Individual Differences व्यक्तिगत विभिन्नता

व्यक्तिगत विभिन्न्ता (Individual Differences)

अर्थ :- सभी व्यक्तियों या बालकों का अवलोकन करने पर ज्ञात होता हैं कि कोई दो व्यक्ति का बालक सभी प्रकार से एक जैसे नहीं होते हैं । यहाँ तक कि दो जुड़वा भाई – बहिनों में भी पूर्णरूप से समानता नहीं पायी जाती है । उनमें रूप – रंग , शारीरिक गठन , विशिष्ट योग्यताओं , बुद्धि , स्वभाव आदि परस्पर एक – दूसरे से कुछ न कुछ भिन्न अवश्य होते हैं। इस प्रकार उन पायी जाने वाली इस भिन्नता को हीं व्यतिगत विभिन्नता कहते हैं । अतः व्यक्तिगत भिन्नता का अभिप्राय किहीं दो व्यक्ति या बालकों के शारीरिक , मानसिक , संवेगात्मक तथा सामाजिक विभिन्नताओं में भिन्नता से हैं ।

व्यक्तिगत विभिन्नता कारण

1 . वंशानुक्रम ( Heredity )
2 . वातावरण (Environment)
3 . जाति , प्रजाति एवं देश ( Caste, Race & Country)

4 . आयु एवं बुद्धि ( Age & Intelligence )
5 . शिक्षा एवं आर्थिक दशा ( Education & Economical Condition )
6 . लिंग – भेद ( Sex – Differences)

व्यक्तिगत विभिन्नताओं का शैक्षिक महत्व (Educational Importance of Individual Difference)

व्यक्तिगत विभिन्नताओं का ज्ञान हो जाने पर शिक्षक अपने छात्रों का अधिक हित कर सकता है । प्रायः प्रत्येक कक्षा में सामान्य बालकों की अपेक्षा मंदबुद्धि और प्रतिभाशाली बालक भी कुछ संख्या में रहते है । कक्षा शिक्षण सामान्य बुद्धि बालकों के लिए उपयुक्त होता हैं । मंदबुद्धि और प्रतिभाशाली बालक इससे अधिक लाभ नहीं उठा पाते हैं क्योंकि सभी को सामान्य रूप से एक ही पद्धति द्वारा शिक्षा दी जाती है । अतः शिक्षकों का दायित्त हो जाता हैं कि वे बालकों को उनकी व्यक्तिगत विभिन्नताओं को ध्यान में रखते हुए शिक्षा प्रदान करें । इसके लिए निम्न बातों पर ध्यान देना आवश्यक हैं :-
1 . कक्षा का सीमित आकार ।
2 . छात्रों का वर्गीकरण ।
3 . पाठ्यक्रम का विभिन्नीकरण ।
4 . व्यक्तिगत शिक्षण की व्यवस्था ।
5 . शिक्षण – पद्धतियों में परिवर्तन ।
6 . गृहकार्य ।
7 . शारीरिक दोषों के प्रति ध्यान ।
8 . लिंग – भेद के अनुसार शिक्षा ।
9 . बहुउद्देशीय विद्यालयों की स्थापना ।
10 . शैक्षिक निर्देशन ।
11 . व्यावसायिक निर्देशन ।

वंशानुक्रम एवं वातावरण (Heredity & Environment)

संसार में कोई दो व्यक्ति , शरीर और व्यवहार की दृष्टि से समान नहीं होते हैं अर्थात् सभी व्यक्तियों में कोई न कोई भिन्नता अवश्य होती है । प्रश्न यह उठता है कि व्यक्तियों में परस्पर भिन्नता क्यों पाई जाती है ? इसका क्या कारण है ? इस व्यक्तिगत विभिन्नता का प्रमुख कारण वंशानुक्रम और वातावरण है । व्यक्तित्व के विकास और व्यवहार के निर्धारण में वंशानुक्रम और वातावरण दोनो का ही महत्वपूर्ण स्थान है ।

