण – तर्क देना, निष्कर्ष देना, निकालना, वाद – विवाद करना, संगठित करना, सिद्ध करना।

(vi) मूल्यांकन (Evaluation) :- सीखे हुए ज्ञान का मूल्यांकन करना कि ज्ञान को कितनी हद तक आत्मसात किया है। उदाहरण – चुनना, बचाव करना, निश्चित करना, निर्णय लेना आदि।

भावात्मक पक्ष (Affective Domain)

ब्लूम ने भावात्मक पक्ष को पांच भागों में बांटा :-

1. आग्रहण या ध्यान देना (Receiving or Attending) :- बच्चों को अभिप्रेरित करना ताकि बच्चे अध्यापक द्वारा पढ़ाई गई सामग्री में  इच्छित हो। बच्चों को इस प्रकार से अभी प्रेरित करना कि विद्यार्थियों में मानवीय मूल्यों को भली भांति ग्रहण करने के लिए पर्याप्त इच्छा जागृत हो जाए।
उदाहरण – पूछना, स्वीकार करना, ध्यान देना, अनुसरण करना, प्रत्यक्षीकरण।

2. अनुक्रिया (Responding) :- दिए हुए उद्देश्य के प्रति काम करना।
उदाहरण – उत्तर देना, मदद करना, पूर्ण करना, पूरा करना, विकसित करना, लेबल देना, आज्ञा पालन करना अभ्यास करना।

3. आकलन (Value) :- इस स्तर पर विद्यार्थियों में किसी विशेष मूल्य को स्वीकार करने व किसी विशेष मूल्य के प्रति अधिक लगाव या अभिरुचि प्रकट करते हुए उसके पालन के लिए वचनबद्ध होने की योजना को विकसित करने का प्रयास किया जाता है।
उदाहरण :- अभिरुचि को कर्म देना वृद्धि करना संकेत करना।

4. संगठन (Organization) :- पूर्व अनुभव को संगठित करना।
उदाहरण – जोड़ने से संबंध स्थापित करना, पाना बनाना, सामान्यीकरण करना, योजना बनाना , व्यवस्थित करना।

5. मूल्यों का चरित्रीकरण / विशेषीकरण करना (Characterization by a value or Value Complex) :-इसमें विद्यार्थियों के व्यक्तिगत और सामाजिक मूल्यों के समन्वय से उत्पन्न जिस मूल्य प्रणाली अथवा चरित्र की भूमिका बन चुकी होती है उसे विशेष रूप से प्रदान करने का प्रयत्न  किया जाता है।
उदाहरण – चरित्रकरण, निश्चय करना, प्रयोग करना, सामना करना, पुष्टिकरण करना, हल करना आदि।

क्रियात्मक पक्ष / मनोगत्यात्मक पक्ष (Psychomotor)

ब्लूम ने क्रियात्मक पक्ष को 6 भागों में बांटा है :-

1. सहज क्रियात्मक अंगसंचालन (Reflex Movement) :- सहज क्रियात्मक अंग संचालन में बच्चा अपने चारों ओर फैले किसी उद्दीपन के संपर्क में आता है तो वह कोई ना कोई प्रतिक्रिया अनजाने में ही व्यक्त करता है।  जैसे हाथ पर चींटी गिरते ही हाथ झटक देना।
उदाहरण – काटना, झटका देना, ढीला करना, छोटा करना आदि।

2. आधारभूत अंगसंचालन (Basic Fundamental Movement) :- किसी प्रकार का आदेश मिलने पर अंग संचालन करना आधारभूत अंग संचालन कहलाता है।
उदाहरण – उछलना, कूदना, पकड़ना, रेंगना, पहुंचना, दौड़ना आदि।

3. शारीरिक योग्यताएं (Physical Ability) :- अंग संचालन क्रियाओं को करने के लिए काम करने की क्षमता को बढ़ाना।
उदाहरण – शुरू करना, सहन करना, झुकना, व्यवहार करना, सुधारना, रोकना, टुकड़े टुकड़े करना आदि।

4. प्रत्यक्षीकरण योग्यताएं (Perceptual Ability) :- प्रत्यक्षीकरण योग्यताएं बच्चों के ज्ञानेन्द्रियो व कमेन्द्रिओ के सामंजस्य पर निर्भर करती है।वह वातावरण में फैले उद्दीपन को पहचानने व समझते हुए उनके साथ समायोजन करने में सफल होता है।
उदाहरण –  सूंघकर या सुनकर पहचान करना, स्मृतिचित्रण करना, लिखना, फेंकना आदि।

5. कौशलयुक्त अंगसंचालन (Skilled Movement) :- अभ्यास के द्वारा किसी काम में पूर्ण होना।
उदाहरण- नृत्य करना, खोदना, चलाना, गोता लगाना, नाव खेना, तैरना, निशाना लगाना आदि।

6. सांकेतिक संप्रेषण (Non Discursive Communication) :- बिना बोले भावों को प्रदर्शित करना।
उदाहरण – नकल उतारना, भाव-भंगिमा बनाना, चित्रांकन करना, मुस्कुराना, चिढ़ाना आदि।

मूल्यांकन के प्रतिमान (Pattern of Evaluation/Assessment)

1. अधिगम के लिए मूल्यांकन / आकलन (Evaluation/Assessment for Learning):- अधिगम के लिए मूल्य मूल्यांकन निर्माणात्मक मूल्यांकन पर आधारित होता है अर्थात जब हम किसी काम को करते समय उसके बीच में ही जांच करते हैं कि हम कितना सीख रहे हैं।
उदाहरण – जब हम खाना बनाते समय अगर बीच में ही चखते हैं तो हम खाने की जांच कर रहे हैं कि हमने कैसा खाना बनाना सीखा है।

2. अधिगम का मूल्यांकन / आकलन (Evaluation/Assessmentof Learning) :- अधिगम का मूल्यांकन योगात्मक योगात्मक मूल्यांकन पर आधारित होता है। अर्थात हम काम को खत्म करके उसकी जांच करते हैं कि हमने कितना सीखा।
उदाहरण – जब कोई अध्यापक बच्चों को किसी भ्रमण के लिए लेकर जाता है और बाद में स्कूल वापस आने पर प्रश्न करता है तो वह जांच रहा है कि बच्चों ने वहां क्या-क्या सीखा परंतु इसमें काम के बीच में न कर अंत में मूल्यांकन करते हैं।

3. आकलन / अधिगम के रूप में मूल्यांकन (Assessment/Evaluation as Learning) :- अधिगम के रूप में मूल्यांकन नैदानिक मूल्यांकन पर आधारित होता है। छात्र आपने अधिगम और अन्य लोगों के अधिगम के बारे में गुणवत्तापूर्ण सूचना उत्पन्न करने के लिए अधिक दायित्व लेते हैं।

Bruner ka Sangyanatmak Vikas Siddhant (जेरोम ब्रूनर का संज्ञानात्मक सिद्धांत)

जेरोम ब्रूनर का संज्ञानात्मक सिद्धांत (bruner theory of cognitive development)

  • जेरोम ब्रूनर एक  अमेरिकी मनोवैज्ञानिक थे इन्होंने संज्ञानात्मक विकास पर नया सिद्धांत दिया जो कि जीन पियाजे के संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत के वैकल्पिक रूप में पाया जाता है. 
  •  ब्रूनर के संज्ञानात्मक विकास का मॉडल प्रस्तुत किया था.  उनके अनुसार यह वह मॉडल है जिसके द्वारा मनुष्य अपने वातावरण से सामंजस्य स्थापित करता है.
  •  ब्रूनर ने  मुख्य रूप से  इस बात पर बल दिया कि शिशु अपनी अनुभूतियों को मानसिक रूप से किस प्रकार व्यक्त करता है। तथा शैशवास्था एवं बाल्यावस्था  में चिंतन कैसे करना है। उनका मानना था कि शिशु अपनी अनुभूतियों को मानसिक रूप से निम्न तीन तरीकों से व्यक्त करता है। 

जेरोम ब्रूनर ने विकास की तीन अवस्थाएं बतलाई है। (Jerome Bruner has described three stages of development.)

