CDP Sources of Motivation

🔆अभिप्रेरणा के स्रोत
(Sources of motivation)➖

🔸स्रोत या ऐसी कौन सी चीजें हैं जिनके द्वारा भी प्रेरणा मिलती है मुख्यतः इन्हें तीन भागों में बांटा गया है।
📍1 आवश्यकता (need)
📍2 चालक /अंतर्नाद (drive)
📍3 प्रोत्साहन /उद्दीपन (stimulus)

❇️1 आवश्यकता (need)➖

🔹आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है।
(Need is the mother of invention)

🔹जरूरत से आविष्कार तक का सफर अभिप्रेरणा द्वारा पूरा होता है।
🔹यदि जरूरत नहीं है तो आविष्कार नहीं हो पाएगा।
🔹और यदि जरूरत है लेकिन अभिप्रेरणा नहीं है तब इस स्थिति में भी आविष्कार नहीं हो पाएगा।

🔹किसी भी अभिप्रेरणात्मक व्यवहार की उत्पत्ति आवश्यकता से ही होती है। प्राणी के शरीर में किसी भी चीज की कमी या अति को आवश्यकता कहा जाता है । जो व्यक्ति के शरीर में पानी की कमी हो जाती है तब उसे प्यास की आवश्यकता का अनुभव होता है।

🔹मनुष्य के अंतर्गत दो प्रकार की आवश्यकता होती है।
1 जैविक आवश्यकता
2 सामाजिक आवश्यकता।

✨1 जैविक आवश्यकता➖

▪️ इसके अंतर्गत शारीरिक जरूरतें जैसे भोजन जल हवा नींद इत्यादि आती है।
▪️जैविक आवश्यकता व्यक्ति के जन्म से ही पाई जाती हैं जिनके अभाव में व्यक्ति का अस्तित्व संभव ही नहीं है। कोई भी प्राणी भूख प्यास इत्यादि जैविक आवश्यकताओं को संतुष्टि किए बिना जीवित ही नहीं रह सकता है।

▪️अर्थात जैविक आवश्यकताएं बेसिक नीड है जिनकी बिना व्यक्ति के जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती प्रथम जैविक आवश्यकता है ऐसी आधारभूत आवश्यकता है कि इनकी पूरी ना होने पर मनुष्य का जीवन खतरे में पड़ सकता है।
पूरी आवश्यकता ही नहीं बल्कि कोई एक भी जैविक आवश्यकता अगर पूरी नहीं होती है तो मनुष्य के शरीर में तनाव उत्पन्न होना शुरू हो जाता है।
जिससे मनुष्य उस आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए क्रियाशील होकर कुछ कार्य या संघर्ष करने लगता है और कार्य को करने के लिए अभिप्रेरित हो जाता है।

✨2 सामाजिक आवश्यकताएं➖

▪️जैसे प्रतिष्ठा, सुरक्षा, संग्रहता, विशिष्टता, पुष्टिकरण सामाजिकता, सामाजिक मूल्य, समुदाय के साथ एकीकरण, धनार्जन, बेहतर जीवन, संस्कृतिक कर्तव्य इत्यादि।

▪️ मनोवैज्ञानिकों ने कहा है कि आवश्यकता अभिप्रेरणा को उत्पन्न करने का पहला चरण या कदम है।
▪️क्योंकि आवश्यकता से ही अभिप्रेरणा उत्पन्न होती है और हम उस आवश्यकता को हर हाल में हर स्थिति में पूरा करना चाहते हैं या जिंदा रहना जाते हैं।

▪️सभी की अपनी-अपनी अलग-अलग आवश्यकताएं होती है और उनका अपना महत्व होता है जो उनकी सोच पर निर्भर करती है जैसे हमारी आवश्यकता की सोच होती है उसी आधार पर हम अभि प्रेरित होते है ।

▪️अभिप्रेरणा एक समय के लिए शुरू होती है और इस बात का निर्णय नहीं किया जा सकता कि वह कब तक चलती रहेगी।

▪️जैसे ही मनुष्य की आवश्यकता की पूर्ति हो जाती है उसके साथ ही उसकी क्रियाशीलता और शारीरिक तनाव की भी समाप्ति हो जाती हैं।

❇️2 चालक /अंतर्नाद (Drive)➖

▪️जब हमें किसी चीज के प्रति आवश्यकता होती है तो हम उसके लिए अधिक क्रियाशील हो जाते हैं और यही क्रियाशीलता हमारे लक्ष्य की पूर्ति करती है।

▪️जब व्यक्ति में किसी चीज के प्रति आवश्यकता उत्पन्न होती है तो उस व्यक्ति में आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए क्रियाशीलता बढ़ जाती है और यही क्रियाशीलता को चालक बोला जाता है।

▪️अंतर्नाद एक ऐसी मानसिक तनाव की अवस्था है जो आवश्यकता के कारण उत्पन्न होती है और व्यक्ति को क्रियाशील बना देती है।
जैसे भूख की आवश्यकता में व्यक्ति भोजन खोजने के लिए क्रियाशील हो उठता है।

▪️चालक क्रिया को करने की एक ऊर्जा है।

▪️जब हम किसी भी क्रिया को करते हैं तो चालक की मदद से ही हमें उस क्रिया को करने में एक ऊर्जा मिलती है और हम उसी ऊर्जा से क्रिया को पूरा करते हैं।

▪️चालक शरीर की एक आंतरिक दशा या स्थिति है जो कि एक विशेष प्रकार के व्यवहार के लिए आंतरिक प्रेरणा प्रदान करता है।

❇️3 प्रोत्साहन /उद्दीपन (Stimulus)➖

▪️प्रोत्साहन का संबंध बाहरी वातावरणीय या वस्तुओं से होता है जो व्यक्ति को अपनी और आकर्षित करते हैं एक बार उसकी प्राप्ति से आवश्यकता की पूर्ति तथा चालक में कमी हो जाती है।

▪️वस्तु की आवश्यकता उत्पन्न होने पर उस आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए चालक उत्पन्न होता है और जिस वस्तु से आवश्यकता पूर्ण होती है उसे उद्दीपन या प्रोत्साहन कहते हैं।

✍️Notes By-'Vaishali Mishra'

अभिप्रेरणा के स्रोत
(Sources of motivation)

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ऐसी कौन सी चीज है जिससे हमें अभिप्रेरणा मिलती है?

अभिप्रेरणा के मुख्यतः तीन स्त्रोत है। जो निम्नलिखित है……..

💫1. आवश्यकताएं (needs)
💫2. चालक / अंतर्नाद (drive)
💫3. प्रोत्साहन (appreciation) / उद्दीपन (stimulus)

1. आवश्यकताएं (needs)
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“Need is the mother of invention.”

“आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है।”

प्रत्येक प्राणियों की कुछ मूलभूत आवश्यकताएं होती है तथा उनके प्रत्येक व्यवहार का कार्य इन्हीं आवश्यकता से अभिप्रेरित होता है। अभिप्रेरणा आवश्यकताओं की अनुभूति से उत्पन्न होती है। मनुष्य का व्यवहार भी उन्हें आवश्यकताओं से संचालित होता है।

अतः आवश्यकता व्यक्ति में निहित वह शक्ति है जो व्यक्ति को किसी विशेष प्रकार का कार्य करने के लिए अभिप्रेरित करती है।

मनुष्य की आवश्यकताएं निम्नलिखित प्रकार की है……

💫 1. जैविक आवश्यकता/शारीरिक आवश्यकता (physical needs) – जैसे- भोजन, पानी, नींद, विश्राम, ऑक्सीजन इत्यादि।

💫 2. सामाजिक आवश्यकताएं (social needs) – जैसे-सामाजिक मान्यता, आत्म सम्मान, प्रतिष्ठा, सुरक्षा, धन अर्जन, सामाजिक संबंध, शिक्षा, सांस्कृतिक कर्तव्य, बेहतर जीवन, सामाजिक मूल्यों से संबंधित आवश्यकताएं इत्यादि।

▪️जैविक आवश्यकता ऐसी आधारभूत आवश्यकता है जिनके पूरा ना होने पर मनुष्य का जीवन खतरे में पड़ सकता है। सभी आवश्यकता ही नहीं बल्कि कोई एक भी जैविक आवश्यकता अगर पूरी नहीं होती है तो मनुष्य के शरीर में तनाव होना शुरू हो जाता है जिससे मनुष्य उस आवश्यकता की पूर्ति के लिए क्रियाशील हो जाता है और संघर्ष करने लगता है।

आवश्यकता को अभिप्रेरणा की उत्पत्ति का पहला कदम माना जाता है। मनुष्य की आवश्यकता की पूर्ति के साथ ही उसकी क्रियाशीलता और शारीरिक तनाव की समाप्ति हो जाती है।

2. चालक / अंतर्नाद (drive)
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जब व्यक्ति में किसी चीज के प्रति आवश्यकता उत्पन्न होती है उस व्यक्ति में उस आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए क्रियाशीलता बढ़ जाती है इसी क्रिया को चालक/ प्रेरक कहते हैं।

चालक क्रिया को करने की ऊर्जा है।वस्तुतः चालक शरीर की एक आंतरिक क्रिया या दशा है जो एक विशेष प्रकार के व्यवहार के कारण प्रेरणा प्रदान करता है।

व्यक्ति की आवश्यकताएं उनसे संबंधित चालकों को जन्म देती है। जैसे- भोजन की आवश्यकता से “भूख – चालक” तथा पानी की आवश्यकता से “प्यास- चालक” उत्पन्न होता है। अतः चालक व्यक्ति को एक विशेष प्रकार का कार्य अथवा व्यवहार करने के लिए प्रेरित करती है जिससे उसकी आवश्यकता की पूर्ति होती है।

💫 3. प्रोत्साहन (appreciation) /उद्दीपन (stimulus)
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प्रोत्साहन का संबंध बाहरी वातावरण या वस्तु से होता है जो अपनी ओर आकर्षित करता है तथा उसकी प्राप्ति से आवश्यकता की पूर्ति तथा चालक कम हो जाता है।

वस्तु की आवश्यकता उत्पन्न होने पर उस आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए चालक उत्पन्न होता है। जिस वस्तु से आवश्यकता पूर्ण होती है, उसे उद्दीपन / प्रोत्साहन कहते हैं।

उदाहरण,
भोजन से भूख आवश्यकता की पूर्ति होती है। अतः भूख चालक के लिए भोजन “उद्दीपन” है।

Notes by Shreya Rai……✍️🙏

🔥 Batch-SuperTet🔥
🌟 Date-4/04/2021🌟
✨Day-Tuesday✨
🎉Time-7:45am🎉

🎊Topic -Sources of Motivation🎊
⭐⭐ (अभिप्रेरणा के स्रोत)⭐⭐

🌟अभिप्रेरणा के स्रोत निम्नलिखित हैं
💢१-आवश्यकता
💢२-चालक
💢३-प्रोत्साहन/उद्दीपक

💢१-आवश्यकता।💢
⚡”आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है”⚡

✨उदाहरण÷मनुष्य को कई वर्ष पूर्व जब भारत गुलाम था तब विदेशी कपड़ों का बहिष्कार करके” स्वदेशी अपनाओ”पर जोर दिया जिसके अंतर्गत सूत काट कर कपड़ा तैयार करने की कोशिश की गई जिसमें कपड़ों को बुनने में समस्या उत्पन्न होती थी बहुत अधिक समय भी लगता था तब गांधी जी द्वारा चरखे का निर्माण किया गया और उस पर अनेक आंदोलनों द्वारा पूरे भारतवर्ष में चरखे के द्वारा सूत काटकर खादी के कपड़ों का बनाने का कर किया गया, अर्थात यहां से हमें समझ सकते हैं कि मनुष्य को जिस प्रकार की आवश्यकता होती है वह उसी के अनुरूप उसकी पूर्ति के लिए नए-नए अथक प्रयास व खोज, अविष्कार करता है, ठीक उसी प्रकार वर्तमान में चरखे की जगह विभिन्न प्रकार की मशीनों का प्रयोग किया जाता है जिनसे से समय की बचत व बेहतर निर्माण , साथ ही उत्पादन में वृद्धि संभव हुई।

