28. CDP – Growth and Development PART- 9

🔆 बाल विकास को प्रभावित करने वाले विद्यालय संबंधी कारक ➖

जब बच्चे पारिवारिक वातावरण से निकलकर बाहर के वातावरण के संपर्क में आते हैं या आगे बढ़ते हैं तो ऐसे कई महत्वपूर्ण कारक हैं जो बच्चों के विकास को प्रभावित करते हैं जो कि निम्नानुसार है।

❇️ 1 नर्सरी स्कूल और बाल विकास :-

▪️अधिकतर जिन बच्चों का समायोजन अपने माता पिता के साथ अच्छा होता है वह अपने विद्यालय में भी उसी प्रकार बेहतर रूप से समायोजन कर पाते हैं।

▪️अर्थात बच्चा अपने माता पिता को जिस प्रकार से घर में समायोजित करता हुआ देखता है ठीक वैसा ही अनुकरण करता है और उसी प्रकार का समायोजन विद्यालय में करना सीखता है।

▪️इस प्रकार की समायोजित बच्चे अपने दोस्त भी जल्दी बना लेते हैं।

तथा विद्यालय की विभिन्न गतिविधियों या कार्यों में भी बेहतर रूप से और सक्रिय रूप से अपनी भागीदारी या समायोजन करते हैं और अन्य बच्चों की अपेक्षा अच्छा प्रदर्शन करते हैं।

साथ ही साथ इनका  व्यवहार मित्रवत रहता हैं अपने सहपाठी समूह या साथियों के बीच काफी लोकप्रिय होते हैं।

▪️ इनमें मौलिकता (आधारभूत समझ या सोच या बेसिक अंडरस्टैंडिंग)और निर्माण शीलता(कुछ नया करना) के गुण भी आते हैं।

❇️ 2 प्राइमरी स्कूल और बाल विकास :- 

▪️जिस प्रकार उपरोक्त कथन में बताया कि जिन बच्चों का पारिवारिक वातावरण मैं समायोजन अच्छा होता है उनका नर्सरी विद्यालय में वातावरण समायोजन भी अच्छा होता है उसी पूर्वकथन अनुसार जब बच्चे का  नर्सरी विद्यालय  में अच्छा समायोजन होगा तो वह प्राइमरी विद्यालय में भी बेहतर रूप से समायोजन कर पाते थे।

▪️कई बच्चे इस तरह के भी होते हैं जो पारिवारिक वातावरण से निकलकर  बिना नर्सरी  विद्यालय वातावरण में प्रवेश लिए  सीधे ही प्राइमरी विद्यालय में प्रवेश लेते  हैं।

▪️इस स्थिति में पारिवारिक वातावरण से सीधे ही प्राइमरी विद्यालय के वातावरण में बच्चे को समायोजन करने में कई  तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। अर्थात उन्हें समायोजन करने में कुछ ना कुछ परेशानी आती है।

❇️ 3 कक्षा कक्ष का वातावरण :- 

▪️कक्षा कक्ष का वातावरण बच्चों के लिए बहुत हितकर होता है तथा कक्षा कक्ष में बच्चों की सक्रिय भागीदारी भी बच्चों को सृजनात्मक रूप से आगे बढ़ाती है।

▪️यदि कक्षा का वातावरण प्रजातांत्रिक सहयोग पूर्ण है तो विद्यार्थी में कक्षा के अन्य विद्यार्थियों के साथ मित्रवत व्यवहार व सहयोग की भावना विकसित होती है।

▪️जिस कक्षा मैं बच्चों की बातों को या उनके विचारों को महत्व नहीं दिया जाता या बच्चों की शिक्षक के साथ अंतः क्रिया नहीं होती एवम विद्यार्थी की कक्षा कक्ष में भागीदारी नहीं होती तब ऐसी कक्षाएं “निरंकुश कक्षाएं” कहलाती हैं ।

▪️अर्थात ऐसी कक्षाओं का वातावरण निरंकुश वादी होता है।और निरंकुश वादी वातावरण की कक्षाओं में अध्ययन करने वाले बच्चे कभी भी रचनात्मक कार्य नहीं कर पाते, उन्हें किसी भी काम को करने का हौसला नहीं रहता ,विरोधी ,निष्क्रिय और भयभीत होने लगते हैं।

▪️कक्षा कक्ष के वातावरण को सकारात्मक रखने के लिए शिक्षक को सभी बच्चों को  समान या समरूप से महत्व देना चाहिए एवं बच्चों के विचारों को भी वरीयता देनी चाहिए ।

 शिक्षक द्वारा किसी भी बात का निर्णय तार्किक रूप से मतलब उस बात के सही व गलत दोनों पक्षों को देख कर लेना चाहिए ।

शिक्षक द्वारा कक्षा का वातावरण प्रजातांत्रिक होना चाहिए जिसमें शिक्षक की जिम्मेदारी है कि वह बच्चों को सही मार्ग पर उचित रूप से या सही तरीके से अग्रसर करे।

शिक्षक की यह जिम्मेदारी है कि वह कक्षा के वातावरण को एक तराजू के दोनों पलड़ो को संतुलित रूप से बराबर रखें।

▪️अर्थात शिक्षक द्वारा यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि  छात्र को आवश्यकतानुसार ढीला छोड़ना है एवम् उसकी कौन-कौन सी उचित व सही बातों को महत्व दिया जाना है।

▪️कक्षा का वातारण रूचिपूर्ण और रचनात्मक भी होना चाहिए। इससे बच्चे जाने के लिए और उद्धेश्य पूर्ण शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्सहित होंगे। उनकी रुचि और रचनात्मकता को संवेग प्रदान करता है, उन्हें स्कूल जाते रहने और सार्थक शिक्षा को हासिल करने के लिए प्रोत्साहन प्राप्त होता है।

❇️ 4 अध्यापक विद्यार्थी संबंध :- 

▪️अध्यापक बच्चों के लिए मां का एक प्रतिस्थापन रूप है।

अर्थात घर में मां का जो स्नेह है वही विद्यालय में शिक्षक का स्नेह है ।

▪️शिक्षक का व्यवहार अनुकरणीय होना चाहिए।

बच्चे अध्यापक की सोच, अभिवृत्ति व विचारों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील होते हैं तथा शिक्षकों द्वारा बच्चों को प्रोत्साहन देना भी बहुत महत्व रखता है जिससे वह समय समय पर सही रूप से सही दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित होते रहते हैं

  ▪️शिक्षक द्वारा छात्र की गलतियों को पूरी तरह से अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। और ना ही छात्रों के प्रति बहुत ज्यादा कठोर व्यवहार या रवैया को अपनाया जाना चाहिए। दोनों का संतुलन बहुत ही आवश्यक है।

▪️छात्र का शिक्षक के साथ स्नेह एवं सहज होना भी बहुत आवश्यक है।

▪️स्नेह की आवश्यकता क्यों :- 

किसी भी वस्तु या व्यक्ति को हम तभी स्वीकार करते हैं जब हम उस वस्तु या व्यक्ति के प्रति स्नेह  आत्मीयता होता है। स्नेह के वजह से ही हम उस वस्तु या व्यक्ति की उचित रूप से देखभाल करते है व उसका ध्यान रखते हैं।

▪️इसी तरह शिक्षक और छात्र के बीच स्नेह होना चाहिए यही स्नेह छात्र व शिक्षक को जोड़े रखता है तथा छात्र शिक्षक से जुड़कर ही अपनी सही ज्ञान व समझ को बढ़ाते हैं और साथ ही साथ शिक्षक द्वारा अपने लक्ष्य को पाने में गतिशील रूप से प्रेरित रहते हैं।

▪️सहजता की आवश्यकता क्यों :- 

शिक्षक को आदर्श होना चाहिए लेकिन शिक्षक द्वारा बच्चों को यह भी अनुभव करवाया जाना चाहिए कि वह बेझिझक  अपनी बातों को शिक्षक के सामने सहज रूप से रख पाए।

तथा बच्चों व शिक्षक के बीच उचित दायरे के संतुलन को भी बनाए रखना आवश्यक है तथा शिक्षक को भी अपने छात्र के बीच में सीमाएं या कुछ अनुचित व दायरे का भी ज्ञान होना आवश्यक है।

▪️शिक्षक के पास काफी अनुभव होते हैं लेकिन जो शिक्षक व विद्यार्थी की अंत: क्रिया होती है वह इस प्रकार की हो जिसमे विद्यार्थी सहज रूप से  अपनी बात शिक्षकों के समकक्ष या सामने रख पाए।

▪️प्रत्येक कक्षा कक्ष के वातावरण में व्यक्तिक विभिन्नता होती है अर्थात प्रत्येक बच्चे की सोच उनकी परिस्थिति ,विचार और व्यवहार आदि एक जैसे नहीं हो सकती इसीलिए शिक्षक इस विभिन्नता को ध्यान में रखते हुए छात्र के साथ इस तरह से समन्वय स्थापित करना चाहिए जिससे बच्चे द्वारा कक्षा के वातावरण में  कोई भी आक्रमक व्यवहार ना हो ,आज्ञा का पालन किया जाए,बच्चा कक्षा में अनुपस्थित ना रहे, तथा बच्चे का विकास भी धीमी गति से ना हो।

अध्यापक का कार्य सिर्फ़ इतना ही नहीं है कि वह   कक्षा में जाकर अपना पाठ पढ़ा दे। उसे यह भी देखना चाहिए कि छात्रों पर उसका कितना प्रभाव   पड़ता है। वह इस बात को तब ही देख सकता है जब उसका विद्यार्थियों के साथ मधुर संबंध स्थापित   हो। इसके लिए उसे प्रत्येक छात्र की ओर व्यक्तिगत   रूप से ध्यान देना चाहिए। उनकी समस्याओं का   उचित समाधान करना चाहिए उनके साथ मित्रता   करें।

❇️ 5 विद्यालय का अनुशासन :-

▪️जो भी नियम या प्रोटोकॉल या तौर तरीका या जो भी सिस्टमैटिक अप्रोच है यह सभी विद्यालय के अनुशासन के अंतर्गत आते है।

▪️बच्चों का अलग-अलग प्रकार का व्यवहार , सोच अभिवृत्ति इन सभी को अनुशासन प्रभावित करता है

▪️बच्चा विद्यालय में पहुंचकर बहुत ही बेहतर रूप से अनुशासन का पालन करने लगता है क्योंकि वह जिस विद्यालय वातावरण में रहते हैं वह उसे  देखते हैं उनका पालन करते हैं  और साथ ही वह सहज रूप से उसको अपना लेते हैं।

▪️यदि बच्चों के साथ अत्यधिक कठोर अनुशासन किया जाएगा तो इसका बच्चों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा इसीलिए अनुशासन प्रजातांत्रिक होना चाहिए।

❇️6 स्कूल और चरित्र :- 

 ▪️विद्यालय में अनेक सामाजिक सांस्कृतिक और शैक्षिक गतिविधियों होती रहती है। इनकी विविध क्रियाओं द्वारा बालक के चरित्र का विकास होता है। नैतिक एवं चारित्रिक विकास भी सामाजिक परिस्थितियों में ही सम्भव होता है। विद्यालय बालकों को इसके योग्य अपेक्षित परिस्थितियां प्रदान करता है।

❇️  7 . स्कूल में सामाजिक विकास :-

▪️जब बच्चे विद्यालय जाता है तो वह दो या दो से अधिक बच्चों के संपर्क में आता है जिससे उसमें सामाजिकता का भाव विकसित होता है बच्चे विद्यालय से ही समायोजन स्थापित करना, खेल के साथियों को अपनी वस्तुओं में साझेदारी बनाना सीख जाते हैं वह जिस भी समूह के सदस्य होते हैं उसके द्वारा स्वीकृति व प्रचलित प्रतिमान के अनुसार स्वयं को बनाने की चेष्टा करने लगते हैं।

🔆 मानव विकास के विभिन्न आयाम ➖

✓1 शारीरिक विकास

✓2 मानसिक विकास

✓3 भाषाई विकास

✓4 संवेगात्मक विकास

✓5 सामाजिक विकास

✓6 चारित्रिक विकास

इन सभी आयामों का वर्णन निम्नानुसार है।

🌠1 शारीरिक विकास :- 

▪️जन्म से पूर्व भ्रूण के स्थापित होने के साथ ही व्यक्ति का शारीरिक विकास प्रारंभ हो जाता है जो कि एक स्वाभाविक, प्राकृतिक और सतत प्रक्रिया है जिस पर वंशानुक्रम और वातावरण का प्रभाव पड़ता है जीवन की कई अवस्था में शारीरिक विकास को देखा जा सकता है।

🌠 2 मानसिक विकास:-

▪️मानसिक प्रतिमानो की संरचना करने की योग्यता संज्ञान में समाहित है जिसमें विचार, तर्क, स्मृति और भाषा की भूमिका होती है। 

किसी भी कार्य को करने में हम अपने संज्ञान मतलब विचार ,तर्क ,स्मृति और भाषा का प्रयोग करके ही उस कार्य को सफलतापूर्वक कर पाते हैं।

🌠 3 भाषाई विकास :-

▪️भाषा के विभिन्न अंग और उसके प्रयोग के तरीके बहुत हद तक अनुभव या वातावरण पर निर्भर करते हैं भाषा के काफी अंश को सामाजिकरण से सीखा जा सकता है जिन परिवारों में भाषा संप्रेषण सतत रूप व मुक्त रूप से चलता रहता है वहां बच्चे की भाषा का विकास सहजता के साथ होता रहता है।

🌠 4 संवेगात्मक विकास :-

▪️संवेग अर्थात भावना भावो तीव्र या उदीपक अवस्था को कहते हैं । भय, क्रोध, ईर्ष्या, चिंता सभी संवेग के उदाहरण है । संवेग परिस्थितियों की जटिल अवस्था है जो कभी-कभी व्यक्ति के कार्यों में बाधक होती हैं तो कभी प्रेरणापद भी।

▪️बालक की जीवन में भी संवेगो का बड़ा महत्व है संवेग के कारण ही बालक क्रिया करता है और संवेगात्मक क्रियाओं की पुनरावृत्ति धीरे धीरे आदतों में बन जाती है।

🌠 सामाजिक विकास :- 

▪️जन्म के समय बालक इतना असहाय होता है कि वह समाज के सहयोग के बिना मानव प्राणी के रूप में विकसित हो ही नहीं सकता। शिशु का पालन-पोषण प्रत्येक समाज अपनी विशेषताओं के अनुरूप करता है और बालक इसे अपने विभिन्न कार्यों में प्रकट करता है। इसे बालक का सामाजिक विकास कहते है।

▪️बालक का सामाजिक विकास क्रमाश:धीरे-धीरे होता है अतः इसका स्वरूप इस तथ्य पर आधारित होता है की बालक की अन्य व्यक्तियों के प्रति कैसी प्रतिक्रिया है और इस संबंध में उसे विकास के कैसे अवसर प्राप्त हो रहे हैं।

🌠 6 चारित्रिक विकास :-

जीवन की कई अवस्थाओं में व्यक्ति का अलग अलग तरह से चारित्रिक विकास होता है ।

▪️शैशवावस्था में अच्छी और बुरी, उचित और अनुचित बातों का ज्ञान नहीं होता है। वह उन्हीं कार्यों को करना चाहता है जिनमें उसको आनन्द आता है।

 ▪️बाल्यावस्था  में बालक में न्यायपूर्ण व्यवहार, ईमानदारी और सामाजिक मूल्यों की समझ का विकास होने लगता है। 

▪️किशोरावस्था के पहले बालक अच्छी और बुरी, सत्य और असत्य, नैतिक और अनैतिक बातों के बारे में तरह-तरह के प्रश्न पूछता है। लेकिन किशोरावस्था में आने पर वह इन सब बातों पर खुद ही सोंच-विचार करने लगता है। 

और चारित्रिक विकास धीरे-धीरे चलता रहता है।

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  Notes By-‘Vaishali Mishra’

💫🌻 बाल विकास को प्रभावित करने वाले विद्यालय संबंधी कारक🌻💫

🌼 नर्सरी स्कूल और बाल विकास➖नर्सरी कक्षा में बच्चा जिनके माता-पिता का समायोजन अच्छा होता है स्कूल में ऐसे बच्चों का समायोजन अच्छा होता है। जैसे–बच्चों की दोस्त जल्दी बन जाते हैं लोगों से अच्छा तालमेल बैठ जाता है अच्छी तरीके से बात करते हैं ऐसे बच्चे स्कूल के कार्यों में बढ़-चढ़कर भाग लेते हैं इन बच्चों में सहयोग की भावना पाई जाती है कि आसानी से मित्रवत व्यवहार करते हैं साथियों के बीच लोकप्रिय रहते हैं मौलिकता और निर्माण शीलता के गुण होते हैं बालक में बौद्धिक जिज्ञासा होती है।

🌼 प्राइमरी विद्यालय और बाल विकास➖प्राइमरी स्तर पर बालक शैशवास्था से निकलकर बाल अवस्था में पहुंच जाता है प्राइमरी स्तर पर बालक के विकास की प्रक्रिया का अध्ययन महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके अभाव में बालकों का चहुमुखीं विकास में अपने दायित्व का निर्वाह नहीं कर सकता है।

🌼 कक्षा- कक्ष का वातावरण➖स्कूल का वातावरण सकारात्मक होना चाहिए कक्षा का वातावरण रुचि पूर्ण और रचनात्मक होना चाहिए।

🌼 अध्यापक विद्यार्थी संबंध➖छात्रों के मन में डर को दूर करने की जिम्मेदारी शिक्षक की भी होती है इसलिए दोनों के बीच खुला संवाद होना चाहिए टीचर को अपने छात्रों के साथ खुले माहौल में बातचीत करना चाहिए ताकि बच्चा आसानी से अपनी समस्याओं को शिक्षकों के सामने बता सके।

🌼 विद्यालय का अनुशासन➖विद्यालय का अनुशासन प्रजातांत्रिक होना चाहिए अनुशासन ही बालकों को श्रेष्ठता प्रदान करता है और उसे समाज में उन्नति स्थान दिलाने में सहायता करता है कोई भी बालक अनुशासन के महत्व को समझे बिना सफल नहीं हो सकता है।

🌼 स्कूल और चरित्र➖ स्कूल में बालकों का चारित्रिक विकास होता है बालक बहुत उत्सुकता से सब कुछ देखते हैं और प्रभावशाली होते हैं इसलिए स्कूल का वातावरण बच्चों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

🌼 स्कूल में सामाजिक विकास➖विद्यालय का वातावरण भी सामाजिक विकास को प्रभावित करता है यदि विद्यालय का वातावरण मधुर है तो बालक का सामाजिक विकास संतोषजनक ढंग से होगा जनतांत्रिक सिद्धांतों पर चलने वाले विद्यालयों में बालकों का सामाजिक विकास संतोषजनक ढंग से नहीं होता है।

💫🌻मानव विकास के विभिन्न आयाम🌻💫

1-शारीरिक विकास

2-मानसिक विकास

3-भाषायी विकास

4-संवेगात्मक विकास

5-सामाजिक विकास

6-चारित्रिक(नैतिक विकास)

🌼 शारीरिक विकास➖सारे विकास के अंतर्गत शरीर के समस्त आंतरिक एवं बाह्य अंगों का विकास होता है जैसे शरीर की लंबाई ,भार ,शारीरिक अनुपात, अस्थियों का विकास, मांसपेशियों का विकास ,आंतरिक अवयवों का विकास तथा शारीरिक स्वास्थ्य का अध्ययन आता है।

🌼 मानसिक विकास➖मानसिक विकास का केंद्र बिंदु बुद्धि है इसी से मानसिक सजगता आती है एक सामान्य बुद्धि बालक मंदबुद्धि बालक की तुलना में अपने वातावरण के साथ आसानी से समायोजन स्थापित कर लेता है।

🌼 भाषायी विकास➖भाषा एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा कोई भी व्यक्ति अपने विचारों का आदान प्रदान कर सकता है मनुष्य सामाजिक प्राणी है इसी नाते से उसे निरंतर अपने विचारों को दूसरों के सामने अभिव्यक्त करने के लिए भाषा की आवश्यकता होती है अतः भाषा और विचारों का घनिष्ठ संबंध है।

🌼 संवेगात्मक विकास➖संवेगात्मक विकास मानव जीवन के विकास व उन्नति के लिए आवश्यक है यह विकास मानव जीवन को बहुत पसंद करता है उसी से उसके व्यक्तित्व निर्माण में सहायता मिलती है जब व्यक्ति अपने समय को जैसे भय, क्रोध, प्रेम आदि का सही प्रकाशन करना सीख लेता है तो उसे संवेगात्मक विकास कहते हैं।

🌼सामाजिक विकास➖सामाजिक विकास का अर्थ है बालक का सामाजिक रन करना समाज में रहकर ही वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है और अपनी जन्मजात शक्तियों और प्रवृत्तियों का विकास करता है।

🌼 चारित्रिक विकास➖ बालकों में चारित्रिक का विकास सामाजिकअंतर क्रिया के परिणाम स्वरुप होता है बच्चा समाज के संपर्क में आने पर सामाजिक व्यवहारों का अधिगम करता है और इस अवस्था में उस में चारित्रिक का विकास भी होता रहता है।

✍🏻📚📚 Notes by…. Sakshi Sharma….

🍀बाल विकास को प्रभावित करने वाले विद्यालय संबंधी कारक➖🍀

*1.)नर्सरी स्कूल और बाल विकास:-*

अगर ऐसे बच्चे अपने घर में माता-पिता का समायोजन अच्छा देखेगा तभी वह स्कूल जाकर उसी प्रकार से समायोजन कर पाएगा ऐसे बच्चों के दोस्त जल्दी बन जाते हैं और स्कूल के परिवेश में भी वह अच्छी तरीके से घुल -मिल जाते हैं ।यह मित्रवत व्यवहार करते हैं, लोकप्रिय होते हैं ,स्कूल के कार्य में  भी समायोजन आसानी से कर पाते हैं। और अन्य बच्चों से अच्छा करते हैं जिसके कारण उसके अंदर मौलिकता निर्माणशीलता के गुण होते हैं और उनकी बौद्धिक जिज्ञासा भी बढ़ती है।

*2) प्राइमरी विद्यालय और बाल विकास:-*

जिन बच्चों का पहले से पारिवारिक वातावरण और नर्सरी स्कूल के वातावरण में अच्छे से सामंजस्य और तालमेल बैठाकर उन वातावरण से भली भांति परिचित हो जाते हैं ऐसे बच्चों का पारिवारिक वातावरण भी अच्छा होता है सभी के साथ मिलजुल कर रहते हैं।

*3) कक्षा- कक्ष का वातावरण:-*

अगर कक्षा कक्षा का वातावरण बच्चों के  जिंदगी के लिए हितकर है तभी वह आगे बढ़ सकते हैं अन्यथा बच्चे गलत रास्ते की ओर कदम बढ़ाने लगते हैं।

              इसलिए हमें हमेशा कक्षा -कक्ष का वातावरण सहयोगात्मक रूप से बना कर रखना चाहिए ताकि बच्चों के अंदर भी मित्रवत व्यवहार उत्पन्न हो अगर जिस कक्षा में वातावरण अच्छा ना हो तो वह कक्षा निरंकुश कक्षा बन जाती है ऐसी कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे कभी भी खुद रचनात्मक कार्य नहीं कर पाते ।

   कक्षा- कक्ष के वातावरण को अच्छा बनाने के लिए शिक्षक को तराजू के दोनों पड़लो को एक साथ संतुलित बनाने की आवश्यकता होती हैं।

*4) अध्यापक विद्यार्थी संबंध:-*

अध्यापक एक बच्चे का मां का प्रतिस्थापन रूप है। पारिवारिक परिवेश के बाद एक विद्यार्थी विद्यालय में हीं खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं और शिक्षक का इसमें अहम योगदान होता है कि वह बच्चों के साथ कैसा व्यवहार कर रहे हैं।

                 शिक्षक का व्यवहार हमेशा अनुकरणीय होना चाहिए बच्चों के प्रति वह संवेदनशील हो एक शिक्षक और छात्र के बीच में और आरामदायक का होना बहुत ही जरूरी है।

                शिक्षक के लिए सभी छात्र एक जैसे होते हैं। उन्हें कभी 1 बच्चों के सामने किसी दूसरे बच्चे कि हमेशा तारीफ या प्रशंसा नहीं करनी चाहिए उन्हें सभी बच्चों को एक साथ लेकर चलना चाहिए।

              शिक्षक  अपने छात्रों के प्रति हमेशा सजग रहें और वह यह भी देखें कि छात्र उनकी आज्ञा का पालन करे,आक्रामक रवैया ना  अपनाएं, अनुपस्थित ना रहे और विकास भी  धीमी गति से ना करें।

*5) विद्यालय का अनुशासन:-*

अनुशासन हमेशा प्रजातांत्रिक होना चाहिए। विधालय का तौर- तरीका अनुशासन कैसा होगा यह भी बच्चे को बहुत ज्यादा प्रभावित करती है।बच्चे की अपनी-अपनी सोच, मानसिकता, होती है। जो वह विधालय आके ही सीखते हैं। इसलिए हमें विधालय का माहौल बच्चे के अनुरूप ही बनाना चाहिए। 

                          क्योंकि बच्चे विधालय से ही खुद के अंदर बहुत ज्यादा परिवर्तन करते हैं। 

जैसे:-  बड़े- छोटे के प्रति आदर ,बात करने का तौर -तरीके ,पहनावा इत्यादि। 

                      लेकिन वहीं दूसरी ओर ज्यादा अनुशासन भी बच्चों के अंदर गलत प्रभाव डालती है। इसके कारण बच्चों अंदर अकेलापन, हीन भावना, और खुद में ही खोए खोए रहते हैं।

*6) स्कूल और चरित्र:-*

 शिक्षक का पहला दायित्व है कि बच्चों का चरित्र निर्माण करें लेकिन शिक्षक ही नहीं पूरा स्कूल का भी यह कर्तव्य होता है बच्चे एक अच्छे नागरिक बने उन्हें बस किताबी ज्ञान देना जरूरी नहीं आध्यात्मिक ज्ञान की भी आवश्यकता होती है।

        शिक्षक के व्यवहार ,कुशलता, सामाजिक कुशलता से ही बच्चे सीख कर स्वयं चरित्र निर्माण करते हैं अतः व्यवहारिक रूप से हमें यह ध्यान देना चाहिए कि हम कैसे बोलते हैं ?कैसे पहनते हैं? कैसे प्रतिक्रियाएं देती हैं ?कैसी हमारी सोच है ?इन सारी बातों को एक शिक्षक को भलीभांति ज्ञात होनी चाहिए।

*7) स्कूल में सामाजिक विकास:-*

बालकों की सामाजिक विकास में विद्यालयों का अहम योगदान होता है:-

1- बालकों को दूसरे के साथ रहने एवं व्यवहार की पर्याप्त अवसर मिलते रहना चाहिए।

2- एक बालक को अन्य व्यक्तियों के साथ अपनी भाव के अतिरिक्त दूसरों के भाव को भी समझना चाहिए।

3- बालक को सामाजिक बनने के लिए प्रेरणा देनी चाहिए।

4- बालकों मार्गदर्शन प्रदान करना चाहिए।  

 अतः इन सब बातों के लिए जागरूक बच्चों के लिए स्कूल के माध्यम से ही किया जाना चाहिए।

*🍀मानव विकास के विभिन्न आयाम:*➖

1) शारीरिक विकास:-

परिवार यदि अपने बालकों की पालन पोषण ऐसी स्थानों पर करते हैं जहां बच्चों को शुद्ध वायु, भोजन, प्रकाश, संतुलित और पौष्टिक आहार ,खेल और व्यायाम की सुविधा उपलब्ध कराकर, बच्चों से स्नेह पूर्ण व्यवहार करके और स्वच्छता की समस्या ना हो तो ऐसे  बच्चे शारीरिक रूप से स्वस्थ रहते हैं।

2) मानसिक विकास:-

 परिवार का वातावरण बालक के मानसिक विकास  से घनिष्ठ संबंध रखता है। एक अच्छे परिवार जिसमें माता-पिता के अच्छे संबंध है और वह अपने बच्चों की रुचि व आवश्यकता को समझते हैं एवं जिसमें आनंद और स्वतंत्रता का वातावरण है और प्रत्येक सदस्य के मानसिक विकास बच्चों के मानसिक विकास में अत्यधिक योगदान देता है।

3) भाषाई विकास:-

परिवार के सदस्य शिष्टाचार और अच्छे शब्दों का प्रयोग करते हैं उच्चारण दोष रहित भाषा का प्रयोग करते हैं तो जाहिर सी बात है कि उस परिवार के बच्चे भी उत्तम कोटि की भाषा सीखेंगे अतः हम कह सकते हैं कि बालक की भाषा विकास पर पारिवारिक संबंधों का भी अधिक प्रभाव पड़ता है।

4) संवेगात्मक विकास:-

पारिवारिक वातावरण बालक के संवेगात्मक विकास पर अत्यधिक प्रभाव डालता है ।जिन परिवारों में आपस में  लड़ाई -झगड़े शक्तिशाली पाया जाता है। वहां बालकों का सकारात्मक, संवेगात्मक विकास नहीं हो पाता जिन परिवारों में बालकों को सुरक्षा, शांति तथा आदर सत्कार मिलता है वहां संवेगात्मक विकास होता है।

         जो माता-पिता अपने बालों को तिरस्कार करते हैं उनके बालक झगड़ालू  प्रवृत्ति  और आक्रामक व्यवहार करने वाले हो जाते हैं।

5) सामाजिक विकास:-

  माता-पिता द्वारा पालक के पालन पोषण की विधि उनकी सामाजिक विकास पर बहुत गहरा प्रभाव डालते हैं अत्यधिक लाड- प्यार से पाला जाने वाला बालक दूसरे बालकों से दूर रहना पसंद करता है ।

वहीं दूसरी ओर, जिन परिवारों में आपस में मिल-जुलकर रहने की परंपरा, सहयोग की भावना और पारिवारिक माहौल में  लोगों का जैसा आचरण होगा तो वहां के बच्चे वैसा ही सीखेंगे और करेंगे।

6) चारित्रिक विकास:-

परिवार किसी भी बालक की प्रथम पाठशाला होती है। माता-पिता तथा परिवार के अन्य सदस्यों की क्रिया और व्यवहारों काअनुकरण बालक करता है । माता-पिता तथा परिवार अन्य सदस्यों को अपना आदर्श मानता है परिवार के सदस्यों के साथ उनके संबंध और उनकी नैतिक विकास को बहुत ज्यादा प्रभावित करते हैं अगर परिवार में प्रेम की भावना हो तो बालक का चारित्रिक विकास होता है।

             🍀🍀Mahima….🍀🍀

बाल विकास को प्रभावित करने वाले विद्यालय संबंधी कारक

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(1) नर्सरी स्कूल और बाल विकास:–

👉जिनके माता-पिता का समायोजन अच्छा होता है स्कूल में ऐसे बच्चों का समायोजन अच्छा होता है l ऐसे बच्चों के दोस्त जल्दी बन जाते हैं l

🤘 स्कूल के कार्यों में समायोजन अन्य बच्चों से अच्छा करते हैं l

🤘 मित्रवत व्यवहार करते हैं l

🤘साथियों के बीच लोकप्रिय होते हैं 🤘 मौलिकता और निर्माण शीलता के गुण होते हैं l

 🤘बौद्धिक जिज्ञासा होती है

(2) 👉 प्राइमरी विद्यालय और बाल  विकास:—

 (पारिवारिक वातावरण+नर्सरी वातावरण+प्राइमरी  वातावरण)

👉जिनका पारिवारिक वातावरण और नर्सरी वातावरण अच्छा होता है  वह प्राइमरी वातावरण में समायोजन करने में काफी  सहूलियत  मिलती है  इस नए वातावरण में कठिनाई नहीं होती

👉 बहुत सारे ऐसे बच्चे होते हैं जो नर्सरी कक्षा ना जा करके सीधे  प्राइमरी जाते हैं तो इन बच्चों को वह समायोजन की परेशानी अब होगी जो समायोजन की परेशानी नर्सरी में थी

(3) कक्षा कक्ष का वातावरण:—

👉कक्षा कक्ष का वातावरण बच्चों के विकास पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है l यदि कक्षा कक्ष का माहौल शांत होगा और पढ़ाने के तरीके में लचीलापन होगा और बच्चों के रूचि के अनुसार उसको शिक्षा दी जाएगी तो बच्चे अधिक सीखेंगे और उनका विकास सही तरीके से होगा ऐसे में शिक्षक को चाहिए कि कक्षा कक्ष का माहौल सकारात्मक रखें l

(4)👉 अध्यापक विद्यार्थी संबंध:—

अभी के चाइल्ड सेंट्रिक एजुकेशन में अध्यापक को मां का प्रतिस्थापन रूप माना जाता है इसलिए अध्यापक का व्यवहार अनुकरणीय होना अनिवार्य है बच्चे के प्रति ना तो नरम और ना तो कड़क  इस बात का ध्यान रखें अपने शिक्षक के प्रति बच्चे बहुत संवेदनशील होते हैं ऐसे में दोनों के बीच स्नेह और सुविधा पूर्ण रिश्ता होनी चाहिए 

(5) 👉विद्यालय का अनुशासन:—

विद्यालय का अनुशासन विद्यालय में छात्रों का शिक्षकों का सबका एक निश्चित कर्म समय होता है जिससे वह उसका पालन कर सके और सही समय पर सही रास्ते पर चल सके विद्यालय का अनुशासन बहुत ही महत्वपूर्ण होता है क्योंकि एक अनुशासन हीन विद्यालय का विद्यार्थी ना कुछ बन पाता है और ना कुछ कर पाता अतः अनुशासन सकारात्मक और प्रजातांत्रिक होनी चाहिए

🌻 मानव विकास के विभिन्न आयाम

(1) शारीरिक विकास 

(2)मानसिक विकास 

(3)भाषाई विकास

 (4)संवेगात्मक विकास

(5) सामाजिक विकास

(6) नैतिक विकास

1)👉 शारीरिक विकास:— शारीरिक रचना के बारे में स्नायु मंडल, मांसपेशियां, वृद्धि ,अंतः स्रावी

2)👉 मानसिक विकास:— बालक के ज्ञान के भंडार में वृद्धि एवं उपयोग से है मानसिक शक्तियों का विकास तथा वातावरण के प्रति सामंजस्य स्थापित की करने की क्षमता

3)👉 भाषाई विकास:— भाषा विकास एक प्रक्रिया है जिसे मानवीय जीवन की शुरुआत में शुरू किया जाता है

4)👉 संवेगात्मक विकास:— ज्ञान के कारण किसी कमरे का उत्पन्न होना जैसे :—क्रोध, भय ,हर्ष

5) 👉सामाजिक विकास:— बालक का पालन पोषण प्रत्येक समाज अपनी विशेषताओं के अनुरूप करता है और बालक उन्हें अपने विभिन्न कार्यों में प्रकट करता है

6)👉 नैतिक विकास:— बालक का नैतिक विकास आचरण के लिए समाज निर्धारित नियमों के अनुसार चलना ही नैतिकता माना जाता है

🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻

Notes by:—sangita bharti

🌸बाल विकास को प्रभावित करने वाले विद्यालय संबंधी कारक निम्नलिखित हैं÷

💞नर्सरी स्कूल और बाल विकास💞

🧠 💦नर्सरी स्कूल में प्रवेश करने वाले बच्चे के घर का वातावरण अत्यधिक महत्वपूर्ण होता है क्योंकि जिन बच्चों के घर का वातावरण व उनके माता-पिता का बच्चे के साथ अच्छा तालमेल या माहौल या समायोजन होता है ऐसे बच्चे विद्यालय में भी अच्छे से समायोजित कर पाते हैं क्योंकि इस अवस्था में बच्चे अनुकरण के द्वारा सीखते हैं इसलिए उन्हें जैसा घर में माहौल प्राप्त होता है या वातावरण मिलता है वह विद्यालय जाकर वैसा ही व्यवहार करता है।

🧠 💦समायोजित बच्चों के मित्र जल्द बन जाते हैं क्योंकि वह विद्यालय में मैत्रीपूर्ण व्यवहार करता है, ऐसे बच्चे स्कूल के विभिन्न कार्यक्रमों, गतिविधियों मैं अच्छा समायोजन कर पाते है और अपने साथियों के बीच लोकप्रिय होते हैं।

🧠 💦समायोजित बच्चो मैं मौलिकता और निर्माणशीलता के गुण होते हैं।

🧠💦 बौद्धिक जिज्ञासा अधिक होती है।

🧠💦भाषाई प्रयोग भी बालक घर से ही सीखता है, अपनी माता के द्वारा;

   💞प्राइमरी विद्यालय और बाल विकास💞÷

🧠 💦ऐसे बच्चे जिनका नर्सरी में अच्छा समायोजन रहा है वह प्राइमरी वातावरण में भी आसानी वा सरलता से समायोजन कर लेते हैं क्योंकि वह नर्सरी कक्षा में समायोजित हो चुके रहते हैं,

💦किंतु कुछ ऐसे बच्चे भी होते हैं जो पारिवारिक वातावरण के बाद नर्सरी विद्यालय या नर्सरी वातावरण में ना जाकर प्राइमरी विद्यालय या वातावरण में प्रवेश ले लेते हैं ऐसे बच्चों को समायोजन में वही परेशानी होती है जो नर्सरी वाले बच्चे को प्रथम बार विद्यालय आने में हुई थी, लेकिन यदी उस बच्चे का पारिवारिक वातावरण अच्छा रहा है तो प्राइमरी विद्यालय वातावरण में भी समायोजन करने में परेशानी नहीं होती है और वह अच्छे से समायोजन कर पाता है।

💞कक्षा कक्ष का वातावरण💞

🧠💦कक्षा कक्ष का वातावरण प्रजातांत्रिक या सहयोग पूर्ण वा मैत्रीपूर्ण होना चाहिए जिससे विद्यार्थी आपस में सहयोग की भावना रखें

🧠💦एक शिक्षक की महत्वपूर्ण योग्यता यह होती है कि वह अपने कक्षा को संतुलित बनाए रखें (जिस प्रकार तराजू के दंड को समान करने के लिए दोनों पलड़ो को बराबर करना पड़ता है, ठीक उसी प्रकार कक्षा कक्ष का वातावरण भी रखना चाहिए) इससे उनमें ना ही अत्यधिक उच्च कोटि भावना प्रबल हो जिससे कि वे अहंकारी प्रवृत्ति के हो जाए ना ही निम्नकोटी की हीन भावना का शिकार हो जाए, ऐसे में बच्चे निष्क्रिय हो जाते हैं वह उनमें विद्रोह की प्रवृत्ति आ जाती है और उनका अधिगम और अवरूद्ध हो जाता है।

🧠💦कक्षा कक्षके वातावरण का बालक के सीखने की प्रक्रिया उसके विकास के क्रम में महत्वपूर्ण योगदान रहता है यदि कक्षा के शिक्षक का व्यवहार मैत्रीपूर्ण है तो बालक को भी कक्षा में समायोजन होने में समस्या नहीं होती है और और वह आसानी से कक्षा कक्ष के वातावरण के अनुकूल हो जाता है और कक्षा कक्ष की गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग लेता है और धीरे-धीरे अन्य बच्चों के साथ घुल मिलकर आपस में समूह गतिविधि, समूह में कार्य करना, साथ साथ खेलना वा अन्य क्रियाएं भी करने लगता है।

💞अध्यापक विद्यार्थी संबंध💞

🧠💦बच्चे अनुकरण द्वारा सीखते हैं आता जैसा अध्यापक व्यवहार करता है बालक वैसा ही सीखता है अध्यापक के अच्छे गुण बालक में अनुकरण द्वारा स्थानांतरित होते हैं,

🧠💦शिक्षक और शिक्षार्थी के बीच का संबंध मित्रवत होना चाहिए जिससे बालक और शिक्षक के मध्य सुचारू रूप से अंता क्रियाएं होती रहे,

🧠💦शिक्षक विद्यार्थी की किसी भी छोटी या बड़ी गलतियों के लिए ना ही अत्यधिक प्रताड़ित करना चाहिए ना ही छोड़ दें क्योंकि अत्यधिक प्रताड़ना से बालक कुंठित हो सकता है वहीं छोड़ देने से गलती को दोहराने की कोशिश करेगा अतः शिक्षक को बराबर रखना चाहिए ना ही अत्यधिक कठोरता ,बर्बरता  न ही अत्यधिक सरलता रखनी चाहिए।(दंड उतना जिससे दोबारा उस गलती को दोहराए ना जा सके)

🧠💦छात्र का शिक्षक की अभिवृत्ति पर विशेष प्रभाव पड़ता है कि शिक्षक द्वारा दिए गए पुरस्कार व प्रोत्साहन से उसमें आत्मविश्वास जागृत होता है और वह विद्यालय की गतिविधियों कार्यक्रमों व अन्य शैक्षिक गतिविधियों में बढ़-चढ़कर भाग लेता है।

🧠💦प्रत्येक छात्र में व्यक्तिक विभिन्नता पाई जाती है वह सांस्कृतिक सामाजिक-आर्थिक नैतिक व अन्य रूपों से भिन्न होता है अतः शिक्षा का कार्य कर तब होता है कि वह प्रत्येक बच्चे को ध्यान में रखकर अधिगम कराएं जिससे सभी बच्चे बिना किसी भेदभाव के एक साथ सीख सकें,और ऐसा अधिगम अपनाया जाए जिससे बच्चे के विकास की धीमी गति से ना हो और ना ही ऐसा अधिगम अपनाया जाए जिससे बच्चा कक्षा कक्ष में अनुपस्थित रहे;

🧠💦बच्चे के साथ ऐसा व्यवहार ना किया जाए कि वह कक्षा कक्ष में आक्रामक व्यवहार अपनाएं नहीं वह कक्षा कक्ष के नियमों का उल्लंघन करें।

💞विद्यालय का अनुशासन💞

🧠💦विद्यालय के अनुशासन इस प्रकार होना चाहिए कि वह उन्हें ना ही बोझ लगे ना ही बहुत आसान अर्थात अनुशासन ऐसा ना हो जिससे वे उसका  निर्वहन करने में परेशान हो जाएं ना ही इतना आसान हो जिसे वे आसानी से तोड़ सके।

🧠💦विद्यालय का अनुशासन प्रजातांत्रिक होना चाहिए प्रत्येक बच्चे के लिए कोई भी नियम कानून समान होने चाहिए, किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं होना चाहिए अनुशासन के प्रति, प्रत्येक बच्चा विद्यालय के अनुशासन के प्रति सजग एवं समर्पित रहे जिससे विद्यालय के वातावरण को सुगम बनाए रखा जा सके।

💞स्कूल और चरित्र💞

🧠💦बालक का के विद्यालय में उसका चरित्र विद्यालय के वातावरण व शिक्षकों के व्यवहार से निर्धारित होता है क्योंकि बालक अनुकरण से सीखता है अर्थात यदि विद्यालय में शिक्षक का व्यवहार व क्रियाकलाप अच्छी नहीं है व गुणवत्तापूर्ण नहीं है तो उसका असर बालक पर अत्यधिक पड़ता है इसलिए विद्यार्थी के साथ साथ एक शिक्षक का भी कर्तव्य होता है कि वह शिष्टाचार के नियमों का पालन करें एवं नैतिक गतिविधियां उचित व्यवहार कक्षा कक्ष में करें।

🧠💦एक शिक्षक को बालकों के सामने आदर्श चरित्र प्रस्तुत करना चाहिए क्योंकि बालक अपने शिक्षक के समान ही बनने की कोशिश करता है।

🌸उदाहरण÷एक अध्यापक यदि धूम्रपान करते कक्षा कक्ष में गतिविधियां कराता है यह अधिगम कराता है तो इसका कुप्रभाव बालकों के मस्तिष्क पर पड़ता है जिससे वह भी आगे चलकर यह गतिविधियां दोहराते हैं।

💞विद्यालय में सामाजिक विकास💞

🧠💦बच्चे विद्यालय में प्रवेश लेने से पूर्व पारिवारिक वातावरण से समायोजित रहते हैं अर्थात उनका सामाजिक वातावरण कुछ निर्धारित लोगों तक ही सीमित रहता है किंतु विद्यालय में आने के बाद वह विभिन्न प्रकार के बालकों, शिक्षकों के साथ अंतः क्रिया करता है अर्थात बालक का विद्यालय के वातावरण का सर्वाधिक असर पड़ता है।

विद्यालय में सामाजिक वातावरण को सुचारू रूप से बनाए रखने के लिए शिक्षकों का यह कर्तव्य है कि एक स्वस्थ एवं समायोजित वातावरण का निर्माण करें जिससे बालकों के सामाजिक वातावरण का निर्माण अत्यधिक सर व सहज हो जिससे वे अपने भावी जीवन में समाज में जाकर अंतःक्रिया कर सकें एवं उसके अनुकूल समायोजित हो सके।

धन्यवाद

🥀🥀Written by shikhar pandey 🥀🥀

✴️बाल विकास को प्रभावित करने वाले विद्यालय संबंधी कारक ❇️

इस प्रकार हैं

🌲नर्सरी स्कूल और बाल विकास➖️

 नर्सरी स्कूल का बालक का बहुत ही प्रभाव पड़ता है परिवार के बाद दूसरा विद्यालय ही आता है नर्सरी कक्षा के बच्चे जिस प्रकार का कक्षा में वातावरण देखते हैं उसका ही अनुकरण करते हैं नर्सरी क्लास के बच्चों पर माता-पिता के समायोजन का बहुत असर पड़ता है जिसके माता-पिता का अच्छा समायोजन होता है स्कूल में उन बच्चों का समायोजन भी अच्छा होता है ऐसे बच्चे के जल्दी दोस्त बन जाते हैं लोगों से अच्छी तरीके से तालमेल बैठा पाते  हैं अच्छी तरीके से बातचीत करते हैं स्कूल के कार्यों में भाग लेते हैं आसानी से मित्र बना लेते हैं और ऐसे बच्चे साथियों के लिए लोकप्रिय होते हैं मौलिकता और  शीलता के गुण पाए जाते हैं ऐसे बच्चों में बौद्धिक विकास भी बहुत तीव्र गति से होता है

  🌲 प्राइमरी विद्यालय और बाल विकास ➖️प्राइमरी स्तर पर बाल विकास से परिवार और नर्सरी विद्यालय के बाद आता है परिवार और नर्सरी कक्षा में बालक जिस प्रकार का वातावरण देखता है सीखता है और फिर वह प्राइमरी स्तर पर जाता है तो वह समझदार हो जाता है और उस समूह में रहने लगता है आपसी संबंध अच्छे हो जाते हैं उसके मित्रता पूर्ण व्यवहार भी करने लगते लगता है

🌲 कक्षा कक्ष का वातावरण बाल विकास में विद्यालय के➖️ वातावरण में कक्षा कक्ष का वातावरण बहुत ही महत्वपूर्ण होता है कक्षा कक्ष का वातावरण जिस प्रकार का वातावरण होगा बालक भी उसी प्रकार से अनुकरण करता है सकारात्मक होना चाहिए कक्षा में विद्यार्थियों द्वारा रचनात्मक कार्य करवाते रहना चाहिए जिससे वह सक्रिय  रह सकें

🌲अध्यापक विद्यार्थी संबंध ➖️अध्यापक और विद्यार्थी के बीच आपसी संबंध बहुत ही अच्छा होना चाहिए इसमें स्नेह और प्रेम  संबंध होने चाहिए इनके बीच कोई भी मतभेद नहीं होना चाहिए आप ही डर नहीं होना चाहिए विद्यार्थी जब भी शिक्षक के कोई बात करें तो उस शिक्षक को विद्यार्थी से अच्छी तरीके से बात करनी चाहिए ऐसा नहीं कि उसे डराना धमकाना चाहिए शिक्षकों मित्रता पूर्वक व्यवहार करना चाहिए इससे विद्यार्थी अपनी मन की बात शिक्षक से कह सकता है और उसकी जो भी समस्याएं हो सकती हैं वह दूर हो जाती हैं अगर विद्यार्थी के मन में कोई भी समस्या रहती है और उसका निदान निरीक्षक द्वारा नहीं हो पाता है तो वह बहुत ही निराश हो जाता है उसके मन में द्वेष भावना उत्पन्न होने लगती हैं शिक्षक को सभी विद्यार्थियों को एक समान व्यवहार करना चाहिए

 🌲विद्यालय का अनुशासन ➖️बालक के विकास में विद्यालय का वातावरण बहुत ही महत्वपूर्ण है विद्यालय का अनुशासन बहुत ही आवश्यक होता है विद्यालय के अनुशासन प्रजातांत्रिक होना चाहिए अनुशासनहीनता प्रदान कराता है अनुशासन द्वारा ही अच्छी तरीके से सीखता है और विद्यालय के अंदर अनुशासन करते रहने से विद्यालय के बाहर जाता है तो वह अपने अनुशासन बनाए रखता है और और प्रतिष्ठा और सम्मान पाता है

