संज्ञान का अर्थ 

संज्ञान का अर्थ उन सारीमानसिक क्रियाओं से है जिसका सम्बन्ध चिंतन ,समस्या समाधान, भाषा सम्प्रेषण तथा और भी बहुत सारे मानसिक क्रियाओं से है .

निस्सर के अनुसार -“संज्ञान संवेदी सूचनाओं (Sensory Information) को ग्रहण करके उसका रूपांतरण,विस्तारण,संग्रहण,पुनर्लाभ तथा इसके समुचित प्रयोग करने से होता है .”

                                      परिचय 

डॉ. जीन पियाजे (१८९६ -१९८० ) एक मनोवैज्ञानिक थे और मूल रूप से एक प्राणी विज्ञानं के विद्वान् थे .उनके कार्यो ने उन्हें एक मनोवैज्ञानिक के रूप में प्रसिद्धी दिलवाई थी .जीन पियाजे संज्ञानात्मक विकास के क्षेत्र में कार्य करने वाले मनोवैज्ञानिकों में सर्वाधिक प्रभावशाली माने जाते है .पियाजे का जन्म 9 अगस्त सन 1896 को स्विट्जरलैंड में हुआ था .उन्होंने जंतु विज्ञान में पीएचडी की उपाधि धारण की .मनोविज्ञान के प्रशिक्षण के दौरान वे अल्फ्रेड बिने के प्रयोगशाला में बुद्धि-परिक्षण पर जब कार्य कर रहे थे .उसी समय उन्होंने विभिन्न आयु के बच्चों के द्वारा चारो ओर के बाह्य जगत के बारे में ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया का अध्ययन करना शुरू कर दिया उनकी 1923 से 1932 के बीच पांच पुस्तके प्रकाशित हुई जिनमे उन्होंने संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत का प्रतिपादन किया .पियाजे के सिद्धांत की प्रमुख मान्यता यह है कि बालक के ज्ञान के विकास में वह खुद एक सक्रिय साझेदार की भूमिका अदा करता है और वह धीरे-धीरे वास्तविकता के रूप को समझाने लगता है .

      पियाजे ने बुद्धि के विषय में अपना तर्क दिया कि बुद्धि जन्म जात नहीं होती है .उन्होंने इससे पूर्व में प्रचलित कारक का कि बुद्धि जन्मजात होती है का खंडन किया .जैसे-जैसे बालक की आयु बढ़ती है वैसे-वैसे उसका कार्य क्षेत्र भी बढ़ता है और बुद्धि का विकास भी संभव होता है .प्रारम्भ में बच्चा केवल सरल संप्रत्ययो को ही सीखता है और जैसे-जैसे उसका अनुभव बढ़ता है बुद्धि का विकास होता है,आयु बढ़ती है वैसे-वैसे वह जटिल संप्रत्ययों को भी सीखता है .

      जीन पियाजे का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत 

संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत मानव बुद्धि की प्रकृति एवं उसके विकास से सम्बंधित एक विशद सिद्धांत है .पियाजे का मानना था कि व्यक्ति के विकास में उसका बचपन एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है .पियाजे का सिद्धांत ‘विकासी अवस्था सिद्धांत कहलाता है .यह सिद्धांत ज्ञान की प्रकृति के बारे में है और बतलाता है कि मानव कैसे ज्ञान क्रमशः इसका अर्जन करता है,कैसे इसे एक-एक कर जोड़ता है और कैसे इसका उपयोग करता है .

      व्यक्ति वातावरण के तत्वों का प्रत्यक्षीकरण करता है .अर्थात पहचानता है,प्रतीकों की सहायता से उन्हें समझाने की कोशिश करता है तथा सम्बंधित वास्तु/व्यक्ति के सन्दर्भ में अमूर्त चिंतन करता है .उक्त सभी प्रक्रियाओं से मिलकर उसके भीतर एक ज्ञान भण्डार या संज्ञानात्मक संरचना उसके व्यवहार को निर्देशित करती .इस प्रकार हम कह सकते है कि कोई भी प्रकार के उद्दीपकों से प्रभावित होकर सीधे प्रतिक्रिया नहीं करता ,पहले वह उन उद्दीपकों को पहचानता है,ग्रहण करता है,उसकी व्याख्या करता है .इस प्रकार हम कह सकते है कि संज्ञानात्मक संरचना वातावरण में उपस्थित उद्दीपकों और व्यवहार के बीच मध्यस्थता का कार्य करता है .

