60. CDP – Learning Theories PART- 16

कर्ट लेविन के क्षेत्र सिद्धांत का आधार

1. क्षेत्र -इस आधार में हमारे मनोविज्ञान से लक्ष्य निर्धारित होते हैं। हमारे मनोविज्ञान में हमारे विचार ,तथ्य ,धारणाएं, कल्पनाएं ,विश्वास आशाएं आदि आते हैं।

2. जीवन विस्तार-जीवन विस्तार में वातावरण का प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है यह वातावरण प्राकृतिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक हो सकता है।

वातावरण में मनुष्य संघर्ष करते हैं और वातावरण से प्रभावित होते हैं।

हमारी योग्यता ,सीमा जीवन विस्तार की सीमा से घिरी होती है।

3. व्यक्ति- प्रत्येक व्यक्ति की अपनी आवश्यकता होती है आवश्यकता ही व्यक्ति के व्यवहार को निर्देशित करती हैं। आवश्यकता व्यक्ति को लक्ष्य की ओर मोड़ देती है।

व्यक्ति में – (मैं,मेरा, मुझे) आता है।

अगर व्यक्ति अवरोध पार नहीं कर पाता है तो वह अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाएगा। और बार-बार प्रयत्नशील    रहेगा।

4. बाह्य आवरण – हमारा बाह्य आवरण , जीवन विस्तार के चारों ओर घिरा रहता है ‌ इसमें शारीरिक और मानसिक दोनों क्षेत्र आते हैं।

5. तलरूप- लेविन ने गणित के आधार पर मानव व्यवहार को समझाया।

तलरुप उद्देश्य, उनकी प्राप्ति के बीच की बाधा के संदर्भ में व्यक्ति की स्थिति स्पष्ट करता है।

6. सदिश- सदिश एक भौतिकी की संप्रत्यय है।

सदिश एक बल का प्रतिनिधित्व करता है।

यह बल व्यक्ति के व्यवहार को लक्ष्य की ओर या लक्ष्य से दूर की ओर संबोधित करता है।

सदिश – विशेष दिशा में जाने की प्रवृत्ति को दर्शाता है।

7. कर्षण शक्ति- कर्षण शक्ति दो प्रकार की होती है आकर्षण और प्रतिकर्षण।

आकर्षण का अर्थ होता है नजदीक या सकारात्मक

प्रतिकर्षण का अर्थ होता है दूर या नकारात्मक

कर्षण शक्ति को मौरिस एल बिग्गी ने भी बताया है।

8.  अवरोध- अवरोध लक्ष्य तक पहुंचने के बीच की रुकावट होती हैं। यह लक्ष्य तक पहुंचने में समस्या उत्पन्न करती हैं।

समस्या को दूर करने के लिए अभिप्रेरणा आती है और समस्या का समाधान हो जाता है या  लक्ष्य आसान हो जाता है।

9. द्वंद्व- एक ही समय में विभिन्न प्रकार के कर्षण (या तो आकर्षण होगा या प्रतिकर्षण होगा) उत्पन्न होते हैं। 

तब द्वंद्व की स्थिति उत्पन्न होती है।

Notes by Ravi kushwah

59. CDP – Learning Theories PART- 15

क्षेत्र सिद्धांत

💥💥💥💥

19  April  2021

🌺🌺  प्रतिपादन  :-   जर्मन मनोवैज्ञानिक  कर्ट  लेविन

ने  1988 ई.  में किया था।

👉  गेस्टाल्टवादी सिद्धांत में वर्दीमर,  कोहलर और कौफ़्का के साथ काम करने के कुछ समय पश्चात कर्ट लेविन जर्मनी छोड़कर अमेरिका चले गए ।

          👉   इसके बाद उन्होंने क्षेत्र सिद्धांत / क्षेत्रीय सिद्धांत का प्रतिपादन किया।

क्षेत्र सिद्धांत भी संज्ञानवादी विचारधारा के अंतर्गत आता है।

क्षेत्र सिद्धांत , अधिगम के सिद्धांत के रूप में विकसित नहीं है बल्कि यह मनोविज्ञान की प्रणाली के रूप में विकसित हुआ है।

इसे ही :-

👉 क्षेत्रीय सिद्धांत 

👉 तलरूप सिद्धांत 

 👉 सदिश मनोविज्ञान    कहा जाता है।

क्षेत्र सिद्धांत का प्रतिपादन साहचर्य सिद्धांत की प्रतिक्रिया के परिणामस्वरुप हुआ है।

क्षेत्रीय सिद्धांत , गेस्टाल्टवाद सिद्धांत के समान ही है , बस थोड़ा सा फर्क है कि  –

सूझ का सिद्धांत  :- अनुभव पर आधारित होता है। और 

क्षेत्र सिद्धांत  :-  मनोविज्ञान से उत्तपन्न व्यवहार पर आधारित है।

अतः यह मानवीय अभिप्रेरणा की बात करता है।

कर्ट लेविन ने वातावरण में व्यक्ति की स्थिति को आधार माना है।

अतः यहाँ व्यक्ति की स्थिति से  तात्पर्य है कि व्यक्ति अपने वातावरण में किस प्रकार से साहचर्य स्थापित कर पाते हैं।

हांलाकि कर्ट लेविन व्यवहारवादी नहीं है पर 

 इनके अनुसार  व्यक्ति के व्यवहार को समझने के लिए व्यक्ति की स्थिति , व्यक्ति के उद्देश्य और स्थिति और उद्देश्य के बीच के सम्बंध को समझना बहुत आवश्यक होता है ।

कर्ट लेविन का मानना था कि हर व्यक्ति का अपना एक कार्य करने का  क्षेत्र निश्चित होता है जहाँ तक पहुँचने के लिये उनके विशेष उद्देश्य और मेहनत होती है।

🌷🌷 कर्ट लेविन के अनुसार क्षेत्र सिद्धांत की व्याख्या :-

🌺 सीखना यांत्रिक नहीं बल्कि एक दूसरे से संबंधित होता है।

सीखना केवल प्रयास और भूल से संबंधित न होकर बल्कि प्रयास – भूल के साथ साथ साहचर्य से भी संबंधित होता है।

🌺 अनुभव से ज्यादा व्यवहार महत्वपूर्ण होता है।

अर्थात् यदि व्यक्ति को कुछ तथ्यों का अनुभव है पर बो अनुभव उनके व्यवहार में नहीं है  तो अनुभव का होना उचित नहीं माना जायेगा , क्योकि व्यवहारिक रूप से अनुभवी होना बेहतर समझा जाता है।

🌺 कर्ट लेविन ने अपने क्षेत्र सिद्धांत में गणितीय शब्दों का बहुतायत प्रयोग किया है जैसे कि –

👉 क्षेत्रफल 

👉जीवन विस्तार 

 👉तलरूप 

👉शक्ति power ( P ) 

👉वेक्टर 

किसी व्यक्ति को अपने क्षेत्र / उद्देश्य / लक्ष्य तक पहुंचने के लिए अवरोधकों को पार करना आवश्यक होता है।

अवरोधक मनोवैज्ञानिक और भौतिक दोनों हो सकते हैं।

व्यक्ति की सीखने की प्रक्रिया प्रेरणा और प्रत्यक्षीकरण दोनों पर निर्भर होती है ।

अतः यहां प्रत्यक्षीकरण का तात्पर्य है कि  – 

कोई व्यक्ति किसी परिस्थिति को किस प्रकार से देखता है किस प्रकार से उसका प्रत्यक्षीकरण करके आगे बढ़ता है।

अर्थात जैसे कि किसी व्यक्ति के सामने कोई परिस्थिति कोई समस्या आती है या नए वातावरण में आते हैं जिसमें कि उन्हें कुछ सीखना है तो सबसे पहले उस समस्या ,  वातावरण को प्रत्यक्षीकरण करना होगा उसमें साहचर्य स्थापित करना होगा समझना होगा तभी फिर आगे बढ़ सकते हैं और उसके अनुकूल सीख सकते हैं।

और प्रेरणा से तात्पर्य है कि

व्यक्ति अपने लक्ष्य / उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए किस प्रकार से प्रेरित है।

अतः यह प्रेरणा धनात्मक शक्ति और ऋणात्मक शक्ति दोनों रूप में हो सकती है।

 जैसे कि हमें कोई कार्य करना है , कुछ हासिल करना है तो हम किस प्रकार से प्रेरित / अभिप्रेरित हैं ये महत्वपूर्ण होता है। इसी के संदर्भ में यदि हम प्रेरित होकर अपने लक्ष्य को हासिल करने में सफल हुए तो ये प्रेरणा हमारे लिए धनात्मक शक्ति का कार्य करती है अन्यथा असफल होने यही प्रेरणा ऋणात्मक शक्ति के रूप में बदल जाती है।

और यदि व्यक्ति का लक्ष्य बेहतर है पर प्रत्यक्षीकरण उचित ढंग से नहीं है तो प्रेरणा में ऋणात्मक शक्ति आ  जाती है।

अतः धनात्मक शक्ति सफलता / लक्ष्य की ओर अग्रसर करती है परंतु 

अवरोधक जरूर मिलते हैं जो कि सफलता / लक्ष्य को हासिल करने में बाधक / कठिनाई लाते हैं। जिससे कि सरलता से लक्ष्य हासिल नहीं कर पाते हैं।

सीखना जीवन का पुनर्संगठन है।

 जीवन स्थल में व्यक्ति और लक्ष्य के बीच अवरोधको को दूर करने के लिए व्यक्ति मैं सूझ का विकास होता है।

अर्थात व्यक्ति को अपनी सफलता तक पहुंचने के लिए विभिन्न प्रकार के अवरोधकों का सामना करना पड़ता है और इन अवरोधकों का सामना करने के लिए व्यक्ति में सूझ का होना बहुत आवश्यक होता है जिससे कि व्यक्ति अपने सोचने की क्षमता से और सूझ लगाने की क्षमता से अवरोधकों को पार करके लक्ष्य तक पहुंच जाते हैं।

✍️Notes by – जूही श्रीवास्तव✍️

19/04/2021।              Monday

           TODAY CLASS…

              क्षेत्र सिद्धांत

 ➖➖➖➖➖➖➖➖➖

      प्रतिपादक :—कर्ट लेविन

   मनोवैज्ञानिक :—संज्ञानवादी

                 सन्:—1988

➖ इन्होंने गेस्टोल्वदी मे भी कार्य किया। कोहलर,कोफ्ता ,वर्दीमर के साथ कार्य करने के पश्चात जर्मनी छोड़कर अमेरिका चले गए

        उसके बाद इन्होंने क्षेत्रीय सिद्धांत/ तलरूप सिद्धांत सदिश सिद्धांत का प्रतिपादन किया

➖ यह सिद्धांत संज्ञानवादी विचारधारा के अंतर्गत आता है

➖ यह सीखने के सिद्धांत के रूप में विकसित नहीं है बल्कि यह मनोविज्ञान की प्रणाली के रूप में विकसित हुआ इसे ही क्षेत्रीय सिद्धांत कहा जाता है

 *अर्थात* 

➖➖➖

           मनोविज्ञान के प्रणाली में आपने सोचा कैसे ,आपकी psychology कैसे हुई सिर्फ उसकी बात करती है

   ➖ *क्षेत्र सिद्धांत के प्रतिपादन* 

साहचर्य सिद्धांत के प्रतिक्रिया के परिणाम स्वरूप हुआ है।

 *जैसे* :— किसी sichuaition में जो हम तालमेल स्थापित करते है वह मनोविज्ञान से आता है

➖ क्षेत्रीय सिद्धांत से थोड़ा फर्क है पर गेस्टोलवाद के समान ही है, *सूझ के सिद्धांत में* अनुभव की बात करते हैं

 *वही* 

 *क्षेत्र के सिद्धांत में* मनोविज्ञान से उत्पन्न व्यवहार की मानवीय अभिप्रेरणा पर बल देते हैं

 *कर्ट लेविन ने* “वातावरण में व्यक्ति की स्थिति” को आधार माना है

 *अर्थात* व्यक्ति के व्यवहार को समझने के लिए व्यक्ति के स्थिति, व्यक्ति के उद्देश, इसके बीच के संबंध को समझना क्षेत्रीय सिद्धांत का उद्देश्य है

➖ *सिद्धांत की व्याख्या* 

यह सिद्धांत मनुष्य में या उसके सीखने की प्रक्रिया को *यांत्रिक नहीं* मानता है

➖ बल्कि एक दूसरे से *संबंधित* है

➖ अनुभव से ज्यादा *व्यवहार* महत्वपूर्ण है

➖ लेवेने गणितीय शब्द का प्रयोग  ज्यादा किया इन्होंने *क्षेत्रफल, जीवन विस्तार ,तलरूप, शक्ति, वेक्टर* का प्रयोग किया है

➖ किसी व्यक्ति को लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अवरोधक को पार करना जरूरी है या *अवरोधक मनोविज्ञान और भौतिकी* भी हो सकता है

➖ सीखने की प्रक्रिया *प्रेरणा और प्रत्यक्षीकरण* पर निर्भर करती है

➖ *प्रत्यक्षीकरण* :—कोई व्यक्ति किसी परिस्थिति को कैसे देखता है

➖ लक्ष्य या उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये किस प्रकार प्रेरित करता है

➖ लक्ष्य में धनात्मक शक्ति और ऋणात्मक शक्ति दोनों लगेगी

 *जैसे* किसी को अगर परीक्षा मे अव्वल आना है तो यह दो तरीके से हो सकता है या तो वह खुद मेहनत कर के आगे बढ़े या दूसरे को पीछे करें, दूसरे को पीछे कर रहा है तो वह उसका ऋणात्मक सकती है लेकिन वह खुद आगे बढ़ता है तो वह धनात्मक सकती है

➖ धनात्मक शक्ति लक्ष्य की ओर अग्रसर करता है अवरोधक अवश्य मिलते हैं जिससे सरलता से लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाते हैं

➖ सीखना जीवन का पुनः संगठन है जीवन, स्थल में व्यक्ति और लक्ष्य के बीच अवरोधक को दूर करने के लिए व्यक्ति में सूझ का विकास होता है

🐣🐣🐣🐣🐣🐣🐣🐣🐣

Notes by:— ✍संगीता भारती✍

⛲⛲ (Cognitism )

                    संज्ञानवादी⛲⛲

  🌍🌍 कर्ट लेविन का क्षेत्र का सिद्धांत🌍

🎉प्रतिपादक- कर्ट लेविन

🗣️कोहलर और कोफ्का के साथ कार्य करने के पश्चात उन्होंने जर्मनी छोड़ने का विचार किया और यह अमेरिका आ गए,

यहां आने के बाद इन्होंने अपने संज्ञान से अपने “क्षेत्र के सिद्धांत” का प्रतिपादन किया।

✨लेविन का क्षेत्रीय सिद्धांत भी संज्ञान पर ही आधारित है, या संज्ञानवादी विचारधारा के अंतर्गत आता है

✨इस सिद्धांत का विकास सीखने के सिद्धांत के रूप में ना होकर बल्कि यह सिद्धांत मूल रूप से मनोविज्ञान की प्रणाली के रूप में विकसित हुआ, इसे ही क्षेत्र सिद्धांत या तल रूप सिद्धांत कहते है,वा “सदिश मनोविज्ञान”भी कहा जाता है।

✨इन्होंने अधिगम की बात ना कह के अपने सिद्धांत में समझ व व्यक्ति के मनोविज्ञान की बात की, अर्थात व्यक्ति अपने समझ वा व्यावहारिक मनोविज्ञान के स्वरूप ही सीखता है जिस प्रकार से उसकी बुद्धि या मनोविज्ञान है उसी के अनुरूप ही  सीखता है व अन्य कार्य करता है।

✨क्षेत्र सिद्धांत का प्रतिपादन साहचर्य सिद्धांत के प्रतिक्रिया के परिणाम स्वरूप हुआ है।

✨एक कार्य में प्रयोग की गई अनुक्रियाओं। का अन्य गतिविधियों के साथ संबंध स्थापित करने मे प्रयोग करता है,

📷जैसे – एक बालक ने संख्याओ का जोड़ सीख लिया तो उसे अब गुणा करने की संकल्पना सिखायी जा सकती है।

✨(साहचर्य अर्थात अन्य के साथ संबंध या तालमेल स्थापित करना)

✨(किसी परिचित या मनुष्य के साथ तालमेल करके क्षेत्र का निर्माण करना) यह तालमेल भी मनोविज्ञान या सूझ से ही निकलता है। 

⛲”क्षेत्रीय सिद्धांत”*गेस्टाल्टवादी (पूर्णाकार) सिद्धांत के समान ही है किंतु क्षेत्र सिद्धांत थोड़ा सा   भिन्न है सूझ का सिद्धांत अनुभव की बात करता है ,वही क्षेत्र का सिद्धांत मनोविज्ञान से उत्पन्न व्यवहार मानवीय अभिप्रेरणा के बारे मे बल देता है।

⛲क्षेत्र सिद्धांत मनुष्य के मनोविज्ञान के अनुसार जिससे वह अन्य व्यक्तियों के साथ व्यवहार करता है वह उनके साथ अधिगम का संबंध स्थापित करता है वा मानवीय गुणों वा सामाजिक मानदंडों के को स्वीकार करता है।

✨लेविन का मत”वातावरण में व्यक्ति की स्थिति को आधार माना है।

⛲यदि वातावरण में व्यक्ति की स्थिति वा उसका मनोविज्ञान सकारात्मकता से प परिपूर्ण है तो वह मनुष्य वातावरण के अनुकूल अपना संबंध स्थापित कर लेता है वा उसका अधिगम भी सफलता पूर्वक चलता है।

मनुष्य का मनोविज्ञान व्यक्ति की व्यवहार को समझने के लिए व्यक्ति को व्यक्ति के उद्देश्य को समझना महत्वपूर्ण व आवश्यक मानता है।

✨यदि व्यक्ति का उद्देश्य उसके मनोविज्ञान से मेल नहीं खाता है तो अधिगम प्रक्रिया अवरुद्ध हो सकती है, क्योंकि निरर्थक उद्देश्य  के प्रति रुचि तात्कालिक होती है 

          ⛲⛲  सिद्धांत की व्याख्या ⛲⛲

,✨सीखना यांत्रिक नहीं है, बल्कि एक दूसरे से संबंधित है, अर्थात मनुष्य कोई मशीन नहीं है जो कि एक निश्चित दिशा में व एक निश्चित नियम वा निश्चित गति के अनुसार ही कार्य करता रहे मनुष्य अपने मनोविज्ञान के द्वारा एक अधिगम प्रक्रिया का दूसरी अधिगम प्रक्रिया में हस्तांतरण भी करता है।

✨अनुभव से ज्यादा व्यवहार महत्वपूर्ण है विषय-वस्तु का पूर्ण ज्ञान होना ही महत्वपूर्ण नहीं बल्कि उस विषय का अधिगम करना भी महत्वपूर्ण वा आवश्यक है ,

📷उदाहरण÷(अर्थात यदि किसी व्यक्ति को नृत्य करना आता है, किंतु वह शादी-विवाह वा अन्य मनोरंजन स्थानो पर जाकर वह नृत्य नही करता है,)

✨लेविन ने “गणितीय शब्द का प्रयोग ज्यादा किया।

जैसे क्षेत्रफल जीवन विस्तार तलरुप व शक्ति,वेक्टर -विश्लेषण ,सदिश -अदिश राशि इत्यादि शब्द का प्रयोग किया है।

✨किसी व्यक्ति को लक्ष्य प्राप्त के लिए अवरोधक को पार करना जरूरी है यह अवरोधक  मनोविज्ञान और भौतिक दोनों हो सकता है, यह कहा जा सकता है कि अवरोधक  के बगैर अधिगम होना कठिन है,

✨यदि किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए छोटे-छोटे लक्ष्यों को अधिगम कर्ता प्राप्त करते जाता है तो इसके फल स्वरुप उसको उपलब्धि के स्वरूप में प्रोत्साहन मिलता है जिससे अधिगम और अधिक रुचिकर, ढृंढ, वा सुगम हो जाता है और वह अपने उच्चतम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अधिक सुढ़ृढं वा सरलतम होता जाता है।

✨लेविन के सीखने की प्रक्रिया प्रेरणा और प्रत्यक्षीकरण पर निर्भर करती है ,

✨(प्रत्यक्षीकरण ÷प्रत्यक्षीकरण से तात्पर्य है कि कोई व्यक्ति किसी परिस्थिति को किस प्रकार से  देखता है)

✨अर्थात यदि किसी व्यक्ति को लक्ष्य प्राप्ति के फल स्वरुप सकारात्मक प्रेरणा प्राप्त होती है तो वह उस कार्य को अधिक सजगता के साथ पूर्ण करता है।

✨व्यक्ति को लक्ष्य की ओर ले जाने में धनात्मक शक्ति मिलती है और अवरोधक तक भी अवश्य मिलते हैं सरलता से लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाते हैं किंतु परिश्रम और लगन से अवरोधक को पार कर सकते हैं।

✨अवरोधक के बगैर मनुष्य मनुष्य किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति को प्राप्त करने के बाद भी प्रोत्साहन व अभिप्रेरित नहीं रह सकता है,क्योकि लक्ष्य प्राप्त करना ही पूर्ण अधिगम नहीं है, अपितु लक्ष्य प्राप्ति के अंतर्गत की गई विभिन्न प्रकार की गतिविधियां वा क्रियाएं भी महत्वपूर्ण है इसी के द्वारा मनुष्य अपने भावी जीवन में अन्य परिस्थितियों में भी संघर्ष पूर्ण व्यवहार से सफलता को प्राप्त करता है।

✨सीखना जीवन का पुर्नसंगठन है, जीवन स्थल में व्यक्ति और लक्ष्य के बीच के अवरोध को दूर करने के लिए व्यक्ति में सोच का विकास होता है।

✨यदि जीवन के पुर्नसंगठन में या लक्ष्य की प्राप्ति करने में अवरोध ना होता तो मनुष्य में चिंतन शक्ति, तर्कशक्ति, वा मूर्त और अमूर्त विचारों का विकास ही ना होता।