 🍀 स्कूल और चरित्र➖️ स्कूल में बालकों के चरित्र का बहुत ही योगदान होता है बालक का चरित्र बहुत अच्छा होना चाहिए नैतिक विकास होना चाहिए इसलिए स्कूल में चरित्र का विकास बहुत ही आवश्यक होता है बालक के विकास में चरित्र का विशेष महत्व होता है बालक का चरित्र अच्छा होना चाहिए बालक को अपनी मर्यादा  पार  नहीं चाहिएस्कूल में सामाजिक विकास स्कूल में सामाजिक विकास विद्यालय का वातावरण भी सामाजिक विकास को प्रभावित करता है यदि विद्यालय का  का सही तरीके से हो पाएगा  विद्यालय में सामाजिक विकास बहुत ही महत्वपूर्ण होता है

🌸मानव विकास के विभिन्न आयाम🍀शारीरिक विकास➖️ मानसिक विकास भाषा विकास संवेगात्मक विकास सामाजिक विकास चारित्रिक विकास

शारीरिक विकास शारीरिक विकास के अंतर्गत सारी की सारी विकास आता है इसमें सभी आंतरिक को बाहरी विकास सही तरीके से होना चाहिए आंतरिक विकास जैसे शरीर की अस्थियां हड्डियां मांसपेशियों का विकास बाहरी विकास में हाथ-पैर नाक कान यह सभी बाहरी विकास का सही तरीके से होना चाहिए

🍀मानसिक विकास ➖️मानसिक मानसिक विकास का संविधान की मांसपेशियों उनकी बुद्धि से होता है बुद्धि  प्रकार की होती है जो बुद्धि मंदबुद्धि तेज बुद्धि बालक की बुद्धि का विकास बहुत सही तरीके से होना चाहिए तभी बालक सही तरीके से सीख पाता है

🍀भाषाई विकास ➖️भाषा विकास का बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान है जिसके द्वारा कोई भी व्यक्ति अपने विचारों का आदान-प्रदान नहीं कर सकता है मनुष्य के लिए भाषा का बहुत ही महत्व होता है बहुत ही सही तरीके से होना चाहिए

🍀संवेगात्मक विकास ➖️संवेगात्मक विकास ज्ञान से संबंधित होता है इसमें मानव जीवन के विकास और उनकी उन्नति के लिए आवश्यक होता है संवेगात्मक मैं उनसे संबंधित होती है जैसे मैं प्रेम क्रोध घृणा द्वेष संवेगात्मक विकास के अंतर्गत आता है

Notes by sapna yadav

📌मानव विकाश की अवस्थाओ और उनकी प्रमुख विशेषतायें📌    ♦️मानव विकास, विकास की विभिन्न अवस्थाओ से होकर गुजरता है,विकास की प्रत्येक अवस्था विकासात्मक  होती है और यह मनोविज्ञान के अधययन  का महत्वपूर्ण विषय है॥                           🌸 गर्भावस्था 🌸                                   गर्भावस्था प्रायः 9 माह या लगभग 280 दिनों तक रहती है, गर्भावस्था में विकास की गति तीव्र होती है , शरीर के सभी अंगों की आकृतियों का निर्माण इस काल में हो जाता है। गर्भावस्था को तीन भागों में विभाजित किया गया है।                                     1. डिंबावस्था – यह अवस्था गर्भाधान से 2 सप्ताह तक रहती है। इसका आकार अंडे के समान होता है और यह इधर-उधर नलिका में तैरता रहता है, जो मां के गर्भाशय तक जाती है। गर्भनाल के द्वारा मां के रुधिर प्रवाह सेलिंग अपना आहार प्राप्त करता है।                                2. पिंडावस्था – यह अवस्था तीसरे सप्ताह से दूसरे महीने के अंत तक रहती है। इस अवस्था में गर्भ पिंड मानव आकृति धारण कर लेता है । इसे विकास की गति तीव्र होती है  । 6 सप्ताह का गर्भ  पिंड  होने पर उसमें फिर दे की धड़कन प्रारंभ हो जाती है। स्नायु मंडल ,ज्ञानतंतु ,त्वचा, ग्रंथियां, बाल ,फेफड़ा , सांस नली आदि का निर्माण हो जाता है ।                3 . भ्रूणवस्था – यह अवस्था 3 माह से 9 माह तक रहती है। इस अवस्था में किसी नवीन अंग का विकास नहीं होता बल्कि पिंडा वस्था में निर्मित अंगों का विकास होता है। इस अवस्था में मानव शिशु की आकृति का पूर्ण विकास होता है ।                             🌱मानव विकास की प्रमुख अवस्थातएँ इस प्रकार  है-                                                                                              1.शैशवावस्था                             2. पूर्व  बा लयावस्था                                 . उत्तर बाल्यावस्था                         4. किशोरावस्था                          5. प्रौढ़ावस्था                           6. वृद्धावस्था                  💫💫शैशवावस्था- 1 से 5 वर्ष की            होती है । इस अवस्था को बालक का निर्माण काल माना गया है।       अवस्था जन्म से दूसरे वर्ष  तक मानी जाती है।    🌱शैशवावस्था की प्रमुख विशेषताएं    निम्न है-                 📌-शारीरिक विकास की तीव्रता 📌-मानसिक क्रियाओं की तीव्रता                              📌-सीखने की प्रक्रिया की तीव्रता                               📌-दूसरों पर निर्भरता                 📌- आत्मप्रेम की भावना                 📌-  सामाजिक भावनाओं का तीव्र विकास                             📌- अनुकरण के द्वारा सीखने की प्रवृत्ति                                                   📌- संवेगॊ का प्रदर्शन                                      💫💫 बाल्यावस्था- 🔴यह अवस्था 5 से 12 वर्ष की अवधि तक मानी जाती है। इस अवस्था में बालक में अनेक अनोखे परिवर्तन होते हैं इसलिए विकास की दृष्टि से इस अवस्था को एक जटिल अवस्था माना जाता है।            🔴 इस अवस्था में बालक में नैतिकता भी विकसित हो जाती है। जिससे बालक उचित अनुचित का निर्णय भी कर सकता है। बालक आत्मनिर्भर होने के साथ-साथ परिपक्व भी होने लगता है ,इस  अवस्था में मित्र बनाने की इच्छा प्रबल होती है ।             🌱 बाल्यावस्था की प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार है-                    📌 मानसिक योग्यता में वृद्धि                   📌 जिज्ञासा की प्रबलता                                 📌 वास्तविक जगत से संबंध                  📌 सामाजिक गुणों का विकास         📌 नैतिकता के गुणों का विकास 📌बहिर्मुखी व्यक्तित्व का विकास                                                          📌सामूहिक खेलों में रुचि                📌शारीरिक एवं मानसिक स्थिति                                                                   💫💫किशोरावस्था-  🔴किशोरावस्था 12 से 18 वर्ष के बीच की अवस्था है यह एक जटिल अवस्था है यह अवस्था         जीवन का संधि काल है। इसे तूफान की अवस्था भी करते हैं ।             🔴 किशोरावस्था की अवधि कल्पनात्मक तथा भावात्मक   होती है ,यहीं पर जीवन साथी की तलाश होती है ।                                                                    🔴 पूर्व किशोरावस्था में    काल्पनिक जीवन अधिक होता है लेकिन उत्तर किशोरावस्था में व्यवहार में स्थायित्व आने लगता है।                                       🔴 इस अवस्था में समायोजन की क्षमता कम पाई जाती है। किशोरावस्था में इच्छाएं पूरी ना  होने पर पलायन वाली प्रवृत्ति होती है जिससे बच्चे  मे आत्महत्या की भावना अधिक  दिखाई पड़ती है ।                         🌱 किशोरावस्था की प्रमुख               विशेषताएं इस प्रकार हैं –            📌 शारीरिक परिवर्तन           📌 व्यक्तिगत मित्रता                📌  स्थिरता  व समायोजन  का अभाव                                       📌 स्वतंत्रता व विद्रोह की भावना                                             📌काम शक्ति की परिपक्वता 📌नशा या अपराध की ओर उन्मुख होने की संभावना        💫💫 प्रौढ़ावस्था – 🔴 यह अवस्था 18 से 40होती है । यह  अवस्था व्यवहारिक जीवन की अवस्था कही जाती है इसमें पारिवारिक जीवन की गतिविधियां   है ।                                                🔴 इस अवस्था में वास्तविक जीवन की अंतर क्रियाएं होती है। व्यक्ति आत्मनिर्भर होता है उसकी बहुत प्रकार की प्रतिभाएं उभर कर सामने आती है। इस अवस्था में व्यक्ति अपने विशिष्ट क्षेत्र में कौशल दिखाता है।                  🔴 इस अवस्था में उसे अनेकों प्रकार के संघर्ष तथा समस्याओं का सामना करना पड़ता है। यह अवस्था सामाजिक तथा व्यवसाय क्षेत्र के विकास की उत्कृष्ट    अवस्था होती है।                       💫💫 वृद्धावस्था  -🔴 यह     अवस्था बाल्यावस्था   की तरह  अत्यधिक संवेदनशील मानी  जाती है।                                   🔴 वृद्धावस्था में शारीरिक क्षमता कम होने लगती है। स्मरण शक्ति का कमजोर होना ,निर्णय क्षमता में कमी जैसे लक्षण दिखाई देने लगते हैं ।                🔴 वृद्धावस्था में तरह-तरह के शारीरिक मानसिक परिवर्तन होते हैं । बीमारियां भी इस अवस्था में अधिक होती हैं। तनाव,उच्च रक्तचाप , ज्ञानेंद्रियों  की क्षमता तथा शक्ति की कमी के लक्षण दिखाई देते ।                       🔴 वृद्धावस्था में उत्तरदायित्व समाप्त करने के बाद व्यक्ति इस अवस्था में अत्यधिक चिंतन की ओर बढ़ता है।                    notes by- Babita pandey🖊️

🌼🌼बाल विकास को प्रभावित करने वाले विद्यालय संबंधी कारक निम्नलिखित है🌼🌼

🌼1. नर्सरी स्कूल और बाल विकास:-

नर्सरी स्कूल में प्रवेश करने वाले बच्चे के घर का वातावरण अत्यधिक महत्वपूर्ण होता है क्योंकि जिन बच्चों के घर का वातावरण व उनके माता-पिता का बच्चे के साथ अच्छा तालमेल या माहौल या समायोजन होता है ऐसे बच्चे विद्यालय में भी अच्छे से समायोजित कर पाते हैं क्योंकि इस अवस्था में बच्चे अनुकरण के द्वारा सीखते हैं इसलिए उन्हें जैसा घर में माहौल प्राप्त होता है या वातावरण मिलता है वह विद्यालय जाकर वैसा ही व्यवहार करता है।

🌼.समायोजित बच्चों के मित्र जल्द बन जाते हैं क्योंकि वह विद्यालय में मित्रतापूर्ण व्यवहार करता है, ऐसे बच्चे स्कूल के विभिन्न कार्यक्रमों, गतिविधियों मैं अच्छा समायोजन कर पाते है और अपने साथियों के बीच लोकप्रिय होते हैं।

🌼समायोजित बच्चो मैं मौलिकता और निर्माणशीलता के गुण होते हैं।

🌼 बौद्धिक जिज्ञासा अधिक होती है।

🌼भाषाई प्रयोग भी बालक घर से ही सीखता है, अपनी माता के द्वारा।।

🌼2. प्राइमरी विद्यालय और बाल विकास:-

ऐसे बच्चे जिनका नर्सरी में अच्छा समायोजन रहा है वह प्राइमरी वातावरण में भी आसानी वा सरलता से समायोजन कर लेते हैं क्योंकि वह नर्सरी कक्षा में समायोजित हो चुके रहते हैं

🌼किंतु कुछ ऐसे बच्चे भी होते हैं जो पारिवारिक वातावरण के बाद नर्सरी विद्यालय या नर्सरी वातावरण में ना जाकर प्राइमरी विद्यालय या वातावरण में प्रवेश ले लेते हैं ऐसे बच्चों को समायोजन में वही परेशानी होती है जो नर्सरी वाले बच्चे को प्रथम बार विद्यालय आने में हुई थी, लेकिन यदि उस बच्चे का पारिवारिक वातावरण अच्छा रहा है तो प्राइमरी विद्यालय वातावरण में भी समायोजन करने में परेशानी नहीं होती है और वह अच्छे से समायोजन कर पाता है।

🌼3. कक्षा कक्ष का वातावरण:-

🌼कक्षा कक्ष का वातावरण प्रजातांत्रिक या सहयोग पूर्ण वा मित्रतापूर्ण होना चाहिए जिससे विद्यार्थी आपस में सहयोग की भावना रखें

🌼एक शिक्षक की महत्वपूर्ण योग्यता यह होती है कि वह अपने कक्षा को संतुलित रख सके  बच्चा  ना ही अत्यधिक  अहंकारी प्रवृत्ति के हो जाए ना ही  हीन भावना का शिकार हो जाए, ऐसे में बच्चे निष्क्रिय हो जाते हैं वह उनमें विद्रोह की प्रवृत्ति आ जाती है और उनका अधिगम और अवरूद्ध हो जाता है।

🌼कक्षा कक्ष के वातावरण का बालक के सीखने की प्रक्रिया उसके विकास के क्रम में महत्वपूर्ण योगदान रहता है यदि कक्षा के शिक्षक का व्यवहार मित्रतापूर्ण है तो बालक को भी कक्षा में समायोजन होने में समस्या नहीं होती है और  वह आसानी से कक्षा कक्ष के वातावरण के अनुकूल हो जाता है और धीरे-धीरे अन्य बच्चों के साथ घुल मिलकर आपस में समूह गतिविधि, समूह में कार्य करना, साथ साथ खेलना वा अन्य क्रियाएं भी करने लगता है।

🌼4. अध्यापक विद्यार्थी संबंध:-

🌼बच्चे अनुकरण द्वारा सीखते हैं  जैसा अध्यापक व्यवहार करता है बालक वैसा ही सीखता है अध्यापक के अच्छे गुण बालक में अनुकरण द्वारा ही आते हैं,

🌼शिक्षक और शिक्षार्थी के बीच का संबंध मित्रवत होना चाहिए जिससे बालक और शिक्षक के मध्य सुचारू रूप से अंतः क्रियाएं होती रहती हैं,

🌼शिक्षक विद्यार्थी की किसी भी छोटी या बड़ी गलतियों के लिए ना ही अत्यधिक प्रताड़ित करना चाहिए ना ही छोड़ देना चाहिए क्योंकि अत्यधिक प्रताड़ना से बालक कुंठित हो सकता है वहीं छोड़ देने से गलती को दोहराने की कोशिश करेगा अतः शिक्षक को बराबर रखना चाहिए ना ही अत्यधिक कठोरता   न ही अत्यधिक सरलता रखनी चाहिए। दंड उतना ही देना चाहिए जिससे दोबारा उस गलती को दोहराए ना जाए

🌼छात्र का शिक्षक की अभिवृत्ति पर विशेष प्रभाव पड़ता है कि शिक्षक द्वारा दिए गए पुरस्कार व प्रोत्साहन से उसमें आत्मविश्वास जागृत होता है और वह विद्यालय की गतिविधियों कार्यक्रमों व अन्य शैक्षिक गतिविधियों में बढ़-चढ़कर भाग लेता है।

🌼प्रत्येक छात्र में व्यक्तिक विभिन्नता पाई जाती है वह सांस्कृतिक, सामाजिक-आर्थिक, नैतिक व अन्य रूपों से भिन्न होता है अतः शिक्षा का कार्य जब होता है जब वह प्रत्येक बच्चे को ध्यान में रखकर अधिगम कराएं जिससे सभी बच्चे बिना किसी भेदभाव के एक साथ सीख सकें,और ऐसा अधिगम अपनाया जाए जिससे बच्चे के विकास की धीमी गति से ना हो और ना ही ऐसा अधिगम अपनाया जाए जिससे बच्चा कक्षा कक्ष में अनुपस्थित रहे;

🌼बच्चे के साथ ऐसा व्यवहार ना किया जाए कि वह कक्षा कक्ष में आक्रामक व्यवहार न अपनाएं कि वह कक्षा कक्ष के नियमों का उल्लंघन करें।

🌼5. विद्यालय का अनुशासन:-

🌼विद्यालय के अनुशासन इस प्रकार होना चाहिए कि वह उन्हें न ही बोझ लगे न ही बहुत आसान ।।

🌼विद्यालय का अनुशासन प्रजातांत्रिक होना चाहिए प्रत्येक बच्चे के लिए कोई भी नियम कानून समान होने चाहिए, किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं होना चाहिए अनुशासन के प्रति, प्रत्येक बच्चा विद्यालय के अनुशासन के प्रति सजग एवं समर्पित रहे जिससे विद्यालय के वातावरण को सुगम बनाए रखा जा सके।

🌼6. स्कूल और चरित्र:-

बालक  के विद्यालय में उसका चरित्र विद्यालय के वातावरण व शिक्षकों के व्यवहार से निर्धारित होता है क्योंकि बालक अनुकरण से सीखता है अर्थात यदि विद्यालय में शिक्षक का व्यवहार व क्रियाकलाप अच्छी नहीं है व गुणवत्तापूर्ण नहीं है तो उसका असर बालक पर अत्यधिक पड़ता है इसलिए विद्यार्थी के साथ साथ एक शिक्षक का भी कर्तव्य होता है कि वह शिष्टाचार के नियमों का पालन करें एवं नैतिक गतिविधियां उचित व्यवहार कक्षा कक्ष में करें। एक शिक्षक को बालकों के सामने आदर्श चरित्र प्रस्तुत करना चाहिए क्योंकि बालक अपने शिक्षक के समान ही बनने की कोशिश करता है।

🌼7. विद्यालय में सामाजिक विकास:-

बच्चे विद्यालय में प्रवेश लेने से पूर्व पारिवारिक वातावरण से समायोजित रहते हैं अर्थात उनका सामाजिक वातावरण कुछ निर्धारित लोगों तक ही सीमित रहता है किंतु विद्यालय में आने के बाद वह विभिन्न प्रकार के बालकों, शिक्षकों के साथ अंतः क्रिया करता है अर्थात बालक का विद्यालय के वातावरण का अधिक असर पड़ता है।

विद्यालय में सामाजिक वातावरण को स्वस्थ बनाए रखने के लिए शिक्षकों का यह कर्तव्य है कि एक स्वस्थ एवं समायोजित वातावरण का निर्माण करें जिससे बालकों के सामाजिक वातावरण का निर्माण अत्यधिक  सहज हो जिससे वे अपने आने वाले जीवन में समाज में जाकर अंतःक्रिया कर सकें एवं उसके अनुकूल समायोजित हो सके।

🌼🌼🌼🌼manjari soni🌼🌼🌼🌼

बाल विकास को प्रभावित करने वाले विद्यालय संबंधी कारक

नर्सरी स्कूल और बाल विकास

बच्चे अनुकरण के माध्यम से सीखते हैं इसलिए जिन बच्चों के माता-पिता का आपसी संबंधों में समायोजन अच्छा होगा वह बच्चे विद्यालय में भी अच्छा समायोजन करते हैं

ऐसे बच्चों के विद्यालय में दोस्त जल्दी बन जाते हैं

यह बच्चे स्कूल के कार्यों में समायोजन अन्य बच्चों से अच्छा करते हैं

मित्रवत व्यवहार करते हैं 

साथियों के बीच अधिक लोकप्रिय होते हैं मौलिकता  (अर्थात आधारभूत) और निर्माणशीलता के गुण होते हैं 

इनमें बौद्धिक जिज्ञासा होती हैं।

प्राइमरी विद्यालय और बाल विकास

जिन बच्चों का पारिवारिक समायोजन अच्छा होता है उनका नर्सरी स्कूल में भी समायोजन अच्छा होता है तो साथ ही उनका प्राइमरी विद्यालय में भी समायोजन अच्छा होता है

परंतु कई बच्चे नर्सरी स्कूल में नहीं पढ़ पाते हैं तो वह सीधे पारिवारिक वातावरण से प्राइमरी वातावरण में समायोजन के लिए जाते हैं।

कक्षा कक्ष का वातावरण

शिक्षक को बालक की कक्षा में ऐसा वातावरण निर्माण करना चाहिए जो प्रजातांत्रिक हो और मित्रवत हो इससे विद्यार्थियों में सहयोग की भावना विकसित होती है

यदि शिक्षक और छात्र अच्छी प्रकार से अंतर क्रिया करते हैं प्रजातांत्रिक अर्थात लोकतांत्रिक या निष्पक्ष वातावरण का निर्माण होता है अर्थात इसमें विद्यार्थी और शिक्षक दोनों ही सक्रिय कार्य करते हैं।

यदि कक्षा में शिक्षक और छात्रों के बीच अच्छी अंतः क्रिया ना हो और शिक्षक अपने अनुसार सब कार्य करेंगे बालकों के बारे में कुछ भी ध्यान नहीं रखेंगे तो ऐसे में कक्षा कक्ष का वातावरण निरंकुश हो जाएगा  ,शिक्षा बाल केन्द्रित न होकर शिक्षक केन्द्रित हो जायेगी और विद्यार्थियों की रचनात्मकता खत्म हो जाएगी 

वह विद्रोही होने लगेगे।

अध्यापक विद्यार्थी संबंध

बालक की प्रथम गुरु उसकी माता होती हैं लेकिन विद्यालय में अध्यापक उसकी मां का प्रतिस्थापन होता है अर्थात अध्यापक उसकी मां का स्थान ले लेता है।

अध्यापक का व्यवहार ऐसा होना चाहिए जो अनुकरणीय हो संवेदनशील व्यवहार हो, स्नेह पूर्ण व मित्रवत् होना चाहिए

शिक्षक आदरणीय और प्रशंसनीय होना चाहिए

शिक्षक का व्यवहार व्यक्तिगत विभिन्नता के अनुसार होना चाहिए

शिक्षक का व्यवहार ऐसा होना चाहिए जिससे बालक उसकी आज्ञा का पालन करें 

शिक्षक ज्यादा आक्रामक नहीं होना चाहिए जिससे बालक उसके डर से विद्यालय में अनुपस्थित हो और उदासीन भी नहीं होना चाहिए।

शिक्षक का अनुशासन ना तो अधिक सख्त और ना  ही अधिक लचीला  नहीं होना चाहिए।

विद्यालय का अनुशासन

बालक के विकास की प्रक्रिया में बच्चों की सोच अनुशासन से प्रभावित होती हैं

विद्यालय का अनुशासन प्रजातांत्रिक होना चाहिए ना तो अधिक कठोर और ना ही अधिक लचीला।

स्कूल और चरित्र

विद्यालय में बालक का सर्वांगीण विकास होता है विद्यालय से ही बालक के अच्छे चरित्र का निर्माण होता है

स्कूल में सामाजिक विकास

स्कूल में बालक का सामाजिक विकास होता है क्योंकि वहां पर अनेक बच्चे अलग-अलग परिवारों से ,समाज से आते हैं और एक दूसरे के साथ सीखते हैं।

मानव विकास के विभिन्न आयाम

शारीरिक विकास 

इसमें बालक का बाहरी और आंतरिक अंगों का विकास होता है

मानसिक विकास

इसमें बालक का बौद्धिक विकास होता है

भाषा विकास

संवेगात्मक विकास 

सामाजिक विकास 

चारित्रिक विकास

Notes by Ravi kushwah

🌴🌴🌴🌻🌻🌻🌻🌼

💥 बाल विकास को प्रभावित करने वाले विद्यालय संबंधी कारक🌞

🌈💫नर्सरी और बाल विकास― नर्सरी कक्षा में बाख है कि विकास में बहुत प्रभाव पड़ता है। बच्चे के समाजीकरण का दूसरा स्तर है विद्यालय । नर्सरी विद्यालय आने वाले बच्चे का समाजीकरण सबसे पहले परिवार के द्वारा होता है बच्चा परिवार से,अपने माता पिता से जो सीखता है जिसका अनुकरण करता है।,उसी के अनुसार वह विद्यालय में अन्य बच्चों या शिक्षक के साथ व्यवहार करता है। यदि बच्चे के माता और पिता के बीच अच्छा तालमेल है तो बच्चा भी विद्यालय में बच्चों के साथ अच्छे से समायोजन कर पायेगा। उसके दोस्त भी बनने लगते है। और यही पर यदि बच्चे के माता और पिता के बीच आपसी संबंध अच्छे नही है और दोनों लोगो के बीच मे झगड़े ,अशब्दो का प्रयोग किया जाता है तो वह बच्चे को मानसिक रूप से प्रभावित करता है।और विद्यालय में बच्चा अन्य बच्चों के साथ अच्छा तालमेल नही बिठा पाता है।

   इस लिए बच्चे सामने अच्छा व्यवहार करें ताकि बच्चा विद्यालय में आपसी तालमेल अच्छे से बिठा पाए तथा स्कूल के कार्यो में भाग ले । ऐसे बच्चे साथियो तथा शिक्षकों के लिए लोकप्रिय होते हैं। इनमे मौलिकता तथा निर्माण शील गुण पाए जाते हैं ऐसे बच्चों का बौध्दिक विकास तीब्र होता है।

🌈💫 प्राइमरी विद्यालय और बाल विकास ― प्राइमरी स्तर पर बालक नर्सरी के बाद आता है तो नर्सरी कक्षा में बच्चा अन्य बच्चों तथा शिक्षक के साथ सहज हो जाता है और वह अपने दोस्त भी बना लेता है अब जब बच्चा प्राइमरी में आता है तो कक्षा तथा विद्यालय के वातावरण से कुछ परिचित हो जाता है और इस स्तर पर आस पास की चीज़ों को समझने लगता है। और सभी साथियों के साथ मित्रता पूर्वक व्यवहार करने लगता है।

🌈💫 कक्षा कक्ष का वातावरण और बाल विकास― बच्चे के विकास का सबसे महत्वपूर्ण होता है कक्षा का वातावरण। कक्षा का जिस प्रकार का वातावरण होगा बच्चा भी वैसे ही अनुकरण करता है । कक्षा का वातावरण शिक्षक पर भी निर्भर करता है कि वह बच्चे के साथ कि प्रकार का व्यवहार करते हैं। बच्चे के साथ शिक्षक की सकारात्मक होना चाहिए तथा उनसे कुछ रचनात्मक कार्य भी करवाते रहना चहिये।

🌈💫 अध्यापक तथा विद्यार्थी के बीच संबंध― बच्चे के विकास में अध्यापक तथा विद्यार्थियों के बीच संबंध भी महत्वपूर्ण होता है शिक्षक को बच्चे के साथ स्नेह और प्रेम के साथ व्यवहार करना चाहिए । बच्चो के साथ मतभेद नही करना चाहिए और बच्चे को डरना या धमकाना नही चाहिए इससे बच्चे में एक डर पैदा हो जाता है और बच्चा अध्यापक के साथ सहज नही हो पाता है और न ही वह अपने मन मे उठ रहे सवालो को पूछ पाता है इस लिए एक शिक्षक को अपने बच्चो के साथ मित्रता पूर्वक व्यवहार करना चाहिए । उनकी प्रत्येक समस्या का निदान निरीक्षक द्वारा नही हो पाता जिससे बच्चे में निराशा उत्पन्न हो जाती है ।

🌈💫 विद्यालय का अनुशासन― एक बालक के विकास में विद्यालय का वातावरण बहुत ही महत्वपूर्ण पूर्ण होता है क्योंकि बच्चा परिवार के बाद विद्यालय में ही ज्यादा समय व्यतीत करता है। इसलिए विद्यालय का वातावरण बच्चे के अनुकूल होना चाहिये विद्यालय का अनुशासन प्रजातांत्रिक होना चाहिए । 

      विद्यालय का अनुशासन ऐसा नही होना चाहिए कि बच्चे को निर्वहन करने में कठिनाई हो और बहुत लचीला भी नही हो जिससे कि बच्चा लापरवाह हो जाये ।

 विद्यालय के अनुशासन सभी विद्यार्थी के लिए समान होना चाहिए। ताकि प्रत्येक बच्चा अनुशासन के प्रति समर्पित रहे और विद्यालय के वातावरण को सुगम बनाये रखा जा सके।

🌈💫 स्कूल और चरित्र―  एक बच्चे का चरित्र विद्यालय के वातावरण तथा शिक्षक के व्यवहार पर निर्धारित होता है। कि शिक्षक बच्चे के साथ किस प्रकार का व्यवहार करता है क्योंकि जो बच्चा होता वह नर्सरी और प्राइमरी तक तो अनुकरण के द्वारा ही सीखते हैं अर्थात विद्यालय के शिक्षक का यदि व्यवहार तथा उनकी क्रियाये आचि नही है तो यह बच्चे को प्रभावित करती है और बच्चे में नकारात्मक प्रभाव पड़ता है इसलिए शिक्षक को चाहिए कि वह बच्चे के साथ अच्छा व्यवहार करें तथा अच्छे क्रियाकलाप करे जिससे विद्यार्थियों में भी सकारात्मक गुण आये और बच्चा विद्यालय में नैतिक गतिविधियों का पालन करे। एक शिक्षक को बच्चे के सामने आदर्श चरित्र का प्रदर्शन करे जिससे बच्चे उन्हें अनुकरण करे।

 🌼 जैसे यदि कोई शिक्षक बच्चे के सामने उसके साथ आक्रामकता का व्यवहार करता है या किसी प्रकार का कोई नशा करता है तो इसका प्रभाव बच्चे पर पड़ेगा और बच्चा भी इन गतिविधियों को दोहराने का प्रयत्न करेगा ।

🌈💫 विद्यालय में सामाजिक विकास―  विद्यालय आने से पहले बच्चे परिवार द्वारा उनका सामाजिक विकास होता है जो कि कुछ सीमित लोगो के बीच के होता हैं उन लोगो से बच्चा आचे से परिचित होता है उनकी भाषा उनके व्यवहार से  किन्तु जब बच्चा विद्यालय में जाता है तो उसका सामाजिक स्तर बढ़ने लगता है वह विद्यालय में अलग प्रकार की भाषा अलग लोगों के संपर्क में आता है । अन्य बच्चे जो अलग अलग संस्कृति के है अलग पृष्ठभूमि के है उनके सम्पर्क में आता है उनके बीच अन्तःक्रिया होती है  अर्थात बालक के विकास में विद्यालय के वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है।

 विद्यालय के वातावरण को सुचारू तथा सुनियोजित ढंग से चलाना एक शिक्षक का कर्तव्य होता है  जिससे बच्चे विद्यालय में सहज हो पाए ।

🌈💫 मानव विकास के विभिन्न आयाम―🌻🌴

📚 शारीरिक विकास― शारीरिक विकास के अंतर्गत शरीर की हड्डियों, मांसपेशियों आदि वाह्य तथा आंतरिक संरचना का विकास होता है।

 📚 मानसिक विकास― मानसिक विकास के अंतर्गत  बालक के ज्ञान का भंडारण होता है। मानसिक शक्ति के द्वारा समस्या का समाधान करना वातावरण से संबंध स्थापित करना है।

📚 भाषाई विकास ― बच्चे का जैसे जैसे सामाजिक स्तर बढ़ता है वैसे बैसे उसके भाषा का भी विकास होता है । शब्द भंडार भी होता है।

📚 संवेगात्मक विकास―  संवेग  भावात्मक विकास से संबंधित है जैसे भय क्रोध , हर्ष,प्रेम।

📚 सामाजिक विकास ― बच्चे के सामाजिक विकास सबसे पहले परिवार के द्वारा ही किया जाता है । परिवार के नियम ,रीतिरिवाज के हिसाब से बच्चे का समाजीकरण होता है।

📚 नैतिक विकास―  बालक का नैतिक विकास परिवार और समाज के द्वारा ही किया जाता है जिससे बच्चे में सही और गलत की समझ आ जाती है।

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  Notes by Poonam sharma🌴🌴🌴🌴🌴

बाल – विकास को प्रभावित करने वाले

       विद्यालय सम्बन्धी कारक

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10 march 2021

1. नर्सरी विद्यालय और बाल विकास  :-

जिनके माता-पिता का समायोजन घर परिवार और आपस में अच्छा होता है उनके बच्चों का भी विद्यालय में अन्य बच्चों और शिक्षकों आदि के साथ बेहतर समायोजन रहता है।

तथा ऐसे बच्चों के जल्दी मित्र भी बन जाते हैं।

ऐसे बच्चे विद्यालय के कार्यों में समायोजन अन्य बच्चों की अपेक्षा बेहतर करते हैं।

सभी से मित्रवत व्यवहार करते हैं।

अपने साथियों के बीच लोकप्रिय होते हैं।

ऐसे बच्चों में मौलिकता और निर्माणशीलता के गुण होते हैं तथा बौद्धिक स्तर तीव्र और जिज्ञासु प्रवृत्ति के होते हैं।

2. प्राइमरी विद्यालय और बाल विकास :-

 जो बच्चे अपनी नर्सरी कक्षा में बेहतर ढंग से समायोजन करना सीख जाते हैं तथा इनका पारिवारिक रूप से भी सकारात्मक समायोजन , बेहतर पालन पोषण होता है वह बच्चे अपने प्राइमरी कक्षा/  विद्यालयों में भी बेहतर ढंग से समायोजित हो जाते हैं।

 परंतु कुछ बच्चे नर्सरी विद्यालय में ना जाकर सर्वप्रथम प्राइमरी विद्यालय में प्रवेश लेते हैं जो कि समायोजन करने में अर्थात नए वातावरण में खुद को ढालने में,  नए वातावरण में समायोजन करने में कठिनाई होती है।

3. कक्षा  – कक्ष का वातावरण :-

कक्षा – कक्ष का वातावरण प्रजातांत्रिक,  मित्रवत और शांतिपूर्ण हो ताकि बच्चों के विकास में बेहतर समझ और सहयोग की भावना जागृत हो सके क्योंकि बच्चों पर उनकी कक्षा के वातावरण का बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है जिनसे बच्चों की समझ और ज्ञान पर भी प्रभाव पड़ता है अतः कक्षा का वातावरण सकारात्मक प्रजातांत्रिक और सद्भाव / सहयोग का होना चाहिए।

 4. अध्यापक  – विद्यार्थी संबंध :-

 घर परिवार में बच्चों की पहली गुरु बच्चे की मां होती है तथा जब बच्चे परिवार से बाहर विद्यालय के परिवेश में प्रवेश लेते हैं तब उनके गुरु ही मां का प्रतिस्थापित रूप हो जाते हैं अर्थात मां के समान ही गुरु को बताया गया है।     

           अतः अध्यापक और विद्यार्थी में सम्मान,  मित्रवत,  अनुकरणीय और ज्ञानवर्धक संबंध होना चाहिए ताकि बच्चे अपने गुरु से अपने प्रश्न कर सकें किसी तथ्य पर चर्चा कर सकें और अपने ज्ञान अर्जित कर सकें।

5.  विद्यालय का अनुशासन  :-

मानव जीवन या बच्चों का जीवन अनुशासित और सीमाओं से संबंधित होना चाहिए।

 अतः विद्यालय में ना तो बहुत कठोर और ना ही बिल्कुल लचीला अनुशासन हो बल्कि ऐसा अनुशासित विद्यालय का वातावरण होना चाहिए ताकि बच्चे अपने सभी समस्याओं अपनी चर्चा अपने प्रश्न उचित ढंग से शिक्षक के समक्ष प्रस्तुत कर सकें और अनुशासित भी रह सकें  और अपने जीवन में विद्यालय परिवेश से बाहर जाने पर भी एक अनुशासित व्यक्ति का परिचय दे सकें।

6.  विद्यालय और चरित्र  :-

बाल विकास को प्रभावित करने वाले कारक में विद्यालय और चरित्र काफी महत्वपूर्ण स्थान होता है अतः विद्यालय से भी एक बेहतर चरित्र का निर्माण होता है जो कि विद्यालय से दिए गए ज्ञान , समाज और उचित – अनुचित की समझ को बच्चे अपने जीवन में अपना आते हैं और अपने ज्ञान के आधार पर ही बच्चे अपने चरित्र का निर्माण करते हैं अतः चरित्रवान व्यक्ति का ही दुनिया में महत्व होता है।

7. विद्यालय में सामाजिक विकास :-

विद्यालय में बच्चे अनेक संस्कृति , समाज , व्यक्तिगत विभिनताओं के बच्चों से मिलते – जुलते हैं तथा अपने घर परिवार के परिवेश से बाहर आकर एक विद्यालय परिवेश में प्रवेश करते हैं जिससे बच्चों का सामाजिक विकास बेहतर होता है और व्यापक रूप से होता है जिसमें बच्चे के संज्ञान में उसके सामाजिक विकास के बारे में विद्यालय तौर पर उचित ढंग से समझ विकसित की जाती है।

मानव विकास के विभिन्न आयाम

शारीरिक विकास

इसके अंतर्गत व्यक्ति के बाहरी और आंतरिक, शारीरक विकास को समझा जाता है।

मानसिक विकास 

इसमें व्यक्ति की समझ को परखा जाता है।

भाषाई विकास 

इसमें व्यक्ति की भाषाई विकास को आगे बढ़ाया जाता है।

संवेगात्मक विकास 

इसके अंतर्गत व्यक्ति के भय, क्रोध, डर, प्रेम आदि को परख कर विकास किया जाता है।

सामाजिक विकास 

इसमें व्यक्ति के मानवता का सामाजिक रूप का विकास किया जाता है।

चारित्रिक विकास

इसके अंतर्गत व्यक्ति के ज्ञान और समझ के साथ साथ  ही व्यक्ति का चारित्रिक विकास होता है ।

✍️Notes by – जूही श्रीवास्तव✍️

🌸बाल विकास को प्रभावित करने वाले विद्यालय संबंधी कारक🌸

 बच्चा परिवार से निकलकर विद्यालय जाता है तो उसके सामने एक नया वातावरण होता है। 

कई कारक होते हैं जो बच्चे के विकास को प्रभावित करते हैं जिनमें कुछ अच्छे कारक तथा कुछ बुरे भी हो सकते हैं, जिसमें बच्चे सामंजस्य करके आगे बढ़ते जाते है। 

प्रमुख विद्यालय संबंधी कारक जो बच्चे के विकास को प्रभावित करते हैं निम्नलिखित है-

1. नर्सरी स्कूल और बाल विकास –

जिन बच्चों के माता-पिता का समायोजन अच्छा होता है स्कूल में ऐसे बच्चों का समायोजन भी अच्छा होता है क्योंकि बच्चें अनुकरण से सीखते हैं। बच्चें का व्यवहार माता-पिता के व्यवहार पर निर्भर करता है। 

👉जो बच्चे जल्दी समायोजित हो जाते हैं ऐसे बच्चों के दोस्त जल्दी बन जाते हैं। 

👉 समायोजित बच्चे स्कूल के कार्यों में अन्य बच्चों की अपेक्षा अच्छा समायोजन करते हैं। 

👉 स्कूल के बच्चों से मित्रवत व्यवहार करते हैं। 

👉 अपने साथी सहपाठियों के बीच लोकप्रिय होते हैं। 

👉 इन बच्चों में मौलिकता और निर्माणशीलता के गुण होते हैं।

👉 बौद्धिक जिज्ञासा  होती है । 

2. प्राइमरी विद्यालय और बाल विकास  –

 जो  बच्चा परिवार से निकलकर नर्सरी स्कूल में  जाता है, फिर प्राइमरी स्कूल में जाता है तो ऐसे बच्चे का प्राइमरी स्कूल में समायोजन अच्छा होता है वहीं दूसरी ओर कुछ बच्चे ऐसे होते हैं जो परिवार से सीधे प्राइमरी स्कूल में जाते हैं अर्थात नर्सरी स्कूल में नहीं जा पाते हैं, उन बच्चों को प्राइमरी स्कूल में समायोजन करने में  कठिनाई होती है। 

3. कक्षा-कक्ष का वातावरण-

 कक्षा कक्ष का वातावरण बच्चे के विकास को बहुत प्रभावित करता है। 

 शिक्षण के दौरान जहां एक ओर सिर्फ शिक्षक ही बोले और  बच्चे शांति से सुनते रहे तो यह निरंकुश शिक्षण कहलाता है। इससे बच्चों में हीनता की भावना आ जाती हैं, बच्चे में नकारात्मकता व विद्रोह की भावना का जन्म होता है।  

वहीं दूसरी ओर अगर शिक्षक बच्चों को पूरी तरह से छूट दे दे तो यह भी गलत बात है इससे भी बच्चे अपनी मनमानी करने लगते हैं और सही तरह से नहीं सीख पाते। 

अतः शिक्षक को ना तो बच्चों को ज्यादा छूट देनी चाहिए और ना ही उन्हें निरंकुशता वाला वातावरण देना चाहिए बल्कि इन दोनों के बीच सामंजस्य बनाकर  शिक्षण कार्य कराना चाहिए। 

4.  अध्यापक-विद्यार्थी संबंध –

👉 शिक्षक का व्यवहार अनुकरणीय होना चाहिए। 

👉बच्चे के प्रति शिक्षक को चाहिए कि वह बच्चे की गलती को ना तो ज्यादा नजरअंदाज करें और ना बहुत ज्यादा सख्ती बरतें बल्कि इनके बीच सामंजस्य बनाकर शिक्षण कार्य कराएं।

 👉शिक्षक को चाहिए कि बच्चों से स्नेह तथा सुविधाजनक व्यवहार करें।

 👉प्रत्येक बच्चा अलग पृष्ठभूमि से तथा विशिष्ट होता है इसलिए शिक्षक को चाहिए कि बच्चे का व्यवहार आक्रामक ना हो, बच्चा उदास ना हो, बच्चा अच्छा व्यवहार करें और सही तरह से सीख सके। 

5. विद्यालय का अनुशासन –

 अनुशासन के अंतर्गत वे सभी बातें है जो स्कूल के नियम, तौर-तरीके के अनुसार होता है जो बच्चों को बताया जाता है उसके अनुसार रहकर सीखता है। 

👉बच्चे की अभिवृद्धि व व्यवहार को अनुशासन प्रभावित करता है। बहुत ज्यादा अनुशासन अच्छी बात नहीं क्योंकि इससे बच्चे में नकारात्मकता आ सकती हैं। 

👉विद्यालय का वातावरण प्रजातांत्रिक होना चाहिए। 

6. विद्यालय और चरित्र-

 बच्चे के चरित्र  विकास में विद्यालय का बहुत बड़ा योगदान होता है। 

👉चरित्र के निर्माण में शिक्षक तथा सहपाठियों का बहुत बड़ा योगदान होता है विद्यालय में बच्चा अगर अच्छे बच्चों की संगति में रहता है तो उसके चरित्र का निर्माण अच्छा होगा और अगर किसी गलत बच्चे की संगति में पड़ जाए जाए तो उसके चरित्र का निर्माण बुरा होगा। 

👉बच्चा विद्यालय में अनुशासन में रहकर शिक्षक के बताएं गए नियम व तौर-तरीकों पर चलकर अपने चरित्र का निर्माण करता है। 

7 विद्यालय में सामाजिक विकास-

 पारिवारिक जीवन से बाहर निकल कर जब बच्चा विद्यालय पहुंचता है तो उसका सामाजिक दायरा बढ़ जाता है अंतः क्रिया के लिए अनेक साथी व शिक्षक मिलते हैं जिनसे वह बहुत कुछ सीखता है और उसका विकास होता है। 

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🌸 मानव विकास के विभिन्न आयाम🌸

मानव विकास के आयाम निम्नलिखित है –

 1.शारीरिक विकास-

 शारीरिक विकास से तात्पर्य शरीर के विकास से हैं जिसके अंतर्गत हड्डियों व मांसपेशियों का विकास, लंबाई, भार, व कार्यक्षमता आदि में विकास। 

2. मानसिक विकास-

 मानसिक विकास से तात्पर्य मानसिक योग्यताओ  की समझ से है। चिंतन, मनन,समस्या का समाधान आदि मानसिक विकास के अंतर्गत आता है। 

3. भाषाई विकास- 

 भाषाई विकास से तात्पर्य अपनी बात को दूसरों तक पहुंचाना वह दूसरों की बात को समझ पाना आता है।

बच्चे का भाषाई विकास इस बात पर निर्भर करता है कि जितना अधिक उसका शब्द भंडार होगा उसका उसका भाषाई विकास उतना ही अच्छा होगा। 

4. संवेगात्मक विकास-

 संवेगात्मक विकास से तात्पर्य बच्चे के खुद के हाव भाव को जताना व दूसरे के हावभाव दूसरे के हावभाव को समझ पाना आता है किसी समस्या को लेकर कोई बच्चा कितना सक्रिय होता है यह उसके हाव-भाव से देखा जा सकता है। 

5. सामाजिक विकास- 

 सामाजिक विकास से तात्पर्य समाज में बच्चा लोगों से मिलजुल कर जो अंतः क्रिया करता है उससे बच्चे का सामाजिक विकास निर्धारित होता है। जैसा उसका अंतः क्रिया होगा वैसा ही बच्चे का सामाजिक विकास होगा। 

6. चारित्रिक विकास-

 चारित्रिक विकास से तात्पर्य समाज में कुछ नियम व कानून होते हैं जिन्हें सब को मानना होता है और इनके  आधार पर  ही बच्चे के चरित्र का निर्माण होता है। 

Notes by Shivee Kumari

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27. CDP – Growth and Development PART- 8

🌸बाल विकास को प्रभावित करने वाले कारक🌸
(Factor affecting of child development)
१) पोषण
२) बुद्धि
३) यौन विकास
४) अंतः स्रावी ग्रंथियां ग्रंथियां
५) प्रजाति
६) रोग और चोट
७) परिवार
८) विद्यालय
उपरोक्त कारक कल के नोट्स में कंप्लीट हो चुके थे।
९) पास-पड़ोस और वातावरण –
बच्चे के विकास में पास पड़ोस और वातावरण का महत्व पूर्ण प्रभाव होता है।
यदि बच्चे का पास पड़ोस अच्छा होता है तो बच्चे का विकास अच्छा होगा और अगर बच्चे का पास पड़ोस बुरा होगा तो ऐसी स्थिति में बच्चा अपराधी भी बन सकता है जो बच्चे के सामाजिक विकास पर गलत प्रभाव होगा।
इसीलिए बच्चे को स्वस्थ वातावरण में रखना जरूरी है जिससे उसका सही विकास हो सके।

१०) सांस्कृतिक वातावरण –
बच्चे के विकास पर संस्कृति का भी बहुत प्रभाव पड़ता है।
सबकी अपनी संस्कृति होती है जिसके अनुसार उनका विकास होता है जो जैसे संस्कृति से होता है उसी के अनुसार के उसका विकास होता है।
उदाहरण के लिए एक बच्चे के माता-पिता जिस भी भाषा शैली व रहन-सहन का प्रयोग करते हैं उसी के अनुसार बच्चा भी भाषा प्रयोग व रहन-सहन सीखता है।

११) शुद्ध वायु एवं प्रकाश –
बच्चे के विकास के लिए ऐसा वातावरण होना चाहिए जहां शुद्ध वायु और सूर्य का प्रकाश पहुंचता हो। बंद कमरे या प्रदूषण युक्त वातावरण में बच्चे का विकास सही ढंग से नहीं हो पाएगा तथा उसे अनेक बीमारियों का सामना करना पड़ सकता है। अतः माता-पिता को यह ध्यान रखना अत्यंत जरूरी है कि बच्चा के विकास लिए वातावरण सही हो।
उदाहरण के लिए अगर बच्चे को शुद्ध हवा व प्रकाश ना ना प्रकाश ना मिले तो बच्चे को आंख से संबंधित रोग व श्वसन संबंधी रोग होने की प्रबलता रहती है।
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🌸बाल विकास को प्रभावित करने वाले पारिवारिक कारक🌸
(Family factor affecting of child development)

बच्चे को विकास को कई तरह के पारिवारिक कारण भी प्रभावित करते हैं जिनमें से प्रमुख कारक निम्न लिखित है –
१) अभिभावक अभिवृत्तिया (guardian aptitude) –
बच्चे के विकास में अभिभावकों का उत्तरदायित्व बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है कम आयु वाले अभिभावक बच्चों का सही पालन पोषण नहीं कर पाते वहीं ज्यादा आयु वाले अभिभावक बच्चों का पालन पोषण पोषण अच्छी तरह से करने में सक्षम होते हैं।
बच्चों को अत्यधिक संरक्षण नहीं देना चाहिए जिससे वे अपनी योग्यता पर विश्वास ना कर पाए।
तिरस्कार से बच्चा आक्रामक, निर्दयता, झूठ बोलना, कुसमायोजन, समाज विरोधी व्यवहार, कुंठा, द्वन्द्व, दिखावा आदि व्यवहार करने लगता है।
माता-पिता अगर कठोर है तो बच्चे में अति संवेदनशीलता, हीनता, शीघ्र भ्रमित, शर्मिलापन आदि आ जाता है।

२) परिवार की भावना ( family sprite)-
बच्चे के प्रति परिवार के लोगों के जैसे भावना होगी उसका विकास वैसा ही होगा।
एकल परिवार मे माता-पिता बच्चे को अधिक महत्व देंगे और उसका ख्याल अच्छे से रख पाते हैं हैं पाते हैं हैं। संयुक्त परिवार के बच्चों पर ध्यान नहीं दे पाते हैं हैं पाते हैं हैं और बच्चों का विकास सही से सही से से नहीं हो पाता है।
जैसे एकल परिवार में माता-पिता का फोकस बच्चों पर होता है और वह बच्चे की परवरिश में कोई कमी ना हो पाए इस बात को ध्यान में रखते हैं वही संयुक्त परिवार में कामों में व्यस्त माता-पिता बच्चे पर ध्यान नहीं रख पाते।

