how children think and learn बच्चे कैसे सोचते और सीखते हैं

बच्चे कैसे सोचते हैं ?

सोचना एक उच्च प्रकार की मानसिक प्रक्रिया है , जो ज्ञान को संगठित करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है । इस मानसिक प्रक्रिया में बहुधा स्मृति , प्रत्यक्षीकरण , अनुमान , कल्पना आदि मानसिक प्रक्रियाएँ भी सम्मिलित होती हैं ।

एक बालक के समक्ष हमेशा अनेक वस्तुएँ , समस्याएं , दृश्य परिदृश्य आदि दृष्टिगोचर होती रहती हैं तथा बालक उन समस्याओं , वस्तुओं , दृश्य परिदृश्यों आदि के विषय में चिन्तन करता रहता है । यह चिन्तन अनुभवजन्य होता है ।

बालक अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार वस्तुओं को देखकर या छूकर उनके बारे में अनुभव प्राप्त करता है । धीरे – धीरे बालक में प्रत्यय निर्माण होने लगता है तथा पूर्व किशोरावस्था में बालक अमूर्त वस्तुओं के विषय में सोचने लगता है ।

बालक में सोचने की प्रक्रिया का विकास एक निश्चित क्रम में होता है ।

बालकों में सोचने की प्रक्रिया

बालकों में सोचने की प्रक्रिया ( Process of Thinking in Children ) के निम्नलिखित प्रकार हैं

1. प्रत्यक्षीकरण के आधार पर सोचना

बच्चों में इस प्रकार की सोच का विकास वस्तुओं और परिस्थितियों के प्रत्यक्षीकरण से सम्बन्धित होता है । बालक अपने चारों ओर के भौतिक और मनोवैज्ञानिक वातावरण में जिन वस्तुओं और परिस्थितियों को देखता है या प्रत्यक्षीकरण करता है । उसके आधार पर वह अपने ज्ञान का संचय कर अपनी सोच का विकास करता है ।

2. कल्पना के आधार पर सोचना

जब उद्दीपन , वस्तु या पदार्थ , उपस्थित नहीं होता है , तब उसकी कल्पना ( Imagination ) की जाती है । इनके अभाव में कोई बालक इनकी मानसिक प्रतिमा ( Image ) बनाकर अपने ज्ञान का संचय करता है । कल्पना , बालकों में सोचने का एक सुदृढ़ आधार है , जिसके आधार पर बालक अपने पूर्व अनुभवों के आधार पर अपनी भविष्यगत सोच का निर्माण करता है ।

3. प्रत्ययों के आधार पर सोचना

यह अपेक्षाकृत अधिक उच्च प्रकार की सोच है । इसकी बालकों में अभिव्यक्ति तभी होती है , जब बालकों में प्रत्ययों ( Concepts ) का निर्माण प्रारम्भ होता है । एक बालक में जितने ही अधिक प्रत्यय निर्मित होते हैं उसमें उतनी ही अधिक प्रत्ययात्मक सोच पाई जाती है । इस प्रकार की सोच को विचारात्मक सोच भी कहते हैं । स्थान , आकार , भार , समय , दूरी और संख्या आदि सम्बन्धी प्रत्यय बालकों में प्रारम्भिक आयु स्तर पर ही बन जाते हैं ।

4. तर्क के आधार पर सोचना

इस प्रकार की सोच का विकास किसी बालक में भाषा सम्प्रेषण के आधार पर होता है । यह सबसे उच्च प्रकार की सोच है ।

5. तर्कणा के आधार पर सोचना

किसी बात / समस्या को लेकर भिन्न – भिन्न प्रकार का तर्क ( logic ) लगाना , तर्कणा कहलाता है । तर्कणा के विभिन्न प्रकार हैं

• निगमनात्मक तर्कणा ( Deductive Reasoning ) तर्क करने की एक ऐसी विधि जो अभिग्रह या पूर्वधारणा से आरम्भ होती है । यह सामान्य से विशिष्ट की ओर तर्कणा है ।

