भाषा और चिन्तन { Language and Thought }

भाषा और चिन्तन { Language and Thought }

भाषा Language

  • भाषा भावों को अभिव्यक्त करने का एक माध्यम है। मनुष्य पशुओं से इसलिए श्रेष्ठ है क्योंकि उसके पास अभिव्यक्ति के लिए एक ऐसी भाषा होती है, जिसे लोग समझ सकते हैं। 
  • भाषा बौद्धिक क्षमता को भी अभिव्यक्त करती है। 
  • बहुत-से लोग वाणी और भाषा दोनों का प्रयोग एक-दूसरे के पर्यायवाची के रूप में करते हैं, परन्तु दोनों में बहुत अन्तर है। 

हरलॉक ने दोनों शब्दों को निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया है

  • भाषा में सम्प्रेषण के वे सभी साधन आते हैं, जिसमें विचारों और भावों को प्रतीकात्मक बना दिया जाता है। जिससे कि अपने विचारों और भावों को दूसरे से अर्थपूर्ण ढंग से कहा जा सके। 
  • वाणी भाषा का एक स्वरूप है जिसमें अर्थ को दूसरों को अभिव्यक्त करने के लिए कुछ ध्वनियाँ या शब्द उच्चारित किए जाते हैं। 
  • वाणी भाषा का एक विशिष्ट ढंग है। भाषा व्यापक सम्प्रत्यय है। वाणी, भाषा का एक माध्यम है। 

बालकों में भाषा का विकास  Language Development in Children

  • बालक के विकास के विभिन्न आयाम होते हैं। भाषा को विकास भी उन्हीं आयामों में से एक है। भाषा को अन्य कौशलों की तरह अर्जित किया जाता है। यह अर्जन बालक के जन्म के बाद ही प्रारम्भ हो जाता है। अनुकरण, वातावरण के साथ अनुक्रिया तथा शारीरिक, सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति की माँग इसमें विशेष भूमिका निभाती है। 

भाषा विकास की प्रारम्भिक अवस्थाFirst Stage of Language Development

  • इस अवस्था में एक तरह से बालक ध्वन्यात्मक संकेतों से युक्त को समझने और प्रयोग करने के लिए स्वंय को तैयार करता हुआ प्रतीत होता है जिसकी अभिव्यक्ति उसकी निम्न प्रकार की चेष्टाओं तथा क्रियाओं के रूप में होती है। 
  • सबसे पहले चरण के रूप में बालक जन्म लेते ही रोने, चिल्लाने की चेष्टाएँ करता है। 
  • रोने-चिल्लाने की चेष्टाओं के साथ ही वह अन्य ध्वनि या आवाजें  भी निकालने लगता है। ये ध्वनियाँ पूर्णतः स्वाभाविक, स्वचालित एवं नैसर्गिक होती हैं, इन्हें  सीखा नहीं जाता। 
  • उपरोक्त क्रियाओं के बाद बालकों में बड़बड़ाने की क्रियाएँ तथा चेष्टाएँ शुरू हो जाती हैं। इस बड़बड़ाने के माध्यम से बालक स्वर तथा व्यंजन ध्वनियों के अभ्यास का अवसर पाते हैं। वे कुछ भी दूसरों से सुनते हैं तथा जैसा उनकी समझ में आता है उसी रूप में वे उन्हीं ध्वनियों को किसी-न-किसी रूप में दोहराते हैं। इनके द्वारा स्वरों जैसे अ, ई, उ, ऐ, इत्यादि को व्यजनों त, म, न, क, इत्यादि से पहले उच्चरित किया जाता है। 
  • हाव-भाव तथा इशारों की भाषा भी बालकों को धीरे-धीरे समझ में आने लगती है। इस अवस्था में वे प्रातः एक-दो स्वर-व्यंजन ध्वनियाँ निकाल कर उसकी पूर्ति अपने हाव-भाव तथा चेष्टाओं से करते दिखाई देते हैं। 

भाषा का महत्त्व Importance of Languageइच्छाओं और आवश्यकताओं की सन्तुष्टि  

  • भाषा व्यक्ति को अपनी आवश्यकता, इच्छा, पीड़ा अथवा मनोभाव दूसरे के समक्ष व्यक्त करने की क्षमता प्रदान करती है। जिससे दूसरा व्यक्ति सरलता से उसकी आवश्यकताओं को समझकर तत्सम्बन्धी समाधान प्रदान करता है। 