३) टूटे परिवार( broken family)-
टूटे परिवार भी बच्चे के विकास को बहुत प्रभावित करते हैं।
जैसे किसी परिवार में कोई घटना, तलाक, बड़े-बूढ़ों के बाहर होने पर, आर्थिक समस्या, माता हो और पिता ना हो ऐसी स्थिति में बच्चे के विकास पर बहुत बुरा असर होता है। और उसका विकास सही तरीके से नहीं हो पाता है।

४) माता पिता का व्यवसाय( parents business) –
माता पिता के व्यवसाय काफी काफी के व्यवसाय काफी काफी बच्चे के विकास पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है अगर माता-पिता व्यवसायी होते हैं तो बच्चा खुद को समाज में व दोस्तों में प्रतिष्ठित समझता है। वहीं दूसरी ओर माता पिता दोनों का व्यवसायी होने पर वह खुद को अकेला महसूस करता है क्योंकि ऐसी स्थिति में उसके साथ कोई नहीं रहता है।
जैसे किसी बच्चे के माता-पिता दोनों ही बिजनेस करते हैं और उन्हें बाहर जाना पड़ जाए तो बच्चा एकदम अकेला हो जाता है वही उसे यह भी भी लगता है कि समाज में वह अपने माता-पिता के साथ प्रतिष्ठित भी है

५) परिवार का सामाजिक आर्थिक स्तर (socio-economic level of the family the family)-
परिवार का सामाजिक आर्थिक स्तर भी बच्चे के विकास को बहुत प्रभावित करता है। सामाजिक व आर्थिक रुप से संपन्न बच्चे का विकास अच्छा होता है वहीं सामाजिक व आर्थिक रूप से जूझ रहे बच्चे का विकास कम होता है।
उदाहरण के लिए एक संपन्न परिवार के बच्चे के पास सारी चीजें मौजूद होती है जबकि आर्थिक परिस्थिति से जूझ रहे बच्चे के पास अच्छे खिलौने तक नहीं होते हैं।

६) जन्म क्रम( birth order) –
जन्म कर्म का भी भी बच्चे के विकास पर बहुत 🌸प्रभाव पड़ता है बच्चे के छोटे भाई और बहन होते हैं जिससे उसमें कुछ अच्छे गुण तथा कुछ बुरे गुण भी आते हैं।
जैसे गलती करने पर बड़े भाई बहनों द्वारा डांट या या द्वारा डांट या या फटकार से उसमें हीनता व व आक्रामकता आ सकती है वहीं दूसरी ओर बड़े भाइयों के प्यार व सहयोग से उसमें दूसरों के प्रति सद्भावना का विकास होता है।
Notes by Shivee Kumari
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🔆 बाल विकास को प्रभावित करने वाले कारक ➖

❇️ 9. पास पड़ोस और वातावरण :-

▪️घर के वातावरण के साथ-साथ बच्चा जिस वातावरण में रहता है उसका प्रभाव भी बच्चों पर पड़ता है।
यदि पास पड़ोस व वातावरण अच्छा या सकारात्मक है तो उसका प्रभाव भी बच्चों पर सकारात्मक ही पड़ेगा। और यदि पास पड़ोस व वातावरण बुरा या नकारात्मक है तो इसका प्रभाव बच्चों पर नकारात्मक ही पड़ेगा। इस नकारात्मक प्रभाव से बच्चे अपराधी भी बन सकते है।
अर्थात् वह बच्चे की सामाजिकता के लिए अच्छा व बुरा होगा।

▪️बालक का जन्म किस परिवेश में हुआ?,वह किस परिवेश में किन लोगों के साथ रह रहा है ?, इन सब का प्रभाव उसके विकास पर पड़ता है।

▪️परिवेश की कमियों,प्रदूषणों, भौतिक सुविधाओं का अभाव इत्यादि कारणों से भी बालक का विकास प्रतिकूल रूप से प्रभावित होता है।

❇️ 2. सांस्कृतिक वातावरण :-

▪️हमारे देश या किसी भी अन्य देश की या उस देश के अंदर जो भी समाज है उस प्रत्येक समाज की अपनी अपनी संस्कृति होती है जिस के अनुरूप प्रत्येक परिवार अपने बच्चे का पालन पोषण करता है ।

▪️विभिन्न संस्कृतियों में माता-पिता बच्चों के व्यवहार और सोच पैटर्न को एक रूप देने में भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आम तौर पर, माता-पिता वे हैं जो व्यापक समाज के साथ बातचीत करने के लिए बच्चों को तैयार करते हैं। अपने माता-पिता के साथ बच्चों की बातचीत अक्सर दूसरों के साथ व्यवहार करने के तरीके के रूप में कार्य करती है – विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक नियमों, अपेक्षाओं को सीखना। उदाहरण के लिए, आम तौर पर छोटे बच्चे अपने माता-पिता की तरह एक बातचीत शैली विकसित करें – और वह अक्सर संस्कृति पर निर्भर करता है।बच्चे का विकास जिस जगह पर रहता है उस जगह की संस्कृति से प्रभावित होता है।

❇️ 11 शुद्ध वायु एवं प्रकाश :-

▪️शुद्ध वायु हमारे शरीर के रक्त को शुद्ध करने का कार्य करती है और यही शुद्ध रक्त हमारी कोशिकाओं में रहता है जिससे हमारी कार्य क्षमता सुचारू और बेहतर रूप से चलती रहती है और हमारे शारीरिक व मानसिक तनाव को भी दूर रखती हैं ।

▪️प्रकाश भी बच्चों के विकास को प्रभावित करता है यदि बच्चा अधिकतर समय कृतिम प्रकाश मैं गुजारता है तो यह उसकी आंखों की रोशनी एवं त्वचा पर बुरा प्रभाव पड़ता है। दूसरी ओर प्राकृतिक प्रकाश का प्रयोग आंखों के लिए अच्छा होता है।

🔆 बाल विकास को प्रभावित करने वाले पारिवारिक कारक ➖

❄️1 . अभिभावक अभिवृत्तियां :-

▪️बच्चा अभिभावक की सोच से काफी प्रभावित व निर्धारित होता है।

✨ अभिभावकों का बच्चों के प्रति उत्तरदायित्व का निर्वाह :- कम आयु वाले अभिवावक अपने बच्चों के प्रति उत्तरदायित्व का निर्वाह अच्छी तरह से नहीं कर पाते जबकि अधिक आयु वाले माता-पिता अपने बच्चों के प्रति उत्तरदायित्व का निर्वाह है वह काफी अच्छी और सुव्यवस्थित रूप से कर लेते हैं।

✨ माता-पिता द्वारा बच्चों का अति संरक्षण :-
कई अभिभावक अपने बच्चों को अति संरक्षित जैसे वातावरण में रखते हैं लेकिन यदि यह अति संरक्षित वातावरण लगातार बच्चे को दिया जाता रहे तो उसका प्रभाव बच्चे पर दिखाई देने लगता है जिससे बच्चे उत्तेजित होने लगते हैं, उनमें बेचैनी आने लगती है , वह शीघ्र परेशान हो जाते हैं ,एकाग्रता में कमी आती है, दूसरों पर आश्रित रहते हैं और कई अन्य लोगों से प्रभावित होते हैं, अपनी योग्यता पर और विश्वास करने लगते हैं।

✨ माता-पिता द्वारा बच्चों का तिरस्कार करना :+
कुछ अभिभावक बच्चों का तिरस्कार करते हैं जिससे बच्चे में कुंठा की भावना को समायोजन झूठ बोलने की प्रवृत्ति आक्रमक तांडवा द्वेष की भावना समाज विरोधी व्यवहार और द्वंद , अच्छा बनने का दिखावा करने लगते हैं।

✨ अभिभावक द्वारा बच्चों के प्रति कठोर व्यवहार :- माता-पिता द्वारा यदि बच्चे के साथ कठोर व्यवहार किया जाता है तो बच्चे में अति संवेदनशीलता ,हीनता ,शीघ्र भ्रमित एवं शर्मिला पन जैसी भावना आ जाती है।

❄️ 2 .परिवार की भावना :-

▪️एकल परिवार में समय के अभाव में भी प्रत्येक बच्चे पर व्यक्तिगत रूप से नियंत्रण बस की सुविधा पर ध्यान देखने को मिलता है।

❄️3. टूटे परिवार :-

▪️किसी घटना या दुर्घटना होने ,तलाक होने ,बड़े बुजुर्ग का बाहर रहना, आर्थिक समस्या, मां के ना होने, पिता के ना होने पर इन सभी स्थितियों का बच्चों पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है।

▪️बच्चे को केवल भौतिक सुविधाएं दे देने से वह एक योग और अच्छा नागरिक नहीं बनता बल्कि इसके साथ ही बच्चे को पारिवारिक आत्मीयता देना भी बहुत आवश्यक है जिससे बच्चे आगे चलकर एक अच्छा नागरिक बन सकें।

❄️ 4 . माता पिता का व्यवसाय:-

▪️अधिकतर बच्चों में अपने समूह साथी के बीच माता पिता के व्यवसाय को लेकर कई तरह की हीन भावना देखने को मिलती है।

▪️जैसे यदि माता-पिता किसी उच्च पद पर कार्यरत है तो बच्चे में अपने आप में गर्व महसूस करने लगते हैं वहीं दूसरी ओर यदि माता-पिता किसी निम्न पद या निम्न श्रेणी पर कार्यरत हैं तो बच्चे हीन भावना को मन में लाने लगते हैं।

▪️कई बार यह भी देखा जाता है कि बच्चों के साथ उस प्रकार या उस तरह का व्यवहार किया जाता है जिस प्रकार का उनके माता-पिता का व्यवसाय है।

▪️कई बार तो बच्चों की सामाजिक प्रतिष्ठा अभिभावक के व्यवसाय द्वारा निर्धारित या तय की जाती है।
जिससे बच्चे यदि माता-पिता के व्यवसाय निम्न श्रेणी या निम्न पद पर कार्यरत हैं तो उनको बताने में शर्म महसूस करने लगते हैं।

▪️माता पिता के व्यवसाय को लेकर एक पक्ष यह भी है कि माता-पिता दोनों के ही व्यवसाय करने से बच्चों को अकेलापन जैसी भावना से भी गुजरना पड़ता है।
▪️अर्थात माता-पिता दोनों काम पर जाने वाले भी हो सकते हैं जो कई घंटे तक काम करते हैं और वे अपने बच्चों के विकास के लिए पर्याप्त क्वालिटी टाइम नहीं दे पाते हैं।

❄️ 5. परिवार का सामाजिक आर्थिक स्तर: –

▪️कई मध्यमवर्गीय या श्रेणी के परिवारों में इस बात की आशा की जाती है कि वह सामाजिकता मिशाल को प्राप्त करें तथा उनमें सामाजिक मूल्य ,व्यवहार, समाज के नियम समाज के प्रतिमानो को महत्व दिया जाता है।

▪️यदि परिवार का समाज में उच्च स्तर है तो बच्चे गर्व महसूस करते हैं और यदि परिवार का समाज में निम्न स्तर है तो बच्चे स्वयं के दृष्टिकोण से हीन भावना महसूस करने लगते हैं

❄️ 6 अभिभावकों द्वारा पक्षपात :-

▪️एन वेले एक अध्ययन में बोला है कि मां अपने बेटों का ज्यादा पक्ष लेते हैं जबकि पिता अपनी बेटियों का ज्यादा पक्ष लेते हैं।

▪️कई परिवारों में प्रथम व अंतिम बालकों को विशेष लाड प्यार से पाला जाता है या उन पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है या कई बार जो बच्चे घर में अच्छा नहीं करते उन पर कम ध्यान दिया जाता है जिससे उन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

❄️7 . जन्म चक्र :-
▪️बालक के विकास पर जन्म चक्र का भी बहुत व्यापक प्रभाव पड़ता है।
कई बार माता-पिता का यह नजरिया होता है कि बड़े बच्चों में ज्यादा परिपक्वता या ज्यादा जिम्मेदारी होनी चाहिए उनसे छोटे में कम परिपक्वता या जिम्मेदारी होती है ।
माता-पिता का यह नजरिया बच्चों के विकास को प्रभावित करता है बच्चों में इस तरह के नजरिए या दृष्टिकोण से हीनता की भावना आती है।

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Notes By-‘Vaishali Mishra’

💥बाल विकास को प्रभावित करने वाले कारक💥
8 कारक आगे वाले नोट्स में दिए गए हैं इसके आगे और कारण इस प्रकार हैं➖
🌲पास पड़ोस➖ बच्चे के विकास पर पास पड़ोस के वातावरण का बहुत ही प्रभाव पड़ता है आसपास का वातावरण जैसा होगा वैसे ही बालक सीखता है बालक के आसपास का वातावरण पास पड़ोसी सही होना चाहिए तो बालक पर उसका असर सही होता है वहीं अगर वातावरण गलत होता है तो बालक अपराधी हो जाता है जो बच्चे के सामाजिक विकास पर गलत प्रभाव होगा इसलिए आसपास का वातावरण जरूरी है कि सही होना चाहिए
🌲सांस्कृतिक वातावरण➖ सांस्कृतिक वातावरण बच्चे के विकास पर बहुत ही प्रभाव डालता है संस्कृति का बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान होता है सबकी अपनी अपनी संस्कृति होती है जिसके अनुसार उनका विकास होता है जो जैसी संस्कृति का होता है वैसे ही बच्चा विकास करता है जैसे बच्चे के माता-पिता जिस रहन-सहन रीति-रिवाजों को मानता है बालक भी उसी प्रकार से नियमों का पालन करता है हर देश के रीति रिवाज अलग-अलग होते हैं बालक भी उन्हीं रीति रिवाज के अनुसार उनका पालन करता है सभी देश की भाषा अलग अलग होती है और वह बालक भी वही भाषा सीखता है
🌲शुद्ध वायु एवं प्रकाश➖ बच्चे के विकास के लिए ऐसा वातावरण होना चाहिए जहां की शुद्ध वायु और प्रकाश होना चाहिए शुद्ध वायु मानव जीवन के लिए बहुत ही आवश्यक होती है शुद्ध वायु से ही हमारा शारीरिक और मानसिक विकास सही तरीके से होता है यदि वायु शुद्ध नहीं होगी तो हमारा विकास सही तरीके से नहीं हो पाएगा इससे कई बीमारियों का सामना करना पड़ेगा प्रदूषित वायु होगी तो ।
इसी प्रकार प्रकाश का भी हमारे जीवन पर बहुत ही प्रभाव पड़ता है सूर्य का प्रकाश हमारे लिए बहुत ही प्रभाव डालता है प्राकृतिक रोशनी हमारे आंखों के लिए बहुत ही उपयोगी होती हैं हम जितना प्राकृतिक प्रकाश लेते हैं उतनी ही आंखों की रोशनी बढ़ती है और जितना लाइट वाली रोशनी लेते हैं आंखों की रोशनी उतनी ही कम होती जाती है इसलिए बालक के विकास के लिए मानसिक और शारीरिक विकास दोनों के लिए वायु और प्रकाश दोनों ही बहुत ही आवश्यक होते हैं
🏵बाल विकास को प्रभावित करने वाले पारिवारिक कारक🏵
🌺बच्चे का विकास को कई तरीके के कारण होते हैं इनमें से प्रमुख कारक पारिवारिक कारण होता है जो इस प्रकार है➖
🌲अभिभावक की अभिवृत्ति
➖ बच्चे के विकास में अभिभावक की महत्वपूर्ण भूमिका होती है अभिभावक द्वारा ही बच्चे का विकास उचित तरीके से होता है कम आयु वाले अभिभावक बच्चों का सही पालन पोषण नहीं कर पाते हैं और ज्यादा आयु वाले अभी वह बच्चों का पालन पोषण अच्छी तरह से करने में सक्षम होते हैं आयु का भी बहुत ही महत्व होता है अभिभावक को बच्चों को अत्यधिक संरक्षण में नहीं रखना चाहिए इससे बच्चों में आक्रामकता उत्पन्न होती है बच्चों को हमेशा दोस्त जैसा ही रखना चाहिए जिससे बच्चे उनकी मन की बात कह सके उनको मन की बात कहने में कोई झिझक महसूस ना हो उनमें कुंठा दिखावा आदि व्यवहार करने लगते हैं माता-पिता को कठोर नहीं होना चाहिए नम्र स्वभाव का होना चाहिए
🌲परिवार की भावना➖ प्रत्येक बच्चे में परिवार के लोगों की भावना से बालक का विकास होता है एकल परिवार में माता-पिता बच्चे को अधिक महत्व देंगे और उसका ख्याल अच्छे से रख पाते हैं संयुक्त परिवार में बच्चे पर ध्यान नहीं दे पाते हैं लेकिन यह नहीं संयुक्त परिवारों में बच्चा कुछ नहीं सीखता है संयुक्त परिवार में बच्चा एक साथ रहना सीखता है वह कई लोगों में एक साथ बैठना उठना बातचीत करना सिखाते है सब सीखता है एकल परिवार में बच्चा अकेले अकेले रहनासीखते है इसीलिए परिवार का बालक के विकास पर बहुत ही महत्वपूर्ण प्रभाव होता है
🌲माता पिता का व्यवसाय ➖माता पिता का व्यवसाय से बालक के विकास का महत्व यह है कि माता पिता किस व्यवसाय को करते हैं उनका क्या कार्य है यह सब का महत्व होता है जिसके माता-पिता कोई नौकरी करते हैं कोई काम करते हैं यह सब का फर्क बालक पर पड़ता है अच्छी फैमिली के माता-पिता रहते हैं तो बालक भी उसी अनुसार सीखता जाता है जहां माता-पिता दोनों ही कोई नौकरी करते हैं तो मैं दोनों ही घर से बाहर निकल जाते हैं और बच्चा घर में अकेला रहता है अकेलापन महसूस करता है तो इससे भी बच्चे का विकास सही तरीके से नहीं हो पाता है माता पिता अपने बच्चे को सही तरीके से ऐसा ही नहीं दे पाते हैं और दूसरी ओर अगर उनके माता-पिता जॉब में होते हैं तो समाज में उनकी प्रतिष्ठा बनी रहती है उनको बताने में अच्छा लगता है कि मेरे मम्मी पापा यह कार्य कर रहे हैं तो उससे उनकी प्रतिष्ठा बनी रहती है
🌲परिवार का सामाजिक आर्थिक स्तर ➖परिवार का सामाजिक आर्थिक स्तर बच्चों के विकास को बहुत प्रभावित करता है सामाजिक व आर्थिक रूप से संपन्न बच्चों का विकास अच्छा होता है वहीं सामाजिक व आर्थिक रूप से कमजोर परिवार के बच्चों का विकास सही तरीके से नहीं हो पाता है उनकी आवश्यकताओं की की पूर्ति नहीं कर पाते हैं और बालक कमजोर महसूस करने लगता है आर्थिक स्थिति का बालक के विकास पर बहुत ही महत्व प्रभाव पड़ता है
🌲जन्म क्रम ➖ जन्म क्रम में बच्चे का विकास पर प्रभाव पड़ता है बड़े मछले बच्चे और छोटे बच्चे अगर तीनों प्रकार के बच्चे हैं तो बड़े बच्चे का कार्य बहुत ही जिम्मेदारियां होती हैं क्रम के अनुसार भी बच्चों का विकास होता है बड़े बच्चों से माता पिता ज्यादा उम्मीद रखते हैं उनसे ज्यादा इच्छा रखते हैं उन्हें ज्यादा जिम्मेदार मानते हैं उनकी अपेक्षा छोटे बच्चों को थोड़ा कम जिम्मेदार मानते हैं क्रम का भी विशेष महत्व होता है सबसे पहले बड़े बच्चों को जिम्मेदार मान लेंगे उसके बाद हमारे बच्चों को छोटे बच्चों को बाद में छोटा बच्चा हमेशा ही छोटा होता है भले ही वह कितना ही बड़ा क्यों ना होता है विकास में बड़े भाई या बहन जो कुछ कार्य करते हैं वह अच्छा या बुरा जो भी प्रकार का व्यवहार करते हैं छोटे भाई बहन उसी प्रकार का व्यवहार सीखते हैं छोटा भाई कुछ गलत कार्य कर रहा है तो बड़े भाई द्वारा उन्हें डांटना नहीं चाहिए भले उन्हें प्यार से समझाना चाहिए
📝 notes by sapna yadav

💫🌻 बाल विकास को प्रभावित करने वाले कारक🌻💫

🌼9-आस पड़ोस का वातावरण (neighbourhood environment)➖
घर के वातावरण के साथ-साथ बालक उस वातावरण में रहता है उसका प्रभाव पड़ता है यदि आस-पड़ोस अच्छा है,खेल के साथी और मित्र अच्छे हैं तो बालक में अच्छी सामाजिकता का विकास होता है इसके विपरीत आस-पड़ोस खराब होने से बालक बुरी संगत ने पड़कर बाल अपराधी बन जाते है।

🌼 सांस्कृतिक वातावरण (Cultural Environment)➖प्रत्येक देश और समाज की अपनी एक संस्कृति होती है इसके अनुरूप प्रत्येक परिवार अपने बालकों का पालन पोषण करता है अतः बालकों का विकास अपनी संस्कृति के अनुरूप ही होता है।

🌼 शुद्ध वायु एवं प्रकाश (pure air and light)➖शरीर को स्वस्थ रखने के लिए स्वच्छ वायु के सकता होती है अगर वायु स्वक्ष ना मिले तो बालक बीमार हो सकता है एवं उनके अभाव में कार्य करने की क्षमता प्रभावित करती है सारी विकास के लिए सूर्य के प्रकाश की महत्वपूर्ण भूमिका है क्योंकि सूर्य के प्रकाश में विटामिन डी की प्राप्ति होती है जो विकास के लिए अपरिहार्य है।

💫🌻 बाल विकास को प्रभावित करने वाले पारिवारिक कारक💫🌻

🌼1-अभिभावक अभिवृत्तियां➖
बालक के विकास में उनके अभिभावकों का महत्वपूर्ण स्थान होता है कम आयु वाले अभिभावक बच्चों का सही तरीके से पालन पोषण नहीं कर पाते हैं अभिभावकों को हमेशा अपने बच्चों से दोस्तों जैसा व्यवहार करना चाहिए ताकि एक बालक अच्छे या गलत बातों को अपने अभिभावकों से बता सके।

🌼 परिवार की भावना➖ समाज में दो तरह के परिवार पाए जाते हैं एकल और संयुक्त एकल परिवार में अभिभावक अपने बच्चों पर अच्छी तरीके से ध्यान दे पाते हैं और संयुक्त परिवार में अभिभावक अपने बच्चों पर ठीक तरह से ध्यान नहीं दे पाते हैं जिसके कारण उनके विकास पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

🌼 टूटे परिवार➖अगर बच्चे ऐसे परिवार में रहते हैं जहां माता-पिता में आपसी तालमेल नहीं होता है तो बच्चों का इस पर बुरा प्रभाव पड़ता है जिसके कारण बच्चों को जल्दी गुस्सा आ जाता है और वह चिड़चिड़ा हो जाते हैं वही दूसरों की बातों को वह सही नहीं मानते हैं उन्हें केवल अपनी बात ही सही लगती है उनमें हीन भावना का विकास होता है।

🌼 माता पिता का व्यवसाय➖बच्चों के विकास में माता-पिता के व्यवसाय का बहुत बड़ा योगदान है अगर बच्चों के अभिभावकों का व्यवसाय अच्छा है तो वह अपने आप को श्रेष्ठ मानते हैं और अगर उनके अनुभवों का व्यवसाय छोटा है तो वह अपने दोस्तों को भी बताने में उन्हें शर्म सी महसूस होती है।

🌼 परिवार का सामाजिक आर्थिक स्तर➖बालक के विकास में परिवार का सामाजिक आर्थिक स्तर अनेक प्रकार से प्रभावित करता है जैसे यदि बालक के परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है तो बालक को अपने दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में बताएं होती है जिसके कारण उनका विकास सही तरीके से नहीं हो पाता है।

🌼अभिभावकों का पक्षपात➖अगर अभिभावक अपने बच्चों में पक्षपात करते हैं तो उसके कारण उनमें हीन भावना उत्पन्न होती हैं

🌼 जन्म क्रम➖
🌼 जन्म क्रम में बच्चों का विकास पर प्रभाव पड़ता है अभिभावक अपने बड़े बेटों को जिम्मेदारियों में इस हद तक बांध देते हैं कि वह अपनी जिम्मेदारियों से निकल ही नहीं पाता है और अपने छोटे बच्चों को हमेशा लाड़ दुलार ही करते रहते हैं।

✍🏻📚📚 Notes by….. Sakshi Sharma📚📚✍🏻

🌼🌼🌼बाल विकास को प्रभावित करने वाले कारक🌼🌼🌼
🌼9.पास-पड़ोस और वातावरण :-
बच्चे के विकास में पास पड़ोस और वातावरण का महत्व पूर्ण प्रभाव होता है।
यदि बच्चे का पास पड़ोस अच्छा होता है तो बच्चे का विकास अच्छा होगा और अगर बच्चे का पास पड़ोस बुरा होगा तो ऐसी स्थिति में बच्चा अपराधी भी बन सकता है जो बच्चे के सामाजिक विकास पर गलत प्रभाव होगा।
इसीलिए बच्चे को स्वस्थ वातावरण में रखना जरूरी है जिससे उसका सही विकास हो सके।

🌼10. सांस्कृतिक वातावरण :-
बच्चे के विकास पर संस्कृति का भी बहुत प्रभाव पड़ता है।
सबकी अपनी संस्कृति होती है जिसके अनुसार उनका विकास होता है जो जैसी संस्कृति से होता है उसी के अनुसार के उसका विकास होता है।
उदाहरण के लिए एक बच्चे के माता-पिता जिस भी भाषा शैली व रहन-सहन का प्रयोग करते हैं उसी के अनुसार बच्चा भी भाषा प्रयोग व रहन-सहन सीखता है।

🌼11. शुद्ध वायु एवं प्रकाश :-
बच्चे के विकास के लिए ऐसा वातावरण होना चाहिए जहां शुद्ध वायु और सूर्य का प्रकाश पहुंचता हो। बंद कमरे या प्रदूषण युक्त वातावरण में बच्चे का विकास सही ढंग से नहीं हो पाएगा तथा उसे अनेक बीमारियों का सामना करना पड़ सकता है। अतः माता-पिता को यह ध्यान रखना अत्यंत जरूरी है कि बच्चा के विकास लिए वातावरण सही हो।
उदाहरण के लिए अगर बच्चे को शुद्ध हवा व प्रकाश ना मिले तो बच्चे को आंख से संबंधित रोग व श्वसन संबंधी रोग होने की प्रबलता रहती है।
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🌼🌼🌼बाल विकास को प्रभावित करने वाले पारिवारिक कारक🌼🌼🌼

बच्चे को विकास को कई तरह के पारिवारिक कारण भी प्रभावित करते हैं जिनमें से प्रमुख कारक निम्न लिखित है –
🌼1. अभिभावक अभिवृत्तिया:-
बच्चे के विकास में अभिभावकों का उत्तरदायित्व बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है कम आयु वाले अभिभावक बच्चों का सही पालन पोषण नहीं कर पाते वहीं ज्यादा आयु वाले अभिभावक बच्चों का पालन पोषण पोषण अच्छी तरह से करने में सक्षम होते हैं।
बच्चों को अत्यधिक संरक्षण नहीं देना चाहिए जिससे वे अपनी योग्यता पर विश्वास ना कर पाए।
तिरस्कार से बच्चा आक्रामक, निर्दयता, झूठ बोलना, कुसमायोजन, समाज विरोधी व्यवहार, कुंठा, द्वन्द्व, दिखावा आदि व्यवहार करने लगता है।
माता-पिता अगर कठोर है तो बच्चे में अति संवेदनशीलता, हीनता, शीघ्र भ्रमित, शर्मिलापन आदि आ जाता है।

🌼2. परिवार की भावना :-
बच्चे के प्रति परिवार के लोगों की जैसी भावना होगी उसका विकास भी वैसा ही होगा।
एकल परिवार मे माता-पिता बच्चे को अधिक महत्व देंगे और उसका ख्याल अच्छे से रख पाते हैं , संयुक्त परिवार के बच्चों पर ध्यान नहीं दे पाते हैं और बच्चों का विकास सही से नहीं हो पाता है।
जैसे एकल परिवार में माता-पिता का फोकस बच्चों पर होता है और वह बच्चे की परवरिश में कोई कमी ना हो पाए इस बात को ध्यान में रखते हैं वही संयुक्त परिवार में कामों में व्यस्त माता-पिता बच्चे पर ध्यान नहीं दे पाते है।

🌼3. टूटे परिवार:-
टूटे परिवार भी बच्चे के विकास को बहुत प्रभावित करते हैं।
जैसे किसी परिवार में कोई घटना, तलाक, बड़े-बूढ़ों के बाहर होने पर, आर्थिक समस्या, माता हो और पिता ना हो ऐसी स्थिति में बच्चे के विकास पर बहुत बुरा असर होता है। और उसका विकास सही तरीके से नहीं हो पाता है।

🌼4. माता पिता का व्यवसाय: –
माता पिता के व्यवसाय से बच्चे के विकास पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है अगर माता-पिता व्यवसायी होते हैं तो बच्चा खुद को समाज में व दोस्तों में प्रतिष्ठित समझता है। वहीं दूसरी ओर माता पिता दोनों का व्यवसायी होने पर वह खुद को अकेला महसूस करता है क्योंकि ऐसी स्थिति में उसके साथ कोई नहीं रहता है।
जैसे किसी बच्चे के माता-पिता दोनों ही बिजनेस करते हैं और उन्हें बाहर जाना पड़ जाए तो बच्चा एकदम अकेला हो जाता है वही उसे यह भी भी लगता है कि समाज में वह अपने माता-पिता के साथ प्रतिष्ठित भी है

🌼5. परिवार का सामाजिक आर्थिक स्तर:-
परिवार का सामाजिक आर्थिक स्तर भी बच्चे के विकास को बहुत प्रभावित करता है। सामाजिक व आर्थिक रुप से संपन्न बच्चे का विकास अच्छा होता है वहीं सामाजिक व आर्थिक रूप से जूझ रहे बच्चे का विकास कम होता है।
उदाहरण के लिए एक संपन्न परिवार के बच्चे के पास सारी चीजें मौजूद होती है जबकि आर्थिक परिस्थिति से जूझ रहे बच्चे के पास अच्छे खिलौने तक नहीं होते हैं।

🌼6. जन्म क्रम: –
जन्म कर्म का भी बच्चे के विकास पर बहुत प्रभाव पड़ता है बच्चे के छोटे भाई और बहन होते हैं जिससे उसमें कुछ अच्छे गुण तथा कुछ बुरे गुण भी आते हैं।
जैसे गलती करने पर बड़े भाई बहनों द्वारा डांट या फटकार से उसमें हीनता व आक्रामकता आ सकती है वहीं दूसरी ओर बड़े भाइयों के प्यार व सहयोग से उसमें दूसरों के प्रति सद्भावना का भी विकास होता है।

🌼🌼🌼🌼Manjari soni🌼🌼🌼🌼
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26. CDP – Growth and Development PART- 7

🔆 बाल विकास को प्रभावित करने वाले कारक ➖

❇️ 1 पोषण :-

▪️गर्भ से जीवन पर्यंत तक स्वस्थ रहने के लिए व्यक्ति को संतुलित पौष्टिक आहार अर्थात प्रोटीन ,वसा ,कार्बोहाइड्रेट ,लवण,खनिज, विटामिन युक्त भोजन शारीरिक व मानसिक विकास में सहायक होता है।

▪️पोषण का अर्थ है ऐसा आहार जिसे शरीर की भोजन संबंधी आवश्यकताओं के संदर्भ में उपयुक्त समझा जाता है। बेहतर पोषण तथा सन्तुलित आहार ही बच्चे के शारीरिक व मानसिक विकास में

महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

▪️बच्चों की पोषण  संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन और कैलोरी आवश्यक है। प्रोटीन भोजन में विद्यमान और शरीर निर्माण के अवयव हैं।

▪️बालक के सामान्य विकास के लिए उपयुक्त पालन पोषण तथा पौष्टिक आहार की आवश्यकता होती है। प्राय: कई परिवारों में सामान्य रूप से बच्चों के भोजन पर ध्यान नहीं दिया जाता कि उसमें स्वास्थ्य के लिए आवश्यक चीजें हैं या नहीं।

शारीरिक विकास के लिए आयोडीन, कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, कैल्शियम विटामिन आदि बहुत आवश्यक होते हैं जिनके अभाव में बच्चे अस्वस्थ हो जाते हैं।

इन सभी के अभाव से बच्चे का विकास रुक जाता है

तथा किसी विशेष प्रकार का विकासात्मक परिवर्तन नहीं हो पाता। बाल अवस्था में उचित पौष्टिक आहार प्राप्त होने के फल स्वरूप व्यक्तित्व विकास भी सामान्य रूप से होता है।

❇️ 2 बुद्धि :- 

▪️बुद्धि व्यक्ति को विभिन्न प्रकार की बातों को सीखने में सहायता प्रदान करती है। मनुष्य की बुद्धि पर उसके आस-पास के वातावरण का अनुकूल और प्रतिकूल दोनों प्रभाव पड़ता है। बुद्धि पर वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है ।

▪️किसी तीव्र या कुशाग्र बुद्धि वाले बालक का विकास मंदबुद्धि वाले बालक की अपेक्षा तीव्र गति से होता है।

* टर्मन के अनुसार – बहुत प्रखर बुद्धि वाले बालक में चलने की जो प्रक्रिया है वह 13 महीने आती है तथा बोलने की क्षमता 11 महीने में आती है।

जबकि दुर्बल या मंद बुद्धि वाले बालकों में चलने की प्रक्रिया 30 महीने के बाद भी होती है तथा बोलने की क्षमता 15 महीने तक आती है।

❇️ 3 यौन विकास :- 

▪️यौन विकास केवल शारीरिक विकास को ही नहीं वरन यह हमारे मानसिक विकास को भी प्रभावित करता है।

▪️जन्म के समय या उसके कुछ दिन बाद लड़कों की लंबाई लड़की की अपेक्षा ज्यादा होती है ।

लेकिन बाद की अवस्थाओं में लड़कियों की लंबाई लड़कों की अपेक्षा अधिक होती है।

लंबाई के साथ-साथ लड़कियों में शारीरिक परिपक्वता, काम शक्ति, मानसिक परिपक्वता भी लड़कों की तुलना में जल्दी विकसित होती है।

▪️कई बुद्धि परीक्षण में भी यह देखा गया है की लड़कियां, लड़कों की तुलना में मानसिक रूप से पूर्व या पहले ही परिपक्व हो जाती है।

❇️ 4 अंतः स्त्रावी ग्रंथियां:- 

▪️मानव शरीर के अंदर कुछ ऐसी अंतः स्त्रावी ग्रंथियां पाई जाती हैं  जिनका स्त्रावण शारीरिक व मानसिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

▪️अंतःस्रावी प्रणाली हमारे शरीर की गतिविधियों के बीच समन्वय स्थापित करने में भी मदद करता है। हमारे शरीर में उपस्थित अंतःस्रावी ग्रंथियां हैं– पीनियल ग्रंथी, हाइपोथैलमस ग्रंथी, पिट्यूटरी ग्रंथी, थायराइड ग्रंथी, पाराथायराइड ग्रंथी, थाइमस, अग्न्याशय, अधिवृक्क ग्रंथी, वृषण और अंडाशय। अंतःस्रावी ग्रंथियों की कार्यप्रणाली को तंत्रिका तंत्र नियंत्रित करता है।

▪️अर्थात शरीर की क्रियाशीलता या हमारा जो शारीरिक व मानसिक विकास है उनमें ग्रंथियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

▪️जैसे – गोंनड ग्रंथि 

यदि कम क्रियाशील है तो किशोरावस्था आने में बिलंभ या देरी होती है।

और यदि यह गोंनड ग्रंथि अधिक क्रियाशील हुई तो यौन परिपक्वता जल्दी आ जाती है।

▪️इसी प्रकार पिनियल ग्रंथि 

यदि अधिक क्रियाशील है तो बच्चे की उम्र बढ़ने पर भी उसमे बचपन के लक्षण लंबे समय तक दिखाई देते हैं।

▪️इसी प्रकार थायराइड ग्रंथि 

अस्थियों के निर्माण में मदद करती है।

▪️हार्मोनों की अधिकता या कमी का हमारे शरीर पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है।

❇️ 5 प्रजाति :- 

▪️गर्म जलवायु में रहने वाले बच्चे का शारीरिक विकास ठंडे जलवायु में रहने वाले बच्चों की अपेक्षा शीघ्र होता है । नीग्रो बच्चे स्वेत बच्चो की अपेक्षा 80% अधिक परिपक्व होते है

▪️यह प्रजाति के लोग दूसरी प्रजाति के लोगों से शारीरिक गठन वर्ण व आकृति इत्यादि इन सभी में एक दूसरे से भिन्न होते हैं।

▪️प्रजाति केवल शारीरिक विकास को ही नहीं बल्कि मानसिक विकास को भी प्रभावित करती है।

▪️लेकिन हरलॉक ने इस मत को नहीं माना है।

❇️ 6 रोग व चोट :- 

▪️ गर्भ काल या जन्म के बाद या इसके बाद के किसी भी अवस्था में अर्थात गर्भ से जीवन पर्यंत बच्चे को किसी भी कारणवश किसी चोट या रोग से ग्रसित हो जाता है तो उसका दुष्प्रभाव बच्चे पर दिखाई पड़ता है।

▪️अर्थात यदि कभी कोई बच्चा बचपन में या घर में या किसी भी अवस्था में किसी गंभीर बीमारी या उसे आघात है तो यह निश्चित ही बच्चे के मानसिक और शारीरिक विकास को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करेगा।

❇️ 7 परिवार :- 

▪️परिवार का वातावरण विकास की प्रकिया पर बहुत ज्यादा प्रभाव डालता है, यह प्रभाव सकारात्मक या नकारात्मक किसी भी प्रकार का हो सकता है जो कि परिवार के वातावरण पर निर्भर करता है।

▪️जैसे परिवार के लोगों का रहन सहन ,खाना-पीना, माता-पिता का आपसी संबंध, परिवार में बालक की स्थिति ,परिवार का आकार, बच्चों की देखभाल परिवार का आंतरिक वातावरण या माहौल यह सभी बच्चे के विकास को प्रभावित करते हैं।

▪️कुछ परिवारों में लड़कों को लड़कियों में अंतर करना या उन में भेदभाव करना वह तनाव युक्त परिवार  का वातावरण यह सब भी बालक के विकास को प्रभावित करता है।

▪️बच्चा जिस पारिवारिक वातावरण में रहता है वह स्वत: ही उस अनुसार बर्ताव या व्यवहार करने लगता है या वैसे ही पारिवारिक वातावरण में ढल जाता है या उसमें सीखने लगता है उससे समायोजित होने लगता है इसीलिए परिवार के सकारात्मक या नकारात्मक वातावरण का प्रभाव बच्चों पर आसानी से देखा जा सकता है।

❇️ 8 विद्यालय :- 

▪️विद्यालय की भूमिका बच्चों के विकास में बहुत ही महत्वपूर्ण व संवेदनशील है बच्चा उत्तर बाल्यावस्था के बाद समाज के संपर्क में आता है और यही बच्चों का यही समाज विद्यालय कहलाता है।

▪️विद्यालय में बच्चों को परिपक्वता के साथ शिक्षा मिलती है महाविद्यालय वातावरण से व्यवहार व ज्ञान को सीखता है जिससे बच्चे का बहुमुखी विकास होता है।

▪️विद्यालय की व्यवस्था और विद्यालय की गतिविधियां विद्यार्थियों के विकास पर नकारात्मक और सकारात्मक दोनों प्रभाव डालती हैं।

✍🏻 

  Notes By-‘Vaishali Mishra’

♻️बाल विकास को प्रभावित करने वाले कारक♻️♻️

🎉बाल विकास को प्रभावित करने वाला कारक निम्नलिखित हैं➖

1- पोषण

2- वृद्धि

 3-योन 

विकास 

4-अंतः स्त्रावी ग्रंथियां

5- प्रजाति

6- रोग और चोट

7- परिवार

8- विद्यालय 

🎄 पोषण- बालक के लिए बाल विकास को प्रभावित करने वाले कारक में पोषण का विशेष महत्व होता है  जीवन पर बालक के जीवन काल में गर्व से लेकर जीवन  अंत तक पोषण की आवश्यकता होती है पोषण के बिना विकास संभव नहीं है शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए पोषण जरूरी है इसके लिए संतुलित पोषण आहार में प्रोटीन वसा कार्बोहाइड्रेट खनिज लवण विटामिंस की जरूरत होती है इसमें मानसिक और शारीरिक विकास में सहायता मिलती है

🎄2- वृद्धि ➖टर्मन के अनुसार तीव्र बुद्धि के माता-पिता की संतान तीव्र बुद्धि तथा मंद बुद्धि के माता-पिता की संतान मंदबुद्धि होती है यह जरूरी नहीं है

बालक के विकास में बुद्धि जरूरी कारक  है बालक की बुद्धि तीव्र होती है तो बालक का विकास भी तीव्र गति से होता है मंदबुद्धि वाले बालक का विकास मंद गति से होते हैं बहुत प्रखर बुद्धि वाले बालक की चलने की प्रक्रिया 13 माह में होती है और बोलने की क्षमता 11 माह से चालू हो जाती है और मंदबुद्धि या दुर्बल बुद्धि वाले बालक की चलने की क्षमता30 माह में होती है और बोलने की क्षमता उसकी 11 माह से चालू होती है

🎄3-योन विकास➖ योन विकास में लड़के और लड़कियों के शारीरिक और मानसिक विकास होता है जन्म से ही लड़का और लड़कियों का विकास अलग-अलग तरीके से होता है उनकी लंबाई और वजन  परिवर्तन होता है जन्म के समय लड़कियों के वजन लड़कों से वजन और भार और आकार ज्यादा होता है धीरे-धीरे आगे बढ़ने के साथ-साथ और बढ़ता जाता है 10 से 11 वर्ष में लड़कियों  मानसिक विकास शारीरिक और मानसिक विकास लड़कों से ज्यादा होता है और ज्यादा परिपक्व भी जल्दी हो जाती हैं काम शक्ति की भावना लड़कों से ज्यादा 2 वर्ष पहले ही विकसित हो जाती है

बुद्धि परीक्षण लड़कियों का ज्यादा लड़कों का कम होता है लड़कियां पहले परिपक्व हो जाती है

🎄4अंतः स्त्रावी ग्रंथियां ➖अंतः स्रावी ग्रंथियां का विकास को प्रभावित करने वाले कारकों में से एक कारक है इसमें अनेक प्रकार की ग्रंथियां होती है जिसका विकास पर प्रभाव पड़ता है

 Gonadग्रंथि➖ इसgonad ग्रंथि -द्वारा क्रियाशीलता में कमी से किशोरावस्था में विलंब हो जाता है और देरी से किशोर अवस्था होती है और इससे ग्रंथि में क्रियाशीलता में अधिकता होने से  परिपक्वता जल्दी विकसित हो जाती है

 पैराथाहाइट ग्रंथि ➖इस ग्रंथि में अस्थियों के निर्माण में मदद मिलती है यह ग्रंथि विकसित नहीं होगी तो अस्थियों का निर्माण सही तरीके से नहीं हो पाएगा

 Thimiyasग्रंथि➖ यह ग्रंथि अगर  क्रियाशील अधिक होती है तो इसमें समस्या हो जाती है इससे मानव में बचपन के लक्षण होने लगते हैं व्यस्त आदमी बचपन के जैसा व्यवहार करने लगता है यह ग्रंथि अभिक्रियाशील होना सही नहीं है

🎄प्रजाति ➖एक प्रजाति के लोग दूसरी प्रजाति के लोगों से शारीरिक गठन वर्ण और आकृति में भिन्न होते हैं शारीरिक ही नहीं इससे मानसिक विकास भी प्रभावित होता है शारीरिक और मानसिक विकास दोनों पर ही प्रजाति का प्रभाव पड़ता है 

हरलॉक➖ अपने इस मत को नहीं माना है

🎄रोग और चोट➖ गर्व से जीवन प्रयत्न के बीच या गर्भाधान से लेकर  बचपन में गंभीर बीमारी हो जाने पर या घर चोट लगने पर बाल विकास पर भी प्रभाव पड़ता है इससे उसके विकास और शारीरिक विकास भी रुक जाता है

🎄परिवार➖ परिवार से ही बालक का विकास सुचारू रूप से होता है इससे बालक के व्यवहार में परिवर्तन होता है आचार विचार परिवार का जैसा अचर विचार होगा बालक का भी वैसा ही आचरण विचार होता है माता-पिता का आपसी संबंध अच्छा होना चाहिए अगर इनके संबंध अच्छे नहीं होते हैं तो बालक का इस पर बुरा प्रभाव पड़ता है परिवार का आकार बच्चे की देखभाल बालक बालिकाओं में अंतर यह परिस्थिति घर परिवार में होती है तो इसका प्रभाव पड़ता  है

🎄 विद्यालय➖ विद्यालय द्वारा ही बालक का विकास सही तरीके से होता है विद्यालय का वातावरण कैसा रहेगा बालक भी उसी प्रकार से सीखता है बालक में परिपक्वता आना शिक्षा ग्रहण करना यह सब व्यवहार और ज्ञान सभी विद्यालय द्वारा ही होता है बालक का चहुमुखी विकास विद्यालय द्वारा ही होता है

बालक का प्रथम विकास परिवार द्वारा होता है और दूसरा विद्यालय द्वारा होता है

📝 notes by sapna yadav

*🌸बाल विकास को प्रभावित करने वाले कारक🌸*

*(factor affecting of child development)*

👉 बच्चे के शारीरिक,  मानसिक, सामाजिक, भाषाई, आदि विकास को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करने वाले कारकों में कई प्रकार के कारक आते हैं, जिनसे बच्चे का विकास प्रभावित होता है। 

 बच्चे के विकास को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित है-

*१. पोषण (nutrition) -*

गर्भावस्था से लेकर जीवन पर्यंत व्यक्ति को संतुलित आहार की आवश्यकता होती है। 

 लेकिन गर्भावस्था से किशोरावस्था के अंत तक संतुलित आहार की आवश्यकता बच्चे के विकास के लिए अत्यंत आवश्यक मानी जाती है। क्योंकि इस समय बच्चे का शारीरिक व मानसिक विकास चरम पर होता है। 

 👉संतुलित आहार से तात्पर्य उम्र के अनुसार सही मात्रा में उचित खनिज पोषक तत्वों से भरपूर आहार से है। 

👉 संतुलित आहार में बच्चे को प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेट, खनिज लवण, विटामिन आदि की उचित मात्रा उचित में आवश्यकता होती है जो बच्चे के शारीरिक और मानसिक विकास के लिए अत्यंत आवश्यक होता है 

👉जन्म से किशोरावस्था तक का समय बच्चे के शारीरिक व मानसिक विकास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है जिसमें संतुलित आहार की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। 

👉 बच्चे को संतुलित आहार ना दिया जाए जाए तो उसका मानसिक व शारीरिक विकास अवरुद्ध हो जाता है जिसके कारण कई बीमारियों का जन्म होता है। 

 जैसे – आयरन की कमी से एनीमिया नामक रोग। 

वसा की अधिकता से मोटापा आदि। 

👉 बच्चों के संतुलित आहार को ध्यान में रखते हुए 15 अगस्त 1995 से मिड डे मील ( मध्यान भोजन) योजना का आरंभ किया गया है। 

*२. बुद्धि ( intelligence) -*

बच्चे के विकास में बुद्धि का भी महत्वपूर्ण स्थान है।

तीव्र बुद्धि वाले बच्चे का विकास मंदबुद्धि वाले बच्चे की अपेक्षा हर क्षेत्र में अधिक होता है क्योंकि अधिक बुद्धि वाला बच्चा अपनी बुद्धि, शारीरिक व मानसिक विकास के लिए उपयोग करने में सक्षम होता है जबकि मंदबुद्धि बालक बुद्धि की कमी के कारण पीछे रह जाता है। 

*🌸 टर्मन के अनुसार* – ” प्रखर बुद्धि वाले बालक में चलने की प्रक्रिया 13 महीने में होती है और बोलने की क्षमता 11 माह में होती है, वही दुर्बल बुद्धि वाले बालक में चलने की प्रक्रिया 30 वे माह में होती है और बोलने की क्षमता 15 वे माह में होती है। “

*३. यौन विकास (sex development)* 

यौन बच्चे के शारीरिक व मानसिक विकास को बहुत प्रभावित करता है।

👉जन्म के कुछ दिनों तक यह विकास लड़कों में लड़कियों की अपेक्षा अधिक होता है। 

 👉10 -11 वर्ष में  लड़कियों की लंबाई, लड़कों की अपेक्षा अपेक्षा अधिक होती है। 

👉 शारीरिक परिपक्वता भी लड़कियों में लड़कों की अपेक्षा 1- 2 वर्ष पूर्व ही आ जाती है। 