💢मनुष्य के अंतर्गत दो प्रकार की आवश्यकताएं होती हैं जो निम्नलिखित हैं÷
🎉१-जैविक आवश्यकता
🎉२-सामाजिक आवश्यकता

🎉१-जैविक आवश्यकता🎉🎉
मनुष्य को या अन्य जीव धारियों को पृथ्वी पर अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए कुछ जैविक आवश्यकता है महत्वपूर्ण है, 💨जैसे÷पेट भरने के लिए भोजन, प्यास बुझाने के लिए जल, सांस लेने के लिए शुद्ध वायु, ऊर्जावान व जीवित रहने के लिए नींद की आवश्यकता होती है जिसके द्वारा मनुष्य अपने शारीरिक क्षमता को बनाए रखने के लिए इन सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है वा यह सभी आवश्यकताए है मनुष्य के लिए महत्वपूर्ण है।

🎉🎉२-सामाजिक आवश्यकता🎉🎉

✨मनुष्य को अपना जीवन शांतिपूर्ण, सुगमतापूर्वक, सूट एंड तरीके से व्यतीत करने के लिए कुछ सामाजिक आवश्यकताओं की जरूरत होती है जन सेवा समाज में अपने अस्तित्व को बनाए रखने में सक्षम रहता है, जैसे धर्म का अर्जन करना, सामाजिक संबंध स्थापित करना है, अच्छी शिक्षा ग्रहण करना, बेहतर जीवन की कामना करना है, अच्छी आदतों का समाज में समावेशन करना है, सामाजिक संस्कृति का पालन करना, सांस्कृतिक कर्तव्यों का निर्वहन करना इत्यादि है।

💨💨💨कुछ महत्वपूर्ण तथ्य💨💨💨

🌟मनुष्य की जैविक आवश्यकता है ऐसी आधारभूत आवश्यकता है जिनका पूरा ना होने पर मनुष्य का जीवन खतरे में पड़ सकता है सभी आवश्यकताओं की पूर्ति ना होने पर ही नहीं बल्कि किसी भी एक जैविक आवश्यकता की पूर्ति नहीं होती है तो मनुष्य के शरीर में तनाव उत्पन्न होना शुरू हो जाता है जिससे मनुष्य उस आवश्यकता की पूर्ति के लिए क्रियाशीलता के साथ अथक प्रयासरत रहता है और उस आवश्यकता की पूर्ति के लिए संघर्ष, परिश्रम भी करने लगता है;यदि किसी मनुष्य को भूख या प्यास लगती है तो वह उसकी शांत करने के लिए भोजन वा जल की खोज करना प्रारंभ कर देता है और वह भूख प्यास की पूर्ति के लिए निरंतर प्रयासरत रहता है जब तक उसकी आवश्यकता (भूख, प्यास इत्यादि) की पूर्ति नहीं होती , जैसे ही वह आवश्यकता की पूर्ति कर लेता है तो वह तनाव की स्थिति से बाहर आ जाता है,या तनाव की स्थिति समाप्त हो जाती है।

🎉🎉२-चालक🎉🎉

✨जब व्यक्ति में किसी चीज के प्रति आवश्यकता उत्पन्न होती है तो वह उस व्यक्ति में उस आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए क्रियाशीलता को बढ़ा देता है किसी क्रियाशीलता को ही चालक कहते हैं।

💨उदाहरण÷अर्थात पिंजरे में बंद बिजली को भूख लगने पर पिंजड़े के बाहर रखे भोजन की प्राप्ति के लिए अनेकों प्रकार की क्रियाएं (उछलना कूदना वाह लोहे की दीवारों को काटना) करना शुरू कर देती है बिल्ली को या क्रिया भूख लगने के कारण करनी पड़ी अर्थात बिल्ली की भूख चालक हुई जिसके कारण उसने उछल कूद वा अन्य क्रियाएं की।

🎉वस्तुतः चालक शरीर की एक आंतरिक क्रिया है जो एक विशेष प्रकार के व्यवहार के लिए प्रेरणा प्रदान करती हैं।

🌟🌟3-प्रोत्साहन या उद्दीपक 🌟🌟
🌟🌟 Appreciation🌟🌟

🎉प्रोत्साहन का संबंध बाहरी वातावरण या वस्तु से होता है जो व्यक्ति को अपनी ओर आकर्षित करता है उसकी प्राप्त से आवश्यकता की पूर्ति तक चालक कम हो जाता है।

💨अर्थात यदि दिल्ली को भूख लगने पर हुआ भोजन की तरफ से कर लेती है तो वह दोबारा पिंजरे में उछल कूद या पिंजरे को काटना या भगदड़ मचा ना जब तक कि उसको दोबारा से भूख ना लग जाए या भोजन की आवश्यकता ना हो भोजन की प्राप्ति के बाद उसकी आवश्यकता की पूर्ति हो चुकी है और चालक शांत हो चुका है, अर्थात उसको प्रोत्साहन प्राप्त हो चुका है।

💢वस्तु की आवश्यकता उत्पन्न होने पर उस आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए चालक उत्पन्न होता है और जिस वस्तु से आवश्यकता की पूर्ति होती है उसे उद्दीपन या प्रोत्साहन कहते हैं।

🔥Thank you 🔥
🤗handwritten by-Shikhar Pandey🙏

CDP thinking and learning part 2

चिंतन की विशेषताएं

❇️1 चिंतन में मानसिक प्रक्रिया निहित होती है।

🔹मस्तिष्क के द्वारा की जाने वाली क्रियाएं मानसिक प्रक्रिया या मानसिक कार्य कहलाता है।

🔹किसी भी वस्तु पर मस्तिष्क द्वारा जब क्रिया की जाती है या मानसिक रूप से कोई कार्य किया जाता है तब वह चिंतन किया जाता है।

❇️2 चिंतन किसी न किसी माध्यम से प्रदर्शित हो जाता है यह माध्यम भाषा प्रतीकात्मक व्यवहार है।

🔹प्रतीकात्मक व्यवहार से तात्पर्य बोलने का लिहाजा चेहरे के हाव भाव तथा चिंतन के समय की गई गतिविधियां हैं।

🔹इन सभी संकेतों के माध्यम से ही यह ज्ञात किया जा सकता है की चिंतन किस प्रकार का है।

🔹एक ही चीज के चिंतन के प्रतीक अलग-अलग चीजों को दर्शाते हैं जैसे यदि कोई काम नहीं कर रहा है। तो इस नहीं करने का कारण कई अलग-अलग प्रकार के संकेत हो सकते हैं।

🔹जैसे यदि हमें गुस्सा नहीं करना है।
तो यहां गुस्सा नहीं करने के कई अलग-अलग प्रकार के संकेत हो सकते हैं।
जैसे
▪️गुस्सा करना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है

▪️गुस्सा करने से काम बिगड़ सकता है।

▪️गुस्सा करने से अन्य लोगो पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

❇️3 चिंतन के लिए कोई ना कोई समस्या का होना आवश्यक है यदि समस्या नहीं होगी तो चिंतन होगा ही नहीं

🔹समस्या से तात्पर्य केवल परेशानी से ही नहीं बल्कि किसी भी टास्क या कार्य या परिस्थिति या जिम्मेदारी या जरूरत से है।

🔹जब भी हमारे सामने कोई समस्या या कोई कार्य होता है तब उसके समाधान के लिए या उसको पूरा करने के लिए उस पर हम चिंतन करते हैं।

❇️4 चिंतन में प्रयास और त्रुटि दोनों ही नहीं रहती है।

🔹जिसमें कार्य समस्या का चिंतन किया जाना है उसका सफल समाधान करने के लिए उसमें कई प्रयास पढ़ने पड़ते हैं और साथ ही साथ उसने कई त्रुटियों का सामना भी करना पड़ता है अंततः एक उचित समाधान प्राप्त होता है। किसी भी कार्य में स्पष्ट और आसानी से सफलता प्राप्त हो जाए बिना किसी प्रयास और त्रुटि की ऐसा संभव ही नहीं है अर्थात जब कार्य को करने के लिए जब चिंतन किया जाता हैं तो उसमे कई प्रयास और त्रुटि होती है तभी उस कार्य को सफल रूप से किया जा सकता है।

🔹चिंतन के समय व्यक्ति समस्या से संबंधित विभिन्न विचारों को समस्या निदान के लिए लागू करता है। यदि एक विचार से समाधान नहीं कर पाता तो दूसरे विचार की सहायता लेता हैं और यह क्रम तब तक चलता है जब तक की समस्या का समाधान प्राप्त ना हो जाता।

❇️5 चिंतन शुरुआत में स्थूल होता है और बाद में सूक्ष्म

🔹अर्थात चिंतन स्थूल से सूक्ष्म की ओर होता है किसी भी समस्या के समाधान के लिए उस समस्या पर विस्तृत या व्यापक रूप से या स्थूल रूप में चिंतन करते हैं या समस्या से जुड़े सभी पक्षों पर चिंतन करते हैं इसके पश्चात ही सभी पक्षों पर चिंतन करने के फलस्वरूप ही एकीकृत रूप से एक सूक्ष्म समाधान प्राप्त हो जाता है।

❇️6 चिंतन में विश्लेषण और संश्लेषण दोनों आवश्यक है।

🔹किसी भी समस्या या कार्य का उचित समाधान प्राप्त करने हेतु उस समस्या का विश्लेषण अर्थात समस्या से जुड़े सभी पहलू या उसके छोटे-छोटे भागों को तोड़कर उसका अध्ययन किया जाता है तत्पश्चात समस्त भागों को एक रूप में जोड़कर अर्थात संश्लेषण कर समस्या का उचित समाधान प्राप्त किया जा सकता है।

🔹जब किसी भी समस्या का हम विश्लेषण करते हैं तो हम समस्या की गहराई या समस्या की मुख्य जड़ अर्थात जिस वजह से समस्या उत्पन्न हो रही है उस तक पहुंच जाते हैं तथा उस मुख्य जड़ पर ही कार्य करके यह समस्त भागों को एक सही रूप में संश्लेषित कर समस्या का बेहतर रूप से समाधान प्राप्त कर सकते हैं।

❇️7 चिंतन में प्रत्यक्षीकरण ना होकर प्रमुख रूप से विचार तथा प्रतीक होते हैं।

🔹जिस भी चीज पर चिंतन किया जा रहा है वह मूर्त हो सकती हैं लेकिन उस वस्तु पर जो चिंतन किया जा रहा है वह मूर्त नहीं होता है बल्कि वह विचारों व संकेतों के आधार पर किया जाता है।

🔹जब भी कोई वस्तु हमारे सामने या मूर्त रूप में या प्रत्यक्ष रूप में होती है तो उस वस्तु पर हम विचारों व संकेतों का प्रयोग कर चिंतन लगाते हैं।

❇️8 चिंतन एक जटिल प्रक्रिया है लेकिन इसमें संज्ञानात्मक का अपेक्षाकृत अधिक महत्व होता है।

🔹किसी भी वस्तु पर चिंतन करना एक जटिल प्रक्रिया है जिसमें अधिक से अधिक हम अपने संज्ञान या अपने मस्तिष्क का प्रयोग करते हैं।

✨चिंतन के प्रकार ( types of thinking)
1 प्रत्यक्षात्मक चिंतन
2 कल्पनात्मक चिंतन
3 प्रत्यात्मक चिंतन

🌀1 प्रत्यक्षात्मक चिंतन (perceptual thinking)

🔸जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि इसमें उस ही चीज़ का चिंतन होगा जो प्रत्यक्ष होगी। अर्थात सामने होगी। इसमें बालक उन वस्तुओं के बारे के सोचता है जो उसके सामने भौतिक वातावरण में उपस्थित रहती हैं।

