नैतिकता का अर्थ Meaning of Morality : नैतिक व्यवहार जन्मजात नही होता है । इसे सामाजिक परिवेश से सीखा या अर्जित किया जाता है । सर्वप्रथम बालक का अनैपचारिक रूप से अपने आस – पड़ोस तथा स्कूल में नैतिक विकास होता है । निसंदेह बच्चा पहले पुरस्कार , दण्ड, प्रशंसा या निंदा के द्वारा अच्छे आचरण सम्पन करता है और बुरे आचरण का त्याग कर देता हैं और किशोरावस्था में उसके भीतर विवेक पैदा होता है । और इसी विवेक के द्वारा वह नैतिक व्यवहार को सिखता जाता है । जब नैतिक व्यवहार के बाहरी स्त्रोत समाप्त हो जाते है तो वह आन्तरिक स्त्रोत अर्थात विवेक के द्वारा नैतिक व्यवहार को सीखता है और अपने आचरण को नैतिक बनाने का प्रयास करता रहता है ।

जब बालक का जन्म होता है , तो वह न तो नैतिक होता है और न ही अनैतिक होता है । बल्कि वह अच्छा या बुरा आचरण समाज से भी सीखता है । इसलिए कहा जाता है कि विकास की प्रक्रिया में वातावरण की महत्वपूर्ण भूमिका होती है ।

हमें यहा यह भी जानना चाहिए कि नैतिकता से तात्पर्यं समाज के नियमो, मान्यताओ व अपेक्षाओं के अनुरूप सम्पन्न किया गया आचरण ही नैतिकता होती है । जो व्यकित आने समाज की मान्यता और अपेक्षाओं के अनुरूप सम्पन्न किया गया आचरण ही नैतिकता होती है । जो व्यकित अपने समाज की मान्यताओं या अपेक्षाओं के अनुसार आचरण करता है । वह नैतिक कहलाता है । और इसके विपरित जो इनका अनुसण नही करता है । वह अनैतिक कहलता है ।

अलग – अलग समजो के नियम भी अलग अलग ही होते है जैसे जो नियम अमेरिका में सामान्य माने जाते है । उनके अनुरूप हम भारत में मनुष्यों के व्यवहार को स्वीकृति नहीं दे सकते है । जो – जो नियम हमारे भारत में पालन किये जाते है । उन्हें अमेरिका में पालन करना अत्यन्त जटिल होगा । इस प्रकार नैतिक व्यवहार के किसी सार्वभौमिक सिद्धांत की कल्पना करना व्यर्थ होगा। जैसे भारत मे माता – पिता की सेवा न करना अनैतिक होता है और पश्चिमी देशो में इसे अधिक अनैतिक नहीं माना जाता है । वही भारत में पत्नी को तलाक देना अनैतिक माना जाता है ।

हरलाँक ने नैतिक व्यवहार को सीखने के लिए कुछ बातो को आवश्यक माना है । जो निम्न प्रकार से है-

(1) बालक को स्पष्ट रूप से यह बता देना चाहिए कि क्या गलत है और क्या सही है ?

(2) यदि बालक अच्छा आचरण करे तो उसे स्वंय ही प्रसन्नत का अनुमान होना चाहिए और यदि वह बुरा आचरण करे तो उसे स्वयं को खेद का अनुभव होना चाहिए ।

(3) ऐसे व्यवहारों का सामाजिक रूप से वाछंनीय होना अति अवश्यक होता है ।

(4) बालक को यह भी बताने का प्रयास करना चाहिए कि कोई व्यवहार या बात क्यो सही है और क्यों गलत है।

नैतिक व्यवहार का विकास बालक के समाजीकरण का महत्वपूर्ण लक्ष्य होता है । नैतिक विकास के साथ माता – पिता की अभिवृतियों पालन पोषण की विधियो तथा परिवार की सामाजिक आर्थिक दशा का सीध सम्बंध होता है। बच्चे के लिए उसके माता – पिता व परिवार के अन्य सदस्य व अध्यापक प्रभावंशाली नमूनो या माँडल ( Models ) का कार्य करते है । बच्चा ऐसे माँडल्स का अनुकरण करके ही नैतिक व्यवहार को सीखता है और नैतिक विकास की ओर अग्रसर होता है ।

नैतिक विकास के पक्ष (Aspects of Moral Development ) : नैतिकता के विकास के कई पक्ष होते है अलग अलग मानोवैज्ञानिक के द्वारा नैतिकता के पक्षो की विवेचना भिन्न – भिन्न तरीको से की गई है ।