👉 काम शक्ति भी लड़कियों में लड़कों की अपेक्षा 1- 2 वर्ष पूर्व आ जाती है। 

 अतः यौन सिर्फ शारीरिक विकास को ही नहीं बल्कि मानसिक विकास को भी बहुत प्रभावित करता है। 

*४. अंतः स्त्रावी ग्रंथियां ( endocrine glands)-*

मानव शरीर में अनेक ग्रंथियां होती है जिनके सुचारू रूप से कार्य करने पर मानव का शारीरिक व मानसिक विकास भी सही ढंग से होता है। और अगर यह ग्रंथियां अतिसक्रिया या कम क्रियाशील हो तो मानव विकास में अधिकता या कमी हो जाती है। 

उदाहरण के लिए गोनड ग्रंथि की कम क्रियाशीलता से किशोरावस्था आने में विलंब होता है और अधिक क्रियाशीलता से यौन परिपक्वता जल्दी आती है। 

 पैराथायराइड ग्रंथि – यह ग्रंथि अस्थियों के निर्माण में मदद करती हैं। 

 पीनियल ग्रंथि – इस ग्रंथि की अति क्रियाशीलता से सामान्य विकास में पठार आ जाता है ऐसी स्थिति में बचपन के लक्षण बहुत दिनों तक बने रहते हैं।

अर्थात् ग्रंथियों स्त्रावन  का मानव विकास पर सीधा असर पड़ता है। 

*५. प्रजाति ( species) -*

एक प्रजाति के लोग दूसरी प्रजाति के लोगों से शारीरिक गठन, वर्ण और आकृति में भिन्न होते हैं।

शारीरिक ही नहीं इसमें मानसिक विकास भी प्रभावित होता है

लेकिन हरलॉक महोदय ने इस मत को नहीं माना है। 

*६. रोग और चोट ( disease and injury)-*

गर्भ और बचपन की गंभीर बीमारी या आघात, मानसिक तथा शारीरिक विकास को प्रभावित करता है। 

*७. परिवार ( family)-*

माता-पिता का आपसी संबंध, परिवार में बालक की स्थिति, परिवार का आकार, बच्चों के देखभाल, परिवार का आंतरिक वातावरण, बालक-बालिका में अंतर, परिवार का तनाव, आदि सारी चीजें बच्चे के विकास  को प्रभावित करती है। 

 क्योंकि बच्चे का मस्तिष्क इस समय ग्रहण करने के उच्च क्षमता पर होता है और बच्चा अनुकरण भी करता है। 

*८. विद्यालय ( school) -*

 बच्चा परिवार से निकलकर जब विद्यालय पहुंचता है तब उसका सामाजिक और नैतिक विकास तीव्र गति से होता है। 

विद्यालय में वह अनेक बच्चों से मिलता है जो व्यक्तिक भिन्नता वाले होते हैं और साथी-सहपाठी से अंत: क्रिया के दौरान अनेक नई चीजें जानता व समझता  जो उसके विकास को बहुत प्रभावित करते हैं।

विद्यालय में बच्चे को परिपक्वता के साथ शिक्षा मिलती है। 

बच्चा विद्यालय में व्यवहार व ज्ञान सीखता है वहां उसका चहुमुखी विकास होता है। 

Notes by Shivee Kumari

🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸

🔆 बाल विकास को प्रभावित करने वाले कारक ➖ 

1) पोषण

2) बुद्धि

3) यौन विकास

4) अतः स्त्रावी  ग्रंथियाँ

5) प्रजाति

6) रोग और चोट 

7) परिवार

8) विद्यालय

🎯 पोषण ➖

संतुलित पौष्टिक आहार जैसे प्रोटीन, वसा ,कार्बोहाइड्रेट, खनिज लवण, और विटामिन आदि की संतुलित मात्रा की आवश्यकता शरीर को बहुत अधिक  होती है |

     यदि भोजन संतुलित और पौष्टिक नहीं होगा तो इसका प्रभाव बच्चे के शारीरिक और मानसिक विकास को प्रभावित पड़ता है जिससे उसका बाल विकास प्रभावित  होता है | 

       यदि बच्चे को पौष्टिक या संतुलित आहार ना दिया जाए तो उसमें कई प्रकार के शारीरिक और मानसिक रोग शुरू हो जाते हैं जिसके कारण बहुत सी बीमारियों का जन्म होता है  |

जैसे विटामिन ए – की कमी से रतौंधी, वसा की अधिकता से मोटापा, आयरन की कमी से एनीमिया नामक रोग उत्पन्न हो जाते हैं |

        बच्चे के जन्म से लेकर उसकी किशोरावस्था के पूर्ण होने तक शारीरिक और मानसिक विकास को संतुलित बनाए रखने के लिए पौष्टिक आहार की महत्वपूर्ण भूमिका होती है यदि बच्चे का भोजन पौष्टिक और संतुलित नहीं होगा तो उसका शारीरिक और मानसिक विकास अत्याधिक तीव्र गति से प्रभावित होगा |

            इसलिए बच्चों के संतुलित आहार को ध्यान में रखते हुए 15 अगस्त सन 1995 में मिड डे मील योजना का आरंभ किया गया  जिसके अनुसार बच्चे को विद्यालय में संतुलित आहार उपलब्ध कराया जाता है |

🎯 बुद्धि ➖

वैज्ञानिकों ने अपने शोध में यह सिद्ध किया है कि तीव्र बुद्धि वाले बच्चों में मंदबुद्धि वाले बच्चों की तुलना में अधिक  तीव्र गति से विकास होता है |

 टर्मन ने भी अपने प्रयोग में पाया कि बहुत प्रखर बुद्धि  वाले बच्चों में  चलने की प्रक्रिया 13 माह में तथा बोलने की क्षमता 11 माह तक पूरी हो जाती है जबकि मंदबुद्धि वाले बच्चों में चलने की प्रक्रिया 30 माह में तथा बोलने की क्षमता 15 माह तक पूरी होती है  |

🎯 यौन विकास➖

यौन विकास हमारे शारीरिक विकास ही नहीं बल्कि मानसिक विकास पर बहुत प्रभाव डालता है जन्म के समय लड़के, लड़कियों से ज्यादा लंबे होते हैं लेकिन धीरे-धीरे बाद की अवस्थाओं में लड़कियां ,लड़कों से अधिक लंबी हो जाती है और किशोरावस्था के अंत में लड़के ज्यादा लंबे हो जाते हैं  |

       लेकिन लड़कियां लड़कों से 2 वर्ष पहले ही परिपक्व हो जाती हैं तथा उनकी कार्य शक्ति भी बढ़ जाती है  लड़कियों में परिपक्वता लड़कों की अपेक्षा हमेशा 2 वर्ष पहले  हो जाती है |

        बुद्धि परीक्षण में पाया गया कि लड़कियां, लड़कों की तुलना में मानसिक विकास में भी जल्दी परिपक्व हो जाती है |

🎯 अंत: स्त्रावी ग्रंथियाँ ➖

मानव शरीर के विकास में अंत: स्त्रावी ग्रंथियों का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है शरीर की क्रियाशीलता का शारीरिक मानसिक विकास पर का महत्वपूर्ण योगदान रहता है  जिसमें ग्रंथियों का भी योगदान होता है  हमारे शरीर में बहुत सारी ग्रंथियां है जो शरीर के संचालन में और उसका संतुलन बनाए रखने में मदद करती है  | जैसे

 🍀 गोन्ड ग्रंथि  ➖ 

यदि इस ग्रंथि की क्रियाशीलता कम होगी तो किशोरावस्था में विलंब होगा | और यदि  ग्रंथि में क्रियाशील अधिक होगी तो यौन परिपक्वता जल्दी विकसित होगी |

 🍀 पैराथायराइड ग्रंथि  ➖

इस ग्रंथि से अस्थियों के निर्माण में मदद मिलती है  |

🍀 पीनियल ग्रंथि ➖

इस ग्रंथि से शरीर की अति क्रियाशीलता बनी रहती है |

🎯 प्रजाति ➖ 

वैज्ञानिकों के अनुसार व्यक्ति की प्रजाति के अनुसार उसका विकास निर्भर करता है एक प्रजाति के लोग दूसरी प्रजाति के लोगों से शारीरिक गठन ,वर्ण, और आकृति में भिन्न होते हैं |

      जिससे व्यक्ति कख शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक विकास भी प्रभावित होता है  |

       लेकिन हरलाॅक ने इस कथन को असत्य माना है उन्होंने कहा है कि 

“यदि मनुष्य का जन्म दुनिया के किसी भी कोने में होता है तो सभी मनुष्य प्रजाति के लोगों का विकास एक समान रूप से होता है |”

🎯 रोग और चोट➖

रोग और चोट का प्रभाव बच्चे के गर्भ से लेकर उसे जीवन पर्यंत तक के विकास में  पड़ता है गर्भ  या बचपन की गंभीर बीमारी या आघात  का प्रभाव व्यक्ति के मानसिक और शारीरिक विकास में बहुत अधिक प्रभाव डालती है |

🎯 परिवार ➖

बालक के विकास में परिवार की महत्वपूर्ण भूमिका होती है  जिसके अंतर्गत बच्चे का परिवार से परस्पर संबंध, उसके माता-पिता का आपसी  संबंध, परिवार में बालक की स्थिति, परिवार का आकार , और बच्चे की देखभाल आदि सब उसके आंतरिक वातावरण को प्रभावित करते हैं यदि बालक और बालिकाओं में परिवार के द्वारा पक्षपात किया जाता है तो उनमें तनाव की स्थिति उत्पन्न होती है जिससे उनका मानसिक विकास भी प्रभावित होता है | 

अर्थात् हम कह सकते हैं कि जैसा बच्चे के परिवार का वातावरण होगा बच्चे का विकास भी वैसा ही होगा |

🎯 विद्यालय ➖ 

 बच्चा जब बाल्यावस्था की अवस्था में होता है तो वह अपने परिवार से निकलकर विद्यालय में प्रवेश करता है जहां उसका मानसिक सामाजिक और नैतिक विकास अत्यधिक तीव्र गति से होता है |

 जब बच्चा विद्यालय जाना शुरू करता है तब वह बाहरी वातावरण से प्रभावित होता है  विद्यालय में नए दोस्त बनाता है और अपने नए दोस्त और सहपाठियों के साथ अंतः क्रिया के दौरान नई- नई चीजों का अर्जन करता है जो उसके मानसिक विकास को प्रभावित करते हैं  |

विद्यालय में परिपक्वता से शिक्षा दी जाती है जहां पर उसके व्यवहार और ज्ञान आदि का विकास होता है अर्थात यूँ कहे कि उसका चाहुंमुखी  विकास होता है |

 इसलिए माता-पिता को यह ध्यान रखना चाहिए कि उनके बच्चे के विद्यालय में कैसा वातावरण दिया जा रहा है यदि विद्यालय का वातावरण बच्चे के अनुरूप नहीं होगा या उसकी सोच को प्राथमिकता नहीं दी जाएगी जिससे बच्चे का विकास संभव नहीं है |

नोट्स बाय➖ रश्मि सावले

🌼🌺🌸🍀🌼🌺🌻🍀🌸🌻🍀🌼🌺🌻🌼🌺🌸🍀

💫🌻 बाल विकास को प्रभावित करने वाले कारक💫🌻 (Factor affecting of child development)

🌼 विकास क्रम को प्रभावित करने वाले अनेक तत्व होते हैं इन तत्वों द्वारा विकास को गति प्राप्त होती है।

🌼 यह तत्व विकास को नियंत्रित भी रखते हैं विकास को प्रभावित करने वाले अनेक कारक  निम्नलिखित  है।

1-💫पोषण (Nutrition)➖

किसी भी बालक के विकास में पोषण महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। गर्भ कालीनअवस्था से लेकर जीवन पर्यंत तक प्राणी को जीवित तथा स्वस्थ बनाए रखने के लिए उत्तम पोषण की आवश्यकता होती है।

🌼 क्योंकि इससे बालक का शारीरिक और मानसिक विकास चरम पर होता है।

🌼बालक के विकास के लिए उचित मात्रा में प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेट ,खनिज लवण आदि की आवश्यकता पड़ती है यदि हमारे खान -पान में उपयुक्त पोषक तत्वों की कमी होगी तो वृद्धि का विकास इससे प्रभावित होगा।

🌼 बच्चों के संतुलित आहार को ध्यान में रखते हुए 15 अगस्त 1995 से मिड डे मील (मध्यान भोजन) योजना का आरंभ किया गया था।

💫2-बुद्धि (Intelligence)➖

🌼 बच्चे के विकास में बुद्धि का महत्वपूर्ण स्थान है। किसी भी बालक की बुद्धि या बौद्धिक क्षमताएं उसके विकास के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित करती है।

🌼परीक्षणों के पश्चात यह निष्कर्ष निकाला गया है कि तीव्र बुद्धि बालकों का विकास मंदबुद्धि बालकों की तुलना में शीघ्रता से होता है क्योंकि उसमें नहीं बातों को सीखने की तत्परता यह परिपक्वता पाई जाती है जबकि मंदबुद्धि बालकों में इसका अभाव रहता है।

💫3-यौन विकास  (sex development)➖ यौन बच्चों के शारीरिक व मानसिक विकास को बहुत प्रभावित करता है।

🌼 जन्म के कुछ दिनों तक यह विकास लड़कों में लड़कियों की अपेक्षा अधिक होता है।

🌼 यौन सिर्फ शारीरिक विकास ही नहीं बल्कि मानसिक विकास को भी प्रभावित करता है।

💫 4-अंतः स्रावी ग्रंथियां (Endocrine glands)➖

🌼हमारे शरीर में बहुत सारी अंतः स्रावी ग्रंथियां पाई जाती हैं यह स्त्राव हमारे शारीरिक एवं मानसिक विकास को प्रभावित करता है।

🌼 जैसे थायराइड ग्रंथि से निकलने वाला स्त्राव थायराॅक्सिन शारीरिक व मानसिक विकास के लिए आवश्यक है।इसका स्त्राव कम होने पर बालक मूल बुद्धि का हो जाता है जब किस का स्त्राव अधिक होने पर  थायराॅक्सिन अधिक मात्रा में खून में मिलता है जिससे व्यक्ति अधिक जोशीला और सक्रिय नजर आता है।

🌼इस प्रकार अनेक हार्मोन्स भी बालक के शारीरिक एवं मानसिक विकास को प्रभावित करते हैं।

💫5-प्रजाति (Race)➖वैज्ञानिकों के अनुसार प्रजातियां भिन्नता से विकास प्रभावित होता है वैज्ञानिकों का मानना है कि एक प्रजाति के लोग दूसरे प्रजाति के लोगों को ना केवल शारीरिक गठन वर्ण और आकृति से भिन्न होते हैं अब तो मानसिक योग्यता और बुद्धि में पृथक् होते हैं।

💫6 – रोग और चोट (Diseases and Injuries)

🌼 गर्भ कालीन अवस्था से लेकर बात की अवस्था की बीमारियों तथा आघातों का बालक के विकास पर प्रभाव पड़ता है।

🌼बचपन की गंभीर बीमारियों और मानसिक आघातों का दुष्प्रभाव बालक के शारीरिक एवं मानसिक विकास पर पड़ता है।

🌼इसके विपरीत जो बालक स्वस्थ रहता है उसका विकास सामान ढंग  में होता है और वह सही समय पर शारीरिक व मानसिक परिपक्वता प्राप्त कर लेता है।

💫 7-परिवार (family)➖पारिवारिक वातावरण कई रूपों से बालक के विकास को प्रभावित करता है जैसे माता-पिता के आपसी संबंध, बालक अभिभावक, संबंध परिवार में बालकों की स्थिति परिवार का आकार बाल- पोषण की विधियां आदि।

💫8-विद्यालय (school)➖

🌼प्राय: 5 वर्ष की आयु से सभी बालक स्कूल जाते हैं विद्यालय के द्वारा बालक को विभिन्न क्षेत्रों में सीखने की पर्याप्त व्यवस्था होती है विकास परिपक्वता के साथ-साथ शिक्षण का भी परिणाम है।

🌼 अतः यदि विद्यालय का वातावरण अच्छा है तो बालक को पर्याप्त शिक्षण दिया जाता है शिक्षक अपने व्यवहार और ज्ञान से बालक का चतुर्मुखी विकास करता है तो बालक को का विकास सही ढंग से होता है।

✍🏻📚📚 Notes by….. Sakshi Sharma📚📚✍🏻

🌼🌼बाल विकास को प्रभावित करने वाले कारक🌼🌼

🌼🌼बच्चे के शारीरिक,  मानसिक, सामाजिक, भाषाई, आदि विकास को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करने वाले कारकों में कई प्रकार के कारक आते हैं, जिनसे बच्चे का विकास प्रभावित होता है। 

 बच्चे के विकास को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित है-

🌼1. पोषण :-

गर्भावस्था से लेकर जीवन पर्यंत व्यक्ति को संतुलित आहार की आवश्यकता होती है। 

 लेकिन गर्भावस्था से किशोरावस्था के अंत तक संतुलित आहार की आवश्यकता बच्चे के विकास के लिए अत्यंत आवश्यक मानी जाती है। क्योंकि इस समय बच्चे का शारीरिक व मानसिक विकास चरम पर होता है। 

 🌼संतुलित आहार से तात्पर्य है कि उम्र के अनुसार सही मात्रा में उचित खनिज पोषक तत्वों से भरपूर मात्रा मे आहार के रूप मे लेना ।।

🌼 संतुलित आहार में बच्चे को प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेट, खनिज लवण, विटामिन आदि की उचित मात्रा  में आवश्यकता होती है जो बच्चे के शारीरिक और मानसिक विकास के लिए अत्यंत आवश्यक होता है 

🌼जन्म से किशोरावस्था तक का समय बच्चे के शारीरिक व मानसिक विकास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है जिसमें संतुलित आहार की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। 

🌼 बच्चे को संतुलित आहार ना दिया जाए  तो उसका मानसिक व शारीरिक विकास अवरुद्ध हो जाता है जिसके कारण कई प्रकार की बीमारियों का जन्म होता है। 

 जैसे – 

🌼आयरन की कमी से- एनीमिया नामक रोग। 

🌼वसा की अधिकता से -मोटापा आदि। 

🌼 बच्चों के संतुलित आहार को ध्यान में रखते हुए 15 अगस्त 1995 से मिड डे मील ( मध्यान भोजन) योजना का आरंभ किया गया है। 

🌼2. बुद्धि :-

बच्चे के विकास में बुद्धि का भी महत्वपूर्ण स्थान है।

तीव्र बुद्धि वाले बच्चे का विकास मंदबुद्धि वाले बच्चे की अपेक्षा हर क्षेत्र में अधिक होता है क्योंकि अधिक बुद्धि वाला बच्चा अपनी बुद्धि, शारीरिक व मानसिक विकास के लिए उपयोग करने में सक्षम होता है जबकि मंदबुद्धि बालक बुद्धि की कमी के कारण पीछे रह जाता है। 

🌼🌼 टर्मन के अनुसार: – ” प्रखर बुद्धि वाले बालक में चलने की प्रक्रिया 13 महीने में होती है ,और बोलने की क्षमता 11 माह में होती है, वही दुर्बल बुद्धि वाले बालक में चलने की प्रक्रिया 30 वे माह में होती है और बोलने की क्षमता 15 वे माह में होती है। “

🌼3. यौन विकास :- 

यौन बच्चे के शारीरिक व मानसिक विकास को बहुत प्रभावित करता है।

🌼जन्म के कुछ दिनों तक यह विकास लड़कों में लड़कियों की अपेक्षा अधिक होता है। 

 🌼10 -11 वर्ष में  लड़कियों की लंबाई, लड़कों की अपेक्षा अधिक होती है। 

🌼शारीरिक परिपक्वता भी लड़कियों में लड़कों की अपेक्षा 1- 2 वर्ष पूर्व ही आ जाती है। 

🌼 काम शक्ति भी लड़कियों में लड़कों की अपेक्षा 1- 2 वर्ष पूर्व आ जाती है। 

 अतः यौन सिर्फ शारीरिक विकास को ही नहीं बल्कि मानसिक विकास को भी बहुत प्रभावित करता है। 

🌼4. अंतः स्त्रावी ग्रंथियां :-

मानव शरीर में अनेक ग्रंथियां होती है जिनके सुचारू रूप से कार्य करने पर मानव का शारीरिक व मानसिक विकास भी सही ढंग से होता है। और अगर यह ग्रंथियां अतिसक्रिया या कम क्रियाशील हो तो मानव विकास में अधिकता या कमी हो जाती है। 

उदाहरण के लिए गोनड ग्रंथि की कम क्रियाशीलता से किशोरावस्था आने में विलंब होता है और अधिक क्रियाशीलता से यौन परिपक्वता जल्दी आती है। 

🌼 पैराथायराइड ग्रंथि – यह ग्रंथि अस्थियों के निर्माण में मदद करती हैं। 

 🌼पीनियल ग्रंथि – इस ग्रंथि की अति क्रियाशीलता से सामान्य विकास में पठार आ जाता है ऐसी स्थिति में बचपन के लक्षण बहुत दिनों तक बने रहते हैं।

अर्थात् ग्रंथियों स्त्रावन  का मानव विकास पर सीधा असर पड़ता है। 

🌼5. प्रजाति :-

एक प्रजाति के लोग दूसरी प्रजाति के लोगों से शारीरिक गठन, वर्ण और आकृति में भिन्न होते हैं।

शारीरिक ही नहीं इसमें मानसिक विकास भी प्रभावित होता है

लेकिन हरलॉक महोदय ने इस मत को नहीं माना है। 

🌼6. रोग और चोट :-

गर्भ और बचपन की गंभीर बीमारी या आघात, मानसिक तथा शारीरिक विकास को प्रभावित करता है। 

🌼7. परिवार :-

माता-पिता का आपसी संबंध, परिवार में बालक की स्थिति, परिवार का आकार, बच्चों के देखभाल, परिवार का आंतरिक वातावरण, बालक-बालिका में अंतर, परिवार का तनाव, आदि सारी चीजें बच्चे के विकास  को प्रभावित करती है। 

 क्योंकि बच्चे के मस्तिष्क मे इस समय ग्रहण करने की  क्षमता उच्च  होती है और बच्चा अनुकरण भी करता है। 

🌼8. विद्यालय :-

 बच्चा परिवार से निकलकर जब विद्यालय पहुंचता है तब उसका सामाजिक और नैतिक विकास तीव्र गति से होता है। 

विद्यालय में वह अनेक बच्चों से मिलता है जो विभिन्न व्यक्तित वाले होते हैं और साथी-सहपाठी से अंत: क्रिया के दौरान अनेक नई चीजों को जानता व समझता  है जो उसके विकास को बहुत प्रभावित करता हैं।

विद्यालय में बच्चे को परिपक्वता के साथ शिक्षा मिलती है। 

बच्चा विद्यालय में व्यवहार व ज्ञान सीखता है वहां उसका चहुमुखी विकास होता है। 

By manjari soni

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25. CDP – Growth and Development PART- 6

🔆 विकास के सिद्धांत 🔆

❇️6  समान प्रतिमान का सिद्धांत ➖

🔹हरलॉक के अनुसार – प्रत्येक जाति चाहे वह पशु हो या मनुष्य अपनी जाति के अनुरूप ही विकास के प्रतिमान का अनुसरण करते हैं।

▪️मनुष्य का बच्चा दुनिया के किसी भी कोने में जन्म ले वह जन्म से लेकर सिर्फ रोना जानता है वही गाय का बच्चा जन्म लेकर खड़ा हो जाता है।

❇️7 एकीकरण का सिद्धांत ➖

▪️इस सिद्धांत के अनुसार बालक पहले संपूर्ण अंगों को इसके उपरांत अंगों के आंशिक भाग को चलाना सीखता है।

▪️जैसे बालक शुरुआत में प्रत्येक वस्तु को एक ही तरह से उठाता है परंतु ज्ञान होने पर वह  धीरे धीरे अपनी उंगलियों और हाथों का प्रयोग करके वस्तु को आसानी से उठाता है। अतः वह एकीकरण द्वारा सीखता है।

अर्थात बालक पहले पूरे हाथ को फिर उंगलियों को फिर हाथ एवं उंगुलियों को एक साथ चलाना सीखता है।

❇️ 8 विकास की निश्चित दिशा का सिद्धांत ➖

 ▪️विकास की दिशा का सिद्धांत जिसमें बालक के विकास की प्रक्रिया सिर से पैर की ओर विकास क्रम के सिद्धांत का पालन करती है। इसमें विकास सिर से पैर की होता है। मतलब बच्चा के सिर का विकास पहले होता है और पैर बाद में विकसित होते हैं। जैसे जन्म के बाद बच्चा पहले सिर हिलाने डुलाने की कोशिश करता है, फिर थोड़े दिनों में वह बैठने की कोशिश करता है और बाद में पैरों का इस्तेमाल करके चलने और खड़े होने की कोशिश करता है।

▪️विकास की दिशा का सिद्धांत दो प्रकार से देखा जा सकता है।

❄️1 – सिर से पैर की ओर (Cephalo Codal )➖

विकास सिर से पैर की ओर (मस्तेधोमुखी) होता है। अर्थात पहले बच्चे का सिर बनता है फिर अन्य अंग और फिर पैर। 

❄️2- शरीर के मध्य से बाहर की ओर (Proximodistal) ➖

यह विकास केंद्र से परिधि की ओर होता है या यह 

विकास शरीर के मध्य से बाहर की ओर भी होता है। अर्थात पहले स्पाइनल कॉर्ड बनता है फिर हृदय इस क्रम में विकास होता है। 

▪️

“सफेलोकॉडल :- यह शरीर के विकास को दर्शाता है।”

“प्रॉक्सिमोडिस्टल :- यह शरीर के द्वारा होने वाली प्रतिक्रिया को दर्शाता है।

❇️ 9 व्यक्ति विभिन्नता का सिद्धांत ➖

▪️एक ही माता-पिता की दो संताने एक जैसी नहीं हो सकती और अलग-अलग वातावरण की वजह से भी यह विभिन्नता बढ़ती है।

▪️एक माता पिता के बच्चे समान गुणों के जिनके नहीं हो सकते है उनमें मानसिक , संवेगात्मक ,भाषाई इत्यादि अनेक प्रकार की विभिन्नता होती हैं।

🔹स्किनर के अनुसार – विकास के स्वरूप में व्यापक व्यक्तिक विभिन्नता होती है।

▪️प्रकृति का नियम है कि संसार में कोई भी दो व्यक्ति पूर्णता एक जैसे नहीं हो सकते यहां तक कि जुड़वा बच्चों में भी कई समानताएं के बावजूद कई अन्य प्रकार की भिन्नताएँ दिखाई पड़ती हैं।

▪️जुड़वा बच्चे शक्ल-सूरत से तो हुबहू एक जैसे दिख सकते हैं किंतु उनके स्वभाव, बुद्धि, शारीरिक,मानसिक, क्षमता आदि में अंतर होता है।

▪️भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में इस प्रकार की विभिन्नता को ही व्यक्तिगत भिन्नता कहा जाता है।

❇️ 10 वंशानुक्रम और पर्यावरण की अंतः क्रिया का सिद्धांत ➖

▪️बालक का विकास वंशानुक्रम और पर्यावरण की अंतः क्रिया का परिणाम है।माता-पिता से मिले गुणों का विकास बच्चों की प्राकृतिक सामाजिक परिवेश में रहकर होता है।

🔹स्किनर के अनुसार – वंशानुक्रम उन सीमाओं को निश्चित करता है जिनके आगे बालक का विकास नहीं किया जा सकता है।

▪️जैसे  यदि बालक में बौद्धिक शक्ति नहीं है तो उत्तम से उत्तम वातावरण भी उसका मानसिक विकास नहीं कर सकता है ।

इसी प्रकार बौद्धिक शक्ति वाला बालक प्रतिकूल वातावरण में अपना मानसिक विकास नहीं कर सकता है।

❇️ 11 पुनर्बलन का सिद्धांत ➖

▪️ऐसी कोई क्रिया जो अनुक्रिया की संख्या में वृद्धि करती है पुनर्बलन (reinforcement) कहलाती है।  यह नकारात्मक या सकारात्मक हो सकता है। .

✨इस सिद्धांत की नीव – जॉन डोलार्ड नील मिलर द्वारा रखी गई।

✨पुनर्बलन शब्द का प्रयोग – थोर्नडाइक द्वारा किया गया।

✨इस सिद्धांत का संगठन  सी. एल.हल द्वारा किया गया।

▪️इस सिद्धांत की चार महत्वपूर्ण अवयव है

1 अभिप्रेरणा

2 उद्दीपक

3 व्यवहार

4 पुरस्कार 

❇️12 सामाजिक अधिगम का सिद्धांत ➖

▪️इस सिद्धांत को अल्बर्ट बंडूरा एवं उनके सहयोगी वॉल्टर्स द्वारा दिया गया।

▪️सिद्धांत के अनुसार बच्चों को एक फिल्म दिखाई गई जिसमें एक वयस्क आदमी के व्यवहार को प्रदर्शित किया गया फिल्म का प्रसारण 3 भाग में दिखाया गया जिसमें प्रत्येक बच्चे को केवल एक ही प्रकार की फिल्म दिखाई गई।

✨जिसमें फिल्म के पहले भाग मेंव्यक्ति आक्रमक व्यवहार प्रदर्शित करता था और उसे ऐसा व्यवहार करने पर दंड दिया जाता था।

✨फिल्म के दूसरे भाग में व्यक्ति आक्रमक व्यवहार करता था उसके इस व्यवहार के लिए उसे पुरस्कृत किया गया।

✨फिल्म के तीसरे भाग में व्यक्ति द्वारा आक्रमक व्यवहार किया गया उसके इस व्यवहार के लिए उसे ना तो कोई दंड दिया गया और ना ही कोई पुरस्कार।

▪️संपूर्ण फिल्म को दिखाने के बाद बच्चे को उसी परिस्थिति में रखा गया जो परिस्थिति फिल्म के भागों में थी।

▪️और अब बच्चों के व्यवहार का निरीक्षण किया गया तो यह देखा गया कि बच्चे ने उस व्यवहार व दंड से संबंधित क्रियाएं की।

▪️सामाजिक अधिगम सिद्धांत में व्यवहार को प्रभावित करने वाले कारक में सामान्यता वातावरण संबंधी कारक को महत्व दिया जाता है जबकि वंशानुक्रम कारक को ना के बराबर महत्व दिया जाता है क्योंकि जिस प्रकार का वातावरण होता है हम अधिकतर उसी प्रकार का व्यवहार करते हैं।

अतः इस सिद्धांत के अनुसार व्यवहार को प्रभावित करने वाले कारक में वातावरण का विशेष और मुख्य योगदान है।

✍️

Notes By-‘Vaishali Mishra’

*🌸विकास के सिद्धांत🌸*

*(Principle of development)*

👉कल के नोट्स में पांच सिद्धांत कंप्लीट हो चुके थे-

१. सतत् या निरंतरता का सिद्धांत

२. विकास क्रम का सिद्धांत

३. विकास की विभिन्न गति का सिद्धांत

४. परस्पर संबंध का सिद्धांत

५. सामान्य से विशिष्ट अनुक्रिया का सिद्धांत। 

*६. समान प्रतिमान का सिद्धांत -*

 हरलॉक के अनुसार – “प्रत्येक जाति, चाहे वह पशु जाति हो या मनुष्य जाति हो अपनी जाति के अनुरूप ही विकास के प्रतिमान का अनुसरण करती है”। 

अर्थात मनुष्य का बच्चा दुनिया के किसी भी कोने में जन्म ले वह जन्म लेकर सिर्फ रोना ही जानता है।

 वही गाय का बच्चा जन्म लेकर खड़ा हो जाता है। 

*७. एकीकरण का सिद्धांत -*

इस सिद्धांत के अनुसार बालक पहले संपूर्ण अंग को उसके उपरांत अंग के आंशिक भाग को चलाना सीखता है। 

जैसे- बालक शुरुआत में प्रत्येक वस्तु को एक ही तरह से उठाता है परंतु ज्ञान होने पर धीरे-धीरे उंगलियों और हाथों का प्रयोग करके आसानी से उठाता है। 

अतः वह एकीकरण द्वारा सीखता है। 

*८.विकास के निश्चित दिशा का सिद्धांत-*

इस सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास निश्चित दिशा में होता है बच्चा पहले अपने सिर को उठाना सीखता है उसके उपरांत अन्य भागों पर नियंत्रण करना सीखता है मनुष्य का विकास हमेशा सिर से पैर की ओर होता है। 

*१ सफेलोकॉडल  (cephalocaudal)* –  इस सिद्धांत के अनुसार बच्चे का विकास सिर से पैर की ओर होता है। 

*२.प्रॉक्सिमॉडिस्टल ( proximodistal)* – इस सिद्धांत के अनुसार बच्चे का विकास केंद्र से परिधि या धड़ से अन्य अंगों की ओर होता है। 

*९. वैयक्तिक विभिन्नता का सिद्धांत -* 

इस सिद्धांत के अनुसार एक ही माता पिता की दो संतान भी एक जैसी नहीं होती और अलग-अलग वातावरण के वजह से भी विभिन्नता बढ़ती है। 

अर्थात एक माता पिता के बच्चे में समान गुण के जीन नहीं होते उनमें मानसिक, संवेगात्मक, भाषाई इत्यादि अनेक प्रकार की विभिन्नता होती है। 

*१०. वंशानुक्रम और वातावरण की अंतः क्रिया का सिद्धांत*

 इस सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास वंशानुक्रम और वातावरण की अंतः क्रिया का प्रभाव है। 

 *🌸स्किनर के अनुसार* – ” वंशानुक्रम उन सीमाओं को निश्चित करता है जिनके आगे बालक का विकास नहीं किया जा सकता”। 

*११. पुनर्बलन का सिद्धांत ( reinforcement theory)*  –

पुनर्बलन सिद्धांत के प्रतिपादक-  *सी. एल. हल* 

 किस सिद्धांत की नींव –   जॉन डोलॉर्ड  व नील मिलर ने रखी। 

 इस सिद्धांत पर प्रयोग- थार्नडाइक व स्किनर ने किया। 

इस सिद्धांत के चार महत्वपूर्ण अवयव है-

१. अभिप्रेरणा

२. उद्दीपक

३  व्यवहार

४  पुरस्कार

*१२. सामाजिक अधिगम सिद्धांत*-

प्रतिपादक – *अल्बर्ट बंडूरा* 

सहयोगी – वॉल्टर्स

इस सिद्धांत के अनुसार व्यवहार को प्रभावित करने वाले कारक में वातावरण का विशेष योगदान होता है। 

सामाजिक अधिगम के प्रति अल्बर्ट *बंडूरा की थ्योरी* इस प्रकार है-

अल्बर्ट बंडूरा ने प्रयोग के लिए बच्चों को एक फिल्म दिखाई। जिसमें एक व्यस्क व्यक्ति के व्यवहार को प्रदर्शित किया गया था।

अल्बर्ट बंडूरा ने फिल्म को तीन भागों में बांटा-  

१. अभिनेता के आक्रामक व्यवहार को दर्शाया और उसे दंड दिया जाता था.

२. अभिनेता के आक्रामक व्यवहार पर उसे पुरस्कार दिया जाता था। 

 ३. अभिनेता के आक्रामक व्यवहार पर ना तो उसे दंड और ना पुरस्कार दिया जाता था। 

फिल्म दिखाने के पश्चात बच्चों को उन्हीं परिस्थितियों में रखा गया जिन परिस्थितियों में बच्चे को फिल्म दिखाई गई थी उसी के अनुसार बच्चों की क्रिया भी थी। अर्थात बच्चे अनुकरण से सीख रहे थे जो वातावरण कारक को महत्व देता है। 

 इस प्रयोग से यह सिद्ध होता है कि मानव के विकास में व्यक्ति जिस माहौल में रहता है उन्ही तौर-तरीकों को सीखता है या व्यक्ति पर पर्यावरण का सीधा असर होता है। 

 Notes by Shivee Kumari

🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸

🌼🌼🌼विकास के सिद्धांत🌼🌼🌼

(Principle of development)

🌼🌼6. समान प्रतिमान का सिद्धांत –

 हरलॉक के अनुसार : – “प्रत्येक जाति, चाहे वह पशु जाति हो या मनुष्य जाति हो अपनी जाति के अनुरूप ही विकास के प्रतिमान का अनुसरण करती है”। 

अर्थात मनुष्य का बच्चा दुनिया के किसी भी जगह  जन्म ले वह जन्म लेकर सिर्फ रोना ही जानता है।

 वही गाय का बच्चा जन्म लेकर खड़ा हो जाता है। 

🌼🌼7.एकीकरण का सिद्धांत :-

इस सिद्धांत के अनुसार बालक पहले संपूर्ण अंग को उसके उपरांत अंग के आंशिक भाग को चलाना सीखता है। 

जैसे- बालक शुरुआत में प्रत्येक वस्तु को एक ही तरह से उठाता है परंतु ज्ञान होने पर धीरे-धीरे उंगलियों और हाथों का प्रयोग करके आसानी से उठाता है। 

अतः वह एकीकरण द्वारा सीखता है। 

🌼🌼8.विकास के निश्चित दिशा का सिद्धांत:-

इस सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास निश्चित दिशा में होता है बच्चा पहले अपने सिर को उठाना सीखता है उसके उपरांत अन्य भागों पर नियंत्रण करना सीखता है मनुष्य का विकास हमेशा सिर से पैर की ओर होता है। 

🌼A.सफेलोकॉडल  (cephalocaudal ):-  इस सिद्धांत के अनुसार बच्चे का विकास सिर से पैर की ओर होता है। 

🌼B.प्रॉक्सिमॉडिस्टल ( proximodistal ) – इस सिद्धांत के अनुसार बच्चे का विकास केंद्र से परिधि या धड़ से अन्य अंगों की ओर होता है। 

🌼🌼9. वैयक्तिक विभिन्नता का सिद्धांत :-

इस सिद्धांत के अनुसार एक ही माता पिता की दो संतान भी एक जैसी नहीं होती और अलग-अलग वातावरण के वजह से भी विभिन्नता बढ़ती है। 

अर्थात एक माता पिता के बच्चे में समान गुण के जीन नहीं होते उनमें मानसिक, संवेगात्मक, भाषाई इत्यादि अनेक प्रकार की विभिन्नता होती है। 

🌼🌼10. वंशानुक्रम और वातावरण की अंतः क्रिया का सिद्धांत:-

 इस सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास वंशानुक्रम और वातावरण की अंतः क्रिया का प्रभाव है। 

 🌼🌼स्किनर के अनुसार : – ” वंशानुक्रम उन सीमाओं को निश्चित करता है जिनके आगे बालक का विकास नहीं किया जा सकता”। 

🌼🌼11. पुनर्बलन का सिद्धांत ( reinforcement theory): –

पुनर्बलन सिद्धांत के प्रतिपादक-  “सी. एल. हल”

 इस सिद्धांत की नींव –   जॉन डोलॉर्ड  व नील मिलर ने रखी। 

 इस सिद्धांत पर प्रयोग- थार्नडाइक व स्किनर ने किया। 

इस सिद्धांत के चार महत्वपूर्ण अवयव है :-

🌼1. अभिप्रेरणा

🌼2. उद्दीपक

🌼3.व्यवहार

🌼4.पुरस्कार

🌼🌼12. सामाजिक अधिगम सिद्धांत:-

🌼प्रतिपादक – अल्बर्ट बंडूरा

🌼सहयोगी – वॉल्टर्स

🌼🌼इस सिद्धांत के अनुसार व्यवहार को प्रभावित करने वाले कारक में वातावरण का विशेष योगदान होता है। 

🌼🌼सामाजिक अधिगम के प्रति “अल्बर्ट बंडूरा की थ्योरी” इस प्रकार है-

अल्बर्ट बंडूरा ने प्रयोग के लिए बच्चों को एक फिल्म दिखाई। जिसमें एक व्यस्क व्यक्ति के व्यवहार को प्रदर्शित किया गया था।

🌼🌼अल्बर्ट बंडूरा ने फिल्म को तीन भागों में बांटा-  

🌼1. अभिनेता के आक्रामक व्यवहार को दर्शाया और उसे दंड दिया जाता था.

🌼2. अभिनेता के आक्रामक व्यवहार पर उसे पुरस्कार दिया जाता था। 

 🌼4. अभिनेता के आक्रामक व्यवहार पर ना तो उसे दंड और ना पुरस्कार दिया जाता था। 

🌼🌼फिल्म दिखाने के पश्चात बच्चों को उन्हीं परिस्थितियों में रखा गया जिन परिस्थितियों में बच्चे को फिल्म दिखाई गई थी उसी के अनुसार बच्चों की क्रिया भी थी। अर्थात बच्चे अनुकरण से सीख रहे थे जो वातावरण कारक को महत्व देता है। 

🌼🌼 इस प्रयोग से यह सिद्ध होता है कि मानव के विकास में व्यक्ति जिस माहौल में रहता है उन्ही तौर-तरीकों को सीखता है या व्यक्ति पर पर्यावरण का सीधा असर होता है।

🌼🌼🌼By manjari soni🌼🌼🌼

🌻💫 विकास के सिद्धांत💫🌻

🌼 समान प्रतिमान का सिद्धांत (principle of of Uniform pattern)➖

🌸🤵🏻हरलॉक के अनुसार➖ प्रत्येक जाति चाहे वह पशु जाति का हो या मनुष्य जाति का हो अपनी जाति के अनुरूप ही विकास के प्रतिमान का अनुसरण करता है।

🌸अर्थात मनुष्य का बच्चा दुनिया में किसी कोने में जन्म ले वह जन्म लेकर सिर्फ रोना जानता है वही गाय का बच्चा जन्म लेकर खड़ा हो जाता है।

🌼 एकीकरण का सिद्धांत (principle of Integration)➖इस सिद्धांत के अनुसार बालक पहले संपूर्ण अंग को और फिर उसके उपरांत अंगों के भागों को चलाना सीखता है।

🌸 जैसे–वह पहले पूरे हाथ को, फिर उंगलियों को और फिर हाथ एवं उंगलियों को एक साथ चलाना सीखता है।

🌼 विकास की निश्चित दिशा का सिद्धांत ➖बालक का विकास निश्चित दिशा में होता है प्रारंभ में बालक पहले अपने से उठाना सीखता है उसके उपरांत अन्य भागों को नियंत्रण करना सीखता है मनुष्य का विकास हमेशा सिर से पैर की ओर होता है।

🌻A)सफेलो काॅडल➖ इस सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास सिर से पैर की ओर होता है।

🌻B)प्राॅक्सिमाॅडिल्टल➖ इस सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास केंद्र से परिधि की ओर होता है।

🌼 वैयक्तिक भिन्नता का सिद्धांत (principle of Individual Differnces)➖ इस सिद्धांत के अनुसार एक ही माता-पिता के दो संतान भी एक जैसे नहीं होते हैं।

🌸 अर्थात एक माता पिता के बच्चे में समान गुण के जीन नहीं होते हैं, मानसिक, संवेगात्मक, भाषाई इत्यादि अनेक प्रकार की विभिन्नता होती हैं।

🌼 वंशानुक्रम और पर्यावरण की अत:क्रिया का सिद्धांत (principle of Interaction of Heredity and Environment)➖ बालक का विकास वंशानुक्रम और वातावरण की अंतः क्रिया का प्रभाव है।

🌸माता पिता के मिले गुणों का विकास बच्चों के प्राकृतिक सामाजिक परिवेश में रहकर होता है।

🤵🏻‍♂स्किनर के अनुसार➖वंशानुक्रम उन सीमाओं को निश्चित करता है जिसके आगे बालक का विकास नहीं किया जा सकता।

🌼 पुनर्बलन का सिद्धांत➖

इस सिद्धांत के प्रतिपादक जाॅन डॉलार्ड और मिलर है इनके अनुसार बच्चे का जैसे जैसे विकास होता है अधिगमकर्ता जाता है ।

🌸 इस सिद्धांत का प्रयोग-गार्डन स्किनर ने किया।

इस सिद्धांत के चार महत्वपूर्ण अवयव है।

🌼1-अभिप्रेरणा

🌼2-उद्दीपक

🌼3-व्यवहार

🌼4-पुरस्कार

🌼सामाजिक अधिगम सिद्धांत➖

प्रतिपादक -अल्बर्ट बंडूरा

सहयोगी-वाल्टर्स

🌻🌻इस सिद्धांत के अनुसार व्यवहार को प्रभावित करने वाले कारकों में वातावरण का विशेष योगदान होता है।

🌻 सामाजिक अधिगम के प्रति “अल्बर्ट बंडूरा की थ्योरी” इस प्रकार है।

अल्बर्ट बंडूरा ने प्रयोग के लिए बच्चों को एक फिल्म दिखाइए जिसमें एक वयस्क व्यक्ति के व्यवहार को प्रदर्शित किया गया था।

🌻🌻 अल्बर्ट बंडूरा ने फिल्म को तीन भागों में बांटा।

🌼1-अभिनेता के आक्रामक व्यवहार को दर्शाया और उसे दंड दिया जाता था।

🌼2-अभिनेता के आक्रामक व्यवहार पर उसे पुरस्कार दिया जाता था।

🌼3-अभिनेता के आक्रामक व्यवहार को ना तो उसे दंड और ना ही पुरस्कार दिया जाता था।

🌻🌻 फिल्म दिखाने के पश्चात बच्चों को उन्हीं परिस्थितियों में रखा गया जिन परिस्थितियों में बच्चों को फिल्म दिखाई गई थी उसी के अनुसार बच्चों की क्रिया भी थी अर्थात बच्चें अनुकरण से सीख रहे थे जो वातावरण कारक को महत्व देते हैं।

🌻

इस प्रयोग से यह सिद्ध होता है कि मानव के विकास में व्यक्ति जिस माहौल में रहता है उन्हीं तौर तरीकों को सीखता है यह व्यक्ति पर पर्यावरण का सीधा प्रभाव होता है।

✍🏻📚📚 Notes by….

Sakshi Sharma✍🏻📚📚

?🏵विकास के सिद्धांत?

