लैंगिक भेदभाव । Gender discrimination in Hindi

लैंगिक भेदभाव या लैंगिक असमानता समाज की वो कुरीति है जिसकी वजह से महिलाएं उस सामाजिक दर्जे से हमेशा वंचित रही जो दर्जा पुरुष वर्ग को प्राप्त है।

आज ये एक ज्वलंत मुद्दा है। इस लेख में लैंगिक भेदभाव (Gender discrimination) पर सरल और सहज चर्चा करेंगे एवं इसके विभिन्न महत्वपूर्ण पहलुओं को समझने का प्रयास करेंगे।

लैंगिक भेदभाव क्या है?

स्त्री-पुरुष मानव समाज की आधारशिला है। किसी एक के अभाव में समाज की कल्पना नहीं की जा सकती, लेकिन इसके बावजूद लैंगिक भेदभाव एक सामाजिक यथार्थ है। लैंगिक भेदभाव से आशय लैंगिक आधार पर महिलाओं के साथ भेदभाव से है, जहां स्त्रियों को पुरुषों के समान अवसर नहीं मिलता है और न ही समान व्यवहार। स्त्रियों को एक कमजोर वर्ग के रूप में देखा जाता है और उसे शोषित और अपमानित किया जाता है। इस रूप में स्त्रियों के साथ भेदभाव पूर्ण व्यवहार को लैंगिक भेदभाव (gender discrimination) कहा जाता है।

लैंगिक भेदभाव की शुरुआत कहाँ से होती है?

इसकी शुरुआत परिवार से ही समाजीकरण (Socialization) के क्रम में प्रारंभ होती है, जो आगे चलकर पोस्ट होती जाती है। परिवार  मानव की सबसे बड़ी उपलब्धियों में से एक है। यह समाज का आधारशिला है। समाज में जितने भी छोटे-बड़े संगठन हैं, उनमें परिवार का महत्व सबसे अधिक है यह मानव की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति से संबंधित है।

व्यक्ति जन्म से जैविकीय प्राणी होता है और जन्म से ही लिंगों के बीच कुछ विशेष भिन्नताओं  को स्थापित और पुष्ट करती है। बचपन से ही लड़कों व लड़कियों के लिंग-भेद के अनुरूप व्यवहार करना, कपड़ा पहनना एवं खेलने के ढंग आदि सिखाया जाता है। यह प्रशिक्षण निरंतर चलता रहता है, फिर जरूरत पड़ने पर लिंग अनुरूप सांचे में डालने  के लिए बाध्य किया जाता है तथा यदा-कदा सजा भी दी जाती है।

बालक व बालिकाओं के खेल व खिलौने इस तरह से भिन्न होते हैं कि समाज द्वारा परिभाषित नर-नारी के धारणा के अनुरूप ही उनका विकास हो सके। सौंदर्य के प्रति अभिरुचि  की आधारशिला भी बाल्यकाल  से ही लड़की के मन में अंकित कर दी जाती है, इस प्रक्रिया में बालिका के संदर्भ में सौंदर्य को बुद्धि की तुलना में प्राथमिकता दी जाती है। कहने का अर्थ ये है कि जहां समाज में लड़कों के बौद्धिक क्षमताओं को प्राथमिकता दी जाती है वहीं लड़कियों के बौद्धिक क्षमताओं को दोयम दर्जे का समझ जाता है।

समाज द्वारा स्थापित ऐसी अनेक संस्थाएं या व्यवस्थाएं हैं जो नारी की प्रस्थिति को निम्न बनाने में सहायक होती है, जैसे कि –

(1) पितृ-सतात्मक समाज (Patriarchal society)

पितृ-सतात्मक भारतीय समाज आज भी महिलाओं की क्षमताओं को लेकर, उनकी आत्म-निर्भरता के सवाल पर पूर्वाग्रहों से ग्रसित है। स्त्री की कार्यक्षमता और कार्यदक्षता को लेकर तो वह इस कदर ससंकित है कि नवाचार को लेकर उनके किसी भी प्रयास को हतोत्साहित करता दिखता है।

