18. CDP – Abstract Operational Stage PART- 5

🔆 किशोरावस्था शिक्षा की महत्वपूर्ण विशेषताएं

बच्चे का जीवन दो अलग-अलग नियम से विकसित होता है।
🔹 सहज परिपक्वता का नियम
🔹सीखने का नियम

⚜️ सहज परिपक्वता का नियम➖ कुछ चीजें उम्र बढ़ने के साथ ही अर्थात शारीरिक व मानसिक परिपक्वता उम्र बढ़ने के साथ खुद-ब-खुद आ जाती है ।
⚜️सीखने का नियम ➖कुछ चीजें ऐसी होती हैं जिन्हें हम सीखते हैं तभी आती हैं अन्यथा नहीं।

यह दोनों ही महत्वपूर्ण है।
✳️कुछ चीजें ऐसी है जो सहज परिपक्वता से आती है लेकिन हम उनको सीखने के नियम से जल्दी सीखना चाहते हैं जिससे कुछ ना कुछ परेशानी या कनफ्लिक्ट आते ही आते हैं।

✳️कई बार कुछ बच्चे जो शारीरिक क्षमता 20 से 22 वर्ष की उम्र में जो प्राप्त करनी चाहिए वह अब सीखने के नियम की मदद से 11 से 12 वर्ष की उम्र में ही प्राप्त कर लेते हैं ।

✳️सहज परिपक्वता बहुत महत्वपूर्ण होती है जिसे हम ज्यादा प्रायिकता या वेल्यू नहीं देते सीखने के नियम के साथ-साथ सहज परिपक्वता का होना भी बहुत जरूरी है।
अर्थात कुछ चीजें हमारे अंदर स्वत: या सहज या ऑटोमेटिक रूप से हमारे अंदर आते हैं और कुछ चीजों को हम सीखने के माध्यम से विचार करके अपने अंदर लाते हैं।

✳️यदि हम बच्चे को जल्दी-जल्दी विकसित करने के लिए कई बार जल्दी-जल्दी कुछ भी सीखा देते हैं अर्थात बालक के समुचित विकास के लिए हमें जल्दी-जल्दी कुछ भी नहीं सिखाना चाहिए।

✳️किसी भी काम को कितनी या उचित मात्रा में करना है यह अत्यंत महत्वपूर्ण है लेकिन जब हम अपनी क्षमता से अधिक मात्रा में किसी भी कार्य को कर तो लेते हैं लेकिन उस कार्य को पूरा करने की जो समझ है वह समझ का प्रभाव ज्यादा महत्वपूर्ण या असरदार नहीं होता या अभाव रहता है।

✳️प्रत्येक कार्य को करने का एक निश्चित क्रम या चरण होता है यदि कार्य को क्रमानुसार या एक के बाद एक सही रूप से किया जाए तो कार्य सफल होता है तथा साथ ही उस कार्य की समझ भी असरदार या प्रभावी और महत्वपूर्ण होती है।

✳️कई बार हम एक समय में एक से अधिक कार्य कर लेते हैं लेकिन कार्य तो हो जाता है लेकिन वास्तविक रूप से इसका विपक्ष देखा जाए तो हमें किसी भी क्षेत्र में कोई भी विशिष्टता या मुख्यता हासिल नहीं हो पाती।
✳️ दुनिया में हर प्राणी हर चीज हर कार्य में निपुण नहीं हो सकता हर व्यक्ति की किसी ना किसी कोई एक कार्य में विशिष्टता निश्चित होती है।
✳️ जब हम किसी कार्य को जल्दी सफल रूप से पूरा करना चाहते हैं और उस कार्य में असफल हो जाते हैं जिससे हमें निराशा होती है तो परिणाम स्वरूप हम दूसरे कार्य को करने लग जाते हैं यदि हम जो कार्य कर रहे हैं उसको पूरी लगन ,धैर्य और मेहनत से किया जाए तो निश्चित ही उस कार्य में सफलता प्राप्त होती है।

✳️सीखना कोई यांत्रिक कार्य नहीं है जो लगातार चलता ही रहेगा। सीखना एक ऐसी चीज है यदि हम सीखने के दौरान सहज नहीं है तो कभी भी नहीं सीख पाएंगे।
मस्तिष्क कोई यांत्रिक वस्तु नहीं है उसकी कुछ सीमाएं हैं।

✳️सीखने का कार्य तभी अच्छा होगा जब हम सहज रूप से कार्य को सीखेंगे यदि हम असहज रूप से कार्य को कर भी लेते हैं तो वह कार्य को केवल अपनी स्मृति में रख पाएंगे बल्कि उससे कुछ सीख नहीं पाएंगे।