(Principle of development)🏵

विकास के 5 सिद्धांत आने वाले नोट्स में दिए गए हैं और यह हैं

🎉6. समान प्रतिमान का सिद्धांत –

 🖊हरलॉक के अनुसार : – “प्रत्येक जाति, चाहे वह पशु जाति हो या मनुष्य जाति हो अपनी जाति के अनुरूप ही विकास के प्रतिमान का अनुसरण करती है”। 

अर्थात मनुष्य का बच्चा दुनिया के किसी भी जगह  जन्म ले वह जन्म लेकर सिर्फ रोना ही जानता है।

 वही गाय का बच्चा जन्म लेकर खड़ा हो जाता है। सभी गायों का बच्चा एक जैसा ही विकास करेगा ना कि अलग-अलग जन्मदिन के बाद वह खड़ा होगा

🎉7.एकीकरण का सिद्धांत :-

इस सिद्धांत के अनुसार बालक पहले संपूर्ण अंग को उसके उपरांत अंग के आंशिक भाग को चलाना सीखता है। 

जैसे- बालक शुरुआत में प्रत्येक वस्तु को एक ही तरह से उठाता है परंतु ज्ञान होने पर धीरे-धीरे उंगलियों और हाथों का प्रयोग करके आसानी से उठाता है। 

अतः वह एकीकरण द्वारा सीखता है। इसमें बच्चा जब से इस व्यवस्था में होता है तो वह कोई भी चीज को पकड़ना चाहता है तो वह पूरी तरीके से नहीं पकड़ पाता है और जैसे जैसे वह बड़ा होता जाता है और हाथ और उंगली की सहायता से आसानी से पकड़ लेता है

🎉8.विकास के निश्चित दिशा का सिद्धांत:-

इस सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास निश्चित दिशा में होता है बच्चा पहले अपने सिर को उठाना सीखता है उसके उपरांत अन्य भागों पर नियंत्रण करना सीखता है मनुष्य का विकास हमेशा सिर से पैर की ओर होता है। मनुष्य का विकास पहले सिरका होता है बाद में हाथ और पैर का होता है

✴️A.सफेलोकॉडल  (cephalocaudal ):-  इस सिद्धांत के अनुसार बच्चे का विकास सिर से पैर की ओर होता है। 

✴️B.प्रॉक्सिमॉडिस्टल ( proximodistal ) – इस सिद्धांत के अनुसार बच्चे का विकास केंद्र से परिधि या धड़ से अन्य अंगों की ओर होता है। पहले उसका ह्रदय बनता है और बाद में  बाहरी विकास होता है

🎉9. वैयक्तिक विभिन्नता का सिद्धांत :-

इस सिद्धांत के अनुसार एक ही माता पिता की दो संतान भी एक जैसी नहीं होती और अलग-अलग वातावरण के वजह से भी विभिन्नता बढ़ती है। 

अर्थात एक माता पिता के बच्चे में समान गुण के जीन नहीं होते उनमें मानसिक, संवेगात्मक, भाषाई इत्यादि अनेक प्रकार की विभिन्नता होती है। 

🎉10. वंशानुक्रम और वातावरण की अंतः क्रिया का सिद्धांत:विकास के सिद्धांत

🖊 स्केनर के अनुसार ➖वंशानुक्रम सीमाओं को निश्चित करता है जिसके आगे बालक का विकास नहीं किया जा सकता

🎉11. पुनर्बलन का सिद्धांत इस सिद्धांत के प्रतिपादक हैं ➖सीएल हल है सिद्धांत की नीव ➖dolard &neel milar ने रखी

इसका प्रयोग ➖थार्नडाइक व स्किनर ने किया

 इस सिद्धांत के चार अवयव हैं ➖अभिप्रेरणा ‘उद्दीपक ‘व्यवहार’ पुरस्कार आदि 

🎉सामाजिक अधिगम सिद्धांत प्रतिपादक अल्बर्ट बंडूरा सहयोगी➖ valtars

  इस सिद्धांत के अनुसार व्यापार को प्रभावित करने वाले कारक में वातावरण की विशेष योगदान होता है सामाजिक अधिगम के प्रति अल्बर्ट बंडूरा की थ्योरी इस प्रकार है 

🎄अल्बर्ट बंडूरा ने प्रयोग के लिए बच्चों को एक फिल्म दिखाइए  जिसमें एक व्यक्ति के व्यवहार को प्रदर्शित किया गया

🎄अल्बर्ट बंडूरा ने फिल्म को तीन भागों में बांटा

1- अभिनेता को आक्रामक व्यवहार को दर्शाया और उसे दंड दिया जाता है

2- अभिनेता को आक्रामक व्यवहार पर पुरस्कार दिया जाता है

3- इसमें अभिनेता को आक्रामक व्यवहार पर ना तो पुरस्कार दिया जाता है और ना ही कोई दंड दिया जाता है फिल्म देखने के पश्चात बच्चों को उन्हीं परिस्थितियों में रखा गया जिन परिस्थितियों में बच्चों को फिल्म दिखाई गई थी और उसी अनुसार बच्चों को क्रिया करने के लिए कहा गया फिर उन बच्चों का अनुकरण किया उन्होंने जो कुछ सीखा था वह उसी के अनुसार ही उसका उत्तर दे रहे थे इसका मतलब यह होता है इसका मतलब यह हुआ कि बालक जिस वातावरण में रहता है वही सीखता है बच्चे के मुंह पर माहौल का बहुत ही असर पड़ता है

📝 notes by sapna yadav

*विकास के सिद्धांत      (Principle of development)*

_Part_ 2️⃣

6️⃣ *समान प्रतिमान का सिद्धांत* –

 🔏 *हरलॉक के अनुसार : – “प्रत्येक जाति, चाहे वह पशु जाति हो या मनुष्य जाति हो अपनी जाति के अनुरूप ही विकास के प्रतिमान का अनुसरण करती है”* । 

अर्थात मनुष्य का बच्चा दुनिया के किसी भी जगह  जन्म ले वह जन्म लेकर सिर्फ रोना ही जानता है।

 वही गाय का बच्चा जन्म लेकर खड़ा हो जाता है। एक जाति का विकास एक जैसा होगा।

7️⃣ *एकीकरण का सिद्धांत* :-

इस सिद्धांत के अनुसार *बालक पहले संपूर्ण अंग को उसके उपरांत अंग के आंशिक भाग को चलाना सीखता है।* 

जैसे- बालक शुरुआत में प्रत्येक वस्तु को एक ही तरह से उठाता है परंतु ज्ञान होने पर धीरे-धीरे उंगलियों और हाथों का प्रयोग करके आसानी से उठाता है। 

अतः वह एकीकरण द्वारा सीखता है। इसमें बच्चा जब से इस व्यवस्था में होता है तो वह कोई भी चीज को पकड़ना चाहता है तो वह पूरी तरीके से नहीं पकड़ पाता है और जैसे जैसे वह बड़ा होता जाता है और हाथ और उंगली की सहायता से आसानी से पकड़ लेता है।

8️⃣ *विकास के निश्चित दिशा का सिद्धांत* :-

इस सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास निश्चित दिशा में होता है *बच्चा पहले अपने सिर को उठाना सीखता है उसके उपरांत अन्य भागों पर नियंत्रण करना सीखता है*। मनुष्य का विकास हमेशा सिर से पैर की ओर होता है। मनुष्य का विकास पहले सिरका होता है बाद में हाथ और पैर का होता है।

⚠️ *सफेलोकॉडल (cephalocaudal )* :-  इस सिद्धांत के अनुसार बच्चे का विकास *सिर🧠 से पैर🦵🏻 की ओर* होता है। 

⚠️ *प्रॉक्सिमॉडिस्टल ( proximodistal )* : – इस सिद्धांत के अनुसार बच्चे का *विकास● केंद्र से परिधि🪞 या धड़🫁 से अन्य अंगों🤲🏻 की ओर* होता है। पहले उसका ह्रदय बनता है और बाद में  बाहरी विकास होता है।

9️⃣ *वैयक्तिक विभिन्नता का सिद्धांत* :-

इस सिद्धांत के अनुसार *एक ही माता पिता की दो संतान भी एक जैसी नहीं होती हैं। अनुवांशिक और अलग वातावरण के वजह से भी विभिन्नता बढ़ती है।* 

अर्थात एक माता पिता के बच्चे में समान गुण के जीन नहीं होते उनमें मानसिक, संवेगात्मक, सामाजिक इत्यादि अनेक प्रकार की विभिन्नता होती है। 

1️⃣0️⃣ *वंशानुक्रम और वातावरण की अंतः क्रिया के विकास का सिद्धांत* :-

*स्किनर के अनुसार* :- *वंशानुक्रम सीमाओं को निश्चित करता है जिसके आगे बालक का विकास नहीं किया जा सकता हैं।*

1️⃣1️⃣ *पुनर्बलन का सिद्धांत इस सिद्धांत* :- 

 *😎प्रतिपादक ➖सीएल हल 🥸सिद्धांत की शुरूआत ➖dolard &neel milar 🧐प्रयोग ➖थार्नडाइक व स्किनर*

 इस सिद्धांत के *प्रमुख 4 अवयव  ➖ अभिप्रेरणा ‘उद्दीपक ‘व्यवहार’ पुरस्कार* ।

1️⃣2️⃣ *सामाजिक अधिगम का सिद्धांत* :-

😈 *प्रतिपादक ➖अल्बर्ट बंडूरा 👿सहयोगी➖ वाल्टर*

  इस सिद्धांत के अनुसार *व्यवहार को प्रभावित करने वाले कारक में वातावरण की विशेष योगदान होता है* । 

सामाजिक अधिगम के प्रति अल्बर्ट बंडूरा की थ्योरी ➖

अल्बर्ट बंडूरा ने प्रयोग के लिए बच्चों को एक फिल्म दिखाइए  जिसमें एक व्यक्ति के 3 तरह के व्यवहार को प्रदर्शित किया गया था। 

1- अभिनेता को *आक्रामक व्यवहार पर उसे दंड* दिया जाता है।

2- अभिनेता को *आक्रामक व्यवहार पर पुरस्कार* दिया जाता है।

3- इसमें अभिनेता को *आक्रामक व्यवहार पर ना तो पुरस्कार ना ही कोई दंड* दिया जाता है। फिल्म देखने के पश्चात बच्चों को उन्हीं परिस्थितियों में रखा गया, जिन परिस्थितियों में बच्चों को फिल्म दिखाई गई थी और उसी अनुसार बच्चों को क्रिया करने का अवसर दिया गया फिर उन बच्चों का अवलोकन किया तो पाया कि उन्होंने जो कुछ सीखा था वह उसी के अनुसार ही उसका प्रतिक्रिया दे रहे थे। इसका मतलब यह हुआ कि बालक जैसे वातावरण में रहता है वैसा ही सीखता है ।

 _*Deepika Ray*_

🌻🌺🌼🌼🌼🌼🌺🌻

🍄विकास के सिद्धांत- 

   🦚समान प्रतिमान का सिद्धांत-     हरलॉक के अनुसार –  ” प्रत्येक जाति, चाहे वह पशु जाति हो या मानव जाति हो।,अपनी जाति के अनुरूप ही विकास के प्रतिमान का अनुसरण करती हैं।

    मनुष्य का बच्चा दुनिया के चाहे जिस कोने में जन्म ले सबसे पहले वह रोता ही है।

  और एक गाय का बच्चा जन्म लेने बाद ही खड़ा होने लगता है।

🍄एकीकरण का सिद्धांत- इस सिद्धांत के अनुसार बालक सबसे पहले सम्पूर्ण अंग को,फिर उसके उपरांत शरीर के अन्य भागों को चलाना सीखता है।  जैसे – बालक शुरूआत में प्रत्येक वस्तु को एक ही तरह से उठाता है परंतु ज्ञान होने के बाद धीरे धीरे उंगलियों और हाथों के प्रयोग करके आसानी से वास्तु उठाने लगता है । अतः बच्चा एकीकरण द्वारा सीखता है।

🍄 विकास की निश्चित दिशा का सिद्धांत- बालक का विकास एक निश्चित दिशा में होता है बालक पहले अपने सिर को उठा सीखता है फिर उसके उपरांत अन्य भागों पर नियंत्रण करना सीखता है।मनुष्य का विकास हमेशा सिर से पैर की ओर होता है।

🌴सफेलोकाडल – यह पर बच्चे का विकास सिर से पैर की ओर होता है।

 🌴 प्रोक्सिमोडिस्टल- इसमे बच्चे का विकास केन्द्र से परिधि की ओर होता है सबसे पहले ह्दय, फेफड़ा ,शरीर की परिधि की ओर होता है।

🍄वैयक्तिक विभिन्नता का सिद्धांत- प्रत्येक व्यक्ति में भिन्नता पाई जाती है एक माँ की दो संतानों में भी विभिन्नता पाई जाती है और अलग अलग वातावरण से यह विभिन्नता बढ़ती भी है।

  एक माता-पिता के समान गुण के समान जीन नही पाए जाते हैं। मानसिक,संवेगात्मक, भाषाई इत्यादि अनेक प्रकार से भिन्नता पाई जाती है।

👨‍✈️🦚 स्किनर के अनुसार – विकास के स्वरूप में व्यापक रूप से वैयक्तिक विभिन्नता पाई जाती है।

🍄 वंशानुक्रम और वातावरण के अनुक्रिया का सिद्धांत- बालक का विकास वंशानुक्रम और पर्यावरण की अंतः क्रिया का प्रभाव है।

   माता पिता से मिले गुणों का विकास बच्चे के प्राकृतिक ,सामाजिक परिवेश में रहकर ही होता है।

👨‍✈️🌻 स्किनर के अनुसार- वंशानुक्रम उन सीमाओं को निश्चित करता है जिनके आगे बालक का विकास नही किया जा सकता है।

🍄 पुनर्बलन सिध्दांत- इस सिद्धांत के प्रतिपादक “C.L. HULL” हैं।और इसकी नींव “जॉन डोनार्ड और नील मिलर “ने दिया।

 👉 इसके चार महत्व पूर्ण अवयव – अभिप्रेरणा ,उद्दीपक ,व्यवहार, पुरस्कार।

🍄 सामाजिक अधिगम सिद्धांत- उस सिद्धांत का प्रतिपादन”अल्बर्ट बंडूरा “ने तथा “वॉल्टर्स”ने दिया। 

🌻🦚 अल्बर्ट बंडूरा ने प्रयोग के लिए बच्चे को एक फ़िल्म दिखाई जिसमे एक वयस्क व्यक्ति के व्यवहार को प्रदर्शित किया गया था।

🌼 बंडूरा ने फ़िल्म को तीन भागों में दिखाया ।

🦚 पहले वाले भाग में अभिनेता के व्यवहार को आक्रामक दिखाया गया है।जिसके लिए उसे पुरुस्कार दिया जाता है।

🦚दूसरे वाले में अभिनेता के आक्रामक व्यवहार के लिए पुरुस्कार दिया जाता है।

🦚 तीसरे में अभिनेता को उसके व्यवहार के लिए न तो दंड दोय जाता है और न ही पुरस्कार दोय जाता है।

 इस फ़िल्म के पश्चात उन्हें उसी परिस्थिति में रखा गया और देखा गया कि बच्चे जो है वो अनुकरण द्वारा सीखते हैं।इससे यह पता चलता है कि बच्चे विकास में वातावरण का ज्यादा प्रभाव पड़ता है।

📚📚📚Notes by Poonam sharma🌼🌼🌼

🔆 विकास के सिद्धांत➖

1) सतत निरंतर विकास का सिद्धांत 

2)विकास क्रम का सिद्धांत

3) विकास की विभिन्न गति का सिद्धांत

4) परस्पर संबंध का सिद्धांत

5) सामान्य से विशिष्ट अनुक्रिया का सिद्धांत 

6) समान प्रतिमान का सिद्धांत

7) एकीकरण का सिद्धांत

8) विकास की निश्चित दिशा का सिद्धांत 

9) वैयक्तिक विभिन्नता का सिद्धांत 

10) वंशानुक्रम और पर्यावरण की अंतः क्रिया का सिद्धांत

11) पुनर्बलन का सिद्धांत

12) सामाजिक अधिगम सिद्धांत

🟢  समान प्रतिमान का सिद्धांत➖

 हरलॉक के अनुसार➖

 “प्रत्येक जाति चाहे वह पशु जाति हो या मनुष्य जाति से हो वह अपनी जाति के अनुरूप ही विकास के प्रतिमान का अनुसरण करता है  |”

मनुष्य का बच्चा दुनिया के किसी भी कोने में जन्म  ले वह जन्म लेकर केवल रोना जानता है वही गाय का बच्चा जन्म लेकर खड़ा हो जाता है अर्थात वे अपनी अपनी जातियों का अनुसरण करते हैं |

🟢 एकीकरण का सिद्धांत ➖ 

इस सिद्धांत के अनुसार बालक पहले अपने संपूर्ण अंग को और फिर उसके उपरांत अंग के आंशिक भाग को चलाना सीखता है |

 जैसे बालक प्रत्येक वस्तु को एक ही तरीके से उठाता है परंतु ज्ञान होने पर धीरे-धीरे उंगलियों और हाथों के प्रयोग करके आसानी से वस्तु उठाता है अर्थात वह एकीकरण के सिद्धांत का अनुसरण करता है  |

🟢 विकास की निश्चित दिशा का सिद्धांत ➖

बालक का विकास निश्चित दिशा में होता है प्रारंभ में बालक अपने सिर को उठाता है उसके उपरांत अन्य भागों पर नियंत्रण करना सीखता है क्योंकि मनुष्य का विकास हमेशा निश्चित दिशा में होता है अर्थात सिर से पैर की ओर होता है |

 इसके अंतर्गत 2 सिद्धांतों  को रखा गया है ➖

1) सफेलोकाॅडल (Cephalocaudal)और

2) प्रॉक्सिमोडिस्टल ( Proximodistal)

🎯 सफेलोकाॅडल  (Cephelocaudal ) ➖

इस सिद्धांत के अनुसार बच्चे का विकास  सिर से पैर की ओर होता है | ये सिद्धांत शरीर के विकास को दर्शाता है |

🎯 प्रॉक्सिमोडिस्टल  ( Proximodistal) ➖

इस सिद्धांत के अनुसार बच्चे का विकास केंद्र से परिधि की ओर होता है अर्थात पहले हृदय और फेफड़ा का  विकास होता है और फिर उसके  बाहर के अंगों का विकास होता है  |

 ये सिद्धांत  शरीर की प्रतिक्रिया को दर्शाता है |

🟢 वैयक्तिक विभिन्नता का सिद्धांत ➖

इस सिद्धांत के अनुसार सभी व्यक्ति अलग होते है यहां तक कि एक ही माता-पिता की दो संतान भी एक जैसे नहीं होते अर्थात अलग-अलग वातावरण की वजह से भी विभिन्नता बढती,  है |

 एक माता पिता के बच्चों में समान गुण की जीन नहीं होते  हैं |

 मानसिक संवेगात्मक और शारीरिक सभी प्रकार की वैयक्तिक विभिन्नताएं अलग  अलग होती है  |

⭕ स्किनर के अनुसार➖

 विकास के स्वरूप में व्यापक वैयक्तिक भिन्नता पाई जाती है •

🟢 वंशानुक्रम और पर्यावरण की अंतः क्रिया का सिद्धांत ➖

 बालक के विकास में वंशानुक्रम और वातावरण की क्रिया का प्रभाव पड़ता है माता-पिता से मिले गुणों का विकास बच्चे के प्राकृतिक और सामाजिक परिवेश में रहकर होता है |

 स्किनर के अनुसार➖

 वंशानुक्रम सीमाओं को निश्चित करता है जिनके आगे बालक का विकास नहीं किया जा सकता है

🟢 पुनर्बलन का सिद्धांत➖

 इस सिद्धांत की नीव जाॅन डोनाल्ड और नील मिलर ने रखी थी |

और इसका विस्तार तथा इसकी रूपरेखा या इसका प्रतिपादक  क्लार्क एल हल ने किया था |

 पुनर्बलन शब्द का प्रयोग थार्नडाइक और इस स्किनर ने अपने सिद्धांत में किया था  |

इस सिद्धांत के महत्वपूर्ण चार अवयव हैं ➖

1) अभिप्रेरणा 

2) उद्दीपक 

3) व्यवहारऔर 

4 ) पुरस्कार

🟢  सामाजिक अधिगम का सिद्धांत  ➖

इस सिद्धांत के प्रतिपादक अल्बर्ट बंडूरा को माना जाता है उनका सहयोग वाल्टर्स ने किया था |

 इस सिद्धांत के अनुसार  “सामाजिक अधिगम सिद्धांत में व्यवहार को प्रभावित करने वाले कारक में वातावरण का विशेष योगदान होता है  | “

इस सिद्धांत के अनुसार बच्चे को एक व्यस्क व्यक्ति की फिल्म दिखाई जाती है जिसमें उसके आक्रामक व्यवहार का वर्णन किया जाता है इसमें तीन प्रकार की फिल्में होती हैं  एक बच्चे को एक  ही फिल्म दिखाई जाती थी |

 एक फिल्म में व्यक्ति के  आक्रामक व्यवहार को दिखाया जाता था और उसके लिए उसको दण्ड दिया जाता था |

दूसरी फिल्म में उस व्यक्ति के आक्रामक व्यवहार पर पुरुस्कार दिया जाता था |

और तीसरी फिल्म में उसके आक्रामक व्यवहार पर ना ही दण्ड दिया जाता था न ही पुरुस्कार दिया गया  था |

फिल्म दिखाने के पश्चात बच्चे को  जिन परिस्थितियों में  फिल्म दिखाई गई थी उसी के अनुसार  उनका  अवलोकन किया गया जिसमें निष्कर्ष निकाला गया कि बच्चे भी फिल्म के वातावरण के अनुसार ही  व्यवहार प्रदर्शित करते हैं  | निष्कर्षों से यह पाया गया कि बच्चे अपने वातावरण के अनुसार ही  उसका अनुसरण करते हैं  अर्थात व्यक्ति के व्यवहार में वातावरण को मुख्य माना जाता है  और वंशानुक्रम को नगण्य  माना जाता है  |

नोट्स बाय➖ रश्मि सावले

🌻🌼🌸🌺🍀🌻🌼🌸🌺🍀🌻🌼🌸🌺🍀🌸🌺🍀🌼🌻

💐💐विकास के सिद्धांत 💐

(Principle of development )💐💐

⚜️⚜️6. समान प्रतिमान का सिद्धांत —

हरलाँक के अनुसार :- प्रत्येक जाति चाहे वह पशु जाती हो या मनुष्य जाति व अपनी जाति के मनुष्य ही विकास के प्रतिमान का अनुसरण करती है।

अर्थात मनुष्य का बच्चा दुनिया के किसी कोने में जन्म ले वह जन्म लेकर सिर्फ रोना जानता है वही गाय का बच्चा जन्म लेकर वही खड़ा हो जाता है।

7.एकीकरण का सिद्धांत —

इस सिद्धांत के अनुसार बालक पहले संपूर्ण अंग को उसके उपरांत अंग के आशिक भाग को चलाना सीखता है ।

जैसे बालक शुरुआत में प्रत्येक वस्तु को एक ही तरह से उठाता है परंतु ज्ञान होने पर धीरे-धीरे उंगलियों और हाथों का प्रयोग करके आसानी से उठाता है।

 अतः एकीकरण द्वारा सीखता है।

8.विकास की निशिचत दिशा का सिद्धांत —

बालक का विकास निश्चित दिशा में होता है बालक पहले अपने सिर उठाना सीखता है उसके उपरांत अन्य भागों पर नियंत्रण करना सीखता है।

 मनुष्य का विकास हमेशा सिर से पैर की ओर होता है।

A.  सफेलोकांडल (caephalocaudal) 

इस सिद्धांत के अनुसार बच्चे का विकास सिर से पैर की ओर होता है।

B. प्राक्रिसमाँडिस्टल (proximodistal)

इस सिद्धांत के अनुसार बच्चे का विकास केंद्र से परिधि या घड़ से अन्य अंगों की ओर होता है।

9. व्यक्तित्व विभिन्ता का सिद्धांत— 

एक ही माता-पिता के दो संतान भी एक जैसे नहीं होते हैं और अलग-अलग वातावरण के वजह से भी विभिन्नता बढ़ती है ।

एक माता पिता के बच्चों में समान गुण के जीन नहीं होते हैं ।मानसिक ,संवेगात्मक,भाषाई,इत्यादि अनेक प्रकार की विभिन्नता होती है ।

 स्किन्नर के अनुसार:- विकास के स्वरूप में व्यापक व्यक्तित्व भिन्नता होती है।

10. वंशानुक्रम और पर्यावरण की अंतः क्रिया का सिद्धांत—

बालक का विकास वंशानुक्रम और पर्यावरण के अंतः क्रिया का प्रभाव है।

 माता-पिता से मिले गुणों का विकास बच्चे के प्राकृतिक या सामाजिक परिवेश में रहकर होता है।

⚜️स्किनर के अनुसार — वंशानुक्रम इन सीमाओं को निश्चित करता है जिनके आगे बालक का विकास नहीं किया जा सकता है।

11. पुनर्बलन का सिद्धांत(Reinforcement Theory) :-

पुनर्बलन सिद्धांत के प्रतिपादक:- “सी .एल .हल”

 इस सिद्धांत की नीव :- जॉन डोलाँडं व नील मिलर ने रखी।

 इस सिद्धांत पर प्रयोग-थानडाईक व स्किन ने किया। 

इस सिद्धांत के चार महत्वपूर्ण अवयव है।

1.अभिप्रेरणा

2.उदीपक 

3.व्यवहार 

4.पुरस्कार

12.सामाजिक अघिगम का सिद्धांत :-

प्रतिपादक :- अल्बर्ट बंडूरा

सहयोगी :- वाल्टर्स

इस सिद्धांत के अनुसार व्यवहार को प्रभावित करने वाले कारक में वातावरण का विशेष योगदान होता है।

अल्बर्ट बंडूरा ने प्रयोग के लिए बच्चों को एक फिल्म दिखाएं जिसमें एक व्यस्क व्यक्ति के व्यवहार को प्रदर्शित किया गया है।

Notes By:- Neha Roy🙏🙏🙏🙏

विकास के सिद्धांत

विकास निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है लेकिन प्रत्येक प्राणी का विकास निश्चित नियम के आधार पर होगा।

इन्हीं नियमों के आधार पर अनेक शारीरिक और मानसिक क्रियाएं विकसित होती है

विकास के कुछ नियम इस प्रकार हैं

1. सतत् या निरंतर विकास का सिद्धांत

2. विकास क्रम का सिद्धांत 

3. विकास की विभिन्न गति का सिद्धांत 

4. परस्पर संबंध का सिद्धांत 

5. सामान्य से विशिष्ट अनुक्रिया या प्रतिक्रिया का सिद्धांत

6. समान प्रतिमान का सिद्धांत

हरलॉक के अनुसार 

प्रत्येक जाति, चाहे वह पशु जाति हो या मनुष्य जाति हो, अपनी जाति के अनुरूप ही विकास के प्रतिमान का अनुसरण करती हैं।

मनुष्य का बच्चा दुनिया के किसी भी कोने में जन्म ले ,वह जन्म लेकर सिर्फ रोना जानता है

वही गाय का बच्चा जन्म लेकर खड़ा हो जाता है।

7. एकीकरण का सिद्धांत

इस सिद्धांत के अनुसार बालक पहले संपूर्ण अंग को उसके उपरांत अंग के आंशिक भाग को चलाना सीखता।

जैसे

बालक शुरुआत में प्रत्येक वस्तु को एक ही तरह से उठाता है परंतु ज्ञान होने पर धीरे-धीरे अंगुलियों और हाथों का प्रयोग करके आसानी से उठाता है।

अतः वह एकीकरण द्वारा सीखता है।

8. विकास की निश्चित दिशा का सिद्धांत

बालक का विकास निश्चित दिशा में होता है। प्रारंभ में बालक अपने सिर को उठाना सीखता है। उसके उपरांत अन्य भागों पर नियंत्रण करना सीखता है। मनुष्य का विकास हमेशा सिर से पैर की ओर होता है।

सफेलोकॉडल cephalocaudal/ मस्तकोधोमुखी/शीर्ष से पूंछ की ओर

इसके अनुसार बच्चे का विकास सिर से पैर की ओर होता है।

यह बालक के विकास को बताता है

प्राक्सिमाडिस्टल proximodistal

इसके अनुसार विकास केंद्र से परिधि की ओर होता है 

यह मोटर प्रतिक्रिया अर्थात गत्यात्मक विकास को बताता है।

इसके अनुसार सबसे पहले हृदय का विकास, फिर फेफड़ों का ,बाद में शरीर के बाहर के अंग जो शरीर की परिधि पर स्थित है उनका विकास होता है।

जैसे हाथ में पहले कंधे का विकास ,उसके बाद कोहनी का विकास, उसके बाद कलाई का विकास और अंत में अंगुलियों का विकास होता है।

9.वैयक्तिक विभिन्नता का सिद्धांत

एक ही माता पिता की दो संतान  भी  एक जैसी नहीं होती है और अलग-अलग वातावरण के वजह से भी विभिन्नता बढ़ती है।

एक माता पिता के बच्चों में समान गुण के जीन नहीं होते हैं

मानसिक, संवेगात्मक ,भाषायी इत्यादि अनेक प्रकार की विभिन्नता होती है।

स्किनर के अनुसार

 विकास के स्वरूप में व्यापक वैयक्तिक विभिन्नता होती है

10. वंशानुक्रम और पर्यावरण की अंतः क्रिया का सिद्धांत

बालक का विकास वंशानुक्रम और पर्यावरण के अंत: क्रिया का प्रभाव है 

माता-पिता से मिले गुणों का विकास बच्चे के प्राकृतिक सामाजिक परिवेश में रहकर होता है 

स्किनर के अनुसार

वंशानुक्रम उन सीमाओं को निश्चित करता है जिनके आगे बालक का विकास नहीं किया जा सकता है।

11. पुनर्बलन का सिद्धांत

पुनर्बलन के सिद्धांत के प्रतिपादकों में नीव रखने वाले जॉन डोलार्ड और नील मिलर थे लेकिन सी एल हल ने इस को संगठित किया।

इस सिद्धांत के चार महत्वपूर्ण अवयव निम्न है

1.अभिप्रेरणा 2. उद्दीपक 3. व्यवहार और 4. पुरस्कार

12. सामाजिक अधिगम का सिद्धांत 

इस सिद्धांत के प्रतिपादक अल्बर्ट बंडूरा और वॉल्टर्स थे

इसमे एक प्रयोग किया गया

जिसमें बच्चों को फिल्म दिखाया गया 

फिल्म में वयस्क के व्यवहार को प्रदर्शित किया गया।

फिल्म को तीन भागों में दिखाया गया

प्रत्येक बच्चे को एक प्रकार की ही फिल्म दिखाई गई

पहली फिल्म में वयस्क का व्यवहार आक्रामक था और उसे दंड दिया गया

दूसरी फिल्म में वयस्क का व्यवहार आक्रामक था लेकिन उसे पुरस्कार दिया गया।

तीसरी फिल्म में वयस्क का व्यवहार आक्रामक था लेकिन उसे न तो दंड दिया गया और ना ही पुरस्कार।

बाद में बच्चे को उसी परिस्थिति में रखा गया जिसकी उसे फिल्म दिखाई गई थी और उसका निरीक्षण किया गया

बच्चे ने फिल्म के माडल या वयस्क के अनुसार ही व्यवहार किया।

इस सिद्धांत के अनुसार व्यवहार को प्रभावित करने वाले कारक में वातावरण का विशेष योगदान होता है।

Notes by Ravi kushwah

24. CDP – Growth and Development PART- 5

🌻🌻🌺🌺🌺🌻🌻🌻

  विकास के सिद्धांत-  

🦚विकास एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है लेकिन प्रत्येक प्राणी का विकास एक निश्चित आधार पर होता है।

           और इन्ही नियमो के आधार पर अनेक शारीरिक और मानसिक क्रिया विकसित होता है।

🌼 विकास के कुछ नियम जो इस प्रकार है।

🦚🌴सतत व निरंतर विकास का सिद्धांत-  विकास की प्रक्रिया निरंतर चलती है। लेकिन यह तेज़ व मंद होती रहती है।

      बच्चे 2 से 3 वर्ष तक विकास तीव्र गति से होता है।शारीरिक रूप से इंसान कोई आकस्मिक परिवर्तन नही होता है। यह भी धीमी गति से होता है शरीर के कुछ अंगों का विकास तीब्र गति से होता है जैसे हाथ ,पैर आदि ।और कुछ अंगों को विकास मंद गति से होता है।

👨‍✈️ स्किनर महोदय के अनुसार- ” विकास प्रक्रियाओ का निरंतरता का सिद्धांत इस बात पर जोर देता है कि व्यक्ति में कोई भी परिवर्तन आकस्मिक नही होता है।

🦚🌴 विकास क्रम का सिद्धांत- इस सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास एक निश्चित क्रम में होता है।

जैसे कि बच्चा पहले रोने के माध्यम से अपनी बात जाहिर करता है फिर वह विशेष प्रकार की आवाज़ निकालता है। फिर उसके बाद वह स्वर शब्दो का प्रयोग करता है। फिर व्यंजन का फिर स्वर और व्यंजन को मिलाकर शब्दो का प्रयोग करता है फिर वह वाक्य बोलने लगता है।

🦚🌴विकास की विभिन्न गति का सिद्धांत- व्यक्ति के विकास की गति भिन्न भिन्न होती है विभिन्नता व्यक्ति के जीवन मे सम्पूर्ण काल मे होती है।

🦚🌴 परस्पर संबंध का सिद्धांत- शारीरिक ,मानसिक ,भाषायी,संवेगात्मक, सामाजिक,चारित्रिक इन सभी पक्षो में परस्पर संबंध होता है।

👨‍✈️👉 गैरिसन एवं अन्य – इन्होंने बताया है व्यक्ति के शरीर संबंधी दृष्टिकोण व्यक्ति के भिन्न अंगों के भिन्न विकास सामंजस्य और परस्पर संबंध पर बल देती है।

🦚🌴 सामान्य से निश्चित अनुक्रिया या प्रतिक्रिया का सिद्धांत-  बच्चा जब शैशवावस्था में होता है तब वह पूरे शरीर के माध्यम से क्रिया करता है मतलब स्थूल गति करता है और जैसे जैसे उसके शरीर का विकास होता है वह अपने शरीर के अंगों पर नियंत्रण करना सीख लेता है। और सूक्ष्म गति करने लगता है।

👨‍✈️🌻 हरलॉक के अनुसार- विकास की सब अवस्थाओ में बालक की प्रतिक्रिया विशिष्ट बनने से पूर्व सामान्य प्रकार की होती है।

      बालक का विकास सामान्य अनुक्रिये से विशिष्ट प्रतिक्रिया तक होता है।

🦚🦚🦚🦚🦚🦚🦚🦚

📚 Notes by Poonam sharma🍄🍄

💫🌻 विकास के सिद्धांत💫🌻

🌼 विकास निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है लेकिन प्रत्येक प्राणी का विकास निश्चित नियम के आधार पर होता है।

🌼 इन्हीं नियमों के आधार पर अनेक के आधार शारीरिक एवं  मानसिक क्रियाएं विकसित होती हैं विकास के कुछ नियम इस प्रकार है।

🌻 सतत निरंतर विकास का सिद्धांत➖ 🌸विकास की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है लेकिन यह गति तेज या मंद होती रहती है।

🌸 बच्चे के दो-तीन साल तक विकास की प्रक्रिया तीव्र  होती है।

🌸 शारीरिक रूप से भी इंसान में कई आकस्मिक परिवर्तन नहीं आता ।

 🌸शरीर के कुछ अंगों का विकास तीव्र गति से होता है और कुछ अंगों का मंद गति से होता है।

🤵🏻‍♂स्किनर और महोदय ➖ विकास प्रक्रियाओं की निरंतरता का सिद्धांत इस बात पर जोर देता है कि विकास में कोई आकस्मिक परिवर्तन ना हो।

🌻 विकास क्रम का सिद्धांत➖

🌼 इस सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास एक निश्चित क्रम से होता है।

जैसे बच्चा पहले रो कर अपनी बातों को व्यक्त करता है और फिर विशेष विशेष प्रकार की ध्वनि निकालता है फिर वह स्वर व व्यंजनों को मिलाकर शब्दों और वाक्यों में अपनी बातों को कहता है।

🌻 विकास की विभिन्न गति का सिद्धांत➖

🌸 व्यक्ति के विकास की गति भिन्न-भिन्न होती है भिन्नता संपूर्ण काल में बनी रहती है।

🌸शैशवास्था  के शुरू के वर्षों में यह गति कुछ तीव्र होती है परंतु बाद के वर्षों में यह मंद पड़ जाती है।

🌸 पुनः किशोरावस्था के आरंभ में इस गति में वृद्धि होती है परंतु यह अधिक समय तक नहीं बनी रहती।

🌻 परस्पर संबंध का सिद्धांत➖

🌸विकास के सभी आयाम जैसे- शारीरिक ,मानसिक, सामाजिक ,संवेगात्मक आदि एक दूसरे से परस्पर संबंधित है।

🌸इसमें से किसी भी एक आयाम में होने वाला विकास अन्य सभी आयामों में होने वाले विकास को पूरी तरह प्रभावित करने की क्षमता रखता है।

🤵🏻 गैरिसन  के अनुसार➖शरीर संबंधी दृष्टिकोण व्यक्ति के विभिन्न अंगों के विकास में सामंजस्य और परस्पर संबंध पर बल देता है।

🌻विकास सामान्य से विशेष की ओर चलता है➖

👨🏻‍🔬 हरलॉक के अनुसार ➖विकास की सभी अवस्था में बालक की प्रतिक्रिया विशिष्ट बनाने के पूर्व सामान्य प्रकारकी होती है।

🌸 बालक का विकास सामान्य अनुक्रिया से विशिष्ट प्रतिक्रिया तक होता है।

🌸उदाहरण के लिए अपने हाथों के कुछ चीज पकड़ने से पहले बालक इधर से उधर यूं ही हाथ मारने या फैलाने की चेष्टा करता है।

🌸इसी प्रकार शुरू में एक नवजात शिशु के रोने और चिल्लाने में उसके सभी अंग प्रत्यंग भाग लेते हैं परंतु बाद में वृद्धि और विकास की प्रक्रिया के फल स्वरुप यह क्रियाएं उसकी आंखों और वाक्  तन्त्र तक सीमित हो जाती है।

✍🏻📚📚 Notes by….. Sakshi Sharma📚📚✍🏻🔆 विकास के सिद्धांत 🔆

विकास एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है लेकिन प्रत्येक प्राणी का विकास निश्चित नियम के आधार पर होगा और इस नियम का कितना पालन हो रहा है और कितने इस नियम में हमारी भागीदारी है यह इस बात पर निर्भर करेगा।

इन्हीं नियमों के आधार पर अनेक शारीरिक व मानसिक क्रिया विकसित होती है।

विकास के कुछ नियम इस प्रकार है।

❇️ 1 सतत या निरंतर विकास का सिद्धांत ➖

विकास की प्रक्रिया निरंतर चलती  है लेकिन यह मंत्र या तेज होती रहती है।

बच्चे के दो-तीन साल तक विकास की प्रक्रिया तीव्र होती है।

शारीरिक रूप से भी इंसान में कोई आकस्मिक परिवर्तन नहीं आता है शरीर के कुछ अंग मंद गति से विकसित होते हैं जबकि कुछ अंग तीव्र गति से।

🔸 स्किनर के अनुसार ➖

विकास प्रक्रियाओं की निरंतरता का सिद्धांत इस बात पर जोर देता है कि विकास में  आकस्मिक परिवर्तन ना हो।

❇️2 विकास क्रम का सिद्धांत ➖

इस सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास एक निश्चित क्रम में होता है।

जैसे – भाषा के संदर्भ में देखा जाए तो बच्चा जैसे ही जन्म लेता है रोने लगता है फिर कुछ विशेष धोनी निकालने लगता है धीरे धीरे सर बोलने लगता है और फिर व्यंजन और फिर स्वर व्यंजन को मिलाकर बोलने लगता है धीरे-धीरे शब्दों को फिर शब्दों से वाक्य बनाकर भाषा बोलना सीख जाता है।

यह भाषा विकास एक निश्चित क्रम में होता है।

इसी प्रकार शारीरिक रूप से देखा जाए तो बालक जन्म के कुछ समय बाद सर्वप्रथम अपना सिर ऊपर उठाने की कोशिश करता है फिर धीरे-धीरे सहारा लेकर बैठने लगता है और फिर धीरे-धीरे खिसकर चलते चलते वह पैरों के बल खड़ा हो जाता है।

❇️ 3 विकास की विभिन्न गति का सिद्धांत ➖

व्यक्ति के विकास की गति भिन्न होती है और यह भिन्नता संपूर्ण काल में भी बनी रहती है।

विकास की गति शेशवावस्था वह किशोरावस्था मैं तीव्र होती है किन्तुबाल्यावस्था में यह गति मंद होती है । इसी प्रकार बालक एवं बालिकाओं में विकास की गति भिन्न भिन्न होती हैं।

❇️ 4 परस्पर संबंध का सिद्धांत ➖

शारीरिक ,मानसिक , भाषायी, संवेगात्मक सामाजिक व चारित्रिक इन सभी पक्षों में परस्पर संबंध होता है।

जैसे – हमारी जैसी भावना होती है मतलब संवेगात्मक रूप से धीरे-धीरे हम वैसे ही संवेग में आकर भाषा का प्रयोग करने लगते हैं जिससे हमारा चरित्र भी अलग दिखाई देने लगता है जिससे हमारा समाज में अलग छाप या पहचान बनती है और इसका प्रभाव मानसिक रूप से पढ़ने लगता है और धीरे-धीरे हम शारीरिक रूप से भी कमजोर या अपने आप को अस्वस्थ महसूस करने लगते हैं अतः सभी आपस में एक दूसरे से परस्पर संबंधित होते हैं।

🔸 गैरीसन के अनुसार

शरीर संबंधी दृष्टिकोण व्यक्ति के भिन्न अंगों के विकास में सामंजस्य और संबंध पर बल देता है।

❇️ 5 सामान्य से विशिष्ट अनुक्रिया या प्रतिक्रिया का सिद्धांत ➖

🔸 हर्लॉक के अनुसार – 

विकास की सभी अवस्थाओं में बालक की प्रतिक्रिया विशिष्ट बनने के पूर्व सामान्य प्रकार की होती हैं।

व्यक्ति कई चीजों को सीखने की शुरुआत एक साथ करता है लेकिन अपनी रुचि ,ज्ञान और वैसा वातावरण मिलने पर किसी एक क्षेत्र में आगे बढ़ता है।

अर्थात बालक का विकास सामान्य अनु क्रियाओं से विशिष्ट प्रतिक्रिया पर बल देता है।

बालक का विकास सामान्य क्रियाओं से विशिष्ट क्रियाओं की ओर होता है बालक के विकास के सभी क्षेत्रों में सर्वप्रथम सामान्य प्रतिक्रिया होती हैं उसके बाद वह विशिष्ट रूप धारण करती है।

जैसे – बच्चा किसी भी वस्तु को पकड़ने के लिए बालक सबसे पहले अपने समस्त अंगों का सहारा लेता है किंतु बाद में वह उसके लिए केवल हाथ का ही प्रयोग करने लगता है इसी प्रकार का रूप उसके अन्य क्षेत्रों में भी देखने को मिलता है।

✍️

     Notes By-‘Vaishali Mishra’

✨विकास के सिद्धांत✨

विकास एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है प्रत्येक प्राणी का विकास निश्चित नियमों के आधार पर ही होता है

🎉इन नियमों के आधार पर बालक की शारीरिक मानसिक क्रियाएं विकसित होती हैं और विकास के कुछ नियम इस प्रकार हैं

🎄सतत और निरंतर विकास का सिद्धांत➖ सिद्धांत यह बताता है कि विकास की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है लेकिन यह गति तेज और धीमी होती है

बच्चे के दो-तीन साल तक विकास की गति तीव्र होती है शारीरिक रूप से भी इंसान कई प्रकार के आकस्मिक परिवर्तन नहीं होते हैं  

शरीर के कुछ अंगों का विकास तीव्र गति से होता है तो कुछ अंगों का विकास मंद गति से होता है शरीर के अंगों का विकास एक गति से नहीं होता है

🎄 skinar और महोदय जी कहते हैं ➖विकास प्रक्रिया की निरंतरता का सिद्धांत इस बात पर जोर देता है कि विकास में कोई आकस्मिक परिवर्तन ना हो

🎄विकास  क्रम  का सिद्धांत ➖इस सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास एक निश्चित क्रम में होता है जैसे वाला जब जन्म लेता है तो है रोना शुरु करता है रोने के बाद वह  हंसना फिर कुछ विशेष ध्वनि निकालना उसके बाद स्वर उसके बाद व्यंजन जाए फिर उसके बाद शब्द और उसके बाद फिर वाक्य करना शुरू कर देता है

🎄विकास की विभिन्न  गति का सिद्धांत➖ है व्यक्ति के विकास की गति भिन्न-भिन्न होती है संपूर्ण काल से बनी रहती हैं शैशवावस्था से शुरू के वर्षों में यह गति तीव्र होती है परंतु बाद में वर्षों में यह गति धीमी हो जाती है

🎄परस्पर संबंध का सिद्धांत➖ परस्पर संबंध के सिद्धांत में बालक की  विशेषताएं होती है जैसे शारीरिक भावनात्मक सामाजिक संवेगात्मक में यह शब्द एक दूसरे से परस्पर संबंध रखते हैं यह एक दूसरे के बिना अधूरी है इसमें से किसी भी एक  विकास के ना होने पर अन्य सभी आयामों में होने वाले विकास को पूरी तरह प्रभावित करने की क्षमता नहीं रखता है

🎄गैरिसन के अनुसार ➖शरीर संबंधी दृष्टिकोण व्यक्ति के विभिन्न अंगों के विकास में सामान्य स्वर परस्पर संबंध पर बल देता है

🎄विकास सामान्य से विशेष की ओर चलता है विकास में छोटे से बड़े तक पहुंचा जाता है

🎉 हरलॉक के अनुसार ➖विकास की सभी अवस्था में बालक की प्रतिक्रिया विशिष्ट बनाने के पूर्व सामान्य प्रकार की होती है

📝 notes by sapna yadav

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🧗विकास के सिद्धांत (Principle of Development)⭐⭐⭐⭐⭐⭐⭐⭐⭐⭐⭐⭐⭐⭐⭐050321⭐⭐

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विकास चलने वाली प्रक्रिया है लेकिन प्रत्येक प्राणी का विकास निश्चित नियम के आधार पर होगा। अनेक शारीरिक और मानसिक क्रियाएं विकसित होती हैं।

          विकास के कुछ नियम इस प्रकार हैं –

🌾 सतत या निरंतर विकास का सिद्धांत :-

✨विकास की प्रक्रिया निरंतर चलती है लेकिन यह तेज यार मंद होती रहती है।

✨बच्चों के दो-तीन साल तक विकास की प्रक्रिया तीव्र होती है। 

✨ शारीरिक रूप से भी इंसान में कोई आकस्मिक परिवर्तन नहीं आता। शरीर के कुछ अंगों का विकास तीव्र गति से होता है और कुछ अंगों की विकास मंद गति से होता है।

✨ स्किनर महोदय ने इस विषय में कहा है कि, “विकास प्रक्रियाओं की निरंतरता का सिद्धांत, इस बात पर जोर देता है कि विकास में कोई आकस्मिक परिवर्तन ना हो।”

🌾 विकास के क्रम का सिद्धांत :-

✨ विकास किस सिद्धांत के अनुसार, “बालक का विकास निश्चित क्रम से होता है।”

✨ जन्म के समय बालक रोता है, विशेष आवाज निकालता है और यह आवाज धीरे-धीरे स्वर और फिर व्यंजन में परिवर्तित हो जाता है, इसके बाद सब और फिर वाक्य बन जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि बालक जन्म लेते ही  वाक्य नहीं बोलता है अर्थात प्रत्येक बालक का विकास एक क्रम में होता है।

🌾 विकास की विभिन्न गति का सिद्धांत :-

✨ व्यक्ति के विकास की गति भिन्न भिन्न होता है भिन्नता संपूर्ण काल में बनी रहती है। अर्थात बालक का विकास जो 2 वर्ष की अवस्था में होती है वह 4 वर्ष की अवस्था में हुए विकास से अलग होता है और जो 4 वर्ष की अवस्था में विकास होता है बालक के 10 वर्ष की अवस्था में हुए विकास अलग है। अतः हम यह कह सकते हैं कि बालक के विकास की आधार इसके पूर्व में हुए विकास ही है।

🌾 परस्पर संबंध का सिद्धांत :-

✨ जब बालक जन्म लेता है तो वह संवेग प्रदर्शित करता है और फिर धीरे-धीरे उम्र बढ़ने के साथ ही उसमें भाषा का विकास होता है। भाषा के सिख जाने से धीरे-धीरे बालक चीजों को समझने लगता है अर्थात बालक का मानसिक विकास होता है। मानसिक विकास के साथ ही बालक का सामाजिक विकास होता है और सामाजिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका *भाषा* का उसके *चरित्र के निर्माण* में होता है। सामाजिक विकास के साथ ही बालक में शारीरिक विकास भी होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि बालक के विकास की यह सभी प्रक्रियाएं परस्पर एक दूसरे से संबंधित है।

       इस संबंध में गैरिसन व अन्य ने कहा है कि, “शरीर संबंधी दृष्टिकोण व्यक्ति में भिन्न अंगों के विकास से सामंजस्य और परस्पर संबंध पर बल देता है।”

🌾 सामान्य से विशिष्ट अनुक्रिया या प्रतिक्रिया का सिद्धांत :-

✨ जब शिशु जन्म लेता है तो वह रोते समय अपनी संपूर्ण अंग (हाथ और पैर) को हिला कर करके रोता है और जब वही शिशु बड़ा हो जाता है तो वह केवल मुंह खोल के रोता है और उसके पास अपने हाथ देने पर वह अपने उंगलियों से पकड़ लेता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि बालक पहले पूरा शरीर ही लाता है और फिर वह धीरे-धीरे अलग-अलग कार्य को करने के लिए अलग-अलग अंगों का प्रयोग करता है।

        इस संबंध में हरलॉक कहा है कि, “विकास किस अवस्था में बालक प्रतिक्रिया विशिष्ट बनाने के पूर्व सामान्य प्रकार की होती है।” अतः बालक का विकास *सामान्य अनुक्रिया से विशिष्ट प्रतिक्रिया* तक होता है।🔚

                          🙏

📝 By – Awadhesh Kumar 🇮🇳🇮🇳🥀

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✳️ विकास के सिद्धांत✳️

विकास निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है लेकिन प्रत्येक प्राणी का  विकास निशिचत नियम के आघार पर होगा। 

इन्हीं नियमों के आधार पर अनेक शारीरिक और मानसिक क्रियाएं विकसित होती हैं। 

💐विकास के कुछ नियम है—

1.सतत् या निरंतर विकास का सिद्धांत —

विकास की प्रक्रिया निरंतर चलती है लेकिन यह गति तेज या मंद होती रहती है।

 बच्चे के दो-तीन वर्ष तक विकास की प्रक्रिया तीव्र होती है ।

शारीरिक रूप से भी इंसान में कोई आकस्मिक परिवर्तन नहीं आती है।

 शरीर के कुछ अंगों का विकास तीव्र गति से होता है और कुछ अंगों का विकास  मंद गति से होता है।

🌻 स्किनर महोदय ने इस विषय में कहा कि विकास प्रक्रियाओं की निरंतरता का सिद्धांत है इस बात पर जोर देता है कि विकास में कोई आकस्मिक में परिवर्तन ना हो।

2. विकास के क्रम का सिद्धांत—

इस सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास  एक निश्चित क्रम से होता है बच्चा पहले रोता है किर विशेष आवाज निकालता है फिर स्वर का उच्चारण करता है फिर वह व्यंजन का उच्चारण करता है वह स्वर और व्यंजन दोनों का उच्चारण करता है फिर शब्द का उच्चारण करता है फिर वाक्य का उच्चारण करता है।

💐💐3. विकास की विभिन्न गति का समान —

व्यक्ति के विकास की गति भिन्न-भिन्न होती है इनका संपूर्ण काल में बनी रहती है।

4. परस्पर संबंध का सिद्धांत—

शारीरिक, मानसिक, भाषाई ,संवेगात्मक,सामाजिक,चारित्रिक  इन सभी पक्षों में परस्पर संबंध होता है।