🔸इसका संबंध हमारी ज्ञानेंद्रियों से है हम इन ज्ञानेंद्रियों (आंख,कान,नाक,जीभ, त्वचा) से चीजों को महसूस कर उस पर चिंतन कर सकते हैं।

🔸सामान्यतः पशु और बालक चीजों को प्रत्यक्ष रूप से देखकर ही चिंतन कर पाते हैं।

🔸अर्थाथ ज्ञानेंद्रियों से संबंधित ज्ञान को ही प्रत्यक्ष ज्ञान कहा जाता है।

🔸कई बार हमारे चीजों के बारे में अपने मस्तिष्क में उसके काल्पनिक रूप या अप्रत्यक्ष या अमूर्त चिंतन को जानते हुए या समझते हुए भी हम उस वस्तु के प्रत्यक्ष रूप पर चिंतन करने लगते हैं।
जिसके परिणाम स्वरूप हम चीजों का यह निर्णय नहीं कर पाते कि वह हमारी लिए सही है या गलत।

🔸इस प्रकार के चिंतन में कल्पना का कोई स्थान नहीं होता अर्थात कल्पना के स्थान पर हम चीजों को प्रत्यक्ष रूप से देखकर चिंतन करते हैं।

✨उदाहरण एक कुत्ता रोटी पाने के लिए घर में घुसता है किंतु घर के मालिक को डंडा लेकर आता देखकर भाग खड़ा होता है। कुत्ते के भागने का कारण उसका प्रत्यक्क्षात्मक चिंतन है जिसमें उसका पूर्व अनुभव भी सम्मिलित होता है । उसी के आधार पर कुत्ता यह निश्चय करता है कि घर के मालिक ने घर में घुसने की पूर्व समय में भी डंडा मारा था इसीलिए आज भी मारेगा और वह भाग खड़ा होता है।

🌀2 कल्पनात्मक चिंतन (imaginative thinking)

🔸इसमें मूर्त वस्तु का अभाव रहता है लेकिन इसकी पूर्ति कल्पना से कर ली जाती है।

🔸इसको संबंध भविष्य से होता है लेकिन इसमें स्मृति का भी योगदान होता है।

🔸कल्पनात्मक चिंतन में स्मृति के आधार पर पूर्व अनुभव की पृष्ठभूमि से व्यक्ति के मानसिक प्रतिमान का निर्माण होता है।

🔸इसमे वस्तुओं के सामने न होते हुए भी उसके बारे में सोचना और चिंतन करना ही कल्पनात्मक चिंतन कहलाता है। इसमे बालक कल्पना करना सीख जाता है। अब वह वस्तुओं आदि के सामने न होते हुए भी उसके बारे में सोच सकता है।

🌀3 प्रत्यात्मक चिंतन (conceptual thinking)

🔸प्रत्यात्मक चिंतन का आधार प्रत्यय है।
प्रत्यय से तात्पर्य किसी सोच या विचार या तथ्य या अवधारणा या संप्रत्यय से है।

🔸अर्थात किसी तथ्य के गुणों के ज्ञान को प्रत्यय कहते हैं।

🔸अतः किसी भी बात के बारे में उसके ज्ञान हमारे दिमाग में होते हैं वही हमारा प्रत्यय होता है।
यह जब हमारे कोई चीज सामने होती है तो उस चीज से संबंधित जो भी ज्ञान हमारे मस्तिष्क में होता है वही उस चीज का संप्रत्यय कहलाता है।

🔸इसमें बालक में प्रत्यय का निर्माण बनना शुरू हो जाता है तब वह चिंतन करता है। बालक में जितना ज्यादा प्रत्यय बनेंगे। उतना ज्यादा प्रत्ययात्मक चिंतन उसमे होगा। प्रत्यय से आशय है किसी भी प्रकार की छवि बनने से है। बच्चा जानवर और वस्तुओं आदि को देखकर उनका चित्र दिमाग मे बनाना सीख जाता है। इसके आधार पर चिंतन शुरू करता है।

✨जैसे हाथी शब्द को सुनकर हमारे मस्तिष्क में हाथी से संबंधित संचित संप्रत्यय जाग जाता है और उसके बारे में संपूर्ण ज्ञान का आभास होने लगता है अतः प्रत्यय के माध्यम से चिंतन की प्रक्रिया सशक्त या मजबूत होने लगती है।

🔸संप्रत्यय चिंतन का प्रमुख साधन है।
जैसे यदि कोई बच्चा अपने घर के कुत्ते ,दोस्त के कुत्ते तथा सड़क के कुत्ते को देखकर “कुत्ता” शब्द का प्रयोग करता है तो यह समझना जरूरी हो जाता है कि बच्चे का संप्रतय उस वस्तु के प्रति विकसित हो चुका है

प्रत्यय दो प्रकार के होते हैं

📍1 जिनका संबंध व्यक्ति की ज्ञान इंद्रियों से होता है।

▪️किसी चीज को हम अपने ज्ञानेंद्रियों के आधार पर उस चीज का संप्रतय विकसित कर लेते हैं और उस पर मानसिक रूप से चिंतन करते हैं।

📍2 जिनका संबंध गुणों से होता है।

▪️किसी चीज को उसके गुणों के आधार पर अपनी मानसिक स्तर में संप्रत्यय का निर्माण कर लेते हैं और उस संप्रत्यय पर चिंतन करते हैं।

▪️गुणों के आधार पर विकसित संप्रतय मात्रा हमारी मांसपेशियों पर नहीं होता बल्कि यह बाहा ज्ञानेंद्रियों के द्वारा हमारी आंतरिक ज्ञानेंद्रियों तक पहुंचता है जिससे हम उस वस्तु के गुणों के आधार पर विकसित संप्रत्यय के ऊपर मानसिक चिंतन करते हैं।

✍️ Notes By-'Vaishali Mishra'

चिंतन की विशेषताएं

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1. चिंतन में मानसिक प्रक्रिया निहित रहती है।

2. चिंतन किसी न किसी माध्यम से प्रदर्शित हो जाता है यह माध्यम भाषा या प्रतीकात्मक व्यवहार हो सकता है।

3. चिंतन के लिए समस्या का होना जरूरी है समस्या नहीं होगी तो चिंता नहीं होगी।

4. चिंतन में प्रयास और त्रुटि निहित रहती है।

5. चिंतन स्थूल से सूक्ष्म की ओर होता है।

6. चिंतन में विश्लेषण और संश्लेषण दोनों आवश्यक है।

7. चिंतन में प्रत्यक्षीकरण ना होकर प्रमुख रूप से विचार तथा प्रतीक होते हैं।

8. चिंतन एक जटिल प्रक्रिया है लेकिन इसमें संज्ञानात्मक पक्ष का अपेक्षाकृत अधिक महत्व है।

चिंतन के प्रकार
(Kinds of thinking)

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चिंतन के मुख्य रूप से 3 प्रकार हैं…….

1. प्रत्यक्षात्मक चिंतन
2. प्रत्ययात्मक चिंतन
3. कल्पनात्मक चिंतन

1. प्रत्यक्षात्मक चिंतन
(Reflective thinking)
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इसका संबंध हमारे ज्ञानेंद्रियों (आंख, नाक, कान, जीभ, एवं त्वचा) से होता है। इसमें बच्चा उन वस्तुओं के बारे में सोचता है जो उसके सामने भौतिक वातावरण में उपस्थित रहती है। अर्थात् प्रत्यक्ष रूप में/ सामने रहती है। इसमें मूर्त चिंतन होता है।

2. प्रत्ययात्मक चिंतन
(Conceptual thinking)

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प्रत्ययात्मक चिंतन का आधार प्रत्यय होता है। प्रत्यय को सूक्ष्म विचार कहा जा सकता है। इसमें बालक में प्रत्यय का निर्माण बनना शुरू हो जाता है तब वह चिंतन करता है। बालकों में जितना ज्यादा प्रत्यय बनेगा उतना ज्यादा प्रत्ययात्मक चिंतन उसमें होगा।
किसी तथ्य के गुणों के ज्ञान को प्रत्यय कहते हैं।

प्रत्यय दो प्रकार के होते हैं…..

1. जिनका संबंध व्यक्ति की ज्ञानेंद्रियों से है। अर्थात मूर्त प्रत्यय

2. जिनका संबंध गुणों से होता है। अर्थात अमूर्त प्रत्यय

उदाहरण,
बच्चा किसी जानवर या वस्तुओं को देखकर उनका चित्र अपने दिमाग में बनाना सीख जाता है इसके आधार पर चिंतन करने लगता है। जैसे- हाथी को देखकर गणपति बप्पा की मूर्ति याद करना।

3. कल्पनात्मक चिंतन

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कल्पनात्मक चिंतन में मूर्त वस्तु का अभाव रहता है लेकिन इसकी पूर्ति कल्पना से कर ली जाती है।

वस्तुओं के सामने न होते हुए भी उसके बारे में सोचना और चिंतन करना ही, कल्पनात्मक चिंतन कहलाता है।

इसका संबंध भविष्य से होता है लेकिन स्मृति का भी योगदान होता है।

कल्पनात्मक चिंतन में,स्मृति के आधार पर पूर्व अनुभव की पृष्ठभूमि में व्यक्ति की मानसिक प्रतिमान का निर्माण होता है।

Notes by Shreya Rai…….✍️🙏

CDP Motivation and learning part 2

🔆थार्नडाइक के सीखने के नियम🔆

❇️गौण नियम /सहायक नियम /द्वितीयक नियम

थोर्नडायक द्वारा सीखने के नियम के अंतर्गत  कुल 5 गौण नियम दिए गए जो कि निम्नानुसार है।

⚜️1 बहु प्रतिक्रिया का नियम

⚜️2 मनोवृति का नियम

⚜️3 आंशिक क्रिया का नियम

⚜️4 आत्मीकरण/अनुरूपता/सादृश्यता का नियम 

⚜️5 संबंधित परिवर्तन का नियम /साहचर्य परिवर्तन का नियम

🌺1 बहु प्रतिक्रिया का नियम ( Low of multiple response )➖

▪️जब हम कोई नया कार्य करते हैं तो उस कार्य को पूरा करने में कई प्रक्रियाओं या कई तरीकों को अपनाते हैं और उन सभी प्रक्रियाओं में से एक उचित प्रक्रिया का पता लगाकर भविष्य में उस से काम लेते हैं।

या

▪️किसी भी नए कार्य को करने के लिए हमारे पास नए-नए ऑप्शन या विकल्प होते हैं हमें इन्ही उचित ऑप्शन है विकल्प को चुनकर कार्य को संपन्न करते हैं।

 ▪️अर्थात जब कोई नया कार्य करने के लिए हम कई प्रकार की प्रतिक्रिया को अपनाते हैं और उसमें से सही प्रतिक्रिया का पता लगाकर उसका भविष्य में काम लेते हैं तब यह नियम बहु प्रतिक्रिया का नियम कहलाता है।

▪️अतः जब हम कोई नया कार्य करना सीखते हैं तो उसके प्रति विभिन्न प्रकार की क्रियाएं करते हैं इनमें से कुछ क्रियाएं लक्ष्य प्राप्ति में सहायक नहीं होती हैं तो उन्हें हम छोड़ देते हैं और फिर भूल जाते हैं और उन्हीं क्रियाओं का चयन करते हैं जो हमारी लक्ष्य प्राप्ति में सहायक होती है।

🌺2 मनोवृति का नियम (law of attitude)➖

▪️मनोवृति हमारी अपनी मंशा या अपनी सोच पर निर्भर करती हैं।

▪️अर्थात मन के हारे हार है और मन के जीते जीत। अर्थात  यदि हमने मन में हार सोच ली है तो हार निश्चित है और यदि जीत सोच ली है तो जीत निश्चित है।

▪️किसी भी कार्य को  सफल रुप से करना हमारे मन पर निर्भर या आधारित होता है।

▪️किसी कार्य को जिस मनोवृति (मन या मेहनत) से करेंगे हमें वैसे ही सफलता मिलेगी।

अर्थात जिस कार्य को जिस मन से किया जाएगा उस कार्य में वैसे ही सफलता प्राप्त होगी।