जैसे – नैतिक ज्ञान (Moral knowledge) नैतिक सम्प्रत्यय ( Moral concepts ) नैतिक तर्क ( Moral Logic ) तथा नैतिक व्यवहार ( Moral Behavior) ।

उचित – अनुचित का ज्ञान तथा नैतिकता के संदर्भ में बालक के भीतर विकसित नैतिक सम्प्रत्यय नैतिक व्यवहार के लिए आवश्यक तत्व होते है नैतिक सम्प्रत्ययो व नैतिक व्यवहारों का सम्बंध बच्चे की आयु व परिपवक्ता से होता है । नैतिक तर्क किसी परिस्थिति घटना या व्यवहार के औचित्य के बारे में विचार करने की प्रक्रिया है ।

भौतिक विकास के पक्ष 

(1) नैतिक ज्ञान (Moral knowledge)

(2) नैतिक सम्प्रत्यय ( Moral Concept )

(3) नैतिक तर्क (Moral Logic )

(4) नैतिक व्यवहार (Moral Behavior )

हेलेन बी (Helen Bee) के अनुसार नैतिक विकास के पक्ष

(1) नैतिक व्यवहार ( Moral Behaviout )

(2) नैतिक भावना ( Moral Feeling )

(3) नैतिक निर्णय ( Moral Judgement )

(1) नैतिक व्यवहार ( Moral Behaviout ): नैतिक व्यवहार वहा कहा जाएगा जब बालक जाएगा जब बालक किसी परिस्थिति में समाजिक नियमो और उचित अनुचित का ध्यान रखते हुए व्यवहार करता है । बच्चा नैतिक व्यवहार कैसे सीखता है ? यह एक शोध का विषय बन गया है । स्किनर ने विभिन्न सामाजिक अधिगम सिद्धांतो को विकसित करके बालक के नैतिक व्यवहार की अलग – अलग दृष्टिकोण व्याख्या की।

(2) नैतिक भावना ( Moral feelings ) : यह नैतिक विकास का दूसरा पक्ष है । इस पक्ष के अन्तर्गत यह पता लगाया जाता है कि जब कोई बच्चा अनैतिक आचरण करता है । तो उसके भीतर किस प्रकार के भाव पैदा होते है । ऐसी स्थिति में सामान्यतः बालक में आराध भाव पैदा होने लगता है । अपराध भाव के आधार पर ही समझा जा सकता है कि बालक ने नैतिक नियमो को स्वीकार कर लिया है ।

(3) नैतिक निर्णय ( Moral Judgement ) : नैतिक विकास का तीसरा पक्ष नैतिक निर्णय या नैतिक  तर्क है । यह नैतिकता का संज्ञानात्मक तत्व माना जाता है । इस पक्ष के अन्तर्गत यह पता लगाने का उद्देश्य होता है कि बालक किस तर्क के आधार यह स्वीकार कर लेता है कि कोई आचरण सही और नैतिक है ।

उपरोक्त नैतिकता के तीन पक्ष परस्पर सम्बंधित है । परन्तु वे बालक के नैतिक विकास को तीन अलग अलग दृष्टिकोण से देखते है । अतः अब जब हमने नैतिकता को और उसके तत्वो व पक्षो को समझ लिया है अब हम कोह्लबर्ग के नैतिक विकास के सिद्धांत का अध्ययन करेंगे ।

कोह् लबर्ग का नैतिक विकास सिद्धांत  Kohlber’s Theory of Moral Ddevelopment 

प्रारंभिक आयु में बच्चा नैतिकता के सम्प्रत्यय अवधारणा से अपरिचित होता है । उसका व्यवहार स्वाभाविक वृत्तियों के द्वारा निर्देशित होता है । उसकी वृत्तियो पर नियन्त्रण के लिए पुरस्कार एवं दण्ड और प्रशसा एवं निंदा की व्यवस्था करता है । इन सबके अतिरिकत बालक स्वय की जो क्रियाए सम्पन्न करता है । उसमें सुख – दुख का अनुभव करता है । मनोवैज्ञानिकों ने विषय पर शोध किया कि किस प्रकार बालक स्वाभाविक वृत्तियो से बालक नियत्रित होकर सामाजिक मूल्यो , नियमो व मर्यादाओ के अनुसार नैतिक आचरण को प्रदर्शित करता है । किसी बालक में नैतिक क्षमता का विकास कम होता है । और किसी में ज्यादा होता है । इसलिए नैतिक क्षमता के विकास के संदर्भ में सभी मनोवैज्ञातिक एकमत नहीं है । क्योंकि नैतिक विकास के सिद्धांत  भी अनेक है और नैतिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक भी कई होते है ।