💐 गैरिसन व अन्य —

शरीर संबंधी दृष्टिकोण व्यक्ति के अंगों के विकास में सामंजस्य और परस्पर संबंध पर बल देता है।

5. सामान्य से विशिष्ट अनुक्रिया या प्रतिक्रिया का सिद्धांत—

💐  हरलाक के अनुसार —

विकास को सब अवस्था में बालक की प्रतिक्रिया विशिष्ट बनने के पूर्व सामान्य प्रकार की होता है।

⚜️बालक का विकास से सामान्य अनुप्रिया से विशेष प्रतिक्रिया तक होता है।

 जब बच्चा जन्म लेता है तो उसके बाद में उसमें पहले सामान्य क्रिया करता है जैसे जब शैशवावस्था में होता है तो पूरे शरीर के अंगों को एक साथ चलता है जैसे कि पूरा हाथ पर एक साथ चलता है लेकिन जैसे-जैसे बड़ा होता है वैसे वैसे उसमें विकसित गुण आने लगता है तो अब अपनी उंगलियों का सूक्ष्म मोटर कौशल का प्रयोग करने लगता है।

Notes by:- Neha Roy🙏🙏🙏🙏🙏🙏

⛲  𝔽𝕠𝕣𝕞𝕤 𝕠𝕗 𝔻𝕖𝕧𝕖𝕝𝕠𝕡𝕞𝕖𝕟𝕟𝕥⛲

              विकास के सिद्धांत

➪विकास निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है लेकिन प्रत्येक प्रणाली का विकास निश्चित नियम के आधार पर होता है,

➪इन्हीं नियमों के आधार पर अनेक शारीरिक और मानसिक क्रियाएं विकसित होती हैं।

☞︎︎︎विकास के कुछ निम्नलिखित प्रकार है;

☞︎︎︎1️⃣➡️-सतत् या निरंतर विकास का सिद्धांत

विकास की प्रक्रिया निरंतर चलती है लेकिन यह गति तेज या मंद होती रहती है,

☞︎︎︎बच्चों में 2 से 3 साल तक विकास की प्रक्रिया तीव्र होती है,

☞︎︎︎शारीरिक रूप से भी इंसान में कोई आकस्मिक परिवर्तन नहीं आता शरीर के कुछ अंगों का विकास तीव्र गति से होता है और कुछ अंकों का मंद गति से होता है,

➪स्किनर महोदय ने इस विषय में कहा है कि÷

☞︎︎︎विकास प्रक्रियाओं के निरंतरता का सिद्धांत इस बात पर जोर देता है कि विकास में कोई आकस्मिक परिवर्तन ना हो।

➪💐2️⃣➡️-विकास क्रम का सिद्धांत÷

इस सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास एक निश्चित क्रम में होता है;

☞︎︎︎जैसे÷शुरू में बच्चा अपना सिर ऊपर उठाने की कोशिश करता है, फिर लुढ़कना शुरू करता है, फिर एक निश्चित कर्म के बाद सीढ़ी पर चढ़ना या उतारना सीख जाता है, फिर उछलना कूदना दौड़ना एवं भागना इत्यादि।

➪3️⃣÷विकास की विभिन्न गति का सिद्धांत÷

व्यक्ति के विकास की गति भिन्न-भिन्न होती है भिन्नता संपूर्ण काल में बनी रहती है;

ᴥ︎︎︎जैसे÷ जिस प्रकार मनुष्य के पैर की लंबाई बढ़ती है,उसी प्रकार से उसके अन्य अंगों की लंबाई या विकास नहीं होता है बल्कि अंगो का अंगो के अनुसार ही विकास होता है।

☞︎︎︎4️⃣-परस्पर संबंध का सिद्धांत÷

☞︎︎︎शारीरिक ,मानसिक, भाषायी,संवेगात्मक ,सामाजिक चारित्रिक, इन सभी पक्षों में परस्पर संबंध होता है।

➪जैसे÷जिस प्रकार एक स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का विकास होता है वैसे ही व्यक्ति के अन्य पक्षो का विकास भी ठीक उसी प्रकार से होता है।

✍︎गैरिसन के अनुसार÷

➡️शरीर संबंधी दृष्टिकोण व्यक्ति के विभिन्न अंगों के विकास के सामान्य और परस्पर संबंध पर बल देता हैं।

➪5️⃣-सामान्य से विशिष्ट अनुक्रिया या प्रतिक्रिया का सिद्धांत-

✍︎हरलाक के अनुसार÷विकास की सब अवस्थाओं में बालक की प्रतिक्रिया विशिष्ट बनने के पूर्व सामान्य प्रकार की होती है;

➪बालक का विकास सामान अनुक्रिया से विशिष्ट प्रतिक्रिया तक होता है।

✍︎हस्तलिखित÷ शिखर पाण्डेय✍︎✍︎ 🌸

23. CDP – Growth and Development PART- 4

*🌸विकास का रूप🌸*

 *(Form of development)*

*04 march 2021*

 जैसा कि हम सभी जानते हैं विकास की प्रक्रिया जीवन भर चलती रहती है। 

विकास की प्रक्रिया में बालक का शारीरिक, क्रियात्मक, संज्ञानात्मक, भाषागत, संवेगात्मक एवं सामाजिक विकास होता है। बालक में क्रमबद्ध रुप से होने वाले सुसंगत परिवर्तन की श्रृंखला को ही  विकास कहते हैं।

👉विकास की प्रक्रिया में चार प्रकार के परिवर्तन निश्चित रूप से होते हैं जो निम्नलिखित है-

*१.आकार में परिवर्तन-*

शरीर के आकार में परिवर्तन अक्सर बच्चों के विकास के बीच देखा जा सकता है।

शरीर के विकास के क्रम में आयु के बढ़ने से शरीर के आकार और भार में परिवर्तन आता है क्योंकि आकार बढ़ेगा तो भार निश्चित रूप निश्चित रूप से बढ़ेगा ही यह हम जानते हैं। 

 उदाहरण के लिए कोई बच्चा जब 2 वर्ष का होता है तो उसके शरीर का आकार छोटा एवं भार में कमी होती है  एवं जैसे-जैसे बच्चे की उम्र बढ़ती जाती है उसके शरीर का आकार भी बढ़ता है और साथ-साथ भार में भी वृद्धि होती है। 

*२.अनुपात में परिवर्तन-*

 आकार में परिवर्तन एक अनुपात में होता है।

हमारे शरीर के सभी अंग एक साथ परिपक्व नहीं होते और सभी अंगों का विकास एक निश्चित अनुपात में होता है। 

उदाहरण के लिए संपूर्ण विकास काल में मनुष्य के हृदय का भार जन्म से 13 गुना बढ़ जाता है। 

जबकि मस्तिष्क का भार 1:4 होता है या जन्म से 4 गुना बढ़ता है। 

अतः विकास क्रम में शारीरिक अंगों के अनुपात में अंतर आ जाता है। 

👉 शैशवावस्था में बालक स्वयं केंद्रित होता है जबकि बाल्यावस्था आते-आते वह अपने आसपास और वातावरण में भी रुचि लेने लगता है। 

*३.पुरानी रूपरेखा में परिवर्तन -*

प्राणी के विकास क्रम मे  पुरानी विशेषताओं का लोप वह नई विशेषताओं का उदय होता है

 जैसे –  बचपन के बालों और दांतो का समाप्त हो जाना तथा नए बाल व दांतों का आना। 

*४.नए गुणों की प्राप्ति -*

विकास क्रम में जहां एक ओर पुरानी रूपरेखा में परिवर्तन होता है वहीं उसका स्थान, नए गुण प्राप्त कर लेते हैं

 जैसे –  स्थाई दांत आना, स्पष्ट  उच्चारण करना, उछलना, कूदना, भागना, दौड़ना आदि की नई क्षमता का उदय होना।

👉यह सारे नए गुण प्राणी को विकास क्रम में प्राप्त होते हैं। 

 उपरोक्त बिंदुओं के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि आकार में परिवर्तन से अनुपात में परिवर्तन होता है और अगर अनुपात में परिवर्तन होता है तो पुरानी रूपरेखा में भी परिवर्तन होता है और पुरानी रूपरेखा में परिवर्तन होने से नए गुणों की प्राप्ति होती है। 

Notes bye Shivee Kumari

🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸

🔆विकास का रूप 🔆

             (Form of Development)

🔸विकास की प्रक्रिया में चार प्रकार के परिवर्तन निश्चित होते हैं जिनके द्वारा विकास का रूप निर्धारित होता है यह चारों परिवर्तन निम्न प्रकार है।

1 आकार में परिवर्तन

2 अनुपात में परिवर्तन

3 पुरानी रूपरेखा में परिवर्तन

4 नए गुणों की प्राप्ति

🌠 1 आकार में परिवर्तन ➖

शरीर के आकार में परिवर्तन अक्षर बच्चों की विकास के बीच में देखा जा सकता है।

शरीर की विकास के क्रम में आयु के बढ़ने से शरीर के आकार और भार में परिवर्तन आता है।

🌠 2 अनुपात में परिवर्तन ➖

आकार में परिवर्तन अनुपातिक या एक अनुपात में होता है। हमारे शरीर के सभी अंग एक साथ परिपक्व नहीं होते है। और सभी अंगों का विकास एक निश्चित अनुपात में नहीं होता है।

जैसे – जिस अनुपात में हाथ या पैर का विकास हुआ है ठीक उसी अनुपात में ही नाक या आंख का विकास नहीं होगा ।

सभी अंग अलग-अलग अनुपात में आगे बढ़ते हैं।

यह अनुपात में परिवर्तन शरीर के बाह्य अंगों के साथ-साथ आंतरिक अंगों में भी होता है।

जैसे – संपूर्ण विकास काल में हृदय का भार जन्म के भार से 30 गुना बढ़ जाता है जबकि मस्तिष्क का भार केवल चार गुना बढता है।

अतः विकास क्रम में शारीरिक अंगों के अनुपात में अंतर आ जाता है।

सभी अंगों का अनुपात एक जैसा नहीं होता इसीलिए जब संपूर्ण अंग विकसित हो जाते हैं तत्पश्चात सभी अंग एक आकार या एक भार या एक जैसे नहीं दिखाई देते है।

शैशवावस्था में बालक स्व केंद्रित होता है जबकि बाल्यावस्था में आते-आते अपने आसपास और वातावरण में भी रुचि लेने लगता है।

🌠 3 पुरानी रूपरेखा में परिवर्तन ➖

प्राणी के विकास क्रम में नवीन विशेषताओं का उदय होने से पूर्व या पुरानी विशेषताओं का लोप होता है।

जैसे:- बचपन के बालों और दांतो का समाप्त हो जाना , बचपन की अस्पष्ट ध्वनि ,खिसकना, घुटनों के बल चलना, रोना ,चिल्लाना जैसी क्रियाएं।

🌠 4 नई गुणों की प्राप्ति ➖

विकास क्रम में जहां एक और पुरानी रूपरेखा में परिवर्तन होता है वही उसका स्थान नए गुण प्राप्त कर लेते हैं।

जैसे:- स्थाई दांत आना, स्पष्ट उच्चारण करना, उछलना, कूदना, भागना, दौड़ना जैसी नई क्षमताओं का उदय या जन्म होता है।

यह सभी नए गुण प्राणी को विकास में प्राप्त होते हैं।

✍️

        Notes By-‘Vaishali Mishra’

⭐❇️ विकास का रूप ❇️⭐

विकास अनेक प्रकार प्रकार के रूपों में होते हैं , लेकिन विकास के ऐसे 4 परिवर्तन जो निश्चित ही होते हैं।

❇️⭐आकार में परिवर्तन❇️⭐

✍️शरीर के आकार में परिवर्तन अक्सर बच्चों में विकास के बीच देखा जा सकता है।

 ✍️शरीर के विकास में क्रम से आयु के बढ़ने से शरीर के आकार और भार में भी परिवर्तन आता है।

उदाहरण – छोटा होता है तो उसकी लंबाई छुट्टी होती है और भाड़ में भी कमी होती है जिससे बच्चा बड़ा होता है उसकी लंबाई के साथ-साथ भाड़ में भी परिवर्तन आता है।🌠जैसे -जब बच्चा जन्म लेता है तो 3 से 4 किलो का होता है और जब बड़ा होता है तो उसके किलो दर भी बढ़ जाती है।

⭐❇️अनुपात में परिवर्तन❇️⭐

✍️आकार में परिवर्तन अनुपातिक होता है हमारे शरीर के सभी अंग एक साथ परिपक्व नहीं होते और ना ही सभी अंगों का विकास एक निश्चित अनुपात में  हो।

जैसे संपूर्ण विकास काल में हृदय का भार जन्म  से 13 गुणा बढ़ जाता है जबकि मस्तिष्क का भार केवल 4 गुणा होता है।

🌠हृदय काअनुपातिक दर-1:13

🌠मस्तिष्क का अनुपातिक दर-1:4

✍️अतः विकास क्रम शारीरिक अंगों के अनुपात में अंतर आ जाता है

✍️शैशवा अस्था में बालक स्व केंद्रित होता है जबकि बाल्यावस्था में आते-आते अपने आस-पास और वातावरण में भी रुचि लेने लगता है।

⭐❇️पुरानी रूपरेखा में परिवर्तन❇️⭐

✍️प्राणी में विकास कर्म से नवीन विशेषताओं का उदय होते ही पूर्व पुरानी विशेषताओं का लोप होता है 🌠जैसे -बचपन के बालों और दांतो का समाप्त  हो जाना इसी प्रकार बचपन की अस्पष्ट धनिया सिखाना, घुटनों के बल चलना ,रोना चिल्लाना,यह सब सारे विशेषताएं हैं पुरानी हो जाती है और फिर हमारे जीवन में वापस नहीं मिलती है।

❇️⭐नए गुणों की प्राप्ति❇️⭐

✍️विकास क्रम से जहां एक ओर पुराने रूपरेखा में परिवर्तन होता है वही उसका स्थान नए गुणों को प्राप्त करता है

🌠जैसे -स्थाई दांत का आना स्पष्ट उच्चारण करना उछलना कूदना भागना ,दौड़ने, आदि क्षमता का उदय होता है सारे गुण प्राणी में विकास के क्रम में प्राप्त होते हैं।

✍️✍️🙏Notes by Laki 🙏✍️✍️

⛲  ℱℴ𝓇𝓂  ℴ𝒻  𝒟ℯ𝓋ℯ𝓁ℴ𝓅𝓂ℯ𝓃𝓉 ⛲

                     Ꙭविकास का रूप Ꙭ

 ➡️विकास की प्रक्रिया में चार प्रकार के परिवर्तन निश्चित ही होते हैं।

1️⃣➡️   आकार में परिवर्तन

➡️शरीर के आकार में परिवर्तन अक्षर बच्चों के विकास के बीच देखा जा सकता है;

➡️शरीर के विकास के क्रम में आगे बढ़ने से शरीर के आकार और भार में परिवर्तन आता है;

⛲जैसे-जैसे बालक की उम्र बढ़ती जाती है वैसे वैसे ही उसकी आकार वा भार में वृद्धि होती जाती है;

2️⃣➡️अनुपात में परिवर्तन

➡️आकार में परिवर्तन अनुपातिक होता है हमारे शरीर के सभी अंग के एक साथ परिपक्व  नहीं होते हैं और सभी अंगों का विकास एक ही निश्चित अनुपात में नहीं होता है;

➡️जैसे हृदय का जन्म के समय और पूर्ण अवस्था के दौरान का अनुपात १:१३ होता है;

मस्तिष्क जन्म के समय वह पूर्ण अवस्था के बाद का अनुपात १:४ होता है;

➡️संपूर्ण विकास काल में हृदय का भार जन्म के भार से 13 गुनाबढ़ जाता है जबकि मस्तिष्क का भार केवल ४ गुणा ही बढ़ता है, अतः विकास क्रम शारीरिक अंगों के अनुपात में आ जाता है।

➡️शैशवावस्था में बालक स्व केंद्रित होता है और जबकि बाल्यावस्था आते-आते अपने आसपास और वातावरण में भी रूचि लेने लगता है;

3️⃣➡️- पुरानी रूपरेखा में परिवर्तन

प्राणी के विकास क्रम में नवीन विशेषताओं का उदय होने से  पुरानी विशेषताओं का लोप हो जाता है;

🌊जैसे÷ बचपन के बालों और दातों का समाप्त हो जाना;

ठीक इसी प्रकार बचपन की अस्पष्ट ध्वनियों का स्पष्ट होना,

🌊लुढ़कना वा खिसकना ,घुटनों के बल चलना ,रोना ,चिल्लाना इत्यादि क्रियाएं एक अवस्था के बाद खत्म हो जाती है।

4️⃣➡️नए गुणों की प्राप्ति

➡️विकास क्रम में जहां एक ओर पुरानी रूपरेखा में परिवर्तन होता है वही उसका स्थान में गुण प्राप्त कर लेते हैं।

🌊जैसे स्थाई दांत का आना, स्पष्ट उच्चारण करना उछलना ,कूदना ,भागना ,दौड़ना वह नई क्षमताओं का उदय होना इत्यादि

यह सारे नए गुण प्राणी को विकास क्रम में प्राप्त होता है।

➡️हस्तलिखित-शिखर पाण्डेय🎉

🎯विकास का रूप 🎯

(From of development)

विकास की प्रक्रिया में चार प्रकार के परिवर्तन निश्चित ही होते हैं।

🌼(1) आकार में परिवर्तन —

➡️शरीर के आकार में परिवर्तन अक्सर बच्चों के विकास के बीच देखा जा सकता है।

शरीर के विकास के क्रम में आयु के बढ़ने से शरीर के आकार और भार में परिवर्तन आता है।

➡️2)अनुपात में परिवर्तन—-

💫आकार में परिवर्तन अनुपातिक होता है हमारे शरीर के सभी अंग एक साथ परिपक्व नहीं होते हैं और सभी अंग का विकास एक निश्चित अनुपात में नहीं होता है।

जैसे- संपूर्ण विकास काल के हृदय का भार जन्म के समय का भार से 13 गुना बढ़ जाता है जबकि मस्तिष्क का भार केवल 4 गुणा बढ़ता है।

अतः विकास क्रम में शारीरिक अंगों के अनुपात में अंतर आ जाता है।

➡️(3)पुरानी रूपरेखा में परिवर्तन—-

💥प्राणी के विकास क्रम में नवीन विशेषताओं का उदय होने से पूर्व पुराने विशेषताओं का लोप होता है।

जैसे- बचपन के बालों और दांतो का समाप्त हो जाना।

                             इसी प्रकार बचपन की अस्पष्ट ध्वनियों, खिसकना, घुटनों के बल चलना, रोना ,चिल्लाना इत्यादि होते हैं।

➡️(4) नए गुणों की प्राप्ति—

🌺विकास क्रम में जहां एक ओर पुरानी रूपरेखा में परिवर्तन होता है वही उनका स्थान नए गुण प्राप्त कर लेते हैं।

जैसे — स्थाई दांत आना ,स्पष्ट उच्चारण करना, उछलना ,कूदना, भागना ,दौड़ना, की नई क्षमता का उदय होना।

                   यह सारे नए गुण प्राणी के विकास क्रम में प्राप्त होते हैं।

🥀🌹🌸🙏Notes by- SRIRAM PANJIYARA 🌈🌸💥🌺🙏

🔆 विकास का रुप (from of Development ) ➖

विकास की प्रक्रिया में चार प्रकार के परिवर्तन निश्चित ही होते हैं जो कि हमारे विकास के रूप को  निर्धारित करते हैं जो कि निम्न हैं ➖

1) आकार में परिवर्तन

2) अनुपात में परिवर्तन

3) पुरानी रुपरेखा में परिवर्तन

4) नए गुणों की प्राप्ति

🔷 आकर में परिवर्तन➖

शरीर के आकार में परिवर्तन अक्सर बच्चों के विकास के बीच देखा जा सकता है जैसे जैसे बच्चे बड़े होते हैं उनके आकार और भार में भी परिवर्तन होने लगता है शरीर के विकास के क्रम में आयु में बढ़ने के साथ बच्चे के शरीर के आकार और भार में भी परिवर्तन आता है |

🔷 अनुपात में परिवर्तन➖

आकार में परिवर्तन अनुपातिक होता है हमारे शरीर के अंग  एक साथ परिपक्व नहीं होते हैं और सभी अंगों का विकास एक निश्चित अनुपात में नहीं होता है |

         संपूर्ण विकास काल में हृदय का भार जन्म के बाहर से लगभग 13 गुना बढ़ जाता है अर्थात अनुपात 1:13 हो जाता है जबकि मस्तिष्क का भार 4 गुना बढ़ जाता है अर्थात मस्तिष्क के भार का अनुपात 1:4 हो जाता है |

      शारीरिक विकास क्रम में शारीरिक अंगों के अनुपात व्यापक  अंतर आता है |

     शैशावस्था  में बच्चा स्वकेंद्रित होता है स्वयं के बारे में सोचता है अर्थात शून्य में होता है और कल्पनाओं में रहता है लेकिन जब बच्चा बाल्यावस्था में  वह अपने आसपास के वातावरण और व्यक्तियों में रुचि लेने लगता है  |

🔷 पुरानी रुपरेखा में परिवर्तन➖

प्राणी के विकास क्रम में नवीन विशेषताओं का उदय होने  से पूर्व पुरानी विशेषताओं का लोप हो जाता है  विशेषताएं समाप्त हो जाते हैं कभी लौट कर नहीं आती हैं जैसे बचपन के बालों और दातों का समाप्त हो जाना  |

       इसी प्रकार बचपन की अस्पष्ट ध्वनियाँ, पैरों के बल खिसकना,घुटनों के बल चलना, रोना और चिल्लाना इत्यादि |

🔷 नए गुणों की प्राप्ति ➖

विकास के क्रम में  जहां एक ओर पुरानी रुपरेखा में  परिवर्तन होता है तो वही उसका स्थान नए गुण  प्राप्त कर लेते हैं |

    जैसे स्थाई दांतों का आना, स्पष्ट उच्चारण करना, उछलना, कूदना, भागना और दौड़ने की क्षमता का उदय होना इत्यादि |

   यह सारे नए गुण प्राणी को विकास क्रम में  ही प्राप्त हो जाते है  जो कि एक निश्चित क्रम में होते हैं  जो उम्र के साथ जीवन पर्यन्त चलते रहते हैं |

नोट्स बाय➖ रश्मि सावले

🌻🌹🌼🌸🍀🌺🌻🌹🍀🌼🌸🌻🌺🌹🍀🌼🌻🌹🌺🌼🍀🌸

🌻🌸🌹 विकास का रूप🌹🌻

 👉 विकास की प्रक्रिया में चार प्रकार के परिवर्तन निश्चित ही होते हैं

▫️ आकार में परिवर्तन

▫️  अनुपात में परिवर्तन

▫️ पुरानी रूपरेखा में परिवर्तन

▫️  नई गुणों की प्राप्ति

🔸  आकार में परिवर्तन:- शरीर के आकार में परिवर्तन अक्सर बच्चों के विकास के बीच में देखा जा सकता है।

 शारीरिक विकास के क्रम में आयु के बढ़ने से शरीर के ‘आकार’ और ‘भार’ में परिवर्तन आता है।

🔸 अनुपात में परिवर्तन:- आकार में परिवर्तन आनुपातिक होता है हमारे शरीर के सभी अंग एक साथ परिपक्व नहीं होते हैं वह धीरे-धीरे परिपक्व होते हैं और एक निश्चित अनुपात में नहीं होता है।

 जैसे :- हाथ का आकार और अनुपात अलग होता है। 

कान का आकार और अनुपात अलग होता है। पूरे शरीर का आकार और अनुपात एक निश्चित क्रम में नहीं होता है।

 Note:-   जन्म से हृदय का भार 13 गुना बढ़ जाता है, जबकि मस्तिष्क का भार केवल चार गुना बढ़ता है।

सबका अपना-अपना अनुपात होता है और अनुपात के हिसाब से दर भी अलग-अलग होती है।

अतः विकास क्रम में शारीरिक अंगों के अनुपात में अंतर आ जाता है।

शैशवावस्था में बालक स्व केंद्रित होता है जबकि बाल्यावस्था में आते आते अपने आस-पास के वातावरण में भी रुचि लेने लगता है।

🔸 पुरानी रूपरेखा में परिवर्तन:-  प्राणी के विकास क्रम में नवीन विशेषताओं का उदय होने से पूर्व पुरानी विशेषताओं का लोप हो जाता है।

जैसे बचपन की बाल और दांतों का समाप्त हो जाना।

इसी प्रकार बचपन की और स्पष्ट ध्वनि या खिसकना घुटनों के बल चलना आदि का लोप हो जाता है।

🔸 नए गुणों की प्राप्ति:- विकास क्रम में जहां एक ओर रूपरेखा में परिवर्तन होता है वही उसका स्थान नए गुण प्राप्त कर लेते हैं।

जैसे स्थाई दांत आना और स्पष्ट, उच्चारण करना, उछलना, कूदना, भागना, दौड़ना आदि नई क्षमताओं का उदय होता है।

 यह सारे नए गुण प्राणी को विकास क्रम में प्राप्त होता है।

         🌻🌻🌻🌻🌻🌻

Notes by

       Shashi chaudhary

        🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸

💫🌸 विकास का रूप🌸💫

👉🏼 विकास की प्रक्रिया में चार प्रकार के परिवर्तन निश्चित ही होते हैं।

🌼 आकार भी परिवर्तन

🌼 अनुपात में परिवर्तन

🌼 पुरानी रूपरेखा में परिवर्तन

🌼 नए गुणों की प्राप्ति

🌼 आकार में परिवर्तन➖

शरीर के आकार में परिवर्तन अक्सर बच्चों के विकास के बीच देखा जा सकता है ।

शरीर के विकास के क्रम में आयु के बढ़ने से शरीर के ‘आकार ‘और ‘भार’ में परिवर्तन आता है।

🌼 अनुपात में परिवर्तन➖आकार में परिवर्तन अनुपातिक होता है हमारे शरीर के सभी अंग एक साथ परिपक्व नहीं होते हैं।

सभी अंगों का विकास एक निश्चित अनुपात में नहीं हो पाता है। जैसे—

संपूर्ण विकास में शारीरिक अंगों के अनुपात में अंतर आ जाता है।

शैशवास्था में बालक स्व केंद्रित होता है जबकि बाल्यावस्था आते-आते अपने आप -पास और वातावरण में भी रुचि से लगता है।

🌼 पुरानी रूपरेखा में परिवर्तन➖प्राणी के विकास क्रम में नवीन विशेषताओं का उदय होने से पूर्ण पुरानी विशेषताओं का लोप होता है। जैसे–

बचपन के बालों और दातों का समाप्त हो जाना।

इसी प्रकार बचपन की  अस्पष्ट ध्वनियों, खिसकना,  घुटनों के बल चलना, रोना ,चिल्लाना

🌼 नए गुणों की प्राप्ति➖विकास क्रम में जहां एक और पुराने रूपरेखा में परिवर्तन होता है वही उसका स्थान नए गुण प्राप्त कर लेता है जैसे–स्थाई दांत,  अस्पष्ट उच्चारण करना, उछलना, कूदना ,भागना ,दौड़ना की नई क्षमताओं का उदय होता है यह सारे नए-नए गुण प्राणी को विकास क्रम में प्राप्त होता हैं।

✍🏻📚📚 Notes by…..

Sakshi Sharma📚✍🏻

💥 विकास का रूप💥

विकास की प्रक्रिया में चार प्रकार के परिवर्तन अवश्य होते हैं

जो इस प्रकार है➖

♻️आकार में परिवर्तन- बच्चों में विकास के द्वारा ही शरीर के आकार में परिवर्तन देखा जा सकता है

शरीर के विकास के क्रम में आयु बढ़ने के साथ-साथ आकर और भार में भी परिवर्तन होता जाता है जैसे जैसे आयु बढ़ेगी आकार और भार भी बढ़ता जाता है

♻️अनुपात में परिवर्तन- आकार में परिवर्तन अनुपातिक होता है हमारे शरीर के अंग एक साथ परिपक्व  नहीं होते हैं और शरीर अंगों का विकास एक निश्चित अनुपात में नहीं होता है

जैसे संपूर्ण विकास काल में हृदय का भार  जन्म के भार से तीन  गुना ही बढ़ता  है

अतः विकास क्रम में शारीरिक अंगों के अनुपात में  आ जाता है शेष अवस्था में बालक स्व केंद्रित होता है जबकि बाल्यवस्था आते-आते अपने आसपास और वातावरण में भी रुचि लेने लगता है

 ♻️पुरानी रूपरेखा में परिवर्तन- प्राणी के विकास क्रम में नवीन विशेषताओं का उदय होने से पूर्व पुरानी विशेषताओं की समाप्ति हो जाती है जैसे बचपन में बालों का और दांतों का समाप्त होकर नए आना इसी प्रकार बचपन की स्पष्ट ध्वनि  खिसकना घुटनों के बल चलना रोना चिल्लाना आदि

♻️नए गुणों की प्राप्ति- विकास क्रम में जहां एक और पुरानी रूपरेखा का परिवर्तन होता है वही उसका स्थान नए गुण प्राप्त कर लेता है जैसे स्थाई दांत आना दौड़ने की नई क्षमता का उदय होना स्पष्ट उच्चारण करना यह सारे नए गुण प्राणी के विकास क्रम में परिवर्तन प्राप्त होते हैं

सारांश➖

1- आकार में परिवर्तन

2- अनुपात में परिवर्तन

3- पुरानी रूपरेखा में परिवर्तन

4- नए गुणों की प्राप्ति

Notes by sapna yadav

विकास की प्रक्रिया में चार प्रकार के परिवर्तन निश्चित ही होते हैं

1. आकार में परिवर्तन 

2. अनुपात में परिवर्तन 

3. पुरानी  रूपरेखा में परिवर्तन 

4. नए गुणों की प्राप्ति

1.  आकार में परिवर्तन

शरीर के आकार में परिवर्तन अक्सर बच्चों के विकास के बीच देखा जा सकता है

शरीर के विकास के क्रम में आयु के बढ़ने से शरीर के आकार और भार में परिवर्तन होता है।

जैसे जन्म के समय बच्चे का वजन  6 से 8 पाउंड के बीच होता है उसके बाद 5 वर्ष में बच्चे का वजन 43 पाउंड हो जाता है ऐसे ही जन्म के समय बच्चे की लंबाई 19 से 21 इंच होती है लेकिन 5 वर्ष के बाद 43 इंच हो जाती है।

2. अनुपात में परिवर्तन

आकार में परिवर्तन अनुपातिक होता है

हमारे शरीर के सभी अंग एक साथ परिपक्व नहीं होते हैं

और सभी अंग का विकास एक निश्चित अनुपात में नहीं होता है जैसे

संपूर्ण विकास काल में हृदय का भार जन्म के बाद से 13 गुना बढ़ता है जबकि मस्तिष्क का भार केवल चार गुना बढ़ता है

हृदय 1:13

मस्तिष्क 1:4

अतः विकास क्रम में शारीरिक अंगों के अनुपात में अंतर पाया जाता है।

शैशवावस्था में बालक स्व केंद्रित होता है जबकि बाल्यावस्था में आते आते बालक अपने आसपास और वातावरण में भी रुचि लेने लगता है।

3. पुरानी रूपरेखा में परिवर्तन-

प्राणी  के विकास क्रम में नवीन विशेषताओं का उदय होने से पूर्व पुरानी विशेषताओं का लोप होता है

जैसे बचपन के बालों और दातों का समाप्त हो जाना इसी प्रकार बचपन की स्पष्ट ध्वनियां, खिसकना घुटनों के बल चलना, रोना, चिल्लाना  आदि 

4. नए गुणों की प्राप्ति

विकास क्रम में जहां एक ओर पुरानी रूपरेखा में परिवर्तन होता है वही उसका स्थान नये गुण प्राप्त कर लेते हैं

जैसे स्थाई दांत आना ,स्पष्ट उच्चारण करना ,उछलना, कूदना, भागना ,दौड़ने की नई क्षमता का उदय होना 

यह सारे नए गुण प्राणी को विकास क्रम में प्राप्त होते हैं।

Notes by Ravi kushwah

🌴🌻🌻🌺🌻🌻🌺🌴

विकास के रूप-   विकास की प्रक्रिया में चार प्रकार के परिवर्तन निश्चित प्रकार से हुए हैं।

🌤️आकार में परिवर्तन

🌤️अनुपात में परिवर्तन

🌤️पुरानी रूप रेखा में परिवर्तन

🌤️नये गुणों की प्राप्ति

🌴➡️ आकर में परिवर्तन-  शरीर के आकार में परिवर्तन , उसके भार में परिवर्तन विकास के बीच देखा जाता है। शरीर के विकास के क्रम में आयु के बढ़ने से शरीर के आकार और भार में परिवर्तन होते है। 

 जैसे कि बच्चे की  5 वर्ष में उनका भार  20kg होता है जबकि 10 वर्ष की आयु में लगभग 25kg होता है।

🌴➡️ अनुपात में परिवर्तन- शरीर के आकार में जो परिवर्तन होता है वह एक अनुपात में होता है लेकिन एक निश्चित अनुपात नही होता है। हमारे शरीर के सभी अंग एक साथ परिपक्व नही होते है। प्रत्येक व्यक्ति के शरीर के अंगों का जो अनुपात होता है वह अलग अलग होता है।

 जैसे सम्पूर्ण विकास काल मे हृदय का भार जन्म के समय की अपेक्षा 13गुना हो जाता है।

👉अतः विकास के क्रम में शारीरिक अंगों के अनुपात में अंतर आ जाता है।

🌴➡️ पुरानी रूप रेखा में परिवर्तन- प्राणी के विकास के क्रम मे ,नवीन विशेषताओं का उदय होता है और जो पुरानी विशेषता है उनका लोप हो जाता है जैसे – जन्म के समय के बाल,दांत का समाप्त होना । इसी प्रकार बचपन की अस्पष्ट ध्वनियों ,खिसकना ,घुटनो के बल चलना ,रोना चिल्लाना ।

🌴➡️  नए गुणों की प्राप्ति- विकास के क्रम में जहाँ एक ओर रूपरेखा में परिवर्तन होता है वही उसका स्थान नये गुण प्राप्त कर लेते हैं।  जैसे- स्थायी दाँत का आना, चलना,उछालना, भागना ,दौड़ना आदि सभी नए क्षमताओं का उदय होता है।

 💥यह सारे नये गुण प्राणि के विकास क्रम से प्राप्त किये जाते हैं।

💥💥💥 Notes by Poonam sharma📚📚📚📚

विकास   के   रूप 

💥💥💥💥💥💥

4 march 2021

विकास के रूप को चार प्रकार से परिवर्तित किया गया है :-

1. आकार में परिवर्तन

2. अनुपात में परिवर्तन

3. पुरानी रूपरेखा में परिवर्तन

4. नए गुणों की प्राप्ति

उपर्युक्त परिवर्तनों के बारे में निम्नलिखित तौर पर विस्तारित रूप से जानते हैं  :-

1.  🌺 आकार में परिवर्तन  :-

शरीर के आकार में परिवर्तन अक्सर बच्चों के विकास के बीच देखा जा सकता है।

शरीर के विकास के क्रम में आयु के बढ़ने से शरीर के आकार और भार में परिवर्तन आता है।

        💐 अर्थात् बच्चों के बाह्य और आंतरिक शारीरिक अंगों में परिवर्तन जैसे – हाथ – पैर, वक्षस्थल, सिर आदि में बढ़ती उम्र के अनुसार जो विकासात्मक परिवर्तन होता है उसे ही आकार में परिवर्तन कहते हैं।

2. 🌺 अनुपात में परिवर्तन  :-

आकार में परिवर्तन अनुपातिक होता है।

हमारे शरीर के सभी अंग एक साथ परिपक्व नहीं होते हैं। 

और सभी अंग का विकास एक निश्चित अनुपात में नहीं होता है।

मनुष्य के संपूर्ण विकास काल में *हृदय का भार* जन्म के भार से 13 गुना बढ़ जाता है अर्थात  *1 : 13*  हो जाता है। 

और *मस्तिष्क का भार* जन्म के भार से 4 गुना बढ़ जाता है अर्थात *1 : 4*  हो जाता है।

अतः विकास क्रम में शारीरिक अंगों के अनुपात में अंतर आ जाता है।

शैशवावस्था में बालक स्व – केंद्रित होता है , 

जबकि बाल्यावस्था में आते- आते अपने आसपास और अन्य वातावरण में भी रुचि लेने लगता है।

3. 🌺 पुरानी रूपरेखा में परिवर्तन  :-

प्राणी के विकास क्रम में नवीन विशेषताओं का उदय होने से पूर्व पुरानी विशेषताओं का लोप हो जाता है।

       💐  जैसे :-  बचपन के बाल और दांत एक समय- सीमा तक समाप्त हो जाते हैं।

       इसी प्रकार बचपन की अस्पष्ट ध्वनियां , खिसकना – रेंगना , घुटनों के बल चलना , रोना , चिल्लाना आदि एक समय तक ही होता है।

4.  🌺 नए गुणों की प्राप्ति :-

विकास क्रम में जहां एक ओर पुरानी रूप-रेखाओं में परिवर्तन होता है , तो वहीं उसका स्थान नए गुण प्राप्त कर लेते हैं ।

         💐  जैसे  :-  स्थाई दांत आना , स्पष्ट उच्चारण करना ,  उछलना , कूदना , भागना , दौड़ना आदि की नई क्षमता का उदय होता है ।

अर्थात् ये जो नये गुणों की प्राप्ति होती है बो जीवन पर्यन्त व्यक्ति में समाहित होती है।

🌻 ये सारे नये गुण प्राणी को विकास क्रम में प्राप्त होते हैं।

✍️Notes by – जूही श्रीवास्तव✍️

22. CDP – Growth and Development PART- 3

🌻🌻🌺🌺🌻🌻🌺🌺

वृध्दि और विकास में अंतर – 

🌺🌺🌻🌻🌺🌺🌻🌻

🌴 बृद्धि और विकास का विशेष अर्थ को समझने के लिये इनके बीच के अंतर को समझना आवश्यक है।

👨‍✈️ सोरेनसन के अनुसार- ”  सामान्य रूप से अभिवृद्धि शब्द का प्रयोग शरीर और उसके आकर ,भार में किया जाता हैं।इसे मापा तौला जा सकता है। विकास का सम्बंध अभिवृद्धि से अवश्य होता है पर यह शरीर मे होने वाले परिवर्तनों को विशेष रूप से व्यक्त करता है।

जैसे हमारे मांसपेशियों या हड्डियों के आकार में बृद्धि होती है लेकिन इन परिवर्तनों के स्वरूप में जो बदलाव आता है वह विकास है।

  अतः हम कह सकते हैं कि विकास जो है उसमें बृद्धि का भाव निहित रहता है।

 सामान्यतः शिक्षाविदों द्वारा दोनो शब्द(बृद्धि और विकास) का प्रयोग जब भी करते हैं।एक ही अर्थ में करते हैं।

🌴🌺 एक बच्चे में वृध्दि और विकास उसी समय आरम्भ हो जाता है जिस समय बच्चा गर्भ में प्रवेश करता है और यह जन्म के बाद तक चलता रहता है।

👨‍✈️🌻 हरलॉक के अनुसार ” विकास अभिवृद्धि तक सीमित नही है इसके बजाय इसमे प्रौढ़ावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तन का प्रगति शील क्रम निहित रहता है।

           विशेषतः विकास के परिणाम स्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषता और योग्यता प्रकट होती है।

🌳👉 बृद्धि-  यह मनुष्य के बनावट या भार में होने वाले परिवर्तन बृद्धि है। 

 🌺 और विकास मनुष्य के मानसिक ,सामाजिक,संवेगात्मक, भावात्मक परिवर्तन विकास होता है।

🌳👉 वृध्दि सीमित होती है औऱ एक परिपक्वता तक रुक जाती है

    🌺विकास इसकी कोई सीमा नही होती है यह जीवन पर्यन्त तक चलता रहता है।

🌳👉 वृध्दि स्थूल होती है

🌺विकास दृश्य तथा अदृश्य दोनो रूप में होता है।

🌳👉वृध्दि मात्रात्मक होती है

  🌺विकास मात्रात्मक और गुणात्मक दोनो होता है।

🌳👉वृध्दि क्रमिक और श्रृंखला बद्ध होती है 

🌺वविकास इसका कोई निश्चित क्रम नही होता यह चहुमुखी होता है।

🌳👉 वृध्दि विकास को प्रभावित करती है

   🌺विकास अभिवृद्धि से कम प्रभावित होता है।

🌳👉 अभिवृद्धि केवल धनात्मक होती है 

      🌺विकास धनात्मक और ऋणात्मक दोनो होता है

🌳👉अभिवृद्धि केवल अनुवांशिक प्रभाव के कारण होती है।

🌺विकास पर अनुवांशिक और वातावरण दोनो का प्रभाव होता है।

📚📚📚Notes by Poonam sharma

🔆 वृद्धि एवं विकास में अंतर 🔆

(Difference between Growth and Development)➖

यदि हमें वृद्धि एवं विकास के अर्थ को समझना है तो उसके लिए अभिवृद्धि व विकास के अंतर को समझना बहुत आवश्यक है, जिसकी सहायता से उस अर्थ को सटीकता से व स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है।

अर्थात वृद्धि और विकास का विशेष अर्थ या प्रभाव को समझने के लिए उनके बीच के अंतर को समझना जरूरी है।

“वृद्धि एवं विकास में अंतर के संदर्भ में कुछ मनोवैज्ञानिक कथन “

🌟 सोरेनसन के अनुसार ➖

सामान्य रूप से अभिवृद्धि शब्द का प्रयोग शरीर और उसके अंग के आकार और भार में वृद्धि के लिए किया जाता है इस वृद्धि को मापा व ताला जा सकता है।

              विकास का संबंध अभिवृद्धि से अवश्य होता है पर यह शरीर के अंगों में होने वाले परिवर्तनों को विशेष रूप से व्यक्त करता है।

🔹मांसपेशियों हड्डियों के आकार में वृद्धि होती है लेकिन इन परिवर्तन से उनके स्वरूप में भी बदलाव आता है और दिखने वाला यह स्वरूप ही विकास कहलाता है।

🔹विकास में वृद्धि का भाव हमेशा ही निहित रहता है।

🔹किसी व्यक्ति के आकार व माप  एक प्रकार की वृद्धि है लेकिन जब इस आकार व माप के कारण व्यक्ति के स्वरूप में परिवर्तन दिखाई देता है या नजर आता है वह विकास कहलाता है।

🔹सामान्यतः शिक्षाविदों द्वारा वृद्धि और विकास दोनों शब्दों का प्रयोग जब भी करते हैं तब वह एक ही अर्थ में करते हैं।

🔹वृद्धि और विकास उसी समय आरंभ हो जाता है जब गर्भाधान होता है और यह जन्म के बाद भी निरंतर चलता रहता है।

🌟 हरलॉक के अनुसार ➖

विकास अभिवृद्धि तक ही सीमित नहीं है इसकी वजह इसमें प्रौढ़ावस्था की लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम भी इसमें निहित रहता है।विकास के परिणाम स्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषता और योग्यता प्रकट होती है।

विकास को वृद्धि से अलग नहीं किया जा सकता या विकास को ही संपूर्ण नहीं बोला जा सकता क्योंकि वृद्धि जब होती है  तो उसके रूप को विकास द्वारा ही दिखाया जाएगा।

▪️वृद्धि एवं विकास के अंतर को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है।

❇️ वृद्धि से तात्पर्य मनुष्य के आकार बनावट या भार में होने वाले वृद्धि से है।

                                      जबकि विकास से तात्पर्य मानसिक, शारीरिक, संवेगात्मक ,चारित्रिक इत्यादि परिवर्तनों से होता है।

❇️ वृद्धि सीमित होती है और परिपक्वता के स्तर तक होती है।

                 जबकि विकास की कोई सीमा नहीं होती यह जन्म से लेकर मृत्यु तक निरंतर चलता रहता है।

❇️ वृद्धि मात्रात्मक होती है।

                                      जबकि विकास मात्रात्मक व गुणात्मक दोनों प्रकार का होता है।

❇️ वृद्धि क्रमिक और श्रंखलाबद्ध होती है।

                                                           जबकि विकास का कोई निश्चित क्रम नहीं होता है।

❇️ वृद्धि को स्थूल रूप में देखा जा सकता है।

                                                               जबकि विकास दृश्य और अदृश्य दोनों रूपों में देखा जा सकता है।

❇️ अभिवृद्धि विकास को प्रभावित करती है।

                                                               जबकि विकास अभिवृद्धि को बहुत कम प्रभावित करता है।

(जैसे हम मानसिक रूप से स्वास्थ्य नहीं है तो इसका प्रभाव अपने शरीर पर देख सकते हैं या शारीरिक रूप से भी हम थका हुआ या अस्वस्थ महसूस करते हैं।

                     जबकि इसके विपरीत यदि हम शारीरिक रूप से अस्वस्थ महसूस करते हैं तो हम इसका प्रभाव मानसिक रूप पर देख सकते हैं अर्थात मानसिक रूप से अस्वस्थ और आत्मविश्वास  में भी कमी को भी महसूस करते हैं ।

अर्थात वृद्धि में शरीर – मन या मस्तिष्क को प्रभावित करता है।

जबकि विकास में मन या मस्तिष्क –  शरीर को प्रभावित करता है।

❇️ अभिवृद्धि केवल धनात्मक होती है।

                                                    जबकि विकास धनात्मक व ऋणात्मक दोनों होता है।

( शरीर की वृद्धि हो जाने पर उसने किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया जा सकता अर्थात जब हम छोटे से बड़े हो जाते हैं तो वापस से छोटे नहीं हो सकते ।

जब हम मानसिक रूप से किसी कार्य का परिणाम वातावरण या कई कारकों के प्रभाव से बेहतर प्राप्त करते है  तब यह धनात्मक विकास होगा।

जबकि इसके विपरीत जब हम मानसिक रूप से किसी कार्य का परिणाम वातावरण या कई कारकों के प्रभाव से बुरा प्राप्त करते है तब वह  ऋणात्मक   विकास होगा।

जब भी किसी कारण या वजह से किसी कार्य में क्षति होती है या हमारे संवेग, विचार व समझ में नकारात्मकता आती है तब वह नकारात्मक विकास होगा ।और जब दिन प्रतिदिन किसी कारण या वजह से हमारे संवेग ,विचार व  समझ में परिपक्वता आती है तब वह धनात्मक विकास होगा।

❇️ वृद्धि केवल अनुवांशिक प्रभाव के कारण होती है।

     जबकि विकास पर अनुवांशिकता और वातावरण दोनों का प्रभाव पड़ता है।

✍️

     Notes By-‘Vaishali Mishra’

⛲𝘿𝙞𝙛𝙛𝙚𝙧𝙚𝙣𝙘𝙚 𝙗𝙚𝙩𝙬𝙚𝙚𝙣 𝙂𝙧𝙤𝙬𝙩𝙝 𝙖𝙣𝙙         𝘿𝙚𝙫𝙚𝙡𝙤𝙥𝙢𝙚𝙣𝙩

         ⛲  (वृद्धि और विकास में अंतर)

🌊वृद्धि और विकास का विशेष पर क्या प्रभाव समझने के लिए उनके बीच के अंतर को समझना जरूरी है,

👥सोरेनसन के अनुसार ÷ सामान्य रूप से अभिवृद्धि शब्द का प्रयोग शरीर और उसके अंग के आकार और भार में वृद्धि के लिए किया जा सकता है और इस वृद्धि को नापा और  तौला जा सकता है विकास का संबंध वृद्धि से अवश्य होता है पर यह  शरीर के अंगों में होने वाले परिवर्तन को विशेष रूप से व्यक्त करता है”

🌊उदाहरण÷ शरीर की मांसपेशियों या हड्डियों के आकार में वृद्धि होती है लेकिन इन परिवर्तन से उसके स्वास्थ्य में भी बदलाव आता है।

🌊विकास में वृद्धि का भाव हमेशा ही निहित  रहता है।

🌊सामान्यता शिक्षाविदों द्वारा दोनों शब्द (वृद्धि और विकास) का प्रयोग एक ही अर्थ में करते हैं।

🌊वृद्धि और विकास उसी समय आरंभ हो जाता है जब गर्भाधान होता है यह जन्मोपरांत भी सतत रूप से चलती रहती है।

👥हरलाक के अनुसार÷ विकास अभिवृद्धि तक सीमित नहीं है, इसके बजाय इसमें प्रौढ़ावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है, विकास के परिणाम स्वरूप वक्त में नवीन विशेषता और योग्यता प्रकट होती है।

⛲वृद्धि और विकास में अंतर निम्नलिखित हैं÷

🎊वृद्धि÷मनुष्य के आकार , संरचना ,बनावट या भार में होने वाला परिवर्तन वृद्धि ही होती है;

🎉विकास÷विकास का तात्पर्य मानसिक शारीरिक संवेगात्मक, चारित्रिक, भावात्मक,से होता है;

🎊वृद्धि÷वृद्धि सीमित होती है और परिपक्वता के स्तर तक होती है;