वंशानुक्रम का अर्थ एवं परिभाषा ( Meaning and Definition of Heredity ):-
वंशानुक्रम एक जैविकीय प्रत्यय हैं जो आनुवांशिकी के सिद्धान्त पर आधारित है । प्राणिशास्त्रीय नियमों के अनुसार एक पीढ़ी , दूसरी पीढ़ी को कुछ विशिष्ट गुण हस्तांतरित करती हैं इस प्रकार गुणों के हस्तांतरण को ही वंशानुक्रम या आनुवांशिकता कहते हैं ।
जेम्स ड्रेवर के अनुसार –  “माता – पिता की शारीरिक एवं मानसिक विशेषताओं का संतान में हस्तांतरण होना वंशानुक्रम है ।”
पीटरसन के अनुसार – “ व्यक्ति अपने माता – पिता के माध्यम से पूर्वजों की भी विशेषताएँ प्राप्त करता है , उसे वंशानुक्रम कहते हैं । ”

वंशानुक्रम के नियम ( Laws of Heredity ) 

1.  बीज कोषो की निरंतरता का नियम ( Law of continuity of Germ Plasm ) :-  इस नियम का प्रतिपादक बीजमैन नामक वैज्ञानिक था। उसके अनुसार मानव की उत्पत्ति बीज कोषो से होती है जिनका प्रमुख गुण यह बताता है कि बीज कोष कभी नष्ट नहीं होते हैं । ये माता – पिता द्वारा अपनी संतति को हस्तांतरित होते रहते हैं ।
2.  समानता का नियम (Law of Resemblance):- इस नियम के अनुसार जैसे माता – पिता होते हैं , वैसी ही उनकी संतान होती है ।
3.  विभिन्नता का नियम (Law of variation):- इस नियम से तात्पर्य है कि बच्चे अपने माता – पिता की सत्य प्रतिलिपि नहीं होते है और न एक ही माता – पिता के सभी बत्ने एक – दूसरे के समान होते हैं । उनमें परस्पर रंग , बुद्धि एवं स्वभाव में भिन्नता रहती है ।
4.  प्रत्यागमन का नियम (Law of regression):- इस नियम के अनुसार , बालक में अपने माता – पिता के विपरीत गुण पाये जाते हैं । मन्द बद्धि माता – पिता की संतानों को प्रतिभाशाली होने एवं प्रतिभाशाली माता – पिता की संतानों को मन्द बुद्धि होने की प्रवृत्तियों को प्रत्यागमन कहा जाता है ।
 5.  अर्जित गुणों के संक्रमण का नियम (Inheritance of Acquired Traits):- लेमार्क के अनुसार – “ व्यक्तियों द्वारा अपने जीवन में जो कुछ भी अर्जित किया जाता है , वह उनके द्वारा उत्पन्न किये जाने वाले व्यक्तियों को संक्रमित किया जाता है”

वातावरण का अर्थ एवं परिभाषा ( Meaning and Definition of Environment )

वातावरण के लिए इसका पर्यायवाची शब्द ‘ पर्यावरण ‘ का भी प्रयोग किया जाता है । पर्यावरण दो शब्दों से मिलकर बना है ” परि ‘ तथा ‘ आवरण ‘ । ‘ परि का अर्थ है – ‘ चारों ओर ‘ तथा ‘ आवरण ‘ का अर्थ है – घेरने वाला । इस प्रकार पर्यावरण या वातावरण वह है जो व्यक्ति को चेतन या चेतन रूप में चारों ओर से घेरे हुए हैं।
अनुकूल वातावरण में व्यक्ति का स्वाभाविक विकास होता है और प्रतिकूल वातावरण में उसका विकास कुण्ठित होता है । वातावरण के तत्वों के अंतर्गत वे सभी भौतिक और मनोवैज्ञानिक उद्दीपक आते है जिनमें प्राणी गर्भाधान से लेकर जीवन पर्यन्त प्रभावित होता रहता है ।
रॉस के अनुसार – “वातावरण कोई बाहरी शक्ति है जो हमें प्रभावित्त करती हैं ।”
वुडवर्थ के अनुसार – “ वातावरण में वे सब बाह्य तत्व आ जाते हैं , जिन्होंने व्यक्ति को जीवन आरंभ करने के समय से प्रभावित किया है ।”