▪️यदि हम मानसिक रूप से किसी कार्य को करने के लिए तैयार नहीं है तो या तो हम उसे करने में असफल होते हैं या उस कार्य में अनेक त्रुटियां करते हैं या उस कार्य को विलंब से या देरी से करते हैं।

▪️अर्थात जिस कार्य  के प्रति हमारी अभिवृत्ति या मनोवृत्ति रहती है उसी अनुपात में हम उसको सीखते हैं। अनुकूल मनोवृत्ति होने पर बालक शीघ्र सीखता है तथा प्रतिकूल मनोवृत्ति होने पर बालक के सीखने में बाधाएँ आती हैं।

🌺3 आंशिक क्रिया का नियम (law of partial activity)➖

▪️किसी काम को पूरा एक साथ सीखना थोड़ा कष्टप्रद होता है। अर्थात पूरे कार्य को एक साथ सीखने से अच्छा उस कार्य को अंशो में विभाजित करके सीखा जाए। कार्य को छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटकर उसे सीखना, उस कार्य को आसान बना देता है।

▪️इस नियम के अनुसार किसी कार्य को छोटे-छोटे भागों में विभाजित करने से कार्य सुविधाजनक और सरल बन जाता है। इन सभी छोटे-छोटे भागों को शीघ्रता से और सुगमता से करके संपूर्ण कार्य को पूरा किया जाता है।

▪️अर्थात किसी कार्य को जब छोटे-छोटे भागों में बांट कर किया जाता है तो उस कार्य में अधिक सफलता प्राप्त होती है।

▪️जैसा कि हम जानते हैं कि कोई भी व्यक्ति संक्षेप में किसी समस्या के उपस्थित होने पर उसके अनावश्यक विस्तार को छोड़कर उनकी मूल तत्व पर अपनी अनुक्रिया केंद्रित कर लेता है।

और जब व्यक्ति की अनुक्रिया केंद्रित हो जाती है तो समस्या का उचित समाधान निकल आता है।

▪️शिक्षक कक्षा कक्ष में पाठ योजना को छोटे-छोटे भागों में विभाजित करके छात्रों को आसानी से एवं सरलता से शिक्षण कार्य कर सकता है।

🌺4 आत्मीकरण /अनुरूपता/सादृश्यता /समानता का नियम (law of analogy)➖

▪️इस नियम से तात्पर्य है कि किसी नवीन क्रिया के सीखने के पूर्व सीखें हुई की सहायता लेना।

▪️  किसी भी नए कार्य को करने के लिए हम किसी पूर्व कार्य के अनुभव ,ज्ञान या उसी के समान या उसी के अनुरूप या उसी के सदृशयो को नवीन कार्यों को करने में प्रयोग में लाते हैं।

▪️यही आत्मीकरण या अनुरूपता या सादृश्यता या समानता का नियम कहलाता है।

▪️अर्थात नया कार्य करने पर किसी पुराने किए गए कार्य का ज्ञान नए कार्य में मिला देना सादृश्यता अनुरूपता या आत्मी करण का नियम कहलाता है।

▪️इस नियम का आधार  पूर्व ज्ञान या पूर्व अनुभव है किसी नवीन परिस्थितियां या समस्या के उत्पन्न होने पर व्यक्ति उससे मिलती-जुलती परिस्थितियां या समस्या को स्मरण या याद कर लेता है जिससे कि वह पहले गुजर चुका है।

▪️छात्र नवीन परिस्थिति में वैसे ही अनुक्रिया करता है जैसी उसने पुरानी परिस्थितियों में की थी। आसान तत्व के आधार पर नवीन ज्ञान को पूर्व ज्ञान से संबंध कर या जोड़कर सिखाने से सीखना सरल हो जाता है।

🌺 5 संबंधित परिवर्तन का नियम/ साहचर्य परिवर्तन का नियम➖

(Law of association shifting)

▪️इस नियम के अनुसार किसी भी कार्य को करने की क्रिया का रूप वही रहता है लेकिन उस कार्य की परिस्थिति या वजह बदल जाती है।

▪️जैसे भोजन सामग्री को देखकर कुत्ते के मुंह से लार टपकने लगती हैं लेकिन कुछ समय बाद खाने के प्याले को ही देखकर लार टपकने लगती हैं।

▪️अर्थात क्रिया वही रही (लार का टपकना) लेकिन परिस्थिति या वजह बदल गई (भोजन के स्थान पर प्याले को देखकर)

▪️अर्थात कोई भी अनुक्रिया जिसे करने की क्षमता व्यक्ति में होती है, उसे एक नए उद्दीपन के द्वारा भी उत्पन्न की जा सकती है। इसमें क्रिया का स्वरूप वहीं रहता है पर परिस्थिति में परिवर्तन हो जाता है।

▪️शिक्षक को कक्षा में अच्छी आदतों एवं सकारात्मक अभिरुचि को उत्पन्न करना चाहिए ताकि छात्र उनका उपयोग अन्य परिस्थितियों में भी कर सकें।

❇️थार्नडाइक का सीखने का सिद्धांत ➖

✨यह “यूएसए” के मनोवैज्ञानिक थे।

✨यह सिद्धांत “1913” में प्रतिपादित किया गया।

✨थार्नडाइक ने “1898 ई”. में अपने पीएचडी शोध प्रबंध जिसका शीर्षक “एनिमल इंटेलिजेंस” था इसमें पशु व्यवहारों के अध्ययन के फल स्वरूप ही इन्होंने सिद्धांत दिया।

✨थार्नडाइक ने अपनी पुस्तक ‘शिक्षा मनोविज्ञान’ (education psychology)मे सीखने के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।

✨थार्नडाइक ने अपने सीखने के सिद्धान्त का मुख्य प्रयोग “भूखी बिल्ली” पर किया।

✨थार्नडाइक के इस प्रयोग में भूखी बिल्ली के लिए उद्दीपक “मछली या मांस का टुकड़ा” था।

❇️थार्नडाइक के सीखने के सिद्धांत के अन्य नाम या उप नाम -➖

📍(1)उद्दीपन अनुक्रिया सिद्धांत

📍(2) प्रयास एवं त्रुटि का सिद्धांत

📍(3) संयोजन वाद का सिद्धांत

📍(4) अधिगम का बंध सिद्धांत

📍(5) प्रयत्न एवं भूल का सिद्धांत

📍(6) उद्दीपन अनुक्रिया का सिद्धांत (stimulus response theory)

📍(7)  एस आर थ्योरी

📍(8) संबंध वाद का सिद्धांत

📍(9) आवृत्ति का सिद्धांत

✍️

      Notes By-‘Vaishali Mishra’

☘️थार्नडाइक के गौण नियम☘️

💫1-बहु प्रतिक्रिया का नियम➖ इस नियम के अनुसार जो व्यक्ति के सामने कोई भी समस्या आती है तो वह उसे समझाने के लिए अनेक प्रकार की अनुक्रिया करता है और इन अनु क्रियाओं के करने का क्रम तब तक चलता रहता है 

जब तक वह सही अनुक्रिया के रूप में समस्या का समाधान नहीं कर लेता इस प्रकार अपनी समस्या को सुलझाने में व्यक्ति संतोष का अनुभव करता है।

💫2-मनोवृति का नियम➖

किसी कार्य को जिस मनोवृति (मन मेहनत )से करेगा वैसी ही सफलता मिलेगी हम किसी भी कर्म को उस समय तक ठीक से नहीं  सीख पाते हैं जब तक कि हमारा दृष्टिकोण स्वस्थ एवं विकसित मनोवृति का नहीं होता है।

💫3-आंशिक क्रिया का नियम➖ किसी कार्य को छोटे-छोटे भागों में बांट कर किया जाता है तो उस कार्य में अनेक सफलता मिलती है और शीघ्रता से सीखा जा सकता है।

💫4-आत्मीकरण का नियम (अनुरूपता सदृश्यता)➖ इस नियम का आधार पूर्व अनुभव है। कोई नया कार्य करने पर किसी पुराने कार्य के किए गए उसका ज्ञान नए कार्य में मिला देना।

💫5-संबंधित परिवर्तन का नियम ( साहचर्यात्मक स्थानांतरण)➖ क्रिया का रूप तो रखा जाता है लेकिन परिस्थिति में परिवर्तन कर दिया जाता है इस नियम के अनुसार जो अनुक्रिया किसी एक उत्तेजक के प्रति होती है वही अनुक्रिया बाद में उस उत्तेजना से संबंधित तथा किसी अन्य उद्दीपक के प्रति भी होने लगती है।

☘️थार्नडाइक का सीखने का सिद्धांत☘️

🔸थार्नडाइक का सीखने का सिद्धांत सन् 1913 में अमेरिका दिया गया।

🔸 थार्नडाइक ने Education psychology पुस्तक लिखी।

🔸थार्नडाइक ने भूखी बिल्ली पर प्रयोग किया इस प्रयोग में उद्दीपक था मछली या मांस का टुकड़ा

☘️थार्नडाइक के सिद्धांत के उपनाम☘️

🟣 प्रयास और त्रुटि का सिद्धांत

🟣 प्रयत्न और भूल का सिद्धांत

🟣 उद्दीपन अनुक्रिया

🟣 संबंध वाद का सिद्धांत

🟣 आवृत्ति का सिद्धांत

🟣 अधिगम का बंध सिद्धांत

✍🏻📚📚 Notes by….. Sakshi Sharma📚📚✍🏻

*थार्नडाइक के गौण नियम*

✨✨✨✨✨✨✨✨

थार्नडाइक के निम्नलिखित 5 गौण नियम है………

1. बहु प्रतिक्रिया का नियम (law of multiple responses)

2. मनोवृति का नियम (law of attitude)

3. आंशिक क्रिया का नियम (law of selective response)

4. समानता का नियम (law of analogy)

5. साहचर्य परिवर्तन का नियम (law of association shifting)

*1. विविध प्रतिचारों का नियम/बहु प्रतिक्रिया का नियम (law of multiple responses)*

✨✨✨✨✨✨✨✨✨

इस नियम के अनुसार जब व्यक्ति के सामने कोई भी समस्या आती है, तो वह उससे सुलझाने के लिए अनेक प्रकार के अनुक्रिया करता है और इन अनुक्रियाओ के करने का क्रम तब तक चलता रहता है जब तक वह सही अनुक्रिया के रूप में समस्या का समाधान नहीं कर लेता इस प्रकार अपनी समस्याओं को सुलझाने में व्यक्ति संतोष का अनुभव करता है।

असफल होने के बाद व्यक्ति को हतोत्साहित नहीं होना चाहिए बल्कि एक के बाद एक उपाय करना चाहिए

जब तक कि सफलता प्राप्त ना हो जाए। यह नियम *प्रयत्न एवं भूल सिद्धांत* पर आधारित है।

*2. मनोवृति का नियम/ अभिवृत्ति का नियम (law of attitude)*

✨✨✨✨✨✨✨✨✨

किसी कार्य को जिस मनोवृति से किया जाता है वैसा ही सफलता भी मिलता है। हम किसी कार्य को उस समय तक नहीं सीख सकते, जब तक कि हमारा दृष्टिकोण स्वस्थ एवं विकसित मनोवृति का नहीं होता।

व्यक्ति को सीखने की ओर अभि प्रेरित करने के लिए पूर्व अनुभव, आत्मविश्वास, मनोवृत्तियां और पूर्व वृत्तियां आदि पूर्ण सहायता देती हैं।

इस नियम को *तत्परता या अभिवृत्ति का नियम* भी कहते हैं।

इस नियम के अनुसार यदि व्यक्ति मानसिक रूप से सीखने के लिए तैयार है, तो नवीन क्रिया को आसानी से सीख सकता है।

और यदि वह मानसिक रूप से सीखने के लिए तैयार नहीं है तो उस कार्य को नहीं सीख सकेगा। निद्रा, थकावट, आकांक्षाएं, भावनाएं, आदि सभी हमारी मनोवृति को प्रभावित करती है।