✳️जब कोई बात या कार्य हमारे जैसी यह हमारे अनुकूलित होती हैं तभी वह बात बेहतर रूप से समझ आती है।

✳️बालक जब सहज रूप से अपनी सभी मानसिक अवस्थाएं पार करता है तभी वह स्वस्थ व योग्य नागरिक बन पाता है ।
ना तो कोई व्यक्ति एकाएक बुद्धिमान बनता है और ना ही एकाएक परोपकारी।
बल्कि बुद्धि अनुभव के साथ बढ़ती है और अनुभव को सहज वातावरण में ही प्राप्त किया जाता है।

✳️सीखने का नियम भी तभी कार्य करेगा जब उसमें सहज परिपक्वता का नियम का समर्थन होगा या उस कार्य के लिए अनुकूलित होगा।

✳️पहले व्यक्ति में न्यून या निम्न कोटि की इच्छाएं जागृत होती है और जब इन इच्छाओं की समुचित रूप से तृप्ति या संतुष्टि हो जाती है तब जाकर ही उच्च कोटि की इच्छाओं का प्रादुर्भाव या जन्म या उद्गम या शुरुआत होती है।
✳️हर व्यक्ति की इच्छा हो कभी समाप्त नहीं होती एक छोटी या निम्न कोटि की इच्छा की पूर्ति होने पर आगे की इच्छाएं जन्म लेते हैं यह इच्छाएं जीवनपर्यंत चलती रहती है
✳️ यह मानसिक परिपक्वता के नियम के अनुसार है इसी प्रकार से चरित्र में स्थाई गुणों का विकास होता है।

✳️किशोरावस्था बचपन या बाल्यवस्था और युवावस्था के बीच का परिवर्तन काल है जिसको मानव जीवन की एक पृथक अवस्था के रूप में मान्यता केवल बीसवीं शताब्दी में मिल पाई है ।
पहले हजारों सालों तक बचपन – युवावस्था – बुढ़ापा। इन्हीं तीन अवस्थाओं से गुजरते थे ।

✳️ग्रामीण संस्कृति की यह वास्तविकता भी थी कि परिवार को चलाना या कमाने के संदर्भ में व्यक्ति पारिवारिक जिम्मेदारियों को पूरा करने में सीधे ही प्रौढ़ावस्था में कहा जाता था अर्थात बचपन से सीधे प्रौढ़ावस्था में आते थे।

✳️कई पूर्व समय में बच्चे अपने माता पिता के साथ कामों में हाथ बटाते थे और जैसे ही बचपन को पार कर लेते थे तो उनका विवाह करा दिया जाता था और वह अपनी जिम्मेदारी को संभालने के लिए बाध्य किया जाता था ।

✳️अब कई नई सामाजिक और आर्थिक धारणा की वजह से काफी परिवर्तन हुआ है।

❇️ बीसवीं शताब्दी से पूर्व – 🔸
कई कु प्रथाएं जैसे बाल विवाह, जल्दी-जल्दी या कम उम्र में बड़ी बड़ी जिम्मेदारी लेना, किशोरावस्था जैसी कोई अवस्था ना हो या बच्चे सीधे ही बचपन को पार करके प्रौढ़ावस्था की ओर बढ़ते थे।

🔸कई बच्चों का बाल विवाह करा दिया जाता था जिससे विवाहित बालक बालिका केवल जिम्मेदारियों को या कार्य को लेकर ही प्रौढ़ होते थे ना कि शारीरिक रूप से।

❇️ बीसवीं शताब्दी के पश्चात –
🔸कई परिवर्तन हुए बच्चे में जिम्मेदारी देरी से आती है लेकिन बच्चे का मानसिक विकास केवल जिम्मेदारियां कार्य को लेकर ही प्रौढ नहीं होता बल्कि साथ ही हार्मोनल परिवर्तन व शारीरिक परिवर्तन के साथ साथ प्रौढ़ होता है।

✳️कभी कभी देखा जाता है कि व्यक्ति का शरीर तो समयानुसार परिपक्व या हार्मोन परिवर्तन हो जाता है लेकिन वह मानसिक रूप से अपने आप को परिपक्व नहीं मानते हैं और इस परिपक्वता को प्राप्त करने की देरी में विवाह जैसे कार्य भी देरी से या कभी नहीं भी करते हैं।