🎉विकास÷ विकास की कोई निश्चित सीमा नहीं होती है यह जन्म से मृत्यु तक चलती है;

🎊वृद्धि ÷वृद्धि मात्रात्मक होती है;

🎉विकास÷विकास मात्रात्मक और गुणात्मक दोनों प्रकार का होता है;

🎊वृद्धि÷ वृद्धि क्रमिक और श्रृंखलाबद्ध होती है;

🎉विकास÷विकास क्रमिक या श्रृंखलाबद्ध नहीं होता है;

🎊वृद्धि ÷वृद्धि स्थूल रूप से दिखती है;

🎉विकास÷ विकास दृश्य और अदृश्य दोनों रूपों में दिखता है;

🎊वृद्धि ÷वृद्धि विकास को प्रभावित करता है;

🎉विकास÷ अभिवृद्धि को बहुत कम प्रभावित करती है;

🎊वृद्धि÷ केवल धनात्मक होती है;

🎉विकास÷ विकास धनात्मक और ऋण आत्मक दोनों होता है;

🎊वृद्धि ÷केवल अनुवांशिक प्रभाव के कारण होती है;

🎉विकास÷ विकास पर अनुवांशिक और वातावरण दोनों का प्रभाव पड़ता है;

💐💐𝕎𝕣𝕚𝕥𝕥𝕖𝕟 𝕓𝕪 ~𝓢𝓱𝓲𝓴𝓱𝓪𝓻 𝓹𝓪𝓷𝓭𝓮𝔂💐💐

🔆 वृद्धि और विकास में अंतर➖

विकास वृद्धि और विकास का विशेष अर्थ या प्रभाव समझने के लिए उनके बीच के अंतर को समझना जरूरी है |

⭕  सोरेन्सन के अनुसार➖ समान रूप से अभिवृद्धि शब्द का प्रयोग शरीर  और उसके अंगों के आकार और भार में वृद्धि के लिए किया जाता है इस वृद्धि को नापा और तौला जा सकता है विकास का संबंध अभिवृद्धि से अवश्य होता है पर यह शरीर में होने वाले परिवर्तन को विशेष रूप से व्यक्त करता है |

 उदाहरण के लिए➖

 मांसपेशियों या हड्डियों के आकार में वृद्धि होती है लेकिन इन परिवर्तन से उनके स्वरूप में भी परिवर्तन आता है विकास में वृद्धि का भाव हमेशा ही निहित रहता है सामान्यतः शिक्षाविदों द्वारा वृद्धि और विकास शब्द का प्रयोग एक ही अर्थ में किया जाता है |

 वृद्धि और विकास उसी समय से प्रारंभ हो जाता है जब गर्भाधान होता है ये प्रक्रिया जन्म के बाद भी चलती रहती है |

हरलॉक के अनुसार ➖

 विकास अभिवृद्धि तक ही सीमित नहीं है इसके बजाय इसमें प्रौढ़ावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है और विकास के परिणाम स्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताएँ और योग्यताएं प्रकट होती है |

वृद्धि और विकास ➖

1) वृद्धि से तात्पर्य मनुष्य के आकार, भार ,और बनावट आदि में होने वाली वृद्धि से है जबकि विकास का तात्पर्य मानसिक ,शारीरिक, संवेगात्मक, एवं चारित्रिक परिवर्तन से होता है |

1) अभिवृद्धि सीमित होती है और परिपक्वता के स्तर तक पूरी हो जाती है जबकि विकास की कोई सीमा नहीं होती है यह जन्म से लेकर मृत्यु तक चलता रहता है |

3) वृद्धि मात्रात्मक होती है जबकि विकास मात्रात्मक और गुणात्मक दोनों होता है |

4) वृद्धि क्रमिक परिवर्तनों की क्रमबद्ध श्रंखला है जबकि विकास का कोई निश्चित क्रम नहीं होता है |

5) वृद्धि स्थूल रूप से दिखती है जबकि विकास सूक्ष्म होता है देखा नहीं जा सकता है यह दृश्य और अदृश्य दोनों रूप से होता है |

6) वृद्धि विकास को प्रभावित करती है लेकिन विकास अभिवृद्धि को बहुत ही कम प्रभावित करता है |

7) वृद्धि केवल धनात्मक होती है जबकि विकास धनात्मक और ऋणात्मक दोनों होता  है |

8) वृद्धि केवल अनुवांशिक प्रभाव के कारण होती है जबकि विकास पर अनुवंशिकता और वातावरण दोनों का प्रभाव पड़ता है |

नोटस बाय ➖ रश्मि सावले

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🌎 वृद्धि और विकास में अंतर🌎

वृद्धि और विकास 

 समझने के लिए उनके बीच के अंतर को समझना जरूरी है,

🖊सोरेनसन के अनुसार ÷ सामान्य रूप से अभिवृद्धि शब्द का प्रयोग शरीर और उसके अंग के आकार और भार में वृद्धि के लिए किया जा सकता है और इस वृद्धि को नापा और  तौला जा सकता है विकास का संबंध वृद्धि से अवश्य होता है पर यह  शरीर के अंगों में होने वाले परिवर्तन को विशेष रूप से व्यक्त करता है”

🎄विकास में वृद्धि का भाव हमेशा ही निहित  रहता है।

🎄सामान्यता शिक्षाविदों द्वारा दोनों शब्द वृद्धि और विकास का प्रयोग एक ही अर्थ में करते हैं।

🎄वृद्धि और विकास उसी समय आरंभ हो जाता है जब गर्भाधान होता है यह जन्मोपरांत भी सतत रूप से चलती रहती है।

🖊हरलाक के अनुसार÷ विकास अभिवृद्धि तक सीमित नहीं है, इसके बजाय इसमें प्रौढ़ावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है, विकास के परिणाम स्वरूप वक्त में नवीन विशेषता और योग्यता प्रकट होती है।

🖊वृद्धि और विकास में अंतर निम्नलिखित हैं÷

🖊वृद्धि➖मनुष्य के आकार , संरचना ,बनावट या भार में होने वाला परिवर्तन वृद्धि ही होती है;

🖊विकास➖विकास का तात्पर्य मानसिक शारीरिक संवेगात्मक, चारित्रिक, भावात्मक,से होता है;

♻️वृद्धि➖वृद्धि सीमित होती है और परिपक्वता के स्तर तक होती है;

♻️विकास➖ विकास की कोई निश्चित सीमा नहीं होती है यह जन्म से मृत्यु तक चलती है;

♻️वृद्धि ➖वृद्धि मात्रात्मक होती है;

Notes by sapna yadav

वृद्धि और विकास में अंतर

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3 march 2021

वृद्धि और विकास का विशेष अर्थ या प्रभाव समझने के लिए इनके बीच के अंतर को समझना आवश्यक होता है।

वृद्धि और विकास के संदर्भ में कुछ मनोवैज्ञानिकों ने अपने कथन प्रस्तुत किए है  :-

👉 ” सोरेनसन  ”  के  अनुसार   :-

सामान्य रूप से अभिवृद्धि शब्द का प्रयोग शरीर और उसके अंग के आकार और भार में वृद्धि के लिए किया जाता है तथा इस वृद्धि को नापा या तोला जा सकता है।

                विकास का संबंध अभिवृद्धि से अवश्य होता है पर यह विकास के अंगों में होने वाले परिवर्तन को विशेष रूप से व्यक्त करता है।

🌺 उदाहरणस्वरूप  :-

मांसपेशियों या हड्डियों के आकार में वृद्धि होती है लेकिन इन परिवर्तनों से उनके स्वरूप में भी बदलाव आता है।

अंततः विकास में वृद्धि का भाव हमेशा ही निहित रहता है।

सामान्यतः शिक्षाविदों द्वारा वृद्धि और विकास दोनों शब्दों का प्रयोग एक ही अर्थ में किया जाता है।

वृद्धि और विकास उसी समय आरंभ हो जाता है जब गर्भाधान होता है तथा यह जन्म के बाद भी चलता रहता है।

👉  ” हरलॉक ” के अनुसार :-

विकास अभिवृद्धि तक ही सीमित नहीं है वरन् इसमें प्रौढ़ावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है ।

               विकास के परिणामस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताएं और योग्यतायें प्रकट होती हैं।

🌿🌷🌿   वृद्धि और विकास के अंतर को निम्नलिखित रुप से बताया गया है  :-

🌺 वृद्धि  :-

मनुष्य के आकार , भार या बनावट में होने वाले परिवर्तन को वृद्धि कहते हैं।

🌺  विकास  :-

विकास का तात्पर्य मनुष्य के मानसिक , शारीरिक ,  संवेगात्मक , भावनात्मक एवं चारित्रिक आदि परिवर्तनों से होता है।

🌸  वृद्धि :-

वृद्धि सीमित होने साथ ही और परिपक्वता के स्तर तक होती है ।

🌸  विकास  :-

विकास की कोई निश्चित सीमा नहीं होती है यह जन्म से मृत्यु तक चलता रहता है।

🏵️ वृद्धि :-

वृद्धि मात्रात्मक होती है।

🏵️ विकास :- 

विकास मात्रात्मक और गुणात्मक दोनों रूप में होता है।

🌼  वृद्धि :-

वृद्धि क्रमिक और श्रृंखलाबद्ध होती है।

🌼 विकास :-

विकास का कोई निश्चित क्रम नहीं होता है क्योंकि विकास चहुँमुखी रूप से होता है।

🌹 वृद्धि :-

वृद्धि मूल रूप से दिखती है ।

🌹 विकास :-

विकास दृश्य और आदृश्य दोनों रूप से होता है।

💐 वृद्धि :-

वृद्धि विकास को प्रभावित करती हैं।

💐  विकास :-

विकास , वृद्धि को बहुत कम प्रभावित करता है।

🍁 वृद्धि :-

वृद्धि केवल धनात्मक होती है।

 🍁 विकास :-

विकास धनात्मक और ऋणात्मक दोनों रूप में होता है।

💮 वृद्धि :-

वृद्धि केवल आनुवांशिक प्रभाव के कारण होती हैं ।

💮विकास :-

विकास पर आनुवांशिकता और वातावरण दोनों का प्रभाव पड़ता है।

✍️ Notes by –  जूही श्रीवास्तव ✍️

💐💐  वृद्धि और विकास में अंतर💐💐

 वृद्धि और विकास का विशेष अर्थ या प्रभाव समझने के लिए इनके बीच के अंतर को समझना जरूरी है

  सोरेनसन  के अनुसार:-  सामान्य रूप से अभिवृद्धि शब्द का प्रयोग शरीर और उनके अंग के आकार और भार में वृद्धि मैं किया जाता है इस वृद्धि को नापा या तौला  जा सकता है विकास का संबंध अभिव्यक्ति से अवश्य होता है पर यह शरीर के अंगों में होने वाले परिवर्तन को विशेष रूप से व्यक्त करता है

 जैसे:- मांसपेशियों या हड्डियों के आकार में वृद्धि होती है  लेकिन इन परिवर्तन से उनके स्वरूप में भी बदलाव आता है

विकास में वृद्धि का भाव हमेशा ही निहित रहता है समानता शिक्षाविदों के द्वारा वृद्धि और विकास दोनों शब्द का प्रयोग एक ही अर्थ में होता है

 वृद्धि और विकास उसी समय प्रारंभ हो जाता है जब गर्भाधान होता है यह जन्म के बाद भी चलता रहता है

 हरलॉक के अनुसार:- विकास अभिवृद्धि तक सीमित नहीं है इसके बजाय इसमें प्रौढ़ावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है विकास के परिणाम स्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषता और योग्यता प्रकट होती है

        💐 वृद्धि और विकास में अंतर💐

 वृद्धि👉 मनुष्य के आकार भार बनावट में वृद्धि होना

 विकास👉 विकास का तात्पर्य मानसिक शारीरिक संवेगात्मक एवं चारित्रिक आदि परिवर्तनों से होता है

 वृद्धि👉 वृद्धि सीमित होती है और परिपक्वता के स्तर तक होती है

 विकास👉 विकास की कोई सीमा नहीं होती है

 यह जन्म से मृत्यु तक चलता है

 वृद्धि👉 वृद्धि मात्रात्मक होती है

 विकास👉 विकास मात्रात्मक एवं गुणात्मक दोनों होता है

 वृद्धि👉 वृद्धि क्रमिक  और  श्रृंखलाबद्ध होती  है

 विकास👉 विकास का कोई निश्चित क्रम नहीं होता है

वृद्धि 👉स्थूल रूप से दिखती है

 विकास 👉दृश्य और अदृश्य दोनों रूप से होता है

वृद्धि 👉विकास को प्रभावित करती है

विकास👉 अभिवृद्धि को बहुत कम प्रभावित करता है

 वृद्धि👉 केवल धनात्मक होती है

विकास👉 धनात्मक और  ऋण आत्मक दोनों होता है

वृद्धि👉 केवल अनुवांशिक प्रभाव के कारण होती हैं

विकास👉 पर अनुवांशिक और वातावरण दोनों प्रभाव पड़ता है

nots by sapna sahu 🙏🙏🙏🙏🙏

21. CDP – Growth and Development PART- 2

🔆विकास🔆

 (Development) 

🔸विकास एक प्रक्रिया है जो गर्भ से लेकर जीवन पर्यंत बिना रुके या सतत या निरंतर व सार्वभौमिक रूप से अविराम चलती रहती है।

🔸 विकास वृद्धि को अपने आप में समाहित करता है अर्थात वृद्धि विकास का ही एक भाग है।

🔸विकास के अन्य पहलुओं को देखा जाए तो हर एक पहलू की विशेषता शारीरिक विकास से थोड़ी अलग है इसीलिए शारीरिक वृद्धि को एक अन्य नाम “वृद्धि” दिया गया है।

🔸 अर्थात् वृद्धि विकास का अंग है लेकिन विकास केवल शारीरिक वृद्धि की ओर ही संकेत नहीं करता बल्कि इसके अंतर्गत शारीरिक,मानसिक ,सामाजिक संवेगात्मक इत्यादि परिवर्तन शामिल है।

🔸 शारीरिक परिपक्वता के अलावा बाकी विकास की जो भी अंग हैं वह जीवन भर चलते रहते हैं।

🔸 विकास की प्रक्रिया में होने वाले सभी परिवर्तन हर व्यक्ति में एक समान नहीं होते सभी में व्यक्ति भिन्नता होती है।

🔸 हमारी क्षमता धीरे धीरे बढ़ते हुए या उसमें कई भिन्नता वह परिवर्तन होते हैं जैसे-जैसे हम वयस्क अवस्था तक आते हैं वैसे वैसे हमारे शरीर में कई तरह की क्षमताएं बढ़ती जाती हैं और धीरे-धीरे आगे बढ़कर अर्थात वृद्धावस्था तक पहुंचते-पहुंचते हमारी इस क्षमता का धीरे धीरे क्षय या हास होने लगता है

🔸 अर्थात एक समय अंतराल या 40 वर्ष के बाद धीरे-धीरे हमारे इस क्षमता का क्षय होता चला जाता है उसमें परिवर्तन होता चला जाता है।

🔸जीवन की प्रारंभिक अवस्था में होने वाले परिवर्तन रचनात्मक होते हैं और उत्तरार्ध या बाद में आगे आने वाले समय में होने वाले परिवर्तन विनाशत्मक होते हैं।

🔸 क्षमता के साथ साथ अवस्था में होने वाली विभिन्नता में भी  कई परिवर्तन होने लगता है।

🔸 आज के समय में  वास्तविक रूप से यह देखा जाता है कि कम उम्र में ही व्यक्ति कई बीमारियों से ग्रसित होने लगते हैं इस बीमारी से कम उम्र में ग्रसित होने का कारण लोगों के एंबिशन को पाने या उन्हें हासिल करने की तेजी में काफी फ्रस्ट्रेशन बड़ा है जिसके परिणाम स्वरूप इस तरह की कई बीमारियों से व्यक्ति ग्रसित हो रहे है।

🔸 रचनात्मकता व्यक्ति में परिपक्वता या वयस्कता लाती है और जो विनाश आत्मक परिवर्तन है वह व्यक्ति को वृद्धावस्था तक ले जाती है।

🔸 अतः विकास के कई मायने हैं और विकास बहुत व्यापक शब्द है।

🔸 विकास को ही क्रमिक परिवर्तन की श्रंखला कहा जाता है इसी कारण से हमारे अंदर कुछ ना कुछ नहीं विशिष्टता आती है और यह नई विशिष्टता से पुरानी विशेषता को समाप्त करती हैं।

🔸 दूसरे रूप में हम कह सकते हैं कि नई विशेषताएं पुरानी विशेषताओं को ओवरलैप करती हैं।

🔸विकास एक अवस्था जिसमें जो भी विशेषता व्यक्ति के अंदर होती है उसके गुजर या निकल जाने पर विकास की आगे आने वाली अवस्था जिसमें जो भी विशेषता है वह आती चली जाती है।

🔸अर्थात विकास की पूर्ण अवस्था में प्राप्त विशेषता धीरे-धीरे विकास की आने वाली अवस्था में प्राप्त होने वाली विशेषता कई परिवर्तन के कारण खत्म होती चली जाती है।

🔸कई बार रूचि खत्म होने के कारण ,आवश्यकता के खत्म होने के कारण या परिपक्वता आ जाने के कारण आदि ऐसे कई कारक हैं जिनकी वजह से नई विशेषताओं का उदय या जन्म होने पर पुरानी विशेषताएं खत्म या समाप्त या लुप्त होती चली जाती है।

🔸हर उम्र में अपनी अलग अलग विशेषता रहती है यह आवश्यक नहीं कि हमेशा ज्यादा होगी या हमेशा ही कम।

🔸 किसी भी उम्र यह समय के निकल जाने पर उसके साथ उस समय की विशेषता भी पीछे रह जाती है जिसे आगे आने वाले समय या उम्र में प्राप्त नहीं किया जा सकता।

🔸 हम जिस भी उम्र में हैं उस उम्र के हर एक पल या हर एक समय उस उम्र की विशेषता है ।

🔸 हम जिस भी कार्य को जिस समय कर रहे हैं उस समय में कार्य को पूरी लगन, आनंद से करेंगे तभी हम उस कार्य की विशिष्टता और महत्व को समझ पाएंगे।

🔸 बचपन में हम हर एक छोटी बात या छोटी चीज के मिल जाने पर बहुत बड़ी खुशी का अनुभव करते थे जैसे-जैसे आगे बढ़ते गए या उम्र में बदलाव आता गया वैसे वैसे हमारी आवश्यकता व जरूरतों में भी परिवर्तन होता गया।

🔸 हर परिस्थिति या समय के अनुसार ही किसी भी चीज का सही महत्व समझ आता है।

🔸 जब हम कोई कार्य करते हैं तो उसमें कई तरह की परेशानी आती है इन परेशानियों का सामना करके हम उस कार्य को सफलतापूर्वक पूरा कर लेते हैं।

अब आगे जब भी कभी भी हम उस कार्य को करेंगे तो कार्य के दौरान बिना परेशानी आए आसानी से बेहतर रूप से कर पाएंगे क्योंकि पूर्व में हमें उस कार्य के दौरान जो भी परेशानी का सामना करना था उन परेशानियों का अनुभव प्राप्त हो चुका है।

🔸 प्रौढ़ावस्था में पहुंचकर मनुष्य स्वयं को जिन भी गुणों से परिपक्व मानता है वह सब विकास की प्रक्रिया का ही परिणाम है।

🔅 विकास के संदर्भ में कुछ मनोवैज्ञानिक कथन निम्नानुसार हैं।

❇️ हरलॉक के अनुसार ➖

“विकास केवल वृद्धि तक ही सीमित नहीं है वरण यह वह व्यवस्थित परिवर्तन है जिसमें प्रौढ़ावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तन का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है, जिसके परिणाम स्वरूप नवीन योग्यताएं व विशेषताएं प्रकट होती हैं।”

❇️ मुनरो के अनुसार ➖

“विकास परिवर्तन श्रंखला की वह अवस्था है जिसमें बच्चन भ्रूण अवस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक गुजरता है विकास कहलाता है”।

❇️ जेम्स ड्रेवर के अनुसार ➖

“विकास वह दशा है जो प्रगतिशील परिवर्तन के रूप में सतत रूप से व्यक्त होती है यह प्रगतिशील परिवर्तन किसी भी प्राणी में भ्रूण अवस्था से प्रौढ़ावस्था तक होता है यह विकास तंत्र को सामान्य रूप से विकसित करता है यह प्रकृति का मानदंड और इसका आरंभ शून्य से होता है।

✍️

            Notes By-‘Vaishali Mishra’

⛲ℳℯ𝒶𝓃𝒾𝓃ℊ ℴ𝒻 𝒟ℯ𝓋ℯ𝓁ℴ𝓅𝓂ℯ𝓃𝓉⛲

         🎡 विकास का अर्थ🎡

⛲विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जो गर्भ से लेकर जीवन पर्यंत तक बिना रुके सतत अथवा निरंतर सार्वभौमिक रूप से अविराम चलते रहती है;

वृद्धि

⛲वृद्धि विकास का अंग है विकास वृद्धि का अंग नहीं लेकिन विकास केवल शारीरिक वृद्धि की ओर संकेत नहीं करता अपितु इसके अंतर्गत शारीरिक मानसिक सामाजिक संवेगात्मक भावनात्मक इत्यादि परिवर्तन भी शामिल है

⛲शारीरिक परिपक्वता के अलावा बाकी विकास के अंग वह सब जीवन पर्यंत तक चलते रहते हैं

⛲विकास की प्रक्रिया में होने वाले सारे परिवर्तन सभी में एक समान नहीं होते हैं (एक साथ जन्म में 2 बच्चे रंग-रूप आकार व वजन में भिन्न होने के साथ-साथ उनका विकास भी भिन्न-भिन्न ही होता है)

जीवन की प्रारंभिक अवस्था में होने वाले परिवर्तन रचनात्मक होते हैं और उत्तरार्द्ध (क्षयकारी) में होने वाले परिवर्तन विनाशात्मक होते हैं।

⛲विनाशात्मक परिवर्तन हमें वृद्धावस्था की ओर ले जाती है।

⛲विकास को ही “क्रमिक परिवर्तन की क् श्रृंखला ” कहा जाता है।

⛲प्रत्येक अवस्था में व्यक्ति की विभिन्न विशेषताएं वा गुण होते हैं जो एक अवस्था में आती है और फिर संभवत दूसरी अवस्था में नहीं रह जाती है इत्यादि क्रियाएं जीवन पर्यंत तक चलती रहती हैं।

                                 इससे व्यक्ति में हर स्तर पर नहीं विशेषता आती है और पुरानी विशेषता खत्म हो जाती है।

⛲प्रौढ़ावस्था में पहुंचकर मनुष्य स्वयं को जिन गुणों से संपन्न पाता है या विकास की प्रक्रिया का ही परिणाम होता है।

🌊हरलाक के अनुसार “विकास की परिभाषा”

विकास केवल अभिवृद्धि तक सीमित नहीं है वरन यह वह  व्यवस्थित परिवर्तन है जिसमें प्रौढ़ावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील काम निहित रहता है जिसके परिणाम स्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताएं एवं योग्यताएं प्रकट होती हैं।

🌊मुनरो के अनुसार “विकास की परिभाषा”

विकास परिवर्तन श्रृंखला की वह अवस्था है जिसमें बच्चा भूणावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक गुजरता है विकास कहलाता है।

🌊जेम्स ड्रेवर के अनुसार “विकास की परिभाषा”

विकास वह  दशा है जो प्रगतिशील परिवर्तन के रूप में सतत रूप से व्यक्त होती है ,यह प्रगतिशील परिवर्तन किसी भी प्राणी में भूणावस्थ से प्रौढ़ावस्था तक होती है । यह विकास तंत्र को सामान्य रूप से नियंत्रित करता है यह प्रकृति का मानदंड है और इसका आरंभ शून्य से होता है।

🌊Written by -$hikhar

💥🌈 🌻विकास का अर्थ🌻🌈

🌈  विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जो गर्भ से लेकर जीवन पर्यंत बिना रुके, सतत, निरंतर, सार्वभौमिक एवं अविराम चलने वाली प्रक्रिया है।

✍🏻 वृद्धि विकास का अंग है, लेकिन विकास केवल शारीरिक वृद्धि की ओर भी संकेत नहीं करता इन के अंतर्गत शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक ,भावनात्मक इत्यादि परिवर्तन शामिल है।

✍🏻 शारीरिक परिपक्वता के अलावा बाकी विकास के अंग व जीवन पर्यंत  चलते रहते हैं।

✍🏻 विकास की प्रक्रिया में होने वाले सारे परिवर्तन सभी में एक समान नहीं होते हैं।

✍🏻 जीवन की प्रारंभिक अवस्था में होने वाले परिवर्तन रचनात्मक होते हैं और उत्तरार्द्ध में होने वाले परिवर्तन विनाशात्मक ( क्षय)  होते हैं।

✍🏻 रचनात्मकता हमारे नया परिपक्वता लाती है विनाशात्मक परिवर्तन हमें वृद्धावस्था की ओर ले जाती है।

✍🏻 अतः विकास बहुत व्यापक शब्द है

🌻विकास को ही “क्रमिक परिवर्तन की श्रृंखला” कहा जाता है जाता है।

✍🏻 इससे व्यक्ति ने हर स्तर पर नई विशेषताएं होती हैं और पुरानी विशेषताएं खत्म हो जाती है।

प्रौढ़ावस्था में पहुंचकर मनुष्य स्वयं को जिन गुणों से संपन्न पाता है यह विकास की प्रक्रिया का ही परिणाम होता है।

🔸✍ हरलॉक के अनुसार-

                        🌸” विकास केवल अभिवृद्धि तक सीमित नहीं है वरन यह वह व्यवस्थित परिवर्तन है जिसमें प्रौढ़ावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तन का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है जिसके परिणाम स्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताएं एवं योग्यता प्रकट होती हैं।”🌸🌸

🔸✍🏻 मुनरो के अनुसार-

               🌸” विकास परिवर्तन श्रृंखला की व्यवस्था है जिसमें बच्चा भ्रूण अवस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक गुजरता है ,विकास कहलाता है।🌸

🔸✍🏻जेम्स ड्रेवर के अनुसार –

              🌸🌸” विकास वह दशा है जो प्रगतिशील परिवर्तन के रूप में सतत रूप से व्यक्त होती है यह प्रगतिशील परिवर्तन किसी भी प्राणी में भ्रूणावस्था से प्रौढ़ावस्था तक होता है, यह विकास तंत्र को सामान्य रूप से नियंत्रित करता है यही प्रगति का मानदंड है और इसका आरंभ शून्य से होता है।🌸🌸

🌸Notes by

          Shashi Chaudhary🌸

          🙏🙏🙏🙏🙏🙏

💥विकास का अर्थ💥

❇️विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जो जीवन प्रयत्न चलती रहती है जो गर्व से लेकर जीवन  तक चलती रहती ह यह कभी रुकती नहीं है सर्व भौमिक रूप से चलती रहती है

❇️वृद्धि ➖विकास का ही रूप है लेकिन विकास केवल शारीरिक रूप में वृद्धि नहीं करता विकास शारीरिक मानसिक भावात्मक संवेगात्मक सभी रूपों में परिवर्तन करता है

 ❇️विकास शारीरिक परिपक्वता होने के अलावा बाकी विकास जीवन भर निरंतर चलता रहता है शारीरिक विकास अकेला रुक जाता है बाकी विकास चलते रहते हैं यह परिवर्तन सभी के समान नहीं होते हैं ❇️हर व्यक्ति में शारीरिक परिवर्तन अलग-अलग होते हैं

जीवन के प्रारंभ में होने वाले परिवर्तन रचनात्मक और उत्तरार्ध में होने वाले परिवर्तन विनाश आत्मक होते हैं रचनात्मक का मतलब हमारे शरीर में परिपक्वता लाना होता है विनाश आत्मक का मतलब हमारे शरीर में वृद्धावस्था लाना होता है इससे शरीर की विकास रुक जाती है

❇️ विकास बहुत ही व्यापक है यह बहुत ही बड़ा होता है विकास को क्रमिक परिवर्तन की श्रंखला कहा जाता है इससे व्यक्तियों में नहीं विशेषता उत्पन्न होती है प्राणी विशेषताएं खत्म हो जाती है प्रौढ़ावस्था तक मनुष्य जिन गुणों को पाता है वह विकास की प्रक्रिया का परिणाम होता है

🖊हरलॉक के अनुसार ➖विकास केवल अभिवृद्धि तक ही सीमित नहीं वरन यह व्यवस्थित परिवर्तन है जिससे प्रौढ़ावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम नहीं करता है जिसके परिणाम स्वरूप व्यक्ति मैं नवीन विशेषता और नवीन योग्यता प्रगट होती है 🖊मुनरो के अनुसार➖ विकास परिवर्तन श्रंखला की वह अवस्था है जो भ्रूण अवस्था से  प्रौढ़ावस्था तक गुजरती है विकास कहलाता है🖊 गेम्स ड्रवर के अनुसार➖ विकास वही दशा है जो प्रगतिशील परिवर्तन के रूप में सतत रूप में व्यक्त होती है यह परिवर्तन किसी भी प्राणी में भ्रूण अवस्था से पूर्ण अवस्था तक होता है यह विकास तंत्र को सामान्य रूप से नियंत्रित करता है यह प्रगति का मानदंड है और उसका आरंभ शून्य से ही होता है

📝Notes by sapna yadav

💥विकास का अर्थ💥 ( meaning of development)

💫विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जो गर्भ से लेकर जीवनपर्यन्त बिना रूके सतत् निरंतर सार्वभौमिक रूप से अविराम चलते रहती है |

💫वृद्धि विकास का अंग है लेकिन विकास केवल शारीरिक वृद्धि की ओर संकेत नही करता है इनके अंतर्गत शारीरिक , मानसिक , सामाजिक , संवेगात्मक , भावनात्मक इत्यादि परिवर्तन शमिल है |

💫 शारीरिक परिपक्वता के अलावा बाकि विकास के अंग वह जीवनपर्यन्त चलते रहते है |

  💫विकास की प्रक्रिया में होने वाले सारे परिवर्तन सभी में एक समान नही होते है|

जीवन की प्रारंभिक अवस्था में होने वाले परिवर्तन रचनात्मक होते है और उत्तरार्द्ध में होने वाले परिवर्तन विनाशात्मक होते है |

रचनात्मकता हमारे में परिपक्वता लाती है |

विनाशात्मक परिवर्तन हमें वृद्धावस्था की ओर ले जाती है |

अत: विकास बहुत व्यापक शब्द है |

विकास को ” क्रमिक परिवर्तन की श्रंखला ” कहा जाता है |

इससे व्यक्ति में हर स्तर पर नई विशेषता आती है और पुरानी विशेषता खत्म हो जाती है |

प्रौढा़वस्था में पहुंचकर मनुष्य स्वंय को जिन गुणों से सम्पन्न पाता है | यह विकास की प्रक्रिया का ही परिणाम होता है |

🌼हरलाॅक के अनुसार ” विकास की परिभाषा ” ➖ विकास केवल अभिवृद्धि तक सीमित नही है , वरन् यह वह व्यवस्थित परिवर्तन है जिसमें प्रौढा़वस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनो का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताएं एंव योग्यताएं प्रकट होती है |

🌼मनुरो के अनुसार ➖ विकास परिवर्तन श्रंखला की वह अवस्था है जिसमें बच्चा भ्रूणावस्था से लेकर प्रौढा़वस्था तक गुजरता है विकास कहलाता है |

🌼जेम्स ड्रेवर के अनुसार ➖ विकास वह दशा है जो प्रगतिशील परिवर्तन के रूप में सतत् रूप से व्यक्त होती है | यह प्रगतिशील परिवर्तन किसी भी प्राणी में भ्रूणावस्था से प्रौढा़वस्था तक होता है | यह विकास तंत्र को सामान्य रूप से नियंत्रित करता है यह प्रगति का मानदंड है और इसका आरम्भ शून्य से होता है |

✍️✍️ Notes by➖ Ranjana sen

🔆 विकास का अर्थ ( Meaning of Development) ➖

🔷 विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जो गर्भ से लेकर जीवन पर्यंत बिना रुके, सतत या निरंतर सार्वभौमिक रूप से अविराम चलते रहती है |

🔷 विकास ऐसी प्रक्रिया है जो बिना रुके निरंतर रूप से चलती रहती है विकास गुणात्मक परिवर्तन पर निर्भर करता है इसको मापा नहीं जा सकता है जो कि व्यक्ति की कार्यकुशलता, क्षमता ,व्यवहार आदि पर निर्भर करता है जो व्यक्ति के आंतरिक गुणों पर निर्भर करता है तथा विकास गर्भावस्था से शुरू होकर मृत्यु तक जीवन पर्यंत चलते रहता है तथा अप्रत्यक्ष रूप से होता है |

🔷 वृद्धि विकास का अंग है लेकिन विकास केवल शारीरिक वृद्धि की ओर ही संकेत नहीं करता है इसके अंतर्गत शारीरिक, मानसिक ,सामाजिक, संवेगात्मक तथा भावनात्मक इत्यादि परिवर्तन शामिल होते हैं |

🔷 शारीरिक परिपक्वता के अलावा बाकी विकास के अंग वह जीवन पर्यंत चलते रहते हैं लेकिन शारीरिक विकास परिपक्वता की अवस्था तक  पूरा हो जाता है जो कि गर्भावस्था से शुरू होकर किशोरावस्था तक चलता है |

🔷 विकास की प्रक्रिया में होने वाले सभी परिवर्तन सभी व्यक्तियों में एक समान नहीं होते हैं यह वैयक्तिक विभिन्नता के अनुसार होते हैं हर व्यक्ति की वैयक्तिक विभिन्नता अलग-अलग होती है इसलिए हर व्यक्ति में विकास भी अलग अलग तरीके से होता है लेकिन समान रूप से होता है |

🔷 जीवन की प्रारंभिक अवस्था में होने वाले परिवर्तन रचनात्मक होते हैं और उत्तरार्ध में होने वाले परिवर्तन रचनात्मक नहीं होती बल्कि विनाशात्मक होते हैं | जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है वह उन्नति की ओर अग्रसर होता है अर्थात उसका विकास बढ़ता जाता है लेकिन जब  वह प्रौढ़ावस्था से वृद्धावस्था की ओर बढ़ता है तो उसके शरीर का क्षय होने लगता है अर्थात उसकी ऊर्जा का ह्रास होने लगता है जिससे उसका विनाशात्मक विकास होने लगता है इसलिए उत्तरार्ध में होने वाले परिवर्तन विनाशात्मक  होते हैं  |

🔷  रचनात्मकता हमारे में परिपक्वता लाती है और विनाविनाशात्मक  परिवर्तन हमें वृद्धावस्था की ओर ले जाते हैं अतः हम कह सकते हैं कि विकास बहुत ही व्यापक शब्द है |

🔷 विकास को ही ” क्रमिक परिवर्तनों की श्रंखला ” कहा जाता है इससे व्यक्ति में हर स्तर पर नई विशेषता आती है और पुराने विशेषता खत्म हो जाती है | 

🔷 प्रौढ़ावस्था में पहुंचकर मनुष्य स्वयं को जिन गुणों से संपन्न मानता है वे विकास की प्रक्रिया का ही परिणाम है यदि व्यक्ति अपने जीवन को सार्थक बनाता है तो वह वृद्धावस्था में स्वयं को संपूर्णता की स्थिति में पाता है लेकिन यदि वह अपनी इच्छाओं की पूर्ति अपने लक्ष्य की पूर्ति नहीं कर पाता है तो वृद्धावस्था में पहुंचकर निराशा का अनुभव करता है |

🍀 विकास के संबंध में मनोवैज्ञानिकों ने अपने-अपने पक्ष स्पष्ट कीजिए जो कि निम्न है ➖ 

🎯 हरलॉक के अनुसार ➖

 विकास केवल अभिवृद्धि तक सीमित नहीं है बल्कि वह एक व्यवस्थित परिवर्तन है जिसमें वृद्धावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम नहीं रहता है जिसके परिणाम स्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताएं एवं योग्यताएं प्रकट होती है  |

🎯  मुनरो के अनुसार➖

 विकास परिवर्तन श्रंखला की व्यवस्था है जिसमें भ्रूणावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक गुजरता है विकास कहलाता है |

🎯  जेम्स ड्रेवर के अनुसार➖

 विकास वह दिशा है जो प्रगतिशील परिवर्तन के रूप में सतत रूप से व्यक्त होती है यह प्रगतिशील परिवर्तन किसी भी प्राणी में भ्रूण अवस्था से प्रौढ़ावस्था  तक होती है यह विकास तंत्र को सामान्य रूप से नियंत्रित करता है यह प्रकृति का मानदंड है और इसका आरंभ शून्य से होता है |

नोट्स बाय➖ रश्मि सावले

🌸🍀🌻🌺🌼🍀🌻🌼🌺🍀🌻🌼🌺🍀🌻🌼🌺🍀🌻🌼🌺🌸

💫🌻 विकास का अर्थ🌻💫

🪐विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जो गर्भ से लेकर जीवन पर्यंत बिना रुके सतत् निरंतर सार्वभौमिक रूप से अविराम चलती रहती है।

🪐विकास केवल शारीरिक वृद्धि ही संकेत नहीं करता बल्कि इसके अंतर्गत सभी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, और संवेगात्मक परिवर्तन शामिल रहता है।

🪐 शारीरिक परिपक्वता के अलावा बाकी विकास के अंग व जीवन पर्यंत चलते रहते हैं जो गर्भ काल से लेकर मृत्यु पर्यंत तक निरंतर प्रगट होते रहते हैं।

🪐विकास की प्रक्रिया में होने वाले सारे परिवर्तन सभी में एक समान नहीं होता है जीवन की प्रारंभिक अवस्था में होने वाले परिवर्तन रचनात्मक होते हैं और उत्तरार्द्ध में होने वाले परिवर्तन विनाशात्मक होते हैं।

🪐रचनात्मकता हमारे में परिपक्वता लाती है विनाशात्मक परिवर्तन हमें वृद्धावस्था की ओर ले जाती है।

💫 विकास को” क्रमिक परिवर्तन की श्रंखला” कहा जाता है।

🪐इससे व्यक्ति में हर स्तर में नए विशेषताएं आती हैं और पुरानी विशेषताएं खत्म हो जाती हैं।

🪐 प्रौढ़ावस्था में पहुंचकर मनुष्य स्वयं को जिन गुणों से संपन्न पाता है यह विकास की प्रक्रिया का ही परिणाम होता है।

💫🌻 हरलॉक(Hurlock) के अनुसार विकास की परिभाषा➖

विकास केवल अभिवृद्धि तक सीमित नहीं है वरन यह व्यवस्था परिवर्तन है जिसमें प्रवस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है इसके परिणाम स्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताएं एवं योग्यताएं प्रगट होती हैं।

💫🌻मुनरो➖विकास परिवर्तन श्रृंखला की व्यवस्था है जिसमें बच्चा भ्रूणवस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक  गुजरता है विकास कहलाता है।

💫🌻जेम्स ड्रेवर➖विकास वह दशा है जो प्रगतिशील परिवर्तन के रूप में सतत् रूप से व्याप्त होता है यह प्रगतिशील परिवर्तन किसी भी प्राणी में भ्रूणवस्था  से प्रौढ़ावस्था  तक होता है यह विकास तंत्र की सामान्य रूप से नियंत्रित करता है यह प्रगति का मानदंड है और इसका आरंभ शून्य से होता है।

✍🏻📚📚 Notes by…. Sakshi Sharma📚📚✍🏻

,🌈🌈 विकास 🌈🌈

  🌠 विकास का अर्थ🌠

विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जो गर्भावस्था से लेकर जीवन पर्यन्त बिना रुके सतत निरंतर सार्वभौमिक रूप से अभिराम चलती रहती है।

वृद्धि और विकास का अंग है लेकिन विकास केवल शारीरिक वृद्धि की ओर ही संकेत नहीं करता है इसके अंतर्गत शारीरिक व सामाजिक भावात्मक संवेगात्मक इत्यादि परिवर्तन शामिल है।

🌠शारीरिक परिपक्वता के अलावा बल्कि विकास के अंग का एक जीवन पर्यंत चलते रहते हैं , और विकास जीवन के पर्यंत तक चलता और दिखता रहता है।

विकास की प्रक्रिया में होने वाले सारे परिवर्तन सभी एक समान नहीं होते हैं।

🌠जीवन के प्रारंभिक अवस्था में होने वाले परिवर्तन रचनात्मक होते हैं और उत्तरार्ध में होने वाले परिवर्तन विनाश आत्मक होते हैं

🌠रचनात्मक हमारे में परिपक्वता लाती है, विनाश आत्मक परिवर्तन हमें वृद्धा की ओर ले जाती है।

अतः विकास बहुत व्यापक शब्द है। 

🌠विकास  को क्रमिक परिवर्तन की श्रृंखला कहा जाता है।

💫अवस्था में पहुंचकर मनुष्य स्वयं के गुणों में समन्वय आता है और यह विकास की प्रक्रिया का परिणाम होता है।

❇️ हरला के अनुसार विकास की परिभाषा ❇️

विकास केवल अभिवृद्धि तक सीमित नहीं है वरन  वह व्यवस्थित परिवर्तन है जिससे प्रौढ़ावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तन का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है जिसे के परिणाम स्वरूप व्यक्ति के नवीन विशेषताएं एवं योग्यताएं प्रकट होती हैं।

🌈 मुनरो अनुसार विकास की परिभाषा,🌈

विकास परिवर्तन की सिजरा कि वह व्यवस्था है जिसमें बच्चा भ्रूण अवस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक गुजरता है विकास कहलाता है।

 ❇️ जेम्स ड्रेवर के अनुसार विकास की परिभाषा❇️

विकासवाद ऐसा है जो प्रगतिशील परिवर्तन के रूप में सतत रूप में व्यक्त होती है या प्रगतिशील परिवर्तन किसी भी प्राणी में भ्रूण अवस्था से पूर्ण अवस्था तक होता है यह विकास तंत्र को समान रूप से निर्मित करता है यह  प्रगति का मापदंड है और इसका आरंभ शुन्य से होता है।

 🙏✍️✍️Notes by Laki 🙏✍️

🌻🌻🌻💥💥💥💥💥 विकास की परिभाषा-

🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺

🌈👉विकास को विभिन्न प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है।

💫🌻 विकास एक सतत प्रक्रिया है।

🌻💫विकास जीवन पर्यन्त चलता है।

🌻💫विकास अविराम अर्थात बिना विराम के यह चलता रहता है।

🌻💫 विकास सार्वभौमिक है।अर्थात विकास सभी मे होता है और यह आवश्यक भी है।

🌈👉 बृद्धि जो होती है वह विकास का अंग है लेकिन विकास बृद्धि की ओर संकेत नही करता है , विकास के अंतर्गत शारीरिक मानसिक ,सामाजिक ,संवेगात्मक और भावात्मक विकास भी शामिल हैं।

   🌈👉 शारीरिक परिपक्वता के अलावा बाकी विकास के अंग जो जीवन पर्यन्त चलते रहते हैं।

🌈👉विकास की प्रक्रिया में होने वाले सारे परिवर्तन सभी मे एक समान नही होते हैं अर्थात विकास सभी मे अलग अलग होता है।

🌈👉जीवन के प्रारंभिक अवस्था में होने वाले परिवर्तन रचनात्मक होते हैं जो हमे परिपक्वता की ओर ले जाते हैं। और उत्तरार्ध में होने परिवर्तन विनाशात्मक होते हैं जो  मनुष्य को वृद्धावस्था की ओर ले जाते हैं।

🌈👉 अतः हम कह सकते हैं कि विकास बहुत ही व्यापक शब्द है।

🌈👉 विकास को “क्रमिक परिवर्तन” की श्रृंखला कहा जाता है।इसी की वजह से हमारे अंदर नई- नई विशेषता आती है।और जो पुरानी विशेषताओं को समाप्त करती है।

🌈👉 इससे व्यक्ति में हर स्तर पर नई विशेषता आती है।और पुरानी विशेषता खत्म हो जाती है।

🌈👉 प्रौढ़ावस्था में पहुचकर मनुष्य स्वयं को जिन गुणों से सम्पन्न पाता है यह विकास की प्रक्रिया का ही परिणाम होता हैं।

👨‍✈️🌈 हरलाक के अनुसार- विकास  केवल अभिवृद्धि तक सीमित नही  है वरन यह वह व्यवस्थित परिवर्तन है जिससे प्रौढ़ावस्था को लक्ष्य की ओर परिवर्तनो का प्रगतिशील का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है।

👨‍✈️👉मुनरो के अनुसार – विकास परिवर्तन श्रृंखला की वह अवस्था है जिसमे बच्चा भ्रूणावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक गुजरता है।

👨‍✈️👉 जेम्स ड्रेवर के अनुसार – विकास वह दशा है जो प्रगतिशील परिवर्तन के रूप से व्यक्त होती है यह प्रगतिशील परिवर्तन किसी भी प्राणी में भ्रूणावस्था से प्रौढ़ावस्था तक होता है।यह विकास तंत्र को सामान्य रूप से नियंत्रित करता है यह प्रगति का मानदंड है और इसका आरम्भ शून्य से होता है।

📚📚📚 Notes by Poonam Sharma🌻🌻🌻

विकास का अर्थ

   Meaning Of Development

💥💥💥💥💥💥💥💥💥💥💥

2 March 2021

👉 विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जो गर्भ से लेकर जीवन – पर्यन्त बिना रुके सतत , निरंतर , सार्वभौमिक रूप से अविराम चलती रहती है।

👉 वृद्धि , विकास का ही अंग है ।

लेकिन विकास केवल शारीरिक वृद्धि की ओर ही संकेत नहीं करता है , बल्कि इनके अंतर्गत शारीरिक , मानसिक ,  सामाजिक , संवेगात्मक , भावनात्मक इत्यादि परिवर्तन शामिल होते हैं।

👉 शारीरिक परिपक्वता के अलावा बाकी विकास के सभी अंग जीवन पर्यंत चलते रहते हैं।

👉 विकास की प्रक्रिया में होने वाले संपूर्ण परिवर्तन सभी में एक समान नहीं होते हैं।

👉 जीवन की प्रारंभिक अवस्था में होने वाले परिवर्तन रचनात्मक होते हैं ।

👉 और जीवन के उत्तरार्ध से होने वाले परिवर्तन विनाशकारी ( क्षय – पूर्ण ) होते हैं।

👉 रचनात्मकता मनुष्यों में परिपक्वता लाती है।

        तथा विनाशकारी परिवर्तन हमें वृद्धावस्था की ओर ले जाते हैं।

👉 अतः विकास बहुत व्यापक शब्द है ।

👉 विकास को ” क्रमिक परिवर्तन की श्रृंखला ”  कहा जाता है।

👉 इससे व्यक्ति में हर स्तर पर नयीं विशेषतायें आती है और पुरानी विशेषताएं खत्म हो जाती हैं।

👉  प्रौढ़ावस्था में पहुंचकर मनुष्य स्वयं को जिन गुणों में संपन्न पाता है , वह विकास की प्रक्रिया का ही परिणाम होता है।

🌹🌹  विकास की परिभाषाएं  🌹🌹

विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने विकास के संबंध में निम्नलिखित परिभाषायें दी हैं :-

” हरलॉक ”  के अनुसार   :-

विकास केवल अभिवृद्धि तक सीमित नहीं है वरन् यह व्यवस्थित परिवर्तन है जिसमें प्रौढ़ावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है जिसके परिणामस्वरुप व्यक्ति में ” नवीन विशेषताएं ” एवं            ” योग्यताएं ” प्रकट होती हैं।

” मुनरो ”  के अनुसार   :-

विकास परिवर्तन श्रृंखला की वह व्यवस्था है जिसमें बच्चा ” भ्रूणावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक गुजरता ”  है  ,  यही विकास कहलाता है।

 ” जेम्स ड्रेवर ”   के अनुसार  :-

” विकास वह दशा है जो प्रगतिशील परिवर्तन के रूप में सतत रूप से व्यक्त होती है ,  यह प्रगतिशील परिवर्तन किसी भी प्राणी में भ्रूणावस्था से प्रौढ़ावस्था तक होता है।  

यह ” विकास तंत्र ” को सामान्य रूप से ” नियंत्रित ” करता है।  

यही ” प्रगति का मानदंड ” है और इसका ” आरंभ शून्य  से ” होता है। “

✍️ Notes by –  जूही श्रीवास्तव ✍️💥विकास का अर्थ💥

विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जो गर्भ से लेकर जीवन पर्यंत बिना रुके सतत ,निरंतर ,सार्वभौमिक ,रूप से अभिराम चलते रहता है।

✨ वृद्धि -विकास का अंग है लेकिन विकास केवल शारीरिक वृद्धि की ओर संकेत नहीं करता है इन के अंतर्गत शारीरिक, मानसिक, सामाजिक ,संवेगात्मक, भावनात्मक, इत्यादि परिवर्तन शामिल हैं।

✨ शारीरिक परिपक्वता के अलावा बाकि विकास के अंग वह जीवन पर्यंत चलते रहता है विकास की प्रक्रिया में होने वाले सारे परिवर्तन सभी में एक समान नहीं होते हैं।

✨  जीवन की प्रारंभिक अवस्था में होने वाले परिवर्तन रचनात्मक होते हैं और उत्तरार्ध में होने वाले परिवर्तन विनाशात्मक होते हैं।

✨ रचनात्मकता हमारे में परिपक्वता लाती है विनाशात्मक परिवर्तन हमें वृद्धावस्था की ओर ले जाती है अतः विकास बहुत व्यापक शब्द है।

✨ विकास को ही “क्रमिक परिवर्तनों की श्रृंखला” कहा जाता है। 

✨ इससे व्यक्ति हैं हर स्तर पर नई विशेषता आती है और पुरानी विशेषता खत्म हो जाती है। प्रौढा अवस्था में पहुंचकर मनुष्य स्वयं को जिन गुणों से संपन्न पाता है यह विकास की प्रक्रिया का ही परिणाम होता है।

💥 हरलाँक के अनुसार विकास की परिभाषा 💥

💫 विकास केवल अभिवृद्धि तक सीमित नहीं है वरन यह वह व्यवस्थित परिवर्तन है जिसमें प्रोढावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है जिसके परिणाम स्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताएं एवं योग्यताएं प्रकट होती है।

 💥मुनरो💥  विकास परिवर्तन श्रृंखला की वह अव्यवस्था है जिसमें बच्चा भूणावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक गुजरता है विकास कहलाता है।

💥जेम्स डेवर💥– विकास वह दशा  है जो प्रगतिशील परिवर्तन के रूप में सतत रूप से व्यक्त होती है यह प्रगतिशील परिवर्तन किसी भी प्राणी में भूणावस्था से प्रोढावस्था तक होता है यह विकास तंत्र को सामान्य रूप से नियंत्रित करता है यह प्रगति का मानदंड है और इसका आरंभ शून्य से होता है।

 📝📝📝Notes by suchi Bhargav….