*3. आंशिक क्रिया का नियम/वर्णनात्मक अनुक्रिया का नियम (law of selective response)*

✨✨✨✨✨✨✨✨✨

किसी कार्य को छोटे-छोटे भागों में बांट कर किया जाता है तो उसका कार्य को सीखने में शीघ्र ही सफलता मिलती है। इस नियम में *अंश से पूर्ण की ओर* शिक्षण सूत्र का अनुसरण किया जाता है।

*4. समानता का नियम/आत्मीकरण का नियम (law of analogy)*

✨✨✨✨✨✨✨✨✨

इस नियम का आधार पूर्व अनुभव है। किसी नवीन परिस्थिति या समस्या के उपस्थित होने पर व्यक्ति उससे मिलती-जुलती अन्य परिस्थिति या समस्या का स्मरण करता है जिससे वह पहले ही गुजर चुका है। उदाहरण-

जब कोई बच्चा पूर्व में साइकिल चलाना सीख चुका था उसके आधार पर ही वह बाइक चलाना भी सीख लेता  है। यह नियम *ज्ञात से अज्ञात की ओर* शिक्षण सूत्र पर आधारित है।

*5. साहचर्य परिवर्तन का नियम/संबंधित परिवर्तन का नियम/साहचर्य आत्मक स्थानांतरण (law of association shifting)*

✨✨✨✨✨✨✨✨✨

इस नियम के अनुसार जो अनुक्रिया किसी एक उत्तेजक के प्रति होती है वही अनुक्रिया बाद में उस उत्तेजना से संबंधित तथा किसी अन्य उद्दीपक के प्रति भी होने लगती है। यह नियम *पावलव* के *साहचर्य के द्वारा सीखने के सिद्धांत* पर आधारित है।

इसमें सीखने की अनुक्रिया का स्थान परिवर्तन होता है यह स्थान परिवर्तन मूल उद्दीपक से जुड़ी हुई अथवा उसकी किसी सहचारी उद्दीपक वस्तु के प्रतिक्रिया करता है।

उदाहरण,

भोजन सामग्री को देखकर कुत्ते के मुंह से लार का टपकना लेकिन कुछ समय बाद खाने के प्याले को देखकर ही लार टपकने लगना।

*E. L. Thorndike का सीखने का सिद्धांत*

✨✨✨✨✨✨✨✨✨

यह सिद्धांत सन 1913 ई. में अमेरिका में दिया गया था। थार्नडाइक ने अपनी पुस्तक *”शिक्षा मनोविज्ञान” (education psychology)* में सीखने का सिद्धांत प्रतिपादित किया जिसे *thorndike theory of learning* के नाम से जाना जाता है।

*इस सिद्धांत के उपनाम* निम्नलिखित है……….✍️

⚡ प्रयास एवं भूल का सिद्धांत

⚡ उद्दीपन अनुक्रिया का सिद्धांत

⚡ संबंधवाद का सिद्धांत

⚡ आवृत्ति का सिद्धांत

⚡ अधिगम का बंध सिद्धांत

*Notes by Shreya Rai*…….✍️🙏

CDP Thinking & Learning Part-1

🔆बालकों में चिंतन अधिगम

चिंता और चिंतन में बहुत फर्क होता है।

चिंता से अभिप्राय किसी भी चीज को लेकर परेशान होना या फिर किसी भी परेशानी को बार-बार अपनी सोच में लाना है।

चिंतन से अभिप्राय है कि किसी चीज को लेकर उस पर सोच विचार करना या फिर गहरी सोच में डूब जाना

❇️चिंतन का अर्थ ÷दैनिक जीवन के बोलचाल की भाषा में चिंतन का अर्थ-सोचना ,समझना, कल्पना करना या विचार- विमर्श करना इत्यादि से लिया जाता है।

🔹मनोविज्ञान के अनुसार चिंतन का अर्थ-

मनोविज्ञान में चिंतन इतना अस्पष्ट हो ,इतने से काम नहीं चलता,

🔹   चिंतन एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है, चिंतन को करना सीखना ,स्मरण करना या कल्पना से अलग करना कठिन है।

हम अलग-अलग प्रकार के विचारों पर चिंतन करते हैं।

अर्थात किसी भी कार्य को करने में हम अलग-अलग प्रकार के विचार करते हैं और इन्हीं विचारों पर अपना चिंतन लगाकर कार्य को पूरा कर लेते हैं।

चिंतन भी धीरे-धीरे एक विचार में परिवर्तित हो जाता है और भविष्य में होने वाली इसी प्रकार के किसी भी कार्य में यह विचार बहुत उपयोगी सिद्ध होता है या उस प्रकार के कार्य में भी हम इस प्रकार के चिंतन का प्रयोग करते हैं।

✨जेंम्स ड्राइवर के अनुसार ÷

इन्होंने चिंतन को मानसिक प्रक्रिया या मन की क्रिया बोला है ,चिंतन और विचार में अंतर करते हुए उन्होंने कहा कि चिंतन मानसिक प्रक्रिया है जबकि विचार मानसिक प्रक्रिया के समय मन की विषय वस्तु है।

🔹चिंतन समस्या से प्रारंभ होता है और उस समस्या के समाधान पर समाप्त हो जाता है।

🔹   जब तक  समस्या का समाधान ना निकल जाए या समस्या समाधान निकालने वाला थक ना जाए तब तक चिंतन की प्रक्रिया चलती रहती है।

समस्या के अभाव में चिंतन नहीं हो सकता है।

मनुष्य के जीवन में समस्या आने पर मनुष्य अपने चिंतन से उसका समाधान करता है।

विचारों का सामान्यिकरण करना एक प्रकार का चिंतन ही है।

      किसी भी प्रकार की समस्या  

                  ⬇️

      उस समस्या पर चिंतन

                   ⬇️

       समस्या समाधान

उदाहरण

❇️चिंतन को बेहतर ढ़ंग से इस उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है। 

🔹एक बार मेरी गाड़ी की चाबी गुम हो गई है और  उसे हम  ढूंढ नहीं पा रहे थे। यह न केवल मेरे लिए एक निराशाजनक था बल्कि कार्यालय में देर से पहुँचने से मेरी छवि भी खराब हो सकती थी इस स्थिति में  चाबी को ढूढने के लिए उस पर चिंतन करना शुरू किया 

📍पहली अवस्था में 

वस्तु के खोने से ठीक पहले में क्या कर रही थी? में कहाँ जा रही थे? यदि हम अपना ध्यान उस समय की स्थिति पर केन्द्रित करें जब वह वस्तु अंतिम बार आपके पास थी तो हमने उसे कहाँ रखा होगा यह जानने कि कोशिश की

📍दूसरी अवस्था में

घर में सभी से पूछा जहा जहा गई उन सभी व्यक्तियों से पूछताछ की लेकिन चाबी न मिली।

📍तीसरी अवस्था में 

चाबी को ढूढने में कई संभावनाएं लगाई जैसे कि में यदि चाबी दरवाजे के पास रखते हैं तो सबसे पहले दरवाजे के आस-पास खोजें। संभव है कि वह टेबल से गिर गया हो या आपके पर्स के नीच दब गया हो

📍चौथी और अंतिम अवस्था में

चाबी को ढूंढने की समस्या पर काफी चिंतन और आस पास के सभी लोगों से पूछने  बाद के अर्थात समस्या पर पूर्ण रूप से मनन व विश्लेषण या गहन चिंतन करने के बाद आखिरकार चाबी मिल ही गई जो कि मेने जल्दी जल्दी में खिड़की पर ही रखी छोड़ दी थी।

🔹चिंतन एक क्रमबद्ध प्रक्रिया है ।

अर्थात किसी भी समस्या है एक क्रमबद्ध रूप से यह स्टेप बाय स्टेप उसका अध्ययन किया जाता है तभी हमें समस्या का उचित रूप से समाधान प्राप्त करता है।(अर्थात जब समस्या सामने आई तो मैंने सबसे पहले चाबी को ढूढने की  कोशिश की और उसके बाद अन्य जगहों  पर भी खोजने की शुरुआत की )

🔹समस्या के आने के बाद ही समस्या पर चिंतन करके समस्या का उचित समाधान निकाला जाता हैं (जिस प्रकार चाबी खो ना मेरी एक समस्या थी और उस समस्या पर चिंतन द्वारा चाबी को ढूंढना एक समाधान था।)

🔹चिंतन मानसिक प्रक्रिया है, अर्थात समस्या कोई भी आए कैसी भी आए , उस का निष्कर्ष चिंतन के द्वारा ही निकाल सकते हैं।

❇️चिंतन की परिभाषा

✨जॉन डी वी के अनुसार 

चिंतन सक्रिय संगठनपूर्ण, सावधानीपूर्ण विचार करता है यह किसी विश्वास या अनुमानित ज्ञान या उसके आधारों तथा प्रकाश में किसी निष्कर्ष तक पहुंचता है।

✨रास के अनुसार

चिंतन संज्ञानात्मक संदर्भ में एक मानसिक प्रक्रिया है

✨कॉलसनिक के अनुसार

चिंतन प्रतियों का पुनर्गठन है।

✨स्किनर के अनुसार

सृजनात्मक चिंतन से तात्पर्य है कि व्यक्ति के निर्णय या उसके पूर्व कथन नए मौलिक अद्भुत तथा वैयक्तिक है।

✨सृजनात्मक चिंतन

यह चिंतन नए क्षेत्र को खोजता है,

यह चिंता निरीक्षण करता है, किसी समस्या को अन्य किस तरीके से सुलझाया जा सकता है नए-नए तरीकों पर निरीक्षण करता है।

यह चिंतन ने पूर्व कथन करता है, अर्थात किसी समस्या में नए-नए कथनों विचारों इत्यादि का निर्माण करता है।

यह चिंतन नए निष्कर्ष निकालता है।

✨वैलेंटाइन के अनुसार

चिंतन शब्द का प्रयोग उस क्रिया के लिए किया जाता है जिसमें श्रृंखलाबद्ध विचार किसी लक्ष्य उद्देश्य की ओर अभिराम गति से प्रवाहित होती है।

✨रायबर्न के अनुसार ÷

चिंतन इच्छा संबंधी प्रक्रिया है, जो किसी अंत असंतोष के कारण आरंभ होती है और प्रयास एवं त्रुटि के आधार पर चलती हुई उस अंतिम स्थिति पर पहुंचती है जो इच्छा को संतुष्ट करती है।

✨क्रूज  के अनुसार÷

चिंतन एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है जो जीवन के किसी अन्य प्रक्रिया की भांति चलती रहती है।

✨जे.पी .गिलफोर्ड के अनुसार

चिंतन प्रतीकात्मक व्यवहार है जो सभी प्रकार के प्रतिस्थापन(जिसमे दूरी वा दिशा दोनो हो) से संबंधित है।

✍️

    Notes By-‘Vaishali Mishra’

🌅🌅बालकों में चिंतन अधिगम🌅🌅

✍️चिंतन एक सकारात्मक प्रक्रिया है, इस प्रक्रिया के द्वारा व्यक्ति अपने आसपास की या स्वयं पर आई किसी भी समस्या का समाधान खोजने के लिए करता है।

✍️चिंतन का अर्थ ÷दैनिक जीवन के बोलचाल की भाषा में चिंतन का अर्थ-सोचना ,समझना, कल्पना करना या विचार- विमर्श करना इत्यादि से लिया जाता है।

✍️मनोविज्ञान के अनुसार चिंतन का अर्थ-मनोविज्ञान में चिंतन इतना अस्पष्ट हो ,इतने से काम नहीं चलता,

                                                     चिंतन एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है, चिंतन को करना सीखना ,स्मरण करना या कल्पना से अलग करना कठिन है।

💞जेंम्स ड्राइवर के अनुसार ÷

इन्होंने चिंतन को मानसिक प्रक्रिया या मन की क्रिया बोला है ,चिंतन और विचार में अंतर करते हुए उन्होंने कहा कि चिंतन मानसिक प्रक्रिया है जबकि विचार मानसिक प्रक्रिया के समय मन की विषय वस्तु है।