✳️जब यह माना जाता है कि मानसिक रूप से तैयार नहीं है तो ऐसा नहीं है कि शारीरिक विकास या हार्मोन परिवर्तन में भी देरी होगी वह निरंतर या समय अनुसार चलता ही रहेगा शारीरिक परिवर्तन या हार्मोनल परिवर्तन में कोई बदलाव नहीं किया जा सकता बल्कि अपने कार्य को अभिप्रेरित रूप से सही दिशा, सही समय ,सही रूप व सही ढंग से जरूर किया जा सकता है।

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➖Notes By-Vaishali Mishra

🔆 किशोरावस्था शिक्षा की महत्वपूर्ण विशेषताएं ➖

बालक का जीवन दो महत्वपूर्ण नियमों से परिपक्व होता है —-

1) सहज परिपक्वता का नियम

2) सीखने का नियम

बालक के समुचित विकास के लिए उसे जल्दी-जल्दी कुछ भी सिखा नहीं देना चाहिए अन्यथा जो भी सीखा हुआ है वह भी अच्छे से प्रयोग नहीं कर पाएगा और उसे भी नहीं सीख पाएगा |

सीखने का कार्य अच्छा तभी होता है जब वह सहज रूप से होता है यदि हम किसी कार्य को सीखने में सहज नहीं है तो वह सीखने में योगदान नहीं दे सकता है बालक जब सहज रूप से अपनी सभी मानसिक अवस्थाएँ पार करता है तभी वह स्वस्थ और योग्य नागरिक बन पाता है अन्यथा वह योग्य नागरिक नहीं बन सकता है |

ना तो कोई व्यक्ति एकाएक बुद्धिमान बनता है ना तो परोपकारी |
हमारी अथवा बच्चों की बुद्धि अनुभव के साथ बढ़ती है |

जैसे यदि किसी बच्चे को यह बताया जाता है कि आग से खतरा है तब वह आग से नहीं डरता है लेकिन यदि उसका हाथ आग से जल जाता है तो वह समझ जाता है कि आग से खतरा है क्योंकि उसने यह स्वयं अनुभव किया है |

किशोरावस्था के बच्चों में पहले न्यूनकोटि की इच्छा जागृत होती है जिनकी समुचित रूप से तृप्ति या पूर्ति हो जाती है तब जाकर उच्च कोटि की इच्छाओं का प्रादुर्भाव होता है |
जैसे किसी व्यक्ति को पहले साइकिल चाहिए जब उसके बाद साइकिल आ जाती है तब वह मोटरसाइकिल की इच्छा और जब मोटरसाइकिल की इच्छा पूरी हो जाती है वह कार की इच्छा करता है यदि इस प्रकार बच्चों की जो इच्छाएं हैं वे कभी खत्म नहीं होती है नियमित रूप से बढ़ती जाती है बच्चों की निम्न कोटि की इच्छाएं पूरी हो जाती है तभी उनमें उच्च कोटि की इच्छाओं का जन्म होता है |

इन सभी इच्छाओं का जागृत होना मानसिक परिपक्वता के नियम के अनुसार है इसी प्रकार से चरित्र में स्थाई गुणों का विकास होता है |

किशोरावस्था बचपन और युवावस्था के बीच का परिवर्तन काल है जिसको मानव जीवन की एक पृथक अवस्था के रूप में मान्यता केवल बीसवीं शताब्दी में मिल पाई है |

बीसवीं शताब्दी पहले समाज में कुप्रथा थे जिसको बाल विवाह के नाम से जाना जाता है जिसमें बच्चों को समय से पहले प्रौढ़ बनाया जाता था |

उस समय बचपन अवस्था , प्रौढ़ और बुढापा ही होता था|

जिसमें बीसवीं शताब्दी से कुछ परिवर्तन हुआ और किशोरावस्था का जन्म हुआ |

🍀 बीसवीं शताब्दी से पहले बाल विवाह करके जिम्मेदारियों का बोझ डाला जाता था |
और किशोरावस्था जैसा कोई कॉन्सेप्ट नहीं था जिसमें बच्चे बचपन से सीधी प्रौढ़ होते थे |
लेकिन जब बच्चों के बालविवाह में परिवर्तन हुआ और उस प्रथा का विनाश किया गया तथा जिम्मेदारियों का बोझ भी बच्चे के सिर से कम हो गया नई सामाजिक और आर्थिक बदलाव की वजह से समाज में काफी परिवर्तन हुआ है शिक्षा और रोजगार की खोज में भी लोगों में जागरूकता का विकास हुआ |