देश में आम से लेकर ख़ास व्यक्ति तक लगभग सभी में यह दृष्टिकोण व्याप्त है कि स्त्री का दायरा घर की चारदीवारी तक ही होनी चाहिए। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि स्त्रियों की लिंग-भेद आधारित काम एवं अधीनता जैसी असमानता जैविक नहीं बल्कि सामाजिक – सांस्कृतिक मूल्यों, विचारधाराओं और संस्थाओं की देन है।

आज सामाजिक असमानता एक सार्वभौमिक तथ्य है और यह प्रायः सभी समाजों की विशेषता रही है भारत की तो यह एक प्रमुख समस्या है। यहाँ जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में जितनी सुविधाएं एवं स्वतंत्रता पुरुषों को प्राप्त है उतनी स्त्रियों को नहीं। इस बात की पुष्टि विश्व आर्थिक मंच द्वारा जारी 15वीं वैश्विक लैंगिक असमानता सूचकांक 2021 की रिपोर्ट से हो जाती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत 156 देशों की सूची में 140वें स्थान पर है। भारत की स्थिति इस मामले में कितनी ख़राब है इसका पता इससे चलता है कि नेपाल, भूटान, बांग्लादेश और श्रीलंका भी भारत से अच्छी स्थिति में है।

(2) लड़का और लड़की के शिक्षा में अंतर

यदि हम भारत में लड़कियों की शिक्षा की बात करें तो स्वतंत्रता के बाद अवश्य ही लड़कियों की साक्षरता दर बढ़ी है, लेकिन लड़कियों को शिक्षा दिलाने में वह उत्साह नहीं देखी जाती है। भारतीय परिवार में लड़के की शिक्षा पर धन व्यय करने की प्रवृति है क्योंकि वे सोचते है कि ऐसा करने से ‘धन’ घर में ही रहेगा

जबकि बालिकाओं के शिक्षा के बारे में उनके माता–पिता की यह सोच है कि उन्हें शिक्षित करके आर्थिक रूप से हानि ही होगी क्योंकि बेटी तो एक दिन चली जाएगी। शायद इसीलिए भारत में महिला साक्षरता की दर पुरुषों की अपेक्षा इतनी कम है:

सन् 1991 की जनगणना के अनुसार महिला साक्षरता की दर 32 प्रतिशत एवं पुरुष साक्षरता 53 प्रतिशत थी। 2001 की जनगणना के अनुसार पुरुष साक्षरता 76 प्रतिशत थी तो महिलाओं की साक्षरता 54 प्रतिशत थी। 2011 की जनगणना के अनुसार पुरुष साक्षरता 82.14 प्रतिशत है एवं महिला साक्षरता 65.46 प्रतिशत है। जिनमें आन्ध्र-प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश में स्त्री पुरुष साक्षरता में 25 प्रतिशत का अंतर हैं।

इस सब के बावजूद भी जो लडकियाँ आत्मविश्वास से शिक्षित होने में सफल हो जाती है और पुरुषों के समक्ष अपना विकास करना चाहती है, उन्हें पुरुषों के समाज में उचित सम्मान तक नहीं मिलता है। यहाँ तक कि नौकरियों में महिला कर्मचारियों को पुरुषों के मुकाबले कम वेतन मिलता है। इस बात की पुष्टि लिंक्डइन अपार्च्युनिटी सर्वे-2021 से होती है। इस सर्वे के अनुसार देश की 37 प्रतिशत महिलाएं मानती हैं कि उन्हें पुरुषों की तुलना में कम वेतन मिलता है, जबकि 22 प्रतिशत महिलाओं का कहना है कि उन्हें पुरुषों की तुलना में वरीयता नहीं दी जाती है।

लड़कियों के प्रति किया जाने वाला यह भेदभाव बचपन से लेकर बुढ़ापे तक चलता है। शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में यह भेदभाव अधिक देखने को मिलता हैं। अनुमान है की भारत में हर छठी महिला की मृत्यु लैंगिक भेदभाव के कारण होती हैं।