वंशानुक्रम और वातावरण का सापेक्ष महत्व (Relative Importance of Heredity and Environment) 

1 . वंशानुक्रम और वातावरण को एक – दूसरे से पृथक नहीं किया जा सकता ।
2 . वंशानुक्रम और वातावरण , एक – दूसरे के पूरक , सहायक और सहयोगी हैं ।
3 . वंशानुक्रम और वातावरण के प्रभावों में अंतर करना संभव नहीं हैं ।
4.  व्यक्ति का विकास , वंशानुक्रम एवं वातावरण की अन्तः क्रिया के फलस्वरूप होता हैं और व्ययित इन दोनों का योगफल न होकर गुणनफल है ।
व्यक्ति (Individual) = H (वंशानुक्रम) X E (वातावरण) 

व्यक्तिगत विभिन्नताओं पर आधारित प्रविधियाँ (Teaching Techniques Based on Individual Differences or Individualizing Educational Prograrthnic)

(1) प्रोजेक्ट प्रणाली (Project Method)

इस पद्धति का जन्म अमेरिका में हुआ तथा इस पद्धति के जन्मदाता किलपेट्रिक थे। उनके अनुसार- “प्रोजेक्ट पूरे मन से किया जाने वाला एक उद्देश्यपूर्ण कार्य है जो सामाजिक वातावरण में सम्पन्न होता है ।” इस प्रणाली में छात्र अपनी रुचि से योजना का चयन करता है । जैसे – मिट्टी के बर्तन बनाना, गुड़िया का घर बनाना, नाटक खेलना , बागवानी करना , जानवरों को पालना आदि । यह विधि ‘ करके सीखो सिद्धान्त पर बल देती है । इस विधि में छात्रों को एक – एक कार्य सौंप दिया जाता है जिसे वे मिल – जुल कर पूरा करते हैं जैसे सांस्कृतिक कार्यक्रम या पिकनिक की व्यवस्था करना । योजना के पदों में परिस्थिति निर्माण , चयन , नियोजन , पूर्ण करना , मूल्यांकन तथा अंकन प्रमुख हैं ।

(2) डाल्टन प्रणाली (Dalton Method)

इस प्रणाली को मिस हेलेन पार्कहस्र्ट ने दिया । इस प्रणाली में छात्र को अपनी योग्यता , क्षमता व रुचि के अनुसार कार्य करने की स्वतंत्रता होती है । उसे Time – Table के बन्धन में नहीं बाँधा जाता । विद्यार्थी चाहे तो सारे दिन एक ही विषय पढ़ सकता है । इसमें प्रत्येक विषय के लिये प्रयोगशाला बनाई जाती है । इस प्रणाली की मुख्य विशेषता कार्य का ठेका है जिसे छात्र को निश्चित अवधि में पूरा करना होता है । वर्ष भर के कार्य को वह महीनों , सप्ताहो व दिनों में बाँट सकता हैं । इस प्रणाली में अध्यापक मात्र एक पथ – प्रदर्शक के रूप में कार्य करता है ।

(3) ईकाई या विनेटिका प्रणाली (Winnetka Method)

इस योजना के प्रतिपादन डॉ . कार्लटन वाशबर्न ने किया । इस योजना में भी बालक को कार्य करने की पूर्ण स्वतंत्रता रहती है । इसमें पूरे पाठ्यक्रम को छोटी – छोटी इकाइयों में बाँट दिया जाता है । छात्र एक इकाई का सफलता पूर्वक अध्ययन करने के बाद ही दुसरी इकाई का अध्ययन करता है । छात्र अपने ज्ञान की परीक्षा स्वयं करता है । अध्यापक मात्र मार्ग – दर्शक होता है । इस योजना में कोई बालक अनुत्तीर्ण नहीं होता तथा प्रत्येक विषय में बालक को अलग से ग्रेड दिया जाता है । इस विधि में बालक का ईमानदार होना आवश्यक है ।