जिनका सीधा प्रभाव बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास दोनों पर पड़ता है यदि बच्चा अपने माता पिता के साथ नहीं है तो उसका बाहरी वातावरण श्रसे संपर्क होना निश्चित है जिसका प्रभाव बच्चे के भावी जीवन के लिए हानिकारक हो सकता है |

नोट्स बाय➖ रश्मि सावले

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किशोरावस्था की शिक्षा की महत्वपूर्ण विशेषताएं

बालक का जीवन दो महत्वपूर्ण नियमों से परिपक्व होता हैं

  1. सहज परिपक्वता का
  2. सीखने का नियम

बालक की समुचित विकास के लिए हमें उसे जल्दी-जल्दी कुछ भी नहीं सिखाना चाहिए।
जैसे कई बार ऐसा होता है बालक या बालक के माता-पिता बालको से कम उम्र में यह अपेक्षा करने लग जाते हैं कि उनके बालक इतने परिपक्व हो गए हैं कि मोटरसाइकिल चला सकते हैं लेकिन वह बालक मानसिक रूप से तो परिपक्व हो जाता है लेकिन शारीरिक रूप से परिपक्व नहीं हो पाता है। और वह मोटरसाइकिल चलाना सीखते समय दुर्घटनाग्रस्त हो जाते।

सीखने का कार्य अच्छा तभी होता है जब वह सहज रूप से होता है।
जैसे कि जब हमें भूख लगती हैं तो हम सहज रूप से खाना खाते हैं लेकिन जब हमें भूख नहीं लग रही होती हैं और हमें जबरदस्ती खिलाया जाए तो वह हमारे पेट में अपच करेगा।

बालक सहज रूप से अपनी मानसिक अवस्थाएं पार करता है तभी वह स्वस्थ और योग्य के नागरिक बन पाता है।

ना तो कोई व्यक्ति एकाएक बुद्धिमान होता है ना तो परोपकारी।
हमारी अथवा बच्चे की बुद्धि भी अनुभव के साथ बढ़ती हैं।
उसकी बुद्धि अनुभव के साथ बढ़ती है पहले न्यून कोटि की इच्छा जागृत होती है जब बाद में इनकी समुचित रूप से तृप्ति होती है तब उच्च कोटि की इच्छा का प्रादुर्भाव या उत्पन्न होती है।
जैसे जब हम पहली बार किसी कार्य को करते हैं तो उस कार्य को हम बहुत ही सतर्कता के साथ करते हैं लेकिन जब हम उसी कार्य को दोबारा करते हैं तो पहले हुआ अनुभव हमारे काम आता है और हम उस कार्य को पहले की तुलना में जल्दी और आसानी से कर लेते हैं।
ऐसे ही जब किसी छोटे कार्य में सफलता हासिल कर लेते हैं तो हम और दूसरे बड़े कार्यों को करने का प्रयास करते हैं।

यह मानसिक परिपक्वता के नियम के अनुसार है।

इसी प्रकार से चरित्र में स्थायी गुणों का विकास होता है।

किशोरावस्था, बचपन और युवावस्था के बीच का परिवर्तन काल है जिसको मानव जीवन की एक पृथक अवस्था के रूप में मान्यता केवल बीसवीं शताब्दी में मिल पाई।
नई सामाजिक और आर्थिक धारणा की वजह से काफी परिवर्तन हुआ है।
बीसवीं शताब्दी से पहले बचपन, युवावस्था, बुढ़ापा आदि अवस्थाएं चलती थी लेकिन किशोरावस्था की अवधारणा या संप्रत्यय नहीं थी। उस समय बाल विवाह जैसी कुप्रथाएं प्रचलित थी। जिसके कारण बालकों का विवाह कम उम्र में हो जाता था तो उनको जल्दी जिम्मेदारी आ जाती थी इसके कारण वह बचपन से सीधे प्रौढ़ हो जाते थे। वह जिम्मेदारी के कारण मानसिक रूप से तो परिपक्व हो जाते थे लेकिन शारीरिक रूप से परिपक्व नहीं हो पाते थे। शारीरिक परिपक्वता उनमें बाद में आती थी। हार्मोनल परिवर्तन बाद में होते थे।
बीसवीं शताब्दी के बाद किशोरावस्था की अवधारणा या संप्रत्यय आया । अब बाल विवाह जैसी कुप्रथाए समाप्त हो गई है जिससे बाल को पर जिम्मेदारी थोड़ी देरी से आती है।
लेकिन हार्मोनल परिवर्तन पहले हो जाते हैं और मानसिक परिपक्वता बाद में आती है।

इस समय बालक शिक्षा और रोजगार की खोज में पलायन करते हैं।

Notes by Ravi kushwah

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