फ्रायड़ के अनुसार- जब बालक अपने माता पिता की अभिवृत्तियो व भावनाओ को ग्रहण करता है । तो यह अभिवृतिया और भावनाए ही आगे चलकर बच्चे के विवेक का रूप ग्रहण कर लेती है । बालक नैतिक आचरण के लिए अपने भीतर से निदैशित होता है । इस प्रकार फ्रायड़ ने नैतिक विकास में व्यकित को बाल्यकालीन अनुभूतियो का महत्वपूर्ण स्थान बताया है ।

बैन्डूरा और वाल्टर्स ( Bandura and Walters ) ने बताया है कि बच्चे में नैतिक विकास सामाजिक अधिगम ( Social learning) का परिणाम होता है । बच्चा आने परिवेश में प्रतिदिन माँडलस के व्यवहार का अनुसरण करके नैतिक आचरण ग्रहण करता है । यहाँ नमूनो या माँडलस से तात्पर्य माता पिता, बड़े भाई बहन या अध्यापक आदि जिनका बच्चे अनुकरण करते है ।

स्किनर ( Skinner ) ने पुनर्बलन ( Reinforcement ) का प्रभाव बताते हुए कहा कि नैतिक व्यवहार का विकास दण्ड एवं पुरस्कार पर निर्भर करता है । लेकिन कोह्लबर्ग का सिद्धांत इन सबसे बिल्कुल भिन्न है ।

कोह्लबर्ग की मूल भूत आवश्यकताएँ ( Basic Assumption of Kohlberg’s Theory )

(1) बच्चे के नैतिकता विकास के स्वरूप को समझने के लिए उनके तर्क और सिद्वांत के रूवरूप का विश्लेषण करना आवश्यक होता है । बच्चे द्वारा किए गए प्रदर्शन के आधार पर बच्चे की नैतिकता का सही अनुमान नहीं लगाया जा सकता है । अधिकतर बालक डर में या पुस्कार के प्रलोभन में वांछनीय व्यवहार करता है । जैसे -अगर बच्चा विद्यालय नहीं जाना चाहता है लेकिन बिस्कुट , टाँकी या अन्य किसी प्रलोभनो के कारण विद्यालय चला जाता है । यह नैतिक चिंतन या नैतिक निर्णय के कारण नहीं ।

कोह् लबर्ग ने बालक को किसी धर्म संकट की स्थिति में रखकर यह देखा है कि बच्चा उस स्थिति में क्या करता है और किस तर्क के आधार पर उचित व्यवहार के लिए निर्णय लेता है । कोह्लबर्ग के इस उपागम को प्राणीगत उपागम ( Organismic Approach ) भी कहा जाता है ।

(2) कोह्लबर्ग के नैतिक विकास सिद्धांत को अवस्था सिद्धात ( Stage Therory ) भी कहा गया है । उन्होंने अपने सम्पूर्ण नैतिक विकास को छः अवस्थाओ में विभाजित किया है और इन्हे सार्वभौमिक ( Universal ) माना है । सार्वभौमिक का यहा तात्पर्य यह है कि कोई भी बच्चा हो वह इन अवस्थाओं से होकर अवश्य गुजरता है । नैतिक विकास की ये अवस्थाए एक निश्चित क्रम में आती है। इस क्रम को बदला नहीं जा सकता है । प्रत्येक अवस्था मे बच्चे की तर्क शक्ति पहले से नए प्रकार की होती है ।

(3) जब बच्चा एक अवस्था से दूसरी अवस्था से दूसरी अवस्था में प्रवेश में प्रवेश करता है तो उस बच्चे के भीतर नैतिक व्यवहार गुणात्मक परिवर्तन कब और कैसे उत्तपन होते है ? यह एक विचारणीय और शोध का विषय है । कोह्लबर्ग के अनुसार नैतिक व्यवहार में गुणात्मक परिवर्तन क्रमिक रूप से ही होते है । वे ऐसे ही पैदा नहीं हो जाते है । बच्चा जब किसी अवस्था में प्रवेश करता है तो वह केवल उस अवस्था की ही विशेषतओं का ही प्रदर्शन नही करता, बाल्कि वह अन्य अवस्थाओं की विशेषताओं का भी प्रदर्शन करता है । और अधिकतर मनोवैज्ञानिक उन अन्य विशेषताओं को केवल उसी अवस्था की विशेषता मान लेता है ।