(4) डेक्रोली प्रणाली (Descroley Metliod)

इस प्रणाली के जन्मदाता डॉ . ओविड डेक्रोली थे । बेलजियम में प्रोफेसर थे । उनके अनुसार बालक को शिक्षा उसके जीवन से ही मिलनी चाहिये । इस विधि में बालक का विभाजन उनकी रुचि , क्षमता एव स्तर के आधार पर कर दिया जाता है । फिर उन्हें उनकी क्षमता के अनुसार आगे बढ़ने दिया जाता हैं । डेक्रोली प्रणाली में स्कूल का वातावरण प्राकृतिक होता है जहाँ बालकों को उदार शिक्षा दी जाती है । लड़के – लड़कियों को एक साथ शिक्षा दी जाती है तथा इनकी संख्या 20 – 25 होती है । इस प्रणाली में माता – पिता का भी सहयोग लिया जाता है तथा बालकों में सामूहिक भावना का विकास किया जाता है ।

(5)  कान्ट्रेक्ट प्रणाली (Contract Method)

यह योजना एक प्रकार से डाल्टन प्रणाली तथा विनेटीका प्रणाली का मिला – जुला रूप हैं । इसमें छात्र को सप्ताह , महीने या वर्ष भर का कार्य एक साथ ही दे दिया जाता है । कोई समय – सारणी का बन्धन नहीं होता और न ही पाठ्यक्रम के छोटे – छोटे भाग किये जाते हैं । छात्र को कार्य करने की पूरी स्वतंत्रता रहती है । वह चाहे तो वर्ष का कार्य 8 महीने में पूरा कर सकता है और यदि वह किन्हीं कारणों से कार्य पूरा नहीं कर पाता तो वह उसे अगले वर्ष पूरा कर सकता है । कार्य की समाप्ति पर उसकी परीक्षा ली जाती है और उसके असफल होने पर उसके कारणों को जानने का प्रयास किया जाता है ।

(6) क्रिया – योजना (Activity Method)

क्रिया योजना वस्तुत: कोई योजना नहीं है बल्कि शिक्षण प्रक्रिया का एक पहलू है । अध्यापक का यह प्रयास रहता है कि उसके विद्यार्थी कक्षा में पूरे समय सक्रिय बने रहें । इसलिये जब तक विद्यार्थी प्रश्न पूछकर पाठ्य – वस्तु को आत्मसात करने की कोशिश नहीं करता , अध्यापक को संतुष्टि नहीं होती । इस विधि में अध्यापक छात्र की क्रियाओं का निरीक्षण करता है । छात्र को वही क्रिया सौंपी जाय जो उसके मानसिक स्तर के अनुकूल हो।

(7) अभिक्रमित अनुदेशन (Programmed Instruction)

यह प्रणाली एक प्रकार से विनेटिका प्रणाली का ही रूप है । जिस प्रकार विनेटिका प्रणाली मैं हम पाठ्यक्रम को छोटी – छोटी इकाइयों में बाँट लेते हैं वैसे ही ये इकाइयाँ इस अभिक्रमित अनुदेशन में प्रोग्राम कहलाती हैं । अब छात्र एक – एक प्रोग्राम को लेकर चलता है तथा उसे पूरा करता है । एक प्रोग्राम के सफलतापूर्वक कर लेने पर ही उसे दुसरा प्रोग्राम दिया जाता है । जो विद्यार्थी प्रथम प्रयास में प्रोग्राम नहीं सीख पाता उसे feedback दी जाती है तथा जो सीख जाता है उसे Reinforcement दिया जाता है । छात्र को निर्धारित समय सीमा में ही सारे प्रोग्राम करने होते हैं ।