• आगमनात्मक तर्कणा ( Inductive Reasoning ) तर्क करने की एक ऐसी विधि जो विशिष्ट तथ्यों एवं प्रेक्षण पर आधारित हो । यह विशिष्ट से सामान्य की ओर चलती है ।

6. अनुभव के आधार पर सोचना

बालक अपने पूर्व अनुभवों के आधार पर अपनी नवीन सोच का विकास करते हैं । इस प्रकार की सोच का विकास बच्चों में स्थायी ज्ञान प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन माना जाता है ।

7. रुचि और जिज्ञासा के आधार पर सोचना

कुछ बालक अपनी रुचियों और जिज्ञासाओं के आधार पर अपनी सोच का सृजन करते हैं । शिक्षक तथा अभिभावकों को चाहिए कि वह बालकों में नई – नई रुचियों और जिज्ञासा ( Desire ) को पैदा करें , जिससे कि बच्चों में सोचने की प्रक्रिया की गति तीव्र हो सके ।

8. अनुकरण के आधार पर सोचना

बालकों की सोच के विकास में अनुकरण का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है । वह जब अपने आस – पास लोगों को कोई कार्य करते देखते हैं , तब वह उसी कार्य को करने की कोशिश करते हैं तथा अपनी सोच का विकास करते हैं ।

बच्चों में सोचने की योग्यता को बढ़ाने हेतु आवश्यक कदम

बालकों में सोचने की योग्यता सफल जीवन के लिए आवश्यक है । अतः अभिभावकों और शिक्षकों को चाहिए कि बालकों में इस योग्यता के विकास पर ध्यान दिया जाए । बालकों में सोचने की योग्यता के विकास में निम्नलिखित उपाय सहायक हैं , जो निम्न प्रकार है● बालको को सोचने के लिए प्रोत्साहित और प्रेरित करना चाहिए । बालकों के भाषा ज्ञान को उच्च करने के उपाय करने चाहिए , जिससे वह समय – समय पर अपने विचारों की अभिव्यक्ति कर सके ।• बालको की रुचियों के विकास पर ध्यान देना चाहिए । रुचियों के अभाव में सोचने की योग्यता कठिनाई से विकसित हो पाती है ।• बालकों को उनकी आयु के अनुसार समय – समय पर ऐसे कार्य सौंपे जाने चाहिए , जिससे उनमें उत्तरदायित्व की भावना का विकास हो सके और उत्तरदायित्व के निर्वहन हेतु सोचने के लिए प्रेरित हो सकें ।

• बालकों को उनकी आयु के अनुसार समस्या समाधान करना भी माता – पिता और शिक्षकों को सिखलाना चाहिए , क्योंकि समस्या समाधान के द्वारा भी सोचने की योग्यता विकसित होती है । शिक्षकों और माता – पिता को बालकों को नवीन बातों की समय – समय पर अर्थात् उनकी आयु के अनुसार जानकारी देनी चाहिए , जिससे उनमें सोचने का विकास सुचारु रूप से चल सके । तर्क और वाद – विवाद भी सोचने की योग्यता के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । 

• बालकों को ऐसा उद्दीपकपूर्ण वातावरण समय – समय पर उपलब्ध कराना चाहिए , जिससे वे सोचने के महत्त्व को समझें और अपनी योग्यता को बढ़ाने के लिए प्रदत्त वातावरण का लाभ उठा सकें ।

बच्चे कैसे सीखते हैं ?