विकास का अर्थ

विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जो गर्भ से लेकर जीवन पर्यंत बिना रुके /सतत/ निरंतर /सार्वभौमिक रूप से/ अविराम चलती रहती हैं।

वृद्धि विकास का अंग है लेकिन विकास केवल शारीरिक वृद्धि की ओर ही संकेत नहीं करता है इसके अंतर्गत शारीरिक ,मानसिक ,सामाजिक ,भावनात्मक, संवेगात्मक इत्यादि परिवर्तन शामिल है।

शारीरिक परिपक्वता के अलावा बाकी विकास के अंग जीवन पर्यंत चलते रहते हैं।

जीवन की प्रारंभिक अवस्था में होने वाले परिवर्तन रचनात्मक होते हैं और उत्तरार्द्ध में होने वाले परिवर्तन विनाशात्मक होते हैं।

रचनात्मकता हमारे में परिपक्वता लाती हैं

विनाशात्मक परिवर्तन हमें वृद्धावस्था की ओर ले जाते है।

अतः विकास बहुत व्यापक शब्द है।

विकास को “क्रमिक परिवर्तन की श्रृंखला” कहा जाता है।

इससे व्यक्ति में हर स्तर पर नई विशेषता आती है और पुरानी विशेषता खत्म हो जाती है

प्रौढ़ावस्था में पहुंचकर मनुष्य स्वयं को जिन गुणों से संपन्न पाता है यह विकास की प्रक्रिया का ही परिणाम होता है।

हरलॉक के अनुसार विकास की परिभाषा

विकास केवल अभिवृद्धि तक सीमित नहीं है वरन यह “व्यवस्थित परिवर्तन” है जिसमें प्रौढ़ावस्था के लक्ष्य की ओर “परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम” निहित रहता है जिसके परिणाम स्वरूप व्यक्ति में “नवीन विशेषताएं एवं योग्यताएं” प्रकट होती है।

मुनरो के अनुसार विकास

विकास “परिवर्तन श्रृंखला” की वह अवस्था है जिसमें बच्चा “भ्रूणावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक” गुजरता है विकास कहलाता है।

जेम्स ड्रेवर के अनुसार-

विकास वह दशा है जो प्रगतिशील परिवर्तन के रूप में सतत रूप से व्यक्त होती हैं यह प्रगतिशील परिवर्तन किसी भी प्राणी में भ्रूणावस्था से प्रौढ़ावस्था तक होता है यह विकास तंत्र को सामान्य रूप से नियंत्रित करता है यह प्रगति का मानदंड है और इसका आरंभ शून्य से होता है।

Notes by Ravi kushwah

*विकास*

           *Development*

🐤 विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जो गर्भ से लेकर मृत्यु बिना रुके सतत , निरंतर , सार्वभौमिक रूप से चलती रहती है।

🐤 वृद्धि , विकास का ही एक अंग है। विकास केवल शारीरिक वृद्धि की ओर ही संकेत नहीं करता है , बल्कि इनके अंतर्गत शारीरिक , मानसिक ,  सामाजिक , संवेगात्मक , भावनात्मक इत्यादि परिवर्तन शामिल होते हैं।

🐤शारीरिक परिपक्वता को छोड़कर विकास जीवन पर्यंत चलती रहती हैं।

🐤विकास की प्रक्रिया में होने वाले परिवर्तन सभी में असमान होते हैं।

 🐤जीवन की प्रारंभिक अवस्था(0-40 वर्ष लगभग) में होने वाले परिवर्तन रचनात्मक होते हैं ।

 तथा जीवन के उत्तरार्ध (40 से मृत्यु तक) में होने वाले परिवर्तन विनाशकारी ( कमजोरी ) होते हैं।

 👶🏻 *रचनात्मकता मनुष्यों में परिपक्वता लाती है। तथा विनाशकारी परिवर्तन हमें वृद्धावस्था की ओर ले जाते हैं।*

विकास बहुत व्यापक शब्द है ।

👶🏻विकास को *क्रमिक परिवर्तन की श्रृंखला* कहा जाता है।

🐤इससे व्यक्ति में हर स्तर पर नयीं विशेषतायें आती है और पुरानी विशेषताएं खत्म हो जाती हैं।

 🐤प्रौढ़ावस्था में पहुंचकर मनुष्य स्वयं को जिन गुणों में संपन्न पाता है , वह विकास की प्रक्रिया का ही परिणाम होता है।

       *विकास की परिभाषाएं*

 *Definition of Development*

विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने विकास के संबंध में अपने विचार प्रकट किए हैं—-

👾 *हरलॉक के अनुसार*   :-

विकास केवल अभिवृद्धि तक सीमित नहीं है वरन् यह व्यवस्थित परिवर्तन है जिसमें प्रौढ़ावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है जिसके परिणामस्वरुप व्यक्ति में *नवीन विशेषताएं  एवं            ” योग्यताएं* प्रकट होती हैं।

👾 *मुनरो  के अनुसार*   :-

विकास *परिवर्तन श्रृंखला की वह व्यवस्था है जिसमें बच्चा *भ्रूणावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था* तक गुजरता  है, यही विकास कहलाता है।

👾 *जेम्स ड्रेवर  के अनुसार*  :-

” विकास वह दशा है जो प्रगतिशील परिवर्तन के रूप में सतत रूप से व्यक्त होती है ,  यह प्रगतिशील परिवर्तन किसी भी प्राणी में *भ्रूणावस्था से प्रौढ़ावस्था* तक होता है। यह *विकास तंत्र* को सामान्य रूप से नियंत्रित करता है।  

*यही प्रगति का मानदंड है और इसका आरंभ शून्य  से होता है।*

👀 📝🗒 Notes by – Deepika Ray ✍️ 📖📕📘📗📓📚

20. CDP – Growth and Development PART- 1

*🌸वृद्धि एवं विकास🌸*

 *🌸Growth and Development🌸*

*01 march 2021*

👉 व्यक्ति हर पल कुछ ना कुछ सोचते/ करते रहता है या उसमें बदलाव होते रहते हैं, जो हर व्यक्ति में अलग-अलग होते हैं और यह बदलाव व्यक्ति की आवश्यकता, प्रेरणा तथा वातावरण पर निर्भर करते हैं। 

हर व्यक्ति में शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक, सामाजिक इत्यादि के परिपेक्ष में पल-पल बदलाव आता है।  और वह हमेशा अपने काम व अन्य सभी क्षेत्रों में ऊपर उठते जाता है।  व्यक्ति में आने वाले पल-पल के इन बदलावों को ही वृद्धि एवं विकास कहा जाता है। 

👉 प्रारंभिक अवस्था में बच्चा अबोध या नासमझ कहलाता है,फिर उम्र के अनुसार धीरे-धीरे बच्चा शरारती हो जाता है, फिर वह गंभीर होने लगता है और फिर एक उम्र के बाद विद्वान एवं ज्ञानी आदि विशेषताएं बच्चे में विकसित होती जाती है। 

बच्चे के विकास का यह क्रम चलना जरूरी होता है जिससे यह निश्चित होता है कि बच्चे में वृद्धि एवं विकास हो रहा है। 

👉 आयु में वृद्धि के साथ शारीरिक, मानसिक योग्यता और क्षमता में वृद्धि होती है, इससे व्यक्ति के व्यक्तित्व और व्यवहार में भी परिवर्तन होता है। 

👉 बालक की योग्यता, क्षमता में वृद्धि, व्यक्तित्व एवं व्यवहार में परिवर्तन जिन कारणों से होता है, इनका अध्ययन शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करने वाले कार्यकर्ता को करना आवश्यक है।  ताकि बच्चों की मानसिकता को आसानी से समझा जा सके और उनकी विशिष्टताओं के आधार पर उन्हें शिक्षा दी जा सके। 

👉 बालक की आयु के साथ शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक, नैतिक आदि पक्षों का विकास संपूर्ण व्यक्तित्व को दर्शाता है। 

👉 व्यक्ति के व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास वृद्धि या अभिवृद्धि तथा विकास से मिलकर होता है। 

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*🌸 अभिवृद्धि/वृद्धि ( Growth) 🌸*

👉 अभिवृद्धि का सामान्य अर्थ होता है- *”आगे बढ़ना”*। 

 बालक की अभिवृद्धि के संबंध में जिसके अंतर्गत लंबाई, भार या कार्यक्षमता, मोटाई तथा अंगों का विकास आता है इस प्रकार  के आंतरिक एवं बाहरी, शारीरिक परिवर्तन वृद्धि के अंतर्गत  आते हैं। 

👉 मानव शरीर में यह वृद्धि 18 से 20 वर्ष तक ही होती है, इसके बाद अंगों में वृद्धि नहीं होती अर्थात इस आयु में व्यक्ति पूर्ण वयस्क हो जाता है। 

इस वृद्धि को देखा और परखा जा सकता है। इसका मापन भी किया जा सकता है। 

🌸 *मनोवैज्ञानिक फ्रैंक के अनुसार*- ” अभिवृद्धि से तात्पर्य कोशिकाओं में होने वाली वृद्धि से है जैसे- लंबाई और भार में वृद्धि।” 

🌸 *लाल और जोशी के अनुसार*- ” मानव अभिवृद्धि से तात्पर्य उसके शरीर के बाहरी और आंतरिक अंगों के आकार,भार एवं कार्य क्षमता में होने वाली उस वृद्धि है जो उसके गर्भ समय से परिपक्वता प्राप्त करने तक चलती है। “

Notes by Shivee Kumari

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🔆 वृद्धि एवं विकास 🔆

            (Growth and Development)

▪️हर व्यक्ति में शारीरिक ,मानसिक, भावनात्मक ,सामाजिक इत्यादि परिप्रेक्ष्य में पल पल बदलाव आता है।

▪️व्यक्ति में समय के साथ यह बदलाव निरंतर हर क्षण या बिना रुके हुए चलता रहता है और कुछ ना कुछ वृद्धि और विकास होता  रहता है।

▪️हालांकि प्रत्येक व्यक्ति में यह वृद्धि और विकास अलग अलग होगा यह किसी व्यक्ति में कितनी मात्रा में व किस दिशा में होगा यह उस व्यक्ति की प्रेरणा, आवश्यकता या उसके वातावरण पर निर्भर करेगा।

▪️प्रारंभिक अवस्था में बच्चा अबोध/नासमझ कहलाता है।

▪️ बच्चे में  शुरुआती समय में शरारती – आगे बढ़कर –  गंभीर –  विद्वान और धीरे-धीरे – ज्ञानी जैसी यह सभी विशेषताएं आने लगती है।

▪️बच्चे की आयु में वृद्धि के साथ-साथ शारीरिक, मानसिक योग्यता, और क्षमता में भी वृद्धि होती है जिससे उसके के व्यक्तित्व में भी परिवर्तन दिखाई देने लगता है।

▪️बच्चे में जो भी परिवर्तन जिन कारणों से हो रहे हैं उन कारणों का अध्ययन करना बहुत ही आवश्यक है।

▪️अर्थात बालक की योग्यता क्षमताओं में वृद्धि व्यक्तित्व एवं व्यवहार में परिवर्तन जिन भी कारणों से हो रहा है उनका अध्ययन शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं के लिए अत्यंत आवश्यक   और महत्वपूर्ण है।

▪️जब तक शैक्षिक क्षेत्र में कार्य करने वाले व्यक्ति या कार्यकर्ता को यह नहीं पता होगा कि बच्चे की उम्र व वातावरण के अनुसार  वृद्धि कैसे हो रही है, विकास किस गति में हो रहा है, किस वजह या कारण से बच्चे के व्यवहार एवं व्यक्तित्व में परिवर्तन आया है इन सभी बातों का ज्ञान नहीं होगा तब तक वह बच्चे की अंदर किसी भी तरह का बदलाव या सुधार नहीं कर पाएगा।

▪️जैसा कि हम जानते हैं कि हर प्राणी की क्षमता, योग्यता ,व्यवहार ,व्यक्तित्व ,विचार अलग-अलग होता है अर्थात हर इंसान में व्यक्तिक भिन्नता निश्चित ही होती है इन सभी को ध्यान में रखते हुए या इन्हे जानकर हम पता कर सकते हैं कि बच्चे का वातावरण या माहौल या स्थिति किस प्रकार की होगी।

▪️इसीलिए प्रत्येक शिक्षक को इस बात का ज्ञान अवश्य होना चाहिए जिससे कि वह बच्चे की जरूरत ,समझ व वातावरण के हिसाब से शिक्षण कार्य का क्रियान्वयन सुचारू रूप से कर पाए ।

▪️बालक की आयु के साथ साथ शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक, नैतिक आदि अनेक पक्षों का विकास संपूर्ण व्यक्तित्व विकास को दर्शाता है।

इस “संपूर्ण विकास” को दो भागों में बांटा गया है।

🔹1 वृद्धि /अभिवृद्धि

🔹2 विकास

🔅 1 वृद्धि / अभिवृद्धि (Growth) ➖

🔸वृद्धि का सामान्य अर्थ होता  है “आगे बढ़ना”

🔸व्यक्ति में किसी न किसी रूप में हर पल या हर क्षण बदलाव आता होता ही रहता  है।

🔸बालक की अभिवृद्धि के संदर्भ  में शरीर के आंतरिक और बाह्य अंग के आकार, भार और कार्य क्षमता में होने वाली वृद्धि के रूप में देखा जा सकता है।

🔸सामान्यत: मानव शरीर में यह वृद्धि 18 से 20 वर्ष तक हो जाती है।

लड़कियों की वृद्धि लडको की अपेक्षा दो वर्ष पूर्व ही हो जाती है।

 इसके बाद अंगों में वृद्धि नहीं होती है। इस आयु का व्यक्ति पूर्ण रूप से वयस्क हो जाता है।

🔸इस वृद्धि को देखा व परखा  जा सकता है और इसका मापन भी किया जा सकता है। अर्थात वृद्धि मात्रात्मक होती हैं।

    “वृद्धि के संदर्भ में कुछ मनोवैज्ञानिको के कथन”

❇️ फ्रेंक के अनुसार – “अभिवृद्धि से तात्पर्य कोशिकाओं में होने वाले वृद्धि से ही है।

 जैसे – लंबाई और भार में वृद्धि।”

❇️ लाल व जोशी के अनुसार – “मानव अभिवृद्धि से तात्पर्य व्यक्ति के शरीर के बाहरी और आंतरिक अंगों के आकार ,भार एवं कार्य क्षमता में होने वाली उस विधि से है जो उसके गर्भ समय से परिपक्वता प्राप्त करने तक चलती है।”

        ✍️     

              Notes By – ‘Vaishali Mishra’

वृद्धि और विकास

  (Growth and Development)

हर एक व्यक्ति में शारीरिक,मानसिक ,नैतिक ,सांस्कृतिक सामाजिक,धार्मिक, भावनात्मक इत्यादि के परिप्रेक्ष्य में पल-पल बदलाव आता है अर्थात प्रत्येक क्षण में कुछ ना कुछ बदलाव होता है फिर वह अंतरिक हो या बाहरी रूप से देखें जाने वाला हो,

विकास की प्रक्रिया हर किसी में निरंतर चलती रहती है लेकिन उसकी दशा और दिशा उस व्यक्ति के आचरण विचार,अभिप्रेरणा, रुचि व उसके वातावरण पर निर्भर करती है,

प्रारंभिक अवस्था में बच्चा अबोध कहलाता है अर्थात वह नासमझ होता है उसे सही गलत ईमानदारी- बेईमानी व अन्य विषयों के बारे में ज्ञान नहीं रहता है,

बच्चे की उम्र धीरे-धीरे बढ़ने के साथ-साथ उसमें अनैतिक व नैतिक गुण आने लगते हैं जैसे बच्चा पहले अबोध था अब वह धीरे धीरे उम्र बढ़ने के साथ-साथ गंभीर होगा फिर वह आगे समझदार विद्वान,ज्ञानी ,दानी ,अहिंसावादी वा इत्यादि विशेषताएं आने लगती हैं।

प्रत्येक व्यक्ति में आयु की वृद्धि के साथ-साथ शारीरिक मानसिक योग्यता और क्षमता में वृद्धि होती है इससे व्यक्ति के व्यक्तित्व और व्यवहार में भी परिवर्तन होता है।

बालक की योग्यता क्षमता में वृद्धि व्यक्तित्व एवं व्यवहार में परिवर्तन जिन कारणों से होता है उनका अध्ययन शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करने वाले कार्यकर्ता को करना आवश्यक है अर्थात्  शिक्षक को यह  ज्ञान अवश्य होना चाहिए कि उसके छात्र में शारीरिक, मानसिक,वा व्यहारात्मक वा अन्य  में जो भी परिवर्तन हो रहे हैं उसके क्या कारण है वह उनको और अधिक सुलभ व सुचारू रूप से किस प्रकार आगे बढ़ाया जा सकता है।

विकास संपूर्ण व्यक्तित्व विकास को दर्शाता है।

संपूर्ण विकास को दो भागों में विभाजित किया गया है

1-वृद्धि (अभिवृद्धि)

 २- विकास

१- अभिवृद्धि (वृद्धि ) वृद्धि का समान अर्थ है “आगे बढ़ना”

 (To growth To nourish)

बालक की वृद्धि के संदर्भ में उसके शरीर के आंतरिक एवं बाह्य अंग के आकार,भार,कार्यक्षमता में होने वाली वृद्धि के रूप में देखा जाता है। (जैसे शैशवास्था में बच्चे का मस्तिष्क भार वा  उसके शरीर के भार की तुलना, बाल्यावस्था के बालक के मस्तिष्क के भार व उसके शरीर की तुलना करने पर दोनों में ही अंतर स्पष्ट दिखेगा।)

प्रत्येक व्यक्ति में वृद्धि की शुरुआत गर्भावस्था से हो जाती है और यह किशोरावस्था की अंतिम अवस्था तक पूर्ण हो जाती है एवं रुक जाती है

(जैसे÷बालक की लंबाई का बढ़ना जो कि एक निश्चित समय किशोरावस्था की अवस्था के बाद रुक जाना)

मानव शरीर में वृद्धि 18 से 20 वर्ष तक की होती है।

(लड़कों की तुलना में लड़कियों में वृद्धि २ वर्ष पूर्व हो जाती है) इसके बाद अंगों में वृद्धि नहीं होती है।

                                                     इसका अर्थ है कि इस आयु का व्यक्ति पूर्ण वयस्क हो जाता है इस वृद्धि को देखा और परखा जा सकता है।

इसका मापन किया जा सकता है अर्थात या मात्रात्मक होती है।

मनोवैज्ञानिक फ्रैंक के अनुसार ÷”अभिवृद्धि से तात्पर्य कोशिकाओं में होने वाली विद्धि से है”

मनोवैज्ञानिक लाल व जोशी के अनुसार÷मानव वृद्धि से तात्पर्य उसके शरीर के बाहरी और आंतरिक अंगों के आकार, भार एवं कार्य क्षमता में होने वाली उस वृद्धि से है जो उसके गर्भ समय से परिपक्वता प्राप्त करने तक चलती है।

🥀Written by÷ shikhar pandey 🥀

🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺 Growth and development  (वृद्धि और विकास)- 

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💥🌈  वृद्धि और विकास के द्वारा बालक का सम्पूर्ण विकास होता है।

         हर व्यक्ति में शरीरिक, मानसिक,भावात्मक, सामाजिक,इत्यादि परिप्रेक्ष्य में हर समय बदलाव आता है।

💥🌈 प्रारंभिक अवस्था में बच्चा अबोध कहलाता है,मतलब उसे बाहरी किसी भी चीज़ का बोध नही होता है वह अपरिचित होता है वास्तविकता से।

🌈💥 उसके बाद थोड़ा शरारती होता है बच्चे का शरारती होना भी जरूरी होता है। जिससे वह अन्तःक्रिया कर पाता है। उसके बाद वह गंभीर, विद्वान, ज्ञानी आदि विशेषताएं आने लगती हैं।

💥🌈 बच्चे की आयु में वृद्धि के साथ साथ शारीरिक ,मानसिक योग्यता और क्षमता में भी वृद्धि होने लागती है।

🌈💥इससे व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन आता है।

🌈💥बालक की योग्यता और क्षमता में वृध्दि व्यक्तित्व एवं व्यवहार में परिवर्तन जिन कारणों से होता है उनका अध्ययन शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करने वाले कार्य कर्ता या अध्यापक को करना आवश्यक है। जिससे बालको का सम्पूर्ण विकास अच्छे से हो पायेगा। 

💥🌈 बालक की आयु के साथ शारीरिक ,मानसिक,सामाजिक,संवेगात्मक ,नैतिक आदि पक्षो के सम्पूर्ण विकास को दर्शाता है।

🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻वृद्धि + विकास= सम्पूर्ण विकास

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🌈💥 अभिवृद्धि(वृध्दि)-

👉 अभिवृद्धि का सामान्य अर्थ होता है “आगे बढ़ना” 

  बालक की अभिवृद्धि के संदर्भ में शरीर के आंतरिक व बाह्य अंग के आकार ,भार या कार्य क्षमता में होने वाले वृध्दि के रूप में देखा जाता है।

💥 मानव शरीर में यह वृध्दि 18 से 20 तक होती है।💥

👉इसके बाद अंगों में बृद्धि नही होती है। इस आयु का व्यक्ति पूर्ण वयस्क हो जाता है। इस वृद्धि को देख औऱ परखा जा सकता है। इसका मापन भी किया जा सकता है

👨‍✈️ मनोवैज्ञानिक फ्रैंक के अनुसार –  अभिवृद्धि से तात्पर्य कोशिकाओं में होने वाली वृध्दि से है जैसे – लंबाई, भार इत्यादि।

👨‍✈️लाल और जोशी के अनुसार- 

       मानव अभिवृद्धि से तात्पर्य उसके शरीर के आंतरिक व बाहरी अंगों के आकार,भार, एवं क्षमता में होने वाले उस वृद्धि से है जो गर्भावस्था से परिपक्वता प्राप्त करने तक चलती है।

🌺🌺 Notes by POONAM SHARMA

🌨️वृद्धि और विकास (Growth and development)🌨️🌨️🌨️🌨️🌨️🌨️🌨️🌨️🌨️🌨️🌨️🌨️🌨️🌨️🌨️🌨️01Mar21🌨️🌨️

↪️ हर व्यक्ति में शारीरिक, मानसिक, भावात्मक, सामाजिक इत्यादि परिप्रेक्ष्य में पल-पल बदलाव आता है। इन सभी बदलावों का मुख्य कारण प्रत्येक बच्चे की अलग-अलग शारीरिक, मानसिक, भावात्मक, सामाजिक क्षमता एवं वातावरण का प्रभाव पड़ता है। कुल मिलाकर यदि हम कहे तो बालक के वैयक्तिक विभिन्नता का प्रभाव पड़ता है।

↪️ प्रारंभिक अवस्था में बच्चा अबोध कहलाता है : इसका प्रमुख कारण यह है कि बच्चा सब कुछ पहले से सीख कर के तो नहीं जन्म लेता है वह जो भी सीखता है जन्म के पश्चात ही सीखता है और सीखने में उसे कुछ समय लगता है। अतः बालक प्रारंभिक अवस्था में अनजान/नासमझ/अनुभवहीन होता है। इस संबंध में प्लेटो ने कहा है कि “बालक का *मस्तिष्क* कोरा *स्लेट* होता है।” बालक के मस्तिष्क से संबंधित जॉन लॉक महोदय ने बताया कि “बालक का मस्तिष्क कोरा *कागज* होता है।” तथा रूसो ने बालक के मन के संबंध में कहा है कि “बालक का *मन* कोरा कागज होता है।”

↪️ जब चीजों को सीखने लगता है तब होगा धीरे-धीरे शरारती, गंभीर, विद्वान, ज्ञान आदि विशेषताएं आने लगती है।

↪️ आयु में वृद्धि के साथ शारीरिक, मानसिक योग्यता और क्षमता की वृद्धि होती है। इससे व्यक्ति के व्यक्तित्व और व्यवहार में भी परिवर्तन होता है।

↪️ बालक की योग्यता क्षमता में वृद्धि व्यक्तित्व एवं व्यवहार में परिवर्तन किन कारणों से होता है इसका अध्ययन शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करने वाले कार्यकर्ता को करना आवश्यक है।

↪️ बालक की आयु के साथ शारीरिक मानसिक सामाजिक संवेगात्मक नैतिक आदि पक्षों में विकास संपूर्ण व्यक्तित्व विकास को दर्शाता है।

वृद्धि (अभिवृद्धि) + विकास = संपूर्ण विकास

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🏂 अभिवृद्धि (वृद्धि) Growth ⤵️

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↪️ अभिवृद्धि का सामान्य अर्थ होता है ‘आगे बढ़ना’। बालक की अभिवृद्धि के संबंध में उसके शरीर के *आंतरिक एवं बाह्य* अंग आकार, भार तथा कार्य क्षमता में होने वाली वृद्धि के साथ में देखा जाता है।

↪️ मानव शरीर में यह वृद्धि 18-20 वर्ष तक ही होता है। इसके बाद अंगों में वृद्धि नहीं होती है। इस आयु का व्यक्ति वयस्क हो जाता है। इस वृद्धि को *देखा और परखा* जा सकता है तथा इसका *मापन (Measurement)* भी किया जा सकता है।

👤मनोवैज्ञानिक फ्रैंक के अनुसार, “अभिवृद्धि से तात्पर्य कोशिकाओं में होने वाली वृद्धि से है; जैसे लंबाई और भार में वृद्धि।”

👥लाल और जोशी के अनुसार, “मानव अभिवृद्धि से तात्पर्य उसके शरीर के बाहरी और आंतरिक अंगों के आकार भार एवं कार्य क्षमता में होने वाली वृद्धि से है जो उसके गर्भ के समय से परिपक्वता प्राप्त करने तक चलती है।”🔚

🙏

📝 By – Awadhesh Kumar 🇮🇳🇮🇳🥀

🔥 वृद्धि और विकास🔥

✍🏻 हर व्यक्ति में शारीरिक, मानसिक भावनात्मक, सामाजिक इत्यादि परिपेक्ष्य में पल- पल बदलाव आता है।

✍🏻 प्रारंभिक अवस्था में बच्चा अबोध (नासमझ) कहलाता है लेकिन बाद में शरारती, गंभीर, विद्वान, ज्ञानी आदि विशेषताएं आने लगती हैं।

✍🏻 बच्चे की आयु में वृद्धि के साथ शारीरिक मानसिक योग्यता और क्षमता में भी वृद्धि होती है।

✍🏻 जब किसी  बच्चे  या व्यक्ति का  विकास और वृद्धि होती है तो उसके व्यक्तित्व और व्यवहार में भी परिवर्तन होता है।

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बालाजी योग्यता क्षमता में वृद्धि व्यक्तित्व एवं व्यवहार में परिवर्तन जिन कारणों से होता है इनका अध्ययन शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं को करना आवश्यक है, जिससे बालक के संपूर्ण विकास किया जा सके।

✍🏻 बालक की आयु के साथ शारीरिक, सामाजिक, मानसिक ,संवेगात्मक नैतिक आदि पक्षों का विकास संपूर्ण विकास को दर्शाता है।

🎋 संपूर्ण विकास को दो भागों में बांटा गया है।

             🔸 वृद्धि (अभिवृद्धि)

             🔸 विकास

🔸 अभिवृद्धि (वृद्धि) 

🌈  वृद्धि का सामान्य अर्थ होता है      “आगे बढ़ना”।

बालक की अभिवृद्धि के संदर्भ में शरीर के आंतरिक व बाह्य अंग के आकार भार या कार्यक्षमता में होने वाली वृद्धि के रूप में देखा जाता है।

✍🏻 मानव शरीर में यह वृद्धि 18 से 20 वर्ष तक की होती है इसके बाद अंगों में वृद्धि नहीं होती है इस आयु का व्यक्ति पूर्ण रूप से वयस्क हो जाता है

 इस वृद्धि के देखा और परखा जा सकता है और इसका मापन भी किया जा सकता है।

🌻 “मनोवैज्ञानिक फ्रैंक”= अभिवृद्धि से तात्पर्य कोशिकाओं में होने वाली वृद्धि से है।

🌻 “लाल और जोशी”– मानव अभिवृद्धि से तात्पर्य उसके शरीर के बाहरी और आंतरिक अंगों के आकार भार एवं कार्य क्षमता में होने वाली इस वृद्धि से है जो उसके गर्भ समय से परिपक्वता प्राप्त करने तक चलती है।

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Notes by– Shashi chaudhary

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💥वृद्धि और विकास💥 

 🌲हर व्यक्ति में शारीरिक मानसिक भावात्मक सामाजिक इत्यादि परिप्रेक्ष्य मैं पल पल बदलाव होता है

🌲प्रारंभिक अवस्था में बच्चा अबोध कहलाता है अबोध का मतलब ना समझ होता है लेकिन बाद में बच्चा गंभीर विद्वान ज्ञानी और शरारती सभी प्रकार का हो जाता है

🌲बच्चे की आयु में वृद्धि के साथ-साथ शारीरिक मानसिक योग्यता में वृद्धि होती है

योग्यताओं में वृद्धि होने से व्यक्ति को व्यक्तित्व और व्यवहार में भी परिवर्तन आता है

🌲बालक की योग्यताओं क्षमता वृद्धि व्यक्तित्व एवं व्यवहार में परिवर्तन किन कारणों से होता है उसका अध्ययन शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं को करना आवश्यक है मतलब जो शिक्षक पढ़ा रहा है उसको करना आवश्यक है 

🌲बालक की आयु के साथ-साथ शारीरिक मानसिक सामाजिक संवेगात्मक नेता दीपक शाह का विकास संपूर्ण व्यक्तित्व को दर्शाता है

🍥 अभिवृद्धि और विकास

संपूर्ण विकास के अंतर्गत अभिवृद्धि और विकास दोनों ही आते हैं इसमें दोनों का ही अलग-अलग अंतर होता है 🍥🌲अभिवृद्धि अभिवृद्धि का सामान अर्थ है आगे बढ़ना है मतलब इसमें शारीरिक अंगों में वृद्धि कहना है बालक की अभिवृद्धि के संबंध में उनके आंतरिक और बाह्य अंगों के शरीर के आकार भार कार्य क्षमता में होने वाली वृद्धि के रूप में देखा जा सकता है🌲 मानव शरीर में यह वृद्धि 18 से 20 वर्ष तक ही होती है इसके बाद अंगों में वृद्धि नहीं होती है रुक जाते हैं 🌲इस आयु का व्यक्ति संपूर्ण हो जाता है इस वृद्धि को देखा परखा और उसे मापा भी जा सकता है🖊 मनोवैज्ञानिक फ्रैंक के अनुसार यह कहते हैं ↔️कोशिकाओं में होने वाली वृद्धि होने से है

🖊 इसी प्रकार और लाल जोशी और जोशी कहते हैं ↔️मानव अभिवृद्धि से तात्पर्य उनके शरीर के बाहरी और आंतरिक अंगों में वृद्धि आकर भार कार्य क्षमता में होने वाली वृद्धि से है जो गर्म समय से परिपक्वता प्राप्त करने तक चलती है

📝 notes by sapna yadav

🔆 वृद्धि और विकास(Groth And Development) ➖

🍀 हर व्यक्ति के शारीरिक,, मानसिक,, भावनात्मक,,  और सामाजिक इत्यादि परिपेक्ष्य में पल-पल बदलाव आता है चाहे वह आंतरिक हो या बाहरी हो, लेकिन परिवर्तन प्रत्येक क्षण  होते रहता है हालांकि कुछ परिवर्तन ऐसे होते हैं जो दिखाई नहीं देते हैं सिर्फ महसूस किए जा सकते हैं |

चाहे परिवर्तन दिखाई दे या ना दे लेकिन परिवर्तन अवश्य होते हैं जो विकास की गति को दर्शाते हैं |

🍀 प्रारंभिक अवस्था में बच्चा अबोध कहलाता  है अर्थात जिसको किसी चीज की समझ ना हो या हम कह सकते हैं ” अज्ञानी” |

 फिर बच्चा जैसे जैसे बड़ा होता है तो वह शरारती, फिर गंभीर और फिर विद्वान तथा फिर ज्ञानी आदि इस प्रकार की विशेषताएं बच्चे में आने लगती हैं |

आयु  में वृद्धि के साथ-साथ शारीरिक , मानसिक योग्यता और क्षमता में वृद्धि होती है इसमें  व्यक्ति के व्यक्तित्व और व्यवहार में भी परिवर्तन होता है |

🍀 प्रत्येक बच्चे की अपनी अपनी विशेषताएं होती हैं चाहे वह सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक जा आयु समूह के हो | 

वृद्धि और विकास एक दूसरे के पर्याय या पूरक हैं जो एक दूसरे से संबंधित है तथा एक दूसरे पर निर्भर करते हैं यदि व्यवहारिक दृष्टिकोण देखा जाए तो वृद्धि विकास का ही एक भाग जो कि  कुछ समय के पश्चात रुक जाती है और विकास निरंतर चलते रहता है अर्थात विकास एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है जिसका वृद्धि एक भाग है जो किशोरावस्था  तक पूरा हो जाता है जिसे परिपक्वता की अवस्था कहा जाता है |

🍀 बालक की योग्यता और क्षमता में वृद्धि व्यक्तित्व एवं व्यवहार में परिवर्तन जिन कारणों से होता है इनका अध्ययन शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करने वाले कार्यकर्ता को करना आवश्यक है बालक की आयु के साथ-साथ शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक ,और नैतिक आदि पक्षों का विकास संपूर्ण व्यक्तित्व विकास को दर्शाता है |

 संपूर्ण विकास को दो भागों में बांटा गया है ➖

1) अभिवृद्धि (वृद्धि ) 

2) विकास 

🎯 अभिवृद्धि ( Groth) 

🍀 अभिवृद्धि का सामान्य अर्थ होता है “आगे बढ़ना” |

 बालक की अभिवृद्धि के संदर्भ में शरीर के आंतरिक और बाह्य अंगों के आकार भार या कार्यक्षमता में होने वाली वृद्धि के रूप में देखा जाता है | 

🍀 वृद्धि सीमित समय के लिए होती है जो कुछ समय के पश्चात रुक जाती है अर्थात वृद्धि संपूर्ण विकास की प्रक्रिया का एक चरण है जिसका संबंध परिपक्वता के साथ खत्म हो जाता है अर्थात वृद्धि निश्चित समय के लिए होती है जो कि गर्भावस्था से लेकर किशोरावस्था तक पूरी हो जाती है |

🍀 वृद्धि में होने वाले परिवर्तन को देखा जा सकता है अर्थात वृद्धि का संबंध मात्रात्मक विकास से होता है जिसे मापा जा सकता है |

🍀 मानव शरीर में यह वृद्धि 18 – 20 वर्ष तक ही होता है इसके बाद अंगों में वृद्धि नहीं होती है इस आयु का व्यक्ति पूर्ण वयस्क हो जाता है इस वृद्धि को देखा और परखा जा सकता है और इसका मापन भी किया जा सकता है |

🍀 अभिवृद्धि के संबंध में कुछ मनोवैज्ञानिकों ने अपने कथन निम्नानुसार स्पष्ट किए हैं जो कि निम्न है ➖

🎯 मनोवैज्ञानिक फ्रेंक के अनुसार ➖

वृद्धि से तात्पर्य कोशिकाओं में होने वाली वृद्धि से है जैसे “लंबाई और धार” |

🎯  मनोवैज्ञानिक लाल और जोशी के अनुसार ➖

मानव अभिवृद्धि से तात्पर्य उसके शरीर के बाहरी और आंतरिक  अंगों के आकार एवं भात के आधार पर उनकी कार्यक्षमता में होने वाली वृद्धि से है जो उसके गर्भ के समय से परिपक्वता प्राप्त करने तक चलती रहती है | 

🎯  सोरेन्सन  के अनुसार ➖

 अभिवृद्धि शब्द का प्रयोग शरीर और उसके अंगों के भार और आकार में वृद्धि के लिए किया जाता है जब भी हम वृद्धि की बात करते हैं उसमें शरीर के पूरे आकार में वृद्धि होती है |

नोट्स बाय➖ रश्मि सावले

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💥🔅Growth & Development🔅💥

            💫(वृद्धि और विकास)💫

हर व्यक्ति में शारीरिक , मानसिक , भावनात्मक , सामाजिक इत्यादि परिपेक्ष्य में पल-पल बदलाव आता है और उनके वृद्धि और विकास के साथ-साथ बुनियादी सिद्धांतो को समझना चाहिए जिससे बच्चा के सामंजस्य पूर्ण विकास के लिए प्रभावी मार्गदर्शन प्रदान कर सके बच्चे अपने आसपास के वातावरण से काफी प्रभावित होता है और निरंतर बदलाव होता रहता है उसी प्रकार बच्चो में उनका भविष्य और अनुभव उनके वर्तमान और साथ में हो रहे परिवर्तन पर निर्भर करता है | जैसै-जैसे बच्चे बडे़ होते है उनमें भावनात्मक , सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक परिवर्तन साथ-साथ चलता है |

प्रारंभिक अवस्था में बच्चा अबोध (ना समझ) कहलाता है |

 बच्चे में फिर शरारती , गंभीर , विद्वान , ज्ञानी आदि विशेषताएं आने लगती है |

बच्चो की आयु में वृद्धि के साथ-साथ शारीरिक ,मानसिक , योग्यता , और क्षमता में वृद्धि होती है |

   इससे व्यक्ति के व्यक्तित्व और व्यवहार में भी परिवर्तन होता है और बालक की योग्यता , क्षमता , में वृद्धि व्यक्तित्व एंव व्यवहार में परिवर्तन जिन कारणो से होता है  |इनका  अध्ययन शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करने वाले कार्यकर्ता को करना आवश्यक है |

    बालक की आयु के साथ शारीरिक , मानसिक , सामाजिक , संवेगात्मक नैतिक आदि पक्षों का विकास संपूर्ण व्यक्तित्व को दर्शाता है |

व्यक्ति के व्यक्तित्व का सम्पूर्ण विकास वृद्धि (अभिवृद्धि) और विकास में समाहित है |

वृद्धि (अभिवृद्धि) +विकास = सम्पूर्ण विकास

अभिवृद्धि (वृद्धि) Growth ➖ 

अभिवृद्धि का सामान्य अर्थ होता है ” आगे बढ़ना “

बालक की अभिवृद्धि के संदर्भ में उसके शरीर के आंतरिक एंव बाह्य अंगो के आकार , भार या कार्यक्षमता में होने वाली वृद्धि के रूप में देखा जाता है |

   मानव शरीर में यह वृद्धि 18-20 वर्ष तक ही होता है इसके बाद अंगो में वृद्धि नही होती है इस आयु का व्यक्ति पूर्ण वयस्क हो जाता है | इस वृद्धि को देखा और परखा जा सकता है |

इसका मापन भी किया जा सकता है |

 कुछ मनोवैज्ञानिक के अनुसार कथन दिए गए है जो निम्न है :- 

◼मनोवैज्ञानिक फ्रैंक के अनुसार – ” अभिवृद्धि से तात्पर्य कोशिकाओ में होने वाली वृद्धि से ही जैसे , लंबाई और भार में वृद्धि ” |

◼लाल और जोशी के अनुसार ➖ ” मानव अभिवृद्धि से तात्पर्य उसके शरीर के बाहरी और आंतरिक अंगो के आकार , भार , एंव कार्यक्षमता में होने वाली उस वृद्धि से है जो उसके गर्भ समय से परिपक्वता प्राप्त करने तक चलती है ” | 

✍️✍️ Notes by➖Ranjana Sen

हर व्यक्ति में शारीरिक ,मानसिक, भावनात्मक ,सामाजिक इत्यादि परिप्रेक्ष्य में पल पल बदलाव आता है।

प्रारंभिक अवस्था में बच्चा अबोध कहलाता है।

फिर शरारती, गंभीर ,विद्वान, ज्ञानी आदि विशेषताएं आने लगते हैं।

आयु में वृद्धि के साथ शारीरिक ,मानसिक योग्यता और क्षमता में वृद्धि होती हैं इससे व्यक्ति के व्यक्तित्व और व्यवहार में भी परिवर्तन होता है।

बालक की योग्यता ,क्षमता में वृद्धि ,व्यक्तित्व एवं व्यवहार में परिवर्तन जिन कारणों से होता है इनका अध्ययन शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं को करना आवश्यक है क्योंकि अगर व्यक्ति बालक के इन कारणों को नहीं जानेगा तो वह बालक के व्यवहार को नहीं समझ पाएगा। और वह बालकों को सिखाने में असफल हो जाएगा।

बालक की आयु के साथ शारीरिक, मानसिक, सामाजिक संवेगात्मक ,नैतिक आदि पक्षों का विकास संपूर्ण व्यक्तित्व विकास को दर्शाता है।

संपूर्ण विकास = वृद्धि या अभिवृद्धि+विकास

अभिवृद्धि या वृद्धि

अभिवृद्धि का सामान्य अर्थ होता है 

आगे बढ़ना

बालक की अभिवृद्धि के संदर्भ में उसके शरीर के आंतरिक एवं बाह्य अंग के आकार ,भार या कार्य क्षमता में होने वाली वृद्धि के रूप में देखा जाता है।

मानव शरीर में यह वृद्धि 18 से 20 वर्ष तक ही होती है इसके बाद अंगों में वृद्धि नहीं होती है इस आयु का व्यक्ति पूर्ण वयस्क हो जाता है।

इस वृद्धि को देखा और परखा जा सकता है

इसका मापन भी किया जा सकता है

फ्रैंक-अभिवृद्धि से तात्पर्य कोशिकाओं में होने वाली वृद्धि से है जैसे लंबाई और भार में वृद्धि।

लाल और जोशी- मानव अभिवृद्धि से तात्पर्य उसके शरीर के बाहरी और आंतरिक अंगों के आकार ,भार एवं कार्य क्षमता में होने वाली उस वृद्धि से है जो उसके गर्भ समय से परिपक्वता प्राप्त करने तक चलती है।

Notes by Ravi kushwah

वृद्धि और विकास

Growth & Development

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1 March 2021

👉  प्रत्येक व्यक्ति में शारीरिक , मानसिक , भावनात्मक ,  सामाजिक इत्यादि परिपेक्ष में पल-पल बदलाव आता है।

👉 प्रारंभिक अवस्था में बच्चा अवबोध कहलाता है ।

अतः फिर शरारती,,  फिर गंभीर , फिर विद्वान और फिर ज्ञानी आदि विशेषताएं बच्चों में आने लगती हैं।

👉 आयु में वृद्धि के साथ शारीरिक , मानसिक योग्यता और क्षमता में वृद्धि होती है , इससे व्यक्ति के व्यक्तित्व और व्यवहार में भी परिवर्तन होता है।

👉 बालक की योग्यता , क्षमता में वृद्धि व्यक्तित्व एवं व्यवहार में परिवर्तन जिन कारणों से होता है, इनका अध्ययन शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करने वाले कार्यकर्ता को करना आवश्यक होता है।

🌺  संपूर्ण विकास को दो भागों में बांटा गया है  :-

1. वृद्धि (अभिवृद्धि)

2. विकास

 *वृद्धि (अभिवृद्धि) , विकास  =  सम्पूर्ण विकास* 

 🌸🌸 वृद्धि अभिवृद्धि  Growth 🌸🌸

👉 वृद्धि का सामान्य अर्थ होता है : –   आगे बढ़ना

👉 बालक की अभिवृद्धि के संदर्भ में उनके शरीर के आंतरिक एवं बाह्य अंग के आकार , भार,  कार्यक्षमता में होने वाली वृद्धि  के रूप में देखा जाता है ।

👉 मानव शरीर में यह वृद्धि 18 – 20 वर्ष तक होती है।

और लड़कियों में 16 – 18 वर्ष तक होती है।

             क्योंकि वृद्धि गर्भकाल से एक निश्चित समय सीमा अर्थात् किशोरावस्था तक होती है।

अतः लड़कियों की वृद्धि और विकास लड़कों की अपेक्षा दो वर्ष पूर्व होता है तो लड़कियों की वृद्धि लगभग 16 -18 वर्ष तक पूरी हो जाती है वहीं लड़कों की वृद्धि 18 – 20 वर्ष तक पूरी होती है।

👉 इसके बाद अंगों में वृद्धि नहीं होती है , और इस आयु के बाद व्यक्ति पूर्ण वयस्कता की ओर रुख करता है।

👉 अतः  वृद्धि को देखा या परखा जा सकता है।

👉 वृद्धि का मापन भी किया जा सकता है ।

👉 अर्थात वृद्धि मात्रात्मक होती है।

वृद्धि के संदर्भ में कुछ मनोवैज्ञानिकों ने अपने कथन निम्न प्रकार दिए हैं  :-

🌺  ” मनोवैज्ञानिक फ्रैंक ”  के अनुसार :-

अभिवृद्धि से तात्पर्य कोशिकाओं में होने वाली वृद्धि से है जैसे :- लंबाई , भार वृद्धि।

🌺  ” लाल और जोशी ”  के अनुसार  :-

मानव अभिवृद्धि से तात्पर्य उसके शरीर के बाहरी और आंतरिक अंगों के आकार , भार एवं कार्यक्षमता में होने वाली उस वृद्धि से है जो उसके गर्भकाल से परिपक्वता प्राप्त करने तक चलती है।

✍️Notes by –  जूही श्रीवास्तव✍️

🌠 वृद्धि और विकास 🌠

🌈हर व्यक्ति में शारीरिक मानसिक भावात्मक सामाजिक इत्यादि परिपेक्ष में पल-पल बदलाव आता है।

🌈प्रारंभिक अवस्था में बच्चा और अवबोध रहता है फिर शरारती गंभीर विद्वान ज्ञानी हो जाता है आदी  विशेषताएं आने लगती हैं।

🌠बच्चे की आयु में वृद्धि के साथ शारीरिक मानसिक योग्यता और क्षमता में वृद्धि होती है।

🌠बालाजी योग्यता क्षमता में वृद्धि व्यक्तित्व एवं व्यवहार में परिवर्तन जिन कारणों से होता है इनका अध्ययन शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करने और कार्यों को करना आवश्यक है जिससे बालक के संपूर्ण विकास किया जा सके।

🌠बालक की आयु के साथ शारीरिक सामाजिक मानसिक , संवेगात्मक नैतिक आदि पक्षों का विकास  संपूर्ण विकास को दर्शाता है।

संपूर्ण विकास को दो भागों में बांटा गया है।

                ⭐वृद्धि/ अभिवृद्धि

               ⭐  विकास

✨अभिवृद्धि/ वृद्धि

🌠वृद्धि का सामान्य अर्थ होता है आगे बढ़ना बालक की वृधि से के संदर्भ में शारीरिक के आंतरिक एवं बाय आकार भार या कार्यक्षमता में होने वाली वृद्धि के रूप में देखा जा सकता है।

✨मानव शरीर में यह वृद्धि 18 से 20 वर्ष तक की होती है इसके बाद रंगों में वृद्धि नहीं होती इस आयु का व्यक्ति संपूर्ण रूप में व्यस्क हो जाता है।

🌠इस वृद्धि को देखा और परखा जा सकता है और मापा भी जा सकता है।

✍️बालाजी और जोशी के अनुसार-

                                          मानव वृद्धि से तात्पर्य उसके शरीर के बाहरी और आंतरिक अंगों के आकार एवं कार्य क्षमता होने वाला इस परिवर्तन  से है जो उसके गर्भावस्था से परिपक्वता  अवस्था प्राप्त करने तक चलती है।

🙏🙏✍️ Notes by Laki 🙏✍️✍️