(8) किण्डरगार्टन प्रणाली (Kindergarten Method)

इस प्रणाली के जन्मदाता फ्रोबेल हैं । किण्डरगार्टन शब्द का अर्थ है ‘ बच्चों का बगीचा। फ्रोबेल शिक्षक को एक माली तथा बच्चे को पौधा मानता है । उसका कहना है कि बालक एक अविकसित पौधा है जो शिक्षक रूपी माली की देखरेख में पनपता है । इस प्रणाली में बालक को पुस्तकों से नहीं लादा जाता बल्कि उसे स्वतन्त्र रूप से हँसने , खेलने , बोलने व घूमने दिया जाता है । इस प्रणाली में बालक खेल खेल में सब कुछ सीख जाता है ।

(9) मान्टेसरी प्रणाली (Montessori Method)

छोटे बच्चों को शिक्षित करने की यह एक लोकप्रिय प्रणाली है । इस प्रणाली की जन्मदात्री डॉ . मेरिया मांटेसरी हैं । यह विधि मन्द बुद्धि बालकों के लिये बहुत उपयोगी है । यह प्रणाली मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित है । स्वतन्त्रता , आत्म – अनुशासन , आत्मनिर्भरता , व्यावहारिक शिक्षा , व्यक्तिगत शिक्षा , खेल , कर्मेन्द्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा आदि इस ‘ प्रणाली के आधार हैं । दृष्टि , श्रवण , स्पर्श , स्वाद एवं घाण शक्तियों तथा घरेलु उपकरणों के द्वारा शिक्षा दी जाती है । 

प्रतिभाशाली बालक (Gifted children)

अर्थ:-  प्रतिभाशाली बालक , सामान्य या औसत बालकों से सब बातों ( बुद्धि , विचार आदि ) में श्रेष्ठ होते हैं । ये बालक सामान्य बालकों से इतने अलग होते हैं कि इनके लिए विशेष प्रकार की शिक्षा , प्रशिक्षण और समायोजन की आवश्यकता होती हैं । अन्यथा ये दूसरे बालों के साथ और कक्षा में उचित प्रकार से समायोजित ( Adjust ) , नहीं हो पाते । मनोवैज्ञानिकों के अनुसार प्रतिभाशाली वे बालक हैं जिनकी बुद्धि लब्धि ( I . Q . ) 1 30 या 140 से अधिक होती है । 

टरमन के अनुसार – “ प्रतिभावान बालक शारीरिक विकास , शैक्षणिक उपलब्धि , बुद्धि और व्यक्तित्व में वरिष्ठ होते है ।”

कॉलेसनिक के अनुसार – “ वह प्रत्येक बालक जो अपनी आयु – स्तर के बालकों में किसी योग्यता में अधिक हो और जो हमारे समाज के लिए कुछ महत्वपूर्ण नई देन दें। ”  

प्रतिभाशाली बालक की विशेषताएँ (Characteristics of Gifted child)

1. शारीरिक विशेषता – ट्रमन ने अपने अध्ययनों द्वारा स्पष्ट किया हैं कि प्रतिभाशाली बालक जन्म के समय सामान्य बालक की तुलना में डेढ़ इंच लम्वा वे भार में एक पौण्ड अधिक होता है । इसके अतिरिक्त वह चलना , फिरना और बोलना , सामान्य बालर्को की तुलना में जल्दी सीख लेता है । 

2 . उच्च बुद्धि – लब्धि – प्रायः इनकी बुद्धि लब्धि 140 से अधिक मानी गई है ।
3 . अमूर्त चिन्तन – इनकी चिन्तन प्रक्रिया श्रेष्ठ होती है । जिससे वे कठिन समस्याओं को समझाने तथा समाधान ढूढ़ने में देर नहीं करते ।
4.  सामाजिक और संवेगात्मक दृढता – प्रतिभाशाली बालकों की सामाजिकता और संवेगात्मकता अधिक दृढ़ होती हैं ।
5 . मानवीय गुण – इनमें सहयोग , परोपकार , सहिष्णुता , दया तथा ईमानदारी जैसे मानवीय गुण दूसरों की तुलना में अधिक होते हैं ।