✍️चिंतन समस्या से प्रारंभ होता है और उस समस्या के समाधान पर समाप्त हो जाता है।

                                        जब तक जब तक समस्या का समाधान ना निकल जाए या समस्या समाधान निकालने वाला थक ना जाए तब तक चिंतन की प्रक्रिया चलती रहती है।

✍️समस्या के अभाव में चिंतन नहीं हो सकता है।

मनुष्य के जीवन में समस्या आने पर मनुष्य अपने चिंतन से उसका समाधान करता है।

🏵️उदाहरण🏵️

🌁चिंतन को बेहतर ढ़ंग से समझने के लिए आइये इक सच्ची घटना पर आधारित कहानी देखते हैं,जो निम्नलिखित है÷

🌻कहानी शुरू होती है आज से 10 दिन पूर्व शुरू हुई , उस दिन मै आनलाइन क्लास कर रहा तभी अचानक से मेरा फोन पूरी तरह से खराब हो गया, फिर मैं घबरा गया और इधर-उधर परेशान होने लगा कि अब क्या करूंगा ,क्लास कैसे करूंगा,(ये चिंता हुई) तभी अचानक ख्याल आया कि मां का फोन है क्योंकि लॉक डाउन है इसलिए उनका फोन मैं प्रयोग कर सकता हूं (चिंतन)और जैसे कैसे करके उस दिन मैंने अपनी क्लास पूरी की किंतु मुझे अनुमान था कि हर दिन में उनके फोन से क्लास नहीं ले सकता हूं ना ही फोन बनवा सकता हू तो इसके लिए अलग अलग उपाय सोचा(चिंतन किया) क्योंकि लॉकडाउन था तो फोन भी नहीं बना सकता था तभी अचानक याद आया कि घर पर में एक पुराना लैपटॉप है (चिंतन)जिसकी खोज मैंने शुरू कर दी अंतत:वह मुझे मिल गया किंतु उसकी हालत बहुत ही खराब थी फिर से मैं परेशान हुआ कि अब क्या करूं (चिंता हुई), तभी अचानक एक शूझ आई कि मेरे खास मित्र के पास लैपटॉप की शॉप है ,(चिंतन)लेकिन लॉक डाउन है तो कैसे होगा(चिंता) फिर मैंने फोन पर उससे बात की उसने मुझे वहीं से तरीके बताएं और कोरियर के माध्यम से महत्वपूर्ण इंस्ट्रूमेंट (windowsoftware,keyboard,mouse ) भेजी उसी दिन शाम को  वह चीजें मेरे पास आ गई लेकिन दूसरे दिन की क्लास के लिए वह लैपटॉप तैयार नहीं था क्योंकि बैटरी भेजना वो भूल गया था  और मां का फोन भी मेरे पास नहीं था ना ही मुझे मिल सकता था, मै फिर से परेशान हो आप अब क्लास कैसे करूंगा (चिंता हुई)फिर मैंने परेशान होना बंद करके सोचा कि जिस तरह से मोबाइल की बैटरी खराब होने पर चार्जिंग में लगा कर इस्तेमाल कर सकते हैं क्यों ना उसी तरह से लैपटॉप को भी चलाने की कोशिश करें(चिंतन), उसके बाद मैंने  लैपटॉप को डरते डरते चार्जिंग में लगा दिया और वह खुल गया और मैं अपनी क्लास अच्छी तरह से कर पाया,आज जब सर ने नोट्स बनाने के लिए बोला और कहा कि वह सब की नोट्स को उनकी कहानी को पढ़ेंगे तुम्हें परेशान हो उठा(चिंता हुई) क्योंकि व्हाट्सएप का प्रयोग मैं नहीं कर पा रहा हूं, फिर मुझे लैपटॉप की स्क्रीन पर फेसबुक का ऐड दिखा तभी मुझे याद आया कि क्यों ना मैं नोट्स फेसबुक पर किसी क्लास के भाई-बहन को क्यों ना भेज दू जिससे वो वहा उसे भेज देंगे।

💐💐धन्यवाद💐💐

💞💞निष्कर्ष💞💞

🌸चिंतन एक क्रमबद्ध प्रक्रिया है (अर्थात जब समस्या सामने आई तो मैंने सबसे पहले क्लास को जारी रखने की कोशिश की और उसके बाद अन्य यंत्र तरीके खोजने की शुरुआत की ना कि मैंने सीधे ही अपने मित्र को फोन कर दिया

🌸समस्या के आने के बाद ही चिंता की जाती है और उस चिंता की वजह से ही आई समस्या को समझाने के लिए चिंतन किया जाता है (अर्थात यदि फोन खराब ना होता और मैं चिंता ना करता की क्लास कैसे करूंगा तो मैं क्लास करने के लिए अन्य यंत्र वा तरीके ना खोजता।

🌸चिंतन मानसिक प्रक्रिया है, अर्थात समस्या कोई भी आए कैसी भी आए , उस का निष्कर्ष चिंतन के द्वारा ही निकाल सकते हैं।

🥀🥀चिंतन की परिभाषा🥀🥀

🕵️जॉन डी वी के अनुसार 

🧠चिंतन सक्रिय संगठनपूर्ण, सावधानीपूर्ण विचार करता है यह किसी विश्वास या अनुमानित ज्ञान या उसके आधारों तथा प्रकाश में किसी निष्कर्ष तक पहुंचता है।

👩‍🏫रास के अनुसार

चिंतन संज्ञानात्मक संदर्भ में एक मानसिक प्रक्रिया है

👩‍🎓कॉलसनिक के अनुसार

🌸चिंतन प्रतियों का पुनर्गठन है।

🕵️स्किनर के अनुसार

🌸सृजनात्मक चिंतन से तात्पर्य है कि व्यक्ति के निर्णय या उसके पूर्व कथन नए मौलिक अद्भुत तथा वैयक्तिक है।

💞💞सृजनात्मक चिंतन💞💞

🥀यह चिंतन नए क्षेत्र को खोजता है,

🥀यह चिंता निरीक्षण करता है, किसी समस्या को अन्य किस तरीके से सुलझाया जा सकता है नए-नए तरीकों पर निरीक्षण करता है।

🥀यह चिंतन ने पूर्व कथन करता है, अर्थात किसी समस्या में नए-नए कथनों विचारों इत्यादि का निर्माण करता है।

🥀यह चिंतन नए निष्कर्ष निकालता है।

🕵️वैलेंटाइन के अनुसार

🥀चिंतन शब्द का प्रयोग उस क्रिया के लिए किया जाता है जिसमें श्रृंखलाबद्ध विचार किसी लक्ष्य उद्देश्य की ओर अभिराम गति से प्रवाहित होती है।

🕵️रायबर्न के अनुसार ÷

🥀चिंतन इच्छा संबंधी प्रक्रिया है, जो किसी अंत असंतोष के कारण आरंभ होती है और प्रयास एवं त्रुटि के आधार पर चलती हुई उस अंतिम स्थिति पर पहुंचती है जो इच्छा को संतुष्ट करती है।

🕵️क्रूज  के अनुसार÷

🥀 चिंतन एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है जो जीवन के किसी अन्य प्रक्रिया की भांति चलती रहती है।

🕵️जे.पी .गिलफोर्ड के अनुसार

🥀चिंतन प्रतीकात्मक व्यवहार है जो सभी प्रकार के प्रतिस्थापन(जिसमे दूरी वा दिशा दोनो हो) से संबंधित है।

🙏🙏Thank you 󞀼󞁗ritten by shikhar pandey🌸🌸

CDP factors affecting learning part 1

☘️🌼 अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक व दशाएं🌼☘️

🟣 वातावरण
🟣 परिपक्वता
🟣 बच्चों का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य
🟣 विषय सामग्री का स्वरूप
🟣 सीखने का समय /थकान
🟣 प्रेरणा
🟣 सीखने की इच्छा
🟣 अध्यापक और सिखाने की प्रक्रिया
🟣 सिखाने / सिखाने की विधि
🟣 संपूर्ण परिस्थिति

🟣 वातावरण➖ भौतिक एवं सामाजिक वातावरण दोनों ही शिक्षण अधिगम को प्रभावित करता है शुद्ध वायु, उचित प्रकाश, शांत वातावरण एवं मौसम की अनुकूलता के बीच बच्चे सीख सकते हैं इसके अभाव में सीख थक जाते हैं।

🟣 परिपक्वता➖ अधिगम की प्रक्रिया को बालक की शारीरिक एवं मानसिक परिपक्वता अधिक प्रभावित बनाती है छोटे कक्षा में बच्चों की मांसपेशियों को सुंदर बनाने की ओर ध्यान दिया जाता है ताकि वह कलम, किताब आदि को पकड़ना सीख जाए।

🟣 बच्चों का शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य➖ और मानसिक दृष्टि से स्वस्थ होते हैं वह सीखने में अधिक नीचे देते हैं सीखने से पहले बालक का शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ होना भी नितान्त आवश्यक है।

🟣 विषय सामग्री का स्वरूप➖ एक स्तर के छात्रों के लिए उनकी बुद्धि ,रुचि एवं अभिक्षमता के अनुरूप पाठ्यवस्तु सरल रोचक एवं अर्थ पूर्ण होने पर छात्र उन्हें उचित पूर्ण एवं शीघ्रता से सीखते हैं।

🟣 सीखने का समय /थकान➖ छात्र समय तक किसी क्रिया को करता रहता है तो थकने का अनुभव करने लगता है और थकान अनुभव होने से अधिगम प्रक्रिया में शीथिलता उत्पन्न हो जाती है।

🟣 प्रेरणा➖ सीखने की प्रक्रिया में प्रेरणा का महत्वपूर्ण योगदान है सीखने की प्रक्रिया में प्रेरकों का स्थान सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है प्रेरणा से सीखने की इच्छा प्रबल हो जाती है।

🟣 सीखने की इच्छा➖ बालकों को नए ज्ञान देने से पूर्व यह नितांत आवश्यक है कि उसमें सीखने के प्रति तत्परता उत्पन्न की जाए क्योंकि ऐसे होने पर विद्यार्थी प्रतिकूल परिस्थितियों में भी किसी बात को सीखने में सफल हो जाते हैं।

🟣 अध्यापक और सिखाने की प्रक्रिया➖ शिक्षक का व्यवहार छात्रों के सीखने को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है शिक्षण विधि का सीधा संबंध सीखने की प्रक्रिया से होता है साथ ही प्रत्येक शिक्षक के पढ़ाने का तरीका भी भिन्न होता है अतः सभी छात्र एक ही विधि से नहीं सीख पाते हैं शिक्षण की विधि जितनी अधिक वैज्ञानिक एवं प्रभावशाली होगी उतनी ही सीखने की प्रक्रिया सरल और लाभप्रद होगी।

🟣 सीखने/ सिखाने की विधि➖ सीखने के लिए अधिगमकर्ता ने किस विधि का प्रयोग किया है? किस पर सीखना निर्भर करता है सीखने की अनेक विधियां हैं जैसे संपूर्ण विषय वस्तु एक बार में सीखना संपूर्ण विषय वस्तु को अंशो में विभाजित कर सीखना, विषय वस्तु को रटकर सीखना, अथवा समझकर सीखना।

🟣 संपूर्ण परिस्थिति➖ बालक के प्रभावी अधिगम की दृष्टि से यह अत्यंत आवश्यक है कि उसे एक ऐसी समुचित संपूर्ण परिस्थिति प्रदान की जाए जिसमें सीखने के सभी तत्व एवं दशाएं विद्वान हो।

🔸🤵🏻 रायबर्न के अनुसार➖ यदि शिक्षण विधियों में इन नियमों का सिद्धांत का अनुसरण किया जाता है तो सीखने का कार्य अधिक संतोषजनक होता है।

🔸 थार्नडाइक के सीखने के नियम➖ थार्नडाइक ने कुल 8 नियम बताए हैं जिसमें 3 प्रमुख नियम और 5 गौण नियम दिए हैं।