(1) Enactive Stage संज्ञानात्मक प्रतिनिधित्व, सक्रियता विधि 

(2) Iconic Stage  दृश्य प्रतिमान प्रतिनिधित्व दृश्य, प्रतिमा विधि

(3) Symbolic Stage  प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व, सांकेतिक विधि 

1.  सक्रियता विधि (Enactive Stage) (अवधि जन्म से 18 माह) 

 इस विधि में शिशु अपनी अनुभूतियों को शब्द इन क्रियाओं के माध्यम से व्यक्त करता है।  जैसे भूख लगने पर हाथ पैर दिलाना, रोना आदि। 

2.  दृश्य प्रतिमा विधि (Iconic Stage) (18 से 24 माह)

 इस विधि में बालक अपनी अनुभूतियों को अपने मन से कुछ दृश्य प्रतिमान बनाकर व्यक्त करता है।  इस अवस्था में वहां प्रत्यक्षीकरण से सबसे ज्यादा सीखता है। 

3.  सांकेतिक विधि (Symbolic Stage) (7 वर्ष से आगे)

 इस विधि में बालक अपनी अनुभूतियों को ध्वनि संबंधी संकेतों ( भाषा) के माध्यम से व्यक्त करता है।  तथा इस अवस्था में बच्चों में प्रतीकों को उनके मूल विचारों से संबंधित करने की योग्यता का विकास हो जाता है।  या होने लगता है। 

 शिक्षा में उपयोगिता

  •  बालक की मानसिक शक्ति के अनुसार शिक्षण विधियों के चयन में। 
  •  बच्चों के स्तर के अनुसार शिक्षण योजना के नियोजन क्रियान्वयन एवं मूल्यांकन प्रक्रिया में आवश्यक संशोधन कर बालक का समुचित बौद्धिक विकास किया जा सकता है। 
  •  मानसिक स्तर के अनुसार पाठ्यक्रम के निर्माण में। 
  •  नए प्रकरणों को शुरू करने से पूर्व ज्ञान को लेकर शिक्षण योजना बनाने में। 

 ब्रूनर के सिद्धांत की विशेषताएं (Features of Bruner’s theory)

  • यह सिद्धांतों बालकों के पूर्व अनुभवों तथा नए विषयों से  समन्वय स्थापित करने के लिए ‘अनुकूल वातावरण’ तैयार करने पर बल देता है। 
  •  यह सिद्धांत सीखने में पुनर्बलन पर जोर देता है। 
  •  इस सिद्धांत की मान्यता है की विषय वस्तु की संरचना किस प्रकार हो कि बच्चे सुगमता से सीख सकें। 
  • इस सिद्धांत के अनुसार शिक्षा बालक में व्यक्तिगत व सामाजिक दोनों  गुणों का विकास करती है।

cognition and emotion संज्ञान तथा मनोभाव

cognition and emotion संज्ञान तथा मनोभाव

संज्ञान का अर्थ ➡️जैसा कि हम सभी जानते हैं कि एक बच्चा सीखता है क्योंकि वह समय और ज्ञान के साथ बढ़ता है, वह अपने विचारों, अनुभवों, इंद्रियों आदि के माध्यम से प्राप्‍त करता है ये सभी संज्ञान है। बच्‍चे का संज्ञान परिपक्‍व हो जाता है जैसे ही वह बढ़ता है। इस प्रकार, हम कह सकते हैं कि संज्ञान कृपण, याद रखने, तर्क और समझने की बौद्धिक क्षमता है।संज्ञान ( Cognition ) : संज्ञान से तात्पर्य एक ऐसी प्रक्रिया से है जिसमें संवेदन ( Sensation ) , प्रत्यक्षण (Perception ) , प्रतिमा ( Imagery ) , धारणा , तर्कणा जैसी मानसिक प्रक्रियाएँ सम्मिलित होती हैं । ➡️ संज्ञान से तात्पर्य संवेदी सूचनाओं को ग्रहण करके उसका रूपांतरण , विस्तरण , संग्रहण , पुनर्लाभ तथा उसका समुचित प्रयोग करने से होता है । ➡️ संज्ञानात्मक विकास से तात्पर्य बालकों में किसी संवेदी सूचनाओं को ग्रहण करके उसपर चिंतन करने तथा क्रमिक रूप से उसे इस लायक बना देने से होता है जिसका प्रयोग विभिन्न परिस्थितियों में करके वे तरह – तरह की समस्याओं का समाधान आसानी से कर लेते हैं । ➡️ संज्ञानात्मक विकास के क्षेत्र में तीन सिद्धांत महत्वपूर्ण हैं ⬇️⬇️⬇️( a ) पियाजे का सिद्धांत ( b ) वाइगोट्स्की ( Vygostsky ) का सिद्धांत ( c ) ब्रुनर ( Bruner ) का सिद्धांत

संज्ञान के तत्‍व:

संज्ञान के तत्‍व निम्‍नलिखित हैं:👇👇👇👇👇
1. अनुभूति: यह इंद्रियों के माध्यम से किसी चीज़ को देखने, सुनने या जागरूक होने की क्षमता है।
2. स्‍मृति: स्मृति संज्ञान में संज्ञानात्मक तत्व है। स्मृति जब भी आवश्यकता हो, अतीत से जानकारी को स्टोर, कोड या पुनर्प्राप्त करने हेतु मानव मस्तिष्‍क को अनुमति देती है।
3. ध्‍यानइस प्रक्रिया के तहत हमारा मस्तिष्‍क हमारी इंद्रियों के उपयोग सहित विभिन्न गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित करने की अनुमति देता है।
4. विचार: विचार सोच की क्रिया प्रक्रियाएं हैं। विचार हमें प्राप्त होने वाली सभी सूचनाओं को एकीकृत करके घटनाओं और ज्ञान के बीच संबंध स्थापित करने में हमारी सहायता करते हैं।
5. भाषाभाषा और विचार एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। भाषा बोले जाने वाले शब्दों की सहायता से हमारे विचारों को व्यक्त करने की क्षमता है।
6. अधिगम: अधिगम अध्ययन, अनुभव और व्यवहार में संशोधन के माध्यम से ज्ञान या कौशलों का अधिग्रहण है।

बच्‍चों की संज्ञानात्‍मक विशेषताएं:

संज्ञानात्मक विकास सोचने और समझने की क्षमता है। पियागेट के अनुसार संज्ञानात्मक विकास में चार चरण शामिल हैं:
1. संवेदिक पेशीय अवस्‍था: यह आयु जन्म से 2 वर्ष तक होती है। इस स्तर पर बच्चा अपनी इंद्रियों के माध्‍यम से सीखता है।
2. पूर्व-संक्रिया अवस्‍था: यह अवस्‍था 2 वर्ष की आयु से 7 वर्ष की आयु तक होती है। इस अवस्‍था में एक बच्चे की स्मृति और कल्पना शक्ति विकसित होती है। यहां बच्‍चे की प्रकृति आत्‍मकेंद्रित होती है।
3. मूर्त संक्रिया अवस्‍था: यह अवस्‍था 7 वर्ष की आयु से 11 वर्ष की आयु तक होती है। यहां आत्‍मकेंद्रित विचार शक्तिहीन हो जाते हैं। इस अवस्‍था में संक्रियात्‍मक सोच विकसित होती है।
4. औपचारिक संक्रिया अवस्‍था: यह अवस्‍था 11 वर्ष की आयु तथा उससे ऊपर की आयु से शुरू होती है। इस अवस्‍था में बच्चे समस्या हल करने की क्षमता और तर्क के उपयोग को विकसित करते हैं।

मनोभाव:

मनोभाव किसी की परिस्थितियों, मनोदशा या दूसरों के साथ संबंधों से व्‍युत्‍पन्‍न होने वाली मजबूत भावना होती हैं। मनोभाव मन की स्थिति का एक भाग है।

मनोभाव की प्रकृति और विशेषताएं:

1. मनोभाव व्‍यक्तिपरक अनुभव है।
2. यह एक अभिज्ञ मानसिक प्रतिक्रिया है। मनोभाव और सोच विपरीत रूप से संबंधित हैं।
3. मनोभाव में दो संसाधन अर्थात् प्रत्यक्ष धारणाएं या अप्रत्यक्ष धारणाएंशामिल हैं।
4. मनोभाव कुछ बाह्य परिवर्तन बनाता है जिन्‍हें दूसरों द्वारा हमारे चेहरे की अभिव्यक्तियों और व्यवहार पैटर्न के रूप में देखा जा सकता है।
5. मनोभाव हमारे व्यवहार में कुछ आंतरिक परिवर्तन करताहै जिन्हें केवल उस व्यक्ति द्वारा समझा जा सकता है जिसने उन मनोभाव का अनुभव किया है।
6. अनुकूलन और उत्‍तरजीविता के लिए मनोभावआवश्‍यक हैं।
7. सबसे विचलित मनोभाव समरूप या असमान होना है।मनोभाव के घटक तथा कारक:
मनोभाव के मुख्य घटकों में से एक अभिव्यक्तिपूर्ण व्यवहार है। एक बहुमूल्‍य व्यवहार बाहरी संकेत है कि एक मनोभाव का अनुभव किया जा रहा है। मनोभाव के बाह्य संकेतों में मूर्च्‍छा, उत्‍तेजित चेहरा, मांसपेशियों में तनाव, चेहरे का भाव, आवाज का स्वर, तेजी से सांस लेना, बेचैनी या अन्य शरीर के हाव-भाव इत्यादि शामिल हैं।

शिक्षा में मनोभाव का महत्‍व:

निम्नलिखित बिन्‍दु मनोभाव के महत्व का उल्‍लेख करते हैं:
1. सकारात्मक मनोभाव बच्चे के अधिगम को सुदृढ़ करते हैं जबकि नकारात्मक मनोभाव जैसे अवसादइत्‍यादिअधिगम प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं।
2. किसी भी मनोभाव की तीव्रता अधिगम को प्रभावित कर सकती है चाहे वह सुखद या कष्‍टकरमनोभाव हो।
3. जब छात्र मानसिक रूप से परेशान नहीं होते हैं तो अधिगम सुचारू रूप से होता है।
4. सकारात्मक मनोभाव एक कार्य में हमारी प्रेरणा को बढ़ाते है।
5. मनोभाव व्यक्तिगत विकास के साथ-साथ बच्चे के अधिगम में भी मदद करतेहैं।

Individual Variation – Meaning, Factors and Significance वैयक्तिक भिन्नता – अर्थ, कारक एवं महत्व

प्रत्येक प्राणी अपने जन्म से ही विशेष शक्तियों को लेकर जन्म लेता है। ये विशेषताएँ उसको माँ एवं पिता के पूर्वजों से हस्तान्तरित की गयी होती है। इसी के साथ पर्यावरण भी छात्र के विकास पर प्रभाव डालता है। अतः स्पष्ट है कि सभी छात्र एक दूसरे से भिन्न होते है। एक कक्षा या एक समूह के विद्यार्थियों में विभिन्न प्रकार की भिन्नताएँ होना असाधारण बात नहीं है। ये भिन्नताएँ विद्यार्थियों में विभिन्न विशेषताओं के रूप में मिलती हैं।

वैयक्तिक भिन्नता का अर्थ-  जब दो बालक विभिन्न समानताएँ रखते हुए भी आपस में भिन्न व्यवहार करते हैं तो इसे ‘‘वैयक्तिक भिन्नता’ कहा जाता है। वैयक्तिक भिन्नता से अभिप्राय है कि प्रत्येक व्यक्ति में जैविक, मानसिक, सांस्कृतिक, संवेगात्मक अन्तर पाया जाना। इसी अन्तर के कारण एक व्यक्ति, दूसरे से भिन्न माना जाता है। अतः कोई भी दो व्यक्ति समान नहीं होते। यहाँ तक कि जुड़वाँ बच्चों में भी असमानता पाई जाती है। इस दृष्टि से वैयक्तिक भिन्नता प्रकृति द्वारा प्रदत्त स्वाभाविक गुण है। विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने वैयक्तिक भिन्नता को निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है-

  1. स्किनर के अनुसार- ‘‘व्यक्तिगत विभिन्नता में सम्पूर्ण व्यक्तित्व का कोई भी ऐसा पहलू सम्मिलित हो सकता है, जिसका माप किया जा सकता है।’’
  2. टायलर के अनुसार- ‘‘शरीर के आकार और स्वरूप, शारीरिक गति सम्बन्धी क्षमताओं, बुद्धि, उपलब्धि, ज्ञान, रूचियों, अभिवृत्तियों और व्यक्तित्व के लक्षणों में माप की जा सकने वाली विभिन्नताओं की उपस्थिति सिद्ध की जा चुकी है।’’

यदि हम उपर्युक्त कथनों का विश्लेषण करें, तो स्पष्ट होता है कि व्यक्तिगत भिन्नताओं के अन्तर्गत किसी एक विशेषता को आधार मानकर हम अन्तर स्थापित नहीं करते बल्कि सम्पूर्ण व्यक्तित्व के आधार पर अन्तर करते हैं।

वैयक्तिक भिन्नता के प्रभावी कारक

वैयक्तिक भिन्नता का प्रभाव अधिगम प्रक्रिया तथा उसकी उपलब्धि पर पड़ता है। बुद्धि तथा व्यक्तित्व, वैयक्तिक भिन्नता के आधार हैं। इसके कारण सीखने की क्रिया प्रभावित होती है। वैयक्तिक विभिन्नताओं के अनेक कारण हैं, जिनमें से महत्वपूर्ण कारक निम्नांकित हैं-

  1. वंशानुक्रम- वंशानुक्रम में वे सभी जीन्स सम्मिलित हैं, जो एक बालक को उसके माता-पिता से गर्भधारण के समय प्राप्त होते है। वंशानुक्रम एक प्रकार की वंशपरम्परागत शक्ति है जिसके द्वारा माता-पिता और पूर्वजों के गुण नवनिर्मित शिशु में स्थानान्तरित होते है। इसमें शारीरिक और मानसिक, दोनों प्रकार के गुणों का स्थानान्तरण होता है। मन भी वंशानुक्रम को व्यक्तिगत भिन्नताओं का कारण स्वीकार करते हुए लिखते है कि – ‘‘हम सबका जीवन एक ही प्रकार से आरम्भ होता है। फिर भी इसका क्या कारण है कि जैसे-जैसे हम बड़े होते है, हम लोगों में अन्तर होता जाता है। इसका एक यही उत्तर है कि हम सबका वंशानुक्रम भिन्न-भिन्न है।

2.वातावरण- वैयक्तिक भिन्नताओं का दूसरा महत्वपूर्ण कारण है- वातावरण मनोवैज्ञानिकों का तर्क है कि व्यक्ति जिस प्रकार के सामाजिक वातावरण में निवास करता है, उसी के अनुरूप उसका व्यवहार, रहन-सहन, आचार-विचार आदि होते हैं। अतः विभिन्न सामाजिक वातावरणों में निवास करने वाले व्यक्तियों में भिन्नताओं का होना स्वाभाविक है। यही बात भौतिक और सांस्कृतिक वातावरणों के विषय में भी कही जा सकती है। वातावरण कारक का शारीरिक और मानसिक विकास, दोनों ही क्षेत्रों में प्रभाव है। उपयुक्त वातावरण के अभाव में शारीरिक व मानसिक योग्यताओं का सामान्य विकास सम्भव नहीं है। अतः कहा जा सकता है कि उपयुक्त वातावरण के अभाव में वंशानुक्रम द्वारा प्रदान की हुई विशेषताओं का सामान्य विकास सम्भव नहीं है।