6 . अंतर्दृष्टि – ऐसे बालक आश्चर्यजनक सूझबूझ रखते है ।
7 . नेतृत्व की क्षमता – ऐसे बालकों में कुशल नेतृत्व की क्षमता होती हैं और अपने इस नेतृत्व से सबका मन मोह लेते है ।
8 . अवधान योग्यता – प्रतिभाशाली बालकों में अवधान की शक्ति तीव्र होती
9 . निर्देशन की कम आवश्यकता – ऐसे बालकों में बौद्धिक सजगता और मौलिकता अधिक होती हैं अतः वह अपने पूर्व अनुभव व सूझबूझ से कार्य को सफलतापूर्वक कर सकता है । ऐसे बालकों को निर्देशन की आवश्यकता कम पड़ती है ।
10 . हास्य तथा उदार प्रकृति – ऐसे बालकों की ज्ञानेन्द्रियाँ अधिक संवेदनशील होती हैं । सामान्यतः ये हास्य तथा उदार प्रकृति के होते हैं ।

प्रतिभावान बालकों की शैक्षिक व्यवस्थाएँ (Educational Provisions for Gifted Children)

1 . विशेष व विस्तृत पाठ्यक्रम ।
2 . बालर्को पर व्यक्तिगत ध्यान ।
३ . योग्य अध्यापकों की आवश्यकता ।
4 . पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं का आयोजन ।
5 . पुस्तकालय सुविधायें ।
6 . नेतृत्त्व का प्रशिक्षण ।
7 . संस्कृति की शिक्षा ।
8 . विशेष स्कूल और कक्षायें ।
9 . घर के लिए विशेष कार्य ।
10 . उत्तरदायित्व का कार्य ।
11 . सर्वांगीण विकास पर बल ।

बाल – अपराधी बालक (Delinquent Children)

बाल अपराध का सम्बन्ध बालक के व्यक्तित्व के सभी पक्षों से होता हैं , जैसे – सामाजिक पक्ष , संवेगात्मक पक्ष और मानसिक पक्ष । किसी भी पक्ष में समायोजन करने में यदि बालक असफल रहता है , तो वह बालक बाल – अपराधी बन जाता हैं । बाल अपराध का शाब्दिक अर्थ हैं सामान्य रास्ते से भटक जाना ।

हैडफील्ड के अनुसार – “ बाल अपराध का अर्थ हैं – असामाजिक व्यवहार ।”
स्किनर के अनुसार – “बाल अपराध की परिभाषा किसी कानून के उस उल्लघंन के रूप में की जाती हैं , जो किसी वयस्क द्वारा किये जाने पर अपराध होता हैं ।”

बाल – अपराध के कारण

1 . वंशानुक्रम सम्बन्धी कारण
2.  वातावरण सम्बन्धी कारण

(a) पारिवारिक वातावरण

● माता – पिता का बालकों पर नियंत्रण न रहना ।
● घरेलू लड़ाई झगड़े ।
★ परिवार में माता – पिता के सम्बन्ध विच्छेद या किसी एक की मृत्यु हो जाना ।
● पारिवारिक निर्धनता ।
● घर में बच्चों के साथ पक्षपातपूर्ण रवैया ।
★ बालकों की रूचियों की ओर ध्यान न देना ।
● बालकों को आवश्यक स्वतन्त्रता प्रदान न करना ।
● बालकों की बेकारी की समस्या ।
★ सौतले माता – पिता का होना ।
● घर के अन्य सदस्यों का अपराधी होना ।
● माता – पिता का अनैतिक व्यवहार ।
★ माता – पिता के शारीरिक व मानसिक दोषों के कारण जैसे – अन्धा , पागल , अपाहिज होना ।
● बालकों की आवश्यकताओं को पूरा न कर पाना ।
● परिवार में अधिक बच्चे होने के कारण ।
★ परिवार में बच्चों का स्थान ।