✨✨Thank you

✨written by-Shikhar pandey✍️

🌲⚜️🔅कर्ट लेविन का क्षेत्र सिद्धांत🔅⚜️🌲

⚜️  प्रतिपादन  :-   जर्मन के मनोवैज्ञानिक  कर्ट  लेविन

ने  1988 ई.  में किया था।

👉  गेस्टाल्टवादी सिद्धांत में वर्दीमर,  कोहलर और कोफ़्का के साथ काम करने के कुछ समय पश्चात कर्ट लेविन जर्मनी छोड़कर अमेरिका चले गए ।

            इसके बाद उन्होंने क्षेत्र सिद्धांत / क्षेत्रीय सिद्धांत का प्रतिपादन किया।

यह क्षेत्र सिद्धांत भी संज्ञानवादी विचारधारा के अंतर्गत आता है।

यह क्षेत्र सिद्धांत , अधिगम के सिद्धांत के रूप में विकसित नहीं है बल्कि यह मनोविज्ञान की प्रणाली के रूप में विकसित हुआ है।

इसे ही :-

➖️ क्षेत्रीय सिद्धांत 

➖️ तलरूप सिद्धांत 

 ➖️सदिश मनोविज्ञान    कहा जाता है।

क्षेत्र सिद्धांत का प्रतिपादन ❇️साहचर्य सिद्धांत❇️ की प्रतिक्रिया के परिणामस्वरुप हुआ है।

क्षेत्रीय सिद्धांत , गेस्टाल्टवाद सिद्धांत के समान ही है , बस थोड़ा सा फर्क है कि  –

⚜️सूझ का सिद्धांत  :- अनुभव पर आधारित होता है। और 

⚜️क्षेत्र सिद्धांत    ➖️मनोविज्ञान से उत्तपन्न व्यवहार पर आधारित है।

अतः यह मानवीय अभिप्रेरणा की बात करता है।

कर्ट लेविन ने वातावरण में व्यक्ति की स्थिति को आधार माना है।

अतः यहाँ व्यक्ति की स्थिति से  तात्पर्य है कि व्यक्ति अपने वातावरण में किस प्रकार से साहचर्य स्थापित कर पाते हैं।

हांलाकि कर्ट लेविन व्यवहारवादी नहीं है पर 

 इनके अनुसार  व्यक्ति के व्यवहार को समझने के लिए व्यक्ति की स्थिति , व्यक्ति के उद्देश्य और स्थिति और उद्देश्य के बीच के सम्बंध को समझना बहुत आवश्यक होता है ।

कर्ट लेविन का मानना था कि हर व्यक्ति का अपना एक कार्य करने का  क्षेत्र निश्चित होता है जहाँ तक पहुँचने के लिये उनके विशेष उद्देश्य और मेहनत होती है।

🔅🔅 कर्ट लेविन के अनुसार क्षेत्र सिद्धांत की व्याख्या :-

⚜️सीखना यांत्रिक नहीं बल्कि एक दूसरे से संबंधित होता है।

⚜️अनुभव से ज्यादा व्यवहार महत्वपूर्ण होता है।

इसका मतलब यह है कि व्यक्ति अनुभव से ज्यादा व्यवहार महत्वपूर्ण होता है व्यक्ति अनुभव द्वारा अपने अनुभव प्राप्त करता लेकिन व्यापार को वह अपने जीवन में उतारता है

🔅 कर्ट लेविन ने अपने क्षेत्र सिद्धांत में गणितीय शब्दों का बहुतायत प्रयोग किया है जैसे कि –

🔅 क्षेत्रफल 

🔅जीवन विस्तार 

 🔅तलरूप 

🔅शक्ति

किसी व्यक्ति को अपने क्षेत्र / उद्देश्य / लक्ष्य तक पहुंचने के लिए अवरोधकों को पार करना आवश्यक होता है।

अवरोधक मनोवैज्ञानिक और भौतिक दोनों हो सकते हैं।

व्यक्ति की सीखने की प्रक्रिया प्रेरणा और प्रत्यक्षीकरण दोनों पर निर्भर होती है ।

यहां प्रत्यक्षीकरण का तात्पर्य है कि  ➖️ 

कोई व्यक्ति किसी परिस्थिति को किस प्रकार से देखता है किस प्रकार से उसका प्रत्यक्षीकरण करके आगे बढ़ता है

जैसे कोई व्यक्ति के सामने जब कोई समस्या उत्पन्न होती है तो वह है उस समस्या का समाधान किस प्रकार से करता है और वह उस समस्या को किस प्रकार से देखता है यह प्रत्यक्षीकरण कहलाता है

अतः यह प्रेरणा धनात्मक शक्ति और ऋणात्मक शक्ति दोनों रूप में हो सकती है।

सीखना जीवन का पुनर्संगठन है।

 जीवन स्थल में व्यक्ति और लक्ष्य के बीच अवरोधको को दूर करने के लिए व्यक्ति मैं सूझ का विकास होता है।

अर्थात व्यक्ति को अपनी सफलता तक पहुंचने के लिए विभिन्न प्रकार के अवरोधकों का सामना करना पड़ता है और इन अवरोधकों का सामना करने के लिए व्यक्ति

 में सूझ का होना बहुत आवश्यक होता है जिससे कि व्यक्ति अपने सोचने की क्षमता से और सूझ लगाने की क्षमता से अवरोधकों को पार करके लक्ष्य तक पहुंच जाते हैं।

✍️Notes by – sapna yadav

Teaching methodology part 2

20/04/2021. Tuesday TODAY CLASS... *शिक्षण कौशल (part -2)*

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शिक्षण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें एक बच्चा शिक्षक की मदद से अपने व्यवहार में वांछित परिवर्तन लाता है यह कक्षा के निर्देश में उपयोग किए जाने वाले सामान्य सिद्धांतों, शिक्षण और प्रबंधन दृष्टिकोण की एक विधि है शिक्षण छात्रों की भावना, सोच और कार्य को संशोधित करता है

Dr वी के पासी

शिक्षण कौशल छात्रों के सीखने के लिए सुगमता प्रदान करने के विचार से संपन्न की गई संबंधित शिक्षण क्रियाओं या व्यवहारिक का समूह है

अर्थात

➖शिक्षण कौशल प्रत्यक्ष रूप से अध्यापक अधिगम को सरल एवं सहज बनाने के उद्देश्य से किए जाने वाले शिक्षण कार्यों का व्यवहारों का समूह शिक्षण कौशल कहलाता है

शिक्षण कौशल की विशेषताएं

(1)➖ शिक्षण कौशल स्पष्ट, चिंतन, छात्रों की रुचि ,कार्यशाला का विकास, बुद्धि का विकास एवं व्यक्तित्व संतुलन को विकसित करने में सहायक सिद्ध होता है

(2) शिक्षकों द्वारा शिक्षण कौशल के आयोजन से पता चलता है कि शिक्षक शिक्षण क्रिया के संपादन में कितने सजग और जागरूक हैं

(3) शिक्षण कौशल कार्यों का विश्लेषण करने में सहायक है इनके द्वारा शिक्षण की क्रियाएं की विश्लेषण करते हुए उनकी संरचना पर विशेष ध्यान दिया जाता है शिक्षण क्रिया के संचालन की शिक्षण कौशल एक महत्वपूर्ण इकाई होती है

(4) शिक्षण कौशल का कार्य कुशलता में वृद्धि होती है जिससे उन्हें शैक्षिक उद्देश्य को प्राप्त करने की दशा में सहायता मिलती है और वह सरलता से अपनी शिक्षण शैक्षिक उदेश्य को प्राप्त कर सकते हैं

(5) शिक्षण कौशल कक्षा शिक्षण व्यवहार की इकाई से संबंधित है

(6) शिक्षण कौशल शिक्षण प्रक्रिया तथा व्यवहार से संबंधित है

(7) शिक्षण कौशल शिक्षा के विशिष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति में सहायक होते हैं

(8) शिक्षण कौशल शिक्षण प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाती है

(9) शिक्षण कौशल से समस्त अंतः क्रिया को सक्रिय बनाया जाता है

(10) शिक्षण कौशल के माध्यम से विषय वस्तु छात्रों को सरलता व सुगमता से सिखाया जा सकता है

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Notes by:—✍ संगीता भारती✍

शिक्षण कौशल

(Teaching skills)

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(Part -2)

Dr. v. k. पासी के अनुसार

“शिक्षण कौशल, छात्रों के सीखने के लिए सुगमता प्रदान करने के विचार से संपन्न की गई संबंधित शिक्षण क्रिया या व्यवहार का समूह है।”

अर्थात् शिक्षण क्रिया के दौरान शिक्षक छात्रों को पढ़ाने के लिए जिन विधियों का प्रयोग करते हैं वह सरल, सुगम एवं रुचिकर होता है। जिससे छात्र सीखे हुए ज्ञान को अपने व्यवहारों में आसानी से प्रदर्शित करते हैं।

शिक्षण कौशल की विशेषताएं

Speciality of teaching skills

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शिक्षण कौशल की निम्नलिखित विशेषताएं हैं………..

  1. शिक्षण कौशल स्पष्ट चिंतन, छात्रों की रुचि, कार्यशालाओं का विकास, बुद्धि का विकास एवं व्यक्तित्व संतुलन को विकसित करने में सहायक सिद्ध होती है।
  2. शिक्षकों द्वारा शिक्षण कौशल के आयोजन से पता चलता है कि शिक्षक शिक्षण कार्य के संपादन में कितने सजग, उत्साही और जागरूक हैं।
  3. शिक्षण कौशल शिक्षण कार्यों का विश्लेषण करने में सहायक है इनके द्वारा शिक्षण की क्रियाओं का विश्लेषण करते हुए उनकी संरचना पर विशेष ध्यान दिया जाता है शिक्षण क्रिया के संचालन की शिक्षण कौशल एक महत्वपूर्ण इकाई होती है।
  4. शिक्षण कौशल से कार्य कुशलता में वृद्धि होती है जिससे बच्चे काफी सरलता से शैक्षिक उद्देश्य को प्राप्त कर लेते हैं।
  5. शिक्षण कौशल कक्षा शिक्षण व्यवहार की इकाई से संबंधित होता है।
  6. शिक्षण कौशल शिक्षण प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाता है।इसके माध्यम से शिक्षण में सरलता एवं सुगमता भी आती है।
  7. शिक्षण कौशल शिक्षा के विशिष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति में भी सहायक होता है।
  8. शिक्षण कौशल से कक्षा कक्ष और छात्रों के बीच अंतः क्रिया को सक्रिय बनाया जा सकता है।

Notes by Shreya Rai ✍️🙏

Education psychology part 2

20/04/2021. Tuesday TODAY CLASS... शिक्षा मनोविज्ञान (part-2)

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वाटसन का कथन
तुम मुझे एक बालक दो मैं उससे वह बना सकता हूं जो मैं बनाना चाहता हूं

वूडवर्थ का कथन
मनोविज्ञान में सर्वप्रथम आत्मा का त्याग किया ।फिर मन व मस्तिष्क का त्याग किया । फिर उसने अपनी चेतना का त्याग किया और आज वर्तमान में मनोविज्ञान व्यवहार के विधि स्वरूप को स्वीकार करता है

मैकडुग्ल का कथन
“मनोविज्ञान व्यवहार और आचरण का विज्ञान” है

स्किनर का कथन
“मनोविज्ञान व्यवहार और अनुभव का विज्ञान “है

वाटसन का कथन
“मनोविज्ञान व्यवहार का शुद्ध निश्चित सकारात्मक धनात्मक विज्ञान” है

क्रो एंड क्रो का कथन
“मनोविज्ञान मानव व्यवहार और मानव संबंधों का व्यवहार” है

मन का कथन
“आधुनिक मनोविज्ञान का संबंध व्यवहार और वैज्ञानिक खोज” है

स्किनर का कथन
“शिक्षा मनोविज्ञान अध्यापक की तैयारी का आधारशिला” है

मनोविज्ञान के मुख्य शाखाएं एवं क्षेत्र

(1) सामान्य मनोविज्ञान

(2)असामान्य मनोविज्ञान

(3)तुलनात्मक मनोविज्ञान

(4)प्रयोगात्मक मनोविज्ञान

(5)समाज मनोविज्ञान

(6)औद्योगिक मनोविज्ञान

(7)बाल मनोवैज्ञान/ बाल विकास

(8)किशोर मनोविज्ञान

(9) प्रोड मनोविज्ञान

(10)विकासात्मक मनोविज्ञान

(11)निदानात्मक उपचारात्मक क्लीनिक मनोविज्ञान

(12)परा मनोविज्ञान (आधुनिकता का)

(13) पशु मनोविज्ञान

(14)शिक्षा मनोविज्ञान

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Notes by:— ✍संगीता भारती✍

🌻Date-20/04/2021🌻 🎶Batch -UPTET (Part-2)

🌸Education psychology 🌸
🔬शिक्षा मनोविज्ञान🔬

🕵️वाटसन के अनुसार

🥀तुम मुझे एक बालक दो, मैं उसे वो बना सकता हू ,जो मै उसे बनाना चाहता हूं।
✍️अर्थात इन्होंने बालक के अनुवांशिकता पर अधिक महत्व ना देकर वातावरण पर महत्व दिया उनके अनुसार बालक का जिस वातावरण के अनुसार लालन पालन किया जाएगा बालक वैसा ही बनता जाएगा।
🎉जैसे÷एक कुम्हार मिट्टी को जैसा चाहे वैसा आकार आकृति स्वरूप प्रदान कर सकता है ठीक उसी प्रकार से वाटसन महोदय का भी कुछ मत ऐसा ही था।

🕵️वुडवर्थ के अनुसार
🥀मनोविज्ञान में सर्वप्रथम आत्मा का त्याग किया फिर मस्तिष्क का त्याग किया और फिर चेतना का त्याग किया और आज वर्तमान में मनोविज्ञान व्यवहार के विधि स्वरूप को स्वीकार करता है।
✍️ अर्थात, सर्वप्रथम 16 वीं शताब्दी में आत्मा का विज्ञान प्रकाश में आया और 16वीं शताब्दी के अंत में ही यह परिभाषा अमान्य कर दी गई , फिर 17वीं शताब्दी में मनोविज्ञान को मन या मस्तिषक का विज्ञान कहा गया और 18वीं शताब्दी में अमान्य कर दिया गया, फिर इसके बाद ,19वीशताब्दी में मनोविज्ञान को चेतना का विज्ञान कहा किंतु इसको भी अमान्य कर दिया गया, फिर 20वी शताब्दी में मनोविज्ञान को व्यवहार का विज्ञान कहा जाने लगा।

🕵️मेग्डूगल के अनुसार
🥀मनोविज्ञान आचरण और व्यवहार का विज्ञान है।

🕵️स्किनर के अनुसार
🥀मनोविज्ञान व्यवहार के अनुभव का विज्ञान है।

🕵️वाटसन के अनुसार÷
🥀मनोविज्ञान व्यवहार का शुद्ध ,निश्चित सकारात्मक और धनात्मक विज्ञान है।

🕵️क्रो एवं क्रो के अनुसार
🥀मनोविज्ञान मानव व्यवहार और मानव संबंध का अध्ययन करता है।
✍️मानव व्यवहार और मानव संबंध से तात्पर्य है कि जिस प्रकार से मानो एक दूसरे से पारस्परिक अंतः क्रिया के द्वारा एक दूसरे के हाव भाव वह तर्कसंगत के द्वारा एक दूसरे से सीखने से है।

🕵️मन के अनुसार
🥀 आधुनिक मनोविज्ञान का संबंध व्यवहार की वैज्ञानिक खोज से है।

🕵️स्किनर के अनुसार
🥀शिक्षा मनोविज्ञान अध्यापकों की तैयारी की आधारशिला है।
✍️शिक्षा मनोविज्ञान अध्यापक की तैयारी की आधारशिला है क्योंकि इसके द्वारा शिक्षक को इस प्रकार से तैयार किया जाता है कि वह बालक के व्यवहार को समझकर उसकी रूचि उसकी क्षमता तर्क व इत्यादि चीजों के अनुसार अधिगम कराएं वह उन्हें निम्न से सामान्य वा सामान्य से उच्च अधिगम कराकर उनके भावी जीवन को बेहतर बनाने मे मदद् कर सके।

🌸🌸मनोविज्ञान की मुख्य शाखाएं🌸🌸

🏵️असामान्य मनोविज्ञान÷यह मनोविज्ञान की वह शाखा है जिसमें मनुष्य के असाधारण वा असामान्य विचारों, उनके असाधारण व्यवहार असामान्य ज्ञान का अध्ययन किया जा है।
🏵️सामान्य मनोविज्ञान ÷ मनोविज्ञान की वह शाखा है जिसमें मनुष्य के साधारण व सामान्य विचारों उनके साधारण व्यवहार सामान्य ज्ञान व सामान्य तर्क शक्ति इत्यादि का अध्ययन किया जाता है
🏵️तुलनात्मक मनोविज्ञान तुलनात्मक मनोविज्ञान के अंतर्गत पशु पक्षियों की विभिन्न प्रजातियां का अध्ययन किया जाता है।
🏵️प्रयोगात्मक मनोविज्ञान-प्रयोगात्मक मनोविज्ञान प्रयोग कर्ता के व्यवहार वा बुद्धि का अध्ययन किया जाता है।
🏵️समाज मनोविज्ञान-समाज के व्यक्तियों का विभिन्न प्रकार से अध्ययन करना ही समाज मनोविज्ञान है।
🏵️बाल मनोविज्ञान÷ यह मनोविज्ञान की वह शाखा है जिसके अंतर्गत बालक के व्यवहार उसके व्यक्तित्व वा उसकी रुचि, क्षमता वा अन्य गतिविधियो, क्रियाओ का अध्ययन किया जाता है।
🏵️किशोर मनोविज्ञान÷ यह मनोविज्ञान की वह शाखा है जिसके अंतर्गत किशोरों की मनोदशा का अध्ययन किया जाता है।
🏵️प्रौण मनोविज्ञान÷ मनोविज्ञान की वह शाखा है जिसके अंतर्गत प्रौण की मनोदशा, उनका व्यवहार उनकी रूचि के क्रियाकलाप इत्यादि का अध्ययन किया जाता है।
🏵️विकासात्मक मनोविज्ञान ÷मनोविज्ञान की वह शाखा है जिसके अंतर्गत बालक के विकास का क्रमिक अध्ययन किया जाता है।
🏵️निदानात्मक/उपचारात्मक मनोविज्ञान÷ यह मनोविज्ञान की वह शाखा जिसके अंतर्गत बालक के समस्याओं का सर्वप्रथम खोज करके तत्पश्चात उनका निजात या उन कमियो को दूर किया जाता है।
🏵️पशु मनोविज्ञान ÷यह मनोविज्ञान की वह शाखा है जिसके अंतर्गत पशुओं के व्यवहार का अध्ययन किया जाता है।
🏵️शिक्षा मनोविज्ञान ÷यह मनोविज्ञान की वह शाखा है जिसके अंतर्गत शिक्षक छात्र के मनोदशा के अनुसार उनके सीखने के ढंग को उचित प्रकार से सीखता है।

🏵️चिकित्सा मनोविज्ञान÷यह मनोविज्ञान की वह शाखा है जिसके अंतर्गत चिकित्सक रोगी के उपचार के लिए उसकी मनोदशा को समझ कर उसका उपचार करता है।

💞Written BY-shikhar pandey 🥀

शिक्षा मनोविज्ञान

(Education psychology)

(Part 2)

💫💫💫💫💫💫💫💫💫

वाटसन महोदय के अनुसार

वाटसन ने कहा, “तुम मुझे एक बालक दो मैं इसे वो बना सकता हूं जो मैं बनाना चाहता हूं।” वाटसन ने बालक के अनुवांशिकता से अधिक महत्व वातावरण पर दिया उन्होंने कहा कि यदि कोई उनको बालक लाकर देगा तो वह उसको जो चाहे वो बना सकते हैं। अर्थात बच्चे को जैसे वातावरण में पालन पोषण करेंगे और जैसा माहौल देंगे बच्चा बड़ा होकर वैसा ही बनेगा।

वुडवर्थ महोदय के अनुसार

“मनोविज्ञान ने सर्वप्रथम अपनी आत्मा का त्याग किया, फिर मन/मस्तिष्क का त्याग किया, फिर चेतना का त्याग किया, आज वर्तमान में मनोविज्ञान व्यवहार के विधि स्वरूप को स्वीकार करता है।”

मैक्डूगल महोदय के अनुसार

“मनोविज्ञान व्यवहार और आचरण का यथार्थ विज्ञान है।”

स्किनर महोदय के अनुसार

“मनोविज्ञान, व्यवहार और अनुभव का विज्ञान है।”

वाटसन महोदय के अनुसार

“मनोविज्ञान, व्यवहार का शुद्ध, निश्चित, सकारात्मक और धनात्मक विज्ञान है।”

क्रो एंड क्रो के अनुसार

“मनोविज्ञान, मानव व्यवहार और मानव संबंध का अध्ययन करता है।”

मन के अनुसार

“आधुनिक मनोविज्ञान का संबंध व्यवहार की वैज्ञानिक खोज से है।”

स्किनर महोदय के अनुसार

“शिक्षा मनोविज्ञान अध्यापकों की तैयारी की आधारशिला है।”

मनोविज्ञान की मुख्य शाखाएं

💫💫💫💫💫💫💫💫💫

1.सामान्य मनोविज्ञान

सामान्य मनोविज्ञान, मनोविज्ञान की वह शाखा है जिसमें मानव के व्यवहार के अध्ययन के मूलभूत सिद्धांतों एवं नियमों से संबंधित है। यह विभिन्न मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं जैसे संवेदना, धारणाओं, भावनाओं, सीखने, बुद्धिमत्ता, व्यक्तित्व आदि की व्याख्या करता है।

2.असामान्य मनोविज्ञान

आज के समय में व्यक्ति बहुत सारी निराशा और संघर्षों का सामना कर रहा है जिससे वह लगातार मानसिक तनाव, प्रतिस्पर्धा आदि का सामना कर रहा है। असामान्य मनोविज्ञान विभिन्न प्रकार के मानसिक विकारों एवं उनके लक्षणों और कारणों से संबंधित है।