  1. जातिप्रजाति व देश

एक देश में रहने वाली विभिन्न जातियों और प्रजातियों में अन्तर होता है। भारत में आर्य और द्रविणों में अन्तर स्पष्ट है। इसी प्रकार से हिन्दुओं के विभिन्न वर्गों में अन्तर स्पष्ट होता है। इन अन्तरों पर वंशानुक्रम एवं पर्यावरण के प्रभाव प्रमुख होते है। इसी प्रकार नीग्रो प्रजाति की अपेक्षा श्वेत प्रजाति अधिक बुद्धिमान और कार्यकुशल होती है। वैयक्तिक भिन्नताओं के कारण ही हमें विभिन्न देशों के व्यक्तियों को पहचानने में किसी प्रकार की कठिनाइयों नहीं होती है।

  1. आयु व बुद्धि

वैयक्तिक भिन्नता का एक कारण आयु और बुद्धि भी है। आयु के साथ-साथ बालक का शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक विकास होता है। इसीलिए विभिन्न आयु के बालकों में अन्तर मिलता है। बुद्धि जन्मजात गुण होने के कारण किसी को प्रतिभाशाली और किसी को मूढ़ बनाकर अन्तर की स्पष्ट रेखा खींच देती है।

  1. शिक्षा और आर्थिक दशा-

शिक्षा व्यक्ति को शिष्ट गम्भीर विचार-शील बनाकर अशिक्षित व्यक्ति से उसे भिन्न कर देती है। निम्न आर्थिक दशा अर्थात् गरीबी को सभी तरह के पापों और दुर्गुणों का कारण माना जाता है। गरीबी के कारण ही लोग चोरी, हत्या जैसे, जघन्य अपराध को भी गलत नहीं मानते। परन्तु ये लोग उन व्यक्तियों से पूर्णतया भिन्न हैं, जो उत्तम आर्थिक दशा के कारण प्रत्येक कुकर्म को अक्षम्य अपराध समझते है।

  1. लिंग भेद वैयक्तिक भिन्नता का एक महत्वपूर्ण कारक लिंगभेद भी है। इस भेद के कारण बालक और बालिकाओं की शारीरिक बनावट, संवेगात्मक विकास की कार्यक्षमता में अन्तर मिलता है। स्किनर का विचार है कि, ‘‘बालिकाओं में स्मृति योग्यता अधिक तथा बालकों में शारीरिक कार्य करने की क्षमता अधिक होती है। बालक गणित और विज्ञान में बालिकाओं से आगे होते है, जबकि बालिकायें भाषा और सुन्दर हस्तलेख में बालकों से आगे होती है। बालकों पर सुझाव का कम प्रभाव पड़ता है, पर बालिकाओं पर अधिक।

इस प्रकार वैयक्तिक भिन्नता के अनेक कारक है। पर जहाँ तक विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करने वालों छात्रों का प्रश्न है, उसकी भिन्नता के कुछ अन्य कारण प्रमुख है। इनका उल्लेख करते हुए गैरीसन व अन्य ने लिखा है- ‘‘ बालकों की भिन्नता के श्रेष्ठ कारणों में प्रेरणा, बुद्धि परिपक्वता, वातावरण सम्बन्धी उद्दीपन में विचलन है।’’

वैयक्तिक विभिन्नता का महत्व

  • आधुनिक मनोवैज्ञानिक, बालकों की वैयक्तिक विभिन्नताओं को अत्यधिक महत्व देते है। उनका यह विश्वास है कि इन भिन्नताओं का ज्ञान प्राप्त करके शिक्षक अपने छात्रों का सर्वाधिक हित कर सकता है। साथ ही शिक्षा के परम्परागत स्वरूप में क्रांतिकारी परिवर्तन करके उसे बालकों की वास्तविक आवश्यकताओं के अनुकूल बना सकता है। औद्योगिक मनोविज्ञान, शिक्षा-मनोविज्ञान और बाल-मनोविज्ञान के क्षेत्रों में वैयक्तिक भिन्नताओं का महत्व सर्वाधिक है। कुछ प्रमुख महत्व इस प्रकार है-
  • व्यक्तियों के वर्गीकरण में वैयक्तिक भिन्नताओं का ज्ञान आवश्यक है। यह वर्गीकरण विद्यालय में विद्यार्थियों का हो सकता है। विद्यार्थियों का मानसिक योग्यताओं के आधार पर वर्गीकरण कर यदि उन्हें शिक्षा दी जाती है तो शिक्षा उनके लिए बहुत उपयोगी हो जाती है।
  • अध्ययनों में देखा गया है कि कक्षा में मानसिक दृष्टि से जितनी अधिक समजातीयता होगी, शिक्षा का प्रभाव उतना ही समान होगा।
  • कक्षा में वैयक्तिक भिन्नताओं के अनुसार शैक्षिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक है कि कक्षा में बालकों की संख्या अधिक से अधिक 20 होनी चाहिए। कक्षा में विद्यार्थियों की संख्या कम होने से शिक्षक का विद्यार्थियों से व्यक्तिगत सम्पर्क व सम्बन्ध अच्छा होता है तथा वह विद्यार्थियों से उनके स्वभाव के अनुसार कार्य करवा सकता है।
  • एक ही कक्षा के बालकों की रूचियों, अभिवृत्तियों एवं मानसिक योग्यताओं में अन्तर होने के कारण पाठ्यक्रम का विभिन्नीकरण अत्यन्त आवश्यक है। सबको अपनी रूचियों, योग्यताओं और इच्छाओं के अनुसार विषयों के चयन में छूट होनी चाहिए।
  • व्यक्तिगत भेदों के कारण सब बालकों में समान कार्य की समान मात्रा पूर्ण करने की क्षमता नहीं होती है। अतः गृह-कार्य देते समय बालकों की क्षमताओं और योग्यताओं का पूर्ण ध्यान रखना आवश्यक है।
  • वैयक्तिक भिन्नताएँ लिंग-भेद के कारण भी पाई जाती है जिससे बालक-बालिकाओं के रूचियों, क्षमताओं, योग्यताओं, आवश्यकताओं आदि में अन्तर होता है। जैसे-जैसे वह बड़े होते है, वैसे- वैसे अन्तर अधिक स्पष्ट होता है। अतः प्राथमिक कक्षाओं में उनके लिए समान पाठ्य-विषय हो सकते है परन्तु माध्यमिक कक्षाओं में इन विषयों में अन्तर की स्पष्ट रेखा का खींचा जाना आवश्यक है। शिक्षक और माता-पिता को इन अन्तरों को ध्यान में रखकर बालक-बालिकाओं को सिखाना या प्रशिक्षण देना चाहिए।
  • इसी प्रकार स्किनर महोदय के अनुसार उद्योग के क्षेत्र में भी कर्मचारियों के चयन में वैयक्तिक भिन्नता का अध्ययन आवश्यक है। इसी प्रकार कर्मचारियों के प्रशिक्षण कार्यक्रमों एवं स्थानान्तरण के समय में भी वैयक्तिक भिन्नता का ज्ञान आवश्यक है।

अतः सारांश रूप में बालकों की वैयक्तिक भिन्नताओं का शिक्षा में अति महत्वपूर्ण स्थान है। इन विभिन्नताओं का ज्ञान प्राप्त करके शिक्षक अपने छात्रों को विविध प्रकार से लाभ पहुँचा सकता है। बाल मनोविज्ञान के क्षेत्र में भी बालकों के व्यवहार को समझने में, उनके विकास के लिए उपयुक्त वातावरण प्रदान करने में वैयक्तिक भिन्नताओं का ज्ञान आवश्यक है।