ध्यान खींचने के लिए

  • सभी बालक चाहते हैं कि उनकी ओर लोग ध्यान दें इसलिए वे अभिभावकों से प्रश्न पूछकर, कोई समस्या प्रस्तुत करके तथा विभिन्न  तरीकों को प्रयोग कर उनका ध्यान अपनी ओर खींचने हैं। 

सामाजिक सम्बन्ध के लिए

  • भाषा के माध्यम से ही कोई व्यक्ति समाज के साथ आपसी ताल-मेल विकसित कर पाता है। भाषा के चरिए अपने विचारों को अभिव्यक्त कर समाज में अपनी  भूमिका निर्धारित करता है। अन्तर्मुखी बालक समाज के कम अन्तःक्रिया करते हैं, इसलिए उनका पर्याप्त सामाजिक विकास नहीं होता।

सामाजिक मूल्यांकन के लिए महत्त्व

  • बालक समाज के लोगों के साथ किस तरह बात करता है? कैसे बोलता है? इन प्रश्नों के उत्तर के माध्यम से उसका सामाजिक मूल्यांकन होता है। 

शैक्षिक उपलब्धि के महत्त्व

  • भाषा का सम्बन्ध बौद्धिक क्षमता से है। यदि बालक अपने विचारों को भाषा के जरिए अभिव्यक्त करने में सक्षम नहीं होता, तो इसका अर्थ है कि उसकी शैक्षिक उपलब्धि पर्याप्त नहीं है। 

दूसरों के विचारों को प्रभावित करने के लिए

  • जिन बच्चों की भाषा प्रिय, मधुर एवं ओजस्वी होती है वे अपने समूह, परिवार अथाव समाज के व्यक्तियों को प्रभावित करते हैं। लोग उन्हीं को अधिक महत्त्व देते हैं जिनका भाषा व्यवहार प्रभावपूर्ण होता है। 

बालकों की आयु   –   बालकों का शब्द भण्डार

  • जन्म से 8 माह तक – 0 
  • 9 माह से 12 माह तक – तीन से चार शब्द
  • डेढ़ वर्ष तक – 10 या 12 शब्द 
  • 2 वर्ष तक – 272 शब्द 
  • ढ़ाई वर्ष तक – 450 शब्द 
  • 3 वर्ष तक – 1 हजार शब्द 
  • साढ़े तीन वर्ष तक – 1250 शब्द 
  • 4 वर्ष तक – 1600 शब्द 
  • 5 वर्ष तक- 2100 शब्द 
  • 11 वर्ष तक – 50000 शब्द 
  • 14 वर्ष तक – 80000 शब्द 
  • 16 वर्ष से आगे – 1 लाख से अधिक शब्द

भाषा विकास के सिद्धान्त Theory of Language Developmentपरिपक्वता का सिद्धान्त 

  • परिपक्वता का तात्पर्य है कि भाषा अवयवों एवं स्वरों पर नियंत्रण होना। बोलने में जिह्वा, गला, तालु, होंठ, दाँत तथा स्वर यन्त्र आदि जिम्मेदार होते हैं इनमें किसी भी प्रकार की कमजोरी या कमी वाणी को प्रभावित करती है। इन सभी अंगों में जब परिपक्वता होती है, तो भाषा पर नियन्त्रण होता और अभिव्यक्ति अच्छी होती  है। 

अनुबन्धन का सिद्धान्त

  • भाषा विकास में अनुबंन्धन या साहचर्य का बहुत योगदान है। शैशवावस्था में जब बच्चे शब्द सीखते हैं, तो सीखना अमूर्त नहीं होता है, बल्कि किसी मूर्त वस्तु से जोड़कर उन्हें शब्दों की जानकारी दी जाती है। इसी तरह बच्चे विशिष्ट वस्तु या व्यक्ति से साहचर्य स्थापित करते हैं और अभ्यास हो जाने पर सम्बद्ध वस्तु या व्यक्ति की उपस्थिति पर सम्बन्धित शब्द से सम्बोधित करते हैं। 