3.तुलनात्मक मनोविज्ञान

इसमें पशुओं और पक्षियों की विभिन्न प्रजातियों का अध्ययन किया जाता है।

4.प्रयोगात्मक मनोविज्ञान

प्रयोगात्मक मनोविज्ञान में मुख्य रूप से उन्ही समस्याओं का मनोवैज्ञानिक विधि से अध्ययन किया जाता है जिससे दार्शनिक पहले चिंतन अथवा विचार विमर्श द्वारा सुलझाते थे।
अर्थात संवेदना तथा प्रत्यक्षीकरण। बाद में इसके अंतर्गत सीखने की प्रक्रियाओं का अध्ययन भी होने लगा। इसके द्वारा मनुष्यों की अपेक्षा पशुओं को अधिक नियंत्रित परिस्थितियों में रखा जा सकता है साथ ही साथ पशुओं की शारीरिक रचना भी मनुष्य की भांति जटिल नहीं होती। पशुओं पर कई शोध भी हुए हैं।

5.समाज मनोविज्ञान

मनुष्य सामाजिक प्राणी है। इस शाखा के अंतर्गत, व्यक्ति का समाज में किस प्रकार की अंतः क्रिया करता है, किस प्रकार का समायोजन करता है आदि का अध्ययन करता है।

6.औद्योगिक मनोविज्ञान

औद्योगिक मनोविज्ञान में इंसान मशीनों से अलग है उन्हें अपने कार्य स्थान में कई समस्याएं होंगी जैसे- समायोजन, सुरक्षा, स्वास्थ्य, वित्तीय इत्यादि। इन समस्याओं से निपटने के लिए मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों और तकनीकों का प्रयोग करते हैं।

7.बाल मनोविज्ञान

बाल मनोविज्ञान में बालकों के व्यवहार, रूचि, क्षमताओं आदि का अध्ययन किया जाता है। इसमें 2 से 12 वर्ष के बच्चों के मनोविज्ञान का अध्ययन किया जाता है।

8.किशोर मनोविज्ञान

किशोर मनोविज्ञान में, किशोरों की मनोदशा का अध्ययन किया जाता है। यह 12 से 18 वर्ष की अवधि तक होता है।

9.प्रोढ़ मनोविज्ञान

मनोविज्ञान की वह शाखा जिसमें प्रौढ़ व्यक्तियों के व्यवहार एवं उनकी मनोदशा का अध्ययन किया जाता है। यह 18 वर्ष से अधिक आयु का अवधी है।

10.विकासात्मक मनोविज्ञान

इसमें बालकों के सर्वांगीण विकास का अध्ययन किया जाता है।

11.निदानात्मक/उपचारात्मक मनोविज्ञान

इसमें बालकों/व्यक्तियों के रोगों एवं विकारों का पता लगाना और उसका उपचार किया जाता है।

12.परा मनोविज्ञान

परा मनोविज्ञान एक विवादास्पद विधा है जो वैज्ञानिक विधि का उपयोग करते हुए इस बात की जांच परख करने का प्रयत्न करती है कि मृत्यु के बाद भी मनोवैज्ञानिक क्षमताओं का अस्तित्व रहता है या नहीं।

इसका संबंध मनुष्य की उस अधिसामान्य शक्तियों से है जिनकी व्याख्या अब तक के प्रचलित सामान्य मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों से नहीं हो पाया।

13.पशु मनोविज्ञान

यह वह शाखा है जिसके अंदर जानवरों के व्यवहार का अध्ययन किया जाता है।

14.शिक्षा मनोविज्ञान

शिक्षा मनोविज्ञान का ज्ञान सभी शिक्षकों में होना आवश्यक है। इसके अंतर्गत शिक्षक छात्रों के संपर्क में रह कर उनके उम्र, क्षमता, रुचि आदि को ध्यान में रखकर शिक्षण कार्य करते हैं।

Notes by Shreya Rai ✍️🙏

Education Psychology Part-1

17/04/2021.             Saturday

            TODAY CLASS…

              शिक्षा मनोविज्ञान

➖➖➖➖➖➖➖➖➖

शताब्दियों पहले *मनोविज्ञान को दर्शनशास्त्र* की एक शाखा के रूप में माना जाता था

➖ मनोविज्ञान को स्वतंत्र विषय बनाने के लिए परिभाषित करना प्रारंभ किया

➖ psychology शब्द की उत्पत्ति *(गैरेट के अनुसार )* *ग्रीक /लेटिन* भाषा के दो शब्द *psyche +logos* से मिलकर हुई

➖यहां *psyche* का अर्थ:— *आत्मा*

➖ *Logos* का अर्थ :— *अध्ययन करना*

➖ *आत्मा शब्द* को आधार मानकर *16वीं शताब्दी* में सर्वप्रथम *प्लेटो ,अरस्तु ,डेकार्ट* के द्वारा मनोविज्ञान को *आत्मा का विज्ञान* माना गया

➖ आत्मा शब्द का स्पष्ट व्याख्या नहीं होने के कारण *16वीं शताब्दी के अंत में* या परिभाषा *अमान्य* हो गई

➖ *17 वी शताब्दी* में *इटली के मनोविज्ञान पोम्पोलोजी और सहयोगी थासडरीड* ने मनोविज्ञान को *मन या मस्तिष्क* का विज्ञान माना

➖ बाद में यह परिभाषा भी अमान्य अपूर्ण अर्थ होने के कारण *18 वीं शताब्दी में अमान्य हो गई*

➖ *19वीं शताब्दी* में *विलियम वूंट ,  विलियम जेम्स, जेम्ससली, टीचनर,वाईव्स* आदि के द्वारा मनोविज्ञान को *चेतना का विज्ञान* माना गया

➖ यह परिभाषा भी अपूर्ण होने के कारण अमान्य कर दी गयी

➖ *विलियम वूंट ने* ( *जर्मनी के:– लिपजिंग)* शहर में ( *कार्ल मार्क्स विश्वविद्यालय* ) *1879* को *प्रथम मनोविज्ञान प्रयोगशाला* बनाया

➖ *भारत* में *1915 कोलकाता* में *सेन गुप्त* के द्वारा स्थापित *प्रथम मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला* स्थापित की

➖ इसलिए *विलियम वूण्ट* को *प्रयोगात्मक मनोविज्ञान का जनक* कहा जाता है

➖ *विलियम मैकडूग्ल* ने अपनी पुस्तक **OUTLINE OF PSYCHOLOGY* * *चेतना शब्द* की *निंदा* की है

➖ *20 वी शताब्दी में* मनोविज्ञान को ” *व्यवहार का विज्ञान* ” माना गया और आज तक यही परिभाषा प्रचलित है व्यवहार का विज्ञान मानने वालों में *प्रमुख मनोवैज्ञानिक वाटसन और इनके अलावा वूडवर्थ,स्किनर, मैकडुग्ल व थार्नडाईक* आदि थे

🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻

Notes by:— ✍संगीता भारती✍

“शिक्षा मनोविज्ञान”

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆●●◆

★ शताब्दियों पहले मनोविज्ञान को दर्शनशास्त्र की एक शाखा के रूप में माना जाता था।

मनोविज्ञान को स्वतंत्र विषय बनाने के लिए परिभाषित करना प्रारंभ किया। 

★Psychology शब्द की उत्पत्ति (गैरेट के अनुसार) ग्रीक/लैटिन भाषा के 2 शब्द से हुई है।

Psyche => आत्मा(मन)

Logos => अध्ययन

★  आत्मा शब्द का आधार मानकर  16वी शताब्दी में सर्वप्रथम (प्लूटो ,अरस्तु, डेकार्ट)

ने मनोविज्ञान को *आत्मा का विज्ञान* कहा है।

★ आत्मा शब्द की स्पष्ट व्याख्या नहीं कर पाए

16 वी शताब्दी   के अंत में यह परिणाम अमान्य करार दिया।

★17वीं शताब्दी में इटली के मनोवैज्ञानिक पॉम्पोलॉजी और इनके सहयोगी थासडरीड ने मनोविज्ञान को *मन या मस्तिष्क* का बोला गया।

बाद में यह परिभाषा अमान्य हो गयी इसका अर्थ  अपूर्ण था।

★18वीं शताब्दी में विलियम वुन्ट ,विलियम जेम्स,जेम्स सली *चेतना का विज्ञान* कहा।

यह परिभाषा भी अमान्य हो गयी ।

विलियम वुन्ट  जर्मनी के लिपजिंग शहर में 1879 को (कार्ल मार्क्स विश्व विद्यालय में) प्रथम मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला  स्थापित की इसलिय  वुन्ट को *”प्रयोगशाला मनोविज्ञान”* का जनक कहा जाता है।

★ भारत मे कलकत्ता में *सेन गुप्त* द्वारा 1915 में प्रथम मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला स्थापित की गई।

◆ *Outline Psychology*  पुस्तक  में मैकडुगल ने चेतना शब्द की निंदा की 

★ मनोवैज्ञानिक वाटसन , वुडवर्थ, स्किनर, 

थॉर्नडाइक, मैग्डूगल==> 20वीं शताब्दी में कहा कि मनोविज्ञान *व्यवहार का विज्ञान* है।

✒️✒️ आनंद चौधरी📋📋

17/04/2021

(SUPER Tet Clas 1)

☘️🌼 शिक्षा मनोविज्ञान🌼☘️

🔸 शताब्दियों पहले मनोविज्ञान को दर्शनशास्त्र की शाखा के रूप में माना जाता है।

🔸 मनोविज्ञान को स्वतंत्र विषय बनाने के लिए इसे परिभाषित करना प्रारंभ किया गया।

🔸 psychology शब्द की उत्पत्ति ( गैरेट के अनुसार) ग्रीक / लेटिन भाषा के दो शब्दों से मिलकर बना है।

🌼 Psyche   ➡️ आत्मा (मन)

🌼 logos  ➡️ अध्ययन

“आत्मा का अध्ययन”

 🔸” आत्मा “शब्द को आधार मानकर 16वीं शताब्दी में सर्वप्रथम प्लेटो, अरस्तु, डेकार्टे इन्होंने मनोविज्ञान को “आत्मा का विज्ञान” कहा।

🔸आत्मा शब्द की स्पष्ट व्याख्या नहीं होने के कारण 16वीं शताब्दी के अंत में ही इसे अमान्य करार दिया।

🔸 17 वीं शताब्दी में इटली के मनोवैज्ञानिक”पाॅम्पाॅलोजी”और इसके सहयोगी “थासडरीड”इन्होंने मनोविज्ञान को “मन मस्तिष्क का विज्ञान” बोला।

🔸 बाद में यह परिभाषा भी अमान्य हो गई क्योंकि इसका अपूर्ण था।

🔸 19वीं शताब्दी में विलियम वुण्ट, विलियम जेम्स, जेम्स सली, टिचनर आदि मनोवैज्ञानिकों को “चेतना का विज्ञान “बोला।

🔸 19वीं शताब्दी में की परिभाषा भी  अमान्य हो गई।

🔸 विलियम वुण्ट जर्मनी के लिपजिग शहर में सन 18 सो 79 हो कार्ल मार्कस विश्व विद्यालय में प्रथम मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला स्थापित की इसलिए उनको “प्रयोगशाला मनोविज्ञान “का जनक कहा जाता है।

🔸भारत में कोलकाता में सेन गुप्त द्वारा सन् 1915 में प्रथम “मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला” स्थापित की गई।

🔸 Outline of psychology इस पुस्तक को मेग्डूगल में चेतना शब्द की निंदा की।

🔸 मनोविज्ञान वाटसन  वुडवर्थ,स्किनर,थार्नडाइक ने मेग्डूगल का साथ दिया और बीसवीं शताब्दी में कहा कि “मनोविज्ञान व्यवहार का विज्ञान” है।

📚📚✍🏻 Notes by…. Sakshi Sharma✍🏻📚📚

Date-17-04-2021. Time-9:00@m     

             Course-UPTET

               Day- Saturday

   🧠 🧠Child psychology 🧠🧠

                🌊 शिक्षा मनोविज्ञान🌊

💞🌸शताब्दियों पहले मनोविज्ञान को दर्शन शास्त्र की शाखा के रूप में माना जाता है।

💞🌸मनोविज्ञान को स्वतंत्र विषय बनाने के लिए इसे परिभाषित करना प्रारंभ किया गया।

💞🌸Psychology”शब्द की उत्पत्ति (गैरेट के अनुसार) ग्रीक/लैटिन ) भाषा के दो शब्दों से मिलकर बना है, जो निम्नलिखित है÷

🗣️Pshyche÷आत्मा(मन)

🗣️Logus÷ का अध्ययन

            🌸(अर्थात आत्मा का ज्ञान)🌸

🌻🌻🌻16वी शताब्दि🌻🌻🌻

🥀आत्मा शब्द को आधार मानकर 16वीं शताब्दी में सर्वप्रथम *प्लेटो ,*अरस्तु ,* देकार्ते ने मनोविज्ञान को आत्मा का विज्ञान कहा,

                        🥀”आत्मा”शब्द की स्पष्ट व्याख्या नहीं होने के कारण 16वीं शताब्दी के अंत में ही यह परिभाषा अमान्य कर दिया गया।

🌻🌻17 वी शताब्दी🌻🌻

🥀17 वीं शताब्दी में इटली के मनोवैज्ञानिक पाँम्पांँलोजी और उनके सहयोगी “थासडरीड” ने मनोविज्ञान को “मन या मस्तिष्क”का विज्ञान कहा,

  ।                            बाद में यह परिभाषा भी अमान्य हो गई क्योंकि इसका अर्थ अपूर्ण था,

इसलिए इसलिए 18वीं शताब्दी में ही अमान्य हो गई।

🌻🌻🌻19वीं शताब्दी🌻🌻🌻

🌊19वीं शताब्दी में *”विलियम वुंट”और “विलियम जेम्स”वा  “जेम्ससली” वा टिचनर आदि लोगों ने मनोविज्ञान को “चेतना का विज्ञान”  कहा,

                              🥀लेकिन यह परिभाषा भी अमान्य मान ली गई लेकिन,

                   ” विलियम वुंट” ने जर्मनी के ‘लिपजिंग शहर’ में 1879 को एक विश्वविद्यालय (कार्ल मार्कस विद्यालय )में प्रथम मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला स्थापित की इसलिए “विलियम वुंट” को “प्रयोगात्मक मनोविज्ञान” का जनक कहा जाता है।

🥀भारत में कोलकाता में “सेनगुप्त” द्वारा 1915 में प्रथम मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला स्थापित की।

🥀विलियम मैक्डूगल ने अपनी पुस्तक “Outline of Psychology”में इन्होंने “चेतना” शब्द की निंदा की।

🥀इनके साथ प्रमुख रूप से कुछ मनोवैज्ञानिक “वाटसन”; “वुडवर्थ” ; “स्किनर” ; “थार्नडाइक” ; इत्यादि लोगो ने मिलकर मैक्डूगल का साथ दिया और,

🌊20 वी शताब्दी-इन्होने “चेतना” के विज्ञान को नकार दिया और कहा मनोविज्ञान को “व्यवहार का विज्ञान” कहा।

🧠धन्यवाद

💞Written by -🔬Shikhar pandey🔬

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📛 शिक्षा मनोविज्ञान (Education Psychology)

💠 शताब्दियों पहले मनोविज्ञान को दर्शनशास्त्र की शाखा के रूप में माना जाता था |

💠  मनोविज्ञान को स्वतंत्र विषय बनाने के लिए इसे परिभाषित करना प्रारंभ किया गया |

💠 𝙋𝙨𝙮𝙘𝙝𝙤𝙡𝙤𝙜𝙮 शब्द की उत्पत्ति (गैरेट के अनुसार) 

ग्रीक/ लेटिन भाषा के शब्दों  दो शब्दों से हुई है 𝙋𝙨𝙮𝙘𝙝𝙚 और𝙇𝙤𝙜𝙪𝙨 जिसमें 𝙥𝙨𝙮𝙘𝙝𝙚 का अर्थ आत्मा और 𝙡𝙤𝙜𝙪𝙨 का शब्द का अर्थ अध्ययन है अर्थात “आत्मा का अध्ययन ” |

💠आत्मा शब्द को आधार मानकर 16 वी शताब्दी में सर्वप्रथम ( प्लेटो ,आरस्तु ,और  डेकार्टे ) ने मनोविज्ञान को

 “आत्मा का विज्ञान” कहा |

💠 आत्मा शब्द की स्पष्ट व्याख्या नहीं होने के कारण 16 वी शताब्दी के अंत में ही यह परिभाषा अमान्य करार की गई |

💠  17वीं शताब्दी में इटली के मनोवैज्ञानिक पाॅम्पालॉजी और उनकी सहयोगी थासडरीड ने मनोविज्ञान को 

“मन या मस्तिष्क का विज्ञान”  कहा |

💠  बाद में यह परिभाषा भी अमान्य हो गई क्योंकि इसका अर्थ अपूर्ण था  |

18 वीं शताब्दी में इसे भी अमान्य घोषित किया गया  |

💠 19वीं शताब्दी में विलियम वुण्ट, विलियम जेम्स, जेम्ससली, आदि ने मनोविज्ञान को 

“चेतना का विज्ञान”  बोला |

💠 यह परिभाषा भी अमान्य हो गई |

 विलियम वुण्ट ने जर्मनी के लिपजिंग शहर में 1879 को (कॉल मार्क्स विश्वविद्यालय) में प्रथम मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला स्थापित की इसलिए उनको

” प्रयोगात्मक मनोविज्ञान का जनक” माना जाता है |

💠 भारत में कलकाता में सेन गुप्त द्वारा 1915 में प्रथम मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला स्थापित की गई |

💠 𝙊𝙪𝙩𝙡𝙞𝙣𝙚 𝙤𝙛 𝙋𝙨𝙮𝙘𝙝𝙤𝙡𝙤𝙜𝙮 पुस्तक में मेक्डूगल ने चेतना शब्द की निंदा की |

💠  इनके साथ प्रमुख रूप से मनोवैज्ञानिक  वाटसन, वुडवर्थ , स्किनर,थार्नडाइक, और मेक्डूगल ने बीसवीं शताब्दी में मनोविज्ञान को 

“व्यवहार का विज्ञान ” कहा |

नोट्स बाय➖ रश्मि सावले 

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शिक्षा  मनोविज्ञान 

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17 April 2021

शताब्दियों पहले मनोविज्ञान को दर्शनशास्त्र की शाखा के रूप में माना जाता था।

तथा फिर मनोविज्ञान को स्वतंत्र विषय बनाने के लिए इसे परिभाषित करना प्रारंभ किया गया।

Psychology शब्द की उत्पत्ति गैरेट के अनुसार :-K

 ग्रीक /  लेटिन भाषा  के दो शब्दों से हुई है –

1.   Psyche  :-  आत्मा  ( मन )

2.  Logos   :-   अध्ययन 

अर्थात   आत्मा का अध्ययन

आत्मा शब्द को आधार मानकर 16वीं शताब्दी में सर्वप्रथम  [ प्लेटो , अरस्तू ,  डेकार्टे ] ने मनोविज्ञान को आत्मा का विज्ञान कहा।

लेकिन आत्मा शब्द की स्पष्ट व्याख्या ना होने के कारण 16 वी शताब्दी के अंत में इस परिभाषा को अमान्य करार दिया गया।

17 वी शताब्दी में इटली के मनोवैज्ञानिक पॉम्पॉलॉजी जी और उनके सहयोगी थासडरीड ने मनोविज्ञान को मन या मस्तिष्क का विज्ञान बोला है।

बाद में यह परिभाषा भी अमान्य कर दी  गयी  क्योंकि इसका अर्थ अपूर्ण था। अतः यह 18वीं शताब्दी में अमान्य हो गई।

19वीं शताब्दी में विलियम वुन्ट ,  विलियम जेम्स , जेम्ससलि , टिचनर आदि ने मनोविज्ञान को चेतना का विज्ञान बोला ।

पता यह परिभाषा भी अमान्य हो गई।

आइये यहाँ हम विलियम वुन्ट के बारे में कुछ तथ्य जानते हैं   :-

विलियम वुन्ट ने जर्मनी के लिपजिंग शहर में सन् 1879 में कार्ल मार्क्स विश्वविद्यालय में प्रथम मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला स्थापित की।

इसीलिए विलियम वुन्ट को प्रयोगात्मक मनोविज्ञान का जनक बोला जाता है।

तथा भारत के कोलकाता में सेन गुप्त द्वारा सन् 1915 में प्रथम मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला स्थापित की गई थी।

अतः इसके बाद मैक्डुगल ने अपनी पुस्तक Outline Of  Psychology में चेतना शब्द की निंदा की।

मनोवैज्ञानिक वाट्सन , वुडवर्थ , स्किनर , थॉर्नडाइक और मैक्डुगल ने 20 वीं शताब्दी में कहा कि मनोविज्ञान व्यवहार का विज्ञान है। 

✍️Notes by – जूही श्रीवास्तव✍️

🌼 Education psychology 🌼

        ⭐(शिक्षा मनोविज्ञान)⭐

🔸शताब्दियों पहले मनोविज्ञान को दर्शनशास्त्र की शाखा के रूप में माना जाता है |

🔸मनोविज्ञान को स्वतंत्र विषय बनाने के लिए इसे परिभाषित करना प्रारंभ किया गया है |

🔸Phychology शब्द की उत्पत्ति (गैरेट के अनुसार) ग्रीक शब्द  लैटिन भाषा के दो शब्दों से बना है |

◾Psyche – आत्मा (मन)

◾Logos – अध्ययन

🔹इसे आत्मा का अध्ययन कहते हैं |

🔸आत्मा शब्द को आधार मानकर 16 वीं शताब्दी में सर्वप्रथम (प्लेटो अरस्तु डेकार्ट) ने मनोविज्ञान को “आत्मा का विज्ञान ” कहा है |

🔸आत्मा शब्द की स्पष्ट व्याख्या नहीं होने के कारण 16वीं शताब्दी के अंत में यह परिभाषा अमान्य करा दिया |

🔸17वीं शताब्दी में इटली के मनोवैज्ञानिक पाॅम्पोलाॅजी और उनके सहयोगी थासडरीड ने मनोविज्ञान को “मन या मस्तिष्क का विज्ञान ” बोला है |