सीखना एक प्रक्रिया है , जो जीवनपर्यन्त चलती रहती है एवं जिसके द्वारा हम कुछ ज्ञान अर्जित करते हैं या जिसके द्वारा हमारे व्यवहार में परिवर्तन होता है ।

फ्रेण्डसन के अनुसार , ” सीखना , अनुभव या व्यवहार में परिवर्तन है । ”

जन्म के तुरन्त बाद से ही व्यक्ति सीखना प्रारम्भ कर देता है । सीखना कोई आसान और सीधी प्रक्रिया नहीं होती , बल्कि यह जटिल ( complex ) , बहुआयामी और गतिशील प्रक्रिया है ।

अधिगम व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में सहायक होता है । इसके द्वारा जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायता मिलती है । अधिगम के बाद व्यक्ति स्वयं और दुनिया को समझने के योग्य पाता है ।

रटकर विषय – वस्तु को याद करने को अधिगम नहीं कहा जा सकता । यदि छात्र किसी विषय – वस्तु के ज्ञान के आधार पर कुछ परिवर्तन करने एवं उत्पादन करने अर्थात् ज्ञान का व्यावहारिक प्रयोग करने में सक्षम गया हो , तभी उसके सीखने की प्रक्रिया को अधिगम के अन्तर्गत रखा जा सकता है । सार्थक अधिगम ठोस चीजों एवं मानसिक द्योतकों को प्रस्तुत करने व उनमें बदलाव लाने की उत्पादक प्रक्रिया है न कि जानकारी इकट्ठा कर उसे रटने की प्रक्रिया ।

गेट्स के अनुसार , ” अनुभव द्वारा व्यवहार में रूपान्तर लाना ही अधिगम है । ”

ई.ए. पील के अनुसार , ” अधिगम व्यक्ति में एक परिवर्तन है , जो उसके वातावरण के परिवर्तनों के अनुसरण में होता है । “

क्रो एवं क्रो के अनुसार , ” सीखना , आदतों , ज्ञान एवं अभिवृत्तियों का अर्जन है । इसमें कार्यों को करने के नवीन तरीके सम्मिलित हैं और इसकी शुरुआत व्यक्ति द्वारा किसी भी बाधा को दूर करने अथवा नवीन परिस्थितियों में अपने समायोजन को लेकर होती है । इसके माध्यम से व्यवहार में उत्तरोत्तर परिवर्तन होता रहता है । यह व्यक्ति को अपने अभिप्राय अथवा लक्ष्य को पाने में समर्थ बनाती है । ” सभी बच्चे स्वभाव से ही सीखने के लिए प्रेरित रहते हैं और उनमें सीखने की क्षमता होती है ।

अर्थ निकालना , अमूर्त सोच ( Abstract thinking ) की क्षमता विकसित करना , विवेचना व कार्य , अधिगम या सीखने की प्रक्रिया के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पहलू हैं ।

• बच्चे व्यक्तिगत स्तर पर एवं दूसरों से भी विभिन्न तरीकों से सीखते हैं । अनुभव के माध्यम से , प्रयोग करने से , पढ़ने , विमर्श करने , पूछने , सुनने , उस पर सोचने व मनन करने से तथा गतिविधि या लेखन के जरिए अभिव्यक्ति करने से अपने विकास के मार्ग में उन्हें ये सभी तरह के अवसर मिलने चाहिए ।

• बच्चे मानसिक रूप से तैयार हों , उससे पहले ही उन्हें पढ़ा देना , बाद की अवस्थाओं में उनमें सीखने की प्रवृत्ति को प्रभावित करता है । उन्हें बहुत से तथ्य ‘ याद ‘ तो रह सकते हैं , लेकिन सम्भव है कि वे न तो उन्हें समझ पाएँ न ही उन्हें अपने आस – पास की दुनिया से जोड़ पाएँ ।

• स्कूल के भीतर और बाहर , दोनों जगहों पर सीखने की प्रक्रिया चलती रहती है इन दोनों जगहों में यदि सम्बन्ध रहे तो सीखने की प्रक्रिया पुष्ट होती है ।

• कला और कार्य , समग्र सीखने के अवसर प्रदान करते हैं , जो सौन्दर्यबोध ( Aesthetic sense ) से पुष्ट होता है । ऐसे अनुभव भाषायी रूप से ज्ञात चीजों के लिए महत्त्वपूर्ण हैं विशेषकर नैतिक मुद्दों में ताकि प्रत्यक्ष अनुभवों से सीखा जा सके और जीवन में समाहित किया जा सके ।