आनुवंशिकता एवं वातावरण का प्रभाव { influence of Heredity and Environment }

आनुवंशिकता का स्वरूप तथा अवधारणा  Model and Concept of Heredity

  • आनुवंशिक गुणों के एक सीढ़ी-से-दूसरी पीढ़ी में संचरित होने की प्रक्रिया को आनुवंशिकता या वंशानुक्रम (भ्मतमकपजल) कहा जाता है। 
  • आनुवंशिक लक्षणों के पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचरण की विधियों और कारणों के अध्ययन को आनुवंशिकी (ळमदमजपबे) कहा जाता है। 
  • आनुवंशिकी को स्थिर सामाजिक संरचना माना जाता है। 
  • एक व्यक्ति के वंशानुक्रम में वे सब शारीरिक बनावटें, शारीरिक विशेषताएँ, क्रियाएँ या क्षमताएँ सम्मिलित रहती हैं, जिनको वह अपने माता-पिता, अन्य पूर्वजों या प्रजाति से प्राप्त करता है। 
  • आनुवंशिकता जनन प्रक्रम का सबसे महत्त्वपूर्ण परिणाम संतति के जीवों के समान डिजाइन (अभिकल्पना) का होना है। आनुवंशिकता नियम इस बात का निर्धारण करते हैं। जिनके द्वारा विभिन्न लक्षण पूर्ण विश्वसनीयता के साथ वंशागत होते हैं। 
  • संतति में जनक के अधिकतर आधारभूत लक्षण होते हैं। जिन्हें वंशागत लक्षण कहते हैं। ऐसे लक्षण पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचरित होते रहते हैं। 
  • आनुवंशिकता का मूलाधार कोष (ब्ंसस) है जिस प्रकार एक-एक ईंटों को चुनकर इमारत बनती है ठीक उसी प्रकार से कोषों के द्वारा मानव शरीर का निर्माण होता है। गर्भधारण के सयम माँ के अण्डाणु और पिता के शुक्राणु का कोषों में मिलन होता है ताकि एक नये कोष की रचना हो सके। कोषों के केन्द्रक (न्यूक्लियस) के कणों को सुणसूत्र (क्रोमोसोम्स) कहते हैं। गुणसूत्रों का अस्तित्व युग्मों में होता है। मानव कोष में 46 गुणसूत्र होते हैं जो 23 युग्मों में व्यवस्थित होते हैं। प्रत्येक युग्म में से एक माँ से आता है और दूसरा पिता से और ये गुणसूत्र आनुवंशिकी सूचना को संचारित करते हैं। प्रत्येक गुणसूत्र (क्रोमोसोम) में बहुत बड़ी संख्या में जीन्स होते हैं, जोकि शारीरिक लक्षणों के वास्तविक वाहक हैें।
  • मॉण्टेग्यू और शील फेण्ड के अनुसार प्रत्येक गुणसूत्र में 3000 जीन्स पाए जाते हैं। 
  • जीन्स ही व्यक्ति की विभिन्न योग्यताओं एवं गुणों के  निर्धारक होते हैं। 

आनुवंशिकता का प्रभाव Effect of Heredity
शारीरिक लक्षणों पर प्रभाव Effect on Physical Characteristics

  • बालक के रंग-रूप, आकार, शारीरिक गठन, ऊँचाई इत्यादि के निर्धारण में उसके आनुवंशिक गुणों का महत्वपूर्ण हाथ होता है। 
  • माता के  गर्भ में निषेचित युग्मज (जाइगौट) मिलकर क्रोमोसोम्स के विविध संयोजन (कॉम्बीनेशन्स) बनाते हैं। इस प्रकार एक ही माता-पिता के प्रत्येक बच्चे से विभिन्न जीन्स बच्चे में अपने अथवा रक्त सम्बधियों के साथ अन्यों से अधिक समानताएँ होती हैं। 
  • आनुवंशिक संचारण (ट्रांसमिशन) एक अत्यन्त जटिल प्रक्रिया हैं मनुष्यों में हमें दृष्टिगोचर होने वाले अधिकांश अभिलक्षण, असंख्य जीन्स का संयोजन होता है। जीन्स के असंख्य प्रतिवर्तन (परम्युटेशन्स) और संयोजन (कॉम्बीनेशन्स) शारीरिक और मनोवैज्ञानिक अभिलक्षणों में अत्याधिक विभेदों के लिए जिम्मेदार होते हैं। 
  • केवल समान अथवा मोनोजाइगौटिक ट्विन्स में एकसमान सेट के गुणसूत्र (क्रोमोसोम्स) और जीन्स होते हैं क्योंकि वे एक ही युग्मज (सिंगल जाइगौट) के द्विगुणन (डुप्लिकेशन) से बनते हैं।
  • अधिकांश जुड़वाँ भ्रातृवत्त अथवा द्वि-युग्मक होते हैं जो दो पृथक् युग्मजों से से विकसित होते हैं। यह भाइयों जैसे जुड़वाँ भाई और बहनों की तरह मिलते-जुलते होते हैं, परन्तु वे अनेक प्रकार से परम्पर एक -दूसरे से भिन्न भी होते हैं। 
  • बालक के आनुवंशिक गुण उसकी वृद्धि एवं विकास को भी प्रभावित करते हैं। यदि बालक केे माता-पिता गोरे हैं तो उनका बच्चा गोरा ही होगा, किन्तु यदि माता-पिता काले हैं। तो उनके बच्चे काले ही होगें। इसी प्रकार माता-पिता के अन्य गुण भी बच्चे में आनुवंशिक रूप से चले जाते हैं। इसके कारण कोई बच्चा अति प्रतिभाशाली एवं सुन्दर हो सकता है एवं कोई अन्य बच्चा शारीरिक एवं मानसिक रूप से कमजोर।
  • जो बालक जन्म से ही दुबले-पतले, कमजोर, बीमार तथा किसी प्रकार की शारीरिक बाधा से पीडि़त रहते हैं, उनकी तुलना में सामान्य एवं स्वस्थ बच्चे का विकास अधिक होना स्वाभाविक ही है। शारीरिक कमियों का स्वास्थ्य ही नहीं वृद्धि एवं विकास पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। असन्तुलित शरीर, मोटापा, कम ऊँचाई, शारीरिक असुन्दरता इत्यादि बालक के असामान्य व्यवहार के कारण होते हैं। कई बार किसी  दुर्घटना के कारण भी शरीर को क्षति पहुँचती है और इस क्षति का बालक के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। 
  • शारीरिक लक्षणों के वाहक जीन प्रखर अथवा प्रतिगामी दोनों प्रकार के हो सकते हैं। यह एक ज्ञात सत्य है कि किन्हीं विशेष रंगों के लिए पुरूष और महिला में रंगों को पहचानने की अन्धता (कलर ब्लाइण्ड नेस) अथवा किन्हीं विशिष्ट रंगों की संवेदना नारी में नर से अधिक हो सकती है। एक दादी और माँ, स्वयं रंग-अन्धता से ग्रस्त हुए बिना किसी नर शिशु को यह स्थिति हस्तान्तरित कर सकती है। ऐसी स्थिति इसलिए है क्योंकि यह विकृति प्रखर होती है, परन्तु महिलाओं में यह प्रतिगामी (रिसेसिव) होती है। 
  • जीन्स जोड़ों में होते हैं। यदि किसी जोड़े में दोनों में जीन प्रखर होंगे तो उस व्यक्ति में वह विशिष्ट लक्षण दिखाई देगा (जैसे रंगों को पहचानने की अन्धता), यदि एक जीन प्रखर हो और दूसरा प्रतिगामी, तो जो प्रखर होगा वही अस्वित्व में रहेगा। 
  • प्रतिगामी जीन आगे सम्प्रेषित हो जाएगा और यह अगली किसी पीढ़ी में अपने लक्षण प्रदर्शित कर सकता है। अतः किसी व्यक्ति में किसी विशिष्ट लक्षण के दिखाई देने के लिए प्रखर जीन ही जिम्मेदार होता है। 
  • जो अभिलक्षण दिखाई देते हैं और प्रदर्शित होते हैं, जैसे आखों का रंग उन्हें समलक्षणी (फिनोटाइप्स) कहते हैं। 
  • प्रतिगामी जीन अपने लक्षण प्रदर्शित नहीं करते, जब तक कि वे अपने समान अन्य जीन के साथ जोड़े नहीं बना लेते जो अभिलक्षण आनुवंशिक रूप से प्रतिगामी जीनों के रूप में आगे संचारित हो जाते हैं। परन्तु वे प्रदर्शित होते उन्हें समजीनोटाइप (जीनोटाइप ) कहते हैं 