🌼 मुख्य नियम➖

🟣 तत्परता का नियम➖ किसी भी कार्य में अगर हम तत्पर होते हैं तो उस कार्य को हम आसानी से कर लेते हैं।

🟣 अभ्यास का नियम➖ बार-बार अभ्यास से जल्दी सीखते हैं अभ्यास के नियम को दो भागों में विभक्त किया गया है।

1-उपयोग का नियम➖ यह नियम इस बात पर बल देता है कि मनुष्य जिस कार्य को बार-बार दोहराता है उसे शीघ्र ही सीख जाता है।

2-अनुपयोग का नियम➖ जब हम किसी पाठ या विषय को दोहराना बंद कर देते हैं तो हम उसे धीरे-धीरे भूलते चले जाते हैं इसे ही अनुप्रयोग का नियम कहा जाता हैं।

📚📚✍🏻 Notes by….. Sakshi Sharma ✍🏻📚📚

🔆 अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक और दशाएं :-

🌀1 वातावरण :-

अधिगम और वातावरण दोनों का निकट संबंध है बालक का परिवार समुदाय कक्षा तथा विद्यालय सभी अधिगम प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं यदि विद्यालय कक्षा कक्ष तथा परिवार का वातावरण शांतिपूर्ण तथा रुचिकर होता है तो बालक सुचारू सीख लेता है इसके विपरीत यदि परिवार तथा विद्यालय का वातावरण दूषित होता है जैसे विद्यालय में खेलने कूदने की समुचित व्यवस्था नहीं होती तो बालक की सीखने में बाधा उत्पन्न हो जाती हैं।
कार्य को विपरीत भौतिक परिस्थितियां, जैसे-बैठने की उपयुक्त व्यवस्था ना होना, शोर, विद्यार्थियों की बहुत अधिक संख्या, कम रोशनी, अपर्याप्त हवा, उचित समय का चयन ना करना आदि अधिगम की गति को कम कर देते हैं।। अतः कक्षा के मनोवैज्ञानिक पर्यावरण के साथ-साथ भौतिक पर्यावरण भी अधिगम को प्रभावित करता है।

🌀2 परिपक्वता :-

🔹अधिगम तभी संभव होता है जब बालक उसके अनुकूल निश्चित स्तर की परिपक्वता प्राप्त कर लेता है।अगर 6 माह के बच्चे को चलना सिखाया जाए तो व्यर्थ होगा क्योंकि उसकी मांसपेशियां इतनी परिपक्व नहीं हुई है कि वह चलाना सीख सके। इसलिए मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अधिगम तभी अधिक होगा यदि शैक्षणिक क्रियाएं बालक के विकास के अनुकूल होंगी। अध्यापक द्वारा उन माता पिता को इस सिद्धांत की जानकारी दी जानी चाहिए जो अपने ढाई या 3 वर्ष के बच्चे की शिक्षण उपलब्धि के प्रति अत्यधिक महत्वकांक्षी हो जाते हैं।

🌀 3 बच्चे का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य

🔹शारीरिक स्वास्थ्य
एक अच्छे शारीरिक स्वास्थ्य का तात्पर्य कि हमारे शरीर का प्रत्येक अंग उचित रूप से कार्य कर रहा है जिससे कि सामान्यत:किसी कार्य करने की आशा बढ़ जाती है यह हमारे अंगों और प्रणालियों की तंदुरुस्ती को भी प्रदर्शित करता है ।शारीरिक स्वास्थ्य यदि कुछ अस्स्वथ रहता है तो हमारी अन्य दूसरी गतिविधियां भी प्रभावित होती हैं। यदि हमारी शारीरिक स्वास्थ्य अच्छा होगा तो किसी भी कार्य में को हम प्रभावी रूप से कर पाएंगे।

🔹मानसिक स्वास्थ्य
मानसिक स्वास्थ्य तंदुरुस्ती की एक स्थिति है जिसमें व्यक्ति अपनी योग्यताओं को कार्यान्वित करता है जीवन के कई तत्वों से लड़ सकता है और कई उत्पादक और फलदाई कार्य कर सकता है। यदि व्यक्ति मानसिक रूप से भी अस्वस्थ है तो वह किसी भी अधिगम प्रक्रिया में अपना लगाव या उसमें पूर्ण रूप से अपनी भागीदारी के साथ रुचि पूर्ण अधिगम कभी नही कर पायेगा।

🌀4 विषय सामग्री का स्वरूप :-

🔹विषय वस्तु की संरचना उसका कठिनाई स्तर अधिगम को प्रभावित करता है। यदि विषयवस्तु अधिगमकर्ता के स्तर के अनुकूल नहीं होगी तो सीखने की गति मंद होगी।
🔹अधिगम प्रक्रिया में विषय वस्तु के प्रस्तुतीकरण के क्रम का भी प्रभाव पड़ता है।यदि विषय वस्तु शिक्षण सूत्रों के अनुसार व्यवस्थित की जाएगी तो अधिगम प्रक्रिया सरल होगी।

🔹विषय वस्तु यदि अर्थपूर्ण होगी तो सीखने की गति अधिक होगी। अर्थ पूर्णता से अभिप्राय है कि जो विषय वस्तु प्रेषित की जाए उसका संबंध बालक के दैनिक जीवन से जुड़े उदाहरणों से हो, और वह स्पष्ट अर्थ रखती हो तथा बालक के पूर्व ज्ञान से भी संबंधित हो।अतः यदि अध्यापक विषय वस्तु को अर्थपूर्ण बनाकर प्रस्तुत करेगा तो सीखना प्रभावी होगा।विषय वस्तु की मात्रा भी बालक के स्तर के अनुसार होनी चाहिए।

🌀5 सीखने का समय एवम् थकान :-

🔹थकान की स्थिति में व्यक्ति की कार्य क्षमता घट जाती है और कार्य की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। थकान शारीरिक या मानसिक हो सकती है। बालक द्वारा लंबे समय तक कार्य करते रहने के बाद उसकी अधिगम की गति धीमी हो जाती है और कार्य के प्रति अरुचि उत्पन्न हो जाती है। अतः बालक को बीच में विश्राम देने से वह पुनः सक्रिय हो जाता है।

🌀6 अभिप्रेरणा (Motivation)

🔹अभिप्रेरणा अधिगम को अत्यधिक प्रभावित करती है। अभिप्रेरणा लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्राणी की मनोदैहिक एवं आंतरिक दशाएं हैं जो उससे इस प्रकार व्यवहार करवाती है कि लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। जो व्यवहार लक्ष्य प्राप्ति में सहायक होते हैं मनुष्य उन्हें करता है जो लक्ष्य प्राप्ति में सहायक नहीं होते उन्हें त्याग देता है।
🔹जितनी अधिक प्रेरणा होगी अधिगम प्रक्रिया उतनी ही तीव्र होगी, किंतु एक निश्चित सीमा से अधिक प्रेरित करना अधिगम प्रक्रिया को प्रभावित करता है।अभिप्रेरणा बाह्य एवं आंतरिक दोनों प्रकार की होती होती है। 🔹प्रशंसा,आलोचना,पुरस्कार,दंड,प्रगति का ज्ञान आदि अभिप्रेरणा की बाह्य अभिप्रेरणा प्रविधियां हैं।आकांक्षा स्तर को ऊंचा उठाना आंतरिक अभिप्रेरणा । शिक्षक यदि छात्रों के आकांक्षा स्तर को ऊंचा उठाता है तो वह कार्य में अधिक तल्लीनता से रुचि लेंगे। अतः अध्यापक को आवश्यकतानुसार अभिप्रेरणा की विभिन्न विधियों का प्रयोग कक्षा कक्ष में अधिगम को बढ़ाने हेतु करना चाहिए। अभिप्रेरणा कक्षा में अधिगम को प्रभावित करने वाला प्रमुख कारक है।

🌀7 सीखने की इच्छा :-
बच्चे में अभिप्रेरणा से सीखने की इच्छा प्रबल हो जाती है अभि प्रेरणा उत्पन्न करने के लिए यह आवश्यक है कि बालक को उसका लक्ष्य स्पष्ट कर दिया जाए यदि अध्यापक ऐसा चाहता है कि उसके छात्र नए पाठ को सीखे तो वह प्रशंसा ,प्रोत्साहन ,प्रतिद्वंदिता आदि विधियों का प्रयोग करके उनको प्रेरित कर सकता है।

🌀8 अध्यापक और सिखाने की प्रक्रिया :-

🔹कक्षा कक्ष में यदि शिक्षक अपने परंपरागत तरीके से शिक्षण करवाएंगे तो बच्चे सीख नहीं पाएंगे। अतः अधिगम प्रभावित होगा। शिक्षक को यह ध्यान में रखना चाहिए कि बच्चे किस तरीके से अच्छा सीखते हैं।
🔹”यदि कुछ बच्चे हमारे सीखाने के तरीके से नहीं सीख सकते हैं तो शायद हमें उनके सीखने के तरीके से सिखाना चाहिए”

🌀 9 सीखने सिखाने की विधि:-

बच्चे की समस्या को देखकर कौन सी विधि प्रयुक्त की जाए या कौन सी विधि उपयुक्त होगी जिससे बच्चों को बेहतर समझ आए इसका चयन कई विधियों के द्वारा किया जा सकता है।

🌀10 संपूर्ण परिस्थिति :-

🔹अधिगम व्यक्ति की संपूर्ण परिस्थिति के साथ परस्पर संक्रिया का फल है कोई छात्र किसी एकाकी उद्दीपन के संदर्भ की अपेक्षा संपूर्ण अधिगम में परिस्थिति के प्रति अनुक्रिया द्वारा सीखता है। इसके अतिरिक्त अधिगम में छात्र के व्यक्तित्व के सभी तीनों पक्ष शारीरिक, मानसिक व संवेगात्मक प्रभावित होते हैं।

✨रायबर्न के अनुसार

यदि शिक्षण विधियां में नियम व सिद्धांतों का अनुसरण किया जाता है तो सीखने का कार्य अधिक संतोषजनक होता है।

✨थोर्नडायक ने सीखने के नियम के कुल 8 नियम दिए
जिसमें से 📍3 मुख्य नियम
और 📍5 गौण नियम है।
मुख्य नियम प्राथमिक नियम होते हैं जो कि एक बड़े स्तर पर सीखने को प्रभावित करते हैं अर्थात इनकी प्रायिकता और महत्व अधिक होता है।

जबकि गौण द्वितीयक होते हैं जिनकी प्रायिकता कम होती हैं अर्थात इनका मुख्य नियम की अपेक्षा कम महत्व होता है। और यह मुख्य नियम के बाद आते हैं।

तीन मुख्य नियम निम्नानुसार है।

⚜️1 तत्परता का नियम
⚜️2 अभ्यास का नियम
⚜️3 प्रभाव का नियम या संतोष /असंतोष का नियम

उपरोक्त तीनों ही मुख्य नियमों का वर्णन निम्नानुसार है।

❇️1 तत्परता का नियम :-
यह नियम कार्य करने से पूर्व तत्पर या तैयार किए जाने पर बल देता है। यदि हम किसी कार्य को सीखने के लिए तत्पर या तैयार होता है, तो उसे शीघ्र ही सीख लेता है। तत्परता में कार्य करने की इच्छा निहित होती है। ध्यान केंद्रित करने मेँ भी तत्परता सहायता करती है।

❇️2 अभ्यास का नियम :-

🔸i उपयोग का नियम :- यदि कोई कार्य पूर्व में किया गया है और उसे दोबारा किया जाता है तो वह हमारे मस्तिष्क में आ जाता है अर्थात वह हमारे मस्तिष्क में स्थाई रूप से सुदृढ़ हो जाता है।

🔸ii अनुप्रयोग का नियम :- यदि हम कार्य को पुनः नहीं करते या नहीं दोहराते हैं तो हमारा मस्तिष्क उन बातों को भूल जाता है अर्थात वह कार्य हमारे मस्तिष्क में अस्थाई हो जाता है।