🔸 बाद में यह परिभाषा भी अमान्य हो गई क्योंकि इसका अर्थ अपूर्ण था 18वीं शताब्दी में अमान्य हो गई |

🔸19वीं शताब्दी में विलियम विलियम जेम्स जेम्ससली टिचनर आदि मनोविज्ञान को “चेतना का विज्ञान” बोला है | 

यह परिभाषा भी अमान्य हो गई |

🔸विलियम वुण्ट जर्मनी के लिपजिंग शहर में 1879 को (कार्ल मार्कस विश्वविद्यालय में) प्रथम मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला स्थापित की |

इसलिए विलियम वुण्ट को “प्रयोगात्मक मनोविज्ञान” का जनक बोला जाता है |

🔸भारत में कोलकाता में सेन गुप्त द्वारा 1915 में प्रथम मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला स्थापित की गई |

🔸outline of psychology पुस्तक में मैग्डूगल ने चेतना शब्द की निंदा की |

🔸मनोवैज्ञानिक वाटसन, वुडवर्थ स्किनर थाॅर्नडाइक मैग्डूगल ने 20वीं शताब्दी में कहा कि मनोविज्ञान “व्यवहार का विज्ञान” है |

Notes by – Ranjana Sen 

Date – 17April 2021

🗿🗿📕📔✒️🖋️  शिक्षा मनोविज्ञान   🖋️✒️📔📕🗿🗿

🌸 शताब्दियों पहले मनोविज्ञान को दर्शनशास्त्र की शाखा के रूप में माना जाता था।

🌸 मनोविज्ञान को स्वतंत्र विषय बनाने के लिए इसे परिभाषित करना प्रारंभ किया गया।

🌸 साइकोलॉजी शब्द की उत्पत्ति ( गैरेट के अनुसार ) ग्रीक / लैटिन भाषा के दो शब्द से हुई है :- 

Psyche  –  आत्मा ( मन) Logos    –  अध्ययन 

               = आत्मा का अध्ययन

✒️ आत्मा का विज्ञान

🌺 आत्मा शब्द को आधार मानकर 16वीं शताब्दी में सर्वप्रथम प्लेटो, अरस्तु , डेकार्टे ने मनोविज्ञान को  “आत्मा का विज्ञान”  कहा।

🌺 यह आत्मा शब्द की स्पष्ट व्याख्या नहीं  होने के कारण 16वीं शताब्दी के अंत में यह परिभाषा अमान्य करार दी गई।

✒️ मन या मस्तिष्क का विज्ञान

🌺  17वीं  शताब्दी में इटली के मनोवैज्ञानिक पॉम्पॉलोजी और उनके सहयोगी यासडरीड ने मनोविज्ञान को “मन या मस्तिष्क का विज्ञान” कहा ।

बाद में 18 वीं शताब्दी में यह परिभाषा भी अमान्य हो गई क्योंकि इसका अर्थ अपूर्ण था ।

✒️ चेतना का विज्ञान

🌺 19वीं शताब्दी में विलियम वुण्ट , विलियम जेम्स , जेम्स सेली , टिचनर आदि लोगों ने मनोविज्ञान को “चेतना का विज्ञान”  बोला ।

यह परिभाषा भी अमान्य हो गई।

✒️  प्रथम मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला

 विलियम  वुण्ट ने जर्मनी के लिपजिंग शहर में 1879 में कार्ल मार्क्स विश्वविद्यालय में प्रथम मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला स्थापित की।

 ( विलियम वुण्ट कार्ल मार्क्स के शिष्य थे। )

 इसलिए विलियम वुण्ट को प्रयोगात्मक मनोविज्ञान का जनक कहा जाता है।

✒️ भारत की प्रथम मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला

 भारत में 1915 में कोलकाता में सेन गुप्त द्वारा प्रथम मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला स्थापित की गई।

✒️ व्यवहार का विज्ञान

🌺 आउटलाइन ऑफ़ साइकोलॉजी 

इस पुस्तक में मैक्डूगल ने चेतना शब्द की निंदा की ।

मनोवैज्ञानिक वाटसन, वुडवर्थ, स्किनर ,थार्नडाइक ने भी मेक्डूकल का साथ दिया।

 मैक्डूगल ने 20वीं शताब्दी में कहा कि मनोविज्ञान “व्यवहार का विज्ञान ” है।

🌸 धन्यवाद

       वंदना शुक्ला🌸

❇️शिक्षा मनोविज्ञान🌸

✨शताब्दी से पहले मनोविज्ञान दर्शनशास्त्र की एक शाखा के रूप में माना जाता है

✨मनोविज्ञान को स्वतंत्र विषय बनाने के लिए इसे परिभाषित करना प्रारंभ किया गया।

Psychology शब्द की उत्पत्ति गैराट के अनुसार ग्रीक (लैटिन)भाषा 2 शब्दों से बना है

Psyche=आत्मा

Logo= अध्ययन

✨आत्मा आत्मा शब्द को आधार मानकर 16वीं शताब्दी में सर्वप्रथम प्लेटो अरस्तु डेकॉर्ड इन्होंने  मनोविज्ञान को को आत्मा का अध्ययन कहा ।

✨आत्मा शब्द की स्पष्ट व्याख्या नहीं होने के कारण 16वीं शताब्दी के अंत में इस परिभाषा को अमान्य कर दिया गया।

✨17 वीं शताब्दी में इटली के मनोवैज्ञानिक पॉम्पुलरी और सहयोगी थासडरी ने ,मनोविज्ञान को मानव मस्तिष्क का विज्ञा,न बताया है।

✨बाद में यहां परिभाषा भी अमान्य हो गई क्योंकि ये परिषा भीअपूर्ण थी 18 शताब्दी में मनमानी हो गई ।

✨19वीं शताब्दी मैं विलियम फोर्ट विलियम जेम्स टीचर आदि मनोवैज्ञानिक ने चेतना का विज्ञान माना।

यह परिभाषा भी अमान्य हो गई।

✨विलियम वुण्ट जर्मनी के लिए बीजिंग शहर में 1879 कार्ल मार्क्स विश्वविद्यालय में प्रथम मनोवैज्ञानिक पुलिसवाला स्थापित की इसलिए विलियम वुण्ट को  प्रयोगात्मक मनोविज्ञान का जनक कहा जाता है।

✨भारत में कोलकाता में सेन गुप्ता द्वारा 18 से 15 ईसवी में प्रथम मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला स्थापित की गई।

✨आउटलाइन साइकोलॉजी इस पुस्तक में मैक्डुगल ने चेतना शब्द की निंदा की।

✨इनके साथ मनोवैज्ञानिक वाटसन वुडवर्थ स्कीनर  थानडाईअ मैक्डुगल 20सताब्दी में मनोविज्ञान को व्यवहार का विज्ञान कहा।

🙏🙏✍️✍️Laki✍️🙏🙏

शिक्षा मनोविज्ञान

शताब्दियों पहले मनोविज्ञान को दर्शनशास्त्र की शाखा के रूप में माना जाता था।

मनोविज्ञान को स्वतंत्र विषय बनाने के लिए इसे परिभाषित करना प्रारंभ किया गया।

Psychology शब्द की उत्पत्ति गैरेट के अनुसार ग्रीक या लैटिन भाषा के दो शब्दों से बना है

Psyche. – आत्मा

   +

Logos – अध्ययन

अर्थात आत्मा का अध्ययन

‘आत्मा ‘ शब्द को आधार मानकर सोलवीं शताब्दी में सर्वप्रथम ‘प्लेटो, अरस्तु और डेकार्टे ‘ ने मनोविज्ञान को “आत्मा का विज्ञान” कहा।

आत्मा शब्द की स्पष्ट व्याख्या नहीं होने के कारण 16वीं शताब्दी में के अंत में यह परिभाषा अमान्य कर दी गई।

17 वीं शताब्दी में इटली के मनोवैज्ञानिक ‘पॉम्पॉलोजी’ और उनके सहयोगी ‘थासडरीड ‘ने मनोविज्ञान को “मन या मस्तिष्क का विज्ञान” बोला।

बाद में यह परिभाषा भी अमान्य हो गई क्योंकि इसका अर्थ अपूर्ण था यह परिभाषा 18वीं शताब्दी में अमान्य हो गई।

19वीं शताब्दी में विलियम वुण्ट, विलियम जेम्स, जेम्ससली ,टिंचनर आदि ने मनोविज्ञान को “चेतना का विज्ञान “बोला।

यह परिभाषा भी अमान्य हो गई।

विलियम वुण्ट ने जर्मनी के लिपजिंग शहर में 1879 को कार्ल मार्क्स विश्वविद्यालय में प्रथम मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला स्थापित की

इसी कारण ‘विलियम वुण्ट’ को “प्रयोगात्मक मनोविज्ञान का जनक” बोला जाता है।

भारत में कलकत्ता में’ ‘सेन गुप्त’ द्वारा 1905 में “प्रथम मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला” स्थापित की गई।

Outline of psychology – पुस्तक में मेग्डूगल ने चेतना शब्द की निंदा की।

मनोवैज्ञानिक वाटसन ,वुडवर्थ ,स्किनर, थार्नडाइक, मेग्डूगल ने बीसवीं शताब्दी में कहा कि मनोविज्ञान “व्यवहार का विज्ञान”  है।

Notes by Ravi kushwah

*शिक्षा मनोविज्ञान*

        💫💫💫💫💫💫💫

➡️शताब्दियों पहले मनोविज्ञान को दर्शनशास्त्र की शाखा के रूप में रखा जाता है।

➡️ मनोविज्ञान को स्वतंत्र विषय बनाने के लिए इसे परिभाषित करना प्रारंभ किया गया।

➡️ सायकोलॉजी शब्द की *उत्पत्ति गैरेट के अनुसार* ग्रीक/ लैटिन भाषा के (pysche =आत्मा,, logos= अध्ययन) से हुआ है जिसका अर्थ है आत्मा का अध्ययन।

➡️ आत्मा शब्द को आधार मानकर 16 वीं शताब्दी में सर्वप्रथम प्लेटो, अरस्तु, डेकोर्ट ने मनोविज्ञान को “आत्मा का विज्ञान कहा”।

➡️ आत्मा शब्द की स्पष्ट व्याख्या नहीं होने के कारण 16 वीं शताब्दी के अंत में यह परिभाषा अमान्य करार कर दिया गया।

➡️ 17 वीं शताब्दी में इटली के मनोवैज्ञानिक पॉमपोलॉजी और अन्य सहयोगी थासडरीड ने मनोविज्ञान को “मन या मस्तिष्क का विज्ञान” बोला।

➡️ बाद में यह परिभाषा भी अमान्य हो गए क्योंकि इसका अर्थ अपूर्ण था यह 18 में शताब्दी में अमान्य हुई।

➡️ 19वीं शताब्दी में विलियम वुंट ,विलियम जेम्स,जेम्स सली, टिचनर आदि ने मनोविज्ञान को “चेतना का विज्ञान” बोला।

यह परिभाषा भी अमान्य हो गई।

➡️ विलियम वुंट, जर्मनी के लिपजिंग शहर में,1879 को कार्ल मार्क्स विश्व विद्यालय में प्रथम मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला स्थापित की। इसलिए विलियम वुंट को “प्रयोगात्मक मनोविज्ञान का जनक” बोला जाता है।

➡️ भारत में कलकाता में सेन गुप्त द्वारा 1915 में प्रथम मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला स्थापित की गई।

➡️ Outline of psychology पुस्तक में मैक्डूगल ने चेतना शब्द की निंदा की।

➡️मनोवैज्ञानिक वॉटसन, वुड वर्थ, स्किनर, Thorndike ने बीसवीं शताब्दी में कहा कि मनोविज्ञान “व्यवहार का विज्ञान” है।

Notes by Shreya Rai ✍️🙏

Teaching Methodology part-1

🌸🌸 Date -17/04/2021.🌸 🌸
💞 ( Batch-Super Tet-2021)💞 🕵️शिक्षण कौशल🕵️

🔬( Teaching skill)🔬

🥀शिक्षण कौशल के अंतर्गत दो महत्वपूर्ण प्रश्नों का उद्भव होता है,जो निम्नलिखित हैं÷

🗣️प्रथम- क्या पढ़ाना है?

🧠🌻इसके अंतर्गत विषय का ज्ञान होना आवश्यक है,
अर्थात शिक्षक जिस भी विषय वस्तु को विद्यार्थी के समक्ष प्रस्तुत करने जा रहा है या उन्हें पढ़ाने जा रहा है ,उस विषय में अच्छी समझ व उस विषय के बारे में अच्छी सूझबूझ भी होनी चाहिए, जिससे वह विद्यार्थियों के प्रश्नों का उत्तर देकर संतुष्ट कर सके साथ ही साथ उन्हें उस विषय में पारंगत कर सकें।

🗣️दूसरा कैसे पढ़ाना है?

🧠🌻इसके अंतर्गत ज्ञान को उपयोग करने का तरीका आना आवश्यक है,
अर्थात जिस भी विषय वस्तु को हम विद्यार्थी के समक्ष प्रस्तुत करने जा रहे हैं उसको पढ़ाने का तरीका बहुत ही महत्वपूर्ण है वा आवश्यक है, क्योंकि प्राथमिक कक्षा पूर्व प्राथमिक कक्षा के बच्चे कई माध्यमों व शिक्षण विधियों व शिक्षण कौशलों से सीखते हैं जो कि पाठ्यक्रम या पुस्तक के ज्ञान के माध्यम से ज्ञान सीधा उन्हें सिखाया नहीं जा सकता है।

🌻अर्थात् अपने ज्ञान का उपयोग कैसे करें यह हमें शिक्षण कौशल सिखाता है।

✍️शिक्षा शास्त्री व मनोवैज्ञानिक के विचार÷शिक्षा शास्त्री का मनोवैज्ञानिक का मत है कि वह शिक्षण को कला और विज्ञान दोनों का मिश्रण मानते हैं।

🌊मनुष्य में विभिन्न कौशल अपने उचित स्थान पर ही उचित शिक्षण विधि के माध्यम से स्वीकार किए जाते हैं।

⛄गेज के अनुसार⛄

✍️शिक्षण कौशल व विशिष्ट अनुदेशन प्रक्रिया है जो अध्यापक द्वारा अपनी कक्षा शिक्षण की स्थिति में प्रयोग किया जाता है, यह शिक्षण क्रम की विभिन्न कक्षाओं से संबंधित होता है जिसे शिक्षक अपनी कक्षीय अंतः क्रिया में प्रयोग करता है।

🌷🌷Written by 🔬Shikhar pandey🌷🌷

🍀🍀🍀🍀🍀🍀🍀🍀🍀🍀

📛 शिक्षण कौशल ➖

एक अध्यापक को शिक्षण करवाने के लिए शिक्षण कौशल या जीवन कौशल की बहुत अधिक आवश्यकता होती है |
क्योंकि शिक्षण कौशल वे विधियां हैं या फिर वह कला है जिसके माध्यम से शिक्षक अपने ज्ञान को प्रदर्शित करता है |
यदि व्यक्ति के पास ज्ञान है लेकिन उस ज्ञान को व्यक्त करने का या प्रदर्शित करने का तरीका नहीं है तो उसके ज्ञान का कोई अर्थ नहीं है | शिक्षा शास्त्री और मनोवैज्ञानिकों ने शिक्षण को कला और विज्ञान दोनों का स्वरूप माना है |

उन्होंने कहा है कि यदि विज्ञान, ज्ञान की अवधारणा है तो कला उस अवधारणा को व्यक्त करने का तरीका है |

शिक्षण कला तब ही स्वीकार किया जाएगा जब योग्यता और क्षमता दोनों हों |जहाँ योग्यता की तुलना विज्ञान से की गई है और क्षमता उस ज्ञान को प्रदर्शित करने की एक कला है |

शिक्षण कौशल के संबंध में कहा जाता है कि

” कौन सी बात कहां कही जाती है ये हुनर हो तो हर बात सही जाती है |” अर्थात शिक्षक के पास अपने ज्ञान को व्यक्त करने का तरीका है तो उसके पास ज्ञान कम होगा तब भी वह अपने ज्ञान को एक बेहतर ढंग से प्रस्तुत कर सकता है और यदि शिक्षक के पास कला नहीं है या उसको अपनी बात कहने का तरीका ज्ञात नहीं है तो उसके ज्ञान का कोई अर्थ नहीं है अर्थात उसके पास जितना भी ज्ञान है वह उस ज्ञान को प्रदर्शित करने में सक्षम नहीं हो पाएगा | मनुष्य में विभिन्न कौशल अपने उचित स्थान पर ही उचित शिक्षण विधि के माध्यम से स्वीकार किए जाते हैं |

गेज के अनुसार➖

” शिक्षण कौशल वह विशिष्ट अनुदेशन प्रक्रिया है जो अध्यापक द्वारा अपनी कक्षा शिक्षण की स्थिति में प्रयोग किया जाता है यह शिक्षण क्रम की विभिन्न कक्षाओं से संबंधित होता है जिसे शिक्षक अपनी कक्षीय अंतः क्रियाओं में निरंतर प्रयोग होता है | “

अर्थात शिक्षण कौशल वह विशिष्ट अनुदेशन की प्रक्रिया है जिसके माध्यम से शिक्षक अपनी कक्षा के में एक ऐसी परिस्थिति उत्पन्न कर सकता है जो एक निश्चित क्रम में उसकी कक्षा से संबंधित होती है और जिसके माध्यम से शिक्षक कक्षा में बच्चों के साथ परस्पर अंत: क्रिया करके अपने शिक्षण को रोचक और कक्षा को रुचिकर बना सकता है |

नोट्स बाय➖ रश्मि सावले

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☘️🌼 शिक्षण कौशल🌼☘️
(Teaching skills)

🔸 शिक्षण कौशल है क्या?

शिक्षक अपने शिक्षण को प्रभावी बनाने के उद्देश्य से जो भी कक्षा गत व्यवहार हेतु व्यूह रचना अपनाता है वह शिक्षण कौशल कहलाता है।

🔸शिक्षा शास्त्री और मनोवैज्ञानिक शिक्षण को कला और विज्ञान दोनों को स्वरूप माना है।

🔸 शिक्षण कला है तब ही स्वीकार किया जाएगा जब योग्यता और क्षमता दोनों हो।

🔸 मनुष्य में विभिन्न कौशल अपनी उचित स्थान पर ही उचित शिक्षण विधि के माध्यम से स्वीकार किए जाते हैं।

🔸 शिक्षण कौशल के संबंध में कहा जाता है कि—

“कौन सी बात कहां कहे जाती है यह हुनर हो तो हर बात सही जाती है”।

☘️🌼शिक्षण कौशल की परिभाषा——

गेज के अनुसार➖शिक्षण कौशल व विशिष्ट अनुदेशन प्रक्रिया है जो अध्यापक द्वारा अपनी कक्षा शिक्षण की स्थिति में प्रयोग किए जाते हैं यह शिक्षण क्रम की विभिन्न कक्षाओं से संबंधित होते हैं जिसे शिक्षक अपनी कक्षिप अंतः क्रिया में निरंतर प्रयोग करता है।

✍🏻📚📚 Notes by….. Sakshi Sharma📚📚✍🏻
शिक्षण कौशल(Teaching skill)
◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

★शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षक के द्वारा प्रश्न पूछना, व्याख्यान देना, सहायक सामग्री का प्रदर्शन करना, पुनर्बलन देना, उदाहरण प्रस्तुत करना आदि कार्य करने होते हैं जिसके लिए शिक्षक को अपने शिक्षण प्रक्रिया को सरल सुगम वह रुचि पूर्व बनाने के लिए शिक्षण कौशल का ज्ञान होना चाहिए।

अर्थात शिक्षक द्वारा शिक्षण कार्य करते हुए अपने शिक्षण को प्रभावपूर्ण और रुचिकर व उद्देश्य पूर्ण बनाने के लिए जो कुछ भी किया जाता है उसे शिक्षण कौशल कहते हैं।

अतः शिक्षक प्रशिक्षण में इन कौशलों का विकास महत्वपूर्ण स्थान रखता है।

स्टोंस और मॉरिस के अनुसार
“शिक्षण कौशल की योजना पाठ योजना का सामान्य रूप होता है इसमें वांछित व्यवहार परिवर्तन के लिए अनुदेशन योजना सम्मिलित होती है इसमें युक्तियों की योजना भी तैयार की जाती है पाठ योजना का कौशल आयोजन संपूर्ण पाठ्यक्रम का ही अंग होता है।”

अर्थात शिक्षण प्रारंभ करने के पूर्व उसकी योजना बनानी पड़ती है। शिक्षण का पूर्व अनुभव शिक्षण कौशल की योजना के निर्माण में महत्वपूर्ण सहयोग देता है। शिक्षण कौशल का विकास सूक्ष्म शिक्षण द्वारा किया जाता है।

★शिक्षा शास्त्री और मनोवैज्ञानिक ने शिक्षण को कला और विज्ञान दोनों का स्वरूप माना है।

★शिक्षण कला तब ही स्वीकार किया जाएगा जब योग्यता और क्षमता हो।

★मनुष्य में विभिन्न में कौशल अपने उचित स्थान पर उचित शिक्षण विधि के माध्यम से स्वीकार किए जाते हैं।

परिभाषा

गेज़ के अनुसार,”शिक्षण कौशल वह विशिष्ट अनुदेशन प्रक्रिया है जो अध्यापक द्वारा अपनी कक्षा शिक्षण की स्थिति में प्रयोग किया जाता है यह शिक्षण क्रम की विभिन्न कक्षाओं से संबंधित होता है जिससे शिक्षक अपने कक्ष अंत: क्रियाओं में निरंतर प्रयोग करता है।”

✒️Notes By✒️आनंद चौधरी📋📋
(Supertet)

शिक्षण कौशल(Teaching skill)

💫💫💫💫💫💫💫💫

🌸शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षक के द्वारा प्रश्न पूछना, व्याख्यान देना, सहायक सामग्री का प्रदर्शन करना, पुनर्बलन देना, उदाहरण प्रस्तुत करना आदि कार्य करने होते हैं जिसके लिए शिक्षक को अपने शिक्षण प्रक्रिया को सरल सुगम वह रुचि पूर्व बनाने के लिए शिक्षण कौशल का ज्ञान होना चाहिए।