(3) लैंगिक भेदभाव को प्रोत्साहन देने वाली मानसिकता

अनेक पुरुष-प्रधान परिवारों में लड़की को जन्म देने पर माँ को प्रतारित किया जाता हैं। पुत्र प्राप्ति के चक्कर में उसे बार-बार गर्भ धारण करना पड़ता हैं और मादा भ्रूण होने पर गर्भपात करना पड़ता हैं। यह सिलसिला वर्षो तक चलता रहता है चाहे महिला की जान ही क्यों न चला जाए। यही कारण है जिससे प्रति हज़ार पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या हमेशा कम रही है।

जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि 1901 में प्रति हजार पुरुषों पर 972 औरतें थी। 1951 में औरतों की संख्या प्रति हजार 946 हो गई, जो कि 1991 तक आते-आते सिर्फ 927 रह गई। सन् 2001 की जनगणना की रिपोर्टों के अनुसार यह संख्या 933 हुई और 2011 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार ये 940 तक पहुंची है।

इस घटते हुए अनुपात का प्रमुख कारण समाज का नारी के प्रति बहुत ही संकीर्ण मानसिकता है। अधिकांश परिवार यह सोचते हैं की लड़कियां न तो बेटों के समान उनके वृद्धावस्था का सहारा बन सकती है और ना ही दहेज ला सकती है। इस प्रकार की मानसिकता वाले समाज में महिलाओं के लिए रहना कितना दुष्कर होगा; ये सोचने वाली बात है।

(4) लैंगिक भेदभाव के अन्य कारक

▪️ वैधानिक स्तर पर पिता की संपत्ति पर महिलाओं का पुरुषों के समान ही अधिकार है लेकिन आज भी भारत में व्यावहारिक स्तर पर पारिवारिक संपत्ति में महिलाओं के हक़ को नकार दिया जाता है।

▪️ राजनैतिक भागीदारी के मामलों में अगर पंचायती राज व्यवस्था को छोड़ दें तो उच्च वैधानिक संस्थाओं में महिलाओं के लिये किसी प्रकार के आरक्षण की व्यवस्था नहीं है। संसद में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण का बिल अभी भी अधर में लटका हुआ है।

▪️ कुछ राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों जैसे कि मध्य प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश एवं चंडीगढ़ आदि को छोड़ दें तो वर्ष 2017-18 के आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (Periodic Labour Force Survey) के अनुसार, भारतीय अर्थव्यवस्था में महिला श्रम शक्ति (Labour Force) और कार्य सहभागिता (Work Participation) की दर में कमी आयी है।

▪️ महिलाओं के द्वारा किए गए कुछ कामों को सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में नहीं जोड़ा जाता है जैसे कि महिलाओं द्वारा परिवार के खेतों और घरों के भीतर किये गए अवैतनिक कार्य (जैसे खाना बनाना, बच्चे की देखभाल करना आदि)। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का एक अध्ययन बताता है कि अगर भारत में महिलाओं को श्रमबल में बराबरी मिल जाए तो GDP में 27 प्रतिशत तक का इजाफा हो सकता है।

लैंगिक भेदभाव को कैसे समाप्त किया जा सकता है?

▪️ कहने को तो लड़के और लड़कियाँ एक ही सिक्के के दो पहलू है पर लड़कियाँ सिक्के का वो पहलू है, जिन्हें दूसरे पहलू (लड़कों) द्वारा दबाकर रखा जाता हैं। समस्या की मूल जड़ इसी सोच के साथ जुड़ी है, जहां लड़कों को बचपन से यही सिखाया जाता है कि वे परिवार के भावी मुखिया हैं और लड़कियों को यह बताया जाता है कि वे तभी अच्छी मानी जाएंगी, जब वे हर स्थिति में पहली प्राथमिकता परिवार को देंगी।

‘प्रभुत्व’ का भाव पुरुषों के हिस्से और देखभाल का भाव स्त्री के हिस्से मान लिया जाता है। ये दोनों भाव पुरुष और स्त्री के व्यक्तित्व को ऐसे गढ़ देते हैं कि वे इस खोल से निकलने की कोशिश ही नहीं करते। इसके लिए पुरुष वर्ग को खुद आगे बढ़कर अपने प्रभुत्व के भाव को स्त्रियों के साथ साझा करना होगा और उन कामों को जिसे स्त्रियों का माना जाता है उसमें सहयोग करना होगा।