अनुकरण का सिद्धान्त

  • चैपिनीज, शर्ली, कर्टी तथा वैलेण्टाइन आदि मनोवैज्ञानिकों ने अनुकरण के द्वारा भाषा सीखने पर अध्ययन किया है। इनका मत है कि बालक अपने परिवारजनों तथा साथियों की भाषा का अनुकरण करके सीखते हैं। जैसी भाषा जिस समाज या परिवार में बोली जाती है बच्चे उसी भाषा को सीखते हैं। यदि बालक के समाज या परिवार में प्रयुक्त भाषा में कोई दोष हो, तो उस बालक की भाषा में भी दोष परिलक्षित होता है। 

चोमस्की का भाषा अर्जित करने का सिद्धान्त

  • चोमस्की का कहना है कि बच्चे शब्दों की निश्चित संख्या से कुछ निश्चित नियमों का अनुकरण करते हुए वाक्यों का निर्माण करना सीख जाते हैं। इन शब्दों से नये-नये वाक्यों एवं शब्दों का निर्माण होता है। इन वाक्यों का निर्माण बच्चे जिन नियमों के अन्तर्गत करते हैं उन्हें चोमस्की ने जेनेरेटिव ग्रामर की संज्ञा प्रदान की है। 

भाषा विकास को प्रभावित करने वाले कारकEffecting Factors of Language Development

  1. स्वास्थ्य-  जिन बच्चों का स्वास्थ्य जितना अच्छा होता है उनमें भाषा के विकास की गति उतनी तीव्र होती है। 
  2. बुद्धि – हरलॉक के अनुसार जिन बच्चों का बौद्धिक स्तर उच्च होता है उनमें भाषा विकास अपेक्षाकृत कम बुद्धि से अच्छा होता है। टर्मन, फिशन एवं यम्बा का मानना है कि तीव्र बुद्धि बालकों का उच्चारण और शब्द भण्डार अधिक होता है। 
  3. सामाजिक-आर्थिक स्थिति – बालकों का सामाजिक-आर्थिक स्तर भी भाषा विकास को प्रभावित करता है। यही करण है कि ग्रामीण क्षेत्र में पढ़ने वाले बालकों की शाब्दिक क्षमता शहरी या अन्य पब्लिक स्कूल में पढ़ने वाले बालकों से कम होती है।
  4. लिंगीय भिन्नता-  सामान्यतः बालिकाएँ, बालकों की अपेक्षा अधिक शुद्ध उच्चाकरण करती हैं, किन्तु ऐसा प्रत्येक मामले में नहीं होता। 
  5. परिवार का आकार – छोटे परिवार में बालक की भाषा का विकास बड़े आकार के परिवार से अच्छा होता है, क्योंकि छोटे परिवार में माता-पिता अपने बच्चे के प्रशिक्षण में उनसे वार्तालाप के जरिए अधिक ध्यान देते हैं। 
  6. बहुजन्म-   कुछ ऐसे अध्ययन हुए हैं जिनसे प्रमाणित होता है कि यदि एक साथ अधिक सन्तानें उत्पन्न होती हैं, तो उनमें भाषा विकास विलम्ब से होता है। इसका कारण है कि बच्चे एक-दूसरे का अनुकरण करते हैं और दोनों ही अपरिपक्व होते हैं। उदाहरण के लिए यदि एक बच्चा गलत उच्चारण करता है तो उसी की नकल करके दूसरा भी वैसा ही उच्चारण करेगा। 
  7. द्वि-भाषावाद- यदि द्वि-भाषी परिवार है, उदारहण के लिए यदि पिता हिन्दी बोलने वाला और माँ शुद्ध अंग्रेजी बोलने वाली हो, तो ऐसे में बच्चों का भाषा विकास प्रभावित होता है। वे भ्रमित हो जाते हैं कि कौन-सी भाषा सीखें? 
  8. परिपक्वता – परिपक्वता का तात्पर्य है कि भाषा अवययों एवं स्वरों पर नियन्त्रण होना। बोलने में जिह्वा, गला, तालु, होंठ, दाँत तथा स्वर यन्त्र आदि जिम्मेदार होते हैं इनमें किसी भी प्रकार की कमजोरी या कमी वाणी को प्रभावित करती है। इन सभी अंगों में जब परिपक्वता होती है, तो भाषा पर नियन्त्रण होता है और अभिव्यक्ति अच्छी होती है। 
  9. संवेगात्मक तनाव– जिन बच्चों के संवेगों का कठोरता से दमन कर दिया जाता है ऐसे बच्चों का भाषा विकास देर से होता है। 
  10. व्यक्तित्व -फुर्तीले, चुस्त और बहिर्मुखी स्वभाव वाले बच्चों का भाषा विकास अन्तर्मुखी स्वभाव के बच्चों की अपेक्षा अधिक जल्दी और बेहतर होता है। 
  11. प्रशिक्षण विधि -प्रशिक्षण विधि भी भाषा विकास को प्रभावित करती है। भाषा के बारे में यदि सैद्धान्तिक रूप से शिक्षा दी जाए एवं उनका प्रयोग व्यावहारिक रूप से न किया जाए तो उस भाषा में अभिव्यक्ति कौशल का पर्याप्त विकास नहीं हो पता।