      जीन पियाजे ने व्यापक स्तर पर संज्ञानात्मक विकास का अध्ययन किया. पियाजे के अनुसार बालक द्वारा अर्जित ज्ञान के भण्डार का स्वरूप विकास की प्रत्येक अवस्था में बदलता है और परिमार्जित होता रहता है .पियाजे के संज्ञानात्मक सिद्धांत को विकासात्मक सिद्धांत भी कहा जाता है .चूँकि उनके अनुसार ,बालक के भीतर संज्ञान का विकास अनेक अवस्थाओं से होकर गुजरता है, इसलिए इसे अवस्था सिद्धांत भी कहा जाता है .

       पियाजे के संज्ञानात्मक विकास सिद्धांत के पद 

पियाजे ने अपने संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत में दो पदों का उपयोग करते है .संगठन और अनुकूलन .हालाँकि एन पदों के अलावा भी पियाजे ने कुछ अन्य पदों का प्रयोग अपने संग्यांत्मक विकास में किया है .

1.संगठन ( Organization) संगठन से तात्पर्य प्रत्याक्षिकृत तथा बौद्धिक सूचनाओं को सही तरीके से बौद्धिक संरचनाओं में व्यवस्थित करने से है जो इसे वाह्य वातावरण के साथ समायोजन करने में उसके कार्यों को संगठित करता है .व्यक्ति मिलने वाली नयी सूचनाओं को पूर्व निर्मित संरचनाओं के साथ संगठित करने की कोशिश करता है,परन्तु कभी-कभी इस कार्य में सफल नहीं हो पाता है,तब वह अनुकूलन करता है .

2.अनुकूलन (Adaptation) पियाजे के अनुसार अनुकूलन वह प्रक्रिया है जिसमे बालक अपने को बाहरी वातावरण के साथ समायोजन करने की कोशिश करता है .यह एक जन्मजात,प्रवृत्ति है जिसके अंतर्गत दो प्रक्रियाएं सम्मिलित है .

आत्मसातीकरण (Assimilation) मूल रूप से आत्मसातीकरण एक नयी वास्तु अथवा घटना को वर्तमान अनुभवों में सम्मिलित करने की प्रक्रिया है .उदहारण के लिय यदि एक बालक के हाथ में टॉफी रख दिया जाता है तो वह तुरंत मुह में डाल देता है .क्योंकि उसे यह पता है कि टॉफी एक खाद्य वास्तु है .यहाँ बालक ने अनुकूलन के द्वारा खाने की क्रिया को आत्मसात कर रहा है .अर्थात पुरानी बौद्धिक क्रिया को नवीन क्रिया के साथ समायोजित करता है .अनुकूलन की यह प्रक्रिया जीवन पर्यंत चलती रहती है .

      जीन पियाजे के शब्दों में “नए अनुभव का आत्मसात कारण करने के लिए अनुभव के स्वरूप में परिवर्तन लाना पड़ता है .जिसे वह पुराने अनुभव के साथ मिलाजुलाकर संज्ञान के एक नए ढांचे को पैदा करना पड़ता है .इससे बालक के नए अनुभवों में परिवर्तन होते है .

समाविष्टिकरण /समंजन (Accommodation) समाविष्टिकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जो पूर्व में सीखी योजना या मानसिक प्रिक्रियाओं से काम न चलने पर समंजन के लिए ही की जाती है .पियाजे कहते है कि बालक आत्मसात्करण और समाविशितिकरण की प्रक्रियाओं के बीच संतुलन कायम करता है .जिससे वह वातावरण के साथ समायोजन कर सके .उदहारण के लिए जब बालक को टॉफी के स्थान पर रसगुल्ला देते है तो बालक यह जानता है,टॉफी मीठी होती है पर वह अपने मानसिक संरचना में परिवर्तन लाता है ,और इसमे नयी बातें जोड़ता है कि टॉफी और रसगुल्ले दोनों अलग-अलग खाद्य पदार्थ है जबकि दोनों का स्वाद मीठा है .