आनुवंशिकता (वंशानुक्रम) की परिभाषाएँ

  • जेम्स ड्रेवर “शारीरिक तथा मानसिक विशेषताओं का माता-पिता से सन्तानों में हस्तान्तरण होना आनुवंशिकता है।” 
  • रूथ बेनीडिक्ट “वंशानुक्रम माता-पिता से सन्तानों को प्राप्त होने वाले गुण है।” 
  • पी जिसबर्ट “प्रकृति में पीढ़ी का प्रत्येक कार्य कुछ जैविकीय अथवा मनोवैज्ञानिक विशेषताओं  को माता-पिता द्वारा उनकी सन्तानों में  हस्तान्तरित करना ही आनुवंशिकता है। 
  • एच ए पेटरस एवं वुडवर्थ “व्यक्ति अपने माता-पिता के माध्यम से पूर्वजों की जो विशेषताएँ प्राप्त करता है, उसे वंशानुक्रम कहते हैं। 
  • बी एन झा “ वंशानुक्रम व्यक्ति की जन्मजात विशेषताओं का पूर्ण योग है।”
  • जीवनशास्त्रियों के अनुसार “ निषिक्त अण्ड में सम्भावित विद्यमान विशिष्ट गुणों का योग ही आनुवंशिकता हैं।” 
  • उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि वंशानुक्रम या आनुवंशिकता पूर्वजों या माता-पिता द्वारा सन्तानों में होने वाले गुणों का संक्रमण है। प्रत्येक प्राणी अपनी जातीय विशेषताओं के आधार पर शारीरिक, मानसिक गुणों का हस्तान्तरण सन्तानों में करते हैं।

बुद्धि पर प्रभाव Effect on intelligence

  • बुद्धि को अधिगम (सीखने) की योग्यता, समायोजन योग्यता, निर्णय लेने की क्षमता इत्यादि के रूप में परिभाषित किया जाता है। जिस बालक के सीखने की गति अधिक होती है, उसका मानसिक विकास भी तीव्र गति से होगा। बालक अपने परिवार, समाज एवं विद्यालय में अपने आपको किस तरह समायोजित करता है यह उसकी बुद्धि पर निर्भर करता है। 
  •  गोडार्ड का मत है कि मन्दबुद्धि माता-पिता की सन्तान मन्दबुद्धि और तीव्रबुद्धि माता-पिता की सन्तान तीव्रबुद्धि वाली होती है। 
  • मानसिक क्षमता के अनुकूल ही बालक में संवेगात्मक क्षमता का विकास होता हैं 
  • बालक में जिस प्रकार के संवेगों का जिस रूप में विकास होगा वह उसके सामाजिक, मानसिक नैतिक, शारीरिक तथा भाषा सम्बन्धी विकास को पूरी तरह प्रभावित करने की क्षमता रखता है। यदि बालक अत्याधिक क्रोधित या भयभीय रहता है अथवा यदि उसमें ईर्ष्या एवं वैमनस्यता की भावना अधिक होती है, तो उसके विकास की प्रक्रिया पर इन सबका प्रतिकूल प्रभाव पडना स्वाभाविक ही है। 
  • संवेगात्मक रूप से असन्तुलित बालक पढ़ाई में या किसी अन्य गम्भीर कार्यों में ध्यान नहीं दे पाते, फलस्वरूप उनका मानसिक विकास भी प्रभावित होता है ।
  • बुद्धि की श्रेष्ठता प्रजाति के कारण भी होती है। 

चरित्र पर प्रभाव Effect on Character

  • डगडेल नामक मनोवैज्ञानिक ने अपने रहने दे के आधार पर यह बताया कि माता-पिता के चरित्र का प्रभाव भी उसके बच्चे पर पड़ता है। 
  • व्यक्ति के चरित्र में उसके वंशानुगत कारकों का प्रभाव स्पष्ट तौर पर देखा जाता है, इसलिए बच्चे पर उसका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक ही है। डगडेल ने 1877 ई. में ज्यूक नामक व्यक्ति केे वंशजों का अध्ययन करके यह बात सिद्ध की। 

वातारण का अर्थ Meaning of Environment

  • वातावरण का अर्थ पर्यावरण है। पर्यावरण दो शब्दों परि एवं आवरण के मिलने से बना है। परि का अर्थ होता है चारों, आवरण अर्थ होता है ढकना। इस प्रकार वातारवण अथवा पर्यावरण का अर्थ होता है चारों ओर घेरने वाला। 
  • प्राणी या मनुष्य जल, वायु, वनस्पति, पहाड़, पठार, नदी, वस्तु आदि से घिरा हुआ है यह सब मिलकर पर्यावरण का निर्माण करते हैं। इसे वातावरण या पोषण के नाम से भी जाना जाता है। 
  • वातावरण मानव जीवन के विकास पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालता है। मानव विकास में जितना योगदान आनुवंशिकता का है उतना ही वातावरण का भी। इसलिए कुछ मनोवैज्ञानिक वातावरण का सामाजिक वंशानुक्रम भी कहते  हैं। 
  • व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिकों ने वंशानुक्रम से अधिक वातावरण को महत्व दिया है। 

वातावरण सम्बन्धी कारक  Environment Related Factors

  • वातावरण में वे सब तत्व आ जाते है, जिन्होंने व्यक्ति को जीवन आरम्भ करने के समय से प्रभावित किया है। गर्भावस्था से लेकर जीवनपर्यन्त तक अनेक प्रकार की घटनाएँ व्यक्ति के व्यक्तित्व एवं उसके विकास को प्रभावित करती हैं। 
  • गर्भावस्थ में माता को अच्छा मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य बनाए रखने की सलाह इसलिए दी जाती है कि उससे न केवल गर्भ के अन्दर बालक के विकास पर असर पड़ता है बल्कि आगे के विकास की बुनियाद भी मजबूत होती है। यदि माता का स्वास्थ्य अच्छा न हो, तो उसके बच्चे के अच्छे स्वास्थ्य की आशा कैसे  की जा सकती है? और यदि बच्चे का स्वास्थ्य अच्छा न होगा तो उसके विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना स्वाभावितक ही है। 
  • जीवन की घटनाओं का बालक के जीवन पर प्रभाव पड़ता है। यदि बालक के साथ अच्छा व्यवहार हुआ है, तो उसके विकास की गति सही होगी अन्यथा उसके विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। जिस बच्चे को उसकी माता ने बचपन में ही छोड़ दिया हो वह माँ के प्यार के लिए तरसेगा ही। ऐसी स्थिति में उसके सर्वांगीण विकास के बारे में कैसे सोचा जा सकता है? 
  • जीवन की दुर्घनाओं का भी बालक के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। बालक का जन्म किस परिवेश में हुआ, वह किस परिवेश में किन लोगों के साथ रह रहा है, इन सबका प्रभाव उसके विकास पर पड़ता है। परिवेश की कमियों, प्रदूषण, भैतिक सुविधाओं का अभाव इत्यादि कारण भी बालक के विकास को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करते हैं। 
  • बालक की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति का प्रभाव भी उसके विकास पर पड़ता है। निर्धन परिवार के बच्चे को विकास के अधिक अवसर उपलब्ध नहीं होते। अच्छे विद्यालय में पढ़ने, सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेने इत्यादि  का अवसर गरीब बच्चों को नहीं मिलता, इसके कारण उनका विकास संतुलित नहीं होता। शहर के अमीर बच्चों को गाँवों के गरीब बच्चों की तुलना में बहेतर सामाजिक एवं सांस्कृतिक वातावरण मिलता है, जिसके कारण उनका मानसिक एवं सामाजिक विकास स्वाभाविक रूप से अधिक होता है। कोई बच्चा अपने माता-पिता की आनुवंशिकी से जो भी वंशानुक्रम में ग्रहण करता है उसे हम प्रकृति समझते हैं जबकि बच्चे के विकास में उसके परिवेश का जो प्रभाव उस पर पड़ता है उसे हम पालन-पोषण कहते हैं। 
  • परिवेश के प्रभाव, मानव के प्रसव-पूर्व और प्रसव के उपरान्त, दोनों, चरणों में बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। प्रसव-पूर्ण स्तर पर, जब भ्रूण माता के गर्भाशय में होते हैं, तो आन्तरिक अथवा बाह्म कारक, जैसे कुछ वैध अथवा अवैध नशीले पदार्थ (ड्रग्स), एल्कोहॉल, सीसा और प्रदूषक, अजन्मे शिशु के लिए हानिकारक हो सकते हैं। माँ की पौष्टिकता, रोग, और संवेगात्मक तनाव भी भ्रुण के विकास को प्रभावित कर सकते हैं। 
  • जन्म के पश्चात्, अनेक प्रकार के परिवेशीय कारक एक बच्चे के विकास को प्रभावित करने के लिए क्रियाशील होते हैं। इनमें बच्चे के घर का परिवेश, उसके पारिवारिक सदस्यों और स्कूल एवं आस-पड़ोस के सम्बन्ध इत्यादि की प्रमुख भूमिका होती है। 
  • वातावरण के प्रमुख कारक हैं- भौतिक कारक, सामाजिक कारक, आर्थिक कारक एवं सांस्कृतिक कारक। 