भाषा दोष 

  • यदि बालक अपने स्वर यन्त्रों पर नियन्त्रण नहीं रख पाता, तो उसमें भाषा दोष उत्पन्न हो जाता है।
  • भाषा दोष से ग्रसित बालक समाज से कतराने लगते हैं। उनमें हीनता की भावना का विकास हो जाता है और वे सामान्यतः अन्तर्मुखी स्वभाव के हो जाते हैं। 
  • भाषा दोष शैक्षिक विकास को भी प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है। 
  • मुख्यतः भाषा दोष निम्नलिखित प्रकार के होते हैं
  • ध्वनि परिवर्तन – अस्पष्ट उच्चारण 
  • हकलाना – तुतलाना 
  • तीव्र अस्पष्ट वाणी 

चिन्तन की प्रकृति Nature of Thought

  • चिन्तन सम्भवतः एक ऐसी प्रक्रिया है जो सोते समय भी क्रियाशील रहती है। 
  • चिन्तन में कल्पना, भाषा, संकल्पना, प्रतिज्ञप्ति शामिल है। 
  • चिन्तन एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है, जिसमें सूचनाओं का कुशलता से उपयोग होता है। इस प्रकार की सूचनाएँ ज्ञानेन्द्रियों (जैसे दृष्टि, श्रवणशक्ति, घ्राण शक्ति) द्वारा पर्यावरण के साथ ही, स्मृति में संचित पूर्वकाल की कतिपय घटनाओं से एकत्रित की जाती हैं। अतः चिन्तन एक रचनात्मक प्रक्रिया है अर्थात् यह किसी घटना या वस्तु की प्राप्त सूचना को नवीन रूप में रूपान्तरित करने में हमारी सहायता करती है। 
  • कॉलिन्स एवं ड्रेवर के अनुसार-“चिन्तन को जीव-शरीर के वातावरण के प्रति चैतन्य समायोजन कहा जाता है। इस रूप में विचार स्पष्टतः मानसिक स्तर पर हो सकते हैं, जैसे-प्रत्यक्षानुभव और प्रत्यानुभव।” 
  • चिन्तन में कई मानसिक क्रियाएँ जैसे-अनुमान करना, तर्क करना, कल्पना करना, निर्णय लेना, अभूतीकरण, समस्या समाधान और रचनात्मक विचार (चिन्तन) सम्मिलित हैं। ऐसी क्रियाएँ हमारे मस्तिष्क में होती हैं और हमारे व्यवहार द्वारा अनुमानित की जाती हैं। 
  • चिन्तन का आरम्भ प्रायः एक समस्या से होता है और ये कई चरणों में चलता है जैसे-निर्णय लेना, अनुमान करना, संक्षिप्तीकरण, तर्क करना , कल्पना और स्मरण करना। ये क्रम अधिकतर समस्या के समाधान के लिए होता है। 
  • समस्या समाधान के लिए चिन्तन इस उदाहरण से स्पष्ट होता है मान लीजिए कि आप अपने नये विद्यायल समय पर पहुँचने के लिए अपने घर से विद्यालय तक का सबसे छोटा रास्ता ढूँढ रहे हैं। आपके चुुनाव को कई कारक निर्देशित कर सकते हैं जैसे सड़क की दशा, स्कूल का समय, यातायात का घनत्व, सड़क पर चलते हुए सुरक्षा इत्यादि। अन्ततः इस सभी कारकों को ध्यान में रखते हुए आप सबसे उत्तम मार्ग का  ही निर्णय लेते हैं। इसलिए इस जैसी साधारण सी समस्या के लिए भी चिन्तन आवश्यक है। इस समस्या का समाधान हमारे पर्यावरण एवं पूर्व अनुभव से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर होता है। 
  • चिन्तन कई प्रकार की मानसिक संरचाओं पर निर्भर करता है जैसे-संकल्पना एवं तर्क।