अर्थात शिक्षक द्वारा शिक्षण कार्य करते हुए अपने शिक्षण को प्रभावपूर्ण और रुचिकर व उद्देश्य पूर्ण बनाने के लिए जो कुछ भी किया जाता है उसे शिक्षण कौशल कहते हैं।

अतः शिक्षक प्रशिक्षण में इन कौशलों का विकास महत्वपूर्ण स्थान रखता है।

स्टोंस और मॉरिस के अनुसार,
“शिक्षण कौशल की योजना पाठ योजना का सामान्य रूप होता है इसमें वांछित व्यवहार परिवर्तन के लिए अनुदेशन योजना सम्मिलित होती है इसमें युक्तियों की योजना भी तैयार की जाती है पाठ योजना का कौशल आयोजन संपूर्ण पाठ्यक्रम का ही अंग होता है।”

अर्थात शिक्षण प्रारंभ करने के पूर्व उसकी योजना बनानी पड़ती है। शिक्षण का पूर्व अनुभव शिक्षण कौशल की योजना के निर्माण में महत्वपूर्ण सहयोग देता है। शिक्षण कौशल का विकास सूक्ष्म शिक्षण द्वारा किया जाता है।

➡️शिक्षा शास्त्री और मनोवैज्ञानिक ने शिक्षण को कला और विज्ञान दोनों का स्वरूप माना है।

➡️शिक्षण कला तब ही स्वीकार किया जाएगा जब योग्यता और क्षमता हो।

➡️मनुष्य में विभिन्न में कौशल अपने उचित स्थान पर उचित शिक्षण विधि के माध्यम से स्वीकार किए जाते हैं।

परिभाषा✍️

गेज़ के अनुसार,”शिक्षण कौशल वह विशिष्ट अनुदेशन प्रक्रिया है जो अध्यापक द्वारा अपनी कक्षा शिक्षण की स्थिति में प्रयोग किया जाता है यह शिक्षण क्रम की विभिन्न कक्षाओं से संबंधित होता है जिससे शिक्षक अपने कक्ष अंत: क्रियाओं में निरंतर प्रयोग करता है।”

Notes by Shreya Rai ✍️🙏

58. CDP – Learning Theories PART- 14

15/04/2021.            Thursday

          TODAY CLASS…

    सामाजिक अधिगम का सिद्धांत

➖➖➖➖➖➖➖➖➖

प्रतिपादक :—अल्बर्ट बंडूरा

अमेरिका ( मनोवैज्ञानिक)

अल्बर्ट बंडूरा के अनुसार:—किसी व्यक्ति द्वारा अन्य व्यक्तियों के व्यवहार का निरीक्षण करके उनके जैसा व्यवहार अपने स्वभाव में लाने की प्रक्रिया को इन्होंने सामाजिक अधिगम बोला है *सीखने* को सशक्त माध्यम है

➖ मॉडलिंग :—दूसरे के व्यवहार को निरीक्षण द्वारा सीखना मॉडलिंग कहलाता है 

सीखने में जो निरीक्षण के महत्व को स्वीकार करते हुए बंडूरा ने सामाजिक अधिगम सिद्धांत प्रतिपादित किया।

 *अल्बर्ट बंडूरा* :— हम पर्यावरण में उपलब्ध किसी उद्दीपन के प्रति बिना सोचे समझे अनुक्रिया नहीं करते हैं हम हमारे चारों और विद्वान पर्यावरणीय तत्व सूझ और पूर्व अनुभूति के आधार पर चयन करते हैं और यह कार्य हम हमारे चारों ओर रहने वाले व्यक्तियों के व्यवहार का निरीक्षण कर उसका अनुकरण करते हैं इस प्रकार हम पर प्रक्षेपण द्वारा अधिगम की प्रक्रिया पूरी करते हैं

➖ बंडूरा के अनुसार मानव व्यवहार/ क्रिया तीन चीजों पर निर्भर करता है

(1) बाहय वातावरण

(2) संज्ञानात्मक या आंतरिक क्रियाएं

(3) व्यवहार

सामाजिक अधिगम सिद्धांत को व्यवहारवाद और संज्ञानात्मक अधिगम सिद्धांत के बीच की योजक कड़ी कहा जाता है क्योंकि यह सिद्धांत ध्यान, स्मृति और प्रेरणा तीनों को समायोजित करता है

➖ बाहय वातावरण में उपस्थित उद्दीपक (अन्य व्यक्ति के व्यवहार) और इसके साथ व्यक्ति के वास्तविक व्यवहार के मध्य आंतरिक संज्ञानात्मक चरों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है

              बंडूरा का प्रयोग

➖➖➖➖➖➖➖➖➖ बंडूरा ने एक व्यस्क आदमी द्वारा कुछ बच्चों के सामने एक 3 से 4 फीट की लंबी गुड़िया जिसको उन्होंने (बॉब गुड़िया) का नाम दिया उसको उछलते हुए, मारते हुए, एवं उसके प्रति आक्रामकता को दिखाते हुए चले गए और बाद में बच्चे और गुड़िया को अकेला छोड़ दिया गया उसके बाद बच्चे ने भी उस बेबी डॉल के साथ उसी प्रकार का आक्रामकता वाला व्यवहार किया।

 *दूसरा प्रयोग टीवी में अकर्मक मूवी को दिखाकर* 

➖ प्रथम मूवी सामाजिक मूल्य आधारित थी जिसे देखकर बालक अन्य के साथ सामाजिक व्यवहार दर्शाता है

➖ दूसरे मूवी प्रेम पर आधारित थी जिसे देखकर बालक अन्य के साथ में स्नेह से रहता है

➖ तीसरी मूवी हिंसात्मक दृश्य युक्त थी जिसे देखकर बालक अन्य के साथ आक्रमक व्यवहार दिखाया

  *मॉडल में तीन कारक महत्वपूर्ण है* 

(1) मॉडल की विशेषता

(2) प्रेक्षक की विशेषता

(3) व्यवहार का पुरस्कार परिणाम

 *जैसे* :— हम सब एक क्लास में जुड़े हैं हमारे अंदर क्या गुण जाएगा यह कई चीजों पर निर्भर करता है कि आपको क्या बताया जा रहा है,या आपको इस वातावरण से क्या मिल रहा है ,या आप क्या कर रहे है, यह सब महत्वपूर्ण है यह एक मॉडल की विशेषता है दूसरी बात आप खुद महत्वपूर्ण है प्रेक्षक सबके अंदर अलग-अलग होती है आपकी समझ क्या है ,आपका ध्यान कैसा है, आप क्या सोचते हैं, क्या समझते हैं, उसके बेसिक पर आपके अंदर यह समझ विकसित आयेगी,आपने क्या व्यवहार किया ,उसका क्या रिजल्ट होगा उस पर भी निर्भर करता है

🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻🌻

Notes by:—✍ संगीता भारती✍

                  🙏🙏

🌲⚜️🔅सामाजिक अधिगम का सिद्धांत🔅⚜️🌲

🔅प्रतिपादक ➖️अल्बर्ट बंडूरा

🔅अमेरिका ( मनोवैज्ञानिक)

🔅✏️अल्बर्ट बंडूरा के अनुसार ➖️किसी व्यक्ति द्वारा अन्य व्यक्तियों के व्यवहार का निरीक्षण करके उनके जैसा व्यवहार अपने स्वभाव में लाने की प्रक्रिया को इन्होंने सामाजिक अधिगम बोला है सीखने का सशक्त माध्यम है

🔅 मॉडलिंग —दूसरे के व्यवहार को निरीक्षण द्वारा यादेखकर सीखना मॉडलिंग कहलाता है 

सीखने में जो निरीक्षण के महत्व को स्वीकार करते हुए बंडूरा ने सामाजिक अधिगम सिद्धांत प्रतिपादित किया।

 अल्बर्ट बंडूरा➖️ हम पर्यावरण में उपलब्ध किसी उद्दीपन के प्रति बिना सोचे समझे अनुक्रिया नहीं करते हैं हम हमारे चारों और विद्वान पर्यावरणीय तत्व सूझ(दिमाक )और पूर्व अनुभूति के आधार पर चयन करते हैं और यह कार्य हम हमारे चारों ओर रहने वाले व्यक्तियों के व्यवहार का निरीक्षण कर उसका अनुकरण करते हैं इस प्रकार हम प्रक्षेपण द्वारा अधिगम की प्रक्रिया पूरी करते हैं

🔅 ✏️बंडूरा के अनुसार➖️ मानव व्यवहार/ क्रिया तीन चीजों पर निर्भर करता है🔅

⚡️(1) बाहय वातावरण

⚡️(2) संज्ञानात्मक या आंतरिक क्रियाएं

⚡️(3) व्यवहार

सामाजिक अधिगम सिद्धांत को व्यवहारवाद और संज्ञानात्मक अधिगम सिद्धांत के बीच की योजक कड़ी कहा जाता है

क्योंकि यह सिद्धांत ध्यान, स्मृति और प्रेरणा तीनों को समायोजित करता है

⚡️बाहय वातावरण में ➖️उपस्थित उद्दीपक (अन्य व्यक्ति के व्यवहार) और इसके साथ व्यक्ति के वास्तविक व्यवहार के मध्य आंतरिक संज्ञानात्मक चरों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है

      🔅🌲बंडूरा का प्रयोग ➖️बंडूरा ने एक व्यस्क आदमी द्वारा कुछ बच्चों के सामने एक 3 से 4 फीट की लंबी गुड़िया जिसको उन्होंने (बॉब गुड़िया) का नाम दिया उसको उछलते हुए, मारते हुए, एवं उसके प्रति आक्रामकता को दिखाते हुए चले गए और बाद में बच्चे और गुड़िया को अकेला छोड़ दिया गया उसके बाद बच्चे ने भी उस बेबी डॉल के साथ उसी प्रकार का आक्रामकता वाला व्यवहार किया।जो उन्होंने किया था 

 🔅🌲दूसरा प्रयोग टीवी में अकर्मक मूवी को दिखाकर➖️ 

🔅प्रथम मूवी ➖️सामाजिक मूल्य आधारित थी जिसे देखकर बालक अन्य के साथ सामाजिक व्यवहार दर्शाता है

🔅 दूसरे मूवी ➖️प्रेम पर आधारित थी जिसे देखकर बालक अन्य के साथ में स्नेह से रहता है

🔅तीसरी मूवी➖️ हिंसात्मक दृश्य युक्त थी जिसे देखकर बालक अन्य के साथ आक्रमक व्यवहार दिखाया

 🔅🔅मॉडल में तीन कारक महत्वपूर्ण है➖️ 

(1) मॉडल की विशेषता

(2) प्रेक्षक की विशेषता

(3) व्यवहार का पुरस्कार परिणाम

⚜️मॉडल की विशेषता➖️ किस प्रकार के कारक दिखा रहे हैं जैसे गुड़िया को किस प्रकार खिलाते दिखा रहा है यह इसकी विशेषता होती हैं

⚜️ प्रेक्षक की विशेषता➖️ इसमें सभी व्यक्तियों में प्रेक्षक अलग अलग होता है अपनी अपनी समझ गए होती हैं आपकी समझ गया है आपका मन क्या है यह सब  की विशेषता होती प्रेक्षक किस प्रकार का सोच रहा है यह उसी पर निर्भर करता है

⚜️व्यवहार का पुरस्कार परिणाम ➖️जो हम व्यापार करते हैं उसका कैसा परिणाम मिलता है उसका व्यवहार कितना पसंद आया यह सब व्यापार के पुरस्कार परिणाम पर निर्भर करता है

Notes by Sapna yadav📝📝📝📝📝📝📝

सामाजिक अधिगम का सिद्धांत

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प्रतिपादक –  अल्बर्ट बंडूरा

 निवासी –  कनाडा

सिद्धांत दिया –  1977 में

प्रयोग-  बॉर्बी डॉल, जीवित जोकर ( फिल्म)

अमेरिका ( मनोवैज्ञानिक)

अल्बर्ट बंडूरा के अनुसार÷,”किसी व्यक्ति द्वारा अन्य व्यक्तियों के व्यवहार का निरीक्षण करके उनके जैसा व्यवहार अपने स्वभाव में लाने की प्रक्रिया को इन्होंने सामाजिक अधिगम बोला है सीखने को सशक्त माध्यम है।”

🌸 मॉडलिंग ÷ दूसरे के व्यवहार को निरीक्षण द्वारा सीखना मॉडलिंग कहलाता है 

सीखने में जो निरीक्षण के महत्व को स्वीकार करते हुए बंडूरा ने सामाजिक अधिगम सिद्धांत प्रतिपादित किया।

 🟢अल्बर्ट बंडूरा÷  हम पर्यावरण में उपलब्ध किसी उद्दीपन के प्रति बिना सोचे समझे अनुक्रिया नहीं करते हैं हम हमारे चारों और विद्वान पर्यावरणीय तत्व सूझ और पूर्व अनुभूति के आधार पर चयन करते हैं और यह कार्य हम हमारे चारों ओर रहने वाले व्यक्तियों के व्यवहार का निरीक्षण कर उसका अनुकरण करते हैं इस प्रकार हम पर प्रक्षेपण द्वारा अधिगम की प्रक्रिया पूरी करते हैं

🟢 बंडूरा के अनुसार मानव व्यवहार/ क्रिया तीन चीजों पर निर्भर करता है।

(1) बाहय वातावरण

(2) संज्ञानात्मक या आंतरिक क्रियाएं

(3) व्यवहार

सामाजिक अधिगम सिद्धांत को व्यवहारवाद और संज्ञानात्मक अधिगम सिद्धांत के बीच की योजक कड़ी कहा जाता है क्योंकि यह सिद्धांत ध्यान, स्मृति और प्रेरणा तीनों को समायोजित करता है

🌸 बाहय वातावरण में उपस्थित उद्दीपक (अन्य व्यक्ति के व्यवहार) और इसके साथ व्यक्ति के वास्तविक व्यवहार के मध्य आंतरिक संज्ञानात्मक चरों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है

              🟢बंडूरा का प्रयोग

 बंडूरा ने एक व्यस्क आदमी द्वारा कुछ बच्चों के सामने एक 3 से 4 फीट की लंबी गुड़िया जिसको उन्होंने (बॉब गुड़िया) का नाम दिया उसको उछलते हुए, मारते हुए, एवं उसके प्रति अक्रामकता को दिखाते हुए चले गए और बाद में बच्चे और गुड़िया को अकेला छोड़ दिया गया उसके बाद बच्चे ने भी उस बेबी डॉल के साथ उसी प्रकार का आक्रामकता वाला व्यवहार किया।

 🟢दूसरा प्रयोग टीवी में अकर्मक मूवी को दिखाकर

👉🏻प्रथम मूवी सामाजिक मूल्य आधारित थी जिसे देखकर बालक अन्य के साथ सामाजिक व्यवहार दर्शाता है

👉🏻 दूसरे मूवी प्रेम पर आधारित थी जिसे देखकर बालक अन्य के साथ में स्नेह से रहता है।

👉🏻तीसरी मूवी हिंसात्मक दृश्य युक्त थी जिसे देखकर बालक अन्य के साथ आक्रमक व्यवहार दिखाया।

  🟢मॉडल में तीन कारक महत्वपूर्ण है।

(1) मॉडल की विशेषता

(2) प्रेक्षक की विशेषता

(3) व्यवहार का पुरस्कार परिणाम

Notes by shikha tripathi

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💫 *सामाजिक अधिगम सिद्धांत* 💫

सामाजिक अधिगम का सिद्धांत अल्बर्ट बंडूरा के द्वारा प्रतिपादित किया गया था। अल्बर्ट बंडूरा अमेरिका के मनोवैज्ञानिक थे।

अल्बर्ट बंडूरा के अनुसार, किसी व्यक्ति द्वारा अन्य व्यक्तियों के व्यवहार का निरीक्षण करके उनके जैसा व्यवहार अपने स्वभाव में लाने की प्रक्रिया को इन्होंने सामाजिक अधिगम बोला है सीखने का सशक्त माध्यम है।

*मॉडलिंग*  ➡️

दूसरे के व्यवहार को निरीक्षण द्वारा सीखना मॉडलिंग कहलाता है।

सीखने में जो निरीक्षण के महत्व को स्वीकार करते हुए बंडूरा ने सामाजिक अधिगम सिद्धांत प्रतिपादित किया।

*अल्बर्ट बंडूरा* ➡️

हम पर्यावरण में उपलब्ध किसी उद्दीपन के प्रति बिना सोचे समझे अनुक्रिया नहीं करते हैं। हम हमारे चारों ओर विद्यमान पर्यावरण के तत्व , सूझ और पूर्व अनुभूति के आधार पर चयन करते हैं और यह कार्य हम चारों ओर रहने वाले व्यक्तियों के व्यवहार का निरीक्षण कर उसका अनुकरण करते हैं इस प्रकार हम प्रक्षेपण द्वारा अधिगम की प्रक्रिया पूरी करते हैं।

*बंडूरा के अनुसार*,  मानव व्यवहार/ क्रिया तीन चीजों पर निर्भर करती है …….

1. बाह्य वातावरण( external environment)

2.  संज्ञानात्मक या आंतरिक क्रियाएं(cognitive or internal activities)

 3. व्यवहार( behaviour)

 यह तीनों एक दूसरे पर निर्भर करते हैं बाह्य वातावरण में उपस्थित उद्दीपक (अन्य व्यक्ति का व्यवहार)  और व्यक्ति के वास्तविक  व्यवहार के मध्य आंतरिक संज्ञानात्मक चरों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

सामाजिक अधिगम सिद्धांत को व्यवहारवाद और संज्ञानात्मक अधिगम सिद्धांत के बीच की योजक कड़ी कहा जाता है क्योंकि यह सिद्धांत ध्यान (attention), स्मृति (memory) और प्रेरणा ( motivation) तीनों को समायोजित करता है।

*बंडूरा का प्रयोग*  ➡️

इन्होंने एक बालक पर बेबीडॉल प्रयोग किया बंडूरा ने एक बालक को तीन तरह की मूवी दिखाई।

💫प्रथम मूवी, सामाजिक मूल्य आधारित थी जिसे देखकर बालक बेबी डॉल के साथ सामाजिक व्यवहार दर्शाता है।

💫दूसरी मूवी प्रेम पर आधारित थी जिसे देखकर बालक ने बेबीडॉल के साथ में प्रेम/ स्नेह वाला व्यवहार दर्शाया।

💫तीसरी मूवी  हिंसात्मक दृश्य युक्त थी जिसे देखकर बालक बेबीडॉल के साथ आक्रामक व्यवहार दिखाया।

*निष्कर्ष*  ➡️

इस प्रयोग के आधार पर बंडूरा ने यह निष्कर्ष निकाला कि छोटे बच्चों को यह नहीं पता होता है कि उनको क्या सीखना चाहिए और क्या नहीं । इसलिए बच्चों के सामने हमेशा आदर्श व्यवहार के प्रतिमान ( ideal model) को प्रस्तुत करना चाहिए। 

*मॉडल के तीन कारक*

 1. मॉडल की विशेषता

 2. प्रेक्षक की विशेषता 

 3.  व्यवहार का पुरस्कार परिणाम

Notes by Shreya Rai✍🏻👏

*सामाजिक अधिगम सिद्धांत* ➡️

▪️सामाजिक अधिगम का सिद्धांत अल्बर्ट बंडूरा के द्वारा प्रतिपादित किया गया था। 

अल्बर्ट बंडूरा अमेरिका के मनोवैज्ञानिक थे।

अल्बर्ट बंडूरा के अनुसार, किसी व्यक्ति द्वारा अन्य व्यक्तियों के व्यवहार का निरीक्षण करके उनके जैसा व्यवहार अपने व्यवहार में लाने की प्रक्रिया को इन्होंने *सामाजिक अधिगम* बताया  है । सीखने का सशक्त माध्यम है।

*मॉडलिंग*  ➡️

दूसरे के व्यवहार को निरीक्षण द्वारा सीखना मॉडलिंग कहलाता है।

सीखने में जो निरीक्षण के महत्व को स्वीकार करते हुए बंडूरा ने सामाजिक अधिगम सिद्धांत प्रतिपादित किया।

*अल्बर्ट बंडूरा सामाजिक अधिगम सिद्धान्त* ➡️

हम पर्यावरण में उपलब्ध किसी *उद्दीपन* के प्रति बिना सोचे समझे अनुक्रिया नहीं करते हैं। हम हमारे चारों ओर विद्यमान पर्यावरण के तत्व , सूझ और पूर्व अनुभूति के आधार पर चयन करते हैं और यह कार्य हम चारों ओर रहने वाले व्यक्तियों के व्यवहार का निरीक्षण कर उनका अनुकरण करते है। इस प्रकार हम प्रेक्षण द्वारा अधिगम की प्रक्रिया पूरी करते है।

*अल्बर्ट बंडूरा के अनुसार मानव/क्रिया तीन चीजों पर निर्भर करता है*➡️

1.बाह्य वातावरण ।(EXTERNAL ENVIRONMENT)

2. संज्ञानात्मक वातावरण या आंतरिक क्रियाएं।(COGNITIVE OR INTERNAL ACTIVITIES)

3.व्यवहार।(BEHAVIOR)

*उपरोक्त तीनों एक – दूसरे से जुड़े हुए है।*

बाह्य वातावरण में उपस्थित *उद्दीपक (अन्य  व्यक्ति का व्यवहार)* और व्यक्ति के वास्तविक व्यवहार के मध्य आन्तरिक *संज्ञानात्मक चरो* की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

*बंडूरा का प्रयोग*

*पहला प्रयोग* ⬇️

बंडूराने एक बॉब नाम की गुड़िया ली जिसकी लंबाई 3 से 4 फ़ुट थी। 

उस गुड़िया को उछाला व  उसके आक्रामक व्यवहार और मारपीट की यह सब क्रिया बच्चे देख रहे थे।

बंदुरा के बाहर जाने के बाद बच्चो ने वो ही व्यवहार किया उस गुड़िया के साथ जो बंडूरा ने किया था गुडिया के साथ  जैसे उछालना मारपीट व आक्रामक व्यवहार आदि।