(b) स्कूल का वातावरण 

● व्यक्तिगत विभिन्नताओं की और ध्यान न देना ।
● पाठ्य – सहगामी क्रियाओं की कमी ।
★ उचित मार्गदर्शन की कमी ।
● कठोर अनुशासन ।
● अधिक गृहकार्य ।
★ दूषित पाठ्यक्रम ।
● शिक्षकों का व्यवहार ।
● विद्यालय में राजनैतिक वातावरण ।
★ मित्रमण्डली ।
● असफलता एवं पिछड़ापन ।

(c) समाज का वातावरण

● समाज का दूषित वातावरण ।
● बेरोजगारी ।
★ गन्दी बस्तियाँ ।
● बुरी संगति ।
● सिनेमा ।
★ अश्लील साहित्य ।

3 . शरीर रचना सम्बन्धी कारण

बाल अपराधियों की विशेषताएँ

शारीरिक- आयताकृति, पुष्ट मांसपेशियों युक्त एवं दुस्साहसी । 

स्वभावगत – अशांत , शक्ति से भरपूर , आक्रमक , बर्हिमुखी , शीघ्र उद्वेलित , विध्वंसात्मक ।
अभिवृत्तियाँ – अपारम्परिक , संदेही , सत्ता के विरोधी , द्वेषपूर्ण एवं शत्रुता भाव रखने वाले ।
मनोवैज्ञानिक – मूर्त एवं प्रत्यक्ष की ओर झुकाव रखने वाले , समस्याओं के समाधान में कम व्यवस्थित ।
सामाजिक सांस्कृतिक – स्नेह या अभाव , माता – पिता के नैतिक मानदण्ड इन्हें पर्याप्त रूप में निर्देशित नहीं कर पाते ।

बाल अपराधी के कृत्य

1 . चोरी , उठाईगिरी ।
2 . भगोड़ापन ।
3 . निरुद्देश्य भटकना ।
4 . जेब काटना ।
5 . धोखाधड़ी , ठगी ।
6 . जुआ खेलना ।
7 . उपदव , हमला , लड़ना एवं क्रुरता ।
8 . सम्पत्ति को क्षति पहुँचाना ।
9 . यौन अपराध ।
12 . हत्या ।
11 . मादक पदार्थों का सेवन ।

बाल अपराधों की रोकथाम

1 . परिवार के वातावरण में सुधार ।
2 . स्कूल के वातावरण में सुधार ।
3 . समाज के वातावरण में सुधार ।
4 . मनोवैज्ञानिक विधि ।
5 . मानसिक चिकित्सा ।
6 . मनो – विश्लेषण विधि ।
7 . विशेष बाल न्यायालय ।

विकलांग बालक ( Physically Handicapped children)

अर्थ :- कुछ बालक ऐसे होते हैं जिनके शरीर का कोई न कोई अंग जन्म से ही दोषपूर्ण होता हैं । या किसी बड़ी बीमारी , चोट , दुर्घटना आदि के कारण शरीर के विसी न किसी अंग में दोष आ जाता है । ऐसे बालकों को विकलांग बालक कहते हैं

विकलांग बालकों के प्रकार ( Kinds of Handicapped Childrens )

1 . शारीरिक रूप से विकलांग बालक:- शारीरिक रूप से विकलांग बालक वे होते हैं जिनमें कोई शारीरिक त्रुटि होती हैं और वह श्रुटि उनके काम – काज में किसी न किसी प्रकार की बाधा डालती है । इनका वर्गीकरण निम्न हैं
अपंग बालक:- अन्धे , लूले , लंगड़े , बहरे , गुंगे आदि अपंग कहलाते हैं ।
2 . मानसिक रूप से विकलांग बालक:- इस प्रकार के बालकों में मूर्ख , निम्न बद्धि वाले या मन्द गति से सीखने वाले बालकों की गणना होती हैं । इन बालकों का वर्गीकरण बुद्धि – लब्धि  के आधार पर किया जाता हैं ।
3 . संवेगात्मक और सामाजिक रूप से विकलांग बालक:- इस श्रेणी में बाल अपराधी बालकों की गिनती होती हैं । अर्थात् वे बालक जो संवेगात्मक और सामाजिक रूप से कुसमायोजित हों ।