(4) कोह्लबर्ग के एक सहयोगी ने भी मना है कि एक बच्चा प्रायः नैतिक विकास की एक अवस्था के बाद दूसरी अवस्था में प्रविष्ट होता है । परन्तु सभी बच्चे छः अवस्थाओ तक नहीं पहुंच पाते है । नैतिक अवस्था की अन्तिम आस्था में पहुँचने वाले बच्चो की संख्या बहुत कम होती है । अतः नैतिक र्तक शक्ति या नौतिक चिन्तन के आधार पर बालको में वैयक्तिक भिन्नताए पायी जाती है ।

नैतिक विकास की अवस्थाएँ ( Stage of moral development ) : कोह् लबर्ग ने नैतिक विकास की कुल छः अवस्थाओ का वर्णन किया है लेकिन इन्होंने दो – दो अवस्थाओ को एक साथ रखकर उनके तीन स्तर बना दिए है । ये तीन स्तर निम्न प्रकार से है ।

(1) प्री – कन्वेंशनल ( Pre – Conventional )

(2) कन्वेंशनल ( Conventional )

(3) पोस्ट कन्वेंशनल ( Post Conventional )

(1) प्री . कन्वेंशनल ( Pre – Conventional ) : जब बालक किसी बाहरी तत्व या किसी भैतिक घटना के संदर्भ मे किसी आचरण को नैतिक अभवा अनैतिक मानता है तो उसकी नैतिक तर्कशक्ति प्री– कन्वैशन स्तर की कही जाती है । इस स्तर के अन्तर्गत दो अवस्थाएँ आती है ।

(i) आज्ञा एवं दण्ड की अवस्था ( Stage of order and punishment )

(ii) अंहकार की अवस्था ( Stage of Ego )

(i) आज्ञा एवं दण्ड की अवस्था ( Stage of Order and Punishment ) : कोह्लबर्ग के अनुसार इस अवस्था में बच्चे का चिन्तन दण्ड से प्रभावित होता है । परिवार के सभी सदस्य बच्चे को कुछ कार्य कसने के आदेश देते रहते है । इन आदेशों का पालन ना करने पर बच्चे को दण्डित किया जाता है । इसलिए बच्चा यह सोचता है कि दण्ड से बचने के लिए आदेश का पालन करना अनिवार्य है । कम आयु में और अपरिपक्व होने के कारण बच्चा किसी कार्य को करने का या न करने का निर्णय इसलिए करता है क्योँकि वह दंड से डरता है। अर्थात आज्ञाओं का पालन इसालिए करता है क्योंकि वह दंड से डरता है । अर्थात आज्ञाओं का पालन इसलिए करता है कि वह दंडित न हो । इस प्रकार नैतिक विकास की शुरू की अवस्था में दण्ड को ही बच्चो की नैतिकता का मुख्य आधार माना जाता है ।

(ii) अंहकार की अवस्था ( Stage of Ego ) : इस अवस्था में आकर बच्चे के चिन्तन का स्वरूप बदल जाता है । जैसे – जैसे बच्चे की आयु बढ़ती है वह परिपक्व होता है । तो वह अपनी आवश्यकताओं और इच्छाओ को समझने लगता हैं और उसके द्वारा उसकी इछाए पूरी हो जाति है । यादि उसका कोई उद्देश्य झूठ बोलने से पूरा होता है । तो वह झूठ बोलता है । अगर भूख लगी है । और चुरा कर वह कुछ खा लेता है । तो वह इन क्रिभाओ को नैतिक आचरण ही समझता है नैतिक विकास की इस अवस्था का आधार बालक का अंहकार (Ego) होता है ।

(2) कन्वेशनल स्तर ( Conventional Level ) : इस स्तर को भी दो उप उवस्थाओं में विभाजित किया जाता है ।

(i) प्रशंसा की अवस्था ( Stage of Appreciation )

(ii) सामाजिक व्यवस्था के प्रति सम्मान की अवस्था ( Stage of Respect for social system )