      आत्मसातीकरण तथा समविश्तिकरण तभी संभव है जब वातावरण के उद्दीपक बालक के बौद्धिक स्तर के अनुरूप होते है .

      समविश्तिकरण को आत्मसातीकरण की एक पूरक प्रक्रिया माना जाता है .बालक अपने वातावरण या परिवेश के साथ समायोजित होने के लिए सहारा अवस्यकतानुसार लेते है .

3.स्किमेता (Schemata) पियाजे के अनुसार अनुभव या व्यवहार को संगठित करने की ज्ञानात्मक संरचना को सकीमेटा कहते है .एक नवजात शिशु में सकीमेटा एक सहज प्रक्रिया है,जैसे शिशु की चूसने की प्रक्रिया बच्चा जैसे ही बाहरी दुनिया के साथ अंत-क्रिया करना प्रारम्भ करता है ,इन सकीमेटा में परिवर्तन तेजी से होना शुरू हो जाता है .सकीमेटा के सहारे बच्चा धीरे-धीरे समस्या समाधान के नियम तथा वर्गीकरण करना सीख लेता है .इस तरह सकीमेटा का सम्बन्ध मानसिक संक्रिया से है .

4.संज्ञानात्मक सरंचना (Cognitive Structure) पियाजे ने मानसिक योग्यताओं के सेट को संज्ञानात्मक संरचना की संज्ञा दी है .भिन्न-भिन्न आयु में बालकों की संज्ञानात्मक संरचना भिन्न-भिन्न हुआ करती है .बढ़ती हुई आयु के साथ यह संज्ञानात्मक संरचना सरल से जटिल बनती जाती है .

5.मानसिक संक्रिया /प्रचालन (Mental Operation) मानसिक संक्रिया का अर्थ संज्ञानात्मक सरंचना की सक्रियता से है जब बालक किसी समस्या का समाधान करना शुरू करता है तो मानसिक संरचना सक्रिय बन जाती है .इसे ही मानसिक संक्रिया या मानसिक प्रचालन कहते है .

 6. स्कीम्स (Schemes) पियाजे के सिद्धांत का यह संप्रत्यय वास्तव में मानसिक संक्रिया संप्रत्यय का बाह्य रूप है .जब मानसिक संक्रिया बाह्य रूप अभिव्यक्त होता है तो इसी अभिव्यक्त रूप को स्कीम्स कहते है .

7.स्कीम (Schema) पियाजे के अनुसार स्कीमा का अर्थ ऐसी मानसिक संरचना है,जिसका सामान्यीकरण संभव हो .यह संप्रत्यय वस्तुह संज्ञानात्मक संरचना तथा मानसिक प्रचलन के संप्रत्ययों के गहरे रूप से सम्बद्ध है .

8.विकेंद्रीकरण (Decentring) इस संप्रत्यय का सम्बन्ध यथार्थ चिंतन से है .विकेंद्रण का अर्थ है कि कोई बालक किसी समस्या के समाधान के सम्बन्ध में किस सीमा तक वास्तविक ढंग से सोच विचार करता है .इस संप्रत्यय का विपरीत अत्मकेंद्रण है .शुरू में बालक आत्मकेंद्रित रूप से सोचता है और बाद में उम्र बढ़ने पर विकेन्द्रित ढंग से सोचने लगता है .

9.पारस्परिक क्रिया (Intraction) पियाजे के अनुसार बच्चों में वास्तविकता को समझने तथा उसकी खोज करने की क्षमता न केवल बच्चों की प्रौढ़ता पर बल्कि उनके शिक्षण पर निर्भर करती है .यह दोनों की पारस्परिक क्रिया पर आधारित होती है .

10.संरक्षण ( Conservation) पियाजे के अनुसार संरक्षण का अर्थ वातावरण में परिवर्तन तथा स्थिरता को समझने और वास्तु के रंगरूप में परिवर्तन में अंतर करने की प्रक्रिया से है .दुसरे शब्दों में संरक्षण वह प्रक्रिया है,जिसके द्वारा बालक में एक ओर वातावरण के परिवर्तन तथा स्थिरता में अंतर करने की क्षमता और दूसरी ओर वास्तु के रंगरूप में परिवर्तन तथा उसके तत्व में परिवर्तन के बीच अंतर करने की क्षमता से है .

संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाएँ -(Stages of Cognitive Development)

पियाजे के अनुसार जैसे-जैसे संज्ञानात्मक विकास बढ़ता है वैसे-वैसे अवस्थाएँ भी परिवर्तित होती रहती है .किसी विशेष अवस्था में बालक के समस्त ज्ञान-विचारो,व्यवहारों के संगठन से एक सेट (set) यानि समुच्चय तैयार होता है , इन स्कीमाओ का विकास बालक के अनुभव व परिपक्वता पर निर्भर करता है .बालक के संज्ञानात्मक विकास की चार अवस्थाएँ होती है .

1.संवेदी पेशीय अवस्था (Sensory Motor Stage) जन्म से दो वर्ष तक 

इस अवस्था में बालक केवल अपनी संवेदनाओं और शारीरिक क्रियाओं की सहायता से ज्ञान अर्जित करता है .बच्चा जब जन्म लेता है तो उसके भीतर सहज क्रियाएँ होती है .और ज्ञानेन्द्रियो की सहायता से बच्चा वस्तुओं ,ध्वनियों,स्पर्श,रसों एवं गन्धो का अनुभव प्राप्त करता है और इन अनुभवों की पुनार्वृत्ति के कारण वातावरण में उपस्थित उद्दीपकों की कुछ विशेषताओं से परिचित होता है .पियाजे के अनुसार इस अवस्था में शिशुओं का बौद्धिक और संज्ञानात्मक विकास निम्नलिखित छ उप अवस्थाओं से होकर गुजरता है-

a)  सहज क्रियाओं कीअवस्था (जन्म से 3)0 दिन तक : 

इसके अंतर्गत बालक छोटी-छोटी या सहज क्रियाएं भी कर पाता है इसमें इसमें चूसने की क्रिया सबसे प्रबल होती हैl

b) प्रमुख वृत्तीय अनुक्रिया की अवस्था (1 माह से 4 माह तक) :

इस अवस्था में शिशुओं की परिवर्तित क्रियाओं में कुछ परिवर्तन होता है l शिशु अपने को नए वातावरण में अभियोजन करने की कोशिश करता है l वह अपने अनुभवों को दोहराता है lतथा उसमें रूपांतरण लाने का प्रयास करता है l इसे प्रमुख इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह परिवर्तित क्रियाएं प्रमुख होती हैं एवं उन्हें वृत्ति इसलिए कहा जाता है क्योंकि इन क्रियाओं को बार-बार दोहराते हैं l

c) गौंड वृत्तीय अनुक्रिया की अवस्था:

(4 माह से 8 माह तक) इस अवस्था में शिशु ऐसी क्रियाएं करता है जो रुचकर होते हैं तथा अपने आस-पास के वस्तुओं को छूने की कोशिश करता है l जैसे चादर पर पड़ी खिलौना को पाने के लिए चादर को खींच कर अपने तरफ करता है और फिर खिलौना लेता है l 

d) गौंड स्कीमेता की समन्वय की अवस्था:

(8 माह से 12 माह तक) इस अवधि में शिशु अपने उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सहज क्रियाओं को इच्छा अनुसार प्रयोग कर सीख जाता है l वह वयस्कों द्वारा किए गए कार्यों को अनुकरण करने की कोशिश करता है l जैसे यदि हम बच्चों के सामने हाथ हिलाते हैं तो वह उसी तरह हाथ खिलाता है l वह इस अवधि में स्कीमेता का प्रयोग कर एक परिस्थिति से दूसरे परिस्थिति के समस्या का हल करता है l

e) तृतीय तृतीय अनुक्रिया की अवस्था:

( 12 माह से 18 माह तक) इस अवस्था में बालक प्रयास एवं त्रुटि के आधार पर अपनी परिस्थितियों को समझने की कोशिश करने से पहले सोचना प्रारंभ कर देता है l इस अवधि में बच्चे में उत्सुकता उत्पन्न होती है तथा भाषा का भी प्रयोग करना शुरू कर देता है l

f) मानसिक सहयोग द्वारा नए साधनों की खोज की अवस्था: (18 माह से 24 माह तक)