वातावरण की परिभाषाएँ

  • सनास्टैसी “ पर्यावरण वह हर चीज है, जो व्यक्ति के  जीवन के अलावा उसे प्रभावित करती है।”
  • जिसबर्ट “जो किसी एक वस्तु को चारों ओर से घेरे हुए है तथा उस पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालता है वह पर्यावरण होता है।”
  • हॉलैण्ड एवं डगलास “ जीव जगत के प्राणियों के विकास, परिपक्वता, प्रकृति, व्यवहार  तथा जीवन शैली को प्रभावित करने वाले बाह्म समस्त शक्तियों, परिस्थितियों तथा घटना को पर्यावरण के सम्मिलित किया जाता है और उन्हीं की सहायता से पर्यावरण का वर्णन किया जाता है।” 
  • सीसी पार्क “मनुष्य एक विशेष स्थान पर विशेष समय पर जिन सम्पूर्ण परिस्थितियों से घिरा हुआ है उसे पर्यावरण कहा जाता है।” 
  • वुडवर्थ “वातावरण में वे समस्त बाह्म तत्व आ जाते हैं जिन्होंने जीवन प्रारम्भ करने के समय से व्यक्ति को प्रभावित किया है।” 
  • बोरिंग लैगफील्ड एवं वेल्ड “व्यक्ति का वातावरण उन सभी उत्तेजनाओं का योग है जिनका यह जन्म  से मृत्यु तक ग्रहण करता है।”

भौतिक कारक Physical Factors

  • इसके अन्तर्गत प्राकृतिक एवं भौगोलिक परिस्थितियाँ आती हैं। मनुष्य के विकास पर जलवायु को प्रभाव पड़ता है। जहाँ अधिक सर्दी पड़ती है या जहाँ अधिक गर्मी पड़ती है वहाँ मनुष्य का विकास एक जैसा नहीं होता है। ठण्डे प्रदेशों के व्यक्ति सुन्दर, गोरे, सुडौल, स्वस्थ एवं बुद्धिमान होते हैं। धैर्य भी इनमें अधिक होता है। जबकि गर्म प्रदेश के व्यक्ति काले, चिड़चिड़े तथा आक्रामक स्वभाव के होते हैं। 

सामाजिक कारक Social Factors

  • व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है इसलिए उस पर समाज का प्रभाव अधिक दिखाई देता है। सामाजिक व्यवस्था, रहन-सहन, परम्पराएँ, धार्मिक कृत्य, रीति-रिवाज, पारस्परिक अन्तःक्रिया और सम्बन्ध आदि बहुत-से तत्व हैं जो मनुष्य के शारीरिक, मानसिक तथा भावात्मक एवं बौद्धिक विकास को किसी-न-किसी ढंग से अवश्व प्रभावित करते हैं। 

आर्थिक कारक Economical Factors

  • अर्थ अर्थात् धन से केवल सुविधाएँ ही नहीं प्राप्त होनी हैं बल्कि इससे पौष्टिक चीजें भी खरीदी जा सकती हैं, जिससे मनुष्य का शरीर विकसित होता है। धनहीन व्यक्ति में असुविधा के अभाव में हीन भावना विकसित हो जाती है जो विकास के मार्ग में बाधक है। आर्थिक वातावरण मनुष्य की बौद्धिक क्षमता को भी प्रभावित करता है। सामाजिक विकास भी इसका प्रभाव पड़ता है। 

सांस्कृतिक कारक  Cultural Factors

  • धर्म और संस्कृति मनुष्य के विकास को अत्यधिक प्रभावित करती हैं। खाने का ढंग, रहन-सहन पूजा-पाठ का ढंग, समारोह मनाने का ढंग, संस्कार का ढंग आदि हमारी संस्कृति हैं। जिन संस्कृतियों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण समाहित है उनका विकास ठीक ढंग से होता है लेकिन जहाँ अन्धविश्वास और रूढि़वाद का समावेश है उस समाज का विकास सम्भव नहीं है। 

वातावरण के कुछ महत्वपूर्ण प्रभाव शारीरिक अन्तर का प्रभाव

  • व्यक्ति के शारीरिक लक्षण वैसे तो वंशानुगत होते हैं, किन्तु इस पर वातावरण का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों का कद छोटा होता है। जबकि मैदानी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों का शरीर लम्बा एवं गठीला होता है।  अनेक पीढि़यों से निवास स्थल में परिवर्तन करने के बाद उपरोक्त लोगों के कद एवं रंग में अन्तर वातावरण के प्रभाव के कारण देखा गया है। 

प्रजाति की श्रेष्ठता पर प्रभाव 

  • कुछ प्रजातियों की बौद्धिक श्रेष्ठता का कारण वंशानुगत न होकर वातावरण होता है। वे लोग इसलिए अधिक विकास कर पाते हैं, क्योंकि उनके पास श्रेष्ठ शैक्षिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक वातावरण उपलब्ध होता है। यदि एक महान् व्यक्ति के पुत्र को ऐसी जगह पर छोड़ दिया जाए, जहाँ, शैक्षिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक वातावरण उपलब्ध न हो, तो उसका अपने पिता की तरह महान् बनना सम्भव नहीं हो सकता। 

व्यक्यित्व पर प्रभाव 

  • व्यक्तित्व के निर्माण में वंशानुक्रम की अपेक्षा वातावरण का अधिक प्रभाव पड़ता है। कोई भी व्यक्ति  उपयुक्त वातावरण में रहकर अपने व्यक्तित्व का निर्माण करके महान् बन सकता है। ऐसे कई उदाहरण हमारे आस-पास देखने को मिलने हैं जिनमें निर्धन परिवारों में जन्मे व्यक्ति भी अपने परिश्रम एवं लगन से श्रेष्ठ सफलताएँ प्राप्त करने में सक्षम हो जाते हैं। न्यूमैन और होलजिंगर ने इस बात को साबित करने के लिए 20 जोड़े जुड़वाँ बच्चों को अलग-अलग वातावरण में रखकर उनका अध्ययन किया। उन्होंने एक जोड़े बच्चे को गाँव में फार्म पर और दूसरे को नगर में रखा। बड़े होने पर दोनों बच्चों में पर्याप्त अन्तर पाया गया। फर्म का बच्चा अशिष्ट, चिन्ताग्रस्त, और बुद्धिमान था। उसके विपरीत, नगर का बच्चा, शिष्ट, चिन्तामुक्त और अधिक बुद्धिमान था। 

मानसिक विकास पर प्रभाव 

  • गोर्डन नामक मनोवैज्ञानिक का मत है कि उचित सामाजिक और सांस्कृतिक वातावरण मिलने पर मानसिक विकास की गति धीमी हो जाती है। उसने यह बात नदियों के किनारे रहने वाले बच्चों का अध्ययन करके सिद्ध की। इन बच्चों का वातावरण गन्दा और समाज के अच्छे प्रभावों से दूर था। अध्ययन में पाया गया कि गन्दे एवं समाज के अच्छे प्रभावों से दूर रहने के कारण बच्चों को मानसिक विकास पर भी प्रतिकूल असर पड़ा था। 