• सीखना किसी की मध्यस्थता या उसके बिना भी हो सकता है । प्रत्यक्ष रूप से सीखने से सामाजिक सन्दर्भ व संवाद विशेषकर अधिक सक्षम लोगों से संवाद विद्यार्थियों को उनके स्वयं के उच्च संज्ञानात्मक स्तर पर कार्य करने का मौका देते हैं ।

• सीखने की एक उचित गति होनी चाहिए ताकि विद्यार्थी अवधारणाओं को रट कर और परीक्षा के बाद सीखे हुए को भूल न जाएँ , बल्कि उसे सन्य सकें और आत्मसात ( Assimilate ) कर सकें । साथ ही सीखने में विविधत व चुनौतियाँ होनी चाहिए ताकि वह बच्चों को रोचक लगे और उन्हें व्यस्त रख सकें । ऊब महसूस होना इस बात का संकेत है कि उस कार्य को बच्चा अब यान्त्रिक रूप से दोहरा रहा है और उसका संज्ञानात्मक मूल्य खत्म हो गया है ।

बच्चों में सीखने के नियम अथवा सिद्धान्त

1. तत्परता का नियम

इस नियम का प्रतिपादन थॉर्नडाइक ने किया था । इस नियम का अभिप्राय यह है कि यदि बालक किसी कार्य को सीखने के लिए तत्पर या तैयार होते हैं , तो वह उसे शीघ्र ही सीख लेते हैं । तत्परता में कार्य करने की इच्छा निहित रहती है । यदि बालक में गणित के प्रश्न करने की तीव्र इच्छा हो , तो वह उनको करता है , अन्यथा नहीं । इतना ही नहीं , तत्परता के कारण वह उनको अधिक शीघ्रता और कुशलता से करता है । तत्परता उसके ध्यान को कार्य पर केन्द्रित करने में सहायता देती है , जिसके फलस्वरूप वह उसे सम्पन्न करने में सफल होता है ।

2. अभ्यास का नियम

इस नियम का प्रतिपादन भी थॉर्नडाइक ने ही किया था । इस नियम का अभिप्राय है कि यदि बालक कार्य को बार – बार करता रहे , तो वह उस कार्य में अन्य सामान्य बालक की अपेक्षा अधिक निपुण हो जाता है ।

3. प्रभाव / सन्तोष का नियम

थॉर्नडाइक के इस नियम के अनुसार बालक उस कार्य को सीखना चाहते हैं , जिसका परिणाम हमारे लिए हितकर होता है या जिससे बालकों को सुख और सन्तोष मिलता है । यदि बालकों को किसी कार्य को करने या सीखने में कष्ट होता है , तो बालक उसको करते या सीखते नहीं हैं । वाशबर्न के अनुसार , “ जब सीखने का अर्थ किसी उद्देश्य या इच्छा को सन्तुष्ट करना होता है , तब सीखने में सन्तोष का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है । ”

4. सीखने का प्रबलन सिद्धान्त

इस सिद्धान्त का प्रतिपादन अमेरिकी मनोवैज्ञानिक सी.एल. हल द्वारा किया गया था । इस सिद्धान्त के अनुसार , ” सीखने का आधार आवश्यकता की पूर्ति की प्रक्रिया है । ” जब बालक की किसी आवश्यकता की पूर्ति नहीं होती है , तब उसमें असन्तोष उत्पन्न हो जाता है , उदाहरण के लिए भोजन की आवश्यकता पूर्ण न होने पर बालक में तनाव उत्पन्न हो जाता है , उसके फलस्वरूप उसकी दशा असन्तुलित हो जाती है ।

साथ ही , भूख की चालक शक्ति उसे भोजन प्राप्त करने के लिए क्रियाशील बना देती है अर्थात प्रबलन ( Reinforcement ) बनता है । कुछ समय के बाद वह ऐसी स्थिति में पहुँच जाता है जब उसकी भोजन की आवश्यकता सन्तुष्ट जाती है । इसके फलस्वरूप , भूख से बालक की शक्ति कम हो जाती है ।