अर्थात
यह नियम किसी कार्य या सीखी गई विषय वस्तु के बार-बार अभ्यास करने पर बल देता है। यदि हम किसी कार्य का अभ्यास करते रहते है, तो उसे सरलतापूर्वक करना सीख जाते है। यदि हम सीखे हुए कार्य का अभ्यास नही करते है, तो उसको भूल जाते है।

❇️3 प्रभाव (परिणाम) का नियम :-
इस नियम को सन्तोष तथा असन्तोष का नियम भी कहते है। इस नियम के अनुसार जिस कार्य को करने से प्राणी को सुख व सन्तोष मिलता है, उस कार्य को वह बार-बार करना चाहता है और इसके विपरीत जिस कार्य को करने से दुःख या असन्तोष मिलता है, उस कार्य को वह दोबारा नही करना चाहता है।

किसी भी कार्य को करने के दौरान यदि कार्य के छोटे-छोटे अंतराल या समय या छोटे-छोटे अभ्यास के पश्चात भी यदि कार्य को करने में संतुष्टि मिलती है तो हम अभ्यास को जारी रख कर कार्य को सफल रूप से पूरा करते हैं। कहने का तात्पर्य है कि यह आवश्यक नहीं है कि कार्य जब संपूर्ण रूप से संपन्न होगा तभी हमें संतुष्टि प्राप्त होगी।

✍️ Notes By-'Vaishali Mishra'

CDP Motivation and learning part 1

💫 अभिप्रेरणा और अधिगम
(Motivation and learning💫

☘️ अभिप्रेरणा☘️

🔸अभिप्रेरणा एक ऐसी मानसिक शक्ति है जो हमें अंदर से किसी कार्य को करने के लिए सदैव प्रेरित करती रहती है जब तक कि हम उस लक्ष्य को प्राप्त न कर ले।

उदाहरण के लिए➖ विद्यार्थी जानते हैं कि आजकल नौकरी इत्यादि में हद से ज्यादा कंपटीशन है परंतु वह अपनी इस कठिन लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दिन-रात पढ़ाई करता है अगर वह असफल हो भी जाए तो भी प्रत्यन करना नहीं छोड़ता है।

🔸 अभिप्रेरणा की आवश्यकता इसलिए है ताकि बच्चे शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में रुचि ले सके।

🔸 प्रेरणा का शाब्दिक अर्थ हम किसी भी उत्तेजना को प्रेरित कर सकते हैं जिससे हमें कार्य करने का बोध है, क्योंकि उत्तेजना के अभाव में किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया संभव नहीं होती।

☘️ प्रेरणा का मनोवैज्ञानिक पक्ष➖
प्रेरणा की उत्तेजना किसी कार्य की मूलभूत आवश्यकता या रूचि के लिए होती है।

🟣गुड के अनुसार➖ प्रेरणा कार्य के प्रारंभ में करने, जारी तथा नियमित रखने की प्रक्रिया है।

☘️ प्रेरणा के प्रकार 2 होते हैं

🟣 आंतरिक प्रेरणा
🟣 बाह्य प्रेरणा

🟣 आंतरिक प्रेरणा➖ इस प्रेरणा में बालक किसी कार्य को अपनी स्वयं की इच्छा से करता है इस कार्य को करने से उसे सुख और संतोष प्राप्त होता है।

🟣 वाह्य प्रेरणा➖ इस तरह ना मैं बालक किसी कार्य को अपनी स्वयं की इच्छा से ना करके किसी दूसरे किच्छा या वाह प्रभाव के कारण पड़ता है इस क्रिया को करने से उसे किसी वांछनीय निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति होती है।

✍🏻📚📚 Notes by…… Sakshi Sharma📚📚✍🏻

🔆 अधिगम और अभिप्रेरणा

✨अधिगम :- हर व्यक्ति में अपनी क्षमता अनुसार अधिगम करता है लेकिन उस क्षमता को बढ़ाया या घटाया जा सकता है। जिसके लिए मुख्य कारक अभिप्रेरणा है अभिप्रेरणा अधिगम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है अर्थात अभिप्रेरणा के द्वारा ही अधिगम को कम या ज्यादा किया जा सकता है।

✨अभिप्रेरणा :- हमें रुचि, आवश्यकता, अलग-अलग प्रकार के पुनर्बलन (सकारात्मक, नकारात्मक) डर, या भय ,खुशी आदि इन सभी कारकों से हमें प्रेरणा मिलती है।

▪️अभिप्रेरणा द्वारा ही यह निर्धारित किया जा सकता है कि अधिगम कैसा होगा।

▪️हम किसी भी कार्य को अपनी रुचि, आवश्यकता, सफलता , दबाव, जीवन कौशल ,अनुशासन, जिज्ञासा, व्यवहार में परिवर्तन लाना, कई सामाजिक परिवर्तन करना, अपना व्यक्तित्व विकास करना, आत्मविश्वास बढ़ाना इत्यादि प्रकार की अभिप्रेरणा से प्रेरित होकर करते हैं।

▪️इन सभी के अलावा हम किसी भी कार्य को तभी करते हैं जब उस कार में हमारी रुचि हो हमारी भावनाओं को महत्व दिया जाए अर्थात

▪️किसी भी कार्य को करने में हमारी आंतरिक और बाह्य दोनों प्रेरणा होती है अर्थात जब बाह्य प्रेरणा हमारी आंतरिक प्रेरणा के हिसाब से यह हमारी अनुसार अनुकूलित होती है तब हम उस कार्य को सुचारू और प्रभावी रूप से कर पाते है।

▪️यदि किसी कार्य को हम करते हैं और उस कार्य में हमारी रुचि है लेकिन उस कार्य को सीखने का जो बाह्य वातावरण है वह हमारी रुचि है जरूरत के अनुरूप या उसके अनुसार नहीं है अर्थात वातावरण नीरस है तो हम उस कार्य के लिए कभी भी अभिप्रेरित नहीं हो पाएंगे।

▪️किसी भी कार्य को करनी है किसी भी प्रकार की अधिगम को करने में केवल आंतरिक कारक ही नहीं बल्कि इसके साथ-साथ बाह्य कारक भी सीखने को प्रभावित करता है।

🌀अभिप्रेरणा :- हमसे किसी भी कार्य को किसी जोर-जबर्दस्ती से करवाया जा सकता है लेकिन उस कार्य को हम निरंतर रूप में करेंगे या नहीं करेंगे यह हमारी अभिप्रेरणा पर निर्भर करता है।

🔹अभिप्रेरणा की आवश्यकता है इसीलिए है ताकि बच्चे शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में रुचि ले सकें।

🔹शिक्षा में अधिगम प्रक्रिया को तीव्र करने के लिए या सुचारू रूप से करने के लिए अभिप्रेरणा आवश्यक है शिक्षक छात्रों में रुचि उत्पन्न करके उनके ध्यान को अधिगम पर केंद्रित कर सकते हैं इस प्रकार सूचियों के बढ़ने से अभिप्रेरणा में वृद्धि होती है फल स्वरुप नए कौशल,उत्साह और संतोषप्रद परिणाम दृष्टिगोचर होते हैं और बच्चे भी शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में रुचि लेते हैं।

🔹अभिप्रेरणा के शाब्दिक अर्थ और मनोवैज्ञानिक अर्थ में अंतर होता है।

❇️प्रेरणा का शाब्दिक अर्थ

▪️हमें किसी कार्य को करने की बोध या समझ होती है इस स्थिति में हमें कार्य को करने में जिस भी वजह या कारण से उत्तेजना हुई होती है वह अभिप्रेरणा है।

▪️अर्थात हम किसी भी उत्तेजना को प्रेरणा कह सकते हैं जिससे हम कार्य को करने का बोध होता है क्योंकि उत्तेजना के अभाव में किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया संभव नहीं है।

❇️प्रेरणा का मनोवैज्ञानिक अर्थ

▪️जब किसी कार्य को मनोवैज्ञानिक रूप से जानकर हम यह जाने कि उस कार्य को करने की क्या वजह है ?या क्या कारण है ?यह क्या इच्छा है?

▪️अर्थात प्रेरणा की उत्तेजना किसी कार्य की मूलभूत आवश्यकता है या रुचि के लिए होती है।

▪️अधिगम के सिद्धांत में मुख्य केंद्र बिंदु अभिकरण नाही हैं जिससे कई शाखाएं निकलती हैं और उनकी मदद से अधिगम किया जा सकता है।

🌀अभिप्रेरणा के प्रकार

📍1 आंतरिक अभिप्रेरणा
📍2 बाह्य अभिप्रेरणा

▪️अभिप्रेरणा को पूर्ण रूप से आंतरिक और वाहिद रहना में विभाजित करना मुश्किल है , ऐसा संभव ही नहीं है या ऐसी कल्पना ही नहीं की जा सकती कि किसी भी सफल और प्रभावी कार्य के संपन्न होने में दोनों में से किसी एक (आंतरिक या बाह्य) किसी एक का महत्वपूर्ण योगदान हो।

▪️किसी एक निश्चित कार्य में हमें आंतरिक अभिप्रेरणा भी हो सकती है और बाह्य प्रेरणा भी हो सकती है।

▪️यदि शिक्षण कार्य में यदि हमें शिक्षण का वातावरण इस प्रकार दिया जा रहा है जो हमारी आवश्यकता , या हमारी जरूरत या इच्छा के अनुसार अनुकूलित है तो हम उस वातावरण में प्रभावी रूप से अधिगम कर पाएंगे।

▪️अर्थात अधिगम को प्रभावी रूप से करने में शिक्षण का वातावरण (बाह्यकारक) और हमारी आवश्यकता या जरूरत या रुचि या इच्छा (आंतरिक कारक) दोनों की ही महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

▪️किसी भी प्रभावी कार्य को करने में कौन सी प्रेरणा कार्य कर रही है ?या किसका मुख्य योगदान है इस बात का निर्णय हम कार्य के दौरान कौन सी प्रेरणा प्रबल है या किस प्रेरणा पर जोर दिया जा रहा है अर्थात प्रबल प्रेरणा का चुनाव करके करते हैं।

▪️किसी स्थिति में यदि व्यक्ति कोई क्रिया करता है जिसमें वह बाह्य प्रेरणा को साथ में लेकर आगे बढ़ता है तो वह अपनी आंतरिक प्रेरणा के कारण ही बाह्य प्रेरणा के साथ सामंजस्य स्थापित कर लेता है।

🌺1 आंतरिक अभिप्रेरणा

▪️इस प्रेरणा में बालक किसी कार्य को अपनी स्वयं की इच्छा से करता है और इस कार्य को करने में उसे “रुचि और संतोष प्राप्त” होता है।

🌺2 बाह्य अभिप्रेरणा

▪️इस प्रेरणा में बालक किसी कार्य को अपनी स्वयं की इच्छा से ना करके किसी दूसरे की इच्छा से करके या किसी बाह्य कारक के कारण से करता है और इस कार्य को करने में उसे किसी वांछनीय निश्चित “लक्ष्य की प्राप्ति” होती है।

▪️बाहरी प्रेरणा के मामलों और बाहरी दबाव द्वारा दिए गए मामलों को अलग करने के लिए हैं। उदाहरण के लिए, उसी स्वायत्तता के साथ काम नहीं करता है जो एक युवा छात्र अध्ययन करता है और अपने परिणामों के लिए पिता की प्रतिक्रिया के डर से अपना होमवर्क करता है।
दूसरी ओर एक युवा जो अपनी पढ़ाई में प्रयास करता है जो अधिक से अधिक शैक्षणिक प्रतिष्ठा वाले विश्वविद्यालय में जाता है.

▪️उपर्युक्त उदाहरणों में पहली स्थिति में व्यक्ति किसी डर या किसी बाह्य प्रेरणा से प्रेरित होकर कार्य को करता है जबकि दूसरे स्थिति में वह स्वायत्तता से स्वयं की इच्छा से कार्य को करता है।

✍️Notes By-'Vaishali Mishra'