*दूसरा प्रयोग*⬇️ 

 कुछ बच्चों को 3 ग्रुप में बांटा गया व उनको टीवी पर के फिल्मो के कुछ दृश्य  दिखाए गए।

▪️पहले ग्रुप वाले बच्चों को फ़िल्म के दृश्य दिखाए गए जिसमे आक्रामक ,मारपीट व अभद्रतापूर्ण भाषा का प्रयोग दिखाया गया । इन बच्चों ने इस फ़िल्म से अपने व्यवहार में यही सब सीख लिया।

▪️दूसरे ग्रुप वाले बच्चों को फिल्मो के कुछ दृश्य दिखाए गए जिसमे चारित्रिक गुणों ,संस्कारो व सम्मान से परिपूर्ण वाले दृश्य दिखाये गए। ऐसे दृश्यों से बच्चो ने सीखा व अपने व्यवहार में शामिल किया।

▪️तीसरे ग्रुप के बच्चों को साधारण दृश्य वाली फिल्म दिखाई गई तो बच्चों ने साधारण व्यवहार अपने व्यवहार में शामिल किया।

*मॉडल के तीन कारक महत्वपूर्ण है*

1 मॉडल की विशेषता ।

2 प्रेक्षक की विशेषता।

3 व्यवहार का पुरस्कार परिणाम।

✒️✒️ आनंद चौधरी📋📋

15/04/2021

57. CDP – Learning Theories PART- 13

🍀🍀🍀🍀🍀🍀🍀🍀🍀🍀

📛 संज्ञानात्मक सिद्धांत की विशेषताएं ➖

🔥  सभी मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि सीखना एक क्रमिक और आरोही प्रक्रिया है |

🔥 पियाजे के अनुसार सीखने के लिए पर्यावरण और कार्य करने की मूल आवश्यकता होती है |

🔥 पियाजे कहते हैं कि जो बच्चा खोज या चिंतन करता है उसकी शक्ति जैविक परिपक्वता और अनुभव की अंतः क्रिया  द्वारा निर्धारित होती है |

🔥 पियाजे के अनुसार बालक के अमूर्त चिंतन पर शिक्षा का प्रभाव पड़ता है |

 यदि बच्चे की शिक्षा निम्न स्तर की होगी तो उसका अमूर्त चिंतन भी निम्न  स्तर का होगा और यदि  बच्चे की शिक्षा उच्च स्तर की होगी तो उसका  अमूर्त चिंतन भी उच्च स्तर का होगा |

🔥 औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था के बाद ही संपूर्ण बौद्धिक शक्ति का विकास होता है | बच्चे समस्या समाधान की क्षमता औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था के बाद क्रमबद्ध और तार्किक ढंग से कर लेते हैं |

📛 संज्ञानात्मक विकास की कमियां ➖

💠पियाजे ने अपने संज्ञानात्मक सिद्धांत में बच्चों की क्रियाओं का अवलोकन व्यक्तिनिष्ठ आधार पर किया है |

 यह सिद्धांत वस्तुनिष्ठ कम है और व्यक्तिनिष्ठ अधिक है |

💠 इस सिद्धांत के अनुसार शरीर के अंगों की तरह बुद्धि का विकास धीरे-धीरे होता है जो कि मूल रूप से सत्य नहीं है |

💠 यह सिद्धांत मुख्य रूप से संज्ञानात्मक विकास की बात करता है जबकि कौशलात्मक या भावनात्मक विकास की व्याख्या नहीं करता है |

💠 संज्ञानात्मक विकास में केवल प्रत्यय या अवधारणात्मक ज्ञान की व्याख्या की जाती है जो कि अधूरा है  |

💠  पियाजे का मानना है कि संज्ञानात्मक विकास एक विशेष क्रम होता है जो पूर्ण रूप से सत्य नहीं है |

💠 पियाजे के सिद्धांत के अनुसार संज्ञानात्मक विकास जैविक परिपक्वता के अनुक्रमानुपाती होता है |

जैविक परिपक्वता ~ संज्ञानात्मक विकास

 लेकिन कई शोध में इसके विपरीत परिणाम देखे  गए हैं |

💠 पियाजे के संज्ञानात्मक सिद्धांत के अनुसार बच्चा मूर्त संक्रियात्मक अवस्था में तार्किक चिंतन कर पाता है लेकिन कई शोध में यह सिद्ध किया गया है कि बच्चा इससे पहले भी तार्किक चिंतन करता है |

नोट्स बाय➖ रश्मि सावले

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🟢 संज्ञानात्मक सिद्धांत की विशेषताएं 

🌸 सभी मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि सीखना एक क्रमिक और आरोही प्रक्रिया है |

🌸 पियाजे के अनुसार सीखने के लिए पर्यावरण और कार्य करने की मूल आवश्यकता होती है |

🌸 पियाजे कहते हैं कि जो बच्चा खोज या चिंतन करता है उसकी शक्ति जैविक परिपक्वता और अनुभव की अंतः क्रिया  द्वारा निर्धारित होती है |

🟢 पियाजे के अनुसार बालक के अमूर्त चिंतन पर शिक्षा का प्रभाव पड़ता है |

 यदि बच्चे की शिक्षा निम्न स्तर की होगी तो उसका अमूर्त चिंतन भी निम्न  स्तर का होगा और यदि  बच्चे की शिक्षा उच्च स्तर की होगी तो उसका  अमूर्त चिंतन भी उच्च स्तर का होगा |

🌸 औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था के बाद ही संपूर्ण बौद्धिक शक्ति का विकास होता है | बच्चे समस्या समाधान की क्षमता औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था के बाद क्रमबद्ध और तार्किक ढंग से कर लेते हैं |

🟢संज्ञानात्मक विकास की कमियां 

🌸पियाजे ने अपने संज्ञानात्मक सिद्धांत में बच्चों की क्रियाओं का अवलोकन व्यक्तिनिष्ठ आधार पर किया है |

 यह सिद्धांत वस्तुनिष्ठ कम है और व्यक्तिनिष्ठ अधिक है |

🌸 इस सिद्धांत के अनुसार शरीर के अंगों की तरह बुद्धि का विकास धीरे-धीरे होता है जो कि मूल रूप से सत्य नहीं है |

🌸 यह सिद्धांत मुख्य रूप से संज्ञानात्मक विकास की बात करता है जबकि कौशलात्मक या भावनात्मक विकास की व्याख्या नहीं करता है |

🌸 संज्ञानात्मक विकास में केवल प्रत्यय या अवधारणात्मक ज्ञान की व्याख्या की जाती है जो कि अधूरा है  |

🌸  पियाजे का मानना है कि संज्ञानात्मक विकास एक विशेष क्रम होता है।जो पूर्ण रूप से सत्य नहीं है |

🟢 पियाजे के सिद्धांत के अनुसार संज्ञानात्मक विकास जैविक परिपक्वता के अनुक्रमानुपाती होता है |

🌸जैविक परिपक्वता संज्ञानात्मक विकास।

 👉🏻लेकिन कई शोध में इसके विपरीत परिणाम देखे  गए हैं |

🟢 पियाजे के संज्ञानात्मक सिद्धांत के अनुसार बच्चा मूर्त संक्रियात्मक अवस्था में तार्किक चिंतन कर पाता है लेकिन कई शोध में यह सिद्ध किया गया है कि बच्चा इससे पहले भी तार्किक चिंतन करता है |

Notes by shikha tripathi

🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸

,🌲🔅⚜️ संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत की विशेषताएं ⚜️🔅🌲

🌲 सभी मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि सीखना एक क्रमिक और आरोही प्रक्रिया है |

🌲 पियाजे के अनुसार सीखने के लिए पर्यावरण और कार्य करने की मूल आवश्यकता होती है |

🌲 पियाजे कहते हैं कि जो बच्चा खोज या चिंतन करता है उसकी शक्ति जैविक परिपक्वता और अनुभव की अंतः क्रिया  द्वारा निर्धारित होती है |

🌲 पियाजे के अनुसार बालक के अमूर्त चिंतन पर शिक्षा का प्रभाव पड़ता है |

 यदि बच्चे की शिक्षा निम्न स्तर की होगी तो उसका अमूर्त चिंतन भी निम्न  स्तर का होगा और यदि  बच्चे की शिक्षा उच्च स्तर की होगी तो उसका  अमूर्त चिंतन भी उच्च स्तर का होगा |

🌲औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था के बाद ही संपूर्ण बौद्धिक शक्ति का विकास होता है | बच्चे समस्या समाधान की क्षमता औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था के बाद क्रमबद्ध और तार्किक ढंग से कर लेते हैं |

🌲🔅संज्ञानात्मक विकास की कमियां ➖️

🌲 अपने संज्ञानात्मक सिद्धांत में बच्चों की क्रियाओं का अवलोकन व्यक्तिनिष्ठ आधार पर किया है |

 यह सिद्धांत वस्तुनिष्ठ कम है और व्यक्तिनिष्ठ अधिक है |

🌲इस सिद्धांत के अनुसार शरीर के अंगों की तरह बुद्धि का विकास धीरे-धीरे होता है जो कि मूल रूप से सत्य नहीं है |

🌲 यह सिद्धांत मुख्य रूप से संज्ञानात्मक विकास की बात करता है जबकि कौशलात्मक या भावनात्मक विकास की व्याख्या नहीं करता है |

🌲संज्ञानात्मक विकास में केवल प्रत्यय या अवधारणात्मक ज्ञान की व्याख्या की जाती है जो कि अधूरा है  |

🌲  पियाजे का मानना है कि संज्ञानात्मक विकास एक विशेष क्रम होता है।जो पूर्ण रूप से सत्य नहीं है |

🌲पियाजे के सिद्धांत के अनुसार संज्ञानात्मक विकास जैविक परिपक्वता के अनुक्रमानुपाती होता है |

🌲जैविक परिपक्वता संज्ञानात्मक विकास।

 🌲लेकिन कई शोध में इसके विपरीत परिणाम देखे  गए हैं |

🌲 पियाजे के संज्ञानात्मक सिद्धांत के अनुसार बच्चा मूर्त संक्रियात्मक अवस्था में तार्किक चिंतन कर पाता है लेकिन कई शोध में यह सिद्ध किया गया है कि बच्चा इससे पहले भी तार्किक चिंतन करता है |

Notes by sapna yadav📝📝📝📝📝📝

*संज्ञानात्मक सिद्धांत की विशेषताए*⬇️

▪️ सभी मनोवैज्ञानिक का मानना  है कि सीखना एक क्रमिक और आरोही प्रक्रिया है।

▪️ पियाजे के अनुसार सीखने के लिए पर्यावरण और कार्य करने की मूल आवश्यकताएं हैं।

▪️ पियाजे के अनुसार बालक की अमूर्त चिंतन और खोज की शक्ति जैविक परिपक्वता और अनुभव के आंतरिक द्वारा निर्धारित होती है।

▪️ पियाजे के अनुसार अमूर्त चिंतन पर शिक्षा का प्रभाव होता है।

*निम्न शिक्षा* होगी तो *अमूर्त चिंतन भी कम* होगा ।

 *उच्च शिक्षा* होगी तो *अमूर्त चिंतन ज्यादा* होगा।

 ▪️औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था के बाद ही संपूर्ण बौद्धिक शक्ति का विकास होता है।

 बच्चे समस्या समाधान की क्षमता औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था के बाद  *क्रमबद्ध* और *तार्किक* ढंग से कर लेते हैं।

 *संज्ञानात्मक सिद्धांत की कमियां*➡️➡️

▪️ बच्चों की  क्रियाएं का अवलोकन *व्यक्तिनिष्ठ* ज्यादा है किया है और *वस्तुनिष्ठ* पर  कम है।

 ▪️शरीर के अंगों की तरह *बुद्धि का विकास धीरे-धीरे* होता है । यह पूर्ण रूप से सत्य नहीं है।

 यह सिद्धांत *संज्ञानात्मक विकास* की बात नहीं करता है।

 ▪️कौशलात्मक /भावनात्मक  की व्याख्या नहीं करता है।

 ▪️संज्ञानात्मक विकास में केवल प्रत्यय ज्ञान की व्याख्या की जाती है जो अधूरा है।

▪️ संज्ञानात्मक एक विशेष क्रम में होता है पूर्ण रूप से सरल नहीं है।

संज्ञानात्मक विकास ♾️जैविक परिपक्वता लेकिन कई शोध ने इसके विपरीत परिणाम दिए है।

▪️इसके अनुसार *मूर्त अवस्था से बच्चा तार्किक चिंतन नहीं करता है* लेकिन कई शोध में बच्चा इससे पहले भी *तार्किक  चिंतन करता है ।*

📋📋 *NOTES By*  *Anand Chaudhary*

14/04/2021

🖋️🖋️🖋️

*संज्ञानात्मक सिद्धांत की विशेषताएं* 💫💫

संज्ञानात्मक सिद्धांत की निम्नलिखित विशेषताएं हैं………

1. सभी मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि, सीखना एक क्रमिक और आरोही प्रक्रिया है। 

2. पियाजे के अनुसार, सीखने के लिए पर्यावरण और कार्य मूल आवश्यकता है।

3.  पियाजे के अनुसार, बच्चों में चिंतन और खोज की शक्ति जैविक परिपक्वता और अनुभव के अंतः क्रिया द्वारा निर्धारित होती है।

4. अमूर्त चिंतन पर शिक्षा का प्रभाव होता है। 

         यदि बच्चे को निम्न स्तर ( उचित शिक्षा का अभाव) की शिक्षा दी जाती है तो बच्चे में अमूर्त चिंतन कम होती है वही यदि बच्चे को उच्च स्तर ( उत्तम श्रेणी/तार्किक/ उचित शिक्षा) की शिक्षा दी जाती है तो बच्चे में अमूर्त चिंतन ज्यादा होती है। इस प्रकार से हम समझ सकते हैं कि बच्चे की संज्ञान / चिंतन में environment का प्रभाव भी पड़ता है क्योंकि उनको जिस प्रकार की शिक्षा दी जाती है बच्चे वैसे ही अमूर्त चिंतन करते हैं। 

5.  पियाजे के अनुसार, औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था के बाद ही संपूर्ण बौद्धिक शक्ति का विकास होता है।

            बच्चे समस्या समाधान 18 साल के बाद क्रमबद्ध और तार्किक ढंग से कर सकते हैं।

*संज्ञानात्मक विकास की कमियां* 💫💫

इस सिद्धांत की निमनलिखित कमियाँ हैं……. 

1. बच्चों की क्रियाओं का अवलोकन व्यक्तिनिष्ठ ज्यादा है, वस्तुनिष्ठ कम है।

2. शरीर के अंगों की तरह बुद्धि का विकास धीरे-धीरे होता है यह पूर्ण रूप से सत्य नहीं है।

3.  यह सिद्धांत संज्ञानात्मक विकास की बात करता है, कौशलात्मक/ भावनात्मक की व्याख्या नहीं करता है।

4. संज्ञानात्मक विकास में केवल प्रत्यय ज्ञान की व्याख्या की जाती है जो अधूरा है।

5. संज्ञानात्मक एक विशेष क्रम में होता है यह पूर्णत: सत्य नहीं है।

6. संज्ञानात्मक विकास जैविक परिपक्वता के अनुक्रमानुपाती होता है लेकिन कई शोध में इसके विपरीत परिणाम भी दिए हैं।

7. इसके अनुसार, मूर्त अवस्था में बच्चा तार्किक चिंतन करता है लेकिन कई शोध में बच्चा इससे पहले भी तार्किक चिंतन करता है।

Notes by Shreya Rai 📝🙏

संज्ञानात्मक सिद्धांत की विशेषताएं

💥💥💥💥💥💥💥💥💥

14 April 2021

1.  विभिन्न मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि सीखना एक क्रमिक और आरोही प्रक्रिया है। 

अर्थात अधिगम एक क्रम में और आरोही तरीके से चलने बाली प्रक्रिया है।

2 . जीन पियाजे के अनुसार सीखने के लिए पर्यावरण और कार्य मूल की आवश्यकता होती है।

3. जीन पियाजे के अनुसार बालकों में चिंतन और खोज की शक्ति जैविक परिपक्वता और अनुभव की अंतःक्रिया द्वारा निर्धारित होती है।

अर्थात बच्चे जब जैविक परिपक्वता और अपने अनुभव के आधार पर कुछ कार्य करते हैं या सीखते हैं तब उनमें चिंतन करने और नई चीजें खोजने की शक्ति जैविक और बौद्धिक रूप से निर्धारित होती है।

4.  अमूर्त चिंतन पर शिक्षा का प्रभाव पड़ता है।

निम्न शिक्षा पर अमूर्त चिंतन का कम प्रभाव पड़ता है।

अर्थात्  बच्चों को यदि उचित शैक्षिक वातावरण उपलब्धता का अभाव रहेगा तो बच्चों की शिक्षा पर और उनकी सोच या खोज पर अमूर्त चिंतन का कम प्रभाव पड़ता है मतलब कि वह अपनी अमूर्त सोच का विकास नहीं कर पाते हैं ।  और वहीं

उच्च शिक्षा पर अमूर्त चिंतन का ज्यादा प्रभाव पड़ता है।

अर्थात बच्चों को यदि उचित और आवश्यकता अनुसार शैक्षिक वातावरण उपलब्ध हो पाएगा तो बच्चे बेहतर ढंग से सीख सकेंगे ,  और अपने अमूर्त चिंतन का पूर्ण रूप से विकास कर सकेंगे । 

अंततः बच्चे अपनी शिक्षा पर अमूर्त चिंतन का विकसित प्रभाव अनुभव कर सकते हैं।

5.  पियाजे अनुसार , औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था के बाद ही संपूर्ण बौद्धिक शक्ति का विकास होता है।

बच्चे अपनी समस्याओं का समाधान 18 साल की उम्र के बाद क्रमबद्व और तार्किक ढंग से करने लगते हैं।

🍂🍂 संज्ञानात्मक विकास की कमियां  :-

1.  बच्चों की क्रियाओं का अवलोकन व्यक्तिनिष्ठ ज्यादा है , और वस्तुनिष्ट कम है।

 2. शरीर के अंगों की तरह बुद्धि का विकास भी  धीरे-धीरे होता है। ये पूर्ण रूप से सत्य नहीं है।

3.  यह सिद्धांत संज्ञानात्मक विकास की बात करता है। 

कौशलयात्मक या भावनात्मक की व्याख्या नहीं करता है।

4.  संज्ञानात्मक विकास में केवल प्रत्यय ज्ञान की व्याख्या की जाती है जो कि अधूरा है।

5.  संज्ञानात्मक एक विशेष क्रम में होता है , अतः ये पूर्ण रूप से सत्य नहीं है।

6.  संज्ञानात्मक विकास एक जैविक परिपक्वता के अनुक्रमानुसार है , लेकिन अनेक शोध ने इसके विपरीत परिणाम दिये हैं।

7.  अतः इसके अनुसार , मूर्त अवस्था में बच्चे तार्किक चिंतन करते  हैं , परंतु कई शोध में पाया है कि बच्चे इससे पहले भी तार्किक चिंतन करने लगते हैं।

✍️ Notes by जूही श्रीवास्तव ✍️

14 / 04 / 2021

Wednesday

🌀🌊🌸 संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत की विशेषताएं🌸🌊🌀

❄️ जीन पियाजे ने कहा कि सीखना एक क्रमिक और आरोही प्रक्रिया है , यह एक क्रमबद्ध रूप से आगे की ओर बढ़ती जाती है।

 यह बात सभी वैज्ञानिकों ने आगे चलकर मानी।

❄️ जीन पियाजे के अनुसार सीखने के लिए पर्यावरण और कार्य मूल आवश्यकता है।

    अच्छा पर्यावरण तो जरूरी है लेकिन पर्यावरण के साथ-साथ कार्य करना भी उतना ही जरूरी है।

❄️ जीन पियाजे ने कहा जो बच्चा चिंतन करता है या किसी चीज की मन में खोज करता है इसकी यह जो शक्ति है वह अनुवांशिकता, जैविक परिपक्वता और अनुभव के अंत:क्रिया द्वारा निर्धारित होती है।

🧩 जैविक परिपक्वता -:  सब में अनुवांशिकता के गुण रहते हैं लेकिन यह गुण उम्र के साथ ही प्रदर्शित होते हैं ।

जैसे शेशवावस्था में शैशवावस्था वाले गुण प्रदर्शित होंगे ना कि किशोरावस्था वाले गुण दिखेंगे।

तो उचित उम्र आने पर ही उस उम्र के अनुसार गुण प्रदर्शित होंगे।

🧩 अनुभव -:  इस तरह अनुभव भी अलग-अलग समय में अलग-अलग प्रकार से आएगा ।

❄️ पियाजे के अनुसार बालक के अमूर्त चिंतन पर उनकी शिक्षा का प्रभाव होता है।

अगर बालक की शिक्षा निम्न होगी या निम्न स्तर की होगी तो उसका अमूर्त चिंतन भी कम होगा या निम्न स्तर का होगा।

और अगर बालक को उच्च स्तर की शिक्षा मिलेगी तो उसका अमूर्त चिंतन भी उच्च स्तर का होता है।

❄️ पियाजे ने कहा जब बालक 18 वर्ष का हो जाता है या औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था के बाद ही संपूर्ण बौद्धिक शक्ति का विकास होता है।

 और बालक किसी समस्या का समाधान 18 साल के बाद क्रमबद्ध और तार्किक ढंग से कर सकता है।

⚜️ ⚜️  संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत की कमियां ⚜️⚜️

❄️ जीन पियाजे ने बच्चे की क्रियाओं का अवलोकन करके कहा कि यह क्रियाएं व्यक्तिनिष्ठ ज्यादा है वस्तुनिष्ठ कम है।

❄️ पियाजे ने कहा जिस प्रकार हमारे शरीर के अंगों का विकास होता है उसी की तरह ही बुद्धि का विकास धीरे-धीरे होता है यह पूर्ण रूप से सत्य नहीं है।

❄️ जीन पियाजे का यह सिद्धांत मुख्य रूप से संज्ञानात्मक विकास की बात करता है कौशलात्मक / भावनात्मक की व्याख्या नहीं करता।

❄️ जीन पियाजे के संज्ञानात्मक विकास में केवल प्रत्यय ज्ञान की व्याख्या की जाती है जो अधूरा है।

❄️ जीन पियाजे के संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत में संज्ञानात्मक एक विशेष क्रम में होता है यह बात पूर्ण रूप से सत्य नहीं है।

❄️ पियाजे के सिद्धांत के अनुसार संज्ञानात्मक विकास जैविक परिपक्वता के डायरेक्टली प्रोपोर्शनल है लेकिन कई शोध ने इसके विपरीत परिणाम  दिए हैं।

❄️ पियाजे हमेशा कहते हैं कि बच्चा मूर्त अवस्था में तार्किक चिंतन करता है लेकिन कई शोध में बच्चा इससे पहले भी तार्किक चिंतन करता हुआ दिखाई देता है। 

🌸 धन्यवाद 

       वंदना शुक्ला🌸

15/04/2021.        Wednesday 

             LAST CLASSE….