बालक विद्यालय / शाला प्रदर्शन में सफलता प्राप्त करने में कैसे और क्यों असफल होते हैं

पढ़ाई के दौरान बालक विद्यालय स्तर पर कैसे एवं क्यों असफल हो जाते हैं यह आरम्भ से ही अनुसन्धान ( Research ) का विषय रहा है । शिक्षार्थियों की असफलता के पीछे कोई एक कारण , नहीं अपितु कारणों की शृंखला उत्तरदायी है , जो इस प्रकार हैं

1. विद्यालय का परिवेश

विद्यालय का परिवेश ( Environment of School ) काफी हद तक विद्यार्थियों की सफलता एवं असफलता को प्रभावित करता है । विद्यालय का वातावरण बाल – केन्द्रित होना चाहिए तथा विद्यालय की सभी व्यवस्था के केन्द्र में बालकों को होना चाहिए साथ ही विद्यालय का वातावरण जनतान्त्रिक आदर्शों , मौलिकता , स्वतन्त्र चिन्तन तथा सृजन पर आधारित होना चाहिए । शिक्षक एवं शिक्षार्थी दोनों को पढ़ाई के प्रति अभिप्रेरित होना चाहिए तथा विद्यालय का वातावरण शान्त एवं भयमुक्त होना चाहिए । अगर इन व्यवस्थाओं में कमियाँ उत्पन्न होंगी , तो इसका नकारात्मक प्रभाव बच्चों के परिणाम पर पड़ेगा ।

2. पारिवारिक माहौल

बालकों की असफलता के लिए पारिवारिक माहौल ( Familiar Environment ) भी जिम्मेदार होता है । अगर माता – पिता अपने बच्चों की पढ़ाई के प्रति जागरूक न हों तो बच्चे विलम्ब से पढ़ना प्रारम्भ करते । माता – पिता एवं परिवार के अन्य सदस्यों के जागरूक नहीं रहने के कारण बच्चों की सफलता की दर काफी हद तक प्रभावित होती है , क्योंकि परिवार को शिक्षा की प्रथम पाठशाला माना गया है ।

3. अभ्यास का अभाव

बच्चे पढ़ाई के दौरान अपने पाठ्यक्रम का उचित तरीके से अभ्यास नहीं करते हैं , इसके परिणामस्वरूप वे सीखी हुई विषयों को भूलने लगते है । अभ्यास की कमी के कारण जब बालकों की उपलब्धियों का मूल्यांकन विद्यालय स्तर पर होता है तो वे असफल हो जाते हैं ।

4. अभिरुचि एवं जिज्ञासा की कमी

विद्यालय स्तर पर अध्ययन के दौरान प्रायः यह देखा जाता है कि बालकों में पढ़ाई के प्रति अभिरुचि एवं जिज्ञासा ( Interest and Curious ) का अभाव दिखता है । जिसके कारण बच्चे पढ़ाई के प्रति संवेदनशील नहीं हो पाते तथा जब उनकी उपलब्धियों का मूल्यांकन होता है , तो वे पिछड़ जाते हैं तथा वे असफल हो जाते हैं

5. स्वास्थ्य

पठन – पाठन के लिए बालकों को शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ रहना अतिआवश्यक है । स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण बालक पढ़ाई पर ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाते हैं । अस्वस्थ वातावरण में उसकी शैक्षिक विकास धीमा पड़ जाता है । इस कारण परीक्षा की उचित तैयारी नहीं हो पाती है परिणामस्वरूप वे असफल हो जाते हैं ।

6. कक्षा वर्ग का वातावरण

विद्यालय स्तर पर अध्ययन के दौरान कक्षा का माहौल प्रतिस्पर्द्धात्मक ( competitive ) एवं अनुशासनात्मक होना चाहिए । यह तभी सम्भव होगा , जब शिक्षक एवं शिक्षार्थी दोनों अपने – अपने कार्यों के प्रति जवाबदेह हों । कक्षा का अनुपयुक्त परिवेश भी बालकों के कमजोर प्रदर्शन के लिए जिम्मेदार होता है ।