संकल्पना Concepts

  • संकल्पना चिन्तन का एक मुख्य तत्व है। संकल्पनाएँ वस्तुओं, क्रियाओं, विचारों व जीवित प्राणियों का प्रतिनिधित्व करती हैं।
  • संकल्पना के अन्तर्गत किसी के लक्षण जैसे-मीठा, खट्टा, किसी के भाव जैसे-क्रोध, भय तथा दो या अधिक वस्तुओं के बीच सम्बन्ध जैसे उससे अच्छा, इससे खराब, आदि की बात की जाती है।
  • संकल्पनाएँ ऐसी मानसिक संरचनाएँ हैं जो हमारे ज्ञान को क्रमबद्ध रूप प्रदान करती हैं। हम उनका सीधे निरीक्षण नहीं कर सकते हैं, लेकिन हम उनका व्यवहार द्वारा अनुमान लगा सकते हैं।
  • मनुष्य होने के कारण हमारे पास वस्तुओ, घटनाओं या प्रत्यक्ष की गई बातों के आवश्यक लक्षणों को अमूर्त रूप में धारण करने की शक्ति होती है। जब हम किसी नये उद्दीपक से परिचित होते हैं तो उसे एक पहचानी हुई या याद की गई श्रेणी में रखते हैं और उसके साथ उसी प्रकार की क्रिया करते हैं और उसे एक नाम देते हैं।

तर्क Argument

  • तर्क भी चिन्तन का एक मुख्य पक्ष है। इस प्रक्रिया में अनुमान संलग्न है। तर्क, तर्कपूर्ण विचार व समस्या के समाधान में उपयोगी होता है। 
  • यह उद्देश्यपूर्ण होता है और तथ्यों के आधार पन निष्कर्ष निकाले जाते हैं व निर्णय लिए जाते हैं। 
  • तर्क में हम पर्यावरण से प्राप्त जानकारी और मस्तिष्क में एकत्र सूचनाओं का कतिपय नियमों के अन्तर्गत उपयोग करते हैं। 
  • तर्क दो प्रकार का होता है-निगमन और आगमन।
  • निगमन तर्क में हम पहले दिए गए कथन के आधार पर निष्कर्ष निकालने का प्रयास करते हैं। जबकि आगमन तर्क में हम उपलब्ध प्रमाण से निष्कर्ष निकालने से आरम्भ करते हैं। 
  • अधिकतर वैज्ञानिक तर्क आगमन प्रकृति के होते हैं। वैज्ञानिक हों या साधारण व्यक्ति कुछ घटनाओं के आधार पर सभी के लिए कुछ सामान्य नियम होते हैं। उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति पुजारी है क्योंकि  वह साधारण वस्त्र पहनचा है, प्रार्थना करता है और सादा भोजन करता है। 

समस्या-समाधान Problem Solving

  • समस्या को सुलझाना हमारे दैनिक जीवन का अभिन्न अंग है। हर दिन हम सरल से लेकर जटिल समस्याओं का समाधान करते हैं। कुछ समस्याओं को हल करने में कम समय लगता है। और कुछ में अधिक। किसी समस्या का समाधान करने के लिए यदि समुचित साधन उपलब्ध नहीं होते तो समाधान का विकल्प देखना पड़ता है। 
  • किसी भी प्रकार की समस्या का समाधान निकालने में हमारा चिन्तन निर्देशित और केन्द्रित हो जाता है, और सही और उपयुक्त निर्णय पर पहुँचने लिए हम सभी संसाधनों आन्तरित (मन) और बाह्म (दूसरों का समर्थन और सहायता) दोनों का उपयोग करने का प्रयास करते हैं। उदाहरण के लिए यदि आप यदि परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करना चाहते हैं, तो आप परिश्रम से पढ़ाई, शिक्षकों, मित्रों, और माता-पिता की सहायता लेते हैं और अन्त में आप अच्छे अंक प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार समस्या समाधान एक विशिष्ट समस्या से निपटने की दिशा में निर्देशित चिन्तन है। 
  • निर्देशित चिन्तन के तीन तत्व हैं समस्या, लक्ष्य और लक्ष्य दिशा में एक कदम। ऐसी दो विधियाँ हैं जिनका प्रमुख रूप से समस्या के समाधान मे उपयोग किया जाता है, ये हैं ‘मध्यमान-अन्त-विश्लेषण‘ और ‘एल्गोरिद्म‘ या कलन विधि।
  • मध्यमान-अन्त-विश्लेषण में विशेष प्रकार की समस्याओं का समाधान करने में एक विशिष्ट प्रकार की प्रक्रिया का चरणबद्ध प्रयोग किया जाता है। 
  • हृयूरिस्टिक्स या अन्वेषणात्मक के मामले में व्यक्ति समस्या समाधान के लिए किसी सम्भव नियम या विचार का उपयोग करने के लिए स्वतन्त्र है। इसे अभिसूचक नियम (रूल ऑफ थम्ब) भी कहा जाता है।