🔥जीन पियाजे के संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाएं (Steps of piaget’s coginitive development )

➖पियाजे के अनुसार संज्ञानात्मक विकास की कुल *4अवस्थाएँ* हैं,जिनके नाम निम्नलिखित हैं-

(1) संवेदी पेशीय अवस्था / इन्द्रिय जनित गामक अवस्था / संवेदी गत्यात्मक अवस्था / संवेगीगात्मक अवस्था(Sensori-mofor stage) – (0-2 वर्ष)

(2) पूर्व संक्रियात्मक अवस्था (Pre-operational stage) –(2-7 वर्ष)

(3) मूर्त संक्रियात्मक अवस्था/ स्थूल संक्रियात्मक अवस्था (concrete – operational stage)-(7-11 वर्ष)

(4) अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था / औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था/ औपचारिक क्रियात्मक अवस्था ( Formal -operatinal stage) –(11-15 वर्ष)

जीन पियाजे के अनुसार संवेदी पेशीय अवस्था को 6 उप अवस्थाओं है…

(1) प्रथम उप-अवस्था सहज क्रियाओं की अवस्था 0-1 माह (Stage I)

(2) द्वितीयउप-अवस्था: प्रमुख वितीय अनुक्रियओ की अवस्था 1-4 माह (Stage II)

(3) गौण वृतीय अनुक्रियओ की अवस्था:–(4-8 माह)

(4) गौण  सिक्मेटा की समन्वय की अवस्था:—(8-12 माह)

(5) तृतीय अनुक्रियओ की अवस्था:–(12-18 माह)

(6) मानसिक सहयोग द्वारा नये साधनों की खोज की अवस्था:—(18-24 माह)

(2) पूर्व संक्रियात्मक /पाक अवस्था (Pre-operational stage) –(2-7 वर्ष)

➖पुर्व संक्रियात्मक अवस्था के दोष.

जीववाद

आत्मकेन्द्रित/ स्व केंद्रित (स्वलिंता)

➖पुर्व संक्रियात्मक अवस्था की 2 उप अवस्थाएँ:–

1 पुर्व संक्रियात्मक अवस्था:–(2-4 वर्ष)

2 अन्तर्दर्शी अवस्था:–(4-7 वर्ष)

(3) मूर्त संक्रियात्मक अवस्था:–(7-11 वर्ष)

(4) अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था (12-18 वर्ष)

           *TODAY CLASS..* 

संज्ञानात्मक विकास की विशेषताए

➖➖➖➖➖➖➖➖➖

➖सीखना एक क्रमिक और आरोही प्रक्रिया है

➖ यह बात संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत में बोली गई है और यह बात सभी मनोवैज्ञानिक ने भी माना है

➖ पियाजे के अनुसार सीखने के लिए *पर्यावरण* की आवश्यकता होती है और *कार्य* करने की भी आवश्यकता होती है

➖ प्याजे ने कहा जो बच्चा चिंतन करता है या जो चीजें जिसके बारे में खोज करता है या उसे जानने की उत्सुकता होती है यह उनकी अनुवांशिक और जैविक परिपक्वता पर भी निर्भर करता है

➖ *जैविक परिपक्वता* :— आप उम्र के साथ बढ़ते हैं जिस हेरेडिटी का *प्रदर्शन बचपन* में करते हैं उसे हेरिडिटी का *प्रदर्शन बड़े* उम्र में तो उन *दोनों में फर्क* होगा और *अनुभव* कई प्रकार से प्रभावित करेगा जो अलग-अलग समय पर अलग लगेगा तो *इन दोनों का अंत:क्रिया* है यह अंत:क्रिया निर्धारित करेगा कि आपकी *चिंतन* कैसी है और *खोज* कैसी होगी

🔥 प्याजे ने कहा बालक के अमूर्त चिंतन पर उसकी शिक्षा प्रभावित करता है

➖ यदि बच्चे की शिक्षा *निम्न प्रकार से हुई तो अमूर्त चिंतन कम* होगा और अगर किसी बच्चे में *उच्च शिक्षा मिले तो उसका अमूर्त चिंतन ज्यादा होगा* 

➖ क्या जी ने बोला कि जब बच्चा 18 साल (अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था) का हो जाता है तो इसके बाद संपूर्ण बौद्धिक शक्ति का विकास होता है

➖ समस्या समाधान 18 साल के बाद क्रमबद और तार्किक ढंग से कर सकते हैं

🧐संज्ञानात्मक विकास की कमियां

➖➖➖➖➖➖➖➖➖

प्याजे ने संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत कुछ बच्चों पर क्रियाओं का अवलोकन का आकलन करके किया और उन्होंने इस को एक जनरिक रूप से बताने की कोशिश की लेकिन सच्चाई यह है कि इनका सिद्धांत *व्यक्तिनिष्ठ है /वस्तुनिष्ठ नहीं 

➖ शरीर के अंगों के तरह बुद्धि का विकास धीरे-धीरे होता है/ *यह पूर्ण रूप से सत्य नहीं है* 

➖ यह सिद्धांत में प्रयोग से संज्ञानात्मक विकास की बात करता है लेकिन संज्ञान से जुड़ी *कौशलआत्मक और भावनात्मक की व्याख्या नहीं करता है* 

➖ संज्ञानात्मक विकास में केवल प्रत्यय ज्ञान की व्याख्या की जाती है

/ जो अधूरा है क्योंकि किसी भी चीज को *जानने* में और *समझने* में *फर्क* होता है

➖ संज्ञानात्मक एक विशेष कर्म में होता है/ यह पूर्ण रूप से सत्य नहीं है

 क्योंकि कई बार आपके अंदर कई गुण आ जाते हैं लेकिन छोटे छोटे गुण  नहीं आई होती है

पियाजे के सिद्धांत के अनुसार आपका जो संज्ञानात्मक विकास है यह आपके जैविक परिपक्वता के परस्पर जुड़ा है /लेकिन कई शोध ने इसके विपरीत परिणाम दिखाएं

➖ इनके अनुसार मूर्त अवस्था में बच्चा तार्किक चिंतन करता है /लेकिन कई शोध में यह बताया कि बच्चा इससे पहले भी तार्किक चिंतन करता है

🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥🔥

Notes by:— ✍संगीता भारती✍

        Thank you 🙏🙏

56. CDP – Learning Theories PART- 12

🌲⚜️🔅संज्ञानात्मक विकास की अवस्था🔅⚜️🌲

⚜️संज्ञानात्मक विकास की चार अवस्थाएं होती हैं

🔅संवेदी पेशिय अवस्था(0-2year)

🔅पूर्व संक्रियात्मक अवस्था(2-7year)

🔅 मूर्त संक्रियात्मक अवस्था(7-11year)

🔅अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था(11-18year)

⚜️🌲संवेदी पेशीय अवस्था/ इंद्रियजनित गामक अवस्था(0-2year)➖️

🌲इसके अंतर्गत 6 प्रकार की अवस्थाएं आती है

🔅इसमें सहज क्रियाओं की अवस्था ( 0-1manth) ➖️  इसमें बच्चे केवल सहज  क्रिया करता है किसी वस्तु को मुंह में लेकर चूसने की प्रक्रिया यह इस अवस्था का प्रमुख भाग होता है

🔅वृत्तीय अनुक्रियाओं की अवस्था  ( 1-4manth )➖️  सहज क्रिया अनुभूति द्वारा कुछ सीमा तक परिवर्तित हो जाता है सहज़ क्रियाओं को दोहराया भी जाता है

 इस क्रियाओं को अनुभूतिऔर सहज़ क्रिया एक दूसरे के साथ जुड़ भी जाती हैं

 इस अनुक्रिया को प्रमुख इसलिए कहा जाता है क्योंकि बच्चे का शरीर मुख्य रूप से अनुक्रिया करता है और अलग-अलग तरह से अनुक्रिया करता है

 इस अवस्था तक बच्चा अपने अनुभव को बिना भय के अवश्य करता है

🔅गौड़ वृत्तीय अनुक्रिया की अवस्था ( 4-8manth ) ➖️वस्तुओं को स्पर्श करना,उनके छूने से बच्चों को सुखद एहसास होना इस अवस्था में प्रारंभ हो जाता है और बच्चे को 6 माह मे बहुत ही सुखद अहसास होने लगता है

 इस व्यवस्था में  बच्चे वस्तुओं को इधर-उधर हिलाने डुलाने लगते हैं

🔅गौड़ स्कीमेटो की समन्वयकीअवस्था(8-12manth )➖️ इस अवस्था में बच्चे उद्देश्य प्राप्त करने का साधन प्राप्त कर लेते हैं

अपनों से बड़ों की क्रियाओं का अनुकरण भी देते हैं जो अपने से बड़े होते हैं वह जो क्रिया करते हैं बच्चा भी उसी प्रकार की क्रिया करने लगता है

स्कीमा  मैं भी रहता है उसका सामान्य करण करने लगता है

🔅मानसिक संयोग द्वारा नई  के खोज की अवस्था(18-24manth)➖️

 देखे हुए वस्तुओं की अनुपस्थिति में भी अस्तित्व समझने लगता है जो वस्तु बच्चा देख लेता है वह  उसे अस्तित्व में समझने लगता है उसकी अनुपस्थिति में अगर वह ना देखे तो उसकी इमेज बनाने लगता है मन में

🌲🔅पूर्व संक्रियात्मक अवस्था /पाक़ संक्रियात्मक अवस्था( 2-7yr)➖️

🔅पाक सम्प्रत्यात्मक अवस्था(2-4yr)➖️ इस अवस्था में बच्चा अपने आसपास की वस्तुओं को और प्राणियों को सभी को पहचानने लगता है अपने विचारों को सही मानने लगता है और वह समझते हैं कि दुनिया उनके इर्द-गिर्द घूमती है वह जो चाहते हैं वही उन्हें अच्छा लगता है इसलिए इस अवस्था को आत्मकेंद्रित की संज्ञा दी गई है

इस अवस्था में बच्चे का जो मन कहता है वह बच्चा वही काम करता है

वह सिर्फ अपने में ही खोया रहता है

🔅अंतरदर्शन की अवस्था(4-7yr)➖️ इस अवस्था में बच्चा भाषा सीखने लगता है

इसमें बच्चा सोचने लगता है चिंतन और तर्क करने लगता है

 गणित की यह जोड़ने घटाने जैसे प्रश्न करने लगता हैं

 6 वर्ष तक बच्चा मूर्त तथ्यों के साथ अमूर्त प्रत्यय का निर्माण  करने लगता है

🌲🔅मूर्त संक्रियात्मक अवस्था(7-11) ➖️इस अवस्था में अधिक व्यवहारवादी या यथार्थवादी हो जाते हैं

बच्चे समस्या समाधान की क्षमता आ जाती है

मूर्त समस्या का समाधान ढूंढने लगता है जो वस्तुओं ने दिखाई देती हैं और जो सामने जो समस्या दिखाई देती है उसका समाधान वह ढूंढ लेते हैं

 अमूर्त नहीं सोच पाते हैं वस्तुओं के गुणों के आधार पर  बांट सकते हैं

चिंतन में क्रम बदलता नहीं होती है

🌲🔅अमूर्त औपचारिक संक्रियात्मक  अवस्था(11-18yr)➖️ इस अवस्था में बच्चे का मस्तिष्क से परिपक्व हो जाता है

इसमें चिंतन में क्रमबद्ध का आ जाती है

 अनुभव के आधार पर समस्या का समाधान करने में सुदृढ़ हो जाते हैं

औपचारिक संप्रत्यय चिंतन की क्षमता आ जाती हैं

Notes by sapna yadav

जीन पियाजे के संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाये

💥💥💥💥💥💥💥💥💥💥

13 april 2021

1.  इंद्रियजनित गामक / संवेदी गामक / संवेदी पेशीय  अवस्था  Sensory motar stage   ( 0 -2) )  वर्ष

2.  पूर्व संक्रियात्मक / पाक् संक्रियात्मक अवस्था   Pre – Operational stage  ( 2 – 7 ) वर्ष 

3.  मूर्त संक्रियात्मक अवस्था    Concrete  Operational stage ( 7 -11 )  वर्ष

4.  अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था  Formal  Operational  ( 11 – 18 )  वर्ष

जीन पियाजे ने अपने संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत को निम्नलिखित  4  अवस्थाओं में वर्गीकृत किया है, जैसे :-

1.🌺   इन्द्रियजनित गामक अवस्था / संवेदी पेशीय अवस्था / संवेदी गामक अवस्था   ( 0 – 2 )  वर्ष

👉इसमें बच्चे मानसिक क्रियाओं को इंद्रियजनित गामक क्रियाओं के रूप में प्रकट करते हैं।

👉शारीरिक रूप से चीजों को इधर-उधर देखना एवं किसी चीज को पकड़ने लगता है।

👉 इस अवस्था की शुरुआत में बच्चा अपने भावों को रोकर व्यक्त करता है।

👉 बच्चे को जो चाहिए होता है वह उसे दिखाकर अपनी बात कहने की कोशिश करता है।

👉शुरुआत में बच्चों के लिए सिर्फ उन वस्तुओं का अस्तित्व होता है जो उनके सामने होतीं हैं ,  धीरे-धीरे 2 वर्ष की समाप्ति होने तक बच्चा उन वस्तुओं के प्रति भी अनुक्रिया करने लगता है जो दिखाई नहीं दे रही हैं।

[ अतः इसी समय बच्चों में वस्तु स्थायित्व  Object permanence   का  गुण आने लगता है। ]

👉चिंतन धीरे-धीरे वास्तविक होने लगता है।

3 – 4 माह तक कोई वस्तु सामने से हटाने पर उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है।

👉अतःवस्तु का सामने न होने पर भी उसका अस्तित्व बना रहता है ,  इसे ही वस्तु स्थायित्व कहते हैं।

🌺🌺  जीन पियाजे के अनुसार संवेदी पेशीय अवस्था की 6 उप –  अवस्थाएं  :-

👉👉 1.सहज क्रियाओं की अवस्था  🙁 जन्म से 30 दिन ) 

इस अवस्था में बच्चे केवल सहज क्रिया करते हैं।

 किसी वस्तु को मुंह में लेकर चूसने की क्रिया इस अवस्था में प्रबल होती है।

 अर्थात इस अवस्था में बच्चों का बनावट स्वरूप नहीं होता है बल्कि उनका सहज / सरल रूप होता है जैसे कि यदि उनको भूख लगी है और वह कितने ही लोगों के बीच में क्यों ना हो पर वह रोएंगे , सोना हो तब भी रोएंगे,  खेलना हो तो खेलने की कोशिश करेंगे।

सहजता में रहेंगे।

👉👉 2. प्रमुख वित्तीय अनुक्रियाओं की अवस्था :- 

(1 – 4 माह )

इस अवस्था में , सहज क्रिया में अनुभूति द्वारा कुछ सीमा तक परिवर्तन होना शुरू हो जाता है।

तथा कई बार सहज क्रियायें बच्चों द्वारा दोहराई भी जाती हैं।

और इस समय अनुभूति और सहज क्रिया एक दूसरे से जुड़ जाती है।

अनुक्रिया को प्रमुख इसलिए कहा जाता है क्योंकि बच्चे का शरीर मुख्य रूप से विभिन्न तरह की अनुक्रिया करता है , इसलिए इन्हें वृत्तीय अनुक्रिया कहा जाता है ।

इस अवस्था तक बच्चा अपने अनुभव को बिना भय के अभिव्यक्त करता है।

 अर्थात इस अवस्था में बच्चों में भय का ज्ञान नहीं होता है।

👉👉 3. गौण वृत्तीय अनुक्रियाओं की अवस्था :- 

 ( 4 – 8 माह )

इस अवस्था में किसी चीज को स्पर्श करना , छूना , पकड़ने की कोशिश करना आदि बच्चों को सुखद एहसास कराता है ।

जैसे- वस्तुओं को छूना , इधर-उधर रखने की कोशिश करना आदि।

👉👉 4. गौण स्किमेटा की समन्वय की अवस्था :-

( 8 – 12 माह )

अब इस अवस्था में बच्चे उद्देश और प्राप्त करने के साधन में अंतर करने लगता है।

 अपने से बड़ों की क्रियाओं का अनुसरण करना सीखने लगते हैं ।

और बच्चों की स्कीमा ( दिमाग ) में जो रहता है उसका सामान्यीकरण करने लगते हैं।

👉👉5.  तृतीय तृतीय अनुक्रियाओं की अवस्था :-

( 12 – 18 माह)

इस अवस्था में बच्चे वस्तुओं के गुणों को ‘ प्रयास और त्रुटि ‘  द्वारा सीखते हैं।

 अर्थात वह कुछ भी खेलने , खाने के लिए आदि प्रयास करते हैं, गलती करते हैं और सीखते हैं।

👉👉 6.  मानसिक सहयोग द्वारा नए साधनों की खोज की अवस्था :-

( 18 – 24 माह)

 इस अवस्था में बच्चा देखी गई वस्तु की अनुपस्थिति में भी अस्तित्व समझने लगता है ।

अतः 2 साल तक बच्चों में वस्तु स्थायित्व पूरी तरह से आ जाता है , जो कि जीवन भर चलता है अर्थात 2 साल से जीवन भर प्रदर्शित करते रहते हैं।

2.🌺  पूर्व / पाक् संक्रियात्मक अवस्था    ( 2 – 7 )  वर्ष

👉भाषा का विकास ठीक से प्रारंभ हो जाता है।

👉अभिव्यक्ति का माध्यम भाषा बन जाती है।

👉वस्तुओं को पहचाने लगता है।

👉बच्चा इस उम्र में वस्तुओं में विभेद करना सीख जाता है।

👉5 वर्ष तक यह संप्रत्यय निर्माण अधूरा रहता है।

👉इस अवस्था के प्रारंभ में तो नहीं परंतु , समाप्त होने तक बच्चा सजीव – निर्जीव में विभेद करने लगता है।

🍁  पूर्व संक्रियात्मक अवस्था के दोष  :-

1.🌲   जीववाद  :-

इसमें बच्चा निर्जीव को सजीव समझने लगता है।

2.🌲   आत्मकेंद्रित / स्व-केंद्रित ( स्वलीनता )  :-

सिर्फ अपने विचारों / बातों को ही सत्य मानता है।

🍁 2 – 4 वर्ष की अवधि में,  बच्चों में यह दोष आने लगता है।

🍁 4 – 7  वर्ष में  चिंतन / तर्क ,  पहले ये अधिक परिपक्व हो जाता है।

इस अवस्था के दौरान बच्चों में भाषा विकास भी प्रारंभ हो जाता है ।

इस अवस्था में बालक नयी सूचना और अनुभवों को ग्रहण करता है।

 वस्तु स्थायित्व का गुण विकसित हो जा जाता है।

विकास के  इस चरण के दौरान छोटे बच्चे मानसिक प्रतीकों को उपयोग करके अपने वातावरण का विश्लेषण करना शुरू करते हैं , 

इन प्रतीकों में अक्सर ‘ शब्द और चित्र ‘ शामिल होते हैं। 

इस अवस्था में बच्चे विशिष्ट संगठनात्मक कार्यों को लागू करने में सक्षम बनने लगते हैं।

🍂🍂 पूर्व संक्रियात्मक अवस्था की 2 उप- अवस्थाएं :-

👉 1. पाक् / पूर्व संक्रियात्मक अवस्था :-  2 -4 वर्ष

किस अवस्था में बच्चा अपने आसपास के वातावरण , वस्तु , प्राणी , शब्द आदी में संबंध समझने लगता है। 

बच्चे अनुकरण और खेल के द्वारा सीखना शुरू कर देते हैं।

अतः इस अवस्था के तहत जीन पियाजे जी ने कहा कि-  इस अवस्था मे बच्चे सभी निर्जीव तथ्यों/ वस्तुओं को सजीव समझता है।

 🌷 अतः इसे जीन पियाजे ने  :-

‘ जीववाद ‘  की संज्ञा दी है ।

इस समय बच्चे अपने विचारों को सही मानते हैं।

 कि दुनिया उनके इर्द-गिर्द ही घूमती है ।

इसलिए इसे :-

🌷  ‘ आत्मकेंद्रित / स्व – केंद्रित  ‘  🌷

की भी संज्ञा दी गई है।

👉 2.  अंतर्दशी अवस्था  :-  4 – 7 वर्ष

इस अवस्था में बच्चा भाषा सीखने लगता है।

 और अपने चिंतन / तर्क से सोचने लगता है। 

परन्तु उनका इतना ज्ञान विकसित नहीं होता है कि –

2 × 3 = 6  प्राप्त होता है पर

3 + 3 जोड़ने पर भी   6    ही आता है।

इस अवस्था के अंत तक बच्चे मूर्त प्रत्ययों के साथ-साथ अमूर्त प्रत्ययों का भी निर्माण करने लगते हैं।

3.  🌺 मूर्त संक्रियात्मक अवस्था :-  7 – 11 वर्ष

इस अवस्था में बच्चे अधिक व्यवहारवादी और यथार्थवादी बनने लगते हैं।

समस्या समाधान की क्षमता विकसित होने लगती है।

मूर्त समस्या पर तो विशेष ध्यान देने लगते हैं पर अमूर्त  समस्या पर नहीं।

वस्तुओं को पहचानना , विभेद करना , वर्गीकृत करना तथा वस्तुओं के गुणों के आधार पर बांटना  सीखने लगते हैं।