7. शिक्षण विधियाँ एवं युक्तियाँ

छात्रों के प्रदर्शन एवं उपलब्धियों पर उचित शिक्षण विधि एवं युक्ति ( Teaching Method & Instrument ) का गहरा प्रभाव पड़ता है । अध्यापक यदि अध्यापन ( teaching ) के दौरान नवीन तरीकों का प्रयोग करते हैं तो बच्चों की पढ़ाई के प्रति जागरूक होंगे । यदि पढ़ाने की परम्परागत विधि अर्थात् ‘ रटंत प्रणाली ‘ पर शिक्षक जोर देंगे तो इसका नकारात्मक प्रभाव बालकों के परीक्षा परिणाम पर पड़ेगा ।

8. प्रेरणा एवं मागदर्शन का अभाव

यदि बालकों को पढ़ाई के दौरान उचित प्रेरणा एवं मार्गदर्शन ( Motivation & Guidance ) मिलता रहे तो वे कभी असफल नहीं होंगे । बालको को क्या पढ़ना चाहिए ? कैसे पढ़ना चाहिए ? पढ़ने की वैज्ञानिक शैली क्या हो यह काफी हद तक प्रेरणा एवं मार्गदर्शन पर निर्भर करता है । प्रेरणा बालकों में पढ़ाई के प्रति जोश उत्पन्न करती है । इनके अभाव के कारण बच्चे असफल हो सकते हैं ।

9. पढ़ाई के दौरान विद्यालय से भाग जाना

कुछ बच्चे विद्यालय स्तर पर प्रदर्शन में इसलिए असफल हो जाते हैं कि जब विद्यालय में पढ़ाई होती है , तो वे पढ़ने के भय से विद्यालय से भाग जाते हैं । तथा विषय – वस्तु के अध्ययन से वंचित हो जाते हैं । इसके परिणामस्वरूप उनकी शैक्षिक उपलब्धि पर नकारात्मक असर पड़ता है ।

बालकों को असफल होने से रोकने के लिए- सुझाव एवं रणनीति

1. माता – पिता की भागीदारी

बच्चों की सफलता के पीछे माता – पिता की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । अगर घर का वातावरण मजबूत एवं स्थिर हो तो बच्चों की सफल होने की सम्भावना बढ़ जाती है । माता – पिता बालको की पढ़ाई में सहयोगी भूमिका निभाते हैं अर्थात् बच्चों से बात – चीत करने का उचित तरीका , होमवर्क के समय उपस्थित रहना , शिष्टाचार सिखाना , समय पर विद्यालय भेजना तथा विषय – वस्तु से हटकर अपने बालकों को सामान्य ज्ञान की जानकारी देना आदि ।

2. बालकों में कौशल का विकास

माता – पिता एवं शिक्षक दोनों मिलकर बालकों में विभिन्न प्रकार के कौशलों का विकास करते हैं , उदाहरणस्वरूप पढ़ना , लिखना , गणित के विषय में बताना , सामाजिक शिष्टाचार के बारे में बताना तथा बालकों में नैतिक विकास को बढ़ावा देना । स्कूल में उत्पन्न चुनौतियों का सामना करने में इस प्रकार का कौशल उन्हें मदद करता है ।

3. उच्च अभिप्रेरणा स्तर

अभिप्रेरणा ( Motivation ) बालकों को विद्यालय स्तर पर बेहतर प्रदर्शन में उत्प्रेरक ( Catalyst ) का कार्य करती है । शैक्षणिक सफलता एवं माता – पिता का सहयोग उनके आत्म सम्मान को बढ़ाता है । अभिप्रेरणा के कारण बालकों में पाठ्यक्रम से अलग जाकर ज्ञान अर्जित करने की क्षमता तथा उनमें जोखिम उठाने की क्षमता होती है । बालकों के कार्य प्रदर्शन के अनुरूप माता – पिता एवं शिक्षक उन्हें लगातार फीडबैक देते रहते हैं ।