इस अवधि में शिशु प्रतिमा का उपयोग करना सीख जाता है l अब वह खुद ही समस्या का हल प्रतीकात्मक चिंतन क्रिया द्वारा ढूंढ लेता है l इस अवस्था में संज्ञानात्मक विकास के साथ बौद्धिक विकास भी बहुत तेजी से होता है l 

2)पूर्व संक्रियात्मक अवस्था (Pre Operational stage):

संज्ञानात्मक विकास की पूर्व संक्रियात्मक अवस्था लगभग 2 साल से प्रारंभ होकर 7 साल तक होती है l इस अवस्था में संकेतआत्मक कार्यों की उत्पत्ति तथा भाषा का प्रयोग होता है l पियाजे ने इस अवस्था को दो भागों में बांटा है l 

a) पूर्व प्रत्ययआत्मक काल:( 2 साल से 4 साल तक)

यह अवस्था वस्तुतः परिवर्तन की अवस्था है जिसे खोज की अवस्था भी कहा जाता है l इस अवस्था में बच्चे जो संकेत का प्रयोग करते हैं वह थोड़ी सी अव्यवस्थित होती है l इस अवस्था में बच्चे बहुत सारी ऐसी क्रियाएं करते हैं जिसे इससे पहले वह नहीं कर सकते थे l  जैसे संकेत वचन का प्रयोग कब और कहां किया जाता है l वह शब्दों का प्रयोग कर समस्याओं का समाधान करते हैं l बालक विभिन्न घटनाओं या कार्यों के संबंध में क्यों तथा कैसे जैसे प्रश्नों को जानने में रुचि रखते हैं l वह जिस कार्य को दूसरों के द्वारा होते या करते देखते हैं उस कार्य को करने लगते हैं l उनमें बड़ों का अनुकरण करने की प्रवृत्ति होती है l लड़की अपने पिता का अंकुरण कर गाड़ी चलाने या समाचार पत्र पढ़ने तथा लड़कियां अपनी मां की तरह गुड़ियों को खिलाना तैयार करना जैसे काम करते हैं l इस अवस्था में भाषा का विकास सबसे ज्यादा होता है l जिसके लिए समृद्ध भाषाई वातावरण की जरूरत होती है l 

     पियाजे ने पूर्व प्रत्यात्मक काल दो पर सीमाएं बताई है l

जीववाद : इसमें बालक निर्जीव वस्तुओं को भी सजीव समझने लगता है l उनके अनुसार जो भी वस्तुएं घूमती हैं या हिलती हैं वह वस्तुएं सजीव है जैसे सूरज बादल पंखा वह सभी अपना स्थान परिवर्तित करते हैं पंखा घूमता है इसलिए यह सभी सजीव हैं l

आत्मकेंद्रितआ:  इसमें बालक यह सोचता है कि यह दुनिया सिर्फ उसी के लिए बनाई गई है l इस दुनिया की सारी चीजें उसी के इर्द-गिर्द घूमती हैं l वह खुद को सबसे ज्यादा महत्व देता है l पियाजे के अनुसार उसकी बोली का लगभग 38% आत्म केंद्रित होता है l

b) अंत प्रज्ञ कॉल : 4 वर्ष से 7 वर्ष तक

इस अवस्था में बालक संकेत तथा चिन्ह को मस्तिष्क में ग्रहण करता है l  पियाजे के अनुसार अंतः प्रज्ञ चिंतन ऐसा चिंतन है जिसमें बिना किसी तार्किक विचार द्वारा प्रक्रिया के किसी बात को तुरंत स्वीकार कर लेना l अर्थात वह किसी समस्या का हल करता है तो उसके समाधान का कारण वह नहीं बता सकता है l समस्या समाधान में सन्निहित मानसिक प्रक्रिया के पीछे छिपे नियमों के बारे में उसकी जानकारी नहीं होती है lपियाजे ने अंतः प्रज्ञ चिंतन की कुछ पर सीमाएं बताइए हैं l

1 इस उम्र के बालकों के विचार अविलोमीय होते है l अर्थात बालक मानसिक क्रम के प्रारंभिक बिंदु पर पुनः लौट नहीं पाता है l जैसे 4 साल के बच्चे से कहा जाए कि तुम्हारी मम्मी अंकित की मौसी है उसी तरह उसकी मम्मी तुम्हारी मौसी होगी यह बात उसे समझ में नहीं आएगी l 