ठोस वस्तु के आधार पर मानसिक क्रिया होती है।

समस्या समाधान का अमूर्त रूप विकसित नहीं होता है।

☘️☘️ मूर्त संक्रियात्मक अवस्था का दोष :-

इस अवस्था में अमूर्त सोच स्पष्ट रूप से विकसित नहीं हो पाती है तथा चिंतन में भी क्रमबद्धता नहीं आ पाती है।

4.🌺  अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था   ( 12 – 18 ) वर्ष 

👉 अब बच्चे का मस्तिष्क  परिपक्व होने लगता है।

👉चिंतन लचीला और प्रभावी हो जाता है।

👉चिंतन में वक्रमबद्धता आने लगती  है।

👉समस्या समाधान काल्पनिक रूप से सोचकर , चिंतन करके , कर सकता है।

👉चिंतन वास्तविक हो जाता है।

👉 अनुभव एवं समस्या समाधान सुदृढ़ होने लगता है।

👉 औपचारिक संप्रत्यय चिंतन विकसित होने लगता है।

👉 प्रतीकात्मक शब्द  रूपक , उपमान आदि में अंतर और  अर्थ समझने लगते हैं।

👉 अमूर्त समस्या समाधान विकसित हो जाता है।

👉बालकों में विकेंद्रीकरण पूर्णतः विकसित हो जाता है। हालांकि यह अनुभव और शिक्षा पर निर्भर करता है।

🌻✒️ Notes by – जूही श्रीवास्तव ✒️🌻

जीन पियाजे के संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाये

🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸

🟢 इंद्रियजनित गामक / संवेदी गामक / संवेदी पेशीय  अवस्था  Sensory motar stage   ( 0 -2) )  वर्ष

🟢 पूर्व संक्रियात्मक / पाक् संक्रियात्मक अवस्था   Pre – Operational stage  ( 2 – 7 ) वर्ष 

🟢मूर्त संक्रियात्मक अवस्था    Concrete  Operational stage ( 7 -11 )  वर्ष

🟢अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था  Formal  Operational  ( 11 – 18 )  वर्ष

जीन पियाजे ने अपने संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत को निम्नलिखित  4  अवस्थाओं में वर्गीकृत किया है, जैसे :-

🟢 इन्द्रियजनित गामक अवस्था / संवेदी पेशीय अवस्था / संवेदी गामक अवस्था   ( 0 – 2 )  वर्ष

🌸इसमें बच्चे मानसिक क्रियाओं को इंद्रियजनित गामक क्रियाओं के रूप में प्रकट करते हैं।

🌸शारीरिक रूप से चीजों को इधर-उधर देखना एवं किसी चीज को पकड़ने लगता है।

🌸 इस अवस्था की शुरुआत में बच्चा अपने भावों को रोकर व्यक्त करता है।

🌸बच्चे को जो चाहिए होता है वह उसे दिखाकर अपनी बात कहने की कोशिश करता है।

🌸शुरुआत में बच्चों के लिए सिर्फ उन वस्तुओं का अस्तित्व होता है जो उनके सामने होतीं हैं ,  धीरे-धीरे 2 वर्ष की समाप्ति होने तक बच्चा उन वस्तुओं के प्रति भी अनुक्रिया करने लगता है जो दिखाई नहीं दे रही हैं।

अतः इसी समय बच्चों में वस्तु स्थायित्व  Object permanence   का  गुण आने लगता है। ]

👉चिंतन धीरे-धीरे वास्तविक होने लगता है।

3 – 4 माह तक कोई वस्तु सामने से हटाने पर उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है।

👉अतःवस्तु का सामने न होने पर भी उसका अस्तित्व बना रहता है ,  इसे ही वस्तु स्थायित्व कहते हैं।

🟢 जीन पियाजे के अनुसार संवेदी पेशीय अवस्था की 6 उप –  अवस्थाएं  ।

🟢सहज क्रियाओं की अवस्था  🙁 जन्म से 30 दिन ) 

इस अवस्था में बच्चे केवल सहज क्रिया करते हैं।

 किसी वस्तु को मुंह में लेकर चूसने की क्रिया इस अवस्था में प्रबल होती है।

 अर्थात इस अवस्था में बच्चों का बनावट स्वरूप नहीं होता है बल्कि उनका सहज / सरल रूप होता है जैसे कि यदि उनको भूख लगी है और वह कितने ही लोगों के बीच में क्यों ना हो पर वह रोएंगे , सोना हो तब भी रोएंगे,  खेलना हो तो खेलने की कोशिश करेंगे।

सहजता में रहेंगे।

🟢प्रमुख वित्तीय अनुक्रियाओं की अवस्था :- 

(1 – 4 माह )

इस अवस्था में , सहज क्रिया में अनुभूति द्वारा कुछ सीमा तक परिवर्तन होना शुरू हो जाता है।

तथा कई बार सहज क्रियायें बच्चों द्वारा दोहराई भी जाती हैं।

और इस समय अनुभूति और सहज क्रिया एक दूसरे से जुड़ जाती है।

अनुक्रिया को प्रमुख इसलिए कहा जाता है क्योंकि बच्चे का शरीर मुख्य रूप से विभिन्न तरह की अनुक्रिया करता है , इसलिए इन्हें वृत्तीय अनुक्रिया कहा जाता है ।

इस अवस्था तक बच्चा अपने अनुभव को बिना भय के अभिव्यक्त करता है।

 अर्थात इस अवस्था में बच्चों में भय का ज्ञान नहीं होता है।

🟢गौण वृत्तीय अनुक्रियाओं की अवस्था :- 

 ( 4 – 8 माह )

इस अवस्था में किसी चीज को स्पर्श करना , छूना , पकड़ने की कोशिश करना आदि बच्चों को सुखद एहसास कराता है ।

जैसे- वस्तुओं को छूना , इधर-उधर रखने की कोशिश करना आदि।

🟢. गौण स्किमेटा की समन्वय की अवस्था :-

( 8 – 12 माह )

अब इस अवस्था में बच्चे उद्देश और प्राप्त करने के साधन में अंतर करने लगता है।

 अपने से बड़ों की क्रियाओं का अनुसरण करना सीखने लगते हैं ।

और बच्चों की स्कीमा ( दिमाग ) में जो रहता है उसका सामान्यीकरण करने लगते हैं।

🟢.  तृतीय तृतीय अनुक्रियाओं की अवस्था :-

( 12 – 18 माह)

इस अवस्था में बच्चे वस्तुओं के गुणों को ‘ प्रयास और त्रुटि ‘  द्वारा सीखते हैं।

 अर्थात वह कुछ भी खेलने , खाने के लिए आदि प्रयास करते हैं, गलती करते हैं और सीखते हैं।

🟢.  मानसिक सहयोग द्वारा नए साधनों की खोज की अवस्था :-

( 18 – 24 माह)

 इस अवस्था में बच्चा देखी गई वस्तु की अनुपस्थिति में भी अस्तित्व समझने लगता है ।

अतः 2 साल तक बच्चों में वस्तु स्थायित्व पूरी तरह से आ जाता है , जो कि जीवन भर चलता है अर्थात 2 साल से जीवन भर प्रदर्शित करते रहते हैं।

🟢 पूर्व / पाक् संक्रियात्मक अवस्था    ( 2 – 7 )  वर्ष

🌸भाषा का विकास ठीक से प्रारंभ हो जाता है।

🌸अभिव्यक्ति का माध्यम भाषा बन जाती है।

🌸वस्तुओं को पहचाने लगता है।

🌸बच्चा इस उम्र में वस्तुओं में विभेद करना सीख जाता है।

🌸5 वर्ष तक यह संप्रत्यय निर्माण अधूरा रहता है।

इस अवस्था के प्रारंभ में तो नहीं परंतु , समाप्त होने तक बच्चा सजीव – निर्जीव में विभेद करने लगता है।

🟢पूर्व संक्रियात्मक अवस्था के दोष  :-

🟢 जीववाद  :-

इसमें बच्चा निर्जीव को सजीव समझने लगता है।

🟢आत्मकेंद्रित / स्व-केंद्रित ( स्वलीनता )  :-

सिर्फ अपने विचारों / बातों को ही सत्य मानता है।

🟢 2 – 4 वर्ष की अवधि में,  बच्चों में यह दोष आने लगता है।

🌸 4 – 7  वर्ष में  चिंतन / तर्क ,  पहले ये अधिक परिपक्व हो जाता है।

 विकास भी प्रारंभ हो जाता है ।

इस अवस्था में बालक नयी सूचना और अनुभवों को ग्रहण करता है।

 वस्तु स्थायित्व का गुण विकसित हो जा जाता है।

विकास के  इस चरण के दौरान छोटे बच्चे मानसिक प्रतीकों को उपयोग करके अपने वातावरण का विश्लेषण करना शुरू करते हैं , 

इन प्रतीकों में अक्सर ‘ शब्द और चित्र ‘ शामिल होते हैं। 

इस अवस्था में बच्चे विशिष्ट संगठनात्मक कार्यों को लागू करने में सक्षम बनने लगते हैं।

🌸🌸पूर्व संक्रियात्मक अवस्था की 2 उप- अवस्थाएं :-🌸🌸🌸

🟢 पाक् / पूर्व संक्रियात्मक अवस्था :-  2 -4 वर्ष

किस अवस्था में बच्चा अपने आसपास के वातावरण , वस्तु , प्राणी , शब्द आदी में संबंध समझने लगता है। 

बच्चे अनुकरण और खेल के द्वारा सीखना शुरू कर देते हैं।

अतः इस अवस्था के तहत जीन पियाजे जी ने कहा कि-  इस अवस्था मे बच्चे सभी निर्जीव तथ्यों/ वस्तुओं को सजीव समझता है।

🌸अतः इसे जीन पियाजे ने  :-

‘ जीववाद ‘  की संज्ञा दी है ।

इस समय बच्चे अपने विचारों को सही मानते हैं।

कि दुनिया उनके इर्द-गिर्द ही घूमती है। 

     👉🏻इसलिए इसे :-

🌸’ आत्मकेंद्रित / स्व – केंद्रित

की भी संज्ञा दी गई है।

🟢.  अंतर्दशी अवस्था  :-  4 – 7 वर्ष

इस अवस्था में बच्चा भाषा सीखने लगता है।

 और अपने चिंतन / तर्क से सोचने लगता है। 

         परन्तु उनका इतना ज्ञान विकसित नहीं होता है कि –

2 × 3 = 6  प्राप्त होता है पर

3 + 3 जोड़ने पर भी6 ही आता है।

इस अवस्था के अंत तक बच्चे मूर्त प्रत्ययों के साथ-साथ अमूर्त प्रत्ययों का भी निर्माण करने लगते हैं।

🟢मूर्त संक्रियात्मक अवस्था :-  7 – 11 वर्ष

इस अवस्था में बच्चे अधिक व्यवहारवादी और यथार्थवादी बनने लगते हैं।

समस्या समाधान की क्षमता विकसित होने लगती है।

मूर्त समस्या पर तो विशेष ध्यान देने लगते हैं पर अमूर्त  समस्या पर नहीं।

वस्तुओं को पहचानना , विभेद करना , वर्गीकृत करना तथा वस्तुओं के गुणों के आधार पर बांटना  सीखने लगते हैं।

ठोस वस्तु के आधार पर मानसिक क्रिया होती है।

👉🏻समस्या समाधान का अमूर्त रूप विकसित नहीं होता है।

🟢मूर्त संक्रियात्मक अवस्था का दोष :-

इस अवस्था में अमूर्त सोच स्पष्ट रूप से विकसित नहीं हो पाती है तथा चिंतन में भी क्रमबद्धता नहीं आ पाती है।

🟢 अमूर्त संक्रियात्मक अवस्था   ( 12 – 18 ) वर्ष 

🌸 अब बच्चे का मस्तिष्क  परिपक्व होने लगता है।

🌸चिंतन लचीला और प्रभावी हो जाता है।

🌸चिंतन में वक्रमबद्धता आने लगती  है।

🌸समस्या समाधान काल्पनिक रूप से सोचकर , चिंतन करके , कर सकता है।

🌸चिंतन वास्तविक हो जाता है।

🌸 अनुभव एवं समस्या समाधान सुदृढ़ होने लगता है।

🌸औपचारिक संप्रत्यय चिंतन विकसित होने लगता है।

🌸प्रतीकात्मक शब्द  रूपक , उपमान आदि में अंतर और  अर्थ समझने लगते हैं।

🌸अमूर्त समस्या समाधान विकसित हो जाता है।

🌸बालकों में विकेंद्रीकरण पूर्णतः विकसित हो जाता है। हालांकि यह अनुभव और शिक्षा पर निर्भर करता है।

 Notes by shikha tripathi

55. CDP – Learning Theories PART- 11

12/04/2021.            Monday  

             TODAY CLASSE….

      संज्ञानात्मक विकास के संप्रत्यय

      ➖➖➖➖➖➖➖➖

 ➖ *संरक्षण*

:— वातावरण में परिवर्तन कथा स्थिरता को  पहचानने की और समझने की क्षमता संरक्षण है।

 ➖ वस्तु के तहत स्वरूप में परिवर्तन होता है

➖ और वस्तु के तत्व में परिवर्तन से अलग करने की क्षमता को संरक्षण कहते हैं

 ➖ *संज्ञानात्मक संरचना*

:— संज्ञानात्मक संरचना से तात्पर्य बालक के मानसिक संरचना से है

➖ *मानसिक संक्रिया/ प्रक्रिया*

 इसका तात्पर्य बच्चों द्वारा किए गए समस्या का समाधान पर चिंतन करना मानसिक संक्रिया करना माना जाता है

➖ *स्कीम्स( पैटर्न)*

बच्चों द्वारा व्यवहार के संगठित पैटर्न जिसको आसानी से दोहराया जा सके वही संगठित पैटर्न स्कीम्स कहलाता है

जैसे:— कार चलाने की के लिए कार्य स्टार्ट करना गियर लगाना स्पीड देना आदि।

➖ *स्कीमा/( मानसिक संरचना)*

स्कीमा मानसिक संरचना है जिसका सामान्य करण किया जा सके।

➖ *विकेंद्रीकरण*

किसी भी वस्तु या चीज के बारे में वस्तुनिष्ट या वास्तविक ढंग से सोचने की क्षमता विकेंद्रीकरण कहलाती है।प्रारंभ में बालक ऐसा नहीं सोचता परंतु 2 साल का होते होते हो वस्तु के बारे में वास्तविक ढंग से सोचने लगता है।

🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳

Notes by:—✍ संगीता भारती✍

                    🙏🙏

संज्ञानात्मक विकास के संप्रत्यय

🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸

 🌸संरक्षण

वातावरण में परिवर्तन कथा स्थिरता को  पहचानने की और समझने की क्षमता संरक्षण है।

 👉🏻वस्तु के तहत स्वरूप में परिवर्तन होता है।

👉🏻और वस्तु के तत्व में परिवर्तन से अलग करने की क्षमता को संरक्षण कहते हैं

 🟢संज्ञानात्मक संरचना÷

संज्ञानात्मक संरचना से तात्पर्य बालक के मानसिक संरचना से है।

🟢मानसिक संक्रिया/ प्रक्रिया÷

 इसका तात्पर्य बच्चों द्वारा किए गए समस्या का समाधान पर चिंतन करना मानसिक संक्रिया करना माना जाता है

🟢स्कीम्स( पैटर्न)÷

बच्चों द्वारा व्यवहार के संगठित पैटर्न जिसको आसानी से दोहराया जा सके वही संगठित पैटर्न स्कीम्स कहलाता है

जैसे:— कार चलाने की के लिए कार्य स्टार्ट करना गियर लगाना स्पीड देना आदि।

🟢स्कीमा/( मानसिक संरचना)

स्कीमा मानसिक संरचना है जिसका सामान्य करण किया जा सके।

🟢विकेंद्रीकरण÷

किसी भी वस्तु या चीज के बारे में वस्तुनिष्ट या वास्तविक ढंग से सोचने की क्षमता विकेंद्रीकरण कहलाती है।प्रारंभ में बालक ऐसा नहीं सोचता परंतु 2 साल का होते होते हो वस्तु के बारे में वास्तविक ढंग से सोचने लगता है।

Notes by shikha tripathi

संज्ञानात्मक विकास के संप्रत्यय

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12 April 2021 

🌲🌺  अनुकूलन ( अपनाना )  is Adaptation  :-

बालकों में वातावरण / अपने परिवेश के साथ सामंजस करने की जन्मजात प्रवृत्ति ही “अनुकूलन ” कहलाती है।

🌷 अनुकूलन के निम्नलिखित दो प्रकार हैं :-

1.  आत्मसात्करण

2.  समायोजन 

🌲    आत्मसात्करण ( पूर्व ज्ञान )  Assimilation  :-

किसी भी समस्या समाधान के लिए पहले सीखी हुई योजना का मानसिक प्रक्रिया में सहारा लेना ही,                ‘ आत्मसात्करण ‘ होता है ।

        अतः जब बालक समस्या समाधान के लिए या वातावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करने के लिए ” पूर्व में सीखी हुई क्रियाओं या ज्ञान”  का सहारा लेता है, 

इसे ही “आत्मसात्करण” कहते हैं।

[पूर्व में सीखे हुये ज्ञान / तरीकों का सहारा ही  ‘आत्मसात्करण’ है। ]

  जैसे कि छोटे बच्चे एक बार सीढ़ियों पर या  थोड़ी सी कोई ऊंचाई पर चढ़ने के लिए किसी कुर्सी आदि का सहारा लेते हैं तो वह उनके संज्ञान में निश्चित रूप से विद्यमान हो जाता है और यही, यदि वह किसी अन्य जगह किसी और समय में  सीढ़ी/ थोड़ी सी ऊंचाई पर चढ़ने के लिए कोशिश करते हैं तो वह अपना पुराना संज्ञान याद करते हैं यानी कि वह खोजते हैं कि उन्हें कोई कुर्सी या कोई ऐसी वस्तु मिल जाए जिससे वह उस ऊंचाई पर चढ़ सके ,  यही होता है आत्मसात्करण,  यानी कि किसी भी वातावरण में या किसी भी परिस्थिति में अपने पहले सीखे हुए ज्ञान / अनुभव को दूसरे कार्यों में भी लगाना।

🌺🌲  समायोजन /सामंजस्य ( योजना व्यवहार परिवर्तन )  Accommodation  :-

  यदि पहले सीखी हुई योजना,  तरीका या मानसिक प्रक्रिया से काम नहीं चल पाता है तो व्यक्ति इस स्थिति में अपने वातावरण के साथ समायोजन / सामंजस्य करता है।  यही समायोजन है।

      पूर्व में सीखी हुई क्रिया हमेशा काम नहीं आती,अतः यहां अपनी योजनाओं, व्यवहार में परिवर्तन से नए वातावरण में सामंजस्य स्थापित करते हैं, इसे ही समायोजन Adjustment कहते हैं।

 अतः जीन पियाजे कहते हैं कि बालक को आत्मसात्करण और समायोजन के बीच संतुलन करना अति आवश्यक होता है।

जब किसी व्यक्ति और उसके पर्यावरण के बीच संबंध,  स्थापित मानदंडों के अनुसार होता है तो उस संबंध को सामान्य समायोजन माना जाता है ।

एक बच्चा जो अपने माता-पिता का पालन करता है , जो अनावश्यक जिद्दी नहीं है , जो नियमित रूप से पढ़ते हैं आदि साफ आदत को समायोजित माना जाता है।

🌷  साम्यधारण  Equilibrium   :-

साम्यधारण में बच्चा “आत्मसात्करण”  और  “समायोजन” के बीच संतुलन स्थापित करता है।

नई समस्याओं ➡️ संज्ञानात्मक असंतुलन

समायोजन ➡️ आत्मसात्करण➡️ समाधान

अर्थात जब बच्चे आत्मसात्करण और समायोजन की स्थितियों में संतुलन बना लेते हैं तब वह साम्यधारण की स्थिति में पहुंच जाते हैं।

इस तरह से साम्यधारण एक तरह की आत्म – नियंत्रक प्रक्रिया है।

🌷  संरक्षण   Protection  :-

वातावरण में परिवर्तन तथा स्थिरता को पहचानने और समझने की क्षमता ही संरक्षण कहलाता है।

   वस्तु के तहत , स्वरूप में परिवर्तन होता है और वस्तु के तत्व में परिवर्तन से अलग करने की क्षमता को संरक्षण कहते हैं।

🌷  संज्ञानात्मक / मानसिक संरचना

Cognitive/ Mental Structure  :-

संज्ञानात्मक/ मानसिक संरचना में मानसिक संगठन और मानसिक क्षमता को महत्वपूर्ण माना जाता है।

[ मानसिक “संगठन”   +   मानसिक “क्षमता”  ]

🌷  मानसिक संक्रिया  Mental Operation  :-

किसी भी समस्या के समाधान पर चिंतन मानसिक संक्रिया करना ही माना जाता है। 

मानसिक संक्रिया अर्थात दिमाग से सोचना/ दिमाग लगाना

 🌷  स्कीम्स ( पैटर्न)  Schems   :-

व्यवहार के संगठित पैटर्न , जिसको आसानी से दोहराया जा सके वही संगठित पैटर्न  ” स्कीम्स ”  कहलाता है।

अतः स्कीम्स मानसिक संक्रिया की अभिव्यक्ति होती है।

🌷  स्कीमा   Scheme   :-

स्कीमा एक मानसिक संरचना है जिसका सामान्यीकरण  करना ही ” स्कीमा ”  कहलाता है।

🌷  विकेंद्रीकरण  Decentralization   :-

किसी भी वस्तु या चीज के बारे में वास्तविक / वस्तुनिष्ठ ढंग से सोचने की क्षमता ही “विकेंद्रीकरण ”  कहलाती है।

     प्रारंभ में बालक ऐसा सोचता है परंतु 2 साल का होते –  होते वह वस्तु के बारे में वास्तविक ढंग से सोचने लगता है।

🌺✒️ Notes by – जूही श्रीवास्तव ✒️🌺