विकलांग बालकों की शिक्षा

शारीरिक रूप से विकलांग बालकों की शिक्षा सामान्य बालकों के साथ सम्भव नहीं । इन विकलांग बालकों को अधिगम और समायोजन संबंधी विभिन्न समस्याओं का सामना करना पड़ता है । इन समस्याओं के परिणाम स्वरूप बालकों में हीन भावनाओं ( Inferiority Celirigs ) का विकास होता है । अतः विभिन्न दृष्टिकोण से विकलांग बालकों को विशेष शैक्षणिक सुविधायें प्रदान की जानी चाहिए ।
पिछड़े बालक या मन्द गति से सीखने वाले बालक:- पिछड़े बालकों से तात्पर्य उन बालकों से हैं । जो कक्षा में किसी बात को बार बार समझाने पर भी नहीं समझते हैं या औसत दर्जे के बालकों के समान प्रगति करने में असमर्थ रहते है।

पिछड़े बालकों का वर्गीकरण

1 . वातावरण और परिस्थितियों के कारण पिछड़े बालक ।
2 . मन्द बुद्धि वाले पिछड़े बालक ।
3 . शारीरिक दोष के कारण पिछड़े बालक ।
4 . शिक्षा के अभाव से पिछड़े बालक ।
5 . संवेगात्मक दृष्टि से पिछड़े बालक ।

विशेषताएँ

1 . इन बालकों में दृष्टि , वाणी एवं श्रवण दोष पाये जाते हैं ।
2 . इन बालकों में अमूर्त चिन्तन की योग्यता व बौद्धिक कौशल सीमित मात्रा में पाया जाता है ।
3 . इन बालों की तर्क शक्ति व ध्यान संकेन्द्रण की क्षमता भी सीमित पाई जाती है ।
4 . इन बालकों को सामान्यीकरण में कठिनाई होती है ।
5 . इन बालक का सीखने के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण होता है ।
5 . इन बालर्को में नकारात्मकता , अपरिपक्वता , क्षतिपूरक गतिविधयाँ जैसी नकारात्मक समायोजन युक्तियों का प्रयोग पाया जाता हैं ।
7 . ऐसे बालक निरन्तर ध्यान एवं अध्यापक की सहमति चाहते हैं ।
8 . इन बालों में उत्तरदायित्व ग्रहण करने की क्षमता सीमित होती है ।
9 . ये बालक दूसरों पर निर्भर रहते हैं ।
10 . इन बालकों में जिज्ञासा प्रवृत्ति नहीं होती ।
11 . इन बालकों में हीनता की भावना , दुश्चिंता व असफलता का भय पाया जाता है ।

पिछड़ेपन व धीमी गति से सीखने वाले बालकों की शिक्षा

पिछड़ेपन के उपचार की कोई एक विधि या उपाय नहीं हैं जो कि सभी बालको पर समान रूप से अपनाया जा सके । प्रत्येक पिछड़ा बालक अनूठा है । अतः प्रत्येक पिछड़े बालक को व्यक्तिगत ध्यान व नियोजित उपचार की आवश्यकता होती है । निम्न बिन्दु शैक्षिक कार्यक्रम के आयोजन एवं क्रियान्वयन में सहायक हो सकते हैं ।
1 . वैयक्तिक उपचार
2 . अभिप्रेरणा
3 . अधिगम तत्परता
4 . मूर्त रूप से अध्ययन
5 . माता – पिता का सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण
6 . कक्षा का आकार
7 . विशिष्ट विद्यालय
8 . उचित शैक्षिक निर्देशन

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