2 पियाजे के अनुसार उस उम्र के बच्चों में तार्किक चिंतन की कमी रहती है जिसे पियाजे ने संरक्षण का सिद्धांत कहा है l जैसे किसी वस्तु के आकार को बदल दिया जाए तो उसकी मात्रा पर उसका कोई प्रभाव नहीं होगा इस बात की समझ उसमें नहीं होती है l

                                               मूर्त संक्रियात्मक अवस्था

7 वर्ष से 12 वर्ष तक) इस अवस्था में बालक विद्यालय जाना प्रारंभ कर लेता है एवं वस्तुओं के बीच समानता भिन्नता समझने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है l इस अवस्था में बच्चे का तार्किक चिंतन संक्रियात्मक विचारों का स्थान ले लेता है l  बच्चे अब जोड़ना घटाना गुणा करना और / कर सकते हैं l इस अवस्था में बालकों में संख्या बोध वर्गीकरण क्रमानुसार व्यवस्था किसी भी वस्तु व्यक्ति के मध्य पारस्परिक संबंध का ज्ञान हो जाता है l वह तर्क कर सकता है l संक्षेप में अपने चारों ओर के पर्यावरण के साथ अनुकूलन करने के लिए अनेक नियम को सीख लेता है l 

                                             औपचारिक संक्रिया अवस्था 

यह संज्ञानात्मक विकास की अंतिम अवस्था है जो लगभग 12 वर्ष से 15 वर्ष तक की आयु की अवस्था है l इस अवस्था के दौरान बालक अमूर्त बातों के संबंध में तार्किक चिंतन करने की क्षमता विकसित कर लेता है l इस अवस्था को किशोरावस्था कहा जाता है l बच्चे अब वर्तमान भूत एवं भविष्य के बीच अंतर समझने लगते हैं l  समस्या का समाधान सुव्यवस्थित ढंग से करने लगते हैं l  इस अवस्था में बालक परिकल्पना ए बनाने के योग्य हो जाता है l उसकी व्यवस्था करता है तथा व्याख्यान के आधार पर निष्कर्ष भी निकलता है l अब बालक बड़ों की उत्तरदायित्व लेने के योग्य हो जाता है l पियाजे के अनुसार इस अवस्था में बालकों में बौद्धिक संगठन अधिक क्रम बंद हो जाता है l बालक एक साथ अधिक से अधिक बातों को समझने तथा उसका विचार करने में समर्थ हो जाता है l

     इस तरह पियाजे द्वारा बनाई गई संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत की चार अवस्थाएं इस बात का द्योतक हैं कि किसी भी बालक का संज्ञानात्मक विकास चार विभिन्न अवस्थाओं से होकर गुजरती है l जिसमें कुछ बालकों का बौद्धिक विकास तीव्र गति से होता है कुछ का औसत गति से तथा कुछ का धीमी गति से l 

पियाजे के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत की शिक्षा में उपयोगिता

  • पिया जी कहते हैं कि जो बच्चे सीखने में धीमे होते हैं उन्हें दंड नहीं देना चाहिए l
  • पियाजे के संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत बालकों के बौद्धिक विकास की प्रक्रिया को समझने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है l
  •  इस सिद्धांत के द्वारा शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाया जा सकता है l
  •  संज्ञानात्मक विकास अवस्था के आधार पर पाठ्यक्रम के संगठन में यह सिद्धांत कार्य मदद पहुंचाती है l
  • संज्ञानात्मक विकास की समुचित व्यवस्था करने में यह सिद्धांत एक सफल आधार प्रदान करता है l
  • पियाजे के संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत शैक्षिक शोध का एक बहुत बड़ा क्षेत्र है l
  •  बच्चों को अपने आप करके सीखने का अवसर हमें प्रदान करना चाहिए l
  • बच्चा स्वयं और पर्यावरण से अंतः क्रिया द्वारा सीखता है अतः हमें शिक्षकों माता-पिता बच्चे के लिए प्रेरणादायक माहौल का निर्माण करना चाहिए l
  • इस सिद्धांत के आधार पर शिक्षक एवं अभिभावक बच्चों की तार्किक व चिंतन विचार शक्ति को पहचान सकते हैं l

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