समस्या को हल करना और मनःस्थिति To Solve the problem and Conceptual

  • कभी-कभी हम एक समस्या का समाधान करने के लिए एक विशेष रणनीति/तकनीक का उपयोग करते हैं परन्तु हम अपने प्रयास में सफल या असफल हो सकते हैं। यह व्यक्ति के सम्मुख भविष्य में आने वाली समस्याओं के लिए उपागमों का  एक विन्यास तैयार करती है।  समस्या भिन्न होने पर भी यह विन्यास चलता रहता है। इसके अतिरिक्त भविष्य में वैसी ही समस्या आने पर हम उसी रणनीति/तकनीक का उपयोग करते हैं और फिर से समाधान तक पहुँचने में विफल हो जाते हैं। समस्या को सुलझाने में इस तरह की घटना को मनःस्थिति कहा जाता है।
  • मनःस्थिति, व्यक्ति की एक प्रवृत्ति है, जिससे वह  नई समस्या का समाधान उसी तरीके से हल करना चहता है जिसे पहली समस्या का समाधान करने में प्रयोग किया था। एक विशेष नियम के तहत पिछले प्रयासों में प्राप्त सफलता एक तरह की मानसिक कठोरता उत्पन्न करती है। जो नई समस्या का समाधान करने में नये विचारों को उत्पन्न करने में रूकावट उत्पन्न करती है। 
  • एक मनःस्थिति हमारी मानसिक क्रियाओं को बाधित करती है या उनकी गुणवत्ता को प्रभावित करती है फिर भी वास्तविक जीवन की वैसी ही या सम्बन्धित समस्याओं को सुलझाने हम प्रातः अतीत की सीख और अनुभव पर भरोसा करते हैं। 

सृजनात्मक चिन्तन Creative Thought

  • सृजनात्मक, चिन्तन का विशेष प्रकार है जो एक अद्वितीय और नया तरीका है जो पहले अनुपस्थित था। 
  • सृजनात्मक चिन्तन  को अपसारी चिन्तन भी कहा जाता है। 
  • सृजनात्मकता का परिणाम दुनिया के सभी आविष्कार और खोज हैं। 
  • समस्याओं के नियमित समाधान के विपरीत, सृजनात्मक समाधान, मूल, नवीन (नया) और अद्वितीय है जिनके बारे में पहले सोचा नहीं गया। 
  • सृजनात्मक समाधान या विचार अचानक या तत्क्षण होता है जिसमें चेतन व अचेतन रूप से अधिक कार्य तैयारी के परिणामस्वरूप जाने या अनजाने में होता है। 
  • नये विचारों की अचानक उपस्थिति को अन्तःदृष्टि कहा जाता है।
  • सृजनात्मक विचारक कोई भी हो सकता है जैसे-कलाकर, संगीतकार, लेखक, वैज्ञानिक या खिलाड़ी।
  • यह पाया है कि सृजनात्मक लोग आमतौर पर प्रतिभाशाली होते हैं (जैसे-कलाकार, संगीतकार, गणितज्ञ आदि) और  उनमें विशिष्ट योग्यता होती है। सृजनात्मक लोगों के व्यक्तित्व में कुछ विशिष्ट विशेषताएँ होती हैं जैसे-वे अपने निर्णय में स्वतन्त्र, स्वग्राही, प्रभावी, भावुक, आवेगी और जटिलता पसन्द करने वाले होते हैं।