▪️ यूनीसेफ का कहना है कि घर व बाहर, दोनों जगह के कार्यों का दबाव स्त्रियों को शारीरिक और मानसिक रूप से बीमार कर रहा है, ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि – घर के काम में पुरुष सदस्य सहयोग करें, पिता का दायित्व सिर्फ आर्थिक दायित्वों की पूर्ति से ऊपर उठकर बच्चों की देखभाल तक हो। इससे समानता का भाव बढ़ेगा और स्त्री खुद को अन्य जरूरी कामों में संलग्न कर पाएगी।

▪️ भारतीय समाज में स्त्री को बड़े ही आदर्श रूप में प्रस्तुत किया गया है। देवियों के विभिन्न रूपों में सरस्वती, काली, लक्ष्मी, दुर्गा आदि का वर्णन मिलता है। यहाँ तक की भारत को भी भारतमाता के रूप में जाना जाता है। परन्तु व्यवहार में स्त्रियों को उचित सम्मान तक नहीं मिलता है। इसके लिए पुरुष वर्ग को अपनी मानसिकता में बदलाव लाना होगा ताकि वे स्त्रियों को उसी सम्मान और आदर के भाव से देखें जो वह खुद अपने लिए अपेक्षा करता है।

▪️ लड़कियों को उच्च शिक्षाकौशल विकासखेल कूद आदि में प्रोत्साहन देकर सशक्त बनाया जा सकता है। इसके लिए समाज को लड़कियों के प्रति अपनी धारणा व सोच बदलनी पड़ेगी और सरकार को भी उचित कानून बनाकर या जागरूकता या निवेश के जरिये महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देना होगा।

▪️ चूंकि लड़कियों को शुरू से ही काफी असमानताओं का सामना करना पड़ता है इसीलिए हमें लड़कियों को एक प्लैटफ़ार्म देना होगा जहाँ वे अपनी चुनौतियों को साझा कर सके, अपने लिए एक सही विकल्प तलाश कर सकें और अपने वैधानिक अधिकार, कर्तव्य एवं शक्तियों को पहचान सकें।

लैंगिक असमानता को समाप्त करने के लिए किया जा रहा प्रयास

▪️ बालिकाओं के संरक्षण और सशक्तिकरण के उद्देश्य से जनवरी 2015 में ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान की शुरुआत की गई। जो कि बेटियों के अस्तित्व को बचाने एवं उसका संरक्षण करने की दिशा में बहुत बड़ा कदम माना जाता है। इसके साथ ही वन स्टॉप सेंटर योजना’, ‘महिला हेल्पलाइन योजना’ और ‘महिला शक्ति केंद्र’ जैसी योजनाओं के द्वारा महिला सशक्तीकरण का सरकारी प्रयास सराहनीय है।

▪️ सरकारी योजनाओं का लाभ सीधे महिलाओं तक पहुंचे इसके लिए जेंडर बजटिंग का चलन बढ़ रहा है। दरअसल जब किसी देश के बजट में महिला सशक्तीकरण के लिए अलग से धन आवंटित किया जाये तो उसे जेंडर बजटिंग कहा जाता है।

▪️ यूनिसेफ इंडिया द्वारा लैंगिक समानता स्थापित करने की दिशा में काफी कुछ किया जा रहा है। इसके लिए देश में 2018-2022 तक चलने वाले कार्यक्रम का निर्माण किया गया है जिसके तहत लिंग आधारित असमानता एवं विकृत्यों को चिन्हित कर उसका उन्मूलन करने का प्रयास किया जाएगा।

कुल मिलाकर लैंगिक भेदभाव को मिटाने के लिए काफी कुछ किया गया है और काफी कुछ अभी भी किए जाने की जरूरत है। खासकर के समान वेतन, मातृत्व, उद्यमिता, संपत्ति और पेंशन जैसे मामलों में लैंगिक भेदभाव को खत्म करने के लिए आगे कड़े प्रयत्न करने होंगे। महिलाओं में आत्मविश्वास और स्वाभिमान का भाव पैदा हो इसके लिए पुरुषों के समान अधिकार और आर्थिक स्वतंत्रता को सुदृढ़ करना होगा।

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