(i) प्रशंसा की अवस्था ( Stage of Appreciation ) : इस अवस्था में बच्चा जो भी करता है वह दूसरे लोगों के द्वारा उसकी प्रशंसा करने के लिए करता है । जब उसे पाता होता है कि दूसरे लोग उसकी प्रशंसा पाने के लिए ऐसा करते है । दूसरी ओर समाज के सदस्य बच्चो से विशेष अपेक्षाए करने लगते है , तो समाज से उन्हे स्वीकृति मिलने लगती है । इस अवस्था में बच्चे उन्हीं व्यवहारो को उचित व नैतिक मानते है जिनके लिए वे परिवार , स्कूल , पड़ोस मित्र – मण्डली से प्रशंसा प्राप्त करते है । इस प्रकार हम कह सकते है कि इस अवस्था में बच्चे के चिन्तन का स्वरूप समाज और उसके परिवेश से निर्धारित होता है ।

(ii) सामाजिक व्यवस्था के सम्मान की अवस्था ( Stage respect for social system ) : नैतिक विकास की यह उप – अवस्था अत्यन्त महत्वपूर्ण मानी जती है । कोह्लबर्ग के अनुसार समाज के ज्यादातर सदस्य नैतिक विकास की इस अवस्था तक पहुंच जाते है । इस अवस्था में प्रवेश से पहले बालक समाज को केवल इसलिए महत्वपूर्ण मानता है कि वह उसकी प्रशंसा करता है । अब वह समाज को स्वंय एक लक्ष्य मानने लगता है । इस अवस्था में पहुँचकर स्वंय यह समझने लगता है । कि सामाजिक नियमो के विरूद्ध प्रत्येक कार्य को अनैतिक कहता है । इस प्रकार हम देखते है कि कोह्लबर्ग ने नैतिक विकास की अवस्थाओं का क्रमिक अध्ययन किया है । 

(3) पोस्ट कंन्नेशनल स्तर ( Post – Conventional Level ) : कोह्लबर्ग ने अपने तीसरे स्तर को भी दो उप – अवस्थाओ में बाँटा है ।

(i) सामाजिक समझौते की अवस्था ( Stage of social contract )

(ii) विवेक की अवस्था ( Stage of Conscience )

(i) सामाजिक समझौते की अवस्था ( Stage of social contract ) : इस अवस्था तक आते आते व्यकित को नैतिक चिन्तन की दशा में पर्याप्त परिवर्तन आ जाते है । अब व्यक्ति परस्पर लेन देन में विश्वास करने लगता है। कि व्यक्ति व समाज के बीच एक समझौता होता है । व्यक्ति यह मानने लगता है , कि व्यक्ति को सामाजिक नियमों का पालन इसलिए करना चाहिए क्योंकि समाज हमारे हितो की रक्षा करता है । वो हमारा दायित्व बनता है कि हम समाज के नियमो का पालन करे । अगर व्यक्ति सामाजिक नियमो का पालन नहीं करता तो व्यक्ति व समाज के बीच का समझौता टूट जाता हैं अतः अपने नियमो , परम्पराओं , कानूनो के द्वारा समाज व्यक्ति को स्वतंत्रता अधिकार और सुरक्षा देता है । अतः ऐसे नियमों का उल्लघंन अनैतिक मना जाता है ।

(ii) विवेक की अवस्था ( Stage of Conscience ) : कोह्लबर्ग के अनुसार नैतिक विकास की छठी व अन्तिम अवस्था यही होती है । क्योकि इस अवस्था में पहुँचने पर व्यक्ति नैतिकता के बारे में अपना दृष्टिकोण भी विकसित कर लेता है । व्यक्ति में विवेक पैदा हो जाता है । व्यक्ति के अब अच्छे बुरे उचित – अनुचित आदि विषयों पर स्वंय के व्यकितगत विचार विकसित हो जाते है । अब व्यक्ति के नैतिक विकास का एकमात्र आधार विवेक ही बन जाता है । अब इस अवस्था में व्यक्ति नियमो का पालन स्वंय के दृष्टिकोण से प्रेरित होकर करने लगता है । इस अवस्था में व्यक्ति अब नियमो की वैद्यता को भी चुनौती देने लगता है । क्योंकि वे नियम उसके विवेक से मेल नहीं खाते है । अब व्यक्ति केवल विवेक के आधार पर ही जीवित रहने का आदि हो जाता है । अब व्यक्ति के लिए वही आचरण नैतिक होगा जो उसके स्वंय के विवेक का समर्थन प्राप्त कर लेगा ।

By admin

16 thoughts on “Kohlberg Theory of Moral Development / कोहलबर्ग का नैतिक विकास का सिद्धांत”
  1. thank you sir 🙏🙏🙏🙏🙏 aaj ki class humesha yaad rahegi, jb jb is note ko padhungi

  2. wonderful note’s 👌👌 superb sir,, 🥰🥰 thankyou so much sir,, for providing these notes 🌸🌸

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