बालक पर बहुमुखी प्रभाव 

  • वातावरण, बालक के शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक आदि सभी अंगों पर प्रभाव प्रभाव डालता है। इसकी पुष्टि ‘एवेरॉन का जंगली बालक‘ के उदाहरण से की जा सकती है। इन बालक जन्म के बाद एक भेडि़या उठा ले गया था और उसका पालन-पोषण जंगली पशुओं के बीच में हुआ था। कुछ शिकारियों ने उसे 7799 ई. में पकड़ लिया। उस समय उसकी आयु 11 अथवा 12 वर्ष की थी। उसकी आकृति पशुओं-सी हो गई थी। वह उसके समान ही हाथों-पैरों से चलता था। वह कच्चा माँस खाता था। उसमें मनुष्य के समान बोलने और विचार करने की शक्ति नहीं थी। उसको मनुष्य के समान सभ्य और शिक्षित बनाने के सब प्रयास विफल हुए।

आनुवंशिकता एवं वातावरण के बाल विकास पर प्रभावों के शैशिक महत्त्व Educational Effect of Heredity and Environment on Development

  • विकास की वर्तमान विचारधारा में प्रकृति और पालन-पोषण दोनों को महत्व दिया गया है। 
  • आनुवंशिकता और परिवेश परस्पर इस प्रकार गुँथे हुए हैं कि इन्हें पृथक् करना असम्भव है और बच्चे पर प्रत्येक परस्पर अपना प्रभावा डालता है। इसलिए व्यक्ति के विकास की कुछ सर्वाभौमिक विशेषताएँ होती हैं और निजी विशेषताएँ होती हैं। 
  • आनुवंशिकता की भूमिका को समझना बहुत महत्वपूर्ण है और इससे भी अधिक लाभकारी है कि हम समझें कि परिवेश में कैसे सुधार किया जा सकता है? ताकि बच्चे की आनुवंशिकता द्वारा निर्धारित सीमाओं के भीतर सर्वोत्तम सम्भावित विकास के लिए सहायता की जा सके। 
  • हमें साधारणतया यह प्रश्न सुनने को मिलता है कि बालक की शिक्षा और विकास में वंशानुक्रम अधिक महत्वपूर्ण है या वातावरण? यह प्रश्न पूछना यह पूछने के समान है कि मोटरकार के लिए इंजन अधिक महत्वपूर्ण है या पेट्रोल। जिस प्रकार मोटरकार के लिए इंजन और पेट्रोल का समान महत्व है, उसी प्रकार बालक विकास के लिए वंशानुक्रम तथा वातावरण का समान महत्व है। 
  • वंशानुक्रम और वातावरण में पारस्परिक निर्भरता है। ये एक-दूसरे के पूरक, सहायक और सहायोगी हैं। बालक को जो मूल प्रवृत्तियाँ वंशानुक्रम से प्राप्त होती हैं, उनका विकास वातावरण में होता है; उदाहरण के लिए, यदि बालक में बौद्धिक शक्ति नहीं है, तो उत्तम-से-उत्तम वातावरण भी उसका मानसिक विकास नहीं कर सकता है। इसी प्रकार बौद्धिक श्क्ति वाला बालक प्रतिकूल वातावरण में अपना  मानसिक विकास नहीं कर सकता है। 
  • वस्तुतः बालक के सम्पूर्ण व्यवहार की सृष्टि, वंशानुक्रम और वातावरण की अन्तःक्रिया द्वारा होती है। शिक्षा की किसी भी योजना में वंशानुक्रम और वातावरण को एक-दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता है। जिस प्रकार आत्मा और शरीर का सम्बन्ध है, उसी प्रकार वंशानुक्रम और वातावरण का भी सम्बन्ध है। अतः बालक के सम्यक् विकास लिए वंशानुक्रम और वातावरण का संयोग अनिवार्य है। 
  • बालक क्या है? वह क्या कर सकता है? उसका पर्याप्त विकास क्यों  नहीं हो रहा है? आदि प्रश्नों का उत्तर आनुवंशिकता एवं वातावरण के प्रभावों में निहित है। इनकी जानकारी का प्रयोग कर शिक्षक बालक के सर्वांगीण विकास से महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। 
  • शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक, सामाजिक, सभी प्रकार के विकासों पर आनुवंशिकता एवं वातावरण का प्रभाव पड़ता है। यही कारण है कि बालक की शिक्षा भी इससे प्रभावित होती। अतः बच्चे के बारे में इस प्रकार की जानकारियाँ उसकी समस्याओं के समाधान में शिक्षक की सहायता करती हैं। 
  • बालक को समझकर ही उसे दिशा-निर्देश दिया जा सकता है। एक कक्षा में पढ़ने वाले सभी बालकों का शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य एक जैसा नहीं होता है। शारीरिक विकास मानसिक विकास से जुड़ा है और जिसका मानसिक विकास अच्छा होता है, उसकी शिक्षा भी अच्छी होती है। 
  • वंशानुक्रम से व्यक्ति शरीर का आकार-प्रकार प्राप्त करता है। वातावरण शरीर को पुष्ट करता है। यदि परिवार में पौष्टिक भोजन बच्चे को दिया जाता है, तो उसकी माँसपेशियाँ, हड्डियाँ तथा अन्य प्रकार की शारीरिक क्षमताएँ बढ़ती हैं। बौद्धिक क्षमता के लिए सामान्यः वंशानुक्रम ही जिम्मेदार होता है। इसलिए बालक को समझने के लिए इन दोनों कारकों को समझना आवश्यक है। 
  • विद्यालयों में कई प्रकार की अनुशासनहीनता दिखाई पड़ती है। कई बार इनके लिए परिवार का परिवेश ही नहीं बल्कि काफी हद तक वंशानुक्रम भी जिम्मेदार होता है। जैसे-चोरी करना, अपराध में लिप्त रहना, झूठ बोलना आदि अवगुणों के विकास में बालक के परिवार एवं उनके वंशानुक्रम की भूमिका अहम होती है। किसी बालक की शैक्षिक उपलब्धि एक सीमा तक बढ़ती है, उसके माता-पिता अच्छे-से-अच्छे परिवेश देकर उसे बढ़ाना चाहते हैं, बालक परिश्रम भी करता है, किन्तु आगे नहीं बढ़ पाता। इसका क्या कारण हो सकता हैं? यह जानने के लिए वंशानुक्रम का ज्ञान शिक्षक एवं अभिभावक ही सहायता करता है। यदि वंशानुक्रम ठीक नहीं है अर्थात् बुद्धिमान लोग उसके मातृ तथा पितृ पक्ष में नहीं हुए हैं, तो अच्छा परिवेश उसे एक निश्चित सीमा तक ही आगे ले जाएगा।
  • बालक की रूथियाँ, प्रवृत्तियाँ तथा अभिवृत्ति आदि के विकास के लिए वातावरण अधिक जिम्मेदार होता है लेकिन वातावरण के साथ यदि वंशानुक्रम भी ठीक है, विकास को सार्थक दिशा मिल जाती है। उदाहरण के लिए एक व्यवसायी के  बच्चे के जीवन में व्यावसायिक  अभिरूचि एवं क्षमता पाई जाती है। यदि उसे व्यवसाय का परिवेश प्राप्त हो, तो उस दिशा में सफलता मिल सकती हैं।
  • आनुवंशिकी एवं वातावरण के बालक के विकास पर पड़ने वाले प्रभावों के ज्ञान के अनुरूप शिक्षक विद्यालय के वातावरण को बच्चों के लिए उपयुक्त बनाता है, जिससे छात्रों के व्यवहार में अपेक्षित  परिवर्तन किया जा सके एवं शिक्षण-अधिगम  प्रक्रिया को अधिक प्रभावशाली बनाया जा सके।